Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Kalash: 199-202 ; Gatha: 321-327.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 161 of 210

 

PDF/HTML Page 3201 of 4199
single page version

मतलब के जाणे सौने पण करे कोईने नहि. आवी वात! विषयवासनाना काळे संयोगने देखे, पण ते संयोगने ने संयोगीभाव जे वासना तेने करतो नथी, भोगवतो नथी. सामी चीजने ए करतो ने भोगवतो देखाय छे ने! अहीं कहे छे -ए-ज्ञानस्वभावी आत्मा, एनो ज्ञानमात्र स्वभाव होवाथी, परने करतो ने भोगवतो नथी.

जुओ, अहीं ज्ञान केवळ ज्ञानमात्रस्वभाववाळुं छे एम कहीने एकांत कर्युं. पण बापु! ए तो सम्यक् एकांत छे भाई! केमके भगवान आत्मानो एकांत ज्ञानस्वभाव ज छे. कथंचित् ज्ञानस्वभाव ने कथंचित् कर्तास्वभाव एवुं आत्मवस्तुनुं स्वरूप ज नथी, एवुं ज्ञाननुं स्वरूप ज नथी.

त्यारे कोई वळी कहे छे- कथंचित् बंधने मोक्षनुं कर्तापणुं कहो तो अनेकान्त थाय.

अरे भाई! एम नथी बापा! भगवान आत्मा केवळ ज्ञानमात्रस्वभाववाळो होवाथी ‘जाणवुं’ तो करे पण ते बंधने-रागने करतो नथी, तेम ते रागने वेदतो पण नथी, बंधने-रागने ज्ञान जाणे, एनो केवळ ज्ञानस्वभाव छे ने! तो रागने-बंधने ज्ञान जाणे, पण तेने ए करे के वेदे-एवुं एनुं स्वरूप नथी. ल्यो, हवे परनुं-आ झवेरात, हीरा, माणेक-मोतीनुं ने कपडां वगेरेनुं करवुं तो कयांय दूर रही गयुं. समजाणुं कांई...?

अहा! एक रजकणथी मांडीने आखी दुनियाने ए जाणे, पण जाणवाना संबंधमात्रथी एने परने ने रागने करवा ने वेदवानो संबंध थई जाय एवी वस्तु नथी. ज्ञानतत्त्ववस्तु खूब सूक्ष्म छे भाई! लोको तो एने स्थूळ संयोगना ने रागना संबंधथी माने छे, पण अहीं कहे छे, रागथी ने परथी भिन्न शुद्ध ज्ञानतत्त्व केवळ ज्ञानमात्रस्वभाववाळुं छे अने तेथी ते कर्मना बंधने मात्र जाणे ज छे. शुं कीधुं? जे कर्मनो बंध थाय तेने परज्ञेय तरीके जाणे छे, पण करे छे के भोगवे छे एम नहि. बहु आकरी वात! शुभना पक्षवाळाने आकरी पडे, पण शुं थाय? वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे त्यां (शुं थाय?)

अहाहा.....! ज्ञान नाम आत्माने केवळ ज्ञानमात्रस्वभाववाळो कह्यो त्यां वस्तुमां -आत्मामां एकलुं ज्ञान छे एम न लेवुं, पण बीजा अनंत गुण साथे ज अविनाभावपणे रहेला छे एम जाणवुं. एमां रागनुं के परनुं करवुं नथी माटे ‘ज्ञानमात्रस्वभाववाळुं’ -एम कह्युं छे. अहाहा....! ए बोले नहि, खाय नहि, चाले नहि, बीजाने शीखामण दे नहि, बीजानी शीखामण ले नहि.... अहाहा....! आवुं परनुं कांई करे नहि एवुं ज्ञानमात्र तत्त्व आत्मा छे. समजाणुं कांई....?


PDF/HTML Page 3202 of 4199
single page version

कोईने एम थाय के काले बपोरे तो एम आव्युं हतुं के ‘गुरुनां वचनोने पामीने.....’

भाई! ए तो स्वना आश्रये एणे अंदर सुद्रष्टि-समद्रष्टि प्रगट करी तो कह्युं के ‘गुरुनां वचनो पामीने...’ आ तो ते ते काळे उपस्थित बाह्य निमित्तनुं ज्ञान कराववा व्यवहारथी कहेवामां आव्युं छे. बाकी गुरुनां वचनो छे (गुरु वचन बोले छे) अने ए वचनोने कोई शिष्य ले छे-एवुं वस्तुस्वरूप नथी. ल्यो, आवी वात! समजाय छे कांई...?

अहीं कहे छे-केवळ ज्ञानमात्रस्वभाववाळुं होवाथी कर्मना बंधने करतुं नथी, मात्र जाणे ज छे, जुओ, शास्त्रमां आवे के चोथे गुणस्थाने आटली प्रकृति सत्तामां होय, आटलो उदय होय, आटलुं वेदन एटले अनुभाग होय, आटली प्रकृति बंधाय, आटली उदयमां आवे ने आटलीनी उदीरणा थाय-इत्यादि, पण भाई! ए तो आ बधुं जे होय तेने जाणे ज छे, एने करतो नथी. हवे नजीकनी चीज जे कर्म तेना उदयादिने ते मात्र जाणे ज छे, करतो नथी तो पछी परचीजने ए करे ए वात क्यां रही? आत्मा बोले, चाले, परने मदद करे के परथी मदद ले आदि परनी क्रिया करवी-ए वस्तुना स्वरूपमां नथी.

हा, पण बंधने ए भले न करे, पण मोक्षने तो ए करे छे ने?

ना, ते काळे ते पर्याय-पूरण मोक्ष दशा थाय ज तेने करे शुं? ज्ञान कहेतां शुद्ध आत्मद्रव्य मोक्षने पण करतुं नथी. जे समये जे सत्पणे छे तेने करे शुं? ‘करे’ ए तो जे न होय एने करे एम कहेवाय. शुं कीधुं? जेनी स्थिति न होय तेने करे एम कहेवाय. पण जाणनार ज्ञानीने तो जे मोक्षनी पर्याय छे तेने ए जाणे छे बस. अहाहा....! छे एने जाणे छे, पण करे-बरे छे एम छे नहि.

जुओ, एनामां एक ‘भाव’ नामनो गुण छे. आ गुणने लईने तने प्रति समय नियत पर्याय होय ज छे. अहा! आवुं जे द्रव्य तेनो ज्यां स्वीकार थयो त्यां पर्यायमां जे बंध-राग आदि छे तेने ए जाणे ज छे, करतो नथी, अहाहा...! जे ते गुणस्थाने तेना प्रमाणमां कर्मनो उदय आवे अने उदीरणा थाय, पण एने ए करतो नथी. अहाहा...! आ तो ३२० गाथा! बहु ऊंची! छेल्ली हद छे. ज्ञानस्वभाव... ज्ञानस्वभाव... ज्ञानस्वभाव एवी वस्तु छे. एमां बहु ताणीने, तुं कहे तो, ए जाणे देखे छे एम अमे कहीए, खरेखर तो (परनुं) जाणवुं-देखवुं-एय व्यवहार छे.

अहाहा...! पोते पोताने जाणे छे ए निश्चय ने परने जाणे छे ई व्यवहार;


PDF/HTML Page 3203 of 4199
single page version

बाकी परने करे ने वेदे ए तो वात ज नथी. भाई! अहीं तो आ कहेवुं छे के तुं बहु लई जा तो ए देखे-जाणे छे बस एटले राख, बाकी (परनुं) करवुं ने वेदवुं ए तो एने छे ज नहि. अहाहा...! आत्मतत्त्व ज्ञानस्वरूपी भगवान मोक्षने करे छे एम पण छे नहि.

तो एना पुरुषार्थनुं शुं? बापु! ए जाणे ए ज एनो पुरुषार्थ छे. जाणग-जाणग स्वभाव छे एनो; तो जाणवा प्रति वीर्य जाग्रत थाय ते पुरुषार्थ छे; केमके हुं करुं तो (पर्याय) थाय एवुं वस्तुना स्वरूपमां क्यां छे? नथी.

अहाहा...! ज्ञानमात्र स्वभाववाळो होवाथी ए बंधने करतो नथी, मोक्षनेय करतो नथी. अहाहा...! मोक्षनी पर्याय ते काळे थवानी ज छे, थाय छे, छे-तेने करवुं शुं? अहाहा...! जाणनारने, ते मोक्षनी पर्याय छे तेने करवुं क्यां छे? बापु! मोक्षनी पर्याय जे थाय छे ने छे तेने करवी ए तो विरुद्ध थई गयुं. छे तेने करे छे ए तो विरुद्ध छे, छे तेने बस जाणे ज छे ए वस्तुस्वरूप छे.

