Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 316-318 ; Kalash: 197-198.

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गाथा–३१६
अण्णाणी कम्मफलं पयडिसहावट्ठिदो दु वेदेदि।
णाणी पुण कम्मफलं जाणदि उदिदं ण वेदेदि।। ३१६।।
अज्ञानी कर्मफलं प्रकृतिस्वभावस्थितस्तु वेदयते।
ज्ञानी पुनः कर्मफलं जानाति उदितं न वेदयते।। ३१६।।
हवे आ अर्थने गाथामां कहे छेः-
अज्ञानी वेदे कर्मफळ प्रकृतिस्वभावे स्थित रही,
ने ज्ञानी तो जाणे उदयगत कर्मफळ, वेदे नहीं. ३१६.
गाथार्थः– [अज्ञानी] अज्ञानी [प्रकृतिस्वभावस्थितः तु] प्रकृतिना स्वभावमां

स्थित रह्यो थको [कर्मफलं] कर्मफळने [वेदयते] वेदे (भोगवे) छे [पुनः ज्ञानी] अने ज्ञानी तो [उदितं कर्मफलं] उदित (उदयमां आवेला) कर्मफळने [जानाति] जाणे छे, [न वेदयते] वेदतो नथी.

टीकाः– अज्ञानी शुद्ध आत्माना ज्ञानना अभावने लीधे स्वपरना एकत्वज्ञानथी,

स्वपरना एकत्वदर्शनथी अने स्वपरनी एकत्वपरिणतिथी प्रकृतिना स्वभावमां स्थित होवाथी प्रकृतिना स्वभावने पण ‘हुं’ पणे अनुभवतो थको (अर्थात् प्रकृतिना स्वभावने पण ‘आ हुं छुं’ एम अनुभवतो थको) कर्मफळने वेदे छे-भोगवे छे; अने ज्ञानी तो शुद्ध आत्माना ज्ञानना सद्भावने लीधे स्वपरना विभागज्ञानथी, स्वपरना विभागदर्शनथी अने स्वपरनी विभागपरिणतिथी प्रकृतिना स्वभावथी निवर्तेलो (-खसी गयेलो, छूटी गयेलो) होवाथी शुद्ध आत्माना स्वभावने एकने ज ‘हुं’ पणे अनुभवतो थको उदित कर्मफळने, तेना ज्ञेयमात्रपणाने लीधे, जाणे ज छे, परंतु तेनुं ‘हुं’ पणे अनुभवावुं अशक्य होवाथी, (तेने) वेदतो नथी.

भावार्थः– अज्ञानीने तो शुद्ध आत्मानुं ज्ञान नथी तेथी जे कर्म उदयमां आवे तेने

ज ते पोतारूप जाणीने भोगवे छे; अने ज्ञानीने शुद्ध आत्मानो अनुभव थई गयो छे तेथी ते प्रकृतिना उदयने पोतानो स्वभाव नहि जाणतो थको तेनो ज्ञाता ज रहे छे, भोक्ता थतो नथी.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

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(शार्दूलविक्रीडित)
अज्ञानी प्रकृतिस्वभावनिरतो नित्यं भवेद्वेदको
ज्ञानी तु प्रकृतिस्वभावविरतो नो जातुचिद्वेदकः।
इत्येवं नियमं निरूप्य निपुणैरज्ञानिता त्यज्यतां
शुद्धैकात्ममये महस्यचलितैरासेव्यतां ज्ञानिता।।
१९७।।
श्लोकार्थः– [अज्ञानी प्रकृति–स्वभाव–निरतः नित्यं वेदकः भवेत्] अज्ञानी

प्रकृतिस्वभावमां लीन-रक्त होवाथी (-तेने ज पोतानो स्वभाव जाणतो होवाथी-) सदा वेदक छे, [तु] अने [ज्ञानी प्रकृति–स्वभाव–विरतः जातुचित् वेदकः नो] ज्ञानी तो प्रकृतिस्वभावथी विराम पामेलो-विरक्त होवाथी (-तेने परनो स्वभाव जाणतो होवाथी-) कदापि वेदक नथी. [इति एवं नियमं निरूप्य] आवो नियम बराबर विचारीने-नक्की करीने [निपुणैः अज्ञानिता त्यज्यताम्] निपुण पुरुषो अज्ञानीपणाने छोडो अने [शुद्ध– एक–आत्ममये महसि] शुद्ध-एक-आत्मामय तेजमां [अचलितैः] निश्चळ थईने [ज्ञानिता आसेव्यताम्] ज्ञानीपणाने सेवो. १९७.

*
समयसार गाथा ३१६ः मथाळुं
हवे आ अर्थने गाथामां कहे छेः-
* गाथा ३१६ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘अज्ञानी शुद्ध आत्माना ज्ञानना अभावने लीधे स्वपरना एकत्वज्ञानथी, स्वपरना एकत्वदर्शनथी अने स्वपरनी एकत्वपरिणतिथी प्रकृतिना स्वभावमां स्थित होवाथी प्रकृतिना स्वभावने पण ‘हुं’ पणे अनुभवतो थको (अर्थात् प्रकृतिना स्वभावने पण ‘आ हुं छुं’ एम अनुभवतो थको) कर्मफळने वेदे छे- भोगवे छे;...’

आत्मा चिदानंदघन प्रभु एकलुं आनंदनुं दळ छे. अहाहा...! ज्ञानानंदरसनो समुद्र प्रभु आत्मा छे. आवा पोताना ध्रुव स्वरूपने नहि ओळखवाथी तेने अनादिथी स्वरूपनुं अज्ञान छे. तेथी अज्ञानवश राग ते हुं छुं एम मानतो थको ते स्वपरना एकत्वज्ञानथी, स्वपरना एकत्वदर्शनथी अने स्वपरनी एकत्वपरिणतिथी प्रकृतिना स्वभावमां स्थित थयो छे. भाई! आ पुण्य-पापनां जे भाव थाय छे ते प्रकृतिनो स्वभाव छे. अहा! प्रकृतिना स्वभावमां ऊभेलो ते प्रकृतिना स्वभावने ‘हुं’ पणे अनुभवतो थको कर्मफळने वेदे छे-भोगवे छे.

अरे भाई! चोरासी लाखना अवतारनो घोरातिघोर दुःखोथी भरेलो आ


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भवसिंधु अपार छे. असंख्य जोजन उपर, असंख्य जोजन नीचे-एम एने उपजवानां स्थान अनंत छे; स्थूळपणे असंख्य छे, अने एथीय स्थूळपणे चोरासी लाख योनि छे. अहा! स्वपरनी एकत्वबुद्धिरूप मिथ्यादशाने कारणे एणे लसण, डुंगळी, कीडा, कागडा ने नरक-निगोद इत्यादिना अनंत दुःखमय भव कर्या छे. शुं थाय? भाई! मिथ्यात्वनुं फळ आवुं बहु आकरुं छे बापु! क्षणिक विकारनी-शुभाशुभ रागनी दशाने निज स्वरूप मानी ले एनुं फळ बहु आकरुं छे प्रभु!

अरे भाई! मिथ्यात्वनुं फळ शास्त्रमां निगोद कह्युं छे. तने खबर नथी पण नरकना दुःख करतां निगोदनुं दुःख अनंतगणुं छे. निगोदनो जीव शक्तिए तो पूर्ण ज्ञानानंदघन छे, पण तेनी ज्ञाननी वर्तमान पर्यायमां अक्षरना अनंतमा भाग जेटलुं अल्पज्ञान होय छे. अहा! केवी हीन दशा! अने एने जे पारावार दुःखनुं वेदन होय छे तेने केम कहीए?

अहा! पोते अंदर सच्चिदानंदस्वरूप भगवान छे. आवा वास्तविक निज-स्वरूपने नहि मानतां हुं रागनो करनारो रागी छुं, रागनो भोगवनारो भोक्ता छुं एम जे पोताने आळ आपे छे, पोतानी छती चीजने अछती करी दे छे ते तेना फळमां निगोदना स्थानमां उपजे छे. हुं रागनो कर्ता-भोक्ता छुं एम माननार पोतानी हयातीने (-शुद्ध चैतन्यसत्ताने) मानतो नथी. अने जे पोतानी हयातीने मानतो नथी ते एना फळमां निगोदमां उपजे छे ज्यां दुनियाना लोको पण एनी हयातीने मानवा तैयार न थाय. शुं थाय? आमां कोईनुं कांई चाले एम नथी.

