Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Parishisht; Kalash: 247.

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ज्ञेय शब्दे शुं आव्युं? तो कहे छे -आत्मा ज्ञान छे, ने आखुं विश्व ज्ञेय छे. आ दया, दान, भक्ति आदि विकल्प, ने देव-गुरु आदि पंचपरमेष्ठीथी मांडीने आखी दुनिया ज्ञेय छे. एने ज्ञान जाणे छे एम कहीए ए व्यवहार छे. अरे! लोकोए पोतानुं मूळ तत्त्व शुं छे एने सांभळवानी-समजवानी दरकार सुद्धां करी नथी; एम ने एम अनंतकाळ एनो रखडवामां ज गयो छे.

अहीं कहे छे- आत्मानुं ज्ञानमात्र तत्त्व अखंड छे. अखंड केम कह्युं? के आत्माना ज्ञानमां ज्ञेयो जाणवामां तो आवे छे पण ज्ञेयोने जाणतां ज्ञान खंडखंड ज्ञेयाकारपणे थई जाय छे एम नथी; ज्ञेयो वडे ज्ञान खंडित थई जतुं नथी. ज्ञेयोने जाणनारुं ज्ञान ज्ञानाकार ज रहे छे. जेम आंख द्वारा अग्नि देखवामां आवे छे तो अग्नि कांई आंखमां पेसी गई छे एम नथी, अथवा आंख अग्नि थई गई छे एम नथी. तेम ज्ञानमां अग्नि देखवामां आवे छे त्यां अग्नि कांई ज्ञानमां-आत्मामां पेसी गई नथी, वा ज्ञान अग्नि थई गयुं छे एम नथी. अग्निथी ज्ञान खंडित थई अग्निरूप थई गयुं नथी, ज्ञान ज्ञान ज रह्युं छे. आवी वात!

पण आ प्रत्यक्ष देखाय छे ने? शुं देखाय छे? शुं ज्ञान परज्ञेयरूप थई जाय छे? कदीय नहि. ए तो ज्ञान ज्ञानस्वरूपे ज रहीने परज्ञेयोने जाणे छे. अरे, शुं कहीए? आत्मा परद्रव्यने तो कदीय स्पर्श्यो ज नथी. अहाहा....! आ चैतन्य महाप्रभु परद्रव्य-कर्म, शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय, देव-गुरु-शास्त्र-ईत्यादिने कदी अडतो ज नथी. एक द्रव्य बीजा द्रव्यने कदी चुंबतुं -अडतुं नथी आ सिद्धांत छे. (जुओ गाथा ३, टीका). भाई! मारग तो आवो सूक्ष्म छे भगवान!

आत्माने ज्ञानमात्र कह्यो छे तो ज्ञान ज्ञेयने जाणे छे के नहि? भाई! निश्चये तो ज्ञान ज्ञान ज छे, ज्ञान परज्ञेयने जाणे छे एम कहीए ते व्यवहार छे. ज्ञाननो जाणन... जाणन स्वभाव छे तो स्वतः पोताना स्वभावथी ज ज्ञान स्वपरने जाणे छे. पण त्यां ज्ञेयने जाणवाथी अहीं ज्ञान थयुं छे एम नथी. ज्ञेयने जाणवापणे परिणमे ए ज्ञाननुं सहज सामर्थ्य छे, ज्ञेयने लईने ज्ञान थयुं नथी. ज्ञेयने जाणनारुं ज्ञान पोताना सहज सामर्थ्यथी ज ज्ञानरूपे प्रगट थयुं छे, ज्ञेयनी एने पराधीनता नथी. हवे आवी तत्त्वज्ञाननी वात भाई! खास फुरसद लईने समजवी जोईए. आ जिंदगी तो चाली जाय छे बापु! क्षणमां देह फु थईने उडी जशे. अरे, आ समज्या विना ए क्यां क्यां रखडशे? क्यांय चारगतिरूप भवसमुद्रमां डूबी जशे.

कहे छे-प्रभु! तुं ज्ञानमात्र छो, ने तारुं तत्त्व अखंड छे. अहाहा....! एक एक शब्दे केटली ऊंडप भरी छे! अहा! ज्ञान तो ज्ञानरूपे परिणम्युं छे, कांई ज्ञेयाकाररूप


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थई गयुं नथी, अनंता ज्ञेयाकारोने ज्ञान जाणे छे तो अनंता ज्ञेयाकारपणे ज्ञान खंड खंड थई जतुं नथी. आ तो मूळ मुदनी वात छे. अरे, एणे स्वरूपसन्मुख थई निज अंतर- तत्त्वने जाण्युं नथी!

अहा! बहारना क्रियाकांड तो ए अनंतवार करी चूक्यो छे. महाविदेहक्षेत्रमां सदाय तिर्थंकर परमात्मा समोसरणमां बिराजमान छे. त्यां समोसरणमां जई एणे अनेक प्रकारे भगवाननी भक्ति-स्तुति करी छे, अने भगवाननी वाणी अनंतवार सांभळी छे. परंतु ए तो बधी परसन्मुख प्रवृत्ति बापु! अहा! ए परसन्मुखताथी खस्यो नहि अने स्वसन्मुख थई निज चैतन्यतत्त्व ज्ञानमात्र वस्तुने जाणीने अनुभवी नहि. निज ज्ञानतत्त्वने स्वाभिमुख थई अनुभववी ए एक ज सार छे-भाई!

अहीं बे वात करीः १. आत्मा ज्ञानमात्रस्वरूप वस्तु छे. अर्थात् शरीर, मन, वाणी, ईन्द्रिय ते आत्मा नहि, रागादि विकार आत्मा नहि ने अन्य जीव-पंच परमेष्ठी आदिय आत्मा नहि. हा, एना स्वरूपमां पंचपरमेष्ठी पद शक्तिरूपे पडेलां छे ए बीजी वात छे, पण अन्य जीवरूप पंचपरमेष्ठी ते आ आत्मा नहि.

वळी ज्ञानमात्र वस्तु होतां सौने-जगत आखाने जाणवाना सामर्थ्यरूप होवाथी जाणे छे पण ते कोई परनो कर्ता नथी.

२. वळी ते ज्ञानमात्र वस्तु अखंड छे. एटले शुं? के जाणवुं... जाणवुं.... जाणवुं ए ज्ञानमात्र वस्तु आत्मानो स्वभाव छे, तो ते स्व-पर सौने जाणे छे. अनंता पर पदार्थोने ज्ञान जाणे छे. तो अनंतने जाणतां ज्ञान खंडखंड थाय छे के नहि? तो कहे छे- ना, ज्ञानमात्र वस्तुनुं जे तत्त्व-ज्ञानस्वभाव छे ते अखंड छे. अनंत ज्ञेयाकारोने ज्ञान जाणे पण ते ज्ञेयाकाररूप थई जतुं नथी. ज्ञानाकाररूपे ज रहे छे. सर्वने जाणनारुं ज्ञान पोते पोताना कारणे ज ज्ञानाकारपणे थाय छे, ज्ञेयाकारोने कारणे अहीं ज्ञान थाय छे एम नथी. अनंता परने जाणवाथी ज्ञान कांई अनंत-खंडखंड थतुं नथी, ज्ञान अखंड, अभेद स्वभावे ज रहे छे.

अहा! आखी दुनियानो व्यवसाय करवानी चिंता आडे एने पोतानुं तत्त्व शुं छे ने केवुं छे ते जाणवा-समजवानी कोई दि’ दरकार करी नथी. दरेक वस्तुनी व्यवस्था राखनारो हुं व्यवस्थापक छुं एम तुं माने पण भाई! ए तारो मिथ्या भ्रम छे; केमके तारा कारणथी बीजी चीजमां व्यवस्था थाय ते त्रणकाळमां बनवुं संभवित नथी. जगत आखुंय वास्तवमां स्वयं व्यवस्थित ज परिणमी रह्युं छे; अने तेने जाणनारुं तारुं ज्ञान पण व्यवस्थित ज स्वयं परिणमी रह्युं छे. तारे तो भाई! जाणवुं ज छे,


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अहा! एक शब्दे केटलुं भर्युं छे! एक ‘जगत’ शब्द कहो तो छे तो त्रण अक्षर, पण एमां आखुं ब्रह्मांड समाई जाय; तेम अहीं ‘ज्ञान’ कहेवाथी पूरा ब्रह्मांडने जाणनारो अखंडानंद प्रभु आत्मा आवी गयो. अहा! पूरा लोकने जाणवानो तेनो स्वभाव छे, पण तेने जाणतां तेनी एकरूपता खंडखंड थई खंडित थती नथी एम कहे छे. समजाणुं कांई...?

वळी प्रतिपक्षी कर्मोथी जो के खंडखंड देखाय छे तो पण ज्ञानमात्रमां खंड थता नथी, वस्तु अखंड ज छे. जुओ, प्रतिपक्षी कर्मो निमित्त छे. ए निमित्तना वशे (पोते निमित्तना वशे परिणमे छे तेथी) ज्ञानमां मति, श्रुत, अवधि ईत्यादि अवस्थाओना भेद पडे छे अने तेथी खंडखंड देखाय छे, पण ए तो अवस्थाभेद बापु! ज्ञानमात्रवस्तुमां क्यां भेद छे? ए तो अखंड अभेद एकरूप छे. मति-श्रुत आदि पर्यायथी जोतां खंडखंड देखाय छे पण वस्तु-ज्ञानमात्र वस्तु तो स्वभावे पूर्ण अखंड ज छे, ज्ञानमात्रमां खंड नथी. अल्पज्ञता अने राग आदि कांई वस्तुनुं स्वरूप नथी, वस्तु तो पूरण अभेद अखंडस्वरूपे ज छे.

