Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 319,320 Shree Jaysenacharya.

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तुं अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंदनो महान समुद्र छो; तेमां रागेय नथी ने अल्पज्ञताय नथी. अहा! आवा तारा अंतर-निधानमां द्रष्टि कर. जो तो खरो! आ द्रष्टिवंतोए (आचार्य आदि पुरुषोए) अंतर्द्रष्टि वडे समकित साथे सगाई करी छे, अने रागनुं सगपण (-बंधन) तेमणे छोडी दीधुं छे. हवे ते कर्मना उदयने केवळ जाणे ज छे. हवे ते रागने करे ने भोगवे केम? अहा! समकिती धर्मी पुरुष भले छ खंडना राज्यमां पडयो होय तोपण ते पोतानुं होवापणुं ज्ञान ने आनंदमां ज देखे छे; रागने तो ते पोताथी भिन्न केवळ जाणे ज छे; कर्मना स्वभावने-पुण्य-पाप आदि भावोने-ते पोतानी निर्मळ परिणतिमां भेळवतो ज नथी. आनुं नाम धर्म छे बापु!

धर्म कोई अपूर्व चीज छे भाई! पूर्वे कदीय एणे धर्म कर्यो नथी. अंदर वस्तु तो अंदर ‘पूर्णं’ पूरण ज्ञानघनस्वरूप पूर्णताथी भरेली छे. अहाहा....! पूरण अनंतस्वभावोथी भरेली वस्तु तो अंदर पूरण ज्ञानघनस्वरूप छे. तेनां ज्ञान-श्रद्धान ने रमणता थयां ते हवे स्वभावमां रक्त छे ने विभावथी विरक्त छे. भक्ति, पूजा आदिनो राग आवे पण तेनाथी ज्ञानीने एकत्व नथी. विरक्ति छे. ते एने केवळ कर्मनो स्वभाव जाणे छे. भाई! आ कोई कल्पित वात नथी, आ तो सर्वज्ञथी सिद्ध थयेलो मार्ग छे. हवे कहे छे-

‘परं जानन्’ एम केवळ जाणतो थको ‘करणवेदनयोः अभावात्’ करणना अने वेदनना (-करवाना अने भोगववाना-) अभावने लीधे ‘शुद्धस्वभावनियतः स हि मुक्त एव’ शुद्ध स्वभावमां निश्चळ एवो ते खरेखर मुक्त ज छे.

अहाहा...! धर्मी पुरुष शुद्ध स्वभावमां निश्चळ एवो खरेखर मुक्त ज छे. स्वभावमां एकत्व थयुं छे ते रागथी मुक्त ज छे. भगवान सिद्ध रागथी सर्वथा मुक्त छे तेम द्रष्टिनी प्रधानताए ज्ञानी रागथी मुक्त ज छे, केमके ज्ञानीने रागनुं करवापणुं अने भोगववापणुं नथी. रागनो धर्मी पुरुष कर्ताय नथी, भोक्ताय नथी; माटे ते मुक्त ज छे. ल्यो, आवी वात!

अहाहा...! वस्तु आत्मा अंदर निर्मळ निर्विकार पूर्ण आनंदकंद प्रभु छे. एना आश्रये जेने एनां ज्ञान-श्रद्धान अने निर्मळ आचरण प्रगट थयां ते जीव विभावथी- कर्मना स्वभावथी विरक्त छे. जेम साकरनी कटकी मोढामां मूकतां भेगी चीरोडीनी कटकी आवी जाय तो फडाक तेने फेंकी दे छे; तेम आनंदघन प्रभु आत्मानो अनुभव थतां चीरोडीनी कणी समान भेगो राग आवी जाय तो फडाक तेने फेंकी दे छे. वास्तवमां रागनो निर्मळ अनुभवनी परिणतिमां प्रवेश ज नथी. आ प्रमाणे ज्ञानी रागथी मुक्त ज छे.


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* कळश १९८ः भावार्थ *

‘ज्ञानी कर्मनो स्वाधीनपणे कर्ता-भोक्ता नथी, केवळ ज्ञाता ज छे; माटे ते केवळ शुद्ध स्वभावरूप थयो थको मुक्त ज छे. कर्म उदयमां आवे पण छे, तोपण ज्ञानीने ते शुं करी शके? ज्यां सुधी निर्बळता रहे त्यां सुधी कर्म जोर चलावी ले; क्रमे सबळता वधारीने छेवटे ते ज्ञानी कर्मनो निर्मूळ नाश करशे ज.’

जुओ, ज्ञानीने कर्म उदयमां आवे छे अने निर्बळतावश तेने किंचित् राग पण थाय छे, पण तेनो ते ज्ञाता ज रहे छे. ज्यां सुधी निर्बळता छे त्यां सुधी कर्मनुं जोर छे, पण स्वरूपनो उग्र आश्रय करीने सबळता वधारतो थको ज्ञानी छेवटे कर्मनो निर्मूळ नाश करशे ज. अहाहा...! अंदर आनंदनो नाथ पूर्ण बळियो पूरण स्वभावथी भरियो छे. अनंत बळनो स्वामी ते निजस्वभावनो उग्र आश्रय करीने कर्मनो निर्मूळ नाश करशे ज. आ प्रमाणे ज्ञानी केवळ शुद्धस्वभावरूप थयो थको मुक्त ज छे.

[प्रवचन नं. ३८२-३८३ * दिनांक १-७-७७]

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गाथा–३१९
ण वि कुव्वइ ण वि वेयइ णाणी कम्माइं बहुपयाराइं।
जाणइ पुण कम्मफलं बंधं पुण्णं च पावं च।। ३१९।।
नापि करोति नापि वेदयते ज्ञानी कर्माणि बहुप्रकाराणि।
जानाति पुनः कर्मफलं बन्धं पुण्यं च पापं च।।
३१९।।

हवे आ ज अर्थने फरी द्रढ करे छेः-

करतो नथी, नथी वेदतो ज्ञानी करम बहुविधने,
बस जाणतो ए बंध तेम ज कर्मफळ शुभ–अशुभने. ३१९

गाथार्थः– [ज्ञानी] ज्ञानी [बहुप्रकाराणि] बहु प्रकारनां [कर्माणि] कर्मोने [न अपि करोति] करतो पण नथी, [न अपि वेदयते] वेदतो (भोगवतो) पण नथी; [पुनः] परंतु [पुण्यं च पापं च] पुण्य अने पापरूप [बन्धं] कर्मबंधने [कर्मफलं] तथा कर्मफळने [जानाति] जाणे छे.

टीकाः– कर्मचेतना रहित होवाने लीधे पोते अकर्ता होवाथी, अने कर्मफळ-चेतना रहित होवाने लीधे पोते अवेदक (-अभोक्ता) होवाथी, ज्ञानी कर्मने करतो नथी तेम ज वेदतो (-भोगवतो) नथी; परंतु ज्ञानचेतनामय होवाने लीधे केवळ ज्ञाता ज होवाथी, शुभ अथवा अशुभ कर्मबंधने तथा कर्मफळने केवळ जाणे ज छे.

*
समयसार गाथा ३१९ः मथाळुं

हवे आ ज अर्थने फरी द्रढ करे छेः-

* गाथा ३१९ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘कर्मचेतना रहित होवाने लीधे पोते अकर्ता होवाथी, अने कर्मफळचेतना रहित होवाने लीधे पोते अवेदक (-अभोक्ता) होवाथी, ज्ञानी कर्मने करतो नथी तेम ज वेदतो (-भोगवतो) नथी; परंतु ज्ञानचेतनामय होवाने लीधे केवळ ज्ञाता ज होवाथी, शुभ अथवा अशुभ कर्मबंधने तथा कर्मफळने केवळ जाणे ज छे.’

जेमां रागनुं चेतवुं थाय छे, ज्ञाननुं चेतवुं नथी ते कर्मचेतना छे. आ हिंसा, जूठ, चोरी, विषयवासना आदि अशुभराग ने दया, दान, व्रत, भक्ति आदि शुभरागनुं जे चेतवुं छे ते कर्मचेतना छे. एक वार सांभळ भाई! अहीं कहे छे-ज्ञानी कर्म-चेतना रहित छे अने तेथी अकर्ता छे.

शुं कीधुं? के आत्मा ज्ञाननो सागर प्रभु छे. तेनो जेने अंतरमां अनुभव


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थयो ते ज्ञानी पुरुष छे. आ ज्ञानी पुरुष एम जाणे छे के हुं तो चेतनामात्र स्वभावथी भरेलो भगवान छुं. कर्मचेतनाथी रहित छुं. पुण्य-पाप आदि भाव मारुं स्वरूप नथी. रागमां एकत्व नथी ने? तेथी ज्ञानी रागना करवापणाथी रहित होवाने लीधे अकर्ता छे.

