Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 332-344 ; Kalash: 205-206.

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कर्म- ए बन्नेनुं कार्य पण नथी. केटलाक कहे छे ने? के निमित्त अने उपादानने सरखा मानो; पण अहीं एनी ना पाडे छे. अहा! जीवने जे शुभाशुभ भाव थाय छे ते कार्य छे अने एनो कोई कर्ता न होय एम न होय. वळी ते जीव अने कर्मप्रकृति बन्ने मळीने करे छे एम नथी, कारण के जो बंने मळीने करे तो जड प्रकृतिने पण पोताना कार्यनुं फळ भोगववानो प्रसंग आवे, पण एम छे नहि, प्रकृतिने कांई (कार्यनुं फळ) भोगववुं छे एम छे नहि.

त्यारे ए कहे छे-शुं कुंभार विना घडो थाय छे खरो? हा, भाई! सर्वज्ञ परमात्मानी वाणीमां आ आव्युं छे के-कुंभार विना घडो थाय छे; घडानो कर्ता कुंभार नथी. समयसार गाथा ३७२मां आचार्य भगवान कहे छे के-“ माटी पोताना स्वभावने नहि उल्लंघती होवाने लीधे, कुंभार घडानो उत्पादक छे ज नहि; माटी ज, कुंभारना स्वभावने नहि स्पर्शती थकी, पोताना स्वभावथी कुंभभावे उपजे छे.” निमित्ताधीन द्रष्टि होवाथी निमित्त होय तो कार्य थाय एम अज्ञानी माने छे; परंतु दिगंबर संतो-भगवान केवळीना केडायतीओ तो आ कहे छे के-कुंभार घडो करे छे एम अमे देखता नथी. माटी ज घडानो कर्ता छे ने घडो माटीनुं ज कार्य छे ए परमार्थ छे. कुंभार कर्ता अने घडो एनुं कार्य एम छे ज नहि. अरे! जीव अने अजीव बन्ने भिन्न भिन्न चीज छे एनी लोकोने खबर नथी.

अहीं कहे छे-जीवमां पुण्य-पाप आदि जे भावकर्म प्रगट थाय छे ते कार्य छे अने ते जीव अने प्रकृति बन्नेनुं कार्य छे एम नथी, कारण के जो एम होय तो जड प्रकृतिने पण एनुं फळ भोगववुं पडे, पण जड प्रकृति तो कांई भोगवती नथी. माटे भावकर्म, जीव अने प्रकृति बन्नेनुं कार्य नथी.

वळी ‘एकस्य प्रकृतेः न’ ते (भावकर्म) एक प्रकृतिनी कृति (- एकली प्रकृतिनुं कार्य-) पण नथी, ‘अचित्त्वलसनात्’ कारण के प्रकृतिने तो अचेतनपणुं प्रकाशे छे.

भावकर्म एकली प्रकृतिनुं कार्य पण नथी. एकला कर्मना कारणे विकार थाय छे एम पण नथी. जीव अने प्रकृति बनेनुं कार्य छे एमेय नहि अने एकली प्रकृतिनुं ते कार्य छे एमेय नहि. अहो! वीतराग जैन परमेश्वरनी शी आज्ञा छे एनी लोकोने खबर नथी. आखो दि’ खावुं-पीवुं, रळवुं-कमावुं इत्यादि पाप-प्रवृत्तिमां रोकाईने जन्मारो वीतावी दे. कदाचित् सांभळवा जाय तो समज्या विना ज्यां त्यां ‘जय नारायण’ करी दे; पण भाई! वीतरागनो मारग जगतथी तद्न जुदी जातनो छे बापु!

बीजे तो आ वात छे नहि परंतु वाडावाळाओने पण आ कठण पडे छे.


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कर्मथी थाय एम मान्युं छे ने? तेथी आवी वात बहु आकरी पडे छे, पण अहीं तो आ चोकखी वात छे के ते (-भावकर्म) एक प्रकृतिनुं कार्य पण नथी कारण के प्रकृति अचेतन छे, अने भावकर्म चेतन छे. अचेतन चेतनने केम करे? न करे.

‘ततः’ माटे ‘अस्य कर्ता जीवः’ ते भावकर्मनो कर्ता जीव ज छे ‘च’ अने ‘चिद्–अनुगं’ चेतनने अनुसरनारुं अर्थात् चेतन साथे अन्वयरूप (-चेतनाना परिणाम रूप-) एवुं ‘तत्’ ते भावकर्म ‘जीवस्य एव कर्म’ जीवनुं ज कर्म छे ‘यत्’ कारण के ‘पुद्गलः ज्ञाता न’ पुद्गल तो ज्ञाता नथी (तेथी ते भावकर्म पुद्गलनुं कर्म होई शके नहि.)

जुओ, आ निष्कर्ष काढयो के पुण्य-पाप आदि जे विकारी भाव थाय तेनो कर्ता जीव ज छे. एटले के अज्ञानी जीव तेनो कर्ता छे. अहीं आ अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि जीवनी वात छे. बाकी स्वभावना अवलंबने जेने अंतरमां जैनपणुं प्रगटयुं छे अने मिथ्यात्व दूर थयुं छे एवो ज्ञानी पुण्य-पाप आदि विकारी भावोनो कर्ता नथी. अहीं आ सिद्ध कर्युं के भावकर्म जीवनुं ज कार्य छे, पुद्गलकर्मनुं ते कार्य नथी केमके पुद्गलकर्म अचेतन छे, जड छे, ज्यारे भावकर्म छे ते चेतनने अनुसरनारुं चेतन छे.

अहाहा...! कहे छे - ‘पुद्गलः ज्ञाता न’ पुद्गल ज्ञाता नथी. शुं कहेवुं छे आमां? के जाणनार-ज्ञाता (जीव) होय ते भूले, जेमां जाणवुं नथी तेने भूलवुं शुं? जड पुद्गलकर्मने भूलवुं शुं? अहा! राग छे ते मारुं कार्य छे एम अज्ञानी पोताना स्वरूपने भूलीने माने छे; तेथी अज्ञानी पोताना अज्ञानने लीधे भावकर्मनो- रागादिनो कर्ता थाय छे. बाकी पुद्गलकर्म तो जड माटी-धूळ अचेतन छे, ते चेतन एवां भावकर्मने केम करे? न करे. माटे भावकर्म जीवनुं ज कार्य छे, पुद्गलकर्मनुं नहि-

अहाहा...! पूर्णानंदनो नाथ प्रभु हुं एक ज्ञायकस्वभावी आत्मा छुं एम जेने अंतरमां भान थयुं छे एवो सम्यग्द्रष्टि जीव रागनो कर्ता नथी, राग थाय तेनो ए ज्ञाता ज छे. आवी वात! पण अहीं रागनो परमार्थे कर्ता कोण छे ए सिद्ध करवुं छे. तो कहे छे- पोतानी शुद्ध चैतन्यसत्तानुं जेने भान नथी एवो अज्ञानी जीव, रागनो हुं कर्ता ने राग मारुं कर्म एम अज्ञानपणे मानतो होवाथी, रागादिनो कर्ता थाय छे. ए तो उपर आवी गयुं के-

अभेदद्रष्टिमां तो कर्ताकर्मभाव ज नथी, शुद्धचेतनामात्र जीव वस्तु छे; परंतु परिणाम -परिणामीनी भेदद्रष्टिमां पोताना अज्ञानभावरूप परिणामोनो कर्ता जीव ज छे; जडकर्म कर्ता नथी.


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पण जडकर्म निमित्त तो छे ने? निमित्त छे एटले शुं? शुं ए जीवमां विकारने करे छे? शुं एने लईने जीवमां विकार थाय छे? एम छे ज नहि. जीवने विकारना परिणाम थाय एमां कर्मनी- निमित्तनी अपेक्षा छे ज नहि. पंचास्तिकाय गाथा ६२मां आ वात स्पष्ट आवी छे. शास्त्रमां निमित्त-बीजी वस्तु सिद्ध करवी होय तो निमित्त विना न थाय एम वात आवे, बाकी जीवने विकार थाय एमां निमित्तादि पर कारकोनी-जड- कर्मनी अपेक्षा छे नहि. भाई! आ केवळी परमात्मानो पोकार छे. पोतानी वातने आगम साथे मेळवी सत्यनो निर्णय करवो जोईए, बाकी एम ने एम धर्म थई जाय एवी आ चीज नथी, समजाणुं कांई...?

