Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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बहारना क्रियाकांड-छकायना जीवोनी दया पाळे, पांच महाव्रत पाळे, ब्रह्मचर्य पाळे-ते कांई संयम नथी ए तो बधो राग छे बापु! जेम जीवादि नवतत्त्वनी ने देव- गुरु-शास्त्रनी भेदरूप श्रद्धा समकित नथी (राग छे) तेम छ कायनी दया वगेरे पाळवाना विकल्प पण संयम नथी. अंदर ज्ञानानंदस्वरूपी नित्यानंद प्रभु पोते भगवान छे, उपयोग त्यां ज रमे अने त्यां ज जामे एनुं नाम संयम छे, एनुं नाम चारित्र छे. अहाहा...! उपयोग स्वरूपमां रमे त्यां प्रचुर अतीन्द्रिय आनंदनुं परिणमन थाय तेनुं नाम संयम छे. ज्ञाननुं ज्ञानमां रममाण थवुं ते संयम छे.

गाथा १पपनी टीकामां आवे छे के-“सम्यग्दर्शन तो जीवादि पदार्थोना श्रद्धान- स्वभावे ज्ञाननुं थवुं- परिणमवुं ते छे; जीवादि पदार्थोना ज्ञानस्वभावे ज्ञाननुं थवुं- परिणमवुं ते ज्ञान छे; रागादिना त्यागस्वभावे ज्ञाननुं थवुं-परिणमवुं ते चारित्र छे. तेथी ए रीते एम फलित थयुं के सम्यग्दर्शन -ज्ञान-चारित्र ए त्रणे एकलुं ज्ञाननुं भवन (परिणमन) ज छे.” आ प्रमाणे संयम ज्ञाननुं भवन ज छे तेथी ज्ञान ज संयम छे एम वात छे; केमके ज्ञान नाम आत्माथी संयम कोई जुदी चीज नथी.

हा, पण एनुं साधन तो होय ने? साधन? ए तो जेने अंदरमां स्वस्वरूपनुं भान थयुं छे तेने व्रत, तप, दया ईत्यादिना रागनी मंदताना विकल्प आवे छे अने तेने व्यवहारथी साधन कहे छे पण तेनाथी कांई साध्यनी सिद्धि थती नथी. सहकारी निमित्त जाणी आरोप करीने तेने व्यवहारथी साधन कह्युं छे. ते कांई वास्तविक साधन नथी. आवी वात छे! समजाणुं कांई...! (वास्तविक तो पोते ज पोतानुं साधन छे).

जुओ, अहीं सम्यग्दर्शन, संयम वगेरे पर्याय छे तेने आत्मा कहेल छे, ज्यारे गाथा ११मां तेने व्यवहार कही अभूतार्थ कहेल छे. नियमसारनी ३८ वगेरे गाथामां पुण्य-पाप, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष सुद्धां जेटली पर्यायो छे ते सर्वने परद्रव्य कही हेय कही छे.

प्रश्नः– तो बन्नेमां साचुं शुं? समाधानः– बन्नेय वात अपेक्षाथी साची छे. भाई! अनेकान्तथी बधुं सिद्ध थाय छे. अनादिथी आ जीव पर्यायद्रष्टि रही चोरासीना अवतारमां रझळे छे. तेने नाशवंत पर्यायनो आश्रय छोडावी त्रिकाळी ध्रुव एक शुद्धभावनो आश्रय कराववाना प्रयोजनथी त्यां नियमसारमां सर्व पर्यायोने परद्रव्य कही हेय कही अने एक


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त्रिकाळी ध्रुव शुद्धभाव उपादेय कह्यो. समयसारनी ११मी गाथामां पण पर्यायने असत्यार्थ कही तेनो आशय एवो छे के पर्यायने गौण करी, पेटामां राखी, व्यवहार कहीने नथी एम कह्युं छे; अने सम्यग्दर्शननो विषय जे ध्रुव एक चिदानंदघन प्रभु तेने मुख्य करी, निश्चय कही तेने भूतार्थ-सत्यार्थ कहेल छे. आमां प्रयोजन एक ध्रुवनो आश्रय कराववानुं छे. अहीं बीजी वात छे. अहीं परद्रव्यथी भिन्नता सिद्ध करवी छे. तो सम्यग्दर्शन अने संयम आदि (पुण्य-पाप-सहीत) पोतानी जे पर्याय छे ते पोते आत्मा ज छे एम शैलीथी वात छे. पोतानी पर्याय ते पोते ज छे, पर नथी ए शैलीथी अहीं वात छे. भाई! ज्यां जे अपेक्षाथी वात होय तेने त्यां यथार्थ समजवी जोईए.

समयसार गाथा ११ मां ध्रुव एक त्रिकाळी द्रव्य ते निश्चय अने पर्याय ते व्यवहार एम कह्युं छे. अहीं जेनी जे पर्याय ते निश्चय तेनी छे, परनी नथी एम लेवुं छे; तेथी कह्युं के-ज्ञान ज सम्यग्द्रष्टि छे, ज्ञान ज संयम छे’ ईत्यादि. समयसारनी ७१मी गाथामां-“निश्चयथी ज्ञाननुं थवुं-परिणमवुं ते आत्मा छे”-एम कह्युं छे. अहीं तो पुण्य- पापना भाव थाय तेने पण आत्मा कहेल छे. आ तो त्रिलोकनाथ सर्वज्ञ परमात्मानो अनेकान्त मार्ग छे बापा! स्याद्वाद वडे तेने बराबर समजवो जोईए.

आत्मा पोते पोतामां स्थिर थाय, जामी जाय ते संयम छे. कह्युं ने के रागनां त्यागस्वभावे ज्ञाननुं थवुं-परिणमवुं ते चारित्र छे; संयम छे ते आत्मा ज छे. परंतु लोको व्यवहारने साधन मानी आ वातने (ठेकडीमां) उडावे छे. पण शुं थाय? तेओ वस्तुस्वरूपने समजता नथी. एटले विरोध करे छे. पण एवुं तो अनादिथी चाल्युं ज आवे छे. अहीं तो भवभ्रमणना दुःखनो थाक लाग्यो छे तेने कहीए छीए के तारा दुःखनो अंत लाववानो आ मार्ग छे. भाई! अज्ञानीने अनादिथी मिथ्यात्वरूपी क्षयरोग लागु पडयो छे. रोग महाभयंकर छे, ने पीडानो पार नथी. हमणां बहारमां भले लाल- पीळो थईने फरे, पण अंदर पोतानुं भान नथी तेनी माठी दशा छे. तेने पर्यायमां मोटो घा वागे छे. मिथ्यात्वना घाथी ते मूर्छित-अचेत जेवो थई गयो छे. अरेरे! त्रण लोकनो स्वामी आनंदनो नाथ प्रभु मूर्च्छामां पडयो छे! एने खबर नथी पण ए क्यांय निगोदमां जई पडशे!

भाई! अहीं तारा अनंता दुःखनो अंत लाववानी आ वात छे. कहे छे-ज्ञान ज संयम छे. आ देहनी क्रिया अने दया, दान, व्रत, तप आदि क्रियाकांडना विकल्प ते संयम नथी. बहु आकरी वात बापा! पण आ सत्य वात छे. अहाहा...! अतीन्द्रिय आनंदनो नाथ निर्मळानंद प्रभु पोते छे ते पर्यायमां अतीन्द्रिय आनंदनी रमतमां जामी जाय ते संयम छे अने संयम छे ते पोते-आत्मा ज छे. आवी वात!


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त्यारे कोई कहे छे- तमे व्यवहार साधन उडावी देशो तो श्रावकपणुं ने मुनिपणुं रहेशे नहि.

अरे भाई! जो तने व्यवहार साधननी-रागनी रुचि... प्रेम छे तो तने श्रावकपणुं ने मुनिपणुं छे ज क्यां? तने तो तारो एकलो राग छे. मारग तो वीतरागस्वरूप छे भाई! श्रावकपणुं ने मुनिपणुं ए पण (यथा संभव) वीतरागदशा ज छे. व्रतादिनुं होवुं ए तो ते ते दशानो बाह्य व्यवहार छे. तेने उपचारथी साधन कहेल छे, धर्मी पुरुषो तेने परमार्थे साधन मानता नथी.

हवे पछी अहीं पुण्य-पापना भाव एनी पर्यायमां छे माटे एने आत्मा कहेशे, पण ए तो विभ्रमने लईने उत्पन्न थनारा परिणाम छे. पुण्य-पाप आत्मा ज छे- एम कहीने ते पोतानी पर्यायमां उत्पन्न थया छे (बीजे नहि) एम ज्ञान कराववुं छे. समजाणुं कांई..? हवे कहे छे-

‘ज्ञान ज अंगपूर्वरूप सूत्र छे.’ जोयुं? बार अंगनुं ज्ञान ते खाली शब्दो नथी. स्वना आश्रये जे सम्यग्ज्ञान प्रगट थाय ते भावश्रुतज्ञान अंगपूर्वरूप सूत्र छे. भाई! आ तो भगवतस्वरूप भगवान आत्मानी भागवत कथा छे. नियमसारमां छेल्ले कह्युं छे के- आ तो भागवत शास्त्र छे. भगवान चैतन्यरत्नाकर प्रभु तेनी स्थिरतानी रमतुं मांडी पोताना आनंदना बगीचामां रमत रमे तेने संयम अने अंगपूर्व सूत्र कह्युं छे. बाकी शब्दो ते ज्ञान नहि; अने शब्दोनी परलक्षी धारणा थाय ते पण ज्ञान नहि; आत्मा नहि.

