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बोलाती अटके ए पण जडनी ज क्रिया छे. ज्ञानी तो बेमांथी एकेयनो कर्ता नथी. समजाणुं कांई..?
अहाहा....! ज्ञानी कहे छे के-अमे वाणीमां के विकल्पमां ऊभा नथी, अमे तो अमारा ज्ञानमात्र भावमां ज छीए. वाणीना के विकल्पना कर्तापणे अमने जोशो मा, - जोशो तो तमारुं ज्ञान मिथ्या थशे. अहो! भगवान केवळीनी जेम शुद्धज्ञानपरिणत धर्मी पुरुष शरीरने-मनने-वाणीने, कर्मना बंध-मोक्षने कर्मोदयने अने निर्जराने करतो नथी;-तो शुं करे छे? मात्र जाणे ज छे अर्थात् शुद्धज्ञानपणे ज रहे छे. आ ‘जाणे ज छे’ -एवो जे भाव छे ते मोक्षमार्ग छे. अहा! वस्तुस्थिति जेम छे तेम जाणवापणे रहेनारो हुं तो एक ज्ञायकभावमात्र आत्मा छुं-एम पोताने जाणवो-अनुभववो ते मोक्षमार्ग छे. अहा! -
समवसरणनी मध्यमां सीमंधर भगवान.
जुओ, अहीं पहेलां पेरेग्राफमां त्रण वात आवीः १. शुद्धज्ञानस्वरूप जे आत्मा छे तेनुं शुद्ध ज्ञान पुण्य-पाप आदि भावने करतुं नथी अने वेदतुं नथी.
२. आमां शुद्धज्ञानपरिणत जीवद्रव्य लीधुं छे. परथी अने रागथी भिन्न शुद्धज्ञानघन प्रभु आत्मानुं जेने निर्मळ श्रद्धान थयुं छे ते शुद्धज्ञान परिणत जीव छे अने ते रागनो कर्ता के भोक्ता नथी. छद्मस्थ छे एटले तेने राग आवे पण तेनो ते अकारक अने अवेदक ज छे.
३. क्षायिकज्ञान-केवळज्ञान जेमने प्रगट थयुं छे एवा जे केवळी परमात्मा छे ते रागरहित पूरण वीतराग छे, तेथी तेओ पण कर्मोना अकारक अने अवेदक छे. तेमने बहारमां शरीरनी दशा नग्न होय छे अने आहार-पाणी होतां नथी. अहा! आवा केवळी भगवान रागने करता नथी तेम ज वेदताय नथी.
आम त्रण वात कर्या पछी फरीथी साधक जीवनी वात करे छे. शुं? के शुद्धज्ञानपरिणत जीव शुं करे छे? के जाणे छे. कोने? बंध-मोक्षने; मात्र बंध-मोक्षने; नहि, शुभ-अशुभ कर्मोदयने तथा सविपाक-अविपाकरूपे ने सकाम-अकामरूपे बे प्रकारनी निर्जराने पण जाणे छे. अहाहा...! चोथा, पांचमा अने छठ्ठा गुणस्थानवाळो जीव छे ते रागरूपी भावबंधने जाणे अने रागनो अभाव थाय, मोक्ष थाय तेने पण जाणे छे. शुभाशुभ कर्मोदयने अने प्रतिसमय थवावाळी सविपाक-अविपाकरूप ने सकाम-अकामरूप निर्जराने पण ते जाणे ज छे. ते एना करवापणे के वेदवापणे रहेतो नथी पण मात्र ज्ञातापणे ज रहे छे. आवी बधी अलौकिक वातो छे.
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जेम आंख पदार्थोने मात्र देखे छे, तेने पोतामां ग्रहती नथी तेम आत्मानी आंख अर्थात् शुद्धज्ञानपरिणति पण राग-द्वेषने, पुण्य-पापने करती-भोगवती नथी, तेने ग्रहती नथी, तेनाथी जुदी ज वर्ते छे. जो अग्निने करवा-भोगववा जाय तो आंख अग्निरूप थई जाय अर्थात् बळी जाय; तेम ज्ञानचक्षु जो रागादिने करवा-भोगववा जाय तो ते रागादिरूप थई जाय अर्थात् एनी शांति बळी जाय. पण निर्मळ ज्ञानपरिणति रागादि भावोने स्पर्शती ज नथी, तेने करती के वेदती ज नथी. ज्ञानपरिणतिनो आवो सहज स्वभाव ज छे. शुद्ध ज्ञानपरिणत आत्मा शुद्ध उपादानपणे ज्ञानने करे छे, पण रागादिने के कर्मोने करतो नथी, भोगवतो नथी. तेने मात्र जाणे ज छे.
भाई! केवळीने तो राग थतो ज नथी एटले ते तेने न करे, पण साधकने तो राग होय छे एटले ते तेनो कर्ता थतो हशे-एम शंका न करवी; साधकनुं ज्ञान - भावश्रुतज्ञान पण केवळज्ञाननी जेम ज परथी-रागथी जुदुं वर्ते छे; राग तेने परज्ञेयपणे ज छे, ज्ञान तेमां तन्मय थतुं नथी. अहा! केवळीनुं ज्ञान (केवळज्ञान) हो के साधकनुं ज्ञान (भावश्रुतज्ञान) हो, ज्ञाननो स्वभाव ज आवो छे के तेमां राग समाय नहि; ए तो रागथी भिन्न सदा ज्ञायक ज छे. ल्यो, आवी वात! समजाणुं कांई...?
हवे भगवान आत्मा केवो छे, एनुं त्रिकाळी स्वरूप केवुं छे ते बतावे छे. अहाहा...! सम्यग्दर्शननो विषय (लक्ष्य), सम्यग्दर्शननुं ध्येय परमात्मस्वरूप एवो त्रिकाळी आत्मा केवो छे ते हवे कहे छेः
‘सर्वविशुद्ध-पारिणामिक-परमभावग्राहक शुद्ध-उपादानभूत शुद्धव्यार्थिकनये जीव कर्तृत्व-भोकतृत्वथी तथा बंध-मोक्षना कारण ने परिणामथी शून्य छे-एम समुदाय- पातनिकामां कहेवामां आव्युं हतुं.’
जुओ, आ समयसारनी गाथा ३२० उपर श्री जयसेनाचार्यनी टीका वंचाय छे. आचार्य श्री जयसेनस्वामीए ३०८ थी ३२० सुधीनी गाथाओने मोक्षाधिकारनी चूलिका तरीके वर्णवी छे. तेनी शरूआतना उपोद्घातमां-समुदाय-पातनिकामां एम कह्युं’ तुं के- ‘सर्वविशुद्ध-पारिणामिक-परमभावग्राहक शुद्ध-उपादानभूत शुद्धद्रव्यार्थिकनये जीव कर्तृत्व- भोकतृत्वथी तथा बंध-मोक्षना कारण ने परिणामथी शून्य छे.’
शुं कह्युं आ? अहाहा...! आ आत्माना सहज एक शुद्ध स्वभावनी वात छे. ‘सर्वविशुद्ध-पारिणामिक’ -एटले आत्मानो सहज-अकृत्रिम एक शुद्ध स्वभाव जे सम्यग्दर्शननो विषय छे. ‘परमभावग्राहक’ एटले के जे त्रिकाळी एक ज्ञायक स्वभाव तेने ग्रहनार अर्थात् जाणनार जे शुद्धद्रव्यार्थिकनय छे ते नये, कहे छे, जीव कर्मना कर्तृत्वभोकतृत्वथी ने बंध-मोक्षना कारण ने परिणामथी रहित छे. गजब वात छे भाई! अंदर भगवान पूरण ज्ञानानंदस्वभाव छे, सर्व विशुद्ध छे. अहीं
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कहे छे-ते कर्तृत्व-भोकतृत्वथी ने बंध-मोक्षना कारण ने परिणामथी रहित छे. परमात्मप्रकाशमां (दोहा १९१ नी टीकामां) परमानंदस्तोत्रनो श्लोक आवे छे ने के-
अहाहा...! देहमां-शरीरमां भिन्नपणे विराजमान ब्रह्म नाम परमस्वभाववान भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनंदरूप छे. परंतु अंतर्द्रष्टि-सहित जे ध्यान ते ध्यान विनाना प्राणी आनंदकंद प्रभु आत्माने जोई शकता नथी, कोनी जेम? तो कहे छे-जे जन्मथी अंध छे ते सूर्यने जोई शकतो नथी तेम. अहा! आत्मा अंदरमां अतीन्द्रिय आनंदरूप-परमस्वभावभावरूप छे तेने अनादिथी मिथ्याद्रष्टि जोई शकतो नथी.
अहीं पण कहे छे-परमभावग्राहक शुद्ध-उपादानभूत शुद्ध-द्रव्यार्थिकनये जीव कर्तृत्व-भोकतृत्वथी अने बंध-मोक्षना कारण ने परिणामथी शून्य छे. आ परमस्वभावभाव जे एक आनंदरूप, ज्ञायकरूप, ध्रुव स्वभावभावरूप शुद्ध-उपादानभूत छे ते त्रिकाळीनी अहीं वात छे. पर्यायमां जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप वीतरागी दशा प्रगटे छे तेने पण (क्षणिक) शुद्ध-उपादान कहेवाय छे. अहीं त्रिकाळी द्रव्यने शुद्ध-उपादान तरीके लेवुं छे.