तो शुं धर्मीने राग होतो नथी? धर्मीने राग होय छे, पण एनुं स्वामीपणुं एने नथी. जेने सच्चिदानंदमय निज आत्मवस्तुनुं स्वामीपणुं थयुं छे तेने (-धर्मीने) रागनुं स्वामीपणुं नथी. जेम बे घोडे सवारी थाय नहि तेम आत्मानुं अने रागनुं-बन्नेनुं स्वामीपणुं बनतुं नथी. तेथी आनंदना नाथ भगवान आत्मानुं जेने स्वामीपणुं थयुं तेने रागनुं स्वामीपणुं नथी अने तेथी ते रागनो अकर्ता छे. ज्ञानी जाणनार बन्नेनो छे, पण स्वामी बंनेनो नथी.

वळी ज्ञानी कर्मफळचेतना रहित होवाने लीधे पोते अवेदक छे. विकार अर्थात् हरखशोकनुं सुखदुःखनुं जे चेतवुं थाय ते कर्मफळचेतना छे. विकारी परिणामना फळनुं वेदवुं ते कर्मफळचेतना छे. धर्मी जीव कर्मफळचेतनाथी रहित छे अने तेथी अवेदक छे. अहा! निजघरमां एकलो ज्ञान ने आनंद भरेलो छे; ज्ञानी तेनो वेदनारो छे. निराकुळ आनंदना वेदनमां पडेलो ज्ञानी हवे विकारनो -झेरनो स्वाद केम ले? न ले. आ प्रमाणे कर्मफळचेतना रहित होवाने लीधे ज्ञानी अभोक्ता ज छे. दया, दान, भक्ति इत्यादि भाव एने थाय छे पण एनो ए भोक्ता नथी.

आ प्रमाणे ज्ञानी कर्मने (-रागादिने) करतोय नथी, भोगवतोय नथी. अहाहा...! चिद्ब्रह्मस्वरूप भगवान आत्मानो एक ज्ञाताद्रष्टा स्वभाव छे. स्व अने परने जाणे एवो एनो सहज स्वभाव छे. अहा! आवो निजस्वभाव अनुभवमां आव्यो होवाथी ज्ञानीने एक ज्ञानचेतना ज छे. अहाहा...! कहे छे- ज्ञानचेतनामय होवाने लीधे केवळ ज्ञाता ज होवाथी ज्ञानी शुभाशुभ कर्मबंधने तथा कर्मफळने केवळ जाणे ज छे.

अहीं त्रण वात करीः १. ज्ञानी कर्मचेतना रहित होवाथी अकर्ता छे, कर्मनो-रागनो कर्ता नथी. र. ज्ञानी कर्मफळचेतना रहित होवाथी अवेदक छे, कर्मफळनो-सुखदुःखादिनो भोक्ता नथी.

३. ज्ञानी ज्ञानचेतनामय होवाथी केवळ ज्ञाता ज छे; शुभाशुभ कर्मने अने कर्मफळने केवळ जाणे ज छे.

अहा! आवो साक्षीपणे मात्र जाणनार ज रहे एवो धर्मी पुरुष होय छे. आवी वात!

[प्रवचन नं. ३८२-३८३*दिनांक १-७-७७]

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समयसार गाथा ३२०ः तात्पर्यवृत्ति टीका
[अहीं प्रथम मूळ गाथा, संस्कृत टीका अने गुजराती अनुवाद
आपेल छे. पछी पृ. ९१ थी प्रवचननो प्रारंभ थाय छे.]
दिट्ठी सयं पि णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव।
जाणदि य बंधमोक्खं कम्मुदयं णिज्जरं चेव।। ३२०।।
[दिट्ठी सयं पि णाणं ने बदले आत्मख्याति-टीकामां
दिट्ठी जहेव णाणं एवो पाठ छे.]

तमेव अकर्तृत्वभोक्तृत्वभावं विशेषेण समर्थयति; [दिट्ठी सयं पि णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव] यथा द्रष्टिः कर्त्री द्रश्यमग्निरूपं वस्तुसंघुक्षणं पुरुषवन्न करोति तथैव च तप्तायःपिंडवदनुभवरूपेण न वेदयति। तथा शुद्धज्ञानमप्यभेदेन शुद्धज्ञानपरिणत जीवो वा स्वयं शुद्धोपादानरूपेण न करोति न च वेदयति। अथवा पाठांतरं [दिट्ठी खयंपि णाणं] तस्य व्याख्यानं–न केवलं द्रष्टिः क्षायिकज्ञानमपि निश्चयेन कर्मणामकारक तथैवावेदकमपि। तथाभूतः सन् किं करोति? [जाणदि य बंधमोखं] जानाति च। कौ? बंधमोक्षौ। न केवलं बंधमोक्षौ [कम्मुदयं णिज्जरं चेव] शुभाशुभरूपं कर्मोदयं सविपाकाविपाकरूपेण सकामाकामरूपेण वा द्विधा निर्जरां चैव जानाति इति।

एवं सर्वविशुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धोपादानभूतेन शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन कर्तृत्व भोक्तृत्व बंध–मोक्षादिकारणपरिणामशून्यो जीव इति सूचितं। समुदायपातनिकायां पश्चाद्नाथाचतुष्टयेन जीवस्याकर्तृत्वगुणव्याख्यानमुख्त्यवेन सामान्यविवरणं कृतं। पुनरपि गाथाचतुष्टयेन शुद्धस्यापि यत्प्रकृतिभिर्बंधो भवति तदज्ञानस्य माहात्म्यमित्यज्ञानसामर्थ्यकथनरूपेणे विशेषविवरणं कृतं। पुनश्च गाथाचतुष्टयेन जीवस्याभोक्तृत्वगुणव्याख्यानमुख्यत्वेन व्याख्यानं कृतं। तदनन्तरं शुद्धनिश्चयेन तस्यैव कर्तृत्वबंधमोक्षादिककारणपरिणामवर्जनरूपस्य द्वादशगाथा– व्याख्यानस्योपसंहाररूपेण गाथाद्वयं गतं।। इति समयसारव्याख्यायां शुद्धात्मानुभूतिलक्षणायां तात्पर्यवृत्तौ मोक्षाधिकार संबंधिनी चूलिका समाप्ता। अथवा द्वितीयव्याख्यानेनात्र मोक्षाधिकार समाप्तः।


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किं च विशेषः– औपशमिकादिपंचभावानां मध्ये केन भावेन मोक्षो भवतीति विचार्यते। तत्रौपशमिकक्षायोपशमिकक्षायिकौदयिकभावचतुष्टयं पर्यायरूपं भवति, शुद्धपारिणामिकस्तु द्रव्यरूप इति। तच्च परस्परसापेक्षं द्रव्यपर्यायद्धयात्मा पदार्थो भण्यते।

तत्र तावज्जीवत्वभव्यत्वाभव्यत्वत्रिविधपरिणामिकभावमध्ये शुद्ध जीवत्व शक्तिलक्षणं यत्पारिणामिकत्वं तच्छुद्धद्रव्यार्थिकनयाश्रितत्वान्निरावणं शुद्धपारिणा– मिकभावसंज्ञं ज्ञातव्यं तत्तु बंधमोक्षपर्यायपरिणतिरहितं। यत्पुनर्दशप्राणरूपं जीवत्वं भव्याभव्यत्वद्वयं तत्पर्यायार्थिकनयाश्रितत्वादशुद्धपारिणामिकभावसंज्ञमिति। कथम– शुद्धमिति चेत्, संसारिणां शुद्धनयेन सिद्धानां तु सर्वथेव दशप्राणरूप जीवत्वभव्याभव्यत्वद्वयाभावादिति।

तत्र त्रयस्य मध्ये भव्यत्वलक्षणपारिणामिकस्तु यथासंभवं सम्यक्त्वादि– जीवगुणघातकं देशघातिसर्वघातिसंज्ञं मोहादिकर्मसामान्यं पर्यायार्थिकनयेन प्रच्छादकं भवति इति विज्ञेयं। तत्र च यदा कालादिलब्धिवशेन भव्यत्वशक्तर्व्यक्तिभवति तदायं जीवः सहजशुद्धपारिणामिकभावलक्षणनिजपरमात्मद्रव्यसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणपर्या– येण परिणमति। तच्च परिणमनमागमभाषयौपशमिकक्षायोपशमिकक्षायिक भावत्रयं भण्यते। अध्यात्मभाषया पुनः शुद्धात्माभिमुखपरिणामः शुद्धोपयोग इत्यादि पर्यायसंज्ञां लभते।