द्रव्य सत्, गुण सत् ने एक समयनी पर्याय पण सत् छे. मोक्षनी अवस्था जे थाय छे ते सत् छे. सत्पणे जे थाय ज छे एने हुं करुं छुं ए केम आवे? सत् छे, छेपणे छे एने शुं करे? अहा! आखी द्रव्यद्रष्टि जेने यथार्थ थई छे ते मोक्षने पण जाणे ज छे, मोक्षने करतो नथी. आवी वात बापु! बहु झीणी! लोको तो अत्यारे बहारमां (करवामां) ज पडी गया छे पण बापु! वस्तु आत्मा ज्ञानमात्र स्वभाववाळो होवाथी ते बंधने के मोक्षने करतो नथी, मात्र जाणे ज छे.

वळी कहे छे-ज्ञानमात्रस्वभाववाळो होवाथी कर्मना उदयने अने निर्जराने जाणे ज छे. अहाहा....! कर्मनो उदय पण ‘छे’ . उदय छे तेने परपणे जाणे छे. बस जाणे छे एटलुं ज, ए सिवाय बीजुं (-करे छे के वेदे छे एवुं) कांई छे नहि. निर्जरानेय बस जाणे छे, करे छे एम नहि.

अशुद्धतानुं गळवुं, शुद्धतानुं वधवुं ने कर्मनुं खरी जवुं एम निर्जरा त्रण प्रकारे छे. एमां अशुद्धतानुं गळवुं ए व्यवहारनयथी छे ने कर्मनुं टळवुं ए असद्भूत व्यवहारनयथी छे. शुद्धतानुं वधवुं ए वास्तविक निर्जरा छे. अहीं कहे छे -एक समयमां ए त्रणेय छे. हवे ए छे एने करवुं शुं? अहाहा..! शुद्धतानुं वधवुं ए एक समयनुं ते- ते समये सत् छे; हवे ए पर्याय सत्-विद्यमान छे तेने करवी शुं? अहाहा...! शुद्धोपयोगनी स्थिरता थतां त्यां शुद्धतानुं वधवुं होय छे. हवे छे, उपजे छे एने करवुं शुं? जेम मोक्ष उपजे छे तेम निर्जरा पण उपजे छे. हवे


PDF/HTML Page 3204 of 4199
single page version

हयाती लईने जे उपजे छे, छे एने करवुं छे ए वात क्यां छे? नथी. तेथी निर्जरानेय ए करतो नथी, केवळ जाणे ज छे.

अहाहा...! पर्यायना क्रमबद्ध प्रवाहमां एना काळे निर्जराय थाय छे तेने करवी शुं? हवे आवी वात समजमां बेसे नहि एटले एने ठेकाणे कोई लोको कहे के-परने सहाय करवी, गरीबोनां आंसु लूंछवा, एकबीजाने मदद करवी-अन्न, वस्त्र, औषधि आपवां-इत्यादि करे ते धर्म, ‘जनसेवा ते प्रभु सेवा’ -ल्यो, आवुं कहे. अनंतकाळथी ओशियाळी द्रष्टि खरी ने! पण बापु! ए तो विपरीत द्रष्टि छे. भाई! ए वीतरागनो मारग नहि प्रभु!

अहीं कहे छे-जेम ज्ञानस्वभावी त्रिकाळी आत्मद्रव्य सहज सत् छे, एनो ज्ञानस्वभाव त्रिकाळ सत् छे तेम एनी एक समयनी पर्याय पण वर्तमान सत् ज छे. जेम त्रिकाळीने करवो नथी तेम वर्तमान वर्तती पर्यायने पण करवी नथी, बहु झीणी वात प्रभु! जेम वस्तु आत्मा त्रिकाळ सत् छे तेम निर्जरा ने मोक्षनी पर्याय पण ते ते काळे सत् ज छे. हवे सत्पणे ‘छे’ एने शुं करवुं? एने मात्र जाणे छे. अहा! गजब वात करी छे. सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार छे ने! ए तो जाणवा-रूप पर्याय निर्जराने ने मोक्षने जाणे छे एम कह्युं, करे छे एम नहि, पण वास्तवमां तो निर्जराने ने मोक्षने ते ते काळे जाणे एवी जाणवारूप पर्याय स्वतः थवानी ज छे ते थाय छे. शुं कीधुं? निर्जरा ने मोक्षनी पर्याय तो ते ते काळे विद्यमानपणे छे, तेने ज्ञान जाणे छे एम कहेवाय, बाकी जाणवानी पर्याय पण ते काळे ते रीते ज सत् छे; निर्जरा ने मोक्ष छे माटे जाणनारी पर्याय छे एम नथी. अहा! आवुं बहु झीणुं!

भाई! आ तो सत्ने सत्पणे अहीं सिद्ध करे छे. एक समयनी पर्याय छे, परवस्तु छे, छे एने ज्ञान जाणे छे एम भले कहीए, वास्तवमां तो जाणे छे ए पर्याय पण ते काळे सत् ज छे. परवस्तु छे, पर्याय छे माटे एने जाणे छे एम नथी. अहाहा...! जे छे तेने ते काळे ते ज प्रकारे जाणे एवी ज्ञाननी पर्याय स्वयं सत् छे, बीजी चीज छे माटे एने जाणे छे एम नथी. जाणवानी पर्याय बीजी चीजनी अपेक्षा राखती नथी, पोते पोताना क्रममां जाणवापणे पोताथी ज विद्यमान छे. बीजाने जाणे छे एम कहीए ए तो व्यवहार छे. ल्यो, आवुं बहु झीणुं छे.

अहीं चार बोल लीधा छे. हवे बाकी शुं राख्युं? बंध, मोक्ष उदय अने निर्जराने ते ते काळे ज्ञान जाणे ज छे. राग-बंध थाय छे तेने ते काळे ज्ञान पोते पोताथी ज जाणतुं थकुं प्रगट थाय छे; राग ने बंध छे माटे एने जाणे छे एम ज्ञानने अपेक्षा नथी. रागनी-बंधनी अपेक्षा राखीने जाणवानी पर्याय थाय छे एम


PDF/HTML Page 3205 of 4199
single page version

नथी. वास्तवमां एने ज्ञान जाणे छे एम कहेवुं ए व्यवहार छे. अहाहा...! अनंत गुण, अनंती पर्याय, बंध, मोक्ष आदिने ते ते काळमां ज्ञाननी पर्याय ते ते प्रकारे जाणे ए रीते ज ते स्वतः स्वतंत्र उत्पन्न थाय छे. आवी वात छे.

त्यारे कोई पंडितो वळी कहे छे-परनो कर्ता न माने ते दिगंबर जैन नथी. अरे प्रभु! तुं शुं कहे छे आ? आ दिगंबराचार्य शुं कहे छे ए तो जो अहाहा...! कर्ता तो नहि, पण खरेखर तो एनो जाणनारे नहि. जाणनारी पर्याय जाणगने- जाणनारने जाणती सत्पणे उत्पन्न थाय छे. ए तो अहीं बंध-उदय आदिने जाणे छे एम व्यवहार सिद्ध कर्यो छे. समजाय छे कांई...? जाणवानी पर्याय ने बंध -मोक्ष आदि पर्याय, तथा अनंता गुणनी अनंती पर्याय अक्रमे उत्पन्न थाय छे तेने ते ते काळे ते प्रकारे ज्ञान जाणे छे ए व्यवहार छे. आवी झीणी वात!

प्रश्नः– आ जाणवुं एमां गर्भित कर्तापणुं आव्युं के नहि? उत्तरः– अहा! जाणवानुं करुं एम (पण) नहि. ए जाणवानी पर्याय ते काळे सहजपणे ज सतरूप छे, अने थाय छे. हवे आवुं छे त्यां में आ कर्युं ने तें कर्युं, में छोकरांने पाळ्‌यां-पोष्यां ने मोटा कर्यां, ने में वेपार-धंधा कर्या ने हुं पैसा रळ्‌यो ए वात न क्यां रहे छे? बापु! ए तो बधी मिथ्या कल्पना ज छे, बधुं गपे-गप छे. समजाय छे कांई...?