अहीं भोक्तापणानी वात छे. स्वरूपथी तो आत्मा अभोक्ता छे. परंतु शरीर, मन, वाणी, धन-संपत्ति, आबरू इत्यादि सानुकूळ पदार्थोने देखीने जे हरख थाय छे तेने ‘हुं’ पणे अनुभवतो जीव अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि छे. पापी छे. आ कसाईखानां मांडे ए भाव तो पाप छे ज, ए भाव वडे जीव पापी छे; परंतु आ दया, दानना जे भाव थाय तेय कषायभाव छे, राग छे अने तेने ‘हुं’ पणे जे अनुभवे ते जीव पण मिथ्याद्रष्टि पापी छे. लोकोने हवे आवी वात केम बेसे? आ तो धीरानां काम बापु! कहे छे ने के- प्रकृतिना स्वभावने ‘हुं’ पणे अनुभवतो जीव कर्मफळने वेदे छे, झेरने वेदे छे.

भगवान आत्मा अमृतनो सागर प्रभु छे. तेने भूलीने ज्यां सुधी परमां- रागादिमां सुखबुद्धि छे अने प्रकृतिना स्वभावने-शुभाशुभ रागने ‘हुं’ पणे जीव अनुभवे छे त्यां सुधी ते मिथ्याद्रष्टि थयो थको कर्मफळने भोगवे छे अने नवा नवा कर्मबंधने करे छे. आवी वात छे. हवे कहे छे-

‘अने ज्ञानी तो शुद्ध आत्माना ज्ञानना सद्भावने लीधे स्वपरना विभाग-


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ज्ञानथी, स्वपरना विभागदर्शनथी अने स्वपरनी विभागपरिणतिथी प्रकृतिना स्वभावथी निवर्तेलो (-खसी गयेलो, छूटी गयेलो) होवाथी शुद्ध आत्माना स्वभावने एकने ज ‘हुं’ पणे अनुभवतो थको उदित कर्मफळने, तेना ज्ञेयमात्रपणाने लीधे, जाणे ज छे, परंतु तेनुं ‘हुं’ पणे अनुभवावुं अशक्य होवाथी, (तेने) वेदतो नथी.’

जुओ, अहीं ‘ज्ञानी तो...’ एम कह्युं ने? त्यां घणुं (क्षयोपशम) ज्ञान होय ते ज्ञानी एम वात नथी. परंतु रागथी भिन्न चिदानंदकंद प्रभु आत्माने स्वपणे जाणे- अनुभवे तेने अहीं ज्ञानी कह्यो छे. चोथा गुणस्थानथी धर्मी जीवने ज्ञानी कहेवामां आवे छे, केमके तेने अंतरमां स्वपरनुं भेदज्ञान थयुं छे. बाकी कोई ११ अंग अने नव पूर्व भण्यो होय पण जो एने परमां ने रागमां सुखबुद्धि होय तो ते अज्ञानी छे. अहा! ज्ञानी तो एने कहीए के जेने अंदर अतीन्द्रिय आनंदनो रसकंद प्रभु आत्मा छे एनुं वेदन-आस्वादन होय छे. केवो छे ते आस्वाद? तो कहे छे-ते अतीन्द्रिय आनंदना आस्वाद आगळ इन्द्र-इन्द्राणीना भोग-वैभव पण सडेला मींदडाना शरीर जेवा तुच्छ भासे छे. ल्यो, अतीन्द्रिय आनंदना रसनो रसियो आवो ज्ञानी होय छे.

अहीं कहे छे- ‘ज्ञानी तो शुद्ध आत्माना ज्ञानना सद्भावने लीधे स्वपरना विभागज्ञानथी,...’ जोयुं? ज्ञानीने शुद्ध आत्माना ज्ञाननो सद्भाव छे. एटले शुं? के आ शुद्ध चैतन्यना ध्रुव प्रवाहरूप-चैतन्य...चैतन्य...चैतन्य...एवा चैतन्यना ध्रुव प्रवाहरूप जे आत्मा छे ते हुं छुं एम ज्ञानी अनुभवे छे; अने तेथी आ ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव ते हुं स्व अने जे रागादि विकार छे ते पर छे एम स्वपरनुं एने विभागज्ञान नाम भेदज्ञान थयेलुं छे. अहा! ज्ञानी आवा भेदज्ञान वडे प्रकृतिना स्वभावथी निवर्त्यो छे. अहाहा....! हुं रागथी भिन्न अने निज चैतन्यस्वभावथी अभिन्न छुं एवुं भेदज्ञान थयुं होवाथी ज्ञानी प्रकृतिना स्वभावथी निवर्ती गयो छे.

तेवी रीते आ ज्ञानानंदस्वरूप अंदर भगवान छे ते हुं स्व अने आ हरखशोक ने रागादि विभाव ते पर-एम बेना विभागदर्शनथी सम्यग्द्रष्टि थयो थको ते प्रकृतिना स्वभावथी निवर्तेलो छे. शुं कीधुं? स्वपरनी विभागद्रष्टि वडे ज्ञानी प्रकृतिना स्वभावथी हठी गयो छे. वळी ते स्वपरनी विभागपरिणतिथी प्रकृतिना स्वभावथी खसी गयेलो छे. अहाहा...! स्वआश्रये प्रगट निर्मळ वीतराग परिणति ते स्वनी परिणति छे अने रागनी परिणति ते परपरिणति छे. आम बे परिणतिना विभाग वडे जे संयत थयो छे ते ज्ञानी प्रकृतिना स्वभावथी निवर्तेलो छे. छे? अंदर पाठमां छे के नहि? आ प्रमाणे धर्मी-ज्ञानी पुरुष स्वपरना विभागज्ञानथी, स्वपरना विभागदर्शनथी


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अने स्वपरनी विभागपरिणतिथी प्रकृतिना स्वभावथी निवर्तेलो छे, हठी गयेलो छे.

आ तो वीतरागनो मारग भाई! एनी ज्यारे गणधरदेव व्याख्या करे त्यारे एनी शी वात! केवळीना मुखमांथी ॐवाणी झरे अने एनी भगवान गणधर गूंथणी करे ए तो अलौकिक वात छे भाई! अहाहा...! केवळज्ञानना निमित्ते छूटती ए वाणी दिव्य अलौकिक होय छे. वाणी तो वाणी ना कारणे छुटे छे, भगवान सर्वज्ञदेव एना कर्ता नथी, सर्वज्ञ तो मात्र तेमां निमित्त छे अने तेथी एने भगवाननी वाणी कहे छे. अहा! ए भगवाननी वाणीमां जे विस्तार आवे ए आश्चर्यकारी अने अलौकिक होय छे. अहा! एने गणधरो, इन्द्रो, नरेन्द्रो नम्रीभूत थई बहु विनय भक्तिपूर्वक एकचित्ते सांभळे. अहा! ए वाणीनी उंडप अने गंभीरतानुं शुं कहेवुं! अपार... अपार गंभीर बापु!

अहीं आ पंचम आराना मुनिवर एने (-भगवाननी वाणीने) सादी भाषामां कहे छे के- ज्ञानी भेदज्ञान आदि वडे प्रकृतिना स्वभावथी निवर्तेलो छे. आ तो भाषा छे बापु! बाकी भाव तो एनो जे छे ते अति गंभीर छे. खेंचाय एटलो खेंचवो, समजाय एटलो समजवो बापु! शुं कहे छे? के अज्ञानी स्वपरना एकत्वज्ञान आदि वडे प्रकृतिना स्वभावमां स्थित थयेलो छे, ज्यारे ज्ञानी स्वपरना भेदज्ञान आदि वडे प्रकृतिना स्वभावथी निवर्तेलो छे. स्वपरनी विभागपरिणतिथी अर्थात् शुद्ध चैतन्यनी वीतरागी परिणतिथी ज्ञानी संयतपणे परिणत छे. अहाहा...! वीतरागपरिणतिए परिणमेलो ते धर्मी संयमी पुरुष छे. समजाय छे कांई....?

आ प्रमाणे ज्ञानी प्रकृतिना स्वभावथी निवर्तेलो होवाथी शुद्ध आत्माना स्वभावने एकने ज ‘हुं’ पणे अनुभवे छे, अने उदित कर्मफळने तो, अन्यज्ञेयनी जेम, परज्ञेयपणे जाणे ज छे, भोगवतो नथी. किंचित् हरखशोकना परिणाम थाय तेने ज्ञानी परज्ञेयपणे जाणे ज छे, वेदतो-भोगवतो नथी, केमके तेनुं ‘हुं’ पणे अनुभवावुं अशक्य छे.

