Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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भावकर्मनो अकर्ता ज छे, कर्मप्रकृतिनो उदय ज भावकर्मने करे छे; अज्ञान, ज्ञान, सूवुं, जागवुं, सुख, दुःख, मिथ्यात्व, असंयम, चारगतिओमां भ्रमण-ए बधांने, तथा जे कांई शुभ-अशुभ भावो छे ते बधायने कर्म ज करे छे; जीव तो अकर्ता छे.” ......’

शुं कहे छे? आ आत्मा जे वस्तु छे तेमां जे शुभाशुभ विकार अने अल्पज्ञदशा थाय छे ते कोई कर्मनुं कार्य नथी. मिथ्यात्वादि भाव मोहनीय कर्मने लईने नथी; तथा अल्पज्ञदशा ज्ञानावरणीय कर्मने लईने नथी. तो केवी रीते छे? तो कहे छे-अज्ञानवश जीव पोते ज तेनो कर्ता छे. अहीं प्रथम जीवनो पर्यायस्वभाव स्वतंत्र सत् होवानुं सिद्ध करे छे. विकार, अल्पज्ञता आदि जीवने कर्मना कारणे थाय छे ए मान्यता तद्न विपरीत छे.

जुओ, कोई अन्यमतवाळा ईश्वरने कर्ता माने, ईश्वरने लईने बधुं थाय छे एम माने अने कोई जैन (-जैनाभासी) मुनिओ कर्मने लईने बधुं थाय छे, अल्पज्ञता आदि कर्म ज करे छे एम माने- त्यां ए बन्ने मिथ्याद्रष्टि छे. अहा! जैन मुनिओ पण स्याद्वादने समज्या विना एकांत अभिप्राय करे के- ‘आत्मा भावकर्मनो अकर्ता ज छे, कर्मप्रकृति ज भावकर्मने करे छे’ -ए मिथ्यादर्शन छे.

प्रत्येक जीव द्रव्ये शुद्ध छे, ज्ञानस्वरूप अकर्ता छे. आ लीमडो छे ने? ए लीमडाना पांदडामां असंख्य शरीर छे अने एकेक शरीरमां एकेक जीव छे. ते प्रत्येक जीव शुद्ध चैतन्यस्वभावमय अकर्ता छे. आम होवा छतां तेनी पर्यायमां जे अल्पज्ञता ने विकारनी दशा थाय छे ते पोताथी थाय छे, जड कर्मने लईने ते दशा थाय छे एम नथी. ते विकारनी दशा ते ते पर्यायनो स्वभाव छे. (तेने प्रकृतिस्वभाव कहीए ए तो निमित्तनुं कथन छे).

अहा! विकारनी दशा मने माराथी मारामां थई छे, छतां मारी शुद्ध चैतन्यस्वभावमय वस्तुमां विकार नथी एवी जे पुरुषने अंतर्द्रष्टि प्रगट थई छे तेने धर्मी पुरुष कहीए. भाई! जैनधर्म एटले शुं? के हुं तो अखंड एक ज्ञायकस्वभावी चैतन्यज्योतिमात्र वस्तु आत्मा छुं-आवी निर्विकार निर्मळ अंतःद्रष्टि थवी ते जैन धर्म छे. जैनधर्म ए कोई वाडो के संप्रदाय नथी; जैनधर्म तो वस्तुनुं स्वरूप छे.

भाई! आ न्यायथी समजे तो समजाय एवुं छे. आत्मा शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय इत्यादिथी त्रिकाळ भिन्न छे, केमके ए बधां अत्यंत जड छे; तेनो कर्ताहर्ता आत्मा नथी. परंतु एनी पर्यायमां जे पुण्य-पाप आदि भाव अने अल्पज्ञ दशा छे ते दशा पोतानुं ज कार्य छे, ते दशा कर्मनुं कार्य नथी. अहा! पर्यायनी आवी स्वतंत्रता स्वीकारे ते पर्यायबुद्धि छोडीने स्वभावद्रष्टि करे-करी शके.


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जे पर्यायने पराधीन-कर्मने लईने थवी माने छे ते स्वभावद्रष्टि-स्वाधीनतानी द्रष्टि केवी रीते करे? पराधीनद्रष्टिवाळाने स्वाधीनद्रष्टि थवी संभवित नथी. न्याय समजाय छे के नहि? जे विकारी के निर्विकारी परिणामने पोते स्वतंत्रपणे करे छे एम स्वीकारे ते ज परनुं लक्ष छोडी स्वना लक्षे स्वरूपमां जई शके छे. आ न्याय छे.

जैनधर्मनुं स्वरूप बहु झीणुं छे भाई! अहीं दिगंबर संतो-केवळीना केडायतीओ जगतने जाहेर करे छे के -कोई जैन मुनिओ (-जैनाभासीओ) कर्मनो उदय भावकर्मने करे छे एम माने छे, परंतु तेमनी ए मान्यता जैनमतथी तद्न विपरीत छे, केमके जीवने विकारनी दशा स्वतंत्र पोताथी थाय छे. अहा! आवुं एक समयनी पर्यायनुं सत् स्वतंत्र होवानुं जेने अंतरमां बेठुं ते अंदर त्रिकाळी सत् सहज द्रव्यस्वभाव-निर्मळ निरावरण पूरण स्वभाव-जे पोतानी स्वतंत्र चीज छे तेमां द्रष्टि दे छे अने त्यारे तेने धर्मनुं पहेलुं पगथियुं एवुं सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे.

आत्मा परने करे ए वात तो छे नहि; आत्मा परने जाणे एम कहेवुं एय व्यवहार छे. वळी आत्मा आत्माने जाणे एटलो भेद पाडवो ए पण व्यवहार छे. समयसार गाथा ३प६ थी ३६प नी टीकामां आवे छे के-आत्मा परद्रव्यने जाणे छे-ए व्यवहार कथन छे; आत्मा पोताने जाणे छे-एम कहेवामां पण स्वस्वामीअंशरूप व्यवहार छे; ‘ज्ञायक ज्ञायक ज छे’-ए निश्चय छे. अहाहा....! द्रष्टिनो विषय चैतन्यमूर्ति प्रभु ज्ञायक ज्ञायक ज छे. -आ परमार्थ छे. अहाहा....! पोते पोताने जाणे-एवो भेद पण जेमां नथी ए ज्ञायक प्रभु ज्ञायक ज छे अने ते सम्यग्दर्शननो विषय छे, अर्थात् एक ज्ञायकना आश्रये ज सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. आ धर्म पामवानी रीत छे. बाकी राग थाय तेनो कर्ता एकांत जड कर्म ज छे एवी जेनी पराधीनद्रष्टि छे ते भले बहारमां जैन मुनि होय तोपण ते मिथ्याद्रष्टि ज छे, केमके तेने अंदर रहेला त्रिकाळी स्वाधीन स्वरूपनी द्रष्टि थई नथी. समजाणुं कांई....?

अरे भाई! आ तो देवाधिदेव त्रिलोकीनाथ परमात्मानां कहेण छे. अंतरमां प्रमोद लावीने तेनो स्वीकार कर. लौकिकमां पण कोई मोटा घरनुं कहेण आव्युं होय तो, कन्या बहु मोटो लाखोनो करियावर लईने आवशे एम समजीने तेने स्वीकारी ले छे. तो आ तो त्रिलोकीनाथ सर्वज्ञ परमेश्वरनां कहेण! भगवान! तुं ज्ञानानंदस्वभावी एक ज्ञायकभावमय परमात्मद्रव्य छो-अहा! आवुं भगवाननुं कहेण तने आव्युं छे ते स्वीकारी ले; तेथी निर्मळ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रयनी तेने प्राप्ति थशे. तुं मालामाल थई जईश प्रभु!

अहो! भगवाननो मारग कोई अद्भुत अलौकिक छे. तेने समजवामांय घणो


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पुरुषार्थ जोईए. कोई विरल पुरुषो ज तेने प्राप्त करे छे. आवे छे ने (योगसारमां) के-

विरला जाणे तत्त्वने, वळी सांभळे कोई;
विरला ध्यावे तत्त्वने, विरला धारे कोई.

अहा! शुद्ध अंतःतत्त्वनी आवी वात सांभळनाराय आजे तो अति दुर्लभ छे. अहो! सर्वज्ञ परमात्मा फरमावे छे के-तुं पण अंदर मारा जेवो परमात्मा छो. एक समयनी पर्यायमां भूल छे; ते स्वाधीन द्रष्टि थतां नीकळी जवा योग्य छे.

