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[अत्यन्तं वृत्तिमत्–नाश–कल्पनात्] ‘वृत्तिमान अर्थात् द्रव्य अत्यंत (सर्वथा) नाश पामे छे’ एवी कल्पना द्वारा [अन्यः करोति] ‘अन्य करे छे अने [अन्यः भुंक्ते] अन्य भोगवे छे’ [इति एकान्तः मा चकास्तु] एवो एकांत न प्रकाशो.
छे के ‘द्रव्य ज सर्वथा नाश पामे छे’ . आवी एकांत मान्यता मिथ्या छे. जो अवस्थावान पदार्थनो नाश थाय तो अवस्था कोना आश्रये थाय? ए रीते बन्नेना नाशनो प्रसंग आववाथी शून्यनो प्रसंग आवे छे. २०७.
आत्मा सर्वथा अकर्ता नथी, कथंचित् कर्ता पण छे-एवा अर्थनी गाथाओ हवे कहे छेः-
‘(अहीं पूर्वपक्ष आ प्रमाणे छेः) -कर्म ज आत्माने अज्ञानी करे छे, कारण के ज्ञानावरण नामना कर्मना उदय विना तेनी (-अज्ञाननी) अनुपपत्ति छे; कर्म ज (आत्माने) ज्ञानी करे छे, कारण के ज्ञानावरण नामना कर्मना क्षयोपशम विना तेनी अनुपपत्ति छे;.......’
जुओ, आ अज्ञानी पक्ष करे छे के-कर्म ज आत्माने अज्ञानी करे छे. अहाहा...! आत्मा तो परिपूर्ण ज्ञानस्वभावी वस्तु छे; पण पर्यायमां एने जे ओछुं ज्ञान देखाय छे ते कर्मना उदयने लईने ओछुं छे एम अज्ञानीनो पक्ष छे; कारण के ज्ञानावरण कर्मना उदय विना अज्ञाननी अनुपपत्ति छे-आ एनी दलील छे. वळी एने ज्ञाननो जे विकास थाय छे ते ज्ञानावरण कर्मना क्षयोपशमथी थाय छे; ज्ञानावरण कर्मना क्षयोपशम विना ज्ञाननो उघाड नथी-एम अज्ञानी पोतानी दलील रजू करे छे.
ल्यो, आम कर्म ज बधुं करे छे; कर्म हेरान करे छे, कर्म रखडावे छे एम ज्यां होय
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त्यांथी जैनमां (जैनाभासोमां) कर्मनुं लाकडुं बहु गरी गयुं छे. पण भाई! ए जिनमत नथी, भगवाननी वाणीमां आवेली आ वात नथी.
आ मेघ गर्जना करे छे ने? तेम समोसरणमां भगवाननी वाणीनी गर्जना थाय छे. होठ अने मों बंध होय छे, शरीरना सर्वांगेथी गर्जना- ॐध्वनि उठे छे, भगवाननी वाणीने शास्त्रमां मेघगर्जनानी उपमा आपी छे. ए वाणी सांभळीने भगवान गणधरदेव एनो अर्थ विचारे छे ने तदनुसार संतो-मुनिवरो आगमनी रचना करे छे. अहाहा...! एमांनुं आ एक परमागम शास्त्र छे. तेमां कहे छे- कर्म जीवने अज्ञानी करे छे एवी मान्यता जिनमत नथी, पण अज्ञानीनो पक्ष छे.
श्वेतांबरना शास्त्रो तो कल्पित बनावेलां छे. बे हजार वर्ष पर दिगंबरमांथी छूटा पडीने श्वेतांबर पंथ नवो नीकळ्यो छे. तेओए वस्त्रनोे कटको राखीने मुनिपणुं मनाव्युं ने अर्धफालक तरीके तेओ ओळखाया. तेमांथी पछी स्थानकवासी आदि बीजा संप्रदायो नीकळ्या छे. ते बधा कल्पित मतो छे ने तेमनां शास्त्रो पण कल्पित बनावेलां छे.
हा, पण तेमनुं खोटुं होय ते काढी नाखो, पण साचुं होय ते तो साचुं मानो?
शुं साचुं? जेमां भेळसेळथी वात होय तेमां शुं साचुं होय? कशुंय साचुं न होय; बधुं ज कल्पित खोटुं छे. एम तो एना लाखो श्लोको जोया छे; बधुं ज कल्पित छे.
अहीं कहे छे- कर्म ज आत्माने अज्ञानी करे छे एवो अज्ञानीनो पक्ष छे पण ए मिथ्या छे. वास्तवमां ज्ञाननी जे हीणी दशा थाय छे ते पोताना कारणे थाय छे अने त्यारे एमां ज्ञानावरण कर्मनो उदय निमित्तमात्र छे. कर्म निमित्त छे, बस एटलुं.
हवे दर्शनावरणनी वात करे छे.
‘कर्म ज सुवाडे छे, कारण के निद्रा नामना कर्मना उदय विना तेनी अनुपपत्ति छे; कर्म ज जगाडे छे, कारण के निद्रा नामना कर्मना क्षयोपशम विना तेनी अनुपपत्ति छे;’
जुओ, अज्ञानी कहे छे के निद्रा नामनुं दर्शनावरणीय कर्म छे, तेनो उदय आवे तो जीवने सुवुं पडे. निद्रा नामनुं कर्म ज जीवने सुवाडे छे. आम अज्ञानी माने छे. वास्तवमां तो जीव पोताना कारणे सुवानी अवस्थापणे परिणमे छे;
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कर्मनो उदय तो जड पुद्गलरूप छे; ए क्यां जीवने अडेय छे? ए तो ते काळे निमित्तमात्र छे.
वळी जेने वस्तुना यर्थाथ स्वरूपनुं भान नथी ते अज्ञानी कहे छे कर्म ज जगाडे छे, केमके निद्रा नामना कर्मना क्षयोपशम विना तेनी अनुपपत्ति छे. आम बधुं कर्म ज करे छे एम अज्ञानी भ्रमथी माने छे. कर्मनो क्षयोपशम निमित्त छे ने? तेथी कर्म जगाडे छे एवो तेने भ्रम थई गयो छे; वास्तवमां एम छे नहि.
हवे त्रीजा वेदनीय कर्मनी वात करे छे. ‘कर्म ज सुखी करे छे, कारण के शातावेदनीय नामना कर्मना उदय विना तेनी अनुपपत्ति छे; कर्म ज दुःखी करे छे, कारण के अशातावेदनीय नामना कर्मना उदय विना तेनी अनुपपत्ति छे,....’
जीवने शरीर, कुटुंब-परिवार, धन-संपत्ति इत्यादि अनुकुळ सामग्री मळे छे तेमां शातावेदनीय कर्मनो उदय निमित्त छे. हवे ते सामग्रीमां तेने जे सुखबुद्धि थाय छे ते कांई शातावेदनीयनुं कार्य नथी; पण अज्ञानी एवुं जूठुं माने छे के शातावेदनीयना उदय विना जीव सुखी न थाय. बाह्य अनुकूळ साधनो मळे छे ते शातावेदनीयना उदय अनुसार मळे छे ए वात तो साची छे, पण एमां सुखनी कल्पना तो पोते ऊभी करी छे, ए कांई शातावेदनीयना कारणे छे एम नथी.
अनुकुळ सामग्री सुखनुं कारण नथी, ने प्रतिकूळ सामग्री दुःखनुं कारण नथी; पण अज्ञानी तेमां पोताने सुखी-दुःखी थवानुं माने छे. रे अज्ञान!
शरीरमां रोग आवे, निर्धनपणुं आवे, वांझीयापणुं आवे इत्यादि बधुं अशाता कर्मना उदय अनुसार होय छे ए तो साचुं छे, पण एमां जे दुःखनी कल्पना थाय छे तेमां अशाताकर्मनुं कारणपणुं नथी. अशाता कर्म एने दुःखी करे छे ए वात तद्न खोटी छे. अज्ञानीए बधुं (सुखदुख) कर्मथी थाय छे एम ऊंधुं मान्युं छे. आम त्रण कर्मनी वात थई. हवे चोथी मोहनीय प्रकृतिनी वात करे छे.
‘कर्म ज मिथ्याद्रष्टि करे छे, कारण के मिथ्यात्वकर्मना उदय विना तेनी अनुपपत्ति छे;’
दर्शनमोहनीयनो उदय आवे त्यारे जीव मिथ्याद्रष्टि थाय कारण के मिथ्यात्वकर्मना उदय विना तेनी अनुपपत्ति छे, - आम अज्ञानीनी दलील छे. परंतु आ वात बराबर नथी. पोते ऊंधा पुरुषार्थथी वस्तुस्वरूपथी उलटी मान्यता करे छे ते पोतानो ज अपराध छे, कर्मनुं तेमां कांई ज काम नथी.
