Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 328-331 ; Kalash: 203-204.

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इमम् स्वभावनियमं न कलयन्ति] जेओ आ वस्तुस्वभावना नियमने जाणता नथी [ते वराकाः] तेओ बिचारा, [अज्ञानमग्नमहसः] जेमनुं (पुरुषार्थरूप-पराक्रमरूप) तेज अज्ञानमां डूबी गयुं छे एवा, [कर्म कुर्वन्ति] कर्मने करे छे; [ततः एव हि] तेथी [भावकर्मकर्ता चेतनः एव स्वयं भवति] भावकर्मनो कर्ता चेतन ज पोते थाय छे, [अन्यः न] अन्य कोई नहि.

भावार्थः– वस्तुना स्वरूपना नियमने नहि जाणतो होवाथी परद्रव्यनो कर्ता थतो

अज्ञानी (-मिथ्याद्रष्टि) जीव पोते ज अज्ञानभावे परिणमे छे; ए रीते पोताना भावकर्मनो कर्ता अज्ञानी पोते ज छे, अन्य नथी. २०२.

*
समयसार गाथा ३२४ थी ३२७ः मथाळुं

हवे, “जेओ व्यवहारनयना कथनने ग्रहीने ‘परद्रव्य मारुं छे’ एम कहे छे, ए रीते व्यवहारने ज निश्चय मानी आत्माने परद्रव्यनो कर्ता माने छे, तेओ मिथ्याद्रष्टि छे”-इत्यादि अर्थनी गाथाओ द्रष्टांत सहित कहे छेः-

* गाथा ३२४ थी ३२७ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘अज्ञानीओ ज व्यवहारविमूढ (व्यवहारमां ज विमूढ) होवाथी परद्रव्यने ‘आ मारुं छे’ एम देखे छे-माने छे; ज्ञानीओ तो निश्चयप्रतिबुद्ध (निश्चयना जाणनारा) होवाथी परद्रव्यनी कणिकामात्रने पण ‘आ मारुं छे’ एम देखता नथी.’

जुओ, पोतानी शुद्ध चैतन्यवस्तुथी अजाण एवा अज्ञानीओ व्यवहार विमूढ होय छे. तेओ स्त्री-पुत्र-परिवार, धन-दोलत, शरीर आदि परद्रव्यने ‘आ मारुं छे’ एम माने छे, व्यवहारथी कहेवाय छे ने? तो अज्ञानी एने निश्चय मानी ‘परद्रव्य मारुं छे’ एम माने छे. एने स्वद्रव्य-परद्रव्य, स्वसत्ता-परसत्ता संबंधी कोई सुध-बुध नथी.

परंतु ज्ञानीओ तो निश्चयप्रतिबुद्ध छे. शुं कह्युं? निश्चय जे पोतानुं एक शुद्ध चैतन्यतत्त्व चिदानंदमय वस्तु तेना जाणनारा एवा ज्ञानीओ छे. अहाहा....! हुं तो एक उपयोगरूप चिन्मूर्ति प्रभु आत्मा छुं एम ज्ञानी जाणे छे. ते परद्रव्यना एक कणमात्रने- रजकणने के रागना कणने - ‘आ मारुं छे’ एम देखता नथी मानता नथी.


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भरत चक्रवर्ती क्षायिक समकिती हता. तेओ छ खंडना स्वामी हता. अहा! आवो राजवैभव-छन्नु हजार राणी, छन्नु करोडनुं पायदळ, छन्नु करोड गाम-आ बधुं संयोगमां होवा छतां ए कोईपण चीज मारी नथी एम मानता हता. हुं ज्यां (उपयोगस्वरूपमां) छुं त्यां ते (परद्रव्यो) नथी, अने ते (-परद्रव्यो) ज्यां छे त्यां हुं नथी-आवुं जाणनारा ते परद्रव्यना कणमात्रने मारापणे मानता न हता, अनुभवता न हता. गाथा ३८ मां आवे छे ने के-“एम प्रतापवंत वर्तता एवा मने, जोके बहार अनेक प्रकारनी स्वरूपनी संपदा वडे समस्त परद्रव्यो स्फुरायमान छे तोपण कोईपण परद्रव्य परमाणुमात्र पण मारापणे भासतु नथी...” आ रीते ज्ञानीने परद्रव्यमां सुखबुद्धि के स्वामित्वनो भाव होता नथी. हवे कहे छे-

‘तेथी, जेम आ जगतमां कोई व्यवहारविमूढ एवो पारका गाममां रहेनारो माणस “आ गाम मारुं छे” एम देखतो-मानतो थको मिथ्याद्रष्टि (-खोटी द्रष्टिवाळो) छे, तेम जो ज्ञानी पण कोईपण प्रकारे व्यवहारविमूढ थईने परद्रव्यने “आ मारुं छे” एम देखे तो ते वखते ते पण निःसंशयपणे अर्थात् चोक्कस, परद्रव्यने पोतारूप करतो थको, मिथ्याद्रष्टि ज थाय छे.’

पारका गाममां रहेनारो कोई पुरुष एम माने के ‘आ गाम मारुं छे’ तो तेनी द्रष्टि जूठी छे, विपरीत छे. तेम ज्ञानी पण कोईपण प्रकारे व्यवहारविमूढ थईने परद्रव्यने ‘आ मारुं छे’ एम माने तो ते काळे पण ते पण निःसंशय मिथ्याद्रष्टि ज थाय छे. आ परमात्मा सर्वज्ञदेव मारा छे, गुरु मारा छे, शास्त्र मारुं छे अने एना लक्षे थता शुभ विकल्प मारा छे- एम परद्रव्यने पोतानुं माने तो ज्ञानी पण ते काळे अवश्य मिथ्याद्रष्टि ज थाय छे. मारा देव, मारा गुरु एम कहे भले, एम कहे ए व्यवहार छे; पण एम माने ए तो मिथ्यादर्शन ज छे. समजाणुं कांई...? ज्ञानी कोई परद्रव्यने पोतानुं मानता नथी.

परमात्मप्रकाशमां कह्युं छे के-जे शुभरागने उपादेय माने छे तेने भगवान आत्मा हेय छे; अने जे आत्माने उपादेय माने छे तेने शुभराग हेय छे. अहा! राग मारो नथी, हेय छे एवी द्रष्टि चोथे गुणस्थानेथी धर्मी जीवने होय छे. रागनो सर्वथा क्षय तो शुद्धोपयोगनी पूर्णता थतां थाय छे, पण राग क्षय करवायोग्य छे एवुं श्रद्धान तो समकितीने प्रथमथी ज होय छे. राग करवा लायक छे एम कदीय ते मानता नथी. तेने तो एक शुद्धोपयोगनी ज भावना होय छे. निर्मळ रत्नत्रय ज करवा लायक होवाथी तेने ते प्रगट करवायोग्य उपादेय समजे छे.

नियमसारमां तो संवर-निर्जरानी पर्यायने हेय कही छे? हा, त्यां अपेक्षा बीजी छे. त्यां तो धर्मात्मानुं आलंबन त्रिकाळी एक शुद्ध-


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भाव ज छे, पर्याय नहि. तेथी एक शुद्धभावने ज उपादेय कही संवर-निर्जरा आदि परिणामने हेय कह्या छे. भाई! पर्यायने जे उपादेय (आश्रय करवायोग्य) माने ते नियमथी मिथ्याद्रष्टि ज थाय छे. हवे कहे छे-

‘माटे तत्त्वने जाणनारो पुरुष “सघळुंय परद्रव्य मारुं नथी” एम जाणीने, “ लोक अने श्रमण-बन्नेने जे आ परद्रव्यमां कर्तृत्वनो व्यवसाय छे ते तेमना सम्यग्दर्शनरहितपणाने लीधे ज छे.” एम सुनिश्चितपणे जाणे छे.’

लोक एम माने छे के जगतना कर्ता ईश्वर छे. हवे श्रमण पण जो एम माने के परद्रव्यनो कर्ता हुं छुं तो ए रीते परद्रव्यमां कर्तृत्वनो व्यवसाय बन्नेने समान छे. ते तेमना सम्यग्दर्शनरहितपणाने लीधे ज छे एम तत्त्वज्ञ पुरुष निश्चितपणे जाणे छे. भाई! त्रिलोकीनाथ सर्वज्ञदेव एम फरमावे छे के ‘परद्रव्य मारुं छे, हुं परद्रव्यने करुं छुं’ एम जे कोई-लोक के श्रमण-माने छे ते अवश्य मिथ्याद्रष्टि छे. हुं परने लाभ-नुकशान करी शकुं छुं एवी मान्यता जेनी छे ते सम्यग्दर्शनथी रहित मिथ्याद्रष्टि ज छे.