अहाहा...! जयसेनाचार्य महा मुनिवर दिगंबर संतनी आ टीका छे. तेओ वनवासी मुनि हता. मुख्यपणे निजानंदरसमां लीन रहेतो हता. तेमनी आ टीका छे. तेमां शुं कहे छे? के परमपारिणामिक परमभावरूप एवो जे शुद्ध द्रव्यस्वभाव छे तेने ग्रहण करनार अर्थात् जाणनार शुद्ध उपादानभूत शुद्धद्रव्यार्थिकनये जीव कर्तृत्व-भोकतृत्वथी शून्य छे. अहीं शुद्धद्रव्यार्थिकनये कह्युं ने? मतलब के शुद्ध उपादान तो त्रिकाळ छे पण तेना लक्षे जे वर्तमानदशा प्रगटे छे ते पण कर्ता-भोक्तापणाथी शून्य छे. अहाहा...! जे त्रिकाळने पकडे एवी जे आनंदनी दशा ते-रूपे जे परिणत छे ते जीव पण शुभाशुभ रागना अने परपदार्थना कर्ता-भोक्तापणाथी शून्य छे. हवे लोकोने बिचाराओने आ सांभळवा मळे नहि एटले कठण पडे; पण भाई! आ परम सत्य वात छे.
दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि करतां करतां निश्चय समकित अने निश्चय चारित्र प्रगटशे एम जेओ माने छे तेमने शुद्ध अंतःतत्त्वनी खबर नथी. केटलाक तो आ शुद्ध अंतःतत्त्वनी वात एकांत छे एम मानी उडावी दे छे. पण अरे प्रभु! आवा भावथी तने संसारनुं परिभ्रमण थशे. भाई! आ तो तारा हितनी वात छे. एनी उपेक्षा करवाथी तने भारे नुकशान छे. अरेरे! सर्वज्ञ परमेश्वर भगवान केवळी
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अहीं रह्या नहि, त्रण ज्ञान अने चार ज्ञाननी दशावाळा पण रह्या नहि! अहा! आ सत्यनो हकार कोनी पासे कराववो? तुं माने, न माने; पण मार्ग तो आ ज छे भाई!
अहाहा..! शुद्ध चैतन्यमूर्ति भगवान सच्चिदानंद प्रभु परमभावस्वरूप छे. ते वर्तमान निर्मळ निर्विकार वीतरागी ज्ञानपर्यायथी जणावा योग्य छे. अहाहा...! आवो आत्मा जेने द्रष्टिमां आव्यो, अनुभवमां आव्यो ते, कहे छे, व्यवहारना रागनो कर्ता नथी, भोक्ताय नथी, आवुं वस्तुनुं स्वरूप छे. रागनी वृत्ति ऊठे तेनो कर्ता-भोक्ता तो नथी पण बंध-मोक्षनां कारण अने परिणामथीय आत्मा शून्य छे.
अहाहा...! भगवान! तुं कोण छो? के पूर्णानंदनो नाथ सच्चिदानंदस्वरूप परमभावस्वरूप परमात्मा छो. अहाहा...! त्रिकाळी चैतन्यनुं बिंब एकलुं चैतन्यनुं दळ छो ने प्रभु! तुं! अहाहा...! तेने जाणनार शुद्ध-उपादानभूत शुद्धद्रव्यार्थिकनय वडे जोतां कहे छे, ते बंध अने बंधना कारणथी तथा मोक्ष अने मोक्षना कारणथी रहित छे. अहाहा...! सम्यग्दर्शननुं ध्येय जे त्रिकाळी शुद्ध आत्मा ते सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्रना परिणामथी रहित छे, झीणी वात छे प्रभु! बंधना कारणथी तो रहित पण मोक्षना कारणथीय भगवान आत्मा रहित छे. आवी वात!
भाई! आ तो मूळ मुदनी रकमनी वात छे. त्रिकाळी ध्येयस्वरूप पूरण शुद्ध चिन्मात्र वस्तु भगवान आत्मा बंध-परिणाम अने बंधनां कारण जे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय अने योग तेने करतो नथी. वळी ते मोक्षना परिणाम जे केवळज्ञान, केवळदर्शन, अनंत आनंद, अनंत वीर्य आदि-तेने करतो नथी तथा मोक्षनुं कारण जे निर्मळ रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तेने करतो नथी. केम? केमके भगवान आत्मा त्रिकाळी एकरूप ध्रुव वस्तु छे अने बंध-मोक्ष आदि एक समयनी पर्याय-अवस्था छे, भाई! आवो मार्ग छे; सर्वज्ञथी सिद्ध थयेलो हों. आ कह्युं ने के- शुद्धद्रव्यार्थिकनये आत्मा बंध-मोक्षनां कारण अने बंध-मोक्षना परिणामथी शून्य छे. भाई! मोक्ष छे ते परिणाम छे, पर्याय छे; तेने एकरूप ध्रुवद्रव्य कांई करे नहि. समजाणुं कांई...?
भाई! जिनेश्वरदेव त्रिलोकनाथ तीर्थंकर परमात्माने सर्वज्ञदशा प्रगटी होय छे, तेमां भगवानने त्रणकाळ-त्रणलोक जणाय छे. भगवानने तेनी इच्छा न होय हों. तेमने बारमे गुणस्थाने पूर्ण वीतरागता प्रगट थाय छे अने त्यार पछी तेरमे गुणस्थाने केवळज्ञान प्रगटे छे. अहा! आवी जे केवळज्ञाननी पर्याय प्रगटी तेने, अहीं कहे छे, ध्रुवद्रव्य जे छे ते करतुं नथी. सम्यग्दर्शननो विषय जे ध्रुव त्रिकाळी चैतन्यद्रव्य छे, ते बंध-मोक्षना परिणाम अने बंध-मोक्षना कारणोने करतुं नथी.
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हवे आवी वात बीजे क्यां छे? एक दिगंबरमां छे. पण तेमांय (दिगंबर संप्रदायमांय) अत्यारे आ वात आ रीते चालती नथी; घणो फेरफार छे. अहा! सम्यग्द्रष्टिने सम्यग्दर्शननी जे दशा थई तेनो विषय जे ध्रुव दशावान तेमां, कहे छे, पलटती बंध-मोक्षनी दशाओनो अभाव छे. बंध-मोक्षना परिणाम तो उत्पाद-व्ययरूप पलटता परिणाम छे तेनो ध्रुवमां अभाव छे. ‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्’ - एम आवे छे ने? तेमां ध्रुव जे त्रिकाळी सत् छे तेमां उत्पाद-व्ययनो अभाव छे अर्थात् ध्रुव उत्पाद-व्ययने (पलटती पर्यायने) करतुं नथी एम कहे छे. बापु! भगवानना मारगडा जुदा छे भाई!
मोक्षमहलकी परथम सीढी.... अहाहा...! आवुं सम्यग्दर्शन कोई अलौकिक चीज छे; अने मुनिपणानी तो शी वात! त्रण कषायना अभाव सहित जेने अंतरमां प्रचुर आनंदनो स्वाद अनुभव छे अने बहारमां जेने वस्त्रनो एक धागोय नथी, जंगलमां जेनो वास होय छे. अहा! ए दिगंबर संतोनी शी वात करवी? छठ्ठे-सातमे गुणस्थाने झूलता ए मोक्षमार्गी मुनिवरोनी दशा महा अलौकिक होय छे. बापु! मुनि ए तो साक्षात् धर्म-मोक्षमार्गनुं स्वरूप छे. अहीं कहे छे-ए मोक्षमार्गनी दशाने त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य करतुं नथी. ल्यो, आवी कोई भाग्यशाळी होय एने रुचे एवी वात छे. (भगवान! तुं रुचि तो कर एम कहेवुं छे.)
आत्मा एक ज्ञायकभावरूप शुद्ध द्रव्यार्थिकनये शुद्ध पारिणामिक परमस्वभावभावरूप छे. आवा परमस्वभावभावनी भावनाथी मोक्षमार्ग प्रगटे छे. आ भावनारूप मोक्षमार्ग ते पर्याय छे. बंध-मोक्षनी पलटना ते पर्यायमां थाय छे, द्रव्यमां नहि. ध्रुव द्रव्य छे ते बंध-मोक्षनी पर्यायरूप थतुं नथी. पर्यायनो कर्ता पर्यायधर्म छे. पर्याय छे खरी, पण ते त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यरूप नथी. द्रव्यद्रष्टिनो ते विषय नथी. अर्थात्, द्रव्यने देखनारी द्रष्टिमां पर्याय गौण छे. आ प्रमाणे द्रव्यार्थिकनये जीवद्रव्य बंध-मोक्षना कारण ने परिणामथी रहित छे.
