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‘ते समस्त अज्ञानचेतना संसारनुं बीज छे; कारण के संसारनुं बीज जे आठ प्रकारनुं (ज्ञानावरणादि) कर्म, तेनुं ते अज्ञानचेतना बीज छे (अर्थात् तेनाथी कर्म बंधाय छे).’
जुओ, समस्त अज्ञानचेतना अर्थात् शुभाशुभ भावने करवारूप ने भोगववारूप परिणाम, कहे छे, संसारनुं बीज छे, दुःखनुं बीज छे. भाई! तुं दया, दान, व्रतादिना शुभभावने कर्तव्य माने छे, भला माने छे, पण आचार्यदेव अहीं तेने संसारदुःखनुं बीज कहे छे. समस्त कर्मचेतना ने कर्मफळचेतना संसारनुं बीज छे, चोरासीना अवतारमां रखडवानुं बीज छे, केम? केमके संसारनुं कारण जे आठ प्रकारनुं कर्म, तेनुं अज्ञानचेतना बीज छे; अर्थात् एनाथी-शुभाशुभभाव करवाना ने भोगववाना भावथी-कर्म बंधाय छे. ल्यो, हवे समजाणुं कांई....?
हवे कहे छे- ‘माटे मोक्षार्थी पुरुषे अज्ञानचेतनानो प्रलय करवा माटे सकळ कर्मना संन्यासनी (त्यागनी) भावनाने तथा सकळ कर्मफळना संन्यासनी भावनाने नचावीने, स्वभावभूत एवी भगवती ज्ञानचेतनाने ज एकने सदाय नचाववी.’
अहाहा......! पोते स्वरूपथी शुद्ध चिदानंदघन प्रभु छे. अहा! तेमां स्वपणुं एकाग्र न थतां रागमां एकाग्र थईने रागथी पोताने लाभ माने, रागने पोतानुं कर्तव्य माने ते अज्ञानचेतना छे अने ते अज्ञानचेतना आने संसारमां रखडवानुं बीज छे; केमके संसारनुं बीज जे आठ प्रकारनुं कर्म तेनुं अज्ञानचेतना बीज छे. अरे! अनंतकाळमां अनंता जन्म-मरण करीने एना सोथा नीकळी गयां छे. पण अरे! रागथी भिन्न अंदर हुं चिदानंदस्वरूप भगवान छुं एम कदीय एणे स्वीकार्युं नहि, रागनी आडमां पोताना स्वस्वरूपनो एणे कदीय सत्कार कर्यो नहि.
तो धर्मात्माने-सम्यग्द्रष्टिने पण राग तो आवे छे? हा, सम्यग्द्रष्टिने-ज्ञानी जीवने पोताना शुद्ध निर्मळानंद प्रभु आत्मानो अनुभव थयो होवा छतां स्वरूपस्थिरता संपूर्ण थई नथी एटले राग आवे छे, पण ए राग तेनुं कर्तापणे कर्तव्य नथी, एनी तेने होंश नथी. राग तेने झेर जेवो ज भासे छे. ए अस्थिरतानो राग पण दुःखरूप ज छे, बंधनुं ज कारण छे एम ते माने छे.
अहा! रागथी भिन्न पडी, भेदज्ञानना अभ्यास द्वारा ‘हुं तो शुद्ध एक ज्ञानानंदस्वरूप प्रभु छुं’ -एम अंतरमां प्रतीति अने अनुभव करवो एनुं नाम ज्ञानचेतना छे अने ते धर्म छे. आत्मा शुद्ध एक चैतन्यसत्तापणे अंदर नित्य विराजमान छे. अहा! आवा पोताना निजस्वरूपमां सन्मुखता करी तेनो अनुभव करवो ते भगवती ज्ञानचेतना छे अने ते ज भवना छेदनो उपाय छे, मुक्तिनो उपाय छे. अहो! दिगंबर
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संतोए पोकारीने परम सत्यने प्रसिद्ध कर्युं छे. रागमां एकाग्र थई प्रवर्ते ते अज्ञान चेतना छे अने ते भवबीज छे, एनाथी संसार फळशे अने फालशे; अने निज चैतन्यस्वरूपमां एकाग्र थई प्रवर्ते ते ज्ञानचेतना छे अने ते मोक्षबीज छे, एनाथी मोक्षमार्ग अने मोक्ष प्रगटशे! आवी स्पष्ट वात छे भाई!
पोताना शुद्ध एक चैतन्यस्वरूपने भूलीने रागनो पोताने कर्ता माने ते कर्मचेतना संसारनुं बीज छे, अने रागनो पोताने भोक्ता माने ए कर्मफळचेतनाय संसारनुं बीज छे. अनादिकाळथी एने आ वात बेसती नथी. भाई! धर्मात्मा पुरुषने जे शुभ-अशुभ भाव (मुख्यपणे शुभभाव) आवे छे तेनो ते कर्ता-भोक्ता नथी, ए तो तेनो ज्ञाता- द्रष्टा ज छे. ए तो स्वरूपमां रहीने आ राग पृथक् चीज छे एम एनो जाणनारो ज छे.
हवे आवी वात छे छतां कोई वळी कहे छे-शुभाशुभ भाव करवालायक नथी, तेम छोडवालायक पण नथी. (आम मानवा प्रति एनो आ तर्क छे के शुभाशुभ भाव करवा ते संसार बीज छे. तथापि ते सम्यग्द्रष्टिने होय छे.)
अरे भाई! सर्व शुभाशुभ भाव छोडवालायक ज छे. कळशटीका, कळश १०८ मां आनो खुलासो आ प्रमाणे छे-“ अहीं कोई जाणशे के शुभ-अशुभ क्रियारूप जे आचरणरूप चारित्र छे ते करवायोग्य नथी तेम वर्जवायोग्य पण नथी. उत्तर आम छे के-वर्जवायोग्य छे, कारण के व्यवहारचारित्र होतुं थकुं दुष्ट छे, अनिष्ट छे, घातक छे; तेथी विषय-कषायनी माफक क्रियारूप चारित्र निषिद्ध छे.” भाई! जेम विषय-कषायना परिणाम छोडवालायक छे तेम शुभाचरणरूप चारित्र पण सम्यग्द्रष्टि छोडवा योग्य हेय ज माने छे, सम्यग्द्रष्टिने तेनो किंचित् आदर होतो नथी. स्वरूपनुं श्रद्धान उदय थतानी साथे ज तेणे समस्त रागने हेय ज मान्यो छे. राग आवे छे ए तो एनी कमजोरी छे, रागनी एने भावना नथी.
दानमां दस-वीस लाख आपे तो तेमां कदाच रागनी मंदता होय तो ते शुभराग छे, पुण्य छे; पण द्रष्टिमां तो ज्ञानीने तेनो निषेध ज छे. अहो! सर्वज्ञ परमात्माए कहेलो मार्ग संतोए खुल्लो करी जाहेर कर्यो छे. तुं एकवार सांभळ तो खरो प्रभु! शुभाशुभ भावथी रहित अंदर शांत शांत ज्ञानानंदस्वरूप चैतन्य सरोवर छे. तेमां निमग्न थई तेनो अनुभव करवो ते सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र छे, ते भगवती ज्ञानचेतना छे अने ते मोक्ष-उपाय छे. आ सिवाय शुभाशुभनुं आचरण अने तेनो अनुभव ए तो अज्ञानचेतना छे, संसारनुं बीज छे. अरे! जेमने प्रचुर आनंदनुं वेदन छे एवा आत्मज्ञानी संत मुनिवरने जे महाव्रतनो विकल्प आवे छे ते प्रमाद छे अने ते जगपंथ छे-ज्यां एम वात छे त्यां आ एकली अज्ञानचेतनानी शुं वात! ए तो अनंत अनंत जन्म-मरणनुं बीज छे भाई!
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रागनो विकल्प आवे, पण हुं एनाथी भिन्न छुं-एम निरंतर भेदज्ञाननो अभ्यास करवो जोईए. भेदज्ञाननो उग्र अभ्यास करी, अंदर स्वरूप-सन्मुखता करवाथी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान प्रगट थाय छे. पण एम नहि करतां रागथी अभेद करी तेनो कर्ता-भोक्ता थई प्रवर्ते ए मिथ्याभाव छे, अने ते अनंत संसारनुं बीज छे. अहा! आवी वात एक दिगंबर सिवाय बीजे कयांय छे ज नहि. भाई! तने रुचे के न रुचे, भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे जाहेर करेलो सत्यार्थ मार्ग आ छे. आ भगवाननो संदेश छे.
