Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 180 of 210

 

PDF/HTML Page 3581 of 4199
single page version

अहाहा...! ज्ञानी कोने कहीए? के अंदर पूरण ज्ञान अने पूरण आनंदना स्वभावथी भरेलो भगवान आत्मा छती विद्यमान वस्तु छे तेनो आश्रय करी, निमित्त, राग अने वर्तमान पर्यायनो आश्रय छोडे छे तेने अंदर निराकुळ आनंदना स्वादयुक्त ज्ञानदशा-धर्मदशा प्रगट थाय छे अने ते ज्ञानी जाणे छे के पूर्वे बांधेलुं जे कर्म सत्तामां पडयुं हतुं ते उदयमां आवीने प्रगट थयुं छे, तेना फळने हुं ज्ञाता-द्रष्टा रहीने जाणु-देखुं छुं. जे विकारना परिणाम थया तेने हुं मात्र जाणुं-देखुं छुं. ते पुण्य-पापना फळने हुं मारामां भेळवतो नथी, तेओ मारा छे एम हुं अनुभवतो नथी.

अरे! अज्ञानी जीव अनादि काळथी बहारनी जंजाळने चोंटी पडयो छे. ते दया, दान, व्रत आदिना रागनी रुचिमां एवो तो फसाई पडयो छे के पोतानुं निरुपाधि अकृत्रिम चैतन्यमय अस्तित्व तेने नजरमां आवतुं नथी. अहा! पोते त्रिकाळ छे, छे ने छे एम एने विश्वास बेसतो नथी. आ शुभाशुभ विकारना परिणाम थाय ते क्षणिक, कृत्रिम उपाधि छे अने ते पुद्गलनी छाया छे. अने तेनुं फळ जे हरख-शोक आवे तेय बधो पुद्गलनो ज परिवार छे. तथापि पोताना सच्चिदानंद स्वरूपने भूलीने एमां ज पोतापणुं मानीने अनादिकाळथी ते त्यां ज अटकी गयो छे. आ महा शल्य छे. आ महाशल्यने जेणे निज स्वरूपनी द्रष्टि करीने मटाडयुं छे, निवार्युं छे ते ज्ञानी छे. आ ज्ञानी कहे छे के-जे कर्म उदयमां आवे छे तेना फळने हुं मात्र उदासीनपणे जाणुं-देखुं ज छुं, हुं तेनो भोक्ता थतो नथी.

अहाहा...! अंदर आनंदनो नाथ प्रभु पोते त्रिकाळ ध्रूव-ध्रूव-ध्रूव एवा चैतन्यना प्रवाहस्वरूप विद्यमान वस्तु छे; तेमां विकार नथी, अपूर्णता नथी. अहा! आवी पोतानी वस्तुनी जेने अतिशय लय लागी छे ते स्वना आश्रये परिणमी जाय छे अने त्यारे तेने सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. सम्यग्दर्शन थतां साथे आनंद सहित अनंतगुणनी अंशे व्यक्तता थाय छे. आवी जेने स्वानुभवनी दशा प्रगटी छे ते ज्ञानी छे. ते ज्ञानी एम माने छे के-जे कर्मनुं फळ उदयमां आवे तेने हुं भोगवतो नथी, हुं तो तेने मात्र ज्ञाताद्रष्टा पणे जाणुं-देखुं ज छुं. आवुं श्रद्धान चोथे गुणस्थानेथी होय छे. अहीं एथी विशेष चारित्रनी वात छे. तो कहे छे के-हुं (-ज्ञानी) तेनो कर्ता-भोक्ता नथी, माटे ते कर्म मारा भोगव्या विना ज खरी जाओ; अर्थात् हुं मारा चैतन्यस्वरूपमां ज लीन रहुं छुं अने स्वरूपमां लीन थयो थको तेनो ज्ञाता-द्रष्टा ज छुं. आवी वात!

हवे कहे छे- ‘अहीं एटलुं विशेष जाणवुं के- अविरत, देशविरत तथा प्रमत्त संयत दशामां तो आवुं ज्ञान-श्रद्धान ज प्रधान छे, अने ज्यारे जीव अप्रमत्त दशाने पामीने श्रेणी चडे छे त्यारे आ अनुभव साक्षात् होय छे.’

जुओ, चोथा, पांचमा गुणस्थानोमां रागनी एक्ता तूटी छे, पण हजु अस्थिरता


PDF/HTML Page 3582 of 4199
single page version

छूटी नथी. पांचमा गुणस्थाने देशविरत श्रावकने आनंदनी वृद्धि जरूर थई छे, तथापि तेने अस्थिरताना भाव होय छे. छठ्ठा गुणस्थाने भावलिंगी मुनिराजने त्रण कषायनो अभाव थयो छे, प्रचुर आनंदनुं संवेदन वर्ते छे, पण हजु प्रमत्त दशा छे, प्रमाद-जनित राग छे. तेथी आ त्रणेय दशामां आवुं ज्ञान-श्रद्धान ज मुख्य छे, अने ज्यारे जीव अप्रमत्तदशाने पामीने श्रेणी चडे छे त्यारे आ अनुभव साक्षात् होय छे.

चोथा, पांचमा ने छठ्ठा गुणस्थानमां आवुं ज्ञान-श्रद्धान मुख्य छे. सातमा गुणस्थानमां ज्यारे मुनि जाय त्यारे अस्थिरता छूटी जाय छे. भावलिंगी मुनिराजने क्षणमां छठ्ठुं अने क्षणमां सातमुं गुणस्थान आवे छे. अहो! मुनिवरनी आ कोई अलौकिक दशा छे. अहा! अतीन्द्रिय आनंदना झुले झ्रुलता होय तेने जैन-संतमुनिवर कहीए. बीजे तो आ वात छे ज नहि. सातमेथी छठ्ठे आवे त्यां ज्ञान-श्रद्धाननी मुख्यता छे, केमके त्यां अस्थिरता हजु छे. राग आवे तेनो ज्ञानी जाणनार-देखनार मात्र छे ए अपेक्षाए एने राग नथी एम कहीए, पण जेटली अस्थिरता छे एटलुं एने दुःख छे. ज्ञाननीने साधकदशामां दुःख छे ज नहि एवो एकांत नथी. तेने महाव्रतनो जे विकल्प उठे छे ते आस्रव छे, अने एटलुं तेने दुःख छे, केमके आनंदनी पूर्ण दशानो त्यां अभाव छे. मुनिदशामां छठ्ठे गुणस्थाने पंच महाव्रत, समिति, गुप्ति, देव-गुरु-शास्त्रनी भक्ति वगेरेनो जे शुभराग होय छे तेटलुं तेने दुःख छे. शुभराग आवे छे ते ज्ञानीने भठ्ठी जेवो भासे छे. छहढालामां छे ने के-

“राग आग दहै सदा, तातैं समामृत सेईए;”

अरे भाई! जे भावथी तीर्थंकर गोत्रनी प्रकृति बंधाय ते भाव राग छे, ते आग छे. सातमे अप्रमत्त दशामां जतां अस्थिरतानो राग छूटी जाय छे. अहो! आवी अलौकिक दशा! धन्य ए मुनिदशा! श्रीमद् एवी भावना भावे छे ने के-

“एकाकी विचरतो वळी स्मशानमां,
वळी पर्वतमां वाघ-सिंह संयोग जो;
अडोल आसन ने मनमां नहि क्षोभता,
परम मित्रनो जाणे पाम्या योग जो.” -अपूर्व अवसर एवो
क्यारे आवशे?

