Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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मार्गनी पर्यायपणे आत्मा उपजतो नथी. अरे! मोक्षना मार्गनी पर्यायना अभावपणे (मोक्षपणे) पण ते उपजतो नथी. बापु! आ मारगडा जुदा छे नाथ!

अरेरे! ए हमणां स्वना भान विना दुःखी छे एवी एने क्यां खबर छे? अरे! दुःख शुं छे एनीय एने क्यां खबर छे? शास्त्रमां दाखलो आवे छे के वनमां दावानळ लागतां पशु-पंखीओ बिचारां भस्म थई जाय छे, ते वखते कोई मनुष्य वननी वच्चे आवेला झाड उपर चढीने बेसे छे अने चोतरफ भडके बळतुं वन जुए छे तोपण एम माने छे के हुं सलामत छुं; हुं क्यां बळुं छुं? पण भाई! आ वन सळग्युं छे ते हमणां ज आ झाड बाळशे अने तुं पण क्षणमां ज बळीने भस्म थई जईश. जेम झाड उपर बेठेलो ते माणस ‘हुं सलामत छुं’ एम माने छे ते एनी मूढता छे केमके क्षणमां ज अग्नि सळगती सळगती आवशे, झाडने पकडशे अने तेनी ज्वाळामां ते तत्काल भरखाई जशे. तेम आ भवरूपी वन कालाग्नि वडे बळी रहेलुं देखवा छतां ‘हुं सलामत छुं, सुखी छुं’ एम कोई माने छे ते एनी मूढता छे. अरे! बळी रह्यो होवा छतां एने बळतरानी खबर नथी!

अहा! मोक्षमार्गनी पर्याय पण नाशवंत छे. प्रभु! तारे कई चीजने टकावी राखवी छे? पोते नित्यानंद प्रभु त्रिकाळी टकतुं तत्त्व छे. अहा! एमां नजर नाखतो नथी ने अनित्यने टकाववा मागे छे ते तारी मूढता छे. देहादि बाह्य विनश्वर चीजने टकावी राखवा तुं मथे छे पण एमां तने निष्फळतानुं दुःख ज प्राप्त थशे.

वढवाणना एक भाई कहेता के-महाराज! आ बधी उपाधि कोणे करी? अरे भाई! शुं आटलीय तने खबर नथी? आ बधी उपाधि तें पोते ज ऊभी करी छे. तारा स्वस्वरूपने भूलीने अनादिथी राग अने विकारनी उपाधि तें स्वयं वहोरी छे. नाथ! तने ज तुं भूली गयो छो. अहा! पोताना निरुपाधि शुद्ध चैतन्यतत्त्वने भूलीने आ सघळी उपाधि तें पोते ऊभी करी छे. तें अनंतकाळमां पुण्य-पापना विकल्पो कर्ये ज कर्या अने तेथी तने बंध थयो अने तेना निमित्ते आ बधो संग थयो. भाई! ते बधाने पोताना मानी तें पोते आ उपाधि करी छे.

जुओ, चमरी गायनुं पूंछडुं खूब सुंवाळुं होय छे. तेना वाळ झाडमां भराई जतां वाळना प्रेममां त्यां ते गाय ऊभी रही जाय छे अने शिकारीना बाणथी वींधाईने मरण पामे छे. तेम अज्ञानी संसारी प्राणी आ दुनियाना पदार्थोना प्रेममां त्यां ऊभो रही गयो छे अने पोते हणाई रह्यो छे, लूंटाई रह्यो छे एनुं एने भान नथी. नियमसारमां आवे छे के-आ बायडी-छोकरां, कुटुंब-कबीला वगेरे पोतानी आजीविका माटे तने धुतारानी टोळी मळी छे; तारा मरण समये तने कोई काममां आवे तेम नथी, हमणां पण तेओ कोई ज कामना नथी. बापु! तुं एकलो विलाप


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करतो क्यांनो क्यांय चाल्यो जईश; आ भवभ्रमणना प्रवाहमां तुं क्यांय तणाई जईश.

भाई! आत्माना पोताना अंदरना भावोनी आ वात छे. तेमां शुद्धपारिणामिक- भाव छे ते त्रिकाळ परमभाव छे, तेमां उत्पाद-व्यय नहि ने तेनो कदीय अभाव नहि एवो शाश्वत ध्रुव एकरूपभाव छे. पर्यायरूप जे चार भावो छे ते उत्पाद-व्ययरूप छे. अशुद्धतानो व्यय थईने अंशे शुद्धतारूप मोक्षमार्ग प्रगटे, ने मोक्षमार्गनो व्यय थईने पूरण मोक्षदशा प्रगटे; पण जे परमभावरूप द्रव्य छे तेनो व्यय पण न थाय अने ते नवो प्रगटे पण नहि. आ रीते पलटती पर्याय, ने त्रिकाळ टकतुं द्रव्य -आवुं वस्तुस्वरूप छे. द्रव्य अपेक्षाए वस्तु अपरिणामी अक्रिय अने पर्याय अपेक्षाए परिणमनशील सक्रिय छे. श्री सर्वज्ञदेवे आवुं द्रव्य-पर्यायरूप वस्तुनुं स्वरूप उपदेश्युं छे. तेमां कहे छे-द्रव्य- पर्याय सर्वथा अभिन्न नथी, कथंचित् भिन्न छे. अहा! सर्वथा भिन्न नहि, सर्वथा अभिन्न नहि-आवुं वस्तुनुं स्वरूप छे. सर्वथा भिन्न होय तो वस्तु अवस्था वगरनी थई जतां वस्तु ज न रहे; तथा सर्वथा अभिन्न होय तो पर्यायनो नाश थतां द्रव्यनो नाश थई जाय अर्थात् वस्तु ज न रहे. माटे द्रव्य-पर्याय कथंचित् भिन्न छे ए यथार्थ छे.

शास्त्रमां ‘उत्पादव्ययध्रोव्ययुक्तम् सत्’ कह्युं छे. ध्रुवता एटले टकवुं, उत्पाद-व्यय एटले बदलवुं. अहा! टकीने बदले, ने बदलवा छतां टकी रहे एवुं आश्चर्यकारी वस्तुनुं सत्स्वरूप छे. द्रव्य अविनाशी, पर्याय विनाशी-एम द्रव्य-पर्याय बन्ने सर्वथा एक नथी. त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यना लक्षे श्रद्धा-ज्ञान-रमणतारूप जे एनी निर्मळ दशा प्रगटी छे ते मोक्षदशानुं कारण खरुं, पण ते दशा पोते तो मोक्षदशा थतां व्यय पामी जशे, ज्यारे द्रव्य टकीने त्रिकाळ ऊभुं रहेशे. आ प्रमाणे द्रव्य अने पर्याय एम वस्तुना बन्ने अंशोमां भिन्नता छे. अहो! आवुं वस्तुस्वरूप समजतां अंशबुद्धि टळीने द्रव्यद्रष्टि थाय छे.

जुओ, आत्मामां एक पर्यायअंश छे; अज्ञान टळीने ज्ञान थवुं, अशुद्धता टळीने शुद्धता थवी इत्यादि नवुं नवुं कार्य पर्यायमां ज थाय छे. त्यां जे पर्यायनुं अस्तित्व ज न माने तेने तो नवुं कांई कार्य थतुं ज नथी, अर्थात् तेने पोताना अज्ञानभावने कारणे संसार मटतो ज नथी. वळी कोई एकली पर्याय सामुं ज जोया करे ने द्रव्यना शुद्धस्वभावनुं लक्ष न करे तेने पण अशुद्धता टळीने शुद्धता थती नथी. पर्यायनी शुद्धता तो त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यना आश्रये थाय छे; द्रव्यस्वभावमां अंतर्मुख एकाग्र थया वगर पर्यायनी शुद्धता थती नथी. द्रव्यने न माने तोय शुद्धता न सधाय, ने पर्यायने न माने तोय शुद्धता न सधाय. एकांते पर्यायने ज वस्तु मानी ले तो पर्यायनो व्यय थतां ज वस्तुनो नाश-अभाव थई जाय. पण


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एवुं वस्तुस्वरूप नथी. वळी पर्याय न मानतां वस्तुने एकांते नित्य-कूटस्थ माने तो पर्यायरूप पलटना विना नवुं कार्य बनी शके ज नहि, अने तो तेना संसारनो अभाव न थाय. आ प्रमाणे वस्तुमां द्रव्य-पर्याय-एम बन्ने अंशो एकी साथे रहेला छे अने ते बन्नेमां कथंचित् भिन्नपणुं छे एवो स्याद्वाद मत छे. समजाणुं कांई..?

अहीं कहे छे-मोक्षमार्गनी जे पर्याय छे ते त्रिकाळी द्रव्यथी कथंचित् भिन्न छे. जुओ, पर चीज तो आत्माथी सर्वथा जुदी छे. आ शरीर, मन, वचन इत्यादि आत्माथी सर्वथा जुदां छे, कर्म पण आत्माथी सर्वथा जुदां छे. अहीं कहे छे- पोतामां जे द्रव्य- पर्यायना अंशो छे तेओ पण परस्पर कथंचित् भिन्न छे. अहो! आ तो भेदज्ञाननी चरम सीमारूप सर्वोत्कृष्ट वात छे. जेना अंतरमां बेसी ते न्याल थई जाय एवी आ वात छे.

