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जोयुं? शुं कह्युं? के बधाय भगवान अर्हंतदेवोने शुद्धज्ञानमयपणुं छे. अहाहा...! भगवान आत्मा तो सदा शुद्धज्ञानमय ज्ञाताद्रष्टा प्रभु छे. तेना आश्रये उत्पन्न आत्मानी निर्मळ दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय परिणति ते मोक्षमार्ग छे. अहीं कहे छे-बधाय भगवान अर्हंतदेवोने द्रव्यलिंगने आश्रयभूत शरीरना ममकारनो त्याग छे अने तेथी शरीराश्रित द्रव्यलिंगना त्याग वडे तेओने शुद्ध दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी मोक्षमार्गपणे उपासना जोवामां आवे छे. जुओ, शरीरनी क्रिया अने रागनी क्रियानो त्याग-अभाव करी दर्शनज्ञान- चारित्रनी उपासना करवी ते जिनमार्ग छे, मोक्षमार्ग छे. बधाय भगवान अर्हंतदेवोए आ मोक्षमार्गनी उपासना करी मोक्षपद प्राप्त कर्युं छे. भाई! द्रव्यलिंग हो, पण ते मोक्षमार्गरूप नथी, आकरी वात बापा! कायरनां काळजां कंपे एवी वात छे, पण आ सत्य वात छे. अरे! लोकोए बहारनी तपस्या अने बाह्य त्यागमां (द्रव्यलिंगमां) धर्म मान्यो छे, पण भाई! ते मार्ग नथी, जिनमार्ग नथी. स्वस्वरूपमां उग्र रमणता करवी तेनुं नाम चारित्र ने ते धर्म ने ते तप छे. भगवाने आवी तपश्चर्या करी मोक्षनी साधना करी छे. समजाणुं कांई...!
अहीं दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी उपासना करवी कही ते निर्मळ रत्नत्रयना परिणामने प्राप्त करवानी अपेक्षाए वात छे, बाकी सेवना-उपासना तो त्रिकाळी शुद्धज्ञानमय द्रव्यनी करवानी छे. त्रिकाळी शुद्ध निज ज्ञायकस्वरूपनी द्रष्टिपूर्वक तेमां ज रमणता करवाथी निर्मळ दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी वीतरागी दशा प्रगट थाय छे अने तेने रत्नत्रयनी सेवना-उपासना कहे छे, कांई पर्यायनी द्रष्टि अने उपासना करवां छे एम अर्थ नथी. पर्यायने सेवता जोवामां आवे छे एम केम कह्युं? के नग्नदशा अने रागनी सेवानो अभाव छे तो निर्मळ रत्नत्रयने सेवे छे एम कह्युं; बाकी सेवना तो त्रिकाळी द्रव्यनी ज छे; ध्याननुं ध्येय तो शुद्ध ज्ञायक ज छे. दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी दशा ते ध्याननी पर्याय छे, ने ध्याननुं ध्येय त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य छे. ध्याननी पर्यायनुं द्रव्य ज ध्येय होवाथी, राग ध्येय नहि होवाथी, ध्याननी पर्यायने सेवे छे एम अहीं कह्युं छे.
खरेखर तो नग्नता अने रागना त्यागनुं कर्तापणुं पण एने नथी, एने तो स्वस्वरूपनां द्रष्टि-रमणता छे. स्वस्वरूपमां द्रष्टि-रमणता करतां शुद्ध दर्शन-ज्ञान- चारित्रनी पर्याय प्रगट थाय छे; तेने ते सेवे छे एम अहीं कह्युं छे, अने त्यारे द्रव्यलिंगनो त्याग तो सहज ज छे. आ वातने ‘तेओ शरीराश्रित द्रव्यलिंगनो त्याग करीने दर्शनज्ञानचारित्रने मोक्षमार्ग तरीके सेवता जोवामां आवे छे’ - आ शब्दोमां कही छे. समजाणुं कांई....?
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‘जो देहमय द्रव्यलिंग मोक्षनुं कारण होत तो अर्हंतदेव वगेरे देहनुं ममत्व छोडी दर्शनज्ञानचारित्रने शा माटे सेवत? द्रव्यलिंगथी ज मोक्षने पामत! माटे ए नक्की थयुं के-देहमय लिंग मोक्षमार्ग नथी, परमार्थे दर्शनज्ञानचारित्ररूप आत्मा ज मोक्षनो मार्ग छे.’
शुं कीधुं? आ शरीरनी नग्नदशा, पांच महाव्रत अने अट्ठावीस मूलगुणने धारण करवुं-एवुं जे द्रव्यलिंग ते जो मोक्षनुं कारण होत तो अर्हंत भगवंतो अने मुनिवरो देह अने शुभरागनुं ममत्व छोडी दर्शन-ज्ञान-चारित्रने शा माटे सेवत? जो द्रव्यलिंगथी मुक्ति थती होत तो तेओ दर्शन-ज्ञान-चारित्रने केम सेवत? आ अट्ठावीस मूलगुणनो बाह्य व्यवहार ते वास्तविक मुनिपणुं नथी भाई! ए तो भावलिंगी संत-मुनिवरने सहचरपणे होय छे, निमित्तपणे होय छे तेथी तेने द्रव्यलिंग कह्युं छे. अहाहा...! द्रव्यलिंग नथी एम पण नहि, ने द्रव्यलिंग सत्यार्थ मोक्षमार्ग छे एम पण नहि. भाई! मारग जेम छे तेम यथार्थ जाणवो जोईए. बाकी वस्त्रादि राखे ए तो भावलिंगेय नहि ने द्रव्यलिंगेय नहि, ए तो कुलिंग छे. छहढालामां आवे छे ने के-
“धारै कुलिंग लही महतभाव, ते कुगुरु जन्मजल उपलनाव.” आवी वात छे. प्रश्नः– पण अमे तो बापदादा करता’ ता एम करीए. उत्तरः– एम न होय भाई! अहीं मोक्षमार्गमां बापदादानुं (कुलपद्धतिनुं) शुं काम छे? बापदादा माने तेम मानवुं ने करवुं ते मार्ग नथी. जेने अंतरमां निर्मळ दर्शन- ज्ञान-चारित्रमय भावलिंग प्रगटे तेने बहारमां अट्ठावीस मूलगुणना विकल्परूप द्रव्यलिंग होय छे, परंतु ए तो बधो राग छे भाई! मुनिराज तो एने छेदीने परम मुक्तिपदने पामे छे. मारग बहु झीणो छे भाई!
अरे! एणे निज शुद्ध चैतन्यनी भावना भावीने कदी सम्यग्दर्शन प्रगट कर्युं नथी! भजनमां आवे छे ने के-
“शुद्ध बुद्ध सुखकंद मनोहर, चेतनभाव न भाये-हम तो कबहू न निजघर आये” अरे! ए कदी निजघरमां-चैतन्यघरमां प्रवेश्यो नथी! शास्त्रनुं भणतर करे ने कंईक शास्त्र-ज्ञान थाय त्यां माने के मने ज्ञान प्रगट थयुं छे. पण ए तो शब्दज्ञान-शब्दश्रुत बापा! ए क्यां आत्मज्ञान छे. वीतराग परमेश्वरनी वाणी जे जिनवाणी तेना निमित्तथी उपजेलुं ज्ञान ए शब्दश्रुत छे. एने शब्दनो आश्रय छे ने? शब्दना आश्रये ज्ञान थाय तेने शब्दश्रुत कह्युं छे. आ तो वीतरागनी वाणीनी वात हों; बाकी श्वेतांबरादिनां
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अहाहा...! कहे छे- द्रव्यलिंग जो मोक्षनुं कारण होत तो मुनिवरो तेनो त्याग शा माटे करत? तेनुं ममत्व छोडी दर्शन-ज्ञान-चारित्रने शा माटे सेवत? द्रव्यलिंगथी ज मोक्षने पामत! पण एम नथी भाई! माटे ए नक्की थयुं के देहमय लिंग मोक्षमार्ग नथी; परमार्थे दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप आत्मा ज मोक्षनो मार्ग छे.