अहा! भगवान! तारी प्रभुतानो पार नथी. ओहोहोहो.....! अंदर ज्ञानानंदथी भरेलो पूरण प्रभुताथी भरेलो प्रभु छो ने नाथ! तारामां प्रभुता शक्ति नाम स्वभाव भर्यो पडयो छे. अहा! परमेश्वर थवानी अंदर शक्ति पडी छे ने प्रभु! तुं पामरपणे रहे एवो तारो स्वभाव ज नथी. अहाहा....! अंदर एकलो शुद्ध चैतन्यघन, ज्ञानानंदलक्ष्मीथी भरेलो भगवान प्रभु तुं छो. आ पुण्य-पापना भाव ए तो बहारनी चीजो-बधो पुद्गलनो विस्तार छे, ए तारो चैतन्यनो विस्तार नहि. अहा! अंदर स्वस्वरूपना आश्रये प्रगट थनारी ज्ञान-दर्शन-आनंदनी दशा ए चैतन्यनो विस्तार छे, ए ज्ञानचेतना छे, ए मुक्तिनो उपाय छे. माटे हे भव्य! सकळ कर्मना अने सकळ कर्मफळनी भावनानो त्याग करीने, स्वभावभूत एवी भगवती ज्ञानचेतनाने ज एकने सदाय नचाव.
अहा! जेने सिद्धपदनी अंतरमां भावना थई छे एवा मोक्षार्थीने आचार्य कहे छे- हे मोक्षार्थी पुरुष! सकळ कर्मना संन्यासनी भावनाने तथा सकळ कर्मफळना संन्यासनी भावनाने नचावी, तारे स्वभावभूत एवी भगवती ज्ञानचेतनाने ज एकने सदाय नचाववी. नचाववी एटले शुं? के ज्ञानचेतनारूप थईने ज सतत परिणम्या करवुं. अहाहा....! भगवान आत्मानुं स्वसंवेदन करी ज्ञान अने आनंदना वेदनमां ठरवुं-रहेवुं ते स्वभावभूत भगवती ज्ञानचेतना छे अने ते सहज ज रागना त्यागरूप छे. ते ज्ञानचेतना ज मोक्षनुं कारण छे; माटे ज्ञानचेतनारूप ज निरंतर परिणमवुं.
अहाहा.....! कहे छे- ‘भगवती ज्ञानचेतनांने ज एकने सदाय नचाववी.’ भाषा तो टूंकी ने सादी छे प्रभु! पण भाव गंभीर छे. समजाय एटलुं समजवुं बापु! अहीं तो पंचम आराना मुनिवर पंचम आराना प्राणीओने सार सार वात कहे छे. शुं? के भाई! शुभाशुभ भाव करवा-भोगववा-एवा अभिप्रायनो त्याग करीने पोतानी सहज शुद्ध एक चैतन्यमात्रवस्तुमां एकाग्र थईने, तेमां ज रमणता करवी ते ज्ञानचेतना -ते भगवती ज्ञानचेतनाने ज एकने सदाय नचाववी; केमके ते एक ज मोक्षनो उपाय छे. भगवती ज्ञानचेतना कहो के भगवती प्रज्ञा कहो-एक ज वात छे. ए तो आवी गयुं पहेलां के राग अने ज्ञान वच्चे सांध छे त्यां भगवती प्रज्ञा छीणी
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पटकवी, पटकतां ज राग अने ज्ञान जुदा थई जाय छे अने तत्काल ज प्रज्ञा रागने त्यागी दई, ज्ञान नाम आत्माने ग्रहण करे छे. ल्यो, आनुं नाम ज्ञानचेतना छे, अने ते एक ज मोक्षनो उपाय छे.
तेमां प्रथम, सकळ कर्मना संन्यासनी भावनाने नचावे छेः- (त्यां प्रथम काव्य कहे छेः-)
‘त्रिकाल विषयं’ त्रणे काळना (अर्थात् अतीत, वर्तमान अने अनागत काळ संबंधी) ‘सर्व कर्म’ समस्त कर्मने ‘कृत–कारित–अनुमननैः’ कुत-कारित-अनुमोदनाथी अने ‘मन–वचन–कायैः’ मन-वचन-कायाथी ‘परिहृत्य’ त्यागीने ‘परमं नैष्कर्म्यम्’ हुं परम नैष्कर्म्यने (-उत्कृष्ट निष्कर्म अवस्थाने) अवलंबुं छुं. (ए प्रमाणे, सर्व कर्मनो त्याग करनार ज्ञानी प्रतिज्ञा करे छे.)
अहाहा.....! धर्मी चारित्रवंत पुरुष शुं कहे छे? के त्रणे काळनां समस्त कर्मनो हुं त्याग करुं छुं-मनथी, वचनथी, कायाथी अने कृत-कारित-अनुमोदनाथी. अहाहा....! भूतकाळमां जे पुण्य-पापरूप विकारी कार्य थयां ते अने वर्तमान तथा भविष्य संबंधीनां सर्व कर्मनो त्याग करुं छुं. अहाहा....! हुं ए कर्मोनो कर्ता नहि, कारयिता नहि अने थाय तेनो अनुमोदन करनारो पण नहि-एम सर्व कर्मनो हुं त्याग करुं छुं. अहा! परमां कार्य थाय एनी तो अहीं वात ज नथी, घडो थाय एने कुंभार (-जीव) करे ए तो वात ज नथी.
अरे! हजु केटलाय जैनमां रहेला पण कुंभार (-जीव) घडो करे छे एम माने छे. पण बापु! ए तारी मान्यता मिथ्या छे. ए तो आवी गयुं भाई! गाथा ३७२ मां के घडो कुंभारथी थाय एम अमे देखता नथी; माटी ज, कुंभारना स्वभावने नहि स्पर्शती थकी, पोताना स्वभावथी घडारूपे ऊपजे छे. जो कुंभारथी घडो थाय तो घडो कुंभारना आकारे थवो जोईए, पण एम कदापि बनतुं नथी. माटी ज खरेखर घडानी उत्पादक छे. अहीं आ वात नथी.
अहीं तो कहे छे - त्रिकाळनुं समस्त कर्म नाम शुभाशुभ भाव तेने करतो नथी, करावतो नथी, करताने अनुमोदतो नथी-मनथी, वचनथी, कायाथी, हुं तो ज्ञानस्वरूप शुद्ध एक चिदानंद भगवान छुं ने तेमां ज स्थिर थाउं छुं. ल्यो, आनुं नाम चारित्र छे. महाव्रतना परिणाम ते चारित्र नहि. महाव्रतना रागनो-कर्मनो तो अहीं सर्व प्रकारे त्याग करे छे. भाई! जुओ, शुं कहे छे? त्रणे काळना समस्त कर्मने एटले पंच-
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महाव्रत आदिना रागने हुं करतो नथी, करावतो नथी अने करताने अनुमोदतो नथी- मनथी, वचनथी, कायाथी. पूर्वे कोई अहिंसादि व्रतना शुभ अने हिंसादि अव्रतना अशुभ विकल्प कर्या होय ते, वर्तमान होय ते अने भविष्य संबंधी समस्त कर्मने, कहे छे, हुं मनथी, वचनथी, कायाथी अने कृत-कारित-अनुमोदनाथी त्याग करुं छुं. अहा! सकल कर्मना संन्यासपूर्वक सम्यग्द्रष्टिने जे स्वस्वरूपमां-अंतःतत्त्वमां स्थिरता-रमणता थाय तेनुं नाम चारित्र छे, अने ते मोक्षनुं कारण छे. समजाणुं कांई....?
अहाहा...! कहे छे-समस्त कर्मत्यागीने हुं परम नैष्कर्म्यने -परम निष्कर्म दशाने- अवलंबुं छुं. अहा! आत्मा वस्तु तो अंदर परम निष्कर्म छे; अने तेना आश्रये परिणमतां परम निष्कर्म अवस्था प्रगट थाय छे. अहा! आवी निष्कर्म-वीतरागदशाने प्राप्त थाउं छुं एम कहे छे. सम्यग्दर्शनमां रागथी भिन्न पोतानी ज्ञानमात्र चीजनुं ज्ञान अने अनुभव तो थयां छे, पण कांईक अस्थिरता हजु छे, ते अस्थिरतानो, कहे छे, त्याग करीने-स्वस्वरूपमां स्थिरतारूप परम निष्कर्म अवस्थाने अवलंबुं छुं. ल्यो, आ चारित्र छे; धर्मात्मा पुरुषो आवी निष्कर्म दशाने प्राप्त थाय एने चारित्र कहे छे भाई!
हवे लोकोने दर्शन शुं? ज्ञान शुं? चारित्र शुं? -कांई खबर न मळे एटले देव- गुरु-शास्त्रने माने ते समकित, शास्त्रनुं ज्ञान ते ज्ञान अने बहारमां महाव्रत पाळे ते चारित्र -एम माने पण भाई! ए मान्यता यथार्थ नथी, सत्यार्थ नथी. अहीं तो कहे छे-भगवान आत्मा चैतन्यमूर्ति प्रभु सदाय निष्कर्म शक्तिना स्वभावरूप छे. तेनी सन्मुख थई परिणमतां जे स्वसंवेदन ज्ञान थयुं ते ज्ञान, ‘हुं आ ज छुं’ एवी जे प्रतीति थई ते सम्यग्दर्शन अने तेनो उग्र आश्रय करतां जे विशेष निष्कर्म-वीतरागदशा थई ते चारित्र. अहा! दया, दान, व्रत आदि सकळ कर्मना त्यागरूप निष्कर्म अवस्था छे अने ते चारित्र छे. समजाणुं कांई....? धर्मात्मा कहे छे-समस्त कर्म त्यागीने हुं परम निष्कर्म एवी वीतरागदशाने अवलंबुं छुं. आवो मारग जगतथी साव जुदो छे भाई!
