Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 390-404 ; Kalash: 235-237.

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अहा! केवी छे ज्ञानचेतना? सदा आनंदरूप-पोताना स्वभावना अनुभवरूप छे. ज्ञानचेतना निज स्वभावना अनुभवरूप सदा आनंदरूप छे ए अस्तिथी वात करी, नास्तिथी कहीए तो ते शुभाशुभने करवा-भोगववाना भावना अभावरूप छे. अहाहा..! आत्मा चैतन्यरत्नाकर प्रभु छे. ते पुण्य-पापरूप विभावने केम करे? ज्ञानानंदना अनुभवरूप ज्ञानचेतनाने छोडी ते विभावने-शुभाशुभने केम करे? आचार्य कहे छे- ज्ञानीजनो ज्ञानचेतनाने सदा भोगवो; आनंदरसने सदा पीओ.

बेनश्रीना वचनामृतमां आवे छे ने के- “ज्ञानीनुं परिणमन विभावथी पाछुं वळी स्वरूप तरफ ढळी रह्युं छे. ज्ञानी निज स्वरूपमां परिपूर्णपणे ठरी जवा तलसे छे.” ते विचारे छे-

“आ विभावभाव अमारो देश नथी. आ परदेशमां अमे क्यां आवी चडया? अमने अहीं गोठतुं नथी. अहीं अमारुं कोई नथी, ज्यां ज्ञान, श्रद्धा, चारित्र, आनंद, वीर्य आदि अनंतगुणरूप अमारो परिवार वसे छे ते अमारो स्वदेश छे. अमे हवे ते स्वरूप-स्वदेश तरफ जई रह्या छीए. अमारे त्वराथी अमारा मूळ वतनमां जईने निरांते वसवुं छे ज्यां बधां अमारां छे.”

ल्यो, हवे बायडी-छोकरां ने धन-संपत्ति वगेरे तो क्यांय रही गयां; ने पुण्य- पापना भाव पण क्यांय विलीन थई गया. खरेखर भगवान आत्मानी ए कांई चीज ज नथी. ए तो पर्यायबुद्धिना भ्रमथी उत्पन्न थता हता ते स्वात्मबुद्धि-द्रव्यद्रष्टि प्रगट थतां क्यांय दूर थई गया. समजाणुं कांई...?

संवर अधिकारमां तो एम आव्युं छे के-विकारनी उत्पत्तिनुं अने त्रिकाळी ध्रुवनुं- बन्नेनुं क्षेत्र भिन्न छे, बन्नेना काळ भिन्न छे, बन्नेना स्वभाव भिन्न छे. अरे भाई! तारी मोटपनी शी वात करीए? भगवान सर्वज्ञदेव पण तारी मोटपनी वात वाणीमां पूरी कही शक्या नहि. आवे छे ने के-

“जे स्वरूप दीठुं सर्वज्ञे ज्ञानमां,
कही शक्या नहि ते पण श्री भगवान जो;”

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आ तो अंतरनो मारग बापा! स्वानुभवथी प्राप्त थाय, पण कांई वादविवादे पार पडे नहि. अहा! जगतमां जीवो अनेक प्रकारना छे, लब्धिना अनेक प्रकार छे, ऊंधाईना अनेक प्रकार छे; हवे त्यां कोनी साथे चर्चावाद करीए?

अहीं कहे छे-ज्ञानचेतना सदा आनंदरूप छे, स्वना अनुभवनरूप छे. चोथा गुणस्थानथी ज्ञानचेतना उत्पन्न थाय छे. तेने ज्ञानीजनो सदा भोगवो-एम श्री गुरुओनो उपदेश छे. आवी वात छे.

*

आ सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार छे, तेथी ज्ञानने कर्ताभोक्तापणाथी भिन्न बताव्युं; हवेनी गाथाओमां अन्य द्रव्यो अने अन्य द्रव्योना भावोथी ज्ञानने भिन्न बतावशे. ते गाथाओनी सूचनारूप काव्य प्रथम कहे छेः-

* कळश २३४ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘इतः इह’ अहींथी हवे (आ सर्वविशुद्धज्ञान अधिकारमां हवेनी गाथाओमां एम कहे छे के-) समस्त–वस्तु–व्यतिरेक–निश्चयात् विवेचितं ज्ञानम्’ समस्त वस्तुओथी भिन्नपणाना निश्चय वडे जुदुं करवामां आवेलुं ज्ञान, ‘पदार्थ–प्रथन–अवगुण्ठनात् कृतेः विना’ पदार्थना विस्तार साथे गूंथावाथी (अनेक पदार्थो साथे, ज्ञेयज्ञान संबंधने लीधे एक जेवुं देखावाथी) उत्पन्न थती (-अनेक प्रकारनी) क्रिया तेनाथी रहित ‘एकम् अनाकुलम् ज्वलत्’ एक ज्ञानक्रियामात्र, अनाकुळ (-सर्व आकुळताथी रहित) अने देदीप्यमान वर्ततुं थकुं, ‘अवतिष्ठते’ निश्चळ रहे छे.

अहाहा...! जोयुं? पदार्थोथी भिन्न पडेलुं ज्ञान अनेक प्रकारनी विभावनी क्रियाथी रहित छे अने ज्ञानक्रियाथी सहित छे. हवे लोको राडु पाडे छे के क्रियानो लोप क्योेर्, लोप कर्यो. पण कई क्रिया बापु? विभाव-क्रियानो लोप छे. स्वभावक्रिया-ज्ञानक्रिया तो छे, पुण्यपापरूप विभावक्रियानो निषेध-त्याग छे. अहाहा...! स्वरूपमां एकाग्र थतां उत्पन्न थयेली ज्ञानक्रिया आकुळताथी रहित अनाकुळ देदीप्यमान वर्ते छे. आ साधक दशा छे.

रागनुं करवुं ने रागनुं भोगववुं ए दुःखरूप छे. माटे पर्यायबुद्धि छोडी अनंत- गुणरत्नाकर प्रभु अंदर अविचल बिराजे छे त्यां जा. ए तारो देश छे.

भावार्थः हवेनी गाथाओमां ज्ञानने स्पष्ट रीते सर्व वस्तुओथी भिन्न बतावे छे.

[प्रवचन नं. ४७७ थी ४८८ *दिनांक ३०-१०-७७ थी १०-११-७७]

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गाथा ३९० थी ४०४

सत्थं णाणं ण हवदि जम्हा सत्थं ण याणदे किंचि । तम्हा अण्णं णाणं अण्णं सत्थं जिणा बेंति।। ३९०।। सद्दो णाणं ण हवदि जम्हा सद्दो ण याणदे किंचि । तम्हा अण्णं णाणं अण्णं सद्दं जिणा बेंति।। ३९१।। रूवं णाणं ण हवदि जम्हा रूवं ण याणदे किंचि । तम्हा अण्णं णाणं अण्णं रूवं जिणा बेंति।। ३९२।। वण्णो णाणं ण हवदि जम्हा वण्णो ण याणदे किंचि । तम्हा अण्णं णाणं अण्णं वण्णं जिणा बेंति।। ३९३।। गंधो णाणं ण हवदि जम्हा गंधो ण याणदे किंचि । तम्हा अण्णं णाणं अण्णं गंधं जिणा बेंति।। ३९४।।

ए ज अर्थनी गाथाओ हवे कहे छेः-

रे! शास्त्र ते नथी ज्ञान, जेथी शास्त्र कंई जाणे नहीं,
ते कारणे छे ज्ञान जुदुं, शास्त्र जुदुं–जिन कहे; ३९०.
रे! शब्द ते नथी ज्ञान, जेथी शब्द कंई जाणे नहीं,
ते कारणे छे ज्ञान जुदुं, शब्द जुदो–जिन कहे; ३९१.
रे! रूप ते नथी ज्ञान, जेथी रूप कंई जाणे नहीं,
ते कारणे छे ज्ञान जुदुं, रूप जुदुं–जिन कहे; ३९२.
रे! वर्ण ते नथी ज्ञान, जेथी वर्ण कंई जाणे नहीं,
ते कारणे छे ज्ञान जुदुं, वर्ण जुदो–जिन कहे; ३९३.
रे! गंध ते नथी ज्ञान, जेथी गंध कंई जाणे नहीं,
ते कारणे छे ज्ञान जुदुं, गंध जुदी–जिन कहे; ३९४.