अहाहा...! अतीन्द्रिय आनंदनी प्राप्ति-पूरण आनंदनी प्राप्ति थवी ते मोक्ष छे. नास्तिथी कहीए तो दुःखनो सर्वथा अभाव थवो, सर्वथा दुःखथी मूकावुं ते मोक्ष छे. रागनो अंश पण आत्मानी शान्तिने-आनंदने रोकनारो छे. तेथी मुनिवरो देह ने रागनुं ममत्व छोडी एक दर्शन-ज्ञान-चारित्रने ज सेवे छे. अहीं दर्शन-ज्ञान-चारित्रने सेवे छे कह्युं ते पर्यायथी-व्यवहारथी वात छे. निश्चय दर्शन-ज्ञान-चारित्र ए त्रण पर्याय-भेद छे, पण निश्चये ए त्रण एक आत्मा ज छे; तेथी एक आत्मानुं ज सेवन छे. आ वात अगाउ गाथा १६मां आवी गई छे. त्यां कळश १९ना भावार्थमां स्पष्ट कर्युं छे के-“व्यवहारी लोको पर्यायमां-भेदमां समजे छे तेथी अहीं ज्ञान, दर्शन, चारित्रना भेदथी समजाव्युं छे.”
स्वस्वरूपना आश्रये उत्पन्न थयेल निर्मळ दर्शन-ज्ञान-चारित्र ए त्रणे पर्याय छे अने ते व्यवहार छे. नवतत्त्वनी भेदरूप श्रद्धा, शब्दश्रुतनुं ज्ञान अने पंचमहाव्रतनुं पालन ए तो असद्भूत व्यवहार छे, निर्मळ रत्नत्रय सद्भूत व्यवहार छे अने तेने आश्रयभूत भगवान आत्मा शुद्ध एक क्षायक प्रभु ते निश्चय छे. दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी सेवना कहीए ते व्यवहार छे; निश्चये तो एक आत्मानी ज सेवना छे. बहु झीणुं भाई!
परमार्थे दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय आत्मा ज मोक्षनो मार्ग छे. अहाहा..! भेदने छोडीने जेनो अपरंपार महिमा छे एवा चैतन्यचिंतामणि प्रभु आत्माने आश्रये प्रगट निर्मळ रत्नत्रय ए ज सत्यार्थ मोक्षमार्ग छे, बाह्य द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग नथी.
[प्रवचन नं ४९७-४९८*दिनांकः १९-११-७७, २०-११-७७]
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अथैतदेव साधयति–
दंसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गं जिणा बेंति।। ४१०।।
दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग जिना ब्रुवन्ति।। ४१०।।
हवे ए ज सिद्ध करे छे (अर्थात् द्रव्यलिंगो मोक्षमार्ग नथी, दर्शन-ज्ञान-चारित्र ज मोक्षमार्ग छे-एम सिद्ध करे छे)ः-
चारित्र–दर्शन–ज्ञानने बस मोक्षमार्ग जिनो कहे. ४१०.
गाथार्थः– [पाषण्डिगृहिमयानि लिङ्गानि] मुनिनां अने गृहस्थनां लिंगो [एषः] ए [मोक्षमार्गः न अपि] मोक्षमार्ग नथी; [दर्शनज्ञानचारित्राणि] दर्शन-ज्ञान-चारित्रने [जिनाः] जिनदेवो [मोक्षमार्ग ब्रुवन्ति] मोक्षमार्ग कहे छे.
टीकाः– द्रव्यलिंग खरेखर मोक्षमार्ग नथी, कारण के ते (द्रव्यलिंग) शरीराश्रित होवाथी परद्रव्य छे. दर्शन-ज्ञान-चारित्र ज मोक्षमार्ग छे, कारण के तेओ आत्माश्रित होवाथी स्वद्रव्य छे.
भावार्थः– मोक्ष छे ते सर्व कर्मना अभावरूप आत्मपरिणाम (-आत्माना परिणाम) छे, माटे तेनुं कारण पण आत्माना परिणाम ज होवुं जोईए. दर्शन-ज्ञान- चारित्र आत्माना परिणाम छे; माटे निश्चयथी ते ज मोक्षनो मार्ग छे.
लिंग छे ते देहमय छे; देह छे ते पुद्गलद्रव्यमय छे; माटे आत्माने देह मोक्षनो मार्ग नथी. परमार्थे अन्य द्रव्यने अन्य द्रव्य कांई करतुं नथी ए नियम छे.
(अर्थात् जो द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग नथी अने दर्शनज्ञानचारित्र ज मोक्षमार्ग छे) तो आम (नीचे प्रमाणे) करवुं-एम हवे उपदेश
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हवे ए ज सिद्ध करे छे. अर्थात् द्रव्यलिंगो मोक्षमार्ग नथी, दर्शन-ज्ञान-चारित्र ज मोक्षमार्ग छे- एम सिद्ध करे छेः-
‘द्रव्यलिंग खरेखर मोक्षमार्ग नथी, कारण के ते (-द्रव्यलिंग) शरीराश्रित होवाथी परद्रव्य छे. दर्शन-ज्ञान-चारित्र ज मोक्षमार्ग छे, कारण के तेओ आत्माश्रित होवाथी स्वद्रव्य छे.’
जुओ, श्री कुंदकुंदाचार्यदेव-संत-महंत-महामुनिवर जिन भगवंतोनी साख दईने आ कहे छे के- द्रव्यलिंग खरेखर मोक्षमार्ग नथी. केम? केमके ते शरीराश्रित छे; पराश्रित छे अने तेथी परद्रव्य छे. अहाहा...! राग-मंदकषाय थाय ते पण शरीराश्रित-कर्म- आश्रित भाव छे, माटे ते परद्रव्य छे. भाई! आ शास्त्रनुं परसत्तावलंबी ज्ञान छे ते परद्रव्य छे, बंधनुं कारण छे; ते कांई आत्माश्रित परिणाम नथी.
अहाहा...! भगवान आत्मा निर्मळानंद ज्ञानानंद प्रभु अनंतगुणोनो ढग-ढगलो छे. अहाहा...! एकलुं ज्ञान अने आनंदनुं दळ प्रभु आत्मा छे. अहीं कहे छे- द्रव्यलिंग छे ते आत्माश्रित नथी, शरीराश्रित छे अने तेथी परद्रव्य छे. आ व्यवहारनो रागवृत्ति जे उठे छे ते पराश्रित होवाथी परद्रव्य छे.
तो अमे आ सांभळीए छीए ते शुं छे? अहा! शास्त्र सांभळवाना जे परिणाम छे ते पराश्रित परिणाम छे अने तेथी परद्रव्य छे. वळी सांभळीने जे शब्दज्ञान थाय ते छे तो ज्ञाननी पर्याय, ते शब्दजनित नथी छतां शब्दाश्रित ज छे तेथी परद्रव्य छे; ते आत्मानुं वास्तविक ज्ञान नथी. बहु झीणी वात! भाई! पंचमहाव्रतना परिणाम ए पराश्रित भाव छे अने तेथी परद्रव्य छे. अहा! पूर्णानंदनो नाथ प्रभु पोते छे तेनो जेने आश्रय नथी ते सघळा ज्ञान श्रद्धान ने आचरणना परिणाम पराश्रित होवाथी परद्रव्य छे. भाई! आ बधुं शब्दश्रुत ज्ञान, नवतत्त्वनुं भेदरूप श्रद्धान, अने पंचमहाव्रतना परिणाम-ए सर्व पराश्रित भाव छे अने तेथी परद्रव्य छे. केमके तेमां शुद्ध चैतन्यनो आश्रय नथी. समजाणुं कांई...? हवे आवी वात आकरी पडे, केमके कदी सांभळी नथी ने! पण शुं थाय?
हा, पण नियमसारमां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र- जे स्वद्रव्यना आश्रये थयेला निर्मळ रत्नत्रयना परिणाम-तेने पण परद्रव्य कह्युं छे. ते केवी रीते छे?
