Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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त्यारे कह्युं के-भाई! कारणपरमात्मा तो अंदर त्रिकाळ एक ज्ञायकभावपणे बिराजी रह्यो छे पण एने अंतर्मुखपणे प्रतीतिमां आवे त्यारे ‘हुं कारणपरमात्मा छुं’ - एम भान थाय ने? प्रतीतिमां आव्या विना एने कारणपरमात्मा क्यां छे? भगवान पूर्णानंदस्वरूप निज परमात्मद्रव्यनुं सम्यक् श्रद्धान थाय तेने ‘हुं कारण परमात्मस्वरूप छुं’ -एम भासे छे ने तेने कार्य (कार्य परमात्मा) प्रगटे छे. जे एक समयनी पर्याय अने रागनी श्रद्धामां रह्यो छे तेने कारणपरमात्मा केम भासे? तेने कार्य क्यांथी प्रगटे?

ए तो गाथा (समयसारमां) १७-१८ मां आवी गयुं के-आबाळगोपाळ बधा आत्माओने वर्तमान जे ज्ञानपर्याय छे तेमां निज परमात्मद्रव्य ज भासे छे, पण अज्ञानीओनी द्रष्टि त्यां नथी. अहा! आखुं द्रव्य पोताना ज्ञानमां जणाय एवी पोतानी चीज छे केमके ज्ञाननी पर्यायनो स्वपरप्रकाशक स्वभाव छे. पण एनी (-अज्ञानी जीवनी) द्रष्टि स्व उपर नथी पण पर उपर छे, पर्याय अने राग उपर छे. तेथी जे निज परमात्मद्रव्य जणाय छे तेनो ते अनादर करे छे अने राग अने अंशमात्र हुं छुं एम ते माने छे. हवे आवी वात छे त्यां एने कार्य केम प्रगटे?

कळशटीकामां आवे छे के-जेम ढांकेलो निधि प्रगट करवामां आवे छे तेम जीवद्रव्य प्रगट ज छे, परंतु कर्मसंयोगथी ढंकायेलुं होवाथी मरणने प्राप्त थई रह्युं हतुं; ते भ्रांति परमगुरु श्री तीर्थंकरनो उपदेश सांभळतां मटे छे, कर्मसंयोगथी भिन्न शुद्ध जीवस्वरूपनो अनुभव थाय छे. आवो अनुभव ते सम्यक्त्व छे. एक समयनी पर्याय अने राग जेटलो आत्माने माने तेने आत्मा मरणने प्राप्त थई रह्यो छे, केमके जीवती ज्योत निज परमात्मद्रव्य तेनी सन्मुख थईने तेनो एने स्वीकार नथी. स्वभावथी विमुख थईने राग अने वर्तमान पर्यायनो स्वीकार करनार जीव मरणने प्राप्त थई रह्यो छे. ११ अंग अने नवपूर्वनो उघाड भले होय, ते विकासमां संतुष्ट थई जे रोकाई गयो छे ते जीव स्वभावने भूलीने मरणने प्राप्त थई रह्यो छे. अरे! अनंतकाळमां एणे स्वभावनी द्रष्टि करी ज नथी!

अहीं कहे छे-त्रिकाळ आनंदस्वरूप पोते परमात्मद्रव्य छे, तेना श्रद्धान-ज्ञान- आचरणरूप पर्याये जीव परिणमे ते भव्यत्व शक्तिनी अर्थात् मोक्षमार्गनी योग्यतारूप शक्तिनी व्यक्ति छे अने ते धर्म छे. अरे! पोते आवो अंदर भगवानस्वरूप छे एनां गाणांय कदी एणे सांभळ्‌यां नथी! पण भाई! जो अंदर शक्तिए भगवानस्वरूप न होय तो पर्यायमां आवशे क्यांथी? बहारमां तो कांई छे नहि. बहारमां तुं भगवाननी (अर्हंतादिनी) भक्ति करे, पूजा करे के सम्मेदशिखरनी जात्रा करे, पण एनाथी धर्म थाय एवुं धर्मनुं स्वरूप नथी, केमके ए तो मात्र


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शुभराग छे. अहीं शुभ छोडीने अशुभ करो ए वात नथी. धर्मीने विशेषे शुभभाव आवे छे, पण ते धर्म वा धर्मनुं कारण नथी. धर्मनुं कारण तो जे स्वद्रव्यना- निजपरमात्मद्रव्यना आश्रये परिणमवुं छे ते छे. अरे भाई! तुं एकवार तेने (स्व- द्रव्यने) जोवानी भावना तो कर!

जुओ, एक राजवीनां राणी ओझलमां रहेतां. एक वखते राणीसाहेबा ओझलमांथी बहार नीकळ्‌यां तो तेने जोवा माटे लोकोनां टोळे टोळां उमटी पडयां. एम, अहीं कहे छे, आ भगवान आत्मा अनादिकाळथी राग अने पर्यायबुद्धिना ओझलमां पडयो छे. एने जोवा माटे एक वार अंतर्मुख थई प्रयत्न तो कर. भाई! तारा संसारना-दुःखना नाशनो आ एक ज उपाय छे.

ओहो! आत्मा पूर्णानंदनो नाथ प्रभु सदा परमात्मस्वरूपे अंदर प्रगट मोजुद छे. तेने भूलीने अरे! तुं बहारथी सुख मेळववा झावां नाखे छे! अहींथी सुख लउं के त्यांथी सुख लउं, राजपदमांथी सुख लउं के देवपदमांथी सुख लउं-एम तुं झावां नाखे छे, पण सुखनिधान तो तुं पोते ज छो ने प्रभु! माटे आवा भिखारीवेडां-रांकाई छोडी दे, अने अंदर तारा परमात्मद्रव्यने जो, तेथी सहजशुद्ध चिदानंदमय परमात्मद्रव्यनी प्रतीति थईने निराकुळ सुखनी प्राप्ति थशे.

अहीं, काळादिलब्धिना वशे भव्यत्वशक्तिनी व्यक्ति थाय छे एम कह्युं एमां एकलो काळ वा अन्यरूप काळ न लेवो, पण पांचे समवाय एकसाथे ज छे एम यथार्थ समजवुं. अहा! मोक्षमार्गनी प्राप्तिनो काळ होय त्यारे-

१. चिदानंदघनस्वभाव उपर द्रष्टि जाय ते स्वभाव थयो, २. चिदानंदघनस्वभावनी द्रष्टि थई ते स्वभाव तरफनो पुरुषार्थ थयो, ३. ते ज काळे आ (निर्मळ) पर्याय थवानुं ज्ञान थयुं ते काळलब्धि थई, ४. आ जे (निर्मळ) भाव ते काळे थयो ते थवानो हतो ते ज थयो ते

भवितव्य, अने

प. त्यारे प्रतिकूळ निमित्तनो अभाव थयो ते निमित्त थयुं. आ प्रमाणे पांचे समवाय एक साथे होय छे एम जाणवुं. वस्तुतः जेने जे पर्याय थवानी होय तेने ते काळे ते ज पर्याय थाय छे. सम्यग्दर्शननी पर्याय पण निज जन्मक्षणे उत्पन्न थाय छे. ते पर्यायनी उत्पत्तिनो ते नियत काळ छे. प्रवचनसार गाथा १०२ मां पर्यायनी उत्पन्न थवानी तेनी जन्मक्षण होवानी वात आवे छे. ल्यो, आवी बहु झीणी वात भाई! आ तो सर्वज्ञ


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परमेश्वरना घरनी वातो बापा! अरे! लोकोने आवुं सांभळवाय मळ्‌युं न होय ने एम ने एम नपुंसकनी जेम जिंदगी चाली जाय. शुं थाय?

आ करोडपति ने अबजोपति बधा मोटा नपुंसक छे. शुं कीधुं? अमे आ करीए ने अमे ते करीए-एम राग अने पुण्य-पापना विकारने रचवामां जेणे वीर्य रोक्युं छे. परमात्मा कहे छे, ए बधा महा नपुंसक छे. जुओ, परपदार्थनी रचना तो कोई करी शकतुं नथी केमके जगतना पदार्थो सर्व स्वतंत्र छे. परंतु जे वीर्य पुण्य-पापने रचे, शुभाशुभ रागने रचे ते नपुंसक वीर्य छे. केम? केमके तेने धर्मनी प्रजा पाकती नथी. जेम नपुंसकने प्रजा न थाय तेम शुभाशुभभावनी रचनानी रुचिमां पडयो छे तेने धर्मनी प्रजानी उत्पत्ति थती नथी. हवे आवी वात दुनियाने मळी नथी. भाई! आ तो सर्वज्ञ परमेश्वरे कहेली परम सत्य वात छे.

कहे छे-विभावमां जे वीर्य रोकातुं हतुं ते ज्यारे स्वभावसन्मुख थयुं त्यारे तेने भव्यशक्तिनी व्यक्ति थाय छे. आ लींडीपीपर आवे छे ने? पीपर-पीपर, ते रंगे काळी अने कदमां नानी होय छे पण तेमां ६४ पहोरी अर्थात् पूरण सोळआनी तीखाश अंदर शक्तिरूपे भरी छे. तेने घूंटवाथी तेमांथी ६४ पहोरी तीखाश बहार प्रगट थाय छे. भाई! आ तो अंदर शक्ति छे ते प्रगट थाय छे, प्राप्तनी प्राप्ति छे. लाकडा के कोलसाने घूंटो तो तेमांथी तीखाश प्रगट नहि थाय, तेमां तीखाश भरी नथी तो क्यांथी प्रगट थाय? तेम भगवान आत्मा अंदर ६४ पहोर अर्थात् सोळआनी पूरण ज्ञान अने आनंदना स्वभावथी भरेलुं सत्त्व छे. ते स्वभावनी सन्मुख थईने परिणमतां शक्तिनी निर्मळ व्यक्ति थाय छे. अंदर शक्ति तो विद्यमान छे ज, ते शक्तिनी सन्मुख थई, तेनो स्वीकार, सत्कार अने आदर ज्यां कर्यो के तत्काल ते पर्यायमां व्यक्तरूपे प्रगट थाय छे. आनुं नाम धर्म ने मोक्षमार्ग छे.