हवे कहे छे- ‘ज्ञान ज धर्म-अधर्म (अर्थात् पुण्य-पाप) छे.’ जुओ पुण्य-पाप एनी पर्यायमां थाय छे माटे एने आत्मा कह्यो छे. पण ते उत्पन्न केम थाय छे? तो आगळ कहेशे के विभ्रम तेनी उत्पत्तिनुं मूळ छे. ते भले जीवनी पर्यायमां उत्पन्न थाय पण ते परसत्तावलंबी भाव बंधरूप छे, बंधना कारण छे.

तो पछी ज्ञान ज धर्म-अधर्म छे एम केम कह्युं छे? भाई! अहीं तो स्वनां द्रव्य-गुण-पर्याय स्वकीय छे, परथी भिन्न छे, पर नथी- एम सिद्ध करवुं छे. तेथी एनी पर्यायमां जे शुभाशुभ भाव थाय छे तेने अहीं आत्मा कह्यो छे. पोतानी पर्याय ते पोते-एवी शैलीथी अहीं वात छे. तेथी सम्यग्दर्शन, संयम, अंगपूर्व सूत्रनी निर्मळ पर्याय ने धर्म-अधर्मनी विभावरूप मलिन पर्याय तेने अहीं आत्मा कह्यो छे.

अहा! ज्ञान ज धर्म-अधर्म छे. पुण्य-पापना भाव ते अशुद्ध पर्यायो जीवनी छे. मोक्षमार्ग प्रकाशकमां शुद्ध-अशुद्ध पर्यायोनो पिंड ते आत्मा-एम कह्युं छे.


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अशुद्धता अंदर गरी थई नथी, त्यां तो अशुद्धता परिणामिकभावे थई गई छे. क्षयोपशमभावनी पर्याय पण एक समयनी. बीजे समये व्यय थाय त्यां अंदर पारिणामिक भावे थई जाय छे. हवे अशुद्ध पर्यायने सर्वथा काढी नाखो तो आत्मा त्रिकाळी वस्तु छे ते सिद्ध ज नहि थाय. साधकने पण असंख्य समय सुधी-सात आठ भव करे त्यां सुधी पर्यायमां अशुद्धता रहे छे. आ अशुद्धताने अहीं आत्मा कह्यो छे.

अनादि-सांत अशुद्ध पर्याय अने सादि-अनंत शुद्ध पर्याय-ते बधी शुद्ध-अशुद्ध पर्यायोनो समूह ते आत्मा छे. आ तो सामान्यपणे आत्मानुं स्वरूप ज आवुं छे. तेमां अशुद्धता सर्वथा काढी नाखो तो शुद्ध-अशुद्ध पर्यायोनो समूह ते गुण, अने गुणोनो समूह ते आत्मा-ए कशुं सिद्ध नहि थाय. भाई! आ तो न्यायथी समजाय एवुं छे बापु! मात्र रस-रुचि जोईए. ज्यां रस होय त्यां रुचि जागे ज छे. जीव अनादिथी शुभाशुभ भाव करतो आव्यो छे. ते शुभाशुभ भाव अनादिसांत छे. आटलो बधो काळ अशुद्धता थई तेने मानो ज नहि तो गुण ज सिद्ध नहि थाय, ने द्रव्य पण सिद्ध नहि थाय. गुणनुं अशुद्ध परिणमन थाय ते पण तेनी तत्कालीन योग्यता छे. हवे ते ते अशुद्धता थई तेने न मानो तो त्रिकाळी गुण ज सिद्ध नहि थाय; अने तो अनंत गुणनो समूह ते आत्मा-ए सिद्ध नहि थाय. आवी वात!

अहो! प्रत्येक आत्मा अनंता सामान्य अने अनंता विशेष-एम अनंता गुणोनो दरियो छे. अस्तित्वादि छ गुण कह्या छे ए तो टुंकामां समजाववा माटे छे, केमके वाणीमां बधा गुणो आवता नथी. अहाहा...! वस्तुमां सामान्य अने विशेष एम अनंता गुणो छे. तेमां एक गुणमां बीजा अनंत गुणनुं रूप छे. जेमके-एक ज्ञानगुण छे, बीजो अस्तित्वगुण; तो ज्ञानगुणमां-ते छे... छे... छे-एम अस्तित्वगुणनुं रूप छे. ज्ञानगुणमां अस्तित्व गुण छे एम नहि, तथा ज्ञानगुणनुं छेपणुं (हयाती) कांई अस्तित्वगुणना कारणे छे एम नहि; पण ज्ञानगुण छे... छे... छे-एम अस्तित्व गुणनुं एमां रूप छे. आ प्रमाणे एक गुणमां बीजो गुण नथी, पण एक गुणमां बीजा अनंतगुणनुं रूप होय छे. एक गुणमां बीजो गुण छे एम न समजवुं. ए तो तत्त्वार्थसूत्रमां सिद्धांत कह्यो छे के-

द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः’ – द्रव्यना आश्रये गुणो छे, एक गुणमां बीजो गुण नथी.

आ रीते ज्ञानगुण सहित अनंता गुण अनादि-अनंत जीव द्रव्यने आश्रित छे, ज्ञानमां बीजा कोई गुणो नथी. एक गुणमां बीजा कोई गुणो नथी. जो ज्ञान गुणमां, बीजा गुण रहे तो ते (-ज्ञान) गुणोना समुदायरूप गुणी-द्रव्य थई जाय, अथवा बीजा गुणोनो अभाव थतां द्रव्यनो ज अभाव थई जाय. पण एम छे नहि. ज्ञाननुं


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अहीं कहे छे-आत्माना (संसारीना) कोई गुण (श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र, वीर्य, सुख आदि) अनादिथी अशुद्ध परिणमी रह्या छे. अशुद्धता ते, ते ते समयनी एनी योग्यता छे. आ अशुद्धता अनादि-सांत छे. हवे आ काळनी जीवमां थयेल जे अशुद्धता ते मानो ज नहि तो, कहे छे, अनादि-अनंत गुणनी ज सिद्धि नहि थाय, अने तो द्रव्य नाम आत्मा पण सिद्ध नहि थाय. माटे अहीं कहे छे-ज्ञान ज धर्म-अधर्म छे. समजाणुं कांई...? खूब गंभीर वात भाई!

केवळज्ञाननी पर्याय द्रव्यने अडती नथी, ल्यो, अव्यक्तना बोलमां आ आवे छे. वळी प्रवचनसारमां अलिंगग्रहणना छेल्ला बोलोमां आवे छे के-द्रव्य छे ते गुणविशेषने आलिंगन करतुं नथी; अभेद वस्तु छे ते भेदने आलिंगन करती नथी; द्रव्य छे ते पर्यायविशेषने आलिंगन करतुं नथी; ईत्यादि. भाई! त्यां तो प्रयोजनवश पर्यायनुं अस्तित्व अने द्रव्यनुं अस्तित्व भिन्न सिद्ध करवुं छे. द्रव्य-पर्यायमां अंदर अंदर भाग पाडीने वात करे त्यारे एम कहे के - द्रव्य-सामान्य विशेषमां आवतुं नथी, ने विशेष द्रव्य-सामान्यमां आवतुं नथी. परंतु परनी अपेक्षाथी वात करे त्यारे बेयनुं (-द्रव्य- पर्यायनुं) एक ज अस्तित्व कहे. ल्यो, आवी वीतरागमार्गनी खूब गंभीर शैली छे.

समयसारनी ७३ मी गाथामां कह्युं के- विकारनो स्वामी पुद्गल छे, वळी त्यां ७प-७६ गाथामां कह्युं के- अंतरंगमां जे रागद्वेषना भाव थाय छे ते पुद्गल छे. कर्म- नोकर्म जे बहिरंग छे ते तो पुद्गल छे ज, पण अंदरमां निमित्तना अवलंबने जे दया, दान आदिना भाव थाय तेय पुद्गल छे. ल्यो, आवी वात! ए तो रागादि भावमां चैतन्यस्वभावनो अभाव छे तो तेमने जड कह्या, अने जडनो स्वामी जड ज होय माटे तेने पुद्गल कह्या. समजाणुं कांई...?

ज्यारे प्रवचनसार, नय-अधिकारमां एम वात छे के-शुद्ध अने अशुद्ध परिणामनो अधिष्ठाता आत्मा छे. वळी अहीं पण ए ज कह्युं के- ज्ञान ज सम्यग्द्रष्टि छे, ज्ञान ज संयम छे, ज्ञान ज धर्म-अधर्म छे. अहीं तो वर्तमान वर्तती पर्याय कहेवी छे ने! भाई! कयां कई अपेक्षाए वात छे ते बराबर समजवुं जोईए. द्रव्यस्वभावनी अपेक्षाए पुण्य-पाप आदि विकारनो स्वामी पुद्गल छे, ज्यारे पर्यायथी जुए तो पुण्य-पाप आदि विकारनो तेनी पर्यायमां सद्भाव छे, तेथी पर्याय अपेक्षा आत्मा ज पुण्य-पाप छे. जो विकारी पर्यायने काढी नाखो तो अनंती विकारी पर्यायोनो अभाव थतां आखो त्रिकाळ गुण सिद्ध नहि थाय, अने तो शुद्ध-अशुद्ध पर्यायोनो पिंड एवो आत्मा ज सिद्ध नहि थाय. जे अशुद्ध पर्यायो गई ते डूबकी मारीने अंदर


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पारिणामिक भावे योग्यतारूपे विलीन थई छे, जे भविष्यमां शुद्ध-अशुद्ध पर्यायो थवानी छे ते अंदर योग्यतापणे रहेली छे. आवी जेम छे तेम वस्तु यथार्थ समजवी पडशे भाई!