आ प्रमाणे सर्वकर्मनो त्याग करवानी ज्ञानी प्रतिज्ञा करे छे. आ प्रतिज्ञा! आम बहारथी प्रतिज्ञा करे एम नहि, आ तो त्रिकाळी एक ज्ञायकभावना उग्र आलंबन द्वारा निष्कर्म दशा-वीतराग दशाने प्राप्त थाय एने प्रतिज्ञा करे छे एम कह्युं. समजाणुं कांई....?
हवे टीकामां प्रथम, प्रतिक्रमण-कल्प अर्थात् प्रतिक्रमणनो विधि कहे छेः-
प्रतिक्रमण करनार कहे छे केः-
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‘जे में (पूर्वे कर्म) कर्युं, कराव्युं अने अन्य करतो होय तेनुं अनुमोदन कर्युं, मनथी, वचनथी तथा कायाथी, ते मारुं दुष्कृत मिथ्या हो.’
पूर्वे शुभ भाव कर्या होय ते मारुं कार्य नथी, ते दुष्कृत छे. ते दुष्कृत मिथ्या हो. एटले शुं? के कर्म करवुं, कराववुं अने अन्य करनारने अनुमोदवुं ते संसारनुं बीज छे एम जाणीने ते दुष्कृत प्रत्ये हेयबुद्धि आवी त्यारे जीवे तेना प्रत्येनुं ममत्व छोडयुं; ते ज तेनुं मिथ्या करवुं छे.
आ प्रमाणे सर्व ४९ भंग लगाववा अने समजवा.
हवे आ कथनना कळशरूपे काव्य कहे छेः-
‘यद् अहं मोहात् अकार्षम्’ जे में मोहथी अर्थात् अज्ञानथी (भूतकाळमां) कर्म कर्यां, ‘तत् समस्तम् अपि कर्म प्रतिक्रम्य’ ते समस्त कर्मने प्रतिक्रमीने ‘निष्कर्माणि चैतन्य–आत्मनि आत्मनि आत्मना नित्यम् वर्ते’ हुं निष्कर्म (अर्थात् सर्व कर्मोथी रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामां आत्माथी ज (-पोताथी ज) निरंतर वर्तुं छुं. (एम ज्ञानी अनुभव करे छे).
जुओ, आ चारित्रनो अधिकार छे. चारित्र सम्यग्दर्शन विना कदी होतुं नथी. समकितीने पण ज्यां सुधी पुण्य-पापनुं परिणमन छे त्यां सुधी चारित्र नथी. सम्यग्दर्शन थतां ज रागना कर्ता-भोक्तापणानी बुद्धि तो छूटी गई छे, पण अस्थिरता हजु छे. अहीं कहे छे -ए अस्थिरताना रागने हुं छोडी दउं छुं अने हुं निजानंदस्वरूपमां पोताथी ज लीन थाउं छुं. आनुं नाम ते प्रतिक्रमण छे.
पूर्वे अज्ञानवश परमां रोकाईने जे शुभाशुभ भाव कर्या ते सर्वने प्रतिक्रमीने हुं निष्कर्म चैतन्यस्वरूप आत्मामां आत्माथी ज निरंतर वर्तुं छुं. भाई! शुभभाव छे ते पण दोष छे, दुष्कृत छे. तेथी ज्ञानी तेनुं प्रतिक्रमण करे छे. आ बधा उपाश्रयमां बेसीने प्रतिक्रमण करता हता ने? ए प्रतिक्रमण नहि बापा! ए तो रागनी क्रिया भगवान! जुओ, हिंसादिना अशुभ भावनो त्याग करीने दया आदिना शुभभावमां धर्मात्मा वर्ते ते व्यवहार प्रतिक्रमण छे. पण ते व्यवहार प्रतिक्रमण दोष छे, दुष्कृत छे. अहीं कहे छे -ते सर्व दोषने छोडीने हुं चैतन्यस्वरूप आत्मामां पोताथी ज वर्तुं छुं. भूतकाळमां करेलां सर्व कर्मोनुं आ प्रमाणे प्रतिक्रमण करुं छुं. भाई! विकारना सर्व भावोथी हठी स्वस्वरूपमां-शुद्ध चैतन्यस्वरूपमां लीन थवुं ते सत्यार्थ प्रतिक्रमण छे.
अहा! शुभाशुभ भाव जीवनी एक समयनी अवस्थामां थता जीवना परिणाम
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छे. परंतु चैतन्यना स्वभावनो तेमां अभाव छे. तेथी तेओ विभाव परिणाम छे. तेओ स्वरूपमां तद्रूप नथी. तेथी ते सर्व विभावने छोडीने, कहे छे, निष्कर्म शुद्ध चैतन्यस्वरूपमां वर्तुं छुं; अर्थात् रागरहित निष्कर्म निर्विकल्प दशाने हुं प्राप्त थाउं छुं. जुओ, आ निर्मळ चारित्रनी दशा छे. आत्माना भान सहित तेमां ज विशेष लीनता-रमणता करतां जे शुद्धिनी वृद्धि थाय ते चारित्र छे अने ते धर्म छे.
जुओ, दरेक पदार्थ पोताना पर्यायरूप कार्यने करे छे, पण बीजाना परिणामनो ते कर्ता नथी. आ भाषा बोलाय छे ने? ते शब्दवर्गणानुं कार्य छे. शब्दवर्गणाना परमाणुओ भाषारूपे उत्पन्न थई रह्या छे, आत्मा तेनो कर्ता नथी. लोकोने आवो भेद-अभ्यास नहि एटले आ वात गळे ऊतरवी कठण लागे छे, पण भाई! आ तो परमार्थ सत्य छे, अने एकलुं अमृत छे. अरे बापु! एक परमाणुनी अवस्थाने बीजो परमाणु न करी शके, तो तेना कार्यने आत्मा करे ए केम बनी शके? कदीय न बनी शके.
अहा! आवो भेदाभ्यास जेने वर्ते छे ते धर्मात्मा पुरुष कहे छे -हुं तो शुद्ध एक चैतन्यस्वरूप ज्ञाताद्रष्टा प्रभु आत्मा छुं; अने आ जे दया, दान, व्रत आदि विकल्प उठे छे ते अनात्मा छे. तेओ मारा स्वरूपभूत नथी, अने तेओ मने पोसाता नथी, केमके तेओ दुःखरूप छे, दुःखकारी छे. माटे हुं ते समस्त कर्मनो त्याग करीने निज आत्मस्वरूपमां आत्माथी ज निरंतर वर्तुं छुं. अहाहा....! ‘आत्माथी ज वर्तुं छुं’ एटले शुं? के परथी के रागथी आत्मस्वरूपमां लीन थाय छे एम नहि, पण पोते स्वरूपसन्मुख थयेला पोताना उपयोगथी ज स्वरूपमां वर्ते छे. अलिंगग्रहण (गाथा १७२, प्रवचनसार) ना छठ्ठा बोलमां आवे छे के -“लिंग द्वारा नहि पण स्वभाव वडे जेने ग्रहण थाय छे ते अलिंगग्रहण छे; आ रीते आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता छे एवा अर्थनी प्राप्ति थाय छे.” जोयुं? आत्मा स्वभाव वडे ज जेनुं ग्रहण -अनुभवन थाय तेवो प्रत्यक्ष ज्ञाता छे. अहाहा.....! अहीं कहे छे-हुं मारा स्वभावना पुरुषार्थथी ज अंदर आत्मामां स्थिर वर्तुं छुं. ल्यो, आ चारित्रदशा, मुनिदशा! अहाहा....! आ प्रमाणे मुनिराज पोताना अतीन्द्रिय ज्ञानस्वभावना अनुभवमां स्थिर रहे छे, अने रागनो अनुभव छोडी दे छे. आने चारित्र अने मोक्षमार्ग कहे छे. समजाणुं कांई...
‘भूतकाळमां करेला कर्मने ४९ भंगपूर्वक मिथ्या करनारुं प्रतिक्रमण करीने ज्ञानी ज्ञानस्वरूप आत्मामां लीन थईने निरंतर चैतन्यस्वरूप आत्मानो अनुभव करे, तेनुं आ विधान (विधि) छे.’