हा, त्यां स्व-आश्रित निर्मळ रत्नत्रयनी पर्यायने पण परद्रव्य कह्युं छे. त्यां
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आशय एम छे के-जेम परद्रव्यना आश्रये पोतानी नवी निर्मळ मोक्षमार्गनी पर्याय प्रगटती नथी तेम मोक्षमार्गनी निर्मळ पर्यायना आश्रये पण पोतानी नवी निर्मळ मोक्षमार्गनी पर्याय प्रगटती नथी. एक शुद्ध चैतन्यसत्तामय स्वद्रव्यना आश्रये ज नवी निर्मळ-निर्मळ पर्याय प्रगटे छे. तेथी त्यां निर्मळ रत्नत्रयनी पर्यायने पण परद्रव्य कही छे. (त्यां तो पर्यायनो-निर्मळ पर्यायनो पण -आश्रय छोडावी स्वद्रव्यनो ज आश्रय कराववानुं प्रयोजन छे.) समजाणुं कांई...?
अहीं जे शुभरागनो विकल्प छे तेने परद्रव्य कह्युं छे, केमके ते पराश्रित भाव छे. नवतत्त्वना भेदनुं श्रद्धान, भेदनुं ज्ञान ने रागनुं आचरण-वेदन ए बधा पराश्रित भाव होवाथी परद्रव्य छे, माटे ते खरेखर मोक्षमार्ग नथी, एक निर्मळ दर्शन-ज्ञान-चारित्र ज मोक्षमार्ग छे, कारण के ते स्व-आश्रित होवाथी स्वद्रव्य छे.
अहाहा...! आत्मा पोते पूर्णानंदनो नाथ प्रभु भगवान नाम ज्ञान-आनंदनी लक्ष्मीनो भंडार छे. पर्याय, राग ने निमित्तथी हठी, तेनी सन्मुख थवाथी शुद्ध दर्शन- ज्ञान-चारित्रनी पर्याय प्रगट थाय छे, ते मोक्षमार्ग छे. दर्शन-ज्ञान-चारित्र ज मोक्षमार्ग छे एम ‘ज’ कहीने एकान्त कर्युं छे. आ सम्यक् एकान्त छे अने ते बीजो कोई (व्यवहार, राग) मोक्षमार्ग नथी एम सिद्ध करे छे. निश्चय मोक्षमार्ग आत्माश्रित छे माटे ते स्वद्रव्य छे. अहाहा...! निर्विकल्प निराकुळ आनंदनी दशानो अनुभव ते स्वद्रव्याश्रित होवाथी स्वद्रव्य छे. अहीं आत्माना आश्रये प्रगट थयेलो मोक्षमार्ग ते आत्मा-स्वद्रव्य छे, अने शरीराश्रित-पराश्रित जे भाव ते परद्रव्य छे, आत्मा नथी एम वात छे. समजाणुं कांई..?
‘मोक्ष छे ते सर्व कर्मना अभावरूप आत्मपरिणाम (-आत्माना परिणाम) छे, माटे तेनुं कारण पण आत्माना ज परिणाम होवुं जोईए. दर्शन-ज्ञान-चारित्र आत्माना परिणाम छे; माटे निश्चयथी ते ज मोक्षनो मार्ग छे.’
जुओ, आ भावार्थ पं. श्री जयचंदजीए लखेलो छे. तेओ शुं कहे छे? के मोक्ष छे ते सर्वकर्मना अभावरूप आत्मपरिणाम छे. एक तो मोक्ष छे ते आत्मपरिणाम छे अने ते सर्वकर्मना अभावरूप आत्म-परिणाम छे. अहाहा..! मोक्ष अर्थात् सिद्धपद एटले शुं? आत्मानी पूर्ण पवित्र, पूर्ण वीतराग, पूर्ण आनंदमय दशानुं नाम मोक्ष छे. दुःखथी मूकावुं ने पूर्ण पवित्र वीतराग परिणामनुं प्रगट थवुं एनुं नाम मोक्ष छे. भावकर्म, द्रव्यकर्म अने नोकर्मना अभावरूप परिणामनुं नाम मोक्ष छे, ते आत्म-परिणाम छे. माटे, कहे छे, तेनुं कारण पण आत्माना परिणाम ज होवुं जोईए. जुओ, आ न्याय कहे छे. एम के- आत्माना पूर्ण दर्शन, ज्ञान, सुख अने
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अहाहा...! आत्मा स्वरूपथी मुक्तस्वरूप ज छे. १४-१प मी गाथामां अबद्ध-स्पृष्ट कह्यो छे ने? ए नास्तिथी वात छे. अबद्ध-स्पृष्ट नाम रागथी ने कर्मथी बंधायेलो ने स्पर्शायेलो नथी एवो भगवान आत्मा सदा मुक्तस्वरूप ज छे. आवा निज मुक्तस्वरूपना आश्रये जे मुक्तिनी-पूर्ण पवित्रता ने सुखनी दशा प्रगट थाय तेनुं नाम मोक्ष छे. ते आत्मानो परिणाम छे, माटे तेनुं कारण पण आत्मानो परिणाम होवो जोईए अहाहा..! पूरण अतीन्द्रिय ज्ञाननी दशा, अतीन्द्रिय आनंदनी दशा अतीन्द्रिय वीर्यनी दशा-एवो जे मोक्ष-सिद्धपद ते जो आत्मपरिणाम छे तो तेनुं कारण जे मोक्षमार्ग ते आत्मपरिणाम ज होवो जोईए. भाई! आ तो लोजीकथी-न्यायथी सिद्ध करे छे. भाषा तो सादी छे, भाव तो जे छे ते छे; पात्रता केळवी समजे तो समजाय एवो छे. हवे कहे छे-
‘दर्शन-ज्ञान-चारित्र आत्माना परिणाम छे; माटे निश्चयथी ते ज मोक्षनो मार्ग छे.’ जोयुं? शब्दश्रुतनुं ज्ञान, नवतत्त्वनी भेदरूप श्रद्धानो विकल्प अने पंचमहाव्रतादिना परिणाम ते मोक्षमार्ग नथी एम अहीं कहेवुं छे; केम! केमके ते आत्माना परिणाम नथी. ज्यारे दर्शन-ज्ञान-चारित्र ते आत्माना परिणाम छे, माटे निश्चयथी ते ज मोक्षमार्ग छे. अहाहा...! परमपारिणामिक ध्रुव स्वभावभाव-तेनी निर्मळ रत्नत्रयरूप परिणति ते मोक्षनुं कारण अने तेनी पूर्णता थवी ते मोक्ष छे. पण पराश्रित परिणाम-विभाव परिणाम ते कारण अने आत्मपरिणामरूप मोक्ष तेनुं कार्य-एम नथी, एम होई शकतुं नथी. व्यवहार रत्नत्रय ते कारण ने मोक्ष तेनुं कार्य एम नथी, कारण के व्यवहार रत्नत्रयना परिणाम आत्मपरिणाम नथी; ते अनात्म-परिणाम छे; अजीवना परिणाम छे. अजीवना परिणामथी जीवना परिणामरूप मोक्ष केम थाय? न थाय.
आ देह छे ते पृथक् वस्तु छे, ते आत्मा नथी; अने देहादि परना आश्रये थयेला शुभाशुभ रागना परिणाम ते विभाव छे, ते पण आत्मा नथी. द्रव्यलिंग ते आत्मा नथी. अहाहा...! त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य कारण परमात्मा प्रभु पोते छे, तेनो पूर्ण आश्रय थतां परमात्मदशा-मोक्षदशा नवी प्रगटे ते आत्मपरिणाम छे, ते स्वद्रव्यना परिणाम छे. अरे! लोको मोक्ष शुं ते पण समजे नहि अने माने के अमे धर्मात्मा छीए! बधी गरबड थई गई छे. शुं थाय? अहीं कहे छे- मोक्ष ते आत्मपरिणाम छे अने तेनुं कारण मोक्षनो मार्ग पण आत्माश्रित परिणाम छे. माटे आत्माश्रित शुद्ध दर्शन-ज्ञान-चारित्रना परिणाम ते ज मोक्षमार्ग छे, पण व्यवहार श्रद्धान, व्यवहार ज्ञान ने व्यवहार चारित्र ते मोक्षमार्ग नथी, केमके ते आत्मपरिणाम नथी. अहो! बहु टुंकामां पण केटलुं समाडी दीधुं छे! अहा! पूर्वना पंडितोए केवुं सरस काम कर्युं छे!
