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एने भान नथी के आ सुगंध क्यांथी आवे छे; तेथी ते बहार दोट मूके छे. तेम भगवान आत्मा सच्चिदानंद प्रभु एकला ज्ञान अने आनंदना स्वभावथी भर्यो पडयो छे. स्व-परने जाणवानो एनो स्वभाव छे. आवा पोताना स्वरूपनुं भान कर्या विना, अज्ञानमय भावना कारणे एने राग अने जडकर्मना बंधनी परंपरा चाली आवे छे. अरे! आवुं (दुर्लभ) मनुष्यपणुं मळवा छतां पोताना स्वरूपनी खबर न करे तो ‘मनुष्यरुपेण मृगाश्चरन्ति’ -ए उक्ति अनुसार ते मनुष्यना देहमां मृग ज (पशु ज) छे; अज्ञानभावना कारणे तेने राग अने कर्मना संबंधरूप बंध थाय छे. आ प्रमाणे भावबंध अने द्रव्यबंध बन्ने तेने थाय छे, अने ते चारगतिमां रझळी मरे छे. आवी वात छे भाई!
कहे छे-आवो अज्ञाननो कोई गहन महिमा स्फुरायमान छे. अहा! पोते जाणवा- देखवाना स्वभाववाळी त्रिकाळ विद्यमान वस्तु छे तोपण तेने जाणतो नथी अने रागने, पर्यायने, एक अंशने पोतापणे जाणे छे ते अज्ञान छे. ते अज्ञान वडे एने नवो बंध थया करे छे. आवो अज्ञाननो महिमा गहन छे.
‘जेनुं ज्ञान सर्व ज्ञेयोमां व्यापनारुं छे एवो आ जीव शुद्धनयथी परद्रव्यनो कर्ता नथी, तोपण तेने कर्मनो बंध थाय छे ते कोई अज्ञाननो गहन महिमा छे-जेनो पार पमातो नथी.’
आत्मा ज्ञानस्वरूप छे. जाणवुं ए एनो स्वभाव छे. ज्ञान एटले आ दाकतरी ने वकीलातनुं ज्ञान ते ज्ञान एम नहि; ए तो बधुं अज्ञान छे. रोजना दस हजार कमाय एवी बुद्धि होय तोय ए ज्ञान नथी, अज्ञान छे. वळी शास्त्रोनुं भणतर होय एय ज्ञान नथी, केमके ए बधुं परलक्षी ज्ञान छे अने एकलुं परलक्षी ज्ञान छे ए बधुं अज्ञान छे. पण पोताना ज्ञानस्वरूपी आनंदना नाथने अंतरमां ढळेली ज्ञाननी पर्यायमां जाणे के- ‘आ हुं छुं’ -एनुं नाम ज्ञान छे. त्यां ज्ञाननी दशामां पूरी दशावान चीज पोतानी आवी जाय एम नहि, पण पूर्ण ज्ञायकस्वभावी वस्तु हुं आ छुं एम एना पूरण सामर्थ्यना ज्ञान अने प्रतीति आवी जाय छे. जेमां स्वज्ञेयनुं भान थाय ते ज्ञान छे.
ज्ञान लोकालोकमां व्यापनारुं छे एटले शुं? एटले लोकालोकमां ज्ञान (ज्ञानना प्रदेशो) जाय छे एम नहि, पण लोकालोकने भगवान आत्मा पोताना ज्ञानमां जाणी ले छे एवुं एनुं स्वपर प्रकाशक स्वरूप छे.
आत्मा वस्तु छे. एटले शुं? के जेमां ज्ञान, दर्शन, आनंद इत्यादि अनंत गुण तद्रूपपणे-एकरूपपणे वसेला छे एवुं अनंत गुणनुं वास्तु-घर भगवान आत्मा
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छे. आवा निजघरना महिमानी प्रतीति करवी ते सम्यग्दर्शन छे, तेनुं ज्ञान ते ज्ञान छे अने तेमां निवास करवो ते चारित्र नाम धर्म छे. बाकी जे शुभाशुभ विकारना परिणाम छे ते बधो अंधकार छे केमके चैतन्यना प्रकाशनो तेमां अभाव छे. दया, दान, व्रत आदिनो राग छे ते अंधकार छे भाई! केमके तेमां चैतन्यनो प्रकाश नथी.
शुद्धनयथी एटले के स्वभावनी द्रष्टिथी जुओ तो दया, दान आदिना विकल्प जे उठे तेनो भगवान आत्मा कर्ता नथी. परद्रव्यने तो न करे पण परद्रव्यना लक्षे जे शुभाशुभ विकल्प थाय तेनोय ए वास्तवमां कर्ता नथी, केमके आत्मा तो शुद्ध ज्ञाता- द्रष्टास्वभावी छे. अहाहा...! आत्मा एकला चैतन्यना प्रकाशना नूरनुं पूर छे. तेनां ज्ञान अने प्रतीति जे करतो नथी ते जीवने अज्ञानना कारणे राग अने जडकर्मनो संबंध थाय छे, अने ए रीते तेने चारगतिमां परिभ्रमण थाय छे.
अरे! एने पोतानी ज्ञानानंदस्वभावी चीजनो कदी महिमा आव्यो नहि! अहीं कहे छे-पोते शुद्ध ज्ञाता-द्रष्टास्वभावी होवा छतां तेने जे कर्मनो बंध थाय छे ते अज्ञाननो कोई गहन महिमा छे-जेनो पार पामी शकातो नथी. एटले शुं? के स्वस्वरूपनुं भान कर्या विना बीजी कोई रीते अज्ञाननो अंत लावी शकातो नथी. अज्ञानमां रहीने अज्ञाननो पार पामी शकातो नथी. ज्यारे चिदानंदघन प्रभु आत्मानुं ज्ञान अने अनुभव थाय छे त्यारे ज्ञानभाव थतां बंध थतो नथी, अने त्यारे तेने परिभ्रमण पण रहेतुं नथी अर्थात् संसारनो अंत-पार आवी जाय छे. आवो वीतरागनो मारग छे प्रभु!
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पयडी वि चेययट्ठं उप्पज्जइ विणस्सइ।। ३१२।।
एवं बंधो उ दोण्हं पि अण्णोण्णप्पच्चया हवे।
अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायदे।। ३१३।।
प्रकृतिरपि चेतकार्थमुत्पद्यते विनश्यति।। ३१२।।
आत्मनः प्रकृतेश्च संसारस्तेन जायते।। ३१३।।
हवे आ अज्ञानना महिमाने प्रगट करे छेः-
ने प्रकृति पण जीवना निमित्त ऊपजे विणसे; ३१२.
अन्योन्यना निमित्त ए रीत बंध बेउ तणो बने
–आत्मा अने प्रकृति तणो, संसार तेथी थाय छे. ३१३.
गाथार्थः– [चेतयिता तु] चेतक अर्थात् आत्मा [प्रकृत्यर्थम्] प्रकृतिना निमित्ते [उत्पद्यते] ऊपजे छे [विनश्यति] तथा विणसे छे, [प्रकृतिः अपि] अने प्रकृति पण [चेतकार्थम्] चेतकना अर्थात् आत्माना निमित्ते [उत्पद्यते] ऊपजे छे [विनश्यति] तथा विणसे छे. [एवं] ए रीते [अन्योन्यप्रत्ययात्] परस्पर निमित्तथी [द्वयोः अपि] बन्नेनो- [आत्मनः प्रकृतेः च] आत्मानो ने प्रकृतिनो- [बन्धः तु भवेत्] बंध थाय छे, [तेन] अने तेथी [संसारः] संसार [जायते] उत्पन्न थाय छे.
टीकाः– आ आत्मा, (तेने) अनादि संसारथी ज (परनां अने पोतानां जुदां जुदां) निश्चित स्वलक्षणोनुं ज्ञान (भेदज्ञान) नहि होवाने लीधे परना अने पोताना एकत्वनो अध्यास करवाथी कर्ता थयो थको, प्रकृतिना निमित्ते उत्पत्ति-विनाश पामे छे; प्रकृति पण आत्माना निमित्ते उत्पत्ति विनाश पामे छे (अर्थात् आत्माना परिणाम अनुसार परिणमे छे). ए रीते-जोके ते आत्मा अने प्रकृतिने कर्ताकर्मभावनो अभाव छे तोपण-परस्पर निमित्तनैमित्तिकभावथी बन्नेने बंध जोवामां
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आवे छे, तेथी संसार छे अने तेथी ज तेमने (आत्माने ने प्रकृतिने) कर्ताकर्मनो व्यवहार छे.