अहाहा...! भगवान! आ तारी लीला तो जो भाई! कोई लोको ईश्वरनी लीला कहे छे ते नहि, आ तो तारी लीला प्रभु! अनादि विकारमां रह्यो तेय तुं, अने निर्विकारमां आव्यो तेय तुं! अद्भुत चमत्कारी वस्तु बापु! एनी केवळदर्शननी एक समयनी पर्याय आखा लोकालोकना पदार्थोने आ जीव के अजीव एम भेद पाडया विना सामान्य अवलोके, ज्यारे ते ज समये प्रगट केवळज्ञाननी पर्याय लोकालोकना प्रत्येक पदार्थने भिन्न-भिन्न-भिन्न करीने जाणे. वळी प्रत्येक समय केवळज्ञाननी पर्याय अनंतकाळ पर्यंत थया करे तोय द्रव्य तो एवुं ने एवुं रहे, कांई वधघट विनानुं. अहो! द्रव्यनो चैतन्य-चमत्कारी स्वभाव कोई परम अद्भुत छे.

अहो! आवो ज ज्ञानस्वभाव छे स्वभावमां तर्क शुं? सर्वज्ञ परमात्मानुं ज्ञान अद्भुत अलौक्कि् छे. तेनो पार सम्यग्ज्ञान ज पामी शके. केवळज्ञाननी पर्यायमां अनंता अविभाग प्रतिच्छेद छे. अनंता केवळीने ते एक समयमां जाणे छे. श्रुतज्ञाननी पर्याय पण एवडी ज छे, प्रत्यक्ष-परोक्षनो फेर छे. अहाहा...! जे पर्यायमां अनंत द्रव्य-गुण- पर्याय प्रत्यक्ष जणाय ते पर्यायनुं स्वरूप जेटलुं छे तेटलुं ज बीजे समये, त्रीजे समये- एम अनंतकाळ पर्यंत रहे छे. अहो! आवो कोई चैतन्यवस्तुनो अद्भुत-अद्भुत स्वभाव छे. समयसार, कळश २७३ मां आवे छे के- आत्मानो सहज अद्भुत वैभव छे. षट्गुणहानिवृद्धि केवळज्ञानमां प्रत्यक्ष जणाय छे. जे समये अनंत-गुणवृद्धि ते ज समये अनंतगुणहानि थाय छे, केवळज्ञानमां बधुं प्रत्यक्ष जणाय छे.

बेनश्रीना वचनामृतमां आव्युं छे के- आत्माना स्वभावमां उणप, अशुद्धि के आवरण नथी. आ तो त्रिकाळी स्वभावनी वात छे. पण पर्याय अपेक्षाथी जोतां पर्यायमां (संसारीने) भाव आवरण छे. प्रवचनसारनी १६ मी गाथामां द्रव्य-भाव घातिकर्मनी वात छे. जड कर्म ते द्रव्य घातिकर्म छे अने पोतानी पर्यायमां विकार थवानी योग्यता ते भाव घातिकर्म छे.

अहीं सिद्ध करवुं छे के- ज्ञान नाम आत्मा ज पुण्य-पाप छे; केमके त्रिकाळी जे अंशी तेना अंशमां आ भावो उत्पन्न थाय छे. त्रिकाळी द्रव्य ते एनुं सामान्य स्वरूप छे, अने निर्मळ अने मलिन पर्यायो ते एनुं विशेष स्वरूप छे. सामान्य अने विशेष बन्ने थईने आखी वस्तु छे. तेनो एक अंश (-पर्याय) काढी नाखो तो वस्तु ज आखी सिद्ध न थाय. अहीं द्रव्य-पर्याय बन्ने जीवनुं स्वरूप छे एम सिद्ध करवुं छे. तेथी कह्युं के - आत्मा ज संयम छे, आत्मा ज पुण्य-पाप छे. आवी वात! समजाणुं कांई...? हवे कहे छे-


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‘ज्ञान ज प्रवज्या (दीक्षा, निश्चय चारित्र) छे- एम ज्ञाननो जीवपर्यायोनी साथे पण अव्यतिरेक निश्चयसाधित देखवो (अर्थात् निश्चय वडे सिद्ध थयेलो समजवो- अनुभववो).’

अहाहा...! कहे छे-ज्ञान ज प्रवज्या-दीक्षा छे. ल्यो, आ लुगडां काढी नाख्यां ने पांच महाव्रत बहारमां पाळ्‌यां एटले दीक्षा थई गई एम नहि. बहु आकरी वात बापा! आ संसारी प्राणीओ विषय-कषायनी प्रवृत्तिमां रोकायेला रहे ए तो एकलुं पाप छे. घणो काळ तो एनो एमां ज जतो रहे छे. अहीं विशेष वात एम छे के-कोई दिगंबर दशा धारे अने दया, दान, व्रतादि पाळे एटले एने दीक्षा-चारित्र थई गयां एम नहि. दया, दान आदि रागना परिणाम तो परसमय छे भाई! तेनुं लक्ष छोडी अंदर स्वसमयमां आव भाई! एम अहीं कहेवुं छे. अहाहा...! आत्मा ज प्रवज्या छे; अर्थात् आत्माने छोडी कोई प्रवज्यानुं-चारित्रनुं स्वरूप ज नथी. दया, दान, व्रतादिनो राग ए प्रवज्यानुं स्वरूप ज नथी. आवी वात!

वादिराज महा मुनिवर हता. बहार शरीरमां कोढनो रोग थयेलो; पण अंदर त्रण कषायना अभाववाळी वीतराग दशामां झ्रुलता हता. सम्यग्दर्शन उपरांत स्वरूपना आनंदनी रमझट अंदर चालती हती. तेओ स्तुतिमां कहे छे- हे प्रभो! हुं भूतकाळना दुःखोने याद करुं छुं तो आयुधना घा पडे एम अंदर घा वागे छे. जुओ, आ मुनिराजने अंदर विकल्प उठयो छे ते आयुधना घा जेवो आतापकारी छे. अहा! मिथ्याद्रष्टिने संकलेश भावथी थता दुःखनी तो शुं वात कहेवी? ए तो पारावार अकथ्य छे. अहीं तो धर्मात्मा चारित्रवंत मुनिवरने आ शुभ विकल्प उठयो छे एय, कहे छे, शस्त्रना घा जेवो भारे पीडाकारी छे. भाई! रागनुं स्वरूप ज दुःख छे. पंच परमेष्ठीमां भळेला संत- मुनिवरनो आ पोकार छे.

अहीं कहे छे- आत्मा ज प्रवज्या नाम चारित्र छे. पंचमहाव्रतनुं पालन ते चारित्र एम नहि. भाई! आ कोईना अनादर माटे वात नथी. आत्मा अंदर आनंद- स्वरूप प्रभु छे तेनो अनादर कोण करे? आ तो मार्ग आवो छे भाई! पंचमहाव्रतना परिणामने ज चारित्र मानी एमां तुं संतुष्ट थाय एमां भारे नुकशान छे भाई! केमके निर्मळानंद प्रभु आत्मा पोते ज चारित्र छे. आत्मा चैतन्यघन प्रभु पोते ज प्रवज्या छे. स्वस्वरूपमां अंतर्लीन थयेली दशा चारित्र छे, अने ते पोते ज छेः तेमां रागनुं आलंबन कया छे?

आम ज्ञाननो जीवपर्यायोनी साथे, कहे छे, अव्यतिरेक निश्चयसाधित देखवो. अहीं ज्ञान शब्दे आत्मा समजवुं. मलिन अने निर्मळ पर्यायो साथे आत्माने जुदाई नथी, अभिन्नता छे एम निश्चयथी सिद्ध थयेलुं जाणवुं. पर्यायमां जे शुद्धता-अशुद्धता छे ते आत्मा ज छे एम निश्चय जाणवुं. हवे कहे छे-


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‘हवे, ए प्रमाणे सर्व परद्रव्यो साथे व्यतिरेक वडे अने सर्व दर्शनादि जीवस्वभावो साथे अव्यतिरेक वडे अतिव्याप्तिने अने अव्याप्तिने दूर करतुं थकुं, अनादि विभ्रम जेनुं मूळ छे एवा धर्म-अधर्मरूप (पुण्य-पापरूप, शुभ-अशुभरूप) परसमयने दूर करीने, पोते ज प्रवज्यारूप पामीने (अर्थात् पोते ज निश्चयचारित्ररूप दीक्षापणाने पामीने), दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां स्थितिरूप स्वसमयने प्राप्त करीने, मोक्षमार्गने पोतामां ज परिणत करीने, जेणे संपूर्ण विज्ञानघनस्वभावने प्राप्त कर्यो छे एवुं, त्याग-ग्रहणथी रहित, साक्षात् समयसारभूत, परमार्थरूप शुद्धज्ञान एक अवस्थित (-निश्चळ रहेलुं) देखवुं (अर्थात् प्रत्यक्ष स्वसंवेदनथी अनुभववुं).’