वळी आ ज्ञानमात्र तत्त्व एक छे. शुं कीधुं? एम के ज्ञान परने-अनेकने जाणे छे तो तेमां अनेकता आवी जाय छे के नहि! तो कहे छे -एक छे, एकरूप ज छे, तेमां अनेकपणुं आवी जतुं नथी. आ छेल्ला कळशमां सार-सार भरी दीधो छे. कहे छे- पर ज्ञेयाकारोना निमित्ते के कर्मोना निमित्ते ज्ञानमात्रवस्तुनुं तत्त्व अनेकरूप थई जतुं नथी, ज्ञानस्वभाव अनेकपणे थई जतो नथी, ते तो अभेद एक ज छे. बापु! आ तो दिगंबर संतोनी वाणी!

अहा! भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव भगवान सीमंधरनाथ पासे विदेहक्षेत्रमां गया हता. त्यां आठ दिवस रही भगवाननी ॐध्वनि सांभळी हती. वळी त्यां बीजा दिगंबर संतो-भावलिंगी मुनिवरो ने श्रुतकेवळी भगवंतोनो तेमणे परिचय कर्यो हतो. त्यांथी भरतमां पाछा पधारीने पछी आ शास्त्रनी रचना करी छे. अहा! तेमां कहे छे-ज्ञान- मात्रवस्तुनुं तत्त्व अखंड, एक छे. अहाहा...! ज्ञान अखंड होवाथी एक छे. अनेकने जाणवा छतां अनेकरूप थतुं नथी. एवुं एक छे. अहाहा....! जेमां खंड पण नथी, अनेकपणुं पण नथी एवो भगवान आत्मा सच्चिदानंद प्रभु अंदर सदाय एकस्वरूप छे. तेनी द्रष्टि करवी अने तेमां एकाग्र थई रमवुं एनुं नाम सम्यग्दर्शन-ज्ञान-


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चारित्ररूप धर्म छे. ल्यो, आनुं नाम धर्म! बाकी तो एणे अनंतवार मुनिव्रत धारण कीधां, २८ मूलगुण पाळ्‌या अने अगियार अंगनां भणतर पण कीधां, पण ए कोई चीज नथी, पोते शुं महान चीज छे ते जाण्या-अनुभव्या विना बहारनी क्रिया बधी थोथां ज छे. छहढालामां आवे छे ने के-

मुनिव्रत धार अनंतबार ग्रीवक उपजायो;
पै निज आतमज्ञान बिना सुख लेश न पायो.

हवे कहे छे- वळी ज्ञानमात्र आत्मानुं तत्त्व अचळ छे. एटले शुं? के ज्ञानरूपथी आत्मानुं स्वतत्त्व चळतुं नथी, अर्थात् ज्ञानरूप मटीने परज्ञेयरूप वा जडरूप थई जतुं नथी, सदाय ज्ञानरूप ज रहे छे. ओहो! रागादि अनंता पर पदार्थोने भगवान आत्मा जाणे छे छतां ते ज्ञानस्वरूपथी चलित थई रागादि परपदार्थरूप थई जतुं नथी. आत्मा सदाय पोताना ज्ञानस्वरूपे ज रहे छे. आवी वात छे. अहा! धर्मना नामे लोको बहारमां कंईक ने कंईक (क्रियाकांड) चलाव्ये राखे छे अने तेनी ज अनुमोदना करी पुष्टि कर्या करे छे, पण ए तो बधुं अज्ञान छे भाई!

आ तो वीतरागनो मार्ग छे बापु! भगवान कहे छे- आत्मा अचळ छे; पोताना ज्ञानस्वरूपथी चलित थतो नथी. अहाहा...! परपदार्थोने ते जाणे पण कदी पररूप थई जतो नथी. जेम अरिसामां सामे अग्नि होय ते अरिसामां देखाय, पण कांई अरिसो अग्निमय थयो नथी. जे देखाय छे ते तो अरिसानी ज अवस्था छे, ते अवस्था अग्निनी नथी, ने अग्निना कारणे थई छे एम पण नथी. अग्नि निमित्त हो भले, पण अग्निए कांई अरिसानी अवस्था करी नथी तेम भगवान आत्मा ज्ञानअरिसो छे. लोकालोकने जाणे एवुं तेनी पर्यायनुं स्वरूप छे. ज्ञानमां राग जणाय ते ज्ञाननी अवस्था छे, ते रागनी अवस्था नथी, ने रागने कारणे ते अवस्था थई छे एम पण नथी; केमके ज्ञान अचळ छे, रागमय थतुं नथी, परज्ञेयमय थतुं नथी. आवी सूक्ष्म वात छे भाई! हवे लोको रागथी थाय, रागथी (ज्ञान) थाय एम कहे छे पण शुं थाय? रागनो ज्ञानमां प्रवेश ज नथी तो रागथी शुं थाय? कांई ज न थाय. आत्मा स्वयं ज्ञानमात्र वस्तु छे, अने ज्ञानरूपथी कदीय चलित न थाय तेवो अचळ छे. आ तो बापु! एकलुं माखण छे; जेनां महापुण्य होय तेने आ वात पण सांभळवा मळे. समजाणुं कांई...?

हवे कहे छे- वळी ते स्वसंवेद्य छे. पोते पोताथी ज स्वसंवेदनमां जणाय एवो छे. परथी, रागथी के भगवाननी वाणीथी जणाय एम नहि, पण पोते पोताथी ज जणाय एवो छे. वळी ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मा परज्ञेयने जाणे छे तेथी ते कांई परवेदनमय थई गयो छे एम नथी, ए तो स्वसंवेदनमय ज छे. पोतानुं अने परनुं ज्ञान करे


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अहाहा....! भगवान तुं ज्ञानस्वरूप छो. ज्ञानमां परज्ञेय जणाय छे त्यां खरेखर परनुं वेदन-नथी, पण परसंबंधी जे पोतानुं ज्ञान थयुं छे तेनुं वेदन छे. पोतानुं ज आ रीते संवेदन छे. पोतामां ज पोते रहीने पोताने जाणे छे, पर तो एमां जणाई जाय छे बस. वास्तवमां परनुं वेदन छे नहि. ल्यो, आनुं नाम स्वसंवेद्य छे. शुं? के पोते परथी जणाय नहि. पण पोताथी स्वसंवेदनमां ज जणाय छे; अने पोताने परनुं वेदन-संवेदन नथीं, पण स्वसंवेदन ज छे. आवी झीणी वात छे.

हवे आवुं समजवानी बिचाराने फुरसद नहि ने लाखो रूपिया रळवा-कमावामां वखत वितावे पण एमां शुं छे? ए लाखो शुं अबजो होय तोय धूळनी धूळ छे. एने तुं पोतानी चीज माने ए मोटो भ्रम छे अने एनुं फळ चारगतिनुं परिभ्रमण छे. अहीं कहे छे-पर चीज तारी छे ए वात तो दूर रहो, पर चीजथी तारुं ज्ञान थयुं छे एम तुं माने एय मोटो भ्रम छे. ज्ञानमां पोताथी ज स्वपरने जाणवानी ताकात छे. परनी हयाती छे माटे आत्मा परप्रकाशक छे एम नथी. पोताथी ज ज्ञान थवा योग्य एवो पोते स्वसंवेद्य छे. पोताथी पोते वेदन करवायोग्य छे; परथी वेदन नहि, ने परनुं वेदन नहि एवो भगवान आत्मा स्वसंवेद्य छे. परज्ञेयने जाणवा काळे पण ज्ञेयाकारे परिणमेला पोताना ज्ञाननुं ज वेदन छे, परज्ञेयनुं नहि. आवुं पोतानुं तत्त्व छे भाई!

ओहो! भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवे बनावेलुं आ कोई अलौकिक शास्त्र छे. कहे छे- आत्मानुं तत्त्व स्वसंवेद्य छे. अहा! स्वपरने पूर्ण जाणे छतां परने वेदतुं नथी. पोते पोताथी ज वेदनमां आवे एवुं निज तत्त्व स्वसंवेद्य छे. पोते पोतामां रहीने पोताने जाणे छे एमां परनुं ज्ञान आवी जाय छे, एने वास्तवमां परनुं वेदन-संवेदन नथी. आवी वात! समजाणुं कांई...?