अरे! आ काळमां आयुष्य बहु अल्प छे. जोतजोतामां चालीस-पचास-साईठ पूरां थाय त्यां तो जिंदगी पूरी थई जाय छे. माटे भाई! हमणां ज आ नहि समजे त्यारे क्यारे समजीश? (एम के पछी समजवानो दाव नहि होय).

अहीं जिनेश्वर परमात्मा कहे छे- राग तारा अज्ञानभावथी थाय छे, कर्मने लीधे नहि. कर्मना कारणे राग थाय छे एम छे ज नहि. राग मारो छे एम माननार पर्यायबुद्धि जीव रागने करे छे; ते राग पोताथी थाय छे; परथी नहि.

वळी पोताना त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यस्वभाव पर जेनी द्रष्टि पडी छे एवो धर्मी जीव रागनो कर्ता नथी. , अकर्ता अर्थात् ज्ञाताद्रष्टा ज छे. ज्ञानी, जे राग थाय तेनो ज्ञाता-द्रष्टा छे, अकर्ता छे.

एक कोर जीव कर्ता छे एम कहेवुं ने वळी अकर्ता छे एम कहेवुं ए बन्ने जुदी जुदी अपेक्षाथी वात छे. अने एनुं नाम स्याद्वाद छे. अज्ञानवश जीव कर्ता छे, अने अज्ञान मटतां ज्ञानभाव थये अकर्ता ज छे. आवी वात छे. सत्यने माननारा थोडा होय तेथी कांई सत्य फरी जतुं नथी; सत्यने संख्याथी शुं संबंध छे; सत्य तो त्रिकाळ सत्य ज रहे छे.

* कळश २०३ः भावार्थ *

‘चेतनकर्म चेतनने ज होय; पुद्गल जड छे, तेने चेतनकर्म केम होय?’ राग थाय ते चेतननुं कार्य छे, ते कांई जड कर्मपरमाणुनी दशा नथी. माटे जडकर्म रागनो कर्ता नथी, पण अज्ञानभावे चेतन ज एनो कर्ता छे अने भावकर्म चेतननुं ज कार्य छे.


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हवेनी गाथाओमां जेओ भावकर्मनो कर्ता पण कर्मने ज माने छे तेमने समजाववाने स्याद्वाद अनुसार वस्तुस्थिति कहेशे; तेनी सूचनारूप काव्य प्रथम कहे छेः-

* कळश २०४ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘कैश्चित् हतकैः’ कोई आत्माना घातक (सर्वथा एकांतवादीओ) ‘कर्म एव कर्तृ प्रवितर्क्य’ कर्मने ज कर्ता विचारीने ‘आत्मनः कर्तृत्वं क्षिप्त्वा’ आत्माना कर्तापणाने उडाडीने ‘एषः आत्मा कथञ्चित् कर्ता’ आ आत्मा कथंचित् कर्ता छे ‘इति अचलिता श्रुतिः कोपिता’ एम कहेनारी अचलित श्रुतिने कोपित करे छे (-निर्बाध जिनवाणीनी विराधना करे छे);.......

शुं कहे छे? के कोई आत्माना घातक एवा सर्वथा एकांतवादीओ जीवने विकारनो कर्ता जडकर्म ज छे एम विचारीने आत्माना कर्तापणाने उडाडी दे छे, पण तेओ खोटा छे. वळी कोई जीव अने कर्म बन्ने भेगा मळीने विकार करे छे एम कहे छे, पण एम कहेनाराय खोटा छे केमके बे कदी एक थता ज नथी.

जीवना द्रव्य-गुणमां विकार थाय एवी कोई शक्ति नथी; पर्यायमां विकार थाय छे; पर्यायमां विकार थवानी शक्ति-योग्यता छे तो थाय छे. हवे एने पर्याय शुं? - एनीय खबर न मळे, द्रव्य नाम त्रिकाळी शक्तिओनो पिंड, गुण नाम त्रिकाळी शक्ति अने पर्याय एटले वर्तमान क्षणिक अवस्था. अहीं अवस्था उपर जेनी द्रष्टि छे एवा मूढ पर्यायद्रष्टि जीव विकारनो-भावकर्मनो कर्ता छे तोपण एकांतवादीओ जडकर्मने ज कर्ता माने छे ते अज्ञान छे. भाई! कर्म विकार करे छे एमेय नहि अने जीव अने कर्म बन्ने थईने विकार करे छे एमेय नहि. विकार थवाना कार्यकाळे विकार जीव पोते ज करे छे.

त्यारे ते कहे छे-एक कार्य थवामां बे कारण छे.

हा, शास्त्रमां बे कारणनी वात आवे छे. पण ए बेमां एक तो यथार्थ-वास्तविक कारण छे ने बीजुं उपचरित कारण छे. जे सत्यार्थ कारण तो नथी पण उपचार करीने कारण कहेवुं ते उपचरित छे. (एने यथार्थ कारण मानवुं ते मिथ्यात्व छे).

अहीं कहे छे-केटलाक आत्मघाती एकांतवादीओ जडकर्मने ज विकारनो कर्ता विचारीने आत्माना कर्तापणाने उडाडी दे छे अने ए रीते आत्मा विकारी भावनो कथंचित् कर्ता छे एम कहेनारी जिनवाणीनी विराधना करे छे. कथंचित् कर्ता छे एटले शुं? के ज्यांसुधी अज्ञान छे त्यांसुधी पुण्य-पाप आदि विकारी भावनो जीव कर्ता छे; सम्यग्दर्शन प्रगट थाय त्यारे आत्मज्ञान थतां ते रागनो अकर्ता छे; आ स्याद्वाद छे.


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कर्मने लईने आत्माने विकार थाय छे एम माननारा एकांतवादीओ कहे छे, भगवान केवळीनी निर्बाध वाणीनी विराधना करे छे.

त्यारे ते कहे छे-शास्त्रमां विकारने पुद्गलजन्य कह्यो छे. कळश ३६ मां ‘भावाः पौद्गलिकाः अमी’ -एम कह्युं छे.

हा, कह्युं छे. त्यां तो विकार औपाधिकभाव छे, पुद्गलकर्मना निमित्तना संगे उत्पन्न थाय छे अने निज चिदानंद स्वभावना संगमां रहेतां ते नीकळी जाय छे तो स्वभावद्रष्टिनी अपेक्षाए तेने पुद्गलजन्य कह्यो छे. जीवने राग थाय छे ते खरेखर कांई पुद्गलकर्म उत्पन्न करे छे एम नथी, पण जीव ज्यारे पुद्गलकर्मना निमित्तने आधीन थई परिणमे छे त्यारे राग उत्पन्न थाय छे, अने स्वद्रव्यने आधीन रही परिणमतां राग नीकळी जाय छे (उत्पन्न थतो नथी) माटे ते रागादि भावोने स्वभावनी मुख्यताथी पौद्गलिक कह्या छे केमके तेओ स्वभावभाव नथी. भाई! ज्यां जे अपेक्षा होय ते यथार्थ समजवी जोईए.

अहीं अपेक्षा बीजी छे, राग अज्ञानथी जीवमां पोतामां-पोतानी पर्यायमां थाय छे माटे ते जीवना-चेतनना परिणाम छे, अने जीव-चेतन ज तेनो कर्ता छे, जडकर्म नहि. जेओ जडकर्मने खरेखर रागनो कर्ता माने छे तेओ खरेखर जिनवाणीनी विराधना करे छे. समजाणुं कांई...?

कोईने थाय के आवुं बधुं समजवा क्यां रोकावुं? एना करतां व्रत, तप, भक्ति इत्यादि करवानुं बतावो तो बधुं सहेलुं थई जाय.

अरे भाई! व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादि तारे क्यां नवुं छे? ए तो बधुं तें अनंतकाळमां अनंतवार कर्यु छे. सांभळ; महाविदेहक्षेत्रमां के ज्यां तीर्थंकर परमात्मा सदाय बिराजमान छे त्यां तुं अनंतवार जन्म्यो छे प्रभु! अने त्यां भगवानना समोसरणमां अनंतवार तुं गयो छे, भगवाननी मणिरत्नना दीवाथी हीराना थाळमां कल्पवृक्षना फूलथी अनंतवार पूजा करी छे. पण भाई! ए तो बधो शुभराग; ए कांई धर्म नहि अने धर्मनुं कारणेय नहि. आवी व्यवहारना पक्षवाळाने आकरी लागे एवी वात! पण शुं थाय? आ तो वस्तुस्वरूप छे बापु!