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जुओ, भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव दिगंबर महासंत हता. मंगलाचरणमां भगवान श्री महावीर अने गणधरदेव श्री गौतमस्वामी पछी मंगळपणे तरत ज तेमनुं नाम आवे छे. अहा! ए आचार्यनो आ पोकार छे के कर्मना उदयना कारणे जीवने विकार थाय छे एम अज्ञानीओ माने छे पण ते यथार्थ नथी, सत्यार्थ नथी.
वळी कोई कहे छे- चोथे गुणस्थाने निश्चयसमकित न होय. अरे! समकित कोने कहेवुं एनी एने खबर ज नथी. अहा! अंदर वस्तु नित्यानंद ज्ञानानंदप्रभु पोते छे तेनी सन्मुख थतां स्वानुभवनी दशामां ‘हुं आ छुं’ एवी प्रतीति थाय एनुं नाम समकित छे अने ते निश्चय समकित छे; ते वीतरागी दशा छे. समकितना सराग अने वीतराग एवा बे भेद तो चारित्रनी अपेक्षाए कह्या छे, बाकी समकित-निश्चय समकित तो स्वयं रागरहित वीतरागी निर्मळ दशा ज छे. ते पोताना अंतःपुरुषार्थथी प्रगट थाय छे.
जेने समकित पोताना अंतःपुरुषार्थथी थाय छे तेम मिथ्यात्व पोताना ऊंधा- विपरीत पुरुषार्थथी थाय छे, तेमां कर्म कांई कारण छे एम छे ज नहि.
पण निमित्त तो छे ने? निमित्त छे एटले शुं? एटले ज एम अर्थ छे के मोहनीय कर्म कांई (मिथ्यात्व) जीवमां करे छे एम छे नहि. निमित्त तो परवस्तु छे, ए जीवमां शुं करे? (अडेय नहि त्यां शुं करे?)
वळी अज्ञानी कहे छे- ‘कर्म ज असंयमी करे छे, कारण के चारित्रमोह नामना कर्मना उदय विना तेनी अनुपपत्ति छे;’
जुओ, ऋषभदेव भगवान जन्मथी ज त्रण ज्ञानना धणी क्षायिक समकिती हता. ८३ लाख पूर्व सुधी तेमने चारित्र न आव्युं, गृहस्थाश्रममां रह्या. त्यां अज्ञानी कहे छे के चारित्रमोहकर्मना उदयना कारणे तेमने चारित्र प्रगट न थयुं. पण भाई! ए अभिप्राय सत्यार्थ नथी. पोतानी (पुरुषार्थनी) नबळाईने लईने तेमने चारित्र न आव्युं ए सत्यार्थ छे. कर्मना उदयना निमित्ते तेमने चारित्रनो अभाव हतो एम कहेवुं ए तो उपचार छे, वास्तविक नथी. आवी वात छे. समजाणुं कांई....?
वळी कोई बहारनी (व्रतादि रागनी) क्रियाने चारित्र कहे छे, पण चारित्रनुं ए वास्तविक स्वरूप नथी. अहाहा....! अंदर वस्तु पोते शुद्ध चिदानंदघन चैतन्यमूर्ति प्रभु सदा विराजी रहेल छे. तेनी एकाग्रतापूर्वक तल्लीन थई प्रचुर आनंदमां रमतां रमतां तेमां ज ठरीने रहेवुं ते चारित्र छे अने ते धर्म छे. निजानंदस्वरूपमां चरवुं ते चारित्र छे, रागनी क्रिया कांई चारित्र नथी.
अहा! कर्मना नामे अत्यारे मोटो गोटो उठयो छे; एम के कर्म ज जीवने
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असंयमी, विकारी करे छे. अरे भाई! कर्म तो जड छे, एने लईने जीवने विकार केम थाय? कर्म निमित्त हो, पण जीवने विकार थाय छे ए तो पोताने पोताथी ज थाय छे. जीवने विकार थाय ए पर्यायगत पोतानो ज अपराध छे, कर्मनुं एमां कांई कार्य नथी.
वासुदेवना अवसान थतां बळदेव एना शबने छ मास सुधी खभे फेरवे छे ते कर्मना-चारित्रमोहना उदयने लईने ज छे ने?
ना, एम नथी. चारित्रमोहनो ते काळे उदय हो भले, पण बळदेवने जे असंयमनो भाव आवे छे ते एनी पुरुषार्थनी नबळाई छे अने ते तेनो पोतानो ज अपराध छे; पोताना अपराधना कारणे ज तेने एवो असंयमनो भाव आवे छे. अहा! सम्यग्दर्शन तो पछीनी वात, पहेलां साचो निर्णय तो कर बापु! पर्यायमां रागादि थाय ते पोतानो दोष छे, कर्मनो नहि-एवो साचो निर्णय कर्या विना राग मटाडी समकित करवानो उद्यम केम थशे? अहो! आचार्य भगवाने करुणानो धोध वहेवडाव्यो छे; भगवानना आडतिया थईने मार्गने जाहेर कर्यो छे. समकितीने असंयमनो भाव छे ते तेनी पोतानी कमजोरी छे; त्यां चारित्रमोहना उदयनुं जोर छे एम कहेवुं ए तो निमित्तथी कथन छे अने ते पोतानी कमजोरीनुं ज्ञान करवा माटे छे. बाकी कर्मना उदयने लईने जीवने असंयम छे एम माने ए तो अज्ञानभाव छे, मिथ्यात्वभाव छे. हवे कहे छे-
‘कर्म ज ऊर्ध्वलोकमां, अधोलोकमां अने तिर्यग्लोकमां भमावे छे, कारण के आनुपूर्वी नामना कर्मना उदय विना तेनी अनुपपत्ति छे;...’
आनुपूर्वी नामनुं एक कर्म छे. बळदने नाकमां नाथ नाखे छे ने? नाथ, नाथ. ए खेंचीने जेम बळदने लई जाय छे तेम आनुपूर्वी नामनी प्रकृति आने नरकादिमां लई जाय छे एम अज्ञानीनी दलील छे. जुओ, श्रेणिक राजा क्षायिक समकिती हता, तीर्थंकरगोत्र बांध्युं छे. पण नरकगति-नामकर्म बांध्युं हतुं तो आनुपूर्वी कर्म तेमने नरकमां लई गयुं. जुओ! आ अज्ञानीनी मान्यता! भाई! श्रेणीक राजा प्रथम नरकक्षेत्रमां गया छे ए एवी ज पोतानी पर्यायनी योग्यताथी गया छे. पोताना ऊंधा पुरुषार्थथी नरकगतिनुं आयु बंधायेलुं. तेना उदयकाळे तेमनी पर्यायनी एवी ज योग्यता हती जे वडे तेओ नरकमां गया छे; कर्मने लईने तेओ नरकमां गया छे अथवा कर्म एमने नरकमां खेंचीने लई गयुं छे एम छे ज नहि. भाई! कर्म तो जड छे, ए तारी चीजमां छे ज नहि पछी ए तने शुं करे? कांई न करे. बधुं कर्म करे, कर्म करे एम बधुं कर्मथी थवानुं तें मान्युं छे पण भाई! जेनो तारी चीजमां अभाव छे ए कर्म तने शुं नुकशान करे?
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वळी अज्ञानी कहे छे- ‘बीजुं पण जे कांईपण जेटलुं शुभ-अशुभ छे ते बधुंय कर्म ज करे छे, कारण के प्रशस्त-अप्रशस्त राग नामना कर्मना उदय विना तेनी अनुपपत्ति छे......’
जे कांई शुभ-अशुभ भाव थाय छे ते कर्म ज करे छे एम अज्ञानी जीव माने छे. पण एम छे नहि. वास्तवमां शुभ-अशुभ भाव जे एने थाय छे ते पोताना अवळा पुरुषार्थथी थाय छे. शुं कीधुं? जेम शुद्धभाव थाय ते पोताना सवळा (सम्यक्) पुरुषार्थथी थाय छे तेम शुभ-अशुभ भाव थाय ते पोताना अवळा (मिथ्या) पुरुषार्थथी थाय छे; कर्मना उदयना कारणे शुभ-अशुभ भाव थाय छे एम छे ज नहि.
अज्ञानी कहे छे-शुं करीए? कर्म मार्ग आपे तो धर्म करीए ने?
अरे भाई! कर्म तो बिचारां जड छे; कर्म बिचारे कौन? ए तने क्यां नडे छे? कर्मने आधीन तारी जे द्रष्टि छे ए ज मिथ्या छे. जेटलुं शुभ-अशुभ थाय ते जड कर्मना लईने थाय छे ए तारी द्रष्टि ज, आचार्य कहे छे, मिथ्या छे. कर्म-बीजी चीज निमित्त हो, पण तने शुभ-अशुभभाव जे थाय छे ते तो तारा पोताना कारणे थाय छे, कर्मना कारणे नहि.