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णरसो दु हवदि णाणं जम्हा दु रसो ण याणदे किंचि। तम्हा अण्णं णाणं रसं च अण्णं जिणा बेंति।। ३९५।। फासो ण हवदि णाणं जम्हा फासो ण याणदे किंचि। तम्हा अण्णं णाणं अण्णं फासं जिणा बेंति।। ३९६।। कम्मं णाणं ण हवदि जम्हा कम्मं ण याणदे किंचि। तम्हा अण्णं णाणं अण्णं कम्मं जिणा बेंति।। ३९७।। धम्मो णाणं ण हवदि जम्हा धम्मो ण याणदे किंचि। तम्हा अण्णं णाणं अण्णं धम्मं जिणा बेंति।। ३९८।। णाणमधम्मो ण हवदि जम्हाधम्मो ण याणदे किंचि। तम्हा अण्णं णाणं अण्णमधम्मं जिणा बेंति।। ३९९।। कालो णाणं ण हवदि जम्हा कालो ण याणदे किंचि। तम्हा अण्णं णाणं अण्णं कालं जिणा बेंति।। ४००।।

रे! रस नथी कंई ज्ञान, जेथी रस कंई जाणे नहीं,
ते कारणे छे ज्ञान जुदुं, रस जुदो–जिनवर कहे; ३९प.
रे! स्पर्श ते नथी ज्ञान, जेथी स्पर्श कंई जाणे नहीं,
ते कारणे छे ज्ञान जुदुं, स्पर्श जुदो–जिन कहे; ३९६.
रे! कर्म ते नथी ज्ञान, जेथी कर्म कंई जाणे नहीं,
ते कारणे छे ज्ञान जुदुं, कर्म जुदुं–जिन कहे; ३९७.
रे! धर्म ते नथी ज्ञान, जेथी धर्म कंई जाणे नहीं,
ते कारणे छे ज्ञान जुदुं, धर्म जुदो–जिन कहे; ३९८.
अधर्म ते नथी ज्ञान, जेथी अधर्म कंई जाणे नहीं,
ते कारणे छे ज्ञान जुदुं, अधर्म जुदो–जिन कहे; ३९९.
रे! काळ ते नथी ज्ञान, जेथी काळ कंई जाणे नहीं,
ते कारणे छे ज्ञान जुदुं, काळ जुदो–जिन कहे; ४००.

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आयासं पि ण णाणं जम्हायासं ण याणदे किंचि।
तम्हायासं अण्णं अण्णं णाणं जिणा बेंति।। ४०१।।
णज्झवसाणं णाणं अज्झवसाणं अचेदणं जम्हा।
तम्हा अण्णं णाणं अज्झवसाणं तहा अण्णं।। ४०२।।
जम्हा जाणदि णिच्चं तम्हा जीवो दु जाणगो णाणी।
णाणं च जाणयादो अव्वदिरित्तं मुणेयव्वं।। ४०३।।
णाणं सम्मादिट्ठिं दु संजमं सुत्तमंगपुव्वगयं।
धम्माधम्मं च तहा पव्वज्जं अब्भुवंति बुहा।। ४०४।।
शास्त्रं ज्ञानं न भवति यस्माच्छास्त्रं न जानाति किञ्चित्।
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यच्छास्त्रं जिना ब्रुवन्ति।। ३९०।।
शब्दो ज्ञानं न भवति यस्माच्छब्दो न जानाति किञ्चित्।
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं शब्दं जिना ब्रुवन्ति।। ३९१।।

गाथार्थः– [शास्त्रं] शास्त्र [ज्ञानं न भवति] ज्ञान नथी [यस्मात्] कारण के [शास्त्रं किञ्चित् न जानाति] शास्त्र कांई जाणतुं नथी (-जड छे,) [तस्मात्] माटे [ज्ञानम् अन्यत्] ज्ञान अन्य छे, [शास्त्रम् अन्यत्] शास्त्र अन्य छे- [जिनाः ब्रुवन्ति] एम जिनदेवो कहे छे. [शब्दः ज्ञानं न भवति] शब्द ज्ञान नथी [यस्मात्] कारण के [शब्दः किञ्चित् न जानाति] शब्द कांई जाणतो नथी, [तस्मात्] माटे [ज्ञानम् अन्यत्]

आकाश ते नथी ज्ञान, ए आकाश कंई जाणे नहीं,
ते कारणे आकाश जुदुं, ज्ञान जुदुं–जिन कहे; ४०१.
नहि ज्ञान अध्यवसान छे, जेथी अचेतन तेह छे,
ते कारणे छे ज्ञान जुदुं, जुदुं अध्यवसान छे. ४०२.
रे! सर्वदा जाणे ज तेथी जीव ज्ञायक ज्ञानी छे,
ने ज्ञान छे ज्ञायकथी अव्यतिरिक्त इम ज्ञातव्य छे. ४०३.
सम्यक्त्व, ने संयम, तथा पूर्वांगगत सूत्रो, अने
धर्माधरम, दीक्षा वळी, बुध पुरुष माने ज्ञानने. ४०४.

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रूपं ज्ञानं न भवति यस्माद्रूपं न जानाति किञ्चित्।
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यद्रूपं जिना ब्रुवन्ति।। ३९२।।
वर्णो ज्ञान न भवति यस्माद्वर्णो न जानाति किञ्चित्।
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं वर्ण जिना ब्रुवन्ति।। ३९३।।
गन्धो ज्ञान न भवति यस्माद्गन्धो न जानाति किञ्चित्।
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं गन्धं जिना ब्रुवन्ति।। ३९४।।
न रसस्तु भवति ज्ञानं यस्मात्तु रसो न जानाति किञ्चित्।
तस्मादन्यज्ज्ञानं रसं चान्यं जिना ब्रुवन्ति।। ३९५।।
स्पर्शो न भवति ज्ञानं यस्मात्स्पर्शो न जानाति किञ्चित्।
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं स्पर्श जिना ब्रुवन्ति।। ३९६।।
कर्म ज्ञानं न भवति यस्मात्कर्म न जानाति किञ्चित्।
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यत्कर्म जिना ब्रुवन्ति।। ३९७।।

ज्ञान अन्य छे, [शब्दं अन्यं] शब्द अन्य छे- [जिनाः ब्रुवन्ति] एम जिनदेवो कहे छे. [रूपं ज्ञानं न भवति] रूप ज्ञान नथी [यस्मात्] कारण के [रूपं किञ्चित् न जानाति] रूप कांई जाणतुं नथी, [तस्मात्] माटे [ज्ञानम् अन्यत्] ज्ञान अन्य छे, [रूपम् अन्यत्] रूप अन्य छे- [जिनाः ब्रुवन्ति] एम जिनदेवो कहे छे, [वर्णः ज्ञानं न भवति] वर्ण ज्ञान नथी [यस्मात्] कारण के [वर्णः किञ्चित् न जानाति] वर्ण कांई जाणतो नथी, [तस्मात्] माटे [ज्ञानम् अन्यत्] ज्ञान अन्य छे, [वर्णम् अन्यम्] वर्ण अन्य छे- [जिनाः ब्रुवन्ति] एम जिनदेवो कहे छे. [गन्धः ज्ञानं न भवति] गंध ज्ञान नथी [यस्मात्] कारण के [गन्धः किञ्चित् न जानाति] गंध कांई जाणती नथी, [तस्मात्] माटे [ज्ञानम् अन्यत्] ज्ञान अन्य छे, [गन्धम् अन्यम्] गंध अन्य छे- [जिनाः ब्रुवन्ति] एम जिनदेवो कहे छे. [रसः तु ज्ञानं न भवति] रस ज्ञान नथी [यस्मात् तु] कारण के [रसः किञ्चित् न जानाति] रस कांई जाणतो नथी, [तस्मात्] माटे [ज्ञानम् अन्यत्] ज्ञान अन्य छे [रसं च अन्यं] अने रस अन्य छे- [जिनाः ब्रुवन्ति] एम जिनदेवो कहे छे. [स्पर्शः ज्ञानं न भवति] स्पर्श ज्ञान नथी [यस्मात्] कारण के [स्पर्शः किञ्चित् न जानाति] स्पर्श कांई जाणतो नथी, [तस्मात्] माटे [ज्ञानम् अन्यत्] ज्ञान अन्य छे, [स्पर्श अन्यं] स्पर्श अन्य छे- [जिनाः ब्रुवन्ति] एम जिनदेवो कहे छे. [कर्म ज्ञानं न भवति] कर्म ज्ञान नथी [यस्मात्] कारण के [कर्म किञ्चित् न जानाति] कर्म कांई जाणतुं नथी, [तस्मात्] माटे [ज्ञानम् अन्यत्] ज्ञान अन्य छे, [कर्म अन्यत्] कर्म अन्य छे- [जिनाः ब्रुवन्ति] एम जिनदेवो कहे