अहा! आठ वर्षनो बाळक पण समजण करीने केवळ ले एवी तेनी शक्ति छे. आठ वर्षनो राजकुमार होय ते गुरु पासे जई अति विनयवंत थईने सांभळे ने तेने अंतरमां बेसी जाय के-अहो! हुं तो पूर्णानंदनो नाथ एकली शांतिनो पिंड छुं, मने बीजा कोईनी अपेक्षा-जरूर नथी. अहा! आवुं भान थया पछी एने अंदर एवुं वैराग्यनुं दबाण ऊभुं थाय के ते स्वरूपमां विशेष रमवा माटे दीक्षित थवा ईच्छे अने त्यारे ते मातानी पासे जईने कहे के-

हे माता! आ शरीरने उत्पन्न करनारी तुं जनेता छो; तुं मारा आत्मानी जनेता नथी. में मारा आत्माने जाण्यो-अनुभव्यो छे, ने हवे हुं पूर्ण साधना करवा जंगलमां जाउं छुं. हे माता! हवे हुं बीजी माता करवानो नथी, माटे माता! मने रजा आप. अहाहा....! मणिमय रतनथी जडेला जेना राजमहेल छे एवा राजानो पुत्र-राजकुमार मातानी आज्ञा लईने परिपूर्ण आनंदने साधवा जंगलमां चाल्यो जाय छे! अहो! धन्य ए वैराग्यनो प्रसंग! धन्य ए मुनिदशा! !

अहा! जेम द्रव्यद्रष्टिवंत पुरुष तीव्र वैराग्यने प्राप्त थतां साधनानी पूर्णता करवा माटे गृहवास छोडी जंगलमां चाल्यो जाय छे तेम, वर्तमान पर्यायमां जे विकार ने अल्पज्ञता छे ते पोतानी दशा छे, कर्मने लईने नथी-एम पर्यायनी स्वतंत्रता अंतरमां बेसतां, ते द्रव्यनी स्वतंत्रता नक्की करवा माटे पर्यायनुं लक्ष छोडी सीधो त्रिकाळी द्रव्यमां चाल्यो जाय छे. अहो! आवो अलौकिक मारग छे!

अमे तो ७३ नी सालमां वात बहार मूकी हती के कर्मने लईने विकार थाय छे के कर्मने लईने एने अल्पज्ञता थाय छे वा कर्म खसी जाय तो एने ज्ञान थाय एम बधुं कर्म ज करे छे ए मान्यता जैनदर्शन नथी; ए तो अज्ञानीओनी विपरीत मान्यता छे. त्यारे खळभळाट मची गयेलो, पण वस्तुस्वरूप बीजी रीते केम थाय?

‘वळी ते मुनिओ शास्त्रनो पण एवो अर्थ करे छे के- “ वेदना उदयथी


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स्त्री-पुरुषनो विकार थाय छे अने उपघात तथा परघात प्रकृतिना उदयथी परस्पर घात प्रवर्ते छे.” आ प्रमाणे, जेम सांख्यमती बधुंय प्रकृतिनुं ज कार्य माने छे अने पुरुषने अकर्ता माने छे तेम, पोतानी बुद्धिना दोषथी आ मुनिओनुं पण एवुं ज एकांतिक मानवुं थयुं.’

जोयुं? शास्त्र भणीने पण तेओ आवो विपरीत आशय काढे छे के-पुरुषने स्त्री साथे रमवानो भाव थाय वा स्त्रीने पुरुष साथे रमवानो भाव थाय ते वेदकर्मनुं कार्य छे. एम के आत्मा तो अकर्ता छे, निर्दोष छे अने वेदकर्म ज स्त्री-पुरुषनो विकार करे छे, पण आ तो सांख्यमतनो अभिप्राय छे अने ते मिथ्या ज छेे. परस्पर घात थाय छे ते उपघात तथा परघात प्रकृतिनुं कार्य छे एवो अभिप्राय पण मिथ्या ज छे. पोतानी बुद्धिना दोषथी अर्थात् भ्रमपूर्ण बुद्धिना कारणे तेओ (-मुनिओ) एकांतिक माने छे.

‘माटे, जिनवाणी तो स्याद्वादरूप होवाथी, सर्वथा एकांत माननारा ते मुनिओ पर जिनवाणीनो कोप अवश्य थाय छे, जिनवाणीना कोपना भयथी जो तेओ विवक्षा पलटीने एम कहे के- “भावकर्मनो कर्ता कर्म छे अने पोताना आत्मानो (अर्थात् पोतानो) कर्ता आत्मा छे; ए रीते अमे आत्माने कथंचित् कर्ता कहीए छीए, तेथी वाणीनो कोप थतो नथी;” तो आ तेमनुं कहेवुं पण मिथ्या ज छे.

जुओ, जिनवाणी तो स्याद्वादरूप छे. एटले शुं? ते विकारभावनो अज्ञानदशामां जीव कर्ता छे, अने स्वभावना लक्षे ज्ञानभाव प्रगट थतां ते विकारनो कर्ता नथी, अकर्ता छे. आम जिनवाणी स्याद्वादरूप छे. तेथी सर्वथा आत्मा अकर्ता छे (कर्म ज कर्ता छे) एम एकांत माननारा ते मुनिओ पर जिनवाणीनो कोप अवश्य थाय छे. तेओ अवश्य जिनवाणीना विराधक थाय छे.

हवे जिनवाणीना कोपना भयथी तेओ विवक्षा पलटीने कहे छे के -“भावकर्मनो कर्ता कर्म छे, अने पोताना आत्मानो कर्ता आत्मा छे; ए रीते अमे आत्माने कथंचित् कर्ता कहीए छीए, तेथी वाणीनो कोप थतो नथी;” -आ तेमनुं कथन पण मिथ्या ज छे. केम? तो कहे छे-

‘आत्मा द्रव्ये नित्य छे, असंख्यात प्रदेशवाळो छे, लोकपरिमाण छे, तेथी तेमां तो कांई नवीन करवानुं छे नहि; अने जे भावकर्मरूप पर्यायो छे तेमनो कर्ता तो ते मुनिओ कर्मने ज कहे छे; माटे आत्मा तो अकर्ता ज रह्यो! तो पछी वाणीनो कोप कई रीते मटयो?’

शुं कीधुं? आत्मा द्रव्ये नित्य छे अने क्षेत्रे नियत लोकप्रमाण असंख्यात


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प्रदेशी छे. तेमां कांई पलटवुं तो छे नहि. तो पछी आत्मा आत्मानो कर्ता क्यां रह्यो? तेमां कांई नवीन करवापणुं नहि होवाथी आत्मा अकर्ता ज ठयोेर्. तेथी जिनवाणीनो कोप केवी रीते मटयो? तारी विवक्षा ज असत्य छे त्यां जिनवाणीनो कोप केवी रीते मटे? न मटे. जेम खोटो रूपियो होय ने शाहुकारने हाथ आवे तो ते पाछो न आपे, पण घरना उंबरामां जडी दे, जेथी तेनुं चलण बंध पडी जाय. तेम तुं खोटी विवक्षा कहे पण ते भगवानना मारगमां केम चाले? संत धर्मी पुरुषो होय ते तेनो निषेध ज करे.

‘माटे आत्माना कर्तापणा अने अकर्तापणानी विवक्षा यथार्थ मानवी ते ज स्याद्वादनुं साचुं मानवुं छे. आत्माना कर्तापणा-अकर्तापणा विषे सत्यार्थ स्याद्वाद-प्ररूपण आ प्रमाणे छे-

आत्मा सामान्य अपेक्षाए तो ज्ञानस्वभावे ज स्थित छे; परंतु मिथ्यात्वादि भावोने जाणती वखते. अनादिकाळथी ज्ञेय अने ज्ञानना भेदविज्ञानना अभावने लीधे, ज्ञेयरूप मिथ्यात्वादि भावोने आत्मा तरीके जाणे छे, तेथी ए रीते विशेष अपेक्षाए अज्ञानरूप ज्ञानपरिणामने करतो होवाथी कर्ता छे; अने ज्यारे भेदविज्ञान थवाथी आत्माने ज आत्मा तरीके जाणे छे त्यारे विशेष अपेक्षाए पण ज्ञानरूप ज्ञानपरिणामे ज परिणमतो थको केवळ ज्ञाता रहेवाथी साक्षात् अकर्ता छे.’

आत्मा सामान्य अपेक्षाए तो ज्ञानस्वभावे ज स्थित छे. अहाहा...! आत्मा जे सामान्य... सामान्य एकरूप, भगवान सर्वज्ञदेवे जोयो ते अनंतगुणनो एक अभेद पिंड प्रभु सदा ज्ञानस्वभावे ज स्थित छे. झीणी वात छे प्रभु! चैतन्य.... चैतन्य... चैतन्यना सद्रश प्रवाहरूप वस्तु आत्मा सदा एक ज्ञानस्वभावे ज स्थित छे. परंतु मिथ्यात्वादि भावोने जाणवाना काळे... , जाणवुं ए तो एनो स्वभाव छे ने? तो जे रागादि भावो थाय तेने ते जाणे छे. अहा! ते रागादि भावोने जाणवाना काळे... , छे तो मात्र जाणवानो ज काळ, पण अनादिकाळथी तेने ज्ञेय अने ज्ञानना भेदज्ञाननो अभाव होवाने लीधे, ज्ञेयरूप एवा जे रागादि भावो छे तेने आत्मा तरीके जाणे छे. भारे गजब!