झीणी वात छे भाई! जे शुभभावरूप परिणाम छे ते परिणामीना (-जीवना) छे. ते परिणाम कर्मनी मंदता छे माटे अहीं (-जीवमां) थाय छे एम नथी. प्रशस्तराग नामना कर्मनो उदय कर्ता अने शुभभाव थाय ते एनुं कार्य एम छे नहि. वळी शुभभाव थाय ते कर्ता अने ते काळमां परजीवोनी दया पळे ते एनुं कार्य एम पण छे नहि. पर्यायमां जे शुभभाव थाय तेनो कर्ता ते पर्याय अने कर्म पण ते पर्याय छे. शुभराग कार्य अने द्रव्य तेनुं कर्ता एम कहेवाय पण खरेखर तो पर्याय ज पर्यायनुं कर्ता अने कर्म छे.
अज्ञानी कहे छे-प्रशस्तराग नामना कर्मना उदय विना आने शुभभाव होय नहि. पण एनो ए अभिप्राय सत्यार्थ नथी. प्रशस्तराग कर्मनो उदय निमित्त हो, पण तेने लईने शुभभाव थाय छे एम नथी. भाई! यथार्थ तत्त्वनी द्रष्टि विना कोई व्रत करे, तप आचरे, उपवास करी करीने मरी जाय तोय शुं? मिथ्यादर्शनने लीधे ते संसारमां रखडतां रखडतां परंपरा नरक-निगोदादिमां ज जाय. बहु आकरी वात भगवान! पण शुं करीए? कुंदकुंदाचार्य कहे छे- “नग्गे मोक्खो भणियं” नागाने मोक्ष कह्यो छे. अहा! जेने अंतरमां तत्त्वद्रष्टि-वीतरागद्रष्टि प्रगटी छे अने बहारमां सहज नग्नदशा छे तेने मोक्षनो मार्ग ने मोक्ष कह्यो छे. वस्त्रसहित मुनिपणुं मानवुं
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ए तो मार्ग ज नथी, उन्मार्ग छे. आचार्य कहे छे-वस्त्रसहित जे मुनिपणुं माने-मनावे ते निगोदमां चाल्या जशे, लसण-डुंगळीमां जईने जन्मशे अने अनंतकाळ त्यां रहेशे.
श्रीमद् राजचंद्रजीए एक वार करुणार्द्र थई कहेलुं के-अरेरे! आ अमारो सत्यनो नाद कोण सांभळशे? भगवाननी वाणीनो आ पोकार के वस्त्रनो एक धागो पण राखीने मुनिपणुं माने-मनावे के माननाराने भलो जाणे ते त्रणेय निगोदगामी छे; एकेन्द्रियमां उपजी अनंतकाळ त्यां अनंत दुःखमां पडया रहेशे.
अहीं कहे छे-दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादिनो जे शुभभाव थाय छे ते जडकर्मनुं-प्रशस्तरागकर्मनुं कार्य छे एम छे नहि. जड कर्म कर्ता थईने जीवमां शुभभाव करे छे एम अज्ञानी माने छे ए एनी महान भूल छे, विपरीतता छे. शुभभाव जे थाय छे एनो कर्ता जीव पोते छे अने ए जीवनुं कर्म छे, जडकर्मनुं नहि.
द्रष्टिनी अपेक्षाए जीव शुभभावनो कर्ता नथी ए बीजी वात छे. परंतु शुभभावनुं परिणमन पोतानी पर्यायमां छे अने ए अपेक्षाए एनुं कर्तृत्व पोताने छे एम ज्ञान यथार्थ जाणे छे. बाकी खरेखर तो विकारीभावनुं परिणमन ते कर्ता, अने विकारीभाव थयो ते एनुं कर्म छे, द्रव्य-गुणने एमां कांई (कर्तापणुं) नथी. हवे आवी वात बीजे (श्वेतांबरादिमां) क्यां छे बापु?
भाई! आवो मनुष्यभव मांड कोई पुण्ययोगे मळ्यो छे तेमां जो द्रव्यद्रष्टि प्रगट न करी तो प्रभु! तारा उतारा क्यां थशे? अरेरे! तत्त्वद्रष्टि पाम्या विना चोरासीना भवसिंधुमां तुं क्यांय गोथां खातो डूबीने मरी जईश! आवो मार्ग सांभळवा मळवोय आ काळे दुर्लभ छे, माटे सावधान था अने अंतर्द्रष्टि कर.
अहीं कहे छे-राग नामनुं जड कर्म छे तेना मंद उदय विना जीवने शुभभाव न थाय एम अज्ञानी माने छे. तेने आचार्यदेव कहे छे के एम नथी. शुभरागनो कर्ता (अज्ञानपणे) जीव छे अने ते राग जीवनुं कर्म छे. ज्ञानभाव प्रगटतां ज्ञानी पर्यायमां जे राग थाय तेने पोतानुं कर्म मानता नथी, पर्यायमां रागनुं परिणमन छे बस एम ज्ञानमां जाणे छे. जैन तत्त्व आवुं बहुं सूक्ष्म ने गंभीर छे भाई!
सत्य बोलवानो शुभभाव थाय ते कर्मना उदयथी थाय छे एम नथी. तेम ज शुभभाव छे माटे सत्य बोलाय छे एमेय नथी. जडकर्म कर्ता ने शुभभाव एनुं कार्य एम नहि, तथा शुभभाव कर्ता ने भाषा बोलाय ते एनुं कार्य-एम पण नहि.
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अहाहा....! जुओ आ तत्त्वद्रष्टि! ब्रह्मचर्य पाळवानो शुभभाव छे ते धर्म नहि, वळी ए शुभभाव जडकर्मना मंद उदयने कारणे थयो छे एम नहि. तथा ब्रह्मचर्यनो शुभभाव छे माटे शरीरथी विषयनी क्रिया विराम पामी छे एम पण नहि. अहो! केवळीना केडायतीओ-दिगंबर संतोए अलौकिक वातो करी छे. भाई! आ कोई पक्षनी वात नथी; आ तो जैनदर्शन अर्थात् वस्तुदर्शननी जाहेरात छे.
एकवार ईसरीमां चर्चा थयेली. त्यारे त्यागीगण अने मोटा पंडितोनी रूबरू पोकार करीने कह्युं हतुं के-जीवनी पर्यायमां जे पुण्य-पापना भाव थाय छे ते पोताथी थाय छे; ते भावनो कर्ता पोते, कर्म पोते अने करण पण पोते छे. ते भाव कर्मथी बीलकुल थयो नथी. जीवनी पर्यायमां विकार थाय छे ते पोताना षट्कारकथी थाय छे, तेनो कर्ता जडकर्म तो नथी, पण द्रव्य-गुण पण एना कर्ता नथी.
त्यारे कोई कोई तो आ वात सांभळीने भडकी उठया अने कहेवा लाग्या- शुं कर्म विना जीवने विकार थाय? कर्म विना जो विकार थाय तो ते स्वभाव थई जाय.
त्यारे कह्युं-जीवने पर्यायमां विकार थाय छे ते पर्यायनो स्वभाव छे अने ते स्वतंत्र पोताना षट्कारकथी थाय छे, तेमां कर्मनी बीलकुल अपेक्षा नथी. कर्म विना न थाय अर्थात् कर्मथी थाय छे ए तो अज्ञानीनी मान्यता छे. वळी,
जे कांई अशुभ छे ते बधुंय कर्म करे छे, कारण के अप्रशस्त राग नामना कर्मना उदय विना तेनी अनुपपत्ति छे-आ अज्ञानीनी दलील छे, पण आ वात बराबर नथी, केमके हिंसा, जूठ, चोरी, कुशील इत्यादि जे अशुभभाव छे ते कार्य अने कर्मनो तीव्र उदय ते एनो कर्ता-एम छे नहि. कर्मथी विकार थाय छे एम मानवुं ए तो सांख्यमत छे, कोई जैनो (जैनाभासो) आवुं माने तो ते पण मिथ्याद्रष्टि ज छे.
अरे भगवान! तुं अनंत बळनो स्वामी महा-बळियो-बळवंत छो ने प्रभु! अहाहा...! अनंत अनंत पुरुषार्थनो पिंड प्रभु तुं छो ने! जे घडीए अंदर जागीने जुए ते घडीए खबर पडे के जे राग थाय छे ते पर्यायधर्म छे, पर्यायनुं कर्तव्य छे, ते मारुं (- द्रव्यनुं) कर्तव्य नहि अने जड कर्मनुं पण नहि.