अहाहा...! कहे छे- ‘त्यां ज्यारे काळादि लब्धिना वशे भव्यत्वशक्तिनी व्यक्ति थाय छे त्यारे आ जीव सहज-शुद्ध-पारिणामिकभाव लक्षण निज-परमात्मद्रव्यनां सम्यक्श्रद्धान- ज्ञान-अनुचरणरूप पर्याये परिणमे छे; ते परिणमन आगमभाषाथी “औपशमिक”, “ क्षायोपशमिक” तथा “क्षायिक” एवा भावत्रय कहेवाय छे अने अध्यात्मभावथी “ शुद्धात्माभिमुख परिणाम”, “शुद्धोपयोग” इत्यादि पर्यायसंज्ञा पामे छे.’

जुओ, स्वभाववान वस्तु छे ते लक्ष्य छे अने शुद्ध स्वभावभाव ते लक्षण छे, आत्मा एक ज्ञायकभावमात्र वस्तु सहज शुद्ध पारिणामिकभावलक्षण परमात्मद्रव्य छे. खूब सूक्ष्म वस्तु प्रभु! एने जाण्या विना अवतार करी करीने अनंतकाळ ए आथडी मर्यो छे. अरे! अनंतवार एणे जैन साधुपणुं लीधुं, महाव्रत पाळ्‌यां,


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दया पाळी, बायडी-छोकरां, दुकान-धंधा छोडया पण भ्रांति न छोडी, आत्मज्ञान न कर्युं. राग अने अल्पदशा ते हुं नहि, हुं तो पूरण वीतराग-सर्वज्ञस्वभावी सहज शुद्धपारिणामिकभावलक्षण परमात्मद्रव्य छुं एम अंतर्मुख द्रष्टि न करी.

अहाहा...! वस्तु आत्मा सहज शुद्धपारिणामिकभावलक्षण परमात्मद्रव्य छे, बापु! आ तो झेर उतारवाना मंत्रो छे. जेम सर्प करडे अने झेर चढे तो ते मंत्रद्वारा उतरी जाय तेम रागनी एकत्वबुद्धिनां एने अनादिथी झेर चढेलां छे ते उतारवाना आ मंत्रो छे. आ पुण्यभाव अने पुण्यनां फळ जे धूळ (पैसा आदि) मळे ते मारां एवी मान्यता ए भ्रांति-मिथ्यात्वनुं झेर छे. अहा! ते मिथ्यात्वना झेरे तेना सहजशुद्धस्वभावनो घात कर्यो छे.

तो शुं कर्मोए घात कर्यो छे एम नहि? उत्तरः– ना कर्मोए घात कर्योनथी. पूजामां आवे छे ने के-

“कर्म बिचारे कौन, भूल मेरी अधिकाई,
अग्नि सहै घनघात, लोहकी संगति पाई.”

भाई! कर्मनां रजकण तो जड बीजी चीज छे, ए तो आत्माने अडतांय नथी त्यां ए शुं घात करे? पोताना स्वभावनी विपरीत मान्यता ते स्वभावनो घात करनारी चीज छे अने तेने मिथ्यात्व कहे छे. ल्यो, हवे आवी वात समजवा रोकाय नहि ने वखत रळवा-कमावामां गुमावी दे. पण एमां शुं छे? पुण्योदय होय तो करोडो कमाय पण ए तो धूळनी धूळ छे. समजाणुं कांई... ...?

भाई! आ तो तारुं सत्यार्थ स्वरूप शुं छे ते आचार्यदेव बतावे छे. आ शक्करियानो दाखलो घणीवार आपीए छीए ने? जेम शक्करकंद, तेना उपर झीणी लाल छाल छे तेने नजरमां न ल्यो तो, अंदर एकली साकरनी मीठाशनो पिंड छे. साकरनी मीठाशनो पिंड छे एटले तो एने शक्करकंद कहेवामां आवे छे. अहाहा...! ते भगवान आत्मा सच्चिदानंद प्रभु, उपर पर्यायमां शुभाशुभभावरूप जे लाल छाल छे तेने लक्षमां न ल्यो तो, अंदर एकला ज्ञानानंदरूप अमृतरसनो पिंड छे. अहाहा...! शुभाशुभभावनी छाल पाछळ अंदर भगवान! तुं एकला ज्ञानानंदरसनो दरियो भर्यो छो. अहा! आवुं पूरण परमात्मस्वरूप एने केम बेसे? भाई! आ भगवान जे पर्यायमां परमात्मा थई गया एनी वात नथी हों; आ तो अंदर स्वभावरूप निजपरमात्मद्रव्यनी वात छे. तीर्थंकरादि पर परमात्मानुं लक्ष करीश तो तो तने राग ज थशे. ‘परदव्वादो दुग्गइ एवुं शास्त्रवचन छे. परद्रव्य प्रत्ये लक्ष जाय ए दुर्गति छे भाई!

त्यारे केटलाक वांधो उठावे छे के-व्यवहारथी निश्चय थाय छे.


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तेने कहीए छीए के तारी मान्यता यथार्थ नथी. दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादिना परिणाम वडे पुण्यबंध थाय छे, धर्म नहि. शुभराग-मंदरागना परिणाम धर्मनुं कारण नथी. शुभराग धर्म नहि. धर्मनुं कारणेय नहि.

त्यारे ते कहे छे-शास्त्रमां शुभरागने मोक्षनुं परंपरा कारण कह्युं छे. हा, कह्युं छे; पण तेनो अर्थ शुं? चिदानंदघन सहजशुद्ध पारिणामिकभावलक्षण निज परमात्मद्रव्यनुं जेने अंतरमां भान वर्ती रह्युं छे एवा धर्मी जीवने शुभना काळे अशुभ (मिथ्यात्वादि) टळी गयेल छे अने क्रमे करीने (वधता जता अंतःपुरुषार्थ अने वीतरागताने कारणे) शुभने पण ते टाळी दे छे ए अपेक्षाए एना शुभरागने मोक्षनुं परंपरा कारण कह्युं छे. त्यां खरेखर तो क्रमे वधती जती वीतरागता ज मोक्षनुं परंपरा कारण छे, पण ते ते काळमां अभावरूप थतो जतो शुभराग आवो होय छे तेनुं ज्ञान कराववा उपचारथी तेने मोक्षनुं परंपरा कारण कहेवामां आव्युं छे. खरेखर ते कांई मोक्षनुं कारण वा परंपरा कारण छे एम नथी, खरेखर तो राग अनर्थनुं ज कारण छे; ते अर्थनुं-हितनुं कारण केम थाय? कदीय न थाय. आवी वात छे. जगत माने के न माने, आ सत्य छे.

अरे! ए अनादिकाळथी रखडी मर्यो छे. पोतानुं सत् केवडुं मोटुं अने केटला सामर्थ्यवाळुं छे एनी एने खबर नथी. अहीं कहे छे-भगवान! तुं पोते सहज शुद्धपारिणामिकभावलक्षण परमात्मद्रव्य छो. बहिरात्मा. अंतरात्मा अने परमात्मा-ए तो पर्यायनी वात छे; ए वात आ नथी. आ तो पोते शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन त्रिकाळी ध्रुव परमात्म-द्रव्य छे एनी वात छे. अरे! अनंतकाळमां एने आत्मानुं प्रमाण नाम माप करतां आवडयुं नथी; एनां मापलां ज खोटां छे.

जुओ, एक रविवारनी रजाना दिवसे एक नाना छोकरानो बाप प० हाथ आलपाकनो ताको घेर लई आव्यो पेला छोकराने थयुं के हुं एने मापुं. एणे पोताना हाथथी भरीने माप्यो अने एना बापने कह्युं- ‘बापुजी, आ कापडनो ताको तो १०० हाथनो छे.’ त्यारे तेना बापे समजण पाडी के-भाई! आ तारा नानकडा हाथनां माप अमारा वेपारना काममां जराय न चाले. तेम परम पिता सर्वज्ञ परमेश्वर कहे छे-भाई! चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मानुं माप तारी मति-कल्पनाथी तुं करवा जाय पण मोक्षना मारगमां तारुं ए माप न चाले. तारा कुतर्क वडे भगवान चैतन्यमूर्तिस्वरूप आत्मानुं माप नहि नीकळे, भाई! अरे धर्मना बहाने व्रत, भक्ति, पूजा, दया, दान आदि शुभरागमां रोकाईने लोको उंधा रस्ते चढी गया छे. ए भाव (-शुभभाव) अशुभथी बचवा पूरतो होय छे खरो, पण ते भाव धर्म के धर्मनुं कारण छे एम कदीय नथी.