भाई! बहारना चमत्कार तो बधा बहार रह्या; आ तो निज चैतन्यचमत्कार प्रभु आत्मामां जे एकाग्र थई स्थिर थयो ते समकिती धर्मात्मा छे. ते परद्रव्यने ‘आ मारुं छे’ एम कदीय मानता नथी.

* गाथा ३२४ थी ३२७ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जे व्यवहारथी मोही थईने परद्रव्यनुं कर्तापणुं माने छे ते-लौकिक जन हो के मुनिजन हो-मिथ्याद्रष्टि ज छे. ज्ञानी पण जो व्यवहारमूढ थईने परद्रव्यने “मारुं” माने तो मिथ्याद्रष्टि ज थाय छे.’

जुओ, समयसार गाथा ८ मां कह्युं छे के- परमार्थनो प्रतिपादक होवाथी व्यवहार स्थापन करवायोग्य छे, पण ते अनुसरवा योग्य नथी. ‘दर्शन-ज्ञान-चारित्रने जे हंमेशां प्राप्त होय ते आत्मा छे’ एम कह्युं ते व्यवहार छे. भेद पाडीने कह्युं ने? तेथी व्यवहार छे. पण ते अभेदने समजवा माटे छे, नहि के भेदने अनुसरवा माटे. व्यवहार छे, ते जाणवायोग्य छे, पण अनुसरवा योग्य नथी.

परंतु वस्तुस्वरूपथी अजाण एवो अज्ञानी जीव व्यवहारथी विमोहित होय छे, व्यवहारविमूढ होय छे. ते व्यवहारना शब्दोने पकडीने ‘आ परद्रव्य, शुभविकल्पने भेद मारां छे’ एम माने छे. परद्रव्यने, परभावने हुं करुं छुं एम ते माने छे. अहीं कहे छे- आवुं माननार चाहे लौकिक जन हो के मुनिजन हो, ते मिथ्याद्रष्टि ज छे.


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भगवाननी भक्तिथी संसारवेलनो नाश थाय छे, जिनबिंबना दर्शनथी निद्धत अने निकाचित कर्म टळी जाय छे, जीव पंगु छे, कर्म तेने चार गतिमां लई जाय छे- इत्यादि वचन शास्त्रमां आवे छे. आ व्यवहारनां वचन छे. अज्ञानी तेनो आशय समजवा रोकातो नथी अने शब्दार्थने पकडीने निश्चयरूप एम ज मानवा लागे छे. अहीं कहे छे-आम जे परद्रव्यने अन्यद्रव्यनुं कर्तापणुं माने छे ते मिथ्याद्रष्टि ज छे.

समकिती धर्मी पुरुषने अंतरमां निश्चयभक्ति-आत्मआराधना प्रगट थई होय छे अने ते संसारना नाशनुं कारण छे. हवे तेने बहारमां भगवान जिनेन्द्रनी भक्तिनो राग पण आवे छे तो एमां निश्चयभक्तिनो उपचार करीने कह्युं के भगवाननी भक्तिथी संसारवेलनो नाश थाय छे. हवे आ व्यवहारना वचनने यथार्थ समज्या विना कोई भगवाननी भक्तिना रागमां ज लीन थई रहे तो ते मिथ्याद्रष्टि ज छे, तेनो संसार मटतो नथी. आम एकांते भगवाननी भक्तिना रागथी ज मुक्ति थवानुं माने ते मिथ्याद्रष्टि छे.

अहाहा...! पोतानो स्वभाव तो जिनस्वरूप-वीतरागस्वरूप ज छे. हवे कोई जिनबिंबनुं दर्शन करतां जिनस्वरूप निज ज्ञायकस्वभाव प्रति ढळीने-झुकीने तेमां ज एकाग्र थाय तो तेने निजस्वरूपनुं-जिनस्वरूपनुं अंदर दर्शन-श्रद्धान प्रगट थाय छे अने त्यारे तेने निद्धत अने निकाचित कर्म टळी जाय छे, अकर्मरूप थई जाय छे. त्यां कर्म तो कर्मना कारणे अकर्मपणे थई जाय छे, कांई जिनबिंब तेने अकर्मपणे करी दे छे एम नथी. पण आवो निमित्त-नैमित्तिक संबंध जाणी व्यवहारथी कह्युं के जिनबिंबना दर्शनथी निद्धत अने निकाचित कर्म टळी जाय छे. पण एने उपचारमात्र न समजतां एम ज कोई माने तो लाख जिनबिंबनां दर्शन करे तोय कर्म टळे नहि अने ते मिथ्याद्रष्टि ज रहे.

भगवान आत्मा एक ज्ञानानंदस्वरूप छे. तेमां विकार थाय एवी कोई शक्ति नथी. तेथी पर्यायमां जे विकार थाय छे ते ज्ञाननुं-आत्मानुं कार्य नथी. जे विकार थाय छे ते प्रकृतिना निमित्ते प्रकृतिने वश थई परिणमतां थाय छे अने एनुं फळ चारगतिरूप परिभ्रमण छे. तेथी निमित्तनी मुख्यताथी कह्युं के-आत्मा पंगु छे, कर्म तेने चारगतिमां लई जाय छे. हवे त्यां कर्मने लईने विकार थाय छे वा कर्म विकार करी दे छे, करावी दे छे एम तो छे नहि. तोपण कोई एम ज माने के मने कर्मना कारणे विकार थाय छे अने कर्मना कारणे चारगतिमां रखडवुं छे तो ते मान्यता बराबर नहि होवाथी ते मिथ्याद्रष्टि ज छे; केमके कर्म तो परद्रव्य छे, ते एनुं शुं करे?

आ प्रमाणे व्यवहारथी विमोहित जीवो व्यवहारना वचनने पकडीने परद्रव्यनुं


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कर्तापणुं माने छे ते, लौकिकजन हो के मुनिजन हो, मिथ्याद्रष्टि ज छे. ज्ञानी पण जो कोई प्रकारे व्यवहारविमूढ थईने परद्रव्यने ‘मारुं’ माने तो मिथ्याद्रष्टि ज थाय छे.

*

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश २०१ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘यतः’ कारणके ‘इह’ आ लोकमां ‘एकस्य वस्तुनः अन्यतरेण सार्धं सकलः अपि सम्बन्धः एव निषिद्धः’ एक वस्तुनो अन्य वस्तुनी साथे सघळोय संबंध ज निषेधवामां आव्यो छे, ‘तत्’ तेथी ‘वस्तुभेदे’ ज्यां वस्तुभेद छे अर्थात् भिन्न वस्तुओ छे त्यां ‘कर्तृकर्मघटना अस्ति न’ कर्ताकर्मघटना होती नथी-

जुओ, आ लोकमां अनंत जीव, अनंताअनंत पुद्गल, धर्म, अधर्म अने आकाश एकेक अने असंख्यात कालाणुओ-एम छ द्रव्यो छे. अहीं कहे छे-ते प्रत्येक वस्तुनो अन्य वस्तुनी साथे सघळोय संबंध ज निषेधवामां आव्यो छे. एक वस्तु छे ते अन्यवस्तुना अभावस्वभाव ज छे. वास्तवमां भाई! प्रत्येक वस्तु बीजी वस्तुना अभावथी ज स्वतंत्र टकी रहेली छे.

आ मारे आना विना न चाले एम लोको कहे छे ने? पैसा विना तो चाले ज नहि एम कहे छे ने? अहीं कहे छे-भाई! तारे एना विना ज अनंतकाळथी चाले छे; एक वस्तुने बीजी अनंत वस्तुओना विना ज चाले छे. जो एम न होय तो अनंत वस्तुओ अनंतपणे रहे ज नहि, बधी मळीने एक थई जाय. जो तारे पैसा विना न चाले तो तुं जड पैसामय थई जाय; पण एम छे नहि.

तेथी, कहे छे, ज्यां भिन्न वस्तुओ छे त्यां कर्ताकर्मघटना होती नथी. शुं कीधुं ए? के आत्मा कर्ता अने परवस्तु एनुं कार्य-एम भिन्न वस्तुओमां कर्ता-कर्मघटना होती नथी. आ देव-गुरु आदि कर्ता अने तारी (निर्मळ) पर्याय एनुं कार्य एम कर्ताकर्मघटना होती नथी. भाई! आ तो जैन परमेश्वर सर्वज्ञ परमात्मानी वाणीमां आवेलो मूळ सिद्धांत छे.