हिंसानो अशुभभाव थाय ते कर्ता अने सामे परजीवनो घात थाय ते एनुं कार्य एम छे नहि. जाडी बुद्धिवाळाने आ झीणुं पडे पण मार्ग ज आवो छे त्यां बीजुं शुं थाय? भाई! आ समज्या विना ज तुं अनंतकाळथी चारगतिमां रखडी मर्यो छे. आ तो जैन परमेश्वरनो पोकार छे के कर्मना तीव्र उदयना कारणे तने
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हिंसादिनो अशुभभाव थाय छे एवी तारी मान्यता मिथ्या छे. भाई! परद्रव्य कारण अने शुभाशुभ भाव एनुं कार्य ए मान्यता मिथ्या छे.
बोटादमां एक श्रीमद्ना अनुयायी हता. ते राग ताणी-ताणीने भगवाननी स्तुति-भक्ति करे. ते पूछता-महाराज! देव-गुरुने शुं पर कहेवाय?
तेमने पूछयुं-हा, देव-गुरु-शास्त्र ए बधा पर छे, लाखवार पर छे. पहेलां तो एमने बेसे नहि, पण पछीथी नरम थईने कबुल्युं के महाराजनी वात साची छे. भाई! आ क्यां महाराजनी (कानजीस्वामीनी) कल्पित वात छे, आ तो वीतराग जैन परमेश्वरनो पोकार छे.
जीवने चोरी करवानो अशुभभाव थयो ते कर्मना उदयनुं कार्य नथी. कर्मनो उदय हो, ए ते काळे निमित्त छे, पण कर्मना उदयनुं ते (अशुभभाव) कार्य नथी; अने चोरीनी-पैसा वगेरे उपाडी जवानी-जे क्रिया थई ते अशुभभावनुं कार्य नथी. आवी वात छे.
भाई! आमां तो घणुं बधुं समावी दीधुं छे. सूक्ष्मपणे विचारीए तो आ दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि व्यवहाररत्नत्रयना भाव-शुभभाव ते कर्ता अने समकित आदि निर्मळरत्नत्रय प्रगट थाय ते एनुं कार्य एम नथी; केमके परभाव परभावनुं कर्ता नथी. शुभभाव जे परभाव छे ते कर्ता ने जीवनी निर्मळ धर्मरूप पर्याय प्रगटी ते एनुं कर्म एम छे नहि. व्यवहारथी निश्चय प्रगटे ए मान्यता ज मिथ्या छे.
अरे! पण एने आ विचारवानी फुरसद क्यां छे? आंधळे-बहेरुं कूटे राखे छे. बिचाराने पापना धंधा आडे नवराश न मळे; बावीस-बावीस कलाक तो रोज बायडी- छोकरां साचववा पाछळ, रळवा-कमावा पाछळ अने खान-पान आदि भोगनी पाछळ चाल्या जाय. मांड बे कलाक मळे तो कुगुरु एने लूंटी ले. अरे! एम ने एम एनी जिंदगी पूरी थई जाय ने क्यांय संसारमां अटवाई जाय, खोवाई जाय! अहीं तो एम कहेवुं छे के व्यवहार रत्नत्रयनो शुभराग कर्ता ने सम्यग्दर्शननी पर्याय एनुं कार्य एम छे नहि. अज्ञानी होय ते ज एम माने. बापु! मारग तो आवो छे. हवे कहे छे-
‘ए रीते बधुंय स्वतंत्रपणे कर्म ज करे छे, कर्म ज आपे छे, कर्म ज हरी ले छे, तेथी अमे एम निश्चय करीए छीए के- सर्वे जीवो सदाय एकांते अकर्ता ज छे.’
ल्यो, अज्ञानी कहे छे-बधुंय स्वतंत्र कर्म ज करे छे. अहीं ‘स्वतंत्र’ केम कह्युं? केमके कर्ता सिद्ध करवो छे ने? कर्म कर्ता छे एम नक्की करवुं छे एटले त्यां
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बधुंय कर्म स्वतंत्र करे छे एम लीधुं. आ स्त्री, कुंटुंब-परिवार, धन-धान्य, बाग-बंगला इत्यादि अनेक सामग्री कर्म ज आपे छे एम अज्ञानीनुं मानवुं छे. पण अरे भाई! संयोगमां जे आ सामग्री आवे छे ए तो पोताना कारणे पोताथी-पोताना उपादानथी आवे छे. सातावेदनीय आदि कर्मनो उदय तो त्यां निमित्तमात्र छे. निमित्त कांई सामग्री बलात् खेंची लावे छे एम तो नथी, ए सामग्री तो पोताना काळमां पोताथी आवे छे ने पोताथी जाय छे. छे तो आम; पण अज्ञानी कहे छे-कर्म ज आपे छे, कर्म ज हरी ले छे.
एम के कर्मनो (असातानो) उदय आवे तो आदमी एकदम रांक-गरीब थई जाय. जयपुरमां एकवार एक ८० वरसनो वृद्ध पुरुष भीख मागतां जोयेलो. जोयो त्यारे एम लागेलुं के आ कोई असल भिखारी नथी. पछी पूछयुं के आ कोण छे? तो खबर पडी के ए तो एक मोटा झवेरीनो पुत्र छे. बधुं खलास थई गयुं एटले भीख मागे छे. हवे ए भिखारी थई गयो ए कर्मने लईने थयो छे एम अज्ञानी माने छे. वास्तवमां तो जे स्थिति थई छे ते एनी पोतानी योग्यताथी थई छे, कर्मथी थई छे एम नथी; कर्म तो निमित्तमात्र छे.
तो एम आवे छे ने के-
कर्मे राजा, कर्मे रंक, कर्मे वाळ्यो आडो अंक.
भाई! ए तो बधां निमित्तनां कथन बापु! ते ते स्थितिना काळे कर्मनो उदय निमित्त छे तो निमित्तनी मुख्यताथी कहेवाय के ‘कर्मे राजा, कर्मे रंक;’ बाकी कर्म कांई आपे छे के हरी ले छे एम वास्तविक स्वरूप नथी.
तोपण अज्ञानी एम ज कहे छे के-कर्म ज आपे छे, कर्म ज हरी ले छे, तेथी अमे निश्चय करीए छीए के-सर्वे जीवो सदाय एकांते अकर्ता ज छे. जीव रागनो कर्ता छे ज नहि, रागनो कर्ता कर्म ज छे. निगोदथी मांडीने सर्व जीवो सदा एकांते अकर्ता ज छे, कर्म ज कर्ता छे. वळी ते आ मान्यताने आ प्रमाणे द्रढ करे छे के-
‘वळी श्रुति (भगवाननी वाणी, शास्त्र) पण ए ज अर्थने कहे छे; कारण के, (ते श्रुति) “पुरुषवेद नामनुं कर्म स्त्रीनी अभिलाषा करे छे अने स्त्रीवेद नामनुं कर्म पुरुषनी अभिलाषा करे छे.” ए वाक्यथी कर्मने ज कर्मनी अभिलाषाना कर्तापणाना समर्थन वडे जीवने अब्रह्मचर्यना कर्तापणानो निषेध करे छे, तथा “जे परने हणे छे अने जे परथी हणाय छे ते परघातकर्म छे”- ए वाक्यथी कर्मने ज कर्मना घातनुं कर्तापणुं होवाना समर्थन वडे जीवने घातना कर्तापणानो निषेध करे छे, अने ए रीते (अब्रह्मचर्यना तथा घातना कर्तापणाना निषेध द्वारा) जीवनुं सर्वथा ज अकर्तापणुं जणावे छे.’
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जुओ, आ अज्ञानीनी दलील! एम के शास्त्रमां एम कह्युं छे के पुरुषवेद नामनुं कर्म स्त्रीनी अभिलाषा करे छे ने स्त्रीवेद नामनुं कर्म पुरुषनी अभिलाषा करे छे. ‘कर्म अभिलाषा करे छे’ -शब्द तो छे एम, पण एनो अर्थ शुं? आ तो निमित्तप्रधान कथन छे बापु! वास्तविक तो अर्थ आ छे के पुरुषवेदनो उदय होय ते काळे स्त्री साथे रमवानो भाव ते पुरुषने थाय छे अने ते भाव ते पुरुष पोते करे छे. कर्मना उदयना कारणे ते भाव थाय छे एम छे ज नहि. तेवी रीते स्त्रीवेदनो उदय होय त्यारे स्त्री पोते ज पुरुष साथे रमवानो अभिलाष करे छे, कांई कर्मना कारणे तेने अभिलाष थाय छे एम नथी. शास्त्रमां कयी पद्धतिथी कथन छे ते अज्ञानी समजतो ज नथी. वास्तवमां एक द्रव्यनुं कार्य बीजुं द्रव्य करे एम कदी होय ज नहि. पण कर्म ज बधुं करे छे एम ते माने छे ने? छेथी शास्त्रनो आधार लई जीव अब्रह्मचर्यनो अकर्ता छे एम जीवने अब्रह्मचर्यना कर्तापणानो ते निषेध करे छे. वळी,
आठ कर्ममां एक नामकर्म छे. तेनी प्रकृतिना ९३ भेद छे. तेमां एक परघातनामकर्मनी प्रकृति छे, परनो घात थवामां निमित्त एवी परघातनामकर्मनी प्रकृति छे. अज्ञानी कहे छे-परनो घात करे एवी परघातनामकर्म प्रकृति छे, अर्थात् परघातनामकर्मने लईने परनो घात थाय छे; परंतु एम वस्तुस्वरूप नथी. परघातनो- हिंसानो भाव जीव पोते करे छे, अने परघातनामकर्म तेमां निमित्तमात्र छे. परनो घात थाय ए तो एनुं-परनुं कार्य छे, ते कार्यनो कर्ता जीव नथी, कर्म पण नथी.