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ल्यो, आ प्रतिक्रमणनी विधि भूतकाळमां जे कांई शुभाशुभ कर्म कर्यां हतां तेनो ४९ भंगपूर्वक त्याग करीने, तेनुं ममत्व छोडीने निज ज्ञानानंदस्वरूप आत्मामां लीन थई तेमां ज रमे तेने भगवाने प्रतिक्रमण कह्युं छे. अहा! निरंतर निज चैतन्यस्वरूप आत्मानो अनुभव करे ते प्रतिक्रमण छे. आ विधि छे. हवे कहे छे-
‘मिथ्या कहेवानुं प्रयोजन आ प्रमाणे छेः- जेवी रीते कोईए पहेलां धन कमाईने घरमां राख्युं हतुंः पछी तेना प्रत्ये ममत्व छोडयुं त्यारे तेने भोगववानो अभिप्राय न रह्यो; ते वखते, भूतकाळमां जे धन कमायो हतो ते नहि कमाया समान ज छे;......’ जुओ, आ द्रष्टांत कह्युं. हवे कहे छे-
‘तेवी रीते, जीवे पहेलां कर्म बांध्युं हतुं; पछी ज्यारे तेने अहितरूप जाणीने तेना प्रत्ये ममत्व छोडयुं अने तेना फळमां लीन न थयो, त्यारे भूतकाळमां जे कर्म बांध्युं हतुं ते नहि बांध्या समान मिथ्या ज छे.’ अर्थ स्पष्ट छे. एम के पूर्वे कर्म बांध्युं हतुं ते हुं नहि, अने तेनुं फळ आव्युं ते पण हुं नहि-एम जाणी तेनुं ममत्व छोडी दीधुं अने स्वस्वरूपमां लीन रह्यो तो जे कर्म बांध्युं हतुं ते नहि बांध्या समान मिथ्या ज थयुं. ल्यो, आवी प्रतिक्रमणनी विधि छे.
‘आ रीते प्रतिक्रमण-कल्प (अर्थात् प्रतिक्रमणनो विधि) समाप्त थयो.’ हवे टीकामां आलोचना-कल्प कहे छेः- ‘हुं (वर्तमानमां कर्म) करतो नथी, करावतो नथी, अन्य करतो होय तेने अनुमोदतो नथी, मनथी, वचनथी अने कायाथी १.’
आ प्रमाणे सर्व ४९ भंग समजवा. (मूळ पाठमांथी समजवा) (आ रीते प्रतिक्रमणना जेवा ज आलोचनामां पण ४९ भंग कह्या)
हवे आ कथनना कळशरूपे काव्य कहे छेः-
(निश्चय चारित्रने अंगीकार करनार कहे छे के) ‘मोहविलासविजृम्भितम् इदम् उदयत् कर्म’ मोहना विलासथी फेलायेलुं जे उदयमान (उदयमां आवतुं) कर्म ‘सकलम् आलोच्य’ ते समस्तने आलोचीने (-ते सर्व कर्मनी आलोचना करीने-) ‘निष्कर्मणि चैतन्य–आत्मनि आत्मनि आत्मना नित्यम् वर्ते’ हुं निष्कर्म (अर्थात् सर्व कर्मोथी रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामां आत्माथी ज (-पोताथी ज) निरंतर वर्तुं छुं.
जुओ, सम्यग्द्रष्टि ज्ञानी पुरुष, तेने जे दया, दान, भक्ति आदि विकल्प आवे
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जुओ, चोथा गुणस्थानमां सम्यग्द्रष्टिने अतीन्द्रिय आनंदना स्वादनी मात्र झलक आवे छे; ज्यारे चारित्रवंत मुनिराजने तो विशेष स्वरूप-रमणता थवाथी अतीन्द्रिय आनंदनी भरती आवे छे, तेने प्रचुर आनंद होय छे. अहाहा....! मुनिराज जाणे अकषायी शान्तिनो पिंड!
अरे! अनंतकाळथी अज्ञानी जीवे रागनुं आचरण करी-करीने पोताने धर्म थाय छे एम मान्युं छे. पण तुं छेतराई रह्यो छे भाई! मारग एवो नथी बापा! रागथी लाभ थवानुं मानीने तें तारा चैतन्यने हणी नाख्युं छे, घायल कर्युं छे भाई! पाछो वळ बापु! जो, अहीं धर्मी पुरुष शुं कहे छे के-मोहना विलासथी फेलायेलुं जे उदयमां आवतुं कर्म ते समस्तनी आलोचना करीने निष्कर्म चैतन्यस्वरूप आत्मामां आत्माथी ज निरंतर वर्तुं छुं. समस्त कर्मने आलोचुं छुं. एटले शुं? के तेनाथी भिन्न पडीने अंदर स्वस्वरूपमां लीन थाउं छुं. अहा! ते उदयमान कर्म मारी चीज नथी एम जाणी निष्कर्म एवा स्वस्वरूपमां ज निरंतर वर्तुं छुं. ल्यो, आवी वात! हवे लोकोने बिचाराओने सत्य सांभळवा मळ्युं न होय एटले विरोध करे, पण भाई! जैन परमेश्वरे वीतरागभावने ज धर्म कह्यो छे. रागने धर्म माने ए तो आत्मघाती महापापी छे.
प्रश्नः– तो शास्त्रोमां भगवाननी भक्ति, स्तुति, दर्शन, पूजा करवां ने व्रत, तप आचरवां वगेरेनुं विधान छे ने?
समाधानः– हा, छे; पण ए बधां व्यवहारनां कथन छे बापु! धर्मी पुरुषोने ते ते भावो यथासंभव आवे छे तेनुं त्यां शास्त्रोमां विधान छे. धर्म-परिणतिनी साथे बहारमां सहचरपणे निमित्त केवुं होय छे तेनुं ज्ञान कराववा त्यां निमित्तनी मुख्यताथी कथन करेलुं होय छे, पण ए (-शुभराग) कांई एना सम्यग्दर्शननुं के धर्मनुं वास्तविक कारण नथी. भाई! ते यथार्थमां धर्माचरण नथी, धर्मनुं कारण पण नथी. बाह्य लक्षथी जो सम्यग्दर्शन थाय तो समोसरणमां तो ए अनंतवार गयो छे, छतां
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केवळी आगळ रही गयो कोरो-एवी ज एनी दशा छे; केमके त्यां जईने पण तेणे रागनी क्रियाने धर्म मानी मिथ्यात्वनुं ज सेवन कर्ये राख्युं छे. वास्तवमां रागथी भिन्न पडीने पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपमां रमे, ठरे ते सम्यग्दर्शन अने धर्म छे, अने ते आलोचना छे. आवी वात छे.
अत्यारे तो कोई पांच-दस करोडनो आसामी होय अने पांच-दस लाखनुं दान आपे एटले लोको तेने ‘धर्म धुरंधर’ नुं बिरूद आपे, एने ‘दानवीर’ कहे. अरे भाई! दान आपवानी क्रिया वखते कदाचित् जो तेने रागनी मंदता करी होय तो ते शुभ भावथी तेने पुण्य बंधाय बस एटलुं. बाकी ए शुभभाव छे ए तो विकार छे, झेर छे एम जाणी धर्मी जीव तो ते रागथी पाछो हठी जाय छे, अर्थात् निवृत्त थई पोताना चैतन्यस्वरूपमां पोताथी ज लीन थई जाय छे. ‘पोताथी ज’ एटले शुं? के जे व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प छे एनाथी नहि, पण एनाथी भिन्न पडी अंतरसन्मुख उपयोग वडे लीन थाय छे एम वात छे. मारग तो आ एक ज छे भाई! श्रीमदे कह्युं छे ने के-
प्रेरे ते परमार्थने, ते व्यवहार समंत.
अरे भाई! तारुं ज्ञायकतत्त्व अंदर जुदुं छे, ने पुण्य-पापना भाव अर्थात् आस्रव तत्त्व भिन्न छे. ए आस्रव तत्त्व कांई धर्म तत्त्व अथवा संवर-निर्जरा तत्त्व नथी. अहा! ते आस्रव तत्त्व भगवान ज्ञायक साथे एकमेक नथी, तद्रूप नथी. अहा! आम जाणी प्रचुर आनंदना स्वामी चारित्रवंत भावलिंगी मुनिवर एम अनुभवे छे के-“हुं तो चैतन्यस्वरूप आत्मामां आत्माथी ज निरंतर वर्तुं छुं, राग थाय ए तो बधो मोहनो विलास छे, मारे एनाथी कांई (संबंध) नथी.” ल्यो, आ आलोचना छे.
‘वर्तमान काळमां कर्मनो उदय आवे तेना विषे ज्ञानी एम विचारे छे के- पूर्वे जे कर्म बांध्युं हतुं तेनुं आ कार्य छे, मारुं तो आ कार्य नथी. हुं आनो कर्ता नथी, हुं तो शुद्ध चैतन्यमात्र आत्मा छुं. तेनी दर्शनज्ञानरूप प्रवृत्ति छे. ते दर्शनज्ञानरूप प्रवृत्ति वडे हुं आ उदयमां आवेला कर्मनो देखनार-जाणनार छुं. मारा स्वरूपमां ज हुं वर्तुं छुं. आवुं अनुभवन करवुं ते ज निश्चयचारित्र छे.’
