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(अहीं तत्-अतत्ना २ भंग, एक-अनेकना २ भंग, सत्-असत्ना द्रव्य-क्षेत्र- काळ-भावथी ८ भंग, अने नित्य-अनित्यना २ भंग-एम बधा मळीने १४ भंग थया. आ चौद भंगोमां एम बताव्युं के-एकांतथी ज्ञानमात्र आत्मानो अभाव थाय छे अने अनेकांतथी आत्मा जीवतो रहे छे; अर्थात् एकांतथी आत्मा जे स्वरूपे छे ते स्वरूपे समजातो नथी, स्वरूपमां परिणमतो नथी, अने अनेकांतथी ते वास्तविक स्वरूपे समजाय छे, स्वरूपमां परिणमे छे.)
अहीं नीचे प्रमाणे (१४ भंगोना कळशरूपे) १४ काव्यो पण कहेवामां आवे छेः-
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भवन्ति चात्र श्लोकाः–
विश्रान्तं पररूप एव परितो ज्ञानं पशोः सीदति ।
यत्तत्तत्तदिह स्वरूपत इति स्याद्वादिनस्तत्पुन–
र्दूरोन्मग्नघनस्वभावभरतः पूर्णं समुन्मज्जति।। २४८।।
भूत्वा विश्वमयः पशुः पशुरिव स्वच्छन्दमाचेष्टते ।
यत्तत्तत्पररूपतो न तदिति स्याद्वाददर्शी पुन–
र्विश्वाद्भिन्नमविश्वविश्वघटितं तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत्।। २४९।।
(प्रथम, पहेलां भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-) श्लोकार्थः– [बाह्य–अर्थैः परिपीतम्] बाह्य पदार्थो वडे समस्तपणे पी जवामां आवेलुं, [उज्झित–निज–प्रव्यक्ति–रिक्तीभवत्] पोतानी व्यक्तिने (-प्रगटताने) छोडी देवाथी खाली (-शून्य) थई गयेलुं, [परितः पररूपे एव विश्रान्तं] समस्तपणे पररूपमां ज विश्रांत (अर्थात् पररूप उपर ज आधार राखतुं) एवुं [पशोः ज्ञानं] पशुनुं ज्ञान (-तिर्यंच जेवा एकांतवादीनुं ज्ञान) [सीदति] नाश पामे छे; [स्याद्वादिनः तत् पुनः] अने स्याद्वादीनुं ज्ञान तो, [‘यत् तत् तत् इह स्वरूपतः तत्’ इति] ‘जे तत् छे ते स्वरूपथी तत् छे (अर्थात् दरेक तत्त्वने-वस्तुने स्वरूपथी तत्पणुं छे)’ एवी मान्यताने लीधे, [दूर–उन्मग्न–घन–स्वभाव–भरतः] अत्यंत प्रगट थयेला ज्ञानघनरूप स्वभावना भारथी, [पूर्णं समुन्मज्जति] संपूर्ण उदित (-प्रगट) थाय छे.
भावार्थः– कोई सर्वथा एकांती तो एम माने छे के-घटज्ञान घटना आधारे ज थाय छे माटे ज्ञान सर्व प्रकारे ज्ञेयो पर ज आधार राखे छे. आवुं माननार एकांतवादीना ज्ञानने तो ज्ञेयो पी गयां, ज्ञान पोते कांई न रह्युं. स्याद्वादी तो एम माने छे के-ज्ञान पोताना स्वरूपथी तत्स्वरूप ज (-ज्ञानस्वरूप ज) छे, ज्ञेयाकार थवा छतां ज्ञानपणाने छोडतुं नथी. आवी यथार्थ अनेकांत समजणने लीधे स्याद्वादीने ज्ञान (अर्थात् ज्ञानस्वरूप आत्मा) प्रगट प्रकाशे छे.
आ प्रमाणे स्वरूपथी तत्पणानो भंग कह्यो. २४८. (हवे बीजा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-) श्लोकार्थः– [पशुः] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [‘विश्वं ज्ञानम्’
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ज्ज्ञेयाकारविशीर्णशक्तिरभितस्त्रुटयन्पशुर्नश्यति ।
एकद्रव्यतया सदाप्युदितया भेदभ्रमं ध्वंसय–
न्नेकं ज्ञानमबाधितानुभवनं पश्यत्यनेकान्तवित्।। २५०।।
इति प्रतर्क्य] ‘विश्व ज्ञान छे (अर्थात् सर्व ज्ञेयपदार्थो आत्मा छे)’ एम विचारीने [सकलं स्वतत्त्व–आशया द्रष्टवा] सर्वने (-समस्त विश्वने) निजतत्त्वनी आशाथी देखीने [विश्वमयः भूत्वा] विश्वमय (-समस्त ज्ञेयपदार्थमय) थईने, [पशुः इव स्वच्छन्दम् आचेष्टते] ढोरनी माफक स्वच्छंदपणे चेष्टा करे छे-वर्ते छे; [पुनः] अने [स्याद्वाददर्शी] स्याद्वाददर्शी तो (-स्याद्वादनो देखनार तो), [‘यत् तत् तत् पररूपतः न तत्’ इति] ‘जे तत् छे ते पररूपथी तत् नथी (अर्थात् दरेक तत्त्वने स्वरूपथी तत्पणुं होवा छतां पररूपथी अतत्पणुं छे)’ एम मानतो होवाथी, [विश्वात् भिन्नम् अविश्व–विश्वघटितं] विश्वथी भिन्न एवा अने विश्वथी (-विश्वना निमित्तथी) रचायेलुं होवा छतां विश्वरूप नहि एवा (अर्थात् समस्त ज्ञेय वस्तुओना आकारे थवा छतां समस्त ज्ञेयवस्तुथी भिन्न एवा) [तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत्] पोताना निजतत्त्वने स्पर्शे छे-अनुभवे छे.
भावार्थः– एकांतवादी एम माने छे के-विश्व (-समस्त वस्तुओ) ज्ञानरूप अर्थात् पोतारूप छे. आ रीते पोताने अने विश्वने अभिन्न मानीने, पोताने विश्वमय मानीने, एकांतवादी, ढोरनी जेम हेय-उपादेयना विवेक विना सर्वत्र स्वच्छंदपणे प्रवर्ते छे. स्याद्वादी तो एम माने छे के-जे वस्तु पोताना स्वरूपथी तत्स्वरूप छे, ते ज वस्तु परना स्वरूपथी अतत्स्वरूप छे; माटे ज्ञान पोताना स्वरूपथी तत्स्वरूप छे, परंतु पर ज्ञेयोना स्वरूपथी अतत्स्वरूप छे अर्थात् पर ज्ञेयोना आकारे थवा छतां तेमनाथी भिन्न छे.
आ प्रमाणे पररूपथी अतत्पणानो भंग कह्यो. २४९. (हवे त्रीजा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-) श्लोकार्थः– [पशुः] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [बाह्य–अर्थ– ग्रहण–स्वभाव–भरतः] बाह्य पदार्थोने ग्रहण करवाना (ज्ञानना) स्वभावनी अतिशयताने लीधे, [विष्वग्–विचित्र–उल्लसत्–ज्ञेयाकार–विशीर्ण–शक्तिः] चारे तरफ (सर्वत्र) प्रगट थता अनेक प्रकारना ज्ञेयाकारोथी जेनी शक्ति विशीर्ण थई गई छे एवो थईने (अर्थात् अनेक ज्ञेयोना आकारो ज्ञानमां जणातां ज्ञाननी शक्तिने छिन्नभिन्न- खंड-खंडरूप-थई जती मानीने) [अभितः त्रुटयन्] समस्तपणे तूटी जतो थको (अर्थात् खंडखंडरूप-अनेकरूप-
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न्नेकाकारचिकीर्षया स्फुटमपि ज्ञानं पशुर्नेच्छति ।
वैचिक्र्येऽप्यविचित्रतामुपगतं ज्ञानं स्वतःक्षालितं
पर्यायैस्तदनेकतां परिमृशन् पश्यत्यनेकान्तवित्।। २५१।।
थई जतो थको) [नश्यति] नाश पामे छे; [अनेकान्तवित्] अने अनेकांतनो जाणनार तो, [सदा अपि उदितया एक–द्रव्यतया] सदाय उदित (-प्रकाशमान) एकद्रव्यपणाने लीधे [भेदभ्रमं ध्वंसन्] भेदना भ्रमने नष्ट करतो थको (अर्थात् ज्ञेयोना भेदे ज्ञानमां सर्वथा भेद पडी जाय छे एवा भ्रमनो नाश करतो थको), [एकम् अबाधित–अनुभवनं ज्ञानम्] जे एक छे (-सर्वथा अनेक नथी) अने जेनुं अनुभवन निर्बाध छे एवा ज्ञानने [पश्यति] देखे छे-अनुभवे छे.