तो शुं ज्ञानीने हरखशोकनुं वेदन बीलकुल होतुं ज नथी? ज्ञानीने हरखशोकनुं वेदन होतुं ज नथी एम वात नथी, तेने किंचित् हरखशोकनुं वेदन छे; परंतु तेने अंतरमां स्वभावनी अधिकता छे, तो स्वभावने मुख्य करीने, अने रागनुं वेदन छे तेने गौण गणीने ते रागने वेदतो नथी एम अहीं कह्युं छे. किंचित् रागनुं एने परिणमन छे, तो एटलुं एने वेदन पण छे, पण एने व्यवहार गणी, असत्यार्थ कही, तेनुं वेदन नथी एम अहीं कह्युं छे. कर्मफळने-हरखशोकने अने आत्मस्वभावने एम बेने नहि पण आत्मस्वभावने एकने ज ज्ञानी ‘हुं’ पणे अनुभवे छे एम अहीं सिद्ध करवुं छे. समजाय छे कांई....?


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प्रवचनसारमां छेल्ले ४७ नयनो अधिकार छे. त्यां कर्तानय अने भोक्तानय-एम बे नय ज्ञानीने होय छे एनी वात छे. त्यां कह्युं छे-

“आत्मद्रव्य कर्तृनये, रंगरेजनी माफक, रागादिपरिणामनुं करनार छे.” “आत्मद्रव्य भोक्तृनये सुखदुःखादिनुं भोगवनार छे, हितकारी-अहितकारी अन्नने खानार रोगीनी माफक.”

अहा! जेटलो व्यवहाररत्नत्रयना महाव्रतादिना विकल्परूपे ज्ञानी परिणमे छे तेटला परिणामनो ते कर्तानये कर्ता छे, पण ते मारुं स्व छे अने करवालायक छे एम नहि. तेवी रीते जेटलो हरखभाव आवी जाय तेटला परिणामनो ते भोक्ता पण छे; ते भोगववा लायक छे एम सुखबुद्धि एमां ज्ञानीने नथी. अस्थिरताथी भोगववाना परिणाम छे तेथी तेने भोक्ता कहे छे, अहीं ए वात नथी. अहीं तो कहे छे-ज्ञानी उदित कर्मफळने जाणे ज छे, पण एनुं ‘हुं’ पणे अनुभवावुं अशक्य होवाथी वेदतो नथी. अहाहा....! ज्ञानी हरखशोकना परिणामनो भोक्ता नथी; केमके तेने हरखशोकना परिणामनुं ‘हुं’ पणे अनुभवावुं अशक्य छे. उदित कर्मफळ मारुं स्व छे एम ज्ञानी कदीय अनुभवी शकता नथी.

भाई! आ तारी दया पाळवानी वात चाले छे. पोते जेवडो छे तेवडो स्वीकारीने, रागथी भिन्न पडी स्वस्वरूपमां एकाग्र थई ठरवुं एनुं नाम पोतानी दया-स्वदया छे. अंदर वीतरागमूर्ति पोते आत्मा छे तेमां निमग्न थई वीतरागपरिणतिए परिणमे ते जीवदया नाम स्वदया छे. बाकी परनी दया कोण पाळी शके छे? परनी दया पाळवानो विकल्प आवे पण तेने ‘हुं’ पणे ज्ञानी अनुभवता नथी अने परनुं (टकवारूप) परिणमन तो जेम थवुं होय तेम ते काळे थाय छे, तेनो कोई (बीजो) कर्ता नथी.

भाई! जगतनी प्रत्येक वस्तु-आत्मा के परमाणु कोईपण समयमां नकामी (- परिणमन विनानी खाली) नथी. दरेक द्रव्य, दरेक आत्मा ने परमाणु प्रतिसमय पोतानी पर्यायरूप कार्य कर्या ज करे छे; कार्य विना कोई वस्तु कोई काळे खाली होय ज नहि. जो आम छे तोपछी परनुं कार्य, परनी दया तुं केम करी शके? न करी शके.

अहा! जेणे रागथी भिन्न पडीने अंदर भेदज्ञान प्रगट कर्युं ते ज्ञाननो बळियो मोक्षपंथे चढयो छे; ते हवे पाछो नहि फरे, मोक्ष करीने ज रहेशे. अहा! आवो धर्मी पुरुष, अहीं कहे छे, प्रकृतिना स्वभावथी खसी गयेलो होवाथी, एक स्वस्वभावने ज- चिन्मात्रभावने ज ‘हुं’ पणे अनुभवे छे; उदित कर्मफळने तो ए मात्र जाणे ज छे, भोगवतो नथी केमके ते मारुं छे एवी द्रष्टिनो एने अभाव थई गयो छे.


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* गाथा ३१६ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अज्ञानीने तो शुद्ध आत्मानुं ज्ञान नथी तेथी जे कर्म उदयमां आवे तेने ज ते पोतारूप जाणीने भोगवे छे; अने ज्ञानीने शुद्ध आत्मानो अनुभव थई गयो छे तेथी ते प्रकृतिना उदयने पोतानो स्वभाव नहि जाणतो थको तेनो ज्ञाता ज रहे छे, भोक्ता थतो नथी.’

शुं कहे छे? के हुं ज्ञानानंदस्वभावी आत्मा छुं एम अज्ञानीने स्वसंवेदन नथी, ज्ञान नथी. तेथी कर्मना उदय निमित्ते तेने जे पुण्य-पाप ने हरख-शोकना भाव थाय तेने ते पोतानुं स्व जाणीने भोगवे छे. ज्यारे ज्ञानीने हुं पूर्णानंदनो नाथ पूरण ज्ञान अने आनंदनो पिंड छुं एवो स्वानुभव वर्ते छे, तेने स्वना आश्रये निराकुळ आनंदनुं वेदन थयुं छे अने तेने ज ते पोतानुं स्व जाणे छे. ते प्रकृतिना उदयने-पुण्य-पापना ने हरख-शोकना भावने पोतानुं स्व मानतो नथी. तेथी ते रागनो भोक्ता नथी, ज्ञाता ज छे. भाई! समकिती चक्रवर्ती ९६००० राणीओना वृंदमां रहेतो होय तोपण ते विषयनो भोक्ता नथी. विषयमां स्वपणुं ने सुखबुद्धि नथी ने? तेथी ते भोक्ता नथी. आवी वात अज्ञानीने बेसती नथी.

परंतु भाई! आ तो सर्वज्ञ परमेश्वरनो हुकम छे; के तारी जातने तें जाणी नहि तेथी अज्ञानपणे तुं विकारनो भोगवनार छो. आ स्त्रीनुं शरीर, दाळ, भात, लाडवा इत्यादिने आत्मा भोगवे छे-भोगवी शके छे ए तो छे नहि, केमके ए तो बधा पर अने जड पदार्थो छे. परनो ने जडनो भोगवटो ज्ञानी-अज्ञानीने कोईने होतो नथी. पण अज्ञानी कर्मना संगे उत्पन्न थयेला विकारने भोगवे छे; ज्यारे ज्ञानीने अंतरमां भेदज्ञान थयुं छे. तेणे अंतर्द्रष्टिमां स्वभाव-विभाव, स्वपरिणति ने परपरिणतिना विभाग पाडी दीधा छे. तेथी ते निराकुळ आनंदने स्वपणे वेदे छे, अने प्रकृति-स्वभावने-विकारने छोडी दे छे अर्थात् स्वपणे अनुभवतो नथी. ते विकारनो मात्र ज्ञाता ज रहे छे, भोक्ता थतो नथी.

आ प्रमाणे ज्ञानी कर्मफळनो जाणनार-देखनार छे, भोक्ता नथी.

*

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश १९७ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अज्ञानी प्रकृति–स्वभाव–निरतः नित्यं वेदकः भवेत्’ अज्ञानी प्रकृतिस्वभावमां लीन-रक्त होवाथी (-तेने ज पोतानो स्वभाव जाणतो होवाथी) सदा वेदक छे, ‘तु’ अने ‘ज्ञानी प्रकृति–स्वभाव–विरतः जातुचित् वेदकः नो’ ज्ञानी तो प्रकृतिस्वभावथी विराम


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पामेलो-विरक्त होवाथी (-तेने परनो स्वभाव जाणतो होवाथी) कदापि वेदक नथी.