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अहीं कहे छे-सहज शुद्ध निजपरमात्मद्रव्यनुं अंतःश्रद्धान करवुं एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. शुं कीधुं? आ देव-गुरु-शास्त्रनी भेदरूप श्रद्धा करवी ते सम्यग्दर्शन एम नहि, केमके ए तो राग छे. आ तो ‘अप्पा सो परम अप्पा’ अर्थात् भगवान आत्मा अंदर सदा परमात्मस्वरूपे विराजे छे, तेनी सन्मुख थईने जेवी अने जेवडी पोतानी चीज छे तेवी अने तेवडी एनी प्रतीति करवी एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे, वर्तमान ज्ञाननी पर्यायमां त्रिकाळी द्रव्यने ज्ञेय बनावी हुं आ (-शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन परमज्योति सुखधाम) छुं एवी प्रतीति करवी एनुं नाम अंतःश्रद्धान छे. एने आत्मानुं अंतःश्रद्धान कहो, रुचि कहो के सम्यग्दर्शन कहो-एक ज वात छे. समजाणुं कांई....?

वळी वर्तमान ज्ञाननी पर्यायमां त्रिकाळी द्रव्यने ज्ञेय बनावतां निजपरमात्मद्रव्यनुं जे परिज्ञान थयुं तेनुं नाम सम्यग्ज्ञान छे. घणा शास्त्रोनुं ज्ञान-भणतर ते सम्यग्ज्ञान एम नहि, केमके ए तो परलक्षी ज्ञान छे. आ तो पोते अंतरमां भगवान आत्मा पूरण एक ज्ञानस्वभावी परमात्मद्रव्य छे. तेनी सन्मुखता थतां ‘हुं आ छुं’ -एम ज्ञान थवुं एनुं नाम आत्मज्ञान-सम्यग्ज्ञान छे. दशामां भले राग हो, अल्पज्ञता हो, वस्तु पोते अंदर पूरण परमात्मस्वरूप छे. आवा पोताना परमात्मस्वरूपनुं ज्ञान थवुं तेने सम्यग्ज्ञान कहे छे. ल्यो, आवो वीतरागनो मारग लौकिकथी क्यांय मेळ न खाय एवो छे.

ओहो! ‘निजपरमात्मद्रव्यनुं सम्यक् श्रद्धान’ -एम कहीने एक समयनी पर्याय; के राग के देव-शास्त्र-गुरु-कोई एना श्रद्धाननो विषय ज नथी एम सिद्ध कर्युं छे. गजब वात छे भाई! जेवुं पोतानुं त्रिकाळी सत् छे तेवुं तेनुं श्रद्धान-ज्ञान थवुं तेने अहीं सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान कह्युं छे. ल्यो, आवी चुस्त-आकरी शरतो छे.

वळी निजपरमात्मद्रव्यनुं अनुचरण एनुं नाम चारित्र छे. महाव्रतादि पाळवां ए चारित्र एम नहि, केमके ए तो राग छे. आ तो चिदानंदघन एवुं जे स्वस्वरूप तेमां चरवुं-रमवुं एनुं नाम सम्यक्चारित्र छे. ओहो! अंदर आनंदनो नाथ पूरण ज्ञानानंदस्वरूपे विराजे छे तेने अनुसरीने चरवुं, तेमां रमवुं अने तेमां ज ठरवुं एने आत्मचरण नाम सम्यक्चारित्र कहे छे.

पूर्वे अनंतकाळमां अनुभवी नथी एवी आ अपूर्व-अपूर्व वातो छे. भाई! तुं एकवार रुचिथी सांभळ. अहीं कहे छे-जेणे अंतरमां आत्माने भाळ्‌यो छे, हुं आ छुं-एम प्रतीतिमां लीधो छे एवो समकिती धर्मी पुरुष एने ज (आत्मद्रव्यने ज) अनुसरीने एमां रमे एनुं नाम सम्यक्चारित्र छे. जेणे पोतानुं अंतःतत्त्व शुं छे ए भाळ्‌युं नथी, श्रद्धयुं नथी ते रमे तो शेमां रमे? ते रागमां ने वर्तमान


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पर्यायमां रमशे, अने ए तो मिथ्यात्वभाव छे. कोई महाव्रतना भाव पाळीने एने धर्म माने पण बापु! ए धर्म नहि, ए मिथ्यात्वभाव छे. बहु आकरी वात! पण शुं थाय? वस्तुस्वरूप ज एवुं छे.

जेम सोनुं छे ते वस्तु छे; पीळाश, चीकाश, वजन आदि तेनी शक्तिओ छे; तेमांथी कुंडळ, कडुं, वींटी वगेरे अवस्था थाय तेने पर्याय कहेवाय छे. तेम आ भगवान आत्मा सोना समान त्रिकाळी ध्रुव वस्तु छे; परमपारिणामिकभाव शुद्ध ज्ञानानंद स्वभाव तेनो भाव छे; तेनी ज्ञान, दर्शन आदि निर्मळ दशा प्रगट थाय ते पर्याय छे. वस्तु ने वस्तुनो स्वभाव त्रिकाळ ध्रुव छे, पर्याय परिणमनशील छे.

प्रवचनसारमां (गाथा १६०) आवे छे के- बाळ, युवान अने वृद्ध ए तो शरीरनी अवस्था छे; तेनो हुं कर्ता नथी, करावनार नथी, अनुमोदक नथी; तेम तेनुं हुं कारण पण नथी. आ शरीरनी युवान अवस्था हो के वृद्ध, सरोग हो के निरोग-एवी कोई पण अवस्था हो-तेने में करी नथी, करावी नथी, हुं तेनो अनुमोदक नथी; तेम ते ते अवस्थानुं हुं कारण पण नथी. अहा! आवो जे हुं आत्मा शुद्ध चैतन्यघन प्रभु परमात्मद्रव्य छुं. तेनुं सम्यक् श्रद्धान थाय ते पर्याय छे, तेनुं सम्यक्ज्ञान ने अनुचरण थाय ते पर्याय छे. आगमभाषाथी कथन करीए तो तेने उपशम, क्षयोपशम अने क्षायिक एवा भावत्रयपणे कहेवामां आवे छे.

जेम पाणीमां मेल नीचे बेसी जाय एटले पाणी नीतरीने निर्मळ थई गयुं होय छे तेम जेमां कषाय दबाई गयो होय छे एवी पर्याय निर्मळ प्रगट थाय छे अने ते दशाने उपशमभाव कहे छे. कंईक निर्मळता अने हजु मलिनतानो अंश पण छे एवी दशाने क्षयोपशमभाव कहे छे अने रागनो जेमां सर्वथा क्षय थई जाय ए पर्यायने क्षायिकभाव कहे छे. आ त्रणने भावत्रय कहेवामां आवे छे. आ त्रण भाव मोक्षमार्गरूप छे; तेमां (मोक्षमार्गमां) उदयभाव समातो नथी. आ व्यवहाररत्नत्रयना परिणाम जे उदयभाव छे ते मोक्षमार्गमां समाता नथी. ल्यो, आवी वात; पछी एनाथी (व्यवहारथी) निश्चय थाय ए वात क्यां रही? वास्तवमां निश्चय रत्नत्रय परम निरपेक्ष छे; तेमां व्यवहाररत्नत्रयनी कोई अपेक्षा नथी. (नियमसारनी बीजी गाथामां आ वात आवी गई छे.)

भाई! आ वात अत्यारे बीजे क्यांय चालती नथी एटले तने कठण लागे छे पण आ परम सत्य छे. पं. श्री दीपचंदजी बसो वर्ष पहेलां थई गया. अध्यात्मपंचसंग्रहमां तेओ लखी गया छे के-बहार जोउं छुं तो वीतरागना आगम प्रमाणे कोईनी श्रद्धा देखाती नथी, तेम आगमना सिद्धांतनुं स्पष्ट रहस्य कहेनारा कोई वक्ता पण जोवामां आवता नथी; वळी कोईने मोढेथी आ वात कहीए तो कोई


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ते मानता नथी. माटे हुं आ तत्त्वनी वात लखी जाउं छुं.

प्रश्नः– हा, पण गुरुदेव! अत्यारे शुं स्थिति छे? उत्तरः– अत्यारे तो आ वातनी हा पाडनारा रुचिवाळा जीवो पाकया छे. दिगंबरोमांथी तेम श्वेतांबरोमांथीय हजारो लोको आ वात समजता थया छे. जाणे आ वातने समजवानी जागृतिनो आ काळ छे.

ओहो! भगवान आत्मा त्रिकाळी परमस्वभावभावरूप परमपारिणामिकभाव- लक्षण निज परमात्मद्रव्य छे; तेनां श्रद्धान, ज्ञान अने चारित्रनी जे निर्मळ दशा प्रगट थाय तेने उपशम, क्षयोपशम अने क्षायिक एम भावत्रय कहेवामां आवे छे.

ए तो पहेलां आवी गयुं के औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक अने औदयिक ए चार भावो पर्यायरूप छे अने शुद्ध पारिणामिकभाव द्रव्यरूप छे. ए चार पर्यायरूप भावोमांथी त्रण भावथी मुक्ति थाय छे अर्थात् त्रणभाव छे ते मोक्षमार्गरूप छे, ज्यारे चोथो औदयिकभाव मोक्षमार्गनी बहार छे अर्थात् औदयिकभावथी मुक्ति थती नथी. हवे आवी वात व्यवहार करतां करतां मोक्ष थई जशे एम माननारा ओला व्यवहाररसियाओने रुचती नथी. पण शुं थाय? व्यवहारनो जे राग छे ते औदयिकभाव छे अने औदयिकभाव मुक्तिनुं-मोक्षनुं कारण नथी.