हवे ज्यां पोतानी निर्जरा ने मोक्षनी पर्यायने पण जाणवानुं काम करे छे एम पण कथनमात्र छे त्यां परने-पर रजकणोने ने स्कंधने-ए पलटावे-बदलावे ए वात ज क्यां रहे छे! आत्मा रोटली करे ने लाडवो वाळे ने वेपार करे- ए बधुं बापु! गपे-गप ज छे. ए तो ते ते समये ते ते (रोटली वगेरे पर्याय) सत् छे तो ए प्रकारे परिणमन थाय छे. तेमां तारा हेतुनी क्यां जरूर-अपेक्षा छे? अने ते ते काळे ज्ञान तेने एम ज जाणे छे एमां एनी क्यां अपेक्षा छे? जैनतत्त्व खूब गंभीर छे भाई! अहीं तो सिद्ध करवुं छे के - भगवान! तुं ज्ञान छो तो तुं एने (बंध-मोक्ष आदिने) जाणे बस एटलुं राख, पण एने करे ने वेदे ए भगवान! तारुं स्वरूप ज नथी. हवे आवो मारग!

त्यां वळी कोई कहे- एकेन्द्रिय आदिनी रक्षा करो, हिंसा न करो ए जैननो मारग छे.

समाधानः– बापु! ए बधां व्यवहारनां वचन भाई! बाकी शुं तुं अन्य जीवनी रक्षा करी शके छे? कदीय नहि हों. ए तो ते ते काळे हिंसा थवानी नथी ज, रक्षा थवानी छे तेने ज्ञान जाणे छे; ते पण पर जीवनी रक्षा एनी अपेक्षा राखीने ज्ञान थाय छे ए नथी. अहा! आवुं अलौकिक सत्नुं स्वरूप छे.


PDF/HTML Page 3206 of 4199
single page version

श्री योगीन्द्रदेवे पण कह्युं छे के-

ण वि उपज्जइ ण वि मरइ, बंधु ण मोक्खु करेइ।
जिउ परमत्थे जोइया, जिणवर एउ भणेइ।।

श्री जयसेनाचार्यनी टीकामां आ लीधुं छे के - ‘जिनवर एम कहे छे के’ ... कहे छे-एम कह्युं ने? भाई! ए तो वाणी वाणीना कारणे आवे छे, पण भगवान ते काळे निमित्त छे तो कह्युं के ‘जिणवर एउ भणेई?’ भगवान छे माटे वाणी आवे छे एम नथी. वास्तवमां जेम भगवान छे तेम वाणी पण ते काळे स्वतः विद्यमान छे. (कोईना कारणे कोई छे एम छे ज नहि) ए तो सर्वोत्कृष्ट निमित्तनुं ज्ञान कराववा कह्युं के ‘जिणवर एउ भणेइ’ ।

जिनवर कहे छे के-हे योगी!-अहाहा....! योगने आत्मामां जोडनार हे योगी! परमार्थे जीव उपजतो पण नथी, मरतो पण नथी, ने बंध अने मोक्षने पण करतो नथी. आनो अर्थ ज आ थयो के आत्मा जे ज्ञानमात्रस्वभाव छे एना तरफ ज्यां जाणवानुं लक्ष थयुं त्यां (करवुं) बधुं छूटी गयुं, बस पछी जे छे एने ए जाणे ज छे. निर्जराने ने मोक्षनेय ए जाणे ज छे. साधकना काळमां निर्जराने जाणे अने साध्यकाळे मोक्षने जाणे. बस जाणे एटलुं ज; त्यां जाणवानी पर्याय पण ते काळे तेनी ज पोताथी उपजे छे.

अहीं शुं कहे छे के- परमार्थे जीव उपजतो नथी, मरतोय नथी? उपजतो नथी शेमां? के पर्यायमां परमार्थे ते उपजतो नथी, व्यय पण करतो नथी. प्रवचनसार गाथा १०२ मां आव्युं छे के जे पर्याय उपजे छे तेने ध्रुवनी अपेक्षा नथी. हवे अने पोताना ध्रुवनी ज्यां अपेक्षा नथी त्यां परनी अपेक्षानी तो वात ज क्यां रही? ए बंध-मोक्ष इत्यादि जेवुं ज्ञेय होय तेवुं ज ते काळे जाणे छे, पण तेने (ज्ञाननी पर्यायने) बंध-मोक्ष आदि ज्ञेयनी अपेक्षा नथी. अहाहा...! जाणवाना ज्ञानमां, जाणावा योग्यज्ञेय बराबर आव्युं माटे तेने जाणे छे एम अपेक्षा लईने ज्ञानपर्याय थाय छे एम नथी.

अहाहा....!

‘ण वि उपज्जइ ण वि मरइ, बंधु ण मोक्खु करेइ’

अहाहा....! पूर्णानंदनो नाथ पूर्णज्ञानघन एकला ज्ञानस्वभावमय भगवान आत्मा छे एनी पर्यायमां (-ज्ञानपर्यायमां) अनंती पर्याय ने द्रव्य-गुण जणाय छे ते पर्याय सहज छे, तेने हुं उत्पन्न करुं छुं एम छे नहि, अहाहा...! बंधने, मोक्षने, उदयने, निर्जराने केवळ जाणुं ज छुं; जे छे तेने मात्र जाणुं ज छुं, पण करुं छुं के भोगवुं छुं एम छे नहि, हवे परनी दया करवी ने परनी मदद करवी इत्यादि तो भाई! तद्न तत्त्वविरुद्ध छे. ए कांई मार्ग नथी, ल्यो, आवी वात!


PDF/HTML Page 3207 of 4199
single page version

* गाथा ३२०ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञाननो स्वभाव नेत्रनी जेम दूरथी जाणवानो छे; माटे करवुं-भोगववुं ज्ञानने नथी. करवा-भोगववापणुं मानवुं ते अज्ञान छे.’

जुओ, आंख छे ते अग्निने जाणे, काष्टने जाणे, वींछीने जाणे, पण दूरथी ज जाणे छे; एमां भळीने न जाणे, आंख कांई अग्नि आदिमां न प्रवेशे अने अग्नि आदि पदार्थ आंखमां न पेसी जाय. ल्यो, आ प्रमाणे आंख दूरथी ज जाणे छे. तेम, कहे छे, ज्ञान दूरथी ज जाणे छे; ज्ञाननो स्वभाव नेत्रनी जेम दूरथी जाणवानो छे. अहाहा...! आत्मा ज्ञानस्वरूप छे अने ते रागादि पुण्य-पापना परिणामने दूरथी ज जाणे छे, तेमां भळीने- एकमेक थईने जाणे एम नहि. रागादिमां भळी जाय-एकमेक थई जाय एवो आत्मानो स्वभाव ज नथी. तेथी ज्ञान दूरथी जाणे पण एने करवुं-भोगववुं नथी.

शुं कीधुं? दुनियामां अनेक काम थाय तेने आंख दूरथी मात्र जाणे, करे नहीं. मकान बने तेने जाणे, पण करे एम नहि. तेम ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मा शरीर, मन, वाणी इत्यादिनी क्रियाने मात्र जाणे पण करे एम नहि. पुण्य-पापना भाव थाय तेने पण करे नहि, दूर रहीने मात्र जाणे. भाई! आवुं ज भगवान आत्मानुं स्वरूप छे. माटे करवुं-भोगववुं ज्ञानने नथी. अहा! आवा पोताना ज्ञानस्वभावनुं अंतरअवलंबने जेने भान थयुं तेने रागनुं करवुं-भोगववुं नथी.

तथापि करवा-भोगववापणुं मानवुं ते अज्ञान छे आ भगवाननी भक्तिना रागने हुं करुं छुं, हुं भोगवुं छुं-एम माने ए अज्ञान छे. अज्ञानवश ज जीव रागादिनो कर्ता-भोक्ता छे; बाकी चैतन्यसूर्य भगवान आत्मा छे ते शुभाशुभरागना अंधकारमां भळे शी रीते? चैतन्यबिंब प्रभु आत्मा रागथी एकमेक केम थाय? कदी न थाय. माटे सम्यग्द्रष्टि जीव, तेने राग आवे पण तेनो कर्ता-भोक्ता थतो नथी, रागमां भळ्‌या विना दूर रहीने मात्र तेनो ज्ञाता ज छे.

‘अहीं कोई पूछे के-“एवुं तो केवळज्ञान छे. बाकी ज्यां सुधी मोहकर्मनो उदय छे त्यां सुधी तो सुखदुःख-रागादिरूपे परिणमन थाय ज छे, तेम ज ज्यां सुधी दर्शनावरण, ज्ञानावरण तथा वीर्यांतरायनो उदय छे त्यां सुधी अदर्शन, अज्ञान तथा असमर्थपणुं होय ज छे; तो पछी केवळज्ञान थया पहेलां ज्ञाताद्रष्टापणुं केम कहेवाय?’

