Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 415 ; Kalash: 246.

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सम्यग्द्रष्टिने आत्मा उपर द्रष्टि होय छे. वर्तमान पर्यायमां अल्पता छे तेनुं ते ज्ञान करे छे अने पूर्णतानी प्राप्ति माटे हजु घणुं करवानुं बाकी छे एम ते माने छे, ज्यारे अज्ञानी बाह्य त्यागथी संतुष्ट थई में घणुं कर्युं एम माने छे. तेने स्वस्वरूपनी खबर नथी, तेथी स्वस्वरूपनो त्यागी ते मिथ्यात्वनो ज सेवनारो छे.

‘निश्चयनयनो विषय अभेदरूप शुद्धद्रव्य छे, तेथी ते ज परमार्थ छे.’ जोयुं? व्यवहारनयनो विषय भेदरूप अशुद्ध द्रव्य छे, तेथी ते परमार्थ नथी, ज्यारे निश्चयनयनो विषय अभेदरूप शुद्ध द्रव्य छे, तेथी ते ज परमार्थ छे. आम बे लीटीमां बे नयना बे विषय समावी परमार्थ कह्यो के निश्चयनयनो विषय अभेद एकरूप त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य छे माटे तेनो अनुभव परमार्थ छे. अहाहा......! जेने गाथा ११ मां भूतार्थ कह्यो ते एक ज सत्यार्थ प्रभु छे अने ते सम्यग्दर्शननो विषय छे, माटे ते ज परमार्थ छे. निश्चयनयनो विषय कहो के सम्यग्दर्शननो विषय कहो -ते एक ज छे अने ते ज परमार्थ छे.

निमित्त, व्यवहार अने पर्याय ते व्यवहारनयनो विषय छे, ते परमार्थ नथी. पूर्णानंदनो नाथ भगवान आत्मा शाश्वत ध्रुव... ध्रुव... ध्रुव शुद्ध चिदानंदघनप्रभु अंदर छे ते अभेदरूप शुद्ध द्रव्य छे, ते ज परमार्थ छे; केमके तेना आश्रये धर्म प्रगट थाय छे. अरे भाई! आ व्यवहारना क्रियाकांड छे ए तो बधी कर्मधारा छे, ए धर्मधारा नथी. भूतार्थ अभेद एक जे शुद्धद्रव्य तेना आश्रये प्रगट जे निर्मळ रत्नत्रय ते ज धर्म छे अने तेथी ते ज परमार्थ छे. तेथी कहे छे-

‘माटे, जेओ व्यवहारने ज निश्चय मानीने प्रवर्ते छे तेओ समयसारने अनुभवता नथी; जेओ परमार्थने परमार्थ मानीने प्रवर्ते छे तेओ ज समयसारने अनुभवे छे. (तेथी तेओ ज मोक्षने पामे छे).’

अहाहा....! त्रिकाळी ध्रुव एक ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि कर-एम भगवाननी आज्ञा छे. अहा! भगवान सर्वज्ञदेवनी आज्ञा छे के-अमारी पण द्रष्टि छोड, अमारी द्रष्टि कर मा. अंदर तारो पूर्ण भगवान छे तेने द्रष्टिमां ले. अमारा प्रति लक्ष करीश तो तने राग थशे. जेओ व्यवहारने ज निश्चय मानीने प्रवर्ते छे तेओ निज भगवान समयसारने अनुभवता नथी. मोक्षपाहुडनी गाथा १६ मां कह्युं छे के- ‘परदव्वादो दुग्गइ सद्व्वादो हु सग्गइ होई’ पर तरफनी द्रष्टि करे ते दुर्गति छे, अने स्वद्रव्यनी द्रष्टिथी सुगति नाम मोक्षगति छे. अहा! दिगंबर संतोने कोईनी शुं पडी छे? समाजने गमे के न गमे, ए तो मार्ग जेम छे तेम कहे छे. अहाहा....! कहे छे-जेओ परमार्थने परमार्थ मानीने प्रवर्ते छे तेओ ज समयसारने अनुभवे छे; अर्थात् तेओ ज मोक्षने पामे छे आवी वात छे.

*

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‘बहु कथनथी बस थाओ, एक परमार्थनो ज अनुभव करो’ -एवा अर्थनुं काव्य हवे कहे छेः-

* कळश २४४ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अतिजल्पैः अनल्पैः दुर्विकल्पैः अलम् अलम्’ बहु कहेवाथी अने बहु दुर्विकल्पोथी बस थाओ, बस थाओ; ‘इह’ अहीं एटलुं ज कहेवानुं छे के- ‘अयम् परमार्थः एकः नित्यम् चेत्यताम्’ आ परमार्थने एकने ज निरंतर अनुभवो;.......

अहाहा...! कहे छे- ‘अलम् अलम्’ बस थाओ, बस थाओ; घणुं कहेवाथी ने घणा बधा विकल्पोथी बस थाओ. एम के बार अंगनो सार तो आ ज छे के -परमार्थने एकने ज निरंतर अनुभवो. ल्यो, चारे अनुयोगनो आ सार छे. अहाहा....! पूर्णानंदनो नाथ अभेद एकरूप अंदर ध्रुव त्रिकाळ छे ते एकने ज आलंबो. भेदनी वात तो घणी सांभळी, हवे एनाथी शुं काम छे? परमार्थ एक अभेदने ज ग्रहण करो. अहीं आटलुं ज कहेवानुं छे के-व्यवहारना दुर्विकल्पोथी बस करी -थंभी जई अभेद एक शुद्धद्रव्यने ज निरंतर अनुभवो.

वच्चे भेदना विकल्प आवे खरा, पण ए तो अभेदने जाणवा माटे छे. माटे कहे छे-भेदना विकल्प मटाडी अभेद एक निश्चय शुद्ध वस्तुनी द्रष्टि कर, तेने पकड अने तेनो ज निरंतर अनुभव कर. जुओ, आ केवळी परमात्माने अनंती शक्तिनी व्यक्ति पर्यायमां प्रगट थई छे ते अंदर जे छे ते प्रगट थई छे. तेम बधी अनंती शक्ति भगवान! तारामां त्रिकाळ पडी छे. तेनी द्रष्टि कर अने तेना आलंबने तेनो ज निरंतर अनुभव कर. तेना ज फळमां सादि-अनंत समाधिसुख प्रगटे छे. अहाहा....! भगवान! तुं अंदर अनादि-अनंत शुद्ध चिदानंदघन प्रभु छो; ते एकनो ज अनुभव कर. तेनुं फळ सादि- अनंतकाळ आनंद छे. तेथी कहे छे-सर्व विकल्प मटाडीने अखंडानंद प्रभु एकनो ज निरंतर अनुभव करो. हवे तेनुं कारण समजावे छे-

‘स्व–रस–विसर–पूर्ण–ज्ञान–विस्फुर्ति–मात्रात समयसारात खलु किञ्चत् न अस्ति’ कारण के निजरसना फेलावथी पूर्ण जे ज्ञान तेना स्फुरायमान थवामात्र जे समयसार (-परमात्मा) तेनाथी ऊंचुं खरेखर बीजुं कांई पण नथी (-समयसार सिवाय बीजुं कांईपण सारभूत नथी).

अहो! चैतन्य चमत्कारथी भरेली परम अद्भुत वस्तु अंदर आत्मा छे. अंदर वस्तु अजब-गजब छे हों. जेनो क्यांय अंत नथी एवुं अनंत अनंत विस्तरेलुं आकाश छे. तेना अनंता क्षेत्रनुं जेमां ज्ञान थई जाय एवो अचिंत्य आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे. अहीं कहे छे- आवा भगवान आत्माने एकने ज अनुभवो.


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हा, पण तेनुं साधन तो कांई हशे ने? तेनुं साधन तो बीजुं कांई नथी. तेना (-आत्माना) अनुभव माटे व्यवहार रत्नत्रयनी पण अपेक्षा नथी. अरे! अनुभवकाळमां अनंतगुणनी पर्याय प्रगट थई त्यां एक गुणनी पर्यायने बीजा गुणनी पर्यायनी ज्यां अपेक्षा नथी तो व्यवहार रत्नत्रय तो बहारनी चीज छे, तेनी अपेक्षा केम होय? आत्माना द्रव्य-गुण-पर्याय-ते शरीर के कर्म के रागना आधारे नथी. व्यवहाररत्नत्रय छे ते निश्चयनुं साधन छे एम नथी.

आत्मामां करण नामनो गुण छे ते साधन छे, अने आधार नामनो गुण छे ते आधार छे. बीजुं साधन ने बीजो आधार छे एम छे ज नहि. अनंतगुणनो पिंड प्रभु आत्मा छे; त्यां एक गुणने बीजा गुणनो आधार नथी तो स्वानुभवनी दशाने बीजो आधार छे ए केम संभवे? ए पर्यायने पण पर्यायनो ज आधार छे, ने पर्याय ज पोते पर्यायनुं साधन छे. पर्याय आवी स्वतंत्र छे. अरे! जैनमां जन्मेलाने पण जैनतत्त्व शुं छे एनी खबर नथी! आ लाकडी छे ने? तेनो एक रजकण बीजा रजकणना आधारे रह्यो नथी. आवुं प्रत्येक रजकणनुं स्वतंत्र अधिकरण छे. अधिकरण गुण छे के नहि अंदर? अहो! प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र पोतपोताना आधारे छे एवुं अलौकिक वस्तुस्वरूप छे.