भावार्थः– ज्ञान छे ते ज्ञेयोना आकारे परिणमवाथी अनेक देखाय छे, तेथी सर्वथा एकांतवादी ते ज्ञानने सर्वथा अनेक-खंडखंडरूप-देखतो थको ज्ञानमय एवा पोतानो नाश करे छे; अने स्याद्वादी तो ज्ञानने, ज्ञेयाकार थवा छतां, सदा उदयमान द्रव्यपणा वडे एक देखे छे.
आ प्रमाणे एकपणानो भंग कह्यो. २प०. (हवे चोथा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-) श्लोकार्थः–
मेचक–चिति प्रक्षालनं कल्पयन्] ज्ञेयकारोरूपी कलंकथी (अनेकाकाररूप) मलिन एवा चेतनमां प्रक्षालन कल्पतो थको (अर्थात् चेतननी अनेकाकाररूप मलिनताने धोई नाखवानुं कल्पतो थको), [एकाकार–चिकीर्षया स्फुटम् अपि ज्ञानं न इच्छति] एकाकार करवानी इच्छाथी ज्ञानने-जोके ते ज्ञान अनेकाकारपणे प्रगट छे तोपण-इच्छतो नथी (अर्थात् ज्ञानने सर्वथा एकाकार मानीने ज्ञाननो अभाव करे छे); [अनेकान्तवित्] अने अनेकांतनो जाणनार तो, [पर्यायैः तद्–अनेकतां परिमृशन्] पर्यायोथी ज्ञाननी अनेक्ता जाणतो (अनुभवतो) थको, [वैचिक्र्ये अपि अविचित्रताम् उपगतं ज्ञानं] विचित्र छतां अविचित्रताने प्राप्त (अर्थात् अनेकरूप छतां एकरूप) एवा ज्ञानने [स्वतःक्षालितं] स्वतःक्षालित (स्वयमेव धोयेलुं-शुद्ध) [पश्यति] अनुभवे छे.
भावार्थः– एकांतवादी ज्ञेयाकाररूप (अनेकाकाररूप) ज्ञानने मलिन जाणी, तेने धोईने-तेमांथी ज्ञेयाकारो दूर करीने, ज्ञानने ज्ञेयाकारो रहित एक-आकाररूप करवा इच्छतो थको, ज्ञाननो नाश करे छे; अने अनेकांती तो सत्यार्थ वस्तुस्वभावने जाणतो
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स्वद्रव्यानवलोकनेन परितः शून्यः पशुर्नश्यति।
स्वद्रव्यास्तितया निरूप्य निपुणं सद्यः समुन्मज्जता
स्याद्वादी तु विशुद्धबोधमहसा पूर्णो भवन् जीवति।। २५२।।
जानन्निर्मलशुद्धबोधमहिमा स्वद्रव्यमेवाश्रयेत्।। २५३।।
होवाथी, ज्ञानने स्वरूपथी ज अनेकाकारपणुं माने छे.
आ प्रमाणे अनेकपणानो भंग कह्यो. २प१. (हवे पांचमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-) श्लोकार्थः–
स्फुट–स्थिर–परद्रव्य–अस्तिता–वञ्चितः] प्रत्यक्ष *आलिखित एवां प्रगट (-स्थूल) अने स्थिर (-निश्चळ) परद्रव्योना अस्तित्वथी ठगायो थको, [स्वद्रव्यअनवलोकनेन परितः शून्यः] स्वद्रव्यने (-आत्मद्रव्यना अस्तित्वने) नहि देखतो होवाथी समस्तपणे शून्य थयो थको [नश्यति] नाश पामे छे; [स्याद्वादी तु] अने स्याद्वादी तो, [स्वद्रव्य–अस्तितया निपुणं निरूप्य] आत्माने स्वद्रव्यरूपे अस्तिपणे निपुण रीते अवलोक्तो होवाथी, [सद्यः समुन्मज्जता विशुद्ध–बोध–महसा पूर्णः भवन्] तत्काळ प्रगट थता विशुद्ध ज्ञानप्रकाश वडे पूर्ण थतो थको [जीवति] जीवे छे-नाश पामतो नथी.
भावार्थः– एकांती बाह्य परद्रव्यने प्रत्यक्ष देखी तेनुं अस्तित्व माने छे, परंतु पोताना आत्मद्रव्यने इंद्रियप्रत्यक्ष नहि देखतो होवाथी तेने शून्य मानी आत्मानो नाश करे छे. स्याद्वादी तो ज्ञानरूपी तेजथी पोताना आत्मानुं स्वद्रव्यथी अस्तित्व अवलोक्तो होवाथी जीवे छे-पोतानो नाश करतो नथी.
आ प्रमाणे स्वद्रव्य-अपेक्षाथी अस्तित्वनो (-सत्पणानो) भंग कह्यो. २प२. (हवे छठ्ठा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-) श्लोकार्थः– [पशुः] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [दुर्वासना–वासितः] _________________________________________________________________
* आलिखित = आळेखायेलां; चित्रित; स्पर्शातां; जणातां.
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सीदत्येव बहिः पतन्तमभितः पश्यन्पुमांसं पशुः।
स्वक्षेत्रास्तितया निरुद्धरभसः स्याद्वादवेदी पुन–
स्तिष्ठत्यात्मनिखातबोध्यनियतव्यापारशक्तिर्भवन्।। २५४।।
दुर्वासनाथी (-कुनयनी वासनाथी) वासित थयो थको, [पुरुषं सर्वद्रव्यमयं प्रपद्य] आत्माने सर्वद्रव्यमय मानीने, [स्वद्रव्य–भ्रमतः परद्रव्येषु किल विश्राम्यति] (परद्रव्योमां) स्वद्रव्यना भ्रमथी परद्रव्योमां विश्राम करे छे; [स्याद्वादी तु] अने स्याद्वादी तो, [समस्तवस्तुषु परद्रव्यात्मना नास्तितां जानन्] समस्त वस्तुओमां परद्रव्यस्वरूपे नास्तित्व जाणतो थको, [निर्मल–शुद्ध–बोध–महिमा] जेनो शुद्धज्ञानमहिमा निर्मळ छे एवो वर्ततो थको, [स्वद्रव्यम् एव आश्रयेत्] स्वद्रव्यनो ज आश्रय करे छे.
भावार्थः– एकांतवादी आत्माने सर्वद्रव्यमय मानीने, आत्मामां जे परद्रव्य- अपेक्षाए नास्तित्व छे तेनो लोप करे छे; अने स्याद्वादी तो सर्व पदार्थोमां परद्रव्य- अपेक्षाए नास्तित्व मानीने निज द्रव्यमां रमे छे.
आ प्रमाणे परद्रव्य-अपेक्षाथी नास्तित्वनो (-असत्पणानो) भंग कह्यो. २प३. (हवे सातमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-) श्लोकार्थः–
निषण्ण–बोध्य–नियत–व्यापार–निष्ठः] भिन्न क्षेत्रमां रहेला ज्ञेयपदार्थोमां जे ज्ञेयज्ञायक संबंधरूप निश्चित व्यापार तेमां प्रवर्ततो थको, [पुमांसम् अभितः बहिः पतन्तम् पश्यन्] आत्माने समस्तपणे बहार (परक्षेत्रमां) पडतो देखीने (-स्वक्षेत्रथी आत्मानुं अस्तित्व नहि मानीने) [सदा सीदति एव] सदा नाश पामे छे; [स्याद्वादवेदी पुनः] अने स्याद्वादनो जाणनार तो, [स्वक्षेत्र–अस्तितया निरुद्ध–रभसः] स्वक्षेत्रथी अस्तिपणाने लीधे जेनो वेग रोकायेलो छे एवो थयो थको (अर्थात् स्वक्षेत्रमां वर्ततो थको), [आत्म– निखात–बोध्य–नियत–व्यापार–शक्तिः भवन्] आत्मामां ज आकाररूप थयेलां ज्ञेयोमां निश्चित व्यापारनी शक्तिवाळो थईने, [तिष्ठति] टके छे-जीवे छे (-नष्ट थतो नथी).