अहा! आ शरीर मारुं नथी, मारे खपनुं नथी. जंगलमां वाघ-सिंह आवी चढे अने शरीर लई जाय तो भले लई जाय. मने जोईतुं नथी ने लई जाय छे ए तो मित्रनुं काम करे छे. अमे तो अंदर स्वरूपनुं निश्चलपणे ध्यान धरी मोक्ष साधशुं. अहा! आवी वीतरागी समता मुनिवरने घुंटाय त्यारे ते अंदर स्थिर थई श्रेणी चडे छे अने त्यारे आ (-ज्ञाताद्रष्टानो) साक्षात् अनुभव होय छे, तेने एकला (निर्भेळ)


PDF/HTML Page 3583 of 4199
single page version

*
(हवे टीकामां सकळ कर्मफळना संन्यासनी भावनाने नचावे छेः-)
* टीका उपरनुं प्रवचन *

‘हुं (ज्ञानी होवाथी) मतिज्ञानावरणीय कर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं. अर्थात् एकाग्रपणे अनुभवुं छुं.’ (अहीं “चेतवुं” एटले अनुभववुं, वेदवुं, भोगववुं. “सं” उपसर्ग लागवाथी “संचेतवुं” एटले “ एकाग्रपणे अनुभववुं” एवो अर्थ अहीं बधा पाठोमां समजवो.)

जुओ, अहीं समजवा जेवी वात छे. भगवान आत्मा अंदर ज्ञान अने आनंदनो सागर छे. तेने जेणे स्वसन्मुख थईने जाण्यो-अनुभव्यो तेने ज्ञानी कहेवामां आवे छे. ते ज्ञानी कहे छे के-हुं मतिज्ञानावरणीय कर्मना फळने भोगवतो नथी. जुओ, मतिज्ञानावरणीय कर्म हजु छे, तेना निमित्ते ज्ञाननी हीणी दशा पण छे. पण ए बधा व्यवहारने छोडीने तेनाथी अधिक-भिन्न हुं मारा शुद्ध चैतन्यने अनुभवुं छुं. एम वात छे.

कर्म प्रकृतिना आठ भेद छे. १. ज्ञानावरणीय, २. दर्शनावरणीय, ३. मोहनीय, ४. वेदनीय, प. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र अने ८. अंतराय. तेमां ज्ञानावरणीय कर्मनी पांच प्रकृतिओ छे. १. मतिज्ञानावरणीय, २. श्रुतज्ञानावरणीय, ३. अवधिज्ञानावरणीय, ४. मनःपर्ययज्ञानावरणीय अने प. केवळज्ञानावरणीय. मुनिने पण आ प्रकृतिओ होय छे. अहीं ज्ञानी कहे छे के-मतिज्ञानावरणीय कर्मनुं फळ जे मारा ज्ञाननी हीणी दशा छे तेना उपर मारुं लक्ष नथी. मारुं लक्ष त्रिकाळ ज्ञानानंदस्वभावी भगवान आत्मा उपर छे. तेथी हुं मतिज्ञानावरणीय कर्मना फळने भोगवतो नथी, हुं तेनाथी अधिक जे मारुं ज्ञान (ज्ञानस्वभाव) तेने संचेतुं छुं. अर्थात् तेने एकाग्रपणे अनुभवुं-वेदुं छुं.

मतिज्ञानावरणीय कर्म निमित्त, अने ज्ञाननी वर्तमान हीणी दशा ते नैमित्तिक. आवो व्यवहार छे ते हेय छे. तेथी, ज्ञानी कहे छे, तेने हुं भोगवतो नथी. झीणी वात छे प्रभु! मतिज्ञानावरणीय कर्मनी प्रकृति पडी छे, तेनो उदय पण छे, अने तेना निमित्ते ज्ञाननी हीणी दशा पण छे- ते हीणी दशा कर्मनुं फळ छे, तेने हुं केम भोगवुं? हुं तो भिन्न सच्चिदानंदस्वरूप भगवान छुं तेने संचेतुं छुं. हवे शरीर, वाणी, बैरां- छोकरां, महेल-मकान ने आबरू-आ बधा संजोगो तो बहारनी चीज छे.


PDF/HTML Page 3584 of 4199
single page version

तेने आत्मा भोगवे (भोगवी शके) ए तो क्यांय गयुं, अहीं तो ज्ञानी कहे छे- ज्ञाननी वर्तमान जे हीणी दशा ते कर्मनुं फळ छे, तेने हुं भोगवतो नथी, आवी वात!

हवे अत्यारे तो ज्यां होय त्यां कर्मने लईने विकार थाय एम वात हाले छे. पण भाई! कर्मने लईने विकार थाय ए वात बराबर नथी. कर्म तो निमित्तमात्र छे. विकार पोते करे तो पोताना कारणे थाय छे. विकार थवामां हीणी दशानुं परिणमन मारामां माराथी छे. अहीं ज्ञानी कहे छे- ते हीणी दशा हुं नथी, हुं तेने भोगवतो नथी. मारुं लक्ष हवे स्वभावथी जोडायुं छे, स्वभाव सन्मुख थयुं छे. राग अने हीणी-दशाना पडखाने छोडीने हवे हुं स्वभावना पडखे गयो छुं. भाई! जन्म-मरणथी छूटवानी आ एक ज रीत अने एक ज मारग छे, चैतन्यस्वरूप निज आत्मतत्त्वनी - ज्ञायकतत्त्वनी द्रष्टि करवी ए एक ज मार्ग छे. पर्यायनी आमां वात ज नथी लीधी. जो के चैतन्यस्वरूप आत्मानो अनुभव ते पर्याय छे, पण तेने पर्यायनो आश्रय नथी, त्रिकाळी द्रव्यनो ज आश्रय छे. आवी वात! समजाणुं कांई....?

