Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 413.

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अमाप... अमाप... अमाप शक्तिथी भरेलो भगवान आत्मा छे ते अज्ञानीना मापमां (-ज्ञानमां) आव्यो नहि ने आ पुण्य-पापना भावनां माप (-ज्ञान ने होंश) करीने एमां ज अनादिथी स्थित थईने एणे झेर पीधां छे. आ देव शुं, मनुष्य शुं; नारकी शुं, तीर्यंच शुं; धनवान शुं निर्धन शुं, राय शुं रंक शुं; कीडी, कबुतर ने कागडा शुं; अरे! सर्व संसारी जीवो अनादिथी पोतानी चीजने भूलीने पुण्य-पापरूप विषमभावना विषना सेवनमां पडेला छे. भाई! व्यवहार रत्नत्रयनो भाव पण विषमभाव छे बापु! नियमसारमां कळशमां कह्युं छे के- नाममात्र कारण कहीए एवा व्यवहार रत्नत्रयने भवसागरमां डूबेला जीवे पूर्वे भवभवमां (-अनेक भवोमां) आचर्युं छे, अर्थात् ए सत्यार्थ कारण नथी, समभाव नथी, विषमभाव छे. समजाणुं कांई...?

हमणां हमणां मोटा भागना जीवो तो पापनां पोटलांनो भार भरवामां रोकाई गया छे, त्यांथी खसी कदाचित् पुण्यभावमां आवे तोय शुं? पुण्यभाव पण राग छे, दुःख छे, झेर छे. अहा! आम दुःखमय भावोमां ज जीव अनादिथी स्थित छे; ते पोतानी प्रज्ञानो अपराध छे. आ शेठीया, राजा ने देवता बधा पुण्य-पापमां स्थित रह्या थका दुःखमां ज गरकाव छे. भाई! तुं संयोगमां सुखी छे एम माने छे पण बापु! तुं दुःखना समुद्रमां स्थित छे; केमके पुण्य-पापना भाव बधो दुःखनो समुद्र छे भाई!

भगवान आत्मा सर्वज्ञस्वभाव छे. स्वमां रहीने, परने अडया विना, अनंता स्वपर पदार्थोने पोताना स्वपरप्रकाशक स्वभावना सामर्थ्यथी जाणे एवो ज एनो स्वभाव छे. अल्पज्ञता एनुं स्वरूप नथी. तथापि कोई किंचित् क्षयोपशमनी विशेषतानुं अभिमान करे तो ते दुःखमां स्थित छे, विषमभावमां स्थित छे. भणतरनां अभिमान ए बधो राग-द्वेष ज छे. बेनश्रीना वचनामृतमां आवे छे ने के- “आवडतना मानथी दूर रहेवुं सारुं छे. बहार पडवाना प्रसंगोथी दूर भागवामां लाभ छे, ते बधा प्रसंगो निःसार छे; सारभूत एक आत्मस्वभाव छे.” भाई! शास्त्रना भणतरना अभिमान जो थया तो मरी जईश तुं हों. एम तो अगियार अंग ने नवपूर्व अनंतवार भणी गयो, पण बधुं फोगट गयुं, अज्ञान खाते गयुं,; एनाथी केवळ बंधन ज थयुं.


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अरे! आम जीव अनादिथी परद्रव्यमां-रागादिभावोमां-दुःखना भावोमां स्थित छे; पोतानी प्रज्ञाना दोषथी हों. कर्मने लईने रागद्वेषमां स्थित छे एम अहीं नथी कह्युं. कोई शास्त्रमां तेम कह्युं पण होय तो ते निमित्तनुं-व्यवहारनुं कथन छे एम जाणवुं. रागादि थवा काळे निमित्त त्यां कोण छे ए त्यां बताव्युं छे. बाकी “अपने को आप भूलके हेरान हो गया.” पोताने पोते ज भूली पुण्य-पापना भावमां मूर्छाणो छे, त्यां ज नजर चोंटाडी छे तेथी प्राणी दुःखना भावमां स्थित छे. आनुं नाम संसार छे. आ बायडी, छोकरां, घरबार-ते संसार एम नहि, रागादि परद्रव्यमां स्थित थयो छे ए संसार छे, दुःख छे. हवे गुलांट खावानुं कहे छे-

पोतानी प्रज्ञाना दोषथी परद्रव्यमां-रागद्वेषादिमां निरंतर स्थित रह्यो होवा छतां कहे छे, पोतानी प्रज्ञाना गुण वडे ज तेमांथी पाछो वळीने तेने अति निश्चळपणे दर्शन- ज्ञान-चारित्रमां निरंतर स्थाप;... अहाहा...! ज्ञाननी पर्यायने पोतामां-शुद्ध एक ज्ञायकस्वरूपमां वळी निश्चळपणे दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां स्थाप-एम कहे छे. ‘पोतानी प्रज्ञाना गुण वडे’ -एम कह्युं ने! त्यां ‘गुण’ एटले शुं? पर्याय स्वद्रव्य प्रति झुकी, एक ज्ञायकनी सन्मुख वळी ते प्रज्ञानो गुण छे. पहेलां परसन्मुख हती ते दोष हतो. हवे कहे छे-परद्रव्यथी-रागद्वेषथी पाछो वळीने स्वरूपसन्मुख वळी जा. पर्याय स्वरूप प्रति ढळे ते प्रज्ञानो गुण छे. तो कहे छे- पोतानी प्रज्ञाना गुण वडे ज रागादि-व्यवहारथी पाछो वळीने पोताने अति निश्चळपणे दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां निरंतर स्थाप. ल्यो, आवी वात! कर्म मार्ग आपे तो रागादिथी पाछो वळे एम नहि, पण पोतानी प्रज्ञाना गुण वडे ज पाछो वळीने पोताने अति निश्चळपणे दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां स्थाप-एम कहेवुं छे

अनादिथी पर्यायमां रागादि अशुद्धता चाली आवे छे. वर्तमान पर्याय पण अशुद्ध छे; पण स्वघरमां रहेली वस्तु-भगवान ज्ञायक पूर्णानंदनो नाथ प्रभु तो त्रिकाळ शुद्ध ज छे. ज्यां प्रज्ञानी पर्यायने स्वघर प्रति वाळे के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट थाय छे. अहीं कहे छे-तेमां ज तुं तने स्थाप; बीजे पंथेथी वाळीने पोताने मोक्षपंथे स्थाप. अहाहा...! शुं भाषा? ‘मोक्खपहे अप्पाणं ठवेहि’ स्थाप निजने मोक्षपंथे’ - भाष तो सादी छे, भाव जे छे ते अति गंभीर छे भाई!

पण एने भाव समजवानी क्यां पडी छे? अरे! मारुं शुं थशे? मरीने हुं क्यां जईश? -ईत्यादि विचारवानी दरकार ज करतो नथी! ईन्द्रियना विषयनुं विष पीने राजी थाय छे पण भाई! आ देह तो क्यांय फू थईने उडी जशे. बधुं ज (बधा संयोगो) फरी जशे, अने क्यांय कागडे-कूतरे-कंथवे चाल्यो जईश. जोतो नथी आ मोटा मोटा अबजोपति शेठ फू थईने क्यांय हेठ (हेठे नरक-निगोदमां) चाल्या जाय छे?


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अरे भाई! तने आ संसारनी होंशु केम आवे छे. ‘होंशीडा मत होंश कीजीए.’ भाई! राग अने परमां तने होंश-उत्साह आवे छे ते छोडी दे. तारुं वीर्य परमां-रागमां जोडाईने उल्लसित थाय छे त्यांथी पाछुं वाळ, प्रज्ञाना गुण वडे तारा वीर्यने स्वस्वरूपमां वाळी तुं पोताने मोक्षपंथमां स्थाप.

अरे भाई! विचार तो कर तुं कोण छो? श्रीमदे मोक्षमाळामां कह्युं छे के-

हुं कोण छुं, क्यांथी थयो, शुं स्वरूप छे मारुं खरूं;
कोना संबंधे वळगणा, छे? राखुं के ए परिहरुं?
एना विचार विवेकपूर्वक शांतभावे जो कर्या,
तो सर्व आत्मिक ज्ञाननां सिद्धांत-तत्त्व अनुभव्यां.