एक पंडीते पूछयुं के - नवमी गै्रवेयकना देवो छे तेमने ३१ सागरोपम सुधी
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स्त्रीनो विषय नथी, तेमने आपणी जेम आहारपाणी नथी, हजारो वर्षे आहारनी वृत्ति उठे त्यारे कंठमांथी अमृत झरी जाय. आम रसना ईन्द्रियनो विषय नथी. एकेन्द्रिय जीवो हणाय एवुं पण त्यां नथी. तो पछी तेमने संयम कहेवाय के नहि? न कहेवाय. अंदर आत्मानुं श्रद्धान थया पछी अंतर्लीनता थतां आहारादिनो विकल्प उठतो नथी तेनुं नाम संयम छे. मात्र बाह्य त्याग ते संयम नथी. यावत्-जीवन बाह्य त्याग होवा छतां भगवाने तेमने संयम कह्यो नथी, केमके संयम स्वस्वरूपमां लीनता-रमणतानुं नाम छे.
अरे! लोकोने संयम शुं चीज छे एनी खबर नथी. सम्यग्दर्शन अने स्वानुभूति प्रगटया पछी निज ज्ञानानंदस्वरूपमां अधिक-अधिक लीनता-रमणता थवी, अतीन्द्रिय आनंदनी भरपुर जमावट थवी तेने संयम कहे छे. अहीं ए ज कहे छे के निश्चयथी शुद्ध दर्शन-ज्ञान-चारित्र ज मोक्षनो मार्ग छे. अहाहा...! भगवान आत्मा निर्मळानंदनो नाथ सच्चिदानंद प्रभु छे तेने स्पर्शीने, तेमां एकाग्रता-लीनता-रमणतापूर्वक जे सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्रना परिणाम थाय ते ज मोक्षनुं कारण छे केमके तेनी पूर्णता थाय ते मोक्ष छे. मोक्ष पण आत्माना परिणाम अने तेनुं कारण पण आत्मपरिणाम छे. आ सिद्धांत छे. व्यवहारना आश्रयवाळा परिणाम कदीय मोक्षनुं कारण थता नथी, केमके ते अनात्मपरिणाम छे. समजाणुं कांई...! हवे कहे छे-
‘लिंग छे ते देहमय छे; देह छे ते पुद्गलद्रव्यमय छे; माटे आत्माने देह मोक्षनो मार्ग नथी. परमार्थे अन्य द्रव्यने अन्य द्रव्य कांई करतुं नथी ए नियम छे.’
आ देहनी नग्न दशा, पंचमहाव्रतना परिणाम, अठ्ठावीस मूलगुणनुं पालन-ए देहमय लिंग छे, माटे ते पुद्गलद्रव्यमय छे. मुनिराजने ते होय छे अवश्य, पण ते मोक्षमार्ग नथी. व्रतादिना परिणाम ते रागभाव छे, ते देहाश्रित-पराश्रित भाव छे अने परद्रव्यमय-पुद्गलद्रव्यमय छे; तेथी ते मोक्षमार्ग नथी.
आवुं स्पष्ट छे छतां कोई लोको शुभ जोग छे ते मोक्षमार्ग छे एम पोकारे छे; शुभरागने धर्म मानता नथी ते तमारुं एकान्त छे-एम कहे छे.
कोई गमे ते कहे; अहीं स्पष्ट वात छे के-शुभभाव छे ते राग छे, विभाव छे, दुःख छे. अहा! दुःखना ते परिणाम शुद्ध दर्शन-ज्ञान-चारित्रनुं कारण केम थाय? ते मोक्षनुं कारण केम थाय? कदीय न थाय.
अरे! पर प्रत्येना रागनी रुचिना कारणे ते अनंतकाळथी रझळ्यो छे, रागनी रुचि खस्या विना अंदर ध्रुव एक ज्ञायकभाव पोते छे तेनी रुचि थती नथी. अहाहा..! अनंत अनंत गुणोनी खाण एक ज्ञायकस्वभावमय पोते छे; तेनी द्रष्टि अने रुचि
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आत्माना आश्रये पण धर्म थाय अने शुभरागना-द्रव्यलिंगना आश्रये पण धर्म थाय ते अनेकान्त नथी, ते स्याद्वाद नथी, ए तो फुदडीवाद छे. स्वस्वरूपनो आश्रय छोडीने शुभरागथी धर्म थवानुं माने ए तो मोटुं अज्ञान छे. अहा! वीतराग-स्वभावी भगवान आत्माने वीतरागभावथी विरुद्ध कोई भाव साथे संबंध नथी.
मोक्ष छे ते आत्माना आश्रये थनारुं परिणाम छे, अने तेनुं कारण पण आत्माश्रित परिणाम ज छे. राग तो विभाव छे, ते आत्मपरिणाम नथी, निश्चयथी तेने पुद्गलपरिणाम अने पुद्गल कह्या छे. अरे! अनंतकाळथी एणे आत्मद्रष्टि करी नथी, एणे अंदरमां नजर नाखी नथी! आत्मा अंदर शांतरस-चैतन्यरस-वीतरागरसथी पूर्ण भरेलो अखंडानंद प्रभु छे. तेना आश्रये पूर्ण पवित्र, पूर्ण ज्ञानने पूर्ण आनंदनी दशा प्रगट थाय ते मोक्ष छे, अने मोक्षनो मारग पण वीतरागी दशा ज छे, राग नहि. राग तो पुद्गलस्वभाव छे, तेनाथी मोक्ष केम थाय? कदीय न थाय.
अहा! भगवान जिनेश्वरदेवे शुं कह्युं छे तेनो तेने कदीय विचार नथी. भाई! जो तो खरो बापु! सर्वज्ञदेव एम कहे छे के- देहमय लिंग ते मोक्षनो मार्ग नथी. हवे एमां शुभ छोडीने तुं अशुभमां जा- एम वात क्यां छे? तने व्यवहार छोडीने नीचे जवानी एमां वात नथी, पण व्यवहारथी उपर उठीने स्वस्वरूपमां रमणता ने अंतर्लीनता करवानी आ वात छे. सम्यग्दर्शन सहित सम्यक्चारित्र आत्माना अवलंबनथी प्रगट थाय छे, व्यवहारना रागथी नहि; माटे व्रतादिना विकल्प जे होय छे तेने छोडीने स्वरूपमां लीन थवानी आ वात छे. भाई! शुभरागना परिणामने देहमय लिंग कह्युं छे, अने ते अन्यद्रव्यमय होवाथी मोक्षमार्गरूप नथी एम कहे छे. द्रव्यलिंगना पक्षवाळाने आकरुं लागे पण आ सत्य वात छे.
आ फुंदां होय छे ने? जंगलमां बहु होय. बेटरीना प्रकाशमां देखाय. तेने शरीर नानुं अने पडखे बे मोटी पांखो होय छे. प्रकाशमां उडी उडीने आवे. अहा! ते नानकडा शरीरमां अंदर चैतन्यचमत्कारमय चैतन्य महाप्रभु बिराजे छे. अरे! निज स्वरूपना भान विना अज्ञानथी एणे आवा अनंत अनंत अवतार धारण कर्या छे; हजु आ अवसरे पण जो मिथ्यात्व रही जशे, मटशे नहि तो एवा अनंत भव माथे आवी पडशे. भाई! हमणां पण अंदर चैतन्यचमत्कारथी भरेलो मोटो भगवान छे. तेनो चमत्कार शुं कहीए? तेना आश्रयमां जतां निर्मळ निर्मळ रत्नत्रयना
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परिणाम प्रगट थाय छे, मोक्षमार्गने मोक्ष प्रगट थाय छे. अरे! पण पोते पोताने ज भूली गयो छे, ने भूलनी भ्रमणाथी भवभ्रमण कर्या करे छे; कदीक उठे छे तो देहमय लिंगमां-द्रव्यलिंगमां मूर्च्छा पामी तेने ज मोक्षमार्ग माने छे! पण भाई! लिंग देहमय छे, जड पुद्गलद्रव्यमय छे, ते मोक्षनुं कारण नथी. शरीरनी क्रिया ने रागनी क्रिया ते मोक्षनुं कारण नथी.
