Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 405-409 ; Kalash: 238.

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अहीं कहे छे-आत्माने त्रण प्रकारे देखवो. देखवो एटले के अंतर्मुख थई अनुभववो जेथी आत्मप्राप्ति थाय. अहाहा...! आत्मा नित्यानंद प्रभु त्रिकाळी शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावी छे. तेने छोडीने अन्य परिग्रहमां सावधानपणे प्रवर्तवुं ते संसारपरिभ्रमणनुं कारण छे. शुद्ध चैतन्यमय निज परमात्मस्वरूपमां सावधान न थतां व्रत, तप, भक्ति आदिना रागना परिणाममां सावधानपणे प्रवर्तवुं ते अन्य परिग्रह छे. आ शरीर, मन, वाणी, धन, संपत्ति ईत्यादि तो क्यांय दूरनी चीज थई गई. अहीं तो एनी पर्यायमां जे व्रत, भक्ति आदिना विकल्प उठे ते अन्य वस्तु छे, अन्य परिग्रह छे. रागमां सावधानपणे प्रवर्तवुं अने तेना आचरणमां-पालनमां रोकाई रहेवुं ते मिथ्याभाव छे भाई! अरे! पण एणे रागनी ममता आडे अंदर ज्ञायकस्वभावथी भरेलो आनंदसागर प्रभु पोते छे तेने खोई दीधो छे! अहीं कहे छे- शुद्धनयस्वरूप अंदर त्रिकाळी भूतार्थ भगवान जिनस्वरूप विराजे छे तेने स्वसंवेदनमां जाणवो-वेदवो- अनुभववो ते प्रथम नंबरनुं देखवुं छे. ते चोथे, पांचमे, छठ्ठे गुणस्थाने होय छे.

अहाहा...! अंदर जाणनार-देखनार भिन्न स्वरूपे छे तेने जाण अने देख-एम भगवाननी आज्ञा छे. आ देह तो क्षणमां फू थई उडी जशे. ए तो संयोग छे; ए क्यां तारी चीज छे? तारी चीज तो अंदर भिन्न एक ज्ञायकभावपणे त्रिकाळ छे तेने जाण अने देख. अने पछी सर्व परिग्रह छोडी एक ज्ञायकभावमां ज स्थिर थवानो अभ्यास कर; तेमां ज उग्रपणे लीन थई रमणता कर. ‘निजपद रमे सो राम कहीए.’ अहाहा...! अंतरस्थिरतानो अभ्यास करी स्वरूपमां रमे ते राम नाम आत्मा कहीए, ते स्वसमय छे. नाटक-समयसार नाटकमां आवे छे ने के-

‘चेतनरूप अनूप अमूरत, सिद्ध समान पद मेरौ’

अहाहा...! प्रथम शुद्धनय वडे निज स्वरूपने सिद्ध समान जाण्युं-श्रद्धयुं हतुं तेवुं ज ध्यानमां लईने चित्तने-उपयोगने त्यां ज थंभावी दे, मढी दे. आ बीजा प्रकारनुं देखवुं छे. आ देखवुं उपरनी भूमिकामां अप्रमत्त दशामां होय छे. ज्यां सुधी एवा अभ्यासथी केवळज्ञान न उपजे त्यां सुधी ते अभ्यास निरंतर रहे छे. ल्यो, अंदर अभ्यास करीने आ करवा जेवुं छे. बाकी अशुभ टाळी शुभमां तुं रोकाई रहे ए तो कांई नथी, ए तो थोथां छे बधां.

भाई! तारा स्वरूपनी अनंती समृद्धिनी तने खबर नथी बापु! तेनी महिमानी शी वात! एकवार तेने ज्ञान-श्रद्धानमां ले तो न्याल थई जाय एवी चीज छे. अने


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पछी अंतर-एकाग्रताना अभ्यास वडे उपयोगने अंदर थंभावी दे एनुं तो शुं कहेवुं? ए तो केवळज्ञानने लावी दे एवो अपार अचिन्त्य एनो महिमा छे. आनुं नाम चारित्र अने आनुं नाम दिगंबर मुनिदशा छे. अहाहा...! ज्यां पंचमहाव्रतनो विकल्प पण छूटी जाय एवी निर्विकल्प अप्रमत्तरूप मुनिदशा थाय ते बीजा नंबरनुं देखवुं छे. आ विना व्रत-तप-भक्ति ईत्यादि बधुं धूळधाणी ने वापाणी जेवुं छे. समजाणुं कांई...? व्रत- भक्तिनो अभ्यास करवो एम नहि, पण ज्यां सुधी केवळज्ञान न थाय त्यां सुधी आ अभ्यास करवो अर्थात् उपयोगने शुद्ध निरंजन पूर्ण ज्ञानमां थंभावी देवानो अभ्यास करवो एम कहे छे. आ देखवानो बीजो प्रकार कह्यो. हवे कहे छे-

‘अहीं सुधी तो पूर्ण ज्ञाननुं शुद्धनयना आश्रये परोक्ष देखवुं छे. केवळज्ञान उपजे त्यारे साक्षात् देखवुं थाय छे ते त्रीजा प्रकारनुं देखवुं छे. ते स्थितिमां ज्ञान सर्व विभावोथी रहित थयुं थकुं सर्वनुं देखनार-जाणनार छे, तेथी आ त्रीजा प्रकारनुं देखवुं ते पूर्ण ज्ञाननुं प्रत्यक्ष देखवुं छे.’

शुद्धनयना आश्रये परोक्ष देखवुं होय छे, केमके श्रुतज्ञान अमूर्तिक आत्माने प्रत्यक्ष जाणतुं नथी. आनंदनुं वेदन प्रत्यक्ष थयुं छे, पण अमूर्तिक प्रदेशोने श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष करतुं नथी. अंध पुरुष जेम साकर खाय त्यारे स्वादनुं प्रत्यक्ष वेदन आवे, पण साकरनो गांगडो प्रत्यक्ष न देखाय, तेम शुद्धनयना आश्रये परोक्ष देखवुं होय छे. ज्यारे केवळज्ञान थाय त्यारे साक्षात् देखवुं थाय छे. आ त्रीजा प्रकारनुं देखवुं छे. आ स्थितिमां ज्ञान शुद्ध निर्मळ निरंजन उपयोगरूप थयुं थकुं सर्वनुं प्रत्यक्ष देखनार जाणनार छे; तेथी आ त्रीजा प्रकारनुं देखवुं ते ज्ञाननुं प्रत्यक्ष देखवुं छे. अहीं चैतन्य ज्योति सर्वने संपूर्ण प्रत्यक्ष करती झळहळ-झळहळ प्रगट थई जाय छे. आ मोक्षदशा छे. आम पूर्ण ज्ञाननुं प्रत्यक्ष देखवुं ते त्रीजा प्रकारनुं देखवुं छे. आत्मानो सर्वज्ञस्वभाव छे, ते सर्वज्ञपणुं अंतर- एकाग्रतानो द्रढ-उग्र अभ्यास करीने प्रगट करवुं एम उपदेश छे.

*

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश २३पः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अन्येभ्यः व्यतिरिक्तम्’ अन्यद्रव्योथी भिन्न, ‘आत्म–नियतं’ पोतामां ज नियत, ‘पृथक् वस्तुतां बिभ्रत्’ पृथक् वस्तुपणाने धारतुं (-वस्तुनुं स्वरूप सामान्य विशेषात्मक होवाथी पोते पण सामान्य विशेषात्मकपणाने धारण करतुं), ‘आदान–उज्झन–शून्यम्’ ग्रहण त्याग रहित, एतत् अमलं ज्ञानं’ आ अमल (-रागादिक मळथी रहित) ज्ञान तथा अवस्थितम् यथा’ एवी रीते अवस्थित (निश्चळ रहेलुं) अनुभवाय छे के-

शरीर, मन, वाणी, कर्म ईत्यादि परद्रव्योथी भिन्न पोतामां ज नियत पृथक्-


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जुओ, पहेलां परथी भिन्न कह्युं ने हवे ज्ञान रागथी रहित भिन्न छे एम कह्युं. ‘अमल’ एम कह्युं ने? भाई! आ तो परथी अने रागथी विमुख थई स्वभावसन्मुख थवुं ने भेदज्ञान प्रगट करवुं एम वात छे. अनादिथी परवस्तु साथे एकपणुं मान्युं छे ते भ्रमणा छे, जूठी कल्पना छे. तेनाथी भिन्न पडी पोते अंदर जेवो ने जेवडो छे तेवो ने तेवडो स्वीकारवो-जाणवो ने मानवो ते भेदज्ञान छे, अने ते कर्तव्य छे, धर्म छे.