कर्मनो उदय छे ते जड छे, ते रागने अडतो नथी, रागभाव छे ते कर्मने अडतो नथी. वळी रागभाव छे ते शुद्ध स्वानुभवनी पर्यायने अडतो नथी. आवी ज वस्तु छे. भाई! वस्तुनुं होवापणुं ज आ रीते चमत्कारिक छे. लोको बहार चमत्कार माने छे पण तेमने अंदर चैतन्यना चमत्कारनी खबर नथी. वस्तुनां द्रव्य-गुण-पर्याय-बधां स्वतंत्र छे एवी वस्तुनी चमत्कारिक शक्तिनो जाणनार भगवान आत्मा चैतन्यचमत्कारी वस्तु छे. भाई! जेमां सर्व प्रत्यक्ष जणाय एवो ज्ञाननी पूर्णतानो कोई अद्भुत अलौकिक महिमा छे, अने आवुं जेनुं सामर्थ्य छे ते भगवान आत्मा परम अद्भुत चैतन्यचमत्कारमय वस्तु छे. अहीं कहे छे-ए परमार्थवस्तुने एकने ज अनुभवो.

अहाहा.... निजरसना फेलावथी पूर्ण जे ज्ञान तेना स्फुरायमान थवामात्र जे समयसार तेनाथी ऊंचुं बीजुं कांई नथी. अहाहा....! जे निर्मळ पर्याय प्रगट थवामां कोई अन्य द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावनो आश्रय-सहाय नथी एवी जे निजरसथी भरपुर छे एवी अद्भुत.... अद्भुत पर्याय शक्तिनी विस्फुरणामात्र समयसार विश्वमां परम सारभूत छे. आ पर्यायनी वात छे हों. सवारे आव्युं हतुं ने! के ए (-आत्मा) सुखदेव संन्यासी छे; मतलब के सुखनो देव अने रागनो त्यागी छे. आवी वात!

आ सिवाय संसारमां तो रळवुं-कमावुं ने खावुं-पीवुं ने पंचेन्द्रियना विषय


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भोगववा-एम बधी रागनी होळी छे. परनी क्रियानो तो ते कर्ता नथी, पण संकल्प- विकल्पनो कर्ता अज्ञानी थाय छे. एने स्वभावनी अपार अनंत निज वैभवनी खबर नथी तेथी ते पुण्य-पापना संकल्प-विकल्प करे छे; बाकी परनां काम ते करी शके छे एम त्रणकाळमां नथी.

अहो! निजरसना वैभवथी भरेलो भगवान आत्मा परम अद्भुत वस्तु छे. कळश २७३ मां आवे छे के- आत्मानो ते आ सहज अद्भुत वैभव छे. बहार क्रोडोना महेल होय ने मांहि लाखोनां फर्नीचर होय ते आ वैभव नहि. ए तो बधी धूळ छे बापु! एनी तो धूळ ने राख ज थशे. ए तो भगवान आत्माने अडतुंय नथी आ तो आत्मानो एवो सहज अद्भुत वैभव छे के अंतर्मुख जुए तो मुक्तस्वरूप भासे छे, ने बहारमां नजर करे तो राग भासे छे; अंदर जुए तो अभेद एकरूप भासे छे, ने भेदथी जुए तो अनेकरूप भासे छे; अंतर्मुख जुए कषायरहित शांतिनो पिंड भासे छे, ने बहारमां जुए तो कषायनो कलेश भासे छे. अहा! आवो आत्मानो अद्भुतथी अद्भुत महिमावंत स्वभाव वर्ते छे.

एक जादुगर एकवार आवीने कहे-महाराज! आ मारी जादुनी विद्या तो मात्र चालाकी छे, धतींग छे. त्यारे तेने कह्युं’ तुं के -अरे! आमने आम जीवन पुरुं थई जशे भाई! पछी क्यां उतारा करशो? आ जादु त्यां काम नहि आवे बापु! आवा जादुमां शुं सार छे भाई! अहा! आत्माना जादु-चमत्कारनी लोकोने खबर नथी. एनी एक समयनी ज्ञाननी दशा त्रणकाळ-त्रणलोकने, तेने अडया विना ज जाणे एवो आत्मानो चमत्कारी स्वभाव छे. आत्माना स्वरूपनो अनुभव थाय ते बहारमां रागने पण अडया विना थाय छे एवो अद्भुत एनो स्वभाव छे. अहो! आत्मानुं द्रव्य चमत्कारी, तेना गुण चमत्कारी ने तेनी पर्याय चमत्कारी छे. स्वानुभवनी पर्यायने पण कोईनो आधार नथी. वर्तमान पर्याय पूर्व पर्यायना कारणे थई नथी, परना कारणे ते थई नथी. खरेखर तो पर्यायनुं कारण पोताना द्रव्य-गुण पण नथी.

व्यवहारथी निश्चय नथी-ए वात उपरथी आ स्पष्टीकरण आव्युं छे. नग्नदशा अने २८ मूलगुणनुं पालन -ते वडे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान थाय एम कदी छे नहि. बाह्य व्यवहारने तो निर्मळ पर्याय स्पर्शती नथी, ने व्यवहारनो जे राग छे ते निर्मळ पर्यायने स्पर्शतो नथी. आवो चित्चमत्कार प्रभु आत्मानो महिमा जयवंत वर्ते छे. अहो! समयसारमां दरियाना दरिया भर्यां छे! एकेक कळश ने एकेक शब्दे गजबनां रहस्य भर्यां छे.

अरे! पोतानी चीजने जाणवानी एणे कोईदि’ दरकार करी नहि! बधां मारां- शरीर मारुं, छोकरां मारां, बंगलो मारो-एम ‘मारां -मारां’ नी माथाकूट करीने मरी


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आवी बहु झीणी वात बापु! हवे बधा बहारना उकरडा उथामे पण पोतानुं अमल अविनाशी स्वरूप शुं छे ते जाणवानी दरकार न करे! स्वानुभवनी निर्मळ पर्याय रागथी थाय ए वात तो दूर रहो, निर्मळ पर्यायनुं कर्ता स्वद्रव्य छे एम पण उपचारथी कहीए छीए. आवी वात! समजाणुं कांई....?

अरे भाई! साधुपणुं कोने कहीए? ए तो पांचमी गाथामां श्री कुंदकुंदाचार्ये कह्युं के-“निर्मळ विज्ञानघन जे आत्मा तेमां अंतर्निमग्न परमगुरु-सर्वज्ञदेव अने अपरगुरु- गणधरादिकथी मांडीने अमारा गुरु पर्यंत, तेमनाथी प्रसादरूपे अपायेल जे शुद्धात्मतत्त्वनो अनुग्रहपूर्वक उपदेश तेनाथी जेनो जन्म छे” ल्यो, विज्ञानघन जे आत्मा तेमां अमारा गुरु निमग्न हता एम कह्युं, पण मात्र नग्न हता ने व्यवहारमां मग्न हता एम न कह्युं. भाई! अंतर्निमग्न दशा ए ज वास्तविक साधुपणुं छे. व्यवहार हो भले, पण ते मोक्षमार्ग नथी.

अहाहा...! निजरसथी भरपुर जे ज्ञान तेना स्फुरायमान थवामात्र जे समयसार ते ज एक सारभूत छे, एना सिवाय बीजुं कांई सारभूत नथी. अहाहा.....! अनंत अनंत शक्तिना विस्तारथी पूर्ण प्रभु आत्मा छे, तेमां नजर करी अंतर्निमग्न थतां अंदर पर्यायमां आनंदनां निधान प्रगट थाय छे. जेम पाताळमांथी झरा फूटे तेम स्वस्वरूपमां निमग्न थतां अंदर चैतन्यना पाताळमांथी अतीन्द्रिय आनंदना झरा फूटे छे; आनुं नाम स्वानुभव दशा ने आ मोक्षमार्ग ने पूर्ण थये आ ज मोक्ष छे. आवे छे ने नाटकमां (समयसार नाटकमां) के-

अनुभव चिंतामनि रतन, अनुभव है रसकूप;
अनुभव मारग मोखकौ, अनुभव मोखसरूप.

अहाहा...! पर्यायमां स्वस्वरूपनुं भान थयुं त्यारे समयसार थयो. आ ए समयसार -जे विज्ञानघन दशामां विज्ञानघन प्रभु जणायो -एनाथी ऊंचु कांई नथी, अर्थात् एनाथी बीजुं कांई हितकारी नथी.