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धर्मो ज्ञानं न भवति यस्माद्धर्मो न जानाति किञ्चित्।
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं धर्म जिना ब्रुवन्ति।। ३९८।।
ज्ञानमधर्मो न भवति यस्मादधर्मो न जानाति किञ्चित्।
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यमधर्म जिना ब्रुवन्ति।। ३९९।।
कालो ज्ञानं न भवति यस्मात्कालो न जानाति किञ्चित्।
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं कालं जिना ब्रुवन्ति।। ४००।।
आकाशमपि न ज्ञानं यस्मादाकाशं न जानाति किञ्चित्।
तस्मादाकाशमन्यदन्यज्ज्ञानं जिना ब्रुवन्ति।। ४०१।।
नाध्यवसानं ज्ञानमध्यवसानमचेतनं यस्मात्।
तस्मादन्यज्ज्ञानमध्यवसानं तथान्यत्।। ४०२।।
यस्माज्जानाति नित्यं तस्माज्जीवस्तु ज्ञायको ज्ञानी।
ज्ञानं च ज्ञायकादव्यतिरिक्तं ज्ञानव्यम्।। ४०३।।

छे. [धर्मः ज्ञानं न भवति] धर्म (अर्थात् धर्मास्तिकाय) ज्ञान नथी [यस्मात्] कारण के [धर्मः किञ्चित् न जानाति] धर्म कांई जाणतो नथी, [तस्मात्] माटे [ज्ञानम् अन्यत्] ज्ञान अन्य छे, [धर्म अन्यं] धर्म अन्य छे- [जिनाः ब्रुवन्ति] एम जिनदेवो कहे छे. [धर्मः ज्ञानं न भवति] धर्म (अर्थात् धर्मास्तिकाय) ज्ञान नथी [यस्मात्] कारण के [धर्मः किञ्चित् न जानाति] धर्म कांई जाणतो नथी, [तस्मात्] माटे [ज्ञानम् अन्यत्] ज्ञान अन्य छे, [धर्म अन्यं] धर्म अन्य छे- [जिनाः ब्रुवन्ति] एम जिनदेवो कहे छे. [अधर्मः ज्ञानं न भवति] अधर्म (अर्थात् अधर्मास्तिकाय) ज्ञान नथी [यस्मात्] कारण के [अधर्मः किञ्चित् न जानाति] अधर्म कांई जाणतो नथी, [तस्मात्] माटे [ज्ञानम् अन्यत्] ज्ञान अन्य छे, [अधर्म अन्यम्] अधर्म अन्य छे- [जिनाः ब्रुवन्ति] एम जिनदेवो कहे छे. [कालः ज्ञानं न भवति] काळ ज्ञान नथी [यस्मात्] कारण के [कालः किञ्चित् न जानाति] काळ कांई जाणतो नथी, [तस्मात्] माटे [ज्ञानम् अन्यत्] ज्ञान अन्य छे, [कालं अन्यं] काळ अन्य छे- [जिनाः ब्रुवन्ति] एम जिनदेवो कहे छे. [आकाशम् अपि ज्ञानं न] आकाश पण ज्ञान नथी [यस्मात्] कारण के [आकाशं किञ्चित् न जानाति] आकाश कांई जाणतुं नथी, [तस्मात्] माटे [ज्ञानं अन्यत्] ज्ञान अन्य छे, [आकाशम् अन्यत्] आकाश अन्य छे- [जिनाः ब्रुवन्ति] एम जिनदेवो कहे छे. [अध्यवसानं ज्ञानम् न] अध्यवसान ज्ञान नथी [यस्मात्] कारण के [अध्यवसानम् अचेतनं] अध्यवसान अचेतन छे, [तस्मात्] माटे [ज्ञानम् अन्यत्] ज्ञान अन्य छे [तथा अध्यवसानं अन्यत्] तथा अध्यवसान अन्य छे (-एम जिनदेवो कहे छे).

[यस्मात्] कारण के [नित्यं जानाति] (जीव) निरंतर जाणे छे [तस्मात्] माटे [ज्ञायकः जीवः तु] ज्ञायक एवो जीव [ज्ञानी] ज्ञानी (-ज्ञानवाळो, ज्ञानस्वरूप) छे,


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ज्ञानं सम्यग्द्रष्टिं तु संयमं सूत्रमङ्गपूर्वगतम्।
धर्माधर्म च तथा प्रव्रज्यामभ्युपयान्ति बुधाः।। ४०४।।

[ज्ञानं च] अने ज्ञान [ज्ञायकात् अव्यतिरिक्तं] ज्ञायकथी अव्यतिरिक्त छे (-अभिन्न छे, जुदुं नथी) [ज्ञातव्यम्] एम जाणवुं.

[बुधाः] बुध पुरुषो (अर्थात् ज्ञानी जनो) [ज्ञानं] ज्ञानने ज [सम्यग्द्रष्टिं तु] सम्यग्द्रष्टि [संयमं] (ज्ञानने ज) संयम, [अङ्गपूर्वगतम् सूत्रम्] अंगपूर्वगत सूत्र, [धर्माधर्म च] धर्म-अधर्म (पुण्य-पाप) [तथा प्रव्रज्याम्] तथा दीक्षा [अभ्युपयान्ति] माने छे.

टीकाः– श्रुत (अर्थात् वचनात्मक द्रव्यश्रुत) ज्ञान नथी, कारण के श्रुत अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने श्रुतने व्यतिरेक (अर्थात् भिन्नता) छे. शब्द ज्ञान नथी, कारण के शब्द (पुद्गलद्रव्यनो पर्याय छे,) अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने शब्दने व्यतिरेक (अर्थात् भेद) छे. रूप ज्ञान नथी, कारण के रूप (पुद्गलद्रव्यनो गुण छे,) अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने रूपने व्यतिरेक छे (अर्थात् बन्ने जुदां छे). वर्ण ज्ञान नथी, कारण के वर्ण (पुद्गलद्रव्यनो गुण छे,) अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने वर्णने व्यतिरेक छे (अर्थात् ज्ञान अन्य छे, वर्ण अन्य छे). गंध ज्ञान नथी, कारण के गंध (पुद्गलद्रव्यनो गुण छे,) अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने गंधने व्यतिरेक (-भेद, भिन्नता) छे. रस ज्ञान नथी, कारण के रस (पुद्गलद्रव्यनो गुण छे,) अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने रसने व्यतिरेक छे. स्पर्श ज्ञान नथी, कारण के स्पर्श (पुद्गलद्रव्यनो गुण छे,) अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने स्पर्शने व्यतिरेक छे. कर्म ज्ञान नथी, कारण के कर्म अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने कर्मने व्यतिरेक छे. धर्म (-धर्मद्रव्य) ज्ञान नथी, कारण के धर्म अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने धर्मने व्यतिरेक छे. अधर्म (-अधर्मद्रव्य) ज्ञान नथी, कारण के अधर्म अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने अधर्मने व्यतिरेक छे. काळ (-काळद्रव्य) ज्ञान नथी, कारण के काळ अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने काळने व्यतिरेक छे. आकाश (-आकाशद्रव्य) ज्ञान नथी, कारण के आकाश अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने आकाशने व्यतिरेक छे. अध्यवसान ज्ञान नथी, कारण के अध्यवसान अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने (कर्मना उदयनी प्रवृत्तिरूप) अध्यवसानने व्यतिरेक छे. आम आ रीते ज्ञाननो समस्त परद्रव्यो साथे व्यतिरेक निश्चयसाधित देखवो (अर्थात् निश्चय वडे सिद्ध थयेलो समजवो-अनुभववो).

हवे, जीव ज एक ज्ञान छे, कारण के जीव चेतन छे; माटे ज्ञानने अने जीवने ज अव्यतिरेक (-अभिन्नता) छे. वळी ज्ञाननो जीवनी साथे व्यतिरेक जरा पण शंकनीय नथी (अर्थात् ज्ञाननी जीवथी भिन्नता हशे एम जराय शंका करवायोग्य नथी),


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हवे, ए प्रमाणे सर्व परद्रव्यो साथे व्यतिरेक वडे अने सर्व दर्शनादि जीवस्वभावो साथे अव्यतिरेक वडे अतिव्याप्तिने अने अव्याप्तिने दूर करतुं थकुं, अनादि विभ्रम जेनुं मूळ छे एवा धर्म-अधर्मरूप (पुण्य-पापरूप, शुभ-अशुभरूप) परसमयने दूर करीने, पोते ज प्रव्रज्यारूपने पामीने (अर्थात् पोते ज निश्चयचारित्ररूप दीक्षापणाने पामीने), दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां स्थितिरूप स्वसमयने प्राप्त करीने, मोक्षमार्गने पोतामां ज परिणत करीने, जेणे संपूर्ण विज्ञानघनस्वभावने प्राप्त कर्यो छे एवुं, त्याग-ग्रहणथी रहित, साक्षात् समयसारभूत, परमार्थरूप शुद्ध-ज्ञान एक अवस्थित (-निश्चळ रहेलुं) देखवुं (अर्थात् प्रत्यक्ष स्वसंवेदनथी अनुभववुं).