अहाहा...! शुं कह्युं? के सर्व परद्रव्यो साथे ज्ञानने व्यतिरेक अर्थात् जुदाई छे. आ शरीर, मन, वाणी, ईन्द्रिय, आठ कर्म अने देव, गुरु, शास्त्र ईत्यादि पर पदार्थोथी ज्ञानने जुदाई छे, पृथकता छे; तथा दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि जीवस्वभावो- निजस्वभावो साथे अव्यतिरेक नाम अभिन्नता छे, एकपणुं छे. आ रीते अतिव्याप्ति अने अव्याप्तिने दूर करतुं शुद्ध एक परमार्थरूप ज्ञान, कहे छे, निश्चळ रहेलुं देखवुं, अर्थात् प्रत्यक्ष स्वसंवेदनथी अनुभववुं. शुं करीने? तो कहे छे-

‘अनादि विभ्रम जेनुं मूळ छे एवा धर्म-अधर्मरूप-पुण्य-पापरूप परसमयने दूर करीने, पोते ज प्रवज्यारूप पामीने....’

अहाहा...! पुण्य-पापना भाव पोतानी-जीवनी पर्यायमां थाय छे तेथी तेने आत्मा कह्यो छे, पण ते भाव स्वस्वरूपना भान विना परमां हुं पणाना अनादि विभ्रमथी उत्पन्न थया छे. जेम शरीर, मन, वाणी, मकान, पैसा अत्यंत पृथक् छे तेम पुण्य-पापना भाव पृथक् छे एम नहि, तेओ पोतानी पर्यायमां उत्पन्न थाय छे, तथापि तेनी उत्पत्तिनुं मूळ आत्मा नथी पण अनादि विभ्रम छे अने तेथी तेओ परसमय छे. समजाणुं कांई...? झीणी वात बापा!

भगवान आत्मा शुद्ध एक ज्ञानस्वभावथी भरेलो दरियो-सागर छे. तेमां एकाग्र थई परिणमवाथी मोक्षमार्ग प्रगट थाय छे. कारणांतरथी अर्थात् दया, दान आदिना शुभ विकल्पथी मोक्षमार्ग प्राप्त थाय एम वस्तुनुं स्वरूप नथी. अहीं कारणांतरनो निषेध करीने प्रवज्या सिद्ध करवी छे. आ शुभ के अशुभ भाव थाय ते प्रवज्या नथी. भले शुभाशुभ भाव पोतानी पर्यायमां थाय छे, पण तेनुं मूळ शुद्ध चैतन्यमय आत्मा नथी, तेनुं मूळ अनादि विभ्रम छे.

स्वस्वरूपमां रमणतारूप वीतरागी दशा थाय ते प्रवज्या नाम निश्चय चारित्र छे, अने ते धर्म छे; अने धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे. तेम, अहीं कहे छे, पुण्य-पापरूप भावनुं मूळ विभ्रम नाम परमां हुंपणानी मिथ्या भ्रमणा छे. अहाहा...! ‘दंसण मूलो


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धम्मो’ –जेम धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे तेम पुण्य-पापरूप विकारी भावोनुं मूळ अनादि विभ्रम छे, मिथ्यादर्शन छे. अरे भाई! अनंत गुणनो पिंड प्रभु आत्मा छे, पण विकार उत्पन्न करे, पुण्य-पापने उत्पन्न करे एवो कोई गुण एमां नथी पुण्य-पापनी उत्पत्तिनुं मूळ अनादि विभ्रम छे. तेथी पुण्य-पापना भाव पोतानी पर्यायमां उत्पन्न थवा छतां परसमय छे. आवी बहु झीणी वात छे भाई!

तो सम्यग्द्रष्टि-धर्मीने शुभाशुभ भाव थता जोईए छीए ने? सम्यग्दर्शन थया पछी जे शुभाशुभ भाव थाय ते विभ्रमजनित नथी, अस्थिरता जन्य छे, अने ते तो धर्मीने ज्ञानना ज्ञेय पणे छे, तेमां तेने स्वामित्व नथी. धर्मात्माने एक शुद्धोपयोगनी ज भावना छे, तेने शुभाशुभमां रस नथी. बेनश्रीना वचनामृतमां आवे छे ने के- अरे! आ शुभभाव ते अमारो देश नहि, आ परदेशमां अमे कयां आवी चडया? शुभाशुभ भाव ते अमारो परिवार नहि ईत्यादि.

भगवान आत्मा नित्य ज्ञानानंद प्रभु सदा ध्रुव-ध्रुव-ध्रुव स्वभावे अंतरंगमां विराजे छे. तेनी द्रष्टि विना अनादिथी एने परमां पोतापणानो विभ्रम छे अने ते वडे तेने निरंतर संसार-परिभ्रमणनुं कारण एवा पुण्य-पापना भाव उत्पन्न थया ज करे छे, तेथी कहे छे- भाई! आ पुण्य-पापना भाव अनात्मा छे, परसमय छे. अहो! आचार्यदेवनी गजब शैली छे.

आत्मा जेवो अने जेवडो छे तेवो अने तेवडो पर्यायमां प्राप्त थाय तेनुं नाम मोक्ष छे, अने मोक्षनुं कारण वीतरागीदशारूप निर्मळ चारित्र छे. आ चारित्र केम प्रगटे? तो कहे छे - अनादि विभ्रम जेनुं मूळ छे तेवा पुण्य-पापभावरूप परसमयने दुर करीने पोते ज प्रवज्यारूप निश्चयचारित्रने प्राप्त थाय छे. अहाहा...! जोयुं? शुभ भाव पण कारण नहि, ने कोई निमित्त (देवादि) पण कारण नहि; कहे छे- पोते ज प्रवज्यारूप निश्चयचारित्रने प्राप्त थाय छे, अहाहा...! निज ज्ञाता-द्रष्टा स्वरूपमां रमणता-लीनता वडे पोते ज पुण्य-पापने दुर करीने निर्मळ चारित्रभावने पामे छे.

हवे आवी वात बापना (भगवान अरिहंतना) चोपडा तपासे तो खबर पडे ने! दुकानना चोपडा रोज तपासे. एम के “पानुं फरे ने सोनुं झरे.” पण भाई! त्यां तो पैसानी ममतामां एकलुं पाप ज झरे (-मळे) छे. ज्यारे अहीं तो एकलुं अमृत- परमामृत झरे छे. अहाहा...! भगवान सर्वज्ञदेवनी वाणीमांथी झरेलुं जन्म-मरणना रोगने मटाडनारुं आ परमामृत छे. आवे छे ने के-

वचनामृत वीतरागनां परम शांतरस मूळ,
औषध जे भवरोगनां कायरने प्रतिकूळ.

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अहीं कहे छे- तने पुण्य-पापना भाव थाय तेनुं मूळ अनादि विभ्रम छे, मिथ्या भ्रमणा छे. तेनाथी रहित थईने तुं स्वस्वरूपमां रमणता-लीनता करीने परिणमे ते प्रवज्या छे, ते चारित्र छे, धर्म छे.

जरीक फरीथी- शरीर, मन, वाणी, आठ करम ईत्यादि परद्रव्यथी आत्माने व्यतिरेक एटले भिन्नता छे, अने दर्शन आदि जीवस्वभावोथी अव्यतिरेक अर्थात् अभिन्नता छे. अहीं दया, दान वगेरे पुण्य-पापना भावने जीवस्वभाव कह्या छे केमके ते जीवनी पर्यायनो स्वभाव छे. तेनी साथे जीवने अव्यतिरेक एटले अभिन्नपणुं छे. ते भावो जो परमां पण होय तो अतिव्याप्ति दोष आवे, अने ते भावो जो पोतामां (-अवस्थामां) न होय तो अव्याप्ति दोष आवे. पण तेओ परद्रव्यमां नथी तेथी अतिव्याप्ति नथी अने पोतानी अवस्थामां छे माटे अव्याप्ति नथी आ प्रमाणे शुभाशुभ भाव आत्मानी पर्यायमां छे माटे आत्मा छे एम पहेलां सिद्ध कर्युं.

द्रव्यद्रष्टिना विषयनी अपेक्षाए वात होय त्यारे पुण्य-पापना परिणाम पुद्गलना परिणाम छे एम कहे, पण तेथी कोई एकान्ते एम मानी ले के तेओ जीवनी पर्यायमां थया नथी तो ते बराबर नथी. द्रव्यद्रष्टिनी अपेक्षाए तेओ जड-अजीव छे एम कहीने पुद्गल तेमनुं स्वामी छे एम कह्युं तो पर्यायनी अपेक्षा ते जीवनी पर्यायमां व्यापेला छे माटे जीव छे एम कह्युं-आम अनेकान्त छे. पण अपेक्षा समज्या विना ज एकान्ते कोई तेने पुद्गलना माने तो ते जीव मिथ्या द्रष्टि छे.

हवे कहे छे- ते पुण्य-पापना भावनुं मूळ शुद्ध चैतन्यमय आत्मा नथी पण अनादि विभ्रम छे, मिथ्यात्व छे. मिथ्यात्व एटले शुं? के परमां हुंपणानी जूठी कल्पना- मान्यता, जूठो भाव. शरीर हुं छुं, राग हुं छुं एवी जूठी मान्यता ते मिथ्यात्व छे अने ते पुण्य-पापना भावनुं मूळ छे. पुण्य-पापना भावनुं मूळ मिथ्यात्व छे अने तेनुं फळ चतुर्गति-परिभ्रमणरूप संसार छे. तेथी कह्युं के ते भावो परसमय छे. ल्यो, आवी वात! समजाणुं कांई...?