पण व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादि धर्मी पुरुषोने पण होय छे! हा, होय छे. धर्मी पुरुषोने ए बधुं हेयबुद्धिए होय छे. तेओ ए शुभरागना कर्ता थता नथी, जाणनार मात्र ज रहे छे. जे राग थयो तेने तेओ पोताना चैतन्यस्वरूपमां भेळवता नथी, पण तेने पृथक राखी मात्र जाणे ज छे. ज्यारे अज्ञानी जीव रागने कर्ता थईने करे छे. आम होवा छतां कर्म ज रागने करे छे,


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कर्म विना राग न थाय एम जेओ माननारा छे तेओ, अहीं कहे छे, निर्बाध जिनवाणीनी विराधना करनारा एकांतवादी मिथ्याद्रष्टि छे.

अहा! अनादिथी अज्ञानवश एने जे विकार थाय छे ते जीव पोते ज करे छे, कर्म एनो कर्ता नथी. आवुं वस्तुस्वरूप सिद्ध करीने भगवान आचार्यदेव एने रागना कर्तापणारूप जे अनादि अज्ञानभाव छे तेने छोडी देवानी वात करे छे; केमके ज्यारे ते आवो अज्ञानभाव छोडी दे त्यारे तेने चैतन्यना आनंदनो-निजानंदस्वरूपनी प्राप्तिनो लाभ थाय; अने एनुं ज नाम धर्म छे. भाई! चारगतिना परिभ्रमणना दुःखनो जो तने डर होय तो आनो सत्वरे निर्णय करवो पडशे.

प्रत्येक द्रव्यनी समये समये जे जे पर्याय थाय ते क्रमबद्ध थाय छे. जे द्रव्यनी जे समये जे क्षेत्रे जे पर्याय थवानी होय ते द्रव्यनी ते समये त्यां ते ज पर्याय थाय छे आवुं पर्यायनुं स्वरूप छे. हवे आनो यथार्थ निर्णय करवा जाय तो कर्मथी विकार थाय, ने निमित्तथी उपादाननुं कार्य थाय ने भक्ति आदि शुभरागथी मुक्तिमार्ग थाय इत्यादि बधी मिथ्या मान्यताओ उडी जाय छे, परना कर्तापणानुं अभिमान पण उडी जाय छे.

हा, पण भगवानना गुणनुं स्मरण करे तो गुणनो लाभ थाय. आवे छे ने के ‘वन्दे तद्गुणलब्धये’ ?

ए तो बधां निमित्तनां कथन छे भाई! अरे! पोतानो जे आत्मा छे तेना द्रव्य- गुण-पर्यायना विचार करे तोय त्यां विकल्प-राग उठे छे तो पछी भगवानना गुणनुं स्मरण करे तो गुणप्राप्ति क्यांथी थाय? एनाथीय शुभराग ज उठे. अरे भाई! धर्मात्मानेय जे व्यवहाररत्नत्रय छे एय शुभराग ज छे, धर्म नथी. (एने व्यवहारथी धर्म कहीए ए बीजी वात छे).

अहाहा...! त्रिकाळी ध्रुव एक सामान्य-सामान्य-सामान्य चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मामां अभेदद्रष्टि करतां एने सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान प्रगट थाय छे; अने ए धर्म छे. परंतु भगवाननी भक्ति अने भेद उपर द्रष्टि राखतां तो राग ज थाय छे, एनाथी धर्म थाय एम तो छे ज नहि.

तो पछी प्रवचनसार गाथा ८० मां तो आम कह्युं छे के-

“जे जाणतो अर्हंतने गुण, द्रव्य ने पर्ययपणे;
ते जीव जाणे आत्मने तसु मोह पामे लय खरे.”

भाई! एनो अर्थ ए छे के प्रथम अर्हंत भगवानना द्रव्य-गुण-पर्यायने


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जाणीने, पोताना आत्मामां अंदर लक्ष करे त्यारे शुद्ध चैतन्यस्वरूपनी एकत्वपणे अभेदद्रष्टि थतां एने सम्यग्दर्शन थाय छे अने मिथ्यात्वनो नाश थाय छे. भगवानना गुणो तरफनुं लक्ष रहे त्यां सुधी ते राग ज छे; ज्यारे अंतर्द्रष्टि करे त्यारे तेने सम्यग्दर्शन थाय छे. समाधितंत्रमां पण आवे छे के-सिद्धनुं ध्यान करतां आत्मानुं ध्यान थाय छे. एनो पण आवो ज अर्थ छे के सिद्ध भगवाननुं ध्यान करतां हुं पोते स्वरूपथी सिद्ध छुं एम स्वरूपनी अंतर्द्रष्टि थाय त्यारे आत्मध्यान थाय छे. आवी वात छे.

अरे भाई! हमणां ज तुं आ नहि समजे तो क्यारे समजीश? जोतजोतामां आयु तो पुरुं थई जशे; पछी तुं क्यां जईश? जो तो खरो, आ भवसिंधु तो अमाप दरियो छे. पुण्यथी धर्म थाय ने निमित्तथी कार्य थाय इत्यादि शल्य ऊभुं रहेशे तो अपार भवसमुद्रमां चोराशी लाख योनिमां तुं क्यांय आथडी मरीश भाई!

माटे कहे छे-

‘उद्धत–मोह–मुद्रित–धियां तेषां बोधस्य संशुद्धये’ तीव्र मोहथी जेमनी बुद्धि बीडाई गई छे एवा ते आत्मघातकोना ज्ञाननी संशुद्धि अर्थे ‘वस्तुस्थितिः स्तूयते’ (नीचेनी गाथाओमां) वस्तुस्थिति कहेवामां आवे छे- ‘स्याद्वाद–प्रतिबन्ध–लब्ध– विजया’ के जे वस्तुस्थितिए स्याद्वादना प्रतिबंध वडे विजय मेळव्यो छे (अर्थात् जे वस्तुस्थिति स्याद्वादरूप नियमथी निर्बाधपणे सिद्ध थाय छे).

अहाहा...! शुं कहे छे? पोते अकर्ता छे एम समजी रागनो कर्ता जेओ जडकर्मने माने छे तेमनी बुद्धि तीव्र मोहथी बीडाई गई छे एम कहे छे. तेमना ज्ञाननी निर्मळता माटे नीचेनी गाथाओमां वस्तुस्थिति एटले वस्तुना स्वरूपनी मर्यादा कहेवामां आवे छे. ते मर्यादा आ के-अज्ञानवश विकारभावनो कर्ता जीव पोते ज छे, कर्म तेने विकार करावे छे एम नथी.

अहा! पोताना स्वभावने तरछोडीने जे निमित्तना संगे पराधीन थई परिणमे छे तेने पर्यायमां विकारी भाव उत्पन्न थाय छे अने ते विकारी भावनो कर्ता ते पोते ज छे, परद्रव्य-जडकर्म तेनो कर्ता नथी. परद्रव्य रागनुं कर्ता नथी पण अज्ञानदशामां जीव पोते ज रागनो कर्ता थाय छे-तथा ज्यारे तेने स्वभावनुं भान थई आत्मज्ञान थाय छे त्यारे ते रागनो कर्ता नथी, ज्ञाता ज छे, अकर्ता छे. आवी आ स्याद्वाद वडे सिद्ध थयेली वस्तुस्थिति छे जे हवेनी गाथाओमां कहेवामां आवशे.

अहो! केवळीना केडायती दिगंबर संतोए ढंढेरो पीटीने सत्यने खुल्लुं कर्युं


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छे. ते आ के-पोताना स्वभावना भान विना अनादि अज्ञानवश जीव रागनो कर्ता छे अने ज्यारे ते स्वभावनुं भान करी सम्यग्द्रष्टि थाय छे त्यारे ते अकर्ता छे, रागनो मात्र ज्ञाता ज छे. आ स्याद्वाद छे.

भाई! आ क्षणिक देहनो भरोसो नथी. रात्रे सूतो छे ते सवारे उठशे के नहि एनी कोने खबर छे? क्यारे आयु पूरुं थई जशे ए कोण जाणे छे? माटे हमणां ज तत्त्वनिर्णय करी ले; वीजळीना झबकारे मोती परोवी ले तो परोवी ले बापा! (एम के आ मनुष्यभव वीजळीना झबकारा जेवो क्षणिक छे, तेमां तत्त्व निर्णय कर्यो तो कर्यो, नहि तो भवसमुद्रमां क्यांय खोवाई जईश).