कहे छे-रागना मळथी रहित ज्ञान एवी रीते निश्चळ रहेलुं अनुभवाय छे के... जेवी रीते ‘मध्य–आदि–अन्त–विभाग–मुक्त–सहज–स्फार–प्रभा–भासुरः अस्य शुद्ध–ज्ञान– धनः महिमा’ आदि-मध्य-अन्तरूप विभागोथी रहित एवी सहज फेलायेली प्रभा वडे देदीप्यमान एवो एनो शुद्धज्ञानघनरूप महिमा ‘नित्य–उदितः तिष्ठति’ नित्य-उदित रहे. (शुद्ध ज्ञानना पुंजरूप महिमा सदा उदयमान रहे).

अहाहा...! भगवान आत्मा सहजानंद-नित्यानंद त्रिकाळ ज्ञानस्वरूप प्रभु छे. हवे ते छे, छे ने छे; तेनी आदि शुं? मध्य शुं? अंत शुं? अहाहा...! आवी अनादिअनंत सहज फेलायेली चैतन्यप्रभा वडे देदीप्यमान एवो एनो शुद्धज्ञानघनरूप महिमा नित्य उदित रहे. अहाहा...! जेम सर्व पांखडीए गुलाब खीली जाय तेम अनंत शक्तिए आत्मा पूर्ण खीली गयो, शक्ति सहज हती ते पूर्ण विस्तरी गई हवे एनो शुद्धज्ञानघनरूप महिमा सदा उदयमान रहेशे-एम कहे छे. समजाणुं कांई...? शुद्ध दशा पूर्णकळाए प्रगट थई ते थई, हवे ते दशा सादि-अनंत अविचळ-कायम रहेशे. केवळज्ञान ने मोक्षनी दशा थई ते हवे फरशे नहि, हवे ते अवतार लेशे नहि. ल्यो, भक्तोने भीड पडे ने भगवान अवतार ले एम बनवा जोग नथी; एवुं केवळज्ञान ने मोक्षनुं स्वरूप नथी; मोक्षदशा तो नित्य उदयमान छे.

* कळश २३पः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञाननुं पूर्णरूप सर्वने जाणवुं ते छे. ते ज्यारे प्रगट थाय छे त्यारे सर्व विशेषणो सहित प्रगट थाय छे; तेथी तेना महिमाने कोई बगाडी शकतुं नथी, सदा उदय मान रहे छे.’

जुओ, कहे छे-ज्ञाननुं पूर्ण रूप सर्वने जाणवुं ते छे. अहाहा...! अनंत


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अनंत गुणरिद्धि-समृद्धिथी भरेलो भगवान आत्मा सर्वज्ञस्वभावी प्रभु छे. अहाहा...! त्रणकाळ-त्रणलोकने युगपत् एक समयमां जाणे एवुं एनुं सामर्थ्य छे. आ सामर्थ्य ज्यारे प्रगट थाय छे त्यारे, कहे छे, सर्व विशेषणो सहित प्रगट थाय छे. अहाहा...! केवळज्ञान ज्यारे प्रगट थाय छे त्यारे सर्वरूप पूर्ण प्रगट थाय छे. केवळज्ञान प्रगटतां ज साथे पूर्ण आनंद, पूर्ण वीर्य, पूर्ण शान्ति, पूर्ण प्रभुता, पूर्ण स्वच्छता ईत्यादि शक्तिओनी पूर्ण व्यक्तदशा प्रगट थाय छे. आनुं नाम केवळज्ञान अने पूर्णदशा छे. तेथी कहे छे, तेना महिमाने कोई आंच आवती नथी, तेना महिमाने कोई बगाडी शकतुं नथी. पूर्ण वीतरागता थईने केवळज्ञान थयुं त्यां अनंतवीर्य पण प्रगट थयुं. तेथी हवे तेनो महिमा अबाधितपणे सदा उदयमान रहे छे. हवे तेने अवतार लेवो पडे एम कदीय छे नहि.

भगवान आत्मा अंदर प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप वस्तु प्रभु छे. तेनां अंशे ज्ञान-श्रद्धान- आनंद प्रगट थाय ते उपाय छे. अने पूरण ज्ञान-श्रद्धान-आनंदनी दशा प्रगट थाय ते उपेय नाम उपायनुं फळ छे. आ दया, दान, व्रत आदि व्यवहार रत्नत्रय ते उपाय अने सिद्धपद उपेय एम नथी हों, व्यवहार रत्नत्रयने उपाय कहीए ए तो निमित्तनुं व्यवहारनुं कथन छे; ते व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान छे; पण भाई! ते व्यवहार आदरेलो प्रयोजनवान नथी, ते आदरवा लायक नथी. भगवान आत्मा सच्चिदानंद प्रभु एक ज आश्रय करवा योग्य छे, अने तेना आश्रये अंशे ज्ञान-श्रद्धान-चारित्र प्रगट थाय ते वास्तविक उपाय छे अने तेनी पूर्णता ते उपेय नाम मोक्ष छे. आ दिव्यध्वनिनो सार छे. अहीं कहे छे-उपाय द्वारा उपेय नाम पूर्ण केवळज्ञान दशा ने मोक्षनी दशा प्रगट थाय ते निराबाध सदाय सादि-अनंतकाळ उदयमान रहे छे; तेमां कदीय कोई आंच-उणप आवती नथी. मुक्त जीवने भक्तोनी भीड भांगवानो बोजो रहे अने ते अवतार धारण करे ए मान्यता मिथ्या छे, केमके परम वीतराग परमेश्वर माटे ए त्रिकाळ संभवित नथी. आवी वात छे. समजाणुं कांई...?

*

हवे, ‘आवा ज्ञानस्वरूप आत्मानुं आत्मामां धारण करवुं ते ज ग्रहवायोग्य सर्व ग्रह्युं अने त्यागवायोग्य सर्व त्याग्युं’ - एवा अर्थनुं काव्य हवे कहे छेः-

जेम श्रीफळ अंदर रातड रहित सफेद मीठो गोळो छे, तेम भगवान आत्मा अंदर पुण्य-पापनी रातड रहित चैतन्यनो अमृतमय गोळो छे, अहा! आवा निजस्वरूपनो अंतर-अनुभव करीने तेमां ज लीन-स्थिर थयो तेणे ग्रहण करवा योग्य सर्व ग्रहण कर्युं, अने त्यागवा योग्य जे (महाव्रतादिनो) विकल्प हतो तेने सहज त्यागी दीधो. आ अर्थनो हवे आचार्यदेव कळश कहे छेः-


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* कळश २३६ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘संहृत–सर्व–शक्तेः पूर्णस्य आत्मनः’ जेणे सर्व शक्तिओ समेटी छे (-पोतामां लीन करी छे) एवा पूर्ण आत्मानुं ‘आत्मनि इह’ आत्मामां ‘यत् संधारणम्’ धारण करवुं ‘तत् उन्मोच्यम् अशेषतः उन्मुक्तम्’ ते ज छोडवायोग्य बधुं छोडयुं ‘तथा’ अने ‘आदेयम् तत् अशेषतः आत्तम्’ ग्रहवायोग्य बधुं ग्रह्युं.