अरे भाई! आवो मनुष्य अवतार मळ्‌यो ने रळवुं-कमावुं ने खावुं-पीवुं-बस एमां ज ढोरनी जेम अवतार हाल्यो जाय! आवे छे ने के- ‘मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति’ - अरे! मनुष्यना लेबासमां जाणे रखडतां ढोर! अहीं तो विशेष आ कहे छे के- आ व्यवहारथी धर्म थाय एम वात रहेवा दे भाई! अने शुद्ध एक चैतन्यस्वरूपनो ज अनुभव कर. व्यवहार छे ए तो बाह्य निमित्तने आधीन रागनी स्फुरणा छे, ए कांई ज्ञाननी-चैतन्यनी स्फुरणा नथी. आकरी वात! लोकोमां


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खळभळाट थई जाय; एम के अमे व्रत पाळीए, उपवासादि तप करीए, ब्रह्मचर्य पाळीए-ईत्यादि बधुं कांई नहि. ए बधुं कांई नहि बापु! आवुं तो बधुं अनंत वार करी चूक्यो छे. अरे! नवमी ग्रैवेयकना स्वर्गमां जाय एवा शुक्ल लेश्याना परिणाम पण अनंत वार करी चूक्यो छे बापु! पण अंतरमां ज्ञाननी स्फुरणामात्र स्वानुभव विना बधुं ज फोगट. जुओने कहे तो छे के- न खलु समयसारात् उत्तरं किञ्चत् अस्ति’ - ज्ञाननी प्रस्फुरणा थवामात्र जे समयसार तेनाथी ऊंचुं लोकमां कांई नथी. समजाणुं कांई....?

* कळश २४४ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘पूर्णज्ञानस्वरूप आत्मानो अनुभव करवो; आ उपरांत खरेखर बीजुं कांई पण सारभूत नथी.’

‘पूर्णज्ञानस्वरूप’ -एम कहीने भगवान आत्मा अनंतगुणनुं वास्तु पूर्ण-परिपूर्ण छे-एम बताववुं छे. अहा! आवी निज चैतन्यसत्तानो, कहे छे, निज पर्यायमां अनुभव करवो पूर्ण चिदानंदघन प्रभु पोते छे तेनो अनुभव करवो ते सार छे, आ सिवाय बीजुं कांई सारभूत नथी. आ बाग-बंगला ने जर-झवेरात ए तो बधी धूळ ज छे, पण आ व्यवहार रत्नत्रय, पंचमहाव्रतना परिणाम ने देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धा ने शास्त्रज्ञान ईत्यादि कांई सारभूत नथी-एम कहे छे. समजाणुं कांई...? ल्यो, आ एक लीटीमां आखुं समयसार आवी गयुं.

हवे छेल्ली गाथामां आ समयसार ग्रंथना अभ्यास वगेरेनुं फळ कहीने आचार्य भगवान आ ग्रंथ पूर्ण करशे; तेनी सूचनानो श्लोक प्रथम कहे छेः-

*
* कळश २४पः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आनन्दमयम् विज्ञानघनम् अध्यक्षतां नयत्’ आनंदमय विज्ञानघनने (-शुद्ध परमात्माने, समयसारने) प्रत्यक्ष करतुं ‘इदम् एकम् अक्षयं जगत्–चक्षुः’ आ एक (- अद्वितीय) अक्षय जगत-चक्षु (-समय प्राभृत) ‘पूर्णताम् याति’ पूर्णताने पामे छे.

आ देह-देवळमां स्थित, देहथी भिन्न भगवान आत्मा अंदर शुद्ध चैतन्यस्वरूपे विराजे छे. अहाहा...! जेनी सत्तामां स्वपर अनंता पदार्थो जणाय छे ते केवडो ने केवो छे? तो कहे छे-जाणग... जाणगस्वभावी प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप प्रभु आनंदमय छे, सच्चिदानंदमय छे. अहाहा....! सत् नाम शाश्वत चित् अर्थात् अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंदमय छे. वर्तमान दशामां जे विपरीत विकारना भाव छे ए तो कृत्रिम उभा थयेला छे, ज्यारे भगवान आत्मा तो अंदर अकृत्रिम त्रिकाळ ज्ञान ने आनंदनी मूर्ति सदाय विराजमान छे.


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अहाहा....! ‘आनन्दमयम्’ आनंदवाळो एम पण नहि; केमके ए तो भेद थई जाय. पुण्य-पापना भावनी वासना उठे ए तो स्वभावथी विपरीत भाव छे ने दुःखरूप छे. आ तो जेम सक्करकंद, उपरनी लाल छाल न जुओ तो, एकलो मीठाशनो पिंड छे, तेम भगवान आत्मा, पुण्य-पापथी रहित, शुद्ध अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदनो पिंड छे. ओहो! विकारथी भिन्न अंदर आनंदनो नाथ चैतन्यमहाप्रभु शाश्वतपणे विराजमान छे.

भाई! आ पुण्य-पापना भाव ते तुं-आत्मा नहि. आ नानां बाळको शेरणुं नथी करता? बाळकनी मा होय ते खूब धराईने दूध पीवडावे, एटले बाळकने शेरणुं थई जाय. बिचारो शेरे ने शरीर उघाडुं होय एटले ठंडुं लागे ने पछी एमां हाथ नाखीने हाथ चाटे. स्वाद आवे ने मीठो! एम भाई! पुण्य-पापना भाव तने ठीक पडे छे पण ए तो शेरणा जेवा छे. अरे! बाळ-अज्ञानी जीवो तेने भला जाणे छे! आकरी वात बापा! अहीं कहे छे-भगवान आत्मा पुण्य-पापनी वृत्तिथी भिन्न अतीन्द्रिय अनाकुळ आनंदनो पिंड छे.

आ देह छे ए तो जड माटी-धूळ छे, स्त्रीनो देह छे ते पण जड माटी-धूळ ज छे. तेने हुं भोगवुं छुं एम तुं माने पण तेने तुं भोगवी शकतो ज नथी, केमके ते रूपी अने तुं अरूपी छो. झीणी वात भाई! ए तो आ स्त्रीनो देह सुंदर छे एम तेमां ठीकपणुं मानी तुं ते प्रति राग करे छे ए रागने भोगवे छे, शरीरने नहि. पण बापु! ए रागनो अनुभव तो दुःखनो अनुभव छे. विषयभोगना भाव ए दुःखनो अनुभव छे ने शुभभाव-पुण्यभाव पण दुःखरूप ज छे. अंदर आत्मा एकलुं अतीन्द्रिय आनंदनुं दळ छे. बाकी आ पैसा-बैसामां सुख छे एम तुं मान, पण धूळेय सुख नथी त्यां. आ पैसावाळा बधा माने के अमे धनपति-अबजपति, पण ए तो धूळेय धनपति नथी सांभळने. ए तो जेम भेंसनो पति पाडो होय तेम जडना पति जडपति छे. अरे! पोते अंदर कोण छे एनी एने खबर नथी.

अहाहा.....! भगवान! तुं तो चैतन्यलक्ष्मीनो भंडार छो ने प्रभु! अतीन्द्रिय आनंदरसनो कंद प्रभु तुं छो. आनंद माटे बहार जोवुं पडे एवुं तारुं स्वरूप नथी. अंदर स्वरूप आनंदमय छे तेमां द्रष्टि-रमणता करतां ज अतीन्द्रिय आनंद प्रगटे छे. अहा! आम आनंदनुं वेदन करवुं एनुं नाम धर्म छे. बाकी बधुं तो थोथां छे; कोईनी दया पाळे, ने गरीबोनी सेवा करे ने धर्म थई जाय एवुं धर्मनुं स्वरूप नथी.

अहीं ‘आनंदमय’ अने ‘विज्ञानघन’ - एम बे शब्द कह्या छे. अहाहा....! ज्ञान ने आनंदनुं धोकळुं प्रभु आत्मा छे. विज्ञानघन कह्यो ने? चैतन्यप्रकाशनो-ज्ञान- प्रकाशनो पुंज प्रभु आत्मा छे. ते समयसार छे. सम् + अय + सार = समयसार. सम्


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एटले सम्यक् प्रकारे, अय् नाम जाणवापणे परिणमे ते अने सार नाम शरीर, कर्म ने विकारथी भिन्न एवो आत्मा ते समयसार छे. समजाणुं कांई....?

आ तो भगवान समयसारनी भागवत कथा बापा! कहे छे-समयसारने प्रत्यक्ष करतुं आ एक अद्वितीय अक्षय जगत-चक्षु पूर्णताने पामे छे. आ शास्त्र तो शब्दो छे. ए शब्दो कोने प्रत्यक्ष करे छे-बतावे छे? तो कहे छे-भगवान समयसारने शुद्ध चैतन्यमय आत्माने बतावे छे. जेम साकर शब्द छे ते साकर पदार्थने बतावे छे तेम शास्त्र छे ते विज्ञानघन आनंदमय प्रभु आत्माने बतावे छे.

अमारे तो सत्तर वर्षनी उंमरथी ज शास्त्रनो अभ्यास छे. पालेजमां पेढी उपर बेसीने पण शास्त्राभ्यास ज करता. पूर्वना संस्कार हता, ने आ समयसार मळ्‌युं. पछी शुं कहेवुं? समयसार वांच्युं ने लाग्युं के आ कोई जुदी अलौकिक चीज छे. आनंदना नाथने बतावनारुं आ अलौकिक शास्त्र छे. आमां (बतावेला) मारगडा कोई जुदा छे प्रभु!