अहाहा...! भगवान! तुं अनादिअनंत अमाप-अमाप शक्तिनो सागर प्रभु छो. अहाहा...! अंदर ज्ञानानंदनो अमाप... अमाप दरियो प्रभु तुं छो. माटे शांत चित्ते स्व- परना विवेकपूर्वक पोतानी प्रज्ञाना गुण वडे अर्थात् अंतर्मुख प्रज्ञानी पर्याय वडे अमापनुं माप (-ज्ञान) करी ले प्रभु! अहाहा...! प्रज्ञाना गुण वडे तुं पोताने दर्शन-ज्ञान- चारित्रमां एवो स्थाप के त्यांथी कदी चळे नहि.

अरे! अनंतकाळे आवो मोंघो मनुष्यभव मळ्‌यो छे ने प्रभु! हवे आडोडाई क्यां सुधी? शुभरागथी धर्म थाय ए आडोडाई हवे छोडी दे. परलक्षे जे शुभभाव थाय ते संसार छे, ते चोरासीना अवतारनी खाण छे; अने अंदर तुं अतीन्द्रिय आनंदनी खाण छो ने प्रभु! माटे कहे छे- भाई! परनी होंशुथी पाछो वळ; पोतानी प्रज्ञाना गुण वडे त्यांथी पाछो वाळीने निजात्माने दर्शनज्ञानचारित्ररूप मोक्षपंथमां स्थाप. भाई! होंश करवा लायक तारी चीज अंदर पडी छे तेनी होंश कर. अहा! आवो उपदेश! ! अहो! आ समयसार तो भरतक्षेत्रनो भगवान छे. आवी अलौकिक चीज बीजे क्यांय छे नहि.

अहा! कहे छे- ‘स्थाप निजने मोक्ष पंथे...’ ! भाई! तने आ मोंघुं (आकरुं) लागे पण आ समज्ये ज छूटको छे. अरे! जीवो देहादि अनित्यनी ममता करी-करीने


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देह छोडी परलोकमां क्यांयना क्यांय चाल्या जशे! एवा स्थानमां जशे ज्यां न कोई सगुं न कोई वहालुं हशे, न खावा दाणा न पीवा पाणी हशे, न पहेरवा वस्त्र न रहेवा मकान हशे. आ जीव छे एम कोई ओळखशे पण नहि एवा महा दुःखना स्थानोमां चाल्या जशे. माटे हे भाई! तुं अनित्यनो प्रेम छोडी निज नित्यानंदज्ञानानंद प्रभु आत्मानी रुचि कर; पोतानी प्रज्ञाना गुण वडे आत्माने त्यांथी पाछो वाळी दर्शन-ज्ञान- चारित्रमां स्थाप.

‘प्रज्ञाना गुण वडे ज’ एटले स्व पुरुषार्थ वडे स्थाप एम अहीं कहेवुं छे. ‘ज’ ‘एव’ – एम शब्द पडयो छे टीकामां, जुओ. लोकोने एकांत लागे. पण आ सम्यक् एकांत छे, केमके बीजी कोई रीत छे ज नहि. व्यवहार कथंचित् साधन छे एम तुं कहे, पण ए तो कथनमात्र आरोपथी साधन कह्युं छे, तेनाथी कांई साध्यनी सिद्धि न थाय. अरे भाई! व्यवहारने वास्तविक साधन तुं माने एमां तारुं अहित थाय छे. भाई! तुं व्यवहारनो पक्ष जवा दे; आ वातने खोटी पाडवानुं रहेवा दे भाई! आ तो केवळीना केडायती दिगंबर संत भगवान कुंदकुंदाचार्य, जेनी अवस्थामां प्रचुर आनंद उछळी रह्यो हतो तेमनुं आ फरमान छे बापु! के-

तुं स्थाप निजने मोक्षपंथे, ध्या अनुभव तेहने;
तेमां ज नित्य विहार कर, नहि विहर परद्रव्यो विशे.

भाई! व्यवहारना रागथी पुण्यबंध अवश्य थशे, पण एनो तुं पक्ष-रुचि करे ए तो मिथ्यात्व छे बापा! तारा व्यवहारथी लोक राजी थशे, पण तारो आत्मा राजी नहि थाय. जो आत्माने राजी (आनंदित, सुखी) करवो छे तो कहे छे-पोतानी प्रज्ञाना गुण वडे ज त्यांथी (व्यवहारथी पोताने पाछो वाळीने निर्मळ ज्ञान-दर्शन-चारित्रमां स्थाप; एवो स्थाप के कदीय चळे नहि, मोक्ष लईने ज रहे. बाकी व्यवहारनी क्रियाओ करतां करतां मोक्ष थई जशे एम त्रणकाळमां छे नहि, ल्यो, आ एक पदनो अर्थ थयो.

हवे बीजो बोलः ‘तथा समस्त अन्य चिंताना निरोध वडे अत्यंत एकाग्र थईने दर्शन-ज्ञान-चारित्रने ज ध्या;...’

जुओ, देव- शास्त्र-गुरुनी भक्ति के विनयनो विकल्प के गुण-गुणीना भेदनो विकल्प के छकायना जीवनी दयानो विकल्प ए सर्व अन्य चिंता छे अहीं कहे छे - ए समस्त अन्य चिंतानो निरोध करी अंतरमां-स्वस्वरूपमां एकमां एकाग्र थईने दर्शन- ज्ञान-चारित्रने ध्या. एम के भगवान शुद्ध चैतन्य ध्रुव अंदर छे तेने द्रष्टिमां लीधो छे, हवे ते एकने ज अग्र करी शुद्ध दर्शन-ज्ञान-चारित्रनुं ज ध्यान कर, अहीं पर्यायथी वात छे, बाकी त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यने ध्याववुं छे. रागनी ने परनी चिंता-ध्यान न कर, पण


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तत्त्वार्थसूत्रमां ध्याननुं लक्षण कह्युं छेः ‘एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्’ एकाग्रतापूर्वक चिंतानो निरोध ते ध्यान छे. अहीं पण कहे छे-अन्य समस्त चिंतानो निरोध करीने एक नाम शुद्ध चैतन्यमां अग्र थई तेमां ज रमणता कर. अहाहा...! लोकमां उत्तम, मंगळ ने शरणरूप पदार्थ पोतानो आत्मा ज छे. माटे परथी छूटी पोताना आत्माने दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां ज स्थाप, ने तेनुं ज ध्यान कर. भाई! ध्यान करतां तो तने आवडे ज छे; अनादिथी ऊंधुं ध्यान-संसारनुं ध्यान तो तुं कर्या ज करे छे, पण ते दुःखमय छे; तेथी हवे कहे छे-सवळुं ध्यान कर, स्वस्वरूपनुं ध्यान कर, स्वस्वरूपनां द्रष्टि-ज्ञान-रमणता ते सवळुं ध्यान छे अने ते आनंदकारी छे, मंगलकारी छे. समजाणुं कांई...?

हवे त्रीजो बोलः ‘तथा समस्त कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनाना त्याग वडे शुद्धज्ञानचेतनामय थईने दर्शन-ज्ञान-चारित्रने ज चेत-अनुभव;....’

दया, दान, व्रत, भक्तिनो भाव छे ते राग छे, ते कर्मचेतना छे. विकारी भावमां एकाग्रता ते कर्मचेतना छे. अने ते रागादि भावोमां हरख-शोक थवो ते कर्मफळचेतना छे. रागादिने भोगववानो भाव कर्मफळचेतना छे. अहीं कहे छे-तेना त्याग वडे आ बैरां- छोकरां ने घरबारना त्याग वडे एम नहि, एनो तो सदा त्याग ज छे, ए क्यां अंदर स्वरूपमां गरी गयां छे? - आ तो एनी पर्यायमां रागनुं कर्तापणुं अने भोक्तापणुं उभुं छे तेना त्याग वडे, कहे छे, ज्ञानचेतनामय थईने दर्शन-ज्ञान-चारित्रने ज चेत. तेनो ज अनुभव कर. आ छेल्ले ‘तं चेय’ शब्द छे ने! तेनो आ अर्थ छे के अंदर त्रणलोकनो नाथ ज्ञायक प्रभु परमात्मा पोते छे तेमां एकाग्र थईने, तेमां ज रमणता करीने शुद्ध दर्शन-ज्ञान-चारित्रने ज चेत, तेने ज अनुभव.