बंध ने मोक्षनां कारण ते बन्ने पर्यायरूप छे. जीवना अशुद्ध परिणाम ते बंधनुं कारण छे अने शुद्ध परिणाम ते मोक्षनुं कारण छे. आ परिणाम ते पर्यायरूप छे. त्यां परद्रव्य तो बंध-मोक्षनुं कारण नथी, शुद्ध द्रव्यरूप पारिणामिक परमभाव पण बंध- मोक्षनुं कारण नथी, जो ते पोते (ध्रुव द्रव्यभाव) बंधनुं कारण होय तो त्रिकाळ बंध ज थया करे; जो ते मोक्षनुं कारण होय तो त्रिकाळ मोक्ष होय. अथवा पारिणामिक भाव पोते सर्वथा पर्यायरूप थई जाय तो पर्यायनी साथे ते पण नाश पामी जाय. आम आ न्यायथी सिद्ध थयुं के बंध-मोक्षना परिणाम अने तेनां कारण पर्यायमां छे पण त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य शुद्ध एक परमभावस्वरूप वस्तु
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एनाथी शून्य छे. त्रिकाळीमां-ध्रुवमां बंध-मोक्ष नथी. आवी वात! अहो! आ तो चमत्कारी गाथा अने चमत्कारी टीका छे.
एक वार एक भाई एम कहेता हता के-तमे जे अरिहंतनुं अने सिद्धनुं ध्यान धरो छो ते जूठुं छे केमके अरिहंत अने सिद्ध अहीं छे नहि.
अरे भाई! तुं सांभळ तो खरो प्रभु! जे अर्हंतदशा अने सिद्धदशा प्रगट थवानी छे ते अंदरमां शक्तिपणे पडी छे. तेनुं जे ध्यान करे छे ते अर्हंतनुं अने सिद्धनुं ध्यान करे छे. शुं कीधुं? केवळीने जे केवळज्ञान आदि अनंतचतुष्टय प्रगट थयां ते अंदर शक्तिमां छे. तेथी तो कह्युं के ‘सिद्ध समान सदा पद मेरो.’ बापु! भगवान आत्मा, जेने पूरण निर्मळ वीतरागी दशा प्रगट थाय एवो अंदर वीतरागी अनंत शक्तिनो- स्वभावनो पिंड छे. भाई! आ परम सत्यनी प्रसिद्धि छे. अहा! त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यस्वभावना आश्रये निर्मळ वीतरागी परिणति प्रगट थाय छे ते अपेक्षाए (आश्रय अपेक्षाए) तेने मोक्ष अने मोक्षमार्गनुं कारण भले कहो, पण शुद्ध द्रव्यार्थिकनये तेमां बंध-मोक्ष नथी अर्थात् शुद्ध त्रिकाळी द्रव्य बंध-मोक्षनुं कर्ता नथी, झीणी वात भाई!
त्यारे कोई पंडित वळी एम कहे छे के-परिणाम अशुद्ध होय त्यां द्रव्य अशुद्ध थई गयुं.
अरे प्रभु! तुं शुं कहे छे आ? आ काळना साधारण बुद्धिवाळा जीवोने कांई खबर न पडे एटले ‘हा जी हा’ भणे, पण बापु! आत्मानी एक समयनी पर्यायमां बंधना अशुद्धभाव छे माटे द्रव्य अशुद्ध थई गयुं एम छे नहि. पर्यायनी अशुद्धताना काळमां पण अंदर त्रिकाळी द्रव्य तो एवुं ने एवुं शुद्ध चैतन्यनुं दळ छे. तेमां अशुद्धता नाम बंधनी पर्यायनुं प्रवेशवुं तो नथी, तेमां शुद्धतारूप मोक्षनी पर्यायनो पण प्रवेश नथी. अहाहा...! त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यद्रव्य तो बंध-मोक्षना कारण अने परिणामथी रहित छे. हवे आवी वात कोईने एकांत लागे पण भाई! आ सम्यक् एकान्त छे. आ तो महामुनिवर दिगंबर संत श्री जयसेनाचार्यदेवनुं कथन छे. अहाहा..! अंतरमां जेमने रागरहित वीतराग दशा हती अने बहारमां जेमने वस्त्ररहित नग्न दशा हती ने जेमने अतीन्द्रिय आनंदनुं प्रचुर संवेदन हतुं ते मुनिराज आ कहे छे के-अमारी आ जे मुनिपणानी-मोक्षमार्गनी दशा छे तेने ध्रुव करतुं नथी, ते ध्रुवमां नथी.
अहा! भगवान आत्मा पूर्णानंदनो नाथ प्रभु पूर्ण एक शुद्ध ज्ञानस्वरूप छे. अहाहा..! ते अनंत शक्तिओनो एक पिंड छे. तेनी एक एक शक्ति पूरण शुद्ध छे. जे शक्ति शुद्ध छे ते अशुद्धताने केम करे? न करे; अशुद्धताने तो न करे,
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शुद्धताना उत्पादनेय ए न करे एम कहे छे; केमके उत्पादरूप पर्यायने द्रव्य स्पर्शतुं सुद्धां नथी.
जुओ, समयसारनी ४९मी गाथानी टीकामां अव्यक्तना छ बोल छे, तेना पांचमा बोलमां आवे छे के-“व्यक्तपणुं तथा अव्यक्तपणुं भेळां मिश्रितरूपे तेने प्रतिभासवा छतां पण ते व्यक्तपणाने स्पर्शतो नथी माटे अव्यक्त छे.” व्यक्त जे पर्याय ते अव्यक्त द्रव्यने स्पर्शती नथी अने अव्यक्त द्रव्य छे ते व्यक्त पर्यायने स्पर्शतुं नथी. शुं कीधुं? व्यक्त एटले प्रगट पर्याय अने अव्यक्त एटले ध्रुव द्रव्य बन्नेने एक साथे जाणवा छतां ते व्यक्तने स्पर्शतुं नथी. द्रव्य ध्रुव छे ते मोक्ष मार्गनी पर्यायने अडतुं नथी. ल्यो, आवी वात!
प्रवचनसारनी गाथी १७२ मां अलिंगग्रहणना वीस बोल छे, तेमां छेल्ला बोलमां कह्युं छे के-“लिंग एटले के प्रत्यभिज्ञाननुं कारण एवुं जे ग्रहण एटले के अर्थावबोध सामान्य ते जेने नथी ते अलिंगग्रहण छे; आ रीते आत्मा द्रव्यथी नहि आलिंगित एवो शुद्ध पर्याय छे एवा अर्थनी प्राप्ति थाय छे.” अहाहा...! आत्मा शुद्ध पर्याय छे ते ध्रुवने स्पर्शती नथी. पर्याय अने द्रव्य बे चीज छे ते बन्ने अस्तिरूप छे. वाचकना वाच्य बे छे ते बेपणे रहेवां जोईए, त्यां ए (ध्रुव) आने (पर्यायने) केम करे? अने आ (पर्याय) एने (ध्रुवने) केम करे? बन्ने पोतपोतामां सत् छे ने प्रभु! भाई! आ समजीने अंदरमां (शुद्ध अंतःतत्त्वमां) रुचि करवा जेवुं छे. बाकी अंतरनी रुचि-सम्यग्दर्शन विना व्रत, तप आदि बहारनां आचरण करे पण ए तो बधां एकडा विनानां मींडां छे. समजाणुं कांई...?
अहा! जे ध्रुव छे ए तो सदा एकरूप सद्रश छे अने उत्पाद-व्यय विसद्रश छे. शुं कीधुं? ध्रुव एक परमभाव-ज्ञायकभाव त्रिकाळी एकरूप सद्रश चीज छे ने उत्पाद- व्यय तो भाव-अभावरूप विसद्रश छे. हवे जे सद्रश छे ते विसद्रशने केम करे? जे स्पर्शतो नथी ते सद्रश त्रिकाळी ध्रुव विसद्रश पर्यायने केवी रीते करे? “परिणाम परिणाममां रही गया, हुं तो भिन्न वस्तु छुं” एम सोगानीजीए द्रव्यद्रष्टि प्रकाशमां कह्युं छे ने? ल्यो, ए आ वात छे. मारगडा तारा जुदा छे प्रभु! तारे धर्म करवो छे ने? तो कहे छे-धर्मनी पर्यायने पर तो ना करे, पण तारुं ध्रुवेय ना करे. अहाहा...! राग तो धर्म पर्यायने ना करे, शुभराग कर्ता ने धर्मनी-मोक्षमार्गनी पर्याय तेनुं कार्य एम तो छे नहि, पण ध्रुव द्रव्य कर्ता अने पर्याय एनुं कार्य एमेय नथी. अहो! पर्याय-पर्याय स्वतंत्र सत् छे. आमां तो गजबनी वात छे भाई!
आ बधा पैसावाळा धूळमां (-पैसामां) गुंचवाई गया छे तेमने हवे आ
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के दि’ सांभळवा मळे? बिचाराने नवराश मळे त्यारे ने? अहीं कहे छे-सांभळने प्रभु! आ तारुं चैतन्यदळ छे एमां संख्याए अनंती शक्तिओ छे. एवी अनंत शक्तिनुं एकरूप ते द्रव्य छे. तेने जाणनारो शुद्ध द्रव्यार्थिकनय छे. तो शुद्धद्रव्यार्थिकनये, कहे छे, ध्रुव द्रव्य छे ते मोक्षमार्ग ने मोक्षनी पर्यायने करतुं नथी. गजबनी वात करी छे, सर्वविशुद्धज्ञान अधिकारनी समुदायपातनिकामां आ वात पहेलां कहेवाई गई छे.
हवे कहे छे- ‘पछी चार गाथा द्वारा जीवनुं अकर्तृत्वगुणना व्याख्याननी मुख्यताथी सामान्य विवरण करवामां आव्युं. त्यार पछी चार गाथा द्वारा “शुद्धने पण जे प्रकृति साथे बंध थाय छे ते अज्ञाननुं माहात्म्य छे” एम अज्ञाननुं सामर्थ्य कहेवारूपे विशेष विवरण करवामां आव्युं.’
