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जुओ, शुं कीधुं? के आ विश्व स्वभावथी ज बहुभावोथी भरेलुं छे. एनो अर्थ ए थयो के विश्वमां जे अनंत आत्माओ, अनंतानंत परमाणु आदि छ द्रव्यो छे ए अकृत्रिम छे, कोईए कर्या नथी. ते पदार्थोने कोईए कर्या नथी, तेम ते पदार्थो कोईना कर्ता नथी. वळी दरेक पदार्थनुं स्वभावथी अद्वैत होवा छतां अर्थात् पोते वस्तुपणे एक होवा छतां द्वैतपणुं पण छे, पोते परपणे नथी एवुं द्वैतपणुं रहेलुं छे. वस्तुपणे एक होवा छतां, गुण-पर्यायरूपथी अनेक छे एवा द्वैतनो निषेध थई शकतो नथी; अर्थात् जे अद्वैत छे ते ज द्वैत छे. आ द्वैताद्वैतपणुं कोई परने लईने छे एम नथी. आत्मा स्वपणे छे एवुं अस्तिपणुं-अद्वैतपणुं अने परपणे नथी एवुं नास्तिपणुं-द्वैतपणुं-एवा बे धर्मो वस्तुमां सहज ज सिद्ध छे.
जेने त्रणकाळ-त्रणलोक प्रत्यक्ष जणाया छे एवा सर्वज्ञ परमात्माए एम कह्युं के- भगवान! तुं ज्ञानमात्र एवा अस्तिपणे छो. अहा! आवुं पोताना अस्तिपणानुं ज्ञान जेने थयुं तेने तो अनेकान्त सिद्ध थई जाय छे, अर्थात् तेने ज्ञान साथे आत्मामां अनंत धर्मो रहेला छे एवुं ज्ञान थई जाय छे. पण जेने एनी खबर नथी एवा अज्ञानीओने ज्ञानमात्र कहीने तेनो अनेकान्त-स्याद्वाद साधन वडे निर्णय करावे छे. समजाणुं कांई.....?
आत्मा ज्ञानमात्र छे एम अस्ति कहेतां ज परपणे नथी एम नास्ति सिद्ध थाय छे. वळी ज्ञान छे तो ज्ञाननो आनंद पण भेगो छे एम सिद्ध थाय छे. ज्ञान छे तेनुं अंदरमां प्रयोजनभूत परिणमवारूप वस्तुपणुं पण सिद्ध थाय छे. ज्ञान छे तो पोते पोताना ज्ञानमां आवी शके छे एवो प्रमेयगुण सिद्ध थाय छे; अने प्रमेयने जाणनार पोते प्रमाण छे एम सिद्ध थाय छे. आम, कहे छे, द्वैतनो निषेध करवो अशक्य होवाथी दरेक वस्तु पोताना द्रव्य-गुण-पर्याय स्वरूपमां प्रवृत्ति अने परद्रव्य-गुण-पर्यायरूपथी व्यावृत्ति वडे बन्ने भावोथी अध्यासित छे. अहो! वीतरागना शासन सिवाय आ वात बीजे क्यांय नथी. बीजे तो कल्पित वातो करीने कल्पित मार्गे लोकोने चढावी दीधा छे. अहा! पोते अद्वैत होवा छतां द्वैत केवी रीते छे? तो कहे छे- पोताना द्रव्यमां, पोताना ज्ञानादि अनंत गुणोमां तथा पोतानी परिणतिमां प्रवृत्त थवुं एटले रहेवुं अने परना द्रव्य-गुण-पर्यायपणे न थवुं -ए रीते द्वैतपणुं छे.
वेदांतवाळा जेम बधुं थईने एक कहे छे एम आ अद्वैत नथी. अरे! आत्माने सर्वव्यापक माननार ए लोकोए आत्माने (अभिप्रायमां) खंड खंड करी नाख्यो छे. हा, आत्मा सर्वने जाणे छे, जाणवाना सामर्थ्यरूप छे ए अपेक्षाए तेने सर्वव्यापक
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कहीए, पण क्षेत्र अपेक्षाए बधामां एक (व्यापक) थईने रहे छे एम त्रणकाळमां वस्तु नथी.