अहाहा....! आनंदघन विज्ञानघन प्रभु आत्मा छे. तेनुं ज्ञानमां प्रत्यक्ष वेदन- स्वसंवेदन करवुं एनुं नाम धर्म छे. अहा! आवो अलौकिक मार्ग आ शास्त्र बतावे छे. अहा! अज्ञानीने आत्मा मापतां (-जाणतां) आवडतुं नथी. जेम कापडनो ताको बाळकना हाथथी न मपाय तेम बाळ-अज्ञानीना मापथी आत्मा न मपाय (-जणाय). भाई! रागथी (-व्यवहारना रागथी) ज्ञानस्वरूपी प्रभु आत्मानुं माप न थई शके; एक ज्ञाननी निर्मळ स्वसंवेदननी दशामां ज तेनुं माप थई शके. अहा! आवो अलौकिक मार्ग आ शास्त्र बतावे छे. अहो! वीतराग जैन परमेश्वरे कहेलां शास्त्रो अद्भुत अद्वितीय छे, तेओ एक परम शुद्ध चैतन्यतत्त्वने देखाडे छे.

केवुं छे आ समय प्राभृत? तो कहे छे- अद्वितीय अक्षय जगत-चक्षु छे. ‘इदम् एकम् अक्षयं जगत–चक्षुः’ अहाहा....! आ समयसार परम अतिशययुक्त एक-अद्वितीय अक्षय जगत-चक्षु छे. जगतना-विश्वना स्वरूपने यथास्थित देखाडे छे ने. अहा! जेम आत्मा लोकालोकने जाणनार-देखनार अद्वितीय जगतचक्षु छे, तेम लोकालोकने देखाडनार आ शास्त्र अद्वितीय जगतचक्षु छे. अहा! भगवान त्रिकाळी ध्रुवने जाणनारुं ज्ञान जगतचक्षु छे, तेम भगवान त्रिकाळी ध्रुवने बतावनारुं आ शास्त्र जगतचक्षु छे. आत्मा जगतचक्षु छे, तेने आ शास्त्र बतावे छे माटे आ शास्त्र जगतचक्षु छे; अद्वितीय जगतचक्षु छे, मतलब के बीजां कल्पित शास्त्र भगवान आत्माने बतावतां नथी तेथी आ अजोड छे. आ तो सकलशास्त्र बापा! सत्शास्त्रोमां पण महा अतिशयवान! वळी जेम भगवान आत्मा अक्षय छे तेम तेने बतावनारुं आ परमागम अक्षय छे. भगवान जैन परमेश्वरनी वाणी (प्रवाहरूपथी) अक्षय छे. आवी वात!


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आवुं आ समयप्राभृत पूर्णताने पामे छे. एटले शुं? के आमां ४१प गाथा छे. ४१४ गाथा पछी हवे आ शास्त्रनुं फळ दर्शावीने शास्त्र पूरुं थाय छे. अहाहा....! ज्ञानानंदस्वरूप अंदर आत्मा शुद्ध चैतन्यवस्तु छे तेनुं भान प्रगट करीने तेमां ज स्थिर थाय तेने पूर्ण परमात्मपदनी-परमपदनी प्राप्ति थाय छे. ल्यो, शास्त्र पूरुं थई गयुं, अने अंदर स्वानुभव प्रगट कर्यो तेने पण पूर्णनी प्राप्ति थई गई! आ तो असाधारण अतिशयवान शास्त्र भाई! तेनो श्रोता मुमुक्षु पण अंदर पूर्णानंदनो नाथ छे तेमां ध्येय करीने मग्न थयो, अने तेने पूर्णस्वरूपनी उपलब्धि थई गई. शास्त्र कहे छे- तारो नाथ अंदर बधी वाते पूरो छे, कोई वाते अधुरो नथी. जिज्ञासु स्वरूपमां गयो ने ते पर्यायमां पण पूर्ण थई गयो. ल्यो, आ वात अहीं कहेवा मागे छे. समजाय छे कांई....?

* कळश २४पः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आ समयप्राभृत ग्रंथ वचनरूपे तेम ज ज्ञानरूपे-बन्ने प्रकारे जगतने अक्षय (अर्थात् जेनो विनाश न थाय एवुं) अद्वितीय नेत्र समान छे. कारण के जेम नेत्र घटपटादिकने प्रत्यक्ष देखाडे छे तेम समयप्राभृत आत्माना शुद्ध स्वरूपने प्रत्यक्ष अनुभवगोचर देखाडे छे.’

अंदर पूर्णानंदनो नाथ प्रभु पोते छे तेनो स्वानुभव ने प्रतीति थयां तेने पूरण सर्वज्ञपदनी प्राप्ति थाय ज छे. अहा! आवुं पूर्ण आत्मपद जेम जगतनुं अक्षय अद्वितीय नेत्र छे तेम एवा आत्माने बतावनारुं आ समयप्राभृत शास्त्र पण जगतनुं अक्षय अद्वितीय नेत्र छे.

आ नेत्र घट-पट पदार्थोने प्रत्यक्ष देखाडे छे ने? नेत्र देखाडे छे ए तो एम कहेवाय; बाकी आ बे नेत्र छे ए तो जड माटी-धूळ छे, अंदर देखनार जाणनार तो भिन्न चैतन्य प्रभु छे. जेनी सत्तामां घट-पटादि जणाय छे ए तो चैतन्य प्रभु छे, ने नेत्र तो निमित्तमात्र छे. निमित्तथी कहेवाय के नेत्र घटपटादिने देखाडे छे. अहीं कहे छे- तेम आ समयप्राभृत शास्त्र पण आत्माना शुद्ध स्वरूपने प्रत्यक्ष अनुभवगोचर देखाडे छे. जोयुं? आत्मा स्वानुभवप्रत्यक्ष जणाय छे अर्थात् स्वसंवेद्य छे, विकल्पगम्य नथी एम शास्त्र बतावे छे. शास्त्र आत्मानुं स्वरूप देखाडे छे, पण शास्त्रना शब्दमां आत्मा नथी, शब्दज्ञानथी आत्मा जणाशे एम नहि, आत्मा तो स्वानुभव-गम्य ज छे. आ न्याय- लोजीक छे. भाई! लौकिक भणतरमां वर्षो काढे छे तो आमां तो थोडो वखत काढ, तारुं हित थशे.

[प्रवचन नं. प०८ थी प११ * दिनांक ३०-११-७७ थी ३-१२-७७]

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गाथा–४१प
जो समयपाहुडमिणं पढिदूणं अत्थतच्चदो णादुं।
अत्थे ठाही चेदा सो होही उत्तमं सोक्खं।। ४१५।।
यः समयप्राभृतमिदं पठित्वा अर्थतत्त्वतो ज्ञात्वा।
अर्थे स्थास्यति चेतयिता स भविष्यत्युत्तमं सौख्यम्।। ४१५।।

हवे भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव आ ग्रंथने पूर्ण करे छे तेथी तेना महिमारूपे तेना अभ्यास वगेरेनुं फळ गाथामां कहे छेः-

आ समयप्राभृत पठन करीने, अर्थ–तत्त्वथी जाणीने,
ठरशे अरथमां आतमा जे, सौख्य उत्तम ते थशे. ४१प.

गाथार्थः– [यः चेतयिता] जे आत्मा (-भव्य जीव) [इदं समयप्राभृतम् पठित्वा] आ समयप्राभृतने भणीने, [अर्थतत्त्वतः ज्ञात्वा] अर्थ अने तत्त्वथी जाणीने, [अर्थे स्थास्यति] तेना अर्थमां स्थित थशे, [सः] ते [उत्तमं सौख्यम् भविष्यति] उत्तम सौख्यस्वरूप थशे.

टीकाः– समयसारभूत भगवान परमात्मानुं-के जे विश्वनो प्रकाशक होवाथी विश्वसमय छे तेनुं-प्रतिपादन करतुं होवाथी जे पोते शब्दब्रह्म समान छे एवा आ शास्त्रने जे आत्मा खरेखर भणीने, विश्वने प्रकाशवामां समर्थ एवा परमार्थभूत, चैतन्य-प्रकाशरूप आत्मानो निश्चय करतो थको (आ शास्त्रने) अर्थथी अने तत्त्वथी जाणीने, तेना ज अर्थभूत भगवान एक पूर्णविज्ञानघन परमब्रह्ममां सर्व उद्यमथी स्थित थशे, ते आत्मा, साक्षात् तत्क्षण प्रगट थता एक चैतन्यरसथी भरेला स्वभावमां सुस्थित अने निराकुळ (-आकुळता विनानुं) होवाने लीधे जे (सौख्य) ‘परमानंदस’ शब्दथी वाच्य छे, उत्तम छे अने अनाकुळता-लक्षणवाळुं छे एवा सौख्यस्वरूप पोते ज थई जशे.