भाई! शुभाशुभ भाव हो के महाव्रतना भाव हो, के गुण-गुणीना भेदनो विकल्प हो के नयविकल्प हो-ए बधो राग कर्मचेतना छे. अने तेमां हरख-होंश थाय ते कर्मफळचेतना छे. अहीं कहे छे- समस्त कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनानो त्याग करीने, शुद्धज्ञानचेतनामय थईने अर्थात् शुद्धज्ञानचेतनामात्र वस्तु पोते छे तेमां एकाग्र थईने, जे दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट थाय तेने ज चेत. अहाहा...! शुद्ध चैतन्यसंपदाथी भरेलो भगवान पोते छे तेमां एकाग्र थईने, कहे छे, शुद्ध दर्शन-ज्ञान-चारित्रने ज चेत. अहा! आ पुण्य-पापना भाव तो विपदा छे, ते अपद छे, ते तारुं रहेवानुं


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ने चेतवानुं स्थान नथी. ज्ञान ने आनंदथी भरेलुं शुद्ध चैतन्यतत्त्व ते निजपद छे. तेनो अनुभव कर, ते एक ज अनुभववायोग्य छे. आवी वात!

हा, पण अमारे तो आ करवुं के बैरां-छोकरांनी जवाबदारीओ निभाववी? अरे भाई! तुं बैरा-छोकरानुं करे छे ज शुं? परनुं हुं कांई करुं छुं, कुटुंब परिवारनुं हुं पालन करुं छुं ए मान्यता ज मूढनी छे. तुं तो मफतनो राग-द्वेष कर्या करे छे, हरख-शोक कर्या करे छे. तेथी कहे छे- त्यांथी विरक्त थई, निज चैतन्यपदमां एकाग्र थई तेनो ज अनुभव कर, केमके आ ज सुखनो पंथ छे, जन्म-मरण निवारवानो पंथ छे. समजाणुं कांई...?

हवे चोथो बोलः- ‘तथा द्रव्यना स्वभावना वशे (पोताने) जे क्षणे क्षणे परिणामो उपजे छे ते- पणा वडे (अर्थात् परिणामीपणा वडे) तन्मय परिणामवाळो (-दर्शनज्ञानचारित्रमय परिणामवाळो) थईने दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां ज विहर;...’

जुओ, द्रव्यना स्वभावना आश्रये क्षणे क्षणे दर्शन-ज्ञान-चारित्रना परिणाम उपजे छे. द्रव्यना स्वभावना वशे जे परिणामो उपजे छे ते निर्मळ रत्नत्रयना परिणाम होय छे; पुण्य-पापना परिणाम शुद्ध द्रव्यना वशे न थाय, ए तो परना-निमित्तना वशे थनारा परिणाम छे अने ते दुःखरूप छे. अहीं तो द्रव्यने द्रष्टिमां लीधुं छे तेथी द्रव्यनो स्वभाव निर्मळ-निर्मळ भावथी द्रवे छे. अहाहा...! निर्मळ रत्नत्रयनी परिणतिरूपे द्रवे छे. अहीं कहे छे-ते पणा वडे निर्मळ-निर्मळ द्रववा वडे तन्मय परिणामवाळो थईने दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां ज विहर. पुण्य-पापना भावमां-दुःखना भावमां तो अनंतकाळथी विहार करतो रह्यो, हवे अर्थात् आ अवसर छे त्यारे तेमां मा विहर, अंदर पूर्णानंदनो नाथ निर्मळानंद प्रभु आत्मा छे तेना आश्रये जे क्षणे क्षणे निर्मळ-निर्मळ दर्शन-ज्ञान- चारित्रना परिणाम थाय तेमां ज विहर, त्यां ज विहर. स्वर्ग अने नर्क आदि चारे गति दुःखरूप ज छे, माटे पुण्य अने पापमां मा विहर. एक दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां ज विहर. ‘ंतत्थेव विहर णिच्चं’ ‘तेमां ज नित्य विहार कर’ छे ने गाथामां? आ एनो अर्थ थयो.

हवे आवुं समजवानी आ वाणियाओने बिचाराओने फुरसद न मळे; जिज्ञासा नहि, तत्त्वाभिलाष नहि एटले आडोडाई करे ने कहेः हमणां नहि, जो’शुं पछी; शुं जो’शुं पछी? आ भरवाड नथी होता भरवाड; एक’ दि जोयो हतो बकरां चारतो; पचीस जेटलां बकरां ने साथे पंदर-वीस नानां नानां बकरानां बच्चां. तो विचार आवे छे के आ वाणिया बधा मरीने आ बच्चां नहि थया होय? शुं थाय भाई? आवी आडोडाईनु फळ आवी तिर्यंच गति छे बकरीनी, गायनी, भूंडणनी कूखे अवतार


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‘तथा ज्ञानरूपने एकने ज अचळपणे अवलंबतो थको, जेओ ज्ञेयरूप होवाथी उपाधिस्वरूप छे एवां सर्व तरफथी फेलातां समस्त परद्रव्योमां जरापण न विहर.’

अहाहा...! कहे छे- परद्रव्योमां जरापण न विहर. आ शुभाशुभ रागादि भावमां मत जा. रागादि भाव तो दुःखनो पंथ छे बापु! त्यां जतां तारुं सुख लुंटाय छे. तुं निर्धार तो कर के अंदर तुं एक शुद्ध ज्ञानस्वरूपी परमेश्वर छो. हमणां पण अंदर परमेश्वर छो हों, जो न होय तो परमेश्वर पद प्रगटे क्यांथी? तो कहे छे- निज ज्ञानरूपने एकने ज अचळपणे अवलंबतो थको, समस्त परद्रव्योमां जरापण न विहर. अहा! ज्ञानरूपने एकने ज अवलंबतां पुण्य-पापनुं आलंबन छूटी जाय छे अने स्वभावना वशे निर्मळ-निर्मळ दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगटे छे. अहीं कहे छे- तेमां ज विहर, बीजे परद्रव्योमां जरापण न विहर. निर्मळ ज्ञान-दर्शन-चारित्रमां विहरवानुं कह्युं त्यां ज्ञानस्वरूप आत्मानुं एकनुं ज आलंबन छे, बीजुं-व्यवहारनुं पण आलंबन छे एम नथी. समजाणुं कांई...? पाठमां छे के नहि! छे नेः ‘ज्ञानरूपने एकने ज अचळपणे अवलंबतो थको....’ आवी वात छे.

समोसरणमां वाघ, सिंह वगेरे सेंकडो पशुओ वाणी सांभळवा आवे. स्वर्गना इन्द्रो ने देवोनां वृंद, ने श्रावक-श्राविकाओ ने मुनिवरो वाणी सांभळवा आवे. अहा! भगवानना श्री मुखेथी नीकळेली ते वाणी केवी हशे? भगवाननी ओम्ध्वनि सांभळी भगवान गणधरदेव विचारे अने आगमनी रचना करे-ते वाणीनो शुं महिमा कहीए?

मुख ओंकारधुनि सुनि, अर्थ गणधर विचारै;
रचि आगम उपदेश, भविक जीव संसय निवारै.

अहो! ए वाणी केवी दिव्य अलौकिक हशे? अरे! भरते हमणां भगवानना विरह पडी गया; पण वाणी रही गई. एमां कहे छे- प्रभु! तारा द्रव्यस्वभावनो तने कदीय विरह नथी, अंदर ज्ञान, शान्ति अने आनंदनुं ध्रुव दळ पडयुं छे. ते एकने ज अचळपणे आलंबीने प्राप्त थता निर्मळ दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां ज तुं विहार कर, बीजे मत विहर. निजस्वभावना आलंबन विना लोकमां बीजे क्यांय चैन पडे एम नथी.

त्यारे केटलाक कहे छे के तमे (-कानजी स्वामी) व्यवहारथी लाभ मानता नथी. अरे भाई! व्यवहार-राग तो बंधनुं-दुःखनुं कारण छे बापु! एनी रुचि छोडी


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स्वभावमां जवुं-विहरवुं ए धर्म छे. जुओ, अहीं शुं कहे छे? के अनंतशक्तिनो एकरूप पिंड एवुं जे शुद्ध आत्मद्रव्य ते एकने ज अचळपणे अवलंबतो थको, समस्त परद्रव्यमां जरापण न विहर. कथंचित् द्रव्यनुं अवलंबन अने कथंचित् शुभरागनुं अवलंबन एम वात नथी; ज्ञानरूपने एकने ज अवलंबतो -एम कह्युं छे. अहो! पदे पदे आचार्यदेव व्यवहारना आलंबननो निषेध करे छे. व्यवहार होय छे ए जुदी वात छे ने व्यवहारनुं आलंबन जुदी वात छे. व्यवहारनुं आलंबन तो मिथ्यात्व छे.