हवे कहे छे-आत्मानुं तत्त्व अबाधित छे, अर्थात् कोई खोटी युक्तिथी बाधा पामतुं नथी. कोई मिथ्यायुक्ति वडे गमे ते कहे, पण अंतःतत्त्वने एनाथी कोई बाधा पहोंचती नथी. जुओ. आफ्रिकामां गया हता. त्यां नैरोबीमां साडा चारसो क्रोडपति छे, ने पंदरेक अबजोपति छे. ए बधा क्रोड ने अबज शुं छे? ए तो धूळ छे बापु! ए क्रोडपति ने अबजोपति बधा धूळपति छे. त्यां एक श्वेतांबर भाईए प्रश्न कर्यो के-महाराज! आ दिगंबरो छे ते अमारा (-श्वेतांबरना) मंदिरे आवता नथी, भगवानना दर्शन करता नथी. शुं ए ठीक छे? हवे त्यां ए मिथ्या अभिनिवेश सहित होय तेने सीधुं तो केम कहीए के तमारुं बधुं खोटुं छे? एटले कह्युं के भाई!


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पहेलुं तत्त्वज्ञान थाय पछी व्यवहार केवो होय तेनी खबर पडे छे. हवे आ श्वेतांबर मत नवो नीकळेलो अन्यमत छे. पं. श्री टोडरमलजीए तेने अन्यमत कह्यो छे एम एने शुं कहीए? (एम के ए वात सांप्रदायिक बुद्धिवाळाने गळे उतरे नहि) एटले कह्युं के - तत्त्वद्रष्टि-आत्मद्रष्टि थया पछी ज सत्यार्थ व्यवहार केवो होय छे तेनी समज आवे छे. विना तत्त्वज्ञान साचो व्यवहार नहि समजाय. हवे जैन संप्रदायमां पडेला होय तेने आवी साची वात सांभळवाय मळे नहि ए बिचारा क्यारे विचारे ने क्यारे अंदरमां वस्तुनो प्रयोग करे? अरेरे! तेओ बिचारा जीवन हारी जाय छे.

अहीं कहे छे-आत्मा-ज्ञानमात्रवस्तुनुं तत्त्व अबाधित छे. त्यारे कोई वळी युक्ति वडे कहे छे- तमे ज्ञानमात्र कहो छो ए एकान्त छे. (एम के आत्मामां तो अनंत गुण छे ने तमे ज्ञानमात्र कहो छो तेथी ते एकान्त छे).

अरे प्रभु! तुं सांभळ तो खरो. आ एकान्त वचन नथी. आत्माने ज्ञानस्वरूप कह्यो एमां आ ज्ञान छे -एम अस्तित्व गुण आवी गयो, आ ज्ञान ज छे एम एमां श्रद्धागुण आवी गयो, ज्ञानमां ज स्थिरता करवी-एम एमां चारित्रगुण पण आव्यो. ज्ञान ज महिमावंत छे एम एमां प्रभुतागुण आवी गयो. आ प्रमाणे ज्ञानमात्र कह्यो तेमां कांई एकलुं ज्ञान छे एम क्यां छे? एमां तो अभेदपणे अनंतगुण समाई जाय छे. ज्ञानमात्रवस्तुमां तेना अनंत गुणनो निषेध नथी, पण शरीरादि अने रागादि पर पदार्थोनो निषेध छे. आ प्रमाणे ज्ञानमात्रवस्तु कहेवाथी अनेकान्त छे, एकान्त नथी. समजाणुं कांई...?

अरे! दुनिया क्रोडो ने अबजोनी संपत्तिमां सुख मानीने बेठी छे. पण शास्त्रकारो एवा बधाने ‘वराकाः’ एटले बिचारा-रांका-भिखारी कहे छे. तृष्णावंत छे ने! बहारथी लाव.. लाव-बाग लावने बंगला लाव, आ लाव ने ते लाव-एम मागणवेडा करे छे ते बधा विषयोना मागण भिखारी छे. भाई! आ क्रोडपति ने अबजोपति बधा भिखारी छे; केमके अंदर अनंत ज्ञानलक्ष्मीथी भरपुर पोतानो चैतन्यमहाप्रभु विराजे छे तेनी एने खबर नथी. अरे भाई! जे चीज तारा स्वरूपमां नथी तेने तुं तारी पोतानी केवी रीते माने छे! ए बधा विषयो तारी नजीक (संयोगमां) आवे छे ते तेना कारणथी आवे छे ने खसी जाय छे ते तेना कारणथी जाय छे. तेमां ममत्व करीने प्रभु! तुं नाहक दुःखी शा माटे थाय छे? अंदर जो तो खरो! मिथ्या युक्ति वडे बाधित न थाय एवुं तारुं चैतन्यतत्त्व अनंत-ज्ञान-आनंद-शान्ति-वीतरागता आदि अनंत गुणमहिमाथी भरेलुं छे. तेने अंतर्द्रष्टि वडे जोतां ज तुं न्याल थई जईश. अहा! तेने कोई बाधा न पहोंचाडी शके तेवुं तारुं अबाधित तत्त्व छे. समजाणुं कांई....?


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* कळश २४६ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अहीं आत्मानुं निजस्वरूप ज्ञान ज कह्युं छे तेनुं कारण आ प्रमाणे छेः- आत्मामां अनंत धर्मो छे; परंतु तेमां केटलाक तो साधारण छे, तेथी तेओ अतिव्याप्तिवाळा छे, तेमनाथी आत्माने ओळखी शकाय नहि; वळी केटलाक (धर्मो) पर्यायाश्रित छे- कोई अवस्थामां होय छे अने कोई अवस्थामां नथी होता, तेथी तेओ अव्याप्तिवाळा छे, तेमनाथी पण आत्मा ओळखी शकाय नहि....’

जुओ, आज पर्युषणनो पहेलो दिवस-भादरवा सु. प ने रविवार. रवि एटले सूर्य. भगवान आत्मा चैतन्यसूर्य छे. हवे एवा आत्माने अहीं ज्ञानमात्र केम कह्यो तेनो खुलासो करे छे. एम तो आत्मामां अनंत धर्मो छे. अहाहा....! अनंत धर्मस्वरूप भगवान आत्मा छे, एक ज्ञान ज छे एम नथी. शुं कीधुं? आ प्रज्ञाब्रह्म प्रभु आत्मामां एक ज्ञान ज छे एम नहि, पण अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, जीवत्व, चेतनत्व, आनंद, कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान अधिकरण-ईत्यादि अनंत अनंत गुणो-धर्मो भगवान आत्मामां छे.

हवे कहे छे- ए अनंत धर्मो छे तेमां केटलाक तो साधारण छे. साधारण एटले शुं? के जेम आत्मामां अस्तित्व गुण छे तेम पुद्गलादि बीजा द्रव्योमां पण अस्तित्व नामनो गुण छे. आम पोतामांय होय ने अन्य द्रव्यमां पण होय ते साधारण धर्मो छे. अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व आदि साधारण धर्मो छे. परमाणुमां पण आ धर्मो छे. छ द्रव्य भगवाने कह्यां छे ते छए द्रव्यमां सर्व साधारण गुणो होय छे एवा साधारण गुणो-धर्मो द्वारा भगवान आत्मा भिन्न जाणी शकातो नथी.

आत्मामां अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व ईत्यादि गुणो साधारण छे. आ गुणो जेम आत्मामां छे तेम पुद्गलादि अन्य द्रव्योमां पण छे अने तेथी तेओ अतिव्याप्तिवाळा छे. तेथी आ गुणो वडे अन्य द्रव्योथी भिन्न आत्मा ओळखी शकातो नथी. जेम पोतामां अस्तित्व गुण छे तेम शरीरना परमाणुओमां पण छे; तेथी अस्तित्व वडे पोताने ओळखवा जतां शरीर साथे भेळसेळ थई जाय छे, अर्थात् शरीरथी भिन्न शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा ओळखी शकातो नथी. आ तो एकलुं माखण छे भाई! अतिव्याप्तियुक्त होवाथी साधारण गुण द्वारा आत्मानी भिन्नता भासती नथी. समजाय छे कांई...?

वळी कहे छे -केटलाक धर्मो पर्यायश्रित छे, कोई अवस्थामां होय छे अने कोई अवस्थामां नथी होता. आ दया, दान, व्रत, भक्ति ईत्यादि रागादि सर्व भाव पर्यायश्रित धर्म छे. रागादि विभावभाव पर्यायनो धर्म-स्वभाव छे. ते संसार अवस्थामां होय छे पण सिद्ध अवस्थामां नथी होता. तेथी तेओ अव्याप्तिवाळा छे. शुं कीधुं?


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आ दया, दान, व्रत आदि भाव संसारदशामां छे, पण मोक्षमां नथी; तेओ त्रिकाळ नथी तेथी अव्याप्तिवाळा छे. तेथी आ धर्मो द्वारा पण शुद्ध चैतन्यमय आत्मा जाणी-ओळखी शकातो नथी. आ प्रमाणे जे धर्मो पर्यायाश्रित छे तेनो अहीं निषेध कर्यो.

हवे कहे छे- ‘चेतनता जो के आत्मानुं (अतिव्याप्ति अने अव्याप्तिथी रहित) लक्षण छे तोपण ते शक्तिमात्र छे, अद्रष्ट छे; तेनी व्यक्ति दर्शन अने ज्ञान छे. ते दर्शन अने ज्ञानमां पण ज्ञान साकार छे, प्रगट अनुभवगोचर छे; तेथी तेना द्वारा ज आत्मा ओळखी शकाय छे. माटे अहीं आ ज्ञानने ज प्रधान करीने आत्मानुं तत्त्व कह्युं छे.’

