Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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‘हुं निर्माणनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -११२.

जे कर्मना उदयथी अंगोपांगनी ठीक ठीक रचना थाय तेने निर्माणनामकर्म कहे छे. ते प्रकृतिना फळने, धर्मीपुरुष कहे छे, हुं भोगवतो नथी, अर्थात् कर्मप्रकृतिना उदय तरफ मारुं वलण नथी. चोथे, पांचमे अने छठ्ठे गुणस्थाने धर्मी पुरुषने कंईक अस्थिरता छे, ते कर्मप्रकृतिना फळने मात्र देखे ने जाणे; सातमा गुणस्थाने स्थिरता थतां त्यां अस्थिरतानो भाव ज नथी. अहीं सातमानी मुख्यताथी वात छे.

‘हुं अगुरुलघुनामकर्मनाफळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -११३.

जे कर्मना उदयथी शरीर, लोढाना गोळाना जेवुं भारे अने आकडाना रूना जेवुं हलकुं न होय तेने अगुरुलधुनामकर्म कहे छे. तेने, धर्मात्मा कहे छे, हुं भोगवतो नथी, हुं आत्माना आनंदने ज वेदुं छुं.

‘हुं उपघातनामकर्मनाफळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -११४.

जे कर्मना उदयथी पोतानो घात करनारां अंग होय तेने उपघात नामकर्म कहे छे, तेना फळने हुं भोगवतो नथी.

‘हुं परघातनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -११प.

जे कर्मना उदयथी बीजानो घात करवावाळां अंग-उपांग होय तेने परघात नामकर्म कहे छे, तेना फळने धर्मी पुरुष भोगवतो नथी.

‘हुं आतपनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -११६.

जे कर्मना उदयथी परने आतापरूप शरीर होय, जेमके सूर्यनुं बिंब, ज्ञानी कहे छे, हुं तेने भोगवतो नथी, स्वस्वरूपने ज संचेतुं छुं.

‘हुं उद्योतनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’-११७.

जे कर्मना उदयथी उद्योतरूप शरीर थाय तेने उद्योत नामकर्म कहे छे. तेना फळने धर्मात्मा भोगवतो नथी.

‘हुं उच्छवासनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -११८.


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जे कर्मना उदयथी श्वासोच्छवास होय तेने उच्छवास नामकर्म कहे छे, तेना फळने धर्मी पुरुष भोगवतो नथी.

हवे विहायोगति नामकर्मना बे भेद कहे छेः- ‘हुं प्रशस्तविहायोगतिनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -११९.

‘हुं अप्रशस्तविहायोगतिनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१२०.

जे कर्मना उदयथी आकाशमां गमन थाय तेने विहायोगति नामकर्म कहे छे. तेना फळने धर्मी भोगवतो नथी.

‘हुं साधारणशरीरनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१२१.

जे कर्मना उदयथी एक शरीरना अनेक जीव स्वामी होय तेने साधारणशरीर नामकर्म कहे छे. समकिती के मुनिने आवी प्रकृति पडी होय, पण तेनो एने भोगवटो नथी.

‘हुं प्रत्येकशरीरनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१२२.

जे कर्मना उदयथी एक शरीरनो एक ज स्वामी होय तेने प्रत्येकशरीर नामकर्म कहे छे. तेना फळने धर्मी जीव भोगवतो नथी, आत्माने ज संचेते छे.

‘हुं स्थावरनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१२३.

जे कर्मना उदयथी जीव एकेन्द्रिय जातिमां-पृथ्वी, अप, तेज, वायु अने वनस्पतिकायमां उपजे-जन्मे तेने स्थावर नामकर्म कहे छे. तेना फळने धर्मी पुरुष भोगवतो नथी.

‘हुं त्रसनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१२४.

जे कर्मना उदयथी जीव द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रियोमां उपजे-जन्मे तेने त्रसनामकर्म कहे छे, तेना फळने, कहे छे, हुं भोगवतो नथी.

‘हुं सुभगनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१२प.


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जे कर्मना उदयथी बीजा जीवो पोताना उपर प्रीति करे एवुं शरीर होय तेने सुभगनामकर्म कहे छे. तेना फळने धर्मी भोगवतो नथी.

‘हुं दुर्भगनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१२६.

जे कर्मना उदयथी बीजा जीवो पोताना उपर अप्रीति करे, द्वेष करे एवुं शरीर होय तेने दुर्भगनामकर्म कहे छे. तेना फळने धर्मी-ज्ञानी पुरुष भोगवतो नथी.

‘हुं सुस्वरनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१२७.

जे कर्मना उदयथी मधुर-मीठो स्वर होय तेने सुस्वरनामकर्म कहे छे. तेना फळने धर्मी भोगवतो नथी.

‘हुं दुःस्वरनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१२८.

जे कर्मना उदयथी मधुर स्वर न होय, जेम कागडा, कुतरा, गधेडा वगेरेने होय छे तेवो कर्कश होय, तेने दुःस्वरनामकर्म कहे छे. तेना फळने धर्मी भोगवतो नथी.

‘हुं शुभनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१२९.

जे कर्मना उदयथी शरीरना अवयव सुंदर होय तेने शुभनामकर्म कहे छे. तेना फळने हुं भोगवतो नथी. अहाहा...! धर्मी शुं कहे छे? के रागने पर्यायबुद्धिमां हती एनाथी मारी दिशा फरी गई छे, दशा पण फरी गई छे. मारी दशा सम्यक्त्वरूप थई छे, अने दिशा शुद्ध चैतन्य तरफ छे. कर्म प्रकृतिना फळ उपर हवे मारुं लक्ष नथी. ल्यो, आवी वात!

‘हुं अशुभनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१३०.

जे कर्मना उदयथी शरीरना अवयव सुंदर न होय, तेने अशुभनामकर्म कहे छे. तेना फळने, धर्मी कहे छे, हुं भोगवतो नथी, हुं स्वस्वरूपने ज अनुभवुं छुं.

‘हुं सूक्ष्मनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१३१.

‘हुं बादरनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१३२.

जे कर्मना उदयथी शरीर, एवुं सूक्ष्म होय के ते बीजाने (पृथ्वी आदिने)


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रोके नहि, ने बीजाथी रोकाय नहि तेने सूक्ष्मनामकर्म कहे छे; अने जेना उदयथी शरीर एवुं स्थूळ होय के ते बीजाने रोके ने बीजाथी रोकाई जाय तेने बादरनामकर्म कहे छे. धर्मी पुरुष कहे छे-हुं कर्म प्रकृतिने भोगवतो नथी, हुं तो चैतन्यस्वरूपने ज संचेतुं छुं.

‘हुं पर्याप्तनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१३३.

जे कर्मना उदयथी पोतपोताने योग्य पर्याप्ति पूर्ण थाय तेने पर्याप्ति नामकर्म कहे छे. तेना फळने धर्मी जीव भोगवतो नथी.

‘हुं अपर्याप्तनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१३४.

जे कर्मना उदयथी जीवनी लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था होय तेने अपर्याप्त नामकर्म कहे छे. जेनी एकपण पर्याप्ति पूर्ण न होय तथा श्वासना अढारमा भागमां ज मरण थवावाळुं होय तेने लब्ध्यपर्याप्तक कहे छे. धर्मी चारित्रवंत कहे छे- ते प्रकृतिना फळने हुं भोगवतो, नथी, आत्माने ज संचेतुं छुं.

‘हुं स्थिरनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१३प.

जे कर्मना उदयथी शरीरनी धातु अने उपधातु पोतपोताना स्थाने रहे तेने स्थिर नामकर्म कहे छे. हुं तेना फळने भोगवतो नथी.

‘हुं अस्थिरनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१३६.

जे कर्मना उदयथी शरीरनी धातु अने उपधातु पोतपोताना ठेकाणे न रहे तेने अस्थिरनामकर्म कहे छे. तेना फळने धर्मी भोगवतो नथी.

‘हुं आदेयनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१३७.

जे कर्मना उदयथी कान्तिसहित शरीर उपजे तेने आदेयनामकर्म कहे छे. धर्मात्मा कहे छे- तेना फळने हुं भोगवतो नथी.

‘हुं अनादेयनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१३८.

जे कर्मना उदयथी कान्तिसहित शरीर न उपजे तेने अनादेय नामकर्म कहे छे. धर्मी पुरुष तेना फळने भोगवतो नथी.