एक मुमुक्षुभाई करोडपति छे, ते एकवार एम बोल्या, “महाराज! तमारी वात मने एम तो ठीक लागे छे, पण मने ए घणा भव पछी समजाशे.” अरे भाई! आ वात ठीक लागे छे एने घणा भव केम होय? माटे तुं एम कहे ने के मने आमां ठीक लागतुं नथी. शुं थाय? लोकोने आवुं परम तत्त्व समजवुं कठण पडे छे. पण बापु! आ तो देवाधिदेव सर्वज्ञ परमात्माथी आवेली परम सत्य वात छे.

अहा! चोराशीना अवतारमां क्यांय एकेन्द्रियादिमां रखडतां रखडतां मांड आ मनुष्यभव मळ्‌यो छे. एमां बहारमां हो-हा करीने रळवा-कमावामां एने तुं वीतावी दे तो जिंदगी एळे जाय.

पण पैसा-धन तो मळे ने? शुं धूळ पैसा मळे? ए तो पुण्योदय होय तो ढगला थई जाय; पण एमां शुं छे? ए तो धूळनी धूळ छे बापु! जेनाथी जन्म-मरणना फेरा न मटे ए चीज शुं कामनी? अहो! आवी सर्वज्ञ परमेश्वरनी वाणी भाग्य होय तो काने पडे. लोको तो संप्रदायमां सांभळवा जाय. पण खुल्लुं करीने कहीए तो संप्रदायनां शास्त्रो छे ते भगवाननां कहेलां नथी, कल्पनाथी लखायेलां छे; माटे ए वाणीथी भ्रांति टळे


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एम कदीय बने नहि. लोकोने ठीक पडे न पडे, मार्ग तो आवो छे भाई! सर्व जीवो पोतपोतामां स्वतंत्र छे.

महाविदेहक्षेत्रमां अत्यारे साक्षात् सर्वज्ञ परमात्मा सीमंधरस्वामी बिराजे छे; पांचसो धनुष्यनो तेमनो देह छे, करोड पूर्वनुं आयुष्य छे, त्रिकाळज्ञानी छे ने पोते तीर्थंकरपदमां बिराजे छे. बीजा लाखो केवळी भगवंतो पण त्यां बिराजे छे. त्यांथी आवेली आ वाणी छे, तेमां आ कहे छे के - आगमभाषाथी उपशम आदि ए जे भावत्रय कहेवाय छे ते मोक्षनुं कारण छे, अने उदयभाव ते मोक्षनुं कारण नथी. शुं कीधुं? आ दया, दान, व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादि ने शुभवृत्ति उठे छे ते राग छे, विकार छे अने ते मोक्षनुं-सुखनुं कारण नथी. भावपाहुडनी गाथा ८३मां कह्युं छे के व्रत, पूजा, भक्ति आदि छे ए कांई जैनधर्म नथी, वीतरागतामय धर्म नथी; ए तो बधी रागनी क्रियाओ छे, एना वडे पुण्य थाय छे, धर्म नहि.

वास्तवमां शुद्ध पारिणामिकभावविषयक जे भावना ते-रूप जे औपशमादिक त्रण भावो तेओ समस्त रागादिथी रहित होवाथी शुद्ध उपादानकारणभूत होवाथी मोक्षनां कारण छे, चाहे उपशमभाव हो, क्षयोपशमभाव हो के क्षायिकभाव हो-ए त्रणे भाव रागना विकल्पथी रहित शुद्ध छे अने तेथी तेने मोक्षमार्गपणे भावत्रय कहेवामां आवे छे.

पोतानी चीजनी खबरेय न मळे अने ओघे ओघे माने के भगवाननी भक्ति करो तो भगवान मोक्ष आपी देशे. पण भाई! जरा विचार तो कर. भगवान तने शुं आपशे? तारी चीज तो तारी पासे पडी छे; भगवान तने क्यांथी आपशे? वळी भगवान तो पूरण वीतराग प्रभु निजानंदरसलीन परिणमी रह्या छे. तेमने कांई लेवुं- देवुं तो छे नहि तो तेओ तने मोक्ष केम आपशे?

तो भगवानने मोक्षदातार कहेवामां आवे छे ने? हा, कहेवामां आवे छे. ए तो भगवाने पोते पोतामां पोताथी निजानंदलीन थई मोक्षदशा प्रगट करी अने पोताने ज ते दीधी तो तेमने मोक्षदातार कहीए छीए. तथा कोई जीव तेमने जोई, तेमनो उपदेश पामी स्वयं अंतर्लीन थई ज्ञानदर्शन प्रगट करे तो तेमां भगवान निमित्त छे. तो निमित्तनी मुख्यताथी भगवानने उपचार मात्र मोक्षदातार कहेवामां आवे छे, ल्यो, आवी वात छे.

जुओ, एक समयमां त्रणकाळ-त्रणलोकने जे प्रत्यक्ष जाणे छे ते सर्वज्ञ वीतराग परमेश्वर छे; तेमने शरीरनी दशा नग्न होय छे. तेमने ‘अरिहंत’ भगवान कहेवामां आवे छे. ‘अरिहंत’ एटले शुं? ‘अरि’ नाम पुण्य ने पापना विकारी भाव; अने तेने जेओए हण्या छे ते अरिहंत छे. ल्यो, हवे पुण्यभावने ज्यां अरि


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अर्थात् वेरी कह्यो छे त्यां ते भाव धर्म प्रगट थवामां मदद करे ए केम बने? भाई! हरकोई प्रकारे आ स्पष्ट छे के ए पुण्यभाव औदयिकपणे छे अने ते मोक्षनुं कारण नथी, मोक्षना कारणरूप तो उपशमादि भावत्रय कहेवामां आव्या छे.

वळी कहे छे-निजपरमात्मद्रव्यना सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप जे परिणाम छे ते अध्यात्मभाषाथी ‘शुद्धात्माभिमुख परिणाम’ , ‘शुद्धोपयोग’ इत्यादि नामथी कहेवाय छे. जोयुं? शुं कहे छे? के आत्मानुं दर्शन, आत्मानुं ज्ञान अने आत्मानुं अनुचरण ए त्रणेय भाव शुद्धात्मानी सन्मुखना परिणाम छे. ल्यो, आम लोकोनी वातमां अने आ वीतरागताना तत्त्वनी वातमां आवडो मोटो फेर छे. आवे छे ने के-

आनंदा कहे परमानंदा, माणसे माणसे फेर;
एक लाखे तो ना मळे, एक तांबियाना तेर.

अहा! अज्ञानीनी मानेली श्रद्धामां अने भगवान वीतराग परमेश्वरे कहेला तत्त्वनी श्रद्धामां वाते वाते फेर छे.

अहाहाहा....! सर्वज्ञदेव त्रिलोकीनाथ अरिहंत परमात्मा एम फरमावे छे के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना परिणाम छे ते शुद्धात्माभिमुख छे, अर्थात् ते परिणाम रागथी ते परथी विमुख अने स्वभावथी सन्मुखना परिणाम छे. अहा! जेने आगमभाषाए उपशम, क्षयोपशम अने क्षायिक भाव कहीए ते शुद्धात्माभिमुख अर्थात् स्वभावसन्मुखना परिणाम छे अने तेने मोक्षनो मार्ग कहेवामां आवे छे. समजाणुं कांई....?

अनंतकाळथी प्रभु! तुं दुःखी थवाना पंथे दोराई गयो छो. अहीं तने सुखी थवानो पंथ बतावे छे. शुं कहे छे? के परथी विमुख अने स्वथी सन्मुख एवा निज परिणामनुं नाम मोक्षनो मारग छे. साक्षात् सर्वज्ञ परमेश्वर होय तोपण तेओ तारा माटे परद्रव्य छे भाई! तेमना प्रति तने जे भक्ति होय एनाथी विमुख अने ए रागने जाणवानी एक समयनी पर्यायथी पण विमुख शुद्ध आत्मद्रव्यनी सन्मुखना जे परिणाम तेने भगवान मोक्षनो मारग फरमावे छे. साव अजाण्या माणसने तो आ पागलना जेवी वात लागे. पण शुं करीए? नाथ! तने तारी खबर नथी!

शुद्ध आत्मवस्तु सहजशुद्धपारिणामिकभावलक्षण निजपरमात्मद्रव्य छे. तेनी सन्मुखना परिणामने आगमभाषाथी उपशमादि भावत्रय कहीए छीए, अध्यात्मभाषाथी तेने शुद्धात्माभिमुख कहीए छीए अने तेने ज मोक्षनो मार्ग कहीए छीए. भाई! दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना परिणाम छे ते तो औदयिकभाव छे अने


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ते परसन्मुखना भाव छे. तेथी ते धर्म नथी, तेम धर्मनुं कारणेय नथी. स्वाभिमुख स्वदशा ज एक मोक्षनुं कारण छे, मारग आवो सूक्ष्म छे भाई!

एक मोटा पंडित एक कहेता हता के पर्यायमां जो अशुद्धभाव थाय तो आखुं द्रव्य अशुद्ध थई जाय.