अहाहा...! शुं कहे छे? के पहेलां ज्ञानादि शक्तिओ रागमां रोकाईने खंड-खंडपणे खंडित थती हती, ते हवे त्यांथी समेटीने-संकेलीने ज्यां स्वस्वरूपमां चैतन्यस्वरूपमां लीन करी त्यां, कहे छे, ग्रहवायोग्य बधुं ग्रह्युं. आ सम्यग्दर्शन सहित सातमा गुणस्थाननी वात छे. छठ्ठे हजी विकल्प छे, त्यां ज्यां अंतर स्वरूपमां लीन-तल्लीन थयो के तत्काल ज ग्रहवायोग्य सर्व ग्रहण थयुं अने त्यागवायोग्य जे विकल्प तेनो सहज ज त्याग थई गयो. भाई! पुण्यना भाव पण त्यागवायोग्य छे, दुःखरूप छे. भाई! सम्यग्दर्शन विना एणे अनंतवार मुनिपणुं धारण कर्युं ने अनंतवार ते स्वर्गे गयो. पण तेथी शुं? स्वस्वरूपना श्रद्धान-ज्ञान अने तेमां रमणता-लीनता थाय ए ज मुख्य छे, ए ज बधुं छे. बाकी पुण्य-पापमां लीन थई प्रवर्तवुं ए तो स्वस्वरूपनो घात छे, आत्म- घात छे. समजाणुं कांई...? छहढालामां आवे छे के-

मुनिव्रत धार अनंतवार, ग्रीवक उपजायौ;
पै निज आतमज्ञान विना, सुख लेश न पायौ.

ए महाव्रत, ने समिति ने गुप्ति-ए बधो शुभराग दुःख छे बापा! हा, पण ए वडे बहारमां प्रभावना तो थाय ने? प्रभावना? शुं प्रभावना? प्रभावना तो अंदर आत्मामां होय के बहारमां होय? अंदर निराकुल आनंदनी व्यक्ति थाय तेने प्रभावना कहीए. बहारमां प्रभावना कोण करी शके? अरे! तत्संबंधी शुभराग आवे छे एय स्वरूपनी हिंसा छे. रागनी उत्पत्ति थवी ते हिंसा छे एम पुरुषार्थसिद्धयुपायमां कह्युं छे.

अहाहा...! आत्मा आनंदकंद प्रभु छे. तेमां ज रमण करवुं ते चारित्र-दशा छे. अहो! धन्य ते दशा! जेमां भेदनो विकल्प पण छूटी गयो एवी अत्यंत निर्विकल्प दशा प्रगट थई त्यां ग्रहवायोग्य सर्व ग्रह्युं अने छोडवायोग्य सर्व छोडयुं. अहाहा..! पोते अंदर जिनस्वरूप छे, तेमां अंतर-एकाग्र थई लीन थतां जिनदशा प्रगट थाय छे. आ तो प्राप्तनी प्राप्ति छे भाई! अने तेनी आ ज रीत छे बापु! जिनदशा कांई बहारथी नथी आवती. समयसार नाटकमां बनारसीदासे कह्युं छे ने के-

घटघट अंतर जिन बसै, घटघट अंतर जैन;
मत मदिराके पानसौं, मतवाला समुझै न.

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अहा! अंदर जिनस्वरूप ज पोते छे, पण अंतर-एकाग्र थई पोताना स्वरूपने ज स्वीकारता नथी ते पागलोने तेनी प्राप्ति थती नथी. शुं थाय?

एम तो आबाळगोपाळ सौने पूर्णानंद प्रभु आत्मा पोताना ज्ञानमां जणाई रह्यो छे. आ वात आचार्यदेवे गाथा १७-१८ मां खुल्ली करी छे. पण शुं थाय? अज्ञानीनी द्रष्टि त्यां नथी, तेनी नजर पर अने पर्याय उपर छे. अहा! एवा पागलने निजस्वरूप जे जिनस्वरूप तेनी प्राप्ति थती नथी.

अहीं कहे छे- पोताना त्रिकाळी ध्रुव चैतन्यराजाने जाणी तेनो अनुभव क्योेर् अने तेमां ज लीन थयो तेणे ग्रहवायोग्य सर्व ग्रह्युं ने छोडवायोग्य सर्व छोडयुं. अहो! धन्य ते मुनिदशा ने धन्य ते अवतार! प्रचुर स्वसंवेदनमां लीन थया ते महामुनिराज तो बादशाहोना बादशाह छे, पोतानी चैतन्यलक्ष्मीथी सर्व शोभायमान छे. आवी वात! बाकी बहारनी संपत्तिमां लीन छे ए तो रांका छे, भिखारा छे. शास्त्रमां ‘वराकाः’ तेमने कह्या छे.

* कळश २३६ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘पूर्णज्ञानस्वरूप, सर्व शक्तिओना समूहरूप जे आत्मा तेने आत्मामां धारण करी राखवो ते ज, त्यागवायोग्य जे कांई हतुं ते बधुंय त्याग्युं अने ग्रहण करवायोग्य जे कांई हतुं ते बधुंय ग्रहण कर्युं. ए ज कृतकृत्यपणुं छे.’

आत्मा पूर्णज्ञानघन प्रभु अनंत शक्तिओनुं ध्रुवधाम छे. तेने अंतरमां धारण करी त्यां ज रमवुं-ठरवुं ते ज ग्रहण करवायोग्य सर्व ग्रहण थई गयुं अने त्यागवायोग्य सर्व त्यागी दीधुं, मतलब ते ज कृतकृत्यता छे. स्वस्वरूपना आश्रय वडे जेने स्वरूपनां श्रद्धान-ज्ञान अने रमणता-लीनता-स्थिरता परिपूर्ण थयां तेने हवे कांई करवानुं रह्युं नहि, ते हवे कृतकृत्य थयो. द्रव्य-गुण तो त्रिकाळ परिपूर्ण छे; आवी वस्तु तो पूर्णज्ञानघनस्वभाव ज छे; तेनी पर्यायमां ज्यां पूर्ण व्यक्ति थई गई त्यां कृतकृत्यपणुं थयुं. तेने हवे कांई ग्रहण-त्याग रह्यां नहि. सर्व कार्य सिद्ध थई गयुं त्यां हवे शुं करवानुं रह्युं? कांई ज नहि. ए ज कृतकृत्यपणुं छे. ल्यो, समजाणुं कांई...?

*

‘आवा ज्ञानने देह ज नथी’ -एवा अर्थनो, आगळनी गाथानी सूचनारूप श्लोक कहे छेः-

* कळश २३७ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘एवं ज्ञानम् परद्रव्यात् व्यतिरिक्तं अवस्थितम्’ आम (पूर्वाक्त रीते) ज्ञान परद्रव्यथी जुदुं अवस्थित (-निश्चळ रहेलुं) छे; तत् आहारकं कथम् स्यात् येन अस्य देहः शङ्कयते’ ते (ज्ञान) आहारक (अर्थात्) कर्म-नोकर्मरूप आहार करनारुं,


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भगवान आत्मा ज्ञान तत्त्व छे, ने देह अजीव जड तत्त्व छे. आम बन्ने अत्यंत भिन्न छे. हवे पर्यायमां जे शुभाशुभभाव उत्पन्न थाय एय ज्ञायकस्वरूपथी भिन्न छे तो प्रत्यक्ष पृथक् एवुं शरीर तेनुं क्यांथी थाय? न थाय. तेथी ज्ञान नाम आत्माने देह होई शके ज नहि. आत्माने देह छे एम शंका न करवी, केमके तेने कर्म-नोकर्मरूप आहार ज नथी. झीणी वात प्रभु! अहा! जेने अंदर हुं ज्ञायक तत्त्व छुं एम भान थयुं तेने हुं देह छुं एम क्यां रह्युं? हुं आहारक छुं एम क्यां रह्युं? एम छे ज नहि. आ तो वस्तुनुं स्वरूप छे बापु! ज्ञानने देह छे एम मानवुं ए तो नर्युं अज्ञान छे; अने ज्ञानने देह होई शके ज नहि ए यथार्थ छे. ल्यो, आ वात हवे गाथामां कहेशेः-

[ प्रवचन नं. ४८८ थी ४९प * दिनांकः १०-११-७७ थी १७-११-७७ ]


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गाथा ४०प थी ४०७
अत्ता जस्सामुत्तो ण हु सो आहारगो हवदि एवं।
आहारो खलु मुत्तो जम्हा सो पोग्गलमओ दु।। ४०५।।
ण वि सक्कदि घेत्तुं जं ण विमोत्तुं जं च जं परद्दव्वं।
सो को वि य तस्स गुणो पाउगिओ विस्ससो वा वि।। ४०६।।
तम्हा दु जो विसुद्धो चेदा सो णेव गेण्हदे किंचि।
णेव विमुंचदि किंचि वि जीवाजीवाण दव्वाणं।। ४०७।।