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‘हुं यशःकीर्तिनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं’ -१३९.

जे कर्मना उदयथी लोकमां जीवनी प्रशंसा थाय, नामना थाय तेने यशःकीर्तिनामकर्म कहे छे. तेना फळने धर्मी भोगवतो नथी. धर्मी कहे छे-बहारमां यश मळे ते हुं नहि, अंदर आत्माना गुणो प्रगटे ते वास्तविक यश छे. जेमां निराकुळ आनंदनुं वेदन थाय ते हुं छुं, तेमां मारो यश छे. हुं जश प्रकृतिने वेदतो नथी. बहारमां लोको प्रशंसा करे ए तो प्रकृतिनुं फळ छे, तेने हुं भोगवतो नथी, हुं तो अतीन्द्रिय आनंदना स्वरूपने ज वेदुं छुं. आवुं! समजाणुं कांई...?

‘हुं अयशःकीर्तिनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१४०.

जे कर्मना उदयथी जीवनी लोकमां प्रशंसा न थाय तेने अयशःकीर्तिनामकर्म कहे छे. तेना फळने धर्मी पुरुष भोगवतो नथी.

‘हुं तीर्थंकरनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१४१.

अर्हंतपदना कारणभूत कर्मने तीर्थंकर नामकर्म कहे छे. तेना फळने, धर्मी कहे छे, हुं भोगवतो नथी. अज्ञानी तीर्थंकर प्रकृतिनुं नाम सांभळी राजी राजी थई जाय, ज्यारे ज्ञानी कहे छे-तीर्थंकर प्रकृतिना फळने हुं भोगवतो नथी. अहाहा -! जुओ तो खरा! केटलो बधो फेर! बापु! जे भावे तीर्थंकर प्रकृति बंधाय ते भाव अबंध नथी, धर्म नथी, अने तेनाथी जे प्रकृति बंधाय तेने अहीं विषवृक्षनुं फळ कह्युं छे.

शास्त्रमां आवे के तीर्थंकर प्रकृति परंपरा मोक्षनुं कारण छे; परंतु ए तो निमित्तनुं कथन छे भाई! प्रकृति बंधाणी ए तो जड रजकण छे. तेने तो विषवृक्षनुं फळ कह्युं. वळी तेनो उदय क्यारे आवे? के केवळज्ञान थाय त्यारे. हवे त्यां प्रकृतिना फळमां संयोग आवे तेमां मारे शुं? हुं तो केवळज्ञानी छुं, सर्व लोकालोकनो जाणनारो छुं. भाई! धर्मी जीव तो पहेलेथी ज कहे छे के-तीर्थंकर प्रकृतिना फळने हुं नथी भोगवतो. तीर्थंकर प्रकृति बधाने न होय; जेने होय तेनी वात समजवी. अहीं तो सामान्यपणे बधी १४८ प्रकृतिओनी वात करी छे.

हवे गोत्रकर्मनी प्रकृतिना बे भेद छे तेनी वात करे छेः- ‘हुं उच्चगोत्रकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१४२.


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जे कर्मना उदयथी उच्च कुळमां जन्म थाय तेने उच्च गोत्रकर्म कहे छे. तेना फळने धर्मी भोगवतो नथी, उच्चगोत्रकर्मना उदयथी राजा थाय, मोटो शेठ थाय तेने धर्मी पुरुष भोगवतो नथी.

‘हुं नीचगोत्रकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१४३.

जे कर्मना उदयथी चंडाल आदि नीचकुळमां जन्म थाय तेने नीचगोत्रकर्म कहे छे. तेना फळने ज्ञानी भोगवतो नथी.

हवे अंतराय कर्मनी पांच प्रकृतिओ कहे छेः- ‘हुं दानांतरायकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१४४.

‘हुं लाभांतरायकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१४प.

‘हुं भोगांतरायकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१४६.

‘हुं उपभोगांतरायकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१४७.

‘हुं वीर्यांतरायकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१४८.

अहा! जे कर्म दानादिकमां विघ्न-अंतराय करे छे ते अंतराय कर्म छे, अने तेने, धर्मी कहे छे, हुं भोगवतो नथी. प्रकृतिना फळ प्रति मने लक्ष नथी, हुं तो नित्यानंदस्वरूप एक आत्माने ज संचेतुं छुं.

आ प्रमाणे ज्ञानी सकळ कर्मोना फळना संन्यासनी भावना करे छे. जेम सकळ पुण्य-पापना भावना संन्यासनी अर्थात् कर्मचेतनाना त्यागनी भावना करी तेम सकळ कर्मोना फळना संन्यासनी भावना करी.

‘अहीं भावना एटले वारंवार चिंतवन करीने उपयोगनो अभ्यास करवो ते. ज्यारे जीव सम्यग्द्रष्टि-ज्ञानी थाय छे त्यारे तेने ज्ञान-श्रद्धान तो थयुं ज के-“हुं शुद्धनये समस्त कर्मथी अने कर्मना फळथी रहित छुं.” परंतु पूर्वे बांधेलां कर्म उदयमां आवे तेमनाथी थता भावोनुं कर्तापणुं छोडीने, त्रणे काळ संबंधी ओगणपचास ओगणपचास भंगो वडे कर्मचेतनाना त्यागनी भावना करीने तथा सर्व कर्मनुं फळ भोगववाना त्यागनी भावना करीने, एक चैतन्यस्वरूप आत्माने ज भोगववानुं बाकी रह्युं .’


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एक बाजु एम कहे के- मुनिने, गणधर भगवानने पण रागनुं परिणमन होय छे ने वळी बीजी बाजु एम कहे के-सम्यग्द्रष्टि रागनो कर्ता नथी; आ केवी रीते छे?

समाधानः– सम्यग्द्रष्टि, मुनि, गणधर के छद्मस्थदशास्थित तीर्थंकरने पण भूमिका अनुसार व्रतादिना विकल्प थता होय छे. जेटलुं त्यां रागनुं परिणमन छे तेटला अंशे ते कर्ता छे. आ वात प्रवचनसारमां ४७ नयना अधिकारमां आवे छे. साधकने जेटला अंशे रागनुं परिणमन छे तेटला अंशे ते ते परिणमननो कर्ता छे, भोक्ता पण छे; परंतु सम्यग्द्रष्टिने, धर्मात्माने रागनी रुचि नथी, राग मारुं कर्तव्य छे एवी बुद्धि नथी, रागमां स्वामित्व नथी तेथी ते अकर्ता छे. राग करवालायक छे, भोगववालायक छे एवी मान्यता ज्ञानीने चोथे गुणस्थानेथी ज होती नथी तेथी ते अकर्ता छे, अभोक्ता छे. आवी वात छे. ज्यां जे अपेक्षाथी वात होय तेने ते रीते यथार्थ समजवी जोईए.

जुओ, परवस्तु-दाळ, भात, लाडु, शाक, स्त्रीनुं शरीर ईत्यादिने आत्मा भोगवी शकतो नथी; अज्ञानी पण तेने भोगवतो नथी. तेना लक्षे जे रागादि उपजे छे तेने अज्ञानी भोगवे छे अने माने छे के हुं परने भोगवुं छुं; आ अज्ञानी जीवनो मिथ्या भ्रम छे. अहीं एम कहे छे के राग अने द्वेषना भाव होवा छतां ज्ञानी तेने भोगवतो नथी, ते तो मात्र तेनो जाणनार-देखनार ज रहे छे; कर्ता-भोक्ता थतो नथी.

‘अविरत, देशविरत अने प्रमत्त अवस्थावाळा जीवने ज्ञान श्रद्धानमां निरंतर ए भावना तो छे ज; अने ज्यारे जीव अप्रमत्त दशा प्राप्त करीने एकाग्र चित्तथी ध्यान करे, केवळ चैतन्यमात्र आत्मामां ऊपयोग लगावे अने शुद्धोपयोगरूप थाय, त्यारे निश्चयचारित्ररूप शुद्धोपयोगभावथी श्रेणी चढीने केवळज्ञान उपजावे छे. ते वखते ए भावनानुं फळ जे कर्मचेतनाथी अने कर्मफळचेतनाथी रहित साक्षात् ज्ञानचेतनारूप परिणमन ते थाय छे, पछी आत्मा अनंत काळ सुधी ज्ञानचेतनारूप ज रहेतो थको परमानंदमां मग्न रहे छे.’