अरे भाई! तुं शुं कहे छे आ? शुद्ध आत्मद्रव्य तो त्रिकाळ शुद्ध छे. त्रिकाळी द्रव्य कदीय अशुद्ध थतुं ज नथी. पर्यायमां विकार-अशुद्धता थाय छे. शुभाशुभ वखते द्रव्यनी पर्याय तेमां तन्मय छे. द्रव्यनी पर्याय अशुद्धताथी तन्मय छे, पण तेथी कांई त्रिकाळी द्रव्य अशुद्ध थई जाय छे एम नथी. परिणाम भले शुभ के अशुभ हो, ते काळे त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य तो शुद्ध ज छे. अनादि-अनंत वस्तुतत्त्व तो शुद्ध ज छे, अने ज्यां शुभाशुभथी खसीने जीव त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यनी द्रष्टि करे छे त्यां तत्काल ज पर्याय पण शुद्ध थई जाय छे. समजाणुं कांई...? परथी खस, स्वमां वस, टूंकुं ने टच, आटलुं बस’ -बस आ वात छे.

ईंदोरना शेठ सर हुकमचंदजी अहीं आवेला; ८३ वर्षनी उंमरे देह छूटी गयो, तेओ कहेता हता- ‘तमे कहो छो ए मार्ग तो बीजे क्यांय सांभळवा मळतो नथी. तमे कहो छो ए हिसाबे तो भावलिंगी साचा संत वर्तमानमां कोई देखाता नथी.’

लोकोने आ वात कठण पडे. केटलाकने आमां अपमान जेवुं लागे. पण बापु! आ तो वास्तविकता छे. तारी अवास्तविक मान्यता टळे अने सत्यार्थ वात तने समजाय ए हेतुथी आ तारा हितनी वात कहेवाय छे. भाई! कोईना अनादर माटेनी आ वात नथी; (आ तो स्वस्वरूपना आदरनी वात छे).

आत्मा जे परमभावस्वरूप त्रिकाळी निज परमात्मद्रव्य छे तेनुं जे सम्यक्श्रद्धान- ज्ञान-अनुचरणरूप परिणाम तेने ‘शुद्धोपयोग’ पर्यायसंज्ञाथी कहेवामां आवे छे, अने ते स्वाभिमुख परिणाम छे. पुण्य ने पापना जे भाव थाय ते तो अशुद्धोपयोग छे अने ते परसन्मुखना परिणाम छे. आत्मानी सन्मुखना जे स्वाभिमुख परिणाम छे तेने ‘शुद्धोपयोग’ कहे छे अने ते शुद्धोपयोग मोक्षनो मार्ग छे एम कहेतां ज व्यवहाररूप जे शुभोपयोग छे ते मोक्षमार्ग नथी एम तेमां स्पष्ट थई जाय छे.

अरे भाई! तुं थोडा दि’ शांत चित्ते धीरजथी आ वात सांभळ! बापु! आ कांई वादविवाद करवानो विषय नथी, ने अमे कोईथी वादविवादमां उतरता पण नथी. आ तो शुद्ध वीतरागी तत्त्वनी जे अंतरनी वात छे ते कहीए छीए. बाकी वादथी कांई अंतरनुं तत्त्व पमाय एम नथी.


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भगवान आत्मा पूर्णानंदनो नाथ शुद्ध चैतन्यमय अनंतगुणनिधान प्रभु एक समयमां परिपूर्ण वस्तु छे. तेनी सन्मुखना परिणाम थाय तेने अहीं शुद्धोपयोग कह्यो छे अने तेने ज मोक्षमार्ग कह्यो छे. वळी तेने ज शुद्धात्मभावना, शुद्धरत्नत्रय, वीतरागता, स्वच्छता, पवित्रता, प्रभुता, साम्यभाव इत्यादि कहीए छीए. अहीं तो आ चोकखी वात छे. आ सिवाय (स्वसन्मुखना परिणाम सिवाय) दया, दान आदिना जे परिणाम थाय ते कांई वास्तवमां जैनधर्म नथी. आ मंदिरमां ने शास्त्रना प्रकाशनमां लाखो रूपियानुं दान लोको आपे छे ने? अहीं कहे छे-ए धर्म नथी, बहु आकरी वात भाई! ए रूपिया तो बधा पर जड माटी-धूळ छे. ए तो पोताना काळमां पोतानी क्रियावतीशक्तिना कारणे आवे अने जाय. त्यां परनो स्वामी थईने तुं मान के में पैसा दानमां आप्या तो ए तो भ्रमभरी तारी मूढमति छे.

शांतिप्रसाद साहूजी प्रांतीजमां आव्या हता; त्रण व्याख्यान सांभळी गया. गया वर्षे आ शरीरने ८७ मुं वर्ष बेठुं त्यारे जन्म-जयंति वखते दादरमां तेमणे ८७००० नी रकम तेमना तरफथी जाहेर करी हती. ते वखते तेमने अमे कहेलुं- शेठ, दान आपवामां राग मंद होय तो पुण्यबंधनुं कारण बने, पण ते कांई धर्मनुं कारण नथी.

भाई! धर्म तो एक शुद्धात्मसन्मुख परिणाम ज छे. तेने अहीं शुद्धोपयोग कहेल छे. तेने शुद्धोपयोग कहो, वीतरागविज्ञान कहो, स्वच्छताना परिणाम कहो, अनाकुळ आनंदना परिणाम कहो, शुद्धात्माभिमुख परिणाम कहो के शांतिना परिणाम कहो-ते आवा अनेक नामथी कहेवाय छे. अहाहा...! शांति... शांति.... शांति... भगवान आत्मा पूरण शांतिथी भरेलुं चैतन्यतत्त्व छे. तेनी सन्मुखताना जे परिणाम थाय ते पण शांत.. शांत... शांत.. अकषायरूप शांत वीतरागी शुद्ध परिणाम छे. वस्तु पोते पूरण अकषाय शांतस्वरूप छे, अने तेनी प्रतीति, ज्ञान ने रमणता-ए पण अकषायस्वरूप शांत... शांत... शांत छे; आने ज मोक्षनो अर्थात् पूरण परमानंदनी प्राप्तिनो उपाय कहे छे. आ सिवाय बीजो कोई उपाय छे ज नहि.

भाई! अनादि-अनंत सदा एकरूप परमस्वभावभावस्वरूप निजपरमात्मद्रव्य ते ध्रुव त्रिकाळ छे, ने मोक्षमार्ग ते परमस्वभावभावना आश्रये प्रगटेली वर्तमान पर्याय छे. एक त्रिकाळभाव ने एक वर्तमान पर्यायभाव; आवा द्रव्यपर्यायरूप बन्ने स्वभावो वस्तुमां एकसाथे छे. वस्तु कदी पर्याय वगरनी होय नहि; दरेक समये ते नवी नवी पर्याये परिणम्या करे छे. ते पर्याय जो अंतर्मुख स्वभावभावमां ढळेली होय तो ते मोक्षनुं कारण छे, ने बहिर्मुख परभावमां ढळेली होय


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तो ते बंधनुं कारण छे. आम बंध-मोक्षनी रमतु तारी पर्यायमां ज समाय छे; बीजुं कोई तारा बंध-मोक्षनुं कारण नथी. पोताना परमस्वभावमां एकाग्र थईने आनंदने अनुभवनारी ध्रुवमां ढळेली ने ध्रुवमां भळेली जे दशा थाय ते मोक्षमार्ग छे अने ते धर्म छे. ध्रुवसामान्यने ध्येयमां लईने जे दशा प्रगटी ते नवी छे; ध्रुव नवुं नथी प्रगटयुं पण निर्मळ अवस्था नवी प्रगटी छे, ने ते वखते मिथ्यात्वादि जूनी अवस्थानो नाश थयो छे. नाश थवुं ने उपजवुं ते पर्यायधर्म छे, ने टकी रहेवुं ते द्रव्यस्वरूप छे. आवी वस्तु द्रव्यपर्यायस्वरूप छे, अहो! द्रव्य अने पर्यायनुं आवुं अलौकिक सत्यस्वरूप सर्वज्ञभगवाने साक्षात् जोईने उपदेश्युं छे. अहा! आने समजतां तो तुं न्याल थई जाय अने तेना फळमां केवळज्ञान फळे एवी आ अलौकिक वात छे!

निज परमात्मद्रव्यना आश्रये मोक्षमार्ग छे, परना आश्रये मोक्षमार्ग नथी. शुं कीधुं? आ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना परिणाम ए त्रणे स्वाश्रित परिणाम छे, तेमां परनुं के रागनुं अवलंबन जराय नथी. ते त्रणेय भावो शुद्धात्माभिमुख छे ने परथी विमुख छे. आ रीते मोक्षमार्ग अत्यंत निरपेक्ष छे, परम उदासीन छे. जेटला परसन्मुखना पराश्रित रागादि व्यवहारभावो छे ते कोईपण मोक्षमार्ग नथी. स्वाभिमुख स्वाश्रित परिणाममां व्यवहारना रागनी उत्पत्ति ज थती नथी. माटे ते रागादिभावो मोक्षमार्ग नथी; जे स्वाश्रित निर्मळरत्नत्रयरूप भाव छे ते ज मोक्षमार्ग छे, अने ते ज धर्म छे. तेने ज आगम भाषाथी उपशमादि भावत्रय कहेवामां आवेल छे.

आ प्रमाणे पांच भावोमांथी मोक्षनुं कारण कोण छे ते बताव्युं; तेनां बीजां अनेक नामोनी ओळखाण करावी. हवे कहे छे-

‘ते पर्याय शुद्धपारिणामिकभाव लक्षण शुद्धात्मद्रव्यथी कथंचित् भिन्न छे.’