भावार्थः– अहीं ज्ञानने सर्व परद्रव्योथी भिन्न अने पोताना पर्यायोथी अभिन्न बताव्युं, तेथी अतिव्याप्ति अने अव्याप्ति नामना जे लक्षणना दोषो ते दूर थया. आत्मानुं लक्षण उपयोग छे, अने उपयोगमां ज्ञान प्रधान छे; ते (ज्ञान) अन्य अचेतन द्रव्योमां नथी तेथी ते अतिव्याप्तिवाळुं नथी, अने पोतानी सर्व अवस्थाओमां छे तेथी अव्याप्तिवाळुं नथी. आ रीते ज्ञानलक्षण कहेवाथी अतिव्याप्ति अने अव्याप्ति दोषो आवता नथी.

अहीं ज्ञानने ज प्रधान करीने आत्मानो अधिकार छे, कारण के ज्ञानलक्षणथी ज आत्मा सर्व परद्रव्योथी भिन्न अनुभवगोचर थाय छे. जोके आत्मामां अनंत धर्मो छे, तोपण तेमांना केटलाक तो छद्मस्थने अनुभवगोचर ज नथी; ते धर्मोने कहेवाथी छद्मस्थ ज्ञानी आत्माने कई रीते ओळखे? वळी केटलाक धर्मो अनुभवगोचर छे, परंतु तेमांना केटलाक तो-अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि तो-अन्य द्रव्यो साथे साधारण अर्थात् समान छे माटे तेमने कहेवाथी जुदो आत्मा जाणी शकाय नहि, अने केटलाक (धर्मो) परद्रव्योना निमित्तथी थयेला छे तेमने कहेवाथी परमार्थभूत आत्मानुं शुद्ध स्वरूप केवी रीते जणाय? माटे ज्ञानने कहेवाथी ज छद्मस्थ ज्ञानी आत्माने ओळखी शके छे.

अहीं ज्ञानने आत्मानुं लक्षण कह्युं छे एटलुं ज नहि, पण ज्ञानने ज आत्मा ज कह्यो छे; कारण के अभेदविवक्षामां गुणगुणीनो अभेद होवाथी, ज्ञान छे ते ज आत्मा छे. अभेदविवक्षामां ज्ञान कहो के आत्मा कहो-कांई विरोध नथी; माटे अहीं ज्ञान कहेवाथी आत्मा ज समजवो.


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(शार्दूलविक्रीडित)
अन्येभ्यो व्यतिरिक्तमात्मनियतं बिभ्रत्पृथग्वस्तुता–
मादानोज्झनशून्यमेतदमलं ज्ञानं तथावस्थितम्।
मध्याद्यन्तविभागमुक्तसहजस्फारप्रभाभासुरः
शुद्धज्ञानघनो यथाऽस्य महिमा नित्योदितस्तिष्ठति।। २३५।।

टीकामां छेवटे एम कहेवामां आव्युं के-जे, पोतामां अनादि अज्ञानथी थती शुभाशुभ उपयोगरूप परसमयनी प्रवृत्तिने दूर करीने, सम्यग्द्रर्शन-ज्ञान-चारित्रमां प्रवृत्तिरूप स्वसमयने प्राप्त करीने, एवा स्वसमयरूप परिणमनस्वरूप मोक्षमार्गमां पोताने परिणमावीने, संपूर्णविज्ञानघनस्वभावने पाम्युं छे, अने जेमां कांई त्याग-ग्रहण नथी, एवा साक्षात् समयसारस्वरूप, परमार्थभूत, निश्चळ रहेला, शुद्ध, पूर्ण ज्ञानने (पूर्ण आत्मद्रव्यने) देखवुं. त्यां ‘देखवुं’ त्रण प्रकारे समजवुं. शुद्धनयनुं ज्ञान करीने पूर्ण ज्ञाननुं श्रद्धान करवुं ते पहेला प्रकारनुं देखवुं छे. ते अविरत आदि अवस्थामां पण होय छे. ज्ञान-श्रद्धान थया पछी बाह्य सर्व परिग्रहनो त्याग करी तेनो (-पूर्ण ज्ञाननो) अभ्यास करवो, उपयोगने ज्ञानमां ज थंभाववो, जेवुं शुद्धनयथी पोताना स्वरूपने सिद्ध समान जाण्युं-श्रद्धयुं हतुं तेवुं ज ध्यानमां लईने चित्तने एकाग्र-स्थिर करवुं, फरी फरी तेनो ज अभ्यास करवो, ते बीजा प्रकारनुं देखवुं छे. आ देखवुं अप्रमत्त दशामां होय छे. ज्यां सुधी एवा अभ्यासथी केवळज्ञान न ऊपजे त्यां सुधी ते अभ्यास निरंतर रहे. आ, देखवानो बीजो प्रकार थयो. अहीं सुधी तो पूर्ण ज्ञाननुं शुद्धनयना आश्रये परोक्ष देखवुं छे. केवळज्ञान ऊपजे त्यारे साक्षात् देखवुं थाय छे ते त्रीजा प्रकारनुं देखवुं छे ते स्थितिमां ज्ञान सर्व विभावोथी रहित थयुं थकुं सर्वनुं देखनार-जाणनार छे, तेथी आ त्रीजा प्रकारनुं देखवुं ते पूर्ण ज्ञाननुं प्रत्यक्ष देखवुं छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः–

[अन्येभ्यः व्यतिरिक्तम्] अन्य द्रव्योथी भिन्न, [आत्म–नियतं]

पोतामां ज नियत, [पृथक्–वस्तुताम् बिभ्रत्] पृथक् वस्तुपणाने धारतुं (-वस्तुनुं स्वरूप सामान्यविशेषात्मक होवाथी पोते पण सामान्यविशेषात्मकपणाने धारण करतुं), [आदान–उज्झन–शून्यम्] ग्रहण-त्याग रहित, [एतत् अमलं ज्ञानं] आ अमल (-रागादिक मळथी रहित) ज्ञान [तथा–अवस्थितम् यथा] एवी रीते अवस्थित (-निश्चळ रहेलुं) अनुभवाय छे के जेवी रीते [मध्य–आदि–अन्त–विभाग–मुक्त– सहज–स्फार–प्रभा–भासुरः अस्य शुद्ध–ज्ञान–घनः महिमा] आदि-मध्य-अंतरूप विभागोथी रहित एवी सहज फेलायेली


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(उपजाति)
उन्मुक्तमुन्मोच्यमशेषतस्तत्
तथात्तमादेयमशेषतस्तत् ।
यदात्मनः संहृतसर्वशक्तेः
पूर्णस्य सन्धारणमात्मनीह।। २३६।।
(अनुष्टुभ्)
व्यतिरिक्तं परद्रव्यादेवं ज्ञानमवस्थितम्।
कथमाहारकं तत्स्याद्येन देहोऽस्य शङ्कयते।। २३७।।

प्रभा वडे देदीप्यमान एवो एनो शुद्धज्ञानघनरूप महिमा [नित्य–उदितः तिष्ठति] नित्य-उदित रहे (-शुद्ध ज्ञानना पुंजरूप महिमा सदा उदयमान रहे).

भावार्थः– ज्ञाननुं पूर्ण रूप सर्वने जाणवुं ते छे. ते ज्यारे प्रगट थाय छे त्यारे सर्व विशेषणो सहित प्रगट थाय छे; तेथी तेना महिमाने कोई बगाडी शक्तुं नथी. सदा उदयमान रहे छे. २३प.