भावार्थः– आ शास्त्रनुं नाम समयप्राभृत छे. समय एटले पदार्थ, अथवा समय एटले आत्मा. तेनुं कहेनारुं आ शास्त्र छे. वळी आत्मा तो समस्त पदार्थोनो प्रकाशक छे. आवा विश्वप्रकाशक आत्माने कहेतुं होवाथी आ समयप्राभृत शब्दब्रह्म समान छे; कारण के जे समस्त पदार्थोनुं कहेनार होय तेने शब्दब्रह्म कहेवामां आवे


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(अनुष्टुभ्)
इतीदमात्मनस्तत्त्वं ज्ञानमात्रमवस्थितम् ।
अखण्डमेकमचलं स्वसंवेद्यमबाधितम्।। २४६।।

छे. द्वादशांगशास्त्र शब्दब्रह्म छे अने आ समयप्राभृतशास्त्रने पण शब्दब्रह्मनी उपमा छे. आ शब्दब्रह्म (अर्थात् समयप्राभृतशास्त्र) परब्रह्मने (अर्थात् शुद्ध परमात्माने) साक्षात् देखाडे छे. जे आ शास्त्रने भणीने तेना यथार्थ अर्थमां ठरशे, ते परब्रह्मने पामशे; अने तेथी, जेने ‘परमानंद’ कहेवामां आवे छे एवा उत्तम, स्वात्मिक, स्वाधीन, बाधारहित, अविनाशी सुखने पामशे. माटे हे भव्य जीवो! तमे पोताना कल्याणने अर्थे आनो अभ्यास करो, आनुं श्रवण करो, निरंतर आनुं ज स्मरण अने ध्यान राखो, के जेथी अविनाशी सुखनी प्राप्ति थाय. आवो श्री गुरुओनो उपदेश छे.

हवे आ सर्वविशुद्धज्ञानना अधिकारनी पूर्णतानो कळशरूप श्लोक कहे छेः-

श्लोकार्थः– [इति इदम् आत्मनः तत्त्वं ज्ञानमात्रम् अवस्थितम्] आ रीते आ आत्मानुं तत्त्व (अर्थात् परमार्थभूत स्वरूप) ज्ञानमात्र नक्की थयुं- [अखण्डम्] के जे (आत्मानुं) ज्ञानमात्र तत्त्व अखंड छे (अर्थात् अनेक ज्ञेयाकारोथी अने प्रतिपक्षी कर्मोथी जोके खंड खंड देखाय छे तोपण ज्ञानमात्रमां खंड नथी), [एकम्] एक छे (अर्थात् अखंड होवाथी एकरूप छे), [अचलं] अचळ छे (अर्थात् ज्ञानरूपथी चळतुं नथी-ज्ञेयरूप थतुं नथी), [स्वसंवेद्यम्] स्वसंवेद्य छे (अर्थात् पोताथी ज पोते जणाय छे), [अबाधितम्] अने अबाधित छे (अर्थात् कोई खोटी युक्तिथी बाधा पामतुं नथी).

भावार्थः– अहीं आत्मानुं निज स्वरूप ज्ञान ज कह्युं छे तेनुं कारण आ प्रमाणे छेः- आत्मामां अनंत धर्मो छे; परंतु तेमां केटलाक तो साधारण छे, तेथी तेओ अतिव्याप्तिवाळा छे, तेमनाथी आत्माने ओळखी शकाय नहि; वळी केटलाक (धर्मो) पर्यायाश्रित छे-कोई अवस्थामां होय छे अने कोई अवस्थामां नथी होता, तेथी तेओ अव्याप्तिवाळा छे, तेमनाथी पण आत्मा ओळखी शकाय नहि. चेतनता जोके आत्मानुं (अतिव्याप्ति अने अव्याप्तिथी रहित) लक्षण छे, तोपण ते शक्तिमात्र छे, अद्रष्ट छे; तेनी व्यक्ति दर्शन अने ज्ञान छे. ते दर्शन अने ज्ञानमां पण ज्ञान साकार छे, प्रगट अनुभवगोचर छे; तेथी तेना द्वारा ज आत्मा ओळखी शकाय छे. माटे अहीं आ ज्ञानने ज प्रधान करीने आत्मानुं तत्त्व कह्युं छे.

अहीं एम न समजवुं के ‘आत्माने ज्ञानमात्र तत्त्ववाळो कह्यो छे तेथी एटलो


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ज परमार्थ छे अने अन्य धर्मो जूठा छे, आत्मामां नथी’; आवो सर्वथा एकांत करवाथी तो मिथ्याद्रष्टिपणुं थाय छे, विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धनो अने वेदांतनो मत आवे छे; माटे आवो एकांत बाधासहित छे. आवा एकांत अभिप्रायथी कोई मुनिव्रत पण पाळे अने आत्मानुं-ज्ञानमात्रनुं-ध्यान पण करे, तोपण मिथ्यात्व कपाय नहि; मंद कषायोने लीधे स्वर्ग पामे तो पामो, मोक्षनुं साधन तो थतुं नथी. माटे स्याद्वादथी यथार्थ समजवुं. २४६.

सरवविशुद्धज्ञानरूप सदा चिदानंद करता न भोगता न परद्रव्यभावको,
मूरत अमूरत जे आनद्रव्य लोकमांहि ते भी ज्ञानरूप नाहीं न्यारे न अभावको;
यहै जानि ज्ञानी जीव आपकुं भजै सदीव ज्ञानरूप सुखतूप आन न लगावको,
कर्म-कर्मफलरूप चेतनाकूं दूरि टारि ज्ञानचेतना अभ्यास करे शुद्ध भावको.
आम श्री समयसारनी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार
परमागमनी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामनी टीकामां
सर्वविशुद्धज्ञाननो प्ररूपक नवमो अंक समाप्त थयो.
*
समयसार गाथा ४१पः मथाळुं

हवे भगवान कुंदकुंदाचार्य आ ग्रंथने पूर्ण करे छे तेथी तेना महिमारूपे तेना अभ्यास वगेरेनुं फळ गाथामां कहे छेः-

* गाथा ४१पः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘समयसारभूत भगवान परमात्मानुं -के जे विश्वनो प्रकाशक होवाथी विश्वसमय छे तेनुं -प्रतिपादन करतुं होवाथी जे पोते शब्दब्रह्म समान छे एवा आ शास्त्रने जे आत्मा खरेखर भणीने, विश्वने प्रकाशवामां समर्थ एवा परमार्थभूत, चैतन्यप्रकाशरूप आत्मानो निश्चय करतो थको (आ शास्त्रने) अर्थथी अने तत्त्वथी जाणीने,.........’

जुओ, आ छेल्ली गाथामां माखण भर्युं छे. अहा! भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव लगभग बे हजार वर्ष उपर सं. ४९ मां भरतक्षेत्रना महान मुनिवर थई गया. आत्मध्यानमां लवलीन अने निज आनंदस्वरूपमां निरंतर रमनारा तेओ नग्न दिगंबर संत-महामुनिवर हता. अहींथी तेओ महाविदेहमां भगवान सीमंधर स्वामी पासे गया हता. भगवान त्यां हाल समोसरणमां बिराजमान छे त्यां कुंदकुंदाचार्य आठ दि’ रह्या हता. साक्षात् ॐध्वनि सांभळीने भरतमां पधार्या हता. त्यार पछी आ समयसार आदि शास्त्रो तेमणे रच्यां छे. आ ग्रंथ तेओ पूर्ण करवानी साथे तेना महिमारूपे शास्त्रना अभ्यास वगेरेनुं फळ आ गाथामां बतावे छे.


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शुं कहे छे - के ‘समयसारभूत’ अर्थात् छती सर्वोत्कृष्ट चीज अंदर भगवान परमात्मा छे ते परमस्वरूप छे. अहाहा....! जिनस्वरूप भगवान अंदर त्रिकाळ मोजुदपणे विराजे छे. अहा! जेम घडामां जळ भर्युं होय तेम ज्ञान ने आनंदथी भरेलो आत्मा निरंतर जिनस्वरूपे विराजमान छे. हवे पोताने रांको थई गयेलो माने ते विषयना भिखारीने आ केम बेसे? सरखाईनी बीडी पीवे के चानो कप पीवे त्यारे तो भाई साहेबने चैन पडे- हवे एवा जीवोने कहीए के-भाई! तुं आत्मा शांतिनो सागर नित्य चिदानंदस्वरूपी भगवान छो-ए एने केम बेसे? पण बापु! आत्मा शुद्ध चैतन्यमय सदा परमस्वरूप प्रभु छे. तेनी द्रष्टि करे ते सम्यग्द्रष्टि जैन छे. बाकी दया, दान आदिना रागथी-पुण्यथी धर्म माने ते जैन नथी, अजैन छे. जैन कोई संप्रदाय नथी भाई! शरीर अने रागना क्रियाकांड ए जैनपणुं नथी बापु! एनी एकता तूटी जाय अने स्वस्वरूपनी -परमस्वरूपनी एकता थई जाय त्यांथी जैनपणुं शरुं थाय छे.

अहीं कहे छे- समयसारभूत परमस्वरूप -परमात्मस्वरूप एवो आत्मा विश्वनो प्रकाशक होवाथी विश्वसमय छे. अहाहा....! चैतन्यना नूरनुं पूर एवो भगवान आत्मा स्वपरसहित संपूर्ण त्रिकाळवर्ती लोकालोकनो प्रकाशक होवाथी विश्वसमय छे. अहाहा...! जाणवुं.... जाणवुं.... जाणवुं.... एम जाणवाना प्रवाहनुं पूर प्रभु आत्मा छे; ते संपूर्ण विश्वनो प्रकाशक छे. प्रकाशक एटले जाणनारो हों, जगतनी कोई चीजनो करनारो-कर्ता नहि. भाई! कोई पर पदार्थनी क्रिया करी शके एवो आत्मानो स्वभाव नथी, एवुं एनुं सामर्थ्य नथी. राग आवे एनो पण ए ज्ञाता छे. आ प्रमाणे भगवान आत्मा विश्वनो प्रकाशक होवाथी विश्वसमय छे.