पुण्य-पाप आदि शुभाशुभ भाव छे ते आत्मानो स्वभाव नथी, पण जड प्रकृतिनो स्वभाव छे. दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादिना भाव प्रकृतिनो स्वभाव छे. अज्ञानी आ प्रकृतिना स्वभावने पोतानो स्वभाव जाणे छे; तेथी ते वेदक छे, भोक्ता छे. ज्यारे धर्मी जीवने स्वपरनुं भेदज्ञान थयुं छे. हुं परम आनंदमय शुद्ध ज्ञायक तत्त्व छुं अने आ पुण्य-पापना भाव भिन्न आस्रव तत्त्व छे. आम बन्नेनुं भेदज्ञान थयेलुं होवाथी धर्मी जीव-प्रकृतिना स्वभावथी विराम पामेलो छे. ते विकारना पडखेथी खसीने स्वभावना पडखे आवेलो छे. तेथी ते विकारनो वेदक कदीय थतो नथी. अहाहा...! निराकुळ आनंदना वेदनमां चढेलो ज्ञानी विकारनो वेदक थतो नथी. जोके तेने व्रत, तप, भक्ति, जात्रा इत्यादिना भाव आवे छे खरा, पण अंतरमां ते एनाथी विरत छे, उदासीन छे; तेथी ते विकारनो भोक्ता नथी.

धर्मी जीव शुभाशुभभावने कर्मनी उपाधिजनित औपाधिकभाव जाणे छे; तेथी ते एनाथी विरक्त थयेलो छे; कदापि ए तेनो वेदक थतो नथी. बीजे एम आवे के ज्ञानीने आनंदधारा अने रागधारा बन्ने साथे होय छे. रागथी ते विरक्त छे छतां तेनो वेदक पण छे. एक समयमां आनंद अने दुःखनुं वेदन साथे होय छे. अहीं ए वात नथी. अहीं तो दुःखना वेदनने गौण करी तेने व्यवहार गणी असत्यार्थ जाणी काढी नाख्युं छे. तेथी कह्युं के ज्ञानी प्रकृतिना स्वभावनो वेदक नथी.

ज्ञानीने सर्वथा दुःखनुं वेदन छे ज नहि एम कोई कहे तो ते बराबर नथी. जुओ, छठ्ठा गुणस्थानवर्ती भावलिंगी मुनिवरने अंदर अतीन्द्रिय आनंदनुं प्रचुर स्वसंवेदन होय छे छतां जेटलो अल्प राग छे एटलुं दुःखनुं वेदन पण छे. अहीं द्रष्टिनी प्रधानतामां एने दुःखनुं वेदन नथी एम कहीए छीए. भाई! अपेक्षा समज्या विना कोई एकान्त खेंचे तो ते भगवाननो मारग नथी.

ज्ञानी रागना भावथी विराम पामेलो होवाथी कदापि वेदक नथी. जेम सक्करकंदनी उपरनी रातडने लक्षमां न लो तो ते अंदर साकरनी मीठाशनो पिंड छे. तेम आ भगवान आत्माने पर्यायमां थता रातड समान शुभाशुभभावने लक्षमां न लो तो अंदर ते अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंदनो रसकंद छे. अज्ञानीओ रातड समान रागने वेदे छे, ज्यारे ज्ञानी अंदरना ज्ञानानंदरसने वेदे छे. आमां लोकोने लागे के आ तो निश्चयनी वात एटले सत्यार्थ वात अने व्यवहार एटले उपचार असत्यार्थ. व्यवहार व्यवहारपणे सत्यार्थ छे. पण निश्चयनी द्रष्टिमां व्यवहार असत्यार्थ ज छे. आवी वात छे.

महाविदेहमां भगवान साक्षात् विराजे छे. त्यां आ जीव अनंतवार उपज्यो


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अने अनंतवार भगवानना समोसरणमां जई आव्यो. भगवाननां दर्शन, पूजा कर्यां अने मणिरत्नना दीवाथी आरती उतारी. पण भाई! ए बधो शुभराग प्रकृतिनो स्वभाव बापु! अज्ञानदशामां जीव एने धर्म मानीने वेदे छे, ज्यारे धर्मीने एवा शुभभाव आवे छे खरा, पण एनो ते कर्ता-भोक्ता थतो नथी, मात्र जाणनारपणे ज रहे छे; धर्मी तो अतीन्द्रिय आनंदरसना स्वादने वेदे छे.

लोकोने दया, दान, भक्ति वगेरेनो सहेलो मार्ग गमे; पण भाई! ए तो मार्ग ज नथी. ए तो बधी रागनी क्रियाओ प्रकृतिनो स्वभाव छे अने ए वडे धर्म थवानुं माने ए मिथ्यादर्शन छे. हवे कहे छे-

अज्ञानी रागनो सदा वेदक छे; ज्ञानी रागनो कदापि वेदक नथी. ‘इति एवं नियमं निरूप्य’ आवो नियम बराबर विचारीने-नक्की करीने ‘निपुणैः अज्ञानिता त्यज्यताम’ निपुण पुरुषो अज्ञानीपणाने छोडो अने ‘शुद्ध–एक–आत्ममये महसि’ शुद्ध एक आत्मामय तेजमां ‘अचालतैः’ निश्चळ थईने ‘ज्ञानिता आसेव्यताम’ ज्ञानीपणाने सेवो.

जुओ, आ उपदेश! शुं कहे छे? के हे निपुण पुरुषो! अज्ञानीपणाने छोडी दईने, रागने मारापणे वेदवानुं छोडी दईने शुद्ध एक आत्मामय तेजमां निश्चळ थईने ज्ञानीपणाने सेवो, निराकुळ आनंदने अनुभवो. जुओ, अहीं परवस्तुने छोडो एम वात नथी, केमके परनां ग्रहण- त्याग तो आत्मामां कदी त्रणकाळमां नथी. अहीं तो एणे राग अने पुण्य परिणाम मारा छे एम जे अनादि अज्ञानवश पकड करी छे ते मिथ्यात्व भाव छे अने तेने छोडो एम उपदेश छे. भाई! आवा रूडा अवसर मळ्‌या, भगवान जिनेन्द्रनी वाणी काने पडवानो योग मळ्‌यो तो कहे छे- आ नियम बराबर जाणीने रागने पोतानो स्वभाव जाणवानुं छोडी दे अने शुद्ध एक चैतन्यतेजमां निश्चळ थईने ज्ञानीपणानुं सेवन कर.

जुओ, सामे मोटो जळनो दरियो भर्यो होय, पण नजर सामे चादरनी आड आवी जाय तो मोटो दरियो देखाय नहि; तेम अंदर अनंत गुण-स्वभावनो भरेलो ज्ञानानंदस्वरूप प्रभु आत्मा मोटो दरियो छे; पण पुण्य-पापभाव मारा छे एवी मान्यतानी आडमां बेहद स्वभावथी भरेलो मोटो चैतन्यसिंधु एने देखातो नथी. तेथी कहे छे-भाई! पुण्य-पापना भाव मारा छे एवा अज्ञानभावने छोडी दे. पुण्य-पापना भाव मारा छे एवी मान्यता अज्ञानभाव छे.

हा, पण तेने छोडीने शुं करवुं? शुद्ध एक आत्मामय चैतन्यतेजमां निश्चळ थईने ज्ञानभावनुं सेवन कर. अहाहा..! अंदर ज्ञानानंदस्वरूप पोते भगवान छे तेनी सेवा कर, तेमां रमी जा अने तेमां ज ठरी जा; तेथी तने परमानंदनी प्राप्ति थशे. आवो मारग छे बापु!


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भाई! आ देह तो जड-माटी-धूळ छे. तेनी अवधि थतां ते फडाक छूटी जशे, अने तुं भवसमुद्रमां क्यांय डूबी जईश. त्यां तारी कोई खबर लेनारुं नहि होय (एम के त्यां तारी अयोग्यता जाणीने कोई उपदेश देनारुं नहि होय). जो आ अवसरे मिथ्यात्व न छूटयुं तो अनंतभव माथे ऊभा छे. अरे! कीडा, कीडी, कागडा, कुतरा, कोळ, नोळ इत्यादिना अनंता भव ऊभा थशे. माटे ‘राग हुं नहि, ज्ञान ज हुं छुं’ एवा द्रढ संस्कार नाख. ओहो! कहे छे-- निज शुद्ध चैतन्यतेजमां निश्चळ थईने ज्ञानीपणानुं सेवन कर. ल्यो, भव्य जीवोने संतोए करुणा करीने आवो उपदेश कर्यो छे.