‘आवा ज्ञानस्वरूप आत्मानुं आत्मामा धारण करवुं ते ज ग्रहवायोग्य सर्व ग्रह्युं अने त्यागवायोग्य सर्व त्याग्युं’-एवा अर्थनुं काव्य हवे कहे छेः-

श्लोकार्थः– [संहृत–सर्व–शक्तेः पूर्णस्य आत्मनः] जेणे सर्व शक्तिओ समेटी छे (-पोतामां लीन करी छे) एवा पूर्ण आत्मानुं [आत्मनि इह] आत्मामां [यत् सन्धारणम्] धारण करवुं [तत् उन्मोच्यम् अशेषतः उन्मुक्तम्] ते ज छोडवायोग्य बधुं छोडयुं [तथा] अने [आदेयम् तत् अशेषतः आत्तम्] ग्रहवायोग्य बधुं ग्रह्युं.

भावार्थः– पूर्णज्ञानस्वरूप, सर्व शक्तिओना समूहरूप जे आत्मा तेने आत्मामां धारण करी राखवो ते ज, त्यागवायोग्य जे कांई हतुं ते बधुंय त्याग्युं अने ग्रहण करवायोग्य जे कांई हतुं ते बधुंय ग्रहण कर्युं. ए ज कृतकृत्यपणुं छे. २३६.

‘आवा ज्ञानने देह ज नथी’-एवा अर्थनो, आगळनी गाथानी सूचनारूप श्लोक हवे कहे छेः-

श्लोकार्थः– [एवं ज्ञानम् परद्रव्यात् व्यतिरिक्तं अवस्थितम्] आम (पूर्वोक्त रीते) ज्ञान परद्रव्यथी जुदुं अवस्थित (-निश्चळ रहेलुं) छे; [तत् आहारकं कथम् स्यात् येन अस्य देहः शङ्कयते] ते (ज्ञान) आहारक (अर्थात् कर्म-नोकर्मरूप आहार करनारुं) केम होय के जेथी तेने देहनी शंका कराय? (ज्ञानने देह होई शके ज नहि, कारण के तेने कर्म- नोकर्मरूप आहार ज नथी.) २३७.

*

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समयसार गाथा ३९० थी ४०४ः मथाळु

ए ज अर्थनी गाथाओ हवे कहे छेः-

* गाथा ३९० थी ४०४ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘श्रुत (अर्थात् वचनात्मक द्रव्यश्रुत) ज्ञान नथी. कारण के श्रुत अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने श्रुतने व्यतिरेक (अर्थात् भिन्नता) छे.’

शुं कीधुं आ? के द्रव्यश्रुत एटले शास्त्रना शब्दो ए ज्ञान नथी, जुओ भगवाननी दिव्यध्वनि ते द्रव्यश्रुत, कहे छे, ज्ञान नथी, आत्मा नथी. केम? कारण के ते अचेतन छे, जड छे; अने ज्ञान नाम आत्मा चेतन छे.

तो भगवाननी वाणीमां भावश्रुतथी उपदेश कर्यो छे एम धवलमां आवे छे ने? हा, वाणी तो जड छे, पण वाणीना सांभळनाराओ वाणी सांभळीने, अंतर्मुख थईने भावश्रुतपणे परिणमे छे. तेथी भगवाननी वाणीमां भावश्रुतथी उपदेश छे एम कह्युं छे वाणी कांई भावश्रुत नथी, वाणीमां केवळज्ञानेय नथी; वाणी तो द्रव्यश्रुत अचेतन ज छे. समजाणुं कांई...?

अहाहा...! कहे छे-द्रव्यश्रुत ते ज्ञान नथी, केमके द्रव्यश्रुत अचेतन छे; माटे ज्ञान अने श्रुतने भिन्नता छे, जुदाई छे. एटले शुं? के द्रव्यश्रुतथी अहीं (-आत्मामां) ज्ञान थाय छे एम नथी. तो केवी रीते छे? सांभळनार-श्रोताने पोताना उपादाननी योग्यताथी ज्ञान थाय छे, अने द्रव्यश्रुत तो त्यारे निमित्तमात्र छे. वळी द्रव्यश्रुतनुं ज्ञान ते परलक्षी ज्ञान छे, स्वलक्षी नथी; माटे द्रव्यश्रुतनुं ज्ञान पण खरेखर अचेतन छे.

परमार्थवचनिकामां आवे छे के जे जेटलुं परसत्तावलंबी ज्ञान छे ते ज्ञानने वास्तवमां मोक्षमार्ग कहेता नथी. द्रव्यश्रुत-वाणी जे छे ते जड छे, ते आत्मा नथी अने तेने सांभळवाथी आत्मा (-ज्ञान) प्रगटे छे एम पण नथी. पण जे श्रुतविकल्प छे तेनुं लक्ष मटाडी अंदर ज्ञाननो दरियो प्रभु आत्मा छे तेने स्पर्शीने जे ज्ञान प्रगट थाय ते वास्तविक ज्ञान छे. आ सिवाय अगियार अंग अने नव पूर्व भणी जाय तोय ते ज्ञान नथी.

अहाहा...! द्रव्यश्रुत ते ज्ञान नथी, आत्मा नथी; एनाथी आत्मा भिन्न छे. वळी द्रव्यश्रुतनुं जे ज्ञान थाय एनाथी पण आत्मा भिन्न छे. प्रवचनसारमां आवे छे के द्रव्यश्रुतने बाद करीए तो एकलुं ज्ञान रही जाय छे. अहा! समयसार, प्रवचनसार आदि शास्त्रोमां गजबनी रामबाण वातो छे. बापु! शब्दोनुं ज्ञान ते वास्तविक ज्ञान नथी- (आत्मज्ञान नथी).


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जुओ, आचारांगमां १८००० पद छे, ने एकेक पदमां एकावन क्रोड जेटला झाझ्रेरा श्लोक छे. तेनुं जे ज्ञान थाय ते शब्दज्ञान छे. अहा! जे ज्ञान अतीन्द्रिय नथी, जेमां अतीन्द्रिय आनंद नथी ते ज्ञान ज्ञान नथी. पांच-पचास हजार श्लोक कंठस्थ थई जाय तेथी शुं? अंदर भगवान ज्ञानस्वभावनो सागर छे तेने स्पर्शीने जे न थाय तेने ज्ञान कहेता नथी.

आचारांग आदिनुं ज्ञान ते ज्ञान, नव पदार्थोनुं श्रद्धान ते समकित अने छ जीव निकायना रक्षाना भाव ते चारित्र-एम व्यवहार नय छे (जुओ गाथा २७६), परंतु जेमां आत्मानो आश्रय न होय ते ज्ञान-श्रद्धान-चारित्रने निश्चय ज्ञान-श्रद्धान-चारित्र कहेता नथी. आत्माना आश्रये प्रगट थाय ते ज परमार्थे ज्ञान-श्रद्धान-चारित्र छे अने ते ज मोक्षमार्ग छे. समजाणुं कांई..?

आजे भगवान श्री महावीरना निर्वाणनो दिवस छे. आ कथन नैगमनयथी समजवुं. भगवाननो जन्म थतां तेमना पिताजीना भंडारमां लक्ष्मीनी एकदम वृद्धि थई गई, तेथी तेमनुं नाम वर्द्धमानकुमार पडयुं. तेमने आ छेल्लो देह छे. पोते तीर्थंकरनुं द्रव्य छे अने ते ज भवमां मोक्ष जनार छे.

मातानी कुखमां हता त्यारे त्रण ज्ञान अने त्रण दर्शन सहित हता. मति-श्रुत- अवधि ए त्रण ज्ञान अने चक्षु-अचक्षु-अवधि ए त्रण दर्शन सहित हता. मतलब के तेओ आत्मज्ञान-अतीन्द्रिय ज्ञान अने अतीन्द्रिय दर्शन साथे ज लईने गर्भमां आव्या हता.

तेमनो जन्म थया पछी, तेओ बाळक-अवस्थामां हता त्यारे एक संतमुनिवरने कोई शंका पडवाथी समजवा माटे भगवान (बाळक) पासे गया. पोते मुनिवर छे एटले वंदन तो न करे, पण आम भगवानने जोया के तरत ज शंकानुं समाधान थई गयुं. जुओ, आ निमित्त-नैमित्तिक मेळ! मुनि तो छठ्ठे गुणस्थाने छे, ने भगवान (-बाळक) ने चोथुं गुणस्थान छे, पण आम नजर करतां ज समाधान थई गयुं तेथी तेमने सन्मतिनाथ नाम आपवामां आव्युं.

