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मानो. वास्तवमां आत्मानी वर्तमान पर्यायनो नाश थई एनी नवी अवस्था उत्पन्न थाय छे, आत्मा तो त्यां त्रिकाळ नित्य ज रहे छे. अहा! आवा नित्य चिदानंदस्वरूप आत्मानी द्रष्टि करवी ते सम्यग्दर्शन छे अने ते प्रथम धर्म छे. भाई! प्रथम वस्तुस्वरूपनुं यथार्थ ज्ञान करवुं पडशे; यथार्थ जाण्या विना द्रष्टि साची नहीं थाय.
‘द्रव्यनी अवस्थाओ क्षणेक्षणे नाश पामती होवाथी बौद्धमती एम माने छे के “ द्रव्य ज सर्वथा नाश पामे छे.” आवी एकांत मान्यता मिथ्या छे. जो अवस्थावान पदार्थनो नाश थाय तो अवस्था कोना आश्रये थाय? ए रीते बन्नेना नाशनो प्रसंग आववाथी शून्यनो प्रसंग आवे छे.’
जुओ, पर्यायनो-अवस्थानो नाश थतां आत्मानो-द्रव्यनो नाश माने ए तो अज्ञानीनी-बौद्धमतीनी जूठी कल्पना छे; केमके अवस्थावान द्रव्यनो नाश थाय तो अवस्था कोना आश्रये थाय? नवी नवी अवस्था जे क्षणेक्षणे थाय छे तेनो आधार तो नित्य द्रव्य छे. हवे द्रव्य ज नाश पामी जाय तो आधार नाश पामतां पर्याय पण कोना आश्रये उत्पन्न थाय? आ रीते बन्नेना नाशनो प्रसंग आवे, शून्यपणानो प्रसंग आवे. पण एम छे नहि. जुओ, सोनानी सांकळी पलटीने कंकण थाय छे; त्यां शुं सोनुं नाश पामी जाय छे? कदीय नहि. तेम अवस्था भले पलटे, पण अवस्थावान एवुं द्रव्य तो नित्य ज रहे छे.
हवे ध्यान करो, ध्यान करो एम केटलाक राडो पाडे छे, ध्याननी शिबिरो पण लगावे छे पण कोनुं ध्यान करवुं? वस्तु ज पोतानी ज्यां द्रष्टिमां आवी नथी त्यां कोनुं ध्यान करे? ध्याननो विषय तो भाई! अंदर रहेलुं त्रिकाळी ध्रुव नित्य परमात्मद्रव्य छे. हवे द्रव्यना स्वीकार विना ए कोनुं ध्यान करे? ए रागनुं ध्यान करशे; (एने आर्त्त-रौद्र ध्यान थया करशे).
अहा! रागने-पुण्यने ने पर्यायने ज ए आत्मा माने छे ए एनी भूल छे. पण ए भूल पर्यायमां थई छे, वस्तुमां नथी. त्रिकाळी द्रव्यस्वभाव तो एवो ने एवो नित्य ज्ञायकभावपणे रह्यो छे. अहा! एनी द्रष्टि करतां एनी वर्तमान भूल छूटी जाय छे अने आ ज एक कर्तव्य छे, धर्म छे. आवी वातु छे.
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जम्हा तम्हा कुव्वदि सो वा अण्णो व णेयंतो।। ३४५।।
केहिंचि दु पज्जएहिं विणस्सए णेव केहिंचि दु जीवो।
जम्हा तम्हा वेददि सो वा अण्णो व णेयंतो।। ३४६।।
जो चेव कुणदि सो चिय ण वेदए जस्स एस सिद्धंतो।
सो जीवो णादव्वो मिच्छादिट्ठी अणारिहदो।।
सो जीवो णादव्वो मिच्छादिट्ठी अणारिहदो।। ३४८।।
यस्मात्तस्मात्करोति स वा अन्यो वा नैकान्तः।। ३४५।।
हवे गाथाओमां अनेकांतने प्रगट करीने क्षणिकवादने स्पष्ट रीते निषेधे छेः-
तेथी करे छे ते ज के बीजो–नहीं एकांत छे. ३४प.
पर्याय कंईकथी विणसे जीव, कंईकथी नहि विणसे,
जीव तेथी वेदे ते ज के बीजो–नहीं एकांत छे. ३४६.
जीव जे करे ते भोगवे नहि–जेहनो सिद्धांत ए,
ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे, अर्हंतना मतनो नथी. ३४७.
जीव अन्य करतो, अन्य वेदे–जेहनो सिद्धांत ए,
ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे, अर्हंतना मतनो नथी. ३४८.
गाथार्थः– [यस्मात्] कारण के [जीवः] जीव [कैश्चित् पर्यायैः तु] केटलाक पर्यायोथी [विनश्यति] नाश पामे छे [तु] अने [कैश्चित्] केटलाक पर्यायोथी
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यस्मात्तस्माद्वेदयते स वा अन्यो वा नैकान्तः।।३४६।।
यश्चैव करोति य चैव न वेदयते यस्य एष सिद्धान्तः।
स जीवो ज्ञातव्यो मिथ्याद्रष्टिरनार्हतः।।३४७।।
अन्यः करोत्यन्यः परिभुंक्ते यस्य एष सिद्धान्तः।
स जीवो ज्ञातव्यो मिथ्याद्रष्टिरनार्हतः।।३४८।।
[न एव] नथी नाश पामतो, [तस्मात्] तेथी [सः वा करोति] ‘(जे भोगवे छे) ते ज करे छे’ [अन्यः वा] अथवा ‘बीजो ज करे छे’ [न एकान्तः] एवो एकांत नथी (- स्याद्वाद छे).
[यस्मात्] कारण के [जीवः] जीव [कैश्चित् पर्यायैः तु] केटलाक पर्यायोथी [विनश्यति] नाश पामे छे [तु] अने [कैश्चित्] केटलाक पर्यायोथी [न एव] नथी नाश पामतो, [तस्मात्] तेथी [सः वा वेदयते] ‘(जे करे छे) ते ज भोगवे छे’ [अन्यः वा] अथवा ‘बीजो ज भोगवे छे’ [न एकान्तः] एवो एकांत नथी (- स्याद्वाद छे).
‘[यः च एव करोति] जे करे छे [सः च एव न वेदयते] ते ज नथी भोगवतो’ [एषः यस्य सिद्धान्तः] एवो जेनो सिद्धांत छे, [सः जीवः] ते जीव [मिथ्याद्रष्टिः] मिथ्याद्रष्टि, [अनार्हतः] अनार्हत (-अर्हत्ना मतने नहि माननारो) [ज्ञातव्यः] जाणवो.
‘[अन्यः करोति] बीजो करे छे [अन्यः परिभुंक्ते] अने बीजो भोगवे छे’ [एषः यस्य सिद्धान्तः] एवो जेनो सिद्धांत छे, [सः जीवः] ते जीव [मिथ्याद्रष्टिः] मिथ्याद्रष्टि, [अनार्हतः] अनार्हत (-अजैन) [सज्ञातव्यः] जाणवो.
टीकाः– जीव, प्रतिसमये संभवता (-दरेक समये थता) अगुरुलघुगुणना परिणाम द्वारा क्षणिक होवाथी अने अचलित चैतन्यना अन्वयरूप गुण द्वारा नित्य होवाथी, केटलाक पर्यायोथी विनाश पामे छे अने केटलाक पर्यायोथी नथी विनाश पामतो-एम बे स्वभाववाळो जीवस्वभाव छे; तेथी ‘जे करे छे ते ज भोगवे छे’ अथवा ‘बीजो ज भोगवे छे’ , ‘जे भोगवे छे ते ज करे छे’ अथवा ‘बीजो ज करे छे’ -एवो एकांत नथी. आम अनेकांत होवा छतां, ‘जे (पर्याय) ते क्षणे वर्ते छे, तेने ज परमार्थ सत्पणुं होवाथी, ते ज वस्तु छे’ एम वस्तुना अंशमां वस्तुपणानो अध्यास करीने शुद्धनयना लोभथी ऋजुसूत्रनयना एकांतमां रहीने जे एम
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कालोपाधिबलादशुद्धिमधिकां तत्रापि मत्वा परैः।
चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प्य पृथुकैः शुद्धर्जुसूत्रे रतै–
रात्मा व्युज्झित एष हारवदहो निःसूत्रमुक्तेक्षिभिः।। २०८।।
देखे-माने छे के “जे करे छे ते ज नथी भोगवतो, बीजो करे छे अने बीजो भोगवे छे”, ते जीव मिथ्याद्रष्टि ज देखवो-मानवो; कारण के, वृत्त्यंशोनुं (पर्यायोनुं) क्षणिकपणुं होवा छतां, वृत्तिमान (पर्यायी) जे चैतन्यचमत्कार (आत्मा) ते तो टंकोत्कीर्ण (नित्य) ज अंतरंगमां प्रतिभासे छे.