पूर्णानंदनो नाथ ज्ञानानंदस्वरूप पोते छे तेनी सन्मुख थई तेनी प्रतीति करवी, अनुभव करवो ते सम्यग्दर्शन छे. तेमां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद भेगो होय ज छे. सम्यग्दर्शननी साथे आनंदनो अंश, शान्तिनो अंश, चारित्रनो अंश-एम अनंत गुणनो अंश प्रगट होय ज छे. सर्व गुणांश ते समकित. अहा! आवुं सम्यग्दर्शन ते धर्मनुं पहेलुं पगथियुं छे, धर्मनुं मूळ छे. आ (-सम्यग्दर्शन) सिवाय पंचपरमेष्ठीनी भक्ति, शास्त्रनुं अध्ययन के पंचमहाव्रतनुं पालन-ए बधुं


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मुनिव्रत धार अनंतवार ग्रीवक उपजायो;
पै निज आतमज्ञान विना सुख लेश न पायो,

आ तो मारगडा जुदा छे बापा! हजारो राणी अने राजपाट छोडीने पंचमहाव्रतना परिणाममां जोडाय तोय विभ्रमवश ते दुःखने ज वेदे छे. ओहो! अनंतगुणधाम नित्यानंद प्रभु पोते छे तेनो अंतर-अनुभव करवानुं छोडी जे शुभाशुभने ज उत्पन्न करे छे ते दुःखने ज वेदे छे. समजाणुं कांई...?

चारित्र तो बापु! पुण्य-पापरूप परसमयने दूर करीने प्रगट थाय छे. (पुण्य- पापने) दूर करवामां बे प्रकार समजवा;

१. शुभाशुभ भावनी उत्पत्तिनुं मूळ जे मिथ्यात्व तेने दूर करे छे, अने २. शुभाशुभ भावने पण यथा संभव दूर करे छे. ल्यो, आम शुभाशुभ भावने दूर करे छे त्यारे चारित्र प्रगट थाय छे. हवे आम छे त्यां शुभ करतां करतां चारित्र थाय ए वात क्यां रही? भाई! आ तो मारग ज वीतरागनो जुदो छे बापु!

अरे! आ जगतनी मोहजाळ एने मारी नाखे छे. तेमांथी कदाच नीकळी जाय तो शुभभावनी मोहजाळमां फसाई जाय छे. अहीं कहे छे- शुभाशुभनी मोहजाळने दूर करीने पोते ज प्रवज्यारूप पामीने, दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां स्थितिरूप स्वसमयने प्राप्त करीने, मोक्षमार्गने पोतामां ज परिणत करीने, जेणे संपूर्ण विज्ञानघनस्वभावने प्राप्त कर्यो छे एवुं, त्याग-ग्रहणथी रहित, साक्षात् समयसारभूत, परमार्थरूप शुद्ध ज्ञान एक अवस्थित देखवुं.

पहेलां कह्युं के - पुण्य-पापना भाव थाय ते पर्याय आत्मानी छे माटे ते आत्मा छे. पण तेनुं मूळ विभ्रम छे ने तेनुं फळ संसार छे. तेथी हवे कहे छे- तेने दूर करीने स्वस्वरूपमां रमणता थाय ते धर्म छे, चारित्र छे. छठ्ठे जरी विकल्प छे ते गौण छे, अहीं मुख्य तो सातमानी वात छे. दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां स्थितिरूप स्वसमयने प्राप्त करे तेनुं नाम निश्चयचारित्ररूप दीक्षा छे. जोयुं? सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां स्थिति थवी ते स्वसमय ने शुभाशुभ भाव थाय ते परसमय.

प्रश्नः– दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय तो बधाय जीवो छे? उत्तरः– अहीं ए वात नथी; अहीं तो पर्यायनी वात छे. द्रव्यस्वभावे तो


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बधाय जीवो वीतरागस्वरूप भगवान छे. अभवि जीव पण स्वभावथी तो जिनस्वरूप छे. पण तेथी शुं? अहीं तो दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप स्वभावमां स्थिति करीने (पर्यायपणे) स्वसमय थाय एनी वात छे. द्रव्यरूप स्वसमय छे ते पर्यायरूप स्वसमय थाय एनी वात छे. जेवुं स्वरूप छे तेवुं द्रवे-प्रवहे छे. स्वस्वरूपनी सन्मुख थई ज्ञाननी प्रतीति, ज्ञाननुं ज्ञान अने ज्ञाननी रमणतापूर्वक दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां स्थितिरूप स्वसमयने प्राप्त करे छे एम वात छे. आवो अलौकिक मारग छे भाई!

भाई! आ समजवानो अवसर छे हों. जुओने, आ पचीस वर्षनो फुटडो जुवान होय ने घडीकमां फू थई जाय छे. खबर न मळे बधा संजोग क्यां गया? देह तो छूटवाना काळे छूटी ज जाय; तेने कोण रोके? तो पहेलेथी ज तेनी ममता छोडी दे ने; देहबुद्धि छोडी दे ने. देहबुद्धि छूटतां पुण्य-पापना भाव मटी जशे.

अहीं कहे छे- पुण्य-पापरूप परसमयने दूर करीने दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां स्थिति करवी ते मोक्षमार्ग छे. मुनिराजने जे व्यवहारनो विकल्प उठे ते मोक्षमार्ग नथी. ए तो एने राग-बोजो छे. एने छोडीने स्वरूपमां रमणता करे ते मोक्षमार्ग छे. मुनिराज निर्मळ रत्नत्रयनी परिणतिरूप मोक्षमार्गने पोतामां ज परिणमावीने संपूर्ण विज्ञानघनस्वभावने प्राप्त करी ले छे. जुओ, आ मोक्षमार्गनुं फळ! संपूर्ण विज्ञानघनस्वभावनी प्राप्ति अर्थात् केवळज्ञान ते मोक्षमार्गनुं फळ छे. हवे ते त्याग- ग्रहणथी रहित थयो छे. स्वस्वरूपनुं ग्रहण अने रागनो त्याग ए पण हवे त्यां रह्युं नथी. ते साक्षात् समयसारभूत छे. वस्तु द्रव्य छे ते तो समयसार छे अने हवे ते पर्यायमां साक्षात् प्रगट समयसार छे. समयसार नाटकमां आवे छे ने के-

ज्ञानकला घटघट बसै, जोग जुगति के पार;
निज निज कला उदोत करि, मुक्त होई संसार.

द्रव्यस्वभाव तो अंतरंगमां जिनस्वरूप छे; रागनी एकता तोडीने स्वरूपमां रमणता करतां ते प्रगट थाय छे. आ ज मारग छे भाई! कोई क्रियाकांडनो आडंबर के लेबास मारग नथी.

प्रश्नः– हा, पण दर्शन शुद्धि तो साव सहेली छे; भगवाननां दर्शन, पूजा करीए एटले दर्शनशुद्धि थई जाय.

उत्तरः– दर्शनशुद्धि शुं चीज छे बापु! तने खबर नथी. जेमां आत्माना अंतरंग स्वरूपनी ओळखाण-पहेचान थतां अनंतगुणोनी अंशे व्यक्तता थई निराकुळ अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद प्रत्यक्ष आवे तेनुं नाम दर्शनशुद्धि छ. शुद्धिवंत-द्रष्टिवंत पुरुषो भगवाननां दर्शन आदि रोज नियमथी करे ए जुदी वात छे. पण ए कांई दर्शनशुद्धि नथी. जेमां मोक्षसुखनो नमुनो अंशे अनुभवाय अने हुं पूरण


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अहीं कहे छे- निर्मळ रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गने पोतामां ज परिणत करीने, जेणे संपूर्ण विज्ञानघनस्वभाव प्राप्त कर्यो छे एवुं, त्याग-ग्रहणथी रहित, साक्षात् समयसारभूत, परमार्थरूप शुद्धज्ञान एक अवस्थित-निश्चल रहेलुं देखवुं. देखवुं नाम प्रत्य क्ष अनुभववुं. पूर्ण विज्ञानघनदशा प्राप्त थई तेने प्रत्यक्ष अनुभववुं तेनुं नाम मोक्ष. देखवुं एटले जाणवुं अने अनुभववुं. त्रणकाळ त्रणलोकने जाणे माटे केवळज्ञान एम नहि, पण पूरण दशाने संपूर्ण प्रत्यक्ष वेदे-अनुभवे एनुं नाम केवळज्ञान छे.

* गाथा ३९० थी ४०४ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अहीं ज्ञानने सर्व परद्रव्योथी भिन्न अने पोताना पर्यायोथी अभिन्न बताव्युं, तेथी अतिव्याप्ति अने अव्याप्ति नामना जे लक्षणना दोषो ते दूर थया.’