भावार्थः– एकांतवादी भिन्न क्षेत्रमां रहेला ज्ञेय पदार्थोने जाणवाना कार्यमां प्रवर्ततां आत्माने बहार पडतो ज मानीने, (स्वक्षेत्रथी अस्तित्व नहि मानीने,) पोताने नष्ट करे छे; अने स्याद्वादी तो, ‘परक्षेत्रमां रहेलां ज्ञेयोने जाणतां पोताना क्षेत्रमां रहेलो आत्मा स्वक्षेत्रथी अस्तित्व धारे छे’ एम मानतो थको टकी रहे छे-नाश पामतो नथी.
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स्याद्वादी तु वसन् स्वधामनि परक्षेत्रे विदन्नास्तितां
त्यक्तार्थोऽपि न तुच्छतामनुभवत्याकारकर्षी परान्।। २५५।।
आ प्रमाणे स्वक्षेत्रथी अस्तित्वनो भंग कह्यो. २प४. (हवे आठमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-) श्लोकार्थः–
पृथग्विध–परक्षेत्र–स्थित–अर्थ–उज्झनात्] स्वक्षेत्रमां रहेवा माटे जुदा जुदा परक्षेत्रमां रहेला ज्ञेय पदार्थोने छोडवाथी, [अर्थैः सह चिद्–आकारान् वमन्] ज्ञेय पदार्थोनी साथे चैतन्यना आकारोने पण वमी नाखतो थको (अर्थात् ज्ञेय पदार्थोना निमित्ते चैतन्यमां जे आकारो थाय छे तेमने पण छोडी देतो थको) [तुच्छीभूय] तुच्छ थईने [प्रणश्यति] नाश पामे छे; [स्याद्वादी तु] अने स्याद्वादी तो [स्वधामनि वसन्] स्वक्षेत्रमां रहेतो, [परक्षेत्रे नास्तितां विदन्] परक्षेत्रमां पोतानुं नास्तित्व जाणतो थको, [त्यक्त–अर्थः अपि] (परक्षेत्रमां रहेला) ज्ञेय पदार्थोने छोडतां छतां [परान् आकारकर्षी] ते पर पदार्थोमांथी चैतन्यना आकारोने खेंचतो होवाथी (अर्थात् ज्ञेय पदार्थोना निमित्ते थता चैतन्यना आकारोने छोडतो नहि होवाथी) [तुच्छताम्–अनुभवति न] तुच्छता पामतो नथी.
भावार्थः– ‘परक्षेत्रमां रहेला ज्ञेय पदार्थोना आकारे चैतन्यना आकारो थाय छे तेमने जो हुं पोताना करीश तो स्वक्षेत्रमां ज रहेवाने बदले परक्षेत्रमां पण व्यापी जईश’ एम मानीने अज्ञानी एकांतवादी परक्षेत्रमां रहेला ज्ञेय पदार्थोनी साथे साथे चैतन्यना आकारोने पण छोडी दे छे; ए रीते पोते चैतन्यना आकारो रहित तुच्छ थाय छे, नाश पामे छे. स्याद्वादी तो स्वक्षेत्रमां रहेतो, परक्षेत्रमां पोतानी नास्तिता जाणतो थको, ज्ञेय पदार्थोने छोडतां छतां चैतन्यना आकारोने छोडतो नथी; माटे ते तुच्छ थतो नथी, नाश पामतो नथी.
आ प्रमाणे परक्षेत्रनी अपेक्षाथी नास्तित्वनो भंग कह्यो. २पप. (हवे नवमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-) श्लोकार्थः–
नाश–समये ज्ञानस्य नाशं विदन्] पूर्वालंबित ज्ञेय पदार्थोना नाश समये ज्ञाननो पण नाश जाणतो थको, [न किञ्चन अपि कलयन्] ए रीते ज्ञानने कांई पण (वस्तु) नहि
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सीदत्येव न किञ्चनापि कलयन्नत्यन्ततुच्छः पशुः ।
अस्तित्वं निजकालतोऽस्य कलयन स्याद्वादवेदी पुनः
पूर्णस्तिष्ठति बाह्यवस्तुषु मुहुर्भूत्वा विनश्यत्स्वपि।। २५६।।
र्ज्ञेयालम्बनलालसेन मनसा भ्राम्यन् पशुर्नश्यति।
नास्तित्वं परकालतोऽस्य कलयन् स्याद्वादवेदी पुन–
स्तिष्ठत्यात्मनिखातनित्यसहजज्ञानैकपुञ्जीभवन् ।। २५७।।
जाणतो थको (अर्थात् ज्ञानवस्तुनुं अस्तित्व ज नहि मानतो थको), [अत्यन्त–तुच्छः] अत्यंत तुच्छ थयो थको [सीदति एव] नाश पामे छे; [स्याद्वादवेदी पुनः] अने स्याद्वादनो जाणनार तो [अस्य निज–कालतः अस्तित्वं कलयन्] आत्मानुं निज काळथी अस्तित्व जाणतो थको, [बाह्यवस्तुषु मुहुः भूत्वा विनश्यत्सु अपि] बाह्य वस्तुओ वारंवार थईने नाश पामतां छतां पण, [पूर्णः तिष्ठति] पोते पूर्ण रहे छे.
भावार्थः– पहेलां जे ज्ञेय पदार्थो जाण्या हता ते उत्तर काळमां नाश पामी गया; तेमने देखी एकांतवादी पोताना ज्ञाननो पण नाश मानी अज्ञानी थयो थको आत्मानो नाश करे छे. स्याद्वादी तो, ज्ञेय पदार्थो नष्ट थतां पण, पोतानुं अस्तित्व पोताना काळथी ज मानतो थको नष्ट थतो नथी.
आ प्रमाणे स्वकाळ-अपेक्षाथी अस्तित्वनो भंग कह्यो. २प६.
(हवे दसमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-)
श्लोकार्थः– [पशुः] पशु अर्थात् अज्ञानी एकांतवादी, [अर्थ–आलम्बन–काले एव ज्ञानस्य सत्त्वं कलयन्] ज्ञेय पदार्थोना आलंबन काळे ज ज्ञाननुं अस्तित्व जाणतो थको, [बहिः– ज्ञेय–आलम्बन–लालसेन मनसा भ्राम्यन्] बाह्य ज्ञेयोना आलंबननी लालसावाळा चित्तथी (बहार) भमतो थको [नश्यति] नाश पामे छे; [स्याद्वादवेदी पुनः] अने
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नश्यत्येव पशुः स्वभावमहिमन्येकान्तनिश्चेतनः
सर्वस्मान्नियतस्वभावभवनज्ञानाद्विभक्तो भवन्
स्याद्वादी तु न नाशमेति सहजस्पष्टीकृतप्रत्ययः।। २५८।।
स्याद्वादनो जाणनार तो [पर–कालतः अस्य नास्तित्वं कलयन्] परकाळथी आत्मानुं नास्तित्व जाणतो थको, [आत्म–निखात–नित्य–सहज–ज्ञान–एक–पुञ्जीभवन्] आत्मामां द्रढपणे रहेला नित्य सहज ज्ञानना एक पुंजरूप वर्ततो थको [तिष्ठति] टके छे- नष्ट थतो नथी.
भावार्थः– एकांती ज्ञेयोना आलंबनकाळे ज ज्ञाननुं सत्पणुं जाणे छे तेथी ज्ञेयोना आलंबनमां मनने जोडी बहार भमतो थको नष्ट थाय छे. स्याद्वादी तो पर ज्ञेयोना काळथी पोतानुं नास्तित्व जाणे छे, पोताना ज काळथी पोतानुं अस्तित्व जाणे छे; तेथी ज्ञेयोथी जुदा एवा ज्ञानना पुंजरूप वर्ततो थको नष्ट थतो नथी.