भावार्थः– आत्माने अने ज्ञानावरणादि कर्मनी प्रकृतिओने परमार्थे कर्ताकर्मपणानो अभाव छे तोपण परस्पर निमित्तनैमित्तिकभावने लीधे बंध थाय छे, तेथी संसार छे अने तेथी ज कर्ताकर्मपणानो व्यवहार छे.
हवे आ अज्ञानना महिमाने प्रगट करे छेः-
‘आ आत्मा (तेने) अनादि संसारथी ज (परनां अने पोतानां जुदां जुदां) निश्चित स्वलक्षणोनुं ज्ञान (भेदज्ञान) नहि होवाने लीधे परना अने पोताना एकत्वनो अध्यास करवाथी कर्ता थयो थको, प्रकृतिना निमित्ते उत्पत्ति-विनाश पामे छे;......’
अहाहा....! आ आत्मा अंदरमां अनंतगुणथी भरेलो भगवान छे. पण अरे! एने अनादि संसारथी ज स्व अने परनां भिन्न भिन्न सुनिश्चित स्वलक्षणोनुं ज्ञान नथी. पोतानो तो एक चैतन्य.. चैतन्य.. चैतन्य स्वभाव छे, अने रागादि विभाव छे ए तो जड प्रकृतिना लक्षे थयेलो जड अचेतन भाव छे. आम स्व-परनी-स्वभाव-विभावनी प्रगट भिन्नता छे. पण ए बन्नेनी भिन्नतानुं आने अनादिथी ज भेदज्ञान नथी. आवुं भेदज्ञान नहि होवाने लीधे ए स्व-परना एकपणानो अध्यास करीने विभावभावनो कर्ता थई प्रकृतिना निमित्ते उत्पत्ति-विनाश पामे छे.
भगवान आत्मा चैतन्यमूर्ति प्रभु त्रिकाळ ज्ञानानंदस्वभावी छे. अहा! तेम छतां ते विकृत रागादिभावोनो कर्ता केम थाय छे? तो कहे छे के त्रिकाळी शुद्धचैतन्य-स्वभाव अने वर्तमान मलिन विभाव-आ बे वच्चेनुं अनादिथी ज भेदज्ञान नहि होवाथी अज्ञानी जीव रागादि भावोनो कर्ता थाय छे. कर्मना कारणे कर्ता थाय छे एम नहि, पण स्व अने पर-एम बेउना एकपणाना अध्यासना कारणे अज्ञानी जीव क्षणिक विभाव परिणामोनो कर्ता थाय छे.
‘चेदा दु पयडीअठ्ठं उप्पज्जइ विणस्सइ’ चेतयिता अर्थात् आत्मा पोते कर्म- प्रकृतिने आधीन थईने उपजे छे तथा विणसे छे. अहा! निर्विकार चैतन्यलक्षण प्रभु पोते होवा छतां स्वभाव-विभावना भेदज्ञाननो अनादिथी ज अभाव होवाथी कर्म- प्रकृतिने आधीन थईने विकाररूपे उपजे छे अने विकाररूपे नाश पामे छे. बीजी रीते कहीए तो निर्विकार शुद्ध चैतन्यस्वभाव उपर द्रष्टि नहि होवाथी, कर्मना निमित्तने आधीन थईने विकारनो कर्ता थईने पोते परिणमे छे.
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पोताना शुद्ध एक ज्ञातास्वभावने आधीन थईने स्व-अवलंबने परिणमे तो जीव निर्विकारी थाय, एनी निर्मळ वीतरागी दशा प्रगट थाय. पण अरे! एने स्वभाव- विभावना एकपणानो अध्यास थई गयेलो छे. विकार मारो छे, हुं विकाररूप छुं-एम मानवानी तेने अनादिथी ज आदत पडी गयेली छे. तेथी स्व-स्वभावनी द्रष्टि रहित ते प्रकृति-कर्मना निमित्तने आधीन थईने रागादि विकारना कर्तापणे उपजे छे ने विणसे छे.
जुओ, प्रथम चार गाथामां जीवनुं अकर्तापणुं सिद्ध कर्युं. अहीं ते रागादिनो कर्ता केम थाय छे एनी वात करे छे. अहाहा...! आनंदनो नाथ निर्मळानंद चैतन्यमहाप्रभु पोते शुद्ध एक ज्ञायकस्वभावना आश्रये परिणमे ए तो मोक्षनुं कारण छे. परंतु स्वभावने छोडीने, प्रकृतिने आधीन थईने परिणमे ते विकारीभावनो कर्ता थई उपजे- विणसे छे. अहा! शुद्ध उपादाननी द्रष्टि विना निमित्तने-परवस्तुने आधीन थईने जे अशुद्ध उपादानरूप परिणमे छे ते अशुद्धतानो-रागादि अज्ञानमय परिणामोनो कर्ता थाय छे. आवी वात छे.
लोको दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा जात्रा आदि शुभरागना परिणामथी धर्म थवानुं माने छे पण ए मान्यता मिथ्या छे केमके एवी मान्यता तो राग साथे एकपणाना अध्यासवाळी छे. अहा! स्वभावनी रुचि अने स्वभाव तरफनो झुकाव नहि होवाथी अज्ञानी जीव प्रकृति-उदय प्रति झुकाव करीने विकारपणे (विकारना एकत्वपणे) परिणमे छे अने ते विकारनो कर्ता थाय छे. जो के रागनो कर्ता थाय एवो जीवनो स्वभाव नथी, तोपण राग साथे एकत्वबुद्धिना कारणे पोते रागनो कर्ता थाय छे. जे दीर्घ संसारनुं कारण छे.
जीवमां एक वैभाविक शक्ति छे. आ शक्ति त्रिकाळ छे. सिद्ध भगवानमां पण वैभाविक शक्ति छे. सिद्ध भगवान विभावरूपे परिणमता नथी. वैभाविक शक्ति जीव- पुद्गल बेमां छे, बाकीना चार द्रव्योमां नथी. जीव-पुद्गल बेमां छे माटे तेने वैभाविक शक्ति कहेल छे. वैभाविक शक्ति विकार करे एवो एनो अर्थ नथी. विभाव एटले विशेष भाव एम अर्थ छे. वैभाविक शक्ति ए आत्मानो स्वभाव छे. अहा! आवा निजस्वभावने नहि जाणतां पराधीन-निमित्ताधीन थई अज्ञानी जीव विकारनो कर्ता थाय छे.
जुओ, अहीं शुं कह्युं? के अज्ञानी विकारभावनो कर्ता थयो थको, प्रकृतिना निमित्ते उत्पत्ति-विनाश पामे छे. मतलब के अज्ञानी जीव पोते कर्ता थईने विकारभावे उपजे छे अने तेमां प्रकृति निमित्त छे. पण निमित्त एटले कर्ता एम अर्थ नथी. विकार प्रकृतिना निमित्ते थाय छे ए तो छे, पण प्रकृति जीवमां विकार करे-करावे
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छे एम नथी. सूक्ष्म वात छे भाई! प्रकृतिना निमित्तने पोते आधीन थईने विकार-पणे उपजे-विणसे छे, पण त्यां प्रकृति विकारभावने उत्पन्न के नाश करे छे एम नथी. विकारपणे उपजवुं-विणशवुं ते अज्ञानीनुं कार्य छे अने तेनो अज्ञानी कर्ता छे, एमां प्रकृतिनुं कांई कर्तव्य नथी; ए तो निमित्तमात्र छे बस. हवे कहे छे-
‘प्रकृति पण आत्माना निमित्ते उत्पत्ति-विनाश पामे छे (अर्थात् आत्माना परिणाम अनुसार परिणमे छे). ए रीते-जो के ते आत्मा अने प्रकृतिने कर्ताकर्मभावनो अभाव छे तोपण-परस्पर निमित्त-नैमित्तिक भावथी बन्नेने बंध जोवामां आवे छे, तेथी संसार छे अने तेथी ज तेमने (आत्माने ने प्रकृतिने) कर्ताकर्मनो व्यवहार छे.’