[प्रवचन नं. ३८० (शेष) ३८१ * दिनांक २७-६-७७ थी २९-६-७७]

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गाथा–३१७

अज्ञानी वेदक एवेति नियम्यते–

ण मुयदि पयडिमभव्वो सुट्ठु वि अज्झाइदूण सत्थाणि।
गुडदुद्धं पि पिबंता ण पण्णया णिव्विसा होंति।। ३१७।।
न मुञ्चति प्रकृतिमभव्यः सुष्ठ्वपि अधीत्य शास्त्राणि।
गुडदुग्धमपि पिबन्तो न पन्नगा निर्विषा भवन्ति।। ३१७।।

हवे, ‘अज्ञानी वेदक ज छे’ एवो नियम करवामां आवे छे (अर्थात् ‘अज्ञानी भोक्ता ज छे’ एवो नियम छे-एम कहे छे)ः-

सुरीते भणीने शास्त्र पण प्रकृति अभव्य नहीं तजे,
साकरसहित क्षीरपानथी पण सर्प नहि निर्विष बने. ३१७

गाथार्थः– [सुष्ठु] सारी रीते [शास्त्राणि] शास्त्रो [अधीत्य अपि] भणीने पण [अभव्यः] अभव्य [प्रकृतिम्] प्रकृतिने (अर्थात् प्रकृतिना स्वभावने) [न मुञ्चति] छोडतो नथी, [गुडदुग्धम्] जेम साकरवाळुं दूध [पिबन्तः अपि] पीतां छतां [पन्नगाः] सर्पो [निर्विषाः] निर्विष [न भवन्ति] थता नथी.

टीकाः– जेम आ जगतमां सर्प विषभावने पोतानी मेळे छोडतो नथी अने विषभाव छोडाववाने (मटाडवाने) समर्थ एवा साकरसहित दूधना पानथी पण छोडतो नथी, तेम खरेखर अभव्य प्रकृतिस्वभावने पोतानी मेळे छोडतो नथी अने प्रकृतिस्वभाव छोडाववाने समर्थ एवा द्रव्यश्रुतना ज्ञानथी पण छोडतो नथी; कारण के तेने सदाय, भावश्रुतज्ञानस्वरूप शुद्धात्मज्ञानना (-शुद्ध आत्माना ज्ञानना) अभावने लीधे, अज्ञानीपणुं छे. आथी एवो नियम करवामां आवे छे (अर्थात् एवो नियम ठरे छे) के अज्ञानी प्रकृतिस्वभावमां स्थित होवाथी वेदक ज छे (-कर्मनो भोक्ता ज छे).

भावार्थः– आ गाथामां, अज्ञानी कर्मना फळनो भोक्ता ज छे-एवो नियम कह्यो. अहीं अभव्यनुं उदाहरण युक्त छे. अभव्यनो एवो स्वयमेव स्वभाव छे के द्रव्यश्रुतनुं ज्ञान आदि बाह्य कारणो मळवा छतां अभव्य जीव, शुद्ध आत्माना ज्ञानना अभावने लीधे, कर्मना उदयने भोगववानो स्वभाव बदलतो नथी; माटे आ


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उदाहरणथी स्पष्ट थाय छे के शास्त्रोनुं ज्ञान वगेरे होवा छतां ज्यां सुधी जीवने शुद्ध आत्मानुं ज्ञान नथी अर्थात् अज्ञानीपणुं छे त्यां सुधी ते नियमथी भोक्ता ज छे.

*
समयसार गाथा ३१७ः मथाळुं

हवे, ‘अज्ञानी वेदक ज छे’ एवो नियम करवामां आवे छे. (अथार्त ‘अज्ञानी भोक्ता ज छे’ एवो नियम छे’ - एम कहे छे)ः-

* गाथा ३१७ः टीका उपरनुं प्रवचन *

जेम आ जगतमां सर्प विषभावने पोतानी मेळे छोडतो नथी अने विषभावने छोडाववाने (मटाडवाने) समर्थ एवा साकरसहित दूधना पानथी पण छोडतो नथी, तेम खरेखर अभव्य प्रकृतिस्वभावने पोतानी मेळे छोडतो नथी अने प्रकृति स्वभाव छोडाववाने समर्थ एवा द्रव्यश्रुतना ज्ञानथी पण छोडतो नथी; कारण के तेने सदाय, भावश्रुतज्ञानस्वरूप शुद्धात्मज्ञानना (-शुद्ध आत्माना ज्ञानना) अभावने लीधे, अज्ञानीपणुं छे.’

जुओ, सर्पनी दाढमां झेर होय छे. ते पोतानी मेळे एने छोडतो नथी, तथा विष छोडाववाने समर्थ एवा साकरसहित दूधपानथी पण एने ए छोडतो नथी. आ द्रष्टांत कीधुं.

तेम, कहे छे, अभव्य जीव प्रकृतिस्वभावने पोतानी मेळे छोडतो नथी तथा प्रकृतिस्वभावने छोडाववा समर्थ एवा द्रव्यश्रुतना ज्ञानथी पण छोडतो नथी. जुओ, वीतराग सर्वज्ञ परमात्मानी ॐध्वनि अनुसार रचायेलां परमागम ते द्रव्यश्रुत छे. मिथ्यात्वनुं वमन करावी दे एवी वीतरागनी वाणी छे. वीतरागनी वाणी-द्रव्यश्रुत मिथ्यात्वभाव छोडवानुं निमित्त छे. अहीं कहे छे, आवां द्रव्यश्रुत भणीने पण प्रकृतिस्वभावने- मिथ्यात्वादिने अज्ञानी छोडतो नथी. जेम सर्प साकरवाळुं दूध पीतां छतां विषभावने छोडतो नथी तेम अभवि जीव अगियार अंग ने नवपूर्वनुं ज्ञान करतां छतां मिथ्यात्वादिभावने छोडतो नथी; कारण के तेने सदाय भावश्रुतज्ञानस्वरूप शुद्धात्मज्ञानना अभावने लीधे अज्ञानीपणुं छे.

शुं कीधुं? अभवि जीव अगियार अंग ने नवपूर्वनो पाठ भणवा छतां मिथ्यात्वादिने छोडतो नथी, केम? केमके तेने सदाय अतीन्द्रिय आनंदना वेदनयुक्त शुद्धात्मज्ञाननो अभाव छे निर्मळ भावश्रुतज्ञाननो अभाव छे. अहा! भगवान आत्मा वीतरागी निर्मळ भावश्रुतज्ञानथी जणाय एवी चीज छे, कोरा शास्त्रज्ञानथी ए जणाय एम नथी. तेथी भगवाने कहेलां हजारो शास्त्रोनुं ज्ञान करीने पण ते स्वस्वरूपने जाणतो नथी अने मिथ्यात्वादिने कदी छोडतो नथी.


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अहा! धर्मपिता देवाधिदेव अरिहंत परमात्मा कहे छे- हे जीव! तारा स्वभावमां अंदर ज्ञानानंदरस भर्यो छे, तेने भावश्रुतज्ञानथी जाण-अनुभव. अरे! एम न करतां भगवान! तुं रागनी मंदतानी व्यभिचारी क्रियामां रोकाई गयो! अहा! तारुं भर्युंभादरुं (ज्ञानानंदरसथी भरेलुं पूरण) घर मूकीने तुं रागने घर क्यां चढी गयो प्रभु! भाई! भगवानना शास्त्रोमां तो वीतरागभाव प्रगट करवानो उपदेश छे. अहा! ए द्रव्यश्र्रुतने सांभळीने तें वीतरागभाव प्रगट न कर्यो ने रागमां ज धर्म मानीने रोकाई गयो! तो द्रव्यश्रुतथी तने शुं लाभ थयो? कांई ज नहि. द्रव्यश्रुतमां परसन्मुखता छोडीने स्वसन्मुख थवानो उपदेश छे. पण स्वसन्मुखता करी नहि तो एनो शुं गुण थयो? कांई न थयो.

हवे कहे छे - ‘आथी एवो नियम करवामां आवे छे (अर्थात् एवो नियम ठरे छे) के अज्ञानी प्रकृतिस्वभावमां स्थित होवाथी वेदक ज छे (-कर्मनो भोक्ता ज छे).’

ल्यो, आ नियम कह्यो के अज्ञानी प्रकृतिस्वभावमां एटले के मिथ्यात्वादि भावोमां स्थित होवाथी रागादिभावोनो वेदनारो ज छे. अहीं अभविनुं तो द्रष्टांत छे, बाकी भवि अज्ञानी जीव पण अनेक शास्त्रो भणवा छतां ज्यांसुधी निर्मळ भाव-श्रुतज्ञान प्रगट करतो नथी त्यांसुधी अज्ञानीपणाने लीधे भोक्ता ज छे. रागनुं वेदन छोड, अने स्वसन्मुख थई स्वरूपनुं वेदन कर-द्रव्यश्रुतमां तो आ आज्ञा आवी छे. आ सांभळीने पण जो कोई जीव प्रकृतिस्वभावने-रागादिने छोडतो नथी तो ते अज्ञानीपणाने लीधे भोक्ता ज छे. जेम अभवि भोक्ता ज छे तेम अज्ञानी जीव पण भोक्ता छे.