आ प्रमाणे परकाळ-अपेक्षाए नास्तित्वनो भंग कह्यो. २प७. (हवे अगियारमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-) श्लोकार्थः– [पशुः] पशु अर्थात् एकांतवादी अज्ञानी, [परभाव–भाव–कलनात्] परभावोना *भवनने ज जाणतो होवाथी, (ए रीते परभावोथी ज पोतानुं अस्तित्व मानतो होवाथी,) [नित्यं बहिः– वस्तुषु विश्रान्तः] सदाय बाह्य वस्तुओमां विश्राम करतो थको, [स्वभाव–महिमनि एकान्त–निश्चेतनः] (पोताना) स्वभावना महिमामां अत्यंत निश्चेतन (जड) वर्ततो थको, [नश्यति एव] नाश पामे छे; [स्याद्वादी तु] अने स्याद्वादी तो [नियत–स्वभाव–भवन–ज्ञानात् सर्वस्मात् विभक्तः भवन्] (पोताना) नियत स्वभावना भवनस्वरूप ज्ञानने लीधे सर्वथी (-सर्व परभावोथी) भिन्न वर्ततो थको, [सहज–स्पष्टीकृत–प्रत्ययः] जेणे सहज स्वभावनुं प्रतीतिरूप जाणपणुं स्पष्ट- प्रत्यक्ष-अनुभवरूप कर्युं छे एवो थयो थको, [नाशम् एति न] नाश पामतो नथी.
भावार्थः– एकांतवादी परभावोथी ज पोतानुं सत्पणुं मानतो होवाथी बाह्य वस्तुओमां विश्राम करतो थको आत्मानो नाश करे छे; अने स्याद्वादी तो, ज्ञानभाव ज्ञेयाकार थवा छतां ज्ञानभावनुं स्वभावथी अस्तित्व जाणतो थको, आत्मानो नाश करतो नथी.
आ प्रमाणे स्व-भावनी (पोताना भावनी) अपेक्षाथी अस्तित्वनो भंग कह्यो. २प८.
(हवे बारमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-) ____________________________________________________________ * भवन = अस्तित्व; परिणमन.
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स्याद्वादी तु विशुद्ध एव लसति स्वस्य स्वभावं भरा–
दारूढः परभावभावविरहव्यालोकनिष्कम्पितः।। २५९।।
स्याद्वादी तु चिदात्मना परिमृशंश्चिद्वस्तु नित्योदितं
टङ्कोत्कीर्णघनस्वभावमहिम ज्ञानं भवन् जीवति।। २६०।।
श्लोकार्थः– [पशुः] पशु अर्थात् अज्ञानी एकांतवादी, [सर्व–भाव–भवनं आत्मनि अध्यास्य शुद्ध–स्वभाव–च्युतः] सर्व भावोरूप भवननो आत्मामां अध्यास करीने (अर्थात् सर्व ज्ञेय पदार्थोना भावोरूपे आत्मा छे एम मानीने) शुद्ध स्वभावथी च्युत थयो थको, [अनिवारितः सर्वत्र अपि स्वैरं गतभयः क्रीडति] कोई परभावने बाकी राख्या विना सर्व परभावोमां स्वच्छंदताथी निर्भयपणे (निःशंकपणे) क्रीडा करे छे; [स्याद्वादी तु] अने स्याद्वादी तो [स्वस्य स्वभावं भरात् आरूढः] पोताना स्वभावमां अत्यंत आरूढ थयो थको, [परभाव–भाव–विरह–व्यालोक–निष्कम्पितः] परभावोरूप भवनना अभावनी द्रष्टिने लीधे (अर्थात् आत्मा परद्रव्योना भावोरूपे नथी-एम देखतो होवाथी) निष्कंप वर्ततो थको, [विशुद्धः एव लसति] शुद्ध ज विराजे छे.
भावार्थः– एकांतवादी सर्व परभावोने पोतारूप जाणीने पोताना शुद्ध स्वभावथी च्युत थयो थको सर्वत्र (सर्व परभावोमां) स्वेच्छाचारीपणे निःशंक रीते वर्ते छे; अने स्याद्वादी तो, परभावोने जाणतां छतां, पोताना शुद्ध ज्ञानस्वभावने सर्व परभावोथी भिन्न अनुभवतो थको शोभे छे.
आ प्रमाणे परभाव-अपेक्षाथी नास्तित्वनो भंग कह्यो. २प९. (हवे तेरमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-) श्लोकार्थः–
वहत्–ज्ञान–अंश–नाना–आत्मना निर्ज्ञानात्] उत्पाद-व्ययथी लक्षित एवा जे वहेता (- परिणमता) ज्ञानना अंशो ते-रूप अनेकात्मकपणा वडे ज (आत्मानो) निर्णय अर्थात् ज्ञान करतो थको, [क्षणभङ्ग–सङ्ग–पतितः] *क्षणभंगना संगमां पडेलो, [प्रायः नश्यति] बाहुल्यपणे ____________________________________________________________ * क्षणभंग = क्षणे क्षणे थतो नाश; क्षणभंगुरता; अनित्यता.
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स्याद्वादी तदनित्यतां परिमृशंश्चिद्वस्तुवृत्तिक्रमात्।। २६१।।
नाश पामे छे; [स्याद्वादी तु] अने स्याद्वादी तो [चिद्–आत्मना चिद्–वस्तु नित्य– उदितं परिमृशन्] चैतन्यात्मकपणा वडे चैतन्यवस्तुने नित्य-उदित अनुभवतो थको, [टङ्कोत्कीर्ण–घन–स्वभाव–महिम ज्ञानं भवन्] टंकोत्कीर्णघनस्वभाव (-टंकोत्कीर्णपिंडरूप स्वभाव) जेनो महिमा छे एवा ज्ञानरूप वर्ततो, [जीवति] जीवे छे.
भावार्थः– एकांतवादी ज्ञेयोना आकार अनुसार ज्ञानने ऊपजतुं-विणसतुं देखीने, अनित्य पर्यायो द्वारा आत्माने सर्वथा अनित्य मानतो थतो, पोताने नष्ट करे छे; अने स्याद्वादी तो, जोके ज्ञान ज्ञेयो अनुसार ऊपजे-विणसे छे तोपण, चैतन्यभावनो नित्य उदय अनुभवतो थको जीवे छे-नाश पामतो नथी.
आ प्रमाणे नित्यत्वनो भंग कह्यो. २६०. (हवे चौदमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-) श्लोकार्थः–
बोध–विसर–आकार–आत्म–तत्त्व–आशया] टंकोत्कीर्ण विशुद्ध ज्ञानना फेलावरूप एक आकार (सर्वथा नित्य) आत्मतत्त्वनी आशाथी, [उच्छलत्–अच्छ–चित्परिणतेः भिन्नं किञ्चन वाञ्छति] ऊछळती निर्मळ चैतन्यपरिणतिथी जुदुं कांईक (आत्मतत्त्वने) इच्छे छे (परंतु एवुं कोई आत्मतत्त्व छे नहि); [स्याद्वादी] अने स्याद्वादी तो, [चिद्–वस्तु– वृत्ति–क्रमात् तद्–अनित्यतां परिमृशन्] चैतन्यवस्तुनी वृत्तिना (-परिणतिना, पर्यायना) क्रम द्वारा तेनी अनित्यताने अनुभवतो थको, [नित्यम् ज्ञानं अनित्यता परिगमे अपि उज्ज्वलम् आसादयति] नित्य एवा ज्ञानने अनित्यताथी व्याप्त छतां उज्ज्वळ (-निर्मळ) माने छे-अनुभवे छे.
भावार्थः– एकांतवादी ज्ञानने सर्वथा एकाकार-नित्य प्राप्त करवानी वांछाथी, ऊपजती-विणसती चैतन्यपरिणतिथी जुदुं कांईक ज्ञानने इच्छे छे; परंतु परिणाम सिवाय जुदो कोई परिणामी तो होतो नथी. स्याद्वादी तो एम माने छे के-जोके द्रव्ये ज्ञान नित्य छे तोपण क्रमशः ऊपजती-विणसती चैतन्यपरिणतिना क्रमने लीधे ज्ञान अनित्य पण छे; एवो ज वस्तुस्वभाव छे.