जुओ, चोथे, पांचमे, छट्ढे गुणस्थाने व्यवहारनयनो विषय-किंचित् राग होय छे, परंतु ज्ञानीने तेना त्यागनी भावना अर्थात् ज्ञाताद्रव्यनी भावना सदाय होय छे. ते वारंवार त्रिकाळी चैतन्यमात्र आत्मामां उपयोगने जोडे छे अने ए रीते शुद्धोपयोग जामे छे, द्रढ थाय छे.

सम्यग्दर्शन थवाना काळे पण शुद्धोपयोग तो होय छे. चोथे गुणस्थाने सम्यग्दर्शन थाय छे ते शुद्धोपयोगना काळे थाय छे. पछी पण कोई कोई वार ध्याता-ध्यान-ध्येयना विकल्पोथी छूटी ते शुद्धोपयोगमां आवी जाय छे. चोथे-पांचमे गुणस्थाने शुद्धोपयोग अल्पकाळ रहे छे तेथी तेने न गणतां सातमा गुणस्थाने शुद्धोपयोग जामी जाय छे तेने अहीं शुद्धोपयोग कह्यो छे. चारित्रदशानी ऊत्कृष्टता बताववी छे ने! तेथी त्यां


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सातमे गुणस्थाने शुद्धोपयोगरूप थाय छे एम कह्युं छे, केमके त्यां उपयोगनी स्थिरता थई छे. अहा! आवो शुद्धोपयोग थाय त्यारे निश्चयचारित्ररूप शुद्धोपयोग भावथी श्रेणी चडीने केवळज्ञान उपजावे छे. अने ते वखते ए भावनानुं फळ जे साक्षात् ज्ञानचेतनारूप परिणमन ते थाय छे. पछी ते अनंतकाळ ज्ञानचेतनारूप रह्यो थको परमानंदमां मग्न रहे छे.

सम्यग्द्रष्टिने पण ज्ञानचेतना तो होय छे; पण साथे पर्यायमां तेने कर्मचेतना अने कर्मचेतना पण होय छे; तेने ते जाणे-देखे ज छे ए बीजी वात छे. पण तेने किंचित् रागनुं वेदन अवश्य होय छे. कोई एम कहे के सम्यग्द्रष्टिने सर्वथा राग नथी, दुःख नथी तो ते एनी एकांत मिथ्या मान्यता छे. सम्यग्दर्शन थतां, द्रव्यद्रष्टिनी मुख्यतामां, तेने जे राग छे तेने गौण करीने नथी एम कहीए छीए ए बीजी वात छे, बाकी छठ्ठे, सातमे अने दसमा पर्यंत किंचित् आस्रव छे. ‘द्रव्यद्रष्टि प्रकाश’ मां सोगानीजीए शुभरागने भठ्ठी कहेल छे. छठ्ठे मुनिराजने जे व्रतादिना विकल्प आवे छे ते तेने भठ्ठी समान लागे छे. समकितीने एकली शुद्ध परिणति ज होय छे ए वात बराबर नथी.

समयसारनी अगियारमी गाथामां सर्व पर्यायोने अभूतार्थ कही छे; मोक्षमार्गनी अने केवळज्ञाननी पर्यायने पण त्यां अभूतार्थ कही छे. तेनो आशय शुं छे? भाई! ए तो पर्यायने गौण करीने, व्यवहार कहीने तेने अभूतार्थ-असत्यार्थ कही छे, अने त्रिकाळी द्रव्यने मुख्य करी, निश्चय कही भूतार्थ कहेल छे. त्यां तो बापु! त्रिकाळी द्रव्यनो ज आश्रय कराववानुं प्रयोजन छे एम यथार्थ समजवुं. ज्यां ए अपेक्षाथी वात होय तेने बराबर मेळवीने यथार्थ समजवुं जोईए. एमां जराय फरक पडे तो बधुं ज फरी जाय. समजाणुं कांई....?

निश्चयनी मुख्यताथी कह्युं होय के समकितीने आस्रव-बंध नथी, त्यां एकांत पकडी ले के चोथा गुणस्थानवाळाने राग छे ज नहि तो तेम वस्तुनुं स्वरूप नथी. दसमे गुणस्थाने पण सूक्ष्म राग होय छे. ज्यां (राग) नथी एम कह्युं होय त्यां गौण करीने द्रष्टिनी प्रधानतामां नथी एम कह्युं छे एम यथार्थ समजवुं. बाकी ज्यां सुधी पूर्ण वीतरागता ने पूर्ण आनंद प्रगटयो नथी त्यां सुधी दुःखनुं वेदन अवश्य छे ज.

जुओ, मिथ्याद्रष्टिने बिलकुल आनंद नथी, एकलुं दुःख ज छे; केवळीने बिलकुल दुःख नथी, एटलुं सुख ज छे. साधकने आनंद अने दुःख बन्ने यथासंभव साथे छे; अने तेथी तो ते साधक कहेवाय छे. पर्यायमां तेने अंशे बाधकभाव पडयो छे. त्यां जेटली अस्थिरता छे तेटलो आस्रव-बंध छे. ज्यां सुधी यथाख्यात चारित्रनी पूरण रमणता न थाय त्यां सुधी ज्ञानीने आस्रव-बंध छे, दुःख छे.

प्रश्नः– तो समकितीने आस्रव-बंध नथी एम कह्युं छे ने?


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उत्तरः– हा, कह्युं छे; पण कई अपेक्षाए? ए तो मिथ्यात्व अने अनंतानुंबुधीनो अभाव तेने थयो छे ए अपेक्षाए त्यां वात करी छे. मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधीने ज मुख्यपणे आस्रव-बंध गणेल छे ए अपेक्षाए वात छे. अहीं कहे छे- ज्यारे जीव अप्रमत्त दशाने प्राप्त करीने केवळ चैतन्यमात्र आत्मामां उपयोगने जोडी दे, जडी दे अने शुद्धोपयोगरूप थाय त्यारे श्रेणी चडीने केवळज्ञान उपजावे छे अने ते वखते जे कर्मचेतनाथी अने कर्मफळचेतनाथी रहित साक्षात् ज्ञानचेतनारूप परिणमन ते थाय छे; पछी आत्मा अनंतकाळ सुधी ज्ञानचेतनारूप रहेतो थको परमानंदमां मग्न रहे छे.

‘सादि अनंत अनंत समाधि सुखमां’

एम तो ज्ञानचेतना अंशे चोथा गुणस्थाने प्रगट थाय छे. पंचास्तिकायमां (गाथा ३९ मां) जे एम कह्युं छे के ज्ञानचेतना केवळीने ज होय छे ए तो त्यां पूर्णतानी अपेक्षाए वात छे; बाकी ज्ञानचेतनारूप अनुभव चोथे गुणस्थानेथी शरू थाय छे. रागथी खसीने ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मामां एकाग्र थवुं ते ज्ञानचेतना छे, अने ते चोथेथी शरू थाय छे. सम्यग्द्रष्टिने ज्ञानचेतना होय छे, पण पूर्ण नथी, साथे कर्मचेतना अने कर्मफळचेतना पण होय छे.

अहाहा...! अहीं कहे छे- साक्षात् ज्ञानचेतनारूप परिणमन थाय पछी आत्मा अनंतकाळ सुधी ज्ञानचेतनारूप रहेतो थको परमानंदमां मग्न रहे छे. जुओ, त्रिकाळी शुद्ध एक ज्ञायकभावना आश्रये जे निर्मळ रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग प्रगटयो तेनो काळ असंख्य समय छे; अने तेनुं फळ जे केवळज्ञान अने मोक्षदशा प्रगटी तेनो काळ अनंत छे. साधकपणानो काळ असंख्य समय छे, अनंत नहि अने सिद्धदशा प्रगटे तेनो काळ अनंत छे. अहाहा...! आत्मा द्रव्य छे तेनो काळ अनादि-अनंत छे. तेमां मिथ्याद्रष्टि भव्य जीवनो संसार अनादि-सांत छे, साधकपणानो काळ सादि-सांत असंख्य समय छे, अने तेनुं फळ जे सिद्धदशा तेनो काळ सादि-अनंत अनंत छे. अहाहा...! परम सुखमय सिद्धदशा प्रगटी ते हवे अनंत अनंतकाळ रहेशे. कह्युं ने अहीं के-अनंतकाळ सुधी ज्ञानचेतनारूप ज रहेतो थको परमानंदमां मग्न रहे छे. अहाहा...! सिद्ध परमात्मा अनंतकाळ सुधी परमानंदमां मग्न रहे छे.