हवे अर्थने गाथामां कहे छेः–

एम आतमा जेनो अमूर्तिक ते नथी आ‘रक खरे,
पुद्गलमयी छे आ‘र तेथी आ‘र तो मूर्तिक खरे. ४०प.
जे द्रव्य छे पर तेहने न ग्रही, न छोडी शकाय छे,
एवो ज तेनो गुण को प्रायोगी ने वैस्रसिक छे. ४०६.
तेथी खरे जे शुद्ध आत्मा ते नहीं कंई पण ग्रहे,
छोडे नहीं वळी कांई पण जीव ने अजीव द्रव्यो विषे. ४०७.
आत्मा यस्यामूर्तो न खलु स आहारको भवत्येवम्।
आहारः खलु मूर्तो यस्मात्स पुद्गलमयस्तु।। ४०५।।
नापि शक्यते ग्रहीतुं यत् न विमोक्तुं यच्च यत्परद्रव्यम्।
स कोऽपि च तस्य गुणः प्रायोगिको वस्रसो वाऽपि।। ४०६।।

गाथार्थः– [एवम्] ए रीते [यस्य आत्मा] जेनो आत्मा [अमूर्तः] अमूर्तिक छे [सः खलु] ते खरेखर [आहारकः न भवति] आहारक नथी; [आहारः खलु] आहार तो [मूर्तः] मूर्तिक छे [यस्मात्] कारण के [सः तु पुद्गलमयः] ते पुद्गलमय छे.

[यत परद्रव्यम्] जे परद्रव्य छे [न अपि शक्यते ग्रहीतुं यत्] ते ग्रही शकातुं नथी [न विमोक्तुं यत् च] तथा छोडी शकातुं नथी, [सः कः अपि च] एवो ज कोई [तस्य] तेनो (-आत्मानो) [प्रायोगिकः वा अपि वैस्रसः गुण] प्रायोगिक तेम ज वैस्रसिक गुण छे.


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तस्मात्तु यो विशुद्धश्चेतयिता स नैव गृह्णाति किञ्चित्।
नव विमुञ्चति किञ्चिदपि जीवाजीवयोर्द्रव्ययोः।। ४०७।।
(अनुष्टुभ्)
एवं ज्ञानस्य शुद्धस्य देह एव न विद्यते।
ततो देहमयं ज्ञातुर्न लिङ्गं मोक्षकारणम्।। २३८।।

[तस्मात् तु] माटे [यः विशुद्धः चेतयिता] जे विशुद्ध आत्मा छे [सः] ते [जीवाजीवयोः द्रव्ययोः] जीव अने अजीव द्रव्योमां (-परद्रव्योमां) [किञ्चित् न एव गृह्णाति] कांई पण ग्रहतो नथी [किञ्चित् अपि न एव विमुञ्चति] तथा कांई पण छोडतो नथी.

टीकाः– ज्ञान परद्रव्यने कांई पण (जरा पण) ग्रहतुं नथी तथा छोडतुं नथी, कारण के प्रायोगिक (अर्थात् पर निमित्तथी थयेला) गुणना सामर्थ्यथी तेम ज वैस्रसिक (अर्थात् स्वाभाविक) गुणना सामर्थ्यथी ज्ञान वडे परद्रव्यनुं ग्रहवुं तथा छोडवुं अशक्य छे. वळी, (कर्म-नोकर्मादिरूप) परद्रव्य ज्ञाननो-अमूर्तिक आत्मद्रव्यनो-आहार नथी, कारण के ते मूर्तिक पुद्गलद्रव्य छे; (अमूर्तिकने मूर्तिक आहार होय नहि). तेथी ज्ञान आहारक नथी. माटे ज्ञानने देहनी शंका न करवी.

(अहीं ‘ज्ञान’ कहेवाथी ‘आत्मा’ समजवो; कारण के, अभेद विवक्षाथी लक्षणमां ज लक्ष्यनो व्यवहार कराय छे. आ न्याये टीकाकार आचार्यदेव आत्माने ज्ञान ज कहेता आव्या छे.)

भावार्थः– ज्ञानस्वरूप आत्मा अमूर्तिक छे अने आहार तो कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलमय मूर्तिक छे; तेथी परमार्थे आत्माने पुद्गलमय आहार नथी. वळी आत्मानो एवो ज स्वभाव छे के ते परद्रव्यने तो ग्रहतो ज नथी;-स्वभावरूप परिणमो के विभावरूप परिणमो, पोताना ज परिणामनां ग्रहणत्याग छे. परद्रव्यनां ग्रहणत्याग तो जरा पण नथी.

आ रीते आत्माने आहार नहि होवाथी तेने देह ज नथी. आत्माने देह ज नहि होवाथी, पुद्गलमय देहस्वरूप लिंग (-वेष, भेख, बाह्य चिह्न) मोक्षनुं कारण नथी-एवा अर्थनुं, आगळनी गाथाओनी सूचनारूप काव्य हवे कहे छेः-

श्लोकार्थः– [एवं शुद्धस्य ज्ञानस्य देहः एव न विद्यते] आम शुद्ध ज्ञानने देह ज नथी; [ततः ज्ञातुः देहमयं लिङ्गं मोक्षकारणम् न] तेथी ज्ञाताने देहमय लिंग मोक्षनुं कारण नथी.

*

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समयसार गाथा ४०प थी ४०७ः मथाळुं

हवे आ अर्थने गाथामां कहे छेः

* गाथा ४०प थी ४०७ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञान परद्रव्यने कांई पण (जरापण) ग्रहतुं नथी तथा छोडतुं नथी, कारण के प्रायोगिक (अर्थात् पर निमित्तथी थयेला) गुणना सामर्थ्यथी तेम ज वैस्रसिक (अर्थात् स्वाभाविक) गुणना सामर्थ्यथी ज्ञान वडे परद्रव्यनुं ग्रहवुं तथा छोडवुं अशक्य छे.’

शुं कहे छे? के ज्ञान नाम आत्मा परद्रव्यने ग्रहतो के छोडतो नथी. आ आहारने ग्रहे के छोडे एवुं आत्मानुं स्वरूप नथी. एवो राग आवे, पण परद्रव्यने ग्रही के छोडी शकातुं नथी. आहारनां रजकण, वाणीनां रजकण के कर्म-नोकर्मनां रजकणने आत्मा ग्रही के छोडी शकतो नथी. आत्मामां आवी त्याग-उपादान-शून्यत्व शक्ति छे; परद्रव्यना ग्रहण-त्यागथी शून्य एवो भगवान आत्मा छे.

अहाहा...! भगवान आत्मा परद्रव्यने, एक रजकणने पण, ग्रही के छोडी शकतो नथी एवुं ज एनुं स्वरूप छे, कारण के प्रायोगिक अर्थात् परना निमित्तथी थयेला गुणना सामर्थ्यथी तेमज वैस्रसिक गुणना सामर्थ्यथी आत्मा वडे परद्रव्यनुं ग्रहवुं-छोडवुं अशक्य छे. ल्यो, परद्रव्यना निमित्तथी थता राग वडे आत्माने परद्रव्यनुं ग्रहवुं के छोडवुं अशक्य छे एम कहे छे. परद्रव्यना निमित्तथी राग थाय छे एटले शुं? के राग थाय छे तो पोताथी पोतामां, तेमां परद्रव्य मात्र निमित्त छे बस. विकारी पर्यायनो आश्रय तो द्रव्य पोते ज छे अर्थात् विकार जीवनी पर्यायमां एटले जीवमां ज थाय छे; कर्मना निमित्तथी थाय छे एम कहीए ए तो व्यवहारनुं कथन छे. खरेखर तो विकारी अवस्था आत्मानी पर्यायमां आत्माना आश्रये थाय छे. प्रवचनसार अने पंचास्तिकायनी-बन्नेनी गाथा १०मां आ वात आवेली छे के विकारी पर्याय पोताना आश्रये थाय छे, परना कारणे नहि. हवे आम छे त्यां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी निर्मळ वीतरागी पर्याय आत्माना आश्रये थाय ए तो सहज सिद्ध छे, कर्मना अभावथी निर्मळ पर्याय थई एम कहीए ए तो व्यवहारनुं कथन छे; वास्तवमां कर्मना अभावनी एने अपेक्षा नथी.