जुओ, आत्मामां जाणवा-देखवाना स्वभावरूप चेतनता-चैतन्य शक्ति त्रिकाळ छे. तेथी चेतनता आत्मानुं अतिव्याप्ति अने अव्याप्ति रहित लक्षण छे. परंतु आ चेतनता लक्षण शक्तिरूप छे, प्रगटरूप नथी, अद्रष्ट छे. आत्माना खास स्वरूपभूत होवा छतां चेतनता लक्षण ध्रुव शक्तिरूप अद्रष्ट होवाथी तेना वडे पण आत्मा जाणवामां आवतो नथी.

परंतु चैतन्यशक्तिनी व्यक्ति दर्शन अने ज्ञान छे. जुओ, आ चैतन्यशक्तिनी प्रगटता! बापु! चैतन्यस्वरूप एवो भगवान आत्मा कोईनुं कांई करे, कोईनी रचना बनावे, कोईने कांई ले के दे-ते तेनुं प्रगट स्वरूप नथी. देखवुं अने जाणवुं जेमां थाय छे एवां दर्शन अने ज्ञान ते चैतन्यशक्तिनी प्रगटता छे. हवे आवी वात क्यां मळे? वाणियाना चोपडामां के वकीलनी कायदापोथीमां क्यांय आ शब्दो मळे एम नथी. जुओ, आ आत्माने ज्ञानमात्र केम कह्यो तेनी सिद्धि करे छे. ज्ञानमात्र ज आत्मा छे एम सिद्ध करे छे.

अहाहा....! आत्मा कई रीते-शा वडे जाणवामां आवे? तो कहे छे- आत्मामां अस्तित्व गुण छे, पण ते वडे ते जाणवामां आवे नहि, केमके अस्तित्व गुण तो पुद्गलादि अन्यद्रव्योमां पण छे. वळी रागद्वेषादि वडे पण आत्मा जणाय-ओळखाय नहि, केमके तेओ त्रिकाळ नथी, आत्मानी संसारअवस्थामां ज होय छे, मोक्षमां होता नथी. हवे रही चैतन्यशक्ति, चैतन्यशक्ति त्रिकाळ आत्माना खास स्वरूपभूत छे, पण ते ध्रुव शक्तिमात्र छे, अद्रष्ट छे, प्रगटरूप नथी, तेथी तेनाथी पण आत्मा जाणी शकाय नहि. तो आत्मा केवी रीते जाणी शकाय छे? तो कहे छे- चैतन्यशक्तिनी प्रगटता ज्ञान अने दर्शन छे. तेमां ज्ञान साकार छे, प्रगट छे, अनुभवगोचर छे; तेथी तेना द्वारा आत्मा जाणी शकाय छे.

ज्ञान साकार छे एटले शुं? ज्ञान साकार छे एटले ज्ञानमां स्व-परने भिन्नभिन्न स्पष्ट जाणवानुं सामर्थ्य छे. दर्शनमां स्व-परनो भेद पाडीने देखवानी शक्ति नथी.


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अहाहा....! आत्मा सच्चिदानंद प्रभु वस्तु त्रिकाळ छे. तेना लक्षणभूत चैतन्यशक्ति त्रिकाळ छे. तेनी प्रगट-व्यक्त दशा दर्शन अने ज्ञान छे. तेमां दर्शन छे ते वस्तुने अस्तिमात्र देखे छे, ज्यारे ज्ञान छे ते वस्तुने स्व-परनो भेद पाडी प्रगट जाणे छे. आ राग हुं नहि, देह हुं नहि, हुं तो ज्ञान छुं, अनंत-गुणमय परिपूर्ण छुं एम भेद पाडी वस्तुने जाणवानी ज्ञानमां ताकात छे. तेथी, कहे छे, ज्ञान द्वारा ज आत्मा भिन्न जाणवामां आवे छे. अहाहा....! आ रीते व्यवहारना रागथी नहि, अस्ति आदि साधारण धर्मोथी नहि, त्रिकाळ चैतन्यशक्तिथी नहि, सामान्य देखवामात्र दर्शनथी नहि पण चैतन्यशक्तिनी विशेष साकार अवस्था जे ज्ञान ते ज्ञान वडे ज आत्मा जणाय छे. हवे आ तो निश्चय छे निश्चय छे- एम कहीने आ वातने लोको उडाडी दे छे, पण बापु! आ ज यथार्थ छे, सत्यार्थ छे. व्यवहारना रागथी आत्मप्राप्ति थाय, धर्म थाय एम तुं माने पण ए तारो भ्रम छे, केमके रागथी आत्मा जणाय एवुं आत्मानुं स्वरूप नथी ने रागनुं पण एवुं सामर्थ्य नथी. आवी वात! समजाणुं कांई....?

भाई! मारगडा जुदा छे नाथ! लोकोने हाथ आव्यो नथी एटले समजवो कठण लागे छे, पण भाई! आ तने समजवानो अवसर छे; तेने खास निवृत्ति लई समजवो जोईए. अहीं कहे छे- आत्मा दया, दान आदि विकल्पथी जणाय नहि, अस्ति आदि गुणथी जणाय नहि, सामान्य चित्शक्ति त्रिकाळ ध्रुव छे तेनाथी जणाय नहि अने चैतन्यनी प्रगट व्यक्त दशा दर्शन अने ज्ञान छे तेनाथी दर्शनथी पण जणाय नहि; पण साकार प्रगट-व्यक्त जे अनुभवगोचर ज्ञान ते ज्ञानथी ज आत्मा जणाय छे. अहाहा....! ज्ञाननी प्रगट व्यक्त दशामां देहादि परथी भिन्न आत्मा जाणवामां आवे छे माटे ज्ञान द्वारा ज आत्मा भिन्न ओळखी शकाय छे. भाई! आ तो समजाय एवुं छे प्रभु! न्यायथी-लोजीकथी वात छे ने! पण एणे एनो (निज तत्त्वनो) अभ्यास करवो जोईए.

अरे! एणे निज तत्त्वने जाणवानी कदी दरकार करी नथी! भाई! एम ने एम (-विषय-कषायमां, अज्ञानपूर्वक) जिंदगी वीत्ये जाय छे. अरे! जरा विचार तो कर- एणे केवा अनंता भव कर्या! कागडा, कुतरा ने कंथवाना, भेंस, भूंड ने बळदना, नरक अने निगोदना,....... अहाहा.....! आवा आवा अनंत अनंत भव एणे कर्या. ‘आ जीव छे-’ एम बीजा स्वीकार पण न करे, अहा! एवा अनंता भव एणे कर्या.


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आवा मनुष्यना पण अनंत भव कर्या, पण ए बधा फोगट गया; केमके एणे निज चैतन्य तत्त्वनो अनादर कर्ये ज राख्यो. हुं देह छुं, हुं राग छुं, हुं पुण्य छुं, हुं परनो कर्ता छुं, स्वामी छुं-एम अनेक प्रकारे पोताना शुद्ध चैतन्य तत्त्वनो ईन्कार करीने तेनो अनादर कर्ये ज राख्यो. तेथी एवा एवा स्थानमां ए जई पडयो ज्यां बीजा जीवो एनी अस्ति पण न स्वीकारे के आ जीव छे. भाई! आ सावधान थवानो अवसर छे हों.

आ तो धीरानी वात बापा! कहे छे- ज्ञान जे प्रगट-व्यक्त अनुभवगोचर छे ते ज्ञान वडे ज आत्मा ओळखी शकाय छे, बीजा कोईथी नहि; देहस्थित होवा छतां देहथीय नहि अने व्रत, तप, दान, भक्ति-पूजा ईत्यादिना विकल्पथीय नहि. दर्शन जो के चैतन्यनो प्रगट अंश छे तोपण तेमां वस्तु सामान्य अस्तिमात्र देखाय छे, पण परथी भिन्न पाडी आत्माने देखवानी दर्शननी ताकात नथी. जाणवानी जे प्रगट दशा छे ते ज अंतर भिन्न स्वरूपने जाणवानी ताकात राखे छे. ज्ञान परने जाणे छे, स्वने पण जाणे छे. परथी खसी स्वने जाणे एवी शक्ति ज्ञानमां छे. एटला माटे ज ज्ञानने प्रधान करीने आत्मानुं तत्त्व कह्युं छे.

आत्मामां अनंत धर्मो छे, अनंत अनंत गुण छे. पण ज्ञानने ज एकने आत्मानुं तत्त्व केम कह्युं? कारण के ज्ञानमां ज स्व-परने भिन्न-भिन्न जाणवानी शक्ति छे. आत्मानुं ज्ञान ज यथार्थ लक्षण छे, ज्ञान वडे ज आत्मा जाणवामां आवे छे. जो के दर्शन चैतन्यशक्तिनो अंश छे, तो पण ते सामान्य अस्तिपणे देखवामात्र छे, निर्विकल्प छे. आ दर्शन ते सम्यग्दर्शननी वात नथी, आ तो दर्शन उपयोगनी अहीं वात छे. दर्शन छे ते निर्विकल्प छे, अर्थात् ते स्वपरनो भेद पाडी वस्तुने देखतुं नथी. ज्यारे ज्ञान साकार छे, सविकल्प छे. ज्ञान स्व-परने भेद पाडी जाणे छे. आम आत्माने भिन्न जाणवानी शक्ति ज्ञानमां ज छे. तेथी आ ४१प गाथामां ज्ञानने ज आत्मा कहेवामां आव्यो छे. समजाणुं कांई...?