शुं कीधुं? आ दया, दान, व्रत आदिना जे भाव थाय ते परज्ञेय छे ने जाणगस्वभावी भगवान आत्मा एथी भिन्न छे -आवुं भेदज्ञान अनादिकाळथी नहि होवाथी व्रतादि रागना भावने जाणवाना काळे ते भाव हुं आत्मा छुं एम ते जाणे छे. तेथी ए रीते विशेष अपेक्षाए अर्थात् पर्याय अपेक्षाए अज्ञानरूप ज्ञान-परिणामने करतो होवाथी ते रागनो कर्ता थाय छे. सामान्य अपेक्षाए तो ते ज्ञान-स्वभावे स्थित एवो अकर्तास्वभावी छे, पण वर्तमान पर्याय अपेक्षाए, रागने


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पोतानो मानीने ज्ञानपरिणामने अज्ञानरूप करतो थको ते रागनो कर्ता थाय छे. आ प्रमाणे ते कथंचित् कर्ता छे. समजाणुं कांई....?

अने ज्यारे भेदज्ञान थवाथी अर्थात् रागथी भिन्न हुं एक ज्ञायकस्वभावी सच्चिदानंद प्रभु आत्मा छुं एम भान थवाथी आत्माने ज आत्मा तरीके जाणे छे- अनुभवे छे त्यारे विशेष अपेक्षाए अर्थात् पर्याय अपेक्षाए ज्ञानरूप ज्ञानपरिणामे ज परिणमतो थको, केवळ ज्ञाता रहेवाथी, साक्षात् अकर्ता छे.

जोयुं? धर्मीने दया, दान, व्रत आदिनो राग होय छे, पण ते काळेय रागथी भिन्न हुं ज्ञानानंदस्वभावी आत्मा छुं एवुं अंतरमां एने भेदज्ञान वर्ते छे; अने तेथी ते राग मारो छे एम राग साथे एकमेक थतो नथी. पण तेने पृथक् ज जाणे छे; केवळ ज्ञाता ज रहे छे. आ प्रमाणे ज्ञानी ज्ञानरूप ज्ञानपरिणामे ज परिणमतो थको, केवळ ज्ञाता रहेवाथी साक्षात् अकर्ता छे. ल्यो, आनुं नाम समकित अने आ धर्म. बापु! आ तो वीरनो मार्ग प्रभु!

वीरनो मारग छे शूरानो, नहि कायरनुं काम जो ने.

ए शुभराग मारो-एम शुभरागनो कर्ता थाय ए तो कायर नपुंसक छे; तेने वीरनो मार्ग मळतो नथी. जुओ, छ खंडना स्वामी भरत चक्रवर्ती क्षायिक समकिती हता. तेना वैभवनुं शुं कहेवुं? जेने घेर ९६ हजार राणी, ने सोळ हजार देवता जेनी सेवा करे, इन्द्र तो जेना मित्र अने हीराजडित सिंहासन पर जे बेसे ते भरत चक्रवर्तीनो बहारमां अपार वैभव हतो. पण आ बहारनो वैभव हुं नहि अने जे आ शुभाशुभ राग थाय ते मारी चीज नहि; हुं तो ए सर्वथी भिन्न चिन्मात्र-ज्ञायकमात्र परमात्मद्रव्य छुं एम ते अंदर अनुभवता हता. जुओ आ मारग! ते वडे ते ए ज भवे मुक्ति पाम्या.

आ प्रमाणे भेदविज्ञान थतां ज्ञानी वर्तमान पर्यायमां ज्ञानरूप ज्ञानपरिणामने ज करतो थको केवळ ज्ञाता रहेवाथी, साक्षात् अकर्ता छे. आवी वात छे. आ स्याद्वाद छे.

*

हवे आ अर्थना कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश २०पः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अमी आर्हताः अपि’ आ अर्हंतना मतना अनुयायीओ अर्थात् जैनो पण ‘पुरुषं’ आत्माने, ‘सांख्याः इव’ सांख्यमतीओनी जेम, ‘अकर्तारम् मा स्पृशन्तु’ (सर्वथा) अकर्ता न मानो;..........


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अहाहा....! शुं कहे छे? के सांख्यमतीओ तो आत्मा सर्वथा अकर्ता छे, जीवने पर्यायमां जे राग ने पुण्य-पाप आदि भावो थाय छे तेनो कर्ता आत्मा नथी, कर्म ज तेनो कर्ता छे-एम माने छे. अहीं कहे छे-भगवान अर्हंतदेवने अनुसरनार जैनो पण सांख्योनी जेम आत्माने सर्वथा अकर्ता न मानो. केम? केमके एवुं वस्तुस्वरूप नथी.

आ शरीर, मन, वाणी, ईन्द्रिय इत्यादि बधा जड पदार्थो पर पदार्थ छे. तेनो कर्ता आत्मा नथी; केमके दरेक पदार्थ पोतपोतानुं समय समयनुं कार्य स्वयं कर्या ज करे छे. कोई पण पदार्थ कार्य विनानो खाली-नकामो नथी. तेथी बीजो बीजानुं काम करे ए संभवित ज नथी. कोई ज नवरुं नथी त्यां बीजानुं केम करे? तेथी आत्मा शरीरादिनुं कार्य करे, वा शरीरादि आत्मानुं कार्य करे एम बनवायोग्य ज नथी. , एम छे ज नहि.

हवे एनी पर्यायमां जे शुभाशुभ रागना-दया, दान, व्रत, भक्ति आदि तथा हिंसा, जूठ, चोरी आदिना परिणाम थाय छे तेनो कर्ता कोण? शुं कर्म तेनो कर्ता छे के जीव पोते तेनो कर्ता छे? तो कहे छे-

‘भेदावबोधात् अधः’ भेदज्ञान थया पहेलां ‘तं किल’ तेने ‘सदा’ निरन्तर ‘कर्तारम् कलयन्तु’ कर्ता मानो,.....

जुओ, कहे छे के- ज्ञानानंदस्वभावी शुद्ध चैतन्यमात्र आत्मा भिन्न ने रागादि विकारना भाव भिन्न-एम बेनुं भेदविज्ञान थयुं नथी त्यां सुधी पर्यायमां जे राग-द्वेष- मोहना भावो निरंतर थाय छे तेनो आत्मा कर्ता छे एम मानो. अहा! भेदज्ञानरहित अज्ञानदशामां आत्मा कर्ता छे एम मानो.

आ शेठिया बधा झवेरात वगेरेनो वेपार करीने खूब पैसा कमाय ने? अहीं कहे छे-ए धूळेय कमाय नहि सांभळने. ए पैसा-धूळ आवे ने जाय तेनो आत्मा (अज्ञानी पण) कदीय कर्ता नथी; पण तत्संबंधी जे लोभना ने मायाना परिणाम थाय तेनो ते अवश्य कर्ता छे एम मानो -एम कहे छे. समजाय छे कांई...? अहाहा....! ज्यां सुधी विकारथी भिन्न निर्मळ निर्विकार शुद्ध चिदानंदघनस्वरूप हुं आत्मा छुं एवुं भान थयुं नथी त्यां सुधी, कहे छे, आत्मा कर्ता छे एम मानो. ल्यो, आवी वात! हवे कहे छे-

‘तु’ अने ‘उर्ध्वम्’ भेदज्ञान थया पछी ‘उद्धत–बोध–धाम–नियतं स्वयं प्रत्यक्षम् एनम्’ उद्धत ज्ञानधाममां निश्चित एवा आ स्वयं प्रत्यक्ष आत्माने ‘च्युत– कर्तृभावम् अचलं एकम् परम् ज्ञातारम्’ कर्तापणा विनानो, अचळ, एक परम ज्ञाता ज ‘पश्यन्तु’ देखो.


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अहाहा...! आत्मा ज्ञानधाम-विज्ञानघनमंदिर प्रभु अंदर नित्य विराजी रह्यो छे. अहाहा...! अनादि अनंत ध्रुव नित्यानंद-सच्चिदानंद प्रभु अंदर शाश्वत विराजी रह्यो छे. ज्यां पर्यायमां थता विभावनुं लक्ष छोडी अंदर ध्रुवधाम निज चैतन्यधाममां द्रष्टि जोडी दे के तत्काल ते कर्तापणाथी रहित थई ज्ञातापणे प्रगट थाय छे. झीणी वात छे प्रभु!

आ दरियामां वहाण चाले छे ने? ते ध्रुव तारानुं लक्ष राखीने रात्रे चाले छे. तेम अहीं परमात्मा कहे छे-चैतन्यधातुने धरनार ध्रुव ध्येयरूप ध्रुवधाम अंदर नित्य बिराजे छे तेना ध्याननी धूणी धगशथी धखाव, जेथी सम्यग्दर्शन आदि धर्म तने प्रगट थशे. एक समयनी पर्याय छे तेमां द्रष्टि न जोड, पण ध्रुव ध्येयनी धून लगावी तेनुं ध्यान कर. आ धर्म पामवानी रीत छे.

कोईने थाय के व्रत, तप, भक्ति, दया, दान इत्यादि तो तमे करवानुं कहेता ज नथी!