आत्मा विश्वसमय छे. विश्वमां अनंता पदार्थो छे. ते अनंत अनंतपणे पोताना कारणे रह्या छे; जो परना कारणे होय तो अनंतपणुं न रहे. विश्व एटले अनंता द्रव्यो- तेना प्रत्येकना अनंत-अनंत गुण अने तेनी अनंत-अनंत पर्यायो -आ बधुं पोतपोताना कारणे छे. बधुं स्व-तंत्र छे, अने भगवान आत्मा ए बधानो प्रकाशक छे, जाणनारमात्र छे, करनारो -कर्ता नहि. आवो ज्ञानानंदरूप लक्ष्मीनो भंडार प्रभु आत्मा विश्वनो प्रकाशक होवाथी विश्वसमय छे. समजाणुं कांई...? ‘कांई’ एटले कई पद्धतिए कहेवाय छे तेनी गंध आवे छे? पूरुं समजाई जाय तो न्याल थई जाय एवुं छे.

आत्मा विश्वने प्रकाशतो होवाथी विश्वसमय छे, अने तेनुं प्रतिपादन करतुं होवाथी आ शास्त्र शब्दब्रह्म समान छे. परब्रह्मस्वरूप परमात्मानुं प्रतिपादन करनारा आ शब्दो शब्दब्रह्म समान छे. भगवाननी वाणी पूर्ण शब्दब्रह्म छे. तेम आ शास्त्र शब्दब्रह्मनो अंश होवाथी शब्दब्रह्म समान छे.


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आत्मा सर्वज्ञस्वभावी प्रभु पुरा विश्वनो जाणनार छे, अने आ शास्त्र पुरा तत्त्वनुं प्रतिपादन करनार छे तेथी शब्दब्रह्म समान छे. आवा आ शास्त्रने पोताना हितना लक्षे भणवुं जोईए एम वात छे. अरे! ए लौकिक भणतर- आ डाकटरनुं ने ईजनेरनुं, ने वकीलनुं ने वेपारनुं भणी भणीने ए मरी गयो! भाई! लौकिक भणतर आडे तुं नवरो न थाय पण एमां तारुं अहित छे; एनाथी तने अनंत जन्म-मरण थशे भाई! एटले कहे छे -हितना लक्षे आ परमार्थ शास्त्रने भणवुं जोईए. बीजाने देखाडवा के पंडिताई प्रगट करवा माटे नहि हों; एक स्वहितना लक्षे ज भणवुं जोईए. भणीने शुं करवुं? तो कहे छे- आ शास्त्र भणीने हुं -आत्मा चैतन्यप्रकाशमय छुं एवो निर्णय करवो जोईए. अहाहा....! लोकालोकने जाणवाना सामर्थ्यरूप परमार्थभूत चैतन्यप्रकाशनो पुंज हुं आत्मा छुं एम अंतरमां निर्णय करवो जोईए. भाई! आ तो भवनो अभाव करवानी परम हितनी वात छे. आ भवनुं मूळ एक मिथ्यात्व छे. शास्त्र भणीने निज स्वरूपनो निर्णय करवो ते मिथ्यात्वने टाळवानो उपाय छे. स्वस्वरूपनो निर्णय करवो ए ज एनो सार छे.

‘अर्थ अने तत्त्वथी जाणीने’ -एम कह्युं ने? एटले शुं? के आत्मा त्रिकाळी वस्तु ते अर्थ छे, अने तेनो ज्ञानस्वभाव ते तत्त्व छे. जेम सोनुं छे ते अर्थ कहेवाय, अने तेनां पीळाश, चीकाश, वजन ईत्यादि ते तत्त्व कहेवाय. आत्मा त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य ते अर्थ छे, अने ज्ञान, आनंद, स्वच्छता, प्रभुता ईत्यादि गुण-स्वभाव ते तत्त्व छे. अर्थनुं तत्त्व एटले वस्तु-द्रव्य तेनो भाव. भाववान वस्तु ते अर्थ अने तेनो भाव ते अर्थनुं तत्त्व छे. अहा! हित करवुं होय तेणे आ भाव सहित जे भाववान एवुं निज द्रव्य तेनो निर्णय करवो पडशे. भाई! आ कोई कथा नथी बापु! आ तो पूर्णानंदना नाथना स्वरूपनी जे वात भगवाननी दिव्यध्वनिमां आवी ने श्री गणधरदेवे जे द्वादशांगमां कही ते आ वात छे. आवे छे ने बनारसी विलासमां-

मुख ओंकार धुनि सुनि, अर्थ गणधर विचारै;
रची आगम उपदेश, भविक जन संसय निवारै;

ल्यो, आ तो उपदेश सूणी भव्य जीवो संशय निवारे छे, मिथ्यात्वनो नाश करे छे एनी आ वात छे. गाथामां कहे छे ने के- जे भव्य जीव आ समयप्राभृत भणीने, अर्थ अने तत्त्वथी जाणीने तेना अर्थमां स्थित थशे ते उत्तम सौख्यरूप थशे. अहो! आवुं अलौकिक आ शास्त्र-परमागम छे.

आत्मा वस्तु अर्थ छे, ने ज्ञान तेनुं तत्त्व छे. अहीं कहे छे- तेने जाणीने, तत्त्व सहित अर्थने जाणीने, अर्थमां ठर; तारी दशा उत्तम आनंदमय थई जशे. अरे! लोको - अज्ञानीओ ईन्द्रियना विषयमां सुख माने छे पण ते सुख नथी. ईन्द्रियना


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अहा! ‘भाई तो मारो डाह्यो, पाटले बेसी नाह्यो-भाई! हाल’ -एम कहीने बाळकने एनी मा मीठा हालरडां गाईने घोडियामां सुवाडे छे, तेम अहीं संत-मुनिवरो ‘भगवान आत्मा’ कहीने एने जगाडे छे. ‘जाग रे जाग नाथ! हवे न सूवुं पालवे’ अहाहा....! जागवानो आ अवसर आव्यो छे भगवान! हमणां नहीं जागे तो क्यारे जागीश? समयसारभूत तुं भगवान आत्मा छो, तारामां पूर्ण परमात्मशक्ति भरी पडी छे. ओहो! तुं ज्ञान, ने आनंद ने वीर्य ईत्यादि अनंत गुणमणिरत्नोनो अंदर डुंगर भरेलो छो. अंदर जुए तो खबर पडे ने? तेनो निर्णय कर भाई! हमणां ज निर्णय कर.

हा, पण तेमां नवतत्त्व तो न आव्यां? अरे! भाई! आत्मानो निर्णय करे छे तेमां नवे तत्त्वनो निर्णय आवी जाय छे. पुण्य-पापना आचरण अने बंधना भाव ते भगवान आत्माना अस्तित्वमां नथी. आत्माना अस्ति स्वरूपनो निर्णय करतां तेमां जे नथी तेनो निर्णय पण भेगो आवी जाय छे. आत्मा द्रव्य अने तेनुं तत्त्व नाम भाव-एने जाणीने निर्णय करतां अन्य नास्तिरूप पदार्थोनो तेमां निर्णय आवी जाय छे.

‘तत्त्वार्थ श्रद्धानम् सम्यग्दर्शनम्’ एम सूत्र छे ने! एनो अर्थ शुं? एनो अर्थ ए के -तत्त्व नाम भावसहित अर्थ नाम भाववान पदार्थनुं श्रद्धान करवुं ते सम्यग्दर्शन छे. द्रव्य-गुण-पर्याय ते अर्थ छे. तत्त्व नाम तेनो स्वभाव शुं छे ते जाणीने (पदार्थनुं) श्रद्धान करवुं तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. द्रव्य-गुण-पर्यायनुं तत्त्व जाणी, तत्त्व सहित अर्थनुं श्रद्धान-ज्ञान करवुं ते सम्यग्दर्शन-ज्ञान छे. परमात्मस्वरूप भगवान आत्मा स्वपरने जाणवाना स्वभाववाळुं ज्ञानमात्रभावस्वरूप तत्त्व छे. पर अने राग एना स्वरूपमां नथी. पर अने रागने पोताना मानवा एय एनुं स्वरूप नथी. सूक्ष्म वात छे भाई! मिथ्याभाव ए आत्मपदार्थमां नथी. ए तो पर्यायमां नवो ज ऊभो थयेलो विभाव नाम विपरीत भाव छे. आम द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेय तेना तत्त्वसहित यथार्थ जाणवा. अर्थ एटले पदार्थने तेना तत्त्व नाम भाव-स्वभाव सहित जाणवो ते यथार्थ ज्ञान छे. आम पदार्थने जाणीने ठरवुं शेमां! ते हवे कहे छे-


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............ अर्थथी अने तत्त्वथी जाणीने, ‘तेना ज अर्थभूत भगवान एक पूर्णविज्ञानघन परब्रह्ममां सर्व उद्यमथी स्थित थशे, ते आत्मा, साक्षात् तत्क्षण प्रगट थता एक चैतन्यरसथी भरेला स्वभावमां सुस्थित अने निराकुळ (-आकुळता विनानुं) होवाने लीधे जे (सौख्य) “परमानंद” शब्दथी वाच्य छे, उत्तम छे अने अनाकुळता- लक्षणवाळुं छे एवा सौख्यस्वरूप पोते ज थई जशे.’