अहा! भगवानने सर्वज्ञपद प्रगटयुं ते क्यांथी प्रगटयुं? शुं कर्म खस्यां त्यांथी ए प्रगटयुं? ना, बिलकुल नहि; तो शुं अपूर्णदशा गई त्यांथी प्रगटयुं? ना, बिलकुल नहि. अंदर सर्वज्ञपद पडयुं छे त्यांथी ते प्रगटयुं छे. झीणी वात छे भाई! पण ज्ञानमां पहेलां आ नक्की करवुं पडशे. वर्तमान पर्यायमां भले पूर्णता न होय, पण पूरण आनंदथी भरेलो सच्चिदानंद प्रभु पोते छे तेने, ज्ञानी कहे छे, हुं संचेतुं छुं, एकाग्रपणे अनुभवुं छुं. हवे आमां जे अनुभवे छे ते पर्याय छे, पण तेने पर्यायनो आश्रय नथी, तेने आश्रय तो त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यनो ज छे. हवे आवी वात! बिचारा रांकने अंदर परमऋद्धि पडी छे तेनी खबर न मळे, पण धर्मात्मा कहे छे-हुं कर्मफळने भोगवतो नथी, हुं तो त्रिकाळी परम ऋद्धिस्वरूप निज चैतन्यने ज अनुभवुं छुं. आवी वात छे-१.

हवे कहे छे- ‘हुं श्रुतज्ञानावरणीय कर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं-अनुभवुं छुं.’

जुओ, श्रुतज्ञानावरणीय कर्म छे; तेना निमित्ते ज्ञाननी हीणी दशा पण छे. आम ते बेनो व्यवहार सबंध छे, पण धर्मी कहे छे, मने तेनुं लक्ष नथी. अहाहा...! मारु ध्येय तो ध्रुवधाम प्रभु आत्मा छे, तेनुं मने आलंबन छे. हुं तो शुद्ध चैतन्यस्वरूपने संचेतुं छुं-अनुभवुं छुं. हवे आवी वात कोई दि’ कानेय न पडी होय एटले नवी लागे, पण आ तो एक समयमां त्रणकाळ-त्रणलोकने जेणे जाण्या ते केवळीनी वाणी छे भाई! अहाहा...! शुं एना भाव! --२.


PDF/HTML Page 3585 of 4199
single page version

वळी कहे छे- ‘हुं अवधिज्ञानावरणीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’

अवधिज्ञानावरणीय कर्मनी एक जड प्रकृति छे, तेना निमित्ते अवधिज्ञानना अभावमय ज्ञाननी हीणी दशा छे. शुं कीधुं? अवधिज्ञानावरणीय कर्म ते निमित्त, अने अवधिज्ञान रहित ज्ञाननी हीणी दशा ते नैमित्तिक. अहीं कहे छे-ते नैमित्तिक दशाने हुं भोगवतो नथी, तेना पर मारुं लक्ष नथी. हुं तो शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं-अनुभवुं छुं. आ त्रीजो बोल थयो. -३. हवे चोथो बोल.

‘हुं मनःपर्ययज्ञानावरणीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’

मनःपर्ययज्ञान नथी, तेनो अभाव छे. तेने नथी भोगवतो एटले शुं? सांभळ भाई! अहीं तो कर्मफळनुं धणीपणुं ज नथी एम वात छे. अहाहा...! ज्ञानीने पर्याय तरफनुं जोर ज नथी, एक निजानंदस्वरूप प्रभु आत्मानुं ज जोर छे.

वळी कोई कहे छे- अभविने मनःपर्यय अने केवळज्ञान थतुं नथी, माटे तेने पांचेय प्रकृतिओनुं आवरण न होय; मनःपर्ययज्ञानावरणीय अने केवळज्ञानावरणीय प्रकृतिओनुं आवरण न होय. आनी चर्चा संप्रदायमां घणा वरस पहेलां थई हती. त्यारे कह्युं हतुं के अभविने ज्ञानावरणीय कर्मनी पांचेय प्रकृतिओनुं आवरण होय छे. अभविने पण अंदर मनःपर्ययज्ञान थवानी ने केवळज्ञान थवानी शक्ति पडेली होय छे, पण तेनी तेने व्यक्तता कदी थती नथी, अभवि छे ने? माटे तेने पांचेय प्रकृतिओनुं आवरण होय छे, अहीं धर्मी पुरुष कहे छे- मनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्मना उदय निमित्ते मने मनःपर्ययज्ञाननो अभाव छे, पण तेना तरफ मारुं लक्ष नथी, तेने हुं भोगवतो नथी. कोई महा मुनिवरने मनःपर्ययज्ञान होय पण छे. छतां धर्मी कहे छे- हुं तो मारी ध्रुव चैतन्य सत्ताने ज अनुभवुं छुं. अनुभव छे ते तो पर्याय छे, पण एनुं जोर द्रव्य तरफनुं छे. आवी वात! -४.

हवे पांचमो बोलः- ‘हुं केवळज्ञानावरणीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’

केवळज्ञानावरणीय नामनी जडकर्मनी प्रकृति छे. तेना निमित्ते केवळज्ञाननो स्वतः अभाव छे. धर्मी जीव कहे छे- कर्मनुं निमित्त अने नैमित्तिक एवा केवळज्ञाननां अभावरूप दशा-एना उपर मारी द्रष्टि नथी; हुं तो मारा शुद्ध एक चिन्मात्रस्वरूपने ज सम्यक् प्रकारे अनुभवुं छुं.

जुओ, कर्मनी १४८ कर्मप्रकृति छे. तेमां ज्ञानावरणीयनी पांच छे. बधाने १४८


PDF/HTML Page 3586 of 4199
single page version

प्रकृतिनी सत्ता होय एवुं नथी. पण सामान्य वर्णन करे त्यां बधी प्रकृतिओनी वात करे. क्षायिक समकितीने मिथ्यात्वनी ३ प्रकृतिओनी सत्ता होती नथी; मिथ्यात्व, मिश्र अने सम्यक्मोहनीय-आ त्रण प्रकृति क्षायिक समकितीने नथी, पण बधा सम्यग्द्रष्टिओने होती नथी एम नहि. सम्यग्द्रष्टि होवा छतां आ त्रण प्रकृति सत्तामां पडी होय तो तेना तरफ सम्यग्द्रष्टिनुं लक्ष-वलण नथी. तेथी ते कहे छे- हुं तेने भोगवतो नथी, हुं तो शुद्ध आत्मस्वरूपने ज संचेतुं छुं.

आहारक नामकर्मनी प्रकृतिनां चार भेद आवे छे- आहारक शरीर नामकर्म, आहारक अंग-उपांग नामकर्म, आहारक बंध नामकर्म आहारक संघात नामकर्म. आ प्रकृति बधाने न होय. आ प्रकृति मुनिने होय छे. तेना उदयना फळने ज्ञानी भोगवता नथी.

