Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 320 Shree Amrutchandracharya.

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पर तरफ वळेली ज्ञाननी पर्यायमां पण खरेखर तो ज्ञायक ज जणाई रह्यो छे. आ वात आचार्यदेवे गाथा १७-१८ मां करी छे. ज्ञाननी पर्यायनो स्वपरप्रकाशक पणानो स्वभाव छे. तेथी वर्तमान ज्ञान-पर्यायमां जे आ वस्तु त्रिकाळ परम पारिणामिकभावे स्थित छे ते जाणवामां आवे छे. अज्ञानीने पण ते त्रिकाळी द्रव्य ज्ञानमां जणाय छे, पण एनी नजर एना उपर नथी. द्रष्टिनो फेर छे बापा! ध्रुवनी द्रष्टि करवाने बदले ते पोतानी नजर पर्याय उपर, राग उपर, निमित्त उपर ने बहारना पदार्थ उपर राखे छे अने तेथी तेने अंदरनुं चैतन्यनिधान जोवा मळतुं नथी.

अरे! आ पैसा-बैसामां क्यांय धूळेय सुख नथी. ए तो बापा! बधा धूळना ढगला छे; अने एनुं ध्यान करी परिणमतां एकला दुःखना ढगला छे. भाई! पंच महाव्रतना परिणामनो विकल्प उठे एय राग छे, दुःख छे, बंधनुं कारण छे. भाई! तुं एने भ्रमथी संवर मानी सेवे छे, पण आचार्यदेवे एने ‘तत्त्वार्थसूत्र’ मां आस्रवमां गण्या छे. भाई! आस्रवथी मने लाभ थाय एवी तारी द्रष्टि तने स्वरूपनां श्रद्धान-ज्ञान थवामां बाधक छे.

अहीं कहे छे- ‘शुद्धपारिणामिकभाव ध्येयरूप छे, ध्यानरूप नथी. शा माटे? कारण के ध्यान विनश्वर छे. (अने शुद्धपारिणामिकभाव तो अविनाशी छे)’

जोयुं? आ ध्यान छे ते पर्याय छे, ते औपशमिकादिभावरूप छे अने ते पलटी जाय छे तेथी ते पर्याय ध्येयरूप नथी. ध्येयरूप तो एक शुद्धपारिणामिकभाव छे केमके ते अविनश्वर छे, नित्य छे, शाश्वत छे, ध्रुव एकरूप छे; ते ध्यानरूप केम होय? भाई! आ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप जे मोक्षमार्गनी पर्याय छे ते नाशवंत छे, कारण के मोक्षदशा प्रगट थतां मोक्षमार्गनी पर्यायनो नाश थई जाय छे, व्यय थई जाय छे; माटे ते ध्येयरूप नथी. अने त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य नित्य अविनाशी होवाथी ध्येयरूप छे, पण ध्यानरूप नथी. ल्यो, आवी वात! भाषा तो सादी छे, पण भाव तो छे ते जे छे. कोई कहे छे के-सहेलुं करो. पण शुं सहेलुं करो? सहेलुं ज आ छे. तुं व्रत, तप, उपवास आदिना विकल्पने सहेलुं माने छे पण बापु! ए तो मार्ग ज नथी; ए तो बधी रागनी मंदतानी क्रियाओ छे अने ए तो रखडवानो मार्ग छे. समजाणुं कांई....?

ध्यानपर्याय विनश्वर छे. शुक्लध्याननी पर्याय पण विनश्वर छे. माटे ते ध्येय रूप नथी. , ध्येयथी भिन्न छे. श्री योगीन्द्रदेवे कह्युं छे के-

ण वि उपज्जइ ण वि मरइ बंधु ण मोक्खु करेइ।
जिउ परमत्थे जाइया जिणवर एउ भणेइ।। ६८।।

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अर्थात् हे योगी! परमार्थे जीव उपजतो पण नथी, मरतो पण नथी अने बंध- मोक्ष करतो नथी-एम श्री जिनवर कहे छे.”

ल्यो, श्री योगेन्द्रदेव शिष्य प्रति कहे छे-हे योगी! परमार्थे जीव उपजतो पण नथी, मरतो पण नथी. अहाहा....! वस्तु त्रिकाळी शुद्धद्रव्य जे छे ते आ नरकगति, मनुष्यगति, सिद्धगति... इत्यादि पर्यायमां परमार्थे उपजतो नथी, तेम मरतो पण नथी. गंभीर सूक्ष्म वात छे भाई! पासे पुस्तक छे ने! जुओ, एमां छे के नहि?

अहाहा...! कहे छे-खरेखर आत्मा एने कहीए जे एक समयनी पर्यायपणे उपजतो नथी, विणशतो पण नथी. नियमसारनी गाथा ३८ मां कह्युं छे के-त्रिकाळी ध्रुव एक ज्ञायकभावमात्र-शुद्धपारिणामिकभावमात्र वस्तु जे छे ते ज खरेखर आत्मा छे. पर्यायरूप आत्मा ए तो व्यवहार आत्मा छे, त्रिकाळीनी अपेक्षा ए अभूतार्थ-असत्यार्थ छे. आवी वात छे! जे उपजे छे, विणशे छे ते पर्याय-आत्मा अभूतार्थ छे. अहो! आ तो अलौकिक वात छे!

भाई! गणधर भगवाननां रचेलां शास्त्र केवां होय? अहा! केवळी परमात्माना श्रीमुखेथी जे ओम्ध्वनि नीकळी तेने सांभळीने चार ज्ञानना धरनारा श्री गणधरदेव अंतर्मुहूर्तमां बार अंग ने चौद पूर्वनी रचना करे छे. अहा! ते चीज केवी होय! भाई! ए कांई लौकिक वार्ता न होय. अहा! तेमां आ कहे छे के-नित्य ध्रुव एक चिन्मात्र वस्तुने अमे आत्मा कहीए छीए. आवो आत्मा एक समयनी पर्यायमां आवतो नथी. मोक्षमार्ग के मोक्षनी एक समयनी पर्यायपणे त्रिकाळी ध्रुव जे अंतःतत्त्व आत्मा छे ते उपजतो नथी, विणशतो नथी. ते पणे पर्याय उपजे छे, पण शुद्ध जीव उपजतो नथी.

हवे आवी वात कदीय सांभळी न होय एटले कोईने एम लागे के शुं जैननो मार्ग आवो हशे? वळी कोईने आ सांभळीने वेदांत जेवुं लागे, पण वेदांत वगेरेमां तो आ वात छे ज नहि. आत्मा एकांते नित्य एक सर्वव्यापक माने ए तो गृहीत मिथ्यादर्शन छे भाई! वेदांतादिवाळा पर्यायने क्यां माने छे? अनंत आत्माओने क्यां माने छे? अनंत परमाणुओने क्यां माने छे? अनंत गुणोने क्यां माने छे? भाई! एमां मूळ वस्तु-स्वरूपनी वात ज क्यां छे? तने वेदांत जेवुं लागे, पण बापु! वेदांतमां अने जैनमां मोटो (आसमान-जमीननो) फरक छे.

जीव परमार्थथी उपजतो नथी, मरतो पण नथी. तो आ उपजे-विणसे छे ते कोण छे? तो कहे छे-उपजवुं-विणसवुं जेमां थाय छे ते पर्याय छे. अहा! प्रत्येक


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द्रव्यनी पर्याय प्रगट थवानी जन्मक्षण छे. पर्यायनी उत्पत्तिनो स्वकाळ छे, ने ते ज काळे ते उत्पन्न थाय छे. आ वात प्रवचनसारमां आवे छे. त्यां पहेला अधिकारमां ज्ञानतत्त्वनुं निरूपण छे; बीजो ज्ञेय अधिकार छे. छए द्रव्यो ज्ञेय छे. तेनुं स्वरूप केवुं छे-एनी एमां वात छे. त्यां गाथा १०२मां द्रव्यमां पर्यायनी जन्मक्षण होवानी वात छे. एटले शुं? जे समये जे पर्याय द्रव्यमां थवानी होय ते समये ते ज पर्याय प्रगट थाय छे, ते पर्याय कांई आडी-अवळी न थाय, तेम बीजाने लईने पण ते न थाय. प्रत्येक पर्याय क्रमबद्ध पोताना अवसरे ज प्रगट थाय छे. त्यां ९९ मी गाथामां छे के-जे समये जे पर्याय थवानी होय ते तेना स्व-अवसरे प्रगट थाय छे, आडाअवळा अवसरे न थाय. आ मूळ वात छे. द्रव्यमां समस्त पर्यायो क्रमबद्ध ज पोतपोताना अवसरे प्रगट थाय छे.

हवे आमां लोको वांधा काढे छे. एम के पर्यायो क्रमबद्ध ज होय तो पछी पुरुषार्थ क्यां रह्यो?