भावार्थः– वस्तुनो स्वभाव जिनवाणीमां द्रव्यपर्यायस्वरूप कह्या छे; माटे स्याद्वादथी एवो अनेकांत सिद्ध थाय छे के पर्याय-अपेक्षाए तो वस्तु क्षणिक छे अने द्रव्य-अपेक्षाए नित्य छे. जीव पण वस्तु होवाथी द्रव्यपर्यायस्वरूप छे. तेथी, पर्यायद्रष्टिए जोवामां आवे तो कार्यने करे छे एक पर्याय, अने भोगवे छे अन्य पर्याय; जेम के- मनुष्यपर्याये शुभाशुभ कर्म कर्यां अने तेनुं फळ देवादिपर्याये भोगव्युं. द्रव्यद्रष्टिए जोवामां आवे तो, जे करे छे ते ज भोगवे छे; जेम के-मनुष्यपर्यायमां जे जीवद्रव्ये शुभाशुभ कर्म कर्यां, ते ज जीवद्रव्ये देवादि पर्यायमां पोते करेलां कर्मनुं फळ भोगव्युं.
आ रीते वस्तुनुं स्वरूप अनेकांतरूप सिद्ध होवा छतां, जे जीव शुद्धनयने समज्या विना शुद्धनयना लोभथी वस्तुना एक अंशने (-वर्तमान काळमां वर्तता पर्यायने) ज वस्तु मानी ऋजुसूत्रनयना विषयनो एकांत पकडी एम माने छे के ‘जे करे छे ते ज भोगवतो नथी-अन्य भोगवे छे, अने जे भोगवे छे ते ज करतो नथी-अन्य करे छे’ , ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे, अर्हंतना मतनो नथी; कारण के, पर्यायोनुं क्षणिकपणुं होवा छतां, द्रव्यरूप चैतन्यचमत्कार तो अनुभवगोचर नित्य छे; प्रत्यभिज्ञानथी जणाय छे के ‘बाळक अवस्थामां जे हुं हतो ते ज हुं तरुण अवस्थामां हतो अने ते ज हुं वृद्ध अवस्थामां छुं’ . आ रीते जे कथंचित् नित्यरूपे अनुभवगोचर छे-स्वसंवेदनमां आवे छे अने जेने जिनवाणी पण एवो ज गाय छे, तेने जे न माने ते मिथ्याद्रष्टि छे एम जाणवुं.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः– [आत्मानं परिशुद्धम् ईप्सुभिः परैः अन्धकैः] आत्माने समस्तपणे शुद्ध इच्छनारा बीजा कोई अंधोए- [पृथुकैः] बालिश जनोए (बौद्धोए) - [काल– उपाधि–बलात् अपि तत्र अधिकाम् अशुद्धिम् मत्वा] काळनी उपाधिना कारणे पण
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कर्ता वेदयिता च मा भवतु वा वस्त्वेव सञ्चिन्त्यताम्।
प्रोता सूत्र इवात्मनीह निपुणैर्भेत्तुं न शक्या क्वचि–
च्चिच्चिन्तामणिमालिकेयमभितोऽप्येका चकास्त्वेव नः।। २०९।।
आत्मामां अधिक अशुद्धि मानीने [अतिव्याप्तिं प्रपद्य] अतिव्याप्तिने पामीने, [शुद्ध– ऋजुसूत्रे रतैः] शुद्ध ऋजुसूत्रनयमां रत थया थका [चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प्य] चैतन्यने क्षणिक कल्पीने, [अहो एषः आत्मा व्युज्झितः] आ आत्माने छोडी दीधो; [निःसूत्र– मुक्ता–ईक्षिभिः हारवत्] जेम हारमांनो दोरो नहि जोतां केवळ मोतीने ज जोनाराओ हारने छोडी दे छे तेम.
भावार्थः– आत्माने समस्तपणे शुद्ध मानवाना इच्छक एवा बौद्धोए विचार्युं के-“ आत्माने नित्य मानवामां आवे तो नित्यमां काळनी अपेक्षा आवे छे तेथी उपाधि लागी जशे; एम काळनी उपाधि लागवाथी आत्माने मोटी अशुद्धता आवशे अने तेथी अतिव्याप्ति दोष लागशे.” आ दोषना भयथी तेओए शुद्ध ऋजुसूत्रनयनो विषय जे वर्तमान समय तेटलो ज मात्र (-क्षणिक ज-) आत्माने मान्यो अने नित्यानित्यस्वरूप आत्माने न मान्यो. आम आत्माने सर्वथा क्षणिक मानवाथी तेमने नित्यानित्यस्वरूप- द्रव्यपर्यायस्वरूप सत्यार्थ आत्मानी प्राप्ति न थई; मात्र क्षणिक पर्यायमां आत्मानी कल्पना थई; परंतु ते आत्मा सत्यार्थ नथी.
मोतीना हारमां, दोरामां अनेक मोती परोवेलां होय छे; जे माणस ते हार नामनी वस्तुने मोती तेम ज दोरा सहित देखतो नथी-मात्र मोतीने ज जुए छे, ते छूटा छूटा मोतीने ज ग्रहण करे छे, हारने छोडी दे छे; अर्थात् तेने हारनी प्राप्ति थती नथी. तेवी रीते जे जीवो आत्माना एक चैतन्यभावने ग्रहण करता नथी अने समये समये वर्तनापरिणामरूप उपयोगनी प्रवृत्तिने देखी आत्माने अनित्य कल्पीने, ऋजुसूत्रनयनो विषय जे वर्तमान-समयमात्र क्षणिकपणुं तेटलो ज मात्र आत्माने माने छे (अर्थात् जे जीवो आत्माने द्रव्यपर्यायरूप मानता नथी-मात्र क्षणिक पर्यायरूप ज माने छे), तेओ आत्माने छोडी दे छे; अर्थात् तेमने आत्मानी प्राप्ति थती नथी. २०८.
हवेना काव्यमां आत्मानो अनुभव करवानुं कहे छेः- श्लोकार्थः– [कर्तुः च वेदयितुः युक्तिवशतः भेदः अस्तु वा अभेदः अपि] कर्तानो अने भोक्तानो युक्तिना वशे भेद हो अथवा अभेद हो, [वा कर्ता च वेदयिता मा
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कर्तृ कर्म च विभिन्नमिष्यते।
निश्चयेन यदि वस्तु चिन्त्यते
कर्त कर्म च सदैकमिष्यते।। २१०।।
भवतु] अथवा कर्ता अने भोक्ता बन्ने न हो; [वस्तु एव सञ्चिन्त्यताम्] वस्तुने ज अनुभवो. [निपुणैः सूत्रे इव इह आत्मनि प्रोता चित्–चिन्तामणि–मालिका क्वचित् भेत्तुं न शक्या] जेम चतुर पुरुषोए दोरामां परोवेली मणिओनी माळा भेदी शकाती नथी, तेम आत्मामां परोवेली चैतन्यरूप चिंतामणिनी माळा पण कदी कोईथी भेदी शकाती नथी; [इयम् एका] एवी आ आत्मारूपी माळा एक ज, [नः अभितः अपि चकास्तु एव] अमने समस्तपणे प्रकाशमान हो (अर्थात् नित्यत्व, अनित्यत्व आदिना विकल्पो छूटी आत्मानो निर्विकल्प अनुभव अमने हो).
भावार्थः– आत्मा वस्तु होवाथी द्रव्यपर्यायात्मक छे; तेथी तेमां चैतन्यना परिणमनरूप पर्यायना भेदोनी अपेक्षाए तो कर्ता-भोक्तानो भेद छे अने चिन्मात्र द्रव्यनी अपेक्षाए भेद नथी; एम भेद-अभेद हो. अथवा चिन्मात्र अनुभवनमां भेद- अभेद शा माटे कहेवो? (आत्माने) कर्ता-भोक्ता ज न कहेवो, वस्तुमात्र अनुभव करवो. जेम मणिओनी माळामां मणिओनी अने दोरानी विवक्षाथी भेद-अभेद छे परंतु माळामात्र ग्रहण करतां भेदाभेद-विकल्प नथी, तेम आत्मामां पर्यायोनी अने द्रव्यनी विवक्षाथी भेद-अभेद छे परंतु आत्मवस्तुमात्र अनुभव करतां विकल्प नथी. आचार्य महाराज कहे छे के-एवो निर्विकल्प आत्मानो अनुभव अमने प्रकाशमान हो. २०९.