एक तीर्थंकर नामकर्मनी प्रकृति छे ते पण बधाने न होय. मिथ्याद्रष्टिनी तो अहीं वात ज नथी. अहीं तो क्षणिक रागादि भावथी भिन्न पडी त्रिकाळी चैतन्यस्वभावनो आश्रय लीधो छे तेनी वात छे. अहीं कहे छे- प्रकृतिना उदयना फळने हुं भोगवतो नथी. उदयतो तेरमा गुणस्थानमां आवे छे, पण प्रकृति सत्तामां पडी छे तेना फळ तरफ एनुं लक्ष नथी एम वात छे; भविष्यमां हुं तिर्थंकर थवानो छुं एम एनुं लक्ष नथी. श्रेणीक राजानो जीव तीर्थंकर थवानो छे. भगवाने कह्युं छे एनी खबर छे. छतां हुं आवती चोवीशीमां पहेलो तीर्थंकर थवानो छुं एम एनुं लक्ष नथी. ते तो तीर्थंकर प्रकृतिना फळने पण विष-वृक्षनुं फळ जाणे छे. अहाहा...!

‘दर्शनविशुद्ध भावना भाय, सोलह तीर्थंकर पद पाय’

अहाहा...! सम्यग्द्रष्टिने तीर्थंकर प्रकृति बंधाणी होय ते कहे छे- हुं कर्मनी प्रकृतिना फळने भोगवतो नथी. मारुं लक्ष तो अंदर भगवान ज्ञानानंदस्वरूपमां जोडाई गयुं छे; हुं कर्म प्रकृतिना फळने भोगववानो कामी नथी. अहो! सम्यग्दर्शन अने एनो विषय शुद्ध चिन्मय प्रभु महा अलौकिक चीज छे भाई!

हवे केटलाक लोको देव-गुरु-शास्त्रनां विनय-भक्ति ते श्रद्धान-सम्यग्दर्शन अने व्रत, तप आचरो ते चारित्र-एम मानी बेठा छे, पण ए मारग नथी भाई! ए तो भ्रमणा छे बापु! सम्यग्दर्शन-ज्ञान अने चारित्र तो आत्मस्वरूप, आत्मानी निर्मळ परिणतिस्वरूप छे भाई! आ सनातन जैनदर्शन छे बापु! अहीं धर्मी सम्यग्द्रष्टि पुरुष कहे छे- हुं ज्ञानावरणीय कर्मना फळने भोगवतो नथी, हुं तो जेमां विकार नथी, अपूर्णता नथी, पामरता नथी एवो त्रण लोकनो नाथ पूरण ज्ञानानंदस्वरूपी भगवान आत्मा छुं; हुं तेने संचेतुं छुं.’ अनुभवुं छुं. वर्तमान ज्ञाननी अधुरी दशा पर मारुं लक्ष नथी, हुं पूर्ण वस्तुने संचेतुं छुं. आवी वात! समजाणुं कांई...! आ ज्ञानावरणीयनी पांच प्रकृतिओनी वात थई.-प.


PDF/HTML Page 3587 of 4199
single page version

हवे दर्शनावरणीय नामनुं जे एक कर्म छे तेनी प्रकृतिना नव भेद छे तेनी वात करे छेः-

‘हुं चक्षुदर्शनावरणीय कर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’

चक्षुदर्शनावरणीय कर्म अने तेना निमित्ते चक्षुदर्शननी पर्यायनी हीणी दशा-तेने हुं भोगवतो नथी. हुं तो आनंदधाम-सुखधाम एवा भगवान आत्माने ज अनुभवुं छुं, भगवान आत्मामां ज लीन छुं. -६.

‘हुं अचक्षुदर्शनावरणीय कर्मना फळने नथी भोगवतो, हुं चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’

आंख सिवायनी बाकीनी चार इन्द्रियोना निमित्ते अचक्षुदर्शन उपयोग थाय छे. तेनी हीणी दशा अने अचक्षुदर्शनावरणीय कर्मनो उदय-ते तरफ, ज्ञानी कहे छे, मारुं लक्ष नथी; तेने हुं भोगवतो नथी. हुं तो चैतन्यमूर्ति निजस्वरूपने ज वेदुं छुं. - ७.

‘हुं अवधिदर्शनावरणीय कर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’

धर्मी जीव कहे छे के- मने अवधिज्ञान नथी, अवधिदर्शन नथी. तो पण अवधिदर्शनावरणीय कर्मना फळ तरफ मारुं वलण नथी, मारी द्रष्टि तो शुद्ध एक चिदानंदकंद प्रभु आत्मा पर ज छे. अहा! आवा मारा निजस्वरूपमां अवधिदर्शन शुं? अहाहा...! जेमां बेहद-बेहद ज्ञान अने आनंद भर्यो छे एवुं मारुं स्वरूप छे. अवधिदर्शनावरणीय कर्म अने तेना निमित्ते हीणी दशा भले छे, पण ते मने कांई नथी, तेना पर मारुं लक्ष नथी.

अहाहा...! जेमांथी केवळदर्शन अने केवळज्ञाननी पूर्ण दशा नीकळ्‌या ज करे एवो चैतन्यचमत्कारी प्रभु हुं आत्मा छुं. हुं तेने ज अनुभवुं छुं. - ८.

‘हुं केवळदर्शनावरणीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, हुं तो चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’

प्रकृति पडी छे तेना निमित्ते हीणी दशा छे, पण तेना वेदन प्रत्ये मारुं वलण नथी. हुं तो पूर्णानंदनो नाथ सच्चिदानंदस्वरूप भगवान छुं. तेना तरफनुं मारे जोर छे ने तेने ज हुं वेदुं छुं-९.

‘हुं निद्रादर्शनावरणीय कर्मना फळने नथी भोगवतो, हुं तो चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’


PDF/HTML Page 3588 of 4199
single page version

सम्यग्द्रष्टिने निद्रा आवे छे, ते प्रकृतिनो उदय छे. ज्ञानी कहे छे-हुं एने भोगवतो नथी, अर्थात् एना वेदन प्रति मने लक्ष नथी. हुं तो एनाथी अधिक-भिन्न मारुं चैतन्यस्वरूप त्रिकाळ छे तेने ज वेदुं छुं. मारा स्वरूपमां निद्रा क्यां छे? हुं तो एनाथी भिन्न स्वरूप निज चैतन्यमां ज वर्तुं छुं. -१०.

‘हुं निद्रानिद्रादर्शनावरणीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, हुं तो चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’

विशेष निद्रा आवी जाय तेने हुं भोगवतो नथी, हुं तो निज ज्ञानानंदस्वरूपने ज वेदुं छुं. -११.

‘हुं प्रचलादर्शनावरणीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’

बेठां बेठां जरी झोकुं आवी जाय ते दशाने हुं भोगवतो नथी एम कहे छे. ते दशाना काळमां पण मारी चीज अंदर भिन्न पडी छे तेने ज हुं अनुभवुं छुं. -१२.