स च पर्यायः शुद्धपारिणामिकभावलक्षणशुद्धात्मद्रव्यात्कथंचिद्भिन्नः। कस्मात्? भावनारूपत्वात्। शुद्धपारिणामिकस्तु भावनारूपो न भवति। यद्यकांतेन शुद्धपारिणामिकादभिन्नो भवति तदास्य भावनारूपस्य मोक्षकारणभूतस्य मोक्षप्रस्तावे विनाशे जाते सति शुद्धपारिणामिकभावस्यापि विनाशः प्राप्नोपि; न च तथा।

ततःस्थितं–शुद्धपारिणामिकभावविषये या भावना तद्रूपं यदौपशमिकादि भावत्रयं तत्समस्तरागादिरहितत्वेन शुद्धोपादानकारणत्वात् मोक्षकारणं भवति, न च शुद्धपारिणामिकः।

यस्तु शक्तिरूपो मोक्षः स शुद्धपारिणामिकपूर्वमेव तिष्ठति। अयं तु व्यक्तिरूप मोक्षविचारो वर्तते।

तथा चोक्त सिद्धान्ते– ‘निष्क्रियः शुद्धपारिणामिकः’ निष्क्रिय इति कोऽर्थः?


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बंधकारणभूता या क्रिया रागादिपरिणतिः तद्रूपो न भवति, मोक्षकारणभूता च क्रिया शुद्धभावनापरिणतिस्तद्रूपश्च न भवति। ततो ज्ञायते शुद्धपारिणामिकभावो ध्येयरूपो भवति ध्यानरूपो न भवति। कस्मात्? ध्यानस्य विनश्वरत्वात्। तथा योगीन्द्रदेवैप्युक्तं– णवि उपज्जइ णवि मरइ बंध ण मोक्खु करेइ। जिउ परमत्थे जोइया जिणवर एउ भणेइ।।

किंच विवक्षितैकदेशशुद्धनयाश्रितेयं भावना निर्विकारस्वसंवेदनलक्षण– क्षायोपशमिकन्यत्वेन यद्यप्येकदेशव्यक्तिरूपा भवति तथापि ध्यातापुरुषः यदेव सकल निरावरणमखंडैकप्रत्यक्षप्रतिभासमयमविनश्वरं शुद्धपारिणामिकपरमभावलक्षणं निजपरमात्मद्रव्यं तदेवाहमिति भावयति, न च खंडज्ञानरूपमिति भावार्थः।

इदं तु व्याख्यानं परस्पसापेक्षागमाध्यात्मनयद्वयाभिप्रायस्यानिरोधेनैव कथितं सिद्धयतीति ज्ञातव्यं विवेकिभिः।। ३२०।।

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गुजराती अनुवाद
ज्यम नेत्र, तेम ज ज्ञान नथी कारक, नथी वेदक अरे!
जाणे ज कर्मोदय, निरजरा, बंध तेम ज मोक्षने. ३२०.

ते ज अकर्तृत्वभोक्तृत्वभावने विशेषपणे द्रढ करे छे-

[दिट्ठी सयं पि णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव] जेवी रीते नेत्र-कर्ता-द्रश्य एवी अग्निरूप वस्तुने, संधुक्षण (संधूकण) करनार पुरुषनी माफक, करतुं नथी अने, तपेला लोखंडना पिंडनी माफक, अनुभवरूपे वेदतुं नथी; तेवी रीते शुद्ध ज्ञान पण अथवा अभेदथी शुद्धज्ञानपरिणत जीव पण पोते शुद्ध-उपादानरूपे करतो नथी अने वेदतो नथी. अथवा पाठान्तरः ‘दिट्ठी खयं पि णाणं’ – तेनुं व्याख्यानः- मात्र द्रष्टि ज नहि परंतु क्षायिक ज्ञान पण निश्चयथी कर्मोनुं अकारक तेम ज अवेदक पण छे. तेवो होतो थको (शुद्धज्ञानपरिणत जीव) शुं करे छे? [जाणदि य बंधमोक्खं] जाणे छे. कोने? बंध- मोक्षने. मात्र बंध-मोक्षने नहि, [कम्मुदयं णिज्जरं चेव] शुभ-अशुभरूप कर्मोदयने तथा सविपाक-अविपाकरूपे ने सकाम-अकामरूपे बे प्रकारनी निर्जराने पण जाणे छे”

सर्वविशुद्ध-पारिणामिक-परमभावग्राहक शुद्ध-उपादानभूत शुद्धद्रव्यार्थिकनये जीव कर्तृत्व-भोक्तृत्वथी तथा बंध-मोक्षनां कारण ने परिणामथी शून्य छे एम समुदायपातनिकामां कहेवामां आव्युं हतुं. पछी चार गाथा द्वारा जीवनुं अकर्तृत्वगुणना व्याख्याननी मुख्यताथी सामान्य विवरण करवामां आव्युं. त्यार पछी चार गाथा द्वारा ‘शुद्धने पण जे प्रकृति साथे बंध थाय छे ते अज्ञाननुं माहात्म्य छे’ एम अज्ञाननुं सामर्थ्य कहेवारूपे विशेष विवरण करवामां आव्युं. त्यार पछी चार गाथा द्वारा जीवनुं अभोक्तृत्वगुणना व्याख्याननी मुख्यताथी व्याख्यान करवामां आव्युं. त्यार पछी बे गाथा कहेवामां आवी जेना द्वारा, पूर्वे बार गाथामां शुद्ध निश्चयथी कर्तृत्व-भोक्तृत्वना अभावरूप तथा बंध-मोक्षनां कारण ने परिणामना अभावरूप जे व्याख्यान करवामां आव्युं तेनो ज उपसंहार करवामां आव्यो. आ रीते समयसारनीशुद्धात्मानुभूतिलक्षण ‘तात्पर्यवृत्ति’ नामनी टीकामां मोक्षाधिकार संबंधी चूलिका समाप्त थई. अथवा बीजी रीते व्याख्यान करतां, अहीं मोक्षाधिकार समाप्त थयो.

वळी विशेष कहेवामां आवे छेः- औपशमिकादि पांच भावोमां क्या भावथी मोक्ष थाय छे ते विचारवामां आवे छे. त्यां औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक अने औदयिक ए चार भावो पर्याय-


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रूप छे अने शुद्ध पारिणामिक (भाव) द्रव्यरूप छे. ए परस्पर सापेक्ष एवुं द्रव्यपर्यायद्वय (द्रव्य अने पर्यायनुं जोडकुं) ते आत्मा-पदार्थ छे.

त्यां, प्रथम तो जीवत्व, भव्यत्व अने अभव्यत्व एम त्रण प्रकारना पारिणामिक भावोमां, शुद्धजीवत्व एवुं जे शक्तिलक्षण पारिणामिकपणुं ते शुद्धद्रव्यार्थिकनयाश्रित होवाथी निरावरण अने ‘शुद्धपारिणामिकभाव’ एवी संज्ञावाळुं जाणवुं; ते तो बंधमोक्षपर्यायपरिणति रहित छे. परंतु जे दशप्राणरूप जीवत्व अने भव्यत्व अभव्यत्वद्वय ते पर्यायार्थिकनयाश्रित होवाथी ‘अशुद्धपारिणामिकभाव’ संज्ञावाळां छे. प्रश्नः- ‘अशुद्ध’ केम? उत्तरः- संसारीओने शुद्धनयथी अने सिद्धोने तो सर्वथा ज दशप्राणरूप जीवत्वनो अने भव्यत्व-अभव्यत्वद्वयनो अभाव होवाथी.

ते त्रणमां, भव्यत्वलक्षण पारिणामिकने तो यथासंभव सम्यक्त्वादि जीवगुणोनुं घातक ‘देशघाती’ अने ‘सर्वघाती’ एवां नामवाळुं मोहादिकर्मसामान्य पर्यायार्थिकनये ढांके छे एम जाणवुं. त्यां, ज्यारे काळादि लब्धिना वशे भव्यत्वशक्तिनी व्यक्ति थाय छे त्यारे आ जीव सहज-शुद्ध-पारिणामिकभावक्षण निजपरमात्मद्रव्यनां सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान- अनुचरणरूप पर्याये परिणमे छे; ते परिणमन आगमभाषाथी ‘औपशमिक’ , ‘क्षायोपशमिक’ तथा ‘क्षायिक’ एवा भावत्रय कहेवाय छे, अने अध्यात्मभाषाथी ‘शुद्धात्माभिमुख परिणाम’ , ‘शुद्धोपयोग’ इत्यादि पर्यायसंज्ञा पामे छे.