भगवान आत्मा शुद्ध आनंदकंद प्रभु छे, तेने रागनो बंध थाय ते अज्ञाननुं माहात्म्य छे. शुं कीधुं? पोताना स्वरूपनुं भान नथी एवुं जे अज्ञान ते बंधनुं कारण छे. भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यघन प्रभु सदा अबंधस्वरूप छे, ते रागने स्पर्शतो नथी. तथापि प्रकृति साथे तेने जे बंध थाय छे ते अज्ञाननुं माहात्म्य छे.
भाई! तारी पर्यायमां तारी भूलथी तने बंधन छे. भूल शुं? के पोते पोताने जाण्यो नहि, पोताना स्वस्वरूपने जाण्युं नहि ते भूल छे अने तेथी बंधन छे. बंधन छे त्यारे तो एनाथी छूटवारूप मोक्षमार्गनो उपदेश आपीए छीए. जो बंधन होय ज नहि तो ‘मोक्ष काजे शुद्धात्माने ध्याओ’ एम उपदेश केम दईए? पर्यायमां बंधन छे, अने एनाथी छूटवानो उपाय पण छे. -पण तेटलो ज आखो आत्मा नथी. ते पर्यायो वखते ज आखो परमभावस्वरूप परम पवित्रतानो पिंड प्रभु आत्मा अनंतशक्तिओथी परिपूर्ण अंदर विराजी रह्यो छे, -जेनुं लक्ष करतां बंधन टळे छे ने मोक्ष प्रगटे छे. अहा! आवो पवित्रस्वरूप प्रभु आत्मा छे, एनुं ज्ञान नथी एवा अज्ञाननो ए महिमा छे के एने पर्यायमां बंध छे.
अरे! लोको तो बाह्य क्रियामां धर्म माने छे. दया पाळवी, सामायिक करवी, पोसा करवा, चोविहार करवा, कंदमूळ न खावां इत्यादि मंदरागनी क्रियामां धर्म माने छे. पण भाई! एमां धूळेय धर्म नथी. क्रियानो राग छे ए तो कलेश छे, दुःख छे अने तेने धर्म जाणवो ए स्वरूपनुं अज्ञान छे. अहा! शुद्धने जडकर्मनी प्रकृति साथे जे बंध छे ते आ अज्ञाननुं माहात्म्य छे. अहा! मारग तो एक वीतरागभावस्वरूप छे ने दुनिया क्यांय (-रागमां) मानी बेठी छे ए अज्ञाननुं माहात्म्य छे. एम (चार गाथाओमां) अज्ञाननुं सामार्थ्य कहेवारूपे विशेष विवरण करवामां आव्युं.
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हवे कहे छे- ‘त्यार पछी चार गाथा द्वारा जीवनुं अभोकतृत्वगुणना व्याख्याननी मुख्यताथी व्याख्यान करवामां आव्युं.’
पहेलां अकर्तृत्व कहेवामां आवेल, पछी अभोकतृत्वगुणनी मुख्यताथी व्याख्यान करवामां आव्युं.
‘त्यार पछी बे गाथा कहेवामां आवी जेना द्वारा, पूर्वे बार गाथामां शुद्ध निश्चयथी कर्तृत्व-भोकतृत्वना अभावरूप तथा बंध-मोक्षनां कारण ने परिणामना अभावरूप जे व्याख्यान करवामां आव्युं हतुं तेनो ज उपसंहार करवामां आव्यो.
आ रीते समयसारनी शुद्धात्मानुभूतिलक्षण “तात्पर्यवृति” नामनी टीकामां मोक्षाधिकार संबंधी चूलिका समाप्त थई. अथवा बीजी रीते व्याख्यान करतां, अहीं मोक्षाधिकार समाप्त थयो.’
जुओ, आ टीकानुं नाम शुद्धात्मानुभूतिलक्षण तात्पर्यवृति छे. श्री अमृतचंद्राचार्यदेवनी टीकानुं नाम आत्मख्याति छे. श्री जयसेनाचार्यदेवनी अपेक्षाए मोक्षाधिकार संबंधी चूलिका समाप्त थई, अथवा बीजी रीते व्याख्यान करतां, मोक्षाधिकार अहीं समाप्त थयो. हवे-
वळी विशेष कहेवामां आवे छेः ‘औपशमिकादि पांच भावोमां कया भावथी मोक्ष थाय छे ते विचारवामां आवे छे. त्यां औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक अने औदयिक ए चार पर्यायरूप छे अने शुद्ध पारिणामिक (भाव) द्रव्यरूप छे. ए परस्पर सापेक्ष एवुं द्रव्यपर्यायद्वय (द्रव्य अने पर्यायनुं जोडकुं) ते आत्मा-पदार्थ छे.’
जुओ, पांच भावमां उपशमादि चार भावो पर्यायरूप छे. तेमां (प्रथमना) त्रण निर्मळ पर्यायरूप छे, औदयिक मलिन विकाररूप छे; अने पारिणामिक ध्रुव द्रव्यस्वरूप छे. ते आत्मानो अहेतुक अकृत्रिम सहज स्वभाव छे.
औपशमिक भावः– पांच भावोमां एक औपशमिक भाव छे. ते निर्मळ छे. जेम पाणीमां मेल होय ते मेल नीचे ठरी जाय अने उपर पाणी निर्मळ थई जाय तेम कर्मनो उदय ठरे अने अंदर पर्यायमां निर्मळ भाव प्रगट थाय तेने औपशमिक भाव कहे छे. अनादि अज्ञानी जीवने सौ प्रथम ज्यारे पोताना शुद्ध स्वभावनुं भान करे त्यारे, चोथे गुणस्थाने औपशमिक सम्यग्दर्शन थाय छे. आ औपशमिक भावथी धर्मनी शरूआत थाय छे, पछी चारित्रमां उपशमभाव उपशमश्रेणी वखते मुनिने होय छे. आ उपशमभाव ए निर्मळ भाव छे. तेमां मोहनो वर्तमान उदय नथी, तेम ज तेनो सर्वथा क्षय पण थई गयो नथी. जेम नीतरेला स्वच्छ पाणीमां नीचे
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कादव बेसी गयो होय तेम सत्तामां मोहकर्म पडयुं छे. जीवनी आवी निर्मळ पर्यायने औपशमिक भाव कहे छे.
क्षायोपशमिक भावः– आ भावमां कांईक विकास ने कांईक आवरण छे; ज्ञानादिनो सामान्य क्षयोपशम भाव तो बधा छद्मस्थ जीवोने अनादिथी होय छे, पण अहीं मोक्षना कारणरूप क्षयोपशमभाव बताववो छे-एटले सम्यग्दर्शनपूर्वकनो क्षयोपशमभाव अहीं समजवो.
कर्मनो उदय छे तेनो उदयाभावी क्षय अने अनुदय छे ते उपशमरूपे अंदर सत्तामां रहे तेना निमित्ते जे जीवनो भाव होय तेने क्षयोपशमभाव कहेल छे.
क्षायिक भावः– आत्माना गुणनी संपूर्ण शुद्ध दशा प्रगटे अने कर्मोनो सर्वथा क्षय थई जाय-एवी दशा ते क्षायिक भाव छे. दर्शनमोहनीयनो क्षय थतां क्षायिक सम्यग्दर्शन, ज्ञानावरणीयनो क्षय थतां क्षायिक ज्ञान, दर्शनावरणीयनो क्षय थतां क्षायिकदर्शन-एम जे भाव प्रगट थाय ते क्षायिक कहेवाय छे.
आ त्रणे भाव निर्मळ पर्यायरूप छे; ते अनादिना नथी होता, पण आत्माना आश्रयपूर्वक नवा प्रगटे छे, सादि छे अने ते भावो मोक्षनुं कारण थाय छे एम आगळ कहेशे.
औदयिक भावः– जेमां कर्मनो उदय निमित्त होय छे एवो जीवनो रागादि विकारी भाव ते औदयिक भाव छे. दया, दान, व्रत, भक्ति आदि तथा हिंसा, जूठ, चोरी, कुशील आदिना जे भाव थाय ते औदयिक भाव छे, एक अपेक्षाए तेने पारिणामिक कह्यो छे. जीव स्वयं ते भाव करे छे ते अपेक्षाए तेने पारिणामिक कह्यो छे अने कर्मोदयना निमित्तना वशे थाय छे माटे तेने औदयिक भाव कहेवाय छे. हवे आवी वात ओघे ओघे सांभळे एने शुं समजाय? भाई! दया पाळो, दान करो, व्रत पाळो एम प्ररूपणा करे पण बापु! ए बधा रागना भाव औदयिक भाव छे. ते बंधना कारणरूप छे, ते कोई भावो मोक्षनुं कारण थता नथी.
अनादिथी बधा संसारी जीवोने औदयिक भाव होय छे. मोक्षदशा थतां तेनो सर्वथा अभाव थाय छे.
पारिणामिक भावः– आत्मानो त्रिकाळी सहज एकरूप शाश्वत स्वभाव ते पारिणामिक भाव छे; ते ध्रुव द्रव्यरूप छे. तेने ‘परमभाव’ कह्यो छे. अन्य चार भावो क्षणिक छे तेथी तेमने ‘परमभाव’ न कह्या.