परघातनो-हिंसानो जीवने जे भाव थयो तेमां परघातनामकर्म निमित्त छे, पण कर्मने लईने ते भाव थयो छे एम नथी तथा ते परघातना-हिंसाना भावने लईने परमां घात थयो छे एमेय नथी. आ वस्तु स्वरूप छे. पण “जे परने हणे छे अने जे परथी हणाय छे ते परघातकर्म छे”-एवा निमित्तप्रधान वचननो आश्रय लई अज्ञानी जीवने घातना-हिंसाना कर्तापणानो निषेध करे छे. आ रीते अब्रह्मचर्यना तथा घातना कर्तापणानो निषेध करी ते जीवने सर्वथा ज अकर्तापणुं जणावे छे.
तेने आचार्यदेव कहे छे के- ‘आ प्रमाणे आवा सांख्यमतने, पोतानी प्रज्ञाना (बुद्धिना) अपराधथी सूत्रना अर्थने नहि जाणनारा केटलाक श्रमणाभासो प्ररूपे छे; तेमनी एकांते प्रकृतिना कर्तापणानी मान्यताथी, समस्त जीवोने एकांते अकर्तापणुं आवी पडे छे तेथी “जीवकर्ता छे”-एवी जे श्रुति तेनो कोप टाळवो अशक्य थाय छे (अर्थात् भगवाननी वाणीनी विराधना थाय छे).’
अंदर मुनिना गुणो नहि होवा छतां पोताने मुनि कहेवडावे ते श्रमणाभास
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छे. मुनि नहि, पण बाह्यमां मुनि जेवो वेश-लेबास होय ते श्रमणाभास छे. आ नग्नदशावाळानी वात छे हों; वस्त्रसहित मुनिपणुं माने-मनावे ते तो कुलिंग छे. अहीं तो जे बाह्यमां जेनुं नग्न-दिगंबर लिंग छे अने जे आवी सांख्यमतनी प्ररूपणा करे छे ते श्रमणाभास छे एम वात छे. तेओ पोतानी प्रज्ञाना दोषथी शास्त्रना ऊंधा अर्थ करे छे.
कर्मने लईने शुभभाव थाय, कर्मने लईने अशुभभाव थाय, कर्मने लईने परघात थाय ने कर्मने लईने अब्रह्मचर्य थाय-आवी एकांत प्ररूपणा करनारा बधा अज्ञानीओ, सूत्रना अर्थने नहि जाणनारा एवा श्रमणाभास छे. भाई! कर्म ज विकारने करे एम माने ते सांख्यमत छे. जैनमत नथी, जैन नामधारी पण जो आवी प्ररूपणा करे तो तेओ जैनाभासी छे, सांख्यमती जेवा मिथ्याद्रष्टि ज छे. जड कर्म निमित्त हो, पण निमित्तने लईने अहीं जीवमां विकारनुं कार्य थाय छे एम छे ज नहि.
अहा! आचार्य कहे छे-एकांते प्रकृतिना कर्तापणानी मान्यताथी, समस्त जीवोने एकांते अकर्तापणुं आवी पडे छे तेथी “जीव कर्ता छे-” एवी जे श्रुति तेनो कोप टाळवो अशक्य थाय छे, अर्थात् ए वडे भगवाननी वाणीनी अवश्य विराधना थाय छे. जीवने कर्म ज रखडावे छे, कर्म ज हेरान करे छे, कर्म ज विकार करावे छे, जीव तो सर्वथा ज अकर्ता छे-आवुं माननारा जिनवाणीना विराधक छे.
अहाहा...! भगवाननी श्रुति तो “जीव कर्ता छे”-एम कहे छे. भगवाननी वाणी तो आम फरमावे छे के पुण्य अने पापना जे भाव जीवने थाय छे तेनो कर्ता कथंचित् जीव पोते छे, जड कर्म तेनो कर्ता नथी. अहा! तने ज्ञाननी जे हीणी-दशा थाय तेनो कर्ता तुं पोते छो, ज्ञानावरणीय कर्म नहि. कर्म तो निमित्तमात्र छे. आम होवा छतां ज्ञानावरणीय कर्म ज ज्ञानने हीणुं करे छे एम माने तेना पर जिनवाणीनो कोप छे, अर्थात् तेने भगवाननी वाणीनी विराधना थाय छे. आवी वातु!
‘वळी कर्म आत्माना अज्ञानादि सर्व भावोने-के जेओ पर्यायरूप छे तेमने करे छे, अने आत्मा तो आत्माने ज एकने द्रव्यरूपने करे छे माटे जीव कर्ता छे; ए रीते श्रुतिनो कोप थतो नथी- एवो जे अभिप्राय छे ते मिथ्या ज छे.’
जुओ, पोतानी वातने सिद्ध करवा अज्ञानी दलील करीने कहे छे के-मिथ्यात्व, रागद्वेष, अज्ञानादि जेटला पर्यायरूप विकारी भाव छे तेमने जड कर्म करे छे अने
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आत्मा तो आत्माने एकने द्रव्यरूपने करे छे. आ रीते आत्मा कर्ता छे एम आवी जाय छे. कर्तापणुं ने अकर्तापणुं बन्ने सिद्ध थई जाय छे माटे श्रुतिनो कोप थतो नथी अर्थात् जिनवाणीनी विराधना थती नथी.
तेने आचार्य कहे छे-भाई! तारो आ अभिप्राय मिथ्या ज छे; केमके द्रव्य- त्रिकाळी आत्मा तो नित्य ध्रुव एकरूप छे. एमां शुं करवानुं छे! आत्मा एने शुं करे? आ तो वीतरागनो मारग भाई! बधुं न्यायथी-लोजीकथी सिद्ध थवुं जोईए ने? भाई! आ समज्या विना व्रत, तप आदि क्रियाकांड तुं करे पण ए बधां एकडा विनानां मींडा छे हों; थोथेथोथां छे. ए बधुं तारुं रणमां पोक मूकवा जेवुं छे.
अज्ञानीनो उपरोक्त अभिप्राय केम मिथ्या छे ते हवे समजाववामां आवे छेः-
‘जीव तो द्रव्यरूपे नित्य छे. असंख्यात-प्रदेशी छे अने लोकपरिमाण छे. तेमां प्रथम नित्यनुं कार्यपणुं बनी शकतुं नथी. कारण के कृतकपणाने अने नित्यपणाने एकपणानो विरोध छे.’
आत्मा पर्याये अनित्य छे पण द्रव्यरूपे अनादि अनंत नित्य छे. हवे अनित्य पर्यायने जड कर्म करे छे ने आत्मा आत्माने द्रव्यरूपे करे छे एम अज्ञानीनी दलील छे. पण भाई! तारी आ वात मिथ्या छे; केमके जे त्रिकाळ नित्य छे एने करवानुं शुं होय? नित्यनो कोई कर्ता नथी. जेमां पलटना होय तेमां कार्य होय, पण जे नित्य ध्रुव छे तेमां शुं करवापणुं होय? नित्यनुं कार्यपणुं बनी शकतुं नथी, केमके कृतकपणाने अने एकपणाने विरोध छे. करवापणुं अने नित्यपणुं ए बन्नेने विरोध छे, अर्थात् करवापणुं होय त्यां नित्यपणुं न होय ने नित्यपणुं होय त्यां करवापणुं न होय. आत्मा द्रव्यरूपे नित्य छे तेथी ते कृतक कोईथी करेलो न होय. अहाहा..! अनादि-अनंत ध्रुव एकरूप वस्तु पोते द्रव्यपणे नित्य छे. त्यां आत्मा आत्माने, पोते पोताने करे ए क्यांथी आव्युं? एम छे नहि. एम तुं आत्माने कर्ता मान ए मिथ्या छे.
हवे क्षेत्रथी वात करे छेः
‘वळी अवस्थित असंख्यप्रदेशी एक एवा तेने (-आत्माने), पुद्गलस्कंधनी माफक, प्रदेशोनां प्रक्षेपण-आकर्षण द्वारा पण कार्यपणुं बनी शकतुं नथी, कारण के प्रदेशोनुं प्रक्षेपण तथा आकर्षण थाय तो तेना एकपणानो व्याघात थाय.’