‘हुं प्रचलाप्रचलादर्शनावरणीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’

घोडा उपर बेठा बेठा जरी निद्रा आवी जाय एवी दशाना वेदन तरफ मारुं लक्ष नथी. सच्चिदानंद प्रभु अंतरमां बिराजे छे तेना उपर ज मारी द्रष्टि छे. हुं तेना ज वेदनमां सावधान छुं. तेथी हुं प्रचलाप्रचलादर्शनावरणीय कर्मना फळने भोगवतो नथी. हुं तो शुद्ध चैतन्यना ज वेदनमां लीन छुं. हवे आम छे त्यां दाळ, भात, लाडु ने स्त्रीने भोगववानी वात ज क्यां रही? ए तो बधा पर जडपदार्थो छे, तेने कदीय आत्मा भोगवतो नथी. समजाणुं कांई...? -१३.

‘हुं स्त्यानगृद्धिदर्शनावरणीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’

आ एक निद्रानो प्रकार छे जेमां ऊंघमां ऊभो थई जाय, घरनुं काम करे, पाछो सूई जाय. निद्रामां ढोर-गाय, भेंस वगेरे पाईने आवी जाय एवी निद्रा होय छे. धर्मी कहे छे- मारुं त्यां लक्ष नथी. हुं तो चैतन्यस्वरूपने ज अनुभवुं छुं. - १४.

‘हुं शातावेदनीय कर्मनां फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’

वेदनीय कर्मनी बे प्रकृति छे. तेमां शातावेदनीय प्रकृतिना निमित्ते बहारमां सामग्री-धन, कुटुंब, परिवार, शरीरनी नीरोगता इत्यादि सामग्री मळे ते प्रत्ये, कहे छे, मारुं लक्ष नथी. अहाहा...! शाताना उदयनुं फळ आवे ते मारुं स्वरूप नथी,


PDF/HTML Page 3589 of 4199
single page version

‘हुं अशातावेदनीय कर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’

अहीं चारित्रनी मुख्यताथी वात छे. भगवान आत्मा चैतन्यस्वरूप अंदर बिराजे छे. तेनुं वेदन अने साक्षात्कार थईने ते उपरांत स्वरूपनी रमणता थई छे ते धर्मी पुरुष कहे छे- हुं अशाता कर्मना उदयने भोगवतो नथी. जुओ, सनतकुमार चक्रवर्ती थई गया- चक्रवर्तीना वैभवनुं शुं कहेवुं? देह पण खूब रूपाळो-सुंदर, ६४ हजार देवताओ तेनी सेवा करे. तेमणे दीक्षा लीधी ने कोण जाणे पुण्य क्यां गयुं? अशातानो उदय आवता शरीरमां गळत कोढनो रोग थयो. वीस आंगळा गळवा मांडयां. पण अहीं कहे छे - ए अशाता वेदनीयना फळने ते भोगवता नहोता. ज्ञानी कहे छे- अशाताना उदयने हुं भोगवतो नथी, हुं तो मारो सच्चिदानंद प्रभु अंदर बिराज्यो छे तेने ज वेदुं छुं. अनुभवुं छुं. भाई! आवा तारा स्वरूपनो एक वार तो महिमा कर!

कोई सम्यग्द्रष्टि सातमी नरके होय तो त्यां एने अशाता वेदनीयनुं वेदन परमार्थे अंतरमां नथी; राग आवे तेनुं किंचित् वेदन छे पण ते गौण छे. मुख्य पणे ते भगवान चैतन्यस्वरूप आत्माना आनंदने वेदे छे- अहीं चारित्रनी वात लेवी छे. अंदर आनंदना नाथना अनुभवनी जमावट जामी छे, जेम कोई बहु तृषावंत पुरुष शेरडीना रसने घुंटडा भरी भरीने पी जाय तेम आनंदरसनुं रसपान जे करे छे ते धर्मी जीव कहे छे- हुं अशाताना फळने वेदतो नथी, हुं दुःखी नथी; हुं तो आनंदना नाथमां लीन छुं. आवी वात! समजाणुं कांई...? -१६.

हवे मोहनीय कर्मनी २८ प्रकृतिओनी वात करे छेः- ‘हुं सम्यक्त्वमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’

जुओ, आ प्रकृति बधा सम्यग्द्रष्टिओने होय छे एम नहि. ए तो सम्यग्दर्शनमां दर्शनमोहनीय कर्मनी प्रकृतिना त्रण भाग पडी जाय छे. हजु आ प्रकृति होय एनी वात छे. ते ज्ञानी कहे छे- सम्यक्त्व मोहनीय कर्मना फळने हुं भोगवतो नथी. कर्म प्रकृति निमित्त छे, विकृत अवस्था ते नैमित्तिक छे. ते बन्नेनो संबंध छे तेने जाणवो ते व्यवहार छे. कर्मथी विकार थाय छे एम नही, पण कर्मने आधीन थता तेनी दशामां


PDF/HTML Page 3590 of 4199
single page version

विकार थाय छे, कर्म तेमां निमित्तमात्र छे बस. क्षायिक समकितीने आ प्रकृति होती नथी. जेने ते प्रकृतिनो उदय छे ते ज्ञानी तेना फळने भोगवतो नथी. सम्यक्त्व मोहनीय प्रकृतिना उदये जरी दोष तो लागे छे, पण अहीं कहे छे- तेने भोगवतो नथी, हुं तो स्वरूपने ज संचेतुं छुं. - १७.

‘हुं मिथ्यात्व मोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’

समकित थयुं छे, पण मिथ्यात्व कर्म सत्तामां पडयुं छे. तेना उदयना फळ प्रति मारुं लक्ष नथी; मारुं लक्ष तो भगवान चिदानंद आनंदना नाथ तरफ ज छे एम कहे छे. मारा ध्याननां ध्येयमां आत्मा ज छे- एम वात छे. - १८.

‘हुं सम्यक्त्वमिथ्यात्वमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’

आ प्रकृतिने मिश्र मोहनीय प्रकृति कहे छे. तेनो उदय त्रीजा गुणस्थाने होय छे. आ प्रकृति सत्तामां पडी होय तो ज्ञानी कहे छे- मने तेनुं फळ नथी, अर्थात् हुं तेने भोगवतो नथी, तेने भोगववा प्रति मारुं लक्ष नथी, हुं तो शुद्ध चैतन्यस्वरूपने ज अनुभवुं छुं. हवे आवी वात कदी सांभळवा मळी न होय एटले एने उडावी दे अने कहे के - व्रत, तप आदि करवानुं तो कहेता नथी. पण अरे भाई! व्रत कोने कहीए? तप कोने कहीए? पोते अतीन्द्रिय आनंदकंद भगवान छे तेमां विंटळाई रहेवुं तेनुं नाम व्रत छे, अने ईच्छानो निरोध थाय तेनुं नाम तप छे. अहाहा...! स्वरूपमां लीनपणे रहेवुं ते व्रत अने तप छे. आ सिवाय बीजुं (व्रत, तप) कांई नथी, समजाणुं कांई....? - १९.