अहीं ज्ञान एटले आत्मा सर्व परद्रव्योथी भिन्न अने पोतानी पर्यायोथी अभिन्न छे. मतलब के पुण्य-पापना भाव पोतानी पर्याय छे एम पहेलां सिद्ध करवुं छे. जुओ, पोतामां व्यापे अने बीजामां पण व्यापे तो अतिव्याप्ति दोष कहेवाय. जेमके- अरूपीपणुं जीवनुं लक्षण कहीए तो तेमां अतिव्याप्ति दोष आवे, केमके अरूपीपणुं जेम जीवमां छे तेम धर्म-अधर्म आदि बीजा द्रव्योमां पण छे. माटे अरूपीपणुं ए जीवनुं वास्तविक लक्षण नथी. वळी केवळज्ञान जीवनुं लक्षण कहीए तो तेमां अव्याप्ति दोष आवे, केमके केवळज्ञान जीवनी सर्व अवस्थाओमां व्यापतुं नथी. जे लक्षण लक्ष्यना एक भागमां व्यापे तेने अव्याप्ति दोष कहे छे. केवळज्ञान जीवनी सर्व अवस्थाओमां व्यापतुं नथी, माटे केवळज्ञान जीवनुं लक्षण घटतुं नथी. अहीं ज्ञानने सर्व परद्रव्योथी भिन्न बताव्युं एटले अतिव्याप्ति दोष दूर थयो अने ज्ञानने पोतानी पर्यायोथी अभिन्न बताव्युं तेथी अव्याप्ति दोष दूर थयो. एज कहे छे-

‘आत्मानुं लक्षण उपयोग छे, अने उपयोगमां ज्ञान प्रधान छे; ते (-ज्ञान) अन्य अचेतन द्रव्योमां नथी तेथी ते अतिव्याप्तिवाळुं नथी, अने पोतानी सर्व अवस्थाओमां छे तेथी अव्याप्तिवाळुं नथी. आ रीते ज्ञानलक्षण कहेवाथी अतिव्याप्ति अने अव्याप्ति दोषो आवता नथी.’

आत्मानुं लक्षण उपयोग छे. ते लक्षणथी लक्ष्य आत्मा जाणी शकाय छे. जुओ, व्यवहार रत्नत्रयना रागथी जाणी शकाय एवो भगवान आत्मा नथी; ए तो ज्ञानलक्षण वडे ज जणाय छे. अहीं उपयोगमां ज्ञाननी मुख्यता लीधी छे. दर्शननी अहीं वात करी नथी. कहे छे-ज्ञान अन्य अचेतन द्रव्यमां नथी. शरीर, मन, वाणी आदिमां


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ज्ञान नथी. तेम देव-गुरु आदिमां पण आ (-पोतानुं) ज्ञान नथी. तेथी तेमां (ज्ञानलक्षणमां) अतिव्याप्ति दोष आवतो नथी. वळी ज्ञान जीवनी सर्व अवस्थाओमां व्यापेलुं छे. जीवनी कोई अवस्था ज्ञान-उपयोग विना होती नथी. तेथी तेमां अव्याप्ति दोष पण आवतो नथी. आ प्रमाणे अतिव्याप्ति अने अव्याप्ति दोषोथी रहित जीवनुं ज्ञानलक्षण यथार्थ छे.

लोको बिचारा वेपार-धंधामां गरी गया होय त्यां धंधानी धमाल आडे तेमने आ अतिव्याप्ति अने अव्याप्ति ने ए बधुं समजवानी फुरसद-नवराश कयांथी मळे? पण भाई! आ तो खास नवराश लईने समजवानी चीज छे हों.

पण आप कहो तो व्रत-पचखाण लई लईए. पण ए तो कांई आप कहेता नथी?

व्रत? कोने कहीए व्रत? अहाहा...! सच्चिदानंदस्वरूप ज्ञानानंदस्वरूप त्रिकाळ पोते छे तेनुं भान थई तेमां ज रमणता करे, निजानंदस्वरूपमां ज विंटाईने लीन थई जाय तेनुं नाम व्रत-निश्चयव्रत छे. व्रत कहो के पचखाण कहो, बधुं आत्मा ज छे भाई! आ सिवाय व्यवहारना विकल्प बधो राग छे, दुःख छे, निश्चये व्रत नथी. आवी वात! समजाणुं कांई...? हवे कहे छे-

‘अहीं ज्ञानने ज प्रधान करीने आत्मानो अधिकार छे, कारण के ज्ञानलक्षणथी ज आत्मा सर्व परद्रव्योथी भिन्न अनुभवगोचर थाय छे. जो के आत्मामां अनंत धर्मो छे, तोपण तेमांना केटलाक तो छद्मस्थने अनुभवगोचर ज नथी; ते धर्मोने कहेवाथी छद्मस्थ ज्ञानी आत्माने कई रीते ओळखे? वळी केटलाक धर्मो अनुभवगोचर छे, परंतु तेमांना केटलाक तो- अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि तो-अन्य द्रव्यो साथे साधारण अर्थात् समान छे माटे तेमने कहेवाथी जुदो आत्मा जाणी शकाय नहि, अने केटलाक (धर्मो) परद्रव्योना निमित्तथी थयेला छे तेमने कहेवाथी परमार्थभूत आत्मानुं शुद्ध स्वरूप केवी रीते जणाय? माटे ज्ञानने कहेवाथी ज छद्मस्थ ज्ञानी आत्माने ओळखी शके छे.’

जुओ, एम तो आत्मामां अनंत धर्मो छे, पण ज्ञानलक्षणे ज आत्मा अनुभव- गोचर थाय छे. अहीं पं. श्री जयचंदजीए त्रण वात कीधी छे.

१. आत्मामां केटलाक धर्मो तो छद्मस्थने अनुभवगोचर ज नथी. हवे जे अनुभवमां-समजमां ज आवता नथी तेने लक्षण कहीए तो ते वडे आत्मा कई रीते ओळखी शकाय? ते वडे छद्मस्थ अल्पज्ञानी आत्माने-पोताने केवी रीते ओळखे? न ज ओळखे.


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२. वळी केटलाक धर्मो अनुभवगोचर छे, पण सर्व-सामान्य छे. शुं कीधुं? अस्तित्व, वस्तुत्व आदि अनेक धर्मो अन्यद्रव्यो साथे साधारण अर्थात् समान छे. हवे आ धर्मो वडे अन्यद्रव्योथी भिन्न एवो आत्मा केम जाणी शकाय? न जाणी शकाय.

३. केटलाक धर्मो परद्रव्यना निमित्तथी थयेला छे. पुण्य-पाप आदि विभावो परद्रव्यना निमित्तथी उत्पन्न थाय छे. खरेखर ए तो औपाधिक भावो छे. हवे तेमने कहेवाथी अंतरंग शुद्ध आत्मस्वरूप केवी रीते जणाय? न जणाय.

माटे आ निश्चित थयुं के ज्ञान कहेवाथी ज छद्मस्थ ज्ञानी आत्माने ओळखी शके छे, केमके ज्ञान आत्मानो असाधारण गुण होवाथी निर्दोष, निर्बाध लक्षण छे. माटे आत्माना अधिकारमां ज्ञान ज प्रधान छे.

‘अहीं ज्ञानने आत्मानुं लक्षण कह्युं छे एटलुं ज नहि, पण ज्ञानने ज आत्मा कह्यो छे; कारण के अभेदविवक्षामां गुणगुणी अभेद होवाथी, ज्ञान छे ते ज आत्मा छे. अभेदविवक्षामां ज्ञान कहो के आत्मा कहो-कांई विरोध नथी; माटे अहीं ज्ञान कहेवाथी आत्मा ज समजवो,’

आत्मा वस्तु छे ते देहथी भिन्न, कर्मथी भिन्न अने अंदर थता पुण्य-पाप आदि विभावोथी भिन्न छे. हिंसाना भाव के दयाना भाव- ए बन्नेथी वस्तु-आत्मा भिन्न छे. हवे जेनाथी भिन्न छे ते देहादिथी के रागथी आत्मा केम जणाय? अहाहा...! जाणन... जाणन.... जाणनस्वभाव एवी जे चेतना ते लक्षणथी ज आत्मा जणाय छे, अनुभवाय छे. अहाहा...! ज्ञाननी दशाने अंतरमां झुकाववाथी ते क्षणे ज सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रगट थाय छे. भाई! आ ज रीत छे, बीजो कोई उपाय नथी. वच्चे क्रियाकांड आवे खरा, पण ए तो राग छे, ए कांई उपाय नथी; एनाथी सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रगट थतां नथी. आवी वात! समजाणुं कांई...?

अहाहा...! ज्ञाननी दशा ज्यां अंतर्मुख वळी ते ज क्षणे आ जाणनस्वभावी प्रभु छे ते ज हुं छुं- एवी प्रतीति अने अनुभव प्रगट थाय छे अने ते ज सम्यग्दर्शन-ज्ञान छे अने तेनी साथे अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद भेगो ज होय छे. आ रीत छे. बाकी बीजुं बधुं तो अनंतवार कर्युं, पण तेथी शुं? आत्मज्ञान विना पंचमहाव्रतना परिणाम पण कलेश-दुःखरूप ज नीवडया. अरे! एणे कोई दिवस पोताना स्वरूपने यथार्थपणे जाणवानी दरकार ज करी नथी!