जुओ, पुद्गलस्कंध छे ते अनेक परमाणुओनो बनेलो छे. आ शरीर छे ते अनेक परमाणुनो बनेलो स्कंध छे. तेमां समये समये केटलाक नवा परमाणु आवे
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अने केटलाक तेमांथी नीकळी जाय. परमाणुना स्कंधनो आवो ज स्वभाव छे. बाळकनुं नानुं शरीर होय ते जुवान थाय त्यारे मोटुं अने पुष्ट लट्ठ जेवुं बळवान थाय अने वळी वृद्ध अवस्था आवतां ते शिथिल थई जाय, चामडीमां करचलीओ पडी जाय. केम? केमके तेमां कोई नवा परमाणु आवे अने कोई विखराई जाय; स्कंधमां आवुं निरंतर थया ज करे; परंतु आत्मा असंख्यप्रदेशी अखंड एक द्रव्य छे, तेमां कोई नवा प्रदेशो आवे ने कोई प्रदेशो तेमांथी बहार नीकळी जाय एम बनी शकतुं नथी. माटे असंख्यप्रदेशी क्षेत्रमां पण कांई करवापणुं सिद्ध थतुं नथी. आ रीते द्रव्यमां ने क्षेत्रमां कर्तापणुं सिद्ध थतुं नथी; अने पर्यायनुं कर्तापणुं तो तुं जड कर्ममां नाखे छे; तो पछी “आत्मा कर्ता छे” एम क्यां सिद्ध थयुं? श्रुतिनो कोप क्यां मटयो? आ तो न्यायथी वात छे भाई!
जुओ, शुं कहे छे? के जीवने प्रदेशोमां प्रक्षेपण-आकर्षण द्वारा पण कार्यपणुं बनी शकतुं नथी, कारण के प्रदेशोनुं प्रक्षेपण तथा आकर्षण थाय तो तेना एकपणानो व्याघात थाय. एटले शुं? के शरीरमां जेम परमाणुओ कोई नवा आवे ने कोई नीकळी जाय तेम जीवद्रव्यमां कोई नवा प्रदेशो आवे ने कोई तेमांथी नीकळी जाय तो जीव असंख्यप्रदेशी एक द्रव्य ज न रहे. पण एम बनतुं ज नथी; केमके आत्मा निश्चित असंख्यप्रदेशवाळुं अखंड एक द्रव्य छे. आत्मा जेम द्रव्यरूपे त्रिकाळ एक छे तेम क्षेत्ररूपे पण त्रिकाळ अखंड एक छे. निश्चित असंख्यप्रदेश ए आत्मानो स्वदेश छे. आत्मा पोताना प्रदेशोने काढी नाखी शके नहि तेम नवा प्रदेशोने लई शके पण नहि. आ प्रमाणे त्रिकाळी द्रव्य अने तेनुं असंख्यप्रदेशी क्षेत्र-तेमां कांई पलटवापणुं-प्रक्षेपण-आकर्षण-आववुं जवुं-नहि बनतुं होवाथी तेने कर्तापणुं सिद्ध थतुं नथी. माटे जीवने जे विकार थाय तेनुं कर्ता कर्म ज छे अने आत्मा आत्माने एकने द्रव्यरूपे करे एवी तारी (-अज्ञानीनी) मान्यता मिथ्या- जूठी ज छे, समजाणुं कांई.....?
अहो! आ समयसार तो कोई दिव्य अलौकिक शास्त्र छे. पण अरे! एने वांचवा-विचारवानी एने फुरसद क्यां छे? स्वाध्यायनी (सम्यक्) परंपरा रही नहि अने ओघेओघे व्रत, तप, दया, दान, भक्ति, जात्रा इत्यादिना शुभरागमां बिचारो धर्म मानीने रोकाई गयो छे. पण बापु! सत्यनी समजण विना, अंतरमां सम्यक्श्रद्धान नाम समकित प्रगट कर्या विना तारा ए क्रियाकांड कांई काम नहि आवे. आ क्रिया कांई तुं नवी (पहेली ज वार) करे छे एम नथी. बापु! अनंतकाळमां अनंतवार तुं नग्न दिगंबर साधु थयो छे, ने अनंतवार महाव्रतादि पाळ्यां छे. पण एथी शुं? हुं त्रिकाळी नित्य असंख्यप्रदेशी अखंड एक चिद्घनस्वरूप
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आत्मा छुं, -एवा अंतर-अनुभव विना ए बधी क्रिया फोगट छे, संसारनी रखडपट्टी खाते छे.
हवे कहे छे- ‘वळी सकल लोकरूपी घरना विस्तारथी परिमित जेनो निश्चित निज विस्तार-संग्रह छे (अर्थात् लोक जेटलुं जेनुं निश्चित माप छे) तेने (-आत्माने) प्रदेशोना संकोच-विकास द्वारा पण कार्य बनी शकतुं नथी, कारण के प्रदेशोना संकोच- विस्तार थवा छतां पण, सूका-भीना चामडानी माफक, निश्चित निज विस्तारने लीधे तेने (-आत्माने) हीन-अधिक करी शकातो नथी. (आ रीते आत्माने द्रव्यरूप आत्मानुं कर्तापणुं घटी शकतुं नथी.)’
त्रणकाळ-त्रणलोक जेमना ज्ञानमां युगपद जणाया ते भगवान सर्वज्ञदेवे आ लोकनो विस्तार दीठो छे. तेना निश्चित असंख्य प्रदेश छे अने एटला ज एक जीवद्रव्यना निश्चित असंख्य प्रदेशो छे. लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशी जीववस्तु छे. आचार्य कहे छे- ए प्रदेशोना संकोच-विकास द्वारा पण जीवने कार्यपणुं बनी शकतुं नथी, केमके असंख्य प्रदेशोमां संकोच-विकास थाय पण प्रदेशोनी संख्या तो तेनी ते ज असंख्य रहे, तेमां कोई हीना-अधिकता के वध-घट थती नथी.
भाई! सर्वज्ञ परमात्मा शुं फरमावे छे ते एक वार भगवान! तुं सांभळ. कहे छे-आत्माना लोकप्रमाण असंख्य प्रदेशो छे तेमां संकोच-विकास थाय, पण प्रदेशोनी संख्यामां वधघट थती नथी. कोई मनुष्यदेहथी छूटीने कीडीमां जाय तो तेना असंख्य प्रदेशो संकोचाई जाय, पण प्रदेशोनी संख्या ओछी न थाय. वळी ते ज जीव हजारो जोजनना शरीरवाळो मच्छ थाय तो प्रदेशोनो विकास थाय, पण प्रदेशोनी संख्या वधे नहि. प्रदेशनी संख्या तो एनी ए ज असंख्य रहे छे.
अहा! जीव अनादिकालीन निगोदनी अवस्थामां रह्यो छे. आ बटाटा ने डुंगळी नथी आवतां? अहाहा...! तेनी एक राई जेटली कटकीमां असंख्य शरीर छे, ने एक एक शरीरमां अनंत निगोदिया जीव छे. ते प्रत्येक जीवना प्रदेशो लोकप्रमाण असंख्यात छे. सूक्ष्म वात छे प्रभु! ए प्रदेशो त्यां संकोचाई गया छे, पण कांई ओछा थई गया छे एम नथी. ते ज जीव एक हजार जोजनना शरीरवाळो मच्छ थाय त्यारे तेना प्रदेशो तो एटला ने एटला ज छे, मात्र त्यां प्रदेशोनो विकास (विस्तार) थाय छे. सूकुं-भीनुं चामडुं संकोच-विकास पामे छे, पण तेथी सूकुं थतां घटी गयुं ने भीनुं थतां वधी गयुं-एम नथी. तेम अहीं कोई मोटो अबजोपति शेठियो होय ने स्वरूपना भान विना मिथ्याश्रद्धानवश पाप उपजावीने गलुडियामां जन्मे त्यां तेना प्रदेशोमां संकोच थाय पण तेनी संख्यामां कांई घटे नहि. अरे! दुःखथी भरेली आ जन्मपरंपरामां एने नानी-मोटी देहनी अनेक अवगाहना प्राप्त
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थाय त्यां तेना प्रदेशोमां संकोच विस्तार थाय छे पण तेनी प्रदेश-संख्यामां कोई वधघट थती नथी. आ रीते आत्माने द्रव्यरूप आत्मानुं कर्तापणुं घटी शकतुं नथी.