‘हुं अनंतानुंबंधीक्रोधकषायवेदनीयमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’

जुओ, अहीं ‘अनंतानुंबंधीक्रोधकषायवेदनीयमोहनीयकर्म’ एवो शब्द पडयो छे. मतलब के अनंतसंसारनुं कारण एवो जे क्रोध एनुं जे वेदन तेने अनंतानुंबंधीक्रोधकषायवेदनीयमोहनीयकर्म कह्युं छे. मिथ्यात्वनी साथे अनंतानुबंधीनो क्रोध होय छे ते अनंत संसारनुं कारण छे. समकितीने तेनो उदय होतो नथी. सत्तामां कोई कर्म पडयुं होय, क्षय थयो न होय तो, ज्ञानी कहे छे, हुं तेने भोगवतो नथी, हुं तो शुद्ध एक चैतन्यस्वरूपने ज संचेतुं छुं. आवी वात छे. - २०.

‘हुं अप्रत्याख्यानावरणीयक्रोधकषायवेदनीयमोहनीय कर्मना फळने नथी भोगवतो, हुं तो चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’


PDF/HTML Page 3591 of 4199
single page version

जुओ, अहीं पांचमा गुणस्थाने कांईक चारित्रदशा छे, देश चारित्र प्रगट थयुं छे. त्यां कर्मना उदयमां अगियारमी पडिमा सुधीना विकल्प छे ते राग छे. ज्ञानी कहे छे, हुं ते रागने भोगवतो नथी, मारी द्रष्टि ए प्रतिमाना विकल्प पर नथी, हुं तो चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं. -२१.

‘हुं प्रत्याख्यानावरणीयक्रोधकषायवेदनीयमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’

अहीं चारित्रनी विशेष विशेष निर्मळतानी वात छे. अहाहा...! आत्मा निजानंदस्वरूपमां मस्त रमे छे तेनुं नाम चारित्र छे. अहा! आवा आत्माना आनंदना स्वादिया धर्मी पुरुषने इन्द्रना इन्द्रासनना भोग सडेला तणखला जेवा तुच्छ भासे छे. स्वर्गना देवोने कंठमांथी अमृत झरे ने भूख मटी जाय. अहा! एवा भोग समकितीने आत्माना आनंदनी पासे, झेरना प्याला जेवा लागे छे. धर्मी जीव कहे छे-हुं प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध कषाय वेदनीय मोहनीय कर्मना फळने भोगवतो नथी, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं. -२२.

‘हुं संज्वलनक्रोधकषायवेदनीयमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’

आ चोथी संज्वलन चोकडीनी वात छे. सम्यक् प्रकारे ज्वलन एटले कांईक शांति बळे छे एवुं क्रोधकषायवेदनीयमोहनीयप्रकृतिनुं फळ हुं भोगवतो नथी, हुं चैतन्यस्वरूप आत्माने ज भोगवुं छुं-२३.

आ प्रमाणे क्रोधनी चोकडीनी वात करी, हवे मान आदि प्रकृतिओना भेद कहे छे. ‘हुं अनंतानुबंधीमानकषायवेदनीयमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -२४.

‘हुं अप्रत्याख्यानावरणीयमानकषायवेदनीयमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -२प.

‘हुं प्रत्याख्यानावरणीयमानकषायवेदनीयमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -२६.

‘हुं संज्वलनमानकषायवेदनीयमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -२७.

हवे माया प्रकृतिनी चोकडीनी वात करे छेः- ‘हुं अनंतानुबंधीमायाकषायवेदनीयमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -२८.


PDF/HTML Page 3592 of 4199
single page version

‘हुं अप्रत्याख्यानावरणीय मायाकषायवेदनीयमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ - २९.

‘हुं प्रत्याख्यानावरणीयमायाकषायवेदनीयमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ - ३०.

‘हुं संज्वलनमायाकषायवेदनीयमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -३१.

हवे लोभकषायनी चोकडीनां भेद कहे छेः- ‘हुं अनंतानुबंधीलोभकषायवेदनीयमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -३२.

‘हुं अप्रत्याख्यानावरणीयलोभकषायवेदनीयमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ - ३३.

‘हुं प्रत्याख्यानावरणीय लोभकषायवेदनीयमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ - ३४.

‘हुं संज्वलनलोभकषायवेदनीयमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -३प.

हवे नोकषाय मोहनीय कर्मनी प्रकृतिना नव भेद कहे छेः- ‘हुं हास्यनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -३६.

हास्य, कूतुहल, विस्मय इत्यादि भावने हुं नथी भोगवतो, हुं तो शुद्ध आत्मस्वरूपने ज भोगवुं छुं.

‘हुं रतिनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -३७.

राजी थवुं, खुश थवुं-ते रतिनोकषायकर्मनुं फळ छे, ते तरफ मारुं वलण नथी, हुं तेने भोगवतो नथी, हुं तो मारा चैतन्यस्वरूपने ज एकने वेदुं छुं. अहा! हुं तो अंदर आनंदना अनुभवना राजीपामां छुं. जुओ, आ चारित्रवंत धर्मी पुरुषनी अंतरदशा!

‘हुं अरतिनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -३८.


PDF/HTML Page 3593 of 4199
single page version

अहा! घेर छ महिनाना परणेतरवाळो जुवानजोध दीकरो गुजरी जाय, सोळ वर्षनी बाईने विधवा मूकीने चाल्यो जाय ते वखते जे अरतिना-नाराजगीना परिणाम थाय ते मोहनीय कर्मनुं फळ छे. धर्मी कहे छे-हुं ते अरतिने भोगवतो नथी. हुं तो आनंदना नाथ एवा आत्माने ज वेदुं छुं. अहा! मारे वळी अरति केवी? जेम बरफनी पाट शीतळ-शीतळ होय छे तेम भगवान आत्मा अंदर अतीन्द्रिय शांतिनी शिला छे. तेना वेदनमां ज्ञानी अतीन्द्रिय शांति-आनंदने वेदे छे. समकितीने किंचित् अरति भाव होय छे, तेने ते द्रष्टिनी मुख्यतामां गौण छे; ज्यारे अहीं तो महा चारित्रवंत धर्मात्मानी वात छे. अहा! आवा धर्मी पुरुष जे निजस्वभावमां लीनपणे वर्ते छे तेमने तो अरतिनो भाव ज नथी. हवे आवी वात बिचारो बहारनी धमालमां-व्रत, तपना विकल्प-रागमां पडयो होय तेने गोठे नहि, पण बापु! ए व्रत, तप आदिनो राग ए कांई तारुं चैतन्यपद नथी, एनाथी (-रागथी) कांई तारुं रक्षण नहि थाय. धर्मी पुरुष, अहीं कहे छे, अरतिने भोगवतो नथी, आत्मलीन ज छे, अने त्यां ज एनी सुरक्षा छे. समजाणुं कांई....?