ल्यो, तेना ज अर्थभूत भगवान एक पूर्णविज्ञानघन परब्रह्म प्रभु छे तेमां सर्व उद्यमथी स्थित थवुं एम कहे छे. अहाहा....! आत्मा पूर्ण विज्ञानघन प्रभु अनंत अनंत चैतन्यरत्नोथी भरेलो छे. तेने जाणीने अभेद एक द्रव्यमां लीन थवुं ते मोक्षनो मार्ग छे. जाणवां त्रणेय-द्रव्य-गुण-पर्याय, पण द्रष्टि क्यां मूकवी? क्यां ठरवुं? तो कहे छे- अर्थभूत भगवान एक पूर्णविज्ञानघन परब्रह्ममां. आ द्रव्य अने आ तेनो भाव-एम जेमां भेद नथी एवा अभेद एक पूर्णविज्ञानघन परब्रह्ममां स्थित थवुं. आवो मारग छे भाई! बाकी बहारनां भणतर अने बहारनी क्रिया तो बधुं थोथां छे. आत्मा विज्ञानघन परब्रह्म छे तेमां ज सर्व उद्यम नाम पुरुषार्थ करीने स्थित थवुं.

हा, पण जे समये जे थवानुं छे ते ज थाय छे एम नियत छे ने? (एम के उद्यम-पुरुषार्थ करवानुं केम कहो छो?)

जे समये जे थवानुं छे ते ज थाय छे ए तो सत्य छे; पण ते ते कार्य पुरुषार्थथी थाय छे, पुरुषार्थ विना नहि. भाई! तने पुरुषार्थना स्वरूपनी खबर नथी. त्रणकाळ- त्रणलोकने एक समयमां जाणे एवा केवळज्ञाननी पर्यायना सामर्थ्यनो स्वीकार करनारनी द्रष्टि त्रिकाळी ध्रुव परब्रह्मस्वरूप निज द्रव्य उपर जाय छे अने द्रव्य उपर द्रष्टि स्थापित थाय ते अनंतो पुरुषार्थ छे. स्वस्वरूपनां द्रष्टि ने रमणता जे वडे थाय तेनुं ज नाम तो पुरुषार्थ छे. पुरुषार्थ बीजी शुं चीज छे? आम करुं ने तेम करुं एम क्रियाना विकल्पो करे ए तो वांझियो पुरुषार्थ छे, एने शास्त्रमां नपुंसकता कहे छे. ज्ञाननी पर्याय त्रिकाळी ध्रुवनो स्वसन्मुखताना पुरुषार्थ वडे निर्णय करे छे, अने त्यारे (क्रमबद्ध) पर्यायनो पण यथार्थ निर्णय थाय छे.

भाई! तुं क्रियाकांडमां रोकाईने तेमां पुरुषार्थ होवानुं माने छे पण ए तो मिथ्या पुरुषार्थ छे बापा! रागने रचे ने रागने करे ते आत्मानुं वीर्य नहि, ते अनंतवीर्यनुं कार्य नहि. अहीं कहे छे-पूर्णविज्ञानघन परमब्रह्म-परमानंदस्वरूप निज आत्मामां सर्व उद्यमथी जे स्थित थशे, ते आत्मा, साक्षात् तत्क्षण प्रगट थता चैतन्यरसथी भरेला स्वभावमां सुस्थित अने निराकुळ एवा परमआनंदमय-परम सौख्यमय पोते ज थई जशे. अहो! आ ते कंई टीका छे? अहा! ‘परमानंद’ तो


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* गाथा ४१पः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आ शास्त्रनुं नाम समयप्राभृत छे. समय एटले पदार्थ, अथवा समय एटले आत्मा. तेनुं कहेनारुं आ शास्त्र छे. वळी आत्मा तो समस्त पदार्थोनो प्रकाशक छे. आवा विश्वप्रकाशक आत्माने कहेतुं होवाथी आ समयप्राभृत शब्दब्रह्म समान छे; कारण के जे समस्त पदार्थोनुं कहेनार होय तेने शब्दब्रह्म कहेवामां आवे छे. द्वादशांगशास्त्र शब्दब्रह्म छे अने आ समयप्राभृतशास्त्रने पण शब्दब्रह्मनी उपमा छे. आ शब्दब्रह्म (अर्थात् समयप्राभृतशास्त्र) परब्रह्मने (अर्थात् शुद्ध परमात्माने) साक्षात् देखाडे छे.....’

जुओ, ‘समय’ शब्दना बे अर्थ थाय छे. समय एटले पदार्थ अथवा समय एटले आत्मा. शुद्ध चैतन्यघन चिदानंदकंद प्रभु आत्मा समय छे, अने तेने कहेनारुं- बतावनारुं आ समयप्राभृत शास्त्र छे. भगवान आत्मा स्व अने पर एम समस्त पदार्थोनो प्रकाशक छे. एटले शुं? के लोकना स्व-पर समस्त पदार्थोने जाणवानो आत्मानो स्वभाव छे. अहाहा.....! लोकमां अनंत सिद्धो, एनाथी अनंत गुणा निगोदराशि सहित संसारीओ, एनाथी अनंतगुणा पुद्गलो ईत्यादि- ए बधाने प्रकाशवानो-जाणवानो भगवान आत्मानो स्वभाव छे. परंतु कोई पर पदार्थोनो कर्ता आत्मा नथी. आ भाषा-शब्दो बोलाय छे ने? ए भाषा-शब्दोनो कर्ता आत्मा नथी. अरे भाई! शब्दोमां आत्मा नहि, ने आत्मामां शब्दो नहि; आत्माने शब्दोनुं कर्तृत्व त्रणकाळमां नथी. शब्दोनो जाणनहार प्रभु आत्मा छे, पण शब्दोनो कर्ता नथी. भाई! परनी क्रिया करी शके एवुं आत्मानुं स्वरूप नथी. पर माटे ए पंगु-पांगळो ज छे; अर्थात् जाणवा सिवाय परमां आत्मा कांई ज करी शकतो नथी. आनुं नाम आत्मानो स्वपरप्रकाशक स्वभाव छे. समजाणुं कांई.....?

अरे! परनी दया पाळुं ने दान करुं- एम परनी क्रिया करवानां मिथ्या अभिमान करीने चारगतिमां रखडी-रखडीने ए मरी गयो, पण अनंतकाळथी पोते -आत्मा शुं चीज छे ने वीतराग परमेश्वर कोने आत्मा कहे छे ते जाणवानी एणे दरकार करी नहि! भगवाने आत्मा जोयो, जाण्यो ने कह्यो ते, अहीं कहे छे, पूरा विश्वनो प्रकाशक छे. अहाहा.....! चैतन्यना नूरनुं पूर एवो आत्मा सर्वप्रकाशक -सर्वज्ञस्वभावी छे. स्व-पर- सर्वने जाणे एवो तेनो त्रिकाळी स्वभाव ज छे. आवा विश्वप्रकाशक परब्रह्मस्वरूप


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प्रभु आत्माने कहेनारुं होवाथी, कहे छे, आ शास्त्र शब्दब्रह्म समान छे. सर्वप्रकाशक आत्मा परब्रह्म, ने तेने कहेनारुं आ शास्त्र शब्दब्रह्म.

अहा! प्रभु! तुं कोण छो? तो कहे छे- स्वपरप्रकाशक एवो विश्वप्रकाशक भगवान आत्मा छो. पूरा विश्वने जाणी शके, पण विश्वनी कोई चीजने आत्मा करी शके एम नहि. भाई! आ त्रिलोकीनाथ भगवान जिनेन्द्रनो आ हुकम छे के खाय, पीवे ने परने लई-दई शके के परमां-परमाणुमां कोई क्रिया करे ए आत्मानुं स्वरूप नथी, सामर्थ्य नथी. एने सर्वज्ञस्वभाव कह्यो एमां तो उपादान अने निमित्त सौ स्वतंत्र सिद्ध थई गया, प्रत्येक द्रव्य स्वाधीन सिद्ध थई गयुं. परमाणु-परमाणु परिणमे तेने आत्मा प्रकाशे छे बस.

पण परनी दया तो पाळे के नहि? कोण दया पाळे? ए तो शरीरमां आत्मा रह्यो छे ते पोतानी योग्यताथी रह्यो छे ने आयुकर्म तेमां निमित्त छे बस. बाकी परने कोण जिवाडे? बीजो एना शरीरने राखे तो रहे एम वस्तु ज नथी. दयानो विकल्प आवे तेनोय ए तो जाणनारमात्र छे. अहा! आ छेल्ली गाथामां सार सार वात कही दीधी छे.