हवे कहे छे-“माटे आम ठर्युंः- शुद्धपारिणामिकभावविषयक (शुद्ध पारिणामिक- भावने अवलंबनारी) जे भावना ते-रूप जे औपशमिकादि त्रण भावो तेओ समस्त रागादिथी रहित होवाने लीधे शुद्ध-उपादान-कारणभूत होवाथी मोक्षकारण (मोक्षनां कारण) छे, परंतु शुद्ध-पारिणामिक नहि (अर्थात् शुद्धपारिणामिकभाव मोक्षनुं कारण नथी)”

ओहो! वस्तु-भगवान आत्मा नित्यानंद सच्चिदानंद प्रभु सदा एक ज्ञायकभावपणे छे; तेने शुद्धपारिणामिकभाव, कहे छे. ते पारिणामिकभाव, अहीं कहे छे, मोक्षनुं कारण नथी. झीणी वात छे प्रभु! तेने मोक्षनुं कारण कहेवुं ए व्यवहारनय छे. बाकी मोक्षनी पर्याय जे प्रगटे छे तेनुं शुद्ध द्रव्य वास्तवमां कारण नथी. अहा! जेम द्रव्य त्रिकाळी सत् छे तेम पर्याय पण सहज सत् छे; आवुं वस्तुनुं स्वरूप छे. राग परिणाम हो के वीतराग परिणाम हो, ते परिणाम ते ते काळे सहज सत् छे. हवे ज्यां आम छे त्यां व्यवहारथी-रागथी निश्चय थाय ए वात क्यां रही?

व्यवहाररत्नत्रय करतां करतां मोक्ष थशे एवी वातो अत्यारे चाले छे पण ते यथार्थ नथी. दया करो, व्रत करो, दान, भक्ति, पूजा करो इत्यादि प्ररूपणा अत्यारे चाले छे, पण भगवान! ए तो बधी रागनी क्रियाओ छे. राग छे ए उदयभाव छे, बंधनुं कारण छे; ते मोक्षनुं कारण केम थाय? न थाय. अत्यारे आ बधो मोटो गोटो उठयो छे. पण बापु! पोते पूर्णानंदनो नाथ प्रभु सदा शांतभाव-आनंदभावपणे अंतरमां बिराजे छे तेना लक्षे परिणमतां स्वतंत्रपणे ज पोताना षट्कारकरूप परिणमन वडे निर्मळ रत्नत्रयनी पर्याय प्रगट थाय छे. अहा! ते पर्यायने व्यवहाररत्नत्रयनी-रागनी अपेक्षा नथी. व्यवहारनी अपेक्षा विना ज निरपेक्षपणे निश्चय मोक्षमार्गनी पर्याय पोताना षट्कारकपणे परिणमती प्रगट थाय छे. आवी


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झीणी वात छे प्रभु! (एम के उपयोगने झीणो कर तो समजाय एवो प्रभु तुं छे).

भाई! आत्मा त्रिकाळी शुद्ध वस्तु जे छे ते परिणमती नथी. समयसार गाथा २८० ना भावार्थमां आव्युं छे के-“आत्मा ज्ञानी थयो त्यारे वस्तुनो एवो स्वभाव जाण्यो के-आत्मा पोते तो शुद्ध ज छे- ‘द्रव्यद्रष्टिए अपरिणमनस्वरूप छे. पर्यायद्रष्टिए परद्रव्यना निमित्तथी रागादिरूपे परिणमे छे;’ माटे हवे ज्ञानी पोते ते भावोनो कर्ता थतो नथी. उदयो आवे तेमनो ज्ञाता ज छे.” अहा! सम्यग्द्रष्टि एने कहीए के जे व्यवहाररत्नत्रयना रागनो कर्ता के भोक्ता थतो नथी केमके पर्याये ते ज्ञानभावे परिणमी रह्यो छे ने द्रव्य जे छे ते तो अपरिणमनस्वरूप छे. आवी आ परमात्माना घरनी वातु छे भाई!

अहाहा....! अंदर वस्तु जे चिद्घन ध्रुव छे ते परिणमन विनानी सदा एकरूप छे; तेमां परिणमन ज नथी. अने बदलती चीज जे (विकारी के निर्विकारी) पर्याय छे ते एक समयनुं सत् छे. आ रागादि विकारना जे परिणाम थाय छे ते पण जड कर्मनी अपेक्षा विना स्वतंत्रपणे प्रगटता पोताना षट्कारकरूप परिणाम छे.

त्यारे केटलाक कहे छे-कर्मथी शुं विकार न थाय? कर्मथी विकार न थाय तो ते स्वभाव थई जशे.

अरे भाई! कर्म तो बिचारां जड अजीव छे, परद्रव्य छे; ए तो स्वद्रव्यने अडतांय नथी. ज्यां आम छे त्यां परद्रव्यथी-कर्मथी स्वद्रव्यनी विकारी पर्याय केम थाय? न थाय. (कर्मथी विकार थयो एम कहेवुं ए तो निमित्तनुं ज्ञान करावतुं निमित्तप्रधान कथन छे).

मिथ्यात्वादि भाव जे थाय छे तेने जीव स्वतंत्रपणे पोतानी पर्यायमां उत्पन्न करे छे. त्रिकाळी जीवद्रव्य एनुं कारण नहि, तेम परद्रव्य-कर्म पण एनुं कारण नहि. ए मिथ्यात्वभावनो कर्ता मिथ्यात्व पर्याय छे. मिथ्यात्वनी पर्याय ते कर्ता, मिथ्यात्वनी पर्याय ते कर्म, मिथ्यात्वनी पर्याय पोते साधन, मिथ्यात्वना परिणाम पोते संप्रदान, मिथ्यात्वमांथी मिथ्यात्व थयुं ते अपादान अने मिथ्यात्वना आधारे मिथ्यात्व थयुं ते अधिकरण; आ प्रमाणे मिथ्यात्वनी विकारी पर्याय कर्ता-कर्म आदि पोताना षट्कारकथी स्वतंत्रपणे उत्पन्न थाय छे; एने निमित्तनी के कर्मना कारकोनी कोई अपेक्षा नथी.

जुओ, विकारनी पर्यायने जीव करे एवो एनो स्वभाव नथी, केमके जीवमां एवी कोई शक्ति नथी जे विकारने करे. शुं कीधुं? आत्मामां ज्ञान, दर्शन, आनंद, अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रभुत्व आदि अनंत अनंत शक्तिओ भरी छे; पण एमां एवी कोई शक्ति नथी जे विकारने उत्पन्न करे. शक्तिओ तो बधी निर्मळ ज निर्मळ छे.

तो पर्यायमां विकार तो थाय छे?


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हा, पर्यायमां जे विकार थाय छे ते स्वतंत्र ते समयना षट्कारकना परिणमनथी थाय छे. जीवद्रव्य एनुं कारण नहि ने निमित्त-कर्म पण एनुं वास्तविक कारण नहि. पंचास्तिकाय गाथा-६२ मां आ वात आवी छे. लोकोने बेसवी कठण पडे छे पण आ सत्य वात छे.

तेवी रीते मोक्षमार्गनी जे पर्याय छे, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निर्मळ रत्नत्रयनी जे पर्याय छे ते निश्चयथी ते ते काळे पोताना षट्कारकना परिणमनथी उत्पन्न थाय छे. परमपारिणामिकभावलक्षण जे त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य-गुण छे एनी तेने अपेक्षा नथी; तेम दया, दान, व्रत, आदि व्यवहाररत्नत्रयनी पण एने अपेक्षा नथी. वीतरागनो मार्ग आवो सूक्ष्म छे भाई! रागनी क्रिया करतां करतां धर्म थाय ए वीतरागना मार्गमां नथी; ए तो अज्ञानी लोकोए कल्पना करीने ऊभी करेली वात छे. अरे! लोकोए मार्गने चूंथी नाख्यो छे!

भाई! मोक्षनो मार्ग के सम्यग्दर्शन आदि निर्मळ रत्नत्रयनी जे पर्याय प्रगट थई ते स्वतंत्र प्रगट थई छे, एने त्रिकाळी द्रव्यनी अपेक्षा नथी ने बाह्य व्यवहारना कारकोनी पण अपेक्षा नथी. सम्यग्दर्शननी पर्याय पोताना षट्कारकथी स्वतंत्र उत्पन्न थई छे. सम्यग्दर्शननी कर्ता सम्यग्दर्शननी पर्याय, एनुं कार्य ते पर्याय, एनुं साधन ते पर्याय, एनुं संप्रदान, अपादान ने अधिकरण पण ते पर्याय पोते ज छे. अहो! संतोए आडतिया थईने सर्वज्ञ परमात्माए कहेली वात जगत समक्ष जाहेर करी छे.