जड शरीरनी, वाणीनी इत्यादि जडनी क्रियाओनो तो अज्ञानी पण कर्ता नथी. शुं कीधुं? आ पूजा वखते हाथ प्रसारीने फूल चढावे ने स्वाहा बोले ए बधी जडनी क्रियाओ छे अने तेनो अज्ञानभावे पण जीव कर्ता नथी. फक्त पर तरफ लक्ष जतां जे राग थाय छे ते राग उपर जेनी द्रष्टि छे एवो अज्ञानी जीव ते रागनो कर्ता छे, अने जेनी द्रष्टि रागथी खसीने अंदर चित्स्वभाव उपर गयेली छे ते ज्ञानी जीव रागनो कर्ता नथी, अकर्ता छे, ज्ञाता छे. आवी वात छे.

* कळश २०४ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘कोई एकांतवादीओ सर्वथा एकांतथी कर्मनो कर्ता कर्मने ज कहे छे अने आत्माने अकर्ता ज कहे छे; तेओ आत्माना घातक छे. तेमना पर जिनवाणीनो कोप छे, कारण के स्याद्वादथी वस्तुस्थितिने निर्बाध रीते सिद्ध करनारी जिनवाणी तो आत्माने कथंचित् कर्ता कहे छे.’

जुओ, अन्यमतवाळा जगत-कर्ता ईश्वरने माने छे, ज्यारे कोई जैनमतवाळा (- जैनाभासीओ) रागनो कर्ता जडकर्म छे एम माने छे. तेओ बन्ने एक जातनी मान्यतावाळा मिथ्याद्रष्टि छे; तेओ आत्माना घातक छे. एटले शुं? के विपरीत मान्यता वडे तेओ निरंतर निज आत्मद्रव्यनी हिंसा ज करे छे तेथी आत्मघाती छे. तेमना पर जिनवाणीनो कोप छे. जिनवाणी आत्माने कथंचित् कर्ता कहे छे, अने आ आत्माने सर्वथा अकर्ता ज माने छे. आ प्रमाणे तेमना पर जिनवाणीनो कोप छे, अर्थात् तेओ जिनवाणीना विराधक छे.

अज्ञानी जीव पोताना ज्ञाता-द्रष्टा स्वभावने जाणतो नथी. तेनी द्रष्टि राग अने पर्याय उपर पडी छे, तेथी ते रागनो कर्ता थाय छे. आम अनादिथी आत्मा पोताना विकारी भावोनो, परनी अपेक्षा विना, स्वतंत्र कर्ता छे; एवो एनो पर्यायधर्म छे.


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परंतु आ (-जैनाभासी) माने छे के विकार कर्मने लईने थाय छे, आत्मा एनो कर्ता नथी. तेनी आ मान्यता जूठी छे केमके परद्रव्यने अने आत्मद्रव्यने कांईपण (-कर्ताकर्म आदि) संबंध नथी. (जुओ कळश २००)

जगतनी रचना ईश्वरे करी छे ए जेम जूठी वात छे तेम अज्ञानीनी बधी जूठी कल्पनाओ छे. चौद ब्रह्मांड ते अणकरायेली-अकृत्रिम चीज छे; अनादि वस्तुस्थिति छे. तेम एने जे विकार थाय छे ते एनी जन्मक्षण छे. अलबत विकार निमित्ताधीन थवाथी उत्पन्न थाय छे, तोपण निमित्त विकार करी-करावी दे छे एम नथी. पोते कर्मने वश थईने विकार करे छे, पण कर्म एने विकार करावे छे एम नथी.

प्रवचनसारमां ४७ नयमां एक ईश्वरनय कहेल छे. आत्मद्रव्य ईश्वरनये परतंत्रता भोगवनार छे; एटले के आत्मा निमित्तने आधीन थईने पोते परतंत्र थाय छे, कर्म एने परतंत्र करे छे एम नहि. चंद्रप्रभु भगवाननी जयमालामां पण आवे छे ने के-

कर्म बिचारे कौन, भूल मेरी अधिकाई;
अग्नि सहै घनघात, लोहकी संगति पाई.

एकली अग्नि पर घणना घा पडता नथी, पण लोढानी ते संगति करे तो माथे घणना घा पडे छे. तेम एकला आत्माने विकार नथी, निर्विकार छे. पण स्वभावने छोडी निमित्तना-कर्मना संगे परिणमे तो विकार थाय छे. एमां कर्मनो तो कांई वांक नथी, पोते एना संगमां जाय ए पोतानो ज अपराध छे.

एक मोटा पंडित अहीं आवेला ते कहेता -महाराज! आ तमे कहो छो एवी तो अमारी पढाई (-भणतर) नथी; अमारा पंडितो ने त्यागीओनी तो आवी पढाई छे के-निमित्तथी विकार थाय, निमित्तथी कार्य थाय आदि.

पण भाई! जो तो खरो, अहीं आ शुं कहे छे? के जडकर्मथी ज विकार थाय छे अने आत्मा एनो सर्वथा कर्ता नथी एम माननारा आत्मघाती मिथ्याद्रष्टि छे. वास्तवमां भाई! पोताना ज्ञानानंद स्वरूपने भूलीने अज्ञानी जीव स्वतंत्र रागनो कर्ता छे, तेने कर्म राग करावे छे ए वात त्रणकाळमां सत्यार्थ नथी. सो ए सो टका विकार थाय छे ते जीवने पोताथी थाय छे, तेमां कर्मनुं एक दोकडो पण कर्तापणुं नथी. अत्यारे तो बधे मोटी गडबड ऊभी थई छे; मूळमां ज मोटो फेर छे. पण बापु! यथार्थ निर्णय नहि करे तो तने मोटुं नुकशान छे. जो, आ शुं कहे छे? -


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‘आत्माने अकर्ता ज कहेनारा एकान्तवादीओनी बुद्धि उत्कट मिथ्यात्वथी बीडाई गयेली छे; तेमना मिथ्यात्वने दूर करवाने आचार्य भगवान स्याद्वाद अनुसार जेवी वस्तुस्थिति छे तेवी, नीचेनी गाथाओमां कहे छे.’

समयसार कळश १७प मां कह्युं छे के-आत्मा पोताने रागादिकनुं निमित्त कदीय नथी; तेने जे विकार थाय छे तेमां निमित्त परद्रव्यनो संग ज छे– ‘तस्मिन्निमित्तं पर– संग एव’ -आवो वस्तुस्वभाव प्रकाशमान छे, कोईए करेलो नथी. अज्ञानीने निज द्रव्यस्वभावनुं भान नथी, तेथी ते बाह्य निमित्तना-परद्रव्यना संगे परिणमे छे अने तेथी तेने विकार ज थाय छे. समकितीने जेटलो स्वभावनो संग-संबंध छे तेटली निर्मळ-निर्विकार दशा छे, धर्म छे अने जेटलो परद्रव्यना-निमित्तना प्रसंगमां जाय छे तेटलो तेने त्यां राग थाय छे; पण तेनो ए ज्ञाता छे; कर्ता नथी; अज्ञानी विकारनो कर्ता थाय छे. आ स्याद्वाद छे.

पंचास्तिकायनी ६२ मी गाथामां आ स्पष्ट वात छे के विकार थाय छे ते पोताना षट्कारकना परिणमनथी जीवने स्वतंत्रपणे थाय छे, तेमां परकारकोनी कोई अपेक्षा नथी. जीवने विकार थाय एमां निश्चयथी परनी अपेक्षा बीलकुल नथी.

भाई! आ कोई पक्षनी वात नथी; आ तो आगमथी, न्यायथी, युक्तिथी वस्तुस्थिति निर्बाध सिद्ध थाय छे. छतां आत्मा सर्वथा अकर्ता ज छे एम कहेनारा मिथ्यात्वग्रस्त पुरुषोना मिथ्यात्वने दूर करवाने आचार्य भगवान, जेवी वस्तुस्थिति छे तेवी, गाथाओमां हवे कहे छे.