‘हुं शोकनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -३९.

अहा! घेर कोई जुवानजोध दीकरानुं मरण थाय तो एकदम उदास-उदास एवुं गमगीन वातावरण थई जाय. अरे भाई! कोण मरे ने कोण जीवे? वस्तु भगवान आत्मा तो शाश्वत, ध्रुव, अनादिअनंत छे. अहाहा...! भगवान आत्मा तो नित्य जागतो ऊभो छे. बेनमां (वचनामृतमां) आवे छे ने के- “जागतो जीव ऊभो छे, ते क्यां जाय? जरूर प्राप्त थाय.” अहाहा...! शाश्वत ध्रुव प्रभु आत्मा अंदर बिराजे छे तेना सामुं तो जो; तने जरूर ते प्राप्त थशे ज. अरे! एने परनी लत-लगनी लागी छे, पण पोतानी सामुं कदी जोतो ज नथी! अहीं जे निरंतर स्वसन्मुखता वडे शांतिने भोगवे छे ते कहे छे-हुं शोकने भोगवतो नथी, हुं तो एक आत्मस्वरूपने ज वेदुं छुं. आवी वात छे.

‘हुं भयनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -४०.

जुओ, भय नामनी एक प्रकृति छे. तेना निमित्ते नैमित्तिक भयनी दशा थाय तेने, कहे छे, हुं भोगवतो नथी. हुं निर्भयतानो समुद्र एवा भगवान आत्माने ज संचेतुं छुं. अहाहा...! धर्मी पुरुष तो सदाय निःशंक अर्थात् निर्भय होय छे. निःशंकता - निर्भयता ए तो समकितीनुं अंग छे; तेने कोई भय होतो नथी.

‘हुं जुगुप्सानोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -४१.


PDF/HTML Page 3594 of 4199
single page version

जुगुप्सा-दुर्गंछा नामनी एक प्रकृति छे. तेने, धर्मी कहे छे, हुं भोगवतो नथी. अहा! अंदर भगवान आत्मा सौंदर्यधाम प्रभु छे, तेनो अनुभव थयो त्यां दुर्गंछा केवी? अहा! शरीर कुष्ठरोगथी सडे त्यां पण धर्मात्मा पुरुष दुर्गंछा पामता नथी; ते तो जाणनार-देखनार एवा निज ज्ञायकस्वरूपने संचेते छे. आवी वात!

‘हुं स्त्रीवेदनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -४२.

‘हुं पुरुषवेदनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -४३.

‘हुं नपुंसकवेदनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -४४.

जुओ, अहीं समकिती चारित्रवंत पुरुषनी वात छे. कोई प्रकृति सत्तामां पडी होय तो तेना तरफ मारुं वलण नथी. विषयवासनाना भावने हुं भोगवतो नथी, अर्थात् हुं तो प्रचुर आनंदना भोगवटामां छुं, तेमां वेद प्रकृतिनो उदय समातो नथी. कोई प्रकृति पडी होय तेने वेदवा प्रति मारुं लक्ष ज नथी; हुं तो अंदर भगवान चिदानंदघन प्रभु अंदर विराजे छे तेमां ज लीन छुं. मारा ध्याननुं ध्येय तो मारो भगवान आत्मा ज छे. हवे आवी वात बहार आवी एटले कोई तो खळभळी उठया. कोई वळी कहेवा लाग्या-

ठीक, आ सोनगढवाळाओने तो आत्मा-आत्मा कीधा करवुं, खावुं, पीवुं ने लहेर करवी- एटले थई गयो धर्म. अरे बापु! अहीं तुं कहे छे एवा भोग भोगववानी वात ज क्यां छे? अहीं तो अतीन्द्रिय आनंदनो नाथ प्रभु पोते छे तेनो स्वानुभव करी सम्यग्दर्शन अने धर्म प्रगट करवानी वात छे. बाकी इन्द्रना भोग पण समकितीने तो काळा नाग जेवा लागे छे. आवे छे ने के-

चक्रवर्तीनी संपदा, इन्द्र सरिखा भोग;
काग विट् सम गिनत है सम्यग्द्रष्टि लोग.

अहीं तो बापु! इन्द्रियोना विषयो भोगववानी स्वच्छंदतानी वात तो छे ज नहि. ‘हुं नरक-आयुकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -४प.

‘हुं तिर्यंच-आयुकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -४६.


PDF/HTML Page 3595 of 4199
single page version

‘हुं मनुष्य-आयुकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -४७.

‘हुं देव-आयुकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’-४८. आ प्रमाणे आयुकर्मनी प्रकृतिना चार भेद छे. तेना प्रति धर्मी पुरुषनुं लक्ष नथी. हवे नामकर्मनी प्रकृतिना ९३ भेद छे तेनुं कथन करे छेः-

‘हुं नरकगतिनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -४९.

‘हुं तिर्यंचगति-नामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -प०.

‘हुं मनुष्यगतिनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -प१.

‘हुं देवगतिनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -प२.

‘हुं एकेन्द्रियजातिनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -प३.

‘हुं द्वीन्द्रियजातिनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -प४.

‘हुं त्रीन्द्रियजातिनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -पप.

‘हुं चतुरिन्द्रियजातिनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -प६.

‘हुं पंचेन्द्रियजातिनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -प७.

‘हुं औदारिकशरीरनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -प८.

‘हुं वैक्रियिकशरीरनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’-प९.

‘हुं आहारकशरीरनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -६०.


PDF/HTML Page 3596 of 4199
single page version

जुओ, कोई कोई मुनिराजने आहारक प्रकृति होय छे, मुनिने बधाने होय एवुं नहि. प्रकृति बंधाई गई होय तो, मुनिराज कहे छे, तेना फळने हुं भोगवतो नथी. मुनिने कोई शंका उठे, तो आहारक शरीर बनावे अने ज्यां केवळी भगवान बिराजता होय त्यां जईने शंकानुं समाधान करे. तो मुनिराज कहे छे ए आहारक प्रकृतिना फळने हुं भोगवतो नथी; एनुं मने लक्ष नथी, हुं तो एक भगवान आत्माने ज संचेतुं छुं. मुनिराजने आहारक शरीरनी प्रकृतिनुं वलण होतुं नथी, आवी वात! समजाणुं कांई....?

‘हुं तैजसशरीरनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -६१.

‘हुं कार्मणशरीरनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -६२.

‘हुं औदारिकशरीरअंगोपांगनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -६३.

‘हुं वैक्रियिकशरीरअंगोपांगनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -६४.

‘हुं आहारकशरीरअंगोपांगनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -६प.

‘हुं औदारिकशरीरबंधननामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -६६.

‘हुं वैक्रियकशरीरबंधननामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -६७.

‘हुं आहारकशरीरबंधननामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -६८.