वळी कोई कहे के आकाशादिनो ईश्वर कर्ता छे. तेने पूछीए के आ सर्वव्यापी अनंत अनंत आकाश छे ते नहोतुं ने ईश्वरे कर्युं तो ईश्वरे क्यां ऊभा रहीने कर्युं? जो ईश्वर क्यांक हतो तो जगानो-आकाशनो ते कर्ता सिद्ध थतो नथी. अरे भाई! सर्वव्यापक अनंत आकाशनुं स्वयंसिद्ध अस्तित्व छे; तेने करे कोण? कोई ज नहि.


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आम ईश्वरनुं कर्तापणुं उडी जाय छे. कोई पण द्रव्यनो कर्ता ईश्वर नथी. अहाहा..! जेम अनंत अनंत विस्तरेला आकाशनुं अस्तित्व सहज ज छे तेम तेने जाणनार-जाणनार भगवान आत्मा सहज ज स्वयंसिद्ध छे. अहाहा...! तेना अचिन्त्य स्वभावनी शुं वात करवी? अहाहा..! अनंत आकाशने अवलंब्या (अडया) विना ज तेने पोतानी ज्ञानपर्यायमां एक समयमां जाणी ले एवो तेनो परम अद्भुत अचिन्त्य स्वभाव छे.

जुओ, परमाणुनुं क्षेत्र एक प्रदेश छे. परमाणु एक प्रदेशी छे. आवा परमाणु द्रव्यो संख्याए अनंतानंत छे; जीवद्रव्यो तेना अनंतमा भागे अनंत छे. अनंतानंत परमाणुथी अनंतगुणा त्रणकाळना समय छे अने तेनाथी आकाशना प्रदेशोनी संख्या अनंतगुणी अनंत छे. तेनाथी अनंतगुणी एक जीवद्रव्यमां गुणोनी संख्या छे. अहो! आवुं अलौकिक जीवद्रव्यनुं सहज स्वरूप छे. आवुं सहज सिद्ध वस्तुनुं स्वरूप छे, तेने करे कोण? द्रव्य-पर्यायस्वरूप वस्तु सहज छे त्यां (ईश्वरनुं) कर्तापणुं सिद्ध थतुं नथी.

अहो! वीतराग सर्वज्ञदेवे कहेलां तत्त्वो बहु उंडा ने गंभीर छे भाई! अहाहा...! ज्ञाननी एक समयनी पर्याय लोकनां अनंतां द्रव्य-गुण-पर्यायोने जाणी ले ते पर्यायना सामर्थ्यनी शी वात! अहो! आत्मा अलौकिक अद्भुत चमत्कारी वस्तु छे. ओहो! अनंतगुणमय बेहद स्वभावथी भरेलो भगवान आत्मा-तेनी प्रतीति करवा माटे विकल्प काम न आवे, केमके विकल्प हदवाळी मर्यादित चीज छे; तेनी प्रतीति करनारी पर्याय बेहद चीज छे. शुं कीधुं? अचिन्त्य बेहद जेनो स्वभाव छे एवा भगवान आत्मानी प्रतीति करनारी पर्याय के जेने सम्यग्दर्शन कहीए ते अचिन्त्य बेहद शक्तिवंत छे. अहाहा...! वस्तु त्रिकाळी ध्रुवद्रव्य एक समयनी पर्यायमां आवी जाय (-पर्यायरूप थई जाय) एम नहि, पण एनी प्रतीति पर्यायमां आवी जाय छे. अहो! ते पर्याय (सम्यग्दर्शन) बेहद चीज छे.

अष्टपाहुडमां चारित्रने अक्षय-अमेय कहेल छे. अहाहा...! अंदरमां बेहद स्वभावी चीज-तेनी प्रतीति करवा जाय ते प्रतीतिमय पर्यायनी कांई हद छे? बापु! त्यां विकल्प काम न करे. अहाहा...! अनंत अनंत स्वभावथी भरेलो चैतन्य-चमत्कार स्वरूप भगवान आत्मा छे. तेनी निर्विकल्प प्रतीति करवा जाय त्यां अनंत स्वभावनुं परिणमन थईने जीवने सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. अहो! ते निर्विकल्प प्रतीतिनी बेहद शक्ति छे. तेवी एक समयनी ज्ञानपर्याय, रमणतानी पर्याय, आनंदनी पर्याय-एम प्रत्येक गुणनी पर्यायनी बेहद ताकात छे.

शुं कहीए? वाणीमां पूरुं आवी न शके; कंईक ईशारा आवे. आवुं ज वस्तु-


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स्वरूप छे. विकल्पथी वस्तु सिद्ध थाय (-प्राप्त थाय) एवी वस्तु आत्मा नथी, साधारण अनुमान-प्रमाणथी पण जाणी शकाय नहि एवी वस्तु भगवान आत्मा छे. अलिंग ग्रहणना बोलमां आ वात आवी छे के-बीजाओ द्वारा अनुमानथी जाणी शकाय नहि, पोते अनुमानथी जाणी शके नहि-एवी अलौकिक, अमाप वस्तु आत्मा छे. अहाहा...! आवो जे भगवान आत्मा तेनी निर्विकल्प प्रतीति अने तेनुं ज्ञान ते सम्यग्दर्शन-ज्ञान छे. अहो! ते श्रद्धा-ज्ञाननी अचिन्त्य शक्ति छे. आवो आत्मा, अहीं कहे छे, परद्रव्यने ग्रहतो नथी अने छोडतोय नथी. परद्रव्य जेवुं छे एवुं एनुं ज्ञान करे एवो एनो स्वभाव छे, पण ते प्रायोगिक गुणना सामर्थ्यथी के वैस्रसिक गुणना सामर्थ्यथी परद्रव्यने ग्रहे-छोडे एवो एनो स्वभाव नथी.

आत्मामां ईच्छा उत्पन्न थाय ते पोताना आश्रये पोतामां उत्पन्न थाय छे. त्यां ईच्छा थई माटे परमाणुने ग्रहे के छोडे एवुं आत्मानुं स्वरूप नथी. ईच्छा वडे परनुं काम आत्मा करी शकतो नथी. अहो! दिगंबर संतोए केवळज्ञान खडुं कर्युं छे! भगवान केवळीना पेटनी गजब वातो करी छे! प्रायोगिक गुण एटले परना निमित्तथी थयेली रागनी पर्याय-शुभ के अशुभ-ते पर्याय वडे आत्मा आहारादि द्रव्यो लई शके के छोडी शके एम कदीय छे नहि. ईच्छा वडे पैसा लई शके के दई शके, वाणी बोली शके के छोडी शके एवुं एनुं स्वरूप नथी.

अहो! दिगंबर संतो-केवळीना केडायतीओए जगतना पदार्थोनुं स्वरूप जेवुं छे तेवुं खुल्लुं कर्युं छे. प्रायोगिक गुण एटले परद्रव्यना निमित्तथी थयेली विकारी दशा. शब्द तो ‘पर निमित्तथी’ -एम छे, छता विकार-राग स्वपर्यायमां पोताना कारणे थयो छे एम तेनो अर्थ छे. ईच्छा थई छे ते पोताथी छे, परथी नहि. हवे जे ईच्छा थई तेनाथी, कहे छे, ते परपदार्थने ग्रहण करे वा छोडी शके एम छे नहि. ईच्छाना परिणाममां परद्रव्यने ग्रहवा-छोडवानी ताकात नथी. आ शरीरने हलावे-चलावे के स्थिर राखे, वाणी बोले के मौन राखे के आहारादि ग्रहण करे के छोडी दे ईत्यादि परद्रव्यनुं ग्रहण-त्याग करे एवी ईच्छामां-रागना भावमां बिलकुल ताकात नथी. हवे आवुं एने बराबर बेसवुं जोईए, आ रीते एनुं होवापणुं छे एम अंदर ज्ञानमां भासन थाय ते यथार्थ ज्ञान छे, बाकी तो बधुं थोथां छे अर्थात् कांई वस्तु नथी.