[प्रवचन नं. ३८९ थी ३९१*दिनांक १७-७-७७ थी १९-७-७७]

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गाथा ३३२ थी ३४४
कम्मेहि दु अण्णाणी किज्जदि णाणी तहेव कम्मेहिं।
कम्मेहि सुवाविज्जदि जग्गाविज्जदि तहेव कम्मेहिं।। ३३२।।
कम्मेहि सुहाविज्जदि दुक्खाविज्जदि तहेव कम्मेहिं।
कम्मेहि य मिच्छत्तं णिज्जदि णिज्जदि असंजमं चेव।। ३३३।।
कम्मेहि भमाडिज्जदि उड्ढमहो चावि तिरियलोयं च।
कम्मेहि चेव किज्जदि सुहासुहं जेत्तियं किंचि।। ३३४।।
जम्हा कम्मं कुव्वदि कम्मं देदि हरदि त्ति जं किंचि।
तम्हा उ सव्वजीवा अकारगा होंति आवण्णा।। ३३५।।
पुरिसित्थियाहिलासी इत्थीकम्मं च पुरिसमहिलसदि।
एसा आयरियपरंपरागदा एरिसी दु सुदी।। ३३६।।
‘आत्मा सर्वथा अकर्ता नथी, कथंचित् कर्ता पण छे’ एवा अर्थनी गाथाओ हवे कहे

छेः-

“कर्मो करे अज्ञानी तेम ज ज्ञानी पण कर्मो करे,
कर्मो सुवाडे तेम वळी, कर्मो जगाडे जीवने; ३३२.
कर्मो करे सुखी तेम वळी कर्मो दुखी जीवने करे,
कर्मो करे मिथ्यात्वी तेम असंयमी कर्मो करे; ३३३.
कर्मो भमावे ऊर्ध्व लोके, अधः ने तिर्यक् विषे,
जे कांई पण शुभ के अशुभ ते सर्वने कर्म ज करे. ३३४.
कर्म ज करे छे, कर्म ए आपे, हरे, –सघळुं करे,
तेथी ठरे छे एम के आत्मा अकारक सर्व छे. ३३प.
वळी ‘पुरुषकर्म स्त्रीने अने स्त्रीकर्म ईच्छे पुरुषने’
–एवी श्रुति आचार्य केरी परंपरा ऊतरेल छे. ३३६.

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तम्हा ण को वि जीवो अबंभचारी दु अम्ह उवदेसे।
जम्हा कम्मं चेव हि कम्मं अहिलसदि इदि भणिदं।। ३३७।।
जम्हा धादेदि परं परेण घादिज्जदे य सा पयडी।
एदेणत्थेणं किर भण्णदि परघादणामेत्ति।। ३३८।।
तम्हा ण को वि जीवो वधादओ अत्थि अम्ह उवदेसे।
जम्हा कम्मं चेव हि कम्मं घादेदि इदि भणिदं।। ३३९।।
एवं संखुवएसं जे दु परूवेंति एरिसं समणा।
तेसिं पयडी कुव्वदि अप्पा य अकारगा सव्वे।। ३४०।।
अहवा मण्णसि मज्झं अप्पा अप्पाणमप्पणो कुणदि।
एसो मिच्छसहावो तुम्हं एयं
मुणंतस्स।। ३४१।।
अप्पा णिच्चोऽसंखेज्जपदेसो देसिदो दु समयम्हि।
ण वि सो सक्कदि तत्तो हीणो अहिओ य कादुं जे।। ३४२।।
ए रीत ‘कर्म ज कर्मने ईच्छे’ –कह्युं छे श्रुतमां,
तेथी न को पण जीव अब्रह्मचारी अम उपदेशमां. ३३७.
वळी जे हणे परने, हणाये परथी, तेह प्रकृति छे,
–ए अर्थमां परघात नामनुं नामकर्म कथाय छे. ३३८.
ए रीत ‘कर्म ज कर्मने हणतुं’ –कह्युं छे श्रुतमां,
तेथी न को पण जीव छे हणनार अम उपदेशमां.” ३३९.
एम सांख्यनो उपदेश आवो, जे श्रमण प्ररूपण करे,
तेना मते प्रकृति करे छे, जीव अकारक सर्व छे! ३४०.
अथवा तुं माने ‘आतमा मारो करे निज आत्मने’,
तो एवुं तुज मंतव्य पण मिथ्या स्वभाव ज तुज खरे. ३४१.
जीव नित्य तेम वळी असंख्यप्रदेशी दर्शित समयमां,
तेनाथी तेने हीन तेम अधिक करवो शक्य ना. ३४२.

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जीवस्स जीवरूवं वित्थरदो जाण लोगमेत्तं खु।
तत्तो सो किं हीणो अहिओ य कहं कुणदि दव्वं।। ३४३।।
अह जाणगो दु भावो णाणसहावेण अच्छदे त्ति मदं।
तम्हा ण वि अप्पा अप्पयं तु सयमप्पणो कुणदि।। ३४४।।
कर्मभिस्तु अज्ञानी क्रियते ज्ञानी तथैव कर्मभिः।
कर्मभिः स्वाप्यते जागर्यते तथैव कर्मभिः।। ३३२।।
कर्मभिः सुखी क्रियते दुःखी क्रियते तथैव कर्मभिः।
कर्मभिश्च मिथ्यात्वं नीयते नीयतेऽसंयमं चैव।।
३३३।।
कर्मभिर्भ्राम्यते ऊर्ध्वमधश्चापि तिर्यग्लोकं च।
कर्मभिश्चैव क्रियते शुभाशुभं यावद्यत्किञ्चित्।। ३३४।।
यस्मात्कर्म करोति कर्म ददाति हरतीति यत्किञ्चित्।
तस्मात्तु सर्वजीवा अकारका भवन्त्यापन्नाः।।
३३५।।

गाथार्थः– [कर्मभिः तु] कर्मो [अज्ञानी क्रियते] (जीवने) अज्ञानी करे छे [तथा एव] तेम ज [कर्मभिः ज्ञानी] कर्मो (जीवने) ज्ञानी करे छे, [कर्मभिः स्वाप्यते] कर्मो सुवाडे छे [तथा एव] तेम ज [कर्मभिः जागर्यते] कर्मो जगाडे छे, [कर्मभिः सुखी क्रियते] कर्मो सुखी करे छे [तथा एव] तेम ज [कर्मभिः दुःखी क्रियते] कर्मो दुःखी करे छे, [कर्मभिः च मिथ्यात्वं नीयते] कर्मो मिथ्यात्व पमाडे छे [च एव] तेम ज [असंयमं नीयते] कर्मो असंयम पमाडे छे, [कर्मभिः] कर्मो [उर्ध्वम् अधः च अपि तिर्यग्लोकं च] ऊर्ध्वलोक, अधोलोक अने तिर्यग्लोकमां [भ्राम्यते] भमावे छे, [यत्किञ्चित् यावत् शुभाशुभं] जे कांई पण जेटलुं शुभ अशुभ छे ते बधुं [कर्मभिः च एव क्रियते] कर्मो ज करे छे. [यस्मात्] जेथी [कर्म करोति] कर्म करे छे, [कर्म ददाति] कर्म आपे छे, [हरति] कर्म हरी ले छे- [इति यत्किञ्चित्] एम जे कांई पण करे छे ते कर्म ज करे छे, [तस्मात् तु] तेथी [सर्वजीवाः] सर्व जीवो [अकारकाः आपन्नाः भवन्ति] अकारक (अकर्ता) ठरे छे.

विस्तारथीय जीवरूप जीवनुं लोकमात्र ज छे खरे,
शुं तेथी ते हीन–अधिक बनतो? केम करतो द्रव्यने? ३४३.
माने तुं– ‘ज्ञायक भाव तो ज्ञानस्वभावे स्थिर रहे’,
तो एम पण आत्मा स्वयं निज आतमाने नहि करे. ३४४.

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पुरुषः स्क्र्यभिलाषी स्त्रीकर्म च पुरुषमभिलषति।
एषाचार्यपरम्परागतेद्रशी तु
श्रुतिः।। ३३६।।
तस्मान्न कोऽपि जीवोऽब्रह्मचारी त्वस्माकमुपदेशे।
यस्मात्कर्म चैव हि कर्माभिलषतीति भणितम्।। ३३७।।
यस्माद्धन्ति परं परेण हन्यते च सा प्रकृतिः।
एतेनार्थेन किल भण्यते परघातनामेति।। ३३८।।
तस्मान्न कोऽपि जीव उपघातकोऽस्त्यस्माकमुपदेशे।
यस्मात्कर्म चैव हि कर्म हन्तीति भणितम्।। ३३९।।
एवं साङ्खयोपदेशं ये तु प्ररूपयन्तीद्रशं श्रमणाः।
तेषां प्रकृतिः करोत्यात्मानश्चाकारकाः सर्वे।। ३४०।।

वळी, [पुरुषः] पुरुषवेदकर्म [स्क्र्यभिलाषी] स्त्रीनुं अभिलाषी छे [च] अने [स्त्रीकर्म] स्त्रीवेदकर्म [पुरुषम् अभिलषति] पुरुषनी अभिलाषा करे छे- [एषा आचार्यपरम्परागता ईद्रशी तु श्रुतिः] एवी आ आचार्यनी परंपराथी ऊतरी आवेली श्रुति छे; [तस्मात्] माटे [अस्माकम् उपदेशे तु] अमारा उपदेशमां [कः अपि जीवः] कोई पण जीव [अब्रह्मचारी न] अब्रह्मचारी नथी, [यस्मात्] कारण के [कर्म च एव हि] कर्म ज [कर्म अभिलषति] कर्मनी अभिलाषा करे छे [इति भणितम्] एम कह्युं छे.