* गाथा ३१७ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आ गाथामां, अज्ञानी कर्मना फळनो भोक्ता ज छे-एवो नियम कह्यो. अहीं अभव्यनुं उदाहरण युक्त छे. अभव्यनो एवो स्वयमेव स्वभाव छे के द्रव्यश्रुतनुं ज्ञान आदि बाह्य कारणो मळवा छतां अभव्य जीव, शुद्ध आत्माना ज्ञानना अभावने लीधे, कर्मना उदयने भोगववानो स्वभाव बदलतो नथी; माटे आ उदाहरणथी स्पष्ट थाय छे के शास्त्रोनुं ज्ञान वगेरे होवा छतां ज्यां सुधी जीवने शुद्ध आत्मानुं ज्ञान नथी अर्थात् अज्ञानीपणुं छे त्यांसुधी ते नियमथी भोक्ता ज छे.

आत्मा अंदर अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंदनो रसकंद छे. एना अंतर-अनुभवनी जेने दशा नथी ते अज्ञानी छे. चिदानंदघन प्रभु आत्मानी अंतर्द्रष्टि विना पुण्य-पापना भाव जे थाय ते मारुं निजस्वरूप छे एम जे माने छे ते अज्ञानी छे. अहीं कहे छे- आवो अज्ञानी जीव कर्मफळनो भोक्ता ज छे. हरख-शोक विनानी पोतानी चीज अंदर त्रिकाळ आनंदस्वरूप छे. तेनुं भान कर्या विना कर्मोदयना निमित्ते जे शुभाशुभ भाव थाय तेनो ए कर्ता थईने भोगवनारो ज छे. सानुकूळ


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चीजना लक्षे तेने हरख थाय अने प्रतिकूळ चीजना लक्षे तेने शोक थाय. परम पवित्र पोताना आत्मस्वरूपना भान विना अज्ञानी जीव आ हरख-शोकना भावोने भोगवे ज छे. आ नियम कह्यो.

अहीं योग्य रीते ज अभव्यनुं द्रष्टांत आप्युं छे. अभव्य जीवनी एक जाति छे. जेम कोरडुं मग होय तेने गमे तेटलो नीचेथी पाक आपो तोपण ते पाणीमां बफाय-चढे नहि. तेम जीवनी अभव्य एक जाति एवी छे के तेने कोईपण प्रकारे आत्मानुभव न थाय, ते कोईपण प्रकारे क्यारेय सीझे नहि. अभव्य एटले धर्म पामवाने नालायक. तेने सदाय कर्मफळनुं ज वेदन होय छे.

भगवाननी वाणी छूटी तेमांथी आ शास्त्रो रचायां छे. तेमां आ आव्युं छे के जगतमां मोक्षने लायक अनंता भव्य जीवो छे, अने तेना अनंतमा भागे अभव्यो छे. पं. श्री जयचंदजी कहे छे -अहीं अभव्यनुं उदाहरण युक्त छे, केमके अभव्यनो स्वयमेव स्वभाव छे के द्रव्यश्रुत आदि अनेक बाह्य कारणो मळवा छतां ते शुद्ध आत्माना ज्ञानना अभावने लीधे, कर्मना उदयने भोगववानो स्वभाव बदलतो नथी.

अभव्य जीव हजारो शास्त्रो भणे, हजारो राणीओ छोडी नग्न दिगंबर मुनि दशा अंगीकार करे अने बहारमां महाव्रतादि बराबर पाळे; बहारमां एने व्यवहार श्रद्धा बराबर होवा छतां अंदर निजानंदस्वरूपनुं ज्ञान श्रद्धान तेने कदीय थतुं नथी. हुं परम पवित्र शुद्ध एक ज्ञानानंदस्वभावी आत्मा छुं एवो अनुभव एने कदापि थतो नथी. तेथी ते कर्मना उदयने भोगववानो स्वभाव बदलतो ज नथी. स्वरूपश्रद्धाननो तेने सदाय अभाव होवाथी ते कर्मफळने सदा भोगवे ज छे.

अत्यारे तो लोको आ करो ने ते करो एम बाह्य क्रियाओमां ज धर्म थवानुं साधन बतावे छे; पण भाई! बाह्य क्रियाकांड कोई वास्तविक साधन नथी, केमके अनेक क्रियाकांड करवा छतां अभवि जीवने धर्मप्राप्ति थती नथी, आत्मानुभव थतो नथी; ते कर्मना उदयने भोगववानो स्वभाव बदलतो नथी. आ तो उदाहरण आप्युं छे.

आ उदाहरण परथी स्पष्ट थाय छे के शास्त्रोनुं ज्ञान वगेरे होवा छतां ज्यां सुधी जीवने शुद्ध आत्मानुं ज्ञान नथी एटले के अज्ञानीपणुं छे त्यां सुधी जीव नियमथी भोक्ता ज छे. अहाहा...! शास्त्रनुं ज्ञान वगेरे होय, पण अंदर शुद्ध चैतन्यसत्ता छे तेनुं ज्ञान न होय तो ए बहारना साधनोथी कांई लाभ नथी. शास्त्रनुं ज्ञान, देव-गुरु- शास्त्रनुं अने नवतत्त्वोनुं भेदरूप श्रद्धान अने महाव्रतादिनुं पालन-ए तो बधो शुभराग छे; एनाथी कांई लाभ नथी. अंदर स्वस्वरूपना वेदनमां ए ज्यां सुधी गयो नथी त्यां सुधी ते अज्ञानी ज छे अने त्यां सुधी ते


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नियमथी भोक्ता ज छे. अंतर-स्वरूपना ज्ञान-श्रद्धान ने रमणता थया विना बाह्य साधनो कोई आत्माने तारी दे एम नथी.

अहा! पोते केवडो छे ने केवो छे- एनुं स्वसन्मुख थईने ज्ञान (स्वसंवेदनज्ञान) कर्या विना एक शास्त्रज्ञानथी संसार तरी शकातो नथी. हजु तो वेपार-धंधा, स्त्री-पुत्र परिवार अने विषयभोग इत्यादि संसारी प्रवृत्तिओ आडे एने शास्त्रभणतरनांय ठेकाणां नथी त्यां एने धर्म तो शुं, सरखुं पुण्येय क्यांथी थाय? अरे! जीवननो मोटो भाग तो एने संसारनी पापमय प्रवृत्तिओमां ज चाल्यो जाय छे. मांड कलाक बे कलाक सांभळवानो वखत मळे तो एने संभळावनारा कुगुरु मळी जाय. तेओ आने रागनी क्रियामां धर्म मनावी दे. बस थई रह्युं. आ रीते जीवन लूंटाई जाय छे, वेडफाई जाय छे.

वीतराग जैन परमेश्वरे कहेलो धर्मनो मारग अपूर्व ने अलौकिक छे. भाई! ज्यां सुधी शुद्ध चैतन्यमात्र पोताना आत्मानुं ज्ञान नथी. त्यां सुधी ते अज्ञानी छे अने अज्ञानमयपणाने लीधे ते विकारनो भोक्ता ज छे.

जगतना भौतिक पदार्थो, स्त्रीनुं शरीर, खान-पानना पुद्गलो इत्यादि तो अनंतवार अनुभवमां आवी गया छे. तेथी ते बधा एंठ छे. ज्ञानी ते बधाने एंठवत् जाणे छे. आवे छे ने के-

सकळ जगत ते एंठवत्, अथवा स्वप्न समान;
ते कहीए ज्ञानीदशा, बाकी वाचा ज्ञान.

परंतु रे! अंदर पूर्णानंदनो नाथ प्रभु पोते छे तेनुं वेदन न करे त्यां सुधी अज्ञानी जीव शुभाशुभनो ने हरखशोकनो भोक्ता ज छे.

[प्रवचन नं. ३८१*दिनांक २९-६-७७]

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गाथा–३१८

ज्ञानी त्ववेदक एवेति नियम्यते–

णिव्वेयसमावण्णो णाणी कम्मप्फलं वियाणेदि।
महुरं कडुयं बहुविहमवेयओ तेण सो होइ।। ३१८।।
निर्वेदसमापन्नो ज्ञानी कर्मफलं विजानाति।
मधुरं कटुकं बहुविधमवेदकस्तेन स भवति।। ३१८।।

हवे ज्ञानी तो कर्मफळनो अवेदक ज छे-एवो नियम करवामां आवे छेः-

निर्वेदने पामेल ज्ञानी कर्मफळने जाणतो,
–कडवा मधुर बहुविधने, तेथी अवेदक छे अहो! ३१८.