अहाहा...! आत्मा शुद्धपारिणामिकभावरूप सहजानंद चिदानंद प्रभु पूर्ण ज्ञान, पूर्ण आनंद, पूर्ण शांति, पूर्ण स्वच्छता, पूर्ण प्रभुता आदिथी पूरण शक्तिओथी भरेलो पूर्णानंदघन भगवान छे. तेने अवलंबनारी तेने विषय करनारी जे भावना छे, जेने उपशमादि भावत्रय कहीए ते, अहीं कहे छे, समस्त रागादिथी रहित छे. जुओ, शुं कीधुं? के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी निर्मळरत्नत्रयरूप जे भावना छे, जेने आगमभाषाए उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक-एम भावत्रयपणे कही अने अध्यात्मभाषाए ‘शुद्धात्माभिमुख परिणाम’ , ‘शुद्धोपयोग’ इत्यादि पर्यायसंज्ञाथी कही ते-

१. शुद्धपारिणामिकभावने अवलंबनारी छे. २. समस्त रागादिथी रहित छे. जुओ, आ टीका करनारा जयसेनाचार्यदेव छे. तेओ नग्न दिगंबर संत हता. अंदर आत्माना प्रचुर आनंदरसना स्वादमां रहेनारा तेओ वनमां रहेता हता. नवसो वर्ष पहेलां तेमणे आ टीका बनावी छे. टीकामां तेओ कहे छे-भगवान आत्मा त्रिकाळ चिदानंदघन नित्यानंद प्रभु छे; एना आश्रये, एना अवलंबे, एना लक्षे जे सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्रनी निर्मळ मोक्षमार्गनी पर्याय प्रगटे छे ते भावना


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रूप पर्याय समस्त रागादिथी भिन्न छे. ते भावनारूप पर्याय शुं छे? तो कहे छे- उपशमादि भावत्रयरूप छे. क्षायिकमां अहीं चोथा, पांचमा अने छठ्ठा गुणस्थानना क्षायिकभावनी वात छे, अहीं भगवान केवळीना क्षायिकभावनी वात नथी. चोथे गुणस्थाने पण क्षायिक समकित प्रगट थाय छे एनी अहीं वात छे.

श्रेणिक राजाने क्षायिक समकित हतुं. तीर्थंकर नामकर्म बांध्युं हतुं, पण पूर्वे नरकगतिनुं आयुष्य बंधाई गयेलुं तेथी पर्यायनी योग्यतावश नरकना संजोगमां गया छे. परंतु रागथी भिन्न पूर्णानंदस्वरूप निजपरमात्मद्रव्यनुं अंदरमां भान छे, अने आनंदनुं वेदन साथे छे. शीलपाहुडमां आवे छे के धर्मी जीवने नरकगतिमां पण शील छे. अहाहा...! पूर्णानंदना नाथने ज्यां अंतरमां ढंढोळीने जगाडयो अने सम्यग्दर्शन-ज्ञानने प्राप्त थयो त्यां तेनी साथे स्वरूपाचरणरूप स्थिरता पण जीवने होय ज छे. पोताना स्वरूपनी श्रद्धा, स्वरूपनुं ज्ञान ने स्वरूपनुं आचरण-ए त्रणे मळीने शील कहेवाय छे. शील एटले खाली शरीरथी ब्रह्मचर्य पाळवुं एनी आ वात नथी; ए तो एकली रागनी क्रिया छे, ज्यारे स्वरूपना श्रद्धान-ज्ञान-चारित्ररूप शील तो रागथी भिन्न छे. मार्ग तो आवो छे भाई!

जे शुभराग छे तेमां जेटलो अशुभराग टळ्‌यो ते शुद्धता छे एम कहेवुं ते बराबर नथी. सम्यग्दर्शन अने आत्मानो अनुभव थाय, पछी तेने शुभराग आवे छे अने एमां अशुभ टळे छे. पण शुभराग जे रहे छे तेनो क्रमे अभाव थईने पूर्ण अभाव थतां मोक्ष प्रगट थाय छे पण शुभराग रहे ने मोक्ष प्रगट थाय एम न बने. बापु! शुभराग छे ए तो बंधनुं ज कारण छे.

आ उपशमादि त्रण भावोने समस्त रागादिरहित कह्या छे. छे के नहि अंदर? भाई! कोईपण रागनो अंश मोक्षनो मार्ग होई शके ज नहि. जे भावथी तीर्थंकर- गोत्रकर्मनी प्रकृति बंधाय ते भाव पण राग छे अने बंधनुं ज कारण छे. ते राग उपशम, क्षयोपशम के क्षायिकभावरूप नथी. शुभराग छे ए तो उदयभाव छे, बंध परिणाम छे, ज्यारे उपशमादि भावत्रय छे ए मोक्षमार्गरूप छे, अबंध छे.

जुओ, सोलहकारण भावना सम्यग्द्रष्टिने ज होय छे, अज्ञानीने होती नथी. सम्यग्द्रष्टि धर्मात्माने षोडशकारणभावनानो राग आवे छे, पण ए बंधनुं ज कारण छे, ते कांई अबंध परिणाम नथी. अहीं तो आ चोकखी वात छे के मोक्षनो मार्ग जे त्रणभावमय छे ते समस्त रागादिथी रहित छे.

कोईने थाय के-धर्मी पुरुषने उपशमादि भाव वखतेय राग तो होय छे. तो तेने ‘समस्त रागादि रहित केम कह्या?’

भाई! जे उपशमादि निर्मळ भावो छे ते तो रागरहित ज छे; ते काळे


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धर्मीने राग हो भले, पण ए तो भिन्न उदयभावरूप छे, ए कांई उपशमादि भावमां समातो नथी. अंशे शुद्धता अने अंशे राग बन्ने एक साथे होवा छतां बन्ने भिन्न भिन्न छे. त्यां उपशमादि निर्मळभावो छे ते मोक्षनुं कारण छे अने जे कोई रागांश छे ते बंधनुं ज कारण छे, ते मोक्षनुं कारण जराय नथी. आ प्रमाणे मोक्षनुं कारण जे उपशमादि निर्मळ भावो छे ते तो समस्त रागरहित ज छे. समजाणुं कांई...?

शुद्धद्रव्य त्रिकाळ भावरूप, अने तेने अवलंबीने प्रगट थयेली परिणति ते भावना-ए बन्ने शुद्ध छे, पवित्र छे. जेम त्रिकाळी ध्रुव आत्मद्रव्यमां राग नथी तेम तेमां झुकेली परिणतिमां पण राग नथी. अहा! शुद्धात्मानी आवी भावना के जेमां शुद्ध चैतन्यभावनुं भवन थयुं होय ते परम अमृतस्वरूप छे. चोथा गुणस्थानथी आवी भावनापरिणति शरू थाय छे. उपशमादि त्रण भावो चोथा गुणस्थाने पण होय छे. सम्यक्त्व प्रगटवाना काळे, तेमज त्यारपछी पण कोईवार चोथा गुणस्थाने शुद्धोपयोग होय छे. ते सिवायना काळमां पण जेटली शुद्ध परिणति थई छे तेनुं नाम ‘भावना’ छे, ने ते मोक्षनुं साधन छे.

जो कोई एम कहे के चोथे गुणस्थाने शुद्धोपयोग होय नहि तो तेने समकित शुं चीज छे, भगवाननो मारग शुं छे-एनी खबर ज नथी. भाई! शुद्धोपयोग विना तने भगवाननो मार्ग हाथ नहि आवे. अंर्तशुद्धता विना एकला रागथी तुं मोक्षमार्ग मानी ले पण ते वीतरागनो मार्ग नथी. चोथे गुणस्थाने उपशम सम्यग्दर्शन शुद्धोपयोगपूर्वक ज थाय छे ए सिद्धांत छे. शुभराग वडे सम्यग्दर्शन थाय एम कदीय बनतुं नथी. शुद्धात्मभावना शुद्धद्रव्यने अवलंबनारी छे, रागने कदीय नहि. रागमां ए ताकात नथी के ते शुद्धद्रव्यने-स्वद्रव्यने भावी शके. रागनी मंदता वडे अंतःप्रवेश शक्य ज नथी तो ते वडे सम्यग्दर्शनादि केम थाय? न थाय. भाई! वीतरागनो मारग तो आवो रागरहित ज छे.

भगवान आत्मा जिनस्वरूप प्रभु छे. आवे छे ने के-

जिन सोही है आत्मा, अन्य सोही है कर्म;
यही वचनसे समज ले, जिनप्रवचनका मर्म.

आ आत्मा सदा जिनस्वरूप-वीतरागस्वरूप-परमात्मस्वरूप ज छे. जो पोते वीतरागस्वरूप न होय तो वीतरागता आवशे क्यांथी? भगवान अर्हंतदेवने वीतरागता ने केवळज्ञान प्रगट थयां ते आव्यां क्यांथी? शुं ते बहारथी आव्यां छे? ना; अंदर शक्तिमां वीतरागता के केवळज्ञान भर्यां छे ते प्रगट थयां छे. केवी रीते? शुद्धात्मभावनानी पूर्णता वडे. अहा! ते शुद्धात्मभावना जे मोक्षमार्गरूप छे ते, कहे छे, समस्त रागादिथी रहित छे, रागनो-विकल्पनो अंश पण एमां समातो नथी.


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जुओ, आ संस्कृत टीका छे. नवसो वर्ष पहेलां श्री जयसेनाचार्यदेवे आ टीका रची छे. एमां आवी चोकखी वात करी छे के शुद्धात्मभावना के जे त्रणभावरूप छे ते समस्त रागादिरहित होवाने लीधे शुद्ध उपादानकारणभूत होवाथी मोक्षनुं कारण छे. भाई! चोथा गुणस्थानमां पण जे निर्मळ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना परिणाम प्रगट थया ते रागादिरहित परिणाम छे. आ तो भगवान जिनचंद्र-जिनेश्वरनाथ सर्वज्ञ परमात्माना घरनी वात छे. बापु! श्री सीमंधर परमात्मा महाविदेहक्षेत्रमां तीर्थंकरपदे बिराजे छे; तेमनी दिव्यध्वनिमां आवेली सार-सार आ वात छे. अहो! दिगंबर संतोए आमां तो केवळज्ञाननो कक्को घुंटाव्यो छे.