जुओ, जीव अने कर्मप्रकृतिने-एकबीजाने निमित्त-नैमित्तिक संबंध छे, पण कर्ताकर्म संबंध नथी. धीमेधीमे समजवुं भाई! आ तो वीतराग जैन परमेश्वरनो मार्ग छे बापु!
पहेलां कह्युं के अज्ञानी जीव रागनो कर्ता थयो थको प्रकृतिना निमित्ते उत्पति- विनाश पामे छे; हवे कहे छे- जड कर्मनी प्रकृति पण आत्माना निमित्ते उत्पति-विनाश पामे छे. एटले शुं? के प्रकृतिनो जे नवो बंध थाय छे तेमां आत्माना विकारना परिणाम निमित्त छे. आत्माना विकारना परिणाम कर्मप्रकृतिनो बंध करे छे एम नथी. जीवना विकारी परिणाम कर्ता अने जडकर्मनो जे बंध थाय ते एनुं कर्म एम त्रण काळमां नथी. जडकर्मनी प्रकृति बंधाय छे ए तो पोतानी पर्यायनी योग्यताथी बंधभावे थाय छे; तेमां आत्माना विकारी परिणाम निमित्त छे बस. जेम जीवने विकारी परिणाम थाय तेमां जुनां कर्मनो उदय निमित्त छे तेम नवी नवी कर्मप्रकृति बंधाय छे तेमां जीवना विकारी परिणाम मात्र निमित्त छे-बस आटली वात छे. एक बीजाने कर्ताकर्मभाव नथी, फकत निमित्त-नैमित्तिकभाव छे. अहो! दिगंबर संतो-केवळीना केडायतीओए केवळीनी दिव्यध्वनिमां आवेलां गंभीर रहस्यो जगत समक्ष केवी खूबीथी जाहेर कर्यां छे! बनारसी-विलासमां आवे छे ने के-
सो सत्यारथ शारदा तासु भक्ति उर आन,
छन्द भुजंग प्रयातमें अष्टक कहो बखान.’ - शारदाष्टक.
अहो! संतोए परमामृत रेलाव्यां छे! ‘अमृत वरस्यां रे पंचमकाळमां.’ प्रवचनसारमां ४७ नयनो अधिकार छे. तेमां ईश्वरनय अने अनीश्वरनयनी वात आवे छे. त्यां कह्युं छे के-
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“आत्मद्रव्य ईश्वरनये परतंत्रता भोगवनार छे, धावनी दुकाने धवडाववामां आवता मुसाफरना बाळकनी माफक.”
“आत्मद्रव्य अनीश्वरनये स्वतंत्रता भोगवनार छे, हरणने स्वच्छंदे (स्वतंत्रपणे, पोतानी मरजी अनुसार) फाडी खाता सिंहनी माफक.”
मुसाफरनुं बाळक धावमाताने आधीन थईने दूध पीए छे तेम आत्मा कर्मने आधीन थईने विकार करे छे. कोई (कर्म, निमित्त) विकार करावे छे एम नथी. (आ तो स्वाश्रये, स्व-आधीनपणे निराकुळ आनंदने यथेष्ट भोगवतो धर्मी पुरुष, तेने जे किंचित् राग छे ते कर्मोदयने आधीन थवाथी पराधीनपणे थयेल छे एम ते जाणे छे एम वात छे).
अहीं कहे छे-प्रकृति पण आत्माना विकारी परिणामना निमित्ते उत्पत्ति-विनाशने पामे छे. कर्मप्रकृति बंधभावे तो पोताथी परिणमे छे, त्यां ते काळे आत्माना मिथ्यात्वादि परिणाम तेमां निमित्त छे बस. निमित्त छे माटे कर्मप्रकृति बंधरूपे परिणमे छे एम नथी. आत्माना परिणाम तो निमित्तमात्र छे.
आ प्रमाणे आत्मा अने प्रकृतिने-परस्पर निमित्त-नैमित्तिकभावथी बन्नेने बंध जोवामां आवे छे, पण त्यां बन्नेने कर्ताकर्मभावनो अभाव छे. शुं कीधुं? प्रकृति (कर्मोदय) कर्ता ने आत्माना विकारीभाव तेनुं कर्म तथा आत्माना विकारीभाव कर्ता ने प्रकृतिबंध थाय ते एनुं कर्म-एम परस्पर कर्ताकर्मभावनो अभाव छे. आत्मा क्रमबद्ध उपजतां विकारीभावपणे उपजे छे त्यारे कर्मोदय एने निमित्त छे, अने प्रकृति क्रमबद्ध उपजतां बंधभावे उपजे छे त्यारे आत्माना विकारीभाव एने निमित्त थाय छे. बस आवा परस्पर निमित्त-नैमित्तिकभावथी बन्नेने बंध छे. भाई! जे कोई कर्म-कार्य नीपजे तेमां बीजी चीज निमित्त हो, पण निमित्तथी नैमित्तिक कार्य थयुं छे एम त्रणकाळमां सत्य नथी.
जीवमां जे विकार थाय छे ते निमित्तने आधीन थईने परिणमवाथी थाय छे, पण निमित्तथी नहि; बीजी चीज निमित्त हों, पण बीजी चीज कर्ता नथी. जीव ज्यारे विकारीभावे परिणमे छे त्यारे नवां कर्मनो बंध थाय छे; ते बंधमां जीवना विकारी परिणाम निमित्त छे, पण विकारी परिणाम कर्मबंधना कर्ता नथी. आ प्रमाणे परस्पर कर्ताकर्मनो अभाव छे छतां परस्पर निमित्त-नैमित्तिकभावथी आत्मा ने प्रकृतिने-बन्नेने बंध जोवामां आवे छे. ते आ प्रमाणेः-
१. आत्माना विकारी परिणाम ते भावबंध, तेमां प्रकृति निमित्त; अने २. जडकर्मप्रकृति बंधाय ते द्रव्यबंध, तेमां जीवना विकारी परिणाम निमित्त.
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बस आटली वात छे. पुस्तक छे सामे? जुओ, एमां देखो! हवे आवुं यथार्थ भावभासन न थाय तो बापु! भेदज्ञान केम थाय? अने विना भेदज्ञान धर्म केवो?
भाई! रागादि विकारी परिणाम छे ते भावबंध छे अने ते नवो द्रव्यबंध थवामां निमित्त छे. बापु! ए कांई धर्मना कारणरूप अबंध परिणाम नथी. अबंध परिणाम तो अबंधस्वरूपी भगवान आत्माना-स्वना आश्रये थाय छे अने ते मोक्षनो मारग छे.
(पूर्व) कर्मप्रकृतिना उदयना निमित्ते विकारी भाव उत्पन्न थाय छे, ते भावबंध छे. अने भावबंध छे ते नवी कर्मप्रकृतिना बंधमां निमित्त छे. आ प्रमाणे आत्मा अने प्रकृतिनुं परस्पर निमित्त- नैमित्तिकभावथी परिणमवुं छे अने तेथी संसार छे. एनाथी जीव चारगति अने चोरासी लाख योनिमा रूले छे, अने तेथी ज तेमने कर्ता-कर्मनो व्यवहार छे.
निश्चयथी तो तेमने कर्ताकर्म संबंध नथी. प्रत्येक पदार्थनी ते ते काळे जे जे पर्याय क्रमबद्ध थवानी होय ते ज थाय छे; तेने परद्रव्य (निमित्त) तो शुं स्वयं (स्वद्रव्य) आत्मा पण आगळ-पाछळ करी शकतो नथी. परंतु क्रमबद्ध विकार जीवने थाय छे तेमां जुनां कर्म निमित्त छे, अने विकारना निमित्ते नवां कर्मनो बंध थाय छे. आवा निमित्त- नैमित्तिक संबंधना कारणे तेमने कर्ताकर्मनो व्यवहार छे, पण ते परमार्थ नथी एम यथार्थ समजवुं. समजाणुं कांई...?