भगवान ज्ञानानंदस्वरूप प्रभु पोते अंतर्मुखाकार ज्ञान वडे ज जणाय छे, अनुभवाय छे. तेथी ज्ञानने ज आत्मा कह्यो छे. अभेदविवक्षामां ज्ञान गुण अने आत्मा गुणी


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एवो गुण-गुणीनो भेद नथी. तेथी अभेदविवक्षामां ज्ञान कहो के आत्मा कहो-कांई विरोध नथी, अविरोध छे. ज्ञान ते ज आत्मा एम कहीने ज्ञानस्वभावमां एकाग्र थाय ते आत्मामां ज एकाग्र थयो छे एम कहेवुं छे. वीतरागनो मारग बहु झीणो छे भाई! ते अंतर्मुखाकार ज्ञान वडे ज प्रगट थाय छे. अहीं ज्ञान ते ज आत्मा-एम कहीने गुण- गुणीनुं अभेदपणुं सिद्ध कर्युं छे. समजाणुं कांई...? हवे कहे छे-

‘टीकामां छेवटे एम कहेवामां आव्युं के-जे, पोतामां अनादि अज्ञानथी थती शुभाशुभ उपयोगरूप परसमयनी प्रवृत्तिने दूर करीने, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां प्रवृत्तिरूप स्वसमयने प्राप्त करीने, एवा स्वसमयरूप परिणमनस्वरूप मोक्षमार्गमां पोताने परिणमावीने, संपूर्ण विज्ञानघनस्वभावने पाम्युं छे, अने जेमां कांई त्याग-ग्रहण नथी, एवा साक्षात् समयसारस्वरूप, परमार्थभूत, निश्चळ रहेला, शुद्ध, पूर्ण ज्ञानने (पूर्ण आत्मद्रव्यने) देखवुं.’

जुओ, हजार वर्ष पहेलां आनंदकंद निज ज्ञायकस्वरूपमां रमनारा, पोताना आनंदस्वरूपमां घूसी-लीन थईने प्रचुर आनंदना संवेदननी रमतु करनारा महा मुनिवर आचार्य अमृतचंद्रदेवनी आ टीका छे. मूळ गाथा भगवान कुंदकुंदाचार्यनी छे. तेना पर आ टीका छे. कहे छे-शुभाशुभउपयोगरूप प्रवृत्ति अनादि अज्ञानना कारणे छे. स्वस्वरूपनी द्रष्टि विना अज्ञानथी पुण्य-पापरूप विभावोनी उत्पत्ति थाय छे. पुण्य- पापना भाव ते चैतन्यना स्वभावरूप भाव नथी, विभाव छे अने तेथी अनात्मा छे, परसमय छे. समजाणुं कांई...? बहुं झीणी वात!

अने आनंदकंद प्रभु आत्मामां मोज माणवी, केलि करवी ते चारित्र छे. ‘चारित्तं खलु धम्मो’ कह्युं छे ने? ए आ अंदर स्वरूपमां लीन थई अतीन्द्रिय आनंदनुं भोजन करवुं ते चारित्र छे, ते धर्म छे अने मोक्षनुं कारण छे. आ चारित्रनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे, अर्थात् विना सम्यग्दर्शन चारित्र होई शके नहि. आ दया, दान, व्रत आदि रागना परिणाम ए कांई चारित्र छे एम नहि. बापु! आ तो मिथ्यात्व अने अस्थिरताथी रहित अंतरंग निर्मळ दशानुं नाम चारित्र छे. आ पैसावाळा क्रोडपतिओ छे ने बधा? एमने कहीए छीए के दया, दानमां पैसा खरचवाथी चारित्र प्रगट थाय एवुं एनुं स्वरूप नथी. झीणी वात भाई!

हा, पण ए पैसाने ज्ञेय (परज्ञेय) करी नाखे तो? ए पैसाने ज्ञेय (परज्ञेय) करे कयांथी? अंदर निज स्वरूपने ज्ञानमां ज्ञेय कर्या विना, निज ज्ञानानंदस्वरूपनो अनुभव कर्या विना परपदार्थने ज्ञेय (परज्ञेय) केवी रीते करे? करी शके नहि. समयसार नाटकमां आवे छे ने के-


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स्वपरप्रकाशक शक्ति हमारी, तातैं वचन भेद भ्रम भारी;
ज्ञेयदशा दुविधा परकासी, निजरूपा पररूपा भासी.

बापु! स्वस्वरूपनुं भान थया विना परपदार्थ परज्ञेयपणे भासतो नथी. समजाय छे कांई...?

अहाहा...! अनादि विभ्रम जेनुं मूळ छे एवी पुण्य-पापरूप परसमयरूप प्रवृत्तिने दूर करीने, निज चैतन्यस्वभावना आश्रये स्वानुभव प्रगट करी निजस्वरूपमां विशेष रमणता करवी ते स्वसमयप्रवृत्ति छे अने तेनुं नाम चारित्र छे. अहाहा...! निर्मळ रत्नत्रय जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ते रूप परिणमवुं ते स्वसमयप्रवृत्ति छे अने ते धर्म छे, मोक्षमार्ग छे. आ तो सर्वज्ञदेवे प्रगट करेला वीतराग मार्गनी अपूर्व वातो छे भाई! आवी वात बीजे कयांय छे नहि.

वीतरागी परिणमनस्वरूप आखोय मोक्षमार्ग छे. त्यां द्रव्य-गुण तो त्रिकाळ छे, परिणमन थाय ते पर्याय छे. सम्यग्दर्शन ते पर्याय छे, सम्यक्चारित्र ते पर्याय छे, केवळ ज्ञान पर्याय छे, ने सिद्धदशा पण पर्याय छे. पहेलां अज्ञानवश पुण्य-पापना भावो उत्पन्न थता हता, ते परसमयप्रवृत्ति हती. ते परसमयरूप प्रवृत्ति दूर करीने... जोयुं? पुण्य-पापरूप परसमयप्रवृत्तिने राखीने एम नहि, दूर करीने, निज ज्ञानानंदस्वरूपमां एकाग्र थई रमणता करे ते सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्ररूप स्वसमयप्रवृत्ति छे. आ स्वसमयप्रवृत्तिरूप परिणमन ते मोक्षमार्ग छे. हवे द्रव्य शुं? गुण शुं? अने एनुं परिणमन शुं? -एनी कांई खबर न मळे ए शुं करे? चार गतिमां रझळी मरे; बीजुं शुं थाय?

निजस्वरूपमां रमणता करवारूप दर्शन-ज्ञान-चारित्रनुं परिणमन थाय ते मोक्षमार्ग छे. भाई! आ भगवाननी ॐध्वनि नीकळी तेमां आवेली वात छे. आवे छे ने के-

मुख ॐकार धुनि सुनि, अर्थ गणधर विचारै,
रची आगम उपदेश, भविक जीव संशय निवारै.

भगवाननी ॐध्वनि सांभळी भगवान गणधरदेव आगमनी रचना करे छे. ते आगमनुं सेवन करी भवि जीवो संशय निवारे छे, अर्थात् सम्यग्द्रष्टि थाय छे. अहा! ते आगममां आ आव्युं छे के-निर्मळ पवित्र ज्ञानानंदस्वरूप प्रभु पोते छे तेनी प्रतीति, तेनुं ज्ञान अने तेमां रमणता-बस आ परिणमनस्वरूप मोक्षनो मार्ग छे. साथे सहचर जे राग छे ते मोक्षमार्ग नथी, उपचारथी तेने मोक्षमार्ग कहीए छीए. ए राग छे ते वास्तवमां तो परसमय छे; धर्मात्मा तेने परसमय ज जाणे छे. अहा! आम स्वस्वरूपनी द्रष्टि-ज्ञानपूर्वक तेमां ज रमणता करतां करतां संपूर्ण स्थिरता करी ते केवळज्ञानने प्राप्त


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थाय छे. आ ज मारग छे; क्रियाकांड मारग नथी. कह्युं छे ने के-

एक होय त्रणकाळमां परमारथनो पंथ;
प्रेरे ते परमार्थने ते व्यवहार समंत.

मृगनी नाभिमां कस्तुरी होय छे, पण मृग ते जोतो नथी, बहार ढुंढे छे. तेम पोते अंदर त्रण लोकनो नाथ आनंदकंद प्रभु ज्ञानानंदथी भरेलो भगवान छे, पण अज्ञानी तेने जोतो नथी. अरे! पुण्य-पापना भाव अने तेना फळमां आ बहारनी जे धूळ (-धन-संपत्ति आदि) मळे तेमां भरमाई गयो छे.

अहीं कहे छे - ते अनादि भ्रमणा मटाडीने अंदर चिदानंदस्वरूप भगवान पोते छे तेना आश्रये स्वसमयप्रवृत्ति वडे मोक्षमार्गरूपे परिणमन करीने संपूर्णविज्ञानघनस्वभावने जे पामे छे तेने संपूर्ण केवळज्ञान प्रगटे छे. अहाहा...! केवुं छे केवळज्ञान? एक समयमां युगपत् त्रणकाळ त्रणलोकना सर्व पदार्थोने जे जाणी ले छे. अहा! ते पूर्ण स्वरूप जे प्रगट थयुं तेमां कांई ग्रहण-त्याग नथी. स्वरूपनुं ग्रहण अने रागनो त्याग-एवुं कांई हवे रह्युं नथी. अहा! आवा साक्षात् समयसारस्वरूप, परमार्थभूत, निश्चळ, शुद्ध आत्माने देखवुं-अनुभववुं छे.