कहे छे- आ भावना जे त्रणभावरूप छे ते समस्त रागादिरहित होवाना कारणे शुद्ध-उपादानकारणभूत होवाथी मोक्षनुं कारण छे. अहीं पर्यायरूप शुद्धउपादाननी वात छे. त्रिकाळी शुद्धउपादान के जे शुद्धद्रव्यार्थिकनयनो विषय छे ते तो पहेलां आवी गई छे. अहीं पर्यायना शुद्धउपादाननी वात छे.

उपशम, क्षयोपशम अने क्षायिक-ए त्रणे वीतरागी निर्मळ पर्यायो छे. ते वीतरागी पर्याय समस्त रागादिथी रहित शुद्धउपादानकारणभूत छे अने तेथी मोक्षनुं कारण छे. अहा! निर्मळ पर्याय पोते ज शुद्धउपादानकारणभूत छे. शुं कीधुं? ए पर्याय पोते ज पोतानुं उपादानकारण छे; अर्थात् पर्याय पोते ज पोतानुं कारण अने पोते ज पोतानुं कार्य छे. अहो! आ तो कोई अलौकिक शैलीथी वात छे. आवी वात भगवान केवळीना मार्ग सिवाय बीजे क्यांय नथी.

सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निर्मळ पर्यायनो विषय त्रिकाळी, द्रव्य छे. वर्तमान भावनारूप जे निर्मळ पर्याय ते शुद्ध त्रिकाळीने अवलंबे छे. धर्मनी दशा ने मोक्षनी दशा शुद्धपारिणामिकभावस्वरूप त्रिकाळीने अवलंबे छे, ते रागने अवलंबती नथी, तेम वर्तमान पर्यायने पण अवलंबती नथी. (निर्मळ) पर्यायनो विषय पर्याय नथी. सम्यग्दर्शननी पर्याय त्रिकाळीने अवलंबती थकी पोताना षट्कारकथी स्वतंत्रपणे प्रगट थाय छे. आ तो एकलुं अमृत छे भाई! अहो! आचार्यदेवे आ पंचमकाळमां अमृत रेडयां छे; ‘अमृत वरस्यां रे पंचमकाळमां.’

जुओ, नियमसारमां आचार्यदेवे एम कह्युं छे के-उपशम, क्षयोपशम अने क्षायिकभाव जे निर्मळ वीतरागी धर्मनी पर्याय छे तेने अमे परद्रव्य कहीए छीए. अहा! ते परभाव छे, परद्रव्य छे अने तेथी हेय छे एम त्यां कह्युं छे. शुं कीधुं? व्यवहाररत्नत्रयनो राग तो हेय छे ज, पण शुद्ध आत्मद्रव्यनी द्रष्टि थतां जेमां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे ते मोक्षमार्गनी निर्मळ पर्याय पण त्रिकाळी द्रव्यनी द्रष्टिए परभाव छे, परद्रव्य छे अने तेथी हेय छे एम कहे छे.


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एटले शुं? के ते पर्याय पण अवलंबनयोग्य नथी. अहाहा....! निर्मळ पर्यायने ते पर्यायनुं अवलंबन नथी. जेम राग आश्रययोग्य नथी तेम निर्मळ पर्याय पण आश्रययोग्य नथी.

अरे भाई! तुं दुःखी-दुःखी थईने चार गतिमां रझळी मर्यो छे. चारे गतिमां तने जे मिथ्यात्वना भाव रह्या ते संसार छे, बीजी चीज-बैरां-छोकरां, कुटुंब-कबीला वगेरे कांई संसार नथी. राग साथे एकत्वबुद्धिरूप मिथ्यात्वनो भाव ते ज संसार छे. बापु! तुं बैरां-छोकरां छोडे ने दुकान वगेरे छोडे एटले संसार छोडयो एम माने छे पण ए मिथ्या-जूठुं छे. मिथ्यात्वने छोडया विना संसार कदीय छूटे नहि. एम तो अनंतकाळमां तुं अनंतवार नग्न दिगंबर मुनि थयो, पण एथी शुं? छहढालामां आवे छे ने?

मुनिव्रत धार अनंत बार, ग्रीवक उपजायो;
पै निज आतमज्ञान बिना सुख लेस न पायो.

हवे आवी वात आकरी लागे छे एटले विरोध करे छे. पण भाई! त्रणकाळमां कदीय फरे नहि एवी आ परम सत्य वात छे. विरोध करो तो करो; पण तारा एवा परिणामथी तने बहु नुकशान थशे.

व्यवहार छे ते मोक्षनो मार्ग छे ज नहि, वास्तवमां ते बंधनुं ज कारण छे, मोक्षमार्ग बे नथी. एनुं निरूपण बे प्रकारे छे. निश्चय मोक्षनो मारग तो समस्त रागादिथी रहित छे ते शुद्ध उपादानकारणभूत छे. राग छे ते मोक्षमार्ग पण नहि अने तेनुं कारण पण नहि. आवी वात छे.

समाधितंत्र श्लोक ९१ ना विशेष अर्थमां लख्युं छे के-निमित्त होवा छतां, निमित्तथी निरपेक्ष उपादाननुं परिणमन होय छे. जयधवल-पृ. ११७, पुस्तक सातमुं एमां कह्युं छे के-

‘बज्झकारण–निरपेक्खो वत्थुपरिणामो’

वस्तुनुं परिणाम बाह्य कारणथी निरपेक्ष होय छे. आ वात समजवा द्रष्टांत आपीए छीएः

जुओ, दशमा गुणस्थाने लोभपरिणाम एक छे, छतां कर्मोनी स्थितिमां फेर पडे छे. निमित्तपणे लोभनुं एक ज कारण होवा छतां कोई कर्मनी स्थिति आठ र्मुहूर्तनी अने कोई कर्मनी स्थिति अंतर्मुहूर्तनी पडे छे. आनुं कारण शुं? ए तो नीचेना गुणस्थानोमां पण आम छे; आ तो लोभना छेल्ला परिणामनी वात करीए छीए. लोभना एक ज परिणाम निमित्तकारण होवा छतां कर्मना स्थितिबंधमां फेर पडे छे.


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नाम अने गोत्रकर्मनी स्थिति आठ मुहूर्तनी बंधाय छे, ज्यारे ज्ञानावरणीय- दर्शनावरणीयनो स्थितिनो बंध अंतःमुहूर्तनो पडे छे. आम केम? तो कहे छे-ते स्थितिबंधनी पर्याय स्वतंत्र छे, तेने कोई बाह्य कारणनी अपेक्षा नथी अर्थात् वस्तुनुं परिणाम बाह्य कारणथी निरपेक्ष होय छे.

अमे तो आ घणा वखतथी कहीए छीए. अमुक कर्मप्रकृतिमां परमाणु ओछां आवे छे, तो कोई कर्मप्रकृतिमां परमाणु घणां आवे छे; त्यां मिथ्यात्व अने रागादि परिणाम तो एक ज छे, छतां आम बने छे एनुं कारण शुं? बस आ ज के वस्तुनुं परिणाम बाह्य कारणथी निरपेक्ष छे. प्रत्येक कार्य अंतरंगकारणथी ज थाय छे, तेने बाह्य परकारणनी अपेक्षा छे ज नहि. अहाहा....! मोक्षनो मार्ग जे अंदर प्रगट थाय छे तेने बाह्यकारणनी-व्यवहाररत्नत्रयनी कोई अपेक्षा नथी; ते मोक्षना मार्गनी पर्याय शुद्ध उपादानकारणभूत छे. अहो! सर्वज्ञना केडायतीओए सर्वज्ञ थवानी आवी अलौकिक वात करी छे. जेनां परम भाग्य होय तेने ते सांभळवा मळे तेवी छे.

अहाहा..! कहे छे-शुद्ध एक ज्ञायकस्वभावने अवलंबनारी भावना रागादिरहित होवाने लीधे शुद्ध उपादानकारणभूत होवाथी मोक्षना कारणरूप छे. ते भावनाने बाह्यकारणनी-व्यवहारकारणनी अपेक्षा नथी. हवे आ सांभळीने ओला व्यवहारना पक्षवाळा राड पाडी जाय छे. तेओ कहे छे-निश्चय अने व्यवहार-एम बे मोक्षमार्ग छे.

अरे भाई! तने खबर नथी भगवान! पण निश्चयमोक्षमार्ग एक ज सत्यार्थ मोक्षमार्ग छे, व्यवहार मोक्षमार्ग ए कांई वास्तविक मार्ग नथी, ए तो उपचारमात्र छे; वास्तवमां तो ए राग छे, बंधनुं कारण छे. व्यवहारमोक्षमार्गने ज सत्यार्थ मोक्षमार्ग मानी अनंतकाळथी तुं रखडवाना पंथे चढी गयो छो. मार्गना यथार्थ स्वरूपने समज्या विना एकेन्द्रिय आदिमां अनंत अनंत अवतार धरीने तुं हेरान-हेरान थई गयो छुं प्रभु! जरा याद कर.

संवत १९८० नी सालमां संप्रदायमां बोटादमां हता त्यारे पंदरसो पंदरसो माणसो व्याख्यानमां आवता. बहारमां नाम प्रसिद्ध हतुं ने? तो हजारो माणसो सांभळवा आवता. त्यारे एकवार जाहेर सभामां कहेलुं के जे भावे तीर्थंकरगोत्र बंधाय ते भाव धर्म नहि. बहु आकरी वात! पण लोको सांभळता; अमारा उपर विश्वास हतो ने! तो सांभळता. ल्यो, ते वखते आ देहनी उंमर तो नानी हती, ते वखते आ वात मूकी हती के-समकितीने तीर्थंकरप्रकृतिनो बंध पडे, अज्ञानीने नहि; छतां समकिती जीवने तीर्थंकरप्रकृतिना कारणभूत जे परिणाम थाय ते परिणाम धर्म नथी. अहा! जे भावथी बंध थाय ते भाव धर्म के धर्मनुं कारण केम थाय? न थाय. भाई! मुनिराजने जे पंचमहाव्रतना परिणाम छे ते राग छे माटे ते आस्रवभाव


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छे, बंधनुं कारण छे. हवे आवी वात सांभळीने घणाने खळभळाट थई जाय छे, पण भाई! आ त्रिलोकीनाथ जैन परमेश्वरनी वाणीमां आवेली परम सत्य वात छे.