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अहाहा...! पारिणामिकरूप परमस्वभावभाव प्रत्येक जीवने सदाय विद्यमान छे. हवे आ पांच भावोमां सर्वविशुद्ध परम पारिणामिकभाव जे शाश्वत ध्रुव अचल छे ते द्रव्यरूप-वस्तुरूप छे अने अन्य चार भावो प्रगट पर्यायरूप छे. तेमां त्रण निर्मळरूप छे ने औदयिक मलिनरूप छे. ए परस्पर सापेक्ष एवुं द्रव्य-पर्यायद्वय ते आत्मा-पदार्थ छे. अर्थात् द्रव्य-पर्याय बन्ने थईने आखो आत्मा-पदार्थ छे. द्रव्य ते निश्चय, पर्याय ते व्यवहार; बन्ने थईने प्रमाणवस्तु सत्.
द्रव्य-पर्यायरूप आखो पदार्थ आत्मा ते प्रमाणनो विषय छे. तेमां परम पारिणामिकस्वभावे जे त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य छे ते निश्चयनो विषय छे, अने वर्तमान वर्तती पर्याय ते व्यवहारनो विषय छे. निश्चय छे ते त्रिकाळी द्रव्यने स्वीकारे छे, अने व्यवहारनय वर्तमान वर्तती पर्यायने स्वीकारे छे. त्यां निश्चयनुं जे ज्ञान कर्युं. तेनी साथे पर्यायनुं ज्ञान भेळवे तेने प्रमाणज्ञान कहेवामां आवे छे. निश्चयने राखीने व्यवहारने जाणे ते प्रमाणज्ञान छे; पण निश्चयने उडाडीने व्यवहारने भेळवे तो प्रमाणज्ञान रहे ज नहि.
भाई! तारी वस्तुने-आत्माने जोवाना त्रण प्रकारः- -त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यरूप परमभावने देखनारी द्रष्टि ते द्रव्यार्थिकनय, -वस्तुने पर्यायरूपे देखनारी द्रष्टि ते पर्यायार्थिकनय, अने -द्रव्य-पर्यायरूप वस्तुने समग्रपणे देखनारुं ते प्रमाणज्ञान. अध्यात्मद्रष्टिमां शुद्ध द्रव्य ते निश्चय छे, ने तेनी शुद्धपर्याय वडे मोक्षमार्गने साधवो ते व्यवहार छे. रागादिक तो परमार्थे अनात्मा छे, केमके ते शुद्ध आत्मा नथी; अशुद्ध भाव छे तेथी शुद्धद्रष्टिमां ते अनात्मा छे. अभेद आत्मानी अनुभूतिमां तेनो अभाव छे. अर्थात् शुद्धात्मानुभूतिथी तेओ (रागादि) बाह्य छे.
जुओ, शुद्ध जीव ते अंतःतत्त्व छे, ने रागादि बाह्य तत्त्व छे. अभेद तत्त्वनी अनुभूतिमां निर्मळपर्यायना भेदो पण नथी ते अपेक्षाए तेमने पण बाह्य तत्त्व कह्या छे. नियमसार गाथा ३८ मां एक शुद्ध आत्माने ज अंतःतत्त्व कह्युं छे ने जीवादि तत्त्वोने बाह्य तत्त्व कह्या छे. मतलब के जीवादितत्त्वो संबंधी जे भेदविकल्प छे तेना वडे शुद्ध आत्मा अनुभवमां नथी आवतो माटे तेओ बाह्य तत्त्व छे, हेय छे. भाई! पर्यायना भेदो छे ते आदरणीय नथी, आश्रय करवायोग्य नथी. एक मात्र शुद्ध त्रिकाळी एक ज्ञायकतत्त्वमां अभेद थईने अनुभव करवायोग्य छे. अलबत अनुभव छे ते पर्याय छे, पण ते द्रव्यस्वभावनी सन्मुख थईने तेनो आश्रय करे छे. आम शाश्वत शुद्ध ज्ञायक वस्तु ने तेनी वर्तमान अवस्था ते बन्ने परस्पर सापेक्षपणे आखो आत्मा-पदार्थ छे. समजाणुं कांई...?
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भाई! तारे दुःख मटाडीने सुखी थवुं छे ने? तो दुःख कया भावथी छे, ने सुख कया भावथी थाय-तेने तुं जाण. सुख-दुःख तारा पोताना भावोथी ज छे, बीजाने लीधे नथी. बापु! आवा वस्तुना स्वरूपने जाण्या विना अनंतकाळथी तुं ८४ लाख योनिमां अवतार करी करीने रझळे छे. त्यां एकलो तुं तारा भावथी दुःखी छे, कोई बीजाथी नहि. पापना उदये एकेन्द्रियादिमां जाय त्यां तुं एटलो दुःखी छे, ने पुण्योदये स्वर्गादिमां जाय तो त्यां तुं एकलो कल्पनाथी (वास्तविक नहि) सुखी छे; एमां कोईनी सहाय-अपेक्षा छे नहि. तथा शुद्ध अंतःतत्त्वना आश्रये ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप परिणत थतां मोक्षमार्गमां पण तुं एकलो ज सुखी छे-होईश; तेमां पण कोईनो साथ-सहाय के अपेक्षा छे नहि.
अहीं कहे छे-चार भावो पर्यायरूप छे; तेमां औपशमिकादि त्रण भावो निर्मळ छे, मोक्षना कारणरूप छे अने औदयिक भाव मलिन विकारी छे ने बंधनुं-संसारनुं कारण छे. तथा जेना आश्रये निर्मळ भाव प्रगट थाय छे ते शुद्ध पारिणामिक भाव त्रिकाळ द्रव्यरूप छे. एम परस्पर सापेक्ष द्रव्य-पर्यायनुं जोडकुं ते आखो आत्मा-पदार्थ छे. अहो! आ तो एकलुं अमृत पीरस्युं छे; “अमृत वरस्यां रे प्रभु! पंचम काळमां.”
हवे कहे छे -“त्यां, प्रथम तो जीवत्व भव्यत्व अने अभव्यत्व एम त्रण प्रकारना पारिणामिक भावोमां, शुद्ध जीवत्व एवुं जे शक्तिलक्षण पारिणामिकपणुं ते शुद्ध द्रव्यार्थिकनयाश्रित होवाथी निरावरण अने “शुद्ध पारिणामिकभाव” एवी संज्ञावाळुं जाणवुं; ते तो बंधमोक्षपर्यायपरिणति रहित छे.’
जुओ, अहीं जीवत्व, भव्यत्व अने अभव्यत्व-एम त्रण प्रकारना जे पारिणामिकभाव कह्या त्यां ‘शुद्ध’ शब्द नथी वापर्यो; मतलब के ए त्रण भेदो पाडवा ते अशुद्ध पारिणामिक छे अने ते व्यवहारनयनो विषय छे. परंतु त्यां ए त्रण प्रकारना भावोमां, शुद्ध जीवत्व एवुं जे शक्ति लक्षण पारिणामिकपणुं छे ध्रुव त्रिकाळ छे अने ते शुद्ध-द्रव्यार्थिकनयाश्रित होवाथी निरावरण अने “शुद्ध पारिणामिकभाव” एवी संज्ञावाळुं जाणवुं. अहाहा...! केटलुं स्पष्ट कर्युं छे?
शुं कहे छे? के सम्यग्दर्शननो विषय-लक्ष्य एवुं जे त्रिकाळ ध्रुव द्रव्य, चार पर्याय विनानी चीज, ते शक्तिलक्षण शुद्ध पारिणामिकभाव जाणवो. ते शुद्ध द्रव्यार्थिकनय नो विषय छे अने ते निरावरण छे. अहाहा... ! भव्य हो के अभव्य हो, तेमां जे त्रिकाळ शक्तिरूप शुद्ध जीवत्वछे ते शुद्ध पारिणामिक भाव छे अने ते शुद्ध द्रव्यार्थिकनयनो विषय होवाथी निरावरण छे. अहा! जेमां चार पर्याय नथी
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तेमां आवरण केवुं? (आवरण तो पर्यायमां होय छे.) आवुं जे शुद्ध चैतन्यना प्रवाहरूप-अहाहा..! चैतन्य... चैतन्य... चैतन्य... एम शुद्ध चैतन्यना ध्रुव प्रवाहरूप शुद्ध जीवत्व छे ते निरावरण शुद्ध पारिणामिकभाव छे अने ते बंध-मोक्षना परिणामथी रहित छे. अर्थात् ते बंध मोक्षना परिणामनुं कारण नथी.
पर्यायमां अशुद्धता होय तो द्रव्य अशुद्ध थई जाय-एम केटलाक कहे छे ने? ल्यो, एमनी ए मान्यतानो आमां निषेध थई गयो. भाई! द्रव्य तो त्रिकाळ शुद्ध निरावरण ज छे. (आवरण छे ए तो पर्यायमां छे.) आवी वात चालती न हती अने बहार आवी एटले केटलाकने खळभळाट थयो के-अरे! अमारा आ बधा क्रियाकांड उडी जशे. पण बापु! आ तारा हित नी वात छे भाई! चोर्यासीना अवतारनो अंत करी जन्म मरण रहित थवानी आ वात छे बापु!