ते पर्याय शुद्धपारिणामिकभावलक्षण शुद्धात्मद्रव्यथी कथंचित् भिन्न छे. शा माटे? भावनारूप होवाथी. शुद्धपारिणामिक (भाव) तो भावनारूप नथी. जो (ते पर्याय) एकांते शुद्ध-पारिणामिकथी अभिन्न होय, तो मोक्षनो प्रसंग बनतां आ भावनारूप मोक्षकारणभूत (पर्याय) नो विनाश थतां शुद्धपारिणामिकभाव पण विनाशने पामे. पण एम तो बनतुं नथी (कारण के शुद्धपारिणामिकभाव तो अविनाशी छे.)

माटे आम ठर्युंः- शुद्धपारिणामिकभावविषयक (शुद्धपारिणामिकभावने अवलंबनारी) जे भावना ते-रूप जे औपशमिकादि त्रण भावो तेओ समस्त रागादिथी रहित होवाने लीधे शुद्ध-उपादान-कारणभूत होवाथी मोक्षकारण (मोक्षनां कारण) छे, परंतु शुद्धपारिणामिक नहि (अर्थात् शुद्धपारिणामिकभाव मोक्षनुं कारण नथी).

जे शक्तिरूप मोक्ष छे ते तो शुद्धपारिणामिक छे, प्रथमथी ज विद्यमान छे. आ तो व्यक्तिरूप मोक्षनो विचार चाले छे.

एवी ज रीते सिद्धांतमां कह्युं छे के ‘निष्क्रियः शुद्धपारिणामिकः’ अर्थात् शुद्धपारिणामिक (भाव) निष्क्रिय छे. निष्क्रियनो शो अर्थ छे? (शुद्धपारिणामिक भाव) बंधना कारणभूत जे क्रिया-रागादिपरिणति, ते-रूप नथी अने मोक्षना कारणभूत जे


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क्रिया-शुद्धभावनापरिणति, ते-रूप पण नथी. माटे एम जाणवामां आवे छे के शुद्धपारिणामिकभाव ध्येयरूप छे, ध्यानरूप नथी. शा माटे? कारण के ध्यान विनश्वर छे. (अने शुद्धपारिणामिकभाव तो अविनाशी छे). श्री योगीन्द्रदेवे पण कह्युं छे के ‘ण वि उपज्जइ ण वि मरइ बंधु ण मोक्खु करेइ। जिउ परमत्थे जोइया जिणवर एउ भणेइ।।’ (अर्थात् हे योगी! परमार्थे जीव ऊपजतो पण नथी, मरतो पण नथी अने बंध-मोक्ष करतो नथी-एम श्री जिनवर कहे छे.)

वळी ते स्पष्ट करवामां आवे छेः- विवक्षित-एकदेशशुद्धनयाश्रित आ भावना (अर्थात् कहेवा धारेली आंशिक शुद्धिरूप आ परिणति) निर्विकार-स्वसंवेदनलक्षण क्षायोपशमिकज्ञानरूप होवाथी जो के एकदेश व्यक्तिरूप छे तोपण ध्याता पुरुष एम भावे छे के ‘जे सकलनिरावरण-अखंड-एक-प्रत्यक्षप्रतिभासमय-अविनश्वर-शुद्धपारिणामिकप- रमभावलक्षणनिजपरमात्मद्रव्य ते ज हुं छुं’ , परंतु एम भावतो नथी के ‘खंडज्ञानरूप हुं छुं.’ -आम भावार्थ छे.

आ व्याख्यान परस्पर सापेक्ष एवां आगम-अध्यात्मना तेम ज नयद्वयना (द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनयना) अभिप्रायना अविरोधपूर्वक ज कहेवामां आव्युं होवाथी सिद्ध छे. (-निर्बाध छे) एम विवेकीओए जाणवुं.

(अनुवादकः पं. श्री हिंमतलाल जे. शाह)
*
श्री समयसार गाथा ३२०ः मथाळुं
(तात्पर्यवृत्ति टीका)

ए ज अकर्तृत्वभोकतृत्वभावने विशेषपणे द्रढ करे छेः-

गाथा ३२०ः श्री जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति टीका उपरनुं प्रवचन

[दिट्ठी सयं पि णाणं अकारयं अवेदयं चेव] जेवी रीते नेत्र- कर्ता, द्रश्य एवी अग्निरूप वस्तुने, संधुक्षण (संधूकण) करनार पुरुषनी माफक, करतुं नथी अने, तपेला लोखंडना पिंडनी माफक, अनुभवरूपे वेदतुं नथी; तेवी रीते शुद्ध ज्ञान पण अथवा अभेदथी शुद्धज्ञानपरिणत जीव पण पोते शुद्ध-उपादानरूपे करतो नथी अने वेदतो नथी. अथवा पाठान्तरः [दिट्ठी खयं पि णाणं] -तेनुं व्याख्यानः मात्र द्रष्टि ज नहि परंतु क्षायिक ज्ञान पण निश्चयथी कर्मोनुं अकारक तेम ज अवेदक पण छे. तेवो होतो थको (शुद्धज्ञानपरिणत जीव) शुं करे छे? [जाणदि य–बंध–मोक्खं] – जाणे छे. कोने? बंध- मोक्षने. मात्र बंध मोक्षने नहि, [कम्मुदयं णिज्जरं चेव] शुभ-अशुभरूप कर्मोदयने तथा सविपाक-अविपाकरूप ने सकाम-अकामरूप बे प्रकारनी निर्जराने पण जाणे छे.”


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अहाहा...! भगवान आत्मानो तो ज्ञान स्वभाव छे. रागने करे अने रागने भोगवे एवो एनो स्वभाव नथी. शुं कीधुं? आ शरीरादि परपदार्थ छे तेने तो आत्मा करे नहि पण रागादिनुं करवुं ने रागादिनुं वेदवुं एवुं आत्माना ज्ञान-स्वभावमां नथी. ल्यो, आ द्रष्टांतथी समजावे छेः-

नेत्र-आंख द्रश्य एवी अग्निरूप वस्तुने देखे छे पण संधुक्षण करनार पुरुषनी माफक आंख अग्निरूप वस्तुने करती नथी. जेम अग्निने सळगावनार पुरुष अग्निरूप वस्तुने करे छे तेम आंख द्रश्य पदार्थने देखे छे पण तेने करती नथी. तेम ज तपेला लोखंडना गोळानी माफक आंख अग्निने अनुभवरूपे वेदती नथी. लोढानो उनो गोळो होय ते जेम उनापणुं वेदे छे तेम आंख वेदती नथी, ल्यो, द्रष्टांत कीधुं.

तेम, कहे छे, आत्मा के जेनो एक ज्ञायकभाव स्वभाव छे ते पुण्य अने पापना भावने करतो नथी तेम ज वेदतो नथी. आ दया पाळे, दान करे, व्रतादि पाळे पण भाई! ए तो बधो राग छे. ए रागनुं करवुं ने रागनुं वेदवुं ते, कहे छे, आत्माना ज्ञानस्वभावमां नथी. अहा! आवो पोतानो स्वभाव ज्यां सुधी द्रष्टिमां न आवे त्यां सुधी जीव अज्ञानी छे.

कह्युं ने के- ‘तेवी रीते शुद्ध ज्ञान पण अभेदथी शुद्धज्ञानपरिणत जीव पण पोते शुद्ध-उपादानरूपे करतो नथी अने वेदतो नथी.’ जुओ, शुद्धपणे परिणम्यो छे एवा जीवनी अहीं वात छे. शुद्ध ज्ञान ते गुण लीधो अने शुद्ध ज्ञान परिणत जीव ते द्रव्य लीधुं छे. अहाहा...! हुं एक शुद्ध ज्ञानस्वभावी आत्मा छुं एम जेने अंतरमां शुद्ध ज्ञानमय परिणमन थयुं छे ते जीव शुद्ध उपादानरूपे दया, दान, व्रत आदि रागना भावने करतो नथी अने वेदतोय नथी केमके आत्मानुं शुद्ध उपादान तो शुद्ध एक चैतन्यमय छे.