जक्ष साथे युद्ध थतां जक्षने जीती लीधो तेथी वीर नाम आपवामां आव्युं. मुनिदशामां घोर उपसर्ग पण जीती लीधा तेथी तेओ ‘महावीर’ कहेवाया. आ रीते तेओ पांच नामथी ओळखाय छेः वर्द्धमान, सन्मतिनाथ, वीर, अतिवीर ने महावीर. तेमणे साडा बार वर्ष तप कर्युं; थोडा दिवस आहार लीधो. घणा दिवस तो ईच्छाओनो निरोध करी तप कर्युं; बहारमां आहार सहज छूटी गयो, अंदर अतीन्द्रिय आनंदनुं-अमृतनुं भोजन करवा लाग्या. जुओ, आ तप!

पछी भगवानने वैशाख सुदी दशमना दिने केवळज्ञान थयुं; पण तत्काल दिव्यध्वनि


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छूटी नहि. भगवाननी दिव्यध्वनि छूटे ने धर्म पामनारा न होय एम कदी बने नहि. पूर्वे विकल्प उठयो हतो के- अहो! जगतना जीवो धर्मने पामो; एमां तीर्थंकर प्रकृति बंधाई गई. छासठ दिवस वाणी न छूटी. वाणी छूटवानो काळ आव्यो त्यां वेदांतना पारगामी गौतमस्वामी सभामां पधार्या. मानस्थंभ जोयो त्यां ज मान गळी गयुं. समवसरणमां आवतां ज स्वयं स्वतःज सम्यग्दर्शन पाम्या. तरत ज मुनिदशा अंगीकार करी. अशाड वदी १ ना दिने भगवाननी ॐध्वनि छूटी. ते वाणी सांभळी गौतमस्वामीए बार अंगनी रचना करी. अहा! ते वाणीनी परंपरामां आ तत्त्व आव्युं छे. आ समयसार आदि शास्त्र ए भगवाननी वाणीनी परंपरामां रचायेलुं शास्त्र छे.

भगवान केवळज्ञान पाम्या पछी ३० वर्ष सुधी अरिहंतपदमां रही आजे आसो वदी चौदसनी पाछली रात्रे एकदम चौदमा गुणस्थाननी अकंप दशाने पाम्या. तेरमा गुणस्थाने एक समय परमाणु आवीने खरी जता, ईर्यापथ आस्रव हतो. चौदमे गुणस्थाने अकंप दशा रही, थोडो काळ असिद्ध दशा रही. पछी चौदसनी रात्रिना पाछला पहोरमां देहथी छूटी चैतन्य गोळो समश्रेणीए लोकाग्रे बिराजमान थई सिद्धदशाने पाम्यो. हाल जे क्षेत्रे देह छूटयो त्यांथी समश्रेणीए भगवान उपर लोकाग्रे सिद्धालयमां बिराजे छे. पावापुरी जलमंदिर उपर समश्रेणीए भगवान लोकाग्रे बिराजे छे. ते क्षेत्रे जतां तेमनुं स्मरण थवा माटे जात्रा छे.

इन्द्रोए दिवानी रोशनी करी भगवाननो निर्वाण महोत्सव उजव्यो, तेथी आ दिन दिवाळी-दीपावली कहेवामां आवे छे.

आ दिवसे भगवानना स्मरणनो विचार आवे ते छे तो विकल्प; एम के ‘आवा सिद्ध’ -एम स्मरण माटे आ दिवसे महोत्सव उजववामां आवे छे. बाकी अंदर पोताना स्वरूपमां ठरे तेने पर संबंधी विकल्पथी शुं छे? कोई प्रयोजन नथी, कोई अपेक्षा नथी.

भगवानने सिद्धदशा थई ते थई. “सादि अनंत अनंत समाधि सुखमां”- भगवान अनंतकाळ पर्यंत अनंत सुखना भोगवटामां सिद्धपदमां बिराजे छे. भाई! बाह्यअभ्यंतर निर्ग्रंथ दशा थया वगर केवळज्ञान अने सिद्धदशा थाय नहि. आ प्रमाणे केवळज्ञाननुं कारण चारित्र, अने चारित्रनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे. ए सम्यग्दर्शननो विषय शुं-एनी अहीं वात चाले छे.

अहीं कहे छे-शब्द ज्ञान नथी, केमके शब्द पुद्गल द्रव्यनो पर्याय छे. माटे ज्ञानने अने शब्दने व्यतिरेक एटले भिन्नता छे. भाई! भगवाननी ॐध्वनि नीकळे ते ज्ञान नथी, अचेतन पुद्गलनी पर्याय छे. धवलमां पाठ छे के-भगवान भावश्रुतथी


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‘रूप ज्ञान नथी, कारण के रूप (पुद्गल द्रव्यनो गुण छे) अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने रूपने व्यतिरेक छे (अर्थात् बन्ने जुदां छे.) .’

वर्ण, रस, गंध अने स्पर्श ते चारनुं एकरूप तेने अहीं रूप कह्युं छे. अहीं रूप एटले रंगनी वात नथी; रंगनी जुदी वात करशे. कहे छे-रूप ते ज्ञान नथी, केमके रूप पुद्गलनी पर्याय छे, अचेतन छे. माटे ज्ञान अने रूपने व्यतिरेक छे, भिन्नता छे. शास्त्रमां एम आवे छे के भगवानना शरीरनुं प्रभामंडळ एवुं होय छे के तेने देखनारने सात भवनुं ज्ञान थाय छे. आ एक पुण्य प्रकृतिनो प्रकार छे. ते भगवानना भामंडळना तेजथी कांई ज्ञान थयुं नथी, अने तेने जोतां जे ज्ञान थयुं ते ज्ञान नथी. भव विनानो आत्मा भाळे ते ज्ञान छे). वस्तुस्थिति आवी छे. रूप अने ज्ञान जुदां छे हवे रूपना चार भेद पाडी कथन करे छेः-

‘वर्ण ज्ञान नथी, कारण के वर्ण (पुद्गलद्रव्यनो गुण छे) अचेतन छे. माटे ज्ञानने अने वर्णने व्यतिरेक छे (अर्थात् ज्ञान अन्य छे, वर्ण अन्य छे).

भगवानना शरीरना रंगनी वात शास्त्रमां आवे छे. ते शरीरना रंगथी अहीं ज्ञान थाय छे एम नथी; रंग तो निमित्तमात्र छे. रंग ते ज्ञान नथी, अने रंगना निमित्ते जे ज्ञान थाय ते य वास्तवमां ज्ञान नथी. सुंदर स्वरूपवान चिद्रूप अंदर भगवान आत्मा छे, तेना आश्रये ज्ञान थाय ते परमार्थ ज्ञान छे.

दर्शन, ज्ञान, ने चारित्र-ए त्रण मळीने मोक्षनो मार्ग छे. तेमां सम्यग्ज्ञान- आत्मज्ञान ते मोक्षमार्गनो एक अवयव छे. ज्ञान साथे अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव अविनाभावी छे. ते ज्ञान स्वना लक्षे थाय छे. परना-रंगना लक्षे ज्ञान थाय ते ज्ञान (आत्मज्ञान) नथी, ते तो अचेतन छे. माटे रंग जुदो अने ज्ञान जुदुं छे. आवी वात! समजाणुं कांई...? हवे कहे छे-


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‘गंध ज्ञान नथी, कारण के गंध (पुद्गलद्रव्यनो गुण छे) अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने गंधने व्यतिरेक (-भेद, भिन्नता) छे.’

आ केटलाकने श्वास गंधातो नथी होतो? भगवानने श्वास सुगंधित होय छे. शरीरना परमाणुओमां सुगंध-सुगंध होय छे. अहा! तेना निमित्ते जे गंधनुं ज्ञान थाय ते, अहीं कहे छे, ज्ञान नथी; गंधने अने ज्ञानने भिन्नता छे. गंध ते ज्ञान नहि, ने गंधनुं ज्ञान थाय तेय ज्ञान नहि. आत्मज्ञान ज एक ज्ञान छे. हवे कहे छे-

‘रस ज्ञान नथी, कारणके रस (पुद्गल द्रव्यनो गुण छे) अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने रसने व्यतिरेक छे.’

जुओ, खाटो, मीठो ईत्यादि भेदपणे जे रस छे ते ज्ञान नथी, अने ते रसनुं ज्ञान थाय तेय ज्ञान नथी. रस तो बापु! जड छे, ने जडनुं ज्ञान थाय तेय जड छे. भगवान आत्मा चैतन्यज्योतिस्वरूप प्रभु छे तेनुं ज्ञान थाय ते ज्ञान छे; अहाहा...! स्वसंवेेदन ज्ञान ते ज्ञान छे, ते सम्यग्ज्ञान छे अने तेने मोक्षमार्गमां गण्युं छे. समजाय छे कांई...? हवे कहे छे-

‘स्पर्श ज्ञान नथी, कारण के स्पर्श (पुद्गलद्रव्यनो गुण छे) अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने स्पर्शने व्यतिरेक छे.’