वळी, [यस्मात् परं हन्ति] जे परने हणे छे [च] अने [परेण हन्यते] जे परथी हणाय छे [सा प्रकृतिः] ते प्रकृति छे- [एतेन अर्थन किल] ए अर्थमां [परघातनाम इति भण्यते] परघातनामकर्म कहेवामां आवे छे, [तस्मात्] तेथी [अस्माकम् उपदेशे] अमारा उपदेशमां [कः अपि जीवः] कोई पण जीव [उपघातकः न अस्ति] उपघातक (हणनार) नथी [यस्मात्] कारण के [कर्म च एव हि] कर्म ज [कर्म हन्ति] कर्मने हणे छे [इति भणितम्] एम कह्युं छे.”

(आचार्यभगवान कहे छे केः-) [एवं तु] आ प्रमाणे [ईद्रशं साङ्खयोपदेशं] आवो सांख्यमतनो उपदेश [ये श्रमणाः] जे श्रमणो (जैन मुनिओ) [प्ररूपयन्ति] प्ररूपे छे [तेषां] तेमना मतमां [प्रकृतिः करोति] प्रकृति ज करे छे [आत्मानः च सर्वे] अने आत्माओ तो सर्वे [अकारकाः] अकारक छे एम ठरे छे!

[अथवा] अथवा (कर्तापणानो पक्ष साधवाने) [मन्यसे] जो तुं एम माने के [मम आत्मा] मारो आत्मा [आत्मनः] पोताना [आत्मानम्] (द्रव्यरूप)


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अथवा मन्यसे ममात्मात्मानमात्मनः करोति।
एष मिथ्यास्वभावः तवैतज्जानतः।।३४१।।
आत्मा नित्योऽसङ्खयेयप्रदेशो दर्शितस्तु समये।
नापि स शक्यते ततो हीनोऽधिकश्च कर्तु यत्।।३४२।।
जीवस्य जीवरूपं विस्तरतो जानीहि लोकमात्रं खलु।
ततः स किं हीनोऽधिको वा कथं करोति द्रव्यम्।।३४३।।
अथ ज्ञायकस्तु भावो ज्ञानस्वभावेन तिष्ठतीति मतम्।
तस्मान्नाप्यात्मात्मानं तु स्वयमात्मनः करोति।।३४४।।

आत्माने [करोति] करे छे’ , [एतत जानतः तव] तो एवुं जाणनारनो तारो [एषः मिथ्यास्वभावः] ए मिथ्यास्वभाव छे (अर्थात् एम जाणवुं ते तारो मिथ्यास्वभाव छे); [यद्] कारण के- [समये] सिद्धांतमां [आत्मा] आत्माने [नित्यः] नित्य, [असङ्खयेय–प्रदेशः] असंख्यात-प्रदेशी [दर्शितः तु] बताव्यो छे, [ततः] तेनाथी [सः] तेने [हीनः अधिकः च] हीन-अधिक [कर्तु न अपि शक्यते] करी शकातो नथी; [विस्तरतः] वळी विस्तारथी पण [जीवस्य जीवरूपं] जीवनुं जीवरूप [खलु] निश्चयथी [लोकमात्रं जानीहि] लोकमात्र जाण; [ततः] तेनाथी [किं सः हीनः अधिकः वा] शुं ते हीन अथवा अधिक थाय छे? [द्रव्यम् कथं करोति] तो पछी (आत्मा) द्रव्यने (अर्थात् द्रव्यरूप आत्माने) कई रीते करे छे?

[अथ] अथवा जो ‘[ज्ञायकः भावः तु] ज्ञायक भाव तो [ज्ञानस्वभावेन तिष्ठति] ज्ञानस्वभावे स्थित रहे छे’ [इति मतम्] एम मानवामां आवे, [तस्मात् अपि] तो एम पण [आत्मा स्वयं] आत्मा पोते [आत्मनः आत्मानं तु] पोताना आत्माने [न करोति] करतो नथी एम ठरे छे!

(आ रीते कर्तापणुं साधवा माटे विवक्षा पलटीने जे पक्ष कह्यो ते घटतो नथी.) (आ प्रमाणे, कर्मनो कर्ता कर्म ज मानवामां आवे तो स्याद्वाद साथे विरोध आवे छे; माटे आत्माने अज्ञान-अवस्थामां कथंचित् पोताना अज्ञानभावरूप कर्मनो कर्ता मानवो, जेथी स्याद्वाद साथे विरोध आवतो नथी.)

टीकाः– (अहीं पूर्वपक्ष आ प्रमाणे छेः) “कर्म ज आत्माने अज्ञानी करे छे, कारण के ज्ञानावरण नामना कर्मना उदय विना तेनी (-अज्ञाननी) अनुपपत्ति छे; कर्म ज (आत्माने) ज्ञानी करे छे, कारण के ज्ञानावरण नामना कर्मना क्षयोपशम विना तेनी अनुपपत्ति छे; कर्म ज सुवाडे छे, कारण के निद्रा नामना कर्मना उदय


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विना तेनी अनुपपत्ति छे; कर्म ज जगाडे छे, कारण के निद्रा नामना कर्मना क्षयोपशम विना तेनी अनुपपत्ति छे; कर्म ज सुखी करे छे, कारण के शातावेदनीय नामना कर्मना उदय विना तेनी अनुपपत्ति छे; कर्म ज दुःखी करे छे, कारण के अशातावेदनीय नामना कर्मना उदय विना तेनी अनुपपत्ति छे; कर्म ज मिथ्याद्रष्टि करे छे, कारण के मिथ्यात्वकर्मना उदय विना तेनी अनुपपत्ति छे; कर्म ज असंयमी करे छे, कारण के चारित्रमोह नामना कर्मना उदय विना तेनी अनुपपत्ति छे; कर्म ज ऊर्ध्वलोकमां, अधोलोकमां अने तिर्यग्लोकमां भमावे छे, कारण के आनुपूर्वी नामना कर्मना उदय विना तेनी अनुपपत्ति छे; बीजुं पण जे कांई पण जेटलुं शुभ-अशुभ छे ते बधुंय कर्म ज करे छे, कारण के प्रशस्त-अप्रशस्त राग नामना कर्मना उदय विना तेनी अनुपपत्ति छे. ए रीते बधुंय स्वतंत्रपणे कर्म ज करे छे, कर्म ज आपे छे, कर्म ज हरी ले छे, तेथी अमे एम निश्चय करीए छीए के-सर्वे जीवो सदाय एकांते अकर्ता ज छे. वळी श्रुति (भगवाननी वाणी, शास्त्र) पण ए ज अर्थने कहे छे; कारण के, (ते श्रुति) ‘पुरुषवेद नामनुं कर्म स्त्रीनी अभिलाषा करे छे अने स्त्रीवेद नामनुं कर्म पुरुषनी अभिलाषा करे छे’ ए वाक्यथी कर्मने ज कर्मनी अभिलाषाना कर्तापणाना समर्थन वडे जीवने अब्रह्मचर्यना कर्तापणानो निषेध करे छे, तथा ‘जे परने हणे छे अने जे परथी हणाय छे ते परघातकर्म छे’ ए वाक्यथी कर्मने ज कर्मना घातनुं कर्तापणुं होवाना समर्थन वडे जीवने घातना कर्तापणानो निषेध करे छे, अने ए रीते (अब्रह्मचर्यना तथा घातना कर्तापणाना निषेध द्वारा) जीवनुं सर्वथा ज अकर्तापणुं जणावे छे.”