अहीं बे वात थईः १. ज्ञानगुण त्रिकाळ छे ते पण दया, दान आदि रागने-विकल्पने करतो के वेदतो नथी अने

२. तेम शुद्धज्ञानपरिणति जीव पण रागने करतो के वेदतो नथी. बापु! आ बहारनां बधां काम हुं व्यवस्थित करी शकुं छुं एम जे माने छे ते तो मिथ्याद्रष्टि छे. अहीं तो कहे छे-स्वभावसन्मुखनी द्रष्टि वडे शुद्धज्ञानरूपे परिणमेलो जीव, बहारनां काम करवानुं तो दूर रहो, पुण्य ने पापना भावने करे अने वेदे एम पण छे नहि. अहाहा...! ज्ञानगुण पण एवो नथी अने शुद्धज्ञानरूपे परिणमेलुं द्रव्य पण एवुं नथी. अहीं शुद्धज्ञानपरिणत जीव द्रव्य केम कह्युं? केमके त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य तो रागने करतुंय नथी अने वेदतुंय नथी; एवो ज एनो स्वभाव छे;


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पण परिणमन शुद्ध थया विना रागने करतुं नथी अने वेदतुं नथी ए सिद्ध क्यांथी थाय? द्रव्य शुद्धज्ञानरूपे परिणमे त्यारे ते रागने करतुं नथी ने वेदतुं नथी एम सिद्ध थाय. भाई! आ तो घणो गहन विषय छे.

भाई! आ तो सर्वज्ञना घरनी अंतरनी वातु छे. आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे ते तो मात्र ज्ञानरूपे ज परिणमे छे. रागने करे के वेदे ए तो ज्ञानस्वभावमां छे ज नहि; पण ज्ञाननो ज्यारे अनुभव थाय त्यारे ते समजाय ने? अहाहा...! निश्चयथी जीवद्रव्य छे ते रागनो कर्ता के भोक्ता नथी, पण जीव रागनो कर्ता-भोक्ता नथी एवो निर्णय कोने थाय? शुद्धज्ञानपरिणत जीवने आवो निर्णय थाय छे.

भगवान आत्मा ज्ञानानंदस्वरूप प्रभु त्रिकाळ शुद्ध अने पवित्र छे. तेने ध्येय बनावी तेना लक्ष्ये-आश्रये ज्यां पर्यायमां शुद्ध परिणमन थतुं त्यां ते जीव रागनो कर्ता नथी अने हरख-शोकनो भोक्ता नथी. शुद्धपणे परिणमन थया विना द्रव्य-स्वभाव रागनो कर्ता-भोक्ता नथी एम निर्णय केवी रीते थाय? आ प्रमाणे गुण अने गुणी बन्नेनुं शुद्ध ज्ञानमय परिणमन थाय त्यारे ते जीव व्यवहारना जे विकल्प आवे तेनो कर्ता नथी अने भोक्ता पण नथी एम यथास्थित सिद्ध थाय छे. ज्ञानीने अशुभ राग पण आवे तेनो पण ते कर्ता-भोक्ता नथी. ल्यो, आवी वात! समजाणुं कांई...? ज्ञानस्वरूपी आत्मा स्वभावपणे परिणमे ते विभावपणे केम थाय! न ज थाय.

धर्मी एवो भगवान आत्मा-तेनो धर्म, ज्ञान अने आनंद छे; तेनुं पर्यायमां जेने परिणमन थाय ते जीव के ते जीवनुं ज्ञान दया, व्रत, तप आदिना विकल्पने करे के वेदे एम कदी छे नहि. आवी सूक्ष्म वात!

अथवा पाठान्तरः ‘दिट्ठी खयं पि णाणं’ तेनुं व्याख्यानः शुं कहे छे? के मात्र द्रष्टि ज नहि परंतु क्षायिक ज्ञान पण निश्चयथी कर्मोनुं अकारक तेम ज अवेदक पण छे. जेम नेत्र छे ते परने करतुं के वेदतुं नथी तेम क्षायिक ज्ञान अने ज्ञानपरिणत जीव पण दया-दान आदि विकल्पने करतो नथी अने वेदतो पण नथी.

जुओ, पहेला बे बोलमां द्रष्टिनुं (द्रव्यद्रष्टिनुं) जोर आप्युं छे. अहीं हवे क्षायिक ज्ञाननी वात करे छे. जेवुं शक्तिरूपे सर्वज्ञपणुं छे एवुं पर्यायमां पण सर्वज्ञपणुं प्रगटयुं ते क्षायिकज्ञान छे. ते क्षायिकज्ञान पण, कहे छे, निश्चयथी रागनुं अकारक तेम ज अवेदक छे. अहा! सर्वज्ञ परमात्माने जे योगनुं कंपन छे तेना पण तेओ अकर्ता अने अवेदक छे. ‘क्षायिकज्ञान पण’ -एम ‘पण’ शब्द केम कीधो? के प्रथम बे बोलमां वात करी ते प्रमाणे आ क्षायिकज्ञान पण निश्चयथी कर्मोनुं अकारक तेम ज अवेदक छे एम कहेवुं छे. अहीं कर्म शब्दे रागद्वेष आदि भावकर्म समजवुं.


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घणां वर्ष पहेलां एक भाईए प्रश्न करेल के-महाराज! सिद्ध भगवान शुं करे? अथवा मोटा भगवान छे तो जगतनुं कांई न करे? ल्यो, आवो प्रश्न करे!

त्यारे कह्युं के-भाई! सिद्ध भगवान जगतनुं कांई न करे, ए तो पोताना (अतीन्द्रिय) ज्ञान आनंदने वेदे. जगतनां पदार्थोना तेओ अकर्ता अने अभोक्ता छे. लोकोने (अज्ञानीओने) एम लागे के अमे संसारमां पांच-पचीस माणसोने नभावीए छीए, कुंटुंबनुं भरण-पोषण करीए छीए, धंधा-पाणीनी व्यवस्था करीए छीए, इत्यादि पण भाई! ए तारी मिथ्या मान्यता छे; वस्तुस्थिति एम नथी भाई! तने बाह्य स्थूळ द्रष्टिमां एम भासे के अमे परनां काम करीए छीए पण वास्तवमां परनां कार्य कोई (आत्मा) करी शकतो ज नथी. परने अडे नहि ते परनुं शुं करे? अही कहे छे- क्षायिकज्ञान परनुं कांई करे ते वात तो छे नहि पण ते रागादि कर्मोनुं पण अकारक अने अवेदक छे. समजाणुं कांई...?

आम क्षायिकज्ञाननी वात करी. हवे फरीथी शुद्धज्ञानपरिणत साधक जीवनी वात करे छे. एम के जे पोते हजु सिद्ध थयो नथी, हजु जेने केवळज्ञान थयुं नथी एवो शुद्धज्ञानपरिणत साधक जीव छे ते शुं करे छे? के अवस्थामां जे रागादि थाय तेने जाणे छे, करे छे एम नहि, मात्र जाणे छे. आवी वात!

सवारना प्रवचनमां आव्युं के राग अने परथी भिन्न अंदर त्रिलोकीनाथ भगवान अमे तने बताव्यो तो त्रणलोकमां एवो क्यो जीव होय के जेने ज्ञाननुं परिणमन न थाय? समयसार गाथा ३१, ३२, ३३ मां विकल्पथी भिन्न चैतन्यघन प्रभु आत्मा बताव्यो छे. अहा! चैतन्यना अस्तित्वथी आत्मा छे अने रागना अस्तित्वथी आत्मा नथी-आवो भिन्न आत्मा बताव्यो छे; अहो! तेने जाणीने एवो कोण पुरुष छे के जेने भेदज्ञान न थाय?

आ शास्त्रनी पांचमी गाथामां पण आचार्यदेवे कह्युं के ‘जदि दाएज्ज पमाणं’ जो हुं शुद्धज्ञानघन एकत्व-विभक्त एवो आत्मा तने देखाडुं तो हे शिष्य! तुं प्रमाण करजे. प्रमाण करजे एटले? एटले के स्वाभिमुख थई स्वानुभव करीने प्रमाण करजे. ‘हुं तने देखाडुं तो’ -एम कह्युं ने आचार्यदेवे? मतलब के एने (शुद्धात्माने) देखनारो- स्वानुभवथी प्रमाण करनारो पण छे त्यां. अहो! आवी अद्भुत अलौकिक वात करीने आचार्यदेवे जगतने न्याल करी दीधुं छे. अहा! अंतरमां ज्यां खबर पडी के अंदरमां मोटो प्रभु-चैतन्यमहाप्रभु पोते आत्मा छे त्यारे तेनी संभाळ करी तेनो अनुभव केम न करे? अवश्य करे ज.

जुओ, अही पण स्वानुभवमंडित शुद्धज्ञानपरिणत जीव लीधो छे; एकलो


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सांभळनारो लीधो नथी. अहा! ए शुद्धज्ञानपरिणत जीव शुं करे छे? जाणे छे. कोने? बंध-मोक्षने.