त्यारे कोई वळी कहे छे- आ तो नवो सोनगढनो पंथ छे. बापु! आ कोई नवो पंथ नथी, कोईना घरनो पंथ नथी, सोनगढनो पंथ नथी; आ तो अनादिकालीन वीतरागनो पंथ छे.
बेनश्रीना वचनामृतमां आवे छे के- कनकने काट नथी. अग्निने उधई नथी, तेम आत्माने आवरण, उणप के अशुद्धि नथी. सादी भाषामां आ तो मूळ रहस्य कह्युं छे. अहाहा..! आत्मा परिपूर्ण प्रभु त्रिकाळ निरावरण शुद्ध छे, बेहद ज्ञान अने आनंदनो भंडार छे. तेना आश्रये नीपजता परिणाम मोक्षनुं कारण बने छे, पण देहमय लिंग मोक्षनुं कारण नथी, केमके परमार्थे अन्यद्रव्यने अन्यद्रव्य करतुं नथी ए नियम छे. करे छे एम कहीए एवो व्यवहार छे, पण परमार्थे एम वस्तुस्थिति नथी; अन्यद्रव्यने अन्यद्रव्य करे एम वस्तुस्थिति नथी.
अनंत काळे आवो अवसर मळ्यो तो आनो निर्णय करजे भाई! हमणां नहि करे तो क्यारे करीश बापु? बहारना प्रतिकूळ प्रसंगमां पण आ वस्तुने पकडजे. कोई उपसर्ग आवे तेने पण गणीश मा. अहाहा...! अतीन्द्रिय आनंदनो सागर अंदर छलोछल भर्यो छे तेमां डूबकी लगावी तेमां ज निमग्न थई जा. ए ज मोक्षनो मारग छे अने एनुं ज फळ मोक्ष छे; राग कांई मारग नथी, देहमय लिंग ए मारग नथी; कारण के अन्य द्रव्यने अन्यद्रव्य कांई करतुं नथी ए नियम छे. आवी वात! समजाणुं कांई...?
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यत एवम्–
दंसणणाणचरित्ते अप्पाणं जुंज मोक्खपहे।। ४११।।
दर्शनज्ञानचारित्रे आत्मानं युक्ष्व मोक्षपथे।।४११।।
जो आम छे (अर्थात् जो द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग नथी अने दर्शनज्ञानचारित्र ज मोक्षमार्ग छे) तो आम (नीचे प्रमाणे) करवुं-एम हवे उपदेश करे छेः-
चारित्र–दर्शन–ज्ञानमां तुं जोड रे! निज आत्मने. ४११.
गाथार्थः– [तस्मात्] माटे [सागारैः] सागारो वडे (-गृहस्थो वडे) [अनगारकैः वा] अथवा अणगारो वडे (-मुनिओ वडे) [गृहीतानि] ग्रहायेलां [लिङ्गानि] लिंगोने [जहित्वा] छोडीने, [दर्शनज्ञानचारित्रे] दर्शनज्ञानचारित्रमां- [मोक्षपथे] के जे मोक्षमार्ग छे तेमां- [आत्मानं युंक्ष्व] तुं आत्माने जोड.
टीकाः– कारण के द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग नथी, तेथी समस्त द्रव्यलिंगने छोडीने दर्शनज्ञानचारित्रमां ज, ते (दर्शनज्ञानचारित्र) मोक्षमार्ग होवाथी, आत्माने जोडवायोग्य छे-एम सूत्रनी अनुमति छे.
भावार्थः– अहीं द्रव्यलिंगने छोडी आत्माने दर्शनज्ञानचारित्रमां जोडवानुं वचन छे ते सामान्य परमार्थ वचन छे. कोई समजशे के मुनि-श्रावकनां व्रतो छोडाववानो उपदेश छे. परंतु एम नथी. जेओ केवळ द्रव्यलिंगने ज मोक्षमार्ग जाणी भेख धारण करे छे, तेमने द्रव्यलिंगनो पक्ष छोडाववा उपदेश कर्यो छे के-भेखमात्रथी (वेशमात्रथी, बाह्यव्रतमात्रथी) मोक्ष नथी, परमार्थ मोक्षमार्ग तो आत्माना परिणाम जे दर्शन-ज्ञान- चारित्र ते ज छे. व्यवहार आचारसूत्रमां कह्या अनुसार जे मुनि-श्रावकनां बाह्य व्रतो छे, तेओ व्यवहारथी निश्चयमोक्षमार्गनां साधक छे; ते व्रतोने अहीं छोडाव्यां नथी, परंतु एम कह्युं छे के ते व्रतोनुं पण ममत्व छोडी परमार्थ मोक्षमार्गमां जोडावाथी मोक्ष थाय छे, केवळ भेखमात्रथी-व्रतमात्रथी मोक्ष नथी.
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एक एव सदा सेव्यो मोक्षमार्गो मुमुक्षुणा।।२३९।।
हवे आ ज अर्थने द्रढ करती आगळनी गाथानी सूचनारूपे श्लोक कहे छेः- श्लोकार्थः–
दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मक छे (अर्थात् आत्मानुं यथार्थ रूप दर्शन, ज्ञान ने चारित्रना त्रिकस्वरूप छे); [मुमुक्षुणा मोक्षमार्गः एकः एव सदा सेव्यः] तेथी मोक्षना इच्छक पुरुषे (आ दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप) मोक्षमार्ग एक ज सदा सेववायोग्य छे. २३९.
जो आम छे तो आम (नीचे प्रमाणे) करवुं- एम हवे उपदेश करे छेः- एम के जो द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग नथी अने दर्शन-ज्ञान-चारित्र ज मोक्षमार्ग छे तो आम करवुं एम गाथामां उपदेश करे छेः-
‘कारण के द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग नथी, तेथी समस्त द्रव्यलिंगने छोडीने दर्शन- ज्ञानचारित्रमां ज, ते (दर्शनज्ञानचारित्र) मोक्षमार्ग होवाथी, आत्माने जोडवायोग्य छे- एम सूत्रनी अनुमति छे.’
अहाहा...! जुओ, आ वीतरागी संत, दिगंबर मुनिवर-आचार्य कुंदकुंद ने आचार्य अमृतचंद्र पोते खुलासो करे छे के- अमने आ जे बहारमां नग्नदशा अने पंचमहाव्रतादि अठ्ठावीस मूलगुणनो विकल्प छे ते मोक्षमार्ग नथी. आ तो मूळ गाथा अने टीकामां पोकार छे भाई! अरे प्रभु! आ तारा हितनी वात छे बापु! देहनी नग्नता अने शुभरागथी तुं मोक्षमार्ग माने पण ए तो मिथ्या शल्य छे बापु! एनाथी तारुं मोटुं अहित थशे. अहा! देहनी ने रागनी क्रियामां मोक्षमार्ग मानी त्यां ज तें रमतुं मांडी छे, पण एथी तने भारे नुकशान छे भाई! केमके ते मोक्षमार्ग नथी.