आ प्रमाणे अनित्यत्वनो भंग कह्यो. २६१. ‘पूर्वोक्त रीते अनेकांत, अज्ञानथी मूढ थयेला जीवोने ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व
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आत्मतत्त्वमनेकान्तः स्वयमेवानुभूयते।। २६२।।
अलङ्गयं शासनं जैनमनेकान्तो व्यवस्थितः।। २६३।।
प्रसिद्ध करी दे छे-समजावी दे छे’ एवा अर्थनुं काव्य हवे कहेवामां आवे छेः-
श्लोकार्थः– [इति] आ रीते [अनेकान्तः] अनेकांत अर्थात् स्याद्वाद [अज्ञान– विमूढानां ज्ञानमात्रं आत्मतत्त्वम् प्रसाधयन्] अज्ञानमूढ प्राणीओने ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व प्रसिद्ध करतो [स्वयमेव अनुभूयते] स्वयमेव अनुभवाय छे.
भावार्थः– ज्ञानमात्र आत्मवस्तु अनेकांतमय छे. परंतु अनादि काळथी प्राणीओ पोतानी मेळे अथवा तो एकांतवादनो उपदेश सांभळीने ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व संबंधी अनेक प्रकारे पक्षपात करी ज्ञानमात्र आत्मतत्त्वनो नाश करे छे. तेमने (अज्ञानी जीवोने) स्याद्वाद ज्ञानमात्र आत्मतत्त्वनुं अनेकांतस्वरूपपणुं प्रगट करे छे-समजावे छे. जो पोताना आत्मा तरफ देखी अनुभव करी जोवामां आवे तो (स्याद्वादना उपदेश अनुसार) ज्ञानमात्र आत्मवस्तु आपोआप अनेक धर्मोवाळी प्रत्यक्ष अनुभवगोचर थाय छे. माटे हे प्रवीण पुरुषो! तमे ज्ञानने तत्स्वरूप, अतत्स्वरूप, एकस्वरूप, अनेकस्वरूप, पोताना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी सत्स्वरूप, परना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी असत्स्वरूप, नित्यस्वरूप, अनित्यस्वरूप इत्यादि अनेक धर्मस्वरूप प्रत्यक्ष अनुभवगोचर करी प्रतीतिमां लावो. ए ज सम्यग्ज्ञान छे. सर्वथा एकांत मानवुं ते मिथ्याज्ञान छे. २६२.
‘पूर्वोक्त रीते वस्तुनुं स्वरूप अनेकांतमय होवाथी अनेकांत अर्थात् स्याद्वाद सिद्ध थयो’ एवा अर्थनुं काव्य हवे कहेवामां आवे छेः-
श्लोकार्थः– [एवं] आ रीते [अनेकान्तः] अनेकांत- [जैनम् अलङ्गयं शासनम्] के जे जिनदेवनुं अलंध्य (कोईथी तोडी न शकाय एवुं) शासन छे ते- [तत्त्व– व्यवस्थित्वा] वस्तुना यथार्थ स्वरूपनी व्यवस्थिति (व्यवस्था) वडे [स्वयम् स्वं व्यवस्थापयन्] पोते पोताने स्थापित करतो थको [व्यवस्थितः] स्थित थयो-निश्चित ठर्यो-सिद्ध थयो.
भावार्थः– अनेकांत अर्थात् स्याद्वाद, जेवुं वस्तुनुं स्वरूप छे तेवुं ज स्थापन करतो थको, आपोआप सिद्ध थयो. ते अनेकांत ज निर्बाध जिनमत छे अने यथार्थ वस्तुस्थितिनो कहेनार छे कांई कोईए असत् कल्पनाथी वचनमात्र प्रलाप कर्यो नथी. माटे हे निपुण पुरुषो! सारी रीते विचार करी प्रत्यक्ष अनुमान-प्रमाणथी अनुभव करी जुओ. २६३.
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‘अहीं सुधीमां भगवान कुंदकुंदाचार्यनी ४१प गाथाओनुं व्याख्यान टीकाकार श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे कर्युं अने ते व्याख्यानमां कळशरूपे तथा सूचनिकारूपे २४६ काव्यो कह्यां. हवे टीकाकार आचार्यदेवे विचार्युं के- आ शास्त्रमां ज्ञानने प्रधान करीने ज्ञानमात्र आत्मा कहेता आव्या छीए; तेथी कोई तर्क करशे के “जैनमत तो स्याद्वाद छे; तो पछी आत्माने ज्ञानमात्र कहेवाथी शुं एकान्त आवी जतो नथी? अर्थात् स्याद्वाद साथे विरोध आवतो नथी? वळी एक ज ज्ञानमां उपायतत्त्व अने उपेयतत्त्व - ए बन्ने कई रीते घटे छे?” -आम तर्क कोईने थशे. माटे आवा तर्कनुं निराकरण करवाने टीकाकार आचार्यदेव हवे परिशिष्टरूपे थोडुं कहे छे. तेमां प्रथम श्लोक कहे छेः-’
‘अथ’ अहीं ‘स्याद्वाद–शुद्धि–अर्थ’ स्याद्वादनी शुद्धिने अर्थे ‘वस्तु–तत्त्व– व्यवस्थितिः’ वस्तु तत्त्वनी व्यवस्था ‘च’ अने ‘उपाय–उपेय–भावः’ (एक ज ज्ञानमां उपायपणुं अने उपेयपणुं कई रीते घटे छे ते बताववा) उपाय-उपेयभाव ‘मनाक् भूयः अपि’ जरा फरीने पण ‘चिन्त्यते’ विचारवामां आवे छे.
जुओ, जेवी भगवाने केवळज्ञानमां आत्मवस्तु जोई तेनी सिद्धि अर्थे पूर्वे समयसारमां भरपुर कहेवाई गयुं छे; तो पण टीकाकार आचार्य भगवान फरीने कांईक विचार आवतां विशेष कहे छे. शुं? के स्याद्वादनी शुद्धि अर्थे वस्तु तत्त्वनी जे व्यवस्था ते विशेष कहे छे. तेमां ‘स्यात्’ एटले कोई अपेक्षाए अने ‘वाद’ एटले कथन. अहाहा....! आत्मा जे अनेकान्तमय वस्तु छे तेनुं अपेक्षाए कथन करवुं तेनुं नाम स्याद्वाद छे. अनेकान्तमय वस्तुने अपेक्षा वडे कहेनारी शैलि ते स्याद्वाद छे.
शिष्यनो तर्क छे ने? के आखा समयसारमां तमे आत्माने ज्ञानमात्र वस्तु कहेता आव्या छो तो तेमां एकांत थई जतुं नथी? तो कहे छे-ना, एकांत थई जतुं नथी, अनेकान्त सिद्ध थाय छे. केवी रीते ते समजावे छेः ज्ञानमात्रवस्तु आत्मा आत्मापणे छे, ने शरीर, मन, वाणी के रागादि परज्ञेयपणे नथी एम अनेकान्त सिद्ध थाय छे. आत्मा स्वपणे छे ते अस्ति अने परज्ञेयपणे नथी ते नास्ति-एम अस्ति-नास्तिरूप अनेक धर्म सिद्ध थाय छे, अने एनुं ज नाम वस्तुनुं अनेकान्तस्वरूप छे. अहाहा....! जे छे ते नथी ए ज अनेकान्त छे अने तेनुं कथन करनार स्याद्वाद छे. समजाणुं कांई....! अहाहा! वस्तुमां वस्तुपणानी नीपजावनारी परस्पर बे विरुद्ध शक्तिओनुं एकी साथे प्रकाशवुं ते अनेकान्त छे; अर्थात् अनंतधर्ममय वस्तु पोते ज अनेकान्तस्वरूप छे.
धर्म एटले त्रिकाळी आत्माना आश्रये सम्यग्दर्शनादिरूपे धर्म प्रगट थाय एनी अहीं वात नथी. वस्तुए धारी राखेलो भाव एने अहीं धर्म कह्यो छे. ए रीते गुण
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अने पर्याय ए बन्नेने अहीं धर्म कह्यो छे. पुण्य-पापना भावने पण एक समयनी पर्यायमां धारी राख्या छे माटे तेने पण धर्म कहीए छीए. अहीं अस्ति-नास्ति, एक- अनेक, नित्य-अनित्य आदि धर्मना १४ बोल लईने स्याद्वादने सिद्ध करशे.