‘वळी, “वस्तुस्वभावनुं सर्वथा मटवुं अशक्य होवाथी ज्ञायकभाव ज्ञानस्वभावे ज सदाय स्थित रहे छे अने एम स्थित रहेतो थको, ज्ञायकपणाने अने कर्तापणाने अत्यंत विरुद्धता होवाथी, मिथ्यात्वादि भावोनो कर्ता थतो नथी; अने मिथ्यात्वादि भावो तो थाय छे; तेथी तेमनो कर्ता कर्म ज छे एम प्ररूपण करवामां आवे छे” -आवी जे वासना (अभिप्राय, वलण) प्रगट करवामां आवे छे ते पण “आत्मा आत्माने करे छे” एवी (पूर्वोक्त) मान्यताने अतिशयपणे हणे ज छे (कारण के सदाय ज्ञायक मानवाथी आत्मा अकर्ता ज ठर्यो).
जुओ, आत्मा द्रव्ये नित्य छे; तेथी आत्मा आत्माने करे छे एम अज्ञानी कहे छे ए सिद्ध थतुं नथी.
वळी, आत्मा क्षेत्रपणे त्रिकाळ नियत छे; तेथी आत्मा आत्माने करे छे ए क्षेत्रपणे पण सिद्ध थतुं नथी.
हवे आत्मा त्रिकाळ ज्ञानस्वभावे ज स्थित छे, तेथी आत्मा आत्माने करे छे ए भावथी पण सिद्ध थतुं नथी एम कहे छे. त्यां,
अज्ञानीनी दलील छे के ज्ञायकभाव त्रिकाळ ज्ञानस्वभावे ज स्थित छे; अने ज्ञायकभावने अने कर्तापणाने अत्यंत विरुद्धता छे. माटे ज्ञायकभाव छे ते मिथ्यात्वादि विकारने करे एम बने नहि, तथा मिथ्यात्वादि विकार थाय तो छे, तेथी तेनो कर्ता कर्म ज छे. तेने आचार्य भगवान कहे छे-भाई! तारी आ जे वासना छे ते, “ आत्मा आत्माने करे छे” एवो जे तारो अभिप्राय छे तेने अत्यंतपणे हणे ज छे; केमके ज्ञायकभावने त्रिकाळ ज्ञानस्वभावे स्थित मानतां आत्मा अकर्ता ज ठर्यो, कोई रीते कर्ता न ठर्यो.
आ प्रमाणे आत्मा द्रव्यथी शुं, के क्षेत्रथी शुं के भावथी शुं-त्रणेमांथी कोई रीते कर्ता सिद्ध थतो नथी अने काळथी-पर्यायथी तुं कर्ता बतावतो नथी; पर्यायनो कर्ता तो तुं कर्मने ठरावे छे. माटे श्रुतिना कोपथी बचवा आत्मा (कथंचित्) कर्ता छे एम तुं दलील करे छे ते मिथ्या छे. वास्तवमां पर्यायद्रष्टि जीव तेने पर्यायमां जे विकार थाय छे तेनो ते पोते ज कर्ता छे अने निज ज्ञायकभावनी द्रष्टि थतां ज्ञानभाव प्रगट थवाथी ते रागनो कर्ता नथी पण ज्ञाता छे. आ वस्तुस्थिति छे. समजाय छे कांई....?
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आचार्य कहे छे- ‘माटे ज्ञायक भाव सामान्य अपेक्षाए ज्ञानस्वभावे अवस्थित होवा छतां, कर्मथी उत्पन्न थता मिथ्यात्वादि भावोना ज्ञानसमये, अनादिकाळथी ज्ञेय अने ज्ञानना भेदविज्ञानथी शून्य होवाने लीधे, परने आत्मा तरीके जाणतो एवो ते (ज्ञायकभाव) विशेष अपेक्षाए अज्ञानरूप ज्ञानपरिणामने करतो होवाथी, तेने कर्तापणुं संमत करवुं (अर्थात् ते कर्ता छे एम स्वीकारवुं);....’
अहाहा....! जाणग... जाणग..... जाणग एवो जे एक ज्ञायकभाव ध्रुवस्वभाव सामान्य... सामान्य एवा ज्ञानस्वभावे स्थित छे. एमां कांई पलटवुं नथी. अहाहा...! भगवान आत्मा त्रिकाळी द्रव्य प्रभु द्रव्ये नित्य छे, क्षेत्रे असंख्यप्रदेशी नित्य छे अने भावथी सामान्य एक ज्ञायकभावपणे नित्य छे. आवो एकरूप नित्य रहेनारो ज्ञायकभाव होवाथी तेमां कांई कर्तापणुं आवतुं नथी.
आम होवा छतां ‘कर्मथी उत्पन्न थता मिथ्यात्वादि भावोना ज्ञानसमये....’ ‘कर्मथी उत्पन्न थता मिथ्यात्वादि भावो...’ एक कीधुं त्यां ते भावोने कर्म उपजावे छे एम अर्थ नथी. ए भावो त्रिकाळी स्वभावना लक्षे थया नथी पण पर-कर्मना निमित्तना संबंधे थया छे बस एम कहेवुं छे. समजाय छे कांई....? ते भावो उपजे छे तेमां कर्मनुं निमित्त छे बस.
शुं कहे छे? के सामान्य एक ज्ञायकभाव नित्य ज्ञानस्वभावे अवस्थित छे. आम होवा छतां, ‘कर्मथी उत्पन्न थता मिथ्यात्वादि भावोना ज्ञानसमये, अनादि काळथी ज्ञेय अने ज्ञानना भेदज्ञानथी शून्य होवाने लीधे...’ अहाहा....! कहे छे-हवे ए ज्ञायकभावना वर्तमानमां (-एनी वर्तमान पर्यायमां) ज्यारे कर्मना संबंधथी विकार थाय त्यारे, ते काळे एटले तेना ज्ञानना काळे, आ विकारना परिणाम ते ज्ञेय अने हुं तो तेने जाणनार भिन्न ज्ञाता द्रव्य छुं. -एवा भेदविज्ञानथी ते शून्य छे. अनादिथी तेने एवुं भेदविज्ञान नथी. सूक्ष्म वात छे प्रभु! रागादि विकारना परिणाम थया तेना जाणवाना काळे तेनुं (भिन्नपणानुं) ज्ञान थवुं जोईए. रागादि विकारना परिणाम भिन्न अने तेने हुं जाणनारो भिन्न-एवुं भेदज्ञान थवुं जोईए. पण, कहे छे, आने एवा भेदज्ञाननो अनादि काळथी ज अभाव छे अने तेथी ते ज्ञेय एवा रागादि विकारने पोताना माने छे. ल्यो, आवी भूल!
आत्मा ज्ञायकस्वभावी वस्तु नित्य ध्रुव त्रिकाळ छे. तेमां बदलवुं नथी. पण तेनी पर्यायमां कर्मना निमित्तना संबंधे रागादि विकार थाय छे. ते विकार थवाना काळे ज्ञान एने जाणे छे. अहा! आ दया, दान आदि रागना परिणाम थया ते ज्ञेय ने हुं तो तेने स्पर्श कर्या विना ज तेने जाणवाना स्वभाववाळो ज्ञायक छुं- एम भिन्नपणुं जाणवाने बदले अनादिथी ए आवा भेदविज्ञानथी शून्य होवाने
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लीधे पोतास्वरूपे जाणे ते रागना परिणामने पोतास्वरूप जाणे छे. रागनी जे क्रिया थई ते पोतानी छे एम अज्ञानी जाणे छे. आ प्रमाणे रागने-परने आत्मा तरीके जाणतो एवो ते (-ज्ञायकभाव) विशेषअपेक्षाए ज्ञानना परिणामने अज्ञानरूप करतो, पर्यायमां मिथ्याज्ञानरूप करतो आचार्य कहे छे, ते रागनो कर्ता छे एम स्वीकारवुं. आवी वात!
कोईने थाय के हवे आ बधुं क्यां समजवा बेसवुं? एने बदले आप दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि करवानुं कहो तो सहेलुं सट थई जाय. पण बापु! जेने तुं करवानुं सहेलुं सट माने छे ए तो बधो राग छे अने ए तो पृथक् रहीने परज्ञेय तरीके जाणवायोग्य छे. पण एने बदले तुं एने करवायोग्य माने छे ते तारी कर्ताबुद्धिनुं अज्ञान ज छे. अज्ञानी ज तेने जाणवाकाळे पोताने करवायोग्य जाणे छे अने एम जाणतो ते तेनो कर्ता थाय छे. समजाय छे कांई...? बापु! समज्ये ज छूटको छे. बाकी चारगतिनी जेल ऊभी ज छे.
अहा! एने क्यां सुधी कर्तापणुं छे? तो कहे छे- ‘ते त्यां सुधी के ज्यां सुधी भेदविज्ञानना आदिथी ज्ञेय अने ज्ञानना भेदविज्ञानथी पूर्ण (अर्थात् भेदविज्ञान सहित) थवाने लीधे आत्माने ज आत्मा तरीके जाणतो एवो ते (ज्ञायक भाव) विशेष अपेक्षाए पण ज्ञानरूप ज ज्ञानपरिणामे परिणमतो थको (-ज्ञानरूप एवुं जे ज्ञाननुं परिणमन ते-रूपे ज परिणमतो थको), केवळ ज्ञातापणाने लीधे साक्षात् अकर्ता थाय.’