अरे! लोकोने बिचाराओने हुं अनंतगुणनो पिंड प्रभु छुं, स्वाधीन छुं, मारी वर्तमान परिणति माराथी थाय छे अने परथी थती नथी ए वात बेसती नथी! वळी ज्ञान थवा काळे सामे ज्ञेय एवुं ज होय छे तेथी तेमने एम भासे छे के सामे ज्ञेय छे माटे मारा ज्ञाननो आकार (परिणाम) आवो थयो. मारी पर्यायनो ज आवा आकारपणे (जाणवापणे) थवानो स्वभाव छे माटे हुं थयो छुं, परथी थयो नथी एम बेसतुं नथी! तेथी ज ए लोको वारंवार संदेह -शंका करे छे के दिव्यध्वनिथी तो लाभ थाय ने? कर्मने लईने आत्मामां विकार थाय ने? ज्ञेयने लईने अहीं ज्ञान थाय ने? लोकोने आ शंका ज (आत्मलाभ थवामां) बहु नडे छे.
जुओ, आ अरीसो छे ने? ते अरीसा सामे श्रीफळ, गोळ, कोलसा आदि जे मूकयुं होय तेवुं अरीसामां देखाय छे. त्यां (खरेखर तो) अरीसानी पोतानी अवस्थारूपे अरीसो थयो छे, अरीसो (श्रीफळ, गोळ आदि) पररूपे थयो नथी. जे (प्रतिबिंब) देखाय छे ते अरीसानी ज अवस्था छे, अने ते सामे जेवी पर चीज छे तेवी थवा छतां, परचीजथी थई नथी. तेम ज्ञानमां जे ज्ञेय जणाय छे ते ज्ञाननी ज अवस्था छे, जेवुं ज्ञेय छे तेवुं जणाय छे छतां ते ज्ञेयथी थई नथी, ज्ञेयकृत नथी. ज्ञान ज पोतानी अवस्थाए तेपणे थयुं छे. समजाणुं कांई....? आ भगवान केवळीनी वाणीमां आवेली वात छे. पण अरे! भ्रान्तिवश लोकोने बेसती नथी!
‘स्वरूपमां प्रवृत्ति ने पररूपथी व्यावृत्ति’ -एम कहीने तो आखो न्याय मूकी दीधो छे. भगवान आत्मा ज्ञानमात्र छे तो एनी साथे ज्ञानमात्रनुं स्वाधीनपणुं, आनंदपणुं पण छे ज. तेथी स्वाधीनपणे आत्मा द्रव्य-गुण ने वर्तमान पर्यायमां आनंदपणे वर्ते छे अने दुःख अने परथी निवर्ते छे. एवुं ज एनुं स्वरूप छे भाई! अहीं कहे छे-प्रभु! तुं आत्मा वस्तु छो ते द्रव्यपणे, ज्ञान, दर्शन आदि अनंतगुणपणे अने तेने जाणनारी-श्रद्धनारी-अनुभवनारी पर्यायपणे सत् छो, ने परद्रव्य अने परभावोथी असत् छो. माटे भगवाननी वाणीने लईने तारामां ज्ञान-श्रद्धाननी पर्याय थई छे एम छे नहि. तारा गुणनुं जे परिणमन समये-समये थाय छे ते ते दशामां तुं प्रवृत्त छो, ने परथी तो व्यावृत्त (भिन्न) छो. माटे परने-देव-गुरु-शास्त्रने लईने तारा गुणनुं परिणमन छे एम छे नहि. तेवी रीते कर्मने लईने विकार थाय छे एम पण छे नहि.
बापु! आ तो वीतराग सर्वज्ञदेवनां वचनो छे भाई! पोतानुं परिणमन स्वथी छे, अने परथी नथी एवुं जाणतां परथी साची उदासीनता थई आवे तेने साचो वैराग्य कहे छे. चाहे सर्वज्ञदेव त्रिलोकीनाथ हो के एनी वाणी हो, एनाथी आत्मा
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व्यावृत्त-निवृत्त ज छे. भाई! भगवान तो पोताना स्वरूपमां ज प्रवृत्त छे, अने आ आत्मा तो एनाथी सदा निवृत्त ज छे. आम पोताथी प्रवृत्ति अने परथी निवृत्ति होवाथी मारी पर्याय माराथी ज थाय, निमित्त के परथी न थाय ए सिद्धांत छे. स्वने जाणतां बीजी चीज छे एनुं ज्ञान थाय ते कोई बीजी चीजने लईने थयुं छे? जराय नहि. ए तो ज्ञान ज पोते तद्रूपे परिणम्युं छे, एमां बीजी चीजनुं कांई ज काम नथी. भाई! परथी आत्मामां कांई थाय के आत्माथी परमां कांई थाय तो तो बधुं भेळसेळ-एक थई जाय; पण एम छे नहि. अहो! आ तो आचार्य अमृतचंद्रदेवे एकलां अमृत रेडयां छे. ‘अमृत वरस्यां रे पंचमकाळमां.’ साक्षात् चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्माने हाजर कर्यो छे.