शरीरना स्पर्शनुं ज्ञान थाय ते ज्ञान नथी; तेनाथी जे ज्ञान थाय ते तो जडनुं ज्ञान छे, ए क्यां आत्मानुं ज्ञान छे? भाई! जेना पाताळना उंडा तळमां चैतन्यप्रभु परमात्मा बिराजे छे ते ध्रुवना आश्रये ज्ञान थाय. ते वास्तविक ज्ञान छे. अहाहा...! असंख्य प्रदेशमां अनंत गुणनो पिंड प्रभु आत्मा छे. तेनी पर्याय अंदर उंडे ध्रुव तरफ जईने प्रगट थाय ते ज्ञान छे, ते धर्म छे. आवी वात!

प्रश्नः– हा, पण केटले ऊंडे ए (-ध्रुव) छे? उत्तरः– अहाहा...! अनंत अनंत उंडाणमय जेनुं स्वरूप छे तेनी मर्यादा शुं? द्रव्य तो बेहद अगाध स्वभाववान छे, तेना स्वभावनी मर्यादा शुं? अहाहा...! आवुं अपरिमित ध्रुव-दळ अंदरमां छे त्यां पर्यायने लई जवी (केन्द्रित करवी) तेनुं नाम सम्यग्ज्ञान छे. ईन्द्रियोथी प्रवर्ततुं ज्ञान कांई ज्ञान नथी. हवे कहे छे-

‘कर्म ज्ञान नथी, कारण के कर्म अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने कर्मने व्यतिरेक छे.’ जुओ, शुं कीधुं? के आठ कर्म जे छे ते ज्ञान नथी, केमके कर्म अचेतन छे. कर्म तरफनुं ज्ञान थाय तेय ज्ञान नथी, कर्मनो बंध, सत्ता, उदय, उदीरणा ईत्यादि कर्म संबंधी जे ज्ञान थाय ते ज्ञान नथी. कर्म संबंधी ज्ञान थाय पोतामां पोताथी, कर्म तो तेमां निमित्तमात्र छे; पण ते ज्ञान आत्मानुं ज्ञान नथी. अहाहा...! भगवान


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हवे बीजे तो आनाथी विरुद्ध सांभळवा मळे आवी चैतन्यनी अविरुद्ध वात सांभळवाय न मळे ए बिचारा धर्म के दि’ पामे? अहा! जेने चोवीस कलाकमां कलाक- बे कलाक सत् श्रवण द्वारा पुण्यनो प्रसंग पण नथी तेने अंदर ऊंडा तळमां भगवान बिराजमान छे तेनो अंतःस्पर्श केम थाय? अरे! केटलाकने तो निरंतर पापनी प्रवृत्ति आडे आवी सत्य वात सांभळवानीय फुरसद न मळे! अहीं तो सत्समागमे सत्श्रवण आदि जे पुण्यनो भाव एनाथी अंदर पोतानो भगवान भिन्न छे तेनुं ज्ञान (- स्वसंवेदन ज्ञान) करवुं ते ज्ञान छे एम वात छे. हवे आवो वीतरागनो मारग छे, एमां लोको कांई ने कांई मानी बेठा छे.

कर्मनी १४८ प्रकृति जड छे. मिथ्याद्रष्टिने बधी १४८ प्रकृति न होय. आ वात पहेलां आवी गई छे. तीर्थंकर नामकर्म, आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग आदि, सम्यक्मोहनीय, मिश्रमोहनीय ए प्रकृति कांई बधाने न होय. आहारक प्रकृति कोई मुनिने होय छे, तो तीर्थंकर प्रकृति पण कोई सम्यग्द्रष्टिने दर्शनविशुद्धि आदि सहित होय तेने बंधाई जाय छे. आ तीर्थंकर प्रकृति पण झ्रेरनुं झाड छे. भगवान आत्मा अमृतनुं कल्पवृक्ष छे. पुण्य अने पुण्यना भावथी जड प्रकृति बंधाय ते आत्माथी विरुद्ध झ्रेरनुं झाड छे. धर्मी जीव तो कहे छे के झ्रेरनुं झाड एवा कर्मना फळने अमे भोगवता नथी, कर्मना फळ प्रत्ये अमारुं वलण नथी; अमे तो अंदर आनंदनो नाथ प्रभु अमारो छे तेने अनुभवीए छीए. अंदर पूरण प्रभुता भरी पडी छे ते तरफ अमारुं वलण अने ढलण छे.

हा, पण कर्म हेरान तो करे छे ने? भाई! तारी ए मान्यता खोटी छे. तुं विकारना परिणाम सेवीने हेरान थाय छे; बाकी कर्म शुं करे? कर्म तो विकारी पर्यायने अडतांय नथी. आवे छे ने के-

‘कर्म बिचारे कौन भूल मेरी अधिकाई’

भाई! कर्म छे एवुं शास्त्र कहे, अने एवो तने ख्याल (ज्ञानमां) आवे तो पण ते कर्म संबंधीनुं ज्ञान ते आत्मानुं ज्ञान नथी. कर्म अचेतन छे; माटे ज्ञान जुदुं अने कर्म जुदां छे. आत्मा पोतानी सत्ताए बिराजमान छे, कर्म कर्मनी सत्ताए त्यां पडयुं छे; बन्नेने व्यतिरेक नाम भिन्नता छे. आवी वात! समजाणुं कांई...? हवे कहे छे-

‘धर्म (धर्मद्रव्य) ज्ञान नथी, कारण के धर्म अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने धर्मने व्यतिरेक छे.’


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धर्मास्तिकाय नामनुं एक लोकव्यापी द्रव्य छे. देवाधिदेव सर्वज्ञ भगवाने जोयुं छे. अन्यमतमां तो आ वात छे ज नहि. जेना मतमां सर्वज्ञ नथी तेना मतमां धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदिनी वात होई शके नहि. श्री केवळी भगवाने छ द्रव्य अस्तिपणे जोयां छे. तेमां एक धर्मास्तिकाय छे. ते स्वयं गमन करता जीव-पुद्गलोने निमित्त छे. ते गमन करावे एम नहि, मात्र निमित्त छे बस. अहीं कहे छे- आ धर्मास्तिकाय ज्ञान नथी. वळी धर्मास्तिकायमां छे एवो ख्याल (ज्ञानमां) आव्यो तो ते ज्ञान पण ज्ञान नथी. धर्मास्तिकायमां ज्ञानस्वभाव भयोेर् नथी; भगवान आत्मा अंदर ज्ञानस्वभावथी भरपूर भर्यो छे. अहा! तेनां आश्रये जे ज्ञान प्रगट थाय ते सम्यज्ञान छे अने ते ज्ञान मोक्षनो मार्ग छे. आगळ कहे छे-

‘अधर्म (-अधर्म द्रव्य) ज्ञान नथी, कारण के अधर्म अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने अधर्मने व्यतिरेक छे.’

जुओ, जीव-पुद्गलो गतिपूर्वक स्वयं स्थिति करे तेमां अधर्मास्तिकाय द्रव्य निमित्त छे. आ अधर्मास्तिकाय पण एक लोकव्यापी अचेतन द्रव्य छे. ते गति करता जीव-पुद्गलोने स्थिति करावे एम नहि, ए तो मात्र निमित्त छे बस; बाकी गति करवी अने स्थिति थवी ए तो जीव-पुद्गलोनी पोतानी तत्कालीन योग्यता छे. अहीं कहे छे- आ अधर्मास्तिकाय ज्ञान नथी. वळी अधर्मास्तिकाय छे एवो ख्याल जे (ज्ञानमां) आव्यो ते ज्ञान पण ज्ञान नथी; अहा! आत्मा ज्ञानानंदस्वभावी प्रभु छे तेना आश्रयमां जतां जे स्वसंवेदनज्ञान प्रगट थयुं ते ज्ञान छे अने ते ज मोक्षमार्ग छे. समजाणुं कांई...? हवे कहे छे-

‘काळ (-काळ द्रव्य) ज्ञान नथी, कारण के काळ अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने काळने व्यतिरेक छे.’