अरे भाई! तारे क्यां सुधी आम ने आम दुःखमां रहेवुं छे? घरमां बे एक वर्षथी मांदगीनो खाटलो होय तेने कांईक ठीक थाय त्यां तो बीजो मांदो पडी जाय. तेने ठीक थाय त्यां वळी त्रीजो खाटले पडे. आम उपराउपरी घरमां मांदगी चाले एटले कंटाळे ने राडु पाडे के-रोगनो खाटलो खाली ज थतो नथी. एम अज्ञानी जीवे अनंतकाळमां एक समय पण दुःखनो खाटलो खाली कर्यो नथी, अनादिथी रागरूपी रोगना खाटले पडयो पारावार दुःख भोगवे छे. संतो अहीं करुणा लावी कहे छे- जाग नाथ! एक वार जाग; अंदर चैतन्यस्वरूप भगवान छे ते एकनुं ज आलंबन ले; निमित्तना-देव-गुरु- शास्त्रना-रागना आलंबनमां मत जा, केमके परना ने रागना अवलंबने धर्म नहि थाय, पण एक ध्रुव ज्ञानस्वरूपना अवलंबने ज धर्म थशे. अरे! विशेष शुं कहीए? आ निर्मळ पर्याय जे प्रगटी ते पर्यायना अवलंबने पण नवी निर्मळ पर्याय नहि थाय. बस, एक ध्रुवने ध्यातां ज धर्म थाय छे. समजाणुं कांई.....?

अहा! आ ॐध्वनिनो पोकार छेः प्रभु! तुं एकवार तारा त्रिकाळी आनंदना नाथनुं अवलंबन ले. पूजा-व्रत-भक्ति आदि व्यवहारनुं आलंबन तने शरणरूप नहि थाय, केमके ते बंधनुं कारण छे. अहा! जेम पाताळमां सदाय पाणी भर्यां छे तेम तारा ध्रुवना पाताळमां अनंत-अनंत ज्ञान ने आनंद भर्यां छे. ते पाताळमां प्रवेशतां पर्यायमां अतीन्द्रिय आनंदना धोध उछळशे. तुं न्याल थई जईश प्रभु! अंदर ध्रुवने ध्याननुं ध्येय बनावतां धर्म-जैनधर्म प्रगटशे. एक ध्रुवना अवलंबने ज धर्म थाय छे आवो सम्यक् एकान्तवाद छे; एक ध्रुवना आश्रये (धर्म) थाय अने व्यवहारथी न थाय एनुं नाम सम्यक् अनेकान्त छे. भाई! पर्यायमां परमेश्वरपद प्रगटे क्यांथी? अंदर परमेश्वरपद पडयुं छे तेने एकने ज अचळपणे अवलंबता पर्यायमां परमेश्वरपद प्रगट थाय छे. आवी सार-सार वात छे.

वळी कहे छे- ‘जेओ ज्ञेयरूप होवाथी उपाधिस्वरूप छे एवां सर्व तरफथी फेलातां समस्त परद्रव्योमां जरापण न विहर.’ जुओ, पुण्यना परिणाम थाय ते परज्ञेयरूप उपाधिभाव छे. पुण्यभाव धर्मीने आवे भले. पण ते उपाधिभाव छे, स्व-भाव नथी.


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देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो-विनय-भक्तिनो भाव राग छे, व्यवहार छे; पंचमहाव्रतना परिणाम राग छे, व्यवहार छे; छकायनी रक्षाना परिणाम राग छे, व्यवहार छे; शास्त्र-भणतरनो भाव राग छे, व्यवहार छे. आ बधो व्यवहार ज्ञेयरूप उपाधि छे; स्व-भाव नथी, परद्रव्य छे. तेमां जरापण न विहर-एम कहे छे. शुद्ध निश्चय एकना ज आलंबने प्राप्त शुद्ध दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां ज विहर. ल्यो, आ प्रभुनो मार्ग छे आ शूरवीरनां काम छे बापा!

प्रभुनो मारग छे शूरानो, नहि कायरनां काम जो.

आ कायरनुं काम नहि. कायरनां तो काळजां कंपी जाय एवुं आ काम छे. अहो! शुं अलौकिक गाथा! गाथा तो गाथा छे! बार अंगनो सार! भगवान गणधरदेवे आगम रच्यां एनो आ सार छे. आ सांभळीने भव्य जीवो संशय निवारो.

* गाथा ४१२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘परमार्थरूप आत्माना परिणाम दर्शन-ज्ञान-चारित्र छे; ते ज मोक्षमार्ग छे.’ परमार्थ एटले परनी दया पाळवी ते परमार्थ-एम नहि, पण परम अर्थ अर्थात् परम पदार्थ चैतन्यचिंतामणि प्रभु पोते आत्मा छे ते परमार्थ छे. अहो! बधा आत्मा अंदर परमार्थरूप भगवान छे. आ देहने, रागने ने पर्यायने न जुओ तो अंदर बधा भगवानस्वरूपे विराजे छे. अहीं कहे छे-आवा परमार्थरूप आत्माना परिणाम दर्शन- ज्ञान-चारित्र छे. पुण्य-पापना परिणाम ते परमार्थे आत्माना परिणाम नथी. जे भावे तीर्थंकर गोत्र बंधाय ते आत्माना परिणाम नथी. माटे ज भगवान कहे छे- तुं मारा सामुं न जो, जोईश तो तने राग ज थशे, केमके अमे परद्रव्य छीए, अमे तारुं द्रव्य नथी. अमारा लक्षे तारुं कल्याण नहि थाय. रागनी रुचि छे ते तो भवनी रुचि छे. माटे अंदर चिदानंदस्वरूप प्रभु तुं छे तेनी रुचि कर, तेनी द्रष्टि करी तेमां ज रमणता-लीनता कर. बस, आ ज धर्म छे, आ ज मोक्षमार्ग छे, आ ज आत्माना वास्तविक परिणाम छे. समजाणुं कांई...? हवे कहे छे-


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‘तेमां ज (-दर्शनज्ञानचारित्रमां ज) आत्माने स्थाप. तेनुं ज ध्यान करवुं, तेनो ज अनुभव करवो अने तेमां ज विहरवुं-प्रवर्तवुं, अन्यद्रव्योमां न प्रवर्तवुं. अहीं परमार्थे ए ज उपदेश छे के-निश्चय मोक्षमार्गनुं सेवन करवुं, केवळ व्यवहारमां ज मूढ न रहेवुं.’

धर्मीने यथासंभव बाह्य व्यवहार होय खरो, पण एनाथी कल्याण थशे एम मूढपणुं तेने होतुं नथी. अहीं कहे छे- केवळ व्यवहारमां ज मूढ न रहेवुं. व्रत-भक्तिथी मारुं कल्याण थशे एम मूढता न करवी; बल्के तेनी उपेक्षा करी स्वस्वभावमां ज प्रवर्तवुं.

*

हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश २४०ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘द्रग्–ज्ञप्ति–वृत्ति–आत्मकः यः एषः एकः नियतः मोक्षपथः’ दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप जे आ एक नियत मोक्षमार्ग छे. ‘तत्र एव यः स्थितिम् एति’ तेमां ज जे पुरुष स्थिति पामे छे अर्थात् स्थित रहे छे, ‘तं अनिशम् ध्यायेत्’ तेने ज निरंतर ध्यावे छे, ‘तं चेतति’ तेने ज चेते-अनुभवे छे, ‘च द्रव्यान्तराणि अस्पृशन् तस्मिन् एव निरन्तरम् विहरति’ अने अन्यद्रव्योने नहि स्पर्शतो थको तेमां ज निरंतर विहार करे छे, ‘सः नित्य–उदयं समयस्य सारम् अचिरात् अवश्यं विन्दति’ ते पुरुष, जेनो उदय नित्य रहे छे एवा समयना सारने (अर्थात् परमात्माना रूपने) थोडा काळमां ज अवश्य पामे छे- अनुभवे छे.

ओहो! भगवान आत्मा पूर्णानंदनो नाथ सच्चिदानंद प्रभु अंदर अनंत अतीन्द्रिय गुणोनुं निधान छे अहा! आवुं जे निजस्वरूप तेने पकडी ने तेनां प्रतीति, ज्ञान अने रमणता करवां ते सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप नियत मोक्षमार्ग छे. व्यवहार होय छे खरो, पण ते मोक्षमार्ग नथी. भाई! पूर्ण वीतराग न थाय त्यां सुधी व्यवहार होय छे, पण ते बंधनुं ज कारण छे, मोक्षमार्ग नथी. मोक्षमार्ग एक ज छे, बे नथी. तेनुं निरूपण बे प्रकारे छे, मार्ग बे नथी; मार्ग तो एक ज छे. एक यथार्थ अने बीजुं आरोपथी-एम मोक्षमार्गनुं निरूपण बे प्रकारे छे, पण मोक्षनो मार्ग तो एक ज छे. मोक्षनुं साधन कहो, कारण कहो, मोक्षनो उपाय कहो, मार्ग कहो-ए बधुं एक ज छे.