शुं कीधुं? के जे शुद्ध पारिणामिकभावलक्षण त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य एनाथी ते मोक्षमार्गनी पर्याय कथंचित् भिन्न छे. जे परिणामने आगमभाषाए उपशम आदि भावत्रयपणे कह्या अने अध्यात्मभाषाए जेने शुद्धात्माभिमुख परिणाम वा शुद्धोपयोग परिणाम कह्या ते परिणाम त्रिकाळी परमस्वभावभावरूप निज परमात्मद्रव्यथी कथंचित् भिन्न छे. जुओ, मोक्षमार्गनां द्रव्यसंग्रहमां ६प नाम आप्यां छे. ए बधां स्वस्वभावमय चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मद्रव्यना आश्रये प्रगटेला शुद्धोपयोगरूप परिणामनां नामांतर छे. अहीं कहे छे-ते परिणाम शुद्ध पारिणामिकभावलक्षण शुद्ध आत्मद्रव्यथी कथंचित् भिन्न छे, झीणी वात छे प्रभु!


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रागादि पुण्य-पापना भाव तो त्रिकाळी शुद्ध आत्मद्रव्यथी भिन्न ज छे केमके रागादि छे ते दोष छे, उदयभाव छे, ने बंधनुं कारण छे, ज्यारे भगवान आत्मा सदा निर्दोष, निरपेक्ष अने अबंध तत्त्व छे. भाई! आ व्यवहाररत्नत्रयना भाव, देव-शास्त्र- गुरुनी भेदरूप श्रद्धा, शास्त्रनुं ज्ञान ने पंचमहाव्रतना परिणाम इत्यादि जे मंदरागना परिणाम छे ते कर्मना उदये उत्पन्न थयेला औदयिक भाव छे. ते उदयभाव बंधनुं कारण छे अने तेथी ते परिणाम शुद्ध आत्मद्रव्यथी भिन्न छे अर्थात् ते परिणाममां शुद्ध आत्मद्रव्य नथी.

अहीं तो विशेष एम कहे छे के-पूर्णानंदमय परमानंदमय एवो जे मोक्ष छे तेनो उपाय जे शुद्धोपयोगरूप मोक्षमार्ग ते भाव एक समयनी पर्यायरूप छे अने ते भाव शुद्धात्मद्रव्यथी कथंचित् भिन्न छे. सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र ए त्रणे पर्याय छे, शुद्धोपयोग छे ते पर्याय छे; ए पर्याय, अहीं कहे छे, शुद्धपारिणामिकभावलक्षण निज परमात्मद्रव्यथी कथंचित् भिन्न छे. अहा! जेमां कांई पलटना नथी, बदलवुं नथी एवी पोतानी त्रिकाळी ध्रुव चीज शुद्ध आत्मवस्तु जेने अहीं शुद्ध पारिणामिकभावलक्षण कही एनाथी स्वाभिमुख प्रगट थयेला मोक्षमार्गना परिणाम कथंचित् भिन्न छे एम कहे छे. अहो! जैन तत्त्व बहु सूक्ष्म छे प्रभु!

कर्मोदयना निमित्ते जे भाव थाय ते विकार छे अने ते बंधनुं कारण छे, उपशमभाव छे ते कर्मना अनुदयना कारणरूप दशा छे; ते दशा पवित्र छे, पण अंदर सत्ता हजी पडी छे तो तेने उपशमभाव कहेवाय छे. कांईक निर्मळ अने कांईक मलिन अंश छे एवी मिश्रदशाने क्षयोपशमभाव कहेवाय छे, कर्मना क्षयना निमित्ते प्रगट थाय तेने क्षायिकभाव कहेवाय छे. ल्यो, आमां तो कर्मना उपशम, क्षय आदिनी अपेक्षा आवे छे, ज्यारे त्रिकाळी जे स्वभावभाव छे तेने कोई अपेक्षा लागु पडती नथी. ओहो! त्रिकाळी चैतन्यमात्र जे द्रव्यस्वभाव चिदानंद, सहजानंद, नित्यानंद प्रभु ते परम निरपेक्ष तत्त्व छे.

अहा! आ तो मारगडा ज तद्न जुदा छे. प्रभु! भाई! तारी अंदर जे त्रिकाळी ध्रुव सदा एकरूपे पडी छे ते सहजानंदमूर्ति प्रभु एकलुं ज्ञान अने आनंदनुं दळ छे. अहा! ते सम्यग्दर्शननो विषय छे. प्रवचनसारमां कह्युं छे के-ज्ञेयतत्त्वनी अने ज्ञातृतत्त्वनी तथा प्रकारे (जेम छे तेम, यथार्थ) प्रतीति जेनुं लक्षण छे ते सम्यग्दर्शन पर्याय छे. अहा! आवुं सम्यग्दर्शन जे एणे अनंतकाळमां प्रगट कर्युं नथी अने जे मोक्षनुं सौ पहेलुं पगथियुं छे ते, अहीं कहे छे, त्रिकाळी ध्रुव एक ज्ञायकद्रव्यथी भिन्न छे. बापु! मारगडा आवा छे तारा!

भगवान! परमात्मद्रव्य छे तारो आत्मा; प्रत्येक आत्मा स्वरूपथी आवो छे.


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तेने, अहीं कहे छे, शरीरनी अवस्थाथी न जुओ, एने रागनी अवस्थाथी न जुओ, अरे! एनामां निर्मळ अवस्था छे ते हुं एम पण न जुओ; अहा! निर्मळ अवस्थामां एक त्रिकाळी द्रव्य हुं छुं एम जुओ. अहा! आवुं भगवान! तारुं त्रिकाळी ध्रुव जे एक ज्ञायकतत्त्व एनाथी वर्तमान निर्मळ अवस्था भिन्न छे.

लोकोए मार्ग कदी सांभळ्‌यो न होय एटले नवो लागे पण भाई! आ मार्ग कांई नवो काढयो नथी; आ तो अनंता जिनेश्वर भगवंतोए आदरेलो ने कहेलो सनातन मार्ग छे. अहा! पंचमहाव्रतादिनुं पालन एणे अनंतवार कर्युं, अनंतवार ए नग्न दिगंबर साधु थयो, पण एक समयनी पाछळ (भिन्नपणे) आखुं परमात्मतत्त्व शुं छे एनुं ज्ञान एणे कदी प्रगट कर्युं नथी. एक समयनी पर्यायमां बधी रमतु रम्यो, पण अंदर आत्माराम चैतन्यमहाप्रभु बिराजी रह्या छे एमां रमणता न करी. मार्ग अंदर तद्न निराळो छे भाई!

दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा इत्यादि बधो शुभराग छे ते विकल्प छे अने ते उदयभाव छे, बंधनुं कारण छे. उपशम, क्षयोपशम अने क्षायिक जे भावत्रय छे ते एनाथी (उदयभावथी) रहित छे. ए त्रणभावने अहीं शुद्धोपयोग कहेल छे. ते शुद्धोपयोग के जेमां आनंदनी दशानुं वेदन छे ते दशापर्याय त्रिकाळी चीजथी कथंचित् भिन्न छे. एक समयनी पर्याय उत्पाद-व्ययरूप क्षणिक छे. ते अपेक्षाए शुद्धोपयोगनी दशा त्रिकाळी शुद्ध आत्मद्रव्यथी भिन्न छे. आवी वात! समजाणुं कांई...?

समयसारना संवर अधिकारमां आव्युं छे के पुण्य-पापना भाव अने व्यवहाररत्नत्रयनो जेटलो विकल्प छे ते सर्व राग त्रिकाळी द्रव्यथी भिन्न छे. अहा! भाव तो भिन्न छे पण रागना प्रदेशोय भिन्न छे एम त्यां कह्युं छे. अहाहा...! एकलुं आनंदनुं दळ प्रभु आत्मा-एमांथी विकार उत्पन्न थतो नथी. एटले विकारनुं क्षेत्र त्रिकाळी द्रव्यना क्षेत्रथी भिन्न छे. अनंत-गुणधाम प्रभु आत्मा त्रिकाळ शुद्ध असंख्यप्रदेशी वस्तु छे. तेनी पर्यायमां जे दया, दान आदि विकल्प उठे छे ते त्रिकाळी स्वभावथी तो भिन्न छे, पण क्षेत्रथी पण ते भिन्न छे, बन्नेने भिन्नभिन्न वस्तु कही छे. एक वस्तुनी खरेखर बीजी वस्तु नथी एम त्यां कह्युं छे. प्रवचनसार गाथा १०२ नी शैली प्रमाणे ‘चिद्दविलास’ मां पण एम कह्युं छे के पर्यायने कारणे पर्याय थाय छे, द्रव्यगुणने कारणे नहि.

आ रीते मोक्षमार्गनी जे पर्याय छे ते पर्यायनो कर्ता ते पर्याय, पर्यायनुं कर्म पर्याय, पर्यायनुं साधन पर्याय, पर्यायनुं संप्रदान, अपादान ने अधिकरण पण पर्याय ज छे. पर्याय एक समयनुं सहज सत् छे. आवो वीतरागनो मारग शूरानो मारग छे, कायरोनुं, जेओ मारग सांभळीने पण कंपी उठे एमनुं एमां काम नथी.