हवे आगळनी गाथाओनी सूचनारूप काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः– [केवलं व्यावहारिकद्रशा एव कर्तृ च कर्म विभिन्नम् इष्यते] केवळ व्यावहारिक द्रष्टिथी ज कर्ता अने कर्म भिन्न गणवामां आवे छे; [निश्चयेन यदि वस्तु चिन्त्यते] निश्चयथी जो वस्तुने विचारवामां आवे, [कर्तृ च कर्म सदा एकम् इष्यते] तो कर्ता अने कर्म सदा एक गणवामां आवे छे.
भावार्थः– केवळ व्यवहार-द्रष्टिथी ज भिन्न द्रव्योमां कर्ता-कर्मपणुं गणवामां आवे छे; निश्चय-द्रष्टिथी तो एक ज द्रव्यमां कर्ता-कर्मपणुं घटे छे. २१०.
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हवे गाथाओमां अनेकान्तने प्रगट करीने क्षणिकवादने स्पष्ट रीते निषेधे छेः-
‘जीव, प्रतिसमये संभवता (-दरेक समये थता) अगुरुलघुगुणना परिणाम द्वारा क्षणिक होवाथी अने अचलित चैतन्यना अन्वयरूप गुण द्वारा नित्य होवाथी, केटलाक पर्यायोथी विनाश पामे छे अने केटलाक पर्यायोथी नथी विनाश पामतो- एम बे स्वभाववाळो जीवस्वभाव छे;...’
‘जीव, प्रतिसमये संभवता...’ , प्रत्येक समये संभवता... अहाहा.....! भाषा देखो; एम के प्रतिसमय जे पर्याय (निश्चित) संभवित छे ते संभवे छे, थाय छे-एम कहे छे. समजाणुं कांई...? आ विकारी भाव कर्मने लईने थाय छे, वा कर्म विकारने करे छे ने कर्म खसी जाय तो धर्म थाय एम जे माने छे ते पर्याय सत् छे ने ते पोताथी थाय छे एम मानतो नथी. तेने पर्याय ने द्रव्यनी स्वतंत्रतानी खबर नथी. वास्तवमां दरेक समये जे पर्याय थवानी होय ते ज थाय छे. वस्तु त्रिकाळ नित्य छे ने तेनी प्रतिसमय थनारी पर्याय जे थवानी होय ते थाय छे. परने लईने के कर्मने लईने ते थती नथी. बदलती नथी. आवी वस्तुस्थिति छे.
जेम मोतीनो हार होय छे तेमां हार छे ते द्रव्य, दोरो ते गुण अने जे मोती छे ते पर्यायना स्थाने छे. तेमां हार ने दोरो तो कायमी चीज छे, ने मोतीना दाणा तेमां दरेक क्रमसर छे. पोतपोताना निश्चित स्थानमां रहेला क्रमसर छे. पहेलुं मोती, पछी बीजुं, पछी त्रीजुं -एम प्रत्येक मोती नियत स्थानमां रहेलुं क्रमबद्ध छे. तेम आत्मा त्रिकाळी नित्य द्रव्य छे, तेना ज्ञानादि गुण नाम शक्तिओ त्रिकाळ नित्य छे अने तेमां जे पर्यायो थाय छे ते प्रत्येक समयेसमये नियत क्रममां जे थवानी होय ते ज थाय छे; कोई पर्याय आगळ-पाछळ थती नथी. झीणी वात छे. द्रव्यमां जे पर्याय जे काळे थवानी होय ते काळे ते ज त्यां थाय छे. ‘प्रतिसमये संभवता...’ , एम टीकामां छे ने? ए ‘संभवता’ शब्दनो आ आशय छे. प्रतिसमय जे पर्याय थवानी होय ते ज क्रमबद्ध थाय, तेमां कोई अन्य फेरफार करी शके नहि. आ प्रमाणे आत्मा परनो अकर्ता अर्थात् केवळ ज्ञाताद्रष्टा ज छे एम सिद्ध थाय छे.
भगवानना ज्ञानमां त्रणलोक त्रणकाळ जणाया छे. प्रत्येक, द्रव्यनी अनादि-अनंत त्रणकाळनी धारावाही प्रगट थनारी पर्यायो भगवानना केवळज्ञानमां जणाई छे. एनो अर्थ शुं? के आ शरीर, मन, वाणी, ईन्द्रियो इत्यादि समस्त परद्रव्यनी
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पर्यायोनो कर्ता आत्मा नथी. प्रथम आवी साची श्रद्धा सहित द्रव्यद्रष्टि प्रगट करे एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. भाई! त्रिकाळी द्रव्यनी द्रष्टि थया विना पर्यायनुं साचुं ज्ञान थतुं नथी. द्रव्य-द्रष्टि अने सम्यग्दर्शन ए तो धर्मनी पहेली सीढी छे. चारित्र तो ए पछीनी वात छे.
अहीं बीजी वात सिद्ध करवी छे. अहीं कहे छे-आत्मामां एक अगुरुलघु नामनो गुण छे, ते त्रिकाळ छे पण तेनुं वर्तमान परिणाम क्षणिक छे, तो ते क्षणिक परिणाम द्वारा, कहे छे, जीव क्षणिक छे अने अचलित चैतन्यना अन्वयरूप गुणद्वारा जीव नित्य छे. अहाहा...! चैतन्य... चैतन्य... चैतन्य... एम चैतन्यना सद्रश प्रवाहरूप जे अचलित चैतन्य तेना द्वारा, कहे छे, जीव नित्य छे. ल्यो, आवी वस्तु! केटलाक पर्यायोथी विनाश पामे छे ने केटलाक पर्यायोथी नथी विनाश पामतो-एम बे स्वभाववाळो जीवस्वभाव छे. एटले शुं? के प्रतिसमय पलटती ने नवी नवी थती पर्यायनी अपेक्षाए जीव विनाश पामे छे अने केटलीक पर्यायोथी एटले अचलित नित्य रहेता चैतन्यनी अपेक्षाए-नित्य गुणनी अपेक्षाए जीव विनाश पामतो नथी. आमां पर्याय शब्दे गुण समजवा. भेद पडयो ने? माटे तेने अहीं पर्याय कहेल छे. जीवद्रव्य पोताना चैतन्यगुणथी विनाश पामतुं नथी, शाश्वत अविनाशी छे. आम पर्यायस्वभाव अने गुणस्वभाव -एम बे स्वभाववाळुं द्रव्य छे. तेने पर साथे कांई संबंध नथी.
हवे कहे छे- ‘तेथी “ जे करे छे ते ज भोगवे छे” अथवा “बीजो ज भोगवे छे,” “जे भोगवे छे ते ज करे छे” अथवा “बीजो ज करे छे” -एवो एकांत नथी.’
शुं कीधुं? जीव द्रव्यपर्यायरूप नित्यस्वभाव अने अनित्यस्वभाव -एम बे स्वभाववाळो छे. तेथी-
जे करे छे ते ज भोगवे छे अथवा बीजो ज भोगवे छे-एवो एकांत नथी. तथा- जे भोगवे छे ते ज करे छे अथवा बीजो ज करे छे-एवो एकांत नथी. भाई! आ तो हजु तत्त्व केवुं छे तेनो निर्णय करवानी वात छे; तेनो अनुभव करवो ए तो पछीनी वात छे. कहे छे-जे करे छे ते ज भोगवे छे-एम एकांत नथी; अथवा बीजो ज भोगवे छे एवो एकांत नथी, केमके पर्याय अपेक्षाए कार्य करे छे एक पर्याय, अने भोगवे छे अन्य पर्याय, तथा द्रव्य अपेक्षाए जे (द्रव्य) करे छे ते ज भोगवे छे. आम अनेकान्त छे. समजाय छे कांई...?
जे भोगवे छे ते ज करे छे-एम एकांत नथी, अथवा बीजो ज करे छे एवो एकांत नथी; केमके भोगवे छे अन्य पर्याय अने करे छे अन्य पर्याय, तथा द्रव्य अपेक्षाए जे (द्रव्य) भोगवे छे ते ज करे छे. आम अनेकान्त छे. आवी वातु बहु झीणी!
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पण अरे! एने क्यां नवराश छे? पण बापु! तत्त्वनो निर्णय कर्या विना चोरासीना अवतारमां क्यांय ढोरमां ने नरक-निगोदमां अवतार करी करीने मरी गयो तुं. कदाचित् साधु थयो ने महाव्रतादि पाळ्यां तोय रागथी अंदर मारी चीज भिन्न छे एवुं भान कर्या विना मिथ्यात्ववश चारगतिमां रझळी मर्यो ने दुःखी ज थयो. भाई! आ अवसर छे हों. (एम के आ भवमां तत्त्वनिर्णय करी ले).