अरे भाई! व्रत, तप, भक्ति, दया, दान इत्यादि करवानो ज्यांसुधी अभिप्राय छे त्यांसुधी भेदज्ञान थतुं नथी अने तेथी अज्ञानपणे ते रागनो कर्ता ज थाय छे. विना भेदज्ञान ए व्रत अने तपने भगवाने बाळव्रत ने बाळतप कह्यां छे. परंतु त्यांथी (करवाना अभिप्रायथी) खसीने द्रष्टि ज्यां उद्धत ज्ञानधाममां जई चोंटे छे त्यां वस्तु- आत्मा-प्रत्यक्ष थतां ते साक्षात् अकर्ता नाम ज्ञाता ज थाय छे. अहो! ध्रुवधाममां ध्येयनी धखती धूणी धखावी धीरजथी ध्यानरूप धर्मनो धारक धर्मी जीव धन्य छे.

अरे प्रभु! तारा स्वभावमां अंदर पूरण प्रभुता भरेली छे. ल्यो, हवे सरखी बीडी पीवा न मळे तो टांटिया (पग) घसे एने आ बेसे केम? बेसे के न बेेसे, आ सत्यार्थ छे. जेम दरियो जळथी भरेलो छे तेम भगवान आत्मा प्रभुताना स्वभावनो पूरण दरियो छे. अंदर प्रभुता न होय तो आवे क्यांथी? आ लींडीपीपर होय छे ने! पीपर-पीपर; ते कदमां नानी, रंगे काळी ने शक्तिपणे ६४ पहोरी तीखाशना रसथी भरेली होय छे. तेने घूंटवाथी ते प्रगट थाय छे. मांही छे ते प्रगट थाय छे हों, ए तो प्राप्तनी प्राप्ति छे. कोलसाने घूंटे तो प्रगट न थाय. तेम तेम भगवान आत्मा पूरण ज्ञान ने आनंदनी प्रभुताथी भरेलो छे, तेमां एकाग्रताने घूंटवाथी (एकाग्रतारूप ध्याननो महावरो करवाथी) केवळज्ञान ने पूरण आनंद पर्यायमां प्रगट थाय छे. आवो मारग छे.

आत्मा ज्ञानमां स्वयं प्रत्यक्ष थाय एवो एनो स्वभाव छे. शुं कीधुं? ज्ञाननी दशामां, स्वयं एटले निमित्तनी के रागनी अपेक्षा विना, सीधो आत्मा जणाय एवो


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एनो स्वभाव छे. स्वयं प्रकाशमान विशद (-स्पष्ट) एवा स्वसंवेदनमयी एवी प्रकाश नामनी शक्ति आत्मामां छे जेथी स्वसंवेदनमां आत्मा जणावायोग्य छे. अहीं कहे छे- प्रभु! तुं मोटा महेल ने मंदिर जोवा जाय छे तो एकवार परम आश्चर्यकारी निधान एवा तारा ज्ञानधामने जोवा अंदर द्रष्टि तो कर. अहाहा...! ए परम ज्ञानानंदनी लक्ष्मीथी भरेलो भंडार छे. एने द्रष्टिमां लेतां तने परम आनंद प्रगट थशे अने कर्तापणुं मटी जशे. भाई! रागथी भिन्न पडीने चैतन्य-ध्रुवधामनी द्रष्टि करवी- बस आ एक ज करवायोग्य कर्तव्य छे; बाकी तो बधुं धूळधाणी छे.

आत्मा उद्धत बोधधाम छे. एटले शुं? आ चैतन्यवस्तु एवी उद्धत छे के कोईने गणे नहि-निमित्तने गणे नहि, रागनेय गणे नहि ने पर्यायनेय गणे नहि-बधाने गौण करी दे. अहा! आवो उद्धत बोधधाम प्रभु आत्मा छे. तेने वर्तमान ज्ञाननी पर्याय अंतर्मुख करी प्रत्यक्ष जाणी लेवो ए करवायोग्य काम छे.

जुओ, एक दरबारनां राणी साहेबा बहु रूपाळां ने ओझलमां रहेतां. एक वार राणी साहेबा ओझलमांथी बहार नीकळ्‌यां. तो तेमने जोवा माटे लोकोनां टोळेटोळां उमटी पडयां. एम अहीं कहे छे-आ भगवान आत्मा-उद्धत बोधधाम सुंदर आनंदरूप प्रभु- रागनी एकताना ओझलमां पडयो छे. अहा! ते ओझलने दूर करी तारी द्रष्टिने अंदर ध्रुवधाममां लई जा प्रभु! तारी ज्ञाननी दशाने वाळीने अंतर्मुख कर; तने ज्ञान ने आनंदनो अनुपम स्वाद आवशे. अहा! स्वसंवेदनज्ञानमां आत्मा प्रत्यक्ष थतां एनी जे निर्मळ प्रतीति थाय एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. हजु आ धर्मनुं पहेलुं पगथियुं हों, श्रावकदशानी तो ते पछीनी वात छे.

भाई! धर्म कोई अलौकिक चीज छे. सम्यग्दर्शन थया पछी श्रावकधर्म प्रगटे ने मुनिधर्म प्रगटे ए तो महा अलौकिक वस्तु छे. पण लोकोए एने क्रियाकांडमां केद कर्यो छे. जेम करीआतानी कोथळी पर साकरनुं नाम कोई लखे तेम सामायिक ने पोसा ने व्रत आदि रागनी क्रियामां लोको धर्म मानवा लाग्या छे, ने पोताने जैन श्रावक ने जैन साधु माने छे. पण बापु! ज्यां रागनुं करवापणुं ऊभुं छे. त्यां श्रावकधर्म ने मुनिधर्म तो शुं, समकित होवुं पण संभवित नथी. राग मारुं कर्तव्य छे एम जेणे मान्युं छे ते तो अज्ञानी कर्ता थयो छे, ए क्यां जैन थयो छे? कर्तापणुं मटया विना जैनपणुं प्रगटतुं ज नथी. आवी वातु छे.

भाई! तें अनंतकाळमां पर-निमित्तने ने रागने ज मोटप आपी छे. अंदर महान महिमावंत प्रभुतानो स्वामी एवो तुं छो एने तें कदीय मोटप आपी नथी. भगवान! तुं एकवार अंदर जो, ने ज्ञानानंदनी लक्ष्मीनो भंडार तुं छो ते


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तने अनुभवाशे; ने त्यारे कर्तापणुं तत्काल नाश पामी जशे; केमके कर्तापणुं भगवान आत्मानो स्वभाव नथी.

तो शुं समकितीने राग थतो ज नथी?

ना, एम नथी. सम्यग्दर्शन थया पछी पण समकितीने राग थई आवे छे, पण तेनो ते पोताना ज्ञानमां रहीने जाणनार ज रहे छे. सम्यग्दर्शन थया पछी उद्धत ज्ञानधाम प्रभु आत्मा कर्तापणा विनानो, अचळ, एक परम ज्ञाता ज छे. अहा! जगतना कोई पदार्थनी अवस्थानी व्यवस्थानो कर्ता आत्मा नथी- ए तो छे, पण निज ज्ञाताद्रष्टा स्वरूपनी अंर्तद्रष्टि थया पछी तेने पर्यायमां किंचित् राग थाय तेनोय ए कर्ता नथी, केवळ ज्ञाता ज छे. अहा! आम रागथी खसवुं ने चिदानंद स्वरूपमां वसवुं एनुं नाम संवर ने एनुं नाम निर्जरा छे, तप पण ए ज छे ने उपवास पण ए ज छे.

आ लोको हठ करीने उपवास करे छे ते उपवास नहि. ए तो अपवास नाम माठो वास छे. आ तो ‘उपवसति ईति उपवास;’ आत्मानी-चिदानंदस्वरूप भगवाननी समीप वसवुं ते उपवास छे अने ते तप ने निर्जरा छे. आवी वातु! अज्ञानीनी आम वाते वाते फेर छे. आवे छे ने के-

आनंदा कहे परमानंदा, माणसे माणसे फेर;
एक लाखे तो ना मळे, एक तांबियाना तेर.

बहु फेर बापा! संतो कहे छे-तारे ने मारे श्रद्धामां बहु फेर छे.

हे भाई! भेदज्ञान थया पहेलां आत्माने अज्ञानपणे रागनो कर्ता देखो, परंतु भेदज्ञान थया पछी उद्धत ज्ञानधाममां निश्चित एवा आ स्वयं प्रत्यक्ष आत्माने कर्तापणा विनानो, अचळ, एक परम ज्ञाता ज देखो. ल्यो, आवो स्याद्धाद संतोए प्रसिद्ध कर्यो छे.

* कळश २०पः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘सांख्यमतीओ पुरुषने सर्वथा एकांतथी अकर्ता, शुद्ध उदासीन चैतन्यमात्र माने छे. आवुं मानवाथी पुरुषने संसारना अभावनो प्रसंग आवे छे; अने जो प्रकृतिने संसार मानवामां आवे तो ते पण घटतुं नथी, कारण के प्रकृति तो जड छे, तेने सुखदुःख आदिनुं संवेदन नथी, तेने संसार केवो? आवा अनेक दोषो एकांत मान्यतामां आवे छे.