एक समयनी पर्याय ए तो व्यवहार आत्मा छे. ए पर्यायनी पाछळ पूरण ज्ञान, आनंद, शक्ति, प्रभुता, सर्वज्ञता, सर्वदर्शिता ईत्यादि अनंत गुण-स्वभावथी भरेलो भगवान पोते छे ते निश्चय छे. अहा! आवा आत्माने, अहीं कहे छे, नग्नदशा अने
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तेथी, कहे छे, सर्व द्रव्यलिंगना विकल्प छोडीने एक दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां ज आत्माने जोडवायोग्य छे. बहु गंभीर वात! आमां व्रत छोडीने अव्रतमां जवुं एम वात नथी; पण व्रतना विकल्पथी हठीने स्वस्वरूपमां रमवुं-ठरवुं-लीन थवुं एम वात छे. पूर्ण दशा भणी जवानी वात छे. मुनिराजने बहारमां व्रतनो विकल्प होय छे, त्यांथी खसीने स्वरूपमां जोडाई जवुं एम वात छे, केमके ते मोक्षनो पंथ वा भवना अंतनो उपाय छे
अनंत गुणोथी भरेलो मीठो महेरामण ज्ञानस्वरूपी प्रभु आत्मा छे. तेना आश्रये प्रगट थयेला शुद्ध दर्शन-ज्ञान-चारित्रना परिणाम ज मोक्षनो मार्ग छे. माटे, हे भाई! तेमां ज आत्माने जोडवायोग्य छे- एम सूत्रनी अनुमति छे. ल्यो, आ आगमनी आज्ञा ने आ जिनशासननो आदेश! व्रतादिना रागमां रोकाई रहे ए भगवाननुं फरमान नथी. छठ्ठे गुणस्थाने मुनिराजने व्रतादिनो विकल्प होय छे, ते द्रव्यलिंग छे. तेने छोडीने, कहे छे, निजानंदरसमां लीन थई जा, निजानंदधाम-स्वघरमां जईने निवास कर. अरे! एणे अनंतकाळमां स्वघर-निजघर भाळ्युं नथी! भजनमां आवे छे ने!
अहा! पुण्य अने पापना फळमां अनेक पर्यायो धारण करी, अनेक नाम धारण कर्या, पण निजघर-ज्यां आनंदनो नाथ प्रभु छे त्यां न गयो! अहीं कहे छे-दर्शन-ज्ञान- चारित्र ते ज मोक्षनो मार्ग छे, माटे आत्माने तेमां ज जोडवायोग्य छे. ल्यो, आ जिनसूत्रनी आज्ञा, आ जिनशासननी आज्ञा छे.
वस्त्रसहित लिंग होय तो पण मुनिपणुं आवे एम कोई पंडितो कहे छे, पण ते बराबर नथी. समाधितंत्र (गाथा ८७-८८-८९) ना आधारथी तेओ कहे छे-मोक्षमार्गमां लिंग-जातिनो आग्रह-अभिनिवेश न होवो जोईए; अर्थात् वस्त्रसहित पण मुनिलिंग होय पण तेमनो ते मिथ्या अभिनिवेश छे. समाधितंत्रमां तो आशय एम छे के- देहनी नग्नदशा अने व्रतना विकल्प ते देहाश्रित छे तेथी एनाथी मोक्ष थाय वा ते मोक्षनुं कारण छे एम आग्रह छोडी देवो जोईए. भाई! मुनिदशामां बहार लिंग तो नग्न ज होय छे; पण ते मुक्तिमार्ग छे एवो दूरभिनिवेश छोडी देवानी त्यां वात छे. वस्त्र सहित मुनिपणुं होय एवो मार्ग त्रणकाळमां नथी. मुनिने
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अवश्यपणे नग्नदशा ज होय छे. वस्त्र-पात्र वगेरे परिग्रह मुनिने होई शके ज नहि; वस्त्रसहित लिंग तो कुलिंग ज छे, बीजा लिंगथी मुनिपणुं होय एवो तो मार्ग ज नथी. समजाणुं कांई..?
हाथीना होद्दे मरुदेवी माता समोसरणमां भगवाननां दर्शन करवा जतां हतां ने त्यां एकदम केवळज्ञान थई गयुं, मल्लिनाथ भगवानने स्त्रीनो देह हतो, ईत्यादि आ बधी कल्पित खोटी वातो छे. तीर्थंकरने स्त्रीनो देह होय नहि. स्त्रीने मुनिदशा पण होई शके नहि. पांचमा गुणस्थानथी उपरनी दशा स्त्रीदेहवाळाने होती नथी. अनंता मुनिवरो ने तीर्थंकरो मोक्ष पधार्या ते सर्वने बाह्य नग्नदशा ज हती. तथापि अहीं एम वात छे के- बाह्यलिंग मोक्षनुं कारण नथी. तेथी एम अर्थ नथी के गमे ते लिंग होय ने मुनिपणुं आवे ने मोक्ष थई जाय. भाई! अनंत ज्ञानीओनी परंपरामां परमागमनी आ अनुमति-आज्ञा छे के द्रव्यलिंग मोक्षनुं कारण नथी, अर्थात् नग्नदशा अने पंचमहाव्रतादिथी मोक्ष थाय एम सूत्रनी अनुमति नथी. दर्शन-ज्ञान-चारित्र ज मोक्षमार्ग छे, माटे आत्माने त्यां ज जोडवो जोईए आ सूत्रनी आज्ञा छे समजाणुं कांई...!
‘अहीं द्रव्यलिंगने छोडी आत्माने दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां जोडवानुं वचन छे ते सामान्य परमार्थ वचन छे. कोई समजशे के मुनि-श्रावकनां व्रतो छोडाववानो उपदेश छे; परंतु एम नथी.’
जुओ, शुं कीधुं आ? के मुनि-श्रावकनां व्रतो छोडीने अव्रतमां जवानो आ उपदेश नथी. व्रतरहित अव्रतनी दशामां मुनिपणुं के केवळज्ञान थई जाय एम कदीय नथी; वळी व्रतना विकल्पमात्रथी पण मुक्ति थई जाय एम पण नथी. तो शुं छे? तो कहे छे-
‘जेओ केवळ द्रव्यलिंगने ज मोक्षमार्ग जाणी भेख धारण करे छे, तेमने द्रव्यलिंगनो पक्ष छोडाववा उपदेश कर्यो छे के - भेखमात्रथी (वेशमात्रथी, बाह्य व्रत- मात्रथी) मोक्ष नथी, परमार्थ मोक्षमार्ग तो आत्माना परिणाम जे दर्शन-ज्ञान-चारित्र ते ज छे.’
भाई! भावलिंगसहितनुं द्रव्यलिंग तो यथार्थ एवुं (नग्नदशा आदि) ज होय; पण त्यां एक भावलिंग ज मोक्षनुं कारण छे, द्रव्यलिंग मोक्षनुं कारण नथी, तथापि कोई द्रव्यलिंगने ज मोक्षनुं कारण जाणी भेख धारण करे तेने द्रव्यलिंगनो पक्ष छोडाववा माटे आ उपदेश छे. भाई! दिगंबर धर्म कोई पक्ष नथी, ए तो वस्तुस्वरूप
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‘व्यवहार आचारसूत्रमां कह्या अनुसार जे मुनि-श्रावकनां बाह्य व्रतो छे, तेओ व्यवहारथी निश्चयमोक्षमार्गना साधक छे; ते व्रतोने अहीं छोडाव्यां नथी, परंतु एम कह्युं छे के ते व्रतोनुं पण ममत्व छोडी परमार्थ मोक्षमार्गमां जोडावाथी मोक्ष थाय छे, केवळ भेखमात्रथी-व्रतमात्रथी मोक्ष नथी.’
जुओ, मुनि-श्रावकनां बाह्य व्रतोने व्यवहारथी निश्चय मोक्षमार्गनां साधक कह्यां छे. व्यवहारथी कह्यां छे एनो अर्थ शुं? के साधक तो एक ज छे, पण तेनुं कथन बे प्रकारे छे. ए तो मोक्षमार्गप्रकाशकना सातमा अधिकारमां कह्युं ने? के मोक्षमार्ग बे नथी, मोक्षमार्ग तो एक ज छे. तेनुं कथन बे प्रकारे छे. त्रिकाळी द्रव्यना आश्रये जे द्रष्टि-ज्ञान- रमणता थया ते निश्चय मोक्षमार्ग सत्यार्थ मोक्षमार्ग छे, अने तेनी साथे व्यवहारनो जे विकल्प होय छे तेने सहचर वा बाह्य निमित्त जाणी, आरोप दई उपचारथी मोक्षमार्ग कहीए छीए; पण ते कांई सत्यार्थ मोक्षमार्ग नथी. तेम मुनि-श्रावकनां बाह्य व्रतो कांई मोक्षमार्गनां सत्यार्थ साधक छे एम नथी. समजाणुं कांई...? श्रीमद्जीए कह्युं छेः-
निर्ग्रंथनो पंथ भव-अंतनो उपाय छे.