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जुओ, आत्मभान थया पछी पण ज्ञानीने शुभ ने अशुभभाव पण आवे छे. तेने कदाचित् आर्त्त-रौद्रध्यानना तथा विषयभोगना भाव पण थाय छे. नबळाईने लईने ते भाव थाय छे पण ज्ञानीने ए भावनी होंश नथी, एने ए भावोमां मजा नथी. ए तो जाणे छे के मारा स्वरूपमां ज मजा छे, ए सिवाय बहारमां-निमित्तमां के रागमां-क्यांय मजा नथी. राग अने निमित्तमां मजा छे एवी द्रष्टिनो एने अभाव छे.

हवे आ वाणिया आखो दि’ पैसा रळवा-कमावामां गरी गया होय ते आ कये दि’ समजे? पण बापु! ए पैसा-बैसा तो जड माटी-धूळ छे. एमां क्यां आत्मा छे? ए मारा छे एवी मान्यता ज मिथ्यात्व छे, केमके जड छे ते कदीय चेतनरूप थाय नहि. अहीं तो कहे छे- आ मोक्षमार्गनी जे पर्याय छे के जेमां अपूर्व-अपूर्व आनंदनो स्वाद आवे छे, ते पर्याय पण द्रव्यथी कथंचित् भिन्न छे. अतीन्द्रिय आनंदनो पूरण स्वाद आवे ते मोक्ष छे अने ते पण एक पर्याय छे. ते पर्याय द्रव्यथी कथंचित् भिन्न छे. हवे द्रव्य शुं? गुण शुं? अने पर्याय शुं? -आवुं पोतानुं द्रव्य-पर्यायस्वरूप कदी लोकोए जाणवानी दरकार ज करी नथी.

त्रिलोकीनाथ अरिहंत परमेश्वर एम फरमावे छे के-व्यवहाररत्नत्रयनो जे विकल्प उठे छे ए तो कथनमात्र मोक्षनो मार्ग छे. ए तो भगवान आत्माथी भिन्न ज छे; पण त्रिकाळी ध्रुवना आलंबने जे अंतरमां सत्यार्थ मोक्षनो मार्ग प्रगट थयो ते मोक्षना मार्गनी पर्याय पण त्रिकाळी शुद्ध पारिणामिकभावलक्षण निज परमात्मद्रव्यथी कथंचित् भिन्न छे; केमके वस्तु द्रव्य छे ते त्रिकाळ छे ने पर्यायनो काळ तो एक समय छे. न्यालभाईए तो ‘द्रव्यद्रष्टिप्रकाश’ मां पर्यायने द्रव्यथी सर्वथा भिन्न कहेल छे ए वात ख्यालमां छे, पण अहीं अपेक्षा राखीने कथंचित् भिन्न कहेल छे. मोक्षनुं कारण जे निश्चयमोक्षमार्गनी पर्याय ते शुद्धात्मद्रव्यथी कथंचित् भिन्न छे एम अहीं अपेक्षाथी वात छे.

सम्यग्दर्शन छे ते पर्याय छे. तेनो विषय त्रिकाळ सत्यार्थ, भूतार्थ, छती चीज सच्चिदानंद प्रभु भगवान आत्मा छे. अहीं कहे छे विषयी जे पर्याय छे ते एनो विषय जे त्रिकाळी ध्रुव चीज छे एनाथी कथंचित् भिन्न छे.

‘शा माटे?’ - तो कहे छे-

‘भावनारूप होवाथी, शुद्धपारिणामिक (भाव) तो भावनारूप नथी.’

अहो! जंगलमां वसतां वसतां संतोए केवां काम कर्यां छे! अंदरमां सिद्धनी साथे गोष्ठी करी छे, अर्थात् अंदर निज सिद्धस्वरूपनो अनुभव प्रगट करीने


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पोते भगवान सिद्धना साधर्मी थई बेठा छे. वाह! मोक्षमार्गने साधनारा संतो सिद्धना मित्र छे, साधर्मी छे. एमनी आ वाणी छे. तेओ कहे छे-

भगवान आत्मा शुद्धपारिणामिकभावलक्षण वस्तु पूर्ण एक चैतन्यमय वस्तु छे ते त्रिकाळ भावरूप छे, भावनारूप नथी, ज्यारे तेना आश्रये जे मोक्षनो मार्ग प्रगट थयो छे ते भावनारूप छे, त्रिकाळभावरूप नथी. झीणी वात प्रभु!

अज्ञानी मूढ जीवो आ बैरां-छोकरां मारां ने आ बाग-बंगला मारा अने हुं आ करुं ने ते करुं-एम परनी वेतरण करवामां गुंचाई गया छे, सलवाई पडया छे. तेओ तो मोक्षना मार्गथी बहु ज दूर छे. अहीं तो आ कहे छे के- मोक्षमार्गनी पर्याय वर्तमान भावनारूप होवाथी त्रिकाळी ध्रुव निजपरमात्मद्रव्यथी कथंचित् भिन्न छे एवो भेद अंतरमां जेमने भासित थयो नथी तेओ पण मोक्षना मारगथी दूर छे. हवे ज्यां आ वात छे त्यां व्यवहारथी निश्चय प्रगटे ए वात क्यां रही प्रभु!

त्रिकाळी पारिणामिकने भावरूप कहीए; एने पारिणामिक कहीए, ध्रुव कहीए, नित्य कहीए, सद्रश कहीए, एकरूप कहीए. अने जे आ पर्याय छे ते अनित्य, अध्रुव, विसद्रश कहीए, केमके तेमां प्रतिसमय उत्पाद-व्यय थाय छे. मोक्षनो मारग छे ते पण उत्पाद-व्ययरूप छे. एटले के वर्तमान जेनो उत्पाद थाय तेनो बीजे समये व्यय थाय छे, बीजे समये उत्पाद थाय तेनो त्रीजे समये व्यय थाय छे. आ प्रमाणे उत्पाद-व्ययरूप होवाथी मोक्षमार्गनी पर्याय शुद्धपारिणामिकभावलक्षण द्रव्यथी कथंचित् भिन्न छे. केम? केमके ते पर्याय भावनारूप छे. समजाणुं कांई...?

बार भावना कही छे ने? तेमां प्रथम तो विकल्परूप भावना होय छे. तेनो व्यय थईने पछी निर्विकल्प थाय छे. आ निर्मळ निर्विकल्प पर्याय जे अंदर प्रगट थई ते भावनारूप छे. भाव जे त्रिकाळी एकरूप परमात्मद्रव्य तेनी सन्मुख थईने प्रगटेली जे दशा छे ते भावनारूप छे, त्रिकाळी भावरूप नथी. भाई! आ तो भाषा छे, जड छे. तेनो वाच्यभाव शुं छे ते यथार्थ समजवो जोईए.

शुद्ध पारिणामिकभाव त्रिकाळी स्वभाव परमानंदमय प्रभु छे. ते भावनारूप नथी, अर्थात् ते वर्तमान पर्यायरूप नथी; तेना आश्रये प्रगटेली मोक्षना कारणरूप दशा भावनारूप छे. हवे आवी वात न समजतां केटलाक दया, दान, व्रत, भक्ति आदि व्यवहार करतां करतां निश्चय मोक्षमार्ग प्रगटी जाय एम कहे छे. अरे प्रभु! आ तुं शुं कहे छे भाई! तारी मान्यताथी मारगनो विरोध थाय छे भाई! ए रीते तने सत्य नहि मळे, असत्य ज तने मळशे; केमके रागना सर्व भाव असत्यार्थ ज छे. आकरी वात प्रभु! पण जो ने अहीं शुं कहे छे? त्रिकाळी द्रव्यनी अपेक्षाए


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वर्तमान मोक्षमार्गनी पर्यायने तेनाथी कथंचित् भिन्न कहीने असत्यार्थ कही तो पछी रागना विकल्पवाळी मलिन दुःखरूप दशानुं शुं कहेवुं? भाई! मोक्षमार्गनी पर्याय छे ते तो पवित्र छे, आनंदरूप छे, अबंध छे. ते पण त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यथी कथंचित् भिन्न छे तो पछी बंधरूप रागनी दशानुं शुं कहेवुं? राग करतां करतां निश्चय (-वीतरागता) प्रगटे ए तो तारो अनादिकालीन भ्रम छे भाई! (त्यांथी हठी जा).

अहा! मोक्षना कारणरूप जे अबंध परिणाम छे ते भावनारूप छे अने त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यस्वभाव छे ते भावनारूप नथी. अहो! आवी शुद्ध तत्त्वद्रष्टि करीने आठ आठ वर्षना चक्रवर्ती अने तीर्थंकरना पुत्रो केवळज्ञान प्रगट करीने अल्पकाळमां मोक्षपद पामे छे. तेमने शरीरनी अवस्था क्यां नडे छे? आ तो मोटानी वात करी, बाकी लाकडीना भारा वेचीने गुजरान चलावनार गरीब कठियाराना आठ-आठ वर्षना बाळको पण अंतःतत्त्वनुं भान करी, ज्यां माणसना चालवानो पगरव पण थतो नथी एवा जंगलमां चाल्या जईने एकान्त स्थानमां निजस्वरूपनी साधना करीने थोडा ज काळमां परमपदनी प्राप्ति करी ले छे. अहो! अंतरनो आवो कोई अलौकिक मार्ग छे!

ल्यो, हवे बहारनी चीज-निमित्त अने राग-तो क्यांय दूर रही गई; अहीं तो निर्मळ द्रव्य-पर्याय वच्चे कथंचित् भेद होवानी सूक्ष्म वात छे. जैनतत्त्व बहु सूक्ष्म ने गंभीर छे भाई! ए ज विशेष कहे छे.