भाई! तुं जरा धीरो थईने सांभळ. जीव ज्यारे स्वभावसन्मुख थईने स्वानुभव प्रगट करे छे त्यारे ज तेने क्रमबद्धपर्यायनो यथार्थ निर्णय थाय छे अने ए ज पुरुषार्थ छे. बाकी अज्ञानीने पुरुषार्थ छे ज क्यां? क्रमबद्ध नो निर्णय कहो के स्वभावसन्मुखतानो पुरुषार्थ कहो-एक ज वात छे. (क्रमबद्धना निर्णयवाळाने पुरुषार्थनो अभाव कदी होतो नथी, अने पुरुषार्थनो अभाव छे तेने क्रमबद्धनो यथार्थ निर्णय होतो नथी). अहीं आ कहे छे के- जे पुरुषार्थनी पर्यायथी केवळ ज्ञान उपज्युं ते पर्यायमां भगवान ध्रुवस्वभाव आवतो नथी. ल्यो, आवुं बधुं झीणुं छे.

वळी परमार्थे जीव बंध-मोक्षने पण करतो नथी. एवुं कोण कहे छे? तो कहे छे ‘जिणवर एउ भणेइ’ -भगवान जिनेश्वरदेव जेमणे एक सेकन्डना असंख्यात भागमां त्रणकाळ-त्रणलोक जोया ते सर्वज्ञ परमात्मा आम कहे छे.

जुओ, भगवाने एक समयमां त्रणकाळ-त्रणलोकने जोया एम कहेवुं ए पण व्यवहार छे. केवळज्ञाननी पर्यायमां त्रणकाळ-त्रणलोक जणाय एम कहेवुं ते व्यवहार छे, केमके ज्ञाननी पर्यायने जाणतां तेमां लोकालोक जणाई जाय छे, तेने जोवा जवुं पडतुं नथी; वा केवळज्ञान तेमां (लोकालोकमां) तन्मय थई जाणतुं नथी.

अहीं कहे छे-अनंता सर्वज्ञ परमात्मा एम फरमावे छे के जे त्रिकाळी ध्रुव नित्यानंद परमात्मद्रव्य छे ते बंध-मोक्षना परिणामने अने बंध-मोक्षना कारणने करतो नथी. केमके ए तो त्रिकाळ सद्रश एकरूप भाव छे ज्यारे बंध-मोक्षना परिणाम विसद्रश छे, भाव-अभावरूप छे. उत्पाद ते भाव ने व्यय ते अभाव छे, पण


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वस्तुमां-ध्रुवमां भाव-अभाव क्यां छे? नथी. माटे बंध अने बंधना कारणरूप रागादि परिणाम अने मोक्ष ने मोक्षना कारणरूप शुद्धभावनापरिणति-निर्मळ रत्नत्रय -एने शुद्धआत्मद्रव्य करतुं नथी.

कोईने एम थाय के-जो आत्मा बंध-मोक्षना भावने करतो नथी ते पछी आ दीक्षा केम? आ आनंदनी दशानुं परिणमन केम?

सांभळ, भाई! सांभळ. अनंता तीर्थंकरदेवोए आ कह्युं छे के परमार्थ जे निश्चय जीव छे ते कांई दीक्षाना परिणामरूपे के आनंदनी दशारूपे उपजतो नथी; तेम ते-ते दशानो व्यय थतां ते मरतो पण नथी. मनुष्यपणे उत्पाद अने देवगतिनो व्यय थाय त्यां-ए बन्ने उत्पाद-व्ययरूप अवस्थाओ छे खरी, पण ते-ते अवस्थाकाळे ध्रुव आत्मद्रव्य उत्पाद-व्ययरूप थतुं नथी, ते तो त्रिकाळ एकरूप शुद्ध ज्ञायकभावपणे ज रहे छे. आवुं ज द्रव्य-पर्यायरूप वस्तुस्वरूप छे.

‘जिणवर एउ भणेइ’ भगवान जिनेश्वरदेव दिव्यध्वनि द्वारा आम कहे छे के- बंध-मोक्षना परिणामने शुद्ध जीव करतो नथी; अर्थात् शुद्ध जीव नित्यानंद-चिदानंद प्रभु बंध-मोक्षनी पर्यायपणे थतो नथी. अहो! आवुं अलौकिक शुद्ध जीवतत्त्व ते सम्यग्दर्शननो विषय छे. शुं कीधुं? सम्यग्दर्शन सम्यग्दर्शननो विषय नथी, पण त्रिकाळी शुद्ध जीववस्तु सम्यग्दर्शननो विषय छे अने तेथी तेने मुख्य गणीने समयसारनी ११ मी गाथामां भूतार्थ कहेल छे. समजाणुं कांई.....? हवे कहे छे-

‘वळी ते स्पष्ट करवामां आवे छेः- विवक्षित-एकदेश शुद्धनयाश्रित आ भावना (अर्थात् कहेवा धारेली आंशिक शुद्धिरूप आ परिणति) निर्विकार-स्वसंवेदनलक्षण क्षायोपशमिकज्ञानरूप होवाथी जोके एकदेश व्यक्तिरूप छे तोपण ध्याता पुरुष एम ध्यावे छे के-“ जे सकल निरावरण-अखंड-एक-प्रत्यक्षप्रतिभासमय-अविनश्वर-शुद्ध- पारिणामिकभावलक्षण निजपरमात्मद्रव्य ते ज हुं छुं,” परंतु एम भावतो नथी के “ खंडज्ञानरूप हुं छुं”-आम भावार्थ छे.’

विवक्षित एटले कहेवा धारेली आ आंशिक शुद्धिरूप परिणति ते एकदेश शुद्धनयाश्रित छे. निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप आ भावना एकदेश शुद्ध छे, अंशे शुद्ध छे, पूर्ण शुद्ध नथी. पूर्ण शुद्धि तो भगवान केवळीने होय छे. पं. श्री टोडरमलजीनी रहस्यपूर्ण चिठ्ठीमां आवे छे के-“ए ज प्रमाणे चोथा गुणस्थानवर्ती आत्माने ज्ञानादि गुणो एकदेश प्रगट थया छे तेनी तथा तेरमा गुणस्थानवर्ती आत्माने ज्ञानादि गुणो सर्वदेशरूप प्रगट थया छे तेनी एकजाति छे-” एम समजवुं. मतलब के साधकने जे निर्मळरत्नत्रयरूप भावना प्रगट थई छे ते एकदेश शुद्ध छे, अंशे शुद्ध छे.


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आकाशना प्रदेश अनंत छे, एनाथी अनंतगुणा एक जीवना गुण छे. सम्यग्दर्शन थतां ते दरेक गुणनुं अंशे प्रगट परिणमन थाय छे. तेने अहीं एकदेश शुद्धनयाश्रित भावना कहेल छे. अहीं प्रगट परिणतिने शुद्धनय कहेल छे. गाथा १४मां पण आवे छे के-शुद्धनय कहो, अनुभूति कहो के आत्मा कहो-ते एक ज छे. त्रिकाळी परमात्मस्वरूप भगवान आत्माने ध्येय बनावी परिणमतां प्रगटेली निर्मळ दशा ते एकदेश शुद्धनयाश्रित भावना छे. द्रव्यसंग्रहमां मोक्षमार्गनी प्रगट पर्यायनां ६३ नाम आवे छे. अहीं तेनां बे नाम आपी कह्युं छे के-ते अध्यात्मभाषाथी ‘शुद्धात्माभिमुख परिणाम’ , ‘शुद्धोपयोग’ इत्यादि पर्यायसंज्ञा पामे छे. द्रव्यसंग्रहमां आ भावनाना ६३ बोल उतार्या छे. ते आ रीते छे-

ते भावना परब्रह्मस्वरूप छे, ते परमविष्णुस्वरूप छे, ते परमशिवरूप छे, ते परमबुद्धस्वरूप छे, ते परमजिनस्वरूप छे, ते परमनिजआत्मोपलब्धिरूप सिद्धस्वरूप छे, ते निरंजनस्वरूप छे, ते निर्मलस्वरूप छे, ते स्वसंवेदनज्ञान छे, ते परमतत्त्वज्ञान छे, ते परमावस्थारूप परमात्मानुं स्पर्शन छे, ते परमावस्थारूप छे, ते परमात्मज्ञान छे, ते ज ध्यान करवायोग्य शुद्धपारिणामिकभावरूप छे, ते ध्यानभावनारूप छे, ते ज शुद्ध चारित्र छे, ते ज अंतरंगतत्त्व छे, ते ज परमात्मतत्त्व छे, ते ज शुद्धात्मद्रव्य छे, ते ज परमज्योति छे, इत्यादि बीजा बोल पण छे. अहीं कहे छे-मोक्षमार्गनी ते पर्याय एकदेश व्यक्त पर्याय छे. कहेवा धारेली आ आंशिक शुद्धिरूप परिणति निर्विकार स्वसंवेदनलक्षण क्षायोपशमिकज्ञानरूप होवाथी एकदेश व्यक्तिरूप छे.