भगवान! तुं ज्ञानस्वरूप छो; तारी चीज बीजामां नथी, अने बीजी चीज तारामां नथी. पर्यायमां रागादि छे तेय तारा अंतर स्वरूपमां नथी. तारी लक्षणभूत चैतन्यशक्ति छे ते ध्रुवरूप छे, ने तेनी प्रगट व्यक्ति दर्शन अने ज्ञान छे. तेमां दर्शन साकार नथी अर्थात् दर्शनमां स्वपरने भेद पाडी जाणवानी शक्ति नथी; ‘छे’ बस एटलुं मात्र दर्शन देखे छे. ज्यारे आ देह छे, आ राग छे ने आ हुं शुद्ध चैतन्यमय ज्ञानानंदमय आत्मा छुं-एम स्व-परने भिन्न पाडी जाणवानी ज्ञानमां शक्ति छे. तेथी ज्ञान द्वारा ज आत्मा जाणी शकाय छे. माटे एक ज्ञान ज आत्मानुं तत्त्व कह्युं छे. आवी वात!

हा, पण शुं आ एकान्त नथी थई जतुं?


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ना, नथी थई जतुं; केमके ज्ञान साथे आत्मामां बीजी अनंत शक्ति अभेद छे ते तेमां समाई ज जाय छे. आत्माने ज्ञानमात्र कहेतां तेमां अभेद रहेली अनंत शक्तिओनो समावेश थई ज जाय छे अने साथे तेमां देहादि ने रागादि अन्य पदार्थोनो निषेध थई जाय छे. आ प्रमाणे आ अनेकान्त छे. बाकी तुं समोसरणमां बिराजमान भगवानना लाख भक्ति-पूजा करे वा क्रोडो मंदिर बंधावी भगवाननी भक्ति पूजा करे वा व्रतादि पाळे पण ए बधो राग ज छे अने एनाथी भगवान आत्मा कदीय जाणवामां आवे एम बनवुं संभवित नथी. समजाणुं कांई...?

हवे आवी वात सांभळवा-समजवानी फुरसद कोने छे? आ तो व्रत करो ने तपस्या करो ने उपवास करो ने मंदिरो बनावो ने मोटा गजरथ काढो बस आ छे, ने तेमां आ मोटा शेठिया अग्रेसर बने; पण अहीं कहे छे -प्रभु! तारुं ज्ञान छे ते अग्रेसर अर्थात् प्रधान छे. अहाहा....! ज्ञान छे ते आत्मानुं प्रधान तत्त्व छे; केमके ज्ञान वडे ज भिन्न आत्मा ओळखाय छे.

हा, पण एमां बाह्य निमित्त होय छे के नहि? निमित्त बहारमां होय छे ने; निमित्त नथी होतुं एम कोण कहे? पण निमित्त अंतरंग उपादाननुं कांई करे छे एम नथी, निमित्त कार्यनुं कर्ता नथी एम वात छे. आत्मा ज्ञानथी पोताने जाणे त्यारे बाह्य निमित्तपणे बीजी चीज भले हो, -गुरु हो, देव हो, शास्त्र हो, विकल्प हो- पण ए बधा वडे आत्मा जाणवामां आवे छे एम नथी; ज्ञानथी ज आत्मा जाणवामां आवे छे. ते पण क्यारे? ज्ञानने स्वसन्मुख करे त्यारे. स्वसन्मुख थयेला ज्ञानथी ज भिन्न आत्मा जाणवामां आवे छे. ओहो...! आ तो थोडी लीटीमां गजब वात करी छे.

प्रभु! तुं कई रीते जाणवामां आवे? अहीं कहे छे -ज्ञाननी जे प्रगट अवस्था छे तेने स्वसन्मुख वाळवाथी ते ज्ञाननी दशामां भगवान आत्मा जाणवामां आवे छे. भाई! तारी ज्ञाननी पर्याय अनादिथी पर तरफ बहार झुकेली छे तेने अंदर स्वसन्मुख झुकाव, तने तारो भगवान अनंत महिमावंत प्रभु जणाशे. भाई! भाषा तो सादी छे, काम तो जे छे ते अनंतो अंतःपुरुषार्थ मागे छे.

अहीं ज्ञानने मुख्य करीने आत्मानुं तत्त्व कह्युं छे. जोयुं? आत्मामां छे तो अनंत धर्मो, अनंत गुणो, ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चिति, दशि, सर्वदर्शिता, सर्वज्ञता, प्रभुत्व, विभुत्व, अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, जीवत्व, स्वच्छत्व, कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, अधिकरण, कर्तृत्व, अकर्तृत्व ईत्यादि अनंत शक्तिओ आत्मामां छे. शक्ति कहो, गुण कहो के स्वभाव कहो-बधुं एक ज छे. पण अहीं ज्ञान ते ज आत्मा एम केम कह्युं? कारण के ज्ञान वडे ज आत्मा जाणवामां आवे छे.


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अहाहा....! प्रत्येक आत्मा अंदर शक्तिरूपे भगवान छे. तेने जाणवानो उपाय शुं? -ते हवे परिशिष्टमां आवशे. त्यां उपाय-उपेयभाव समजावशे. आत्मामां ज्ञानशक्ति तो त्रिकाळ छे. तेनी एक समयनी ज्ञाननी जे दशा तेनी स्थिरता ते उपाय अर्थात् मोक्षनो मार्ग छे अने ते एमां (आत्मामां) ज छे, तथा एनुं फळ जे पूर्ण ज्ञाननी दशा ते उपेय छे ते पण एमां (आत्मामां) ज छे आम प्रधानपणे ज्ञान ज आत्मानुं तत्त्व छे. आवी अलौकिक वात! समजाणुं कांई....?

हवे कहे छे- ‘अहीं एम न समजवुं के “ आत्माने ज्ञानमात्र तत्त्ववाळो कह्यो छे तेथी एटलो ज परमार्थ छे अने अन्य धर्मो जूठा छे, आत्मामां नथी;” आवो सर्वथा एकांत करवाथी तो मिथ्याद्रष्टिपणुं थाय छे. विज्ञान-अद्वैतवादी बौद्धनो अने वेदांतनो मत आवे छे; माटे आवो एकांत बाधा-सहित छे. आवा एकांत अभिप्रायथी कोई मुनिव्रत पण पाळे अने आत्मानुं-ज्ञानमात्रनुं-ध्यान पण करे, तोपण मिथ्यात्व कपाय नहि; मंद कषायोने लीधे स्वर्ग पामे तो पामो, मोक्षनुं साधन तो थतुं नथी. माटे स्याद्वादथी यथार्थ समजवुं.’

अहाहा....! ज्ञानमात्रवस्तु आत्मा स्वरूपथी ज अनंतगुणस्वरूप छे. आत्मामां ज्ञान उपरांत आनंद, शान्ति, चिति, द्रशि, स्वच्छता, प्रभुता, ईश्वरता, अस्तित्व, वस्तुत्व, कर्तृत्व आदि बीजा अनंत गुण अभेदपणे रहेला छे. माटे आत्मा एकांते मात्र ज्ञान ज छे एम न समजवुं. आत्मामां राग-द्वेष-मोह आदि विभाव नथी, परवस्तु आत्मामां नथी- ए तो बराबर ज छे, पण दर्शन, ज्ञान, चारित्र, स्वच्छता, प्रभुता आदि अनंतगुण जे आत्मामां तत्रूप रहेला छे ते नथी एम, न समजवुं. आत्माने ज्ञानमात्र कह्यो ए तो अपेक्षाथी कह्यो छे, पण तेथी एटलो ज परमार्थ आत्मा छे ने बीजा धर्मो-गुणो आत्मामां नथी एम न मानवुं; केमके आवो सर्वथा एकांत करवाथी तो मिथ्याद्रष्टिपणुं थाय छे.

ल्यो, हवे आवुं पोतानुं तत्त्व समजवानी दरकार न करे ने बायडी ने छोकरांमां ने बाग, बंगला ने हजीरामां सुख मानी त्यां चित्त लगावे पण एमां सुख नथी भाई! ए तो बधी धूळ छे बापु! आफ्रिकामां गया हता तो एक मुमुक्षु करोडपतिने त्यां ऊतर्या हता. पंदर लाखनुं तो एनुं मकान! सांभळ्‌युं के ९० लाखनी तो एनी वरसनी कमाणी. पण भाई! एमां सुख क्यां छे? ए तो धूळ बीजी चीज बापा! ए संयोगी चीज तो आवे ने जाय; त्यां शुं हरख करवो? सुखनो भंडार तो तारो आत्मा छे त्यां चित्तने जोड ने. अहीं कहे छे- ज्ञानमात्र आत्मा कह्यो ए अनंतधर्मस्वरूप छे. एकांते आत्मा ज्ञान ज छे एम न समजवुं, अन्यथा सर्वथा एकांत समजवाथी मिथ्याद्रष्टिपणुं आवी जशे, जैनपणुं रहेशे ज नहि. समजाणुं कांई.....?