शुद्ध जीवत्वस्वरूप त्रिकाळ शक्तिलक्षण जे पारिणामिकपणुं छे तेमां द्रष्टि आपतां सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे ए पछी कहेशे. अहीं कहे छे -वस्तुनुं स्वरूप जे त्रिकाळ शक्तिरूप सत् छे, अहाहा..! सत्नुं जे सत्व छे ते त्रिकाळ निरावरण छे. उदय, उपशम, क्षयोपशम अने क्षायिक-एम चार भावो जे पर्यायरूप छे ते त्रिकाळी ध्रुव शुद्धमां नथी. तेम तेने आवरणेय नथी. आवो मार्ग छे भाई! एक वार सांभळ तो खरो नाथ! अंदरमां भगवान आत्मा “आनंद ब्रह्मणोरूपं” ज्ञानानंदनी स्वरूपलक्ष्मीथी महा प्रतापवंत त्रिकाळ विराजी रह्यो छे. तेनी द्रष्टि करवी तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे जे धर्मनुं पहेलुं पगथीयुं छे.
अज्ञानी माने छे के कषाय मंद करीए, व्रत, नियमनी क्रिया करीए ते साधन अने तेनाथी साध्य सिद्ध थशे; परंतु एम छे नहि. कषाय तिव्र हो के मंद, ए औदयिक भाव छे अने ते मलिन विकारी परिणाम संसारनुं-बंधनुं कारण छे. मोक्षनुं नहि. मोक्षना कारणरूप तो औपशमिक, क्षायोपशमिक अने क्षायिक-एम निर्मळ पर्यायरूप त्रण भावो छे. अने चारेय भावोथी रहित त्रिकाळ शुद्ध जीवत्वलक्षण जे शुद्ध पारिणामिकभाव छे ते अक्रिय छे. तेमां क्रिया नथी, उत्पाद-व्यय नथी. एमां कांई करवुं नथी के छोडवुं नथी. मोक्ष करवो एमेय नही, ने राग करवो एमेय नही, राग छोडवो एमेय नही. अहा! आवो शुद्ध पारिणामिक भाव निरावरण छे. तेनो आश्रय लेतां सम्यग्दर्शन आदि धर्म प्रगट थाय छे.
अरेरे? आवी वात जेने कानेय न पडे ते बिचारा शुं करे? हुं कोण छुं? मारुं स्वरूप शुं छे? आ पांच भावो केवी रीते छे? कया भावथी बंधन छे ने कया भावथी मोक्षनो उपाय ने मोक्ष थाय, क्या भाव शुद्ध छे ने कया भाव अशुद्ध छे, कया भाव आश्रय करवायोग्य उपादेय छे ने कया हेय छे-अहा! इत्यादि समजवानी
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नवराश न मळे ते बिचारा शुं करे? अरेरे! ते चोरासीना अवतारना समुद्रमां क्यांय डूबी मरे. शुं थाय? भाई! तने आ समजवानो अवसर छे. एमां तुं रळवा-कमावा पाछळ, कुटुंब-परिवारने साचववा पाछळ ने ईन्द्रियना विषयभोगनी पाछळ ज रोकाईने रहीश तो अवसर वेडफाई जशे.
जुओ, शुद्ध पारिणामिक भाव जे त्रिकाळ छे तेने भाव कहेवाय. पर्यायने पण भाव कहेवाय. रागने पण भाव कहेवाय ने द्रव्य-वस्तु छे तेने पण भाव कहेवाय. अहीं द्रव्यने शुद्ध पारिणामिकभाव एवी संज्ञा आपी छे. ते तो बंध-मोक्षपर्यायनी परिणतिथी रहित छे एम कहे छे.
अहाहा...! भगवान आत्मा त्रिकाळ ध्रुव अस्तिरूप छे. अहाहा...! छे... छे.... ... छे ने छे. ध्रुव... ध्रुव... ध्रुव एवा अनादि-अनंत शुद्ध चैतन्यना प्रवाहरूप छे. ते, अहीं कहे छे, बंध-मोक्षनी परिणतिथी रहित छे; रागादिना भावथी रहित छे अने मोक्षमार्ग ने मोक्षनी पर्यायथी पण रहित छे. अहाहा...! त्रिकाळी स्वभावमां परवस्तु नथी, राग नथी, मलिन पर्याय नथी, अने अपूर्ण के पूर्ण निर्मळ पर्याय पण नथी. अहाहा...! आवी पोतानी चीजनो जेने अंदर द्रष्टिमां स्वीकार थयो छे तेने ज शुद्ध आत्माना अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे. बाकी तो बधुं थोथे थोथां छे.
भाई! जन्म-मरणना अंतनो उपाय आ एक ज छे. दुनिया माने के न माने. दुनिया गमे ते कहे, सत्य आ छे. आत्मा शुद्धचैतन्य महाप्रभु बंध-मोक्षनी पर्यायथी रहित वस्तु छे. ते एकना आश्रये धर्मरूप निर्मळ परिणति प्रगट थाय छे.
हवे विशेष कहे छे- ‘परंतु जे दशप्राणरूप जीवत्व अने भव्यत्व-अभव्यत्वद्वय ते पर्यायार्थिकनयाश्रित होवाथी “अशुद्धपारिणामिकभाव” संज्ञावाळां छे.
कोईने थाय के आवो उपदेश! लोकोने आ समजवुं कठण पडे छे. हजु तो हुं शरीरथी रहित छुं ए कबूलवुं कठण पडे छे. पण भाई! आ शरीर आदिनी क्रिया तो एना काळे जे थवानी होय ते थाय छे. तेमां तारो कांई अधिकार छे ज नहि. हुं ध्यान राखुं तो शरीर व्यवस्थित रहे. नहितर बगडी जाय एम तुं माने, पण एवो कोई अधिकार तने शरीर पर छे नहि; केमके शरीर परवस्तु छे. अहाहा...! शरीरथी जुदुं, रागथी जुदुं ने एक समयनी पर्यायथी पण जुदुं-एवुं जे त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य अंदर छे एने ध्येय बनाववुं छे. आवो मार्ग छे. भाई! अहो! आ अपूर्व वात छे. अनंतकाळमां एणे अंतर्द्रष्टि-द्रव्यद्रष्टि करी ज नथी, पण ए विना बहारनी क्रियाथी धर्म थाय एवी चीज नथी.
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अरे भाई! तने तारा कायमी त्रिकाळी जीवननी खबर न मळे तो तुं साचुं जीवन केवी रीते जीवीश? आहार-पाणी के शरीरादि जडथी तुं जीववानुं मान ते कांई साचुं जीवन नथी. अहा! शरीर पोते ज जड मृतक-कलेवर छे तो ते वडे तुं केम जीवे? भाई! पोताना शुद्ध चैतन्यप्राणो वडे त्रिकाळ जीवे, अने शुद्ध चैतन्यस्वभावना आश्रये मोक्ष-सिद्धपदने साधीने सादि-अनंत पूरण आनंदमय जीवन जीवे ते ज जीवनुं साचुं जीवन छे. स्तुतिमां आवे छे ने के-
जीवी जाण्युं नेमनाथे जीवन... ....
अहाहा...! भगवान केवळी जे पूरण वीतरागविज्ञानमय जीवन जीवे छे ते खरुं जीवन छे, साचुं जीवन छे. बाकी अज्ञानपूर्वक रागादिमय जीवन जीवे तेने जीवनुं जीवन कोण कहे? ए तो भयंकर भावमरण छे. आवे छे ने के -
क्षणक्षण भयंकर भावमरणे कां अरे! राची रहो? बापु! रागथी धर्म माने अर्थात् रागने जीवन माने तेने तो साचुं जीवन जीवतां ज नथी आवडतुं; तेने तो निरंतर भावमरण ज थया करे छे. समजाणुं कांई..
अहीं कहे छे-जे दशप्राणरूप जीवत्व अने भव्यत्व-अभव्यत्वद्वय ते पर्यायार्थिकनयने आश्रित छे अने तेथी ते ‘अशुद्ध पारिणामिकभाव’ संज्ञावाळां छे. अहो! आ तो एकलुं माखण मूकयुं छे. शुं कहे छे! के दशप्राणरूप जीवत्व अने भव्यत्व- अभव्यत्वद्वय-ए त्रण अवस्थाद्रष्टिए, पर्यायद्रष्टिए, व्यवहारनयथी कहेवामां आव्यां छे.
दशप्राणरूप जीवत्व छे ते अशुद्ध प्राण छे. जडप्राणोथी जीव जीवे छे ए तो वात नहि, पण अहीं कहे छे-पांच ईन्द्रियो (भावेन्द्रियो) मन, वचन, काया आयुष्य अने श्वास (अंदर जीवनी योग्यतारूप) -एवा दशप्राणरूप जे अशुद्ध जीवत्व तेनाथी जीव जीवे छे एम जे कह्युं ते व्यवहारनयथी कह्युं छे अने ते ‘अशुद्ध पारिणामिकभाव’ छे. वळी भव्यत्व-अभव्यत्वद्वय पण पर्यायार्थिकनयाश्रित होवाथी ‘अशुद्ध पारिणामिकभाव’ छे, अहाहा..! त्रिकाळी ध्रुव एक चैतन्यस्वभावभावथी भरेली शुद्ध परमपारिणामिकभावस्वरूप जे वस्तु तेमां आ ‘अशुद्ध पारिणामिकभाव’ क्यां छे? नथी. ल्यो, हवे आमां ओला व्यवहारवाळाओने बधा वांधा उठे छे. पण शुं थाय. (वस्तुस्वरूप ज एवुं छे त्यां शुं थाय?) जुओने! आ चोकखुं तो कह्युं छे के-जे दशप्राणरूप जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व-ए त्रणे पर्यायार्थिकनयाश्रित होवाथी ‘अशुद्ध पारिणामिकभाव’ संज्ञावाळां छे.