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सर्वथा एकांत वस्तुनुं स्वरूप ज नथी. माटे सांख्यमतीओ मिथ्याद्रष्टि छे; अने जो जैनो पण एवुं माने तो तेओ पण मिथ्याद्रष्टि छे’

जुओ, अन्यमतोमां एक सांख्यमत छे. ते पुरुष एटले आत्माने सर्वथा अकर्ता, शुद्ध उदासीन चैतन्यमात्र माने छे. एटले शुं? के आ जे पुण्य-पाप आदि विकारना भाव थाय ते पुरुष करतो नथी, ते प्रकृतिनो दोष छे. अहीं कहे छे-हवे जो आवुं मानवामां आवे तो पुरुष नाम आत्माने संसारनो अभाव ठरशे; अने प्रकृतिने संसार होवानुं घटतुं नथी, केमके प्रकृति तो जड छे, एने क्यां सुखदुःख, हरख-शोक आदिनुं संवेदन छे? माटे प्रकृतिने संसार नथी.

आ प्रमाणे पुरुषने एकांते सर्वथा अकर्ता मानवाथी दोष आवे छे. माटे सांख्यमतीनी मान्यता मिथ्या छे माटे ते मिथ्याद्रष्टि छे. जेवी वस्तु नथी तेवुं तेओ माने छे ने? माटे तेओ मिथ्याद्रष्टि छे.

हवे कहे छे- जैनो पण, सांख्योनी जेम, आत्माने सर्वथा एकांते अकर्ता माने तो तेओ पण मिथ्याद्रष्टि छे. जीवने विकार थाय छे ते कर्मना उदयथी थाय छे एवुं माननारा जैनो पण मिथ्याद्रष्टि छे.

प्रश्नः– तो आगममां मोहनीय कर्मना उदयना निमित्तथी जीवने मिथ्यात्वादि छे एम आवे छे ने?

समाधानः– हा, आवे छे. पण बापु! त्यां आगममां तो निमित्तनी मुख्यताथी एवुं कथन करवामां आवेलुं होय छे; बाकी जे विकार थाय छे ते पोताथी ज थाय छे, कर्मने लईने नहि. मोहनीय कर्म निमित्त हो, पण ते जीवमां विकार करे-करावे छे एम छे ज नहि.

अमे तो एकवार ईसरीमां चर्चा थयेली त्यारे मोटेथी पोकारीने घोषणा करी हती के जीवने विकार थाय छे ते पोताथी थाय छे, कर्मने लईने बीलकुल नहि. विकारना काळे कर्मनो उदय निमित्त नथी एम वात नथी, पण कर्मनो उदय जीवने विकार करे छे एम पण कदीय नथी. विकार ते ते समयथी पर्यायनुं सत् छे, सहज छे. आवी वातु! अमे तो आ ‘७१नी सालथी कहीए छीए, संप्रदायमां हता त्यारे पण कहेता- आ हिंसादि पापना परिणाम जीवने थाय छे ते पोते पोताना स्वरूपने भूलीने करे छे, एने कर्म करे छे ए बीलकुल यथार्थ नथी.

पण अरे! एने आ समजवानी क्यां पडी छे? आखो दि’ रळवुं-कमावुं बायडी- छोकरां साचववां ने खावुं-पीवुं-एम पाप, पाप ने पापनी प्रवृत्तिमां जाय अने कदाचित् भगवाननां दर्शन पूजा करे ने शास्त्र सांभळे तो मानी ले के थई


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गयो धर्म. पण धू्रळमांय धर्म थतो नथी सांभळने. ए तो बधो राग छे ने तेनो तुं कर्ता थाय ते मिथ्यात्व छे, मूढपणुं छे. बापु! तने खबर नथी पण आवा मिथ्यात्वना सेवनना फळमां तो तुं क्यांय कागडा, कूतरा, कंथवाना ने नरकादिना भव करी करीने रझळी मर्यो छो.

भाई! आत्मा शरीर, मन, वाणीनी क्रियाने के बैरां-छोकरां साचववानी क्रियाने के देशनुं भलुं करवुं, समाजनुं भलुं करवुं इत्यादि अनेक परद्रव्यनी क्रियाने करे ए संभवित नथी, केमके ए परद्रव्यो क्यां एना द्रव्य-गुण-पर्यायमां छे के एने करे? परनुं करुं एम माने ए तो मूढपणुं छे. ए तो छे; पण अहीं कहे छे-ए मूढपणाना ने विकारना शुभाशुभभाव आने जे थाय ते पर-कर्म करे छे एम माने ए भले जैन हो तोपण, मिथ्याद्रष्टि ज छे. अरे! जैनमां होवा छतां वीतराग जैन परमेश्वर शुं कहे छे एनी एने खबर नथी. अरे! लोकोए मारग वींखी नाख्यो छे.

‘तेथी आचार्यदेव उपदेश करे छे के- सांख्यमतीओनी माफक जैनो आत्माने सर्वथा अकर्ता न मानो; ज्यांसुधी स्व-परनुं भेदविज्ञान न होय त्यांसुधी तो तेने रागादिकनो-पोतानां चेतनरूप भावकर्मोनो-कर्ता मानो, अने भेदविज्ञान थया पछी शुद्ध विज्ञानघन, समस्त कर्तापणाना भावथी रहित, एक ज्ञाता ज मानो.’

अहाहा......! आचार्य कहे छे-आत्मा सर्वथा अकर्ता छे ने रागादिविभावनो कर्ता कर्म-प्रकृति छे एम, सांख्योनी जेम, जैनो न मानो. तो केवी रीते छे? तो कहे छे- ‘ज्यां सुधी स्वपरनुं भेदविज्ञान न होय...’ , एटले शुं? के जड माटी-धूळ एवुं आ शरीर अने आत्मानी अवस्थामां थता पुण्य-पापरूप आस्रव-बंधना परिणाम-ए समस्त परथी पोतानुं स्व-चैतन्यबिंब एवुं ज्ञायकतत्त्व भिन्न छे एवुं अंतर-अवलंबने भावभासन न थाय त्यांसुधी तेने (आत्माने) रागादिनो एटले के पोताना चेतनरूप भावकर्मोनो कर्ता मानो.

आ भगवाननी स्तुति, भक्ति, पूजा इत्यादि करे छे ने? णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं-एम भगवाननुं नामस्मरण करे छे ने? ए बधो राग छे, शुभ राग छे. ए राग छे ते पर छे अने पोते शुद्ध चैतन्यज्योतिस्वरूप -अहाहा...! एकला चैतन्य... चैतन्य... चैतन्यना प्रकाशनुं पूर प्रभु आत्मा ते स्व छे. आ स्व अने परनुं भिन्नपणुं ज्यांसुधी अंतरमां भास्युं नथी त्यांसुधी ते अज्ञानी छे; अने अज्ञानी होतो थको ते पुण्य-पाप आदि भावोनो कर्ता छे. अहा! जेने स्वरूपनी रुचि नथी पण रागनी ने परनी रुचि छे ते रागादि विकार थाय तेनो कर्ता छे. कोई बीजुं-कर्म कर्ता छे एम छे ज नहि.


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जुओ, हरणियानी नाभिमां कस्तूरी छे. पण एने खबर नथी. आ सुगंध क्यांथी आवे छे एनुं एने भान नहि होवाथी ते बहारमां दोडादोड करी मूके छे. तेम मूढ जीवोने सुख पोताना स्वभावमां भर्युं छे एनुं भान नथी. तेथी सुखप्राप्ति माटे बहारमां झावां नाखे छे, अनेक विकल्पोनी धमाधम करी मूके छे. अहीं कहे छे-ते हरणिया जेवा मूढ अज्ञानी जीवो ते विकल्पोना कर्ता छे, बहारना पदार्थ-कर्म आदि तेना कर्ता नथी. समजाय छे कांई...?

क्यां सुधी आत्मा कर्ता छे? स्वपरनुं भेदविज्ञान न थाय त्यां सुधी. अने भेदविज्ञान थया पछी शुद्ध विज्ञानघन, समस्त कर्तापणाना भावथी रहित, एक ज्ञाता ज मानो. जुओ, भगवानना श्रीमुखेथी नीकळेली आ वाणी छे. विकारथी भिन्न स्वस्वरूप शुद्ध चैतन्यस्वभावमय आत्मानुं भान थतां ते रागनो अकर्ता छे, ज्ञाता ज छे- एम कहे छे. जुओ आ स्वभावनी रुचिनुं जोर! सम्यग्द्रष्टिने किंचित् अस्थिरतानो राग थतो होय छे, पण तेनुं तेने स्वामित्व नहि होवाथी, तेनो ए कर्ता नथी, ज्ञाता ज छे. आवो भगवाननो मार्ग भाई! न्यायथी कसोटी करीने समजवो जोईए.

‘आम एक ज आत्मानुं कर्तापणुं तथा अकर्तापणुं-ए बन्ने भावो विवक्षावश सिद्ध थाय छे. अज्ञानपणे विकारनो कर्ता अने भेदविज्ञान थतां अकर्ता सिद्ध थाय छे.