प्रवचनसार गाथा १९८ ना भावार्थमां कह्युं छे के-“सर्वज्ञ भगवानने कोई पदार्थ प्रत्ये अभिलाषा, जिज्ञासा के संदेह नथी तो पछी तेओ कया पदार्थने ध्यावे छे? आ गाथामां तेनो उत्तर आ प्रमाणे आपवामां आव्यो छे.

एक अग्रनुं-विषयनुं संवेदन ते ध्यान छे. सर्व आत्मप्रदेशे परिपूर्ण आनंद अने ज्ञानथी भरेला सर्वज्ञ भगवान परमानंदथी अभिन्न एवा निजात्मारूपी एक विषयनुं संवेदन करता होवाथी तेमने परमानंदनुं ध्यान छे; अर्थात् तेओ परम सौख्यने


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ध्यावे छे.” अहाहा...! शुद्धोपयोगना फळमां जे परमानंदमय दशा प्रगटी तेमां सादि अनंतकाळ तेओ मग्न रहे छे. आवी वात! समजाणुं कांई...?

*

हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश २३१ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

(सकळ कर्मोना फळनो त्याग करी ज्ञानचेतनानी भावना करनार ज्ञानी कहे छे केः) एवं’ पूर्वोक्त रीते ‘निःशेष–कर्म–फल–संन्यसनात्’ समस्त कर्मना फळनो संन्यास करवाथी ‘चैतन्य–लक्ष्म आत्मतत्त्वं भृशम्’ भजतः सर्व–क्र्रियान्तर–विहार–निवृत्त–वृत्तः’ हुं चैतन्य जेनुं लक्षण छे एवा आत्मतत्त्वने अतिशयपणे भोगवुं छुं अने ते सिवायनी अन्य सर्व क्रियामां विहारथी मारी वृत्ति निवृत्त छे (अर्थात् आत्मतत्त्वना भोगवटा सिवायनी अन्य जे उपयोगनी क्रिया-विभावरूप क्रिया-तेमां मारी परिणति विहार करती नथी-प्रवर्तती नथी);

अहाहा......! ज्ञानी कहे छे के..... , ज्ञानी एटले? निज चैतन्यस्वभावना आश्रये जेणे अंदर ज्ञानचेतना प्रगट करी छे ते ज्ञानी छे.

भाई! आ शरीर तो जड माटी-धूळ छे. भगवान आत्मा एनाथी भिन्न चीज छे. मरी जाय त्यारे देहथी भिन्न एम नहि, अत्यारे पण देहथी आत्मा भिन्न वस्तु छे. अरे, मरे कोण? जड के चेतन? कोई ज मरतुं नथी; फक्त देहनी (परमाणुनी) अवस्था बदली जाय छे. हाड-मांसनुं पोटलुं छे ते बदलीने मसाणनी राख थाय छे; बस. ते कांई आत्मा नथी. वळी पर्यायमां थता विकारी भावोथी पण अंदर शुद्ध चैतन्य तत्त्व भिन्न छे. बापु! विकारवाळो अज्ञानीए पोताने मान्यो छे. ए तो एनी मिथ्या कल्पना छे, भ्रम छे, वस्तु क्यां एवी छे? भगवान सर्वज्ञदेव फरमावे छे के तारुं चैतन्यतत्त्व अंदर कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनाथी भिन्न छे. विकारी भावमां एकाग्र थई ने चेतवुं ते कर्मचेतना छे, ने तेमां हरख-शोक थाय ते कर्मफळचेतना छे; बन्ने दुःखदायक छे. अहाहा...! ए बन्नेथी भिन्न पडी अंदर चिन्मात्र निज स्वरूपना आश्रये ज्ञानचेतना प्रगट करी छे तेने ज्ञानी कहीए.

आत्मा वस्तु त्रिकाळ छे, तेनो ज्ञानानंदस्वभाव पण त्रिकाळ छे. अहा! आवा निज स्वभावनुं भान करी अंतर-एकाग्रताथी आनंदनी रमतमां जोडावुं तेनुं नाम ज्ञानचेतना छे. जुओ, ईन्द्रियना विषयोने आत्मा भोगवतो नथी, केमके तेओ जड माटी-धूळ छे. पण भोग-विषय मारा छे, मने तेमां ठीक छे एवो जे भाव-अभिप्राय छे ते महापाप छे. ते विकारी भावनुं वेदन ते पापनुं वेदन छे, दुःखनुं वेदन छे. अहा! तेना तरफनुं


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अमेरिकामां कोई जाय अने त्यां मासिक दस-वीस हजार डोलर मळे एटले मानी ले के अमे सुखी; पण बापु! ए धूळमां (-डोलरमां, धनमां) क्यां सुख छे? अज्ञानी पागल लोको तेमां सुख मानो तो मानो, वास्तवमां तो तेना लक्षे जीव दुःखी ज छे, अहाहा...! सुखनो भंडार तो अंदर सुखधाम प्रभु निज ज्ञानानंदस्वभावी आत्मा छे. आवा निज स्वरूपनी सन्मुख थई तेना शरणमां जतां, तेमां ज एकाग्र थतां ज्ञानचेतना प्रगट थाय छे, अने ते भवनो अंत करनारी अने परम सुखनी देनारी छे; एने धर्म कहेवामां आवे छे. बाकी परना लक्षे थनारा पुण्य-पापना भाव तो चारगतिमां परिभ्रमण करावनारा दुःखना भाव छे. शुभभाव आवे एय दुःखरूप ज भाव छे. समजाणुं कांई...?

कोई पांच-पचीस लाख दानमां आपे अने त्यां रागनी मंदता होय तो तेने पुण्यबंध थाय, धर्म नहि. वळी दान आपती वेळा में पैसा आप्या एवुं जो अंदर शल्य होय तो तो एकलुं पाप ज बांधे. बहु आकरी वात बापा! पण शुं थाय? वस्तुस्थिति आवी छे. कदाचित् रागनी मंदता करी होय तो ते वडे पुण्यबंध थाय; पण बंध ज थाय, धर्म नहि; केमके ते शुभभाव पण आत्माना स्वभावथी विरुद्ध भाव छे; अंदर सच्चिदानंद प्रभु विराजे छे तेने घायल करनारो ते विरुद्ध भाव छे. आवी वात छे. समजाणुं कांई..?

अहीं जेने ज्ञानचेतना प्रगट थई छे ते ज्ञानी कहे छे- रागरूपी कर्म अने तेनुं फळ-ए मारी चीज नहि; हुं तो ज्ञानस्वरूप छुं. समस्त कर्मना फळनो संन्यास करवाथी चैतन्य जेनुं लक्षण छे एवा शुद्ध आत्मतत्त्वने हुं अतिशयपणे भोगवुं छुं. अहाहा...! कहे छे-शुभाशुभ भाव अने तेनाथी थता हरख-शोकना भाव-तेनो त्याग करीने हुं चैतन्यलक्षण एक निजतत्त्वने अतिशयपणे अनुभवुं छुं. अहाहा...! जाणवुं-देखवुं एक जेनुं लक्षण छे एवा आनंदना नाथ परमानंदस्वरूप प्रभु निज आत्मस्वरूपने हुं संचेतुं- वेदुं छुं, भोगवुं छुं. आवी वात!

अरे! ८४ लाख योनिमां अवतार धरीधरीने अनंतकाळ ए रझळी मर्या छे! मोटो अबजोपति पण अनंतवार थयो अने भटकतो भिखारी पण अनंतवार थयो. ढोरमां अने नरकमां पण अनंतवार जन्म्यो. भाई! तारा जन्म-मरणना दुःखनी शुं कथनी कहीए? क्यांय पण तने आत्मानी सुख-शान्ति न मळ्‌यां; केमके सुखनो भंडार तो पोते छे तेनी नजर करी नहि.

अरे भाई; तुं विचार तो खरो के तुं कोण छो? अहीं कहे छे-हुं तो चैतन्य


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जेनुं लक्षण छे एवुं आत्मतत्त्व छुं. शुं कीधुं? आ रळवा-कमावाना भाव जे तने थाय छे ते पापतत्त्व छे, ने दया, दानना भाव पुण्यतत्त्व छे. अने एनाथी भिन्न अंदर चैतन्यना उपयोगस्वरूप आत्मतत्त्व छे. भाई! भगवान केवळी देवाधिदेव अरिहंत परमात्माए ईन्द्रो ने गणधरोनी उपस्थितिमां धर्मसभामां फरमावेली आ वात छे. जुओ, ज्ञानी पुरुष कहे छे-हुं चैतन्यलक्षण एक आत्मतत्त्वने अतिशयपणे भोगवुं छुं. जुओ, आ धर्मनी रीत!