जगतमां अनंता द्रव्यो छे. तेमां कोई द्रव्य कोई समये कार्य विनानुं खाली होतुं ज नथी. कार्य कहो के पर्याय कहो-एक ज वात छे. तेथी एना कार्यने कोई बीजो करे एम त्रणकाळमां होवुं असंभव छे, आ न्याय छे, न्याय समजाय छे के नहि?

भगवान तारी चीजने बीजी चीज स्पर्शती नथी. ए तो त्रीजी गाथामां आवी गयुं के- ‘पोताना द्रव्यमां अंतर्मग्न रहेल पोताना अनंत धर्मोना चक्रने


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चुंबे छे-स्पर्शे छे तोपण जेओ परस्पर एकबीजाने स्पर्श करता नथी.....’ मतलब के एक द्रव्य बीजा कोई द्रव्यने स्पर्शतुं नथी-आ मूळ वात छे. अहाहा....! सर्वज्ञ परमेश्वर फरमावे छे के-अमे तारा कांई नथी, तुं अमारो कांई नथी. अमे परमेश्वर अने तुं अमारो भक्त-एम छे नहि; अमे तारा तारणहार अने तुं तरनारो एम छे नहि, केमके भिन्न द्रव्योमां कर्तृकर्मघटना होती नथी. हवे कहे छे-

भिन्न वस्तुओमां कर्ताकर्मघटना होती नथी- ‘मुनयः च जनाः च’ एम मुनिजनो अने लौकिक जनो ‘तत्त्वम् अकतृ पश्यन्तु’ तत्त्वने अकर्ता देखो (-कोई कोईनुं कर्ता नथी, परद्रव्य परनुं अकर्ता ज छे-एम श्रद्धामां लावो).

आत्मा प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप प्रभु एक ज्ञानमात्रवस्तु छे. तेने तुं रागनो अने परनो अकर्ता देख-एम अहीं कहे छे; केमके परद्रव्य परनुं अकर्ता ज छे. ल्यो, आ वास्तविक श्रद्धान छे अने समकितीने आवुं श्रद्धान होय छे.

*

“जे पुरुषो आवो वस्तुस्वभावनो नियम जाणता नथी तेओ अज्ञानी थया थका कर्मने करे छे; ए रीते भावकर्मनो कर्ता अज्ञानथी चेतन ज थाय छे”- आवा अर्थनुं, आगळनी गाथाओनी सूचनारूप काव्य हवे कहे छेः-

* कळश २०२ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

(आचार्यदेव खेदपूर्वक कहे छे केः) ‘बत’ अरेरे! ‘ये तु इमम् स्वभावनियमं न कलयन्ति’ जेओ आ वस्तुस्वभावना नियमने जाणता नथी ‘ते वराकाः’ बिचारा, ‘अज्ञानमग्नमहसः’ जेमनुं (पुरुषार्थरूप-पराक्रमरूप) तेज अज्ञानमां डूबी गयुं छे एवा, ‘कर्म कुर्वन्ति’ कर्मने करे छे;......

जुओ, आचार्यदेवने परमात्मदशा प्रगट नथी; प्रचुर आनंदनी दशा प्रगटी छे, पण परम आनंददशानी प्राप्ति थई नथी, तेथी जरी वच्चे करुणानो विकल्प उठयो छे तो खेदपूर्वक कहे छे के- अरेरे! जेओ आ वस्तुस्वभावना नियमने जाणता नथी तेओ बिचारा कर्मने करे छे.

अहाहा....! पोते अंदर पूरण चैतन्यसंपदाथी भरेलो भगवान छे. परंतु पोतानी स्वरूपसंपदाना स्वभावने जेओ जाणता नथी तेओ ‘वराकाः’ एटले बिचारा छे, रांका छे. अहा! लोको जेमने श्रीमंत-लक्ष्मीवंत माने छे तेमने अहीं बिचारा-रांका कह्या छे. केम? केमके तेओ पोतानी चैतन्यसंपदा चैतन्यलक्ष्मीने जाणता नथी, अनुभवता नथी.


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अहाहा...! वस्तु-भगवान आत्मा-प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप प्रभु शुद्ध एक ज्ञायक तत्त्व छे. तेनी सन्मुख थईने निराकुळ आनंदनो जे अनुभव न करे ते मोटो अबजोपति शेठ होय के मोटो देव होय-ते हमणांय भिखारी ज छे, बिचारो ज छे. पोतानी चैतन्यसंपदाने जाणे नहि अने पर संपदाने पोतानी करवा झंखे ते ‘वराकाः’ एटले बिचारा ज छे, केमके ए बहारनी संपदा पोतानी चीज अनंतकाळेय थाय एम नथी. एने पोतानी माने ए तो बधी आपदा ज छे. समजाणुं कांई....?

भाई! आत्मा वस्तु छे के नहि? वस्तु छे तो एनो कोई स्वभाव होय के नहि? जेम साकर वस्तुनो गळपण अने सफेदाई स्वभाव छे तेम ज्ञान अने आनंद आत्मानो स्वभाव छे अने ते एनी स्वरूपसंपदा छे. हवे आवी स्वरूपसंपदाने जाणे नहि अने परसंपदाने ईच्छे ते जीवो ‘वराकाः’ एटले बिचारा छे, रांका छे.

एक मोटा दरबार (राजवी) एक वार प्रवचन सांभळवा आवेला, त्यारे तेमने कहेलुं के-दरबारः- महिने एक लाख जोईए एम माने ए नानो मागण अने महिने एक करोड जोईए एम माने ए मोटो मागण; बन्ने मागण-भिखारी छे; केमके स्वरूपसंपदाना भान रहित बन्नेने परसंपदानी आशा छे.

अहीं कहे छे-अरेरे! जे आ वस्तुस्वभावना नियमने जाणता नथी तेओ बिचारा जेमनुं पुरुषार्थरूपी तेज अज्ञानमां डूबी गयुं छे तेवा कर्मने करे छे. अहाहा...! आ संयोगो अने संयोगीभाव जे अध्रुव अने नाशवंत छे तेने पोताना माने ते वस्तुस्वभावना नियमने जाणता नथी; तेमनुं पुरुषार्थरूपी तेज अज्ञानमां डूबी गयुं छे. एटले शुं? के पोताना स्वरूपना अज्ञानमां तेमने अनंत पराक्रम ढंकाई गयुं छे. अहाहा...! अनंत वीर्यनो स्वामी भगवान आत्मा छे. आत्मानो वीर्यगुण अनंता पराक्रमथी भरेलो छे. रे! आवा पोताना स्वरूपने जाणता नथी तेमने ते अनंत पराक्रम ढंकाई गयुं छे. अहा! आवा बिचारा जीवो रागने-शुभाशुभकर्मने (कर्ता थईने) करे छे. अज्ञानी जीवो दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादिना रागने करे छे.

तो ज्ञानीने पण एवा शुभ परिणाम तो होय छे.

हा, होय छे; पण ज्ञानी एने करतो नथी, केमके ज्ञानी एनो स्वामी थतो नथी. (ज्ञानी ज्ञानभावनो स्वामी छे). ज्यारे अज्ञानी राग मारुं कर्तव्य छे एम एनो कर्ता थईने करे छे. हवे कहे छे-

‘तत्ः एव हि’ तेथी ‘भावकर्मकर्ता चेतनः एव स्वयं भवति’ भावकर्मनो कर्ता


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चेतन ज पोते थाय छे, ‘अन्यः न’ अन्य कोई नहि.

ल्यो, आ प्रमाणे भावकर्मनो-शुभाशुभ रागनो कर्ता अज्ञानदशामां चेतन ज पोते थाय छे, कोई जडकर्म वा अन्य कोई निमित्त एनुं कर्ता छे एम छे ज नहि.

* कळश २०२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘वस्तुना स्वरूपना नियमने नहि जाणतो होवाथी परद्रव्यनो कर्ता थतो अज्ञानी (-मिथ्याद्रष्टि) जीव पोते ज अज्ञानभावे परिणमे छे; ए रीते पोताना भावकर्मनो कर्ता अज्ञानी पोते ज छे; अन्य नथी.’