शुभभाव ज्ञानीने आवे छे खरो; अंदर आत्मज्ञान अने स्वानुभव जेने प्रगट थयां छे तेने क्रमे आगळ वधतां वच्चे यथायोग्य शुभभाव आवे छे, पण एनाथी धर्म थाय छे एम नथी. धर्म तो रागरहित शुद्धउपादानकारणभूत छे. शुभभाव छोडीने अंदर आत्मानुभवमां स्थिरता थाय त्यारे आगळ आगळनुं गुणस्थान प्रगटे छे. जुओ, छठ्ठे गुणस्थाने पांच महाव्रतनो विकल्प छे ते प्रमाद छे. तेने छोडीने, अंतरमां स्थिर थाय त्यारे सातमुं गुणस्थान प्रगट थाय छे. साधकने भूमिकायोग्य वचमां व्यवहार आवे छे खरो, पण तेने ते हेय छे.

नियमसारमां तो मोक्षमार्गनी पर्यायने पण हेय कही छे, केमके ते आश्रय करवायोग्य नथी. वस्तुस्थिति ज आवी छे बापु! कोईनी कल्पनाथी वस्तुस्थिति न बदली जाय. ओहो! वस्तु चिदानंदघन प्रभु अंदर त्रिकाळी सत् छे तेना लक्षे, तेना आश्रये, तेना अवलंबने जे शुद्धात्मभावना प्रगट थाय ते सर्वथा रागरहित छे अने शुद्ध उपादानकारणभूत छे. आवी वात संप्रदायबुद्धिवाळाने कठण पडे पण शुं थाय? हवे तो लाखो लोको आ वातने समजवा लाग्या छे.

जेने आ वात बेसती नथी ते प्ररूपणा करे छे के-व्रत लो, पडिमा धारण करो- एनाथी धर्म थई जशे. पण भाई! सम्यग्दर्शन विना पडिमा आवशे क्यांथी? हजु समकितनी दशा केवी होय अने ते केम प्रगटे एनीय जेने खबर नथी तेने पडिमा केवी? तेने व्रत केवां? अहीं तो आ एकदम चोकखी वात छे के मोक्षमार्गनी भावनारूप जे पर्याय छे ते रागरहित शुद्धउपादानकारणभूत छे. अर्थात् ते पडिमा आदिनी अपेक्षाथी रहित छे.

त्यारे केटलाक वांधा उठावे छे के- (कार्य) उपादानथी पण थाय अने निमित्तथी पण थाय.

भाई! तारी आ वात यथार्थ नथी. बे कारणथी कार्य थाय छे एम शास्त्रमां आवे छे, पण ए तो निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटे उपचारथी बीजी चीजने कारण कही छे, पण ते सत्यार्थ कारण छे एम छे नहि; सत्यार्थ कारण तो एक उपादानकारण ज छे. आ प्रमाणे मोक्षनो मार्ग अने तेनुं कारण एक ज प्रकारे छे.

चिद्दविलासमां पं. श्री दीपचंदजीए बहु सरस वात करी छे. तेओ कहे छे- पर्यायनुं कारण ते पर्याय ज छे. गुण विना ज (गुणनी अपेक्षा विना ज) पर्यायनी सत्ता पर्यायनुं कारण छे; पर्यायनुं सूक्ष्मत्व पर्यायनुं कारण छे, पर्यायनुं वीर्य पर्यायनुं कारण छे, पर्यायनुं प्रदेशत्व पर्यायनुं कारण छे. जेटलामां पर्याय उठे ते प्रदेश पर्यायनुं कारण छे, ध्रुवना प्रदेश नहि. आवी वात छे! समजाय छे कांई....?


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जुओ, आत्माना पांच भावोमां कया भाव मोक्षनुं कारण छे एनी आ वात चाले छे. त्यां कहे छे-शुद्ध एक चैतन्यस्वभावनी भावनाथी प्रगटेला औपशमिक आदि त्रण भावो मोक्षनुं कारण छे, ने ते त्रणे भावो रागरहित शुद्ध छे. राग छे ते औदयिकभाव छे अने ते मोक्षना कारणभूत नथी. आ प्रमाणे अस्ति-नास्तिरूप मोक्षमार्गनुं स्वरूप कह्युं. आवा मोक्षमार्गनी शरूआत चोथा गुणस्थानथी थाय छे. शुद्ध आत्म-द्रव्यनुं अवलंबन चोथे गुणस्थानेथी शरू थाय छे. त्यां जेटलुं शुद्धात्मानुं अवलंबन तेटली शुद्धता छे; ने ते शुद्धताने ज उपशमादि भावत्रय कहे छे, उदयभाव-रागभाव तो एनाथी बहार ज छे.

पण ते काळे राग छे तो खरो? छे ने? ते काळे राग हो, पण तेथी शुं? आखी दुनिया छे, पण एनाथी ज्ञान जुदुं छे, ज्ञान तेने करतुं नथी; तेम रागनेय ज्ञान करतुं नथी, भोगवतुं नथी, जाणे ज छे. भाई! समकितीने सम्यक्त्वादि जे निर्मळ निर्मळ भावो छे ते रागथी मुक्त ज छे, भिन्न ज छे. अहो! भगवान आत्मा तो भिन्न हतो ज, ने परिणति स्वाभिमुख थई त्यां ते पण रागथी भिन्न ज थई. भाई! राग रागमां हो, पण राग ज्ञानमां नथी, केमके ज्ञाने रागने ग्रह्यो नथी, राग ज्ञानमां जणातां ‘आ राग हुं’ -एम ज्ञाने रागने पकडयो नथी. ‘हुं तो ज्ञान छुं’ -एम ज्ञान पोताने ज्ञानपणे ज वेदे छे. आवा वेदनमां साथे आनंद छे, पण एमां राग नथी. समजाणुं कांई...?

अरे जीव! मोक्षना कारणरूप तारी निर्मळदशा केवी होय तेने ओळख तो खरो! अहा! तारी स्वरूपसंपदाने ओळखतां ते प्रगट थाय छे. भाई! मोक्षना कारणरूप ते दशा-

-शुद्ध एक परमस्वभावभावने ज अवलंबनारी छे, परने ने रागने

अवलंबनारी नथी.

-देह, मन, वचन आदि जगतना सर्व अन्यपदार्थोथी भिन्न छे. -पुण्य-पाप आदि भावकर्मथी पण भिन्न छे. तेमां रागनो एक कण पण

समातो नथी.

-शुद्ध उपादानकारणभूत छे. अहा! मोक्षना कारणरूप ते दशा स्वरूपनां श्रद्धान-ज्ञान-रमणता आदि निजभावोथी भरपूर छे. अहो! समकितीने स्वावलंबे प्रगटेली चैतन्यसंपदा आगळ जगतनी जडसंपदा कांई नथी ; केमके पुण्यने आधीन ए जडसंपदा परमसुखमय मोक्षने देवा समर्थ नथी. आवी वात छे.


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बापु! वीतरागनो मारग रागथी सदाय अनेरो छे. चोथे गुणस्थाने शुद्धतानो जे अल्प अंश प्रगट थयो तेमां पण रागनो अभाव ज छे. शुद्धतामां राग नहि, ने रागमां शुद्धता नहि; बन्नेनी जाति ज भिन्न छे. सम्यग्द्रष्टिने द्रव्यमां राग नहि, गुणमां राग नहि ने जे निर्मळ परिणति थई तेमांय राग नहि; आम तेने द्रव्य- गुण-पर्याय त्रणेय रागरहित शुद्ध वर्ते छे. अभेद एक ‘शुद्ध’ ने भावतां तेने शुद्धतानुं परिणमन थया करे छे. आवी शुद्धतानी पूर्णता थाय ते मोक्ष; अने अंशे शुद्धता ते मोक्षमार्ग, श्रीमदे कह्युं छे ने के-

मोक्ष कह्यो निज शुद्धता; ते पामे ते पंथ.

आ प्रमाणे कारण-कार्य एक जातिनां ज होय छे. शुभराग कारण थईने अशुद्ध कार्यने ज करे. पण ते शुद्ध कार्यने करे एम कदीय ना बने. शुद्ध कार्यनुं कारण तो शुद्ध ज होय, रागरहित ज होय. हवे आम छे त्यां कोई बहारमां जडनी क्रियाओ थाय एने मोक्षनुं कारण माने ए तो नरी मूढता ज छे.