अहाहा...! बाह्यलिंगनो पक्ष छोडी जेओ स्वरूपमां समाई गया, स्वरूपना आश्रयमां डूबी गया तेओ निर्ग्रंथ (मुनिवरो) छे, ने एवा निर्ग्रंथनो पंथ ज मोक्षपंथ छे, ए ज भवना अंतनो उपाय छे. बाह्यलिंग तो ए ज होय, पण ते मोक्षनो पंथ नथी. त्यारे श्रीमद्नो आधार दई कोई वळी कहे छे-
साधे ते मुक्ति लहे, एमां भेद नहि कोय.
आनो तेओ एवो अर्थ करे छे के गमे ते जाति अने वेश होय छतां मोक्ष थई जाय, पण ए बराबर नथी. वेश-बाह्यलिंग तो नग्नदशा ज अने पंचमहाव्रतादि होय, पण एनो पक्ष मोक्षमार्ग नथी एम वात छे. अन्य वेश तो बाह्य लिंग ज नथी. अन्यवेशमां मुक्ति थई जाय एम त्रणकाळमां नथी; चंडाळ जाति, स्त्रीजाति, अने वस्त्रसहित वेश होय अने मोक्ष थई जाय एम कदीय बनतुं नथी. आ भगवान कुंदकुंदाचार्यनो पोकार छे. वस्त्रसहित मुनिपणुं त्रणकाळमां होई शकतुं नथी. निर्मळ दर्शन- ज्ञान-चारित्र ए एक ज मोक्षमार्ग छे, अने बाह्यलिंग पण एक ज छे.
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वळी छद्मस्थ गुरुनो केवळज्ञानी विनय करे एम केटलाक कहे छे, पण ए यथार्थ नथी. पोताथी मोटा होय तेना बहुमाननो विकल्प आवे, पण भगवान केवळीथी कोई मोटुं छे नहि तो भगवान कोनो विनय करे? वळी भगवान केवळी तो परम वीतराग छे, तेमने विनयनो विकल्प क्यां छे? तेथी भगवान छद्मस्थ गुरुनो विनय करे एम कहेवुं खोटुं छे. ए तो केवळज्ञानमां जणाय के पूर्वे आ मारा गुरु हता, बस एटलुं ज.
वळी गुरुनी भक्ति करतां करतां मुक्ति थई जाय एम केटलाक कहे छे ते पण खोटुं छे. गुरु प्रत्येनां विनय-भक्तिनो शुभराग जरूर आवे, पण एनाथी मुक्ति थई जाय, राग करतां करतां वीतरागता थई जाय ए त्रणकाळमां सत्यार्थ नथी.
अंतरंगमां निश्चय मोक्षमार्ग प्रगटयो होय तेने व्रतादि व्यवहारना विकल्प होय छे, अने तेने बाह्य निमित्त जाणी व्यवहारथी साधन कहे छे, पण जेने अंतरंगमां निश्चय प्रगट ज नथी तेना व्रतादि साधन केम होय? व्यवहारथी पण ते साधन कहेवातां नथी. आवी वात व्यवहारना पक्षवाळाने न बेसे, पण शुं थाय? आवो ज मार्ग छे; बेसे के न बेसे, आ सत्य छे. तेथी कांई व्रतोने छोडाव्यां छे एम आशय नथी, पण व्रतोनुं ममत्व, व्रतादि मोक्षमार्ग छे एवो मिथ्या अभिप्राय छोडाव्या छे. अहीं आशय एम छे के व्रतोनुं पण ममत्व छोडी परमार्थ मोक्षमार्गमां जोडावाथी मोक्ष थाय छे, केवळ भेखमात्रथी - व्रतमात्रथी मोक्ष नथी. स्वरूपनां श्रद्धान-ज्ञान-रमणता-स्थिरता बस एक ज मोक्षमार्ग छे, तेमां ज जोडावाथी मोक्ष थाय छे. एक होय त्रणकाळमां परमारथनो पंथ. अहीं तो केवळ बाह्य वेशथी मोक्षमार्ग नथी एम सिद्ध करवुं छे. बाह्यवेश गमे ते होय एम नहि, बाह्यवेश तो दिगंबर नग्नदशा ज होय, पण केवळ एनाथी मोक्षमार्ग अने मोक्ष थाय एम छे नहि; तेने साधन कह्युं छे ए तो आरोपथी उपचारथी कह्युं छे.
हवे आ ज अर्थने दढ करती आगळनी गाथानी सूचनरूप श्लोक कहे छेः-
‘आत्मनः तत्त्वम् दर्शन–ज्ञान–चारित्र–त्रय–आत्मा’ आत्मानुं तत्त्व दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मक छे (अर्थात् आत्मानुं यथार्थ रूप दर्शन, ज्ञान ने चारित्रना त्रिकस्वरूप छे);
जोयुं? आत्मानुं तत्त्व नाम यथार्थ रूप दर्शन-ज्ञान-चारित्र एम त्रिकस्वरूप छे. आत्म तत्त्व तो त्रिकाळ छे. अहीं एनुं तत्त्व एटले तेना वास्तविक परिणमननी वात छे. एम के निर्मळ रत्नत्रयरूप परिणमन थाय ते एनुं वास्तविक तत्त्व-स्वरूप छे. (व्यवहार रत्नत्रय आत्मानुं वास्तविक रूप नथी) आवी वात! हवे कहे छे -
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‘मुमुक्षुणा मोक्षमार्गः एकः एव सदा सेव्यः’ तेथी मोक्षना ईच्छक पुरुषे (आ दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप) मोक्षमार्ग एक ज सदा सेववायोग्य छे.
ल्यो, आत्मानी पूरण पवित्र ने पूर्ण आनंदमय दशा जेने प्रगट करवी होय ते पुरुषे शुद्ध दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप मोक्षमार्ग ए ज सेववायोग्य छे; वच्चे व्रतादि हो भले, होय छे, पण ते सेववायोग्य नथी, व्रतादि होय ते मात्र जाणवायोग्य छे, ते जाणेलां प्रयोजनवान छे, आदरवां प्रयोजनवान नथी. समजाणुं कांई...?
जुओ, मोक्षमार्ग एक ज छे, बे नथी. व्यवहार मोक्षमार्ग ने निश्चय मोक्षमार्ग एम कथन बे प्रकारे छे. त्यां जेने सुखी थवुं होय, परमानंदनी प्राप्तिनी अभिलाषा होय ते मुमुक्षुए निश्चय मोक्षमार्ग एक ज सेववायोग्य छे, व्यवहार मोक्षमार्ग तो कथनमात्र उपचार छे, तेथी व्यवहारनो पक्ष छोडी निश्चय मोक्षमार्ग एक ज आदरवायोग्य छे. आवी वात!
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तत्थेव विहर णिच्चं मा विहरसु अण्णदव्वेसु।। ४१२।।
तत्रैव विहर नित्यं मा विहार्षीरन्यद्रव्येषु।। ४१२।।
हवे आ ज उपदेश गाथा द्वारा करे छेः-
तेमां ज नित्य विहार कर, नहि विहर परद्रव्यो विषे. ४१२.
गाथार्थः– (हे भव्य!) [मोक्षपथे] तुं मोक्षमार्गमां [आत्मानं स्थापय] पोताना आत्माने स्थाप, [तं च एव ध्यायस्व] तेनुं ज ध्यान कर, [तं चेतयस्व] तेने ज चेत- अनुभव अने [तत्र एव नित्यं विहर] तेमां ज निरंतर विहार कर; [अन्यद्रव्येषु मा विहार्षीः] अन्य द्रव्योमां विहार न कर.