ज्ञान, दर्शन, आनंद ईत्यादि गुण तो त्रिकाळी स्वभाव छे, ते तो परने ग्रहे के छोडे नहि ए तो ठीक वात छे, पण प्रायोगिक गुण जे विभावभाव ते विभावमां परने ग्रहवा-छोडवानी ताकात छे के नहि? ल्यो, आवो प्रश्न! अहीं कहे छे-विभावमां एवी बिलकुल ताकात नथी. आ आत्मा पोताना सिवाय बीजा आत्माओ अने परमाणुने विभाव-ईच्छा वडे ग्रहे के छोडे ते शक्य नथी. मुनिराजने आहार लेवानी ईच्छा थई तो ते


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‘दाणे दाणे खानारनुं नाम’ - एम कहे छे ने? तेनो अर्थ शुं? के जे रजकणो आववाना होय ते तेना कारणे आवे छे, तारी ईच्छाने कारणे नहि. ईच्छानी मर्यादा ईच्छामां रही, ते ईच्छानुं परमां कांई चाले नहि; परनां ग्रहण-त्याग ईच्छाना सामर्थ्यमां नथी. आ तो मूळ पाठ छे हों; जुओ वांचोः

“जे द्रव्यो छे पर तेहने न ग्रही, न छोडी शकाय छे,
एवो ज तेनो गुण को प्रायोगी ने वैस्रसिक छे”-४०६.

प्रभु! एकवार सांभळ तुं संतोनी वात. अहाहा...! अंदर ज्ञान-श्रद्धान अने स्वरूपनी रमणता प्रगटयां होय तेने कदाचित् आहार लेवानी वृत्ति उठे, पण ते वृत्तिने लईने ते आहार ग्रहण करी शके एम नथी; वळी आजे आठम, चौदश छे माटे ईच्छाने लईने ते आहार छोडी शके एम नथी; ईच्छाने लईने आहार आव्यो ने अटकी गयो ए वातमां कांई तथ्य नथी. आहारनुं आववुं ने अटकी जवुं ए ते ते परमाणुओनी स्वाधीन क्रिया छे. भाई! तारा अस्तित्वमां तने वृत्ति उठे छे, पण तेथी परना अस्तित्वने ग्रहे के छोडे एवुं तेनुं स्वरूप नथी.

हा, पण मुनिराज वस्त्रादि तो छोडी शके के नहि? ना, भाई! ना; बापु! वृत्ति उठे, पण वस्त्रादि छोडी न शके. वस्त्रादि छोडयां एम कहीए ए बीजी वात छे (व्यवहार छे), पण एम माने ए तो मिथ्यात्व छे भाई! जाणवुं..... जाणवुं..... जाणवुं बस ए ज्ञाननुं (आत्मानुं) सामर्थ्य छे; वृत्ति उठे एने पण जाणे ए एनुं सामर्थ्य छे, पण परने ग्रहे-छोडे ए एनुं सामर्थ्य नथी. अहाहा...! पोते जेम अस्तिपणे सत् छे तेम बीजा पदार्थो पण अस्तिपणे सत् छे. छे. तेनी पर्यायनुं अस्तित्व तेनाथी होय के ताराथी होय? भाई! आ तो न्यायथी वात छे.

प्रश्नः– हा, पण बळवान होय तेनुं चाले ने? उत्तरः– परमां जराय न चाले, कोईनुं न चाले, हुं बळवान छुं माटे परनुं काम करी शकुं एम कोई (मिथ्या) अभिमान करे तो करे, पण परनुं कांई करी शके नहि; आवी वस्तुस्थिति छे भाई! मुनिराज तो रागना पण कर्ता नथी. शुं थाय? राग (यथा संभव) आवे छे, आव्या विना रहेतो नथी, पण तेथी ते कांई परनुं करी शके एम त्रणकाळमां नथी. भाई! परद्रव्यनी पर्यायनुं होवापणुं परद्रव्यथी-एनाथी छे, बीजाथी ते पर्याय त्रणकाळमां थती नथी.


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भगवाननी प्रतिमा पधराववानो भाव आव्यो माटे प्रतिमा बिराजमान थवानी क्रिया त्यां थई एम नथी. आने शुभराग थयो ए एनी-जीवनी क्रिया छे, अने प्रतिमां बिराजमान थवानी क्रिया थई ए ते ते परमाणुओनी क्रिया छे; बन्ने स्वतंत्रपणे छे भाई! अरे! अज्ञानीओने तो बधे ‘हुं करुं, हुं करुं’ एम ज भासे छे. जेवी द्रष्टि तेवी सृष्टि. समकिती ज्ञानीने वृत्ति-राग थई आवे, पण तेनो तो ते जाणनारमात्र ज रहे छे, ज्यारे अज्ञानी बधुं हुं करुं छुं एम मिथ्या अभिमानथी राचे छे.

अहीं आ चोकखुं तो कहे छे के- प्रायोगिक के वैस्रसिक गुणना सामर्थ्यथी ज्ञान वडे परद्रव्यनुं ग्रहवुं तथा छोडवुं अशक्य छे. ज्ञान-दर्शन-चारित्रनी निर्मळ पर्याय प्रगटे तेनुं नाम वैस्रसिक गुण छे. ते निर्मळ पर्यायना सामर्थ्यथी पण आत्मा परने ग्रहे के छोडे ते अशक्य छे. द्रष्टिवंत पुरुष एम ज यथार्थपणे माने छे, परंतु अज्ञानी ज्यां होय त्यां परद्रव्यने ग्रह्या-छोडयानुं मिथ्या अभिमान करे छे. शुं थाय? मिथ्या अभिमान करे छे एटले तो ए अज्ञानी छे. अहो! आ तो थोडी लीटीमां घणुं बधुं भरी दीधुं छे. समजाणुं कांई....?

एक प्रश्न थयो हतो के-निमित्तथी कांई थतुं नथी तो तमे समयसार लईने केम बेठा छो? पुराण केम वांचता नथी?

अरे भाई! समयसारना निमित्तपणामां कांईक विशेषता छे ने पुराणमां नथी-शुं एम छे? अमारे मन तो बन्ने जीनवाणी छे. समयसार होय तो ठीक एवी वृत्तिना कारणे अहीं समयसार आव्युं छे एम नथी. ए तो एना कारणे छे, वृत्तिना कारणे नहि. आ समयसारनुं आम पानुं फरे ने? ए क्रिया पण बापु! वृत्तिना कारणे नहि अने आ हाथना कारणे पण नहि; ए तो ते ते परमाणुओनी काळे स्वतंत्र क्रिया छे. आत्मा ते रजकणोने उंचा-नीचा करे एवुं सामर्थ्य आत्मामां नथी. पण अरेरे! अज्ञानी जीवो अनादिथी भ्रमणामां रहीने यथार्थ स्वरूपना भान विना दुःखी-दुःखी थई रह्या छे!

हवे कहे छे- ‘वळी, (कर्म-नोकर्मादिरूप) परद्रव्य ज्ञाननो-अमूर्तिक आत्मद्रव्यनो- आहार नथी, कारणके ते मूर्तिक पुद्गलद्रव्य छे; (अमूर्तिकने मूर्तिक आहार होय नहि). तेथी ज्ञान आहारक नथी. माटे ज्ञानने देहनी शंका न करवी.’

जुओ, नोकर्म एटले आहार-पाणी वगेरे जड मूर्तिक पुद्गल द्रव्य छे, अने आत्मा चेतन अमूर्तिक द्रव्य छे. अहीं कहे छे- रोटला, दाळ, भात, शाक ईत्यादि मूर्तिक द्रव्यनो आहार आत्माने छे ज नहि, केमके आहार मूर्तिक द्रव्य छे अने आत्मा अमूर्तिक द्रव्य छे. अमूर्तिक चेतन द्रव्यने मूर्तिक जडनो आहार केम होय? नथी ज. माटे आत्मा आहारक नथी; आहारने ग्रहनारो आत्मा नथी. माटे


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‘(अहीं “ज्ञान” कहेवाथी “आत्मा” समजवो; कारण के, अभेद विवक्षाथी लक्षणमां ज लक्ष्यनो व्यवहार कराय छे. आ न्याये टीकाकार आचार्यदेव आत्माने ज्ञान ज कहेता आव्या छे).’

ज्ञान आत्मानो असाधारण गुण छे. ज्ञान ज्ञानने जाणे, अनंता गुणने जाणे, आत्माने जाणे अने अनंता परपदार्थोने पण जाणे एवो आत्मानो असाधारण गुण छे. तेथी ज्ञान लक्षण छे, अने आत्मा लक्ष्य छे, अभेद विवक्षामां लक्षणमां ज लक्ष्यनो व्यवहार कराय छे तेथी आचार्यदेवे आत्माने ज्ञान ज कह्यो छे. अहीं लक्ष्यनो लक्षणमां आरोप करीने ते लक्षणने-ज्ञानने ज आत्मा कह्यो छे, तेथी अहीं ‘ज्ञान’ शब्दे ‘आत्मा’ समजवो एम कह्युं छे. समजाणुं कांई...?