अरे, अज्ञानी जनो रातदिवस (पुण्य-पापना विकल्पोनी) मजुरी कर्या करे छे, पण पोतानी जराय दरकार करता नथी. तेथी घणा जीवो तो बिचारा मरीने ढोरमां चाल्या जाय छे. पुण्य-पापना भाव मारा-एम स्वभाव विरुद्ध आडोडाई करीने! ए आडोडाईना फळमां शरीर पण आडां ढोरनां मळे छे. अने मांस खानारा, मदिरानुं सेवन करनारा ने शिकार खेलनारा बधा हिंसक जीवो नरकमां जाय छे. त्यां तेओ अति तीव्र असह्य दुःखो भोगवे छे. आवा हिंसक लोकोनी नरकमां पार्लामेन्ट मळे छे, त्यां तेओ परस्पर वेर वसुल करे छे ने तीव्र दुःख सहे छे. वळी कोई जीवो दया, दान, व्रत, भक्ति आदि विशेष शुभभाव वडे मरीने स्वर्गे जाय छे. त्यां पण मिथ्यादर्शन वडे तेओ दुःखी ज छे. कांईक सरळता होयने पुण्य उपजावे तो जीव मरीने मनुष्यपणुं पामे छे. आ चारेय गतिमां जीव भम्यां ज करे छे ने दुःखी थया करे छे ज्यारे धर्मी पुरुष कहे छे- अमे तो पुण्य-पापथी रहित थईने एक आत्माना आनंदने भोगवीए छीए, अमे अतिशयपणे सुखी छीए. आवे छे ने के--

सुखिया जगतमां संत, दुरिजन दुःखिया रे.

अहा! चैतन्यलक्षणे लक्षित निज शुद्धात्माने धर्मी पुरुष अनुभवे छे; ते महा सुखी छे. अहा! आत्मतत्त्वना भोगवटा सिवायनी अन्य जे क्रिया-विभावक्रिया तेमां धर्मी पुरुषनी परिणति विहार करती नथी, प्रवर्तती नथी. अहा! धर्मी कहे छे- जेटला पुण्य-पापना भाव छे ते विकारी भाव मारी भोगववानी क्रियाथी अनेरा छे, जुदा छे; ते दुःखना भावमां मारी वृत्ति विहार करती नथी; अतीन्द्रिय आनंदने भोगववा सिवायनी अन्य हरकोई क्रियामां मारी वृत्ति विहार करती नथी.

जुओ क्रियाना त्रण प्रकार छेः १. शरीर, मन, वाणीनी क्रिया ते जडनी क्रिया छे; तेने आत्मा करतो नथी. २. पुण्य-पापना भाव थाय ते विभाव क्रिया छे, ते दुःखरूप छे; ज्ञानीनी वृत्ति ते क्रियाथी निवृत्त छे.


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३. विभावथी भिन्न पडी अंदर चैतन्यस्वभावमां एकाग्रतानो अभ्यास करवो ते स्वभाव क्रिया छे, धर्मनी क्रिया छे. आनुं नाम चारित्र छे.

पर जीवोनी दया पाळवी ते चारित्र एम नहि; बापु! परनी दया तो कोण करी शके छे? परने कोण बचावी शके छे? सामा जीवनुं आयुष्य होय तो बचे छे, बाकी कोण बचावे? भाई! तुं (-आत्मा) जेवडो अने जेटलो छुं तेवडो ने तेटलो मानी ने तेमां ठरे ते साची दया छे, स्वदया छे. स्वदया ते साची दया, बाकी तो व्यवहार छे. मुनिराजने पण पर दयानो भाव आवे, पण ते पुण्य छे, धर्म नहि, वास्तविक दया नहि. अहीं चारित्रवंत धर्मी पुरुष कहे छे- शुभाशुभभावनी क्रियामां विहार करवाथी मारी वृत्ति निवृत्त छे. अहा! स्वदेशमां-निज चैतन्यधाममां-विहार करवानुं छोडी पुण्य-पापरूप परदेशमां हवे अमे केम भटकीए?

बेनश्रीना वचनामृतमां आवे छे के- विभाव ते अमारो देश नहि, ए तो परदेश छे. अहीं धर्मी पुरुष कहे छे- निजानंदमय स्वदेशने छोडी विभावरूप परदेशमां विहार करवाथी अमारी वृत्ति निवृत्त छे. हवे आवी वात सांभळवाय मळे नहि ते बिचारा शुं करे? स्वरूप संपदानी खबर विना तेओ बिचारा रांका दुःखी छे. आ अबजोपति बधा रांका दुःखी छे हो. बहु आकरी वात बापा!

आ तो चारित्रनी व्याख्या छे. स्वरूपमां अंदर रमवुं तेनुं नाम चारित्र छे. आत्मा (-परिणति) आत्माराममां चरे-रमे तेने चारित्र कहीए. धर्मी पुरुष कहे छे- ‘अचलस्य मम’ एम आत्मतत्त्वना भोगवटामां अचळ एवा मने, ‘इयम् काल–आंवली’ काळनी आवली के जे ‘अनन्ता’ प्रवाहरूपे अनंत छे ते, ‘वहतु’ आत्मतत्त्वना भोगवटामां ज वहो -जाओ. (उपयोगनी वृत्ति अन्यमां कदी पण न जाओ).

जुओ, आ धर्मात्मानी भावना! ते अनंतकाळ पर्यंत स्वस्वरूपमां ज रहेवानी भावना करे छे.

* कळश २३१ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आवी भावना करनार ज्ञानी एवो तृप्त थयो छे के जाणे भावना करतां साक्षात् केवळी ज थयो होय; तेथी ते अनंतकाळ सुधी एवो ज रहेवानुं चाहे छे. अने ते योग्य ज छे; कारण के आ ज भावनाथी केवळी थवाय छे. केवळज्ञान उपजवानो परमार्थ उपाय आ ज छे.’

जुओ, आ अंतर-रमणतानी चारित्रनी वात छे. सम्यग्दर्शन पछी अंदर जेने स्वरूप-रमणतानी जमावट थई छे ते एवो तृप्त-तृप्त थयो छे के भावना करतां करतां जाणे साक्षात् केवळी ज थयो होय. हवे तेने स्वस्वरूपमांथी बहार नीकळवुं ज गमतुं नथी; अनंत काळ स्वरूपमां ज रहेवा चाहे छे. पं. जयचंदजी कहे छे- ते योग्य ज


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छे, केमके आ ज भावनाथी केवळी थवाय छे. व्रत, तप, आदि क्रियाकांडना विकल्पथी कांई केवळज्ञान प्रगटतुं नथी. स्वरूपनो अनुभव, तेनो अभ्यास अने स्वरूपरमणतानी जमावट-बस आज एक उपाय छे. हवे कहे छे. --

‘बाह्य व्यवहारचारित्र छे ते आना ज साधनरूप छे; अने आना विना व्यवहार चारित्र शुभकर्मने बांधे छे, मोक्षनो उपाय नथी.’

बाह्य व्यवहारचारित्र छे ते आना ज साधनरूप छे-एटले शुं? के जेने अंतरंगमां स्वरूपनी रमणतारूप साधन प्रगटयुं छे तेने सहचरपणे रागांश विद्यमान होय छे तेने व्यवहारथी साधन कहीए छीए. आ (व्यवहार) साधनथी साध्य प्रगटे छे एम अर्थ नथी. साध्य नाम मोक्षनुं साधन तो स्वरूपरमणता ज छे. पण रागांशने तेनो सहचर वा निमित्त जाणी तेने व्यवहारथी साधन कहेवामां आवे छे; ते कांई वास्तविक साधन नथी. समजाणुं कांई...?

वास्तविक साधन विना व्यवहारचारित्र कांई ज नथी, अर्थात् ते शुभकर्मने ज बांधे छे. अहाहा...! अंतरंगमां शुद्ध स्वरूपना आश्रये स्वानुभव अने स्वरूपलीनता थया विना व्रत, तप आदि जे रागना परिणाम छे ते पुण्यबंधनुं ज कारण थाय छे, ते भवबंधनुं ज कारण थाय छे, ते कांई मोक्षनो उपाय नथी.