समकितीने जेटली स्व-आश्रये शुद्ध उपादानरूप परिणति थई छे तेटलुं मोक्षनुं कारण छे. त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य के जे ध्रुवभावरूप छे, अक्रिय छे ते मोक्षनुं कारण थतुं नथी, वळी शुद्धद्रव्यथी विमुखपणे वर्तता भावो पण मोक्षनुं कारण नथी थता; शुद्धद्रव्यनी सन्मुख थईने वर्तता निर्मळ भावो ज मोक्षनुं कारण थाय छे. आ प्रमाणे अहीं पर्यायमां कारण-कार्यपणुं कह्युं छे. एम तो ते-ते समयनी पर्याय शुद्धद्रव्यने अवलंबीने पोते पूरण शुद्धपणे प्रगटे छे, पूर्व पर्यायमांथी ते नथी आवती. पण पूर्वे आटली शुद्धिपूर्वक ज पूर्ण शुद्धता थाय छे तेथी तेमनामां कारण-कार्यपणुं कह्युं, अने तेनाथी विरुद्धभावोनो निषेध कर्यो. आ प्रमाणे कया भावथी मोक्ष सधाय छे ते बताव्युं.

अहीं कहे छे-शुद्धात्मभावना के जे औपशमिकादि भावत्रयरूप छे ते मोक्षनुं कारण छे, परंतु शुद्ध पारिणामिकभाव मोक्षनुं कारण नथी. हवे आ वाणिया माल लेवा जाय त्यां तो कसी-कसीने माल खरीदे पण अहीं धर्मनी वात आवे तेमां ‘जयनारायण’ एम हा जी हा करे. पण भाई! आ तो त्रिलोकीनाथ जैन परमेश्वरनी सर्वज्ञदेवनी वाणी छे. अहा! जेमनी सभामां इन्द्रो, मुनिवरो, गणधरो बिराजता होय, जेमनी वाणी नाग अने वाघ पण सांभळता होय ते वाणी केवी होय बापु! दया करो, व्रत पाळो, भक्ति करो एवी वात तो कुंभारेय करे छे; एमां शुं नवुं छे? प० वर्ष पहेलां तो एवो रिवाज हतो के श्रावण मास आवे एटले कुंभार निभाडा बंध करे, घांची घाणी न चलावे इत्यादि. पण भाई! ए कांई धर्मना परिणाम नथी.

अहीं कहे छे-मोक्षना मार्गरूप जे निर्मळ रत्नत्रयनी पर्याय छे ते मोक्षनुं


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कारण छे, परंतु त्रिकाळी शुद्धद्रव्य छे ते मोक्षनुं कारण नथी. अहाहा...! भगवान आत्मा जेने कारणजीव, कारणपरमात्मा कहीए ते चिदानंदघन प्रभु, अहीं कहे छे, मोक्षनुं कारण नथी. भाई! ज्यां जे पद्धत्तिथी वात होय ते यथार्थ समजवी जोईए. जो त्रिकाळीभावरूप कारणपरमात्मा मोक्षनुं कारण होय तो मोक्षरूप कार्य सदाय होवुं जोईए, केमके द्रव्य तो सदाय विद्यमान छे. परंतु मोक्षकार्य तो नवुं प्रगटे छे. माटे तेनुं कारण त्रिकाळी शुद्धद्रव्य नथी पण पर्याय छे. अहाहा...! कारणपरमात्मद्रव्य सदाय शुद्ध छे; एनुं भान करीने पर्याय ज्यारे एनी भावनारूप परिणमी, एमां एकाकार थई परिणमी त्यारे ते शुद्ध थईने मोक्षनुं कारण थई. आ प्रमाणे मोक्षनुं कारण-कार्य पर्याय छे, शुद्ध द्रव्य नहि.

जुओ, एक फेरा एक प्रश्न थयेलो के-तमो कारणपरमात्मा अनादिथी विद्यमान छे एम कहो छो तो तेनुं कार्य केम नथी आवतुं? एम के कारण कहो छो तो एनुं कारण आववुं जोईए ने?

समाधानः– त्यारे कह्युं, -भाई! कारणपरमात्मा तो त्रिकाळ सत् छे. पण तें एनुं अस्तित्व क्यां मान्युं छे? एनो स्वीकार कर्या विना पर्यायमां एनुं कार्य क्यांथी आवे? पर्याय ज्यारे स्वाभिमुखपणे वर्ते छे त्यारे एनुं कार्य आवे ज छे. कार्य तो पर्यायमां आवे ने? पण स्वाभिमुख थाय त्यारे. आवी वात छे. आ प्रमाणे स्वाभिमुख पर्याय मोक्षनुं कारण थाय छे, त्रिकाळी शुद्धद्रव्य नहि; केमके द्रव्य तो अक्रिय अपरिणामी छे. समजाय छे कांई...?

आ प्रमाणे मोक्षनुं कारण दर्शावीने शक्तिरूप ने व्यक्तिरूप मोक्षनी चर्चा करे छे; कहे छे-

‘जे शक्तिरूप मोक्ष छे ते तो शुद्धपारिणामिक छे, प्रथमथी ज विद्यमान छे. आ तो व्यक्तिरूप मोक्षनो विचार चाले छे.’

अहाहा...! भगवान आत्मा शुद्ध शक्तिरूप त्रिकाळ मोक्षस्वरूप अबंधस्वरूप छे. समयसार गाथा १४-१प मां आत्माने ‘अबद्धस्पृष्ट’ कह्यो छे. अबद्ध कहो के मुक्त कहो- एक ज वात छे. भाई! त्रिकाळी द्रव्यस्वभाव सदा मुक्तस्वरूप ज छे. गजब वात छे भाई! कहे छे-शक्तिरूप मोक्ष छे ते तो शुद्धपारिणामिक छे. अहा! भगवान आत्मा तो शक्तिए-स्वभावथी त्रिकाळ मोक्षस्वरूप प्रथमथी ज विद्यमान छे. जोयुं? एनो मोक्ष करवो छे एम नहि, त्रिकाळ मोक्षस्वरूप ज छे, प्रथमथी ज मोक्षस्वरूप छे.

१प मी गाथामां कह्युं छे के-जे कोई आत्माने अबद्ध-स्पृष्ट देखे छे ते सकल जिनशासनने देखे छे. जुओ आ जैनधर्म! भगवान आत्मा राग अने कर्मना


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संबंधथी रहित अबद्धस्पृष्ट छे. अहा! आवा शुद्ध चिदानंद भगवानने जेणे अंतर्मुख थई अनुभव्यो ते, कहे छे, सर्व जिनशासनने देखे छे -के जे बाह्य द्रव्यश्रुत तेमज अभ्यंतर ज्ञानरूप भावश्रुतवाळुं छे. अहा! जे पुरुषे निज शुद्धोपयोगमां आत्मानुभव करीने मोक्षमार्ग प्रगट कर्यो एणे सकळ जिनशासन जोयुं. आवुं जिनशासन एक वीतरागभावरूप छे.

अहा! श्री जयसेनाचार्यदेव वीतरागी संत मुनिवर कहे छे-मोक्षना बे प्रकारः एक शक्तिरूप मोक्ष, बीजो व्यक्तिरूप मोक्ष. त्यां पर्यायमां परिणमन थईने आत्मानो पूर्ण लाभ व्यक्तरूपे प्राप्त थवो ते व्यक्तिरूप मोक्ष छे. अने वस्तु जे शुद्धपारिणामिकस्वभावे छे ते शक्तिरूप मोक्ष त्रिकाळ छे. त्रिकाळ परमस्वभावभावरूप जे शुद्ध शक्तिरूप मोक्ष छे तेमां मोक्ष करवो छे एम नथी. ए तो प्रथमथी ज मोक्षस्वरूप छे. अने तेनो आश्रय करीने पर्याय जे परिपूर्णस्वभावे प्रगट थाय ते व्यक्तिरूप मोक्ष छे. आवुं बहु झीणुं भाई! अजाण्या माणसने तो ग्रीक-लेटिन जेवुं लागे. भाई! फुरसद लईने आनो परिचय करवो जोईए; आ तो वीतरागनो मारग छे बापा!

अहीं कहे छे-शक्तिरूप मोक्ष शुद्धपारिणामिक त्रिकाळ छे, ते प्रथमथी ज विद्यमान छे; आ तो व्यक्तिरूप मोक्षनो विचार चाले छे. अहा! अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख अने अनंतवीर्य-एम अनंतचतुष्टय प्रगट थयां ते व्यक्तरूप मोक्ष छे अने ते मोक्षमार्गनी पर्यायथी प्राप्त थाय छे. ए मोक्ष द्रव्यथी प्राप्त न थाय एम अहीं कहेवुं छे. दुनियाने आ गोठे नहि एवी वात छे, पण भाई रे! पर्यायमां जे मोक्ष थाय छे ए मोक्षमार्गना कारणथी थाय छे, पर पदार्थ एनुं कारण नथी, तेम त्रिकाळी द्रव्य पण एनुं कारण नथी. वास्तवमां तो ते-ते पर्यायनुं शुद्ध उपादान ज ते पर्यायनुं (-मोक्षनुं) कारण छे. समजाय छे कांई...?

मोक्षमार्गनी पर्यायने अहीं मोक्षनुं कारण कह्युं छे ए पण अपेक्षाथी वात छे; मोक्षमार्गनी जे पर्याय छे ते व्यय थईने मोक्षनी पर्याय प्रगट थाय छे, पण एम नथी के जोर करीने ते मोक्षनी पर्यायने उत्पन्न करी दे छे वा करावी दे छे. आवी वात छे.