हवे कहे छे- ‘आम अनेकान्त होवा छतां, “ जे (पर्याय) ते क्षणे वर्ते छे, तेने ज परमार्थ सत्पणुं होवाथी, ते ज वस्तु छे” एम वस्तुना अंशमां वस्तुपणानो अध्यास करीने शुद्धनयना लोभथी ऋजुसूत्रनयना एकांतमां रहीने जे एम देखे-माने छे के “जे करे छे ते ज नथी भोगवतो, बीजो करे छे अने बीजो भोगवे छे,” ते जीव मिथ्याद्रष्टि ज देखवो-मानवो; कारण के वृत्त्यंशोनुं (पर्यायोनुं) क्षणिकपणुं होवा छतां, वृत्तिमान (पर्यायी) जे चैतन्य-चमत्कार (आत्मा) ते तो टंकोत्कीर्ण (नित्य) ज अंतरंगमां प्रतिभासे छे.’
अहा! आ शरीर, मन, वाणी इत्यादि तो पर छे. ते पोताना कारणे टके छे ने पोताना कारणे बदले छे; तेमां आत्मा बीलकुल कारण नथी. छतां एनी संभाळ हुं करुं एम जे माने छे ते मूढ मिथ्याद्रष्टि छे. अहीं विशेष वात छे. आत्मा-द्रव्य पर्यायरूपथी अनित्य अने द्रव्यरूपथी नित्य -एम अनेकान्तमय छे. छतां जे क्षणिक पर्यायने ज परमार्थ सत्य आत्मा माने छे, त्रिकाळी नित्य द्रव्यने मानतो नथी ते मूढ छे, मिथ्याद्रष्टि छे. एक समयनी पर्यायमां आखुं तत्त्व माने छे ते मूढ छे. अहा! वस्तुना एक अंशमां वस्तुपणानो अध्यास करीने एक समयनी अवस्थामां जे आखो त्रिकाळी आत्मा माने छे ते मूढ छे, अज्ञानी छे.
अहा! शुद्धनयना लोभथी ऋजुसूत्रनयना एकांतमां रहीने जे माने छे के- “जे करे छे ते ज नथी भोगवतो, बीजो करे छे अने बीजो भोगवे छे” -ते जीव मिथ्याद्रष्टि ज छे. शुं कीधुं? एक समयनी अवस्था (अवस्थागत द्रव्य) बीजे समये रहे तो शुद्धनयनो नाश थई जाय, तेमां काळनी उपाधि आवतां अशुद्धि आवी जाय-एम मानीने एक समयना अंशमां ज आखी चीज (द्रव्य) माने छे ते जीव, कहे छे, मिथ्याद्रष्टि छे.
अहा! अज्ञानीनी एक समयनी पर्यायमां ज अनादिथी रमत छे-एक समयनी पर्याय पाछळ आखुं ध्रुव नित्य चैतन्यतत्त्व पडयुं छे एनी एने खबर नथी. अरे! ए मोटो त्यागी थयो, साधु थयो पण पर्यायमूढ ज रह्यो. अहा! एणे महाव्रतादिना रागनी रुचिमां रहीने अंदर रहेला पोताना नित्यानंद-चिदानंदस्वरूप अंतःतत्त्वने विसारी दीधुं; द्रष्टिमां लीधुं नहि.
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जेम आंखनी कीकी सामे नानकडुं तणखलुं आवे तो सामे रहेलो मोटो पहाड पण देखाय नहि; तेम अरे! एक समयनी पर्यायनी रुचि-द्रष्टिनी आडमां एणे महान पोताना चिदानंद चैतन्य भगवानने देख्यो नहि!
आ देह तो क्षणिक नाशवंत छे. तेना छूटवाना काळे ते अवश्य छूटी जशे. तेनी स्थिति पूरी थये जीव बीजे चाल्यो जशे. शुं कीधुं? आ शरीर तो फू थई उडी जशे ने जीव बीजे चाल्यो जशे. अरे! पण ए क्यां जशे? अरे! एणे आ भवमां तीव्र लोभ ने मायाना-आडोडाईना भाव कर्या हशे तो ढोरमां-तिर्यंचमां जशे. आडोडाईना भावना फळमां शरीर पण आडां तिर्यंचना मळे छे. शुं थाय? आवा आवा तो अनंत भव एणे कर्या छे. एक समयनी पर्याय जेटलो आत्मा नथी, ते त्रिकाळ नित्य वस्तु छे-आम यथार्थ मान्युं नहि तेथी मिथ्यात्वना भाव सेवीने तेना फळमां ते नरकादि चारगतिमां रझळ्यो ज छे. अहा! एक समयनी पर्यायथी अधिक एवा नित्यानंद स्वभावनी द्रष्टि कर्या विना ते चारगतिनां घोरातिघोर दुःख पाम्यो छे. तेना दुःखनुं केम करीने कथन करीए? ए अकथ्य छे.
अहीं कहे छे-एक समयनी पर्यायमां आखी (त्रिकाळी) चीज छे एवुं मानीने शुद्धनयना लोभथी ऋजुसूत्रनयना एकांतमां रहीने जे एम माने छे के-“जे करे छे ते ज नथी भोगवतो, बीजो करे छे अने बीजो भोगवे छे”- ते जीव मिथ्याद्रष्टि ज मानवो. झीणी वात भाई! आत्मा बीजे समये रहे तो काळनी उपाधिना कारणे अशुद्धता आवी जशे एम मानीने, वर्तमान समय जेटलो आत्मा छे एम जेओ कल्पना करे छे. तेओ मिथ्याद्रष्टि ज छे एम मानवुं. भाई! आ वीतराग परमेश्वरे कहेलुं तत्त्व आवुं छे. परने-शरीर, मन, वाणी, स्त्री-पुत्र-परिवार, धन-संपत्ति आदिने-पोतानुं माने ए तो मूढ ज छे, पण एक समयनी पर्याय ज हुं आखो आत्मा छुं एम एकांते माने एय मूढ छे, मिथ्याद्रष्टि छे; कारण के पर्यायोनुं क्षणिकपणुं होवा छतां, पर्यायवान जे चित्चमत्कार आत्मा छे ते तो नित्य शाश्वत ज अंतरंगमां प्रतिभासे छे. अहाहा...! वस्तु तो अंदर नित्य ज प्रकाशी रही छे.
करनारी पर्याय ने भोगवनारी पर्याय बीजी-बीजी छे, पण द्रव्य बीजुं नथी. पर्यायमां जे आत्माए राग कर्यो ते ज आत्मा तेनुं फळ-दुःख भोगवे छे; बीजी पर्यायमां फळ-दुःख भोगवनारो ते ज आत्मा छे. माटे बीजो करे छे ने बीजो भोगवे छे एवी एकांत मान्यता जूठी छे, मिथ्या छे.
भाई! सम्यग्दर्शननी पर्याय एक समयनी छे ते क्षणिक छे, परंतु तेनो जे
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विषय छे ते त्रिकाळी ध्रुव नित्यानंद प्रभु छे. हवे जे नित्य ध्रुव चैतन्य-तत्त्वने स्वीकारतो नथी तेने समकित केम थाय? तेनो संसार केम मटे?
एक बारोट कहेता-संप्रदायना आ वर्तमान साधुओमां एवुं थई गयुं छे के-सवारे चा-पाणी, बपोरे माल-पाणी, बे वागे ऊंघ ताणी, अने सांजे धूळ धाणी; (आ सरवाळो!) अरे! अज्ञानी जीवो आम शरीरनी संभाळमां रोकाई गया छे. अंदर पोतानुं शुद्ध तत्त्व शुं छे एनी एमने कांई पडी नथी. परंतु भाई! आ जिंदगी चाली जाय छे हों. त्रिलोकीनाथ अरिहंत परमेश्वर तो एम फरमावे छे के- शरीरादि परचीज तुं नहि; तुं एमां नहि ने ए तारामां नहि. अरे! आ तारी अवस्था जे क्षणेक्षणे बदलाय छे ते पण तुं नहि एवो आनंदनो नाथ सच्चिदानंदस्वरूप तुं भगवान छो. तेने द्रष्टिमां लई तेमां ज लीन थई रहेतां जे आनंद अने शांति प्रगटे ते सद्आचरण छे. अंदर सत् त्रिकाळी प्रभु छे तेनुं आचरण ते सद्आचरण छे. बाकी तो बधुं संसार खाते छे.