‘आत्माने अने ज्ञानावरणादि कर्मनी प्रकृतिओने परमार्थे कर्ताकर्मपणानो अभाव छे. तोपण परस्पर निमित्त-नैमित्तिकभावने लीधे बंध थाय छे, तेथी संसार छे अने तेथी ज कर्ताकर्मपणानो व्यवहार छे.’
जुओ, आत्मा अने कर्मप्रकृतिओने परमार्थे परस्पर कोई कर्ताकर्मसंबंध नथी. जीवमां विकार थाय तेनो कर्ता जडकर्म अने विकार थयो ते जडकर्मनुं कार्य एम नथी. तथा विकारी परिणाम कर्ता अने नवा कर्मनो बंध थाय ते एनुं कार्य एम पण नथी. भाई! आ तो पं. श्री जयचंद्रजीए बहु संक्षेपमां सार भरी दीधो छे.
आत्मा अने प्रकृतिने परमार्थे कर्ताकर्मसंबंध नथी छतां परस्पर निमित्त- नैमित्तिकभावना कारणे बंध थाय छे, अने तेथी संसार छे, चारगतिनुं परिभ्रमण छे. अहा! विकारी परिणामथी संसार छे, मिथ्यात्व ते संसार छे. कर्मनी पुराणी प्रकृति जे उदयमां आवी तेने निमित्त करीने जीव विकार करे छे ते संसार छे; ते ज चोरासीना अवतारनुं बीज छे; अने तेथी ज कर्ताकर्मपणानो व्यवहार छे.
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समयसार गाथा ३२० ना भावार्थमां कह्युं छे के-“ मिथ्यात्व छे ते ज संसार छे. मिथ्यात्व गया पछी संसारनो अभाव ज थाय छे. समुद्रमां बिंदुनी शी गणतरी?”
कर्मना निमित्ते जे विकार थाय छे तेनुं कर्तापणुं छे ते मिथ्यात्व छे अने ते ज संसार छे. भाई! दया, दान व्रत, भक्ति इत्यादिना जे भाव छे ते शुभरागना परिणाम छे; कर्मप्रकृतिना निमित्तने आधीन थवाथी ते भाव उत्पन्न थाय छे. ते भाव मारा छे, मारा कर्तव्यपणे छे अने मने लाभकारी छे एवी मान्यता मिथ्यात्व छे, अने ते ज संसार छे. स्व-आश्रये मिथ्यात्वनो नाश थतां संसारनो अभाव ज थाय छे.
समुद्रमां बिंदुनी शी गणतरी? एम के मिथ्यात्व गया पछी अविरति, प्रमाद आदि थोडो दोष रहे पण ते समुद्रमां बिंदु समान छे अने ते पण क्रमे नाश थवायोग्य ज छे. मिथ्यात्व छे ए ज महादोष छे अने ए ज संसार छे.
जुओ, कर्मथी विकार थाय छे एम कोई कहे तो ते मूळमां भूल छे. विकार पोताना षट्कारकथी पोताना कारणे थाय छे, निमित्तथी नहि अने पोताना द्रव्य-गुणथी पण नहि. प्रभु! तारां द्रव्य, गुण अने पर्याय त्रणे स्वतंत्र छे.
-द्रव्य तो त्रिकाळ अकृत्रिम छे. तेनो कर्ता कोण? कोई नहि. माटे द्रव्य स्वतंत्र छे. -द्रव्यमां गुण छे ते त्रिकाळ अकृत्रिम छे माटे स्वतंत्र छे. -तेम तेनी पर्याय पण एक समयनुं सहज सत् छे, पोताथी थाय छे. माटे एय स्वतंत्र छे.
एक अंश नवो थयो माटे परना कारणे ते थयो छे एम छे नहि. त्रिकाळी स्वभावनो आश्रय लईने सम्यग्दर्शन प्रगट थयुं त्यां दर्शनमोहनो (प्रकृतिनो) अवश्य अभाव थाय, पण दर्शनमोहनो अभाव थयो माटे सम्यग्दर्शन थयुं छे एम वस्तुव्यवस्था नथी. एक द्रव्यमां कार्य थाय त्यां अन्यद्रव्यनी अपेक्षा के सहाय नथी. अरे! लोकोने पर साथे कर्ताकर्मनो अध्यास थई गयो छे! ए ज संसार-परिभ्रमणनुं मूळ छे.
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अयाणओ हवे ताव मिच्छादिट्ठी असंजओ।। ३१४।।
जदा विमुंचए चेदा कम्मफलमणंतयं।
तदा विमुत्तो हवदि जाणओ पासओ मुणी।। ३१५।।
अज्ञायको भवेत्तावन्मिथ्याद्रष्टिरसंयतः।। ३१४।।
यदा विमुञ्चति चेतयिता कर्मफलमनन्तकम्।
तदा विमुक्तो भवति ज्ञायको दर्शको मुनिः।। ३१५।।
(‘ज्यां सुधी आत्मा प्रकृतिना निमित्ते ऊपजवुं-विणसवुं न छोडे त्यां सुधी ते अज्ञानी, मिथ्याद्रष्टि, असंयत छे’ एम हवे कहे छेः-)
अज्ञानी, मिथ्यात्वी, असंयत त्यां लगी आ जीव रहे; ३१४.
आ आतमा ज्यारे करमनुं फळ अनंतुं परितजे,
ज्ञायक तथा दर्शक तथा मुनि तेह कर्मविमुक्त छे. ३१प.
गाथार्थः– [यावत्] ज्यां सुधी [एषः चेतयिता] आ आत्मा [प्रकृत्यर्थ] प्रकृतिना निमित्ते ऊपजवुं-विणसवुं [न एव विमुञ्चति] छोडतो नथी, [तावत्] त्यां सुधी ते [अज्ञायकः] अज्ञायक छे, [मिथ्याद्रष्टिः] मिथ्याद्रष्टि छे, [असंयतः भवेत्] असंयत छे.
[यदा] ज्यारे [चेतयिता] आत्मा [अनन्तकम् कर्मफलम्] अनंत कर्मफळने [विमुञ्चति] छोडे छे, [तदा] त्यारे ते [ज्ञायकः] ज्ञायक छे, [दर्शकः] दर्शक छे, [मुनिः] मुनि छे, [विमुक्तः भवति] विमुक्त (अर्थात् बंधथी रहित) छे.
टीकाः– ज्यां सुधी आ आत्मा, (पोतानां अने परनां जुदां जुदां) निश्चित स्वलक्षणोनुं ज्ञान (भेदज्ञान) नहि होवाने लीधे, प्रकृतिना स्वभावने-के जे पोताने बंधनुं निमित्त छे तेने-छोडतो नथी, त्यां सुधी स्व-परना एकत्वज्ञानथी अज्ञायक छे, स्वपरना एकत्वदर्शनथी (एकत्वरूप श्रद्धानथी) मिथ्याद्रष्टि छे अने स्वपरनी एकत्वपरिणतिथी असंयत छे; अने त्यां सुधी ज परना अने पोताना एकत्वनो
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अज्ञानादेव भोक्तायं तदभावादवेदकः।। १९६।।
अध्यास करवाथी कर्ता छे. अने ज्यारे आ ज आत्मा, (पोतानां अने परनां जुदां जुदां) निश्चित स्वलक्षणोना ज्ञानने (भेदज्ञानने) लीधे, प्रकृतिना स्वभावने-के जे पोताने बंधनुं निमित्त छे तेने-छोडे छे, त्यारे स्वपरना विभागज्ञानथी (भेदज्ञानथी) ज्ञायक छे, स्वपरना विभागदर्शनथी (भेददर्शनथी) दर्शक छे अने स्वपरनी विभागपरिणतिथी (भेदपरिणतिथी) संयत छे; अने त्यारे ज परना अने पोताना एकत्वनो अध्यास नहि करवाथी अकर्ता छे.
भावार्थः– ज्यां सुधी आ आत्मा पोताना अने परना स्वलक्षणने जाणतो नथी त्यां सुधी ते भेदज्ञानना अभावने लीधे कर्मप्रकृतिना उदयने पोतानो समजी परिणमे छे; ए रीते मिथ्याद्रष्टि, अज्ञानी, असंयमी थईने, कर्ता थईने, कर्मनो बंध करे छे. अने ज्यारे आत्माने भेदज्ञान थाय छे त्यारे ते कर्ता थतो नथी, तेथी कर्मनो बंध करतो नथी, ज्ञाताद्रष्टापणे परिणमे छे.