दया, दान आदि जे परिणाम थाय, ते पूर्वे जे कर्म बांध्युं हतुं तेनुं कार्य छे-एम धर्मी माने छे. रागनुं जरी परिणमन छे पण ते पोतानुं कार्य नथी एम धर्मी विचारे छे. आ द्रष्टिनी प्रधानताथी वात छे. ज्ञाननी अपेक्षाए जुओ तो रागनुं
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अरे! अज्ञानी शुभभाव करे त्यां राजीराजी थई जाय अने फुलाई जाय के में धर्म कर्यो, अरे भाई! ए धर्म नथी, पण धर्मना नामे बधी धमाधम छे. धर्म वस्तु तो अंदरनी चीज छे अने लोको रोकाई गया छे बहारनी धामधूममां, -एम के दान करो ने भक्ति करो ने व्रत करो ने तप करो, पण भाई! ए बधी क्रियाओ रागनी छे, बंधननो मारग छे. तेने जे कर्तव्य माने, भली माने तेने जैन परमेश्वर जैन कहेता नथी. जुओ, आ शुं कहे छे? के धर्मी जीव एम जाणे छे के शुभाशुभ कर्म मारुं कार्य नथी, हुं तेनो कर्ता नथी केमके हुं तो शुद्ध चैतन्यमात्र वस्तु छुं, ज्ञाता-द्रष्टा छुं.
भाई! शरीरनी क्रिया थाय ए तो जडनी जडरूप छे. पण दया, दान, व्रत, भक्ति आदिनी जे क्रिया थाय ते पण मारी-चैतन्यनी क्रिया नहि. अहा! हुं तो शुद्ध चैतन्यमात्र वस्तु छुं, एमां रागनुं करवापणुं क्यां छे? धर्मी पुरुष कहे छे-रागथी मांडीने बीजी बधी चीजो मारा ज्ञानमां परज्ञेयपणे जाणवा लायक छे. अहा! ते चीजो मारी छे एम हुं केम मानुं? न ज मानुं.
भाई! शुभराग पण मारो छे एम माने ते जैन नथी, ते अन्यमती छे, अज्ञानी छे. हवे आवी वात बहु आकरी लागे पण शुं थाय? भगवान केवळीनी दिव्यध्वनि - ॐध्वनि छूटी तेमां आ वात आवी छे. ते वाणी सुणी संतोए आ शास्त्र रच्यां छे. तेमां कहे छे के-शुभाशुभ कर्म ते मारुं कार्य नथी. हुं तो ज्ञाता द्रष्टा मात्र छुं. दर्शनज्ञानरूप प्रवृत्ति मारी छे, परंतु राग थाय ते मारी प्रवृत्ति नथी.
अहा! द्रव्य शुद्ध, गुण शुद्ध अने जाणवा-देखवारूप पर्याय पण शुद्ध. वच्चे विकल्प उठे ते, धर्मी कहे छे, मारुं कार्य नथी. हुं तो दर्शनज्ञानरूप प्रवृत्ति वडे आ उदयमां आवेलां कर्मोनो मात्र देखनार-जाणनार छुं. हुं तो निज स्वरूपमां ज वर्तुं छुं. ल्यो, आवुं अनुभवन करवुं एनुं नाम निश्चयचारित्र छे. चारित्र कोने कहेवाय? भाई! तने खबर नथी; जेमां पुण्य-पापना भाव उत्पन्न ज न थाय अने उपयोग स्वरूपमां जामी जाय तेने वीतरागदेवे चारित्र कह्युं छे. अहाहा...! जेमां अतीन्द्रिय आनंदनी भरती (बाढ) आवे तेने चारित्र कहे छे.
भाई! ज्यां तुं नथी त्यांथी खसी जा, ने ज्यां तुं छो त्यां जा अने त्यां ज ठरी जा-बस आ ज मारग छे. अरे! अज्ञानी जीवो कस्तुरी मृगनी जेम, पोताना ज्ञानानंदस्वरूपने भूलीने सुख काजे बहारना विषयो भणी आंधळी दोट लगाव्या करे छे,
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पण भाई! ए तो बधी दुःखभरी ज दोट छे. अरे! आ काळमां विषयोनी बहुलता छे, अधिकता छे. परमात्म प्रकाशमां (गाथा १३९मां) आवे छे के- आ पंचमकाळमां देवोनुं आवागमन थतुं नथी, कोई अतिशय जोवामां आवतो नथी, केवळज्ञान थतुं नथी अने हलधर, चक्रधर आदिनो अभाव छे. आवा दूषमकाळमां कोई भव्य जीवो विषयोथी हठी, रागथी हठी यति, श्रावकना धर्मने धारण करे छे ते आश्चर्य छे, अर्थात् तेवा पुरुषोने धन्य छे, अहा! दुर्लभ छतां मारग तो स्वस्वरूपना अनुभवरूप आ ज छे भाई!
आ रीते आलोचना-कल्प समाप्त थयो. हवे टीकामां प्रत्याख्यान-कल्प अर्थात् प्रत्याख्याननो विधि कहे छेः- (प्रत्याख्यान करनार कहे छे केः-) ‘हुं (भविष्यमां कर्म) करीश नहि, करावीश नहि, अन्य करतो होय तेने अनुमोदीश नहि, मनथी, वचनथी तथा कायाथी. १.’
जुओ, धर्मात्मा कहे छे के हुं भविष्यमां शुभभाव करीश नहि. अहा! हुं तो शुद्ध चैतन्यमूर्ति ज्ञानदर्शनस्वरूप प्रभु आत्मा छुं, तेमां लीन थई हुं आ ज्ञानदर्शननी परिणतिस्वरूप वर्तुं छुं. ल्यो, आ प्रत्याख्यान छे, चारित्र छे. भाई! आ तो वाते वाते फेर छे बापा! आवे छे ने के-
एक लाखे ना मळे, एक त्रांबियाना तेर.
एम वीतराग कहे छे -तारे ने मारे वाते वाते फेर छे. अहा! तुं क्यांय शुभाशुभ रागमां गुंचाई पडयो छो ने मारग क्यांय बाजु पर रही गयो छे. भाई! अहीं तारा हितनी आ वात छे ते जरा ध्यान दई सांभळ.
अहा! धर्मी जीव कहे छे-हुं भविष्यमां शुभाशुभ कर्म करीश नहि, करावीश नहि अने अन्य करतो होय तेने अनुमोदीश नहि, मनथी, वचनथी ने कायाथी. आम नवकोटिनी वात आ पहेला बोलमां लीधी छे.
प्रश्नः– कोई ब्रह्मचर्य अंगीकार करे तेनी अनुमोदना करीए ते शुं छे? उत्तरः– ए शुभभाव छे. पापथी बचवा पुरतो ते भाव आवे, पण ते कांई धर्म नथी. अहीं तो भाई! पहेलेथी ज कहेता आव्या छीए के शुद्धोपयोग सिवायनो कोई (शुभ के अशुभ) परिणाम धर्म नथी. जुओ, बेंगलोरमां बे भाईओए मळीने रूपिया बार लाखना खर्चे जिनमंदिरनुं निर्माण कर्युं छे. तेमने पण कह्युं हतुं के आ शुभभाव छे,
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शुद्ध आत्मास्वरूपनुं भान थया पछी, धर्मात्माने अशुभथी निवर्तवारूप शुभभाव आवे छे, तेने व्यवहारथी ठीक पण कहीए छीए, पण निश्चये तो ते अठीक ज छे, हेय- छोडवालायक ज छे. आवी मान्यता सम्यग्दर्शननी भूमिकामां साधकने द्रढपणे थयेली ज होय छे. हवे अहीं तो एनाथी आगळ वात छे.
एक समयनी पर्यायमां जे शुभाशुभरूप विकृतभाव छे, तेनुं लक्ष छोडीने अंदर जुओ तो अहा! अंदर अनंतगुणना रसथी भरेलुं शुद्ध चैतन्यदळ महा पवित्र पडेलुं छे. तेनी द्रष्टिपूर्वक तेमां स्थिर थई रमतां शुद्धोपयोगनुं आचरण थाय छे अने अशुद्धोपयोग छूटी जाय छे. आनुं नाम प्रत्याख्यान छे. अहा! आवी रीते ज शुद्धोपयोगमां रमतां रमतां उग्र-अति उग्र आश्रय थये केवळज्ञान प्रगट थाय छे. भाई! आ बहु धीरज अने शान्तिनुं काम छे.