आत्मा ज्ञानमात्र छे एम कह्युं एमां शरीरादि परज्ञेयोनी नास्ति आवी जाय छे. आम ज्ञानमात्र वस्तु आत्मामां अनेक धर्म आवी जाय छे. ज्ञानमात्र वस्तु आत्मा छे ते द्रव्य अपेक्षा नित्य छे, पर्याय अपेक्षा अनित्य छे. आम नित्य-अनित्य धर्म वस्तुमां समाई जाय छे. ‘ज्ञान छे’ एम कहेतां ज तेमां अस्तिपणुं ने भेगुं वस्तुपणुं आवी जाय छे. ‘ज्ञान छे’ एम कहेतां ते ज्ञेय पण थाय एवुं प्रमेयपणुं भेगुं आवी जाय छे. वळी ‘ज्ञान छे’ एम कहेतां ज्ञान साथे भेगुं सुख पण आवी गयुं; केमके ज्ञान अर्थात् जाणवुं-जाणवुं-जाणवुं एवो जे भाव ते सहज होवाथी अनाकुळ आनंदमय छे. ए रीते एमां भेगो आनंद-सुख पण आवी जाय छे. अहा! आवी वात जैन परमेश्वर वीतराग सर्वज्ञना मार्ग सिवाय बीजे क्यांय नथी.
अहो! त्रणकाळ-त्रणलोकने जाणवानुं सामर्थ्य जेने पर्यायमां प्रगट थयुं ते सर्वज्ञ वीतराग परमेश्वर अरिहंत परमात्माए जेवुं वस्तुस्वरूप जाण्युं तेवुं जगत पासे विना ईच्छा जाहेर कर्युं. भगवान अरिहंतदेवने ईच्छा होती नथी, केमके ए तो पूर्ण वीतराग होय छे. इच्छा विना ज तेओने ॐध्वनि -दिव्यध्वनि नीकळे छे. ए वाणीमांथी संत- मुनिवरोए शास्त्र रच्यां अने तेमां अनेकान्तमय वस्तुना स्वरूपनुं वर्णन कर्युं. केवी रीते? तो कहे छे-स्याद्वाद पद्धतिथी.
अहा! वस्तु ‘छे’ एम कहेतां ज तेमां परनी नास्ति आवी जाय छे. जुओ, आ आंगळी छे एम कहेतां ज एमां बीजी आंगळी नथी एम भेगुं आवी जाय छे. जो एम न स्वीकारे तो वस्तु ज सिद्ध नहि थाय, बे वस्तु जुदी सिद्ध नहि थाय; बधुं ज भेळसेळ थई जशे. तेवी रीते भगवान आत्मा ज्ञाता-द्रष्टा प्रभु ज्ञानमात्रपणे छे एम कहेतां ज एना ज्ञानमां जे शरीर, मन, वाणी, ईन्द्रिय अने रागादि परज्ञेयो जणाय छे तेनी एमां नास्ति छे एम भेगुं आवी जाय छे. अहो! आवा अनेकान्तस्वरूपनी द्रष्टि ते परमामृत छे, ते सम्यक् द्रष्टि छे अने ए ज सम्यग्दर्शन छे. समजाणुं कांई...! अहा! आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, रागस्वरूप नथी, पररूप नथी; आत्मा आनंदरूप छे, आकुळतारूप नथी; - आवा आत्मस्वरूपनी द्रष्टि करे एने सम्यग्दर्शनरूप प्रथम धर्म प्रगट थाय छे. तेमां लीनता-रमणता करे एनी तो शी वात! ए तो साक्षात् धर्म छे. भाई! आवो वीतरागनो धर्म छे. तेने जे ओळखे तेने ते शरण थाय छे. बाकी विना ओळख्ये ‘केवळी पण्णत्तो धम्मो शरणं’ कहे पण एथी शुं? अंतरमां धर्मनुं स्वरूप ओळख्या विना धर्मनुं शरण क्यांथी प्राप्त थाय? केवळीनेय ओळखे नहि ने धर्मनेय ओळखे नहि एने धर्म केम थाय?
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अरे! लोकोए तो वीतरागमार्गने बहारथी मान्यो-मनाव्यो छे. कोई कहे दया पाळीए तो धर्म थाय, तो कोई कहे भगवाननी मूर्तिनी पूजा करीए तो धर्म थाय, तो कोई वळी कहे के लुगडां उतारी नग्न रहीए तो धर्म थाय. पण आ तो बधी बहारनी चीज छे बापा! (धर्मात्माने ते होय छे पण ते धर्म नथी). धर्म तो अंतरनी चीज छे भाई! भगवाने जेवो ज्ञानमात्र आत्मा कह्यो छे तेनी अंतर्द्रष्टि करी तेमां ज रमणता करे तेनुं नाम धर्म छे.
अहा! भगवान आत्मा चैतन्यनो तेजपुंज प्रभु छे. आ कर्म तो जड पर छे, अने दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना भाव थाय ते पुण्यरूप विकार छे, तथा हिंसा, जूठ आदि भाव थाय ते पापरूप विकार छे; ए एक समयनी पर्यायना धर्म छे. तथापि त्रिकाळी जे एक चैतन्यभाव तेमां ए पुण्य-पापरूप विकार नथी, त्रिकाळी स्वभावभाव सदा निर्विकार छे. अहा! आवा स्वभावभावनी अंतर्दष्टि ने रमणता करवां ते धर्म छे. अहा! आवी पोतानी चीजने छोडीने लोको बहारमां धर्म माने-मनावे ए तो अज्ञान छे.
वळी कोई लोको ज्ञानानंदस्वभावी निज आत्माने छोडीने बहारमां शरीर रूपाळुं होय, पैसा-धन होय ने कांईक आबरू-प्रतिष्ठा होय एटले एमां अनुकुळता मानी त्यां ज हरख करे छे, तेमां हरख-घेलां थई जाय छे. पण भाई! ए तो मिथ्यात्वरूपी सन्निपातनो रोग तने लागु पडयो छे. आ सन्निपात थाय छे ने! तो आदमी दांत काढे छे. शुं तेने सुख छे? ना, ए तो गांडपण छे. तेम बीजी चीजमां हरख करे ए गांडपण- घेलछा छे, सन्निपात छे, ए कांई वास्तविक सुख नथी.
आ जोता नथी? ए शरीर ने पैसा तो क्यांय एक कोर रह्या ने संसारमां लोको एक पछी एक क्यांय (नरक-निगोदादिमां) हाल्या जाय छे. मिथ्यात्वनुं अंतिम फळ निगोद छे भाई! के ज्यां क्षणमां अनंता जीव जन्म-मरण कर्या करे छे. आ लसण, डुंगळी, बटाटा नथी आवता? तेनी एक राई जेटली कटकीमां असंख्य औदारिक शरीर छे, ते एक एक शरीरमां, सर्वज्ञ भगवान कहे छे के अत्यार सुधी जे अनंता सिद्ध थया तेनाथी अनंतगुणा जीव छे. अरेरे! आ जीवोए आत्मानी (-पोतानी जेवडी सत्ता छे तेवडी) हयाती कबुली नथी एटले एना फळमां दुनिया एने आत्मा छे एम माने ए रह्युं नहीं. अहा! जेणे वास्तविक तत्त्वने ओळवीने जुठां आळ आप्यां ए एवो जुठो थई गयो के एने दुनिया जीव माने ए रह्युं नहि. अहा! एक शरीरमां अनंत जीव! ने केवी हीणी दशा! कोई माने नहि के आ जीव छे. भाई! आ हंबग नहि हों; आ सत्य छे. अहा! हुं एक आत्मा छुं ने बीजा मारा जेवा अनंता आत्माओ छे एम अनंत ज्ञेयोने जे उडाडे छे तेनुं ज्ञान उडी जाय छे, अर्थात् अत्यंत हीणमूर्छित थई जाय छे. समजाणुं कांई....?
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अहीं बे वात करी छेः १. आत्मा ज्ञानमात्र वस्तु छे एम कहेतां एकान्त नथी, पण स्याद्वाद छे. (अनेकान्त छे.)
२. एक ज्ञानमात्रवस्तु आत्मामां, उपाय-उपेयपणुं घटित थाय छे. केवी रीते ते अहीं विचारवामां आव्युं छे.