अहा! पोताना स्वरूपना भान विना कोई राज्य छोडे, राणीओ छोडे, पंचमहाव्रतनुं पालन करे, पण ए बधी क्रिया बंधनुं-संसारनुं ज कारण थाय छे. अंदर आत्मा पोते वीतरागस्वभावी छे तेमां लीनता-स्थिरता थतां चारित्र प्रगटे छे. तेने सहचरपणे मंदराग होय छे तेने व्यवहार साधन कहेवामां आवे छे. परंतु समकित थया विना एकला क्रियाकांड-व्रत, तप, भक्ति आदि संसारनुं ज कारण बने छे; ते मोक्षनुं कारण नथी.

आत्मा अतीन्द्रिय आनंदनुं दळ छे. तेनो अनुभव करवो अने तेनी लीनता करवी ते मोक्षमार्ग छे. ते विनाना कोरा क्रियाकांड ते मोक्षनो उपाय नथी, बंधननो मार्ग छे. आवी चोकखी वात छे. भाई! व्रतादिना रागने कोई मोक्षनुं कारण माने तो ते अज्ञानी छे. अहीं आ स्पष्ट कहे छे के-आत्माना अनुभव विना व्यवहारचारित्र शुभकर्मने बांधे, पुण्यने बांधे; तेनाथी भव मळशे, मोक्ष नहि. आवी वात छे.

*

फरी काव्य कहे छेः-

* कळश २३२ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘पूर्व–भाव–कृत–कर्म–विषद्रुमाणां फलानि यः न भुंक्ते’ पूर्वे अज्ञानभावथी करेलां जे कर्म ते कर्मरूपी विषवृक्षोनां फळने जे पुरुष (तेनो स्वामी थईने) भोगवतो नथी अने


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‘खलु स्वतःएव तृप्तः’ खरेखर पोताथी ज (आत्मस्वरूपथी ज) तृप्त छे, ‘सःआपात– कालरमणीयम् उदर्क रम्यम् निष्कर्म–शर्ममयम् दशान्तरम् एति’ ते पुरुष जे वर्तमान काळे रमणीय छे अने भविष्यमां पण जेनुं फळ रमणीय छे एवी निष्कर्म-सुखमय दशान्तरने पामे छे (अर्थात् जे पूर्वे संसार-अवस्थामां कदी थई नहोती एवी जुदा प्रकारनी कर्मरहितस्वाधीन सुखमय दशाने पामे छे).

जोयुं? कहे छे- पूर्वे अज्ञानदशामां जे कर्म बांध्युं हतुं तेनुं फळ चैतन्यना प्राणोनो घात करनारुं विषवृक्षनुं फळ छे. भगवान आत्मा अमृतनुं झाड छे, अने कर्मनुंफळ तो विषवृक्षनो पाक छे. बे भिन्न वस्तु छे भाई! अहाहा..! भगवान आत्मा अमृतस्वरूप छे. तेने अवलंबीने परिणमतां सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्ररूप अमृतनां फळ पाक्यां छे. पण पूर्वे अज्ञानदशा हती. अहा! ते अज्ञानदशामां अज्ञानथी जे कर्म बंधायां तेनुं फळ विषवृक्षनुं फळ छे. ते कर्मना फळरूपे शातानो उदय आवे के अशातानो उदय आवे-ते बधुंय विषवृक्षनुं फळ छे. अहीं धर्मी पुरुष कहे छे- अंतरंगमां निश्चळ चारित्रभावने प्राप्त एवो हुं ते कर्मना फळने भोगवतो नथी. तीर्थंकरनामकर्मनी प्रकृतिनो उदय आवे ते पण विषवृक्षनुं फळ छे. ए तो ज्यारे केवळज्ञान थाय त्यारे तीर्थंकर प्रकृतिनो उदय आवे छे, अने भगवान केवळी तेना फळने भोगवता नथी. आवी वात छे.

समयसारमां ४७ शक्तिओमां सौ प्रथम जीवत्व शक्ति कही छे. बीजी गाथामां ‘जीवो चरित्त–दंसण–णाणठिदो’ एम कह्युं छे ने? त्यां जीवो’ शब्द पडयो छे एमांथी जीवत्वशक्ति काढी छे. निर्मळ दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां स्थित थयो तेनुं जीवन जीवन छे अने तेने जीव कह्यो छे. बाकी राग-द्वेष-मोहना भावमां रमे तेने जीव केम कहीए? ते तो अनात्मा छे, तेने व्यवहार आत्मा कहीए एनो अर्थ ज ए छे के निश्चयथी ते अनात्मा छे.

अहीं कहे छे- कर्मरूपी विषवृक्षनां जे फळ छे तेने ज्ञानी भोगवतो नथी, केमके ज्ञानी तेनो स्वामी थतो नथी. ७३मी गाथामां (समयसारमां) कह्युं छे के-पुण्य- पापना भावोनुं स्वामी पुद्गल द्रव्य छे, आत्मा नहि. भाई! द्रष्टि अने द्रष्टिना विषयमां विकारनी वृत्ति नथी; माटे ते विकारी भावनो स्वामी जड पुद्गलकर्म छे. समजाणुं कांई...?

तो प्रवचनसारमां छेल्ले एम आवे छे के-मारा विकारी अने अविकारी जेटला धर्मो छे तेनो हुं अधिष्ठाता छुं; मारा अनंतधर्मोनो हुं स्वामी छुं?

समाधानः भाई! ज्यां जे अपेक्षाथी वात होय त्यां ते अपेक्षाथी ते यथार्थ समजवी जोईए. ए तो पर्यायमां जे विकार थाय छे ते परद्रव्यना कारणे नहि, पण ते पोतानी पर्यायनी योग्यताथी ज थाय छे एम त्यां कहेवुं छे. सर्वविशुद्धज्ञान


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अधिकारमां पण कह्युं छे के-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट थाय ते आत्मा छे, अने पुण्य-पापना विकल्प थाय ते पण आत्मा छे. त्यां पण जे पुण्य-पापना भाव पर्यायमां थाय ते परमां थता नथी अने परद्रव्य तेनुं कर्ता नथी-एम परद्रव्यथी पोताने भिन्न सिद्ध कर्यो छे. भाई! द्रव्य-पर्याय, भेद-अभेद ईत्यादि बधां पडखानुं (स्याद्वादथी) यथार्थ ज्ञान करवुं जोईए.

अरे! वस्तुनुं अनेकान्त स्वरूप एणे जेवुं छे तेवुं जाण्युं नथी! अनेकान्तनुं फळ तो बापु! अमृत छे. द्रष्टि अने द्रष्टिना विषयनी वात चालती होय त्यारे एम कहे के सम्यग्द्रष्टिने आस्रव-बंध नथी. पण एनो अर्थ शुं? तेनो अर्थ एम छे के सम्यग्द्रष्टिने मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी संबंधी आस्रव-बंध नथी. सम्यग्द्रष्टिने आस्रव (-मंदराग पण) कर्तव्य छे एम अभिप्राय नथी, पण तेने पर्यायमां सर्वथा आस्रव-बंध छे ज नहि एम अर्थ नथी. यथाख्यात चारित्र प्रगट न थाय त्यां सुधी यथासंभव ज्ञानीने किंचित् आस्रव-बंध छे.

अहाहा...! ज्ञानी कहे छे--हुं तो त्रिकाळ शुद्ध एक चैतन्यमात्र प्रभु आत्मा छुं. ज्ञानानंद-स्वभाव ते मारुं स्वरूप छे, राग कांई मारुं स्वरूप नथी. तेथी रागनो हुं स्वामी नथी. शुं कीधुं? राग छे, पण ज्ञानी स्वामी नथी. स्वामीपणे ज्ञानी रागने भोगवतो नथी. ज्ञानी तो निज ज्ञानानंदस्वरूपमां लीन छे अने निज स्वरूपथी ज खरेखर ते तृप्त छे, परितृप्त छे.

‘चरित्तं खलु धम्मो’ एम कह्युं छे ने? अहाहा..! मोक्षनुं कारण एवा ए चारित्र नाम धर्मनी अहीं व्याख्या छे. कहे छे- जे कर्मफळने भोगवतो नथी एवो ज्ञानी खरेखर पोताना स्वरूपथी ज तृप्त छे. केवो तृप्त छे? के ते पुरुष जे वर्तमान काळे रमणीय छे अने भविष्यमां पण जेनुं फळ रमणीय छे एवी निष्कर्म सुखमय दशांतरने ते पामे छे.