* गाथा ४०प थी ४०७ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञानस्वरूप आत्मा अमूर्तिक छे अने आहार तो कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलमय मूर्तिक छे; तेथी परमार्थे आत्माने पुद्गलमय आहार नथी. वळी आत्मानो एवो ज स्वभाव छे के ते परद्रव्यने तो ग्रहतो ज नथी;-स्वभावरूप परिणमो के विभावरूप परिणमो, पोताना ज परिणामनां ग्रहण-त्याग छे, परद्रव्यनां ग्रहण-त्याग तो जरा पण नथी.

आ रीते आत्माने आहार नहि होवाथी तेने देह ज नथी.’ अहो! ज्ञान स्वभावी प्रभु आत्मा स्पर्श, रस, गंध, वर्ण विनानी अरूपी- अमूर्तिक चीज छे, ने कर्म-नोकर्म तो रूपी-मूर्तिक छे. हवे अरूपी एवो आत्मा रूपी कर्म- नोकर्मने ग्रहे-छोडे ए संभवित नथी, केमके भगवान आत्मा परना ग्रहण-त्यागथी रहित-शून्य छे. अहाहा...! परने अडे नहि ते परने केम ग्रहे-छोडे? माटे परमार्थे आत्माने पुद्गलमय आहार नथी.

आ बहारना वेपारधंधा बधी पर चीज छे, तेने आत्मा ग्रहतो नथी के छोडतो नथी. ए परपदार्थ तो एना ज्ञाननुं ज्ञेय-परज्ञेय छे, व्यवहारे हो; निश्चये तो तत्संबंधी जे ज्ञान प्रगट थयुं ते तेनुं ज्ञेय छे. अहा! निज ज्ञायकस्वभावने ज्ञेय करनारुं ज्ञान सम्यग्ज्ञान छे, बाकी तो बधां थोथां छे.

जुओ, आ बोटादना एक मुमुक्षु भाई मुंबईमां लाखोना धंधा करता हता त्यांथी निवृत्त थई गया. नानी उंमरमां निवृत्ति लई स्वाध्याय करे छे. बहेननुं वचनामृत पुस्तक वांची ते एम बोल्या- ‘अनुभव प्रगट थवा माटे आ निमित्त छे.’ अरे भाई!


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आ अवसरमां आ ज (अनुभव ज) करवा जेवुं छे. बाकी लग्न करवां-परणवुं ए तो दुर्घटना छे. लोको ‘प्रभुतामां पगलां मांडयां’ कहे छे ने! पण बापु! ए तो नरी दुर्घटना छे. आ एने (बायडीने) राजी राखवी, ने छोकरांने राजी राखवां, ने रळवुं-कमावुं ईत्यादि अनेक पापना आरंभ त्यांथी शरू थाय छे. शुं कहीए? पोते पोताने ज भूली जाय एवडी मोटी ए भूल छे, मणमां आठ पांचशेरीनी भूल जेवी भूल!

अहीं कहे छे- परमार्थे आत्माने पुद्गलनो-कर्म-नोकर्मनो आहार नथी. खरेखर तो वृत्ति उठे एय आत्मानी चीज नथी, केमके ते एना स्वरूपमां क्यां छे? ए तो विभाव छे, औपाधिक भाव छे. आत्माने कोई रागवाळो माने ए आत्मघाती छे. हिंसक छे. हुं ज्ञानानंदस्वभावी चैतन्यचमत्कारमय अनंतगुणनो पिंड प्रभु छुं एम अनुभववाने बदले हुं रागवाळो छुं एम अनुभवे ए तो आत्मघात छे. पोतानी हिंसा छे; केमके एमां पोताना स्वरूपनो अनादर छे, तिरस्कार छे.

अहीं कहे छे- स्वभावरूप परिणमे के विभावरूप परिणमे, आत्मा परने ग्रहतो नथी. छोडतो नथी. चारित्रदशावंत मुनिने कदाचित् आहारनी वृत्ति थाय तो तेथी कांई आहारने ग्रही शके छे, कर्मने ग्रही शके छे, के कर्मनी निर्जरा करी शके छे एम नथी. अरे! मुनिराज तो वृत्ति उठे तेना कर्ता थता नथी, मात्र ज्ञाता-दष्टा रहे छे. वृत्ति थई ते अपेक्षा कर्ता कहीए, पण वृत्ति कर्तव्य छे एम मानता नथी ए अपेक्षाए अकर्ता नाम ज्ञाता ज छे. अहीं आ सिद्ध करवुं छे के-स्वभावरूप परिणमो के विभावरूप परिणमो पोताना ज परिणामनां ग्रहण-त्याग छे, परद्रव्यनां ग्रहण-त्याग तो जरा पण नथी.

आ रीते आत्माने आहार नहि होवाथी तेने देह ज नथी.

** *

आत्माने देह ज नहि होवाथी; पुद्गलमय देहस्वरूप लिंग (वेष, भेख, बाह्यचिन्ह) मोक्षनुं कारण नथी-एवा अर्थनुं आगळनी गाथाओनी सूचनारूप काव्य हवे कहे छेः-

* कळश २३८ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

एवं शुद्धस्य ज्ञानस्य देहः एव न विधते’ आम शुद्ध ज्ञानने देह ज नथी; ‘ततः ज्ञातुः देहमयं लिङ्गं मोक्षकारणं न’ तेथी ज्ञाताने देहमय लिंग मोक्षनुं कारण नथी.

शुद्ध ज्ञान अर्थात् भगवान आत्माने देह ज नथी. देह नथी माटे देहमय लिंग- नग्नदशानो भेख मोक्षनुं कारण नथी. देह छे ए तो बाह्य वस्तु छे, ते मोक्षनुं


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अहाहा...! आत्मा सच्चिदानंद प्रभु अनंत शक्तिनुं संग्रहस्थान छे. अहाहा...! अनंत शक्तिनो सागर प्रभु आत्मा छे, आ अमाप... अमाप... अमाप एवुं अनंत प्रदेशी आकाश छे. तेना अनंत प्रदेशोथी अनंतगुणा आत्माना गुण छे. अहाहा...! जेनी एक समयनी पूर्ण ज्ञाननी दशा-केवळज्ञाननी दशा विश्वनां छ द्रव्य, तेना अनंता गुण, तेनी त्रण काळनी अनंती पर्याय- ते सर्वने युगपत् एक समयमां अडया विना ज जाणी ले एवो बेहद ज्ञानस्वभावी प्रभु आत्मा छे. आ शास्त्रज्ञान होय ते ज्ञान एम नहि. खरेखर तो द्रव्यस्वभावने स्पर्शीने एटले तेनी सन्मुख थईने प्रगट थाय ते ज्ञान ज्ञान छे, अहाहा...! आवा अचिन्त्य बेहद ज्ञानानंदस्वभावी प्रभु आत्माने, कहे छे, देह ज नथी.

हा, पण आत्माने देह ज नथी ए तो एकान्त थई गयुं? थई गयुं तो थई गयुं. ए सम्यक् एकान्त छे, केमके आत्माने देह छे ज नहि. देह आत्मानी चीज छे ज नहि.

देहनी समय समयनी अवस्था थाय ते जडनी जडमां थाय छे; ते अवस्था आत्मानी नहि, आत्मामां नहि, आत्माथी पण नहि. देहनी अवस्थामां आत्मा नहि, ने आत्मानी अवस्थामां देहनी अवस्था नहि, तेथी, कहे छे, ज्ञाताने-भगवान आत्माने देहमय लिंग मोक्षनुं कारण नथी. अहाहा...! आत्मा स्वने जाणे अने अनंता परद्रव्योने जाणे एवो स्वपरप्रकाशक ज्ञाता प्रभु छे. परंतु जेने अंदरमां स्वस्वरूपनुं ज्ञान थयुं नथी तेने देहादि परनुं यथार्थज्ञान नथी. जेने निजस्वरूपग्राही ज्ञान अंदर प्रगट थाय तेने ज स्वपरप्रकाशक यथार्थ ज्ञान होय छे. ते यथार्थ जाणे छे के देहमय लिंग मोक्षनुं कारण नथी.