अहीं आ प्रमाणे बधा ४९ भंग पाठमां बताव्या प्रमाणे समजवा.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
(प्रत्याख्यान करनार ज्ञानी कहे छे के-) ‘भविष्यत् समस्तं कर्म प्रत्याख्याय’ भविष्यना समस्त कर्मने पचखीने (-त्यागीने) ‘निरस्त–सम्मोहः निष्कर्मणि चैतन्य– आत्मनि आत्मनि आत्मना नित्यम् वर्ते’ जेनो मोह नष्ट थयो छे एवो हुं निष्कर्म (अर्थात् सर्व कर्मोथी रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामां आत्माथी ज (-पोताथी ज निरंतर वर्तुं छुं)
आत्मानां श्रद्धान-ज्ञान थया पछी पचखाण करवामां अंदरनो घणो पुरुषार्थ जोईए. शुद्ध-उपयोगमां उग्रपणे अंदर रमे एनुं नाम प्रत्याख्यान छे. दया, दान-व्रत, भक्ति ईत्यादिना विकल्प उठे ए तो खरेखर अप्रत्याख्यान छे, अशुद्धता छे. तेनाथी भिन्न पडी अंदर उपयोग शुद्ध चैतन्यमात्र भावमां रमे ते प्रत्याख्यान छे.
४७ शक्तिओमां एक अभाव नामनी आत्मानी शक्ति छे. राग अने कर्मना अभावस्वभावस्वरूप एक अभाव नामनी आत्मामां शक्ति छे. अशुद्धता अर्थात् कर्मपणे न थाय एवी आत्मामां अभाव नामनी शक्ति छे. छतां निमित्त वश थतां अवस्था विकृत थाय छे. सम्यग्द्रष्टि ज्ञाता रहीने तेने परज्ञेयपणे मात्र जाणे छे, विकृत दशा
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मारी छे एम ते मानतो नथी. अहीं एथी विशेष वात छे के भविष्यमां हुं समस्त कर्म करीश नहि, करावीश नहि, अनुमोदीश नहि-मनथी, वचनथी ने कायाथी -एम धर्मात्मा सर्व कर्मथी छूटो पडी स्वसन्मुखता द्वारा शुद्धोपयोगरूप परिणमनमां स्थिर थाय छे, स्वस्वरूपमां ज उपयोगने रमावे छे. आनुं नाम पचखाण छे, चारित्र छे, स्वस्वरूपमां चरवुं, रमवुं, ठरवुं एनुं नाम चारित्र छे.
अरे! अनादिथी ए अवळे रस्ते चढी गयो छे. ते पंचमहाव्रतना ने शरीरनी नग्नदशाना परिणामने चारित्र मानी शुभ रागना सेवनमां-आचरणमां चढी गयो छे. परंतु भाई! जेम अशुभ राग अशुचि छे तेम शुभराग पण अशुचि ज छे, जेम अशुभ भाव दुःखरूप छे तेम शुभभाव पण आकुळतारूप ज छे. एक शुद्धोपयोगरूप परिणाम ज पवित्र अने निराकुळ छे. अहाहा...! आत्मा अंदर अतीन्द्रिय आनंदनो सागर पवित्रतानो पिंड प्रभु छे. उपयोगने त्यां ज स्थिर करी तेमां ज रमवुं-चरवुं तेनुं नाम पचखाण अने चारित्र छे.
जेने रागनी रुचि छे तेने तो सम्यग्दर्शन ज नथी, पछी पचखाण तो क्यांथी होय? न होय. अहीं तो रागथी खसीने स्वरूपनी रमणतामां जोडायेल छे एवो ज्ञानी पुरुष कहे छे-भविष्यना समस्त शुभाशुभ कर्मने त्यागीने जेनो मोह नष्ट थयो छे एवो हुं निष्कर्म चैतन्यस्वरूपमां पोताथी ज निरंतर वर्तुं छुं. अहा! भगवान आत्मा स्वरूपथी ज निष्कर्म-निराग-निर्दोष स्वरूप छे. अहीं कहे छे-एवा आत्मामां आत्माथी ज- पोताथी ज हुं लीन रही निरंतर वर्तुं छुं. एटले शुं? के आवी निर्मळ शुद्धोपयोगरूप दशा वर्ते तेमां व्यवहारनी -दया, दान, व्रत आदिनी कोई अपेक्षा छे एम नथी.
तो शुं दया, दान, व्रतादिना परिणाम कांई ज उपयोगी नथी? उत्तरः– ना, कांई ज उपयोगी नथी; शुद्धोपयोगरूप निर्मळ परिणति थवामां तेओ कांई उपयोगी नथी, बल्के तेम थवामां तेमनो अभाव ज थवो ईष्ट छे. धर्मात्माने व्रतादिना परिणाम होता नथी एम वात नथी; पण तेनो (व्रतादिना रागनो) अभाव करीने ज ते उपर उपरनी भूमिकाए चढे छे. आवी वात छे. समजाणुं कांई....?
ए तो आवी गयुं (गाथा १७-१८मां) के अज्ञानीने (आबाळ-गोपाळ सौने) तेनी ज्ञाननी दशामां भगवान आत्मा जणाय छे तोपण तेनी द्रष्टि-रुचि ज त्यां होती नथी, तेनी द्रष्टि-रुचि दया, दान, व्रत आदिना रागमां पडेली होय छे अने तेथी रागने ज निज स्वरूप मानी अज्ञानी थयो थको रागना आचरणमां संतुष्ट रहे छे, पण ज्ञानीने ते रागनी कांई ज किंमत नथी.
अरे, जुओ तो खरा! आठ आठ वरसनी बाळाओ कांई पण तत्त्वने समज्या
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भाई! धर्मनो पंथ तद्न जुदो छे बापु! आवा बहारना क्रियाकांड तो एणे अनंतवार कीधा छे, पण एथी शुं लाभ? आ तो सर्व क्रियाकांडना रागने छोडी शुद्ध एक चैतन्यस्वरूपमां ठरे तेने पचखाण कहे छे अने ते चारित्र छे. भाई! एक समयनुं पचखाण अनंत अनंत भवने छेदी नाखे एवी ए अलौकिक चीज छे. अहा! एनी शी वात! स्वरूपमां ठरी जाय एनी शी वात! ए तो अद्भुत आनंदकारी अलौकिक दशा छे.
‘निश्चय चारित्रमां प्रत्याख्याननुं विधान एवुं छे के- समस्त आगामी कर्मोथी रहित, चैतन्यनी प्रवृत्तिरूप (पोताना) शुद्धोपयोगमां वर्तवुं ते प्रत्याख्यान. तेथी ज्ञानी आगामी समस्त कर्मोनुं प्रत्याख्यान करीने पोताना चैतन्यस्वरूपमां वर्ते छे.’
अहाहा....! जोयुं? धर्मी कहे छे- हुं सदाय शुद्ध-उपयोगमां वर्तुं छुं बेनना वचनामृतमां आवे छे ने के-जेम कंचनने काट न होय, अग्निमां उधई न होय तेम आत्मामां अशुद्धि, ऊणप के आवरण नथी. अहा! आवो पूर्णानंदनो नाथ शुद्ध चैतन्यपूर्ण प्रभु आत्मा छे अहाहा....? तेमां एकाकार लीन थई शुद्धोपयोगमां वर्तवुं रमवुं ते पचखाण छे. ज्ञानी धर्मात्मा पुरुष आगामी समस्त कर्मोने पचखीने त्यागीने पोताना शुद्ध एक चैतन्यस्वरूपमां वर्ते छे, एक शुद्धोपयोग पणे रहे छे हवे कहे छे-
‘अहीं तात्पर्य आ प्रमाणे जाणवुंः- व्यवहार चारित्रमां तो प्रतिज्ञामां जे दोष लागे तेनुं प्रतिक्रमण, आलोचना तथा प्रत्याख्यान होय छे. अहीं निश्चयचारित्रनुं प्रधानपणे कथन होवाथी शुद्धोपयोगथी विपरीत सर्व कर्मो आत्माना दोषस्वरूप छे. ते सर्व कर्मचेतनास्वरूप परिणामोनुं- त्रणेकाळनां कर्मोनुं -प्रतिक्रमण, आलोचना तथा प्रत्याख्यान करीने ज्ञानी सर्व कर्मचेतनाथी जुदा पोताना शुद्धोपयोगरूप आत्मानां ज्ञानश्रद्धान वडे अने तेमां स्थिर थवाना विधान वडे निष्प्रमाद दशाने प्राप्त थई, श्रेणी चडी, केवळज्ञान उपजाववानी सन्मुख थाय छे, आ ज्ञानीनुं कार्य छे.’