अहा! ज्ञानमां स्व-परनो भेद पाडी जाणवानी शक्ति छे. ज्ञान वडे ज भगवान


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कहे छे- सर्वथा एकांत करवाथी मिथ्याद्रष्टिपणुं थाय छे, विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धनो अने वेदांतनो मत आवे छे; माटे आवो एकांत बाधा सहित छे. विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध छे ते एक ज आत्मा माने छे. आ चीन, बर्मा, जापान छे ने! त्यां बौद्धमत चाले छे. ए बौद्ध बधे विश्वमां एकलुं विज्ञान ज छे, बीजुं कांई नहि- एम माने छे. ज्यारे वेदांत सर्वव्यापक एक आत्मा माने छे. अहीं, कहे छे, ए वात नथी. ज्ञानमात्र आत्मा कह्यो तेमां अनंत धर्मो आवी जाय छे. माटे एकांते ज्ञान ज आत्मा मानवो बौद्धादिनी जेम बाधा सहित छे अर्थात् मिथ्याद्रष्टिपणुं छे.

एवा एकांत मतथी कोई दिगंबर मुनि थई जाय अने आत्मानुं-ज्ञानमात्रनुं ध्यान करे, तो पण मिथ्यात्व कपाय नहि; मंद कषायने लीधे स्वर्ग पामे तो पामो, मोक्षनुं साधन तो थतुं नथी. माटे स्याद्वादथी यथार्थ समजवुं. अरे भाई! पोताना अनेकान्तस्वरूप आत्माने जाण्या विना एणे अनंत वार मुनिव्रत धारण कीधां. जंगलमां रह्यो, ११ अंग भण्यो, पण एथी शुं? संसारनुं कारण जे मिथ्यात्वभाव ते टळ्‌यो नहि. अरे! मिथ्यात्व शुं चीज छे ने पोते शुं चीज छे एना भान विना मिथ्यात्व टळे क्यांथी? मंद कषायना कारणे कदाच ते स्वर्ग पामे, पण चारगतिनुं परिभ्रमण एने मटतुं नथी. त्यांथी नीकळी वळी पाछो ते मनुष्य थई तिर्यंच, नरकादिमां चाल्यो जाय छे. तेने मोक्षनुं साधन थतुं नथी. एकांते ज्ञान ज आत्मा छे एम माने, आत्माने अनेकान्तमय न माने ते कदाचित् साधु थई बहारमां महाव्रतादि पाळे तोय तेने मोक्षनुं साधन थतुं नथी, तेने संसारनो अभाव थतो नथी. माटे, कहे छे, स्याद्वादथी यथार्थ समजवुं. जे अपेक्षाए कथन होय तेने अपेक्षापूर्वक यथार्थ समजवुं.

हवे शास्त्रना सारभूत एवो पं. जयचंदजी छंद कहे छेः-

सरवविशुद्धज्ञानरूप सदा चिदानंद करता न भोगता न परद्रव्यभावको,
मूरत अमूरत जे आन द्रव्य लोकमांहि ते भी ज्ञानरूप नाहीं न्यारे न अभावको;
यहै जानि ज्ञानी जीव आपकुं भजै सदीव ज्ञानरूप सुखतूप आन न लगावको;
कर्म-कर्मफलरूप चेतनाकूं दूरि टारि ज्ञानचेतना अभ्यास करै शुद्ध भावको.

जुओ, आखा समयसारनी ४१प गाथाओनो सार आ एक छंदमां भर्यो छे.


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सभामां आ शास्त्र अक्षरे अक्षरना अर्थ करीने १८ वखत पूरुं वंचाई गयुं छे, ने आ १९ मी वार हमणां चाले छे. ४प वर्षथी आ चाले छे ने! ९१मुं वर्ष आ देहने चाले छे एमां ४प वर्ष संप्रदायमां गयां, ने ४प वर्षथी आ चाले छे. आ उंमर तो देहनी-धूळ- माटीनी छे भाई! बाकी आत्मा तो अनादि-अनंत छे, एनी शुं उंमर? अहा! जेने कोई आदि नहि, अंत नहि एवो भगवान आत्मा अंदर त्रिकाळ छती-विद्यमान वस्तु छे.

अहाहा....! केवो छे आत्मा? सच्चिदानंदस्वरूप सर्वविशुद्धज्ञानस्वरूप प्रभु छे. अहाहा....! सत् नाम शाश्वत त्रिकाळ चिदानंदमय प्रभु आत्मा छे, एकलुं ज्ञान अने आनंदनुं ढीम प्रभु आत्मा छे. ते (-आत्मा), कहे छे, परद्रव्यनो न कर्ता छे, न भोक्ता छे. आ आटलुं धन रळ्‌यो ने आटलुं लीधुं-दीधुं एम लोकमां कहे छे ने? अहीं कहे छे- धन-पैसा रळे ने पैसा भोगवे के राखे एवुं आत्मानुं स्वरूप नथी. अहाहा...! चिदानंदस्वरूप प्रभु परने अडतोय नथी तो परने करे ने भोगवे ए केम बने? परनो आत्मा कर्ताय नथी ने भोक्ताय नथी. आ शरीर, मन, वाणी, ईन्द्रिय ईत्यादिनी अनेक क्रियाओ थाय तेनो कर्ता आत्मा नथी, तेनो भोक्ताय नथी. आ भाषा बोलाय छे ने! तेनो कर्ता आत्मा नथी. ए तो ठीक, परद्रव्यना लक्षे एने जे दया, दान, भक्ति ईत्यादिनो राग पर्यायमां थाय तेनोय ए वास्तवमां कर्ता-भोक्ता नथी. बहु आकरी वात, पचाववी कठण पडे, पण एने माटे धीरज केळववी जोईए.

अहाहा...! आत्मा शुद्ध विज्ञानघन चिदानंदघन प्रभु त्रिकाळ ज्ञाताद्रष्टा छे. आ शरीर, मन, वाणी, बाग-बंगला ने स्त्री-परिवार ए आत्मानी चीज नथी ए तो ठीक. आत्मा एनो कर्ता-भोक्ताय नथी. आ स्त्रीना देहने के मकानने आत्मा करे के भोगवे एवुं आत्मानुं स्वरूप नथी. गजब वात छे भाई! परवस्तुनुं करवुं ने भोगववुं भगवान आत्माने नथी. अनादिनो ऊंधो अध्यास छे एटले लोकोने आ कठण पडे छे, पण भाई! आ तो भगवाननी दिव्यध्वनिमां आवेली सार-सार वात छे. छे ने! ‘करता न भोगता न परद्रव्य भावको’ अहाहा....! शाश्वत छती चीज प्रभु आत्मा परद्रव्य अने परद्रव्यना भावनो कर्ता-भोक्ता नथी. परद्रव्यनो कर्ता-भोक्ता नथी, ने परद्रव्यना निमित्ते दया, दान आदि जे भाव थाय तेनोय कर्ता-भोक्ता नथी. समजाणुं कांई.....?

अरे, पोते शुं करी शके ने शुं भोगवी शके एनी एने खबर नथी. पण भाई! आ देह तो जोतजोतामां क्षणमां छूटी जशे; पछी क्यां जईश बापु! क्यांक अवतार तो धारण करीश ज ने? केमके तारी सत्ता अनादि-अनंत छे. भाई! तुं अनादि-अनंत छो, ज्ञाता-द्रष्टास्वरूपे छो. जो एनुं भान न कर्युं तो क्यांय संसारवनमां खोवाई जईश, अटवाई जईश. माटे सत्वरे निर्णय कर के आत्मा चिदानंदघन प्रभु


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‘मूरत अमूरत जे आन द्रव्य लोकमांहि ते भी ज्ञानरूप नाहीं न्यारे न अभाव को.’ शुं कहे छे? मूर्त एटले परमाणु आदि आ शरीर, मन, वाणी, कर्म; अने अमूर्त एटले धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश अने काळादि अनेरां द्रव्यो. अहीं कहे छे -ए मूर्त-अमूर्त जे लोकमां अन्य द्रव्यो छे ते ज्ञानरूप नथी, जड छे. तेओ आत्मा नथी, पण भगवान आत्माथी न्यारां-भिन्न छे. तेओ न्यारां छे, पण तेओ छे ज नहि एम अभावरूप नथी. भाई! जगतमां अनंता परद्रव्योनो अभाव छे एम नथी, तेओ तारा आत्मस्वरूप नथी तेथी तारामां तेनो अभाव छे, पण जगतमां तेमनो अभाव नथी. समजाणुं कांई...? हवे जिंदगी आखी मजूरीमां-ढसरडामां जाय, आखो दि’ रळवा- कमावामां रच्यो-पच्यो रहे; एनी जिंदगी आखी धूळ-धाणी थई जाय-वेडफाई जाय. बापु! पोतानुं चैतन्यतत्त्व केवी रीते छे ते हमणां नहि समजे तो क्यारे समजीश?