‘आवो स्याद्वादमत जैनोनो छे; अने वस्तुस्वभाव पण एवो ज छे, कल्पना नथी.’ जुओ, आ कल्पनानी वात नथी, पण जेवो वस्तुस्वभाव छे एवो जैन परमेश्वरनी वाणीमां स्याद्वादयुक्त शैलीथी कहेवामां आव्यो छे.

‘आवुं (स्याद्वाद अनुसार) मानवाथी पुरुषने संसार-मोक्ष आदिनी सिद्धि थाय छे; एकांत मानवाथी सर्व निश्चय-व्यवहारनो लोप थाय छे.’

अज्ञानभावे विकारनो कर्ता मानतां एने संसार सिद्ध थाय छे, ने ज्ञानभाव प्रगटतां अकर्ता थवाथी केवळ ज्ञातापणुं अने मोक्षदशा सिद्ध थाय छे. अज्ञानपणे पण जो अकर्ता माने, कर्मने ज कर्ता माने तो संसार-मोक्ष कांईपण सिद्ध न थाय, ने निश्चय- व्यवहार पण सिद्ध न थाय, आवी वात!

*

हवेनी गाथाओमां, “कर्ता अन्य छे अने भोक्ता अन्य छे” एवुं माननारा क्षणिकवादी बौद्धमतीओने तेमनी सर्वथा एकांत मान्यतामां दूषण बतावशे अने स्याद्वाद अनुसार जे रीते वस्तुस्वरूप अर्थात् कर्ता-भोक्तापणुं छे ते रीते कहेशे. ते गाथाओनी सूचनानुं काव्य प्रथम कहे छेः-


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* कळश २०६ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘इह’ आ जगतमां ‘एकः’ कोई एक तो (अर्थात् क्षणिकवादी बौद्धमती तो) ‘इदम् आत्मतत्त्वम् क्षणिकम् कल्पयित्वा’ आत्मतत्त्वने क्षणिक कल्पीने ‘निज मनसि’ पोताना मनमां ‘कर्तृ–भोक्त्रोः विभेदं विधत्ते’ कर्ता अने भोक्तानो भेद करे छे (-अन्य कर्ता अने अन्य भोक्ता छे एवुं माने छे);......

अहाहा....! आ लोकमां कोई क्षणिकवादी बौद्धमती तो आत्माने क्षणिक माने छे. आत्मा वस्तुए तो नित्य छे, क्षणे क्षणे तेनी अवस्था बदले छे. अहा! क्षणेक्षणे ते बदलती अवस्थानुं छळ पामीने क्षणिकवादी आत्माने क्षणिक कहे छे.

जुओ आ मान्यता! कोईने असाध्य केन्सर थयुं होय तो कहे छे ने! के हवे हुं नहि रहुं, हवे हुं जरूर मरी जईश. अरे भाई! तुं नहि रहे तो क्यां नहि रहे? शरीरमां के तारा आत्मामां? हवे नहि रहे एवो तुं कोण छो? कांई भान न मळे. बापु! ए तो शरीर नहि रहे; तुं तो त्रिकाळ ऊभो छे ने प्रभु! आ पहेरण-अंगरखुं, अंगरखु बदलाय एटले शुं अंदर वस्तु (शरीरादि) बदलाई जाय छे? पहेरण जीर्ण थाय तो शुं शरीर जीर्ण थई जाय छे? (ना); आ तो समजवा दाखलो कीधो. तेम शरीर बदलतां वस्तु-आत्मा क्यां बदलाय छे? शरीर नाश पामतां आत्मा क्यां नाश पामे छे? ए तो शाश्वत ऊभो छे ने प्रभु! भाई! हवे हुं नहि रहुं ए तारी मान्यता जूठी छे. तेम कोई क्षणिकवादीओ आत्माने क्षणिक माने छे ते जूठा छे. समजाय छे कांई....?

तेओ (-क्षणिकवादीओ) बदलती अवस्थाने देखी आत्मतत्त्वने सर्वथा क्षणिक कल्पीने पोताना मनमां कर्ता-भोक्तानो भेद करे छे. एटले शुं? के वर्तमानमां कार्य कोईए कर्युं ने तेनुं फळ बीजो आत्मा भोगवशे एम तेओ माने छे. जेणे वर्तमानमां पापना भाव कर्या ते आत्मानो नाश थई जशे, अने भविष्यमां बीजो आत्मा थशे जे एनुं फळ भोगवशे; अन्य कर्ता छे ने अन्य भोक्ता छे एम तेओ माने छे. अर्थात् व्यय पामती पर्याय साथे आत्मा व्यय पामी गयो, ने उत्पाद थती पर्यायमां बीजो नवो आत्मा उत्पन्न थयो-एम तेओ माने छे. ल्यो, आवी मान्यता! क्षणे क्षणे आत्मा बीजो ने बीजो उत्पन्न थतो जाय छे-एम आत्मा क्षणिक होवानुं तेओ माने छे.

पण भाई! तारी मान्यता मिथ्या छे, केमके वस्तु नाम आत्मानुं एवुं एकांत क्षणिक स्वरूप नथी. वास्तवमां पर्यायस्वरूपथी पलटवा छतां आत्मा द्रव्यस्वरूपथी शाश्वत नित्य छे. ए ज कहे छे-


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‘तस्य विमोहं’ तेना मोहने (अज्ञानने) ‘अयम् चित्चमत्कारः एव स्वयम्’ चैतन्यचमत्कार ज पोते ‘नित्य–अमृत–ओधैः’ नित्यतारूप अमृतना ओघ (-समूहो) वडे ‘अभिषिन्चन्’ अभिसिंचन करतो थको, ‘अपहरति’ दूर करे छे.

अहाहा...! कहे छे-चैतन्यप्रकाशना नूरनुं पुर चैतन्यचमत्कार प्रभु आत्मा तेना मोहने-अज्ञानने दूर करे छे. केवी रीते? तो कहे छे- नित्यतारूप अमृतना ओघ वडे अभिसिंचन करीने. एटले शुं? क्षणिक पर्यायथी हठी अंदर आनंदकंद नित्यानंद प्रभु आत्मा बिराजे छे तेनी द्रष्टि करतां ते नित्यताना अमृतनो सागर प्रभु उछळीने पर्यायमां प्रगट थाय छे, अने त्यारे आत्मा क्षणिक छे एवा अज्ञाननो नाश थाय छे. आवी वात!

अहाहा...! अंदर अनादि-अनंत नित्यानंदस्वरूप छो ने प्रभु! अनंत गुणनो पिंड नित्य जिनस्वरूप परमात्मस्वरूप छो ने! भाई! जेटला परमात्मा थया ते बधा अंदर शक्ति हती ते प्रगट करीने थया छे. तुं पण शक्तिए नित्य जिनस्वरूप परमात्मस्वरूप छे. अहाहा...! तारा स्वरूपमां त्रिकाळ अतीन्द्रिय चैतन्यमय अमृत भर्युं छे. हवे आवी वात एने केम बेसे? एनां माप बधां टूंकां (-पर्यायरूप) अने वस्तु अंदर मोटी-महान (नित्य द्रव्यरूप). ते टूंकां मापे ते केम मपाय? बापु! क्षणिकनी द्रष्टि छोडी दे अने अंदर अमृतनो नाथ चित्चमत्कार प्रभु नित्य बिराजे छे तेनी द्रष्टि कर; तेने आनंदनो- अमृतनो स्वाद आवशे, ने क्षणिक छुं एवी भ्रान्ति मटी जशे. अहाहा...! पुण्य-पापना क्षणिक भावोथी भिन्न अंदर नित्य आनंदकंद प्रभु आत्मा बिराजे छे तेनो ज्ञानजळ वडे अभिषेक कर जेथी अमृतनी धारा उछळशे. ल्यो, आनुं नाम धर्म.

अंदर वस्तु-पोते चैतन्यचमत्कारस्वरूप नित्य अमृतना ओघथी भरेली छे. तेनो द्रष्टिमां स्वीकार करी सत्कार करतां अंदर अतीन्द्रिय आनंदनी धारा उलसे ते धर्म छे.

* कळश २०६ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘क्षणिकवादी कर्ता-भोक्तामां भेद माने छे, अर्थात् पहेली क्षणे जे आत्मा हतो ते बीजी क्षणे नथी-एम माने छे. आचार्यदेव कहे छे के-अमे तेने शुं समजावीए? आ चैतन्य ज तेनुं अज्ञान दूर करशे-के जे (चैतन्य) अनुभवगोचर नित्य छे.’

जुओ, अज्ञानीने पोताना त्रिकाळी स्वरूपनी खबर नथी. तेथी ते वर्तमान पर्यायने ज आत्मा माने छे. क्षणेक्षणे जे पर्याय बदलाय छे तेने ज ते आत्मा माने छे. वर्तमान जे आत्मा छे ते बीजे समये नथी, बीजे समये बीजो ने त्रीजे समये त्रीजो आत्मा-एम क्षणिकवादी बौद्धमती कर्ता-भोक्तानो भेद माने छे.