आ देह तो क्षणिक नाशवंत चीज छे, ते जोतजोतामां क्षणमां ज छूटी जाय; तेनो शुं भरोसो? पण अंदर ध्रुव... ध्रुव... ध्रुव त्रिकाळ नित्य टकी रहेलुं तत्त्व -जे


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पण ते साधन तो छे? तेने उपचारथी, व्यवहारथी आरोप दईने साधन कह्युं छे, ते वास्तविक साधन नथी.

आ पुण्यना परिणाम मारा छे, मने भला छे एवो अज्ञानीने जे मिथ्या रस चढी गयो छे ते मिथ्यात्व छे. तेनुं फळ निगोद छे. अने आ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनुं फळ मोक्ष छे. आ पंचम आराना मुनिराज कहे छे. कहे छे-जे पुरुष निर्मळ रत्नत्रयमां पोताने स्थापीने तेने ज ध्यावे छे, तेने ज अनुभवे छे ते अल्पकाळमां अवश्य मुक्ति जशे. ‘समयस्य सारम् अचिरात् अवश्यं विन्दति’ - छे के नहि कळशमां? अहो! मुनिराजने अतीन्द्रिय आनंदना रसनो कस चढी गयो छे. कहे छे- आत्मा ज्ञानादि अनंतगुण-रसथी भरेली कसवाळी चीज छे. ए चीजने जेणे पोतामां जाणी, मानी अने त्यां ज जे रम्यो-ठर्यो ते त्रीजा भवे अवश्य मोक्ष लेशे. अहा! पंचम आराना मुनि केवी खुमारीथी वात करे छे. एम के त्रीजे भवे अमे मोक्ष लेशुं ज लेशुं, परम अध्यात्म तरंगिणीमां ‘अचिरात्’ नो आ अर्थ कर्यो छे.

भगवान आत्मा जगतनो सर्वोत्कृष्ट पदार्थ छे. तेनाथी ऊंचुं लोकमां कांई नथी. क्षेत्र भले थोडुं हो, पण अमाप... अमाप अनंत शक्तिओनुं एकरूप एवो ए चैतन्यमहाप्रभु अनंत गुण-ऋद्धिओनो भंडार छे. अरे! एणे पर्याय आडे निज स्वभावना सामर्थ्य सामुं कदी जोयुं नथी! एक समयनी पर्याय पाछळ नजर करे तो चैतन्यचिंतामणि निर्मळानंदनो नाथ प्रभु बिराजे छे. पुण्य-पाप तरफ नजर करे ए तो मिथ्यात्व छे, एनुं फळ निगोदना अवतार छे. आ सर्वज्ञ परमात्मानो पोकार छे; अंदर चैतन्य ऋद्धिथी भरेलो चैतन्यचिंतामणि प्रभु बिराजे छे तेनी अंतर्द्रष्टि करी, तेनो ज अनुभव करी, तेमां ज रमणता करे ते मोक्षमार्ग छे, तेनुं फळ मोक्ष छे. भाई! जो मोक्षनी ईच्छा छे तो बहारनी अधिकता ने विस्मयता छोडी दे, व्रत-भक्ति आदि व्यवहारनी अधिकता ने विस्मयता छोडी दे, अने अनंता विस्मयोथी भरेलो भगवान आत्मा अंदर विराजे छे तेनां रुचि-रमणता कर; ते एक ज मोक्षमार्ग छे.

अरे! लोको व्रत-तप आदि क्रियाकांडना विकल्पना वमळमां भराई पडया छे. पण वस्तु तो निर्विकल्प छे प्रभु! तारा विकल्पमां ते केम जणाशे? केम अनुभवाशे? माटे त्यांथी बहार नीकळी जा, ने वस्तु छे त्यां जा; तने परम आनंद थशे.


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पांच-पचीस लाखनी मूडी होय ने छोकरा मीठाशथी बोले- ‘बापुजी,’ तो अज्ञानी त्यां खुशी-खुशी थई जाय छे; बहारनी चीजोमां कुतूहल करे छे. पण अरे भाई! एमां तारुं कांई नथी. ए तो बधां वेरी-रागनां निमित्तो छे, परद्रव्यो छे; ताराथी विरुद्ध स्वभाववाळां तत्त्वो छे. तेमां तने राजीपो अने कुतूहल थाय अने अनंत गुणऋद्धिथी भरेली तारी चीजने जाणवानुं तने कुतूहल नहि? जरा विचार कर. वीतराग परमेश्वर ‘आत्मा, आत्मा’ नो पोकार करे छे तो ते शुं छे तेनुं कुतूहल तो कर. अंदर स्वरूपमां जो तो खरो, अंदर जोतां ज तने तारां दर्शन थशे, अतीन्द्रिय आनंद थशे. परमानंदनी प्राप्तिनो आ एक ज मार्ग छे भाई!

जुओ, आ पंचम आराना मुनिराजने अंदर दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणमन छे, पण तेनी पूर्णता थई नथी. तेथी एक वार र्स्वगमां देवना वैभव-कलेशमां-दुःखमां अमारे जवुं पडशे-एम कहे छे. शुभनुं फळ पण दुःख छे ने! प्रवचनसारमां कह्युं छे के- शुभ-अशुभ बन्ने भावनुं फळ दुःख छे. शुभ ठीक अने अशुभ अठीक -एम बेमां विशेषता नथी. शुभना फळमां स्वर्गादि मळे ए पण कलेश छे, आकुळता छे. अंदर शान्तिनो सागर पोते तुं आत्मा छो. बापु! तारे बहार बीजे डोकियुं शा सारुं करवुं पडे? अंदर डोकियुं करी त्यां ज थंभी जा, उपयोगने त्यां ज थंभावी दे. अहाहा....! चिन्मात्रचिंतामणि देवोनो देव भगवान! तुं अंदर महादेव छो. त्यां ज द्रष्टि करी त्यां ज जामी जा; तने रत्नत्रय प्रगटशे, अनाकुळ शान्तिनां निधान प्रगटशे. आ एक ज मार्ग छे. बाकी व्यवहार साधन अने निश्चय साध्य -एम उपचार वचनने निश्चय जाणी अज्ञानी व्यवहारने चोंटी पडे छे, पण एनुं फळ संसार छे.

तो श्रीमदे तो एम कह्युं छे के-

‘निश्चय राखी लक्षमां, साधन करवां सोय.’

ए अंतरंग निश्चय साधन बापु! एक शुद्ध निश्चयनुं लक्ष करे ए ज साधन भाई! बीजुं कयुं साधन? त्यां विकल्प होय तेने आरोपथी व्यवहार साधन कहे छे ए तो कहेवामात्र छे. भाई! केवळ बाह्य साधनथी कल्याण थई जाय एवो मार्ग नथी. समोसरणमां साक्षात् सर्वज्ञदेव सीमंधरनाथ विराजे छे, तेमनी भक्तिनो भाव आवे भले, पण ए बंधननो भाव छे, मोक्षमार्ग नथी. अरे! महाविदेहक्षेत्रनी कांकरी-कांकरीए अनंत वार जन्म्यो-मर्यो ने अनंतवार भगवानना समोसरणमां गयो, पण एवो ने एवो पाछो फर्यो! शुं थाय? व्रत-भक्ति आदि पोते गुंथेली विकल्पनी जाळमां गुंचाई गयो, पण स्वसन्मुख न थयो!

अहीं कहे छे- जे आ एक नियत निश्चय मोक्षमार्ग छे तेमां ज जे पुरुष स्थिति पामे छे, तेने ज निरंतर ध्यावे छे, तेने ज चेते-अनुभवे छे ते पुरुष समयना


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अहा! पांच-दस क्रोडनी संपत्ति होय, फाटु-फाटु जुवानी होय ने रूडु-रूपाळुं शरीर होय एटले बस थई गयुं, कोई वात सांभळे ज नहि. पण भाई! आ शरीर तो मसाणनी राख थशे बापु! ए तारी चीज नहि. अने ए संपत्ति ने ए महेल-मकान तारां नहि; ए तो संयोगी पुद्गलनी चीज बापा! आ राजा रावण ना थई गयो? मोटो अर्धचक्री राजा. एना महेलमां रतन जडेली लादीनी फर्श, अने स्फटिकरतननी दिवालो, स्फटिक रतननी सीडी! अहाहा....! स्फटिकरतन कोने कहेवाय? अपार वैभवमां ए रहेतो. पण विपरीत व्यभिचारी परिणामना फळमां मरीने नरकना संजोगमां गयो, नरकनो महेमान थयो. बधा ज संजोग फरी गया. (ए रूपाळुं शरीर ने संपत्ति ने महेल कांई न मळे). भाई! जरा विचार कर. आ अवसर छे हों (सम्यग्दर्शननो आ अवसर छे.)