‘एवी ज रीते भोक्तापणुं पण आत्मानो स्वभाव नथी’ एवा अर्थनो, आगळनी गाथानी सूचनारूप श्लोक हवे कहे छेः-
श्लोकार्थः– [कर्तृत्ववत्] कर्तापणानी जेम [भोक्तृत्वं अस्य चितः स्वभावः स्मृतः न] भोक्तापणुं पण आ चैतन्यनो (चित्स्वरूप आत्मानो) स्वभाव कह्यो नथी. [अज्ञानात् एव अयं भोक्ता] अज्ञानथी ज ते भोक्ता छे, [तद्–अभावात् अवेदकः] अज्ञाननो अभाव थतां अभोक्ता छे. १९६.
ज्यां सुधी आत्मा प्रकृतिना निमित्ते उपजवुं-विणसवुं न छोडे त्यां सुधी ते अज्ञानी, मिथ्याद्रष्टि, असंयत छे-एम हवे कहे छेः-
‘ज्यां सुधी आ आत्मा, (पोतानां अने परनां जुदां जुदां) निश्चित स्व-लक्षणोनुं ज्ञान (भेदज्ञान) नहि होवाने लीधे, प्रकृतिना स्वभावने-के जे पोताने बंधनुं निमित्त छे तेने-छोडतो नथी, त्यां सुधी स्व-परना एकत्वज्ञानथी अज्ञायक छे, स्वपरना एकत्वदर्शनथी (एकत्वरूप श्रद्धानथी) मिथ्याद्रष्टि छे अने स्वपरनी एकत्वपरिणतिथी असंयत छे; अने त्यां सुधी ज परना अने पोताना एकत्वनो अध्यास करवाथी कर्ता छे.’
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अनादिथी ज जीवने स्वपरना निश्चित स्वलक्षणोनुं ज्ञान नथी, भेदज्ञान नथी. तेथी अनादिथी ज निमित्तने आधीन थईने एणे स्व-आधीनपणुं छोडी दीधुं छे. त्यां प्रकृतिना उदयना निमित्तने आधीन थईने तेने जे भाव थाय छे ते नवा कर्मबंधनुं निमित्त छे. अहा! तेने (प्रकृतिना स्वभावने) ज्यां सुधी जीव छोडतो नथी त्यां सुधी स्वपरना एकत्वज्ञानथी ते अज्ञानी छे.
निमित्तने आधीन थई परिणमतां विकार ज थाय छे. चाहे ते दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादिनो शुभराग हो, तोपण ते विकार ज छे, चैतन्यमूर्ति प्रभु विकारथी भिन्न ज छे. परंतु ज्यां सुधी ते बन्नेनी भिन्नता न जाणे अर्थात् बन्नेमां एकपणुं जाणे त्यां सुधी जीव अज्ञानी छे. ल्यो, आ व्यवहार करतां करतां निश्चय थाय एम जाणे ए अज्ञानी छे एम अहीं कहे छे. हवे आवुं ओला व्यवहार-रसियाओने कठण पडे पण शुं थाय?
स्व नाम ज्ञानदर्शनस्वभावी भगवान आत्मा अने पर नाम प्रकृतिने आधीन थवाथी उपजता-विणसता विकारना परिणाम. अहा! आ बन्ने भिन्न छे छतां बन्नेमां ज्यां सुधी एकपणुं जाणतो थको परिणमे त्यां सुधी जीव अज्ञानी छे.
अहीं पहेलां ज्ञानथी वात करी छे, द्रष्टिथी नहि. गाथा १७-१८ मां पण एम लीधुं छे के प्रथम जाणवुं, जाणेलानुं श्रद्धान करवुं अने पछी तेमां ठरवुं; केमके पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपने ज्ञानमां जाण्या विना श्रद्धा कोनी? मोक्षमार्गप्रकाशकमां पण कह्युं छे के निज शुद्ध चैतन्यस्वरूपने जाण्या विना श्रद्धा कोनी करवी? जाण्या विनानुं श्रद्धान तो गधेडानां शींगडां समान छे. अर्थात् गधेडाने शींग नथी तेम जाण्या विनानी श्रद्धा ते श्रद्धा नथी. अहीं कहे छे-पोताने बंधनुं निमित्त एवा प्रकृतिना स्वभावने ज्यां सुधी छोडतो नथी त्यां सुधी स्वपरना एकपणाना ज्ञानथी जीव अज्ञायक छे, अज्ञानी छे.
वळी स्वपरनुं भेदज्ञान नहि होवाने लीधे ज्यां सुधी प्रकृतिना स्वभावने छोडतो नथी त्यांसुधी स्वपरना एकत्वदर्शनथी एटले के एकपणाना श्रद्धानथी जीव मिथ्याद्रष्टि छे. शुं कीधुं?
-के भगवान आत्मा शुद्ध एक ज्ञानानंदस्वभावी प्रभु नित्य छे. अने -शुभाशुभ विकल्पनी जे विकृत वृत्ति उठे छे ते प्रकृतिनो स्वभाव छे. हवे प्रकृतिनो स्वभाव के जे पोताने बंधनुं निमित्त छे तेने ज्यां सुधी छोडे नहि त्यां सुधी स्वपरना एकत्वरूप श्रद्धानथी जीव मिथ्याद्रष्टि छे. भाई! दया, दान, व्रत आदि शुभरागथी लाभ माननार जीव शुभरागने पोतानुं स्व माने छे अने तेथी स्वपरना एकत्वश्रद्धानथी ते मिथ्याद्रष्टि छे.
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भाई! पंचमहाव्रतादि पाळवाना विकल्प छे ते राग छे अने ते प्रकृतिनो स्वभाव छे, जीवनो स्वभाव नथी. कोई नग्न दिगंबर साधु थयो होय, महाव्रतादि पाळतो होय अने ते वडे पोताने धर्म थवानुं मानतो होय तो ते स्वपरना एकत्व-श्रद्धानना कारणे मिथ्याद्रष्टि छे. बहु आकरी वात भाई! पण आ सत्य वात छे.
भाई! सर्वज्ञ परमेश्वरनो मारग अलौकिक छे, जगतथी निराळो छे. जगत रागथी धर्म थवानुं माने छे, ज्यारे भगवान केवळीनो मारग एक वीतरागस्वभाव- स्वरूप छे. अहीं कहे छे-वीतरागस्वभावी आत्मा अने प्रकृतिनो स्वभाव जे राग-ते बन्नेने ज्यां सुधी जीव एक माने छे त्यां सुधी ते मिथ्याद्रष्टि छे. अहा! देवादि संबंधी शुभ विकल्प करतां करतां निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट थशे एम माननार मिथ्याद्रष्टि छे. अरे बापु! आवा शुभ विकल्प तो तें अनंतवार कर्या छे; पण विकल्पथी भिन्न निर्विकल्प चैतन्यचमत्कार प्रभु आत्मानुं दर्शन-श्रद्धान कर्या विना सम्यग्दर्शन थयुं नहि. जरा विचार कर भाई!
अरे! जैन संप्रदायमां जन्म थयो, पण जैन परमेश्वरे कहेलुं जैनतत्त्व शुं छे एनी एने खबर नथी! भगवान आत्मा पोते जिनस्वरूप छे, जिनस्वभाव छे.
यही वचनसे समज ले, जिनप्रवचनका मर्म.
अहाहा....! भगवान आत्मा जिनस्वरूप परम वीतरागस्वरूप छे. जो एम न होय तो वीतरागता प्रगटे क्यांथी? शुं वीतरागता बहारथी आवे छे? ना, बीलकुल नहि. अहाहा.....! आत्मा स्वभावथी ज जिनस्वरूप, वीतरागस्वरूप, आनंदस्वरूप, ईश्वरस्वरूप छे. तेने ज्यां सुधी रागस्वरूप माने, राग साथे एकमेकपणे माने त्यां सुधी जीव मिथ्याद्रष्टि छे.
जिन वीरे धर्म प्रकाशीयो प्रबळ कषाय अभाव रे.