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जे एक समयनी पर्याय विनानो त्रिकाळी द्रव्यस्वभाव-ध्रुवभाव तेने अहीं निश्चयथी जीवी कह्यो छे. ते जीव (शुद्धजीव) सिद्धनी पर्यायपणे उपजतो नथी, तेम पूर्वनी जे मनुष्यगतिनो व्यय थयो तेमां पण ते आव्यो नथी. अहा! आवो जे उपजतो नथी, मरतो पण नथी ते शुद्धपारिणामिकभावरूप शुद्ध जीव सम्यग्दर्शननो विषय छे. आ वात अहीं सिद्ध करवी छे. तो भाषा एम लीधी छे के-शुद्ध पारिणामिकभाव ध्येयरूप छे, ध्यानरूप नथी. शा माटे? कारण के ध्यान विनश्वर छे अने शुद्धपारिणामिकभाव अविनश्वर छे. अहा! ते केम जणाय? तो कहे छे-सम्यग्दर्शन प्रगट थतां सहज वीतरागी आनंदनी अनुभूतिलक्षणवाळुं जे स्वसंवेदनज्ञान छे तेनाथी ए प्राप्त थाय छे. समजाय छे कांई...? ध्रुवथी ध्रुव न जणाय, केमके ध्रुवमां जाणवुं (-क्रिया) नथी; निर्विकार स्वसंवेदनलक्षण ज्ञानमां ते जणाय छे.

त्रिकाळस्वरूप छे ते तो ध्रुवभावरूप छे. ते ध्रुवभावरूप वस्तु पर्यायमां प्राप्त थाय छे. केवी छे ते पर्याय? तो कहे छे- एकदेश प्रगट शुद्धनयनी भावनारूप छे. अहा! आवी भाषा अने आवा भाव! एणे कोई दि सांभळ्‌या पण न होय! एकदेशशुद्धनयाश्रित आ भावना छे ते अतीन्द्रिय आनंदनी अनुभूति जेनुं लक्षण छे एवा निर्विकार स्वसंवेदनज्ञानरूप छे. आ निर्विकार स्वसंवेदनलक्षण जे ज्ञान छे ते क्षायोपशमिक भाव छे.

सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप जे मोक्षनो मार्ग छे ते त्रण भावरूप छेः उपशम, क्षयोपशम अने क्षायिक. ए त्रण भावमांथी स्वसंवेदनलक्षण जे ज्ञान छे ते क्षयोपशमभावरूप छे. शुद्ध आत्मतत्त्वनी प्राप्ति क्षयोपशमज्ञानमां थाय छे. मोक्षमार्गनी पर्यायने त्रणभावे कहेल छे. पण आ ज्ञान छे ए तो क्षयोपशमभावे छे, ते उपशम के क्षायिकभावे नथी. आ तो वीतरागना पेटनी वातो बाप!

कहे छे- आ भावना निर्विकार स्वसंवेदनलक्षण क्षायोपशमिकज्ञानरूप होवाथी एकदेश व्यक्तिरूप छे. जुओ, त्रण भावमां आ निर्विकार स्वसंवेदनलक्षण ज्ञान छे ते क्षयोपशम भाव छे. सम्यग्दर्शन थतां जे ज्ञान प्रगट थयुं ते ज्ञान क्षयोपशमभावरूप छे. भले सम्यग्दर्शन उपशम हो, क्षयोपशम हो के क्षायिक हो, तेना काळमां जे ज्ञान छे ए तो क्षायोपशमिक ज्ञान छे. वळी केवुं छे ते ज्ञान? निर्विकार आनंदनो स्वाद जेमां अनुभवाय छे तेवुं स्वसंवेदनलक्षण ते ज्ञान छे. अहा! ते ज्ञान स्व-स्वरूपने जाणवा-अनुभववामां प्रवृत्त छे. झीणी वात भाई!

आ भावना संबंधीनुं वर्णन बंध अधिकार तथा सर्वविशुद्धज्ञान अधिकारमां छेल्ले श्री जयसेनाचार्यदेवनी टीकामां आवे छे. तथा परमात्मप्रकाशमां पण आवे छे. त्रण जगाए आ वात करी छे. ए वात अहीं करी छे. मिथ्यात्व, अज्ञान अने रागद्वेषनो जे बंध छे ते बंधना विनाश माटे आ विशेष भावना छे. अहा! हुं


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तो एक त्रिकाळी ध्रुव परमस्वभावभावमय शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूपी परमात्मद्रव्य ज छुं, दया-दान आदिना विकल्पेय हुं नहि, गुणभेदना विकल्पेय हुं नहि, अने एक समयनी पर्याय पण हुं नहि-एक ध्रुवमां एकपणे रहीने आ भावना ध्रुवनो निर्णय करे छे. ल्यो, आनुं नाम जैनदर्शन छे अने ए महा अद्भुत अलौकिक चीज छे.

अहा! द्रव्यस्वभावना आश्रये अतीन्द्रिय आनंदनो जेने रसास्वाद आव्यो छे एवो धर्मी जीव एम भावे छे के-हुं तो सहज शुद्ध सच्चिदानंदमय परमानंदमय परमात्मा ज छुं; अने जगतना सर्व जीवोनुं अंतरंगमां आवुं ज स्वरूप छे.

‘परमात्मप्रकाश’ मां अंतिम कथनमां आचार्यदेवे कह्युं छेः आ परमात्म प्रकाश- वृत्तिनुं व्याख्यान जाणीने भव्यजनोए शुं करवुं? भव्यजनोए आवो विचार करवो जोईए के “शुद्धनिश्चयनयथी हुं एक (केवल) त्रणलोकमां त्रणकालमां मन-वचन-कायाथी अने कृत-कारित-अनुमोदनाथी उदासीन छुं, निज निरंजन शुद्ध आत्मानां सम्यक्-श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक् अनुष्ठानरूप निश्चयरत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधिथी उत्पन्न वीतराग सहजानंदरूपसुखानुभूतिमात्रलक्षणवाळा स्वसंवेदनज्ञानथी स्वसंवेद्य -गम्य-प्राप्य एवो परिपूर्ण हुं छुं; राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, पांच ईन्द्रियोनो विषयव्यापार, मन-वचन-कायाना-व्यापार, भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म, ख्याति, पूजा, लाभ, देखेला, सांभळेला अने अनुभवेला भोगोनी आकांक्षारूप निदान, माया, मिथ्यात्व ए त्रणे शल्य आदि सर्व विभाव-परिणामोथी रहित-शून्य हुं छुं. सर्व जीवो पण आवा ज छे-एवी निरंतर भावना करवी. जुओ आ धर्मीनी भावना, एकरस-समरसभावना!

संवत १९६४ मां एकवार पालेजथी वडोदरा माल लेवा गयेला. त्यारे १८ वर्षनी उंमर. त्यां राते नाटक जोवा गयेला. ए वखतनां नाटक पण वैराग्यसूचक हतां; अत्यारे तो नाटक-सीनेमामां नैतिक जीवननो खात्मो बोलावी दीधो छे. ‘अनसूया’ नुं नाटक, ने साथे नाटकनी चोपडी पण लीधेली. ए नाटकमां एवुं द्रश्य आवे के-ते बाई (अनसूया) स्वर्गमां जती हती त्यां देवे तेने रोकी पाडी ने कह्युं- ‘अपुत्रस्य गतिर्नास्ति’ पुत्र न होय तेने स्वर्गगति न मळे. आ तो अन्यमतनी वात छे हों. ते बाईने कहेवामां आव्युं -हेठे जा अने जे मळे एने वर. ते बाई नीचे आवीने एक अंध ब्राह्मणने वरी. तेने एक बाळक थयुं. बाळकने पारणामां झुलावतां ते बाई बोली. बेटा! शुद्धोऽसि, बुद्धोऽसि, निर्विकल्पोऽसि, उदासिनोऽसि. एम के जगतथी तारी चीज शुद्ध, बुद्ध, निर्विकल्प भिन्न छे. ल्यो, आ तो नाटकमां आवुं आवतुं. आ शुद्धभावनानो अधिकार वांचतां वर्षो पहेलां नाटक जोयेलुं एनो भाव याद आवी गयो.