आत्मा ज्ञानस्वरूप छे ने! ए एक ज्ञानस्वरूपमां साधकपणुं अने साध्यपणुं, उपाय-उपेयपणुं वा कारण-कार्यपणुं घटे छे. ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मा वस्तुपणे एक होवा छतां साधक अने साध्य, उपाय अने उपेय एम बे भेद (पर्यायभेद) तेमां पडे छे. जे ज्ञान साधकपणे परिणमे एने उपाय नाम मारग कहीए, अने ए ज ज्ञान परिपूर्ण परिणमे एने साध्य नाम मोक्ष कहीए.
अहा! आवुं साधक-साध्यनुं स्वरूप कह्युं एमां ए सिद्ध थई गयुं के वच्चे जे दया, दान, व्रतादिना परिणाम आवे छे ए साधकभाव नथी, (मोक्षनो) मारग नथी, ए तो पुण्यबंधनुं ज कारण छे. सर्वज्ञस्वभावी प्रभु पोते छे तेमां एकाग्र थई जे श्रद्धा- ज्ञान-शान्ति प्रगट करे ते ज मार्ग छे अने ते ज्ञाननी ज (आत्मानी ज) दशा छे, रागनी नहीं. अहाहा....! भगवान आत्मा चिदानंदमय प्रभु पूर्ण एक छे. तेनी पर्यायमां अपूर्ण साधकपणुं जे प्रगट थाय छे ए ज्ञाननी-आत्मानी (निर्मळ) दशा छे अने एना फळरूपे केवळज्ञाननी पूरण साध्यदशा जे प्रगट थाय ए पण ज्ञाननी-आत्मानी दशा छे. आम द्रव्य (स्वभावथी) एकरूप होवा छतां पर्यायमां बे भंग पडी जाय छे.
‘वस्तुनुं स्वरूप सामान्यविशेषात्मक अनेक-धर्मस्वरूप होवाथी ते स्याद्वादथी ज साधी शकाय छे.’
अहा! भगवानना ज्ञानमां जे छ द्रव्यो आव्यां तेने वस्तु कहे छे. अनंत आत्मा, अनंतानंत परमाणु, असंख्य कालाणु, एक धर्मास्तिकाय, एक अधर्मास्तिकाय अने एक आकाश -ते प्रत्येक वस्तुनुं स्वरूप सामान्यविशेषात्मक छे. वस्तु छे ते प्रत्येक त्रिकाळरूप सामान्यपणे छे अने पर्यायरूप विशेषपणे छे. आत्मा, परमाणु आदि प्रत्येक द्रव्य सामान्य अने विशेष एम बेय स्वभावे छे. त्रिकाळ ध्रुवपणे रहे ते सामान्य, अने पलटीने वर्तमान-वर्तमान अवस्थाए थवुं ते विशेष. आ सामान्य अने विशेष बन्नेय वस्तुनो स्वभाव छे. हवे आवुं वस्तुनुं स्वरूप जाण्या विना धर्म केम थाय? अत्यारे तो मूळ तत्त्वनी वात लुप्त थई गई अने लोको बिचारा बाह्य क्रियाकांडमां
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अहीं कहे छे- आत्मामां अनेक धर्म छे. धर्म एटले वस्तुए धारी राखेलो भाव. सामान्य धर्म अने विशेष धर्म -एम वस्तुमां बे धर्म छे. एकरूप ध्रुव टकी रहेवुं ते सामान्यधर्म छे, ने पलटवुं ते विशेषधर्म छे. एम वस्तुमां अनेक धर्म छे. अहा! आम वस्तु अनेकधर्मयुक्त होवाथी, स्याद्वादथी एटले के अपेक्षाना कथनथी ज साधी शकाय छे, सिद्ध थई शके छे. अपेक्षा न राखे अने सामान्य ज छे, विशेष नथी; वा विशेष ज छे, सामान्य नथी -एम एकांत पकडे तो वस्तु सिद्ध नहि थाय; केमके वस्तु स्वभावथी ज सामान्यविशेषस्वरूप छे. सामान्य जे त्रिकाळी ध्रुवे छे तेनो निर्णय करनार विशेष पर्याय छे. आवुं ज सहज वस्तु स्वरूप छे. हवे कहे छे-
ए रीते स्याद्वादनी शुद्धता (-प्रमाणिकता, सत्यता, निर्दोषता, निर्मळता, अद्वितीयता) सिद्ध करवा माटे आ परिशिष्टमां वस्तुनुं स्वरूप विचारवामां आवे छे.
अहा! जुओ तो खरा! स्याद्वाद माटे केवा केवा शब्दो वापर्या छे! कहे छे- वीतरागनो स्याद्वाद -मार्ग सत्य छे, प्रमाणिक छे, निर्दोष छे, अद्वितीय छे. बीजे क्यांय आवी वात छे नहि. स्याद्वादनी शुद्धता सिद्ध करवा माटे अहीं वस्तुनुं स्वरूप विचारवामां आवे छे. एमां एम बताववामां आवशे के आ शास्त्रमां आत्माने ज्ञानमात्र कह्यो होवा छतां स्याद्वाद साथे विरोध आवतो नथी.
‘वळी बीजुं, एक ज ज्ञानमां साधकपणुं तथा साध्यपणुं कई रीते बनी शके ते समजाववा ज्ञाननो उपाय-उपेयभाव अर्थात् साधकसाध्यभाव पण आ परिशिष्टमां विचारवामां आवे छे.’
जुओ, ज्ञानस्वरूपी आत्मा ज साधकपणे थईने साध्यपणे थाय छे. वच्चे दया, दान, व्रतादिनो शुभराग थाय ते साधक नथी, उपाय नथी. ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मामां एकाग्रता-लीनता थतां दर्शन-ज्ञान-शान्ति प्रगटे ते मोक्षनुं साधक छे, ते मोक्षनो उपाय छे; अने एना फळरूपे केवळज्ञान अने मोक्षदशा प्रगटे ते साध्य नाम उपेय छे. पोते चैतन्यप्रकाशनो पुंज छे एमां आ रीते बेपणुं घटे छे ते पण आ परिशिष्टमां विचारवामां आवशे.
हवे प्रथम आचार्यदेव वस्तुस्वरूपना विचार द्वारा स्याद्वादने सिद्ध करे छेः-
स्याद्वाद समस्त वस्तुओना स्वरूपने साधनारुं अर्हंत् सर्वज्ञनुं एक अस्खलित
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(-निर्बाध) शासन छे. ते (स्याद्वाद) “बधुं अनेकान्तात्मक छे” एम उपदेशे छे, कारण के समस्त वस्तु अनेकान्त स्वभाववाळी छे.’
स्याद्वाद एटले शुं? स्यात् नाम अपेक्षाए, वाद नाम कथन. कोई अपेक्षाथी वस्तुने कहेवी ते स्याद्वाद छे. जेमके- आत्मा नित्य छे, कई अपेक्षाए? कायम टके छे ए अपेक्षाए. आत्मा अनित्य छे, कई अपेक्षाए? बदलती अवस्थानी अपेक्षाए. आम वस्तुने अपेक्षाए कहेवी एनुं नाम स्याद्वाद छे. आ स्याद्वाद, अहीं कहे छे, समस्त वस्तुओना स्वरूपने साधनारुं भगवान अर्हंतदेवनुं अस्खलित शासन छे. अहाहा....! स्याद्वाद, बधी वस्तुओने अपेक्षाथी नित्य-अनित्य, एक-अनेक, सत्-असत् ईत्यादिपणे साधनारुं भगवान सर्वज्ञदेवनुं निर्बाध शासन छे. भाई! आवी वात भगवान सर्वज्ञदेवना शासन सिवाय बीजे क्यांय नथी. हवे कोई आत्माने एकांते सर्वव्यापक माने, एकांते नित्य माने तेने स्याद्वाद केवो? आ तो द्रव्य-गुण-पर्यायमय वस्तु माने, द्रव्य एक, गुण अनंत, पर्याय अनंत-एम माने एना मतमां स्याद्वाद छे. हवे द्रव्य शुं? गुण शुं? पर्याय शुं? कांई खबर न मळे एनी तो आंधळो दोरे ने आंधळो चाले एना जेवी स्थिति छे; बिचारो जईने पडे खाडामां.