(आचार्यदेव कहे छे केः-) आ प्रमाणे आवा सांख्यमतने, पोतानी प्रज्ञाना (बुद्धिना) अपराधथी सूत्रना अर्थने नहि जाणनारा केटलाक *श्रमणाभासो प्ररूपे छे; तेमनी, एकांते प्रकृतिना कर्तापणानी मान्यताथी, समस्त जीवोने एकांते अकर्तापणुं आवी पडे छे तेथी ‘जीव कर्ता छे’ एवी जे श्रुति तेनो कोप टाळवो अशक्य थाय छे (अर्थात् भगवाननी वाणीनी विराधना थाय छे). वळी, ‘कर्म आत्माना अज्ञानादि सर्व भावोने- के जेओ पर्यायरूप छे तेमने-करे छे, अने आत्मा तो आत्माने ज एकने द्रव्यरूपने करे छे माटे जीव कर्ता छे; ए रीते श्रुतिनो कोप थतो नथी’ -एवो जे अभिप्राय छे ते मिथ्या ज छे. (ते समजाववामां आवे छेः) जीव तो द्रव्यरूपे नित्य छे, असंख्यात-प्रदेशी छे अने लोकपरिमाण छे. तेमां प्रथम, नित्यनुं कार्यपणुं बनी शक्तुं नथी, कारण के कृतकपणाने अने नित्यपणाने एकपणानो विरोध छे. (आत्मा नित्य छे तेथी ते कृतक अर्थात् कोईए करेलो होई शके नहि.) वळी _________________________________________________________________ * श्रमणाभास = मुनिना गुणो नहि होवा छतां पोताने मुनि कहेवरावनार.


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अवस्थित असंख्य-प्रदेशी एक एवा तेने (-आत्माने), पुद्गलस्कंधनी माफक, प्रदेशोनां प्रक्षेपण-आकर्षण द्वारा पण कार्यपणुं बनी शक्तुं नथी, कारण के प्रदेशोनुं प्रक्षेपण तथा आकर्षण थाय तो तेना एकपणानो व्याघात थाय. (स्कंध अनेक परमाणुओनो बनेलो छे, माटे तेमांथी परमाणुओ नीकळी जाय तेम ज तेमां परमाणुओ आवे; परंतु आत्मा निश्चित असंख्य-प्रदेशवाळुं एक ज द्रव्य होवाथी ते पोताना प्रदेशोने काढी नाखी शके नहि तेम ज वधारे प्रदेशोने लई शके नहि.) वळी सकळ लोकरूपी घरना विस्तारथी परिमित जेनो निश्चित निज *विस्तार-संग्रह छे (अर्थात् लोक जेटलुं जेनुं निश्चित माप छे) तेने (-आत्माने) प्रदेशोना संकोच-विकास द्वारा पण कार्यपणुं बनी शक्तुं नथी, कारण के प्रदेशोनां संकोच-विस्तार थवां छतां पण, सूका-भीना चामडानी माफक, निश्चित निज विस्तारने लीधे तेने (-आत्माने) हीन-अधिक करी शकातो नथी. (आ रीते आत्माने द्रव्यरूप आत्मानुं कर्तापणुं घटी शक्तुं नथी.) वळी, “वस्तुस्वभावनुं सर्वथा मटवुं अशक्य होवाथी ज्ञायक भाव ज्ञानस्वभावे ज सदाय स्थित रहे छे अने एम स्थित रहेतो थको, ज्ञायकपणाने अने कर्तापणाने अत्यंत विरुद्धता होवाथी, मिथ्यात्वादि भावोनो कर्ता थतो नथी; अने मिथ्यात्वादि भावो तो थाय छे; तेथी तेमनो कर्ता कर्म ज छे एम प्ररूपण करवामां आवे छे”-आवी जे वासना (अभिप्राय, वलण) प्रगट करवामां आवे छे ते पण ‘आत्मा आत्माने करे छे’ एवी (पूर्वोक्त) मान्यताने अतिशयपणे हणे ज छे (कारण के सदाय ज्ञायक मानवाथी आत्मा अकर्ता ज ठर्यो).

माटे, ज्ञायक भाव सामान्य अपेक्षाए ज्ञानस्वभावे अवस्थित होवा छतां, कर्मथी उत्पन्न थता मिथ्यात्वादि भावोना ज्ञानसमये, अनादिकाळथी ज्ञेय अने ज्ञानना भेदविज्ञानथी शून्य होवाने लीधे, परने आत्मा तरीके जाणतो एवो ते (ज्ञायक भाव) विशेष अपेक्षाए अज्ञानरूप ज्ञानपरिणामने करतो होवाथी (-अज्ञानरूप एवुं जे ज्ञाननुं परिणमन तेने करतो होवाथी), तेने कर्तापणुं संमत करवुं (अर्थात् ते कर्ता छे एम स्वीकारवुं); ते त्यां सुधी के ज्यां सुधी भेदविज्ञानना आदिथी ज्ञेय अने ज्ञानना भेदविज्ञानथी पूर्ण (अर्थात् भेदविज्ञान सहित) थवाने लीधे आत्माने ज आत्मा तरीके जाणतो एवो ते (ज्ञायक भाव), विशेष अपेक्षाए पण ज्ञानरूप ज ज्ञानपरिणामे परिणमतो थको (-ज्ञानरूप एवुं जे ज्ञाननुं परिणमन ते-रूपे ज परिणमतो थको), केवळ ज्ञातापणाने लीधे साक्षात् अकर्ता थाय.

भावार्थः– केटलाक जैन मुनिओ पण स्याद्वाद-वाणीने बराबर नहि समजीने सर्वथा एकांतनो अभिप्राय करे छे अने विवक्षा पलटीने एम कहे छे के- _________________________________________________________________ * संग्रह = जथ्थो; मोटप.


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(शार्दूलविक्रीडित)
माऽकर्तारममी स्पृशन्तु पुरुषं सांख्या इवाप्यार्हताः
कर्तारं कलयन्तु तं किल सदा भेदावबोधादधः।
ऊर्ध्वम् तूद्धतबोधधामनियतं प्रत्यक्षमेनं स्वयं
पश्यन्तु च्युतकर्तृभावमचलं ज्ञातारमेकं परम्।।२०५।।

“आत्मा तो भावकर्मनो अकर्ता ज छे, कर्मप्रकृतिनो उदय ज भावकर्मने करे छे; अज्ञान, ज्ञान, सूवुं, जागवुं, सुख, दुःख, मिथ्यात्व, असंयम, चार गतिओमां भ्रमण-ए बधांने, तथा जे कांई शुभ-अशुभ भावो छे ते बधायने कर्म ज करे छे; जीव तो अकर्ता छे.” वळी ते मुनिओ शास्त्रनो पण एवो ज अर्थ करे छे के- “वेदना उदयथी स्त्री-पुरुषनो विकार थाय छे अने उपघात तथा परघात प्रकृतिना उदयथी परस्पर घात प्रवर्ते छे.” आ प्रमाणे, जेम सांख्यमती बधुंय प्रकृतिनुं ज कार्य माने छे अने पुरुषने अकर्ता माने छे तेम, पोतानी बुद्धिना दोषथी आ मुनिओनुं पण एवुं ज एकांतिक मानवुं थयुं. माटे जिनवाणी तो स्याद्वाद होवाथी, सर्वथा एकांत माननारा ते मुनिओ पर जिनवाणीनो कोप अवश्य थाय छे. जिनवाणीना कोपना भयथी जो तेओ विवक्षा पलटीने एम कहे के-“भावकर्मनो कर्ता कर्म छे अने पोताना आत्मानो (अर्थात् पोतानो) कर्ता आत्मा छे; ए रीते अमे आत्माने कथंचित् कर्ता कहीए छीए, तेथी वाणीनो कोप थतो नथी;” तो आ तेमनुं कहेवुं पण मिथ्या ज छे. आत्मा द्रव्ये नित्य छे, असंख्यात प्रदेशोवाळो छे, लोकपरिमाण छे, तेथी तेमां तो कांई नवीन करवानुं छे नहि; अने जे भावकर्मरूप पर्यायो छे तेमनो कर्ता तो ते मुनिओ कर्मने ज कहे छे; माटे आत्मा तो अकर्ता ज रह्यो! तो पछी वाणीनो कोप कई रीते मटयो? माटे आत्माना कर्तापणा अने अकर्तापणानी विवक्षा यथार्थ मानवी ते ज स्याद्वादनुं साचुं मानवुं छे. आत्माना कर्तापणा-अकर्तापणा विषे सत्यार्थ स्याद्वाद-प्ररूपण आ प्रमाणे छेः-