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अहा! सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा एम भावे छे के-हुं निर्विकल्प छुं, शुद्ध छुं, बुद्ध छुं, परम-उदासीन छुं, अने जगतना सर्व जीवो पण स्वभावे आवा ज छे. सूक्ष्म निगोदना जे अनंत जीव छे ते प्रत्येकनुं स्वरूप आवुं शुद्ध सच्चिदानंदमय छे. लीलोतरीनां पांदडे पांदडे असंख्य जीव छे; ते दरेक जीवनुं द्रव्य शुद्ध चिद्घन आनंदघन ज छे. ल्यो, चोथा गुणस्थानवाळो जीव हुं आवो छुं ने सर्व जीवो पण आवा ज छे एम भावे छे. जगतना सर्व जीवोने धर्मात्मा द्रव्यद्रष्टिथी आवा जुए छे.

अहा! आवो शुद्ध, बुद्ध, चैतन्यघन, ज्ञानमूर्ति प्रभु आत्मा हुं छुं एम शामां जणाय? तो कहे छे-अतीन्द्रिय आनंदनी अनुभूति जेनुं लक्षण छे एवा स्वसंवेदनज्ञानमां ते जणाय छे. आ सिवाय ते पर भगवानथी जणाय नहि, भगवाननी वाणीथी पण जणाय नहि, ने व्यवहाररत्नत्रयनो जे विकल्प उठे छे एनाथी पण ते जणाय एम नथी, अहीं तो निर्विकार स्वसंवेदन-लक्षण जे क्षयोपशमरूप ज्ञान छे एनाथी भगवान आत्मा जणाय तेवो छे एम कहे छे. पोते स्व-संवेद्य छे ने? मतलब के स्वानुभवनी दशामां जे ज्ञान स्वाभिमुख थयुं छे तेमां ज ते जणाय एवो छे, बीजी कोई रीते ते प्राप्त थाय एम नथी. आवी वात छे. लोकोने आ आकरुं लागे छे, पण शुं थाय? वस्तुनुं स्वरूप तो जेवुं छे तेवुं ज छे. एने जाण्या विना ए बहारमां व्रतादिना व्यवहारथी प्राप्त थशे एम बफममां ने बफममां काळ गयो तो क्यांय चारगतिरूप संसारमां रझळी मरीश.

व्रतादिनो व्यवहार छे ए तो बधो राग छे बापु! भावपाहुडनी ८३ मी गाथामां आचार्य भगवान कहे छे के पूजा ने व्रतना जे भाव थाय छे ते पुण्य छे, ए कांई जैनधर्म नथी; एक वीतराग परिणाम थाय, सम्यग्दर्शन-ज्ञानना परिणाम थाय ए ज जैनधर्म छे अने ए ज मुक्तिमार्ग छे. समजाई छे कांई.....?

अहा! हुं मारी केवळज्ञान आदि अनंत शक्तिओथी भरेलो पूरण परमात्मा छुं, निश्चयथी मारो आत्मा अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतआनंद, अनंतवीर्य, अनंतस्वच्छता, अनंतप्रकाश, अनंतप्रभुता आदि अनंत शक्तिओथी भरितावस्थ छे. सम्यग्द्रष्टि-धर्मनी पहेली सीडीवाळो जीव पोताना आत्माने आ रीते भावे छे, ध्यावे छे. जगतना बधा ज आत्माओ पण शक्तिए भगवान छे, रागद्वेषादि विभावथी रहित- शून्य छे, भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्मथी भिन्न छे-एम ते जाणे छे. अहा! जे भावे तीर्थंकर नामकर्म बंधाय ते भाव पण विभाव एटले विपरीत भाव छे अने एनाथी भगवान आत्मा शून्य छे, एम समकिती जाणे छे. अहो! जेमां जगतना सर्व जीव समानपणे शक्तिए परिपूर्ण भासे छे एवी समकितीनी आ भावना कोई अचिंत्य ने अलौकिक छे. अहा! अनंत शक्तिथी भरियो. पूरण


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चैतन्य-दरियो जेमां भास्यो ते भावना अपूर्व छे. बाकी आ शेठिया बधा, पासे पांच- दस करोड संयोगमां होय ने एटले माने के अमे कांईक छीए, पण बापु! ए तो बधी धूळनी धूळ छे.

प्रश्नः– पण ए धूळ विना चालतुं नथी ने? समाधानः– तने खबर नथी भगवान! पण ए धूळ विना ज तारे अनादिथी चाल्या कर्युं छे; केमके तारा द्रव्य-गुण-पर्यायमां ए क्यां छे? भाई! परद्रव्यनो आत्मामां त्रणेकाळ अभाव छे, अने स्वभावभावनो सदाय सद्भाव छे. भाई! तारा स्वस्वभावमां परद्रव्य तो शुं, एक समयनी पर्याय पण प्रवेश पामती नथी एवुं तारुं स्वद्रव्य छे.

अहीं कहे छे-ए स्वद्रव्य निर्विकार स्वसंवेदन लक्षण क्षायोपशमिक ज्ञानमां जणाय एवुं छे. आ ज्ञान भावश्रुतज्ञान होवाथी क्षयोपशमभावरूप छे; समकित भले क्षायिक होय, पण ज्ञान तो क्षायोपशमिकभावे ज छे.

जुओ, श्रेणिक राजाने क्षायिक समकित हतुं, स्वानुभवमंडित भावश्रुतज्ञान हतुं. तीर्थंकरगोत्र बांध्युं छे. पूर्वे नरकनुं आयु बंधाई गयुं हतुं एटले अत्यारे पहेला नरकना संयोगमां गया छे. त्यां पण क्षायिक समकित वर्ते छे. क्षणे क्षणे त्यां तीर्थंकर प्रकृति बंधाय छे. अहा! ए नरकना पीडाकारी संयोगमां पण पोताना आत्माने शुद्ध बुद्ध चिदानंदस्वरूप परमात्मस्वरूप अनुभवे छे. एनी अज्ञानीने शुं खबर पडे? आ करो ने ते करो-एम क्रियाकांडमां ज एकांते रोकाई गया छे एने भगवान केवळीनी आज्ञानी खबर ज नथी. बापु! आ तो जगतथी तद्न निराळी वात छे, जगत साथे एनो क्यांय मेळ बेसे एम नथी.

समकितीने जे भावश्रुतज्ञान छे ते क्षयोपशमरूप छे अने ते एकदेशव्यक्तिरूप छे, क्षायिकनी जेम पूर्ण व्यक्तिरूप नथी, सर्वदेशव्यक्तिरूप क्षायिकज्ञान तो केवळी परमात्माने होय छे. सम्यग्द्रष्टिने तथा भावलिंगी मुनिवरने जे ज्ञान अंदर प्रगट छे ते क्षायोपशमिक छे अने तेथी कहे छे, एकदेशव्यक्तिरूप छे.

अहाहा...! भगवान! तुं जिन छो, जिनवर छो, जिन सो जिनवर, ने जिनवर सो जिन. अहा! आवो जिनस्वरूप भगवान आत्मा जेमां जणाय ते भावश्रुतज्ञान क्षायोपशमिक छे अने एकदेश-अंशे प्रगटरूप छे. आत्मामां अनंत शक्तिओ छे. आत्मानुभव थतां ते बधी शक्तिओ अंशरूप पर्यायमां प्रगट थाय छे. तेम सम्यग्दर्शन थाय त्यारे जे क्षयोपशम ज्ञान प्रगट थाय छे ते अंशरूप व्यक्त होय छे, पूर्ण व्यक्त नहि. सर्वज्ञ परमेश्वरने जे अनंत शक्तिओ छे ते सर्व पूर्ण-


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व्यक्तिरूप छे, पण साधकने तो ते मोक्षमार्गना काळमां अंशे व्यक्तिरूप छे, ज्ञान पण एकदेशव्यक्तिरूप छे. आवी वात! हवे जैनमां जन्मेलानेय खबर न मळे के जैन परमेश्वर कोण अने एना ज्ञाननी केवी अलौकिकता छे! बापु! आ समज्या विना ज तुं अनंतकाळथी रखडी-रखडीने मरी रह्यो छे. भाई! ८४ लाख योनिमां-प्रत्येकमां अनंतवार जन्ममरण करीने तारा सोथा नीकळी गया छे. हवे तो आ समज.

अरे! आ समज्या विना आ करोडपति ने अबजोपति शेठीआ बधा दुःखी ज छे भाई! दिल्हीना शेठ साहु शान्तिप्रसाद अहीं पंदर दि’ पहेलां आव्या हतां. त्रण व्याख्यान तेओ सांभळी गया. तेओ पछी एकांतमां मळवा आवेला. त्यारे कहेलुं के-“ अरे शेठ! दुनियाना पापना धंधामां पडी आ आत्मा शुं चीज छे ते सांभळवानोय तमने वखत न मळे एवुं तमारुं जीवन केटलुं दुःखमय छे? कांई विचार तो करो.” बापु! आ समज्या विना संसारना गमे ते स्थानमां ए रहे तोय दुःखी ज छे.