ओहो! जीवनो स्फटिकमणि समान निर्मळ स्वभाव छे. आ पुण्य-पापना मलिन भाव ते प्रकृतिनो स्वभाव छे, जीवनो नहि. भाई! निश्चयथी राग पुद्गलनो स्वभाव छे. केम? केमके राग नीकळी जाय छे. राग छे ते प्रकृतिना संगमां उत्पन्न थयेलो औपाधिकभाव छे अने ते प्रकृतिनुं निमित्त मटतां नीकळी जाय छे. भगवान सिद्धने सर्वथा राग होतो नथी. नीकळी गयो होय छे. माटे राग जीवनो स्वभाव नथी पण पुद्गलप्रकृतिनो स्वभाव छे. आम होवा छतां राग अने पोताना स्वभावने ज्यां सुधी एकमेकपणे माने त्यां सुधी जीव मिथ्याद्रष्टि छे. भाई! भगवाने पण पुण्य-पापरूप कषायना अभावरूप एक वीतरागभावने धर्म कह्यो छे. बापु! तुं
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बहारना क्रियाकांडमां धर्म मानीने प्रवर्ते पण ए तो जींदगी वेडफी देवा समान छे.
हवे आ वाणिया आखो दि’ वेपार-धंधामां गरी गया होय तेमने आवुं समजवानी फुरसद क्यांथी मळे? एने तो बहारमां पांच-पचास लाख मळी जाय एटले माने के फावी गया; धूळमांय फावी गया नथी सांभळने, तने खबर नथी भाई! पण पूर्वनां पुण्य बळी जाय छे त्यारे लक्ष्मी आदि बहारनी धूळ मळे छे. ते पण तारी पासे (तारामां) क्यां आवे छे? तारी पासे तो ममता आवे छे. आ जड मारां छे एवी ममता तने मळे छे. बाकी चैतन्यघन प्रभु आत्मामां रागनो कण समाय नहि तो लक्ष्मी आदि धूळ तारी क्यांथी थई जाय? लक्ष्मी, स्त्री, पुत्र-परिवार इत्यादि मारां छे एम माने ए तो नरी मूढता छे. आ प्रमाणे ज्यां सुधी परवस्तुने पोतारूप माने त्यां सुधी स्वपरना एकत्वदर्शनथी जीव मिथ्याद्रष्टि छे. समजाणुं कांई....?
वळी ते जीव स्वपरनी एकत्वपरिणतिथी असंयत छे. शुं कीधुं? राग साथे एकमेक थई प्रवर्ते ते स्वपरनी एकत्वपरिणति छे अने ते वडे जीव असंयत छे. एटले शुं? के ते व्रती नथी, संयमी नथी अने समकिती पण नथी. विना सम्यग्दर्शन ज्यां सुधी एकली रागमय परिणति छे त्यां सुधी जीव असंयत छे.
आ प्रमाणे त्रण बोल आव्याः १. स्वपरनुं ज्ञान नथी त्यां सुधी अज्ञानी छे. २. स्वपरना एकत्वश्रद्धानथी जीव मिथ्याद्रष्टि छे. ३. स्वपरिणतिने छोडी राग अने पुण्यनी परिणतिरूपे परिणमे ते असंयत छे. ओहो! भगवान आत्मा निर्मळानंदनो नाथ प्रभु शुद्ध एक ज्ञानस्वभावमय छे. तेना आश्रये प्रवर्ते ते ज्ञानमय परिणति छे. एनाथी भिन्न ‘राग ते हुं छुं’ -एम प्रवर्ते ते रागमयपरिणति छे. रागमय परिणति छे ते स्वपरनी एकत्वपरिणति छे. भला जाणी दया, दान, व्रतादि शुभरागना आचरणरूप प्रवर्ते ते रागमय परिणति छे. तेने स्वपरनी एकत्वपरिणतिरूप कहे छे. ज्यां सुधी स्वपरनी एकत्वपरिणतिरूप जीव परिणमे छे त्यां सुधी ते असंयत छे. आवी वात छे.
प्रवचनसारनी गाथा २३६ मां कह्युं छे के-“जे जीवोने स्वपरनुं भेदज्ञान नथी तेमने भले कदाचित् पांच ईन्द्रियोना विषयोनो संयोग न देखातो होय, छ जीवनिकायनी द्रव्यहिंसा न देखाती होय अने ए रीते संयोगथी निवृत्ति देखाती होय, तोपण काया अने कषायो साथे एकता माननारा ते जीवोने खरेखर पांच ईन्द्रियोना विषयोनी अभिलाषानो निरोध नथी, हिंसानो जराय अभाव नथी अने ए रीते परभावथी बीलकुल निवृत्ति नथी.” अर्थात् स्वपरनी एकत्वपरिणतिथी असंयत ज छे.
पोताने तो एक ज्ञानस्वभाव छे. तेने छोडीने राग साथे एकत्व करीने प्रवर्ते
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तेने अहीं स्वपरनी एकत्वपरिणति कहेल छे; पण ज्ञाननी परिणति छे अने रागनी परिणति पण छे एम मळीने स्वपरनी एकत्वपरिणति छे एम अर्थ नथी. (ज्ञाननी परिणति तो ज्ञानस्वभावना आश्रये छे अने तेमां रागनी परिणति नथी, अने रागनी परिणति प्रकृतिना स्वभावने आधीन छे अने तेमां ज्ञानपरिणति नथी).
तो सम्यग्द्रष्टिने राग तो आवे छे? हा, सम्यग्द्रष्टिने राग आवे छे, पण तेने स्वपरना एकत्वरूप रागपरिणति नथी, ज्ञानपरिणति छे. ते रागनो मात्र ज्ञाता-द्रष्टा रहे छे, रागनुं स्वामित्व करतो नथी. अही तो मिथ्याद्रष्टिनां असंयमनी वात करी छे-के ‘राग ते हुं’ -एम मानी ज्यां सुधी ते प्रवर्ते छे त्यां सुधी स्वपरनी एकत्वपरिणतिथी ते असंयत छे. हवे कहे छे-
‘अने त्यां सुधी ज परना अने पोताना एकत्वनो अध्यास करवाथी कर्ता छे.’ अहा! स्वपरना एकत्वनो एने अध्यास थई गयो छे. भगवान आत्मानो तो एक ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव छे. परंतु प्रकृतिनो स्वभाव जे राग ते मारो स्वभाव छे एम मानवानी एने आदत पडी गई छे. विकार-विभाव ते हुं एम मानवानी एने अनादिथी टेव पडी गई छे. ज्यां सुधी तेने आ (स्वपरना एकत्वनो) अध्यास छे त्यां सुधी ते विकारनो कर्ता छे.
वीतरागनो धर्म कोई अपूर्व चीज छे भाई! पूर्वे तें कदीय धर्म कर्यो नथी. आ पंचमहाव्रत अने दया, दान आदिना भाव कांई अपूर्व नथी; ए भाव तो पूर्वे अनंतवार आ जीवे कर्या छे. अहा! अनंतकाळे मांड मनुष्यभव मळे एवा एने अनंत मनुष्यभव थया, अने एनाथी असंख्यातगुणा अनंतवार नरकना भव थया, वळी एनाथी असंख्यातगुणा अनंतवार ए देव थयो. अधधध! आट आटली वार प्रभु! तुं देव थयो ते शुं पुण्यभाव कर्या विना थयो? बापु! पुण्यभावनी तने अपूर्वता नथी; परंतु एक ज्ञानस्वभावना आश्रये सम्यग्दर्शन तुं प्रगट करे ए अपूर्व छे. समजाणुं कांई...? भाई! अत्यारे आ नहि समजे तो क्यारे समजीश? (एम के आ देह तो छूटी जशे अने तुं क्यांय निगोदादि तिर्यंचमां अनंतकाळ खोवाई जईश, पछी केम समजीश?)