‘हुं तैजसशरीर-बंधननामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -६९.

‘हुं कार्मणशरीरबंधननामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -७०.

‘हुं औदारिकशरीर-संघातनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -७१.


PDF/HTML Page 3597 of 4199
single page version

‘हुं वैक्रियिकशरीर-संघातनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -७२.

‘हुं आहारकशरीर-संघातनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -७३.

‘हुं तैजसशरीर-संघातनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -७४.

‘हुं कार्मणशरीरसंघातनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -७प.

शरीरनी आकृतिना छ प्रकार छे. तेना छ भेदनुं वर्णन करे छेः- ‘हुं समचतुरस्रसंस्थाननामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -७६.

‘हुं न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थाननामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -७७.

‘हुं सातिकसंस्थाननामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -७८.

‘हुं कुब्जकसंस्थाननामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -७९.

‘हुं वामनसंस्थाननामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -८०.

‘हुं हुंडकसंस्थाननामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -८१.

अहा! छ प्रकारना आ जे संस्थान नामकर्मनी प्रकृति छे तेनो उदय आवे छे, पण ते तरफ मारुं लक्ष नथी, संस्थान प्रति मारुं जोर नथी. मने तो अंदर भगवान आत्मा प्रति वलण थयुं छे. तेना पडखे हुं चढयो छुं; तेने ज हुं अनुभवुं छुं.

हवे हाडकांनी मजबुताईना छ प्रकारना संहनननुं कथन करे छेः- ‘हुं वज्रर्षभनाराचसंहनननामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -८२.

‘हुं वज्रनाराचसंहनननामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -८३.


PDF/HTML Page 3598 of 4199
single page version

‘हुं नाराचसंहनननामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -८४.

‘हुं अर्धनाराचसंहनननामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -८प.

‘हुं कीलिकासंहनननामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -८६.

‘हुं असंप्राप्तासृपाटिकासंहनननामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -८७.

अहीं धर्मी चारित्रवंत पुरुषनी वात छे. तेने आ बधी प्रकृति होय एम नहि, पण जेने जे प्रकृति होय तेने, कहे छे, हुं भोगवतो नथी, अर्थात् जड प्रकृतिना फळ प्रति मारुं लक्ष नथी; हुं तो एक शुद्ध आनंदस्वरूप आत्माने ज अनुभवुं छुं.

हवे स्पर्शनामकर्मनी प्रकृतिना आठ भेद कहे छेः- ‘हुं स्निग्धस्पर्शनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -८८.

‘हुं रूक्षस्पर्शनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -८९.

‘हुं शीतस्पर्शनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -९०.

‘हुं उष्णस्पर्शनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -९१.

‘हुं गुरुस्पर्शनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -९२.

‘हुं लघुस्पर्शनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -९३.

‘हुं मृदुस्पर्शनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -९४.

‘हुं कर्कशस्पर्शनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -९प.

स्पर्शनामकर्मनी जड प्रकृति जे सत्तामां पडी होय ते उदयमां आवे छे. अहीं धर्मी पुरुष कहे छे - हुं तेना फळने भोगवतो नथी, अनाकुळ आनंदनो दरियो अंदर


PDF/HTML Page 3599 of 4199
single page version

हवे रसनामकर्मनी पांच प्रकृतिनी वात करे छेः- ‘हुं मधुररसनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -९६.

‘हुं आम्लरसनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -९७.

‘हुं तिक्तरसनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -९८.

‘हुं कटुकरसनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -९९.

‘हुं कषायरसनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१००.

अहाहा...! भगवान आत्मा महान् बादशाह छे. ते अनंतगुणोनो धणी प्रभु छे. तेना प्रत्येक गुणमां अनंत गुणनुं रूप छे. अहा! अनंत धर्मत्व नामनी आत्मामां एक शक्ति छे. बीजा अनंतगुण छे तेमां दरेकमां बीजा अनंतगुणनुं रूप छे. ज्ञानमां, दर्शनमां, आनंदमां, वीर्यमां, अस्तित्वमां, वस्तुत्वमां एम प्रत्येकमां बीजा अनंत गुणनुं रूप छे. जेमके ज्ञान गुणमां अस्तित्वनुं रूप छे. ज्ञानगुण ते अस्तित्व एम नहि, पण ज्ञान अस्ति छे एम ज्ञानमां अस्तित्वनुं रूप छे. सूक्ष्म वात भाई! अहाहा...! आवो अनंतगुणनो समुद्र प्रभु हुं आत्मा छुं, ते एकने ज, धर्मी पुरुष कहे छे, हुं अनुभवुं छुं, कर्मप्रकृतिना फळने हुं भोगवतो-अनुभवतो नथी. आवी वात!

हवे गंधनामकर्मनी प्रकृतिना बे भेद कहे छेः- ‘हुं सुरभिगंधनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१०१.

‘हुं असुरभिगंधनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१०२.


PDF/HTML Page 3600 of 4199
single page version

हवे वर्णनामकर्मनी प्रकृतिना पांच भेदनुं वर्णन करे छेः- ‘हुं शुक्लवर्णनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१०३.

‘हुं रक्तवर्णनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१०४.

‘हुं पीतवर्णनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१०प.

‘हुं हरितवर्णनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१०६.

‘हुं कृष्णवर्णनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१०७.

धोळो, लाल, पीळो, लीलो, काळो वर्ण ते जडकर्मप्रकृतिनुं फळ छे, तेने हुं भोगवतो नथी, हुं तो आत्मामां ज लीन छुं.

हवे आनुपूर्वीनामकर्मना चार भेद छे ते कहे छेः- ‘हुं नरकगत्यानुपूर्वीनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१०८.

‘हुं तिर्यंचगत्यानुपूर्वीनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१०९.

‘हुं मनुष्यगत्यानुपूर्वीनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -११०.

‘हुं देवगत्यानुपूर्वीनामकर्मना फळने नथी भोगवतो, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेतुं छुं.’ -१११.

जे कर्मना उदयथी मरण पछी अने जन्म पहेलां विग्रहगतिमां रस्तामां आत्माना प्रदेश मरण पहेलांना शरीरना आकारे रहे छे ते आनुपूर्वी कर्म छे. धर्मी पुरुष कहे छे-हुं तेना फळने भोगवतो नथी, हुं एक शुद्ध आत्माने ज संचेतुं-अनुभवुं छुं. जुओ, श्रेणीक राजा क्षायिक समकिती हता. नरकगतिने सन्मुख थयेलो तेमनो जीव नरकगत्यानुपूर्वीकर्मना फळने भोगवतो नथी. गत्यानुपूर्वीकर्मना उदये जे प्रदेशोना आकारनी योग्यता थई तेनुं धर्मी पुरुषने लक्ष नथी, ते ते शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्माने ज संचेते छे. हवे कहे छे-