अहा! सर्वज्ञ परमेश्वरे सर्वज्ञपर्यायमां त्रणकाळ-त्रणलोक जाण्या अने दिव्यध्वनि द्वारा कह्या. एमां आ आव्युं के - आत्मानो सर्वज्ञस्वभाव छे. सर्वने जाणवुं ते आत्मानुं स्वरूप छे, पण कोईने करवुं ते आत्मानुं स्वरूप नहि. राग आवे तेने जाणे, पण राग करवो ए आत्मानुं स्वरूप नहि. ए तो बारमी गाथामां आव्युं ने के व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान छे. चारे बाजुथी जोतां भाई! एक ज वात सिद्ध थाय छे के आत्मानो स्वपरप्रकाशक स्वभाव छे, अर्थात् अकर्तास्वभाव छे. अहा! आवा आत्मानो अनुभव थवो ते निश्चय अने तेनी दशामां जे हजु राग छे ते व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान छे. स्वपरने, शुद्धताने ने रागने जाणवां बस एटली वात छे.

विश्वप्रकाशक परब्रह्म प्रभु आत्मा छे तेने कहेनारी वाणीने शब्दब्रह्म कहीए. द्वादशांग वाणी शब्दब्रह्म छे. भगवाननी ॐध्वनि छूटी, तेने सांभळी भगवान गणधरदेव अर्थ विचारै ने द्वादशांगनी रचना करे. ते द्वादशांग वाणी शब्दब्रह्म छे. तेने अनुसरीने आत्मज्ञानी-ध्यानी मुनिवरो आगमनी रचना करे छे. एवुं आ एक परमागम छे ते, कहे छे, शब्दब्रह्म छे.

बार अंगमां एक (प्रथम) आचारांग छे. तेना १८००० पद होय छे. एकेक पदमां प१ क्रोडथी झाझेरा श्लोक होय छे. पछी ठाणांग आदि-एमां बमणा-बमणा पदो होय छे. एम बार अंगनी रचना होय छे. ओहोहोहो.....! अबजो श्लोक! बार


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हवे कहे छे- ‘जे आ शास्त्रने भणीने तेना यथार्थ अर्थमां ठरशे, ते परब्रह्मने पामशे; अने तेथी, जेने “परमानंद” कहेवामां आवे छे एवा उत्तम, स्वात्मिक, स्वाधीन, बाधारहित, अविनाशी सुखने पामशे.’

अहा! प्रत्येक पदार्थमां जे क्रिया थाय ते तेनी व्यवस्था नाम विशेष अवस्था छे. परमाणुनी प्रतिसमय जे अवस्था थाय ते परमाणुनी व्यवस्था छे, आत्मा तेने करे नहि, करी शके नहि; केमके आत्मा तो ज्ञानस्वभावमात्र वस्तु छे. आ शास्त्र आवा शुद्ध आत्माने साक्षात् देखाडे छे. अहो! आत्मा वस्तु छे ने स्वयं अस्ति छे. तेने शास्त्रथी जाणीने जे तेमां ज ठरशे ते, कहे छे, परब्रह्मने पामशे. तेने अतिशय, उत्तम, स्वाधीन, अविनाशी, अव्याबाध सुखनी प्राप्ति थशे. स्वपरप्रकाशक चैतन्यबिंब प्रभु आत्मा छे, तेमां ज द्रष्टि करी, लीन-स्थिर थवुं एम शास्त्रनो उपदेश अने आदेश छे. आवे छे ने के-

‘लाख बातकी बात यही निश्चय उर लावो,
तोरि सकल जगदंद-फंद, नित आतम ध्यावो.’

अहा! स्वस्वरूप-शुद्ध चैतन्यस्वरूपमां द्रष्टि करीने ठरशे ते उत्तम अनाकुळ सुखने पामशे; परमब्रह्म जेवो पूर्णानंद प्रभु छे तेवो पर्यायमां पोते ज प्रगट थशे. ल्यो, आवी वात!

हवे ओला मूढ लोको पैसामां ने बायडीमां सुख माने, ने रूपाळा बंगलामां सोनाना हिंडोळे हिंचवाथी सुख माने, पण ए तो बधी सुखनी मिथ्या कल्पना बापु! झांझवाना जळ जेवी. ए तो बधी पर चीज छे, एमां क्यां तारुं सुख छे? एमां तुं छो ज क्यां? अहीं तो एम कहे छे के- सर्वज्ञस्वभावी प्रभु तुं पोते ज सुख-स्वरूप छो, तेमां द्रष्टि करीने ठरे तो तुं उत्तम अविनाशी सुखने प्राप्त थईश. आ ज मार्ग छे भाई! हवे प्रेरणा करे छे के-

‘माटे हे भव्य जीवो! तमे पोताना कल्याणना अर्थे आनो अभ्यास करो, आनुं श्रवण करो, निरंतर आनुं ज स्मरण अने ध्यान राखो, के जेथी अविनाशी सुखनी प्राप्ति थाय. आवो श्री गुरुओनो उपदेश छे.’

हवे, आ दाकतरी ने वकीलातना अभ्यासमां तो कांई (हित) छे नहि, ए तो पापनो अभ्यास छे. माटे हे भाई! निज कल्याणना अर्थे आ परब्रह्मने प्रकाशनारुं - बतावनारुं एवुं जे शास्त्र तेनो अभ्यास करो, तेनुं ज श्रवण-चिंतन-मनन करो ने


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तेनुं ज स्मरण अने ध्यान राखो. तेथी अविनाशी सुखनी प्राप्ति थशे. आवो श्री गुरुओनो उपदेश छे.

*

हवे आ सर्वविशुद्धज्ञानना अधिकारनी पूर्णतानो कळशरूप श्लोक कहे छेः-

* कळश २४६ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘इति इदम् आत्मनः तत्त्वम् ज्ञानमात्रम् अवस्थितम्’ आ रीते आ आत्मानुं तत्त्व (अर्थात् परमार्थभूत स्वरूप) ज्ञानमात्र नक्की थयुं- ‘अखण्डम्’ के जे (आत्मानुं) ज्ञानमात्र तत्त्व अखंड छे (अर्थात् अनेक ज्ञेयाकारोथी अने प्रतिपक्षी कर्मोथी जो के खंड खंड देखाय छे तो पण ज्ञानमात्रमां खंड नथी), ‘एकम्’ एक छे (अर्थात् अखंड होवाथी एकरूप छे), ‘अचलं’ अचळ छे (अर्थात् ज्ञानरूपथी चळतुं नथी-ज्ञेयरूप थतुं नथी), ‘स्वसंवेद्यम्’ स्वसंवेद्य छे (अर्थात् पोताथी ज पोते जणाय छे), ‘अबाधितम्’ अने अबाधित छे (अर्थात् कोई खोटी युक्तिथी बाधा पामतुं नथी).

आ समयसारनो छेल्लो कळश छे. शुं कहे छे? के आ रीते आ आत्मानुं तत्त्व एटले के परमार्थभूत स्वरूप ज्ञानमात्र नक्की थयुं. अहाहा.....! प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप प्रभु आत्मानुं ज्ञानमात्र वास्तविक स्वरूप छे एम नक्की थयुं. आ जे नवतत्त्व-जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्यने पाप छे तेमां जीव तत्त्व छे ते ज्ञानमात्र स्वरूप छे एम कहे छे. आ आत्मा जगतनुं नेत्र अर्थात् जगत्नो जाणनार-देखनार मात्र छे. पोता सिवाय परमां ए कांई करतो नथी एवो ते अकर्ता प्रभु छे. परनो तो शुं, निश्चये तो ए पोतानी पर्यायनोय कर्ता नथी. झीणी वात छे प्रभु! हुं पर्यायने करुं एम क्यां छे एमां? प्रत्येक समय पर्याय तो थाय ज छे. तेथी खरेखर तो पर्याय ज पर्यायनी कर्ता छे. (द्रव्यने कर्ता कहीए ते व्यवहार छे).

अरे! आ करुं ने ते करुं-एम मिथ्या भाव वडे अनंतकाळथी ए चोरासीना अवतारमां रझळे छे. पंचमहाव्रतनी क्रिया एणे अनंतवार करी, ने बहारमां मुनिपणुं एणे अनंतवार लीधुं. पण भाई! ए कोई एनी चीज (स्वरूप, वस्तु) नथी, भगवान आत्मा तो ज्ञानमात्र स्वरूप ज छे. अहाहा...! ज्ञानचक्षु-जगतचक्षु भगवान आत्मा जगतनो जाणनार-देखनार मात्र छे, करनारो नहि. आ एनां द्रष्टि, अनुभव ने रमणता करवां एनुं नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे.

हवे कहे छे- आ ज्ञानमात्र नक्की थयुं ए आत्मानुं तत्त्व अखंड छे. अनेक ज्ञेयाकारोथी अने प्रतिपक्षी कर्मोथी जो के खंडखंड देखाय छे तो पण ज्ञानमात्रमां खंड नथी. जरी झीणी वात छे. प्रभु! तुं सांभळ. आ ज्ञान ज्ञेयोने जाणे छे तो ज्ञान अनेक ज्ञेयाकाररूप थई गयुं छे एम नथी. आत्माने ज्ञानमात्र कह्यो; तो ज्ञान ज्ञेयोने जाणे छे, पण ज्ञेयोने जाणतां कांई ज्ञान ज्ञेयाकाररूप थई जाय छे एम नथी.