साक्षात् समयसारस्वरूप एटले शुं? के अंदर त्रिकाळी आत्मा तो त्रिकाळ जिन- स्वरूप-समयसारस्वरूप ज छे, पण जेवुं त्रिकाळ शक्तिरूप छे तेवुं वर्तमान पर्यायपणे प्रगट थयुं, केवळज्ञान-केवळदर्शनरूप परिणम्युं, अनंतचतुष्टयरूप थयुं ते साक्षात् समयसारस्वरूप छे. ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनंतगुणनी पूर्ण निर्मळ पर्याय प्रगटी तेने साक्षात् समयसारस्वरूप कहीए. अंदर शक्तिरूपे छे ते वर्तमान व्यक्त थई तेने साक्षात् समयसारस्वरूप थयो कहीए. समयसार नाटकमां आवे छे ने के-

घट घट अंतर जिन बसै, घट घट अंतर जैन;
मतमदिरा के पान सौं, मतवाला समुझै न.

अंदर शक्तिए तो भगवान जिनस्वरूप ज पोते छे. न होय तो प्रगटे क्यांथी? शुं बहारथी प्रगटे? बापु! ए तो शक्तिपणे छे ते प्रगटे छे. ए प्रगटे छे ते आ बहारना लेबासमांथी के क्रियाकांडमांथी नहि हो; ए तो निर्मळानंदनो नाथ त्रिकाळ प्रभु पोते अंदर छे तेनी एकाग्रता अने रमणता करतां करतां पूर्ण स्थिरता पामी पूर्ण प्रगटे छे अरे! पण मिथ्यामतरूपी मदिराना सेवनथी जगतना पागल लोको आ समजता नथी?

अहाहा...! लींडीपीपरना दाणामां अंदर चोसठ पहोरी तीखास भरी छे ते घूंटवाथी बहार प्रगट थाय छे. अंदर शक्ति पडी छे तेनी व्यक्ति थाय छे. तेम भगवान


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“... एवा साक्षात् समयसारस्वरूप, परमार्थ भूत, निश्चळ रहेला, शुद्ध पूर्ण ज्ञानने (पूर्ण आत्मद्रव्यने) देखवुं-एम कह्युं ने! हवे कहे छे-

‘त्यां “ देखवुं” त्रण प्रकारे समजवुं. शुद्धनयनुं ज्ञान करीने पूर्ण ज्ञाननुं श्रद्धान करवुं ते पहेला प्रकारनुं देखवुं छे. ते अविरत आदि अवस्थामां पण होय छे.’

जुओ, भगवान आत्माने देखवाना त्रण प्रकार पैकी आ पहेलो प्रकार कह्यो. शुद्धनयनो विषय पूर्णानंदस्वरूप प्रभु त्रिकाळी आत्मा छे. तेने अभेदविवक्षामां शुद्धनय कहे छे. शुं कीधुं? त्रिकाळी शुद्ध एक चिद्रूपस्वरूप आत्माने अभेदथी शुद्धनय कहे छे. समयसार गाथा ११ मां आचार्य कुंदकुंददेवे त्रिकाळ सत्यार्थ भूतार्थ शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने शुद्धनय कह्यो छे. ‘भूदत्थो देसिदो दु शुद्धनओ’ एम त्यां गाथा छे. अहीं कहे छे- शुद्धनयनुं अर्थात् त्रिकाळ शुद्ध ज्ञानानंद निर्मळानंद प्रभु आत्मानुं ज्ञान करीने, पूर्ण ज्ञानानंदस्वरूपनुं श्रद्धान करवुं ते सम्यग्दर्शन-ते पहेला प्रकारनुं देखवुं छे. प्रथम शुद्धनय जे त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य तेने जाणवुं; केमके जाण्या विना श्रद्धान कोनुं करे? माटे प्रथम त्रिकाळी शुद्ध चिदानंद चैतन्यस्वरूप आत्माने जाणीने तेनी प्रतीति करवी के पूर्ण चिदानंदघन अनंत शक्तिओनो पिंड प्रभु हुं आ आत्मा छुं एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे अने ते पहेला प्रकारनुं देखवुं छे.

आ ‘देखवुं’ चोथा-पांचमा गुणस्थानमां होय छे. श्रेणीक राजा क्षायिक समकिती अविरत दशामां हता; तेमने व्रत, चारित्र न हतुं. चोथा गुणस्थानमां हता. तीर्थंकरगोत्र बांध्युं छे. हमणां प्रथम नरकमां छे; त्यांथी नीकळी आवती चोवीसीना प्रथम तीर्थंकर थशे. भाई! आवो सम्यग्दर्शननो कोई अचिन्त्य महिमा छे. त्रिकाळी भूतार्थ स्वभावनां ज्ञान-श्रद्धान-अनुभव चोथे, पांचमे अने छठ्ठे होय छे. आचार्य श्री अमृतचंद्रस्वामीनी टीकानो पंडित जयचंदजीए आ अर्थ कर्यो छे. चोथा गुणस्थाने पण शुद्धनय नाम शुद्ध विज्ञानघनस्वभाव आत्मानो अनुभव थईने प्रतीति थाय छे; अने आत्मस्वरूपनी विशेष लीनता थई स्वरूपनी शांतिनी वृद्धि थाय ते श्रावकनुं पांचमुं गुणस्थान छे. त्यां हजु अप्रमत्त दशा नथी. हवे बीजा प्रकारे ‘देखवुं’ कहे छेः-

‘ज्ञान-श्रद्धान थया पछी बाह्य सर्व परिग्रहनो त्याग करी तेनो (-पूर्ण ज्ञाननो)


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अभ्यास करवो, उपयोगने ज्ञानमां ज थंभाववो, जेवुं शुद्धनयथी पोताना स्वरूपने सिद्ध समान जाणवुं-श्रद्धवुं हतुं तेवुं ज ध्यानमां लईने चित्तने एकाग्र-स्थिर करवुं, फरी फरी तेनो ज अभ्यास करवो, ते बीजा प्रकारनुं देखवुं छे. आ देखवुं अप्रमत्त दशामां होय छे. ज्यां सुधी एवा अभ्यासथी केवळज्ञान न उपजे त्यां सुधी ते अभ्यास निरंतर रहे. आ, देखवानो बीजो प्रकार थयो’

ज्ञान-श्रद्धान थया पछी, अंदरमां विकल्पनो त्याग अने बहारमां वस्त्रना टुकडानो पण त्याग करीने पूर्ण ज्ञानस्वरूपनो अभ्यास करे छे, उपयोगने स्वरूपमां ज थंभावे छे. अहाहा...! ते निज आत्म-बागमां अतीन्द्रिय आनंदनी रमत मांडे छे. तेने सर्व बाह्य परिग्रह छुटी जाय छे. निराकुल आनंदमा झुलनारा वीतरागी संत मुनिवरने बहारमां वस्त्र पण नहि अने अंतरंगमां विकल्प पण नहि. बापु! बीजी चीज तो शुं-वस्त्रना धागानो पण परिग्रह मुनिने होई शके नहि. आवुं ज मुनिदशानुं सहज स्वरूप छे. एथी विपरीत माने ते मूढ मिथ्याद्रष्टि छे.

हा, पण वस्त्र छोडवां तो पडे ने? छोडवां शुं पडे? निज ज्ञानानंदस्वरूपमां लीन थई तेमां ज रमणता करतां वस्त्रादि सर्व परिग्रह सहज छूटी जाय छे. रागरहित आनंदनी छठ्ठी भूमिकानी दशा ज एवी सहज होय छे के वस्त्रादि तेना ज कारणे सहज छूटी जाय छे. परवस्तुने ग्रहवी- छोडवी ए खरेखर आत्मामां क्यां छे? आत्मामां परवस्तुनुं तो त्याग-उपादान शून्यत्व छे. आत्मा परना त्याग-ग्रहणथी शून्य छे. अहाहा...! आवो अलौकिक मारग वीतराग सर्वज्ञदेवनो! समजे एनुं तो शुं कहेवुं? ए तो न्याल थई जाय.

अरे! लोकोए कांईनुं कांई मान्युं-मनाव्युं छे! शुं थाय? प्रभुना विरह पडया! केवळज्ञाननी उत्पत्ति अहीं रही नहि, अवधिज्ञान अने मनःपर्यायज्ञान पण आ काळे लुप्त थई गयां, अने लोकोए झघडा ऊभा कर्या! संतो-दिगंबर मुनिवरो-केवळीना केडायतीओ कहे छे- पूर्ण ज्ञानानंद प्रभु आत्मानी अंर्तद्रष्टि अने अनुभव विना सम्यग्दर्शन होय नहि अने सम्यग्दर्शनपूर्वक स्वरूपमां विशेष-विशेष लीनता थवी ते चारित्र छे. ते विशेष तो सातमी भूमिकाथी होय छे. अप्रमत्त दशामां चारित्रनी उग्रता होय छे. पूर्ण स्थिरता चौदमा गुणस्थाने होय छे ए वात अत्यारे अहीं नथी. अहीं तो चारित्रनी उग्रता अप्रमत्त दशामां होय छे एम वात छे. मुनि छठ्ठा गुणस्थानमां होय त्यारे पंचमहाव्रत आदिनो विकल्प उठे छे ते प्रमाददशा छे. त्यां सुधी अप्रमत्त दशा गणवामां आवी नथी. चोथे, पांचमे, छठ्ठे ज्ञान-श्रद्धान अने यथा संभव स्थिरता होय छे. पछी बाह्य परिग्रहनो त्याग करी उपयोगने ज्ञानमां स्थिर करे छे ते बीजा