जुओ, आ शिष्यनो प्रश्न! एम के चोथेगुणस्थाने ज्यां आत्मज्ञान थयुं त्यां कर्ताभोक्तापणुं नथी, मात्र ज्ञातापणुं छे एम कह्युं, पण ए तो केवळज्ञानने लागु


PDF/HTML Page 3208 of 4199
single page version

पडे; केमके नीचेनी भूमिकावाळाने तो कर्मनो उदय छे, सुखदुःखरूपे परिणमन थाय ज छे. ज्यांसुधी दर्शनावरण, ज्ञानावरण ने वीर्यांतरायनो उदय छे त्यां सुधी अदर्शन, अज्ञान अने असमर्थपणुं होय ज छे. तो पछी केवळज्ञान थया पहेलां ज्ञाता-द्रष्टापणुं केम कह्युं?

तेनुं समाधानः– ‘पहेलेथी कहेता ज आव्या छीए के जे स्वतंत्रपणे करे-भोगवे, तेने परमार्थे कर्ता-भोक्ता कहेवाय छे. माटे ज्यां मिथ्याद्रष्टिरूप अज्ञाननो अभाव थयो त्यां परद्रव्यना स्वामीपणानो अभाव थयो अने त्यारे जीव ज्ञानी थयो थको स्वतंत्रपणे तो कोईनो कर्ता-भोक्ता थतो नथी, तथा पोतानी नबळाईथी कर्मना उदयनी बळजोरीथी जे कार्य थाय छे तेनो कर्ता-भोक्ता परमार्थद्रष्टिए तेने कहेवातो नथी.’

ज्ञानी जीव शुद्ध चेतनामात्र भावनो स्वामी थयो ते रागादि परद्रव्यनो स्वामी मटी गयो छे. हवे तेने विकारभाव हुं करुं-भोगवुं’ एम अभिप्राय नथी अने तेनो उत्साह पण नथी. (तेने तो एक शुद्धोपयोगनो ज उत्साह छे) तेथी उदयनी बळजोरीथी अर्थात् पोताना पुरुषार्थनी नबळाईथी जे अस्थिरतानो राग तेने थाय छे तेनो ते परमार्थे कर्ता-भोक्ता कहेवातो नथी. अहीं बे वात करीः

१. ज्ञानी स्वतंत्रपणे रागादिनो कर्ता-भोक्ता थतो नथी, अने

२. पुरुषार्थनी नबळाईने लीधे उदयमां जोडातां किंचित् अस्थिरतानो राग तेने

थाय छे तेनो परमार्थे ते कर्ता-भोक्ता नथी.

हवे विशेष कहे छे- ‘वळी ते कार्यना निमित्ते कांईक नवीन कर्मरज लागे पण छे तोपण तेने अहीं बंधमां गणवामां आवती नथी. मिथ्यात्व छे ते ज संसार छे. मिथ्यात्व गया पछी संसारनो अभाव ज थाय छे. समुद्रमां बिंदुनी शी गणतरी?’

पुण्य-पाप आदि भाव मारा छे एवी जे मिथ्याद्रष्टि छे ते ज संसार छे. आ बैरां-छोकरां ते संसार-एम नथी, केमके परवस्तुने आत्मा ग्रहे-छोडे ए एना स्वरूपमां नथी. परवस्तुना ग्रहण-त्यागथी आत्मा शून्य छे. तथापि परवस्तु मारी हुं तेने करुं- भोगवुं एवी मिथ्या मान्यता करे ते ज संसार छे.

ज्ञानीने मिथ्या अभिप्राय मटी गयो छे, तोपण पुरुषार्थनी नबळाईने लीधे किंचित् अल्प रागादि तेने थाय छे अने तेना निमित्ते किंचित् अल्प कर्मबंध पण तेने थाय छे; पण तेने अहीं गणवामां आवेल नथी. केम? केमके मिथ्यात्व छे ते ज मुख्यपणे बंध छे अने ते ज संसारनुं मूळ छे. मूळ कपाई गया पछी संसारनी अवधि


PDF/HTML Page 3209 of 4199
single page version

केटली? मिथ्यात्व गया पछी संसारनो अभाव ज थाय छे. जेने समकितनी बीज उगी तेने पूनमना पूरण चंद्रनी जेम पूर्ण केवळज्ञान थाय ज छे.

‘समुद्रमां बिंदुनी शी गणतरी? ’ एम के संसारनुं बीज एवुं मिथ्यादर्शन गयुं पछी किंचित् राग-बंध थाय तेनी शुं विसात? ए तो नाश थवा खाते ज छे; केमके समकिती धर्मी पुरुष क्रमे पुरुषार्थ वधारीने तेनो नाश करी ज दे छे. केवुं सरस स्पष्टीकरण कर्युं छे!

हवे कहे छे- ‘वळी एटलुं विशेष जाणवुं के-केवळज्ञानी तो साक्षात् शुद्धात्मस्वरूप ज छे अने श्रुतज्ञानी पण शुद्धनयना अवलंबनथी आत्माने एवो ज अनुभवे छे; प्रत्यक्ष-परोक्षनो ज भेद छे.’

जुओ, अरिहंत परमात्मा तो साक्षात् शुद्धात्मस्वरूप ज छे. चोथे गुणस्थाने श्रुतज्ञानी पण शुद्धनयना अवलंबनथी आत्माने शुद्धात्मस्वरूप ज अनुभवे छे; मात्र प्रत्यक्ष-परोक्षनो ज भेद छे. केवळज्ञानी आत्माने प्रत्यक्ष अनुभवे छे, ज्यारे श्रुतज्ञानी परोक्ष अनुभवे छे. तेने आनंदनुं वेदन छे ते अपेक्षाए आत्मा स्वानुभव-प्रत्यक्ष छे एम पण कहीए छीए.

‘माटे श्रुतज्ञानीने ज्ञान-श्रद्धाननी अपेक्षाए तो ज्ञाता-द्रष्टापणुं ज छे अने चारित्रनी अपेक्षाए प्रतिपक्षी कर्मनो जेटलो उदय छे तेटलो घात छे तथा तेने नाश करवानो उद्यम पण छे. ज्यारे ते कर्मनो अभाव थशे त्यारे साक्षात् यथाख्यात-चारित्र थशे अने त्यारे केवळज्ञान थशे.’

जुओ, ज्ञानीने द्रष्टि-श्रद्धा अपेक्षाए ज्ञाता-द्रष्टापणुं ज छे, पण चारित्र अपेक्षा जेटलो उदय छे तेटलो घात छे. अहा! ज्ञानीने जेटलो राग छे तेटलो शांतिनो घात छे, छतां तेनो नाश करवानो उद्यम पण छे, केमके तेने रागनी भावना नथी, पण एक शुद्धोपयोगनी ज भावना छे, ज्यां ते स्वस्वरूपमां अति उग्रपणे स्थिर थाय छे त्यां रागनो उदय थतो नथी अने ए प्रमाणे रागनो क्षय-अभाव थाय छे. आ रीते ज्यारे ते (-अस्थिरतानो) राग सर्वथा नाश पामे त्यारे साक्षात् यथाख्यात्चारित्र-पूरण वीतराग चारित्र प्रगट थशे अने त्यारे केवळज्ञान थशे.

‘अहीं सम्यग्द्रष्टिने ज्ञानी कहेवामां आवे छे ते मिथ्यात्वना अभावनी अपेक्षाए कहेवामां आवे छे.’ केवळज्ञान होय तो ज्ञानी एम अर्थ अहीं नथी. तेम ज बहु शास्त्रो जाणे माटे ज्ञानी एम पण अर्थ नथी. परंतु स्वस्वरूपना आश्रये आत्मानां सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान अंदर प्रगट थयां छे ते ज्ञानी छे एम अहीं वात छे.


PDF/HTML Page 3210 of 4199
single page version

‘ज्ञानसामान्यनी अपेक्षा लईए तो सर्व जीव ज्ञानी छे अने विशेष अपेक्षा लईए तो ज्यांसुधी किंचित्मात्र पण अज्ञान रहे त्यां सुधी ज्ञानी कही शकाय नहि-जेम सिद्धांतमां भावोनुं वर्णन करतां, ज्यांसुधी केवळज्ञान न उपजे त्यांसुधी अर्थात् बारमा गुणस्थान सुधी अज्ञानभाव कह्यो छे. माटे अहीं जे ज्ञानी-अज्ञानीपणुं कह्युं ते सम्यक्त्व-मिथ्यात्वनी अपेक्षाए ज जाणवुं.’