अज्ञानी वस्तुना स्वरूपना नियमने जाणतो नथी. एटले शुं? एटले के- १. हुं चिन्मात्र वस्तु अकर्तास्वभावी आत्मा छुं, रागनुं कर्तापणुं मने नथी, एक वात; अने

२. पर्यायमां जे विकारना परिणाम थाय छे ते पोताथी थाय छे, परद्रव्यथी थता नथी. विकारनुं कर्तापणुं परद्रव्यने नथी. आम अज्ञानी जीव वस्तुना स्वरूपना नियमने जाणतो नथी. तेथी ते पोताना शुद्धचैतन्यस्वभावने भूलीने राग-द्वेष-मोहादिभावे परिणमे छे, राग-द्वेष-मोहने ज करे छे.

संवत’७१ नी सालमां एकवार लाठीमां आ वात जाहेरसभामां मूकी हती के विकारना भाव जे थाय छे ते पोताथी थाय छे अने पोताना अंर्त-पुरुषार्थथी ते टळे छे; एमां कोई परकारकोनी-परद्रव्यनी अपेक्षा छे ज नहि. हवे आवी वात सांभळीने लोकोमां खळभळाट मची गयो. कर्मथी विकार थाय एम माननारा बधा खळभळी गया. पण बापु! जीवने राग-द्वेष-मोहादि जे विकारी भाव थाय छे ते, ते समये एनी जन्मक्षण छे, ते (-विकारी) पर्याय थवानो ते स्वकाळ छे अने तेथी पर कारकोनी अपेक्षा विना ज ते पोताथी स्वतंत्रपणे प्रगट थाय छे.

अहाहा...! अनंत गुण-शक्तिओनो पिंड प्रभु आत्मा छे. पण तेमां रागने- विकारने करे एवी कोई शक्ति नथी. भाई! वस्तुनो सहज स्वभाव ज आवो छे के ते रागने करे नहि. तथापि पर्यायमां विकार थाय छे ते पोताना षट्कारकना परिणमनथी उत्पन्न थयेली दशा छे, तेने कोई परकारकोनी अपेक्षा नथी. आवो वस्तुना स्वभावनो नियम छे.

शुं कीधुं? निर्मळ निर्विकारी दशा हो के मलिन विकारी दशा हो, ते पोताना षट्कारकना परिणमनथी उत्पन्न थयेली दशा छे; निर्मळ निज द्रव्य-गुणनी पण तेने अपेक्षा नथी अने परकारकोनी पण तेने अपेक्षा नथी.


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विकारी परिणाम थाय तेमां शुद्ध द्रव्य-गुणनी अपेक्षा नथी ए तो बराबर, पण तेने परनी-निमित्तनी अपेक्षा तो छे के नहि?

तो कहे छे- ना, बीलकुल नथी; विकार थाय ते पोताथी ज थाय छे, तेने निमित्तादि परकारकोनी कोई अपेक्षा नथी. भाई! आ शुभाशुभ विकल्प जे उठे ते शुद्ध चैतन्यनुं कार्य नथी, तेम परद्रव्यनुं पण ए कार्य नथी. तो ए कोनुं कार्य छे? तो कहे छे-

वस्तुना स्वरूपना नियमने नहि जाणतो होवाथी परद्रव्यनो एटले रागादि विकारनो कर्ता थतो मिथ्याद्रष्टि जीव पोते ज अज्ञानभावे-मिथ्यात्वादिभावे परिणमे छे, तेने बीजो कोई परिणमावे छे एम छे नहि. ल्यो, आवी वात!

विकारपणे थवानी पोतानी (तत्कालीन) योग्यता न होय तो बीजो तेने परिणमावी शके नहि, अने विकारपणे थवानी पोतानी योग्यता होय तो तेमां बीजानी शुं अपेक्षा? सम्यग्दर्शन एटले धर्मनी प्रथम दशा थवामां पण कोई परद्रव्यनी अपेक्षा नथी. कर्म खरे तो धर्म थाय वा रागनी मंदता होय तो समकित थाय. एवी तेने अपेक्षा नथी. अहा! पोताना स्वरूपना भान विना अज्ञानी जीव पोते ज रागादिभावे परिणमे छे. आ रीते पोताना भावकर्मनो कर्ता अज्ञानी जीव पोते ज छे, अन्य नथी.

त्यारे कोई कहे छे-शास्त्रमां बे कारणो कह्यां छे; आचार्य जयसेननी टीकामां पण बे कारणनी वात छे.

समाधानः– भाई! ए तो त्यां प्रमाणज्ञान करावतां साथे निमित्तने भेळव्युं छे. त्यां निश्चय नाम यथार्थ राखीने निमित्तनुं ज्ञान कराव्युं छे, पण निश्चयने उडाडी निमित्तथी थाय एम क्यां वात छे? विकार पोताथी ज थाय छे एम निश्चय राखीने साथे निमित्त बीजी चीज छे एम जाणे ते प्रमाणज्ञान छे; पण निश्चयनो निषेध करीने निमित्तथी कार्य थाय एम जाणे त्यां प्रमाणज्ञान क्यां रह्युं? बापु! निमित्त तो उपचारथी कारण कह्युं छे; वास्तवमां निमित्तथी कार्य थाय छे वा निमित्त कार्यनो कर्ता छे एवो निमित्तनो अर्थ छे ज नहि. समजाणुं कांई...? आ रीते पोताना भावकर्मनो कर्ता अज्ञानी जीव पोते ज छे, अन्य नथी.

[प्रवचन नं. ३८७-३८४]
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गाथा ३२८ थी ३३१
मिच्छत्तं जदि पयडी मिच्छादिट्ठी करेदि अप्पाणं।
तम्हा अचेदणा ते पयडी णणु कारगो पत्तो।। ३२८।।
अहवा एसो जीवो पोग्गलदव्वस्स कुणदि मिच्छत्तं।
तम्हा पोग्गलदव्वं मिच्छादिट्ठी ण पुण जीवो।। ३२९।।
अह जीवो पयडी तह पोग्गलदव्वं कुणंति मिच्छत्तं।
तम्हा दोहिं कदं तं दोण्णि वि भुंजंति तस्स फलं।। ३३०।।
अह ण पयडी ण जीवो पोग्गलदव्वं करेदि मिच्छत्तं।
तम्हा पोग्गलदव्वं मिच्छत्तं तं तु ण हु मिच्छा।। ३३१।।
मिथ्यात्वं यद प्रकृतिर्मिथ्याद्रष्टिं करोत्यात्मानम्।
तस्मादचेतना ते प्रकृतिर्ननु कारका प्राप्ता।। ३२८।।

हवे, ‘(जीवने) जे मिथ्यात्वभाव थाय छे तेना कर्ता कोण छे?’ -ए वातने बराबर चर्चीने, ‘भावकर्मनो कर्ता (अज्ञानी) जीव ज छे’ एम युक्तिथी सिद्ध करे छेः-

जो प्रकृति मिथ्यात्वनी मिथ्यात्वी करती आत्मने,
तो तो अचेतन प्रकृति कारक बने तुज मत विषे! ३२८.
अथवा करे जो जीव पुद्गलद्रव्यना मिथ्यात्वने,
तो तो ठरे मिथ्यात्वी पुद्गलद्रव्य, आत्मा नव ठरे! ३२९.
जो जीव अने प्रकृति करे मिथ्यात्व पुद्गलद्रव्यने,
तो उभयकृत जे होय तेनुं फळ उभय पण भोगवे! ३३०.
जो नहि प्रकृति, नहि जीव करे मिथ्यात्व पुद्गलद्रव्यने,
पुद्गलदरव मिथ्यात्व वणकृत! –ए शुं नहि मिथ्या खरे? ३३१.

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अथवैष जीवः पुद्गलद्रव्यस्य करोति मिथ्यात्वम्।
तस्मात्पुद्गलद्रव्यं मिथ्याद्रष्टिर्न
पुनर्जीवः।। ३२९।।
अथ जीवः प्रकृतिस्तथा पुद्गलद्रव्यं कुरुतः मिथ्यात्वम्।
तस्मात् द्वाभ्यां कुतं तत् द्वावपि मुञ्जाते तस्य फलम्।। ३३०।।
अथ न प्रकृतिर्न जीवः पुद्गलद्रव्यं करोति मिथ्यात्वम्।
तस्मात्पुद्गलद्रव्यं मिथ्यात्वं तत्तु न खलु मिथ्या।। ३३१।।

गाथार्थः– [यदि] जो [मिथ्यात्वं प्रकृतिः] मिथ्यात्व नामनी (मोहनीय कर्मनी) प्रकृति [आत्मानम्] आत्माने [मिथ्याद्रष्टिं] मिथ्याद्रष्टि [करोति] करे छे एम मानवामां आवे, [तस्मात्] तो [ते] तारा मतमां [अचेतना प्रकृतिः] अचेतन प्रकृति [ननु कारका प्राप्ता] (मिथ्यात्वभावनी) कर्ता बनी! (तेथी मिथ्यात्वभाव अचेतन ठर्यो!)