जुओ, शुं कहे छे? के व्यवहार चारित्रमां तो प्रतिज्ञामां जे दोष लागे तेनुं प्रतिक्रमण वगेरे होय छे. अहा! आ शुभभावरूप होय छे अने ते पुण्यबंधनुं कारण छे पण अहीं, कहे छे, निश्चयचारित्रनी प्रधानताथी वात छे. तेथी शुद्धोपयोगथी विपरीत
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सर्वकर्मो आत्माना दोषस्वरूप छे एम कहे छे. जोयुं? सर्व कर्मो अर्थात् सर्व क्रियाकांड शुद्धोपयोगथी विपरीत छे अने ते आत्माना दोषस्वरूप छे. भाई! आ व्यवहार प्रतिक्रमण वगेरे दोषस्वरूप छे, लोको एने धर्म माने छे ने? अहीं कहे छे ते दोषस्वरूप छे, कर्मचेतना स्वरूप छे. लोकोने बेसे के न बेसे, आ वस्तुस्वरूप छे भाई! अंदर वस्तुमां सर्वज्ञशक्ति भरी छे तेमांथी सर्वज्ञपद प्रगट थाय छे, कांई बहारथी (रागमांथी) ते प्रगट थतुं नथी. ए तो प्राप्तनी प्राप्ति छे. पोताना शुद्धस्वरूपमां लीनता-रमणता करे ते शुद्धोपयोग छे, ते साचुं चारित्र छे अने पुण्य-पापना सर्व भावो दोषस्वरूप छे, कर्मचेतनास्वरूप छे, दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना भाव सर्व शुद्धोपयोगथी विपरीत होवाथी दोषस्वरूप छे, कर्मचेतना स्वरूप छे. बापु! कोई दि’ सांभळ्युं न होय एटले आ कठण लागे पण सत्य आ ज छे. समजाणुं कांई...?
ए सर्व कर्मचेतनाथी जुदा पोताना शुद्धोपयोगरूप आत्मानां ज्ञानश्रद्धान वडे अने तेमां स्थिर थवाना विधान वडे निष्प्रमाद दशाने प्राप्त थई, श्रेणी चडी, केवळज्ञान उपजाववानी सन्मुख थाय छे -ते ज्ञानीनुं कार्य छे. जुओ, आ ज्ञानीनुं कार्य! अहाहा...! बरफनी पाटनी जेम आत्मा शान्ति... शान्ति... शान्ति बस शान्तिरूप शीतळताना स्वभावथी भरेली पाट छे. तेमां तन्मय थई ठरी जाय, जामी जाय ते शुद्धोपयोग छे. अहा! आवा जामेला शुद्धोपयोग वडे आत्मामां स्थिर थई, निष्प्रमाद दशाने प्राप्त थई, श्रेणी चडी, केवळज्ञान उपजाववाने सन्मुख थवुं ते धर्मी-ज्ञानीनुं कार्य छे.
आ रीते प्रत्याख्यानकल्प समाप्त थयो.
हवे सकळ कर्मना संन्यासनी भावनाने नचाववा विषेनुं कथन पूर्ण करतां, कळशरूप काव्य कहे छे.
(शुद्धनयनुं आलंबन करनार कहे छे के-) ‘इति एवम्’ पूर्वोक्त रीते ‘त्रैकालिकम् समस्तं कर्म’ त्रणे काळनां समस्त कर्मोने ‘अपास्य’ दूर करीने -छोडीने, ‘शुद्धनय–अवलम्बी’ शुद्धनयावलंबी (अर्थात् शुद्धनयने अवलंबनार) अने ‘विलीन–मोहः’ (अर्थात् जेनुं मिथ्यात्व नष्ट थयुं छे) एवो हुं ‘अथ’ हवे ‘विकारैः रहितं चिन्मात्रम् आत्मानम् (सर्व) विकारोथी रहित चैतन्यमात्र आत्माने ‘अवलम्बे’ अवलंबुं छुं.
अहाहा....! सम्यग्दर्शनपूर्वक चारित्र प्रगट करवानी, स्वस्वरूपमां रमणतानी जेने भावना छे ते एम जाणे-अनुभवे छे के-गया काळना पुण्य-पापना भाव ते मारुं स्वरूप नथी, तेनाथी हुं पाछो हठुं छुं; आ वर्तमान काळना पुण्य-पापना भाव ते मारुं स्वरूप नथी, तेनाथी हुं पाछो हठुं छुं; तेम ज भविष्यकाळना जे पुण्य-पापना
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आ शरीर, मन, वाणी, ईन्द्रिय ए तो बधा जड पदार्थ पर छे. एने तो हुं कोई दि’ अडयोय नथी. ए तो प्रवचनसारमां आव्युं’ तुं सवारे के, हुं शरीर, मन, वाणी, ईन्द्रियनो कर्ता नहि, कारयिता नहि अने कर्तानो अनुमंता पण नहि. ल्यो, आवी वात! अहीं कहे छे- त्रणे काळना जे पुण्य-पापना भाव ते मारुं कार्य नहि, हुं तेनाथी निवर्तुं छुं. निवर्तुं छुं ए तो नास्तिथी भाषा छे. अस्तिमां शुं? तो कहे छे-हुं मने-शुद्ध चैतन्यस्वरूप भगवान आत्माने अवलंबु छुं, प्राप्त थाउं छुं.
आ बधा कार्यकर्ता नथी पाकता देशमां? धूळेय कार्यकर्ता नथी सांभळने! ए परनां-जडनां कार्य कोण करे? शुं आत्मा करे? ए तो परने अडेय नहि ते परमां शुं करे? अहीं तो धर्मी पुरुष कहे छे-त्रणे काळनां जे शुभाशुभ कर्म-कर्मचेतनारूप परिणाम -ते मारां कार्य नहि. हुं तो शुद्ध चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मा छुं तेने अवलंबुं छुं, तेने हुं प्राप्त थाउं छुं. अहाहा.....! त्रिकाळी अकषायी शांत-शांत-शांत एवा वीतरागरसथी- चैतन्यरसथी भरेलो अंदर हुं भगवान छुं तेने अवलंबु छुं. ल्यो, आ धर्मी पुरुषनुं कार्य! अहा! जेमां व्यवहारनुं आलंबन नथी एवी स्वरूपरमणतानी आ वात छे, कार्य परमात्मा थवानी आ वात छे. समजाणुं कांई....?
अहाहा...! भगवान! तुं कोण छो? केवडो छो? अहाहा...! ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, प्रभुता, स्वच्छता आदि अनंत शक्तिओनो भंडार एवो शुद्ध चैतन्यनुं दळ छो ने प्रभु! अहाहा....! एनी महिमानी शी वात! भगवान सर्वज्ञनी वाणीमां पण पूरी न आवे एवो महा महिमावंत पदार्थ प्रभु तुं छो. धर्मी पुरुष कहे छे- त्रणे काळना शुभाशुभ कर्मथी हठीने हुं अंदर आवा अनंत महिमावंत निज स्वरूपने अवलंबु छुं. हवे हुं एमां ज एकाकार थई वर्तुं छुं. ल्यो, आनुं नाम प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान अने आलोचना छे, अने आ चारित्र छे.
अरे! आ पंच महाव्रत तो अभव्य जीव पण पाळे छे. ए तो विकल्प छे, आस्रव छे बापा! तत्त्वार्थसूत्रमां एने आस्रव कहेल छे. ए कांई चारित्र नथी. अहीं तेने आस्रव कही बंधनुं कारण कहेल छे. अहीं तो त्रणे काळना रागनुं आलंबन छोडी, आत्मा अंदरमां चैतन्य चमत्कार चीज पोतानी पडी छे तेने, कहे छे, हुं अवलंबु छुं. अहाहा...! केवी छे चैतन्य चमत्कार चीज? अहाहा...! त्रणकाळ त्रण लोकने एक समयमां पूर्णपणे प्रत्यक्ष जाणे एवी केवळज्ञाननी एक पर्याय-एवी अनंती
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पर्यायो अनंतकाळ सुधी थया ज करे छतां ते एवी ने एवी रहे, एमां कांई घट-वध थाय नहि एवी आश्चर्यकारी चीज ए छे. अहीं कहे छे-आवी मारी शुद्ध चैतन्य चमत्कार चीजने हुं अवलंबुं छुं. अहा! जेमांथी केवळज्ञान पाके एवी मारी चीजने हुं अवलंबुं छुं.
प्रथम शुद्धनयना आलंबन वडे त्रिकाळी ध्रुव स्वभावने ग्रहण कर्यो छे; पण हजी व्यवहारना विकल्प आवे छे. तेने छोडी दई, हवे कहे छे, शुद्धनयथी पृथक् करेला निर्विकार शुद्ध चैतन्यने हुं अवलंबुं छुं. हुं शुद्धनयावलंबी विलीनमोह एवो सर्व विकारोथी रहित चैतन्यमात्र आत्माने अवलंबुं छुं, एम के राग मारो छे एवो जे मिथ्यात्वनो भाव ते मने नष्ट थई गयो छे; दया, दान, व्रतादिना भावथी धर्म थाय एवो जे मिथ्यात्वनो भाव तेनो नाश थई गयो छे, अने हवे मने शुद्धनयनुं आलंबन छे, निर्विकार शुद्ध चैतन्यनुं ज आलंबन छे. आवी वात! हवे एक कळशमां केटलुं भर्युं छे? भाई! भाषा तो सादी छे, भाव तो जे छे ते अति गंभीर छे. अहो! सर्वज्ञना केडायती दिगंबर संतोए गजबनां काम कर्यां छे. सर्वज्ञस्वभाव अल्पकाळमां पूर्ण प्रगट करवाना छे ने? तेने अनुसरीने अहीं वात करी छे.