आत्मा ज्ञाता-द्रष्टा प्रभु छे. तेनुं जेने अंदरमां भान थयुं तेने निजस्वरूपग्राहीज्ञान प्रगट थयुं छे. तेने देहादि पर पदार्थोनुं पण सत्यार्थ ज्ञान थयुं छे. अहाहा...! स्वरूपनी अंतर्दष्टि अने स्वानुभवनी दशा जेने प्रगट थई तेने देहमय लिंग मोक्षनुं कारण नथी एवुं साचुं ज्ञान थाय छे. ओहो! मुनिराजने बहारमां द्रव्यलिंग होतुं नथी एम नहि, होय छे अवश्य; पण ते मोक्षनुं कारण नथी एवुं सत्यार्थ ज्ञान तेने होय छे. भाई! व्रतादिना विकल्प ए पण देहमय लिंग ज छे, अने मुनिराज भावलिंगी संत तेने मोक्षनुं कारण जाणता नथी, मानता नथी.

लोकमां तो एवुं माने के भगवाननी भक्ति करतां करतां, गुरुनी भक्ति करतां


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करतां कल्याण थई जाय. बापु! ए तो मिथ्यात्वनुं मोटुं शल्य छे. तेने अहीं तो एम कहेवुं छे के जीव पोताना स्वरूपने जाणे त्यारे तेने देहादि पदार्थोनुं ने रागनुं साचुं ज्ञान थाय छे. अहाहा...! जे सत्तामां जाणवानुं कार्य थाय छे तेने जे जाणे तेने ज परनुं यथार्थ ज्ञान थाय छे, अने तेने व्यवहार कहेवामां आवे छे. ते ज्ञानी पुरुषो देहमय लिंगने- द्रव्यलिंगने मोक्षनुं कारण जाणता नथी; बाह्य लिंग वडे पोतानुं कल्याण थशे एम मानता नथी. ल्यो आवी वात!

[प्रवचन नं. ४९६-४९७*दिनांक १८-११-७७ थी १९-११-७७]

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गाथा ४०८–४०९

पासंडीलिंगाणि व गिहिलिंगाणि व बहुप्पयाराणि। घेत्तुं वदंति मूढा लिंगमिणं मोक्खमग्गो त्ति।। ४०८।।

ण दु होदि मोक्खमग्गो लिंगं जं देहणिम्ममा अरिहा। लिंगं मुइत्तु दंसणणाणचरित्ताणि सेवंति।। ४०९।।

पाषण्डिलिङ्गानि वा गृहिलिङ्गानि वा बहुप्रकाराणि।
गृहीत्वा वदन्ति मूढा लिङ्गमिदं मोक्षमार्ग इति।।
४०८।।
न तु भवति मोक्षमार्गो लिङ्गं यद्देहनिर्ममा अर्हन्तः।
लिङ्गं
मुक्त्वा दर्शनज्ञानचारित्राणि सेवन्ते।। ४०९।।

हवे आ अर्थने गाथामां कहे छेः-

बहुविधनां मुनिलिंगने अथवा गृहस्थीलिंगने,
ग्रहीने कहे छे मूढजन ‘आ लिंग मुक्तिमार्ग छे.’ ४०८.
पण लिंग मुक्तिमार्ग नहि, अर्हंत निर्मम देहमां,
बस लिंग छोडी ज्ञान ने चारित्र, दर्शन सेवता. ४०९.

गाथार्थः– [बहुप्रकाराणि] बहु प्रकारनां [पाषण्डिलिङ्गानि वा] मुनिलिंगोने [गृहिलिङ्गानि वा] अथवा गृहीलिंगोने [गृहीत्वा] ग्रहण करीने [मूढाः] मूढ (अज्ञानी) जनो [वदन्ति] एम कहे छे के ‘[इदं लिङ्गम्] आ (बाह्य) लिंग [मोक्षमार्गः इति] मोक्षमार्ग छे’.

[तु] परंतु [लिङ्गम्] लिंग [मोक्षमार्गः न भवति] मोक्षमार्ग नथी; [यत्] कारण के [अर्हन्तः] अर्हंतदेवो [देहनिर्ममाः] देह प्रत्ये निर्मम वर्तता थका [लिङ्गम् मुक्त्वा] लिंगने छोडीने [दर्शनज्ञानचारित्राणि सेवन्ते] दर्शन-ज्ञान-चारित्रने ज सेवे छे.

टीकाः– केटलाक लोको अज्ञानथी द्रव्यलिंगने मोक्षमार्ग मानता थका मोहथी द्रव्यलिंगने ज ग्रहण करे छे, ते (-द्रव्यलिंगने मोक्षमार्ग मानीने ग्रहण करवुं ते) अनुपपन्न अर्थात् अयुक्त छे; कारण के बधाय भगवान अर्हंतदेवोने, शुद्धज्ञानमयपणुं


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होवाने लीधे द्रव्यलिंगने आश्रयभूत शरीरना ममकारनो त्याग होवाथी शरीराश्रित द्रव्यलिंगना त्याग वडे दर्शनज्ञानचारित्रनी मोक्षमार्गपणे उपासना जोवामां आवे छे (अर्थात् तेओ शरीराश्रित द्रव्यलिंगनो त्याग करीने दर्शनज्ञानचारित्रने मोक्षमार्ग तरीके सेवता जोवामां आवे छे).

भावार्थः– जो देहमय द्रव्यलिंग मोक्षनुं कारण होत तो अर्हंतदेव वगेरे देहनुं ममत्व छोडी दर्शनज्ञानचारित्रने शा माटे सेवत? द्रव्यलिंगथी ज मोक्षने पामत! माटे ए नक्की थयुं के-देहमय लिंग मोक्षमार्ग नथी, परमार्थे दर्शनज्ञान-चारित्ररूप आत्मा ज मोक्षनो मार्ग छे.

*
समयसार गाथा ४०८–४०९ः मथाळुं

हवे आ अर्थने गाथामां कहे छेः-

* गाथा ४०८–४०९ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘केटलाक लोको अज्ञानथी द्रव्यलिंगने मोक्षमार्ग मानता थका मोहथी द्रव्यलिंगने ज ग्रहण करे छे. ते (-द्रव्यलिंगने मोक्षमार्ग मानीने ग्रहण करवुं ते) अनुपपन्न अर्थात् अयुक्त छे; कारण के...’

जुओ, नग्नदशा अने पंचमहाव्रतना परिणाम ए द्रव्यलिंग छे. अज्ञानथी जीव तेने मोक्षमार्ग मानीने मोहथी द्रव्यलिंगने ज ग्रहण करे छे. ग्रहण करे छे एम कह्युं ने? तो द्रव्यलिंगने ग्रहण करी शके छे एम सिद्ध नथी करवुं. तो केम कह्युं? नग्नदशाने जीव ग्रहण करी शकतो नथी, पण अज्ञानी ग्रहण करवानुं माने छे ए अपेक्षाए नाममात्र कह्युं छे. (परने) ग्रहे छे ने छोडे छे एम कहीए ए तो व्यवहारथी वात छे. समजाववुं छे ने? तो बीजी शी रीते कहे? ए तो गाथा ३४नी टीकामां न आव्युं के रागना त्यागनुं कर्तापणुं आत्माने नाममात्र छे? परमार्थे रागनो कर्ता आत्मा नथी, रागना त्यागनो पण कर्ता आत्मा नथी. रागनो त्याग करवो ए वास्तवमां आत्मामां लागु ज पडतुं नथी, भाई! ज्यां जे नयविवक्षा होय ते यथार्थ समजवी जोईए. अहीं कहे छे- द्रव्यलिंगने मोक्षमार्ग मानीने तेने ग्रहण करवुं ते अयुक्त छे. केम अयुक्त छे? तो कहे छे-

‘कारण के बधाय भगवान अर्हंतदेवोने, शुद्ध ज्ञानमयपणुं होवाने लीधे द्रव्यलिंगने आश्रयभूत शरीरना ममकारनो त्याग होवाथी, शरीराश्रित द्रव्यलिंगना त्याग वडे दर्शनज्ञानचारित्रनी मोक्षमार्गपणे उपासना जोवामां आवे छे. (अर्थात् तेओ