अहाहा...! जेना ज्ञानस्वभावमां त्रणकाळ-त्रणलोकने जाणवानी शक्ति छे एवो चित्चमत्कार प्रभु तुं आत्मा छो. आचार्य कहे छे-आवो आत्मा अंतरंगमां नित्य ध्रुव प्रतिभासे छे. अहा! आवी पोतानी चीजने न देखतां एक समयनी पर्यायने आखी चीज मानी तुं त्यां रोकाई गयो भगवान! पण ए तो तारी मूढता छे, अज्ञानता छे.
‘वस्तुनो स्वभाव जिनवाणीमां द्रव्यपर्यायस्वरूप कह्यो छे; माटे स्याद्वादथी एवो अनेकान्त सिद्ध थाय छे के पर्याय-अपेक्षाए तो वस्तु क्षणिक छे अने द्रव्यअपेक्षाए नित्य छे.
जीव पण वस्तु होवाथी द्रव्यपर्यायस्वरूप छे. तेथी, पर्यायद्रष्टिए जोवामां आवे तो कार्यने करे छे एक पर्याय, अने भोगवे छे अन्य पर्याय; जेमके -मनुष्यपर्याये शुभाशुभ कर्म कर्या अने तेनुं फळ देवादि पर्याये भोगव्युं. द्रव्यद्रष्टिए जोवामां आवे तो, जे करे छे ते ज भोगवे छे; जेमके-मनुष्यपर्यायमां जे जीवद्रव्ये शुभाशुभ कर्म कर्यां, ते ज जीवद्रव्ये देवादि पर्यायमां पोते करेलां कर्मनुं फळ भोगव्युं.’
जुओ, शुं कहे छे? के देवाधिदेव जिनेन्द्रदेवनी वाणीमां वस्तुनो स्वभाव द्रव्यपर्यायस्वभाव निरूप्यो छे. त्यां द्रव्य छे ते त्रिकाळ नित्य छे अने जे पर्याय छे ते क्षणिक छे. पर्याय छे ते क्षणेक्षणे बदलती होवाथी क्षणिक छे, अने द्रव्य तो उत्पाद- व्ययरहित त्रिकाळ शाश्वत नित्य छे. आवुं वस्तुनुं अनेकान्त स्वरूप छे जे
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स्याद्वादथी सिद्ध थाय छे. ते आ रीते; के पर्याय अपेक्षाए वस्तु क्षणिक छे अने द्रव्य- अपेक्षाए ते नित्य छे. टकीने पलटवुं ने पलटीने टकी रहेवुं-ए द्रव्य नाम वस्तुनो स्वभाव छे.
त्यां कोई वळी कहे-महाराज! आ द्रव्य वळी शुं छे? स्वाध्याय मंदिरमां दिवाल पर लखेलुं छे ने के-“द्रव्यद्रष्टि ते सम्यग्द्रष्टि” आ जोईने ते कहे -आ द्रव्य एटले आ पैसावाळा जे बधा आवे छे ते सम्यग्द्रष्टि छे एम ने? ल्यो, आवुं पूछेल!
त्यारे कह्युं- भाई! द्रव्य एटले तमारा पैसानी आ वात नथी. बापु! अहीं पैसानुं शुं काम छे? पैसा तो जड माटी-धूळ छे. अहीं तो द्रव्य एटले अंतरंग वस्तु जे त्रिकाळी चिन्मात्र चीज एनी द्रष्टि करवी ते सम्यग्दर्शन छे अने एनुं नाम “द्रव्यद्रष्टि ते सम्यग्द्रष्टि” छे. बाकी पैसानी-धूळनी द्रष्टिवाळा तो बधाय पापी मूढ मिथ्याद्रष्टि छे. समजाणुं कांई....?
जीव पण वस्तु होवाथी द्रव्यपर्यायस्वरूप छे. पर्यायनी अपेक्षाए ते क्षणिक छे, अने द्रव्यनी अपेक्षाए ध्रुव नित्य छे. आम होवाथी, पर्यायद्रष्टिए जोतां कार्य करे छे एक पर्याय, अने भोगवे छे अन्य पर्याय. जेमके कोई मोटो राजा होय ते अधिकार-सत्ताना नशामां आवीने अनेक घोर पाप उपजावे तो मरीने जाय नरकमां; त्यां घोर दुःख भोगवे. मनुष्य पर्यायमां करेलां पापनुं फळ नरकनी पर्यायमां भोगवे. वळी कोई श्रद्धावान दयाळु सद्गृहस्थ होय ते अनेक प्रकारे दानादि पुण्य कार्य करे ने मरीने स्वर्गमां जाय; त्यां अनेक प्रकारना भोग भोगवे. आम मनुष्यपर्यायमां करेला पुण्यकार्यनुं फळ देवनी पर्यायमां भोगवे. आ प्रमाणे पर्यायथी जोईए तो कार्यने करे छे एक पर्याय ने भोगवे छे बीजी पर्याय.
परंतु द्रव्यद्रष्टिथी जोवामां आवे तो, जे करे छे ते ज भोगवे छे. मनुष्य पर्यायमां जे जीवद्रव्य शुभ के अशुभ कार्य करे छे ते ज जीवद्रव्य देव के नारकीनी पर्यायमां पोते करेला कर्मनुं फळ भोगवे छे. द्रव्यनी अपेक्षा तो जे करनार आत्मा छे ते ज भोगवनार छे. पर्याय तरीके अनेरी अनेरी पर्याय छे, पण द्रव्य तरीके तो एनुं ए ज द्रव्य करवा- भोगववापणे छे. आवो अनेकांत छे. हवे कहे छे-
‘आ रीते वस्तुनुं स्वरूप अनेकान्तरूप सिद्ध होवा छतां, जे जीव शुद्धनयने समज्या विना शुद्धनयना लोभथी वस्तुना एक अंशने (-वर्तमान काळमां वर्तता पर्यायने) ज वस्तु मानी ऋजुसूत्रनयना विषयनो एकांत पकडी एम माने छे के “जे करे छे ते ज भोगवतो नथी-अन्य भोगवे छे, अने जे भोगवे छे ते ज करतो
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-अन्य करे छे,” ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे. अर्हंतना मतनो नथी; कारण के पर्यायोनुं क्षणिकपणुं होवा छतां, द्रव्यरूप चैतन्यचमत्कार तो अनुभवगोचर नित्य छे;.....’
शुं कीधुं? वस्तु तो अनेकान्तमय ज छे. वर्तमान पर्याय जे भाव करे तेनुं फळ बीजी भविष्यनी पर्याय भोगवे छे तेथी करीने कांई आत्मद्रव्य बदलाई जतुं नथी के नष्ट थई जतुं नथी, आत्मा तो ते पर्यायोमां तेनो ते ज रहे छे. द्रव्यनी अपेक्षाए तो जे द्रव्ये वर्तमान पर्यायमां कार्य कर्युं छे ते ज द्रव्य बीजी क्षणे तेना फळने भोगवे छे.
प्रश्नः– द्रव्य तो भोगवतुं नथी ने? उत्तरः– पर्यायने द्रव्य करतुं नथी अने द्रव्य भोगवतुं नथी ए वात अहीं अत्यारे नथी; अहीं बीजी वात छे. अहीं तो पर्यायोमां द्रव्य अन्वयरूप रहेलुं छे एम द्रव्य ने पर्याय बन्नेने सिद्ध करवां छे. तेथी कह्युं के पर्याय अपेक्षा जे पर्याय करे छे ते भोगवती नथी, पछीनी बीजी पर्याय भोगवे छे तथापि द्रव्य अपेक्षाए तो जे करे छे ते ज भोगवे छे. अहीं तो एक पर्यायमां ज (आत्मा जाणीने) रमतु मांडी छे तेने तेथी अधिक आत्मद्रव्य त्रिकाळस्वरूपे नित्य रहेलुं छे तेनुं भान कराववुं छे. समजाणुं कांई....? तेने पर्यायबुद्धि छोडावीने द्रव्यद्रष्टि कराववी छे.
अरे भाई! त्रिकाळी नित्य निज द्रव्यनी द्रष्टि कर्या विना ज तुं अनंतकाळथी चतुर्गति संसारमां रझळी रह्यो छो. अहाहा....! जुओने! कंदमूळनी एक नानकडी कटकीमां असंख्य औदारिक शरीर छे अने ते दरेक शरीरमां अनंत अनंत निगोदना जीव छे. जे अनंत सिद्ध थया ने हवे थशे एनाथी अनंतगुणा जीव ते दरेक शरीरमां छे, ते दरेक अंदर द्रव्यस्वरूपथी भगवानस्वरूप छे; पण अरे! एने क्यां खबर छे? एने क्यां भान छे? अरेरे! आवी हीन दशा! भाई! निगोदमांथी नीकळी अनंतकाळेय त्रस थवुं मुश्केल छे. तेमांय वळी मनुष्यपणुं ने जैनकुळ अने जिनवाणीनो समागम मळवां महा दुष्कर- दुर्लभ छे, तने आवी साची वात सांभळवा मळी ने हवे तारे कोने राजी राखवा छे? तारे कोनाथी राजी थवुं छे? (एम के तुं अंदर पोते परमानंदमय भगवानस्वरूप छो तेने ज राजी कर ने तेमां ज राजी था).