अहा! स्याद्वाद बधुं अनेकान्तात्मक छे एम उपदेशे छे. जुओ, आ भगवान अर्हंतनुं निर्बाध शासन! जगतमां छ द्रव्यो छे ते, कहे छे, अनेकधर्मस्वरूप छे. अहीं धर्म एटले सामान्य-विशेष, एक-अनेक, गुण-पर्याय, नित्य-अनित्य, सत्-असत् आदि वस्तुए धारी राखेला भाव-स्वभावने धर्म कहीए. आत्मा एक पण छे, अनेक पण छे; वस्तुपणे एक छे अने गुण-पर्यायोनी अपेक्षा अनेक छे. आम समस्त वस्तुओ-दरेक आत्मा ने दरेक परमाणु आदि-अनेकान्तस्वभाववाळा छे. जुओ, आ आंगळी छे ते अनेक परमाणु भेगा थईने थई छे. परंतु तेमां रहेलो प्रत्येक परमाणु सामान्य-विशेष, एक-अनेक, नित्य-अनित्य आदि अनेकान्त स्वभाववाळो छे. तेम प्रत्येक आत्मा पण अनेकान्तस्वरूप छे, अर्थात् आत्मामां ज्ञान, दर्शन, सुख, आनंद, वीर्य, अस्ति-नास्ति, नित्य-अनित्य, एक-अनेक आदि अनेक अर्थात् अनंता धर्मो धारी राखेला छे- एम जे स्याद्वाद कहे छे ते असत्यार्थ कल्पना नथी, परंतु जेवो वस्तुनो अनेकान्त स्वभाव छे तेवो ज स्याद्वाद कहे छे.
हवे आत्मा नामनी वस्तुने सिद्ध करे छेः ‘अहीं आत्मा नामनी वस्तुने ज्ञानमात्रपणे उपदेशवामां आवतां छतां पण स्याद्वादनो कोप नथी; कारण के ज्ञानमात्र आत्मवस्तुने स्वयमेव अनेकान्तपणुं छे.’
जुओ, शुं कीधुं? के रागादिथी रहित, परद्रव्योथी भिन्न आत्मवस्तुने ज्ञानमात्रपणे उपदेशवामां आववा छतां, अर्थात् आत्मा ज्ञानस्वरूप छे एम कहेवामां आव्युं होवा
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‘त्यां (अनेकान्तनुं एवुं स्वरूप छे के), जे (वस्तु) तत् छे ते ज अतत् छे,....’ जुओ, आ स्याद्वाद न्याय! ज्ञानमात्रवस्तु जे तत् छे ते ज अतत् छे. अहाहा....! तत्-अतत् बन्ने वस्तुना धर्म छे. जे तत् छे ते ज अतत् छे; एटले शुं? के आत्मा ज्ञानस्वरूपथी अंदर तत् छे, ते-पणे छे, ने परज्ञेयस्वरूपथी अतत् छे अर्थात् ते-पणे नथी, परज्ञेयपणे नथी. आ प्रमाणे वस्तुमां एकीसाथे बन्ने धर्मो सिद्ध थई गया, अर्थात् वस्तु अनेकान्तस्वरूप सिद्ध थई गई.
हवे आत्मवस्तु पररूपे नथी तो पर एने शुं नुकशान करे? पर एने शुं लाभ करे? तथा जे परवस्तु परपणे छे, आत्मापणे नथी तेनुं आत्मा शुं करे? कांई न करे. आ वाणी-ध्वनि उठे छे ते शुं आत्मा छे? ना; ए तो जड-अजीव पर छे. तो ते आत्मानुं शुं करे? वाणी जो आत्मा नथी तो वाणीथी ज्ञान थाय? न थाय.
हा, पण तेनो प्रभाव तो पडे ने! आपनी वाणीनो प्रभाव तो पडे छे ने? धूळेय प्रभाव न पडे सांभळने. प्रभाव शुं छे? द्रव्य, गुण, पर्याय-कांईक तो हशे ने! पण अहीं कहे छे- आत्मवस्तु जे स्वस्वरूपथी तत् छे ते परपणे अतत् छे. तेथी परनो-वाणीनो आत्मवस्तुमां प्रभाव होई शकतो नथी. अरे भाई! गुरुना श्री मुखेथी वाणी नीकळे छे ते काळे ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मानी पर्याय छे के नथी? तो शुं ते भाषाने लईने थई छे? भाषाथी तो ते अतत् छे; ते भाषाथी केम थाय? न थाय. ज्ञानगुण त्रिकाळ छे तेनी ते पर्याय पोताथी थई छे. आवुं वस्तुस्वरूप छे.
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थाय छे अने ते ज प्रथम धर्म छे. ए विना बधुं एकडा विनानां मींडा जेवुं छे. अरे! आ शेठिया बिचाराओने आ समजवानी नवराश न मळे ए बधा मोटा मजुर छे. रात- दि’ पापनी मजूरी कर्या करे छे! भले रोजना लाख बे लाख पेदा करे, पण तेथी शुं! ते मोटा मजुर ज छे. बहारना मजुर तो रोज आठ कलाक काम करे, पण आमने तो नवराश ज नहि! आखो दि’ वेपार-वेपार-वेपार! (भाई! आ तो रोज फुरसद लई स्वाध्याय वडे तत्त्वनिर्णय करवानो अवसर छे).
अहीं कहे छे-ज्ञानस्वरूप वस्तु जे तत् छे ते ज अतत् छे. अहाहा...! कहे छे-ते छे, ते नथी. ते छे एटले पोते स्वस्वरूपथी छे, अने ते नथी एटले पोते आ जे परज्ञेय छे ते-पणे नथी. अहा! जुओ ने, पहेला धडाके ज बधुं (अज्ञान) उडावी दीधुं. भाई! आ रीते जो तुं वस्तुने न माने तो बीजी कोई रीते वस्तु सिद्ध नहि थाय.
अहाहा....! भगवान आत्मा जे तत् छे ते ज अतत् छे. आत्मवस्तु जे ते- स्वरूपे छे ते ते-स्वरूपे नथी. झीणी वात छे भाई! भगवान आत्मा जे चैतन्यना प्रकाशस्वरूपे छे ते परस्वरूपे नथी; कर्म, मन, वाणी, शरीर ईत्यादि जडस्वरूपे आत्मा नथी. भाई! आवो यथार्थ निर्णय करे तो अंदर तत्त्व सधाय छे. ज्ञानमात्र-पणे एने जोतां अंदर सम्यग्दर्शन थाय छे, अने त्यारे एने धर्मनी शरुआत थाय छे. आ विना बधुं थोथेथोथां छे. समजाणुं कांई....?
अहा! जाणग... जाणग.... जाणग जाणनार वस्तु जे तत् छे ते ज अतत् छे. अर्थात् आत्मवस्तु पोताना सिवाय बीजी कोई चीजपणे-शरीर-मन-वाणीपणे के देवगुरुशास्त्रपणे नथी मतलब आत्मा क्यांय परमां (निमित्तमां) जतो नथी, अने पर, (निमित्त) कोई चीज अहीं आत्मामां पेसती नथी. हवे आम छे त्यां निमित्तथी (परथी) आत्मामां कांई थाय ए वात क्यां रही? ज्ञान ज्ञानपणे छे, ने बीजी कोई चीजपणे-निमित्तपणे ते नथी एम होतां निमित्तथी आंही (-आत्मामां) ज्ञान थाय ए वात ज रहेती नथी. आ तो न्यायथी-लोजीकथी वात छे.
अहा! तारी चीज ज (आत्मवस्तु ज) एवी छे ने प्रभु! के ते पोताथी तत्पणे छे ने परचीजथी-शरीर, मन, वाणी, ईन्द्रियथी-अतत्पणे छे. वळी ते परपदार्थो पोताथी तत्पणे छे, ने ज्ञानथी-आत्माथी अतत्पणे छे. हवे जे-पणे आत्मा-पोते नथी तेनुं ए शुं करे? कांई ज न करे. अने जे-पणे (आत्मापणे) परवस्तु नथी तेनुं (-आत्मानुं) परवस्तु शुं करे? कांई ज न करे. जुओ, आ आंगळी छे ते पोतापणे तत् छे, पण ते ज अतत् छे अर्थात् बीजी आंगळीपणे नथी. आ एक आंगळी छे ते बीजी आंगळीपणे नथी, तो एनुं आ शुं करे? न्याय समजाय छे कांई...?