लोकमां रत्नोनी राशिनी जेम एक पर एक गोठवायेलां काळद्रव्यो असंख्य छे. तेमां प्रत्येकमां उत्पाद-व्यय थाय छे. आ काळद्रव्य ज्ञान नथी, केमके ते अचेतन-जड छे. वळी तेना लक्षे काळद्रव्यनुं ज्ञान थयुं तेय परमार्थ ज्ञान नथी. माटे ज्ञान अने काळद्रव्य बन्ने जुदेजुदा छे. आवी वात! वळी-

‘आकाश (आकाश द्रव्य) ज्ञान नथी, कारण के आकाश अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने आकाशने व्यतिरेक छे.’

ओहो! आकाश नामनो एक अनंत प्रदेशी अचेतन महापदार्थ छे. आ आकाश द्रव्य ते, कहे छे, ज्ञान नथी. वळी तेनुं लक्ष थतां ‘आ आकाश छे’ एवुं जे ज्ञान थाय ते परलक्षी ज्ञान पण परमार्थे ज्ञान नथी. अहीं तो स्वसंवेदनज्ञानने ज परमार्थे ज्ञान कह्युं छे. परलक्षी ज्ञान थाय तेय परनी जेम अचेतन छे. माटे ज्ञान अने आकाश


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अध्यवसान ज्ञान नथी, कारणके अध्यवसान अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने (कर्मना उदयनी प्रवृत्तिरूप) अध्यवसानने व्यतिरेक छे.’

रागमां एकताबुद्धि ते अध्यवसान छे. राग अने आत्मा एक छे एवो भ्रम ते अध्यवसान छे. आ अध्यवसान, कहे छे, ज्ञान नथी, केमके अध्यवसान अचेतन छे. माटे कर्मना उदयनी प्रवृत्तिरूप अध्यवसान अने ज्ञान जुदां छे.

जुओ, अहीं अध्यवसान आत्मा नथी एम कह्युं छे ने! हवे पछी नीचे ज्ञान ज पुण्य-पाप छे एम कहेशे. आवी अटपटी वात! एककोर पुण्य-पापने अनात्मा कहे अने वळी पाछा तेने आत्मा कहे-आ केवी वात!

ए तो भाई! पुण्यपाप एनी पर्यायमां थाय छे माटे तेने त्यां (नीचे) आत्मा कहेल छे. पोतानी पर्याय छे तो तेने आत्मा कह्यो. प्रवचनसारमां ४७ नयना अधिकारमां पुण्य-पापनो अधिष्ठाता आत्मा छे एम कह्युं छे. ज्यारे समयसारनी ७३मी गाथामां पुण्य-पापना भावोनो स्वामी पुद्गल द्रव्य छे एम कह्युं छे भाई! आ तो अनेकान्त मार्ग छे. द्रव्यथी वात आवे तेय अने पर्यायथी वात आवे तेय यथास्थित जाणवी जोईए. एकला द्रव्यने माने अने पर्यायने जाणेय नहि तो ए तो मिथ्या एकान्त थई जाय.

पुण्य-पापना भाव जीवनी पर्यायमां थाय छे तेथी तेने जीव कह्या, पण ते जीवनो स्वभाव नथी (विभाव छे) अने पर्यायमांथी नीकळी जाय छे माटे तेने पुद्गलना परिणाम कहीने पुद्गल द्रव्य कह्युं छे. ए तो त्यां पर्यायनी-पुण्य-पापनी रुचि छोडावी द्रव्यस्वभावनी द्रष्टि कराववाना प्रयोजनथी वात छे. पण तेथी कोई पुण्य-पापना भाव पुद्गलमां थाय छे एम माने तो ते बराबर नथी, तथा कोई तेने पोतानो स्वभाव ज माने तो ते पण विपरीत ज छे. आवी झ्रीणी वात छे.

‘आम आ रीते ज्ञाननो समस्त परद्रव्यो साथे व्यतिरेक निश्चयसाधित देखवो.’ शुं कीधुं? के आत्मा निश्चयथी सर्व परद्रव्योथी भिन्न छे एम देखवुं-अनुभववुं. आ आत्मानी परद्रव्यथी नास्ति कही, हवे अस्तिथी वात करे छे-

‘हवे, जीव ज एक ज्ञान छे; कारण के जीव चेतन छे; माटे ज्ञानने अने जीवने ज अव्यतिरेक (-अभिन्नता) छे. वळी ज्ञाननो जीवनी साथे व्यतिरेक जरापण शंकनीय नथी (अर्थात् ज्ञाननी जीवथी भिन्नता हशे एम जराय शंका करवायोग्य नथी), कारण के जीव पोते ज ज्ञान छे.’


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जुओ, शुं कहे छे? के-जीव ज एक ज्ञान छे, कारण के जीव चेतन छे. अहीं ज्ञान अने जीवनी अभिन्नता-एकता बताववी छे. ज्ञान अने जीव-एम बे शब्दनो ध्वनि उठे छे माटे ज्ञान अने जीव बे जुदा हशे एम, कहे छे, शंका न करवी. भगवान आत्मा भाववान अने ज्ञान भाव-एम भाव अने भाववान भिन्न छे एम जराय शंका न करवी, केमके बन्ने वस्तुपणे एक ज छे. बेनां नाम जुदां छे, पण बे वस्तु जुदी नथी. गुण अने गुणी बे पृथक् वस्तु नथी, बन्ने तादात्म्यपणे एक ज छे.

समयसार गाथा ६९-७० मां आवी गयुं के-“जेमने तादात्म्यसिद्ध संबंध छे एवां आत्मा अने ज्ञानमां विशेष (तफावत, जुदां लक्षणो) नहि होवाथी तेमनो भेद (जुदापणुं) नहि देखतो थको, निःशंक रीते ज्ञानमां पोतापणे वर्ते छे अने त्यां (ज्ञानमां पोतापणे) वर्ततो ते, ज्ञानक्रिया स्वभावभूत होवाने लीधे निषेधवामां आवी नथी माटे, जाणे छे, जाणवारूप परिणमे छे.” जुओ, आमां निःशंक रीते ज्ञानमां पोतापणे वर्ते छे एम कह्युं एनो अर्थ ज ए छे के ज्ञान अने पोते-आत्मा एक ज छे, अर्थात् आत्मामां ज पोते वर्ते छे, अने ते ज स्वभावभूत ज्ञानक्रिया नाम सम्यग्ज्ञाननी क्रिया छे. अहीं पण कहे छे- “जीव ज एक ज्ञान छे” अर्थात् जीव पोते ज ज्ञान छे. अहाहा..! अभेदथी कहेतां पोते ज्ञानस्वरूप ज छे; नाम, लक्षणथी भेद हो, पण वस्तुस्वरूपथी बन्ने निःशंक एक ज छे. हवे कहे छे-

‘आ प्रमाणे (ज्ञान जीवथी अभिन्न) होवाथी, ज्ञान ज सम्यग्द्रष्टि छे, ज्ञान ज संयम छे, ज्ञान ज अंगपूर्वरूप सूत्र छे, ज्ञान ज धर्म-अधर्म (अर्थात् पुण्य-पाप) छे, ज्ञान ज प्रव्रज्या (दीक्षा, निश्चयचारित्र) छे- एम ज्ञाननो जीवपर्यायोनी साथे पण अव्यतिरेक निश्चयसाधित देखवो (अर्थात् निश्चय वडे सिद्ध थयेलो समजवो- अनुभववो).’

अहा! कहे छे- ज्ञान ज सम्यग्द्रष्टि छे. सम्यग्द्रष्टि छे ते आत्मा छे के नहि? छे ने? तो कहे छे-ज्ञान नाम आत्मा ज सम्यग्द्रष्टि छे, केमके आत्माथी जुदुं कांई सम्यग्दर्शन तो छे नहि. अहाहा...! आत्मा पूर्ण ज्ञानानंदस्वभावी प्रभु छे. ते ज्ञानमां ज्ञेय थतां तेनी जे प्रतीति थई के- ‘आ हुं’ - ते सम्यग्दर्शन छे. आ सम्यग्दर्शन आत्मस्वरूप छे. कांई सम्यग्दर्शन जुदुं ने आत्मा जुदो छे एम नथी. माटे कहेे छे- ज्ञान ज सम्यग्द्रष्टि छे. अहीं ज्ञान शब्दे अभेदपणे आत्मा कहेवो छे. समजाणुं कांई...!

वळी ‘ज्ञान ज संयम छे.’ शुं कीधुं? ज्ञान नाम आत्मा ज संयम छे. पांच ईन्द्रियना विषय अने मनथी पाछा फरवुं ते संयम-ए तो नास्तिथी वात छे, अस्तिथी कहीए तो ज्ञान नाम आत्मा आत्मामां ज रमे ते संयम, अने ते आत्मा ज छे.