अहाहा...! अंदर आत्मा चैतन्यमहाप्रभु शुद्धज्ञानप्रकाशनो पुंज छे. ए तो ज्ञानपणे प्रकाशे के रागमां अटकीने रागने करे ने रागने वेदे? जे राग छे ते भावबंध छे, अने जड कर्मनो बंध निमित्त छे. अहीं कहे छे -ज्ञानपरिणत जीव राग अने जड कर्मबंधने दूर रही पृथक्पणे जाणे छे.

हवे आवी वात अत्यारे क्यां छे? अरे! लोकोए तो तद्न स्थूळ करी नाख्युं छे. एम के वस्त्र-लुगडां सहित होय ते श्वेतांबर ने वस्त्र-लुगडां रहित होय ते दिगंबर. बापु! दिगंबर तो वस्तुनुं स्वरूप छे. अहाहा...! अंदरमां रागथी नग्न शून्य बीनमूरत चिन्मूरत प्रभु आत्मा विराजी रह्यो छे ते यथार्थ दिगंबरस्वरूप छे. अहाहा...! आवा निज स्वरूपनुं अंदरमां जेने भान थयुं छे ते शुद्धज्ञानपरिणत धर्मी पुरुष पर्यायमां बंध छे तेने जाणे ज छे.

जेम ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मा एकला ज्ञानप्रकाशनो पुंज त्रिकाळ अस्ति छे, एम रागादि बंध पण वर्तमान अस्ति छे. अवस्थामां बंध छे ज नहि एम नथी. पण सम्यग्द्रष्टि धर्मी जीव ते रागादि बंधभावने दूर रहीने जाणे छे; तेमां भळीने तेने करे के तेने वेदे एम छे नहि.

जो रागमां भळीने रागने करे अने रागने वेदे तो ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे. शुं कीधुं? आ दया, दान, व्रत, तप आदिना जे शुभरागना विकल्प छे तेने जीव करे अने वेदे एम जेणे मान्युं छे तेनी तो द्रष्टि ज मिथ्या छे केमके तेने रागथी अधिक-भिन्न ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मानुं भान थयुं नथी. ते तो रागने ज एकत्वपणे करे छे अने रागने एकत्वपणे वेदे छे. आवा जीवनी अहीं वात नथी.

अहीं तो जेने जाणवामां ने प्रतीतिमां आव्युं के हुं रागथी भिन्न पूर्ण ज्ञानघनस्वरूप भगवान आत्मा छुं एवा शुद्धज्ञानपरिणत जीवनी वात छे. अहाहा...! तेणे व्यक्त ज्ञानना अंशमां एम जाण्युं के आ व्यक्तिरूप छे ते तो अंश छे पण मारी वस्तु तो अंदर ध्रुव परिपूर्ण छे. ध्रुवमां ध्रुव जणाय एम नहि, पण ध्रुवना ध्येये जे परिणमन थयुं ते परिणमनमां ध्रुवने जाण्युं छे. अहा! ते ज्ञाननो अंश अवस्थामां जे राग अने बंध छे तेने पण जाणे छे. जेम ज्ञान स्वने जाणे छे तेम जे राग आवे छे तेने पण जाणे छे, बस. हवे आवी वात कठण लागे पण आ सत्य वात छे, अत्यारे तो आ सांभळवा मळवी पण मुश्केल छे.

अहाहा...! भगवान आत्मा सदा ज्ञानस्वरूपी प्रभु प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप छे. तेनो पूरण आश्रय जेने थयो ते सर्वज्ञ परमात्माने एक समयमां त्रणकाळ अने त्रणलोकनुं


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ज्ञान होय छे. तेमनुं शरीर नग्न होय छे अने तेमने आहार-पाणी होतां नथी. अहाहा...! तेओ अतीन्द्रिय ज्ञान अने अतीन्द्रिय आनंदना कर्ता-भोक्ता छे. ए तो आवी गयुं के क्षायिकज्ञान पण निश्चयथी कर्मोनुं अकारक तेम ज अवेदक छे. अहा! आवुं क्षायिकज्ञान जेमने प्रगट थयुं छे तेमने परमात्मा कहीए. अहा! ते सर्वज्ञ परमात्मा पूर्ण आनंदनी-अनंत आनंदनी दशाना वेदनमां रहेला छे. तेओ कोईनुं कांई करे के कोईने कांई आपे ए वात ज क्यां रहे छे?

हा, पण भगवान करुणा करे के नहि? भगवान करुणासागर तो कहेवाय छे? समाधानः– ना, भगवान कोईनी करुणा ना करे, भाई! करुणानो भाव ए तो विकल्प-राग छे, अने भगवान तो पूरण वीतराग छे. भगवानने करुणानो विकल्प होतो नथी.

तो केवी रीते छे! भगवाननी ओम्ध्वनि सांभळीने वा भगवानना वीतरागस्वरूपने जाणीने कोई भवी जीव पोते पोतानी करुणा-दया करे अने पोताना हितरूप प्रवर्ते तो ते भगवाननी करुणा-दया छे एम व्यवहारथी कहेवामां आवे छे. भगवान करुणासागर छे ए पण व्यवहारनुं ज कथन समजवुं. भगवान तो शुं निश्चये कोई जीव कोई अन्य जीवनी दया करी शके एवी वस्तुस्थिति ज नथी. तेथी तो प्रवचनसार गाथा ८प मां कह्युं के-

“अर्थोतणुं अयथाग्रहण, करुणा मनुज-तिर्यंचमां
विषयोतणो वळी संग, -लिंगो जाणवां आ मोहनां.”

पदार्थोनुं अयथाग्रहण (अर्थात् पदार्थोने जेम छे तेम सत्यस्वरूपे न मानता तेमना विषे अन्यथा समजण), अने तिर्यंच-मनुष्यो प्रत्ये करुणाभाव, तथा विषयोनो संग (अर्थात् ईष्ट विषयो प्रत्ये प्रीति अने अनिष्ट विषयो प्रत्ये अप्रीति) -आ मोहनां लिंगो छे. बापु! आ तो मारगडा जुदा छे नाथ! पोताने रागनो कर्ता माने ए तो मिथ्याद्रष्टि छे. अने भगवान परने अने रागने करे अने भोगवे एम माने एय मिथ्याद्रष्टि छे. समजाणुं कांई...?

अहीं तो अवस्थामां किंचित् राग विद्यमान छे एवो शुद्धज्ञान परिणत धर्मी जीव पण रागनो अने परनो अकर्ता अने अवेदक छे एम कहे छे. सूक्ष्म वात छे प्रभु! शक्तिरूपे ते आत्मा ज्ञानानंदस्वरूप त्रिकाळ छे. अहा! आवा आत्मानो आश्रय थतां जेने ज्ञान अने आनंदनी रचना करे एवुं वीर्य पर्यायमां जाग्युं अने जेने अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदनो स्वाद आव्यो एवो धर्मी साधक जीव जे छे ते, कहे छे, जाणे छे; कोने? के बंध अने मोक्षने.


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शुं कीधुं? के केवळी भगवानने तो रागेय नथी ने बंधेय नथी. पूरण वीतराग छे ने? पण जेने सच्चिदानंदस्वरूप पूर्णानंद प्रभु आत्मानुं अंतरमां भान थयुं छे एवो अंशे शुद्धतारूप परिणमेलो धर्मी जीव पण रागनो अकारक अने अवेदक छे-एम कहे छे. अहा! ते रागने-बंधने जाणे छे, करतो नथी. धर्मी पुरुष राग होय छे तेने ज्ञाननी दशामां ते जाणे के आ राग (बीजी चीज) छे, मारो छे अने तेनुं वेदन मने छे एम नहि. अहो! धर्मनुं स्वरूप आवुं अलौकिक छे भाई! धर्मी जीव बंधने जाणे अने मोक्षने पण जाणे. अहाहा...! ते राग थाय तेने जाणे अने रागनो अभाव थाय तेने पण जाणे, पण राग थाय तेने वा रागनो अभाव थाय तेने करे एम नहि. समजाणुं कांई...? अहो! चित्चमत्कार प्रभु भगवान आत्मानुं जेने भान थयुं ते धर्मी पुरुषनी अंतरदशा कोई अद्भुत अलौकिक होय छे.

त्यारे कलकत्ताना एक सामायिकमां आव्युं छे के-कानजीस्वामी तो बधाने ‘भगवान आत्मा’ कहीने संबोधन करे छे.