अहीं त्रण वात कही छेः १. त्रणे काळना समस्त शुभाशुभ कर्मोथी हुं हठुं छुं. २. अंदर शुद्ध चिदानंदकंद प्रभु हुं छुं तेने शुद्धनय वडे प्राप्त करीने अवलंबुं छुं. ३. मारो चिन्मात्र आत्मा ज, चित्स्वभावी आत्मा ज मारुं आलंबन छे, राग मारुं आलंबन नथी; केमके राग मारुं स्वरूप नथी, स्वभाव नथी.
प्रथम विकारथी जुदो पाडीने चिन्मात्र भगवान आत्माने ग्रहण कर्यो हतो, प्राप्त कर्यो हतो; हवे सर्व विकारने छोडी स्थिरता द्वारा आत्माने प्राप्त करे छे. जेमां एक चिन्मात्र आत्मानुं ज आलंबन छे. आ चारित्र छे.
अरे! शुक्ल लेश्याना परिणाम वडे ए नवमी ग्रैवेयकमां उपज्यो, पण मंदकषायनी क्रियाथी लाभ छे एवी द्रष्टि (मिथ्या) एने छूटी नहि ने एनुं संसार परिभ्रमण मटयुं नहि, एना कलेशनो अंत आव्यो नहि. छहढालामां आव्युं छे ने के-
पै निज आतमज्ञान विना सुख लेश न पायो.
भाई! आ विपरीत मान्यताने हवे छोडी दे. (एम के आ अवसर छे). हवे आवुं सांभळवाय न मळे ते तत्त्वने क्यारे पामे? आवी वात आ काळमां प्रीतिथी जे सांभळे छे तेमने धन्य छे. पद्मनंदी पंचविंशतिमां आवे छे के-
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निश्चितं स भवेद्भव्यो भावि निर्वाण भाजनम्।।
भाई! सम्यग्दर्शन विना चारित्र नाम मुनिदशा होती नथी, एवो मार्ग छे. अहीं तो सर्व विकारने छोडी चैतन्यमात्र आत्माने ज अवलंबे एनुं नाम चारित्र छे. ए ज कह्युं अहीं के- सर्व विकारोथी रहित शुद्ध चिन्मात्र आत्माने अवलंबुं छुं; तेमां ज लीन रहुं छुं. आवी वात छे.
पंचेन्द्रियना विषयो प्रति जेने राग छे ए तो झेरना प्याला ज पीए छे, पण दया, दान, व्रतादिना विकल्पो प्रति जेने राग छे एय झेरना ज प्याला पीए छे, तेने अमृतनो स्वाद नथी. अहाहा...! अमृतनो सागर तो अंदर आनंदनो नाथ प्रभु एकला अमृतथी पूर्ण भरेलो प्रभु छे. अहा! तेने अवलंबी तेमां ज लीन-स्थिर थवुं ए भरपुर आनंदनो-अमृतनो स्वाद छे अने तेने ज भगवान केवळी चारित्र कहे छे. आ सिवाय कोई घर छोडे ने दुकान छोडे ने बायडी-छोकरां छोडे ने वस्त्र छोडी नग्न थई व्रत धारण करे, पण ए कांई चारित्र नथी. समजाणुं कांई....?
हवे सकळ कर्मफळना संन्यासनी भावनाने नचावे छेः- (त्यां प्रथम, ते कथनना समुच्चय अर्थनुं काव्य कहे छेः-)
(समस्त कर्मफळनी संन्यास भावना करनार कहे छे के-) ‘कर्म–विष– तरु– फलानि’ कर्मरूपी विषवृक्षनां फळ ‘मम भुक्ति मन्तरेण एव’ मारा भोगव्या विना ज ‘विगलन्तु’ खरी जाओ; ‘अहम् चैतन्य–आत्मानम् आत्मानम् अचलं सञ्चेतये’ हुं (मारां) चैतन्य स्वरूप आत्माने निश्चळपणे संचेतुं छुं-अनुभवुं छुं.
जुओ, ज्ञानावरणादि आठ कर्म छे, तेना विशेष भेद १४८ छे. ते समस्त कर्मफळना त्यागनी भावना करनार धर्मात्मा कहे छे के-कर्मरूपी विषवृक्षनां फळ मारा भोगव्या विना ज खरी जाओ, जुओ, शुं कहे छे? समस्त कर्मनां फळ विषवृक्षनां फळ छे. आ तीर्थंकर प्रकृतिनुं फळ ते विषवृक्षनुं फळ छे. आकरी वात छे प्रभु! धीरज राखीने वात सांभळवी. ज्ञानीने शुभभावने लईने तीर्थंकर गोत्रकर्म बंधाय छे. ते शुभभाव झेर छे, ज्ञानी तेनाथी पाछो हठी गयो छे. हवे, पूर्वे जे कर्म बांध्युं हतुं तेनुं फळ आवे ते पण विषतरुनुं फळ छे, ते भोगव्या विना ज खरी जाओ एम ज्ञानी कहे छे. कोईने आ नवुं लागे पण बापु! आ तो अनादिसिद्ध वीतरागनो मारग ज आ छे. अहाहा....! आनंदकंद अमृतनो सागर प्रभु आत्मा पूरण आनंद-अमृतथी सर्वांग भरेलो छे. तेनुं फळ तो अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन छे. अहा! आवा आनंदनो भोक्ता ज्ञानी कहे छे-
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कर्मरूपी विषवृक्षनां फळ मारा भोगव्या विना ज खरी जाओ, ए कर्मनां फळ सौ विषवृक्षनां फळ छे. आवी वात!
विदेह क्षेत्रमां सीमंधर स्वामी तीर्थंकर पदमां बिराजे छे. एक क्रोड पूर्वनुं आयुष्य छे, ने पांचसो धनुष्यनुं देहमान छे. हजु अबजो वर्षनुं आयुष्य बाकी छे, पछी मोक्षपद पामशे. त्यां इन्द्रो ने गणधरोनी सभामां चाली ते वात अहीं आवी छे. तेमां कहे छे-पूर्वे शुभाशुभ भावथी जे कर्म बंधाणां ते विषवृक्षनां फळ छे. पुण्यना फळमां पांच-पचास लाख मळे अने लोको तेमां सुख माने तेमने कहे छे-ए बधां विषवृक्षनां फळ छे बापा! तेमां धूळेय सुख नथी भाई! एना लक्षे तने राग अने दुःख ज थशे. तने शुं थयुं छे भाई! के तेमां तने सुख भासे छे?
सर्प करडयो होय तेने झेर चडे छे. जो लीमडानां कडवा पान चाववाथी ते मीठां लागे तो समजवुं के तेने झ्रेर चढी गयुं छे. तेम पुण्यना फळमां मोटी शेठाई के ठकुराईनुं पद आवे तेमां मीठाश लागे ने मद चढी जाय तो समजवुं के तेने मिथ्यात्वरूपी सर्प डस्यो छे तेनुं झ्रेर चढी गयुं छे. भाई! कर्मनां फळ सर्व विषवृक्षनां ज फळ छे, तेमां होंश केवी? तेमां मीठाश केवी? अहीं धर्मी जीव कहे छे-कर्मरूपी विषवृक्षनां फळ मारा भोगव्या विना ज खरी जाओ. अहा! कर्मफळने भोगववानी तेने भावना नथी. ए तो कहे छे-हुं तो शुद्ध चैतन्यमूर्ति आनंदकंद निज आत्माने संचेतुं छुं-अनुभवुं छुं.
शातावेदनीय कर्म बंधाणुं होय तेना फळमां सामग्रीना ढगला मळे; पाणी मागे त्यां शेरडीना रस पीवा मळे. पण ए विषवृक्षनां फळ बापु! एना लक्षे दुःख ज थाय. तेथी अंदर अतीन्द्रिय आनंदनी छोळो उछळे छे एवा ज्ञानी संत मुनिवरो कहे छे-- ए कर्मरूपी विषवृक्षनां फळ अमारा भोगव्या विना ज खरी जाओ. अज्ञानी पुण्यना फळमां सुख मानी फसाई जाय छे, त्यांथी ज्ञानी सहज ज हठी जाय छे. आ प्रमाणे पहेलां कर्मचेतनना त्यागनी भावना नचावी अने हवे कर्मफळचेतनाना त्यागनी भावना नचावे छे.
राग-द्वेष अने हरख-शोकने भोगववाना भाव ते कर्मफळचेतना छे. तेनाथी खसी, ज्ञानी कहे छे, हुं मारा चैतन्यस्वरूप आत्माने निश्चळपणे संचेतुं छुं--अनुभवुं छुं.
‘ज्ञानी कहे छे के-जे कर्म उदयमां आवे छे तेना फळने हुं ज्ञाता-द्रष्टापणे जाणुं- देखुं छुं, तेनो भोक्ता थतो नथी, माटे मारा भोगव्या विना ज ते कर्म खरी जाओ; हुं मारा चैतन्यस्वरूपमां लीन थयो थको तेनो देखनार--जाणनार ज होउं.’