पांच-पचास करोड मळी जाय ए तो बधी धूळ छे. ए क्यां तारा आत्मामां छे? कदाचित् एमांथी पांच-पचीस लाख मंदिर, प्रतिष्ठा वगेरेमां दानमां खर्चे तोय धर्म थाय एम नथी. जुओ, भावनगरथी सत्-साहित्य बहार पडे छे. तेना प्रकाशन माटे एक मुमुक्षुए लाख रूपियानुं दान जाहेर कर्युं छे. लाख तो शुं, कोई करोड रूपियानुं दान आपे तोय एमां मंद राग होय तो पुण्य थाय, धर्म जराय नहि. भाई! वीतरागनो धर्म तो वीतरागभावथी ज प्रगट थाय छे. (रागथी धर्म थवानुं माने ए तो मिथ्याभाव छे).

अहीं कहे छे-आ भावना निर्विकार स्वसंवेदनलक्षण क्षायोपशमिकज्ञानरूप होवाथी जो के एकदेशव्यक्तिरूप छे तोपण ध्याता पुरुष एम भावे छे के ‘जे सकल निरावरण अखंड-एक-प्रत्यक्षप्रतिभासमय-अविनश्वर-शुद्ध पारिणामिकपरमभावलक्षण निजपरमात्मद्रव्य ते ज हुं छुं,’ परंतु एम भावतो नथी के ‘खंडज्ञानरूप हुं छुं’ .

अहा! धर्मी जीवने आनंदनी अनुभूति सहितनुं स्वसंवेदनज्ञान प्रगट थयुं छे. ते ज्ञान एकदेशव्यक्तिरूप छे. तेमां पूरण पोतानुं परमात्मद्रव्य जणायुं छे, पण ते खंडज्ञानरूप प्रगट दशानुं ध्यान ज्ञानी करता नथी. लोकोने आवुं आकरुं लागे पण शुं थाय? जैन परमेश्वरनो कहेलो मार्ग तो आवो ज छे. बीजा मतमां तो आ वात छे ज नहि. एकपदमां आवे छे के-

‘धून रे दुनिया अपनी धून, जाकी धूनमें नहि पाप और पुण्य.’ अहा! भगवान आत्मानी जेने धून लागी छे तेने पुण्य-पाप तरफनुं लक्ष होतुं नथी. आत्मानी धूनमां पाप-पुण्यना भाव बीलकुल होता नथी. हे भाई!


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निर्मळानंदनो नाथ प्रभु तुं परमात्मद्रव्य छो, तेनी एकवार धून लगाव; तने सम्यग्दर्शन थशे, सुखी थवानो मार्ग प्रगट थशे. भाई! आ सर्वज्ञपरमात्माए कहेली वात छे; आ वात बीजे क्यांय नथी.

कोई जगतकर्ता ईश्वरने माने के सर्वव्यापी एक ईश्वरने माने पण एवुं वस्तुस्वरूप नथी. सर्वज्ञ वीतरागदेव सिवाय आत्मा केवो छे ते बीजाए जोयो नथी, जाण्यो नथी. भले अन्यमतवाळा आत्मानी वातो करे, पण ए तो बधी कल्पित वातो छे. सर्वज्ञ परमेश्वरे जे आत्मा जोयो अने दिव्यध्वनिमां कह्यो ते ज यथार्थ छे. अहा! आवा अनंतगुणमंडित अखंड एक परमजिनस्वरूप आत्मानुं जेने स्वानुभवमां भान थयुं तेनी स्वानुभवनी दशा एकदेश प्रगटरूप छे. भाई! धर्मात्माने निज परमात्मद्रव्यना लक्षे जे सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी दशा प्रगट थई ते दशा एकदेश व्यक्तिरूप छे. धर्मी पुरुष ते दशानुं ध्यान करता नथी, पण अखंड एक प्रत्यक्षप्रतिभासमय परमात्मद्रव्य हुं छुं एम ते ध्यावे छे. समजाय छे कांई....?

अहा! त्रिलोकीनाथ सर्वज्ञदेव एम फरमावे छे के अनंतशक्तिस्वरूप आत्मानो अनुभव थतां अनंत शक्तिओनो एक अंश पर्यायमां प्रगट थाय छे; समकितपणे श्रद्धानो अंश प्रगट थाय छे, भावश्रुतज्ञानरूप ज्ञाननो अंश प्रगट थाय छे, चारित्रनो अंश प्रगट थाय छे, वीर्यनो अंश प्रगट थाय छे, स्वच्छता ने प्रभुतानो अंश पण पर्यायमां व्यक्त थाय छे. ते बधी निर्मळ प्रगट थयेली पर्यायो, अहीं कहे छे, ध्याता पुरुषना ध्याननुं ध्येय नथी. अहाहा....! ध्याता पुरुष आ प्रगट पर्यायोने जाणे छे खरा पण ते पर्यायोनुं ध्यान करता नथी. ते पर्यायोने ध्यावता नथी.

खूब झीणी वात प्रभु! आठ दिवसथी चाले छे. आजे आ छेल्लुं प्रवचन छे. अहा! सच्चिदानंदमय निज भगवानना स्वरूपने कहेनारी भगवानना घरनी आ भागवत कथा छे. कहे छे-स्वद्रव्यना अवलंबने प्रगट थयेली जे वीतरागविज्ञान दशा तेने धर्मात्मा पुरुष ध्यावता नथी, तो कोने ध्यावे छे? अहा! धर्मी पुरुष कोनुं ध्यान करे छे? तो कहे छे-सकळ निरावरण, अखंड, एक, प्रत्यक्ष प्रतिभासमय शुद्धपारिणामिकपरमभावस्वरूप निज परमात्मद्रव्य सदाय अंदर विराजी रह्युं छे तेने धर्मात्मा ध्यावे छे.

अहा! अंदर शक्तिस्वरूप जे वस्तु आत्मा छे ते त्रिकाळ निरावरण छे. भाई! तारा द्रव्यनुं द्रव्यमान स्वभावथी सदाय निरावरण छे, पर्यायमां राग साथे अने कर्म साथे एक समय पूरतो व्यवहारे भले संबंध हो, पण अंदर वस्तु जे भूतार्थ छे, चिदानंदमय सदा विद्यमान छे ते निरावरण छे. भगवान! तारी वस्तु अंदर परमानंदमय सदा निरावरण छे, कर्म अने रागना संबंधथी रहित छे. हवे आवुं


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केम बेसे एने? तुं मान के न मान; पण वस्तु अंदर ज्ञानघन छे ते सकळ निरावरण छे, अने तेने धर्मी पुरुष ध्यावे छे.

अहा! अनंत अनंत शक्तिओनो पिंड प्रभु आत्मा सकळ निरावरण छे. वळी अनंतगुणथी भरेलो छतां गुणभेद विनानो अखंड एक छे; खंडरूप नथी, भेदरूप नथी; पर्यायभेदथी भेदातो नथी तेवो अभेद एक छे. वळी स्वसंवेदनज्ञानमां प्रत्यक्ष जणाय एवो प्रत्यक्षप्रतिभासमय छे. आत्मा स्वभावथी ज प्रत्यक्षप्रतिभासमय छे.

कोईने थाय के ते जणातो तो नथी? बापु! तुं रागमां ने निमित्तमां एने शोधे तो ते केम जणाय? ए तो ज्यां छे त्यां अंतर्मुख थई जुए तो अवश्य जणाय एवो ते प्रत्यक्षप्रतिभासमय छे. आत्मा चैतन्यप्रकाशनुं बिंब छे. ज्ञानने तेमां एकाग्र करीने जोनारने ते अवश्य जणाय एवो छे. अहा! अंतर्मुख उपयोगमां-निज स्वसंवेदनज्ञानमां ते जणाय एवो प्रत्यक्ष प्रतिभासमय छे. भले मतिज्ञान हो के श्रुतज्ञान, सम्यक्ज्ञाननी एक समयनी पर्यायमां आखो आत्मा एक-अखंडपणे जणाई जाय एवुं ज एनुं स्वरूप छे. न जणाय ए वात ज क्यां छे? भाई! तुं बहारमां फांफां मारे ने ते न जणाय एमां अमे शुं करीए?

वस्तु निज परमात्मतत्त्व सकळ निरावरण अखंड एक प्रत्यक्षप्रतिभासमय त्रिकाळ अविनश्वर छे अने ते ज ध्याता पुरुषना ध्याननुं ध्येय छे. सम्यग्दर्शननो विषय पण ए ज छे अने कल्याणकारी ध्याननुं ध्येय पण ए ज छे. लोकोने आ आकरुं लागे छे, पण शुं थाय? वस्तुनुं स्वरूप तो जेम छे तेम आवुं ज छे.