हवे आमां व्रत, तप, भक्ति, जात्रा-ते चारित्र एम क्यां वात छे? अहाहा...! अतीन्द्रिय आनंदनो सागर बेहद ज्ञानानंदस्वभावी प्रभु आत्मा छे तेने साक्षात् अनुभवमां लई तेमां ज ठरी जवुं ते चारित्र छे. अहाहा...! जेनुं फळ पूरण शुद्धता- वीत-रागता छे तेनुं नाम चारित्र छे. चारित्रमां रागनुं स्वामीपणुं ने रागनुं कर्तापणुं छे ज नहि--अहाहा..! राग अने रागना फळने चारित्रवंत पुरुष करतो य नथी ने भोगवतोय नथी.

रागनुं फळ ज्ञानीने खरेखर आवतुं ज नथी. किंचित् राग आवे तेने ते केवळ जाणे-देखे छे, तेनो ते स्वामी थतो नथी. बहु झीणी वात प्रभु! निर्जरा अधिकारमां गाथा १९४मां कह्युं छे- “उत्पन्न थयेला ते सुख-दुःखने वेदे छे-अनुभवे छे, पछी ते सुखदुःख भाव निर्जरी जाय छे.” अशुद्धता उत्पन्न थईने ज्ञानीने खरी जाय छे. अशुद्धताना काळे ज्ञानीने किंचित् सुख-दुःख तो थाय छे पण तत्काळ ते खरी जाय


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आत्मामां अनंता गुण अने पर्यायनां अनंतां पासां छे. विकारी-अविकारी पर्यायोनो समुदाय ते द्रव्य-एम मोक्षमार्गप्रकाशकमां सातमा अने नवमा अधिकारमां कह्युं छे. अहा! शुद्ध-अशुद्ध पर्यायोनो पिंड ते द्रव्य छे. अशुद्ध पर्याय पण अंदर द्रव्यमां छे, ते द्रव्यनी वस्तु छे. पूर्वे अशुद्धता हती, ने वर्तमान अशुद्धता छे एम जे न माने तेने (-ते निश्चयाभासीने) आ कह्युं छे के शुद्ध पर्यायो अने अशुद्ध पर्यायोनो पिंड ते द्रव्य छे. अहो! मोक्षमार्गप्रकाशकमां स्याद्वाद शैलीथी तत्त्वनुं स्वरूप-द्रव्य-पर्यायनी शुद्धता-अशुद्धता जेम जे रीते छे तेम अत्यंत स्पष्ट करवामां आवेल छे. अहो! समकिती जीवनुं ज्ञान- श्रद्धान यथातथ्य होय छे. त्यां रहस्यपूर्ण चिट्ठीमां कह्युं छे के-तीर्यंचना जीवनुं समकित अने सिद्धनुं समकित समान छे; बेना समकितमां फरक नथी. स्थिरतामां फेर छे.

अहीं कहे छे- चारित्रवंत धर्मी पुरुष ‘स्वतः एव तृप्तः’ पोताना स्वरूपथी ज तृप्त छे, अर्थात् अतीन्द्रिय आनंदनो महासागर तेने पर्यायमां उछळे छे. किंचित् राग थाय तेने ते मात्र जाणे ज छे. अहा! निज निर्मळ ज्ञानानंद-स्वभावनो अनुभवी ज्ञानी पूर्वकर्मना फळमां जोडातो नथी. स्थिरताभर्या आचरणमां रमता मुनिवरने वर्तमानमां रमणीय सुखनो अनुभव वर्ते छे, अने भविष्यमां तेनुं फळ आवे ते पण रमणीय निष्कर्म पूरण सुखमय दशा छे. हवे चारित्रनी आवी वात छे, त्यारे लोको चारित्रने दुःखदायक माने छे. एम के चारित्र धारवुं ते लोढाना चणा चाववा जेवुं कष्टदायक छे. अरे भाई! तने चारित्रना वास्तविक स्वरूपनी खबर नथी, जो तो खरो, मुनिपद अंगीकार करनारो दीक्षार्थी माता पासे आज्ञा मागवा जाय त्यारे एम कहे छे के-जनेता! हुं आनंदने साधवा वनवास जाउं छुं; माता! मने रजा दे. माता! हुं कोलकरार करीने कहुं छुं के स्वरूपनी रमणतामां स्थिर थईने हुं परम सुखनी सिद्धिने पामीश; माता! हवे हुं बीजी माता नहि करुं, बीजी मातानी कूखे हवे हुं नहि अवतरुं. भाई! चारित्र तो आवा परम सुखनुं देनारुं छे.

चारित्र कोई अलौकिक चीज छे बापु! अतीन्द्रिय आनंदना स्वरूपमां रमवुं ते चारित्र छे. स्वरूपनी रमणतानी उग्रता ते तप छे. आ बहारना उपवास करे ते तप एम नहि. स्वरूपनी रमणतानो उग्र पुरुषार्थ करे त्यां ईच्छानो सहेजे अभाव वर्ते तेनुं नाम तप छे. जेमां अति प्रचुर आनंदनुं वेदन छे एवी स्वरूपलीनता ते चारित्र छे अने ते आनंदनी धारा वर्द्धमान थती थकी मुक्ति-पूर्णानंदनी दशा थई जाय छे. कह्युं ने अहीं के- वर्तमान काळमां चारित्र रमणीय सुखमय अने भविष्यकाळमां तेनुं फळ


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जे आवे ते पण रमणीय निष्कर्म सुखमय दशांतर छे. अहो! चारित्रवंत पुरुष अंतर- लीनताना अति उग्र पुरुषार्थ वडे पूर्वे संसार दशामां कदीय थई न होती एवी विशिष्ठ प्रकारनी सर्वकर्मरहित स्वाधीन सुखमय पूर्णानंदनी दशाने पामे छे. अहा! एक श्लोकमां केटलुं भर्युं छे! भगवाननी दिव्यध्वनिनो सार भर्यो छे.

* कळश २३२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञानचेतनानी भावनानुं आ फळ छे. ते भावनाथी जीव अत्यंत तृप्त रहे छे- अन्य तृष्णा रहेती नथी, अने भविष्यमां केवळज्ञान उपजावी सर्व कर्मथी रहित मोक्ष- अवस्थाने पामे छे.’

जुओ, रागमां एकाग्र थवुं ते कर्मचेतना छे अने हरख-शोकमां एकाग्र थवुं ते कर्मफळचेतना छे. तेनाथी भिन्न अंदर भगवान आत्मा ज्ञानानंदस्वभावी चिन्मात्र वस्तु छे तेमां एकाग्र थवुं ते ज्ञानचेतना छे. ते ज्ञानचेतनानी भावनानुं, कहे छे, आ फळ छे के ते भावनाथी जीव अत्यंत तृप्त रहे छे; अहा! तेना अंतरंगमां स्वरूपरमणता वडे अतीन्द्रिय आनंदनां एवां झरणां झरे छे के तेने अन्य तृष्णा रहेती नथी. आ चारित्र दशानी वात छे.

भाई! छठ्ठा गुणस्थाने महाव्रतनो विकल्प आवे ते प्रमाद छे, ते जगपंथ छे. कोईने एम थाय के चोथे गुणस्थाने सम्यग्द्रष्टिने आस्रव-बंध नथी एम कहो छो ने वळी छठ्ठे गुणस्थाने व्रतादिना विकल्प जगपंथ! आ केवुं?

अरे भाई! चोथे गुणस्थाने आस्रव-बंध नथी एम कह्युं ए तो मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधीना अभावनी अपेक्षाए कह्युं छे. अने छठ्ठे गुणस्थाने महाव्रतना विकल्प आवे ते प्रमाद छे ते अपेक्षा तेने जगपंथ कह्यो. मुनिराजने जेटली अंतरंगमां निर्मळता प्रगटी छे ते तो मोक्षमार्ग ज छे, अने जेटलो प्रमाद-रागांश विद्यमान छे तेने जगपंथ कह्यो. राग छे ते जगपंथ छे. भाई! आ समजवानो आ अवसर छे.