‘जो (ते पर्याय) एकांते शुद्ध-पारिणामिकथी अभिन्न होय, तो मोक्षनो प्रसंग बनतां आ भावनारूप मोक्षकारणभूत (पर्यायनो) नो विनाश थतां शुद्धपारिणामिकभाव पण विनाशने पामे. पण एम तो बनतुं नथी (कारण के शुद्धपारिणामिक भाव तो अविनाशी छे).’

जुओ, शुं कहे छे? के वीतरागभावरूप निर्मळ पर्याय जो त्रिकाळी भावथी एकमेक होय तो मोक्षनो प्रसंग बनतां मोक्षमार्गनी भावनारूप पर्यायनो विनाश थाय छे ते वखते ज शुद्धपारिणामिकभाव-त्रिकाळीभाव पण विनाशने पामे. अहीं शुं कहेवुं छे? के-

मोक्षमार्गमां क्षायिकादिभावरूप जे निर्मळ पर्याय थई ते पर्याय त्रिकाळी द्रव्य साथे सर्वथा अभिन्न नथी. जो बन्ने सर्वथा अभिन्न एक होय तो ते बे धर्मोनी सिद्धि ज न थाय; ने एकनो-पर्यायनो व्यय थतां आखा द्रव्यनो ज नाश थई जाय. जुओ, पूरण शुद्ध ज्ञान अने आनंदनी प्राप्तिरूप मोक्षनी प्रगटता थतां मोक्षमार्गनी भावनारूप पर्यायनो व्यय थाय छे. तो शुं ते काळे आत्मद्रव्य ज नाश


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पारिपामी जाय छे? ना; केम? केमके ते पर्याय द्रव्य साथे सर्वथा अभिन्न नथी, कथंचित् भिन्न छे. अहीं कहे छे-मोक्षमार्गनी भावनारूप पर्याय जो त्रिकाळी पारिणामिकभाव साथे एकांते एकमेक होय तो मोक्षना प्रसंगमां मोक्षमार्गनी पर्यायनो व्यय थतां त्रिकाळी द्रव्य पण नाश पामी जाय; पण एम कदीय बनतुं नथी केमके त्रिकाळी द्रव्यस्वभाव तो शाश्वत-अविनाशी तत्त्व छे. समजाय छे कांई..? भाई! आ न्यायथी तो वात छे; न्यायथी तो समजवुं जोईए ने? वादविवादथी शुं पार पडे?

भाई! केवळज्ञाननी पर्याय पण नाशवंत छे. नियमसार, शुद्धभावअधिकारमां नवे तत्त्वने नाशवंत कह्या छे. जीवनी एक समयनी पर्याय नाशवंत छे, अजीवनुं ज्ञान करनारी पर्याय नाशवंत छे. आस्रव, बंध, पुण्य ने पाप, संवर, निर्जरा ने मोक्ष-ए बधां तत्त्वोने त्यां नाशवंत कह्यां छे. गजब वात करी छे भाई! शरीर नाशवंत, पैसा नाशवंत, रागादि नाशवंत, संवर-निर्जरा अर्थात् मोक्षमार्गनी पर्याय नाशवंत अने केवळज्ञाननी पर्याय पण नाशवंत छे; केमके प्रत्येक पर्यायनी मुद्त ज एक समयनी छे. केवळज्ञाननी पर्याय पण बीजा समये बीजी थाय छे; जात ए, पण बीजा समये बीजी थाय छे. केवळज्ञाननी पर्याय बीजा समये रही न शके, केमके ते एक समयनी मुद्तवाळी क्षणविनाशी चीज छे; ज्यारे अहो! भगवान अंदर नित्यानंद प्रभु निजपरमात्मद्रव्य शुद्ध पारिणामिकभावरूप वस्तु अविनाशी शाश्वत चीज छे. आम बे वच्चे कथंचित् भिन्नता छे. अनादि-अनंत आवी ज वस्तुनी स्थिति छे.

तो पंचास्तिकायमां, पर्यायरहित द्रव्य नहि ने द्रव्यरहित पर्याय नहि-एम कह्युं छे ने? हा, त्यां तो परथी भिन्न द्रव्यनुं अस्तिकायस्वरूप सिद्ध करवुं छे तेथी एम वात करी छे के पर्यायरहित द्रव्य नहि ने द्रव्यरहित पर्याय नहि. आखुं द्रव्यनुं (द्रव्य-पर्यायरूप) अस्तित्व सिद्ध करवुं छे ने? पण अहीं तो अनादिकालीन पर्यायमूढ जीवने भेदज्ञान कराववानुं प्रयोजन छे. तेथी पर्यायद्रष्टि छोडाववा अर्थे कह्युं के पर्यायने त्रिकाळी द्रव्यथी कथंचित् भिन्नता छे; जो बन्ने सर्वथा एकमेक होय तो पर्यायनो नाश थतां द्रव्यनो पण नाश थई जाय. पण एम छे नहि. माटे त्रिकाळी भावथी ते भावनारूप पर्याय कथंचित् भिन्न छे.

भाई! आ तो अंदरनी वातु छे बापा! जो तारे सत् शोधवुं होय तो ते सत् शाश्वत अंदरमां छे; एने शोधनारी पर्याय पण ए सत्थी कथंचित् भिन्न छे, अर्थात् पर्यायमां जेने अहंभाव छे तेने ते हाथ न लागे एवी चीज छे. भाई! तारे शेमां अहंपणुं करवुं छे? कोने अधिकपणे मानवुं छे? हुं पर्यायथी अधिक-भिन्न छुं एम मानतां अंदर द्रव्य अंदर जे अधिक छे तेनो अनुभव थाय छे.


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समयसार गाथा ३१ मां आवे छे के-

जो इंदिये जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं

अहाहा...! ज्ञानस्वभाव जे त्रिकाळ छे ते अधिक छे. परमस्वभावभाव जे एक ज्ञायकस्वभाव ते राग अने एक समयनी पर्यायथी अधिक नाम भिन्न छे. अहीं ए ज कहे छे के ध्रुवस्वभावना लक्षे प्रगट थतो जे सत्यार्थ मोक्षनो मार्ग छे ते भावनारूप छे अने ते त्रिकाळी भावथी भिन्न छे. भावनारूप मोक्षमार्ग अने त्रिकाळी परमभाव-बे चीज सर्वथा एक नथी; ते बन्ने चीज सर्वथा एक होय तो भावनारूप मोक्षमार्गनो व्यय थईने मोक्ष थाय त्यारे त्रिकाळी भावनो पण नाश थवानो प्रसंग आवी पडे. भगवान! मारग तो आवो सूक्ष्म छे. समजाय छे कांई...?

भाई! आवो मारग तारे जेम छे तेम यथार्थ समजवो पडशे. ए समज्या विना ज अनंतकाळथी रझळतो तुं दुःखी थयो छे. अहीं मोटो अबजोपति शेठियो होय, करोडोना बंगलामां रहेतो होय, ने क्षणमां देह छूटीने तेनी फू थई जाय अने पोते मरीने बकरीनी कूखमां जाय. त्यां जन्म थतां बें.. बें.. बें.. एम करे. बकरीनां बच्चां बें.. बें.. बें.. एम करे छे ने? पण अरे! एने विचार ज नथी के मरीने हुं क्यां जईश? हुं क्यां छुं अने मारा शुं हाल-हवाल थशे? भाई! आ अवसरमां जो स्वरूपनी समजण ना करी तो क्य ांय कागडे-कूतरे-कंथवे... इत्यादि संसारमां खोवाई जईश.

अहीं भावनारूप पर्यायने मोक्षना कारणभूत पर्याय कहेल छे. बीजी जग्याए एम आवे छे के मोक्षनी पर्याय मोक्षना कारणभूत पर्यायथी प्रगट थती नथी. वास्तवमां ते समयनी केवळज्ञान अने मोक्षनी दशा एना पोताना षट्कारकना परिणमनथी स्वतंत्र उत्पन्न थाय छे, पूर्वनी मोक्षमार्गनी पर्यायनी एने अपेक्षा नथी. जो के मोक्षनी दशाना पूर्वे मोक्षमार्गनी पर्याय ज अवश्य होय छे तोपण मोक्षनी दशा ते समयनुं स्वतंत्र सत् छे. मोक्षमार्गनी पर्यायना कारणे मोक्षनी दशा थई छे एम नथी. आवो मार्ग छे भाई!

अहीं एम समजाववुं छे के मोक्ष थवा पहेलां मोक्षमार्गनी पर्याय हती ते पर्याय त्रिकाळी चीजथी एकमेक नथी पण भिन्न छे. जो अभिन्न होय तो मोक्षमार्गनी पर्यायनो नाश थतां शुद्धपारिणामिकभाव पण विनाशने पामे; पण एम कदीय बनतुं नथी केमके वस्तु-त्रिकाळी द्रव्य अविनाशी छे. अहा! सत् एकसद्रशरूप स्वभाव, अविरुद्धस्वभाव त्रिकाळ छे ते क्यां जाय? विसद्रशपणुं ने उत्पाद-व्यय छे ए तो पर्यायमां छे, उपजवुं ने विणशवुं छे ए तो पर्यायमां छे. वस्तु छे ए तो उत्पाद-व्ययरहित त्रिकाळ शाश्वत सत्पणे विद्यमान चीज छे. आगळ कहेशे के मोक्षना