अरे! चैतन्यनिधानस्वरूप पोताना भगवानने भूलीने ते अनादिथी अवळे पंथे चढी गयो छे! अहा! चैतन्यलक्ष्मीथी भरेलो पोते त्रिकाळ विद्यमान होवा छतां ते आ बहारनी जड लक्ष्मीनी ने पुण्यनी भावना करे छे! अहा! त्रणलोकनो नाथ जिनस्वरूप प्रभु आम भिखारी थईने लोकमां भमे ते केम शोभे? भगवान! आ शुं करे छे तुं? तारा उपयोगने अंतरमां लई जा, तने सुखनिधान प्रभु आत्मा प्राप्त थशे. भाई! तारा सुखनो आ एक ज उपाय छे. धर्मी पुरुषो अंतर्मुखपणे परमभावस्वरूप ए एकने ज ध्यावे छे.

पर्याय अपेक्षाए केवळज्ञान आदिने ‘परमभाव’ कहीए, पूर्णदिशाने ‘परमभाव’ कहीए; पण द्रव्यस्वभावनी अपेक्षाए तो शुद्धपारिणामिकभाव जे त्रिकाळ एकरूप छे ते ज परमभाव छे. छठ्ठी गाथामां जेने एक ज्ञायकभाव कह्यो ते ज परमभाव छे. अहा! आवो परमभावस्वरूप अखंड एक ज्ञायकभाव जेनो भाव छे ते निज


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परमात्मद्रव्य हुं छुं-एम धर्मात्मा ध्यावे छे. आ सर्वज्ञ परमात्मा (अरिहंतादि) ते हुं एम नहि, आ तो ध्याता पोताना ज त्रिकाळी आत्माने ‘हुं परमात्मद्रव्य छुं’ -एम भावे छे, अनुभवे छे, ध्यावे छे. जे सर्वज्ञ परमात्मा प्रगटपणे छे ते तो परद्रव्य छे. एने ध्यातां तो राग थशे बापु!

तो भगवानने तरण-तारण कहेवामां आवे छे ने? हा, भगवानने व्यवहारथी तरण-तारण कहेवामां आवे छे. भगवाननुं निमित्त बनतां तरनारो पोते पोताना स्वरूपना अनुभवमां रहीने तरे छे तो भगवानने व्यवहारथी तरण-तारण कहेवामां आवे छे. बाकी ध्याता पोताना आत्माने अंतर्मुखपणे ध्यावे ए ज मोक्षना कारणरूप ध्यान छे. समजाय छे कांई.....? कोई एकांते पर भगवाननुं ध्यान धरीने मोक्षमार्ग थवानुं माने ए तो बहु फेर थई गयो भाई! ध्याताना ध्याननुं एवुं स्वरूप नथी.

भाई! आ तो अनंता तीर्थंकरोए इन्द्रो, मुनिवरो ने गणधरोनी समक्ष धर्मसभामां जे फरमाव्युं छे ते अहीं दिगंबर संतो जगत समक्ष जाहेर करे छे. कहे छे- भगवाननो आ संदेश छे; शुं? के पोते आत्मा चिदानंदघन प्रभु सकळ निरावरण अखंड एक प्रत्यक्ष प्रतिभासमय अविनश्वर शुद्धपारिणामिकपरमभावलक्षण परमात्मद्रव्य छे. अहा! आवुं जे निजपरमात्मद्रव्य ते हुं छुं-एम ध्याता पुरुष ध्यावे छे, भावे छे; अने आ ज मोक्षना कारणरूप ध्यान छे. जेमां पोतानो त्रिकाळी शुद्ध आत्मा ज ध्येयरूप छे ते परमार्थध्यान छे अने ते ज मोक्षना कारणरूप छे.

जोयुं? निजपरमात्मद्रव्य ते ज हुं छुं, पण संवेदननी पर्याय जे छे ते हुं छुं एम नहि. सम्यग्दर्शन-ज्ञाननी प्रगट पर्याय जे छे तेमां निराकुल आनंदनुं वेदन साथे ज छे. पण ते पर्याय एम भावे छे के-आ त्रिकाळी शुद्ध निजपरमात्मद्रव्य छे ते हुं छुं. आ उघडेली पर्याय ते हुं नहि. सूक्ष्म वात भाई! पण आनो स्वीकार कर्या विना जन्म- मरणना अंत नहि आवे.

अहाहा....! धर्मी एम भावे छे के अखंड एक निजपरमात्मद्रव्य ते हुं छुं, पण एम भावतो नथी के भावश्रुतज्ञान ते हुं छुं. आनंदना अनुभव सहित जे श्रुतज्ञान प्रगट थयुं ते एक समयनी पर्याय छे, माटे धर्मी पुरुष एनुं ध्यान करतो नथी. पर्याय खंडरूप विनश्वर छे ने? माटे धर्मात्मा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी पर्यायनुं पण ध्यान करतो नथी. अहा! ध्याननी करनारी पर्याय छे, पण ते पर्यायनुं -भेदनुं ध्यान करती नथी; ए तो अखंड अभेद एक निज परमात्मद्रव्यने ज ध्यावे छे. धर्मात्मानी ध्याननी दशा एक ध्रुवने ज ध्यावे छे, भेदनी सामे ए जोती ज नथी.


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आ रीते धर्मी पुरुष निज परमात्मतत्त्वने भावीने-ध्यावीने ध्याननुं फळ जे मोक्ष ते अविचल दशाने प्राप्त थई जाय छे.

अरेरे! एणे पोताना अंतरंग परमात्मस्वरूपनो ईन्कार करीने पोताने मरण- तुल्य करी नाख्यो छे! अहा! एणे अनंतकाळमां पोतानी दया करी नहि! जेवुं पोतानुं पूरण त्रिकाळी ध्रुव चैतन्यतत्त्व छे तेने ते रीते मान्युं नहि. एणे पोताने रागवाळो ने पुण्यवाळो मान्यो छे; पर्यायद्रष्टि थईने आ पर्याय छे ते हुं छुं एम मान्युं छे. पण भाई! ते वडे तें तारो पोतानो घात ज कर्यो छे, केमके पर्यायमात्र वस्तु नथी.

अहीं कहे छे-निजकारणपरमात्मद्रव्य छे ते हुं छुं एम धर्मात्मा भावना करे छे, परंतु हुं खंडज्ञान छुं एम भावना करतो नथी. अहा! समकितीने ज्ञान ने आनंदनी निर्मळ पर्याय प्रगटी छे, तेने ते जाणे छे, पण तेनी ए भावना करतो नथी. अहा! निर्मळ पर्याय प्रति पण आवो ते उदासीन छे. समजाय छे कांई...? भाई! शास्त्रनी आ भाषा अने भाव जेने समजाय तेने भवनाशिनी शुद्धआत्मभावना प्रगट थाय छे, अने ए ज आ ‘तात्पर्यवृत्ति’ नुं तात्पर्य छे.

हवे छेल्ले कहे छे- ‘आ व्याख्यान परस्पर सापेक्ष एवां आगम-अध्यात्मना- तेम ज नयद्वयना (द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनयना) अभिप्रायना अविरोधपूर्वक ज कहेवामां आव्युं होवाथी सिद्ध छे (-निर्बाध छे) एम विवेकीओए जाणवुं.’

जुओ, भगवाननां कहेलां जे शास्त्रो छे तेमां आगम अने अध्यात्मनां शास्त्रो छे. भगवाने कहेलां जे द्रव्यो छे तेनुं जेमां निरूपण करवामां आव्युं छे तेने आगम कहीए. अनंता आत्मा छे, अनंता-अनंत पुद्गलद्रव्यो छे, एक धर्मास्तिकाय, एक अधर्मास्तिकाय, एक आकाश अने असंख्यात कालाणु-आम जातिए छ द्रव्यो छे, संख्याए अनंत छे. आ सर्वनुं जेमां निरूपण छे ते आगम छे तथा जेमां शुद्ध निश्चयस्वरूप आत्मद्रव्य केवुं छे अने तेनी निर्मळ पर्याय केवी छे तेनुं निरूपण छे ते अध्यात्मशास्त्र छे. आचार्य कहे छे-ए बन्नेना सापेक्षथी अहीं कथन कर्युं छे.