भगवान केवळीनी वाणीमां आवेली आ वात छे के-चारगतिमां प्रभु! तुं रखडतो थको भारे दुःखी थई रह्यो छे. तेमां अनंतकाळ तो तारो निगोदमां गयो छे. छहढालामां आवे छे ने के -
आ लसण अने डुंगळी आवे छे ने? तेनी एक कणीमां असंख्य औदारिक शरीर छे अने एक एक शरीरमां अनंता निगोदना जीव छे. केटला? जे अनंता
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सिद्ध छे एनाथी अनंतगणा जीव एक शरीरमां छे. आवा आवा अनंत भव प्रभु! तें कर्या छे. तारा दुःखनी शी वात कहीए? स्वपरना एकत्वरूप अध्यासने कारणे तने अकथ्य-अकथ्य दुःख थयां छे. अहीं कहे छे-ज्यां सुधी स्वपरना एकत्वरूप अध्यास छे त्यां सुधी जीव कर्ता छे. जीव रागने पोतानो मानीने तेनो कर्ता थाय छे.
हवे कहे छे- ‘अने ज्यारे आ ज आत्मा, (पोतानां अने परनां जुदां जुदां) निश्चित स्वलक्षणोना ज्ञानने (भेदज्ञानने) लीधे, प्रकृतिना स्वभावने-के जे पोताने बंधनुं निमित्त छे तेने-छोडे छे, त्यारे स्वपरना विभागज्ञानथी (भेदज्ञानथी) ज्ञायक छे, स्वपरना विभागदर्शनथी (भेददर्शनथी) दर्शक छे अने स्वपरनी विभाग-परिणतिथी (भेदपरिणतिथी) संयत छे; अने त्यारे ज परना अने पोताना एकत्वनो अध्यास नहि करवाथी अकर्ता छे.’
जुओ, धर्मी पुरुष रागनो अकर्ता छे एम त्रण बोलथी अहीं सिद्ध करे छे. अहा! आ प्रकृतिनो स्वभाव जे राग छे ते दुःख छे, एक समयनी कृत्रिम उपाधि छे अने हुं तो परमानंदमय शुद्धचैतन्यस्वरूप त्रिकाळ निरुपाधि तत्त्व छुं. आम बेना भिन्न भिन्न लक्षणोनुं ज्ञान थतां भेदज्ञान थाय छे. आवुं भेदज्ञान थतां जीव प्रकृतिना स्वभावने छोडे छे अने त्यारे ते स्वपरना विभागज्ञानथी ज्ञायक छे, सम्यग्ज्ञानी छे.
आ पुण्य-पापना भाव छे ते कर्मना निमित्ते उत्पन्न थया छे तेथी ते प्रकृतिनो स्वभाव छे, आत्मानो नहि. अहा! पुण्य-पापना सघळा भाव मारी चीज नथी एम जेने अंतरमां भेदज्ञान थयुं ते प्रकृतिना स्वभावने छोडी दे छे अने त्यारे ते स्वपरना विभागज्ञानथी ज्ञानी छे. समजाय छे कांई...? भाई! आ समज्या विना तारी जींदगी ढोरनी माफक जाय छे हों. भले तुं अहीं मोटो क्रोडपति के अबजोपति होय, परंतु रागथी भिन्न पोतानी शुद्ध चैतन्यमय चीज केवी अने केवडी छे तेनुं अंतरमां भान नथी तो तुं पागल-उन्मत्त ज छे. तत्त्वार्थसूत्रमां मिथ्याद्रष्टिनुं ज्ञान मिथ्याज्ञान केम छे ए समजावतां पहेला अध्यायना सूत्र ३२ मां आवे छे के-“विद्यमान अने अविद्यमान पदार्थोनुं भेदरूप ज्ञान (यथार्थ विवेक) न होवाने कारणे पागल पुरुषोना ज्ञाननी माफक मिथ्याद्रष्टिनुं ज्ञान विपरीत अर्थात् मिथ्याज्ञान होय छे.” त्यां सूत्रमां उन्मत्तवत्– एम शब्द छे.
जेम कोईए दारू पीधो होय तो ते उन्मत्त थईने स्त्रीने स्त्री पण कहे छे अने बा पण कहे छे; तेने कांई विवेक ज नथी. तेम मोहमदिरा पीने उन्मत्त थयेला आने स्वपरनो विवेक ज नथी. भेदज्ञानना अभावे ते पागल ज छे.
अहीं कहे छे-ज्ञानीने राग होय छे खरो, पण द्रष्टिमां तेणे रागने प्रकृतिनो स्वभाव जाणी छोडी दीधो छे. मारी चीज अंदर एक ज्ञानानंदस्वरूप छे ते आदरणीय
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-उपादेय छे अने आ जे राग छे ते हेय छे, त्याग करवा योग्य छे एम ज्ञानी यथार्थ जाणे छे. बापु! आम रागने जे छोडी दे छे ते स्वपरना विभागज्ञानथी ज्ञायक थाय छे, ज्ञानी थाय छे. शास्त्र भण्यो होय के न भण्यो होय, शास्त्र भणवानी एने कांई अटक नथी. (स्वपरनुं भेदज्ञान थाय ए मुख्य चीज छे).
जुओ, शास्त्रमां लेख छे के नवतत्त्वना नाम पण जाणता नथी एवा अढीद्वीप बहार असंख्य पशु छे के जेओ समकिती श्रावकना पंचमगुणस्थाननी भूमिकामां आरूढ छे. अहा! जेणे जाणनारने जाण्यो तेणे बधुं जाण्युं. आ चैतन्यस्वरूप जाणवावाळो ते हुं, आ राग ते हुं नहि-एम जेणे ज्ञानमां अनुभव्युं ते ज्ञायक छे, ज्ञानी छे. भाई! वीतराग परमेश्वरे कहेलुं स्वरूप ते आ छे. भाग्य होय तो ए सांभळवाय मळे.
वळी, ‘स्वपरना विभागदर्शनथी (भेददर्शनथी) दर्शक छे.’ शुं कीधुं? स्व नाम एक शुद्ध चिद्घन प्रभु आत्मा अने पर नाम पुण्य-पाप आदि विभाव-ए बेना भेददर्शनथी जीव दर्शक छे, सम्यग्द्रष्टि छे. आ देवगुरुशास्त्रने अने नवतत्त्वने बहारथी (विकल्परूप) माने माटे जीव सम्यग्द्रष्टि छे एम नहि, पण रागथी भिन्न हुं चिदानंदघनस्वभावी आत्मा छुं एम राग ने आत्माना विभागदर्शनथी जीव दर्शक नाम सम्यग्द्रष्टि छे. आवो मारग छे भाई! वीतरागनो. आ तो शूरानो मारग छे बापु!
अहा! आ तो वीरनो मारग प्रभु! कायर अर्थात् रागना रसियानुं आमां काम नथी. रागनी जेने रुचि छे, रागनो कर्ता थई जे परिणमे छे एवा रागी जीवोने शास्त्रमां नपुंसक कह्या छे; केमके नपुंसकने जेम पुत्र न थाय तेम रागने (शुभ-रागनेय) पोतानो माननारने धर्मनी पर्याय पाकती नथी.
वळी, ‘स्वपरनी विभागपरिणतिथी संयत छे.’ रागपरिणति अने ज्ञानपरिणति बन्ने भिन्न छे. रागपरिणति प्रकृतिनो स्वभाव छे अने ज्ञानपरिणति ज्ञानस्वभावरूप छे. बन्ने भिन्न छे. त्यां रागरहित निर्मळ ज्ञानपरिणति ते मारी चीज छे, अने रागपरिणति ते मारी चीज नथी-आवी स्वपरनी विभागपरिणतिथी जीव संयत छे. ल्यो, आने संयत नाम मुनि कहेवामां आवे छे. मात्र नग्न दिगंबर होय ने बहारमां महाव्रतादि पाळे माटे मुनि छे एम नहि. पण राग अने ज्ञाननी विभागपरिणतिथी जीव संयत नाम मुनि छे. आम त्रण बोल कीधा. हवे कहे छे-
‘अने त्यारे ज परना अने पोताना एकत्वनो अध्यास नहि करवाथी अकर्ता छे.’ जुओ, ज्यां सुधी स्वपरना एकत्वनो अध्यास हतो त्यां सुधी जीव अज्ञानी अने कर्ता हतो. पण स्वपरना एकत्वनो अध्यास दूर थतां ते ज्ञानी थयो थको
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अकर्ता छे. चोथा गुणस्थाने आत्मानुं भान थईने ज्यां सम्यग्दर्शन थयुं त्यां ते रागनो अकर्ता थई जाय छे. राग भले हो, पण तेनो ते अकर्ता नाम ज्ञाता ज छे. ल्यो, आनुं नाम धर्म ने मोक्षनो मार्ग छे.