[अथवा] अथवा, [एषः जीवः] आ जीव [पुद्गलद्रव्यस्य] पुद्गलद्रव्यना [मिथ्यात्वम्] मिथ्यात्वने [करोति] करे छे एम मानवामां आवे, [तस्मात्] तो [पुद्गलद्रव्यं मिथ्याद्रष्टिः] पुद्गलद्रव्य मिथ्याद्रष्टि ठरे! - [न पुनः जीवः] जीव नहि!

[अथ] अथवा जो [जीवः तथा प्रकृतिः] जीव तेम ज प्रकृति बन्ने [पुद्गलद्रव्यं] पुद्गलद्रव्यने [मिथ्यात्वम्] मिथ्यात्वभावरूप [कुरुतः] करे छे एम मानवामां आवे, [तस्मात्] तो [द्वाभ्यां कृतं तत्] जे बन्ने वडे करवामां आव्युं [तस्य फलम्] तेनुं फळ [द्वौ अपि मुञ्जाते] बन्ने भोगवे!

[अथ] अथवा जो [पुद्गलद्रव्यं] पुद्गलद्रव्यने [मिथ्यात्वम्] मिथ्यात्वभावरूप [न प्रकृतिः करोति] नथी प्रकृति करती [न जीवः] के नथी जीव करतो (-बेमांथी कोई करतुं नथी) एम मानवामां आवे, [तस्मात्] तो [पुद्गलद्रव्यं मिथ्यात्वम्] पुद्गलद्रव्य स्वभावे ज मिथ्यात्वभावरूप ठरे! [तत् तु न खलु मिथ्या] ते शुं खरेखर मिथ्या नथी?

(आथी एम सिद्ध थाय छे के पोताना मिथ्यात्वभावनो-भावकर्मनो-कर्ता जीव ज छे.)

टीकाः– जीव ज मिथ्यात्व आदि भावकर्मनो कर्ता छे; कारण के जो ते (भावकर्म) अचेतन प्रकृतिनुं कार्य होय तो तेने (-भावकर्मने) अचेतनपणानो प्रसंग आवे. जीव पोताना ज मिथ्यात्वादि भावकर्मनो कर्ता छे; कारण के जो जीव


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(शार्दूलविक्रीडित)
कार्यत्वादकृतं न कर्म न च तज्जीवप्रकृत्योर्द्वयो–
रज्ञायाः प्रकृतेः स्वकार्यफलभुग्भावानुषङ्गात्कृतिः।
नैकस्याः प्रकृतेरचित्त्वलसनाज्जीवोऽस्य कर्ता ततो
जीवस्यैव च कर्म तच्चिदनुगं ज्ञाता न यत्पुद्गलः।। २०३।।

पुद्गलद्रव्यना मिथ्यात्वादि भावकर्मने करे तो पुद्गलद्रव्यने चेतनपणानो प्रसंग आवे. वळी जीव अने प्रकृति बन्ने मिथ्यात्वादि भावकर्मना कर्ता छे एम पण नथी; कारण के जो ते बन्ने कर्ता होय तो जीवनी माफक अचेतन प्रकृतिने पण तेनुं (-भावकर्मनुं) फळ भोगववानो प्रसंग आवे. वळी जीव अने प्रकृति बन्ने मिथ्यात्वादि भावकर्मना अकर्ता छे एम पण नथी; कारण के जो ते बन्ने अकर्ता होय तो स्वभावथी ज पुद्गलद्रव्यने मिथ्यात्वादि भावनो प्रसंग आवे. माटे एम सिद्ध थयुं के-जीव कर्ता छे अने पोतानुं कर्म कार्य छे (अर्थात् जीव पोताना मिथ्यात्वादि भावकर्मनो कर्ता छे अने पोतानुं भावकर्म पोतानुं कार्य छे).

भावार्थः– भावकर्मनो कर्ता जीव ज छे एम आ गाथाओमां सिद्ध कर्युं छे. अहीं एम जाणवुं के-परमार्थे अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यनां भावनुं कर्ता होय नहि तेथी जे चेतनना भावो छे तेमनो कर्ता चेतन ज होय. आ जीवने अज्ञानथी जे मिथ्यात्वादि भावरूप परिणामो छे ते चेतन छे, जड नथी; अशुद्धनिश्चयनयथी तेमने चिदाभास पण कहेवामां आवे छे ए रीते ते परिणामो चेतन होवाथी, तेमनो कर्ता पण चेतन ज छे; कारण के चेतनकर्मनो कर्ता चेतन ज होय-ए परमार्थ छे. अभेदद्रष्टिमां तो जीव शुद्धचेतनामात्र ज छे, परंतु ज्यारे ते कर्मना निमित्ते परिणमे छे त्यारे ते ते परिणामोथी युक्त ते थाय छे अने त्यारे परिणाम-परिणामीनी भेदद्रष्टिमां पोताना अज्ञानभावरूप परिणामोनो कर्ता जीव ज छे. अभेदद्रष्टिमां तो कर्ताकर्मभाव ज नथी, शुद्धचेतनामात्र जीववस्तु छे. आ प्रमाणे यथार्थ प्रकारे समजवुं के चेतनकर्मनो कर्ता चेतन ज छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः– [कर्म कार्यत्वात् अकृतं न] कर्म (अर्थात् भावकर्म) छे ते कार्य छे, माटे ते अकृत होय नहि अर्थात् कोईए कर्या विना थाय नहि. [च] वळी [तत् जीव– प्रकृत्योः द्वयोः कृतिः न] ते (भावकर्म) जीव अने प्रकृति बन्नेनी कृति होय एम नथी, [अज्ञायाः प्रकृतेः स्व–कार्य–फल–भुग्–अनुषङ्गात्] कारण के जो ते बन्नेनुं कार्य होय तो ज्ञानरहित (जड) एवी प्रकृतिने पण पोताना कार्यनुं फळ भोगववानो प्रसंग आवे. [एकस्याः प्रकृतेः न] वळी ते (भावकर्म) एक प्रकृतिनी


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(शार्दूलविक्रीडित)
कर्मैव प्रवितर्क्य कर्तृ हतकैः क्षिप्त्वात्मनः कर्तृतां
कर्तात्मैष कथञ्चिदित्यचलिता कैश्चिच्छ्रुतिः कोपिता।
तेषामुद्धतमोहमुद्रितधियां बोधस्य संशुद्धये
स्याद्वादप्रतिबन्धलब्धविजया वस्तुस्थितिः स्तूयते।। २०४।।

कृति (-एकली प्रकृतिनुं कार्य-) पण नथी, [अचित्त्वलसनात्] कारण के प्रकृतिने तो अचेतनपणुं प्रकाशे छे (अर्थात् प्रकृति तो अचेतन छे अने भावकर्म चेतन छे). [ततः] माटे [अस्य कर्ता जीवः] ते भावकर्मनो कर्ता जीव ज छे [च] अने [चिद्–अनुगं] चेतनने अनुसरनारुं अर्थात् चेतन साथे अन्वयरूप (-चेतनना परिणामरूप-) एवुं [तत्] ते भावकर्म [जीवस्य एव कर्म] जीवनुं ज कर्म छे, [यत्] कारण के [पुद्गलः ज्ञाता न] पुद्गल तो ज्ञाता नथी (तेथी ते भावकर्म पुद्गलनुं कर्म होई शके नहि).

भावार्थः– चेतनकर्म चेतनने ज होय; पुद्गल जड छे, तेने चेतनकर्म केम होय? २०३.