वळी नयद्वयना अभिप्रायना अविरोधपूर्वक ज अहीं कहेवामां आव्युं छे. माटे आ कथन सिद्ध छे, निर्बाध छे-एम विवेकीओए जाणवुं जोईए. वर्तमान पर्यायमां आनंदनो अनुभव थईने जे निर्विकल्प निर्मळ भावनारूप दशा प्रगट थई ते पर्यायार्थिकनयनो, व्यवहारनयनो विषय छे; अने जेनुं लक्ष करीने ते प्रगट थई ते त्रिकाळी शुद्ध परमात्मद्रव्य शुद्ध निश्चयनयनो, द्रव्यार्थिकनयनो विषय छे. आम नयद्वयना अविरोधपूर्वक परस्पर सापेक्ष सर्व कथन छे. माटे आ कथन सिद्ध छे, निर्दोष छे, निर्बध छे एम विवेकी पुरुषोए जाणवुं. जेने विवेक नथी ते गमे तेम जाणे अने माने, पण विवेकी


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पुरुषोए तो आने प्रमाणरूप जाणी जेम भवनाशिनी शुद्धात्मभावना प्रगट थाय तेम प्रवर्तवुं, केमके आवी भावना वडे ज भवनो नाश थई सिद्धपदनी प्राप्ति थाय छे. ल्यो, आवी वात छे. आ रीते आजे आठ व्याख्यान द्वारा आ अधिकार पूरो थाय छे.

आ प्रमाणे समयसार गाथा ३२० उपरनी आचार्य श्री जयसेनाचार्यनी तात्पर्यवृत्ति टीका उपरनां परम कृपाळु पू. गुरुदेवश्री कानजीस्वामीनां प्रवचन समाप्त थयां.


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गाथा–३२०
* श्री समयसार गाथा ३२० (श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यकृत) टीका *

कुत एतत्? –

दिट्ठी जहेव णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव।
जाणइ य बंधमोक्खं कम्मुदयं पिज्जरं चेव।। ३२०।।
द्रष्टिः यथैव ज्ञानमकारकं तथाऽवेदकं चैव।
जानाति च बन्धमोक्षं कर्मोदयं निर्जरां चैव।। ३२०।।

यथात्र लोके द्रष्टिर्द्रश्यादत्यन्तविभक्तत्वेन तत्करणवेदनयोरसमर्थत्वात् द्रश्यं न करोति न वेदयते च, अन्यथाग्निदर्शनात्सन्धुक्षणवत् स्वयं ज्वलनकरणस्य, लोहपिण्डवत्स्वयमौष्ण्यानुभवनस्य च दुर्निवारत्वात्, किन्तु केवलं दर्शनमात्रस्वभावत्वात् तत्सर्व केवलमेव पश्यति; तथा ज्ञानमपि स्वयं द्रष्टृत्वात् कर्मणोऽत्यन्तविभक्तत्वेन निश्चयतस्तत्करणवेदनयोरसमर्थत्वात्कर्म न करोति न वेदयते च, किन्तु केवलं ज्ञानमात्रस्वभावत्वात्कर्मबन्धं मोक्षं वा कर्मोदयं निर्जरां वा केवलमेव जानाति।

हवे पूछे छे के- (ज्ञानी करतो-भोगवतो नथी, जाणे ज छे) ए कई रीते? तेनो उत्तर द्रष्टांतपूर्वक कहे छेः-

ज्यम नेत्र. तेम ज ज्ञान नथी कारक, नथी वेद्रक अरे!
जाणे ज कर्मोदय, निरजरा, बंध तेम ज मोक्षने. ३२०

गाथार्थः– [यथा एव द्रष्टिः] जेम नेत्र (द्रश्य पदार्थोने करतुं-भोगवतुं नथी, देखे ज छे), [तथा] तेम [ज्ञानम्] ज्ञान [अकारकं] अकारक [अवेदकं च एव] तथा अवेदक छे, [च] अने [बन्धमोक्षं] बंध, मोक्ष, [कर्मोदयं] कर्मोदय [निर्जरां च एव] तथा निर्जराने [जानाति] जाणे ज छे.

टीकाः– जेवी रीते आ जगतमां नेत्र द्रश्य पदार्थथी अत्यंत भिन्नपणाने लीधे तेने करवा-वेदवाने असमर्थ होवाथी, द्रश्य पदार्थने करतुं नथी अने वेदतुं नथी-जो एम न होय तो अग्निने देखवाथी, *संधुक्षणनी माफक, पोताने (नेत्रने) अग्निनुं _________________________________________________________________ * संधुक्षण = संधूकण; अग्नि सळगावनार पदार्थ; अग्नि चेतावनारी वस्तु.


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करवापणुं (सळगाववापणुं), अने लोखंडना गोळानी माफक पोताने (नेत्रने) अग्निनो अनुभव दुर्निवार थाय (अर्थात् जो नेत्र द्रश्य पदार्थने करतुं वेदतुं होय तो तो नेत्र वडे अग्नि सळगवी जोईए अने नेत्रने अग्निनी उष्णतानो अनुभव अवश्य थवो जोईए; परंतु एम तो थतुं नथी, माटे नेत्र द्रश्य पदार्थने करतुं-वेदतुं नथी) -परंतु केवळ दर्शनमात्रस्वभाववाळुं होवाथी ते सर्वने केवळ देखे ज छे; तेवी रीते ज्ञान पण, पोते (नेत्रनी माफक) देखनार होवाथी, कर्मथी अत्यंत भिन्नपणाने लीधे निश्चयथी तेने करवा- वेदवाने असमर्थ होवाथी, कर्मने करतुं नथी अने वेदतुं नथी, परंतु केवळ ज्ञानमात्रस्वभाववाळुं (जाणवाना स्वभाववाळुं होवाथी कर्मना बंधने तथा मोक्षने, कर्मना उदयने तथा निर्जराने केवळ जाणे ज छे.

*
श्री समयसार गाथा ३२० (श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यकृत) टीका
उपर पू. गुरुदेवश्री कानजीस्वामीनुं प्रवचन

मथाळुंः– ‘हवे पूछे छे के- (ज्ञानी करतो-भोगवतो नथी) ए कई रीते?’ ल्यो, शिष्य पूछे छे-एनो अर्थ ए के ते खूब जिज्ञासाथी वात सांभळे छे, भाई! सांभळवा खातर सांभळवुं ए जुदी चीज छे ने आत्मार्थी थई जिज्ञासाथी सांभळवुं ए जुदी चीज छे. एम के आ (अनेक तरहना विकल्प) करे छे, वेदे छे एम देखाय छे ने आप धर्मी करतो नथी, भोगवतो नथी एम कहो छो तो ते केवी रीते छे? अहा! आत्मा परने-रागने करे नहि ने वेदेय नहि -आ शुं चीज छे? अहा! आवा विस्मयकारी स्वभावने जाणवानी जेने अंतरमां जिज्ञासा जागी छे ते शिष्यने द्रष्टांतपूर्वक अहीं गाथामां उत्तर दे छे.

टीका उपरनुं प्रवचनः

‘जेवी रीते आ जगतमां....’ पहेलां जगत सिद्ध कर्युं जोयुं? छ द्रव्यमय जगतनी हयाती-अस्ति कही. जगत छे एम एनी अस्ति सिद्ध करीने वात करे छे के-

‘जेवी रीते आ जगतमां नेत्र द्रश्य पदार्थथी अत्यंत भिन्नपणाने लीधे तेने करवा-वेदवाने असमर्थ होवाथी, द्रश्य पदार्थने करतुं नथी अने वेदतुं नथी....’

अहाहा.....! शुं कहे छे? के आ नेत्र जे आंख छे ते द्रश्य नाम देखवायोग्य पदार्थथी अत्यंत भिन्न छे. भाई! आ आंख जेने देखे छे ते देखवा योग्य पदार्थथी


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ते अत्यंत भिन्न छे, अने तेथी ते (-आंख) तेने करवा अने वेदवा असमर्थ छे. जुओ, आ सिद्धांत कह्योः- के द्रश्य पदार्थथी आंख भिन्न ने आंखथी द्रश्य पदार्थ भिन्न-एम परस्पर भिन्नता छे, त्यां आंख भिन्न वस्तुने करे ने वेदे केम? अहा! पोतामां अभिन्न होय तेने करे अने वेदे, पण भिन्नने-परने करे ने वेदे ए केम बने? जेने आंख अडेय नहि तेने ते करे ने भोगवे ए केवी रीते बने? भाई! आंख जगतनी चीजने देखे, पण ते जगतनी द्रश्य चीजने करेय नहि ने वेदेय नहि. अहाहा...! (आ ते) गाथा छे कांई!

हवे कहे छे- ‘जो एम न होय तो अग्निने देखवाथी, संधुक्षणनी माफक, पोताने (नेत्रने) अग्निनुं करवापणुं (सळगाववापणुं), अने लोखंडना गोळानी माफक पोताने (नेत्रने) अग्निनो अनुभव दुर्निवार थाय....’

‘जो एम न होय तो.....’ जोयुं? भिन्नपणाने लीधे आंख द्रश्य पदार्थने करे अने वेदे तो नहि, पण जो करे ने वेदे तो.... , तो अग्निने देखवाथी, संधुक्षण नाम अग्नि चेतावनार-सळगावनारनी माफक नेत्रने अग्निने करवापणुं-सळगाववापणुं आवी पडे. संधुकण जेम अग्निने सळगावे छे तेम आंखने, परथी भिन्न छे छतां जो तेने करे ने वेदे तो, परने सळगाववापणुं आवे; आंख ज्यां पडे त्यां ते पदार्थ सळगवा लागे एम एने सळगाववापणुं आवे. न्याय समजाय छे के नहि?