‘ज्यां सुधी आ आत्मा पोताना अने परना स्वलक्षणोने जाणतो नथी त्यां सुधी ते भेदज्ञानना अभावने लीधे कर्म प्रकृतिना उदयने पोतानो समजी परिणमे छे; ए रीते मिथ्याद्रष्टि, अज्ञानी, असंयमी थईने, कर्ता थईने, कर्मनो बंध करे छे.’
जुओ, आत्मानुं लक्षण ज्ञान छे अने कर्मप्रकृतिनुं लक्षण राग अने बंध छे. राग शुभ हो के अशुभ-ते प्रकृतिनो स्वभाव छे, जीवनो नहिं. जीवनो तो एक ज्ञानस्वभाव छे. आम बन्नेना स्वलक्षणोने भिन्न भिन्न जाणतो नथी त्यां सुधी जीवने भेदज्ञाननो अभाव छे; अने त्यां सुधी ते कर्मप्रकृतिना उदयने पोतानो समजी परिणमे छे. अहा! कर्मप्रकृतिना उदयमां ते झट जोडाई जाय छे. आ प्रमाणे भेदज्ञानना अभावे जीव प्रकृतिना स्वभावे रागादिपणे, पुण्य-पापपणे परिणमे छे अने ए रीते मिथ्याद्रष्टि, अज्ञानी अने असंयमी थयो थको कर्ता थईने कर्मनो बंध करे छे.
तो पछी ज्ञानीने पण राग थतो जोईए छीए ने?
हा, ज्ञानीने राग थतो होय छे, पण एनी ज्ञानपरिणतिथी ए भिन्न पडी गयो होय छे, ज्ञानी एने पोताथी भिन्नपणे जाणे छे, जेम घउं ने कांकरा भिन्न छे एम. अज्ञानी बेने एकमेक करे छे. प्रकृतिना स्वभावने पोतानुं स्व समजीने परिणमे छे. तेथी ते मिथ्याद्रष्टि, अज्ञानी, असंयमी थईने, कर्ता थईने कर्मबंध करे छे, हवे कहे छे-
‘अने ज्यारे आत्माने भेदज्ञान थाय छे त्यारे ते कर्ता थतो नथी, तेथी कर्मनो बंध करतो नथी, ज्ञाताद्रष्टापणे परिणमे छे.’
अहा! हुं तो ज्ञानानंदस्वभावी प्रभु आत्मा छुं, अने आ राग छे ए तो प्रकृतिनो स्वभाव छे अने ते माराथी तद्न भिन्न छे. ज्यारे आवुं जीवने भेदज्ञान थाय छे त्यारे ते ज्ञानी थयो थको रागनो कर्ता थतो नथी. ज्ञानीने राग थतो होय छे, पण रागनुं परिणमन मारुं स्व छे एम ज्ञानी स्वीकारता नथी. ज्ञानीनी द्रष्टि रागने पोताना स्वपणे स्वीकारती नथी. ज्ञानीने रागनुं स्वामित्व नथी. रागनुं परिणमन छे ए अपेक्षाए तेने शास्त्रमां कर्ता कह्यो छे, पण ज्ञानी राग पोतानुं करवालायक कर्तव्य छे एम मानता नथी ए अपेक्षाए तेने अहीं अकर्ता कह्यो छे. समजाणुं कांई...?
रागने पोतानो मानीने परिणमे ते मिथ्यात्व छे अने मिथ्यात्व छे ते ज
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संसार छे. ज्यारे भेदज्ञान थाय छे त्यारे ज्ञानी थयो थको रागनो कर्ता थतो नथी; तेथी जीव कर्मबंध करतो नथी, ज्ञाताद्रष्टापणे परिणमे छे. सम्यग्दर्शनथी मांडीने मुनिदशा पर्यंत ते जाणवा-देखवारूपे परिणमे छे. व्यवहाररत्नत्रयनो राग आवे पण तेनो ते कर्ता थतो नथी. भाई! वीतरागी धर्म वीतरागभावथी ज प्रगट थाय छे, रागथी नहि. रागपणे परिणमवुं ए कांई धर्म नथी. ज्ञानीने राग आवे पण ते रागनो कर्ता थतो नथी, ज्ञाता- द्रष्टा ज रहे छे. आवी सूक्ष्म वात छे.
‘एवी ज रीते भोक्तापणुं पण आत्मानो स्वभाव नथी’ -एवां अर्थनो आगळनी गाथानी सूचनारूप श्लोक हवे कहे छेः-
‘कर्तृत्ववत्’ कर्तापणानी जेम ‘भोक्तृत्वं अस्य चितःस्वभावः स्मृतः न’ भोक्तापणुं पण आ चैतन्यनो (चित्स्वरूप आत्मानो) स्वभाव कह्यो नथी.
अहा! शुभाशुभ रागनुं कर्तापणुं जेम चित्स्वरूप भगवान आत्मानो स्वभाव नथी तेम शुभाशुभ रागनुं भोक्तापणुं पण जीवनो स्वभाव भगवान गणधरदेवे कह्यो नथी. आ विषयभोगमां के भगवाननां दर्शन आदि करतां जे हरखनो भाव थाय तेनो भोक्ता ज्ञानी थतो नथी. केम? केमके ईन्द्रियना विषय के हरखना रागनुं, कल्पनाना सुखनुं भोगववुं ते आत्मानो स्वभाव नथी. रागने करे के भोगवे एवो आत्मानो कोई स्वभाव वा गुण-शक्ति नथी.
जुओ, समकिती चक्रवर्तीने ९६००० राणीओ होय छे. रोज ते नवी नवी राणीओ परणे छे. तेने तत्विषयक राग पण ते काळे थतो होय छे. तोपण ते रागना भोक्तापणानुं जे वेदन छे ते हुं नहि एम ते माने छे. शुं कीधुं? अहा आ जेटलुं निराकुल आनंदनुं वेदन छे ते मारी चीज छे, पण रागनुं भोगववुं ते मारुं स्वरूप नथी एम धर्मी माने छे. हवे अज्ञानीने आ केम बेसे? परंतु भाई! आत्मा जेम रागनो कर्ता न थाय तेम रागनो भोक्ताय न थाय एवो ज एनो स्वभाव छे. अने स्वभावमां रत एवा ज्ञानीने विषयोमां-रागादिमां सुखबुद्धि होती ज नथी तेथी ते भोक्ता थतो नथी. ल्यो, आवी झीणी वात! हवे कहे छे-
‘अज्ञानात् एव अयं भोक्ता’ अज्ञानथी ज ते भोक्ता छे, ‘तद्–अभावात् अवेदकः’ अज्ञाननो अभाव थतां अभोक्ता छे.
राग अने ज्ञाननुं ज्यां सुधी भेदज्ञान नथी त्यां सुधी अज्ञानथी ज जीव भोक्ता छे. ज्यारे राग अने आत्मानुं भेदज्ञान थाय छे त्यारे ते राग अने हरख-
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शोकना भावनो भोक्ता थतो नथी. लोकोने बहारथी लागे के ते भोगवे छे, पण वास्तवमां ज्ञानी राग के हरखशोकना भावने भोगवतो नथी; केमके हुं भोगवुं एवो अभिप्राय एने क्यां छे? एने तो ए विषयो अने तत्संबंधी हरखशोकना भाव-ए बधुं झेर समान भासे छे. अहा! जड ईन्द्रियो, भावेन्द्रियो, अने विषयो -ए बधाथी अधिक पोतानो ज्ञानस्वभाव जेने स्वपणे अंदर प्रतिभास्यो छे ते राग अने हरखशोकना भावने केम भोगवे? आनंदनो भंडार एवा ज्ञानानंदस्वभावी निज परमात्मद्रव्यथी जेणे प्रेम बांध्यो ते हवे बीजे विषयादिमां रति केम करे? न ज करे. आ प्रमाणे अज्ञाननो अभाव थतां जीव अभोक्ता छे. अभोक्तापणुं आत्मानो स्वभाव छे अने तेने (- स्वभावने) अनुसरनार ज्ञानी अभोक्ता छे. आवी वात छे.