जुओ, पहेलां कह्युं के- आ दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि जे रागनो विकल्प उठे छे ते पोतानी चीजथी भिन्न परज्ञेय छे, ने हुं तो शुद्ध ज्ञानस्वरूपी चैतन्यमहाप्रभु छुं एवुं ज्यांसुधी भेदज्ञान न थाय त्यांसुधी अज्ञानपणे जीव रागनो कर्ता छे-एम मानवुं. रागने पोतानो जाणे, वा पोतानुं कर्तव्य जाणे त्यां सुधी भेदज्ञानना अभावने लीधे जीव रागनो कर्ता छे; रागने कर्म (-प्रकृति) करे छे एम नहि, पण अज्ञानी जीव पोते रागनो कर्ता छे. हवे आवो मारग ने आवी वस्तुस्थिति छे.
अरेरे! भाई! तें मारगने यथार्थ जाण्या विना चोरासीना अनंत अनंत अवतार कर्या छे; कागडाना, कुतराना, कंथवाना अने नरकादिना अनंत अनंत अवतार कर्या छे. आ पहेली नरक छे ने? एनी ओछामां ओछी स्थिति दशहजार वर्षनी छे. एवी दशहजार वर्षनी आयुस्थिति लईने भगवान! तुं त्यां अनंतवार जन्म्यो-मर्यो छे. त्यांना दुःखनुं शुं कहीए? कोई मोटा वैभवशील राजानो राजकुमार होय, महा कोमळ शरीर ने जुवान-जोध दशा होय अने ए राजकुमारने धगधगती-
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भडभडती जमशेदपुरनी भट्ठीमां जीवतो नाखे तो जे दुःख थाय एथी अनंतगणुं दुःख पहेली नरकमां छे. अहा! त्यां तुं भगवान! दशहजार वर्षनी स्थितिए अने तेमां एक एक समय वधतां वधतां उत्कृष्ट एक सागरोपमनी स्थितिए-प्रत्येक आयुस्थितिमां अनंत अनंत वार जन्म्यो छे. शुं कीधुं? दशहजार वर्ष, दशहजार वर्ष ने एक समय, दशहजार वर्ष ने बे समय, दशहजार वर्ष ने त्रण समय.... एम उत्कृष्ट एक सागरोपमनी स्थितिए पहोंचीने प्रत्येक आयुस्थितिमां अनंतवार भगवान! तें जन्म-मरण कर्यां छे. वळी पहेली नरकनी उत्कृष्ट एक सागरनी स्थिति मांडीने एक एक समयनी स्थिति वधतां सातमी नरकनी उत्कृष्ट तेत्रीस सागरनी स्थितिए पहोंची दरेकमां अनंतवार जन्म्यो-मर्यो छे. अहा! आवा अनंत अनंत भव अने अनंत अनंत दुःख! तुं भूली गयो छे प्रभु! पण मिथ्यात्वने वश तारी अनंतकाळना परिभ्रमणमां आवी घोर दुःखनी दशा थई छे.
आ करोडोनी साह्यबी, अनेक कारखानां, स्त्री-कुंटुंब-परिवार इत्यादि बहारनी चमक-दमकमां तुं राजी-राजी थई गयो छुं पण आ देह छूटवाना काळे ए बधुं छूटी जशे भाई! त्यारे सगी पत्नी पण तारी नहि होय ए तो कह्युं छे ने के-
काढो रे काढो रे एने सौ कहे, जाणे कोई सगो ज नहोतो.
अहाहाहा....! ज्यां देह पडयो त्यां काढो ज काढो- ल्यो, एम सौ मंडी पडे छे! अहाहाहा......!
आ रे कायामां हवे कांई नथी, एम टगरटगर रूवे.
बापु! आवा आवा पण अनंत भव थया; शुं कामना? पोर-गये वर्षे मुंबई गयेला; त्यां एक करोडपति शेठने घेर गया हता. एनी करोडोनी मिल्कत. बंगले गया तेमांय बधे मखमल पाथरेलुं ने पांच-पचास लाखनुं फर्नीचर. मारा मनने थयुं अरेरे! शेठने अहींथी (आना मोहपाशमांथी) नीकळवुं कठण पडशे! त्यारे शेठने कह्युं-शेठ! आ बधामां (आ वैभवमां) भगवान आत्मा तुं नहि हों; प्रभु! तुं क्यां छो ने तारी चीज शुं छे एनी खबर विना तारा भवनो अंत नहि आवे, तुं रझळी मरीश!
अहीं कहे छे-ए बहारनो वैभव तो दूर रहो, आ दया, दान, व्रत आदिना शुभभाव पण त्यां सुधी करवायोग्य भासे छे ज्यां सुधी एने भेदविज्ञाननो अभाव
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छे अने त्यां सुधी अज्ञानी जीव कर्ता छे. पण ज्यां सूक्ष्म विकल्पथी पण भिन्न हुं एक ज्ञायकस्वभावी चिदानंदघन प्रभु आत्मा छुं एम अंतर्द्रष्टि वडे ते भेदविज्ञान सहित थाय छे त्यारे आत्माने ज आत्मा तरीके जाणतो एवो ते (ज्ञायकभाव) विशेषअपेक्षाए पण ज्ञानरूप ज ज्ञानपरिणामे परिणमतो थको केवळ ज्ञातापणाने लीधे साक्षात् अकर्ता थाय छे.
विशेष अपेक्षाए एटले -त्रिकाळी द्रव्य-गुण-क्षेत्र तो अकर्ता छे, तेमां तो करवापणुं नथी, वर्तमान पर्यायमां पण ज्यां ते अंतर्मुख थई ज्ञानस्वभावे परिणमे छे, रागरूपे परिणमतो नथी त्यारे साक्षात् अकर्ता थाय छे -एम कहेवुं छे. रागथी खसीने ज्यां ज्ञानस्वभावमां वस्यो त्यां साक्षात् अकर्ता थाय छे. एक क्षुल्लकजी हता, बहु भद्रिक, अहींनुं सांभळवा वारे घडीए आवता; ते बहु प्रमोदथी कहेता- परथी खस, स्वमां वस; टूंकु ने टच, आटलुं करे तो बस. ल्यो, आनुं नाम साक्षात् अकर्तापणुं; एने सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्र कहो के धर्म कहो -ए बधुं आ छे. शुं? के परने पर अने स्वने स्वपणे जाणी, परथी खसी स्वमां वसवुं, ज्ञानस्वभावमां वसवुं ने तेमां ज ठरवुं ते साक्षात् अकर्तापणुं छे. धर्मी जीवने कमजोरीनो राग थतो होय छे, पण ते रागनो जराय कर्ता थतो नथी, अकर्ता-ज्ञाता ज रहे छे.
प्रवचनसारमां आवे छे के धर्मीने किंचित् रागनुं परिणमन छे, अने परिणमननी अपेक्षाए एटलुं एने कर्तापणुं छे. राग करवालायक छे एम ज्ञानीने नथी तेथी द्रष्टि अपेक्षाए तेने अकर्ता कह्यो; तथापि ज्ञाननी अपेक्षा धर्मी जाणे छे के जेटलुं रागनुं परिणमन छे तेटलो दोष छे अने तेटलुं कर्तापणुं परिणमनमां छे. राग ठीक छे, भलो छे एम धर्मी पुरुष मानता नथी, हेय ज माने छे; तोपण जेटलुं परिणमन छे तेटलुं कर्तापणुं छे एम यथार्थ जाणे छे. आवी वात छे.
कोईने थाय के घडीकमां कर्ता कहे ने घडीकमां अकर्ता कहे-आ ते केवी वात! भाई! ज्यां जे अपेक्षाथी वात होय तेने ते रीते यथार्थ समजवी जोईए. रागथी भिन्न पडीने चैतन्यस्वरूप निज शुद्ध आत्माने जाण्यो-अनुभव्यो अने त्यारे राग परज्ञेयपणे जणायो त्यारे ते साक्षात् अकर्ता थाय छे अने एनुं नाम धर्म छे.
ज्यां सुधी भेदज्ञाननो अभाव छे त्यां सुधी जीव रागनो पोते कर्ता छे एम जाणवुं अने भेदज्ञान थये साक्षात् अकर्ता थाय छे.
‘केटलाक जैन मुनिओ पण स्याद्वाद-वाणीने बराबर नहि समजीने सर्वथा एकांतनो अभिप्राय करे छे अने विवक्षा पलटीने एम कहे छे के -“आत्मा तो