हवेनी गाथाओमां जेओ भावकर्मनो कर्ता पण कर्मने ज माने छे तेमने समजाववाने स्याद्वाद अनुसार वस्तुस्थिति कहेशे; तेनी सूचनारूप काव्य प्रथम कहे छेः-

श्लोकार्थः– [कैश्चित् हतकैः] कोई आत्माना घातक (सर्वथा एकांतवादीओ) [कर्म एव कर्तृ प्रवितर्क्य] कर्मने ज कर्ता विचारीने [आत्मनः कर्तृतां क्षिप्त्वा] आत्माना कर्तापणाने उडाडीने, ‘[एषः आत्मा कथञ्चित् कर्ता] आ आत्मा कथंचित् कर्ता छे’ [इति अचलिता श्रुतिः कोपिता] एम कहेनारी अचलित श्रुतिने कोपित करे छे (-निर्बाध जिनवाणीनी विराधना करे छे); [उद्धत–मोह–मुद्रित–धियां तेषाम् बोधस्य संशुद्धये] तीव्र मोहथी जेमनी बुद्धि बिडाई गई छे एवा ते आत्मघातकोना ज्ञाननी संशुद्धि अर्थे [वस्तुस्थितिः स्तूयते] (नीचेनी गाथाओमां) वस्तुस्थिति कहेवामां आवे छे- [स्याद्वाद–प्रतिबन्ध–लब्ध–विजया] के जे वस्तुस्थितिए स्याद्वादना प्रतिबंध वडे विजय मेळव्यो छे (अर्थात् जे वस्तुस्थिति स्याद्वादरूप नियमथी निर्बाधपणे सिद्ध थाय छे).

भावार्थः– कोई एकांतवादीओ सर्वथा एकांतथी कर्मनो कर्ता कर्मने ज कहे छे अने आत्माने अकर्ता ज कहे छे; तेओ आत्माना घातक छे. तेमना पर जिनवाणीनो कोप छे, कारण के स्याद्वादथी वस्तुस्थितिने निर्बाध रीते सिद्ध करनारी जिनवाणी तो आत्माने कथंचित् कर्ता कहे छे. आत्माने अकर्ता ज कहेनारा एकान्त-


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वादीओनी बुद्धि उत्कट मिथ्यात्वथी बिडाई गयेली छे; तेमना मिथ्यात्वने दूर करवाने आचार्य-भगवान स्याद्वाद अनुसार जेवी वस्तुस्थिति छे तेवी, नीचेनी गाथाओमां कहे छे. २०४.

*
समयसार गाथा ३२८ थी ३३१ः मथाळुं

हवे, ‘(जीवने) जे मिथ्यात्वभाव थाय छे तेनो कर्ता कोण छे? ’-ए वातने बराबर चर्चीने, ‘भावकर्मनो कर्ता जीव ज छे’ एम युक्तिथी सिद्ध करे छेः-

* समयसार गाथा ३२८ थी ३३१ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जीव ज मिथ्यात्व आदि भावकर्मनो कर्ता छे; कारण के जो ते (भावकर्म) अचेतन प्रकृतिनुं कार्य होय तो तेने (-भावकर्मने) अचेतनपणानो प्रसंग आवे.’

‘जीव ज, जीव एव’ -एम शब्द छे. मतलब के मिथ्यात्व आदि भावकर्मनो कर्ता जीव छे, बीजो कोई नथी. भाई! विकार थाय छे ते पोतानी भूलथी थाय छे. पोते पोताने भूली गयो ते भूल छे. आवे छे ने के-“अपनेको आप भूलके हैरान हो गया”- अहाहा-! पोते अंदर चिदानंदमय भगवान ज्ञायकस्वरूप छे, तेने भूलीने पोते ज पोताना षट्कारकथी पर्यायमां मिथ्यात्वादि विकारी भावने करे छे.

पुण्यभाव करतां करतां धर्म थशे, अने पांच ईन्द्रियोना विषयोमां सुख-मझा छे एवो जे अभिप्राय छे ते मिथ्यात्वभाव छे. तेने, कहे छे, जीव एकलो पोते करे छे. ‘जीव ज’ एम शब्द छे ने? मतलब के बीजो कोई तेनो कर्ता नथी. जुओ, दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा इत्यादि शुभभाव छे, अने हिंसा, जूठ, चोरी, विषयभोगनी वासना इत्यादि अशुभभाव छे. बन्ने विकारभाव छे; तेमां ठीकपणानी कल्पना करवी ते मिथ्यात्वभाव छे, अने तेनो कर्ता जीव ज छे. ‘आदि’ शब्दथी राग-द्वेषादि पुण्य-पापना भावोनो जीव पोते ज कर्ता छे, बीजो कोई (कर्मप्रकृति) तेनो कर्ता नथी. हवे तेने कारण आपी समजावे छेः-

विकारी भावकर्मनो कर्ता जीव ज छे कारण के जो ते भावकर्म अचेतन प्रकृतिनुं कार्य होय तो ते भावकर्मने अचेतनपणानो प्रसंग आवे. जुओ, शुं कहे छे? के जो भावकर्म-विकारना भाव अचेतन प्रकृति करे तो ते भावकर्म अचेतन-जड थई जाय. पण विकारी परिणाम कांई अचेतन नथी, ए तो चैतन्यनी ज विकृत दशा छे.

तो विकारना परिणामने बीजे अचेतन-जड कह्या छे ने? समाधानः– हा कह्या छे, परंतु त्यां बीजी अपेक्षाथी वात छे, विकारी भाव


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अचेतन प्रकृतिना लक्षे थाय छे अने ते जीवनो स्वभाव नथी माटे तेने अचेतन-अजीव कहीने तेनुं लक्ष त्यांथी छोडाव्युं छे. अज्ञानी जीव विकारने पोतानो स्वभाव माने छे ने? तेने कह्युं के विकारना परिणाम जड-अचेतन छे, ते तारो स्वभाव केम होय?

अहीं बीजी वात छे. अहीं तो पोतानी पर्यायमां विकार छे तेनो कर्ता अन्य द्रव्यकर्म छे एम माने छे तेने कहे छे-भाई! पोताना मिथ्यात्वादि भावकर्मनो कर्ता पोते जीव ज छे, अन्य कोई नथी. शुद्ध चैतन्यस्वभावनी अपेक्षाए तेने जड-अचेतन कह्यो छे तोपण ए कांई जड परमाणुरूप नथी, पण जीवनी ज अरूपी विकृतदशा छे. भावकर्मने जो अचेतन कर्मप्रकृति करे तो ते जड-अचेतन थई जाय. पण एम छे नहि. माटे मिथ्याश्रद्धान अने रागद्वेषना विकारी भावोनो कर्ता जीव ज छे एम सिद्ध थयुं.

हवे विशेष कहे छे- ‘जीव पोताना ज मिथ्यात्वादि भावकर्मनो कर्ता छे; कारण के जो जीव पुद्गलद्रव्यना मिथ्यात्वादि भावकर्मने करे तो पुद्गलद्रव्यने चेतनपणानो प्रसंग आवे.’

शुं कह्युं? पुद्गलद्रव्यमां-प्रकृतिमां जे मिथ्यात्वादि विकारी परिणाम थाय छे तेनो कर्ता जो जीव होय तो पुद्गलद्रव्यने-प्रकृतिने चेतनपणुं आवी जशे; जड प्रकृतिना परिणाम चेतनमय थई जशे. पण एम छे नहि. माटे जीव पोताना ज मिथ्यात्वादि भावकर्मनो कर्ता छे, पण पुद्गलद्रव्यना परिणामनो कर्ता नथी-एम सिद्ध थयुं.

बे वात थईः-

१. पोताना मिथ्यात्वादि भावकर्मनो कर्ता जीव ज छे, जड प्रकृति नहि.

२. जीव पोताना भावकर्मनो कर्ता छे, पण जड प्रकृतिना परिणामनो कर्ता नथी.

हवे कहे छे- ‘वळी जीव अने प्रकृति बन्ने मिथ्यात्वादि भावकर्मना कर्ता छे एम पण नथी; कारण के जो ते बन्ने कर्ता होय तो जीवनी माफक अचेतन प्रकृतिने पण तेनुं (-भावकर्मनुं) फळ भोगववानो प्रसंग आवे.’

शुं कीधुं? जेम हळदर अने चुनो बे भेगां मळवाथी लाल रंग थाय छे तेम जीव अने प्रकृति बे भेगां मळीने जीवना विकारी भावने करे तो जीवनी माफक अचेतन प्रकृतिने पण ते भावकर्मनुं फळ भोगववुं पडे. पण भावकर्मनुं फळ तो


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एक जीवने ज आवे छे, जड प्रकृति कांई विकारनुं फळ भोगवती नथी. माटे जीव अने प्रकृति बन्ने मळीने विकार करे छे ए वात बराबर नथी. बन्ने भावकर्मना कर्ता होय एम होई शके नहि; एम छे नहि.