सूत्रमां कह्युं के - ‘मोक्खपहे अप्पाणं ठवेहि’ - ए वात अहीं कळशमां कीधी के ‘तत्र एव यः स्थितिम् एति’ तेमां ज जे पुरुष स्थिति पामे छे ते समयना सारने पामे छे. अहाहा....! आनंदनो सागर प्रभु पोते छे तेनां रसरुचिने रमणता करतां अंदर आनंदनां पूर आवे, आनंदना लोढना लोढ उछळे- अहा! ते दशामां जे स्थित रहे छे ते पुरुष, कहे छे, अल्पकाळमां परमानंदस्वरूप मोक्षने पामे छे.

वळी कहे छे– ‘तं अनिशं ध्यायेत्’ तेने ज जे पुरुष निरंतर ध्यावे छे ते अवश्य मोक्षपदने प्राप्त थाय छे.

हा, पण बधुं क्रमबद्ध छे ने? जे ज्यारे थवानुं होय त्यारे थाय छे. अरे भाई! बधुं क्रमबद्ध छे ए तो यथार्थ छे, पण एनो निर्णय तें कोनी सामे जोईने कर्यो? एनो निर्णय करनारनी द्रष्टि तो शुद्ध एक ज्ञायक द्रव्य पर होवी जोईए. आम एनो यथार्थ निर्णय थाय तेने कर्ताबुद्धि उडी जाय छे ने ज्ञातापणानी द्रष्टि प्रगट थाय छे. ज्ञायकनी द्रष्टि थाय ए ज पुरुषार्थ छे. परंतु लोकोने पर्याय उपर


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नजर होय छे, तेथी तेमने क्रमबद्धनी यथार्थ श्रद्धा-मान्यता होती नथी; तेमने सम्यक् पुरुषार्थ होतो नथी. तेओने तो नियतवादी मिथ्याद्रष्टि कह्या छे.

अहीं चारित्रनी वात छे. स्वस्वरूपनी अंर्तद्रष्टि सहित तेमां ज विशेष रमणता लीनता होय तेने चारित्रवंत मुनि कहीए. एवा चारित्रवंतने, कहे छे, निरंतर तेनुं ज ध्यान कर, अर्थात् स्वरूपलीनताथी हठ मा. त्यां ज तृप्त थई जा; बहार व्यवहारना विकल्प तो दुःखनुं वेदन छे. गाथामां आवे छे ने के-

“आनाथी बन तुं तृप्त तुजने सुख अहो! उत्तम थशे”

ज्ञानमात्र निज स्वरूपमां लीन थई तेमां ज तृप्त-तृप्त थवुं ते परम ध्यान छे, ते परम सुखनी प्राप्तिनो उपाय छे. अहा! स्वस्वरूपमां लीनता एवुं जे ध्यान ते ध्यानमां ज जे तृप्त थई रहे छे, बहार (विकल्पमां) आवतो नथी ते अवश्य मोक्ष सुखने पामे छे. हवे आम छे त्यां व्यवहारने वास्तविक साधन माने ते कई रीते योग्य छे?

हवे कहे छे- ‘तं चेतति’ तेने ज चेते-अनुभवे छे ते पुरुष परमात्माना रूपने अवश्य पामे छे. अहाहा....! अतीन्द्रिय आनंदनो सागर प्रभु आत्मा छे. तेना आनंदना स्वादनी मीठाशमां जे रमे छे अने अन्य द्रव्योने नहि स्पर्शतो थको तेमां ज निरंतर विहार करे छे ते पुरुष अचिरात् अर्थात् अल्पकाळमां समयना सारने पामे छे. अहा! देव-गुरु-शास्त्र तो अन्य द्रव्य छे अने तेमनां विनयभक्तिनो भाव पण अन्यद्रव्य छे. व्यवहार रत्नत्रयनो राग अन्य द्रव्य छे. अहा! तेने अडतो नथी अने पोताना स्वरूपमां ज जे विहार करे छे ते अल्पकाळमां ज मोक्षपदने पामे छे-भाई! तुं श्रद्धा तो कर के मार्ग आ ज छे. तने आ मोंघो कठण लागे पण आ अशक्य नथी. छे तेने पामवुं तेमां अशक्य शुं? द्रष्टि फेरवीने चीज अंदर छती-विद्यमान छे त्यां द्रष्टि लगावी दे.

भाई! तने व्यवहार.... व्यवहार -एम व्यवहारनो पक्ष छे पण एनी तो दिशा ज पर तरफ छे. हवे पर दिशा भणी जाय तेने स्वनी प्राप्ति केम थाय? सीधो आथमणे दोडे तेने उगमणो हाथ आवे एम केम बने? न बने. व्यवहारना-रागना भाव तो परलक्षी छे, ते तो आत्माने स्पर्शता ज नथी. माटे एनाथी आत्मप्राप्ति थाय एम कदीय बनवुं संभव नथी. माटे कहे छे-परद्रव्यने स्पर्श्या विना ज जे पुरुष स्वस्वरूपमां निरंतर विहरे छे ते अवश्य मोक्षपदने पामे छे.

ए आव्युं छे ने भाई! गाथामां के-

“विद्वद्जनो भूतार्थ तजी व्यवहारमां वर्तन करे,
पण कर्मक्षयनुं विधान तो परमार्थ-आश्रित संतने.” -१प६.

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खरेखर तो समकिति होय तेने विद्वान् कह्यो छे. अहीं तो बहु शास्त्र भणी- भणीने थयो होय ने! तेने नामथी विद्वान् कह्यो छे, भणी-भणीने काढयुं आ. शुं? के भूतार्थ परमार्थस्वरूप वस्तु सच्चिदानंद प्रभु आत्माने छोडीने व्यवहार काढयो, व्यवहार करतां करतां (आत्मप्राप्ति) थाय एम काढयुं. पण धूळेय नहि थाय सांभळने. व्यवहारमां प्रवर्तशे तेने संसार फळशे. अहा! भूतार्थने भूली व्यवहारनुं आचरण करे ते तो विद्वान होय तोय मिथ्याद्रष्टि ज छे. चावल (कण) छोडीने फोतरा खांडे एना जेवो ए मूढ छे अहीं कहे छे- स्वरूपनी द्रष्टि सहित जेने अतीन्द्रिय आनंदनुं प्रचुर स्वसंवेदन थयुं छे अने जे निज स्वरूपमां ज नित्य विहार करे छे ते पुरुष, थोडा ज काळमां जेनो उदय नित्य रहे छे एवा समयना सारने अवश्य पामे छे.

‘जेनो उदय नित्य रहे छे-एटले शुं? के मोक्षनी पर्याय जे प्रगट थई ते सादि- अनंतकाळ सदाय एवी ने एवी रहेशे. भूतकाळ करतां भविष्यकाळ अनंतगुणो छे. तो मोक्षदशा प्रगट थई ते हवे पछी अनंत अनंतकाळ सदाय एवी ने एवी रहेशे.

चोथा आरामां उत्कृष्ट पुरुषार्थ करे तो ते ज भवे केवळज्ञान अने मोक्ष थई जाय छे. पण अहीं, पंचम आराना मुनिराज छे ते पोतानी वात करे छे एम के अहींथी स्वर्गमां जशुं, त्यांथी मनुष्य थईने त्रीजे भवे मोक्ष जशुं. पांचमो आरो छे, अमारो पुरुषार्थ धीमो छे, केवळज्ञान अने मोक्ष थाय एवो हमणां पुरुषार्थ नथी, पण त्रीजे भवे अमे जरूर मोक्षपद पामशुं. आ तो सौने सागमटे नोतरुं छे. एम के निज स्वरूपनां द्रष्टि-ज्ञान-रमणता कर, तेमां ज विहर; अमे कोलकरार करीए छीए के त्रीजे भवे तुं मोक्षपद पामीश. बेनश्रीमां (-वचनामृतमां) आवे छे ने के-“जागतो जीव ऊभो छे ते क्यां जाय? जरूर प्राप्त थाय.” एम के ज्ञायकपणे जीव नित्य छे ते अमे द्रष्टिमां लीधो छे, नजरमां लीधो छे ते हवे क्यां जाय? जरूर प्राप्त थाय. अहीं कहे छे -अल्पकाळमां अवश्य प्राप्त थशे. ल्यो, आवी वात.