वळी ‘लोखंडना गोळानी माफक पोताने (आंखने) अग्निनो अनुभव दुर्निवार थाय.’ आंख जो परने करे ने वेदे तो लोढानो गोळो जेम अग्निमां उष्ण थई जाय छे तेम, अग्निने देखवामात्रथी आंख अग्निमय थई जाय, बळी जाय. अहाहा...! आंखने जो भिन्न चीजने अनुभववानो-वेदवानो भाव आवी जाय तो भिन्न अग्निने देखवामात्रथी आंख अग्निमय थई जाय, तेने अग्निनो अनुभव दुर्निवार थई जाय, लोखंडना गोळानी जेम.

जुओ, बे वात करी. एक तो-जो आंख परने-भिन्न वस्तुने करे तो संधुकण जेम अग्निने करे छे तेम आंखनी ज्यां नजर पडे त्यां पदार्थमां अग्नि प्रगटी जाय. आंख जो परने करे तो जेम संधुकण वडे अग्नि प्रगटे छे तेम आंख वडे अग्नि सळगवी जोईए.

बीजुं-जो आंख परने वेदे तो अग्निने जोवामात्रथी ज, आंखने अग्निनी उष्णतानो अनुभव थवो जोईए पण एम छे नहि, अर्थात् आंख छे ते अग्निने देखे तो छे, पण कांई अग्निनो अनुभव करती नथी. जो एमां एकाकार थाय तो अनुभव थाय ने! पण ए तो भिन्न चीज छे. अहा! आंख अने जे अग्नि छे ए तो भिन्न भिन्न चीज छे. तेथी भिन्नने आंख करे पण नहि ने भिन्नने आंख वेदे पण नहि.


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ल्यो, कहे छे- एम तो थतुं नथी. अर्थात् आंखथी कांई सळगे पण नहि, ने आंख अग्निने वेदे पण नहि. देखवायोग्य पदार्थने आंख देखे; देखे एटलो तो संबंध छे पण तेने करे ने भोगवे एवो संबंध सर्वथा नथी. माटे द्रश्य पदार्थने नेत्र करतुंय नथी. वेदतुंय नथी. ए ज कहे छे-

‘परंतु केवळ दर्शनमात्रस्वभाववाळुं होवाथी ते सर्वने केवळ देखे ज छे.’ जोयुं? आंखनो तो केवळ देखवामात्रस्वभाव छे अने तेथी ते सर्वने केवळ देखे ज छे, कोईने करे के वेदे छे एम नहि. जो करे ने वेदे तो देखवामात्रथी ते द्रश्य पदार्थमां अग्निने करे अने पोते ज अग्निने वेदे, पण अग्निने आंख करती नथी, तेम अग्नि देखतां आंख बळतीय नथी; माटे आंख सर्वने देखे ज छे; कोईने करती नथी, वेदती पण नथी. आ द्रष्टांत कह्युं. हवे ते सिद्धांतमां उतारे छे. -

‘तेवी रीते ज्ञान पण, पोते (नेत्रनी माफक) देखनार होवाथी,.......’ जोयुं? ज्ञान नाम ज्ञानस्वभावी आत्मा, नेत्रनी जेम, देखनार छे; ते परने देखे छे एवो व्यवहार संबंध छे. आंख जेम परने-द्रश्यने देखे तेम भगवान आत्मा परने देखे खरो, पण देखवा उपरांत परनुं करवुं ने वेदवुं एनामां छे नहि.

अहाहा.....! नेत्रनी जेम, ज्ञान अर्थात् भगवान आत्मा परने देखे छे एम तो छे; जो के परने देखे छे एम कहेवुं ए व्यवहार छे, पण एटलो व्यवहारसंबंध अहीं लीधो छे. तो कोई वळी पूछे छे-

जेम परने देखे छे एवो व्यवहार छे तो परने करे एवो व्यवहार पण होवो जोईए ने? तो कहे छे-ना, एम नथी. आंख परने देखे छे तेथी कांई आंख परने- अग्नि वगेरेने करे छे के वेदे छे एम नथी. तेम भगवान आत्माने बीजा साथे देखवानो संबंध तो छे, आटलो तो व्यवहारसंबंध छे, पण बीजाने करे के वेदे एम छे नहि, समजाणुं कांई...?

जुओ, आ अंदर ए ज कह्युं छेः ‘तेवी रीते ज्ञान पण, पोते (नेत्रनी माफक) देखनार होवाथी, कर्मथी अत्यंत भिन्नपणाने लीधे निश्चयथी तेने करवा-वेदवाने असमर्थ होवाथी, कर्मने करतुं नथी अने वेदतुं नथी.’

अहाहा...! भगवान आत्मा कर्मथी अत्यंत भिन्न छे; एकलो भिन्न एमेय नहि, अत्यंत भिन्न छे. जेम आंख द्रश्य पदार्थथी भिन्न छे तेम शुद्ध चिदानंदमय वस्तु चैतन्यरत्नाकर प्रभु कर्मथी अत्यंत भिन्न छे, परपदार्थथी अत्यंत भिन्न छे. अत्यंत भिन्नपणाने लीधे, जेम आंख द्रश्य पदार्थने देखे खरी, पण करे के वेदे


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नहि, तेम भगवान आत्मा परपदार्थने देखे-जाणे खरो, पण परने करतो के भोगवतो नथी, भोगवी शकतो नथी.

कोईने थाय के देखवा-जाणवानी पोतानी क्रिया करे तो पछी भेगुं परनुं पण करे के नहि?

समाधानः– पोताना परिणामने भले करे ने भोगवे, एय अहीं निर्मळ परिणामने करवा-भोगववानी वात छे, मलिननी वात नथी. आत्मा परने देखे-जाणे एटला संबंधमात्रथी परनुं करे ने परने वेदे ए क्यांथी आव्युं? अहा! परने देखवुं एवो तो एनो संबंध छे, पण एटला संबंधमात्रथी ते परनुं शुं करे? कांई न करे. शुं ते हाथ- पगने हलावे? आंखने हलावे के बोले? कांई न करे. जे चीज छे एने देखे छे, पण देखवा छतां ते परनुं कांई करी दे एम नथी. अहाहा....! आत्मा देखनार होवा छतां, अत्यंत भिन्नपणाने लीधे ते कर्मने करतो नथी. रागादिने करतो नथी.

अहाहा...! ‘ज्ञान’ कह्युं खरुं ने! ज्ञान एटले ज्ञानस्वभावी आत्मा. अहा! एने परने देखवा-जाणवानो संबंध तो कह्यो (व्यवहारथी हों), पण निश्चयथी, तेने देखवा उपरांत परवस्तुने करवा-वेदवानी असमर्थता छे. कर्मने करे ने कर्मने वेदे एवी एने असमर्थता छे. अहाहा....! ज्ञानस्वरूपी प्रभु, कर्मनो उदय थाय एने जाणे, पण कर्मना उदयने ते करे के वेदे एनी एने असमर्थता छे, तेथी ज्ञान अर्थात् आत्मा कर्मने करतो के वेदतो नथी. हवे आवी वात! बिचारो धंधा आडे नवरो थाय तो एने समजाय ने?

अहाहा...! आ बधी आखो दि’ वेपार-धंधानी धमाल चाले छे ने? पोते दुकानना थडे बेठो होय ने माल आवे ने जाय, पैसा आवे ने जाय; अहीं कहे छे, आत्माने ए बधा साथे देखवामात्र संबंध छे, अर्थात् आत्मा-जीव एने जाणे खरो, पण जाणवा उपरांत ए बधाने करे ने वेदे एवो एनो स्वभाव नथी. आंख जेम अग्नि वगेरे द्रश्य पदार्थने कांई करती नथी, तेम भगवान आत्मा कर्म के कर्मथी प्राप्त चीजो-ए कोईने करतो के भोगवतो नथी.

‘परंतु केवळ ज्ञानमात्र स्वभाववाळुं (जाणवाना स्वभाववाळुं) होवाथी कर्मना बंधने तथा मोक्षने, कर्मना उदयने तथा निर्जराने केवळ जाणे ज छे.’

अहाहा....! जोयुं? आत्मानो केवळ ज्ञानमात्र स्वभाव छे, जाणवामात्र स्वभाव छे. एटले शुं? के रागादि करवानो आत्मानो स्वभाव नथी, पर वस्तु तो क्यांय दूर रही. आत्मानो राग करवो ए स्वभाव नथी. केवळ ज्ञानस्वभावपणुं कह्युं ने?