गाथार्थः– [निर्वेदसमापन्नः] निर्वेदप्राप्त (वैराग्यने पामेलो) [ज्ञानी] ज्ञानी [मधुरम् कटुकम्] मीठा-कडवा [बहुविधम्] बहुविध [कर्मफलम्] कर्मफळने [विजानाति] जाणे छे [तेन] तेथी [सः] ते [अवेदकः भवति] अवेदक छे.

टीकाः– ज्ञानी तो जेमांथी भेद दूर थया छे एवुं भावश्रुतज्ञान जेनुं स्वरूप छे एवा शुद्धात्मज्ञानना (-शुद्ध आत्माना ज्ञानना-) सद्भावने लीधे, परथी अत्यंत विरक्त होवाथी प्रकृतिस्वभावने (-कर्मना उदयना स्वभावने) स्वयमेव छोडे छे तेथी उदयमां आवेला अमधुर के मधुर कर्मफळने ज्ञातापणाने लीधे केवळ जाणे ज छे, परंतु ज्ञान होतां (-ज्ञान होय त्यारे-) परद्रव्यने ‘हुं’ पणे अनुभववानी अयोग्यता होवाथी (ते कर्मफळने) वेदतो नथी. माटे, ज्ञानी प्रकृतिस्वभावथी विरक्त होवाथी अवेदक ज छे.

भावार्थः– जे जेनाथी विरक्त होय ते तेने स्ववशे तो भोगवे नहि, अने परवशे भोगवे तो तेने परमार्थे भोक्ता कहेवाय नहि. आ न्याये ज्ञानी-के जे प्रकृतिस्वभावने (-कर्मना उदयने) पोतानो नहि जाणतो होवाथी तेनाथी विरक्त छे ते-स्वयमेव तो प्रकृतिस्वभावने भोगवतो नथी, अने उदयनी बळजोरीथी परवश थयो थको पोतानी निर्बळताथी भोगवे तो तेने परमार्थे भोक्ता कहेवाय नहि, व्यवहारथी भोक्ता कहेवाय. परंतु व्यवहारनो तो अहीं शुद्धनयना कथनमां अधिकार नथी; माटे ज्ञानी अभोक्ता ज छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-


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(वसन्ततिलका)
ज्ञानी करोति न न वेदयते च कर्म
जानाति केवलमयं किल तत्स्वभावम्।
जानन्परं करणवेदनयोरभावा–
च्छुद्धस्वभावनियतः स हि मुक्त एव।। १९८।।

श्लोकार्थः– [ज्ञानी कर्म न करोति च न वेदयते] ज्ञानी कर्मने करतो नथी तेम ज वेदतो नथी, [तत्स्वभावम् अयं किल केवलम् जानाति] कर्मना स्वभावने ते केवळ जाणे ज छे. [परं जानन्] एम केवळ जाणतो थको [करण–वेदनयोः अभावात्] करणना अने वेदनना (-करवाना अने भोगववाना-) अभावने लीधे [शुद्ध–स्वभावनियतः सः हि मुक्तः एव] शुद्ध स्वभावमां निश्चळ एवो ते खरेखर मुक्त ज छे.

भावार्थः– ज्ञानी कर्मनो स्वाधीनपणे कर्ता-भोक्ता नथी, केवळ ज्ञाता ज छे; माटे ते केवळ शुद्धस्वभावरूप थयो थको मुक्त ज छे. कर्म उदयमां आवे पण छे, तोपण ज्ञानीने ते शुं करी शके? ज्यां सुधी निर्बळता रहे त्यां सुधी कर्म जोर चलावी ले; क्रमे क्रमे सबळता वधारीने छेवटे ते ज्ञानी कर्मनो निर्मूळ नाश करशे ज. १९८.

*
समयसार गाथा ३१८ः मथाळुं

हवे ज्ञानी तो कर्मफळनो अवेदक ज छे-एवो नियम करवामां आवे छेः-

* गाथा ३१८ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञानी तो जेमांथी भेद दूर थाय छे एवुं भावश्रुतज्ञान जेनुं स्वरूप छे एवा शुद्धात्मज्ञानना (-शुद्ध आत्माना ज्ञानना-) सद्भावने लीधे, परथी अत्यंत विरक्त होवाथी प्रकृतिस्वभावने (-कर्मना उदयना स्वभावने) स्वयमेव छोडे छे तेथी उदयमां आवेला अमधुर के मधुर कर्मफळने ज्ञातापणाने लीधे केवळ जाणे ज छे, परंतु ज्ञान होतां (-ज्ञान होय त्यारे-) परद्रव्यने ‘हुं’ पणे अनुभववानी अयोग्यता होवाथी (ते कर्मफळने) वेदतो नथी.’

‘ज्ञानी तो....’ अहाहा...! ज्ञानी नाम धर्मी एने कहीए जेने पोताना शुद्ध एक ज्ञाताद्रष्टास्वरूप त्रिकाळी ध्रुवनी द्रष्टि थई छे. अहाहा...! पूर्णानंदनो नाथ पूर्ण ज्ञानघन प्रभु पोते आत्मा छे तेनो पोतानी दशामां जेने स्वीकार थयो छे ते ज्ञानी छे. अहीं कहे छे-ज्ञानी तो जेमांथी भेद दूर थया छे एवुं भावश्रुतज्ञान जेनुं स्वरूप छे एवा शुद्धात्मज्ञानना सद्भावने लीधे परथी अत्यंत विरक्त छे. भाई! आ पुण्य-पाप के हरख-शोक इत्यादि जे परिणाम थाय एनाथी ज्ञानी अत्यंत


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विरक्त छे. एटले शुं? के ते भाव मारा छे एम ज्ञानीने स्वीकार नथी. अहा! समकिती धर्मात्मा कोई राजपाटमां हो तोपण राजपाट एने मन धूळधाणी छे. रागनो एक कण पण मारो छे एम धर्मी पुरुष स्वीकारता नथी. आवे छे ने के-

चक्रवर्तीकी संपदा, इन्द्र सरिखा भोग;
कागविट् सम गिनत है सम्यग्द्रष्टि लोग.

अहाहा....! राजपाट तो हुं नहि पण एक समयनी पर्यायनो जे भेद पडे छे तेय हुं नहि; हुं तो शुद्ध एक चिन्मात्र-वस्तु आत्मा छुं एम समकिती-ज्ञानी अनुभवे छे. समजाणुं कांई...?

‘जेमांथी भेद दूर थया छे एवुं भावश्रुतज्ञान’ -एटले शुं? के जेमांथी भेद नाम पुण्य-पापनो राग भिन्न पडी गयो छे अने जेमां अभेद एक नित्यानंद-स्वरूपनुं संवेदन-ज्ञान प्रगट थयुं छे एवुं भावश्रुतज्ञान. अहाहा...! द्रव्यश्रुतज्ञान एटले भगवाननी वाणीमांथी रचायेलां शास्त्रोनुं वांचवुं, सांभळवुं, मनन करवुं इत्यादि जे विकल्प छे ते जेमांथी दूर थई गया छे एवुं जे भावश्रुतज्ञान तेना सद्भावने लीधे ज्ञानी परथी अत्यंत विरक्त छे. आवी वात!

भगवान आत्मा सेकन्डना असंख्यात भागमां पूर्णानंदनो नाथ प्रभु छे. ते विकल्पथी नहि पण भावश्रुतज्ञानथी जणाय एवो निर्विकल्प अचिंत्य पदार्थ छे. अहाहा...! भावश्रुतज्ञानमां आखो आनंदनो नाथ एवो आत्मा स्वज्ञेयपणे जणाय छे. आवा भावश्रुतज्ञाननो ज्ञानीने सद्भाव होवाने लीधे ते परथी अर्थात् रागादि भावोथी अत्यंत विरक्त छे. आ प्रमाणे परथी अत्यंत विरक्त होवाथी ज्ञानी कर्मना उदयना स्वभावने अर्थात् हरख-शोक, रति-अरति आदि भावने स्वयमेव छोडे छे.