‘वळी जीव अने प्रकृति बन्ने मिथ्यात्वादि भावकर्मना अकर्ता छे एम पण नथी; कारण के जो ए बन्ने अकर्ता होय तो स्वभावथी ज पुद्गलद्रव्यने मिथ्यात्वादि भावनो प्रसंग आवे.’

जीव पण मिथ्यात्वादि भावकर्मने करतो नथी अने प्रकृति पण ते विकारी भावने करती नथी-एम जो बन्ने अकर्ता होय तो स्वभावथी ज पुद्गलद्रव्यने मिथ्यात्वादि भावनो प्रसंग आवी पडे; अर्थात् मिथ्यात्वादिरूपे परिणमवुं ते पुद्गलनो स्वभाव थई जाय. पण एम तो छे नहि. माटे जीव अने प्रकृति बन्ने विकारी परिणामना अकर्ता छे- एम छे नहि. तो केम छे? ल्यो, आ बधानो निष्कर्ष-सरवाळे हवे कहे छे के-

‘माटे एम सिद्ध थयुं के- जीव कर्ता छे अने पोतानुं कर्म कार्य छे.’ अर्थात् जीव पोताना मिथ्यात्वादि भावकर्मनो कर्ता छे अने पोतानुं भावकर्म पोतानुं कार्य छे.

हा, पण प्रकृति निमित्त तो छे ने?

ए तो समयसार गाथा ८०, ८१, ८२ मां आवी गयुं के- ‘जीवपरिणामने निमित्त करीने पुद्गलो कर्मपणे परिणमे छे अने पुद्गलकर्मने निमित्त करीने जीव पण परिणमे छे-एम जीवना परिणामने अने पुद्गलना परिणामने अन्योन्य हेतुपणानो उल्लेख होवा छतां पण जीव अने पुद्गलने परस्पर व्याप्यव्यापकभावना अभावने लीधे जीवने पुद्गलपरिणामो साथे अने पुद्गलकर्मने जीवना परिणामो साथे कर्ताकर्मनी असिद्धि होईने, मात्र निमित्त-नैमित्तिकभावनो निषेध नहि होवाथी, अन्योन्य निमित्तमात्र थवाथी ज बन्नेना परिणाम (थाय) छे.’

आम परस्पर निमित्त तो छे पण एनो अर्थ शुं? बन्नेना परिणाम तो समकाळे छे, बन्नेनो काळ तो एक ज छे. माटे आंही निमित्त आव्युं तो कार्य थयुं एम छे नहि. अहीं जीवना विकारी परिणाम थाय ते काळे त्यां प्रकृतिनुं परिणमन तेना पोताना कारणे थाय छे अने तेमां जीवपरिणामने निमित्त कहेवामां आवे छे. तेवी रीते पुद्गलकर्मनो उदय छे ते काळे जीव स्वयं पोताना कारणे विकारना भावे स्वतंत्र परिणमे छे अने तेमां कर्मनो उदय तेनुं निमित्त कहेवामां आवे छे. निमित्त कांई नैमित्तिक कार्य करी दे छे, वा तेमां कांई विलक्षणता उत्पन्न करी दे छे एम छे नहि.


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घणां वर्षो पहेलां कहेलुं के-जीवने विकारी परिणाम थाय छे ते पोताथी थाय छे, कर्मने लईने नहि. त्यारे एक शेठ बोली उठेला-महाराजश्री तो दोरा वगरनी पडाई उडाडे छे. अरे भाई! एम वात नथी बापु! जीव पोताना परिणामनो पोते स्वतंत्रपणे कर्ता छे अने विकारीभाव ते जीवनुं पोतानुं स्वतंत्र कार्य छे.

त्यारे कोई वळी कहे छे- जीवने विकार थाय एमां जीवना प१ टका ने जड प्रकृतिना ४९ टका राखो-तो आ वात पण बराबर नथी. जीवने विकार थवामां जीवना १०० टका स्वतंत्र अने प्रकृतिमां कार्य थाय एमां प्रकृति १०० टका स्वतंत्र छे; कोई कोईने आधीन नथी.

तो जैनतत्त्वमीमांसामां आवे छे के जीवने ज्यारे क्रोध थाय त्यारे सामे क्रोध- कर्मप्रकृतिनो उदय होय छे, अने मान थाय त्यारे सामे मान-कर्मप्रकृतिनो उदय होय छे.

ए तो बराबर ज छे. भाई! एमां एवो अर्थ क्यां छे के सामे क्रोधकर्मनो उदय छे माटे अहीं जीवने क्रोध परिणाम थाय छे? क्रोध कर्मनो उदय अने जीवना क्रोध परिणामनो-बन्नेनो समकाळ छे बस एटलुं ज. भाई! क्रोध कर्मना उदयना काळे जीवने क्रोधदशा थवानो स्वकाळ छे तेथी स्वयं ते पोताना षट्कारकना परिणमनथी क्रोधदशारूपे परिणमी जाय छे. क्रोधकर्मनो उदय निमित्त हो भले, पण एना कारणे जीवने क्रोधपरिणाम थया छे एम छे नहि. आवुं वस्तुनुं स्वरूप छे. शुं? के अज्ञानदशामां जीव पोताना मिथ्यात्वादि भावोनो कर्ता छे अने पोतानुं भावकर्म पोतानुं कार्य छे; परद्रव्यनुं- निमित्तनुं एमां कांई कर्तव्य नथी.

* गाथा ३२८ थी ३३१ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘भावकर्मनो कर्ता जीव ज छे एम आ गाथाओमां सिद्ध कर्युं छे. अहीं एम जाणवुं के-परमार्थे अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यना भावनुं कर्ता होय नहि तेथी जे चेतनना भावो छे तेमनो कर्ता चेतन ज होय.’

जुओ, शुं कीधुं? के मिथ्यात्व अने पुण्य-पाप आदि विकारी भावोनो कर्ता जीव ज छे; मोहनीयकर्मनो उदय तेमां निमित्तमात्र छे. गोम्मटसार आदि शास्त्रमां आवे छे के दर्शनमोहनीय कर्मना उदयथी जीवने मिथ्यात्वना भाव थाय छे, ज्ञानावरणीय कर्मना उदयथी एने ज्ञान रोकाय छे इत्यादि. हवे कर्मनो उदय तो जडमां आवे छे, ते जडना कार्यरूप छे, अने मिथ्यात्वादि भाव तो जीवने थाय छे. बन्ने भिन्न द्रव्यमां थती क्रिया छे. अहीं कहे छे-परमार्थे अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यना भावनुं कर्ता होय नहि. तेथी कर्मना उदयना कारणे मिथ्यात्वादि भाव जीवने थाय


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छे एम छे नहि. जड कर्म कर्ता ने जीवने विकार थाय ते एनुं कार्य एम छे नहि. तो निमित्तनी मुख्यताथी कथन करवामां आव्युं छे एम यथार्थ जाणवुं.

त्यारे कोई वळी कहे छे-निमित्त-कर्मनो उदय-कांई न करे तो जीव ठेठ दसमे गुणस्थाने चढीने पछी हेठे पडे छे ते केम पडे? एम के कर्मना उदयथी जीव हेठे पडी जाय छे.

अरे भाई! दसमां गुणस्थानमां जीव गयो छे ते पोताना पुरुषार्थथी गयो छे, कांई कर्मना (कर्मना अभावना) कारणे गयो छे एम नथी; तथा त्यांथी नीचे पडे छे ते पण पोताना पुरुषार्थनी नबळाईथी पडे छे, कर्मना उदयना कारणे नीचे पडे छे एम नहि, केमके अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यना भावोनुं परमार्थे कर्ता छे ज नहि. कर्मनो उदय निमित्त हो भले, पण अस्थिरतारूप परिणमन तो पोतानुं स्वतंत्र पोताथी ज छे.

प्रवचनसार गाथा १६ मां आत्माने ‘स्वयंभू’ कह्यो छे. तेनी व्याख्या करतां त्यां कह्युं छे के-“आ रीते स्वयं (पोते ज) छ कारकरूप थतो होवाथी ते ‘स्वयंभू’ कहेवाय छे. अथवा, अनादिकाळथी अति द्रढ बंधायेलां द्रव्य तेम ज भाव घातिकर्मोने नष्ट करीने स्वयमेव आविर्भूत थयो तेथी ते ‘स्वयंभू’ कहेवाय छे.” द्रव्य घातिकर्म छे ते जड छे, अने पोतानी हीणी दशारूपे जीव परिणमे ते भावघातिकर्म छे. भावघातिकर्मनो कर्ता, अहीं कहे छे, जीव ज छे. जड घातिकर्मने लईने भावघातिकर्म जीवमां थयुं छे एम नथी.