अहीं शुं कहे छे भाई! जरा सांभळ. कहे छे- आ लोकमां मूर्त-अमूर्त जे अन्य द्रव्यो छे ते ज्ञानरूप नथी, अर्थात् तेओ आत्मा नथी. ते चीज ज नथी एम नहि, ते चीज तारामां नथी, ते चीज ताराथी (आत्माथी) भिन्न छे. जेम आत्मा छे, तेम भिन्न बीजां द्रव्यो छे, रागादि विभाव पण छे. पण परमार्थे तेओ आत्मा नथी, वा आत्मा तेनो कर्ता-भोक्ता नथी. भाई! आवुं आत्मानुं अंतरंग परमार्थ स्वरूप जाण्या विना आत्मज्ञान उदय पामतुं नथी. अने विना आत्मज्ञान जन्म-मरणनी गांठ केवी रीते तूटे? भाई! मिथ्यात्व छे ते जन्म-मरणनी गांठ छे. जीव ज्यां सुधी परनो अने पुण्य-पाप आदि भावनो पोताने कर्ता माने त्यां सुधी मिथ्यात्व उभुं ज छे.

अहा! आम जाणीने ज्ञानी धर्मात्मा पुरुष सदैव पोताने भजे छे. ‘यहै जानि ज्ञानी जीव आपकुं भजै सदीव...’ अहाहा...! अंदर ज्ञानानंद नित्यानंदस्वरूप पोते छे तेनुं धर्मी जीव निरंतर भजन करे छे. भजन करे छे एटले शुं? के स्वस्वरूपनां द्रष्टि, ज्ञान ने रमणता करे छे. रागादिनुं ने परपदार्थनुं कर्तृत्व छोडी स्वस्वरूपमां एकाग्र-लीन थई प्रवर्ते ते आत्माने भजे छे. धर्मी पुरुष पोताने सदैव आ रीते भजे छे. भाई! जेने जन्म-मरण रहित थवुं होय ते पोताने भजे; भगवानने पण नहि. भगवानने भजे ए तो राग छे बापु! धर्मीने ते होय छे, पण ते कांई धर्म नथी, परमार्थ भक्ति नथी.

जुओ, धर्मात्माने अर्हंतादि भगवाननी भक्ति होय छे ते अनादि परंपरानी चीज छे. ए चीज छे ज नहि एम नथी, तथा ए धर्म छे एम पण नथी. स्वर्गमां


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पण असंख्य जिनमंदिरो छे. आठमो नंदीश्वर द्वीप छे तेमां शाश्वत अकृत्रिम चारे दिशामां तेर तेर एम मळी कुल बावन जिनमंदिरो छे. ते दरेकमां रत्नमय १०८ जिनप्रतिमाओ छे. इन्द्रो अने देवो त्यां जाय छे अने भक्ति करे छे. पण तेनी मर्यादा शुं? तो ते शुभभाव छे बस, ते धर्म नथी. अशुभथी बचवा- ‘अशुभ वंचनार्थे’ धर्मीने एवो शुभ भाव आवे छे, नियमथी आवे छे, पण ते धर्म नथी. धर्मी पुरुष तेने धर्म जाणता नथी. अस्थानमां-अस्थानना रागमां ते न जाय तेथी तेने व्रत-भक्ति आदि शुभराग आवे छे, पण एनाथी पुण्यबंध ज छे, अबंधपणुं नथी. समजाणुं कांई....?

सोनानी बेडी हो के लोढानी बेडी हो-बन्ने बेडी तो बंधन ज छे. पुण्य छे ते सोनानी बेडी समान छे. सोनानी बेडी चीकणी अने वजनमां भारे होवाथी गाढ बांधे छे. तेम शुभरागनी मीठाशना फंदमां रहीने जगत आखुं निज पवित्र स्वरूपने भूली गयुं छे. शुभरागनी मीठाशमां जीव, अंदर नित्यानंद-चिदानंद प्रभु पोते विराजे छे तेनो अनादर करे छे अने तेथी गाढ संसारने बांधे छे.

तो शुं धर्मात्माने शुभभाव नथी होतो? भाई! समकितीने-मुनिने पण शुभभाव अवश्य आवे छे. भगवाननां दर्शन, वंदना, स्तुति, भक्ति ईत्यादि शुभभाव तेने आवे छे पण ते वडे पुण्यबंध थाय छे, धर्म नहि. धर्मीनी धर्मपरिणति तो एनाथी भिन्न ज वर्ते छे. ल्यो, एनुं नाम छे आ के- ‘आपकू भजै सदैव.’ केवो छे आप पोते? ज्ञानरूप, सुखरूप. अहाहा....! अतीन्द्रिय आनंदरूप पोते छे; तेमां अनेरी-बीजी चीजनो लगाव नथी, संबंध नथी. अहाहा.....! वस्तु आनंदरूप छे तेमां बीजी चीज नथी, ने तेनी निर्मळ धर्मपरिणतिमां पण बीजी चीज (-रागादि) तो संबंध नथी. हवे एने शुभनो अनादिथी अध्यास छे ने! एटले शुभने धर्म साथे भेळवी दे छे एकमेक करी दे छे, पण अहीं कहे छे- ‘आन न लगाव को’ पोतानां भजनरूप धर्मपरिणतिने बीजी चीजनो संबंध नथी.

अरे! शुभनी मीठाशमां एने पोतानुं (स्वस्वरूपनुं) भजन करवुं रही गयुं छे! विकारनुं भजन कर्या करे छे. अहीं कहे छे-जेनुं भजन करवुं छे ते पोतानुं स्वरूप ज्ञानरूप, सुखरूप छे ने तेने बीजी चीजनो लगाव छे नहि. आवी वात! समजाणुं कांई....?

माटे, कहे छे, कर्मचेतना अने कर्मफळचेतना टाळीने ज्ञानचेतनानो अभ्यास कर. पुण्य ने पापना भाव ते कर्मचेतना छे. आ जड कर्म ते कर्मचेतना नहि, पण कर्म नाम पुण्य-पापरूप कार्य ते कर्मचेतना छे. अने तेमां सुखदुःखनी कल्पना करवी तेने कर्मफळचेतना कहे छे. शुभभाव सुखरूप अने अशुभभाव दुःखरूप एम अनुभव करवो


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आम श्री समयसारनी (श्रीमद भगवत् कुंदकुंदाचार्यदेव प्रणीत श्री समयसार परमागमनी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामनी टीकामां सर्व- विशुद्धज्ञानना प्ररूपक नवमा अंक परनां श्री कानजीस्वामीनां प्रवचनो समाप्त थयां.

[प्रवचन नं. प११ थी प१प * दिनांक ४-१२-७७ थी १८-१२-७७]

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(अनुष्टुभ्)
अत्र स्याद्वादशुद्धयर्थ वस्तुतत्त्वव्यवस्थितिः।
उपायोपेयभावश्च मनाग्भूयोऽपि चिन्त्यते।।२४७।।
[परिशिष्ट]

(अहीं सुधीमां भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवनी ४१प गाथाओनुं व्याख्यान टीकाकार श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे कर्युं अने ते व्याख्यानमां कळशरूपे तथा सूचनिकारूपे र४६ काव्यो कह्यां. हवे टीकाकार आचार्यदेवे विचार्युं के-आ शास्त्रमां ज्ञानने प्रधान करीने ज्ञानमात्र आत्मा कहेता आव्या छीए; तेथी कोई तर्क करशे के ‘जैनमत तो स्याद्वाद छे; तो पछी आत्माने ज्ञानमात्र कहेवाथी शुं एकांत आवी जतो नथी? अर्थात् स्याद्वाद साथे विरोध आवतो नथी? वळी एक ज ज्ञानमां उपायतत्त्व अने उपेयतत्त्व-ए बन्ने कई रीते घटे छे?’ आम तर्क कोईने थशे. माटे आवा तर्कनुं निराकरण करवाने टीकाकार आचार्यदेव हवे परिशिष्टरूपे थोडुं कहे छे. तेमां प्रथम श्लोक कहे छेः-)

श्लोकार्थः– [अत्र] अहीं [स्याद्वाद–शुद्धि–अर्थ] स्याद्वादनी शुद्धिने अर्थे [वस्तु–तत्त्व–व्यवस्थितिः] वस्तुतत्त्वनी व्यवस्था [च] अने [उपाय–उपेय–भावः] (एक ज ज्ञानमां उपायपणुं अने उपेयपणुं कई रीते घटे छे ते बताववा) उपाय-उपेय भाव [मनाक् भूयः अपि] जरा फरीने पण [चिन्त्यते] विचारवामां आवे छे.

भावार्थः– वस्तुनुं स्वरूप सामान्यविशेषात्मक अनेक-धर्मस्वरूप होवाथी ते स्याद्वादथी ज साधी शकाय छे. ए रीते स्याद्वादनी शुद्धता (-प्रमाणिक्ता, सत्यता, निर्दोषता, निर्मळता, अद्वितीयता) सिद्ध करवा माटे आ परिशिष्टमां वस्तुनुं स्वरूप विचारवामां आवे छे. (तेमां एम पण बताववामां आवशे के आ शास्त्रमां आत्माने ज्ञानमात्र कह्यो होवा छतां स्याद्वाद साथे विरोध आवतो नथी.) वळी बीजुं, एक ज ज्ञानमां साधकपणुं तथा साध्यपणुं कई रीते बनी शके ते समजाववा ज्ञाननो उपाय- उपेयभाव अर्थात् साधकसाध्यभाव पण आ परिशिष्टमां विचारवामां आवे छे. २४७.