अहीं पर्यायबुद्धिवाळा क्षणिकवादी जीवोने जाग्रत करीने कहे छे-भाई! तुं तो अंदर त्रिकाळी तत्त्व छो ने प्रभु! अहाहा....! जेनो आश्रय करवो छे एवो नित्य चैतन्यपरमेश्वर तुं छो ने नाथ! आश्रय करनारी तो पर्याय छे, पण तेनुं आश्रयस्थान एवो आत्मा चैतन्यचमत्कार प्रभु त्रिकाळी नित्य छे. ते एकना आश्रये ज समकित आदि धर्म थाय छे. आश्रयभूत नित्य द्रव्य ने आश्रय करनारी पर्याय -एम बन्ने मळीने वस्तु पूर्ण छे अने आवुं वस्तुनुं अनेकान्तस्वरूप छे.
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अहीं कहे छे-वस्तु आवी अनेकांतमय होवा छतां, शुद्धनयने समज्या विना, वस्तुने जो त्रिकाळी मानशुं तो तेने काळनी उपाधि आवी जशे एम विचारी एकांते एक समयनी पर्यायने ज आत्मा मानीने, “ जे करे छे ते ज भोगवतो नथी, -अन्य भोगवे छे अने जे भोगवे छे ते ज करतो नथी, -अन्य करे छे”-एम जेओ माने छे तेओ मिथ्याद्रष्टि छे, तेओ अर्हंतना मतना नथी. भाई! शुद्धनयना लोभथी वस्तुना एक अंशने ज आखी वस्तु माने छे तेओ मिथ्याद्रष्टि ज छे पछी बहारमां भले ते जैनो जेवा देखाता होय.
अरे भगवान! अनंतकाळमां अनंत वार तुं जैननो नग्न दिगंबर साधु थयो, हजारो राणीओ छोडीने ब्रह्मचर्यनुं पालन कर्युं, छ छ मासनां आकरां उपवासादि तप कर्यां, पण अंदर आनंदनो नाथ नित्यानंद प्रभु आत्मा छे तेनी द्रष्टि करी नहि! अहाहा...! वर्तमान वर्तमान वर्तती पर्यायनी पाछळ अंदर चिदानंद स्वभावथी भरेलो भगवान आखो पडयो छे पण अरेरे! पर्यायनी रमतुमां मूर्छाईने तेने जोयो नहि!
पर्यायमां दया, दान, व्रत आदिना जे भाव थाय ते क्षणिक विकारना परिणाम छे. तेने धर्म माननारा पण पर्यायद्रष्टि ज छे, केमके तेमने अंदर त्रिकाळी नित्य चैतन्यद्रव्यनो स्वीकार थयो नथी. अहाहा...! आत्मा आनंदनो नाथ अंदर चैतन्यचमत्कार प्रभु अनुभवगोचर नित्य एक ज्ञायकपणे रहेलो छे. छट्ठी गाथामां एक शुद्ध ज्ञायकभाव कह्यो छे ने! अहा! आवा निज नित्य द्रव्यनी द्रष्टि कर्या विना पर्यायमां रमतु मांडीने तेमां (-शुभरागमां) संतुष्ट थयो छे ते, कहे छे, मिथ्याद्रष्टि छे. भाई! निज चैतन्यचमत्कार- वस्तुनुं भान कर्या विना जीव मिथ्याद्रष्टि ज छे. आवी वात!
वर्तमान (-पर्याय) ज वस्तुनुं सर्वस्व छे; त्रिकाळ मानीए तो उपाधि आवी जाय, अशुद्धता थई जाय एम विचारीने ‘जे करे छे ते ज भोगवतो नथी, अन्य भोगवे छे, अने जे भोगवे छे ते करतो नथी, अन्य करे छे’ -एम जे जीव माने छे ते मिथ्याद्रष्टि छे, अर्हंतना मतनी बहार छे; केम? केमके पर्यायोनुं क्षणिकपणुं होवा छतां, द्रव्यरूप चैतन्यचमत्कार तो अनुभवगोचर नित्य छे.
ए ज सिद्ध करे छे- ‘प्रत्यभिज्ञानथी जणाय छे के “बाळक अवस्थामां जे हुं हतो ते ज हुं तरुण अवस्थामां हतो अने ते ज हुं वृद्ध अवस्थामां छुं.” आ रीते जे कथंचित् नित्यरूपे अनुभवगोचर छे-स्वसंवेदनमां आवे छे अने जेने जिनवाणी पण एवो ज गाय छे, तेने जे न माने ते मिथ्याद्रष्टि छे एम जाणवुं.’
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आत्मा कथंचित् एटले द्रव्यस्वभावे नित्य अनुभवगोचर छे. तो पछी पर्यायनुं शुं? पर्याय छे ने; पर्याय छे अने वर्तमान वर्तती जे पर्याय द्रव्यनी द्रष्टि करीने प्रगट थाय छे तेमां ‘आ हुं नित्य चिदानंदस्वरूप ध्रुव छुं’ -एम जणाय छे. भाई! त्रिकाळी ध्रुव नित्य द्रव्य जे छे ते ज सम्यग्दर्शननो विषय छे. सम्यग्दर्शननो विषय भूतार्थ, सत्यार्थ त्रिकाळी नित्य चैतन्यचमत्कार छे. हवे तेने न जुए, तेने न परखे ते, कहे छे, बौद्धमतीनी जेम मिथ्याद्रष्टि छे एम जाणवुं.
वस्तु-आत्मा तो प्रत्यक्ष स्वसंवेदनमां जणाय एवी चीज छे, स्वसंवेदन छे ते पर्याय छे, पण ते त्रिकाळी ध्रुव नित्यानंदस्वरूपने नजरमां ले छे अने त्यारे ते पर्यायमां ‘आ हुं नित्यानंद प्रभु छुं’ -एम भान थईने निराकुळ आनंदनुं वेदन थाय छे. आवी सूक्ष्म वात छे प्रभु!
अरे भाई! बाळपणमां हतो ते ज आ तुं वर्तमान छे. भगवान! एक क्षणमां आ देह छूटी जशे, मसाणमां राखना ढगला थई जशे; बधुंय फरी जशे, ने तुं क्यांय (भवसमुद्रमां) जईने पडीश. माटे अंदर त्रिकाळ नित्य आनंदनो ढगलो पडयो छे तेनी उपर नजर नाख; तेनो विश्वास कर, तेनो ज सत्कार कर. जिनवाणीमां पण आ ज कह्युं छे. अहा! जिनवाणी पण एम ज गाय छे के- आत्मा स्वसंवेदनमां जणाय एवो नित्यानंद ज्ञानानंद प्रभु छे.
पहेलां ‘अनसूया’ नुं नाटक भजवातुं ते जोयेलुं. अनसूयाने बाळक थाय छे; तेने ते पारणामां हुलरावे छे त्यारे गाय छे-बेटा! शुद्धोऽसि, बुद्धोऽसि, उदासीनोऽसि, निर्विकल्पोऽसि! बेटा! तुं शुद्ध छो, बुद्ध छो, उदासीन छो, निर्विकल्प छो! ल्यो, ए वखते नाटकमां पण आवुं आवतुं! अत्यारे तो बधुं बगडी गयुं; अत्यारे तो बस शृंगार ज शृंगार; नफटाईनी कोई हद नहि. त्यारे तो वैराग्यरसथी भरेलां नाटक भजवातां. अहीं पण कहे छे-बधी पर्यायोथी खसीने अंदर नित्य द्रव्यमां रहे एवो भगवान आत्मा अंदर निर्विकल्प छे, शुद्ध छे, बुद्ध छे. जिनवाणी पण एने एवो ज गाय छे.
अहा! पर्यायना प्रेममां पडीने आवा महिमावंत नित्य शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूपने जे मानतो नथी ते, कहे छे, मिथ्याद्रष्टि छे -एम जाणवुं. समजाणुं कांई....?