हा, भाई! अमे तो सौने भगवान आत्मा तरीके देखीए छीए, अमे तो तेने भगवान! बाळक, युवान के वृद्धपणे देखता ज नथी. अहाहा...! अंदरमां तुं पूरण ज्ञानानंदस्वरूप छो ने प्रभु! ‘भग’ नाम ज्ञानानंदनी लक्ष्मीनो ध्रुव-ध्रुव भंडार एवो भगवान छो ने नाथ! अहो! आवा निजस्वरूपने अनुभव्युं तेनी अंतरदशा अलौकिक छे.

जुओ, वीतराग सर्वज्ञदेवने इच्छा विना ज ॐध्वनि नीकळे छे. अहाहा....! ॐ .. ॐ...ॐ एम दिव्यध्वनि छूटे छे. आवे छे ने के-

‘मुख ॐकार धुनि सुनि, अर्थ गणधर विचारै
रचि आगम उपदेश, भविक जीव संशय निवारै.’

अहाहा....! भगवाननी वाणी आपणा जेवी क्रमवाळी न होय, सर्वांगेथी स्फुरती ते निरक्षरी होय छे. अहा! आवी परमात्मानी श्री सीमंधरनाथनी वाणी विदेहमांथी अहीं भरतक्षेत्रमां आवी छे. अहा! ते वाणीमां एम आव्युं छे के जे शुद्धज्ञानपरिणत जीव छे ते बंध अने मोक्षने जाणे छे बस, अहाहा...! अंतरमां स्वस्वरूपना आश्रये धर्म प्रगट थयो छे ते धर्मपरिणत जीव जे राग आवे तेने य जाणे अने जे राग टळे तेनेय जाणे छे, पण रागने करेय नहि अने रागने टाळेय नहि. अहा! जेने अंदर ज्ञानचक्षु प्रगट थयुं छे ते समकिती धर्मी पुरुष आवो होय छे.

हवे कहे छे-“मात्र बंध-मोक्षने नहि, ‘कम्मुदयं णिज्जरं चेव’ शुभ-अशुभरूप कर्मोदयने तथा सविपाक-अविपाकरूप ने सकाम-अकामरूप बे प्रकारनी निर्जराने पण जाणे छे.”


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अहा! ज्यां सुधी पूरण वीतराग सर्वज्ञ थयो नथी त्यां सुधी साधक जीवने अंशे बाधकपणुं पण छे. कर्मना उदयना निमित्ते तेने शुभ ने अशुभ भाव थता होय छे. पण ए बन्नेने साधक धर्मी जीव मात्र जाणे छे, करे छे एम नहि. कोईने थाय के आ तो नवो मार्ग काढयो; पण अरे भाई! आ तो अनादिथी परंपरामां चाल्यो आवतो अनंता तीर्थंकर भगवंतोए प्ररूपेलो सनातन मार्ग छे. एकवार धीरज अने शांतिथी सांभळ तो खरो प्रभु! अनादिनो जे सत्य मार्ग छे ते आ छे. भगवान आत्मा पोते सहज ज ज्ञान-स्वरूप छे ते शुं करे? बस जाणे. अरे! अनंतकाळमां धर्म शुं चीज छे ते समजवानी एणे दरकार करी नथी. कदाचित् सांभळवा गयो तो संभळावनारा पण दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना शुभभावथी धर्म थाय एवुं माननारा ने कहेनारा मळ्‌या. त्यां ए नवुं शुं करे? अरे! आम ने आम बिचारो स्वरूपने विसारीने चार गतिमां रझळी मर्यो छे!

जुओने! कोई पांच-पचीस लाखनुं दान आपे एटले एने धर्मधुरंधरनो ईल्काब आपी दे. शुं कहेवुं? आवा जीवोने धर्म शुं चीज छे एनी खबर ज नथी. एक करोडपति शेठे एक वार पचास हजारनुं दान दीधुं तो तेने श्रावक-शिरोमणिनो ईल्काब आप्यो. अरे भाई! श्रावक-शिरोमणि कोने कहेवाय? बिचाराओने श्रावक कोने कहेवाय एनीय खबर न मळे! श्रावकनी व्याख्या तो आवी छे. शुं? के-‘श्र’ एटले के वास्तविक तत्त्वस्वरूप जेम छे तेम श्रवण करीने तेनी श्रद्धा करी होय, ‘व’ एटले रागथी आत्मा-पोते भिन्न छे एम विवेक कर्यो होय अने ‘क’ एटले स्वानुभवनी क्रियानो करनारो होय-ल्यो, आनुं नाम श्रावक छे. भाई! आ वस्तुस्थिति छे.

आ जाणीने ए करोडपति शेठ अहीं बोल्या, -महाराज! मने तो एकेय व्रत ने पडिमा नथी, आत्मानुं भानेय नथी. लोकोए समज्या विना ज मने आवुं ‘श्रावक- शिरोमणि’ नुं बिरूद आप्युं.

त्यारे कह्युं के भाई! लोको तो पैसा खर्चे एने धर्म-धुरंधर आदि नाम आपी दे; पण बापु! धर्मनुं स्वरूप बहु जुदुं छे. (पैसाथी नहि पण धर्म अंतरना आश्रये प्राप्त थाय छे.)

प्रभावनाना हेतुथी लाखो रूपिया दानमां आपे, मोटां मंदिरो बनावे, जिनप्रतिमा पधरावे इत्यादि भाव गृहस्थने अवश्य आवे अने आववा जोईए, पण त्यां रागनी मंदता करी होय तो शुभभावने कारणे पुण्यबंध थाय छे पण धर्म नहि. धर्मी जीव तो पुण्यना जे परिणाम थाय तेनो अकारक अने अवेदक छे.

भगवान आत्मा ज्ञानमूर्ति प्रभु चैतन्यचक्षु छे. जेम आंख द्रश्य पदार्थने देखतां द्रश्यमां जती नथी तेम चैतन्यचक्षु प्रभु आत्मा परने जाणतां परमां जतो


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नथी, परथी भिन्न रहीने परने जाणे छे, आ सर्व तत्त्वज्ञाननो निचोड छे. अज्ञानी एने जाणे नहि. समकिती ज तेने यथार्थ जाणे छे.

समकिती एकला बंध अने मोक्षने जाणे एम नहि, ते कर्मना उदये जे शुभाशुभ भाव थाय तेने पण जाणे छे. धर्मीने शुभ होय तेम अशुभ पण होय छे. चारित्रमोहना उदयमां एने आर्त्तध्यान अने रौद्रध्यानना परिणाम पण पोतानी कमजोरीथी थाय छे. स्त्री संबंधी विषयनो राग पण आवे छे. परंतु ज्ञानी ते शुभाशुभ कर्मोदयथी पृथक् रहीने तेने जाणे छे. अहाहा...! ज्ञान शुं करे? बस जाणे. आंख छे ते बीजी चीजने शुं करे? बस देखे; पण आंख बीजी चीजने रचे के तोडे एवुं आंखनुं कार्य नथी, तेम ज्ञान शुभाशुभने करे के तोडे एवुं ज्ञाननुं कार्य नथी. समजाणुं कांई....? अहाहा....! धर्मी जीव कर्मना उदयने जाणे, कर्मना उदये जे शुभाशुभ भाव थाय तेनेय जाणे अने देहनी जे क्रिया थाय तेने पण जाणे छे; केमके ज्ञानी पोतानी ज्ञानभूमिकामां रह्यो छे पण ते रागनी भूमिकामां प्रवेशतो ज नथी. ल्यो, आवी वात!

नानी उंमरमां मूळजी नामे एक ब्राह्मण अमारी पडोशमां रहेता. अमारी बा भूंभलीना हतां. तेओ पण भूंभलीना वतनी हता. अमे तेमने मूळजी मामा कहीने बोलावता. तेओ सवारमां वहेला उठीने नाह्या बाद बोलता के-

‘अनुभवीने एटलुं के आनंदमां रहेवुं रे;
भजवा परिब्रह्मने, बीजुं कांई न कहेवुं रे.’

आम बोलता. ७७ वर्ष पहेलांनी आ वात छे. ते वखते अमे तो नाना बाळक हता; पण अमने लागेलुं के मामा बोले छे कांईक जाणवा जेवुं. मामाने तो क्यां खबर हती के एमां शुं भाव छे? पण अमने ख्याल रही गयो के मामा बोले छे कांईक रहस्य भर्युं. ल्यो, ए रहस्य आ के- अनुभवी एटले सम्यग्द्रष्टि-धर्मी-ज्ञानी- तेने तो बस एटलुं के आनंदमां सदा रहेवुं. भले शरीर हो, सगां हो, परिवार हो-ए बधुं भले रह्युं एना घरे, -अनुभवीने तो बस एटलुं के सदाय अतीन्द्रिय आनंदना अनुभवमां मस्त रहेवुं. भगवान आत्मा परिब्रह्म नाम समस्त प्रकारे आनंदनो नाथ छे. अहाहा..! आवो जे पोतानो आत्मा छे तेने भजवो-अनुभववो बस ए एक ज धर्मीनुं कार्य छे. आवी वात!