(हवे प्रथम आचार्यदेव वस्तुस्वरूपना विचार द्वारा स्याद्वादने सिद्ध करे छेः-) स्याद्वाद समस्त वस्तुओना स्वरूपने साधनारुं, अर्हत् सर्वज्ञनुं एक अस्खलित (-निर्बाध) शासन छे. ते (स्याद्वाद) ‘बधुं अनेकांतात्मक छे’ एम उपदेशे छे,


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अहीं आत्मा नामनी वस्तुने ज्ञानमात्रपणे उपदेशवामां आवतां छतां पण स्याद्वादनो कोप नथी; कारण के ज्ञानमात्र आत्मवस्तुने स्वयमेव अनेकांतपणुं छे. त्यां (अनेकांतनुं एवुं स्वरूप छे के), जे (वस्तु) तत् छे ते ज अतत् छे, जे (वस्तु) एक छे ते ज अनेक छे, जे सत् छे ते ज असत् छे, जे नित्य छे ते ज अनित्य छे-एम एक वस्तुमां वस्तुपणानी निपजावनारी परस्पर विरुद्ध बे शक्तिओनुं प्रकाशवुं ते अनेकांत छे. माटे पोतानी आत्मवस्तुने पण, ज्ञानमात्रपणुं होवा छतां, तत्-अतत्पणुं, एक- अनेकपणुं, सत्-असत्पणुं अने नित्य-अनित्यपणुं प्रकाशे ज छे; कारण के-तेने (ज्ञानमात्र आत्मवस्तुने) अंतरंगमां चकचकाट प्रकाशता ज्ञानस्वरूप वडे तत्पणुं छे, अने बहार प्रगट थता, अनंत, ज्ञेयपणाने पामेला, स्वरूपथी भिन्न एवा पर रूप वडे (- ज्ञानस्वरूपथी भिन्न एवा परद्रव्यना रूप वडे-) अतत्पणुं छे (अर्थात् ते-रूपे ज्ञान नथी); सहभूत (-साथे) प्रवर्तता अने क्रमे प्रवर्तता अनंत चैतन्य-अंशोना समुदायरूप अविभाग द्रव्य वडे एकपणुं छे, अने अविभाग एक द्रव्यमां व्यापेला, सहभूत प्रवर्तता अने क्रमे प्रवर्तता अनंत चैतन्य-अंशोरूप (-चैतन्यना अनंत अंशोरूप) पर्यायो वडे अनेकपणुं छे; पोताना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावरूपे होवानी शक्तिरूप जे स्वभाव ते स्वभाववानपणा वडे (अर्थात् एवा स्वभाववाळी होवाथी) सत्पणुं छे, अने परना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावरूपे नहि होवानी शक्तिरूप जे स्वभाव ते स्वभाववानपणा वडे असत्पणुं छे; अनादिनिधन अविभाग एक वृत्तिरूपे परिणतपणा वडे नित्यपणुं छे, अने क्रमे प्रवर्तता, एक समयनी मर्यादावाळा अनेक वृत्ति-अंशोरूपे परिणतपणा वडे अनित्यपणुं छे. (आ रीते ज्ञानमात्र आत्मवस्तुने पण, तत्-अतत्पणुं वगेरे बब्बे विरुद्ध शक्तिओ स्वयमेव प्रकाशती होवाथी, अनेकांत स्वयमेव प्रकाशे ज छे.)

(प्रश्न-) जो आत्मवस्तुने, ज्ञानमात्रपणुं होवा छतां, स्वयमेव अनेकांत प्रकाशे छे, तो पछी अर्हंत भगवंतो तेना साधन तरीके अनेकांतने (-स्याद्वादने) शा माटे उपदेशे छे? (उत्तर-) अज्ञानीओने ज्ञानमात्र आत्मवस्तुनी प्रसिद्धि करवा माटे उपदेशे छे एम अमे कहीए छीए. खरेखर अनेकांत (-स्याद्वाद) विना ज्ञानमात्र आत्मवस्तु ज प्रसिद्ध थई शक्ती नथी. ते नीचे प्रमाणे समजाववामां आवे छेः-

स्वभावथी ज बहु भावोथी भरेला आ विश्वमां सर्व भावोनुं स्वभावथी अद्वैत होवा छतां, द्वैतनो निषेध करवो अशक्य होवाथी समस्त वस्तु स्वरूपमां प्रवृत्ति अने पररूपथी व्यावृत्ति वडे बन्ने भावोथी अध्यासित छे (अर्थात् समस्त वस्तु स्वरूपमां प्रवर्तती होवाथी अने पररूपथी भिन्न रहेती होवाथी दरेक वस्तुमां बन्ने भावो


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रहेला छे). त्यां, ज्यारे आ ज्ञानमात्र भाव (-आत्मा), शेष (बाकीना) भावो साथे निज रसना भारथी प्रवर्तेला ज्ञाता-ज्ञेयना संबंधने लीधे अने अनादि काळथी ज्ञेयोना परिणमनने लीधे ज्ञानतत्त्वने पर रूपे मानीने (अर्थात् ज्ञेयरूपे अंगीकार करीने) अज्ञानी थयो थको नाश पामे छे, त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) स्व-रूपथी (-ज्ञानरूपथी) तत्पणुं प्रकाशीने (अर्थात् ज्ञान ज्ञानपणे ज छे एम प्रगट करीने), ज्ञातापणे परिणमनने लीधे ज्ञानी करतो थको अनेकांत ज (स्याद्वाद ज) तेने उद्धारे छे-नाश थवा देतो नथी. १. वळी ज्यारे ते ज्ञानमात्र भाव ‘खरेखर आ बधुं आत्मा छे’ एम अज्ञानतत्त्वने स्व-रूपे (ज्ञानरूपे) मानीने-अंगीकार करीने विश्वना ग्रहण वडे पोतानो नाश करे छे (-सर्व जगतने पोतारूप मानीने तेनुं ग्रहण करीने जगतथी भिन्न एवा पोताने नष्ट करे छे), त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) पररूपथी अतत्पणुं प्रकाशीने (अर्थात् ज्ञान परपणे नथी एम प्रगट करीने) विश्वथी भिन्न ज्ञानने देखाडतो थको अनेकांत ज तेने पोतानो (-ज्ञानमात्र भावनो) नाश करवा देतो नथी. २. ज्यारे आ ज्ञानमात्र भाव अनेक ज्ञेयाकारो वडे (-ज्ञेयोना आकारो वडे) पोतानो सकळ (-आखो, अखंड) एक ज्ञान-आकार खंडित (-खंडखंडरूप) थयो मानीने नाश पामे छे, त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) द्रव्यथी एकपणुं प्रकाशतो थको अनेकांत ज तेने जिवाडे छे- नाश पामवा देतो नथी. ३. वळी ज्यारे ते ज्ञानमात्र भाव एक ज्ञान-आकारनुं ग्रहण करवा माटे अनेक ज्ञेयाकारोना त्याग वडे पोतानो नाश करे छे (अर्थात् ज्ञानमां जे अनेक ज्ञेयोना आकार आवे छे तेमनो त्याग करीने पोताने नष्ट करे छे), त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) पर्यायोथी अनेकपणुं प्रकाशतो थको अनेकांत ज तेने पोतानो नाश करवा देतो नथी. ४. ज्यारे आ ज्ञानमात्र भाव, जाणवामां आवतां एवां परद्रव्योना परिणमनने लीधे ज्ञातृद्रव्यने परद्रव्यपणे मानीने-अंगीकार करीने नाश पामे छे, त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) स्वद्रव्यथी सत्पणुं प्रकाशतो थको अनेकांत ज तेने जिवाडे छे-नाश पामवा देतो नथी. प. वळी ज्यारे ते ज्ञानमात्र भाव ‘सर्व द्रव्यो हुं ज छुं (अर्थात् सर्व द्रव्यो आत्मा ज छे)’ एम परद्रव्यने ज्ञातृद्रव्यपणे मानीने-अंगीकार करीने पोतानो नाश करे छे, त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) परद्रव्यथी असत्पणुं प्रकाशतो थको (अर्थात् परद्रव्यरूपे आत्मा नथी एम प्रगट करतो थको) अनेकांत ज तेने पोतानो नाश करवा देतो नथी. ६. ज्यारे आ ज्ञानमात्र भाव परक्षेत्रगत (-परक्षेत्रे रहेला) ज्ञेय पदार्थोना परिणमनने लीधे परक्षेत्रथी ज्ञानने सत् मानीने-अंगीकार करीने नाश पामे छे, त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) स्व-क्षेत्रथी अस्तित्व प्रकाशतो थको अनेकांत ज तेने जिवाडे छे-नाश पामवा देतो नथी. ७. वळी ज्यारे ते ज्ञानमात्र भाव स्वक्षेत्रे होवाने (-रहेवाने, परिणमवाने) माटे, परक्षेत्रगत ज्ञेयोना आकारोना त्याग वडे (अर्थात् ज्ञानमां जे परक्षेत्रे रहेल ज्ञेयोना