आत्मानो त्रिकाळी ध्रुवस्वभाव अने एना आश्रये प्रगट थतो मोक्षमार्ग समजावीने अहो! आचार्य भगवाने अंतरनो खजानो खोली दीधो छे. हे भाई! तारो चैतन्यखजानो अंदर मोक्षस्वभावथी भरपूर छे. एमां अंदर उतरीने एमांथी जोईए एटलुं काढः सम्यग्दर्शन काढ, सम्यग्ज्ञान काढ, सम्यक्चारित्र काढ, केवळज्ञान काढ अने मोक्ष काढ. अहा! सदाकाळ एमांथी पूर्ण ज्ञान ने पूर्ण आनंद लीधा ज कर;


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तारो खजानो खूटे एम नथी. अहा! तारुं आत्मद्रव्य अविनाशी अनंतगुणस्वभावथी भरेलुं सदा मोक्षस्वरूप ज छे. ‘तुं छो मोक्षस्वरूप.’ अहा! आवा निज स्वभावनुं ज्ञान- श्रद्धान थयुं तेने मोक्ष प्रगटतां शी वार! जेणे अंतरमां शक्तिरूप मोक्ष भाळ्‌यो तेने मोक्षना भणकार आवी गया ने तेने अल्पकाळमां ज व्यक्तिरूप मोक्ष थाय छे.

वस्तु-ध्रुव आत्मद्रव्य शक्तिरूप मोक्ष त्रिकाळ छे, अने एना आश्रये व्यक्तिरूप मोक्ष नवो प्रगटे छे. पर्यायमां मिथ्यात्व हो के सम्यक्त्व हो, बंधन हो के मोक्ष हो; द्रव्यस्वभाव तो त्रिकाळ मोक्षस्वरूप ज छे, तेमां बंधन नथी, आवरण नथी, अशुद्धता नथी के अल्पता नथी. अहाहा...! वस्तु तो सदा परिपूर्ण ज्ञानघन-आनंदघन प्रभु मोक्षस्वरूप ज छे. अहा! आवा निजस्वभावनुं अंतर्मुख थईने भान करनारने पर्यायमां बंधन टळीने पूरण शुद्ध मोक्षदशा थवा मांडे छे. अहो! आवो अलौकिक मोक्षनो मार्ग छे अने एनुं नाम धर्म छे.

हवे कहे छे- ‘एवी ज रीते सिद्धांतमां कह्युं छे के-“ निष्क्रियः शुद्धपारिणामिकः” अर्थात् शुद्धपारिणामिक (भाव) निष्क्रिय छे.’

जुओ, आ विशेष स्पष्ट करे छे के पारिणामिक ध्रुव स्वभावभाव जे छे ते मोक्षनुं कारण नथी केमके ते निष्क्रिय छे. अहाहा...! शुद्ध पारिणामिक शुद्धचेतनामात्र वस्तुमां द्रष्टि पडतां जे निर्मळ परिणमन थाय ते पर्याय मोक्षनुं कारण छे, पण शुद्धपारिणामिक वस्तु मोक्षनुं कारण नथी. केम नथी? तो कहे छे-ते उत्पाद-व्यय विनानी निष्क्रिय चीज छे. एमां बंधमार्ग के मोक्षमार्गनी क्रियाओ थती नथी एवी ते निष्क्रिय चीज छे. सूक्ष्म वात छे भाई!

परमार्थवचनिकामां पं. श्री बनारसीदासजीए कह्युं छे के-“ मोक्षमार्ग साधवो ए व्यवहार अने शुद्ध द्रव्य अक्रियरूप ते निश्चय छे.” वळी त्यां छेल्ले कह्युं छे के-“आ वचनिका यथायोग्य सुमतिप्रमाण केवळीवचनानुसार छे. जे जीव आ सांभळशे, समजशे, श्रद्धशे तेने भाग्यानुसार कल्याणकारी थशे.”

जुओ, आमां शुं कह्युं? के मोक्षमार्ग साधवो ते व्यवहार; आ व्यवहार मोक्षमार्ग ते व्यवहार एम नहि. भाई! व्यवहार मोक्षमार्ग ए तो मार्ग ज नथी; ए तो उपचारमात्र-कथनमात्र मार्ग छे; वास्तवमां तो ए राग होवाथी बंधरूप ज छे. भाई! आ तो सर्वज्ञ परमेश्वरथी सिद्ध थयेली वात छे, आ कांई कल्पनानी वात नथी.

“मोक्षमार्ग साधवो ते व्यवहार, ने शुद्ध द्रव्य अक्रिय ते निश्चय.” आमां शुद्धद्रव्यने अक्रिय कह्युं छे. अहा! वस्तु त्रिकाळी नित्यानंद ध्रुव प्रभु जे छे ते, कहे छे, अक्रिय छे. अहाहा....! जेमां मोक्षमार्गनी के मोक्षनी पर्याय पण नथी एवी त्रिकाळी


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ध्रुव अंर्त-वस्तु अक्रिय छे. एने अक्रिय कहो के निष्क्रिय कहो-एक ज वात छे.

द्रव्य त्रिकाळी ध्रुव सदा निष्क्रिय तत्त्व छे. तथापि एमां द्रष्टि करतां, एनो आश्रय करी परिणमतां शुद्ध अरागी-वीतरागी परिणमन थाय छे, तेने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र कहीए. ते मोक्षनो मार्ग छे. अहा! आवो मोक्षमार्ग साधवो ते व्यवहार. आ धर्मीनो व्यवहार ने धर्मीनी क्रिया छे. धर्मात्मा निर्मळ रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गने साधे छे, ए कांई व्यवहाररत्नत्रयने (-रागने) साधता नथी. मार्ग तो आ छे भाई!

अरे! आ जीव ८४ लाख योनिमां दुःखी दुःखी थईने रझळ्‌यो छे. अहा! एवो कोई शुभभाव थई जाय तो पुण्योदय वश ते बहार त्रसमां आवे छे. आम तो त्यां (एकेन्द्रियमां) जीवने क्षणमां शुभ ने क्षणमां अशुभ-एवा भाव निरंतर थया करे छे, पण मनुष्यगतिमां आवे एवा ए शुभभाव होता नथी. मनुष्यपणामां आवे एवा शुभभाव कोईकवार जीवने थाय छे. भाई! पुण्योदयवश तने मनुष्यपणुं मळ्‌युं ए अवसर छे. जो आ अवसरमां निज अंतःतत्त्व मोक्षस्वरूप आत्मवस्तुमां जाय तो समकित थाय, सम्यग्ज्ञान थाय, सम्यक्चारित्र थाय-मोक्षमार्ग थाय. पण अंदर न जाय तो? तो अवसर चाल्यो जाय अने बहार आवेला बीजा जीव जेम एकेन्द्रियमां चाल्या जाय छे तेम तुं पण सरवाळे एकेन्द्रियमां चाल्यो जाय. छहढालामां आवे छे ने के-

जो विमानवासी हू थाय, सम्यग्दर्शन बिन दुःख पाय;
तहतैं चय थावर तन धरै, यों परिवर्तन पूरे करै.

बहारमां तो लोको बाह्य व्यवहारनी-रागनी (जड) क्रियाओमां धर्म माने-मनावे छे. एक टंक खावुं के उपवास करवो ते तपस्या, अने ते तपस्या ते मुक्तिनुं कारण-आवुं बधुं संप्रदायमां हाले छे. अरे भगवान! आ तुं शुं करे छे? आखो मार्ग वींखी नाख्यो प्रभु! अहीं तो आ दिगंबर संतो पोकार करीने कहे छे के-त्रिकाळी सहजानंदस्वरूप अक्रिय आत्मवस्तु ते निश्चय अने तेना अवलंबने निर्मळ परिणमन मोक्षमार्ग साधवो ते व्यवहार. अहाहा... अक्रिय शुद्ध द्रव्य ते निश्चय अने तेना आश्रये मोक्षमार्ग साधवो ते व्यवहार छे. आवो मार्ग! भाई! आ जेम वस्तु छे तेम समजवी पडशे हों. बाकी बहारना झवेरात आदिना धंधा कांई काम आवे एम नथी. उलटुं एनी एकत्वबुद्धिए परिणमतां ए कागडे-कूतरे-कंथवे... क्यांय संसार-समुद्रमां गोथां खातो डूबी मरशे.

त्यारे केटलाक लोको दलील करे छे के-तमे कोई साथे वातचीत (वाद) करता नथी; तो तकरार (-विवाद) ऊभी राखवी छे शुं?


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अरे भाई! तुं शुं कहे छे आ? बापु! आ अध्यात्मनी वात वाद कर्ये समजाय एवी नथी. आ तो अंतर-परिणमनमां समजाय एवी चीज छे. जुओने, समयसार गाथा-११ ना भावार्थमां पं. श्री जयचंदजीए केवी खुलासाभरी सरस वात करी छे! के-

१. प्राणीओने भेदरूप व्यवहारनो पक्ष तो अनादिकाळथी ज छे,

२. अने एनो उपदेश पण बहुधा सर्व प्राणीओ परस्पर करे छे,

३. वळी जिनवाणीमां व्यवहारनो उपदेश शुद्धनयनो हस्तावलंब (सहायक) जाणी

बहु कर्यो छे;

४. पण एनुं फळ संसार ज छे.

ल्यो, हवे व्यवहार करतां करतां निश्चय थाय-एम व्यवहारनो पक्ष तो जीवोने अनादिथी ज छे. एकबीजाने उपदेश पण एवो ज करे छे के व्रत, तप, दान, भक्ति, पूजा इत्यादि करो... एनाथी परंपरा मोक्ष थशे; वळी शास्त्रोमां पण शुद्धनयने हस्तावलंब’ जाणी व्यवहारनो उपदेश घणो कर्यो छे. पण भाई! एनुं फळ संसार ज छे. आवी वात!