जुओ, ज्ञानसामान्यनी अपेक्षा सर्व जीवने ज्ञानी कह्या, केमके सामान्यपणे सर्व जीव ज्ञानस्वरूप ज छे.

विशेष अपेक्षा ज्यांसुधी किंचित्मात्र अज्ञान रहे त्यां सुधी जीवने अज्ञानी कह्यो; जेम सिद्धांतमां बारमा गुणस्थान सुधी अज्ञानभाव कह्यो. अहीं अज्ञान एटले मिथ्याज्ञान नहि पण ओछुं ज्ञान एम अर्थ छे. बारमा गुणस्थाने वीतराग थयो छे पण एने परिपूर्णज्ञान-केवळज्ञान नथी, ओछुं ज्ञान छे. ते अपेक्षा त्यां अज्ञानभाव कह्यो.

सम्यग्द्रष्टिने ज्ञानी कह्यो छे ते आत्मानुं एने यथार्थ ज्ञान-श्रद्धान थयुं छे ते अपेक्षाए कह्यो छे. अहीं जे ज्ञानी-अज्ञानीपणुं कह्युं छे ते सम्यक्त्व-मिथ्यात्वनी अपेक्षाए समजवुं. मतलब के-

१. सम्यक्त्व सहित जीव ज्ञानी छे.

२. मिथ्यात्व सहित जीव अज्ञानी एटले मिथ्याज्ञानी छे. सम्यग्दर्शन विना कोई अगियार अंग भणे तोय अज्ञानी छे. तथा कोईने शास्त्रनुं विशेष ज्ञान न होय पण अंतरमां भेदज्ञान थयुं होय, रागथी भिन्न आत्मानां ज्ञान-श्रद्धान थयां होय तो ते जीव ज्ञानी छे.

शिवभूति मुनिनी वात आवे छेः गुरुए कह्युं- ‘मा रुष मा तुष’ -कोई प्रति राग न कर, द्वेष न कर-; हवे ए शब्द तो भूली गया, पण एक वार एक बाई अडदनी दाळनां फोतरां जुदी पाडती हती त्यारे तेने बीजी एक बाईए पूछयुं बेन, शुं करो छो आ? त्यारे ते बाईए जवाब दीधो-आ दाळमांथी फोतरां जुदां पाडुं छुं. बस, आ सांभळीने शिवभूति मुनिराज एकदम अंदर सोंसरा ऊंडा उतरी गया. अहो! आ पुण्यना परिणाम तो फोतरां जेवा छे; अंदर मारो नाथ तो राग रहित अति उज्ज्वल ज्ञानस्वभावे प्रकाशे छे-बस आम भेदविज्ञान करी अंतर-अनुभव करी स्वरूपमां एवा स्थिर थया के अंतर्मुहूर्तमां केवळज्ञानज्योति प्रगट थई गई.


PDF/HTML Page 3211 of 4199
single page version

आ प्रमाणे भेदविज्ञान ते ज्ञान छे अने ते वडे जीव ज्ञानी छे. भेदविज्ञान विना जीव अज्ञानी छे. आवी वात छे.

*

हवे, जेओ-जैनना साधुओ पण-सर्वथा एकान्तना आशयथी आत्माने कर्ता ज माने छे तेमने निषेधतो, आगळनी गाथानी सूचनारूप श्लोक कहे छेः-

* कळश १९९ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

[ये तु तमसा तताः आत्मानं कर्तारम् पश्यन्ति] जेओ अज्ञान-अंधकारथी आच्छादित थया थका आत्माने कर्ता माने छे, [मुमुक्षुताम् अपि] तेओ भले मोक्षने ईच्छनारा होय तोपण [सामान्यजनवत्] सामान्य (लौकिक) जनोनी माफक [तेषाम् मोक्षः न] तेमनो पण मोक्ष थतो नथी.

शुं कहे छे? के तेमनो पण मोक्ष थतो नथी. कोनो? के जेओ अज्ञान-अंधकारथी व्याप्त थया थका आत्माने कर्ता माने छे.

अहाहा...! भगवान आत्मा चिद्ब्रह्म प्रभु एक ज्ञाता-द्रष्टास्वभावी छे. अहा! पोताना आवा स्वरूपने नहि जाणतां अज्ञानथी रागनी क्रिया-दया, दान, व्रत, भक्ति आदिनी क्रिया-करवानो मारो स्वभाव छे अर्थात् ए रागादि क्रिया मारुं कर्तव्य छे एम जे माने छे तेओ मूढ मिथ्याद्रष्टि छे. छ कायना जीवोनी रक्षा हुं करी शकुं अने ते मारुं कर्तव्य छे एम जेनी मान्यता छे ते भले बहारथी जैनमतानुसारी हो, द्रव्यचारित्र पाळतो हो, देव-गुरु-शास्त्रनी विनय-भक्तियुक्त हो, तथा शास्त्रोमां पारंगत हो, तोपण ते पोताने-आत्माने रागनो कर्ता माननारो मिथ्याद्रष्टि छे. जैन नथी. अहा! आवा पुरुषो (आत्माने कर्ता माननारा पुरुषो) भले मोक्षने ईच्छनारा हो तोपण सामान्य जनोनी माफक-तापसादि लौकिक जनोनी माफक-तेमनो पण मोक्ष थतो नथी.

आ सांभळीने कोईने (व्यवहारमूढ जीवने) खोटुं लागे, पण भाई! आ कोईना अनादरनी वात नथी, आ तो वस्तुनी स्थिति आवी छे एम वात छे; यथार्थ समजण करीने पोतानी भूल टाळवानी वात छे. बाकी दरेक आत्मा शक्तिपणे तो भगवान छे. (त्यां कोनो अनादर करीए?)

पापनो कर्ता थाय के पुण्यनो कर्ता थाय-बन्ने एक समानपणे विपरीतद्रष्टि छे, केमके भगवान आत्मा तो अकर्तास्वभाव छे, ज्ञाताद्रष्टा छे. तेथी जेओ आत्माने पुण्यनो कर्ता माने छे तेओ पण अन्य लौकिक मिथ्याद्रष्टिओनी जेम मोक्ष पामता नथी, बल्के दीर्घकाळ संसारमां रखडया ज करे छे. आवी वात छे.

[प्रवचन नं. ३८प * दिनांक ३-७-७७]

PDF/HTML Page 3212 of 4199
single page version

गाथा ३२१ थी ३२३
लोयस्स कुणदि विण्हू सुरणारयतिरियमाणुसे सत्ते।
समणाणं पि य अप्पा जदि कुव्वदि छव्विहे काऐ।। ३२१।।
लोयसमणाणमेयं सिद्धंतं जइ ण दीसदि विसेसो।
लोयस्स कुणइ विण्हू समणाण वि अप्पओ कुणदि।। ३२२।।
एवं ण को वि मोक्खो दीसदि लोयसमणाण दोण्हं पि।
णिच्चं
कुव्वंताणं सदेवमणुयासुरे लोए।। ३२३।।
लोकस्य करोति विष्णुः सुरनारकतिर्यङ्मानुषान् सत्त्वान्।
श्रमणानामपि चात्मा यदि करोति षङ्विधान् कायान्।। ३२१।।
लोकश्रमणानामेकः सिद्धान्तो यदि न द्रश्यते विशेषः।
लोकस्य करोति विष्णुः श्रमणानामप्यात्मा करोति।।
३२२।।
एवं न कोऽपि मोक्षो द्रश्यते लोकश्रमणानां द्वयेपामपि।
नित्यं
कुर्वतां सदेवमनुजासुरान् लोकान्।। ३२३।।

हवे आ ज अर्थने गाथा द्वारा कहे छेः-

ज्यम लोक माने ‘देव, नारक आदि जीव विष्णु करे,’
त्यम श्रमण पण माने कदी ‘आत्मा करे षट् कायने,’ ३२१.
तो लोक–मुनि सिद्धांत एक ज, भेद तेमां नव दीसे,
विष्णु करे ज्यम लोकमतमां, श्रमणमत आत्मा करे; ३२२.
ए रीत लोक–मुनि उभयनो मोक्ष कोई नहीं दीसे,
–जे देव, मनुज, असुरना त्रण लोकने नित्ये करे. ३२३.