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
‘आत्मानम् परिशुद्धम् ईप्सुभिः परैः अन्धकैः’ आत्माने समस्तपणे शुद्ध ईच्छनारा
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बीजा कोई अंधोए– ‘पृथकैः’ बालिश जनोए (बौद्धोए) – ‘काल–उपाधि–बलात् अपि तत्र अधिकाम् अशुद्धिम् मत्वा’ काळनी उपाधिना कारणे पण आत्मामां अधिक अशुद्धि मानीने ‘अतिव्याप्तिं प्रपद्य’ अतिव्याप्तिने पामीने, ‘शुद्ध–ऋजुसूत्रे रतैः’ शुद्ध ऋजुसूत्रनयमां रत थया थका ‘चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प्य’ चैतन्यने क्षणिक कल्पीने, ‘अहो एषः आत्मा व्युज्झितः’ आ आत्माने छोडी दीधो; ‘निःसूत्र–मुक्ता–ईक्षिभः हारवत्’ जेम हारमांनो दोरो नहि जोतां केवळ मोतीने ज जोनाराओ हारने छोडी दे छे तेम.
शुं कहे छे? के कोई बालीश जनो-अज्ञानीओ, आत्मा वर्तमान क्षणिक छे ते शुद्ध छे, तेने नित्य मानीए तो अशुद्ध थई जाय-एम माने छे. काळनी उपाधिना कारणे आत्माने नित्य मानीए तो अशुद्धता आवी पडे एम विचारीने, चैतन्यने क्षणिक कल्पीने तेमणे आ (त्रिकाळी ध्रुव) आत्माने छोडी दीधो छे.
खरेखर तो वस्तु जे नित्य छे ते शुद्ध छे. भगवान सर्वज्ञदेवे जे नित्य एकरूप वस्तु (-आत्मा) जोई छे ते अत्यंत शुद्ध छे, अने तेनो आश्रय पामीने वर्तमान पर्याय पण समकित आदि शुद्धताने प्राप्त थाय छे. आ वास्तविक वस्तुस्वरूप छे. पण आ कोई अंधो-बौद्धमतीओ एम कहे छे के -आत्माने नित्य मानीए तो काळनी उपाधि आवी पडतां आत्मा अशुद्ध थई जाय, केमके एम मानवाथी अतिव्याप्ति दोष आवी जाय छे. आत्माने एक समय पूरतो क्षणिक कल्प्यो छे ने? तेथी बीजे समये ते आत्मा छे एम मानतां अतिव्याप्ति दोष आवी जाय-एम (ते अज्ञानीओ) कहे छे. आम आ दोषना भयथी शुद्ध ऋजुसूत्रनयमां रत थया थका तेओए आ आत्माने छोडी दीधो छे. ल्यो, आवी वातु छे.
बहारथी बायडी-छोकरां, दुकान ने धंधा-वेपार इत्यादि छोडी दीधां पण एणे पर्यायबुद्धि छोडी नहि! जे छोडवानुं छे ते छोडयुं नहि ने जे छोडवानुं नथी (छूटुं ज छे.) ते तेने रह्युं नहि (केमके संयोग तो संयोगना कारणे छूटी गया छे). भाई परद्रव्यने-संयोगी पदार्थोने आत्मा क्यां छोडे छे? आत्मामां एक त्याग उपादानशून्यत्व नामनी शक्ति छे. आ शक्तिना कारणे आत्माने परनां त्याग-ग्रहण छे ज नहि. तथापि परनो त्याग करुं तो मने धर्म थाय एम जो कोई माने छे तो ते मान्यता मिथ्यात्व छे, केमके परने ग्रहवुं-छोडवुं आत्मामां छे ज नहि. रागने एक समयनी पर्यायमां अज्ञानीए पकडयो छे, तेथी रागने छोडे छे एम कहीए; ते पण कथनमात्र हों, केमके त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यचमत्कार प्रभु आत्माने ग्रहतां रागादि अशुद्धता उत्पन्न थती नथी तो एणे रागने छोडयो एम कहीए छीए, वास्तवमां तो एणे पोताना चैतन्यस्वरूपनुं ग्रहण ज कर्युं छे. पहेलां राग हतो, चैतन्यनी द्रष्टि थतां राग उत्पन्न थयो नहि तो राग छोडी दीधो एम कहेवाय छे.
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अहो! जैन परमेश्वरे आवो नित्य शुद्ध चैतन्यस्वरूप प्रभु आत्मा गायो छे के जेना लक्षे पर्यायमां शुद्धता प्रगट थाय छे. अज्ञानीनी त्यां नजर जती नथी केमके एक समयनी पर्यायमां ज तेनी नजर रमी रही छे. परंतु धर्मी सम्यग्द्रष्टि पुरुष छे तेने पर्यायबुद्धि होती नथी. समयसार नाटकमां आवे छे ने के - ‘काहुके विरुद्धि नाहि, परजाय बुद्धि नाहि’; ए तो आखो छंद छे ल्यो, -
साचे साचे बैन कहैं साचे जैनमती हैं;
काहुके विरुद्धि नाहि परजाय बुद्धि नाहि.
आतमगवेषी न गृहस्थ हैं न जती हैं;
सिद्धि रिद्धि वृद्धि दीसे घटमैं प्रगट सदा;
अंतरकी लच्छीसों, अजाची लच्छपती हैं;
दास भगवंतके उदास रहैं जगतसौं.
सुखिया सदैव ऐसे जीव समकिती हैं.
अहा! सम्यग्द्रष्टि जीवने पर्यायरूप अंशनी रुचि नथी. अंदर आनंदनो नाथ चैतन्यलक्ष्मीनो भंडार भाळ्यों पछी ते क्यां याचे? शुं याचे?
अहाहा...! स्वस्वरूपनुं-स्वरूपलक्ष्मीनुं अंतरमां लक्ष थयुं ते हवे अजाची लक्षपति छे. ते क्यां याचे? ते तो जगतथी उदासीन थयेलो अंतरमां आनंदना अमृतने पीए छे. ल्यो, हवे आवुं ओला (-बीजा) निश्चय कहीने काढी नाखे, पण भाई! भगवाने कहेलुं वस्तुस्वरूप तो आवुं ज छे.
अरे! व्यवहारनी-पर्यायनी रुचिमां अज्ञानीओ लूटांई रह्या छे, अने वळी त्यां ज खुसी थाय छे. पण भाई! भगवाननो मारग तो निवृत्तिस्वरूप छे. परथी तो भगवान आत्मा निवृत्त ज छे; परवस्तु क्यां एमां गरी गई छे? पण पुण्य-पापना भावथी रहित थवुं तेनुं नाम निवृत्ति छे. भाई! भवसिंधु तरवानो आ एक ज उपाय छे. नित्यानंद-चिदानंद प्रभु आत्मानो आश्रय करीने पुण्य-पापथी निवृत्त थवुं ए एक ज संसार पार थवानो उपाय छे.
प्रेरे ते परमार्थने, ते व्यवहार समंत.
अहीं कहे छे- एक समयनी पर्याय जेटलो ज आत्मा मानीने अज्ञानीए त्रिकाळी नित्यानंद प्रभु ध्रुवने छोडी दीधो छे. छोडवानी तो पर्यायबुद्धि हती, पण तेने
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बदले एणे वर्तमान पर्यायनी रुचिमां त्रिकाळी भगवानने-निज परमात्माने छोडी दीधो छे.
परवस्तु तो आत्माथी भिन्न छे. तेमां आत्मा रमी शकतो नथी परंतु परनुं लक्ष करीने ते वर्तमान पर्यायमां जे राग-द्वेष-मोह उपजे छे. तेमां अज्ञानी रमे छे. अहा! त्यां एक समयनी पर्याय साथे एकत्व करीने, तेने ज आखो आत्मा कल्पीने, अज्ञानीए अंदर सच्चिदानंद प्रभु आत्मा नित्य विराजी रह्यो छे तेने छोडी दीधो छे, तेनो अनादर- तिरस्कार कर्यो छे. कोनी जेम? तो कहे छे-जेम हारमांनो दोरो नहि जोतां केवळ मोतीने न जोनाराओ हारने छोडी दे छे तेम.
अहाहा...! हारमां दरेक मोतमां सळंग रहेनारो दोरो तो कायम छे. पण दोरो नहि जोनारा ने केवळ मोतीने ज जोनारा आखा हारने छोडी दे छे अर्थात् तेमने हारनी उपलब्धि थती नथी. तेम एक क्षणनी पर्यायने ज आत्मा जोनारा अने सळंग दोरा समान नित्य ध्रुव चैतन्यप्रभु विराजे छे तेने नहि जोनारा, आखा आत्माने छोडी दे छे; अर्थात् तेमने आत्मानी उपलब्धि थती नथी; तेओ मिथ्याद्रष्टि ज रहे छे.