वळी त्यां कह्युं छे के-

१. शुद्धनयनो पक्ष तो कदी आव्यो नथी,

२. अने एनो उपदेश पण विरल छे-क्यांक क्यांक छे,

३. तेथी उपकारी श्री गुरुए शुद्धनयना ग्रहणनुं फळ मोक्ष जाणीने एनो उपदेश

प्रधानताथी दीधो छे के-

“शुद्धनय भूतार्थ छे. सत्यार्थ छे; एनो आश्रय करवाथी सम्यग्द्रष्टि थई शकाय छे; एने जाण्या विना ज्यां सुधी जीव व्यवहारमां मग्न छे त्यां सुधी आत्मानां ज्ञान- श्रद्धानरूप निश्चय सम्यक्त्व थई शकतुं नथी.” जुओ, गृहस्थाश्रममां रहीने आवो भावार्थ पंडित श्री जयचंदजीए लख्यो छे!

अहीं जयसेनाचार्यदेव कहे छे- ‘सिद्धांतमां एम कह्युं छे के शुद्धपारिणामिक (भाव) निष्क्रियछे. निष्क्रियनो शो अर्थ छे?’ तो कहे छे-

‘(शुद्धपारिणामिकभाव) बंधना कारणभूत जे क्रिया-रागादि-परिणति, ते-रूप नथी अने मोक्षना कारणभूत जे क्रिया-शुद्धभावना-परिणति, ते-रूप पण नथी. माटे एम जाणवामां आवे छे के शुद्ध-पारिणामिकभाव ध्येयरूप छे, ध्यानरूप नथी.’


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निष्क्रिय एटले शुं? जडनी अने परनी क्रिया विनानी चीज एनुं नाम शुं निष्क्रिय छे? आत्मा शरीर आदि परनी क्रिया न करी शके माटे ते निष्क्रिय छे शुं? तो कहे छे-ना; एम नथी. भाई! तुं जरा धीरो थईने सांभळ. बंधना कारणभूत जे क्रिया एटले के रागादि मलिन भाव ते-रूप शुद्धपारिणामिकभाव नथी तेथी तेने निष्क्रिय कहे छे. शुं कीधुं? आ पुण्य-पापना भाव जे थाय ते बंधना कारणरूप क्रिया छे अने तेनो शुद्धपारिणामिकमां अभाव छे तेथी तेने निष्क्रिय कह्यो छे. ते क्रिया पर्यायमां तो छे पण शुद्ध द्रव्यवस्तुमां नथी. माटे शुद्ध द्रव्यवस्तु निष्क्रिय छे. समजाणुं कांई...? भाई! आ तो जैनतत्त्व! बहु सूक्ष्म बापा!

लोकमां तो धर्मना नामे बीजुं (-रागनी क्रियाओ) चलावे तो चलावो, पण ए रीते संसारमां रखडवाना आरा नहि आवे. अहीं तो आ चोकखी वात छे के -निश्चय सम्यग्दर्शननुं ध्येय जे त्रिकाळी शुद्धद्रव्य ते रागरूप क्रियानी परिणतिथी भिन्न छे; अर्थात् रागनी कोई क्रियाथी ते पमाय एम नथी. ल्यो, हवे आवी वात! जैनमां जन्म्यां होय एनेय खबर न मळे! एक जैन त्यागी सांभळवा आवेला ते कहेता हता के-आवी वातनी अमने खबर नथी. अमारी बधी क्रियाओ फोगट गई.

जुओ, त्रिकाळी शुद्धपारिणामिक भाव निष्क्रिय छे एटले शुं-एनी वात चाले छे के बंधना कारणरूप जे क्रिया-रागादि परिणति ते-रूप शुद्धपारिणामिक भाव थतो नथी, तेम मोक्षना कारणरूप जे क्रिया-शुद्धभावनापरिणति ते-रूप पण शुद्ध पारिणामिक भाव थतो नथी. मोक्षना कारणरूप क्रिया छे ते निर्मळ निर्विकार शुद्ध भावनापरिणति छे. ते क्रियापणे त्रिकाळी शुद्धद्रव्य थतुं नथी, माटे ते निष्क्रिय छे. अहाहा...! सम्यग्दर्शननो विषय जे त्रिकाळी शुद्धद्रव्य ते सम्यग्दर्शननी क्रियापणे थतुं नथी, भाई! आ तो त्रिलोकीनाथ जैन वीतरागी परमेश्वरनी दिव्यध्वनिमां आवेलुं एकलुं अमृत छे. अहो! समयसार, प्रवचनसार इत्यादि द्वारा आचार्यदेवे एकलां अमृत वरसाव्यां छे! ‘अमृत वरस्यां रे पंचमकाळमां.’

जडनी क्रियाओ-बोलवुं, चालवुं, खावुं, पीवुं, लखवुं इत्यादि तो भगवान आत्मामां छे ज नहि. अहीं तो कहे छे-एनी पर्यायमां रागादि विकारनी जे क्रिया थाय छे ते क्रियारूपे शुद्धद्रव्य थतुं नथी, तथा एनी पर्यायमां मोक्षनी साधक जे ज्ञानभावरूप क्रिया थाय छे ते क्रियारूपे पण शुद्धद्रव्य थतुं नथी. अहा! जे एक ज्ञायकभाव छे ते तो ते ज छे, ते कदीय प्रमत्त-अप्रमत्तरूप थयो नथी. माटे, कहे छे, त्रिकाळी शुद्धद्रव्यअक्रिय छे. अहो! कोई अलौकिक शैलीथी वीतरागी संतोए शुद्धद्रव्यस्वभावनुं रहस्य खोल्युं छे. बापु! आ तो अंतरना निधान खोल्यां छे.

ए तो पहेलां आवी गयुं के “शुद्ध-उपादानभूत शुद्धद्रव्यार्थिक नये जीव


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कर्तृत्व-भोक्तृत्वथी तथा बंध-मोक्षना कारण ने परिणामथी शून्य छे” बंध अने बंधनुं कारण, मोक्ष अने मोक्षनुं कारण-ए चारेय चीज त्रिकाळी शुद्धद्रव्यमां नथी.

दया, दान, व्रत, तपना परिणाम ते बंधना कारणरूप क्रिया छे, ते आत्मद्रव्यमां नथी; अने शुद्धभावना परिणति जे निर्मळ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप छे ते मोक्षना कारणरूप क्रिया छे, ते पण आत्मद्रव्यमां नथी. माटे कहे छे, एम जाणवामां आवे छे के शुद्धपारिणामिकभाव ध्येयरूप छे. ध्यानरूप नथी.

आ शुं कीधुं? के शुद्धपारिणामिकभावरूप त्रिकाळी शुद्धद्रव्य नित्यानंद-चिदानंद प्रभु ते ध्याननुं ध्येय छे, ध्यान नथी. अहाहा...! जेमां निराकुळ आनंदनो स्वाद आवे एवा निर्मळ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट थवामां त्रिकाळी शुद्ध चिन्मात्र वस्तु एना ध्येयरूप छे, ध्यानरूप नथी, केमके त्रिकाळी वस्तु छे ते अक्रिय छे. हवे ध्येय शुं ने ध्यान शुं? - एनी खबरेय न मळे ने मंडी पडे ध्यान धरवा आसन लगावीने; धूळमांय ध्यान नथी सांभळने, ए तो बधी मिथ्या रागनी क्रिया छे.

अहीं कहे छे- शुद्धपारिणामिकभावरूप चिन्मूर्ति प्रभु आत्मा ध्याननुं ध्येय छे, ते ध्यानरूप नथी. पर्यायने कथंचित् द्रव्यथी भिन्न कहेल ने? ते वात अहीं सिद्ध करी छे.

अहाहा...! वस्तु त्रिकाळी छे ते शुद्धचैतन्यनो महा दरियो छे. ‘शुद्धचेतना सिंधु हमारो रूप है-एम आवे छे ने? अहाहा...! अनंत... अनंत...अनंत गुणनुं एकरूप दळ प्रभु आत्मा छे. ते, कहे छे, ध्येयरूप छे, ध्यानरूप नथी. सम्यग्दर्शननी पर्याय ध्यानरूप छे, अने त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य एनुं ध्येय छे, आत्मानुं स्वसंवेदनज्ञान ते ध्यानरूप छे अने त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य एनुं ध्येय छे, आत्मरमणता ध्यानरूप छे, अने त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य तेनुं ध्येय छे. ध्यान तो ध्येयमां एकाग्र थयेली पर्याय छे, ने ध्येय त्रिकाळ ध्रुवस्वभाव छे. ध्याननी पर्याय ध्येयने ध्यावे छे तोपण ध्येय छे ते ध्यानरूप नथी. अहो! आ अलौकिक वात छे.

भगवान! निज ध्येयने भूलीने पोतानी नजरने तें रागमां रोकी राखी छे, तेथी ध्येयरूप निज ज्ञानानंदनो दरियो तने देखातो नथी. अरे! नजरने वर्तमान पर्यायनी रुचिमां रोकी दीधी छे तेथी अनंतगुणनिधि शुद्धचेतनासिंधु एवो भगवान आत्मा तने भासतो नथी. अरे भाई! ध्यानरूप पर्याय राग वगरना निर्मळभाव रूप छे अने एनुं ध्येय परमस्वभावभावरूप त्रिकाळी शुद्ध आत्मद्रव्य छे. माटे रुचि पलटी नाख ने ध्रुवस्वभावमां उपयोगने स्थिर करीने तेने ध्याव. अहा! उपयोगने ध्येयमां एकाग्र करीने ध्यावतां जे ध्यान प्रगट थशे तेमां अतीन्द्रिय आनंदनी धारा उलसशे.