गाथार्थः– [लोकस्य] लोकना (लौकिक जनोना) मतमां [सुरनारकतिर्यङ्मानुषान् सत्त्वान्] देव, नारक, तिर्यंच, मनुष्य-प्राणीओने [विष्णुः] विष्णु [करोति] करे छे; [च] अने [यदि] जो [श्रमणानाम् अपि] श्रमणोना (मुनिओना) मन्तव्यमां पण [षड्विधान् कायाम्] छ कायना जीवोने [आत्मा] आत्मा [करोति] करतो होय


PDF/HTML Page 3213 of 4199
single page version

(अनुष्टुभ्)
नास्ति सर्वोऽपि सम्बन्धः परद्रव्यात्मतत्त्वयोः।
कर्तृकर्मत्वसम्बन्धाभावे तत्कर्तृता कुतः।। २००।।

[यदि लोकश्रमणानाम्] तो लोक अने श्रमणोनो [एकः सिद्धान्तः] एक सिद्धांत थाय छे, [विशेषः] कांई फेर [न द्रश्यते] देखातो नथी; (कारण के) [लोकस्य] लोकना मतमां [विष्णुः] विष्णु [करोति] करे छे अने [श्रमणानाम् अपि] श्रमणोना मतमां पण [आत्मा] आत्मा [करोति] करे छे (तेथी कर्तापणानी मान्यतामां बन्ने समान थया). [एवं] ए रीते, [सदेवमनुजासुरान् लोकान्] देव, मनुष्य अने असुरवाळा त्रणे लोकने [नित्यं कुर्वतां] सदाय करता (अर्थात् त्रणे लोकना कर्ताभावे निरंतर प्रवर्तता) एवा [लोकश्रमणानां द्वयेषाम् अपि] ते लोक तेम ज श्रमण-बन्नेनो [कः अपि मोक्षः] कोई मोक्ष [न द्रश्यते] देखातो नथी.

टीकाः– जेओ आत्माने कर्ता ज देखे छे-माने छे, तेओ लोकोत्तर होय तोपण लौकिकताने अतिक्रमता नथी; कारण के, लौकिक जनोना मतमां परमात्मा विष्णु देवनारकादि कार्यो करे छे, अने तेमना (-लोकथी बाह्य थयेला एवा मुनिओना) मतमां पोतानो आत्मा ते कार्यो करे छे-एम *अपसिद्धांतनी (बन्नेने) समानता छे. माटे आत्माना नित्य कर्तापणानी तेमनी मान्यताने लीधे, लौकिक जनोनी माफक, लोकोत्तर पुरुषोनो (मुनिओनो) पण मोक्ष थतो नथी.

भावार्थः– जेओ आत्माने कर्ता माने छे, तेओ भले मुनि थया होय तोपण लौकिक जन जेवा ज छे; कारण के, लोक ईश्वरने कर्ता माने छे अने ते मुनिओए आत्माने कर्ता मान्यो-एम बन्नेनी मान्यता समान थई. माटे जेम लौकिक जनोने मोक्ष नथी, तेम ते मुनिओने पण मोक्ष नथी. जे कर्ता थशे ते कार्यना फळने भोगवशे ज, अने जे फळ भोगवशे तेने मोक्ष केवो?

हवे, ‘परद्रव्यने अने आत्माने कांई पण संबंध नथी, माटे कर्ताकर्मसंबंध पण नथी’ -एम श्लोकमां कहे छेः-

श्लोकार्थः– [परद्रव्य–आत्मतत्त्वयोः सर्वः अपि सम्बन्धः नास्ति] परद्रव्यने अने आत्मतत्त्वने सघळोय (अर्थात् कांई पण) संबंध नथी; [कर्तृ–कर्मत्व–सम्बन्ध–अभावे] एम कर्ताकर्मपणाना संबंधनो अभाव होतां, [तत्कर्तृता कुतः] आत्माने परद्रव्यनुं कर्तापणुं क्यांथी होय? _________________________________________________________________ * अपसिद्धांत = खोटो अथवा भूलभरेलो सिद्धांत


PDF/HTML Page 3214 of 4199
single page version

भावार्थः– परद्रव्यने अने आत्माने कांई पण संबंध नथी, तो पछी तेमने कर्ताकर्मसंबंध कई रीते होय? ए रीते ज्यां कर्ताकर्मसंबंध नथी, त्यां आत्माने परद्रव्यनुं कर्तापणुं कई रीते होई शके? २००.

*
समयसार गाथा ३२१ थी ३२३ः मथाळुं

हवे आ ज अर्थने गाथा द्वारा कहे छेः-

* गाथा ३२१ थी ३२३ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जेओ आत्माने कर्ता ज देखे छे-माने छे, तेओ लोकोत्तर होय तोपण लौकिकताने अतिक्रमता नथी; कारणके लौकिक जनोना मतमां परमात्मा विष्णु देवनारकादि कार्यो करे छे, अने तेमना (-लोकथी बाह्य थयेला एवा मुनिओना) मतमां पोतानो आत्मा ते कार्यो करे छे-एम अपसिद्धांतनी (बन्नेने) समानता छे.’

भगवान आत्मा एक ज्ञानस्वरूप छे. जाणवुं.... जाणवुं.... जाणवुं-बस जाणवुं ए एनो स्वभाव छे. अहा! आवा निजस्वभावने भूलीने पुण्यना भाव जे थाय तेनो हुं कर्ता अने ते मारुं कार्य-एम जे माने छे ते लोकोत्तर एटले के श्रावक के मुनि होय तोपण लौकिकताने अतिक्रमतो नथी; अर्थात् ते पण लौकिक जेवो ज छे. केम! केमके लौकिकमां जेम विष्णुने देवनारकादि जगतना कार्योनो कर्ता माने छे तेम आ (श्रावक के मुनि) पण पोताने रागादि संसारनो कर्ता माने छे. आ प्रमाणे अपसिद्धांतनी बन्नेने समानता छे. भाई! पोताने रागादि कार्योनो कर्ता माने ते श्रावक-क्षुल्लक-एल्लक के मुनि होय तोपण ते लौकिकजननी जेम मिथ्याद्रष्टि ज छे.

प्रवचनसारनी गाथा २३६ नी टीकामां कह्युं छे के-“स्वपरना विभागना अभावने लीधे काया अने कषाय साथे एकतानो अध्यवसाय करता एवा ते जीवो, (पोताने) विषयोनी अभिलाषानो निरोध नहि थयो होवाने लीधे छ जीवनिकायना घाती थईने सर्वतः (बधीये तरफथी) प्रवृत्ति करता होवाथी, तेमने सर्वतः निवृत्तिनो अभाव छे (अर्थात् एक्के तरफथी जराय निवृत्ति नथी).”

आत्मा अनंतगुणनो पिंड प्रभु एक ज्ञाताद्दष्टास्वभावमय छे. रागने करवो ए एनो स्वभाव नथी. रागने करे एवी कोई शक्ति-गुण एनामां नथी. हवे जे एनामां नथी ते रागादिनो पोताने कर्ता माने ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे. अहा! जैन नाम धरावतो होय अने बहारमां जिन आज्ञा अनुसार महाव्रतादि पाळतो होय तोपण षट्कायना जीवोनो हुं रक्षक छुं अने जीवोनी रक्षा मारुं कार्य छे एम जे माने छे ते अन्य लौकिकजन जेवो मिथ्याद्रष्टि छे, ते वास्तविक जैन नथी.

अहाहा....! भगवान आत्मा चैतन्यबिंब प्रभु चैतन्यप्रकाशना नूरनुं पूर छे. ते


PDF/HTML Page 3215 of 4199
single page version

रागरूपी अंधकारने केम करे? शुं प्रकाश अंधकारने करे? न करे. छतां दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि शुभभावनो हुं कर्ता छुं एम माने ते मिथ्याश्रद्धा वडे पोताना ज्ञातास्वभावने हणे छे. वास्तवमां ते पोतानी अदया करे छे. हवे कहे छे-

‘माटे आत्माना नित्य कर्तापणानी तेमनी मान्यताने लीधे, लौकिक जनोनी माफक, लोकोत्तर पुरुषोनो (मुनिओनो) पण मोक्ष थतो नथी.’