आत्मा सामान्य अपेक्षाए तो ज्ञानस्वभावे ज स्थित छे; परंतु मिथ्यात्वादि भावोने जाणती वखते, अनादि काळथी ज्ञेय अने ज्ञानना भेदविज्ञानना अभावने लीधे, ज्ञेयरूप मिथ्यात्वादि भावोने आत्मा तरीके जाणे छे, तेथी ए रीते विशेष अपेक्षाए अज्ञानरूप ज्ञानपरिणामने करतो होवाथी कर्ता छे; अने ज्यारे भेदविज्ञान थवाथी आत्माने ज आत्मा तरीके जाणे छे त्यारे विशेष अपेक्षाए पण ज्ञानरूप ज्ञानपरिणामे ज परिणमतो थको केवळ ज्ञाता रहेवाथी साक्षात् अकर्ता छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः– [अमी आर्हताः अपि] आ अर्हत्ना मतना अनुयायीओ अर्थात्


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(मालिनी)
क्षणिकमिदमिहैकः कल्पयित्वात्मतत्त्वं
निजमनसि विधत्ते कर्तृभोक्त्रोर्विभेदम्।
अपहरति विमोहं तस्य नित्यामृतौधैः
स्वयमयमभिषिञ्चंश्चिच्चमत्कार एव।।२०६।।

जैनो पण [पुरुषं] आत्माने, [सांख्याः इव] सांख्यमतीओनी जेम, [अकर्तारम् मा स्पृशन्तु] (सर्वथा) अकर्ता न मानो; [भेद–अवबोधात् अधः] भेदज्ञान थया पहेलां [तं किल] तेने [सदा] निरन्तर [कर्तारम् कलयन्तु] कर्ता मानो, [तु] अने [ऊर्ध्वम्] भेदज्ञान थया पछी [उद्धत–बोध–धाम–नियतं स्वयं प्रत्यक्षम् एनम्] उद्धत *ज्ञानधाममां निश्चित एवा आ स्वयं प्रत्यक्ष आत्माने [च्युत–कर्तृभावम् अचलं एकं परम् ज्ञातारम्] कर्तापणा विनानो, अचळ, एक परम ज्ञाता ज [पश्यन्तु] देखो.

भावार्थः– सांख्यमतीओ पुरुषने सर्वथा एकांतथी अकर्ता, शुद्ध उदासीन चैतन्यमात्र माने छे. आवुं मानवाथी पुरुषने संसारना अभावनो प्रसंग आवे छे; अने जो प्रकृतिने संसार मानवामां आवे तो ते पण घटतुं नथी, कारण के प्रकृति तो जड छे, तेने सुखदुःख आदिनुं संवेदन नथी, तेने संसार केवो? आवा अनेक दोषो एकांत मान्यतामां आवे छे. सर्वथा एकांत वस्तुनुं स्वरूप ज नथी. माटे सांख्यमतीओ मिथ्याद्रष्टि छे; अने जो जैनो पण एवुं माने तो तेओ पण मिथ्याद्रष्टि छे. तेथी आचार्यदेव उपदेश करे छे के-सांख्यमतीओनी माफक जैनो आत्माने सर्वथा अकर्ता न मानो; ज्यां सुधी स्वपरनुं भेदविज्ञान न होय त्यां सुधी तो तेने रागादिकनो-पोतानां चेतनरूप भावकर्मोनो-कर्ता मानो, अने भेदविज्ञान थया पछी शुद्ध विज्ञानघन, समस्त कर्तापणाना भावथी रहित, एक ज्ञाता ज मानो. आम एक ज आत्मामां कर्तापणुं तथा अकर्तापणुं-ए बन्ने भावो विवक्षावश सिद्ध थाय छे. आवो स्याद्वाद मत जैनोनो छे; अने वस्तुस्वभाव पण एवो ज छे, कल्पना नथी. आवुं (स्याद्वाद अनुसार) मानवाथी पुरुषने संसार-मोक्ष आदिनी सिद्धि थाय छे; सर्वथा एकांत मानवाथी सर्व निश्चय- व्यवहारनो लोप थाय छे. २०प.

हवेनी गाथाओमां, ‘कर्ता अन्य छे अने भोक्ता अन्य छे’ एवुं माननारा क्षणिकवादी बौद्धमतीओने तेमनी सर्वथा एकांत मान्यतामां दूषण बतावशे अने स्याद्वाद अनुसार जे रीते वस्तुस्वरूप अर्थात् कर्ताभोक्तापणुं छे ते रीते कहेशे. ते गाथाओनी सूचनानुं काव्य प्रथम कहे छेः-

श्लोकार्थः– [इह] आ जगतमां [एकः] कोई एक तो (अर्थात् क्षणिकवादी _________________________________________________________________ * ज्ञानधाम = ज्ञानमंदिर; ज्ञानप्रकाश.


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बौद्धमती तो) [इदम् आत्मतत्त्वं क्षणिकम् कल्पयित्वा] आत्मतत्त्वने क्षणिक कल्पीने [निज–मनसि] पोताना मनमां [कर्तृ–भोक्त्रोः विभेदं विधत्ते] कर्ता अने भोक्तानो भेद करे छे (-अन्य कर्ता छे अने अन्य भोक्ता छे एवुं माने छे); [तस्य विमोहं] तेना मोहने (अज्ञानने) [अयम् चित्–चमत्कारः एव स्वयम्] आ चैतन्यचमत्कार ज पोते [नित्य–अमृत–ओधैः] नित्यतारूप अमृतना ओघ (-समूहो) वडे [अभिषिञ्चन्] अभिसिंचन करतो थको, [अपहरति] दूर करे छे.

भावार्थः– क्षणिकवादी कर्ता-भोक्तामां भेद माने छे, अर्थात् पहेली क्षणे जे आत्मा हतो ते बीजी क्षणे नथी-एम माने छे. आचार्यदेव कहे छे के-अमे तेने शुं समजावीए? आ चैतन्य ज तेनुं अज्ञान दूर करशे-के जे (चैतन्य) अनुभवगोचर नित्य छे. पहेली क्षणे जे आत्मा हतो ते ज बीजी क्षणे कहे छे के ‘हुं पहेलां हतो ते ज छुं’; आवुं स्मरणपूर्वक प्रत्यभिज्ञान आत्मानी नित्यता बतावे छे. अहीं बौद्धमती कहे छे के- ‘जे पहेली क्षणे हतो ते ज हुं बीजी क्षणे छुं’ एवुं मानवुं ते तो अनादि अविद्याथी भ्रम छे; ए भ्रम मटे त्यारे तत्त्व सिद्ध थाय, समस्त कलेश मटे. तेनो उत्तर आपवामां आवे छे के-“हे बौद्ध! तुं आ जे दलील करे छे ते आखी दलील करनार एक ज आत्मा छे के अनेक आत्माओ छे? वळी तारी आखी दलील एक ज आत्मा सांभळे छे एम मानीने तुं दलील करे छे के आखी दलील पूरी थतां सुधीमां अनेक आत्माओ पलटाई जाय छे एम मानीने दलील करे छे? जो अनेक आत्माओ पलटाई जता होय तो तारी आखी दलील तो कोई आत्मा सांभळतो नथी; तो पछी दलील करवानुं प्रयोजन शुं? * आम अनेक रीते विचारी जोतां तने जणाशे के आत्माने क्षणिक मानीने प्रत्यभिज्ञानने भ्रम कही देवो ते यथार्थ नथी. माटे एम समजवुं के-आत्माने एकांते नित्य के एकांते अनित्य मानवो ते बन्ने भ्रम छे, वस्तुस्वरूप नथी; अमे (जैनो) कथंचित् नित्यानित्यात्मक वस्तुस्वरूप कहीए छीए ते ज सत्यार्थ छे.” २०६.

फरी, क्षणिकवादने युक्ति वडे निषेधतुं, आगळनी गाथाओनी सूचनारूप काव्य कहे छेः- _________________________________________________________________ * जो एम कहेवामां आवे के ‘आत्मा तो नाश पामे छे पण ते संस्कार मूक्तो जाय छे’ तो ते पण

यथार्थ नथी; आत्मा नाश पामे तो आधार विना संस्कार केम रही शके? वळी कदापि एक आत्मा
संस्कार मूक्तो जाय, तोपण ते आत्माना संस्कार बीजा आत्मामां पेसी जाय एवो नियम
न्यायसंगत नथी.