जुओ, पहेलां परणवा आवता त्यारे परणवा आवनारने (वरने) सुतरनो गुंचभर्यो फाळको गुंच उकेलवा आपता. एम के गुंच उकेलवानी एनामां धीरज छे के नहि एम कसोटी करता. अहीं कहे छे-भाई! तुं अनादि व्यवहारनी गुंचमां गुंचायो छो. जो तारे मोक्षलक्ष्मीने वरवुं छे तो धीरजथी अने साहसथी गुंचने उकेली नाख. व्यवहार साधन छे ए अभिप्रायने छोडी दे तो गुंच उकली जशे. अहा! स्वरूपनां श्रद्धान-ज्ञान अने रमणता ए एक ज साधकभाव छे. तेनो काळ असंख्य समयनो छे. तेना फळमां मोक्षदशा प्रगट थाय. तेनो रहेवानो काळ अनंत-अनंत समयनो छे.

-भगवान आत्मा त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य अनादि-अनंत छे. -तेना आश्रये प्रगट थयेली साधकदशा सादि-सांत असंख्य समय छे.


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-तेना फळरूपे प्रगट थयेली केवळज्ञान अने मोक्षनी दशा सादि-अनंत छे. सम्यग्दर्शन थया पछी कोईने ते ज भवे केवळज्ञान अने मोक्ष थाय छे, अने कोईने बे, पांच, के पंदर भव सुधीमां थाय छे, तोपण साधकदशानो काळ असंख्य समय ज छे, तेमां अनंत समय न लागे.

अहा! आत्मा अनंतगुणनो दरियो प्रभु चैतन्यचमत्कारथी भरियो छे. तेनां निश्चय श्रद्धान-ज्ञान-रमणता जेने थयां तेना संसारनो अल्पकाळमां ज अंत आवीने तेने सादि-अनंतकाळ रहे तेवुं सिद्धपद प्राप्त थाय छे. अहाहा....! तेनो संसार अनादि-सांत थई जाय छे ने सादि-अनंत सिद्धपद प्राप्त थाय छे.

भावार्थः– निश्चय मोक्षमार्गना सेवनथी थोडा ज काळमां मोक्षनी प्राप्ति थाय ए नियम छे. जुओ, आ कुदरतनो नियम कह्यो.

*

‘जेओ द्रव्यलिंगने ज मोक्षमार्ग मानी तेमां ममत्व राखे छे, तेमणे समय-सारने अर्थात् शुद्ध आत्माने जाण्यो नथी’ - एम हवेनी गाथामां कहेशे; तेनी सूचनानुं काव्य प्रथम कहे छेः-

* कळश २४१ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘ये तु एनं परिहृत्य संवृति–पथ–प्रस्थापितेन आत्मना द्रव्यमये लिंङ्गे ममतां वहन्ति’ जे पुरुषो आ पूर्वोक्त परमार्थस्वरूप मोक्षमार्गने छोडीने व्यवहार-मोक्षमार्गमां स्थापेला पोताना आत्मा वडे द्रव्यमय लिंगमां ममता करे छे (अर्थात् एम माने छे के आ द्रव्यलिंग ज अमने मोक्ष पमाडशे), ‘ते तत्त्व–अवबोध–च्युताः अद्य अपि समयस्य सारम् न पश्यन्ति’ ते पुरुषो तत्त्वना यथार्थ ज्ञानथी रहित वर्तता थका हजु सुधी समयना सारने (अर्थात् शुद्ध आत्माने) देखता-अनुभवता नथी.

अहाहा...! शुद्ध चैतन्यस्वरूप-ज्ञानानंदस्वरूप प्रभु आत्मा छे. तेनी सन्मुख थईने तेनां श्रद्धान-ज्ञान-आचरण प्रगट करे ते परमार्थस्वरूप निश्चय मोक्षमार्ग छे; अने तेने सहकारी जे व्रतादिनो राग छे तेने व्यवहारथी व्यवहार मोक्षमार्ग कहीए छीए. अहीं कहे छे-परमार्थस्वरूप निश्चय मोक्षमार्गने छोडीने जे पुरुषो व्यवहार मोक्षमार्गमां स्थापेला पोताना आत्मा वडे द्रव्यमय लिंगमां ममता करे छे के आ द्रव्यलिंग ज अमने मोक्षमार्ग पमाडशे तेओ यथार्थ तत्त्वज्ञानथी रहित थया थका शुद्ध आत्मस्वरूपने पामता नथी- अनुभवता नथी.

भाई! जेने अंतरमां निजस्वरूपनां रुचि-रमणतारूप निश्चय मोक्षमार्ग प्रगटयो


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“घट घट अंतर जिन बसै, घट घट अंतर जैन;
मत मदिरा के पान सौं मतवाला समूझै न.”

भगवान आत्मा पूर्णानंदनो नाथ प्रभु अंदर त्रिकाळ जिनस्वरूप छे. भाई! जो अंदर जिनस्वरूप न होय तो पर्यायमां जिनदेव प्रगटे क्यांथी? अहा! जे अंदरमां छे तेनो आश्रय करतां पर्यायमां प्रगट थाय छे. तेनो आश्रय करी तेमां ज रमवुं-ठरवुं तेनुं नाम जैनधर्म छे, ते सत्यार्थ मोक्षमार्ग छे. आ बहारना क्रियाकांड कांई जैनधर्म नथी. शुं थाय? अज्ञानी भ्रमथी क्रियाकांडने चोंटी-वळगी पडयो छे. भाई! एवी क्रियाओ तो अनंतवार करी, पण अरेरे! लेश पण सुख न थयुं. छहढालामां कह्युं छे ने के-

“मुनिव्रत धार अनंत वार ग्रीवक उपजायो;
पै निज आतमज्ञान विना सुख लेश न पायो.”

बापु! ए महाव्रतादि जैनधर्मनां सहकारी हो, पण ते जैनधर्म नथी; ते बंधननो ज भाव छे.

जेम सक्करकंदमां उपरनी लाल छाल दूर करो तो अंदर एकली मीठाशनो पिंड पडयो छे. तेम भगवान आत्मा पुण्य-पापना भावनी छालथी रहित जुओ तो अंदर एकला अतीन्द्रिय आनंदनो पिंड छे. तेनी सन्मुख थईने तेनुं ज्ञान-श्रद्धान करवुं, तेनो अनुभव करवो ने त्यां ज रमवुं-ठरवुं ते मोक्षनो मार्ग छे. तेने छोडीने कोई द्रव्यक्रियाने- द्रव्यलिंगने भ्रमथी मोक्षमार्ग मानी अंगीकार करे छे तो ते तत्त्वज्ञानथी रहित व्यवहारमूढ मिथ्याद्रष्टि छे, तेने शुद्ध चैतन्यनो अनुभव थतो नथी; ते संसारमां ज परिभ्रमण करे छे.

अरे! मूढ जीव अध्यात्मना व्यवहारने जाणतो नथी; अने आगमनो व्यवहार, ते सुगम छे तेथी, तेने ज व्यवहार माने छे. अंदर त्रिकाळी शुद्ध अभेद एक द्रव्य छे ते निश्चय, अने तेना आश्रये जे निर्मळ निर्विकार शुद्ध रत्नत्रयनी परिणति प्रगट थाय ते व्यवहार छे. शुद्ध परिणति ते ज शुद्ध व्यवहार छे. आवा शुद्ध निश्चय-व्यवहारने मूढ जीव जाणतो नथी, बाह्य क्रियाकांडने ज व्यवहार माने छे, अने तेमां ज


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मग्न थई भ्रमथी कल्याण मानी आचरण करे छे. पण ए तो अज्ञान अने मिथ्या आचरण सिवाय कांई नथी. परमार्थ वचनिकामां आ वात पं. बनारसीदासजीए करी छे.