तो कोई वळी कहे छे-कर्म एक चीज छे, कर्मनो उदय पण एक चीज छे; कर्मनो उदय आवे एटले आने (-जीवने) विकार करवो ज पडे.

ल्यो, हवे आवी ऊंधी मान्यता! जैनमां (जैनाभासोमां) वळी कर्मना लाकडां गरी गयां छे! कर्मनो उदय आवे एटले विकार करवो ज पडे ए तारी मान्यता भाई! यथार्थ नथी, जो ने, अहीं शुं कहे छे? के परमार्थे अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यना भावनुं कर्ता होय नहि.

तेथी जे चेतनना भावो छे तेनो कर्ता चेतन ज होय. अहीं मिथ्यात्व अने पुण्य- पाप आदि विकारी भावोने चेतनना भावो कह्या छे, अने तेना कर्ता चेतन ज छे एम कहे छे. अहा! व्यापक एवो आत्मा अज्ञानपणे प्रसरीने विकारी परिणामनो कर्ता थाय छे अने विकारी परिणाम एनुं व्याप्य कर्म छे.

एककोर विकारी भावोने अहीं चेतनना भावो कह्या, त्यारे बीजे गाथा प० थी पप मां ते भावोने पुद्गलना परिणाम कह्या छे; तो आ केवी रीते छे?

जुओ, जे आ विकारी भावो छे ते चेतननी पर्यायना अस्तित्वमां थाय छे


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तेथी तेओ चेतनना भावो छे एम अहीं कह्युं. परंतु तेओ चैतन्यना स्वभावभाव नथी पण विभावो छे अने पुद्गलना-कर्मना उदयना संगमां थाय छे अने स्वभावनी द्रष्टि थतां नाश पामी जाय छे तेथी तेओ जीवना नथी पण पुद्गलना छे एम बीजे (गाथा प० थी पपमां) कह्युं छे; स्वभावनी द्रष्टि थतां विकारना भाव पोतानी स्वानुभूतिथी भिन्न ज रही जाय छे. आवी वात छे. समजाणुं कांई....?

आ प्रमाणे पोताने भूलीने अज्ञानवश जे मिथ्यात्वादिभावरूप परिणामो थाय छे ते चेतनना भाव छे अने तेनो कर्ता चेतन ज होय, अन्य पुद्गलद्रव्य नहि. ए ज कहे छे-

‘आ जीवने अज्ञानथी जे मिथ्यात्वादि भावरूप परिणामो छे ते चेतन छे, जड नथी; अशुद्धनिश्चयनयथी तेमने चिदाभास पण कहेवामां आवे छे ए रीते ते परिणामो चेतन होवाथी, तेमनो कर्ता पण चेतन ज छे; कारण के चेतनकर्मनो कर्ता चेतन ज होय -ए परमार्थ छे.’

जुओ, जीवनो ज्ञान-दर्शननो जे उपयोग छे तेने चेतन कहे छे; ज्ञान-दर्शन सिवाय एना बीजा जे अनंतगुण छे तेने अचेतन कहेल छे केमके ते (-बीजा गुणो) पोताने जाणता नथी, बीजाने पण जाणता नथी. आम भिन्न भिन्न अपेक्षाए शास्त्रमां कथन आवे छे तेने यथार्थ समजवुं जोईए. अचेतनना जुदा जुदा प्रकार छेः-

-शरीर, मन, वाणी इत्यादि अचेतन छे; -पुण्य-पाप अने मिथ्यात्वना जे भाव जीवने थाय तेने पण (शुद्ध चैतन्यनी) अपेक्षाथी अचेतन कहेल छे.

-जीवना ज्ञान-दर्शनना उपयोगनी अपेक्षा बीजा गुणोने अचेतन कहीए कारण के बीजा गुणोमां जाणवा-देखवाना उपयोगनी शक्ति नथी.

परंतु अहीं बीजी वात छे. अहीं तो मिथ्यात्व अने पुण्य-पाप आदि विकारी भावो जीवनी पर्यायना अस्तित्वमां थाय छे तेथी तेमने चेतन कह्या छे; अने तेओ चेतन होवाथी तेमनो कर्ता चेतन ज छे एम सिद्ध कर्युं छे. कह्युं ने के-चेतन कर्मनो कर्ता चेतन ज होय-ए पुरुषार्थ छे, सत्यार्थ छे. पोताना शुद्ध चैतन्यने भूलीने जीव पोते ज विकारना भावोनो कर्ता थाय छे ए सत्यार्थ छे, यथार्थ छे. हवे कहे छे-

‘अभेदद्रष्टिमां तो जीव शुद्धचेतना मात्र ज छे, परंतु ज्यारे ते कर्मना निमित्ते परिणमे छे त्यारे ते ते परिणामोथी युक्त ते थाय छे अने त्यारे परिणाम-परिणामीनी भेदद्रष्टिमां पोताना अज्ञानभावरूप परिणामोनो कर्ता जीव ज छे.’


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अहाहा...! अंदर वस्तु त्रिकाळ एकरूप चिद्रूप छे तेने अभेदद्रष्टि वडे जोईए तो ते शुद्धचेतनामात्र ज छे, परंतु ज्यारे ते कर्मना निमित्ते परिणमे छे त्यारे ते विकारी विभावरूप परिणामोथी युक्त थाय छे अने त्यारे परिणाम-परिणामीनी भेदद्रष्टिमां पोताना अज्ञानभावरूप परिणामोनो कर्ता जीव पोते ज थाय छे. आ पुण्य-पाप आदि विकारी भाव थया ते परिणाम अने जीव परिणामी-एम भेदद्रष्टिमां पोताना विकारी भावोनो कर्ता जीव ज छे.

‘अभेदद्रष्टिमां तो कर्ताकर्मभाव ज नथी, शुद्धचेतनामात्र जीववस्तु छे.’ अहाहा...! भगवान चिदानंद चैतन्यस्वरूपनी ज्यां अभेदद्रष्टि थई त्यां ते निज चैतन्यस्वरूपमां एकाकार थयो, रागथी भिन्न पडी गयो अने तेथी त्यां कर्ताकर्मभाव रह्यो ज नहि. समजाय छे कांई...? भाई! अभेदद्रष्टिमां रागादि विकार छे ज नहि, शुद्धचेतनामात्र जीववस्तु छे. अहाहा...! सम्यग्दर्शननो विषय शुद्धचेतनामात्र जीववस्तु छे, भेद के पर्याय सम्यग्दर्शननो विषय नथी.

हवे सरवाळो करी कहे छे के- ‘आ प्रमाणे यथार्थ प्रकारे समजवुं के चेतनकर्मनो कर्ता चेतन ज छे.’ ल्यो, विकारी परिणामोनो कर्ता जीव ज छे, कर्मने लईने विकार थाय छे एम कदीय नथी. अहा! आवी स्वतंत्रताने स्वीकारी बीजेथी द्रष्टि हठावी, द्रव्यद्रष्टि प्रगट करवी ए आनुं तात्पर्य छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश २०३ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘कर्म कार्यत्वात् अकृतं न’ कर्म (अर्थात् भावकर्म) छे ते कार्य छे, माटे ते अकृत होय नहि अर्थात् कोईए कर्या विना थाय नहि..... .... .

शुं कीधुं? आ पुण्य-पाप आदि भावकर्म छे ते कार्य छे, अने कार्य छे माटे ते अकृत (अकृत्रिम) होय नहि. कोईए कर्या विना होय नहि. हवे आमां अन्यमतवाळा कहे के ईश्वर होय तो कार्य थाय अने जैनमतवाळा कोई कहे के जडकर्मने लईने कार्य थाय, आम बन्नेमां विपरीत-ऊंधुं चाल्युं छे. पण अहीं शुं कहे छे? जुओ-

‘च’ वळी ‘तत् जीव–प्रकृत्योः द्वयो कृतिः न’ ते (भावकर्म) जीव अने प्रकृति बन्नेनी कृति होय एम नथी, ‘अज्ञायाः प्रकृतेः स्व–कार्य–फल–भुगू–भाव–अनुषङ्गात्’ कारण के जो ते बन्नेनुं कार्य होय तो ज्ञानरहित (जड) एवी प्रकृतिने पण पोताना कार्यनुं फळ भोगववानो प्रसंग आवे.

शुं कीधुं आ? के पुण्य-पाप आदि विकारी भाव जे थाय ते जीव अने जड-