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आचार्यदेव कहे छे-तेने अमे शुं समजावीए? आ चैतन्य ज तेनुं अज्ञान दूर करशे-के जे चैतन्य अनुभवगोचर नित्य छे. अहाहा....! प्रतिसमय पलटतुं होवा छतां, आचार्य कहे छे, स्वानुभवमां जे आ चैतन्य नित्य अनुभवाय छे ते ज एनुं अज्ञान मटाडशे अर्थात् नित्य चैतन्यमात्र वस्तुनो अनुभव थये एनी भ्रान्ति दूर थशे. ल्यो, आवी वात. अहा! नित्य-अनित्यना विभागनी अज्ञानीने खबर नथी. तेनुं अज्ञान आ चैतन्य ज दूर करशे-के जे चैतन्य अनुभवगोचर नित्य छे.

‘पहेली क्षणे जे आत्मा हतो ते ज बीजी क्षणे कहे छे के “हुं पहेलां हतो ते ज छुं;” आवुं स्मरणपूर्वक प्रत्यभिज्ञान आत्मानी नित्यता बतावे छे.’

कालनी वात आजे याद आवे छे ने? माटे याद करनार द्रव्य (-आत्मा) नित्य छे. क्षणवारमां ते याद करे छे के-काल हतो ते ज आजे आ हुं छुं. आ रीते जाणनारुं द्रव्य-भगवान आत्मा नित्य होवानुं सिद्ध थाय छे. भाई! त्रिकाळी द्रव्यनी सिद्धि विना अने त्रिकाळी द्रव्यनी द्रष्टि विना एनुं वर्तमान -सम्यग्दर्शन सिद्ध थतुं नथी. स्मरणपूर्वकनुं प्रत्यभिज्ञान आत्मानी नित्यता सिद्ध करे छे. काले जोयुं हतुं ते ज आ गाम हुं आजे जोउं छुं-एवुं जे प्रत्यभिज्ञान ते आत्मानी नित्यता बतावे छे.

‘अहीं बौद्धमती कहे छे के-“जे पहेली क्षणे हतो ते ज हुं बीजी क्षणे छुं” एवुं मानवुं ते तो अनादि अविद्याथी भ्रम छे; ए भ्रम मटे त्यारे तत्त्व सिद्ध थाय, समस्त कलेश मटे.’

जुओ, बौद्धमती स्मरणपूर्वकना प्रत्यभिज्ञानने अविद्याजनित भ्रम ठरावे छे, अने ते भ्रम मटे तो तत्त्व सिद्ध थाय ने कलेश मटे एम कहे छे. पण एम वस्तु नथी.

वास्तवमां क्षणेक्षणे पलटती अवस्था जेटलो हुं नथी; हुं तो त्रिकाळ नित्य विज्ञानघन छुं एवी द्रष्टि थाय त्यारे एनुं अज्ञान मटे अने कलेश दूर थाय. भाई! प्रथम साचो निर्णय करवो पडशे. श्रीमद्दे कह्युं छे ने के-

आत्मा द्रव्ये नित्य छे, पर्याये पलटाय;
बाळादि वय त्रण्यनुं, ज्ञान एकने थाय.

पूर्व बाळक-अवस्था हती, वर्तमान यौवनावस्था छे अने भविष्यमां वृद्ध अवस्था थशे. आम देहनी त्रण अवस्थानुं ज्ञान जे त्रिकाळी एक छे तेने थाय छे. आ त्रिकाळीनी द्रष्टि करतां सम्यग्दर्शन थाय छे, भ्रान्ति टळे छे. त्रिकाळीनी द्रष्टि


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करनार तो पर्याय छे, पण ते द्रष्टिनी पर्यायनो विषय त्रिकाळी नित्य प्रभु आत्मा छे. भाई! त्रिकाळी ध्रुव नित्यनी द्रष्टि थया विना बधुं थोथेथोथां छे.

बौद्धमती शिष्यना तर्कनो उत्तर आपवामां आवे छेः- ‘हे बौद्ध! तुं आ जे दलील करे छे ते आखी दलील करनार एक ज आत्मा छे के अनेक आत्माओ छे? वळी तारी आखी दलील एक ज आत्मा सांभळे छे एम मानीने तुं दलील करे छे के आखी दलील पूरी थतां सुधीमां अनेक आत्माओ पलटाई जाय छे एम मानीने दलील करे छे? जो अनेक आत्माओ पलटाई जता होय तो तारी आखी दलील तो कोई आत्मा सांभळतो नथी; तो पछी दलील करवानुं प्रयोजन शुं? आम अनेक रीते विचारी जोतां तने जणाशे के आत्माने क्षणिक मानीने प्रत्यभिज्ञानने भ्रम कही देवो ते यथार्थ नथी.’

जुओ, शुं कहे छे? आ आखी दलील करनार एक ज आत्मा छे के अनेक आत्माओ छे? जो अनेक छे तो दलील करनारो तो कोई ठरतो नथी. तथा जो एक ज होय तो एम कहीए छीए तेम आत्मानुं नित्यपणुं सिद्ध थई जाय छे.

वळी आखी दलील सांभळनारो कोई एक आत्मा छे के क्षणेक्षणे पलटाई जतां अनेक आत्माओ छे? जो अनेक आत्माओ छे तो तारी पूरी दलील तो कोई सांभळतुं नथी; तो पछी; दलील करवानुं प्रयोजन शुं? वळी तुं जो एम कहे के क्षणेक्षणे आत्मा तो नाश पामी जाय छे पण ते संस्कार मूकतो जाय छे तो ते पण यथार्थ नथी; केमके आत्मा नाश पामे तो आधार विना संस्कार केम रही शके? वळी कदाचित् एक आत्मा संस्कार मूकतो जाय, तोपण ते आत्माना संस्कार बीजा आत्मामां पेसी जाय एवो नियम न्यायसंगत नथी.

बापु! तुं पर्यायमात्र क्षणिक आत्माने माने छे पण जैनमतमां तो तेने पर्यायमूढ कह्यो छे. पर्यायमात्र आत्मा माने ते मूढ छे, मिथ्याद्रष्टि छे. अहा! आ शरीर, मन, वाणी इत्यादि तो आत्मा नहि, पुण्य-पापना भाव थाय तेय आत्मा नहि अने वर्तमान ज्ञाननी जे दशा छे तेवडोय आत्मा नहि. वर्तमान ज्ञाननी दशामां रुचि करीने जे रह्यो छे ते पर्यायमूढ मिथ्याद्रष्टि छे. जे एक समयनी दशाओनी पाछळ आखो नित्यानंद-चिदानंद प्रभु आत्मा रहेलो छे तेनी द्रष्टि कर्या विना पर्यायनी रुचिमां जे पडयो छे ते मूढ मिथ्याद्रष्टि छे.

माटे विचार कर; आत्माने क्षणिक मानीने तुं प्रत्यभिज्ञानने भ्रम कहे छे पण ते यथार्थ नथी. काले जेने जोयो हतो ते आ ज छे एवुं जे ज्ञान ते प्रत्यभिज्ञान छे अने ते ज्ञान करनार द्रव्यने नित्य सिद्ध करे छे.


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प्रवचनसारनी गाथा १७२ नी टीकामां २० मो बोल छे; तेमां कह्युं छे के- “लिंग एटले प्रत्यभिज्ञाननुं कारण एवुं जे ग्रहण एटले के अर्थावबोधसामान्य ते जेने नथी ते अलिंगग्रहण छे; आ रीते आत्मा द्रव्यथी नहि आलिंगित एवो शुद्ध पर्याय छे एवा अर्थनी प्राप्ति थाय छे.”

पर्यायमात्र वस्तु आत्मा-एम वात नथी अहीं. बहु झीणी वात प्रभु! आत्मा त्रिकाळी ध्रुव नित्य द्रव्य छे. एक समयनी शुद्ध पर्याय (सम्यग्दर्शन) तेनी द्रष्टि करे छे छतां ते पर्याय द्रव्यने स्पर्शती नथी अने जे द्रव्य छे ते पर्यायने स्पर्शतुं नथी. मतलब के द्रव्यपर्याय आखी वस्तु छे तेमां त्रिकाळी नित्यद्रव्य ने वर्तमान पर्याय परस्पर भळीने एक थई जतां नथी. आवी सूक्ष्म वात भाई! आ तो पर्यायद्रष्टि मटाडवानी वात छे भाई! आ शरीरादि तो द्रव्यने स्पर्शे नहि, केमके ए तो जड माटी-धूळ छे, ने विकार- शुभाशुभभाव पण द्रव्यने स्पर्शे नहि केमके एय जड छे, तथा एक समयनी निर्मळ पर्याय पण नित्य एवा द्रव्यने स्पर्शती नथी. अहा! आवो नित्य-अनित्यनो विभाग छे ते यथार्थ जाणी द्रव्यद्रष्टि करवी जोईए. समजाय छे कांई....?