भाई! जेम आ छ द्रव्यमय लोक अनादिअनंत स्वयंसिद्ध छे, तेनो कोई कर्ता नथी; तेम राग थाय तेनो आत्मा कर्ता नथी. छतां राग करवो मारो स्वभाव छे एम आत्माने रागनो नित्य कर्ता माने ते निरंतर राग करवामां रोकायेलो रहेशे अने एना फळमां ते चारगतिमां रखडशे. अहा! पोताने कर्ता माने ते लोकोत्तर पुरुषो-मुनिजनो पण, लौकिक जनोनी माफक, मोक्षने प्राप्त थता नथी. जे कर्ता थई परिणमे ते चारगतिमां परिभ्रमणने ज प्राप्त थाय छे. आवी वात छे.

* गाथा ३२१ थी ३२३ः भावार्थ *

‘जेओ आत्माने कर्ता माने छे, तेओ भले मुनि थया होय तोपण लौकिक जन जेवा ज छे; कारण के, लोक ईश्वरने कर्ता माने छे अने ते मुनिओए आत्माने कर्ता मान्यो-एम बन्नेनी मान्यता समान थई, माटे जेम लौकिक जनोने मोक्ष नथी, तेम ते मुनिओने पण मोक्ष नथी. जे कर्ता थशे ते कार्यना फळने भोगवशे ज, अने जे फळ भोगवशे तेने मोक्ष केवो?’

जे रागनो कर्ता थाय तेने तेनुं फळ संसार ज मळे छे, अने जे संसारने भोगवे तेने मोक्ष केवो? तेने तो चतुर्गतिपरिभ्रमण ज रहे छे.

*

हवे, ‘परद्रव्यने अने आत्माने कंई पण संबंध नथी, माटे कर्ताकर्मसंबंध पण नथी’ -एम श्लोकमां कहे छेः-

* कळश २००ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘परद्रव्य–आत्मतत्त्वयोः सर्वः अपि सम्बन्धः नास्ति’ परद्रव्यने अने आत्मतत्त्वने सघळोय (अर्थात् कांईपण) संबंध नथी;

शुं कीधुं? आ लोकमां अनंत आत्मा अने अनंतानंत परमाणु छे; तेमने एकबीजाने कांईपण संबंध नथी. परस्पर एक-बीजा वच्चे अभाव छे ने? माटे एक बीजाने कांई संबंध नथी.


PDF/HTML Page 3216 of 4199
single page version

एक द्रव्य बीजाने (परिणमन काळे) निमित्त हो, पण निमित्त कांई करी दे छे एम नथी. स्वद्रव्यनां अने परद्रव्यनां चतुष्टय (द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भाव) भिन्न भिन्न छे. चतुष्टयमां पर्याय पण आवी गई. भाई! प्रत्येक द्रव्यनी पर्याय एनाथी छे, परद्रव्यने लईने ते पर्याय थाय एम त्रणकाळमां नथी. एक द्रव्यनो बीजा उपर प्रभाव पडे एम केटलाक कहे छे, पण ए बराबर नथी. भाई! प्रभाव ए शुं चीज छे? द्रव्य-गुण- पर्यायने छोडीने जगतमां कोई वस्तु नथी; अने एक द्रव्यनां द्रव्य-गुण-पर्याय बीजामां प्रवेशी जाय एम तो छे नहि. माटे कोईनो कोईना उपर प्रभाव पडे छे एम मानवुं बराबर नथी.

अहीं कहे छे-परद्रव्य अने आत्मतत्त्वने कांईपण संबंध नथी. भाई! एक तत्त्वने बीजां अनंत तत्त्व छे एनी साथे कांई संबंध नथी, स्त्रीने पुरुष साथे कांई संबंध नथी. जड कर्म एकक्षेत्रावगाहे छे तेने आत्मा साथे कांई संबंध नथी.

हा, पण निमित्त-नैमित्तिक संबंध तो छे ने? हा, छे; पण निमित्तनी पर्यायने स्वद्रव्यनी पर्याय साथे संबंध शुं छे? निमित्त तो परवस्तु छे. निमित्त पोताना द्रव्य-पर्यायमां निमित्तपणे ऊभुं छे अने भगवान आत्मा पोताना द्रव्य-पर्यायमां ऊभो छे. कोई कोईमां प्रवेशे एम तो छे नहि. तो निमित्त स्वद्रव्यनुं करे शुं? वास्तवमां स्वद्रव्य-परद्रव्यने परस्पर कोई संबंध छे ज नहि. एक चैतन्यतत्त्वने बीजा चैतन्यतत्त्व साथे के बीजा जड परमाणु साथे कांई संबंध नथी; केमके स्वद्रव्यमां परद्रव्यनो त्रिकाळ अभाव छे; ए पण परने लईने छे एम नथी पण परना अभावरूप पोतानो ज स्वभाव छे. आ प्रमाणे परद्रव्यने आत्मद्रव्य साथे कांईपण संबंध नथी. हवे कहे छे-

‘कर्तृ–कर्मत्व–संबंध–अभावे’ एम कर्ताकर्मपणाना संबंधनो अभाव होतां, ‘तत्कर्तृता कुतः’ आत्माने परद्रव्यनुं कर्तापणुं क्यांथी होय?

जुओ, आ प्रमाणे स्वद्रव्य-परद्रव्यने कर्ताकर्मसंबंध नथी तो पछी आत्माने परद्रव्यनुं कर्तापणुं केम होय? निश्चयथी ते परद्रव्यनो तो कर्ता नथी, रागनोय कर्ता नथी; अने एथी विशेष कहीए तो गाथा ३२० मां आवी गयुं के द्रव्य त्रिकाळी जे नित्यानंद प्रभु छे ते एनी निर्मळ पर्यायने-निर्जरा ने मोक्षनेय-करतुं नथी. ए तो ते ते पर्याय पोताना स्वकाळे पोताथी स्वयं प्रगट थाय छे. हवे आवी वात सांभळीने लोकोने खळभळाट थई जाय छे.

पण भाई! जगतनो कर्ता कोई ईश्वर छे एम माननार मिथ्याद्रष्टि छे तेम जैन साधु थईने छ कायना जीवोनी हुं रक्षा करी शकुं एम माननार पण मिथ्या-


PDF/HTML Page 3217 of 4199
single page version

द्रष्टि ज छे. कोईपण परद्रव्यनी क्रिया प्रभु! तुं न करी शके; आ वस्तुस्वरूप छे. परद्रव्यनी क्रिया थाय तेनो कर्ता आत्मा नथी.

* कळश २००ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘परद्रव्यने अने आत्माने कांईपण संबंध नथी, तोपछी तेमने कर्ताकर्मसंबंध कई रीते होय? ए रीते ज्यां कर्ताकर्मसंबंध नथी, त्यां आत्माने परद्रव्यनुं कर्तापणुं कई रीते होई शके?’

आ कळश बहु ऊंचो छे भाई! भाषा सादी छे, पण भाव खूब गंभीर. कहे छे- ‘सर्वोऽपि संबंधः नास्ति’ कांईपण संबंध नथी. तुं तारामां ने ए एनामां. माटे तुं परनुं कांई करी शके नहि. आ आंखनी पांपण हले ते आत्मानुं कार्य अने आत्मा तेनो कर्ता एम त्रणकाळमां नथी. एक द्रव्यनो बीजा पर प्रभाव पडे एम छे नहि.

हा, पण वाघ अने नाग शांत थईने एक साथे भगवाननी वाणी सांभळवा आवे ते अतिशय छे के नहि?

बापु! ए तो उपचारथी कहेवाय; बाकी अतिशय छे माटे शांत थई जाय छे एम नथी. पोतानी ते काळे ते पर्याय थवानी योग्यता छे तो ते थाय छे अने त्यारे भगवान निमित्त छे बस. भाई! ते पर्यायनी ते जन्मक्षण छे, बाकी भगवाने एमां कांई कर्युं छे एम छे नहि. आत्माने परद्रव्यनुं कर्तापणुं त्रणकाळमां छे नहि; आ सिद्धांत छे.