अरे! शुद्ध आत्माना ज्ञान विना आ जीवे नरकादिना अनंत अनंत भव पूर्वे कर्या छे. क्रूर परिणामना फळरूपे जीव नरकगतिमां अवतार धारण करे छे. अहा! ए नरकगतिना दुःखनुं शुं वर्णन करीए? २प वर्षनो जुवान-जोध राजकुमार होय अने एने जमशेदपुरनी भठ्ठीमां जीवतो नाखे ने जे तीव्र दुःख थाय एथी अनंतगणुं दुःख त्यां नरकमां होय छे. वळी त्यां ओछामां ओछा दस हजार वर्षथी मांडीने उत्कृष्ट असंख्यात अबजो वर्ष पर्यंतनी (३३ सागरोपम पर्यंतनी) आयुनी स्थिति होय छे. त्यां एक पळ जाय ने अनंतु दुःख थाय एवा स्थानमां प्रभु! तुं अनंतवार जन्म-मरण करी चूक्यो छे. अहीं अत्यारे मनुष्यपणुं मळ्‌युं ने थोडी सगवडता मळी त्यां तुं बधुं भूली गयो! अरे भाई! आ अवसरमां जो स्वरूपनुं ज्ञान न कर्युं तो माथे नरकादिनां दुःख उभां ज छे मानो.

अहाहा...! अंदर आत्मा अमृतनो सागर प्रभु छे. तेनाथी उलटो भाव थाय


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ते झेर छे, दुःख छे. अज्ञानी जीवो शुभाशुभभावमां रोकाई रहीने निरंतर झेरनो स्वाद ले छे केमके शुभाशुभभावनो स्वाद झेरनो स्वाद छे.

ज्यारे धर्मी जीव तो उदयमां आवेला अमधुर के मधुर कर्मफळने ज्ञातापणाने लीधे केवळ जाणे ज छे. शुभभाव आवे, हरख थाय ते मधुर स्वाद छे (वास्तवमां तो झेरनो ज स्वाद छे). अने अशुभभाव थाय, हिंसा, जूठ, चोरी, विषयवासना, काम, क्रोध आदि भाव थाय तेनो अमधुर-कडवो स्वाद छे. परंतु धर्मी जीव तो ए बेयनो ज्ञाताद्रष्टा ज छे, वेदक नथी; केमके शुद्ध आत्मानुं ज्ञान थतां परद्रव्यने ‘हुं’ पणे अनुभववानी अयोग्यता छे. शुं कीधुं? ज्ञानीने परद्रव्यने-शुभाशुभ विकारना भावने- ‘हुं’ पणे, स्वपणे अनुभववानी अयोग्यता छे. ‘माटे, ज्ञानी प्रकृतिस्वभावथी विरक्त होवाथी अवेदक ज छे.’ धर्मी जीव हरखशोकना, सुख-दुःखना जे भाव थाय तेनो ज्ञाता ज छे, वेदक नथी केमके ते परद्रव्यना भावो तेने ‘हुं’ पणे अनुभवाता नथी. आवी वात छे.

* गाथा ३१८ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जे जेनाथी विरक्त होय ते तेने स्ववशे तो भोगवे नहि, अने परवशे भोगवे तो तेने परमार्थे भोक्ता कहेवाय नहि.’

जुओ, आ सिद्धांत कह्यो. हवे कहे छे- ‘आ न्याये ज्ञानी-के जे प्रकृतिस्वभावने (-कर्मना उदयने) पोतानो नहि जाणतो होवाथी तेनाथी विरक्त छे ते -स्वयमेव तो प्रकृतिस्वभावने भोगवतो नथी, अने उदयनी बळजोरीथी परवश थयो थको पोतानी निर्बळताथी भोगवे तो तेने परमार्थथी भोक्ता कहेवाय नहि, व्यवहारथी भोक्ता कहेवाय. परंतु व्यवहारनो तो अहीं शुद्धनयना कथनमां अधिकार नथी; माटे ज्ञानी अभोक्ता ज छे.’

आत्मा प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप परमात्मद्रव्य छे. अहा! आवी निजवस्तुनी जेने द्रष्टि थई ते ज्ञानी छे. अहीं कहे छे-ज्ञानी प्रकृतिस्वभावने पोतानो नहि जाणतो होवाथी तेनाथी विरक्त छे. शुं कीधुं? आ पुण्य-पापना जे भाव थाय तेने ज्ञानी जाणतो नथी. धर्मी जीव व्यवहाररत्नत्रयना भाव मारा छे ने मारा कर्तव्यरूप छे एम जाणतो नथी. शुभाशुभ भाव थाय ते तो कर्मनो उदय छे; तेने ज्ञानी पोतानो केम जाणे? अहाहा...! पोतानो तो एक ज्ञानानंदस्वभाव छे, अने ज्ञान ने आनंदनुं (पर्यायमां) प्रगटवुं थाय ते पोतानो उदय छे. अहा! आवा निर्मळ ज्ञान ने आनंदने अनुभवतो ज्ञानी कर्मना उदयने पोतानो केम जाणे? न जाणे. तेथी ज्ञानी प्रकृतिना स्वभावथी विरक्त छे. वर्तमानमां किंचित् अस्थिरता छे, पण एनाथी विरक्त छे.

राग थाय ए तो प्रकृतिनो स्वभाव छे, जीवनो नहि. जीवनो तो एक ज्ञायक-


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स्वभाव-चैतन्यस्वभाव छे; तेमां रागनुं करवापणुं क्यां छे? आत्मामां अनंत शक्तिओ छे, पण विकारने करे एवी एनामां कोई शक्ति नथी. तेथी त्रिकाळी द्रव्यनी द्रष्टि थई छे एवो ज्ञानी रागमां रक्त नथी; ते रागथी विरक्त छे, तेने रागमां एकत्वबुद्धि नथी. रागमां एकत्व होय तो ते ज्ञानी शानो?

जुओ, भरत चक्रवर्तीने छ खंडनुं राज्य अने छन्नुं हजार राणीओ हती; छतां अंतरमां रागथी-विषयथी विरक्त हता. अहा! जेणे आनंदनो सागर अंदर जोयो, जाण्यो ने अनुभव्यो ते विरस विकारथी केम रंगाय? तेने दया, दान, भक्ति इत्यादिना भाव आवे पण तेने ते स्वभावमां भेळवतो नथी. आ रीते ज्ञानी विकारथी-रागादिथी विरक्त छे.

तेथी, कहे छे, ज्ञानी स्वयमेव तो प्रकृतिस्वभावने भोगवतो नथी अने उदयनी बळजोरीथी परवश थयो थको पोतानी निर्बळताथी भोगवे तो तेने परमार्थे भोक्ता कहेवाय नहि. हवे आवी वात बीजे क्यां छे प्रभु? अहाहा...! जेने आत्माना निराकुळ आनंदस्वभावनुं अंतरमां भान थयुं, वेदन थयुं ते झेर जेवा विकारना स्वादने केम ले? न ले. तथापि अस्थिरताने लीधे किंचित् रागमां जोडाय तोपण त्यां विरक्ति होवाथी परमार्थे ज्ञानी तेनो भोक्ता नथी. व्यवहारथी तेने भोक्ता कहीए, पण अहीं शुद्धनयना कथनमां व्यवहारनो अधिकार नथी. माटे ज्ञानी अभोक्ता ज छे.

*

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश १९८ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञानी कर्म न करोति च न वेदयते’ ज्ञानी कर्मने करतो नथी तेम ज वेदतो नथी. ‘तत्स्वभावम् अयं किल केवलम् जानाति’ कर्मना स्वभावने ते केवळ जाणे ज छे.

अनादिथी कर्मने कर्ता थईने जीव दुःखना पंथे पडयो हतो, ते हवे स्वभावनुं ज्ञान करीने सुखना पंथे दोराणो छे. ज्ञानी थयो थको ते हवे कर्मने करतो नथी, वेदतोय नथी. आनंदस्वरूप निज आत्मद्रव्यनुं भान थयुं छे ते हवे दुःखना भावने केम वेदे? किंचित् रागनो भाव छे तेने केवळ ते जाणे ज छे, पण वेदतो नथी. कर्मना स्वभावने-पुण्य-पाप आदि भावने धर्मी पुरुष केवळ जाणे ज छे पण तेने करतो के भोगवतो नथी. दया, दान, भक्ति, पूजा इत्यादिना भाव ज्ञानीने आवे खरा, पण एनो ए कर्ता-भोक्ता थतो नथी. धर्मी जीव अतीन्द्रिय आनंदमां रक्त छे ने रागथी विरक्त छे. तेथी रागमां भळ्‌या विना, जे राग थाय छे तेने केवळ ते जाणे ज छे.

बापु! आ तो मोटा घरनां (-केवळीना घरनां) कहेण आव्यां छे के -भगवान!