अहा! जेम आकाशनुं क्षेत्र अमाप... अमाप अनंत छे. तेम भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यप्रभु अमाप.. अमाप अनंतगुणरत्नोथी भरेलो रत्नाकर छे, अहा! तेनुं माप केम नीकळे? व्यवहारनो राग छे ए तो उपर-उपरनी स्थूळ मर्यादित चीज छे. एनाथी सूक्ष्म चैतन्य महाप्रभुनुं माप केम नीकळे? न नीकळे. तेनुं माप (-ज्ञान) तो अंतर्द्रष्टिथी प्राप्त सूक्ष्म सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानथी ज थाय छे, अने तेनी प्राप्ति शुद्धचेतनापरिणतिरूप मोक्षमार्गथी ज थाय छे. भाई! आ ज रीत छे. मूढ जीवो तेने अवगणीने क्रियाकांडमां ज गरकाव-मग्न रहे छे, पण तेथी तेमने कांई साध्य थतुं नथी, मात्र संसार ज फळे छे. ल्यो, आवी वात! समजाणुं कांई...?

हवे कहे छे-केवो छे ते समयसार अर्थात् शुद्धात्मा? तो कहे छे-

‘नित्य उद्योतम्’ नित्य प्रकाशमान छे (अर्थात् कोई प्रतिपक्षी थईने जेना उदयनो नाश करी शकतुं नथी),......

अहाहा....! भगवान आत्मा चैतन्यना प्रकाशना नूरनुं पूर प्रभु नित्यप्रकाशनो ध्रुवपिंड छे. नित्य उदयरूप ध्रुवनो कोण नाश करे? अहाहा! सदाय वधघट विनानुं एकरूप ध्रुव तत्त्व प्रभु आत्मा निगोदमां गयो त्यारे पण एवो ने एवो हतो, एना द्रव्यस्वभावमां कांई वधघट न थई, अने हमणां पण एवो ने एवो ज छे. अहा! आवो नित्य ध्रुव प्रकाशनो पुंज प्रभु आत्मा अंदर प्रकाशमान विराजे छे. पण अरे! एणे रागनी रमतमां रोकाईने निज तत्त्वने भाळ्‌युं नहि!

वळी ते- ‘अखण्डम्’ अखंड छे (अर्थात् जेमां अन्य ज्ञेय आदिना निमित्ते खंड थता नथी), अने ‘एकम्’ एक छे (अर्थात् पर्यायोथी अनेक अवस्थारूप थवा छतां जे एकरूपपणाने छोडतो नथी),......

शुं कीधुं? गमे तेटला ज्ञेयोने जाणे तोपण ज्ञान खंडखंड थतुं नथी. अहा! भगवान पूर्णज्ञानघन प्रभु अखंड पदार्थ छे, एकरूप छे. जाणवानी-देखवानी एम अनंतगुणनी अनंती पर्यायोरूप परिणमवा छतां त्रिकाळ एकरूप ज्ञायकरूप ज रहे छे. अहाहा....! आवी अखंड एकरूप निजज्ञायकवस्तुनां द्रष्टि ने अनुभव थाय तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. अहा! चक्रवर्ती ना राजकुमारो आवुं सम्यग्दर्शन पामे छे अने पछी स्वरूपमां रमण करवा जंगलमां चाल्या जाय छे. दीक्षा लेवा जती वेळा मातानी आज्ञा मागे छे के -माता मने रजा आप, अंदर आनंदनो नाथ मारा अनुभवमां आव्यो छे, पूर्णानंदनी प्राप्ति माटे हवे हुं जंगलमां जई साधना करवा मागुं छुं. माता! तारे


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सम्यग्द्रष्टि धर्मीने जोडे व्यवहार रत्नत्रयनो राग आवे छे. ते आवे छे तेथी सहकारी जाणी तेनुं स्थापन कर्युं छे, पण ते कांई सत्यार्थ मोक्षमार्ग नथी, वास्तवमां ते बंध पद्धति ज छे. तेने व्यवहार मोक्षमार्ग तरीके व्यवहारनयथी स्थापन कर्युं छे, निश्चयथी ते मोक्षमार्ग नथी. भाई! आ जिनेन्द्रदेवनुं फरमान छे. छतां कोई मोक्षमार्गना भ्रममां रही व्यवहार-द्रव्यलिंगनी ममता करे छे तो करो, पण तेने शुद्ध आत्मानी- समयसारनी प्राप्ति थती नथी.

वळी केवो छे ते समयसार? तो कहे छे-

‘अतुल आलोकं’ अतुल (-उपमा रहित) जेनो प्रकाश छे (कारण के ज्ञानप्रकाशने सूर्यादिकना प्रकाशनी उपमा आपी शकाती नथी.) ,.... सूर्यनो प्रकाश तो जड छे. सूर्य तो जड प्रकाशनो पुंज छे, ज्यारे भगवान आत्मा तो चैतन्यप्रकाशनो पुंज छे. तेथी सूर्यादिकना प्रकाश साथे तेनी उपमा आपी न शकाय तेवो अतुल प्रकाशपुंज प्रभु आत्मा छे.

वळी केवो छे? ‘स्वभाव–प्रभा–प्राग्भारं’ स्वभाव-प्रभानो पुंज छे (अर्थात् चैतन्यप्रकाशना समूहरूप छे). जेमां रागादि विभावनी गंध नथी एवो स्वभावप्रभानो पुंज प्रभु आत्मा छे. राग तो अंधकार छे. जेने रागनो रस छे तेने भगवान आत्मा अनुभवमां आवतो नथी.

वळी केवो छे? ‘अमलं’ अमल छे (अर्थात् रागादि-विकाररूपी मळथी रहित छे). पुण्य-पापना भावथी अंदर भगवान आत्मा भिन्न छे, आवो रागरहित शुद्ध चैतन्यमय आत्मा जेनी द्रष्टिमां न आवे तेने धर्म न थाय. राग अने व्यवहारना प्रेमीओ अंदर रागरहित शुद्ध आत्मा छे तेने पामता नथी.

आ रीते, जेओ द्रव्यलिंगमां ममत्व करे छे तेमने निश्चय-कारण समयसारनो अनुभव नथी; तो पछी तेमने कार्य समयसारनी प्राप्ति क्यांथी थाय? न थाय.

(प्रवचन नं. प०० थी प०४ * दिनांक २२-११-७७ थी २६-११-७७)


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गाथा–४१३
पासंडीलिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु ।
कुव्वंति जे ममत्तिं तेहिं ण णादं समयसारं।। ४१३।।
पाषण्डिलिङ्गेषु वा गृहिलिङ्गेषु वा बहुप्रकारेषु ।
कुर्वन्ति ये ममत्वं तैर्न ज्ञातः समयसारः।। ४१३।।

हवे आ अर्थनी गाथा कहे छेः-

बहुविधनां मुनिलिंगमां अथवा गृहीलिंगो विषे
ममता करे, तेणे नथी जाण्यो ‘समयना सार’ ने. ४१३.

गाथार्थः– [ये] जेओ [बहुप्रकारेषु] बहु प्रकारनां [पाषण्डिलिङ्गेषु वा] मुनिलिंगोमां [गृहिलिङ्गेषु वा] अथवा गृहस्थलिंगोमां [ममत्वं कुर्वन्ति] ममता करे छे (अर्थात् आ द्रव्यलिंग ज मोक्षनुं देनार छे एम माने छे), [तैः समयसारः न ज्ञातः] तेमणे समयसारने नथी जाण्यो.

टीकाः– जेओ खरेखर ‘हुं श्रमण छुं, हुं श्रमणोपासक (-श्रावक) छुं’ एम द्रव्यलिंगमां ममकार वडे मिथ्या अहंकार करे छे, तेओ अनादिरूढ (अनादि काळथी चाल्या आवेला) व्यवहारमां मूढ (मोही) वर्तता थका, प्रौढ विवेकवाळा निश्चय (-निश्चयनय) पर अनारूढ वर्तता थका, परमार्थसत्य (-जे परमार्थे सत्यार्थ छे एवा) भगवान समयसारने देखता-अनुभवता नथी.

भावार्थः– अनादि काळनो परद्रव्यना संयोगथी थयेलो जे व्यवहार तेमां ज जे पुरुषो मूढ अर्थात् मोहित छे, तेओ एम माने छे के ‘आ बाह्य महाव्रतादिरूप भेख छे ते ज अमने मोक्ष प्राप्त करावशे’ , परंतु जेनाथी भेदज्ञान थाय छे एवा निश्चयने तेओ जाणता नथी. आवा पुरुषो सत्यार्थ, परमात्मरूप, शुद्धज्ञानमय समयसारने देखता नथी.

हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः- _________________________________________________________________ १. अनारूढ = नहि आरूढ; नहि चडेला.