[प्रवचन नं. ३८६]
×

PDF/HTML Page 3218 of 4199
single page version

गाथा ३२४ थी ३२७
ववहारमासिदेण दु परदव्वं मम भणंति अविदिदत्था।
जाणंति णिच्छएण दु ण य मह परमाणुमित्तमवि किंचि।। ३२४।।
जह को वि णरो जंपदि अम्हं गामविसयणयररट्ठं।
ण य होंति तस्स ताणि दु भणदि य मोहेण सो अप्पा।। ३२५।।
एमेव मिच्छदिट्ठी णाणी णीसंसयं हवदि एसो।
जो परदव्वं मम इदि जाणंतो अप्पयं कुणदि।। ३२६।।
तम्हा ण मे त्ति णच्चा दोण्ह वि एदाण कत्तविवसायं।
परदव्वे जाणंतो जाणेज्जो दिट्ठिरहिदाणं।। ३२७।।
व्यवहारभाषितेन तु परद्रव्यं मम भणन्त्यविदितार्थाः।
जानन्ति निश्चयेन तु न च मम परमाणुमात्रमपि किञ्चित्।। ३२४।।

हवे, “जेओ व्यवहारनयना कथनने ग्रहीने ‘परद्रव्य मारुं छे’ एम कहे छे, ए रीते व्यवहारने ज निश्चय मानी आत्माने परद्रव्यनो कर्ता माने छे, तेओ मिथ्याद्रष्टि छे” इत्यादि अर्थनी गाथाओ द्रष्टांत सहित कहे छेः-

व्यवहारमूढ अतत्त्वविद् परद्रव्यने ‘मारुं’ कहे,
‘परमाणुमात्र न मारुं’ ज्ञानी जाणता निश्चय वडे. ३२४.
ज्यम पुरुष कोई कहे ‘अमारुं गाम, पुर ने देश छे,’
पण ते नथी तेनां, अरे! जीव मोहथी ‘मारां’ कहे; ३२प.
एवी ज रीत जे ज्ञानी पण ‘मुज’ जाणतो परद्रव्यने,
निजरूप करे परद्रव्यने, ते जरूर मिथ्यात्वी बने. ३२६.
तेथी ‘न मारुं’ जाणी जीव, परद्रव्यमां आ उभयनी
कर्तृत्वबुद्धि जाणतो, जाणे
सुद्रष्टिरहितनी. ३२७.

PDF/HTML Page 3219 of 4199
single page version

यथा कोऽपि नरो जल्पति अस्माकं ग्रामविषयनगरराष्ट्रम्।
न च भवन्ति तस्य तानि तु भणति च मोहेन स आत्मा।। ३२५।।
एवमेव मिथ्याद्रष्टिर्ज्ञानी निःसंशयं भवत्येषः।
यः परद्रव्यं ममेति जानन्नात्मानं करोति।।
३२६।।
तस्मान्न मे इति ज्ञात्वा द्वयेषामप्येतेषां कर्तृव्यवसायम्।
परद्रव्ये जानन् जानीयात् द्रष्टिरहितानाम्।। ३२७।।

गाथार्थः– [अविदितार्थाः] जेमणे पदार्थनुं स्वरूप जाण्युं नथी एवा पुरुषो [व्यवहारभाषितेन तु] व्यवहारनां वचनोने ग्रहीने [परद्रव्यं मम] ‘परद्रव्य मारुं छे’ [भणन्ति] एम कहे छे, [तु] परंतु ज्ञानीओ [निश्चयेन जानन्ति] निश्चय वडे जाणे छे के [किञ्चित्] कोई [परमाणुमात्रम् अपि] परमाणुमात्र पण [न च मम] मारुं नथी’ .

[यथा] जेवी रीते [कः अपि नरः] कोई पुरुष [अस्माकं ग्रामविषयनगरराष्ट्रम्] ‘अमारुं गाम, अमारो देश, अमारुं नगर, अमारुं राष्ट्र’ [जल्पति] एम कहे छे, [तु] परंतु [तानि] ते [तस्य] तेनां [न च भवन्ति] नथी, [मोहेन च] मोहथी [सः आत्मा] ते आत्मा [भणति] ‘मारां’ कहे छे; [एवम् एव] तेवी ज रीते [यः ज्ञानी] जे ज्ञानी पण [परद्रव्यं मम] ‘परद्रव्य मारुं छे’ [इति जानन्] एम जाणतो थको [आत्मानं करोति] परद्रव्यने पोतारूप करे छे, [एषः] ते [निःसंशयं] निःसंदेह अर्थात् चोक्कस [मिथ्याद्रष्टिः] मिथ्याद्रष्टि [भवति] थाय छे.

[तस्मात्] माटे तत्त्वज्ञो [न मे इति ज्ञात्वा] ‘परद्रव्य मारुं नथी’ एम जाणीने, [एतेषां द्वयेषाम् अपि] आ बन्नेनो (-लोकनो अने श्रमणनो-) [परद्रव्ये] परद्रव्यमां [कर्तृव्यवसायं जानन्] कर्तापणानो व्यवसाय जाणता थका, [जानीयात्] एम जाणे छे के [द्रष्टिरहितानाम्] आ व्यवसाय सम्यग्द्रर्शन रहित पुरुषोनो छे.

टीकाः– अज्ञानीओ ज व्यवहारविमूढ (व्यवहारमां ज विमूढ) होवाथी परद्रव्यने ‘आ मारुं छे’ एम देखे छे-माने छे; ज्ञानीओ तो निश्चयप्रतिबुद्ध (निश्चयना जाणनारा) होवाथी परद्रव्यनी कणिकामात्रने पण ‘आ मारुं छे’ एम देखता नथी. तेथी, जेम आ जगतमां कोई व्यवहारविमूढ एवो पारका गाममां रहेनारो माणस ‘आ गाम मारुं छे’ एम देखतो-मानतो थको मिथ्याद्रष्टि (-खोटी द्रष्टिवाळो) छे. तेम जो ज्ञानी पण कोई पण प्रकारे व्यवहारविमूढ थईने परद्रव्यने ‘आ मारुं छे’ एम देखे तो ते वखते ते पण निःसंशयपणे अर्थात् चोक्कस,


PDF/HTML Page 3220 of 4199
single page version

(वसन्ततिलका)
एकस्य वस्तुन इहान्यतरेण सार्धं
सम्बन्ध एव सकलोऽपि यतो निषिद्धः।
तत्कर्तृकर्मघटनास्ति न वस्तुभेदे
पश्यन्त्वकर्तृ मुनयश्च जनाश्च तत्त्वम्।। २०१।।
(वसन्ततिलका)
ये तु स्वभावनियमं कलयन्ति नेम–
मज्ञानमग्नमहसो बत ते वराकाः।
कुर्वन्ति कर्म तत एव हि भावकर्म–
कर्ता स्वयं भवति चेतन एव नान्यः।। २०२।।

परद्रव्यने पोतारूप करतो थको, मिथ्याद्रष्टि ज थाय छे. माटे तत्त्वने जाणनारो पुरुष ‘सघळुंय परद्रव्य मारुं नथी’ एम जाणीने, ‘लोक अने श्रमण-बन्नेने जे आ परद्रव्यमां कर्तृत्वनो व्यवसाय छे ते तेमना सम्यग्द्रर्शनरहितपणाने लीधे ज छे’ एम सुनिश्चितपणे जाणे छे.

भावार्थः– जे व्यवहारथी मोही थईने परद्रव्यनुं कर्तापणुं माने छे ते-लौकिक जन हो के मुनिजन हो-मिथ्याद्रष्टि ज छे. ज्ञानी पण जो व्यवहारमूढ थईने परद्रव्यने ‘मारुं’ माने तो मिथ्याद्रष्टि ज थाय छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः– [यतः] कारण के [इह] आ लोकमां [एकस्य वस्तुनः अन्यतरेण सार्ध सकलः अपि सम्बन्धः एव निषिद्धः] एक वस्तुनो अन्य वस्तुनी साथे सघळोय संबंध ज निषेधवामां आव्यो छे, [तत्] तेथी [वस्तुभेदे] ज्यां वस्तुभेद छे अर्थात् भिन्न वस्तुओ छे त्यां [कर्तृकर्मघटना अस्ति न] कर्ताकर्मघटना होती नथी- [मुनयः च जनाः च] एम मुनिजनो अने लौकिक जनो [तत्त्वम् अकर्तृ पश्यन्तु] तत्त्वने (वस्तुना यथार्थ स्वरूपने) अकर्ता देखो (-कोई कोईनुं कर्ता नथी, परद्रव्य परनुं अकर्ता ज छे- एम श्रद्धामां लावो). २०१.

“जे पुरुषो आवो वस्तुस्वभावनो नियम जाणता नथी तेओ अज्ञानी थया थका कर्मने करे छे; ए रीते भावकर्मनो कर्ता अज्ञानथी चेतन ज थाय छे.” -आवा अर्थनुं, आगळनी गाथाओनी सूचनारूप काव्य हवे कहे छेः-

श्लोकार्थः– (आचार्यदेव खेदपूर्वक कहे छे केः) [बत] अरेरे! [ये तु