आत्माना स्वरूपमां एकाग्र थाय ते ज्ञानचेतना सुखमय छे, आनंदमय छे. अतीन्द्रिय आनंदना स्वादवाळी ते ज्ञानचेतना वडे जीव एवो तृप्त छे के तेने बीजी कोई तृष्णा रहेती नथी. जुओ, आ पंचम आराना मुनिराज आ कहे छे. तेओ कहे छे के आ देह छूटीने अमे स्वर्गमां जाशुं, पण अमने तेनी तृष्णा नथी. अमे अमारा स्वरूपमां अति तृप्त छीए, अमने भवसुखनी तृष्णा नथी. अहो! आवा मुनिवरो स्वरूपमां उग्रपणे तल्लीन प्रवर्तीने केवळज्ञान उपजावी कर्मरहित स्वाधीन सुखमय एवी परम उत्कृष्ट मोक्षदशाने पामे छे. मुनिवरो महाव्रतनी क्रियाने करतां


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‘पूर्वोक्त रीते कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनाना त्यागनी भावना करीने अज्ञानचेतनाना प्रलयने प्रगट रीते नचावीने, पोताना स्वभावने पूर्ण करीने, ज्ञानचेतनाने नचावता थका ज्ञानीजनो सदाकाळ आनंदरूप रहो’ - एवा उपदेशनुं काव्य हवे कहे छेः-

* कळश २३३ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अविरतं कर्मणः तत्फलात् च विरतिम् अत्यन्तं भावयित्वा’ ज्ञानी जनो, अविरत पणे कर्मथी अने कर्मना फळथी विरतिने अत्यंत भावीने (अर्थात् कर्म अने कर्मफळ प्रत्ये अत्यंत विरक्तभावने निरंतर भावीने), ‘अखिल–अज्ञान–सञ्चेतनायाः प्रलयनम् प्रस्पष्टं नाटयित्वा’ (ए रीते) समस्त अज्ञानचेतनाना नाशने स्पष्टपणे नचावीने, ‘स्व–रस–परिगतं स्वभावं पूर्ण कृत्वा’ निज रसथी प्राप्त पोताना स्वभावने पूर्ण करीने, ‘स्वां ज्ञानसञ्चेतनाम् सानन्दं नाटयन्तः इतः सर्वकालं प्रशम्–रसम् पिबन्तु’ पोतानी ज्ञानचेतनाने आनंदपूर्वक नचावता थका हवेथी सदाकाळ प्रशमरसने पीओ. (अर्थात् कर्मना अभावरूप आत्मिक रसने-अमृतरसने-अत्यारथी मांडीने अनंतकाळ पर्यंत पीओ. आम ज्ञानीजनोने प्रेरणा छे.)

पुण्य-पापना भावनुं करवुं ते कर्मचेतना अने तेनुं फळ जे हरख-शोक तेने भोगववुं ते कर्मफळचेतना-ते बन्नेनी निवृत्तिने निरंतर भावीने, ए रीते समस्त अज्ञानचेतनाना नाशने स्पष्ट नचावीने, निजरसथी प्राप्त पोताना स्वभावने पूर्ण करीने, पोतानी ज्ञानचेतनाने आनंदपूर्वक नचावता थका हवेथी सदाकाळ प्रशमरसने पीओ, वीतरागभावना रसने पीओ. जुओ, आ पूर्णानंदनी प्राप्तिनी विधि. अहा! विकल्पना रस तो झेरना प्याला छे; संसारमां रखडतां ते अनंतकाळ पीधा. हवे, कहे छे. अज्ञानचेतनानो नाश करी, सहज निज स्वभाव-ज्ञानानंद स्वभावना पूर्ण आलंबन वडे पोतानी ज्ञानचेतनाने आनंदपूर्वक नचावता थका सदाकाळ चैतन्यरसने-अमृतरसने अनंतकाळ सुधी पीओ. आचार्य महोदयनी ज्ञानीजनोने आ प्रेरणा छे.

* कळश २३३ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘पहेलां तो त्रणे काळ संबंधी कर्मना कर्तापणारूप कर्मचेतनाना त्यागनी भावना (४९ भंगपूर्वक) करावी. पछी १४८ कर्म प्रकृतिना उदयरूप कर्मफळना त्यागनी भावना करावी. ए रीते अज्ञानचेतनानो प्रलय करावीने ज्ञानचेतनामां प्रवर्तवानो उपदेश कर्यो.


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छे. ए ज्ञानचेतना सदा आनंदरूप-पोताना स्वभावना अनुभवरूप-छे. तेने ज्ञानीजनो सदा भोगवो-एम श्री गुरुओनो उपदेश छे.’

शुं कहे छे? के पूर्वे जे पुण्य-पापना भाव थया हता, वर्तमान थाय छे ने भविष्यमां थशे- ते कर्मचेतना छे. तेनो मन-वचन-कायाथी, कृत-कारित-अनुमोदना ईत्यादि वडे ४९ भंगपूर्वक त्याग कराव्यो. कर्म एटले अहीं जडकर्मनी वात नथी. पुण्य- पापना भाव थाय ते कर्म नाम कार्य, -तेनी चेतना अर्थात् तेनुं कर्तापणुं ते मिथ्यात्वभाव छे. वळी तेनुं फळ जे हरख-शोक तेनुं वेदन-भोगववुं ते झेरनुं वेदन छे. तेनो त्याग कराव्यो छे. कर्मचेतना अने कर्मफळचेतना ते शयनदशा छे, दुःखनी दशा छे; अने ज्ञानचेतना ते जागृत दशा छे, आनंदरूप दशा छे. भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप छे. तेना आश्रये प्रगट थयेली ज्ञानचेतना जाग्रत दशा छे; ते ज्ञानचेतना प्रगटतां अज्ञानचेतनानो विलय थाय छे, अभाव थाय छे. अहीं कहे छे- आ रीते अज्ञानचेतनानो प्रलय करावीने ज्ञानचेतनारूप सदा प्रवर्तो. आवी वात छे.

मूळ तो शुभ-अशुभ भाव ते आत्मानुं कोई निज स्वरूप नथी; ए तो विभाव अर्थात् विरुद्ध भाव छे, अने विभ्रम तेनुं मूळ छे. शुं कीधुं? आ पुण्य-पापना भाव थाय तेनुं विभ्रम मूळ छे. हवेनी गाथामां आ वात आवे छे. पुण्य-पापना भाव थाय छे आत्मानी पर्यायमां, माटे ते आत्मा छे एम कहीए. मतलब के शुभ-अशुभभाव थाय तेने परद्रव्य साथे संबंध नथी, परद्रव्य एनुं कर्ता नथी. भ्रमणा ज विकारी भाव उत्पन्न थवानुं मूळ छे, तेनाथी पुण्य-पापना भावनी उत्पत्ति छे. भ्रमणा गया पछी विकारी भाव उत्पन्न थता नथी. पछी तो ते ज्ञाननुं ज्ञेय छे. पर्यायद्रष्टि-भ्रमणा छोडी, द्रव्य उपर द्रष्टि मूकतां पुण्य-पापना भाव दूर थई जाय छे, पछी विशेष विशेष स्थिर थतां चारित्र थाय छे- एम अहीं सिद्ध करवुं छे.

जुओ, भगवान आत्मा अनंतगुणमणि-खाण चैतन्यरत्नाकर प्रभु छे. तेमां अनंत गुण-शक्तिओ छे, पण विकारने उत्पन्न करे एवी कोई शक्ति नथी. अहाहा...! वस्तुना स्वभावमां शुभाशुभ उत्पन्न थाय एवी कोई शक्ति नथी.

तो पछी रागद्वेष उत्पन्न थाय छे तेनुं शुं? पर्यायबुद्धिथी-भ्रमणाथी रागद्वेष उत्पन्न थाय छे. पोताना त्रिकाळी शुद्ध एक चैतन्य-स्वरूपनुं एने ज्ञान-श्रद्धान नथी ए भ्रमणा छे. वर्तमान पर्यायमात्र हुं छुं ए एनी भ्रमणा छे. ए भ्रमणा ज रागद्वेषनी-विकारनी उत्पत्तिनुं कारण छे.

अहाहा...! भगवान आत्मा चैतन्यमूर्ति प्रभु त्रणलोकनो नाथ छे. एनी एक समयनी पर्यायमां त्रणकाळ त्रणलोकने जाणवानुं सामर्थ्य छे. अहाहा...! एनी एक समयनी पर्याय स्व-पर सहित अनंता द्रव्य-गुण-पर्यायने-पूरा लोकालोकने जाणे एवा