टीकाः– (हे भव्य!) पोते अर्थात् पोतानो आत्मा अनादि संसारथी मांडीने पोतानी प्रज्ञाना (-बुद्धिना) दोषथी परद्रव्यमां-रागद्वेषादिमां निरंतर स्थित रहेलो होवा छतां, पोतानी प्रज्ञाना गुण वडे ज तेमांथी पाछो वाळीने तेने अति निश्चळपणे दर्शन- ज्ञान-चारित्रमां निरंतर स्थाप; तथा समस्त अन्य चिंताना निरोध वडे अत्यंत एकाग्र थईने दर्शन-ज्ञान-चारित्रने ज ध्या; तथा समस्त कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनाना त्याग वडे शुद्धज्ञानचेतनामय थईने दर्शन-ज्ञान-चारित्रने ज चेत-अनुभव; तथा द्रव्यना स्वभावना वशे (पोताने) जे क्षणे क्षणे परिणामो ऊपजे छे ते-पणा वडे (अर्थात् परिणामीपणा वडे) तन्मय परिणामवाळो (-दर्शनज्ञानचारित्रमय परिणामवाळो) थईने दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां ज विहर; तथा ज्ञानरूपने एकने ज अचळपणे अवलंबतो थको, जेओ ज्ञेयरूप होवाथी उपाधिस्वरूप छे एवां सर्व तरफथी फेलातां समस्त परद्रव्योमां जरा पण न विहर.
भावार्थः– परमार्थरूप आत्माना परिणाम दर्शन-ज्ञान-चारित्र छे; ते ज मोक्षमार्ग छे. तेमां ज (-दर्शनज्ञानचारित्रमां ज) आत्माने स्थापवो, तेनुं ज ध्यान करवुं, तेनो ज अनुभव करवो अने तेमां ज विहरवुं-प्रवर्तवुं, अन्य द्रव्योमां न प्रवर्तवुं.
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स्तत्रैव स्थितिमेति यस्तमनिशं ध्यायेच्च तं चेतति ।
तस्मिन्नेव निरन्तरं विहरति द्रव्यान्तराण्यस्पृशन्
सोऽवश्यं समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विन्दति।। २४०।।
लिङ्गे द्रव्यमये वहन्ति ममतां तत्त्वावबोधच्युताः।
नित्योद्योतमखण्डमेकमतुलालोकं स्वभावप्रभा–
प्राग्भारं समयस्य सारममलं नाद्यापि पश्यन्ति ते।। २४१।।
अहीं परमार्थे ए ज उपदेश छे के-निश्चय मोक्षमार्गनुं सेवन करवुं, केवळ व्यवहारमां ज मूढ न रहेवुं.
हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः– [द्रग्–ज्ञप्ति–वृत्ति–आत्मकः यः एषः एक नियतः मोक्षपथः] दर्शन- ज्ञानचारित्रस्वरूप जे आ एक नियत मोक्षमार्ग छे, [तत्र एव यः स्थितिम् एति] तेमां ज जे पुरुष स्थिति पामे छे अर्थात् स्थित रहे छे, [तम् अनिशं ध्यायेत्] तेने ज निरंतर ध्यावे छे, [तं चेतति] तेने ज चेते-अनुभवे छे, [च द्रव्यान्तराणि अस्पृशन् तस्मिन् एव निरन्तरं विहरति] अने अन्य द्रव्योने नहि स्पर्शतो थको तेमां ज निरंतर विहार करे छे, [सः नित्य–उदयं समयस्य सारम् अचिरात् अवश्यं विन्दति] ते पुरुष, जेनो उदय नित्य रहे छे एवा समयना सारने (अर्थात् परमात्माना रूपने) थोडा काळमां ज अवश्य पामे छे-अनुभवे छे.
भावार्थः– निश्चयमोक्षमार्गना सेवनथी थोडा ज काळमां मोक्षनी प्राप्ति थाय ए नियम छे. २४०.
‘जेओ द्रव्यलिंगने ज मोक्षमार्ग मानी तेमां ममत्व राखे छे, तेमणे समयसारने अर्थात् शुद्ध आत्माने जाण्यो नथी’-एम हवेनी गाथामां कहेशे; तेनी सूचनानुं काव्य प्रथम कहे छेः-
श्लोकार्थः– [ये तु एनं परिहृत्य संवृति–पथ–प्रस्थापितेन आत्मना द्रव्यमये लिङ्गे ममतां वहन्ति] जे पुरुषो आ पूर्वोक्त परमार्थस्वरूप मोक्षमार्गने छोडीने व्यवहारमोक्षमार्गमां स्थापेला पोताना आत्मा वडे द्रव्यमय लिंगमां ममता करे छे (अर्थात् एम माने छे के आ द्रव्यलिंग ज अमने मोक्ष पमाडशे), [ते तत्त्व–अवबोध–च्युताः
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अद्य अपि समयस्य सारम् न पश्यन्ति] ते पुरुषो तत्त्वना यथार्थ ज्ञानथी रहित वर्तता थका हजु सुधी समयना सारने (अर्थात् शुद्ध आत्माने) देखता-अनुभवता नथी. केवो छे ते समयसार अर्थात् शुद्ध आत्मा? [नित्य–उद्योतम] नित्य प्रकाशमान छे (अर्थात् कोई प्रतिपक्षी थईने जेना उदयनो नाश करी शक्तुं नथी), [अखण्डम्] अखंड छे (अर्थात् जेमां अन्य ज्ञेय आदिना निमित्ते खंड थता नथी), [एकम्] एक छे (अर्थात् पर्यायोथी अनेक अवस्थारूप थवा छतां जे एकरूपपणाने छोडतो नथी, [अतुल– आलोकं] अतुल (-उपमारहित) जेनो प्रकाश छे (कारण के ज्ञानप्रकाशने सूर्यादिकना प्रकाशनी उपमा आपी शकाती नथी), [स्वभाव–प्रभा–प्राग्भारं] स्वभावप्रभानो पुंज छे (अर्थात् चैतन्यप्रकाशना समूहरूप छे), [अमलं] अमल छे (अर्थात् रागादि-विकाररूपी मळथी रहित छे).
(आ रीते, जेओ द्रव्यलिंगमां ममत्व करे छे तेमने निश्चय-कारणसमयसारनो अनुभव नथी; तो पछी तेमने कार्यसमयसारनी प्राप्ति क्यांथी थाय?) २४१.
हवे आ ज उपदेश गाथा द्वारा करे छेः-
‘(हे भव्य!) पोते अर्थात् पोतानो आत्मा अनादि संसारथी मांडीने पोतानी प्रज्ञाना (-बुद्धिना) दोषथी परद्रव्यमां-रागद्वेषादिमां निरंतर स्थित रहेलो होवा छतां, पोतानी प्रज्ञाना गुण वडे ज तेमांथी पाछो वाळीने तेने अति निश्चळपणे दर्शन-ज्ञान- चारित्रमां निरंतर स्थाप;....’
आत्मा चैतन्यमूर्ति प्रभु आनंदनो रसकंद छे; पण पोते अनादि संसारथी मांडीने पोताने भूलेलो छे. ते पोतानी प्रज्ञाना दोषथी पोताने भूलेलो छे; कर्मना कारणे भूल्यो छे एम नहि, पोतानी प्रज्ञाना अपराधथी पोताने भूल्यो छे अने अनादिथी निरंतर राग- द्वेषमां ज स्थित रह्यो छे. परनी क्रिया तो कोई करी शकतुं ज नथी भाई! पोते ज पोताना स्वरूपने भूलीने पर्यायमां नवा नवा संकल्प-विकल्प करे छे-ते पोतानो अपराध छे. अहा! पर्यायमां अनादिथी आवी भ्रमणा चाली आवे छे, अंदर पोते तो ज्ञानानंदस्वरूप जेवो छे तेवो छे.
अहाहा...! भगवान आत्मा सच्चिदानंद प्रभु स्वद्रव्य छे, ने राग-द्वेषना भाव, असंख्यात प्रकारना पुण्य-पापना भाव परद्रव्य छे. परद्रव्यना लक्षे थता ते भाव परद्रव्य