प्रश्नः– ‘अशुद्ध’ केम?
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उत्तरः– संसारीओने शुद्धनयथी अने सिद्धोने तो सर्वथा ज दशप्राणरूप जीवत्वनो अने भव्यत्व-अभव्यत्वद्वयनो अभाव होवाथी.
शुं कीधुं? जोके पर्यायार्थिकनये अशुद्ध दशभावप्राण, भव्यत्व-अभव्यत्वद्वय-ए त्रणे कहेवामां आव्या छे तोपण ‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया’ -ए वचनथी शुद्धनयथी संसारीने ए त्रणेय छे नहि. अहाहा...! वस्तु जे त्रिकाळ शुद्ध एकरूप छे तेमां एनो अभाव छे-अने सिद्धोने ए दश अशुद्ध भावप्राण सर्वथा पर्यायमां पण छे नहि. संसारीने (ए त्रण) पर्यायमां छे पण वस्तुमां नथी, ज्यारे सिद्धमां ए त्रणेनो सर्वथा अभाव छे, अहाहा...! सिद्ध भगवान छे ते भव्य पण नथी; अभव्य पण नथी; आ पर्यायनी वात छे. भव्यत्व एटले मोक्ष होवाने लायक, मोक्ष तो थई गयो माटे भव्यत्वनो सिद्धने अभाव छे; अने अभव्यने तो मोक्ष छे ज नहि.
संसारी प्राणीने शुद्धनयथी जोईए तो दशभावप्राण नथी. पांच भावेन्द्रियो, मन- वचन-कायाना निमित्ते कंपनदशा, शरीरमां रहेवानी योग्यतारूप आयुष्य अने श्वासोच्छ्वास थवानी पर्यायनी योग्यता-एम दश अशुद्ध भावप्राण बधा संसारी जीवोने शुद्धनयथी नथी. अने सिद्धोने तो सर्वथा दशप्राणरूप जीवत्व नथी. तेम ज भव्यत्व- अभव्यत्वनो पण सिद्ध भगवानने अभाव छे, केमके ज्यां साक्षात् मोक्षदशा छे त्यां मोक्ष थवानी लायकात भव्यत्व क्यां रह्युं? अने अभविने तो मोक्ष छे ज क्यां? आ प्रमाणे भव्यत्व-अभव्यत्वने पण भेदरूप व्यवहार गणीने अशुद्ध पारिणामिकभाव कह्या.
आत्मानो साचो प्राण अने एनुं साचुं जीवन तो शुद्ध चेतना छे; एने दशप्राण कह्या ए तो व्यवहारथी छे, पण ते कांई आत्मानुं परमार्थ जीवन नथी. तेना वगर पण आत्मा जीवी शके छे. जुओ, सिद्धने पूर्वे (संसारदशामां) दश प्राण हता, पण हमणां तो ते सर्वथा ज नथी, द्रव्य-गुणमां तो पहेलेथी ज न हता, हवे पर्यायमां पण तेनो अभाव थयो. अहो! भगवान सर्वज्ञदेवे कहेलुं तत्त्व परम अलौकिक छे. भाई! अहा! द्रव्य- पर्यायनुं ने पांच भावोनुं स्वरूप समजावीने मोक्षनो उपाय ने मोक्ष केम सधाय ते आचार्यदेवे बताव्युं छे. अहा! वीतरागी संतोनो महा-महा उपकार छे.
हवे कहे छे- ‘ते त्रणमां, भव्यत्वलक्षण पारिणामिकने तो यथासंभव सम्यक्त्वादि जीवगुणोनुं घातक “देशघाती” अने “सर्वघाती” एवां नामवाळुं मोहादिकर्म-सामान्य पर्यायार्थिकनये ढांके छे एम जाणवुं.’
जुओ, दशभावप्राणरूप अशुद्ध जीवत्व भव्यत्व अने अभव्यत्व-ए त्रणमां, मोक्ष थवानी लायकातरूप भव्यत्वलक्षण पारिणामिकभाव छे. तेने कहे छे, सम्यक्त्वादि गुणोनुं घातक ‘देशघाती’ ने ‘सर्वघाती’ नामवाळुं मोहादिकर्मसामान्य
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पर्यायार्थिकनये ढांके छे. अहीं द्रव्य घातीकर्म न लेतां भावघातीकर्म ढांके छे एम समजवुं; द्रव्यघातीकर्म तो जड छे, बाह्य निमित्त छे. सम्यक्त्वादि जीवगुणोनुं घातक तो अंदरमां मोहादि भावघाती कर्म छे अने ते भव्यत्वलक्षण पारिणामिक भावने पर्यायार्थिकनये ढांके छे एम जाणवुं. अहा! आ तो सर्वज्ञ वीतराग परमेश्वरनी वाणीमांथी सार-सार माखण तारवीने जैनदर्शननुं रहस्य आचार्यदेवे जगतने आप्युं छे.
कहे छे-जे भव्यत्वलक्षण पारिणामिकभाव छे तेने सम्यक्त्वादि गुणोनुं घातक ‘देशघाती-सर्वघाती’ नामवाळुं मोहादिकर्मसामान्य पर्यायार्थिकनये ढांके छे. एटले शुं? के पर्यायमां ढांकण छे पण शुद्ध वस्तुमां नथी. वस्तु शुद्धपारिणामिकभावरूप सदा निरावरण एकरूप छे. शुद्ध, द्रव्यार्थिकनये एमां ढांकवुं ने उघडवुं एवुं कांई छे ज नहि. अहाहा...! आत्मा आनंदकंद प्रभु त्रिकाळ निरावरण छे. तेमां ढंकावुं ने उघडवुं क्यां छे? छे ज नहि. आवे छे ने के- (परमात्मप्रकाशमां)
अहाहा...! निजदेहमां भगवान सच्चिदानंद प्रभु आत्मा (भिन्न) विराजे छे. तेने ध्यान विनाना पुरुषो जोई शकता नथी; जेम सूर्य सदा विद्यमान छे तेने जातिअंध छे तेओ जोई शकता नथी तेम भगवान आत्मानुं लक्ष जेमने नथी तेओ तेने जोई शकता नथी.
घुवडने कोईए पूछयुं-“एला! सूर्य छे के नहि?” त्यारे ते कहे -“जेने कोई दि’ नजरे भाळ्यो नथी ते छे एम केम कहुं?” ल्यो, आवो महा प्रतापवंत उज्ज्वळ प्रकाशनो गोळो सूर्य छे ते घुवडने देखातो नथी. जातिअंध छे ने! तेम आत्मा चैतन्यसूर्य प्रभु सदाय अंदर बिराजे छे, परंतु एनी द्रष्टि (सम्यक्दर्शन) विना, एना ध्यान विना ते देखातो नथी. जेम जातिअंधने सूर्य देखाय नहि तेम राग ने पर्यायनी रुचिवाळा जन्मांधने चैतन्यचमत्कार प्रभु आत्मा देखातो नथी अर्थात् भावघाती आवरण वडे पर्यायनये ढंकाई गयो छे. ल्यो, आवी वात!
हवे कहे छे- ‘त्यां. ज्यारे काळादि लब्धिना वशे भव्यत्वशक्तिनी व्यक्ति थाय छे त्यारे आ जीव सहज-शुद्ध-पारिणामिकभावलक्षण निजपरमात्मद्रव्यनां सम्यक्श्रद्धान- ज्ञान-अनुचरणरूप पर्याये परिणमे छे; ते परिणमन आगमभाषाथी “औपशमिक”, “ क्षायोपशमिक” तथा “क्षायिक” एवा भावत्रय कहेवाय छे, अने अध्यात्मभाषाथी “ शुद्धात्माभिमुख परिणाम”, “शुद्धोपयोग” इत्यादि पर्यायसंज्ञा पामे छे.’
जुओ, अहीं काळादि-एम पांचे लब्धिनी वात करी छे; एकला काळनी वात
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नथी, काळलब्धि, पुरुषार्थ, स्वभाव, भवितव्यता अने ते ज समये निमित्त-कर्मनां उपशमादि-एम पांचे समवाय एक साथे ज होय छे.
तो कळशटीकामां (कळश ४ मां) सम्यक्त्व-वस्तु यत्नसाध्य नथी, सहजरूप छे एम कह्युं छे-ते केवी रीते छे?
समाधानः– हा, त्यां काळलब्धिनी मुख्यताथी वात करी छे. समकितनी पर्याय पण पोतानुं सहज ज छे एम त्यां कहेवुं छे; बाकी ते ज काळे पांचे समवाय एकी साथे ज होय छे. घणे ठेकाणे पुरुषार्थनी मुख्यताथी वात करी होय त्यां सम्यक्त्व प्रयत्नथी- पुरुषार्थथी सिद्ध थाय छे एम कह्युं छे. ए तो विवक्षाभेद छे; बाकी कार्यकाळे पांचे समवाय एकी साथे होय छे.