अहीं पण एम कहे छे के चोथा गुणस्थाने समकिती धर्मात्मा, तेने कर्मना उदयना निमित्ते जे जे शुभ-अशुभ भाव आवे छे तेनो ते अकारक अने अवेदक छे, मात्र तेने ते भिन्न रहीने जाणे छे. अहाहा...! मिथ्याद्रष्टि कर्मोदयमां अने शुभाशुभभावमां एकरूप-तद्रूप थईने तेनो कर्ता ने भोक्ता थाय छे ज्यारे सम्यग्ज्ञानी धर्मी पुरुष तेने दूरथी मात्र जाणे छे, तेमां एकरूप थतो नथी.


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ज्ञानी कर्मोदयने जाणे छे तेम सविपाक-अविपाक निर्जराने पण जाणे छे; करे छे एम नहि. सूक्ष्म वात भाई! आत्मा एकला ज्ञान अने आनंदस्वरूप छे. अहा! आवुं जेने अंतरमां भान थयुं ते ज्ञाता-द्रष्टा थयो, जाणनार-देखनार थयो. वस्तु सहज ज्ञाता- द्रष्टा स्वभावी छे. तेनुं भान थतां वर्तमान, दशामां ज्ञाता-द्रष्टापणुं आव्युं-प्रगटयुं. अहा! आवो ज्ञानी अहीं कहे छे, सविपाक-अविपाकरूप ने सकाम-अकामरूप-एम बे प्रकारनी निर्जराने बस जाणे छे.

जुओ, वर्तमानमां आ मनुष्यगति छे छतां त्यां अंदर नरकगति, देवगति आदि चार गतिनो उदय होय छे. पूर्वनां बांधेलां कर्म पडयां छे तेथी देवगतिनो उदय तो आवे छे पण ते खरी जाय छे. तेने सविपाक निर्जरा कहे छे. एनी मेळे पाक आवीने कर्म खरी गयां तेने ज्ञानी जाणे छे. आत्मानुं भान थतां शांति अने आनंदनुं परिणमन थयुं छे ते जीवने पूर्वे बांधेलां गति आदि कर्मो होय ते उदयमां आवीने खरी जाय तेने सविपाक निर्जरा कहे छे अने ज्ञानी तेने जाणे छे. विपाक एटले कर्मनुं फळ दईने खरी जवुं. स्थिति पूरी थये उदयमां आवीने कर्मनुं खरी जवुं तेनुं नाम सविपाक निर्जरा छे. विपाक एटले विशेषे पाक, सत्तामां कर्म पडयां छे ते पाक आवीने खरी जाय ते सविपाक निर्जराने ज्ञानी जाणे छे.

हवे बीजी वातः अविपाक निर्जराः भगवान ज्ञानानंदस्वरूपी आत्माना अनुभवमां पुरुषार्थ करतां आत्मा-पोते ज्ञाता-द्रष्टा थयो. आवा स्वरूपना भानमां उग्र पुरुषार्थ होतां कर्म उदयमां न आवे, आववानी योग्यता छे पण तत्काल उदयमां आव्युं नहि अने खरी जाय तेने अविपाक निर्जरा कहे छे. वर्तमान अहीं मनुष्य गतिनो उदय छे. वर्तमान एक गति विपाकपणे छे, बीजी त्रण विपाकपणे नथी; पण अंदर उदयमां आव्या विना खरी जाय ते अविपाक निर्जराने ज्ञानी जाणे छे. आनंदनो नाथ प्रभु त्रिकाळी आत्मा छे तेमां अंतःपुरुषार्थ करवामां आवतां कर्म पुरुषार्थथी खरी जाय तेने अविपाक निर्जरा कहे छे; तेने पण ज्ञानी पुरुष बस जाणे छे, करे छे एम नहि, समजाणुं कांई....?

सकाम-अकामरूप बे प्रकारनी निर्जराने पण ज्ञानी जाणे छे. अहो! धर्मी जीव ज्ञाता-द्रष्टास्वभावे परिणमे छे. तेने रोज दस वागे भोजन लेवानो टाईम होय पण प्रसंगवश कोई वार मोडुं थाय ने बपोरे बे त्रण वागे भोजन लेवानुं बने तो त्यां ते आकुळ-व्याकुळ थतो नथी पण समभावथी सहन करे छे. त्यारे जे निर्जरा थाय छे ते अकाम निर्जरा छे. अज्ञानीने पण अकाम निर्जरा थती होय छे पण ते समभावपूर्वक होती नथी. अहीं कहे छे-ज्ञानी तेने जे अकाम निर्जरा थाय छे तेने जाणे छे, करे छे एम नहि.


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वळी समकितीने पुरुषार्थपूर्वक तप वगेरे द्वारा जे निर्जरा थाय छे ते सकाम निर्जरा छे. तेना पण ज्ञानी ज्ञाता छे, कर्ता नथी. अहा! राग थाय तेनेय ज्ञानी जाणे, करे नहि; अने राग टळे तेनेय ज्ञानी जाणे पण करे नहि. अहा! ज्ञातास्वभावे परिणमेला ज्ञानी-धर्मी जीवनी अंतर दशा अद्भुत अलौकिक होय छे.

लोको तो बहार दानादिमां पैसा खरचे अने व्रतादिमां रागनी मंदताए परिणमे एटले धर्म थवानुं माने छे. पण भाई! धर्मनुं एवुं स्वरूप नथी. धर्म तो अंतरनी चीज छे अने ते शुद्ध ज्ञाता-द्रष्टा स्वभावना आश्रये प्रगट थाय छे. हवे आवुं कठण पडे तोय बापु! सत्य तो आ ज छे.

जेम भगवान केवळीनो आत्मा एक ज्ञानमात्र भावमां तन्मय छे तेम धर्मी समकिती पण एक ज्ञानमात्रभावमां तन्मय वर्ते छे. अहाहा...! जुओ तो खरा! भगवाननुं ए समोसरण, ए बारसभा, ए दिव्यध्वनि! ओहोहोहो...! एकला पुण्यना ढगला!! पण बापु! भगवान एना कांई कर्ता नथी. भगवान एमां क्यांय प्रवेश्या- स्पर्श्या नथी. ‘भगवाननी वाणी’ -ए तो एम उपचारथी कहेवाय छे, वाणीना काळमां भगवान केवळीनुं ज्ञान निमित्त छे बस एटलुं ज्ञान कराववा उपचारथी ‘भगवाननी वाणी’ -एम कहेवाय छे. बाकी वाणी आदिना कर्ता-भोक्ता भगवान नथी. अहा! आवा ज्ञानस्वरूपे भगवानने जे ओळखे ते ज भगवानने यथार्थ ओळखे छे.

तीर्थंकरोने वाणीनो अद्भुत दिव्य योग होय छे-ए खरुं, बीजाने तेवी वाणी होय नहि; छतां ते वाणी जड वर्गणाओनुं परिणमन छे, भगवाननुं ते कार्य नथी. वाणी कार्य अने क्षायिकज्ञान तेनुं कर्ता-एम छे नहि. वळी गणधरदेवने, ते वाणीना काळमां जे बार अंगरूप भावश्रुतज्ञान खील्युं त्यां वाणी कर्ता ने गणधरनुं ज्ञान तेनुं कार्य-एम पण छे नहि. अहाहा...! शुं ज्ञाननो निरालंबी स्वभाव! ज्ञान वाणीने उपजावे नहि अने वाणीथी ज्ञान उपजे नहि. भले दिव्यध्वनि थवामां भगवान केवळीनुं केवळज्ञान ज निमित्तरूप होय, अज्ञानीनुं ज्ञान निमित्त न होय, तोपण तेथी कांई ज्ञानने अने वाणीने कर्ताकर्मपणुं छे एम छे नहि. बन्नेय तत्त्वो जुदां जुदां ज छे. ल्यो, आवी वात छे.

जो एम छे के आत्मा बोलतो नथी तो ल्यो, हवे अमे नहि बोलीए; मौन ज रहीशुं.

अरे भाई! पहेलां पण तुं क्यां बोलतो हतो ते हवे बोलवानी ना पाडे छे? हुं वाणी नहि बोलुं अर्थात् भाषाने नहि परिणमावुं-एम माने एने पण जडनी कर्ताबुद्धि ऊभी ज छे. बापु! जेम भाषा बोलाय ए जडनी क्रिया छे तेम भाषा