आत्मा परचीजने तो अडतो नथी केमके आत्मने ने परचीजने परस्पर अत्यंताभाव छे. पोतानी एक समयनी अवस्थाने आत्मा चुंबे छे, तथापि एक समयनी पर्यायने ज आखो आत्मा माने छे तेणे आनंदकंद नित्य चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्माने द्रष्टिमांथी छोडी दीधो छे. पर्यायने ज जोनारो तेना ज लक्षमां रहीने, तेमां ज रत रह्या थको, पोताना ध्रुव नित्य चिदानंद भगवानने छोडी दे छे. अहा! ते जीव मूढ मिथ्याद्रष्टि ज छे; तेने आत्मोपलब्धि थती नथी.
‘आत्माने समस्तपणे शुद्ध मानवाना ईच्छक एवा बौद्धोए विचार्युं के “आत्माने नित्य मानवामां आवे तो नित्यमां काळनी अपेक्षा आवे छे तेथी उपाधि लागी जशे; एम काळनी उपाधि लागवाथी आत्माने मोटी अशुद्धता आवशे अने तेथी अतिव्याप्ति दोष लागशे.”
जुओ, आ बौद्धोए एम विचार्युं छे के आत्माने नित्य मानीए तो तेने काळनी उपाधि लागी जाय अने तेने अशुद्धता आवी जाय, वळी तेने नित्य मानतां अतिव्याप्ति दोष आवी पडे, एटले शुं? के आत्मा एक समय पूरतो क्षणिक छे ते बराबर छे, पण तेने नित्य मानतां ते बीजा समयोमां पण रहे अने तेथी अतिव्याप्ति दोष आवी जाय. जेम आत्मा अमूर्त्त छे एम अमूर्त्तपणाथी आत्माने ओळखतां अतिव्याप्ति दोष आवे छे ने? केमके आत्मा सिवाय
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आकाशादि अन्य द्रव्योमां पण अमूर्त्तपणुं छे. तेम आ बौद्धो कहे छे- एक समयमां विद्यमान आत्माने बीजा समयमां मानीए तो अतिव्याप्ति दोष लागी जाय. आ तो क्षणिक माने छे ने? तेनी आ युक्ति-तर्क छे. समजाय छे कांई....!
पण भाई! आत्मा नित्यानंद-चिदानंद प्रभु नित्य शुद्ध छे. पर्याय नाश थवा छतां तेनो कयां नाश थाय छे? नियमसारमां कह्युं छे के-संवर, निर्जरा ने मोक्षनी पर्याय नाशवंत छे, केवळज्ञाननी पर्याय पण नाशवंत छे अने अंदर आत्मा तो अविनाशी नित्य ध्रुव प्रभु छे. केवळज्ञाननी पर्याय पण एक समय रहे छे, बीजे समये बीजी थाय पण ते रहे एक समयमात्र; ज्यारे द्रव्य तो त्रिकाळी नित्य अने शाश्वत छे, शुद्ध छे.
पण एक समयनी पर्यायमां रोकाईने जेनी बुद्धि अंध थई छे ते आ त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यने स्वीकारतो नथी. एम के एक समयनी पर्यायथी देखवा-जाणवानुं काम चाले छे, तो पछी तेने नित्य मानवाथी शुं प्रयोजन छे? आ प्रमाणे अज्ञानी जीव त्रिकाळी ध्रुव चैतन्यतत्त्वने छोडी दे छे.
राजाना सेवक-हजुरिया होय ने? ते राजवल्लभ होय छे. राजानी खुशामत करीने तेनी पासेथी ईनाम मेळवे छे. तेम अज्ञानी जीव जगतने राजी करी, रागनी खुशामत करी, जाणे बहारथी सुख लेवा मागे छे अने अंदर सुखनो भंडार चैतन्यमूर्ति भगवान बिराजे छे तेने छोडी दे छे.
आत्मा नित्यानंदस्वरूप त्रिकाळ ध्रुव प्रभु छे. तेनो वर्तमान पर्यायमां स्वीकार करवो ते नीति छे. पण एने बदले एक समयनी पर्याय जेटलो मानी, दया, दान आदि शुभमां तुं खुशी थई जाय ते खुशामतखोरी छे, अनीति छे. तुं अतिव्याप्तिदोष बतावे छे पण वस्तु ज ज्यां सर्वथा क्षणिक नथी त्यां ए दोष क्यां रह्यो? ए तो तारो कुतर्क छे, काल्पनिक तर्क छे.
‘आ दोषना भयथी तेओए शुद्ध ऋजुसूत्रनयनो विषय जे वर्तमान समय तेटलो ज मात्र (-क्षणिक ज-) आत्माने मान्यो अने नित्यानित्यस्वरूप आत्माने न मान्यो. आम आत्माने सर्वथा क्षणिक मानवाथी तेमने नित्यानित्यस्वरूप-द्रव्यपर्यायस्वरूप सत्यार्थ आत्मानी प्राप्ति न थई; मात्र क्षणिक पर्यायमां आत्मानी कल्पना थई; परंतु ते आत्मा सत्यार्थ नथी.’
जोयुं आत्माने सर्वथा क्षणिक मानवाथी सत्यार्थ आत्मानी प्राप्ति थती नथी, केमके वस्तु सर्वथा क्षणिक नथी. वस्तु तो द्रव्यपर्यायस्वरूप नित्यानित्यस्वरूप छे. हवे तेनुं द्रष्टांत कहे छे-
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‘मोतीना हारमां, दोरामां अनेक मोती परोवेलां होय छे; जे माणस ते हार नामनी वस्तुने मोती तेम ज दोरा सहित देखतो नथी-मात्र मोतीने ज जुए छे, ते छूटा छूटा मोतीने ज ग्रहण करे छे, हारने छोडी दे छे; अर्थात् तेने हारनी प्राप्ति थती नथी. तेवी रीते जे जीवो आत्माना एक चैतन्यभावने ग्रहण करता नथी अने समये समये वर्तनापरिणामरूप उपयोगनी प्रवृत्तिने देखी आत्माने अनित्य कल्पीने, ऋजुसूत्रनयनो विषय जे वर्तमान-समयमात्र क्षणिकपणुं तेटलो ज मात्र आत्माने माने छे (अर्थात् जे जीवो आत्माने द्रव्यपर्यायस्वरूप मानता नथी-मात्र क्षणिक पर्यायरूप ज माने छे), तेओ आत्माने छोडी दे छे; अर्थात् तेमने आत्मानी प्राप्ति थती नथी.’
जेओ आत्माने द्रव्यपर्यायस्वरूप देखता नथी, मात्र क्षणिक ज माने छे तेओने आत्मानी प्राप्ति थती नथी, अर्थात् तेमने कदीय धर्म थतो नथी. आवी वात छे.
हवेना काव्यमां आत्मानो अनुभव करवानुं कहे छेः-
‘कर्तृः च वेदयितुः युक्तिवशतः भेदः अस्तु वा अभेदः अपि’ कर्तानो अने भोक्तानो युक्तिना वशे भेद हो अथवा अभेद हो, ‘वा कर्ता च वेदयिता मा भवतु’ अथवा कर्ता अने भोक्ता बन्ने न हो; ‘वस्तु एव सञ्चिन्त्यताम्’ वस्तुने ज अनुभवो.
‘कर्तानो अने भोक्तानो युक्तिना वशे भेद हो अथवा अभेद हो’ -एटले शुं? के वर्तमान जे पर्याय कर्ता छे ते पर्याय बीजी क्षणे भोक्ता नथी, केमके बीजी क्षणे बीजी ज पर्याय छे. आत्मानी जे पर्याय विकार करे छे ते पर्याय तेना फळनी भोक्ता नथी, बीजी पर्याय तेने भोगवे छे. आम पर्याय अपेक्षा कर्ता-भोक्तानो भेद छे. तथा जे आत्मा वर्तमान पर्यायने करे छे ते ज आत्मा पर्यायने बीजी क्षणे भोगवे छे-आम द्रव्य अपेक्षाए कर्ता-भोक्तानो अभेद छे. अहीं कहे छे-युक्तिना वशे कर्ता-भोक्तानो भेद हो के अभेद हो अथवा कर्ता अने भोक्ता बन्ने न हो; वस्तुने ज अनुभवो.
झीणी वात छे भाई! कहे छे-अथवा कर्ता अने भोक्ता बन्ने न हो;’ एटले शुं? के परमार्थे भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यमूर्ति प्रभु छे. ते रागने करे, ने रागने भोगवे ए एनुं स्वरूप नथी. शुद्ध चैतन्यद्रव्यमां रागनुं करवुं ने भोगववुं छे नहि. पर्याय अपेक्षा आत्माने कर्ता-भोक्ता कहीए ए बीजी वात छे; वास्तवमां आत्माने-शुद्ध चैतन्यद्रव्यने रागनुं करवा-भोगववापणुं नथी. आम कहे छे-युक्तिना