‘माटे एम समजवुं के-आत्माने एकांते नित्य के एकांते अनित्य मानवो ते बन्ने भ्रम छे, वस्तुस्वरूप नथी; अमे (जैनो) कथंचित् नित्यानित्यात्मक वस्तुस्वरूप कहीए छीए ते ज सत्यार्थ छे.’

आत्मा एकांते नित्य ज छे, अने पर्याय छे ज नहि एम मानवुं ए मिथ्या भ्रम छे; अने एक समयनी पर्याय छे अने त्रिकाळी नित्य द्रव्य नथी एम माने एय मिथ्या भ्रम छे.

अहा! पोते त्रिकाळी ध्रुव चित्चमत्कारस्वरूप नित्य द्रव्य छे अने एनी पलटती अवस्था अनित्य पर्याय छे. हवे ए अवस्थामां जे नित्य, ध्रुव एवा द्रव्यने द्रष्टिमां लेतो नथी ते मूढ अज्ञानी छे. ते बहारनी चीज-शरीरादि जे अनित्य नाशवंत छे तेने टकावी राखवा मागे छे पण ए वृथा छे; तेथी मात्र खेद ज थाय छे. माटे द्रव्यस्वरूपथी नित्य अने पर्यायस्वरूपथी अनित्य-एम कथंचित् नित्यानित्यात्मक वस्तुस्वरूपने जाणी नित्यमां द्रष्टि करी समकितवंत थवुं. आ न्याय छे.

सांख्यमतवाळा वस्तुने त्रिकाळी नित्य माने छे, पलटती पर्यायने मानता नथी; ज्यारे बौद्धमतवाळा पलटती पर्यायने माने छे, त्रिकाळी नित्यने मानता नथी. बन्ने वस्तुने एकांतस्वरूप मानता होवाथी मिथ्याद्रष्टि छे. आचार्यदेव कहे छे- अमे जैनो तो वस्तु जेम छे तेम द्रव्यस्वरूपथी नित्य अने पर्यायरूपथी पलटती अनित्य मानीए छीए अने ते ज सत्यार्थ छे. आवी वातु!


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हवे, फरी क्षणिकवादने युक्ति वडे निषेधतुं, आगळनी गाथाओनी सूचनारूप काव्य कहे छेः-

* कळश २०७ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘वृत्ति–अंश–भेदतः’ वृत्त्यंशोना अर्थात् पर्यायोना भेदने लीधे ‘अत्यंन्तं वृत्तिमत्–नाश–कल्पनात्’ वृत्तिमान अर्थात् द्रव्य अत्यंत (सर्वथा) नाश पामे छे-एवी कल्पना द्वारा ‘अन्य करोति’ अन्य करे छे अने ‘अन्य भुंक्ते’ अन्य भोगवे छे ‘इति एकान्तः मा चकास्तु’ एवो एकान्त न प्रकाशो.

वृत्ति-अंशो एटले पर्यायना भेदो; वृत्ति एटले पर्याय-अवस्था. आ सोनुं-सुवर्ण होय छे ने! तेमां सोनुं छे तो सोनापणे नित्य-कायम छे, तेना पीळाश, चीकाश, वजन इत्यादि गुण छे ते नित्य-कायम छे, अने तेनी कडा, कुंडळ, सांकळी इत्यादि पलटती अवस्थाओ छे ते पर्याय छे. तेम भगवान आत्मा चैतन्यचमत्कार प्रभु अंदर छे ते ध्रुव त्रिकाळी नित्य द्रव्य छे, तेना ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुण छे तेय नित्य छे, अने तेनी पलटती अवस्था (गति आदि) छे ते पर्याय छे. हवे आमां बौद्धमती छे ते एकांते पर्यायने ज आत्मा कहे छे. अज्ञानीनी पण अनादिथी पर्याय उपर ज द्रष्टि छे, तेथी बौद्धमतीनी जेम ते पण मूढ मिथ्याद्रष्टि छे.

पण आमां धर्म शुं आव्यो? अरे भाई! तुं कोण छो ने केवडो छो तथा आ तारी अवस्थाओ केवी रीते छे तेने यथार्थ जाणी नित्यानंद-चिदानंद स्वरूपनो पर्यायमां स्वीकार करवो एनुं नाम धर्म छे. धर्म बीजी शुं चीज छे. आ व्रत, तप ने भक्ति आदि तुं करे छे ए कांई धर्म नथी; ए तो बधो राग छे, आस्रव छे अने एने धर्म माने ए तो मिथ्यात्व छे, महापाप छे. समजाणुं कांई....?

आचार्यदेव अहीं कहे छे-पर्यायोना भेदने लीधे वृत्तिमान द्रव्य अत्यंत नाश पामे छे एवी कल्पना द्वारा “अन्य करे छे अने अन्य भोगवे छे”-एवो एकांत न प्रकाशो एटले शुं? के अंदर वस्तु-भगवान आत्मा पोते सच्चिदानंद प्रभु त्रिकाळ नित्य छे; पण पलटती पर्यायोना भेद-भिन्नताने लीधे अज्ञानी-बौद्धमती, वृत्तिमान द्रव्य नाश पामे छे. अने क्षणेक्षणे अन्य-अन्य आत्मा उपजे छे एम कल्पना करे छे. वर्तमान विकारी परिणाम अनेरो-अन्य आत्मा करे छे अने पछीनो अनेरो-अन्य आत्मा तेनुं फळ भोगवे छे-एम अज्ञानी माने छे. तेने अहीं कहे छे-अन्य करे छे ने अन्य भोगवे छे- एवुं एकांत न प्रकाशो; अर्थात् एवुं एकांत वस्तु-स्वरूप नथी.


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तो केवी रीते छे? जे जीव वर्तमान पर्यायमां रागद्वेष करे छे ते ज जीव भविष्यमां तेनुं फळ भोगवे छे. पापना परिणाम करनारी एक अवस्था छे अने तेनुं फळ भोगवनारी पर्याय बीजी छे पण ते बन्ने पर्यायोमां रहेलुं द्रव्य-आत्मा तो एनुं ए ज छे. पर्याय अनेरी अनेरी छे, पण द्रव्य तो एनुं ए ज छे, जेणे पाप कर्युं ते ज आत्मा तेनुं फळ जे दुःख ते भोगवे छे. भाई! वृत्तिमान एवुं जे द्रव्य ते त्रिकाळ नित्य छे. तेथी आत्मा जे वर्तमान पर्यायमां पाप करे छे ते ज तेनुं फळ आगामी बीजी पर्यायमां भोगवे छे. वर्तमानमां मनुष्यनी पर्यायमां कोई तीव्र पाप उपजावे, साते व्यसन सेवे ते मरीने जाय नरकमां एने त्यां एना फळमां तीव्र दुःख भोगवे. पण त्यां अवस्था पलटवा छतां आत्मा तो एनो ए ज छे, आत्मा करे ए जुदो ने वळी भोगवे ए जुदो-एवी मान्यता अज्ञान छे, मिथ्यात्व छे. आवी वातु!

पण अरे! एने नवराश क्यां छे आवुं समजवानी. बिचारो दूर देशावर जाय ने धंधामां मशगुल रहे; बहु धन कमाय एटले समजे के फाव्या. धूळमांय फाव्या नथी सांभळने. ए धनना ढगला तो बापु! बधा धूळना ढगला छे. एमां क्यां सुख छे? ए तो एना कारणे आवे छे ने एना कारणे जाय छे. तुं शुं कमाय? एनी ममता करीने तो भगवान! तुं दुःखना ढगला कमाई रह्यो छे. अहीं कहे छे-ए धननी (वर्तमानमां) ममता करनारो ने भविष्यमां तेना फळमां दुःखनो भोगवनारो आत्मा एनो ए ज छे.

भगवान! धन-संपति मारां सुखनां साधन छे एम मानी एनी ममता करे ए तो मूढ महा-मूरख छे. महामूरख हों.

तो नानो मूरख कोण? समकित थया पछी किंचित् चारित्रनो दोष रहे ते नानो मूरख. जेने मिथ्याश्रद्धानो दोष छे ते मूढ महामूरख. भाई! चारित्रनो किंचित् दोष छे एय पोतानी मूर्खाई छे ने? तेथी ते नानो मूरख. ए समाधिशतकमां पूज्यपाद स्वामीए कह्युं छे भाई! के -आ हुं बीजाने उपदेश आपी समजावुं एवो जे मने विकल्प छे ते मारी उन्मत्तपणानी चेष्ठा छे. एम के- हुं तो -आत्मा नित्य निर्विकल्प छुं, अने मारे अंदर निर्विकल्प रहेवुं जोईए; छतां आवो बीजाने समजाववानो विकल्प आव्यो! ए उन्मत्तता छे. ल्यो, आवी वात! मुनिराजने उपदेशनो (समजाववानो के सांभळवानो) विकल्प आवे ते अस्थिरतानो चारित्रदोष होवाथी ते उन्मत्तता छे एम त्यां कह्युं छे. (समाधिशतक श्लोक १९). बापु! आ तो वीतरागना कायदा भाई!

अहीं कहे छे-पर्यायनो नाश थतां द्रव्य ज सर्वथा नाश पामे छे एम मत