आत्मा चैतन्यमूर्ति प्रभु अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंदनो रसकंद छे. अहाहा...! अतीन्द्रिय आनंदनो दरियो प्रभु आत्मा छे. एना सिवाय त्रणकाळ-त्रणलोकमां आनंदरूप वस्तु बीजी कोई नथी. अहा! पण अज्ञानी जीव पोते आनंदस्वरूप छे तेने न मानतां बहारमां बीजे आनंद छे एम माने छे. मारां कोई वखाण करे तो मने मझा पडे, मने कोई मोटो कहे तो मझा पडे, कोई पैसावाळो कहे तो मझा पडे, कोई मने ज्ञानी पंडित कहे तो मझा पडे-एम अनेक प्रकारे ते मिथ्या कल्पना करे छे. पण भाई! तारो आनंद बहारमां क्यांय नथी; तारा आनंदनी ध्रुव खाण तो अंदर चिदानंद प्रभु तुं पोते ज छो. अहा! आवी वात पोतानी चीजने पामवा माटे काळलब्धिवशे ज्यां स्वभावनी रुचि करे छे त्यां (तत्काल ज) अंतःपुरुषार्थ जागे छे, काळलब्धि पाके छे, भवितव्य जे समकित प्रगट थवायोग्य छे ते थाय छे अने त्यारे कर्मना उपशमादि पण थाय छे; आ प्रमाणे पांचे समवाय एकी साथे ज होय छे.
पहेलां अनादिथी मोहकर्मना वशे परिणमतां जीवने पोताना सम्यक्त्वादि गुणोनो घात थतो हतो एटले मोक्षना कारणरूप त्रण भावो तेने न हता. अज्ञानदशामां मिथ्यात्वादि-सर्वघाती ने देशघाती-कर्मो तेना सम्यक्त्वादि गुणोने घातवामां-ढांकवामां निमित्त थता हता. पण हवे सद्गुरुना उपदेशनुं निमित्त पामीने ज्यां शुद्ध पारिणामिकरूप परम स्वभावभावनी सन्मुख थई तेनी भावनारूप परिणत थयो त्यां मोक्षना कारणरूप एवा औपशमिकादि भावो प्रगट थाय छे; तेने पुरुषार्थ, स्वकाळ, कर्मनां उपशम आदि पांचे लब्धिओ थई जाय छे अने आ भव्यत्वशक्तिनी व्यक्ति छे. भव्यत्व तो ते जीवमां पहेलेथी हतुं, पण निजस्वभावभावनुं भान थयुं त्यारे ते पाकरूप थईने परिणम्युं; मोक्षनी जे योग्यता हती ते त्यारे कर्मरूप थवा मांडी; ने हवे अल्पकाळमां मोक्षदशा प्रगट थई जशे. ल्यो, आवी वात!
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अहो! आ तो कोई अद्भुत अलौकिक वातो छे. कहे छे-ज्यारे काळादिलब्धिना वशे भव्यत्वशक्तिनी व्यक्ति थाय छे त्यारे जीव सहज-शुद्ध-पारिणामिकलक्षण निज परमात्मद्रव्यनां सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान-अनुचरणरूप पर्याये परिणमे छे. नियमसारमां (गाथा-१प७ मां) आवे छे ने के-
त्यम ज्ञानी परजन संग छोडी ज्ञाननिधिने भोगवे.”
जेम कोई दरिद्र माणस निधिने पामीने पोताना वतनमां गुप्तपणे रही तेना फळने भोगवे छे. तेम ज्ञानी परजनोना संगने छोडीने स्वरूपमां गुप्त रहीने ज्ञान-निधिने भोगवे छे. आनी टीकामां कह्युं छे के-
“सहज परमतत्त्वज्ञानी जीव कवचित् आसन्नभव्यना (आसन्नभव्यतारूप) गुणनो उदय थतां सहज वैराग्यसंपत्ति होतां, परम गुरुना चरणकमळयुगलनी निरतिशय (उत्तम) भक्ति वडे मुक्तिसुंदरीना मुखना मकरंद समान सहजज्ञाननिधिने पामीने, स्वरूपविकळ एवा परजनोना समूहने ध्यानमां विघ्ननुं कारण समजीने तजे छे.”
जेम कोई दरिद्रीने मोटी करोडोनी निधि भाग्यवश मळी जाय तो ते पोताना वतनमां जईने तेने गुप्तपणे एकलो भोगवे छे. एम, कहे छे, हे, भाई! तने परम अद्भुत ज्ञाननिधि-ज्ञाननो समुद्र जो प्राप्त थयो तो तेने एकलो (स्वरूपगुप्त रहीने) भोगवजे. एम के कोई साथे वादविवाद करीश नहि. जगतमां स्वसमय अने परसमय एम अनेक प्रकारना जीव छे. तेनी साथे वादविवादमां पडीश नहि, केमके वादविवादथी आवी स्वरूपनी वात समजाय एम नथी. नियमसार गाथा १प६ मां ए ज कह्युं छे के-
नाना प्रकारनां जीवो छे, नाना प्रकारनुं कर्म छे, नाना प्रकारनी लब्धि छे; तेथी स्वसमयो अने परसमयो साथे (स्वधर्मीओ अने परधर्मीओ साथे) वचन-विवाद वर्जवायोग्य छे.
त्यारे कोई कहे छे- विघटन थयुं छे ते अमे संगठन करवा मागीए छीए. परंतु भाई! भगवान जिनेश्वरनो आ मार्ग एम (वाद करवाथी) नहि समजाय. वादविवादमां एकने साचा अने एकने खोटा पाडवा छे तारे; पण त्यां तुं एक वात करवा जाय त्यां ते बीजी वात करशे. एम के व्यवहारने शास्त्रमां साधन
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कह्युं छे, तमे केम ना पाडो छो? तमे एकांते हठ करो छो. बापु! आम आ वातनो निवेडो आम आवे एम नथी. वीतरागभावे धीरजथी पोते समजवा मागे तो निवेडो आवे, पण तमे खोटा अने अमे साचा छीए एम सिद्ध करवा माटे वातचीत करवाथी विवाद थाय अने विवादथी पार पडे (समजमां आवे) एवी आ चीज नथी. अरे भगवान! अंदर तारुं सत् एवुं छे के एनो काळ पाक्यो होय अने पुरुषार्थ करी तुं स्वभावनुं भान करे तो सहेजे आ समजाय एवी चीज छे; वादविवादथी कोईने समजावी शकाय एवी चीज नथी.
समाधिशतकमां आवे छे के-अरे! हुं कोने समजावुं? हुं जेने समजाववा मागुं छुं ए समजनारो आत्मा छे ए तो (आंखथी) मने देखातो नथी; अने आ जे देखाय छे ए तो जड (शरीर) छे; तेने हुं शुं समजावुं? माटे हुं समजावुं एवो जे मारो विकल्प छे ते पागलपणुं छे, चारित्रदोष छे. अहा! आवो मारग! बापु! आ तो दिगंबर संतोनी वाणी! भारे कुशाग्र; तेमां आ कहे छे-वाणीथी तने ज्ञान थाय एवो भगवान! तुं नथी. अहो! संतोनी आवी अलौकिक चमत्कारी वातो छे.
अहीं कहे छे-ज्यारे काळादिलब्धिना वशे भव्यत्वशक्तिनी व्यक्ति थाय छे त्यारे आ जीव सहज शुद्ध पारिणामिकभावलक्षण निज परमात्मद्रव्यनां सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान- अनुचरणरूप पर्याये परिणमे छे. अहीं ‘काळादिलब्धिना वशे’ -एम कह्युं त्यां स्वभाववशे, पुरुषार्थवशे एम बधुं साथे लेवुं. एकला काळनी आ वात नथी पण पांचे समवायनी आमां वात छे. अहा! ज्यारे मोक्षमार्गनी प्राप्तिनो काळ आवे त्यारे एनी द्रष्टि सहज शुद्ध ज्ञानानंदस्वभाव उपर जाय छे अने त्यारे तेने अंदरमां सम्यक्दर्शन प्रगट थाय छे. आवी वात छे.
अहाहा...! आत्मद्रव्य सहज एक शुद्ध परमपारिणामिकभावलक्षण सदा परमात्मस्वरूप चिन्मात्र वस्तु छे. अहा! आवा निज परमात्मद्रव्यनां सम्यक्श्रद्धान- ज्ञान-अनुचरणरूप पर्याये जीव परिणमे एनुं नाम धर्म अने एनुं नाम मोक्षनो मार्ग छे. जुओ, देव-गुरु-शास्त्रनुं भेदरूप श्रद्धान ए कांई वास्तविक श्रद्धान-समकित नथी; अने शास्त्रनुं ज्ञान ते कांई वास्तविक सम्यग्ज्ञान नथी, पण पोते सदाय अंदर शुद्ध चैतन्यमूर्ति प्रभु कारण परमात्मा विराजी रह्यो छे तेना सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान-अनुचरणरूप पर्याये परिणमवुं तेनुं नाम सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र छे अने ते सत्यार्थ मोक्षमार्ग छे.
एक प्रश्न थयो हतो के- तमे कारणपरमात्मा-कारणपरमात्मा कह्या करो छो, तो कारण होय तो कार्य आववुं जोईए ने?