भाई! खोटी तकरार करवी रहेवा दे बापु! एकवार तारी चीज शुं छे ते ख्यालमां ले तो अंदर सर्व समाधान थई जशे. अहाहा....! अंदर जो तो खरो! तुं पोते ज चैतन्यस्वरूप भगवान छो. ‘भग’ नाम ज्ञानानंदनी लक्ष्मी ने ‘वान’ एटले वाळो. अहाहा...! ज्ञानानंदनी लक्ष्मीथी भरपूर अंदर भगवान छो ने प्रभु! तारा आनंद माटे तने बीजी चीजनी गरज क्यां छे? अंतर्मुख थाय के आनंदनो भंडार अंदर खुली जाय छे; आनंदने बहारमां खोजवानी क्यां जरूर छे? अने बहारमां छे पण क्यां? बापु! देव-गुरु-शास्त्रथी पण तारो आनंद नथी. बहारमां देव-गुरु-शास्त्र भले हो, पण अंतर-सन्मुख थया विना देव-गुरु-शास्त्रथी तारा आनंदनुं परिणमन थाय एम छे नहि. अने परथी खसी स्वसन्मुख परिणमतां ज आनंदनुं परिणमन थई जाय छे, केमके पोते ज आनंदस्वरूप छे. समजाणुं कांई...? अहा! आ तो वीतरागनी वाणी बापा! ‘जेणे जाणी तेणे जाणी छे.’ ज्यां परिणमनमां स्वीकार थयो के हुं मारापणे छुं, ने परपणे नथी त्यां एने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनुं निर्मळ परिणमन शरुं थई जाय छे अने ते आनंदनी दशा छे, ते ज धर्म छे.
भाई! एक एक परमाणु पण पोताथी छे, ने परथी-आ आत्माथी के बीजा परमाणुथी नथी. आ एक पाणीनुं बिंदु छे ने! एमां अनंत परमाणु छे. ते दरेक परमाणु पोताना द्रव्य-गुण-पर्यायथी सत् छे, ने परथी (बीजा परमाणुथी) असत् छे. एटले के पोताथी प्रवृत्त छे ने परथी व्यावृत्त छे. हवे एक परमाणु बीजा परमाणुथी असत् होवाथी तेनी पर्यायने करे नहि तो आत्मा जडनी पर्यायने करे ए केम बने? कदीय ना बने; केमके बन्नेमां परस्पर अत्यंताभाव छे. भाई! आत्मानुं सत्पणुं पोतानी वस्तु- गुणने परिणतिथी छे. अने परथी ते असत् छे. आ अनेकान्त छे. स्वनी अपेक्षा पर चीज असत् छे, ने परचीजनी अपेक्षा स्व नाम आत्मा असत् छे. आवी वात!
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आ रीते समस्त वस्तुओ स्वरूपमां प्रवृत्ति ने पररूपथी व्यावृत्ति वडे बन्ने भावोथी अध्यासित छे, अर्थात् बन्ने भावो वस्तुमां रहेला छे. जेमके - आ एक आंगळी पोतापणे छे ने ते बीजी आंगळीपणे नथी. आ रीते ते पोतामां प्रवृत्तिपणे अने बीजी आंगळीथी व्यावृत्तिपणे छे. आवुं ज वस्तुनुं सहज स्वरूप होवाथी शरीर आम रहे, ने आंखो आम बंध करीए तो ध्यान थाय एवी मान्यता बराबर नथी, केमके शरीरनी अवस्था ने आंखो बधुं पर छे. आंखोनुं खुल्लुं रहेवुं के बंध रहेवुं ने शरीरनी अमुक अवस्था रहेवी ए बधुं भगवान आत्मामां छे ज नहि.
अहा! आ चैतन्यदेवनी लीला तो जुओ, जाणनारो जाणगस्वभावी प्रभु पोते ज ज्ञान छे, ने पोते ज ज्ञेय पण छे. प्रमाण पण पोते ने प्रमेय पण पोते ज छे. द्वैतने निषेधवुं अशक्य छे एम कह्युं ने! पोते जाणवाना भावपणे प्रमाण छे, अने पोते पोतामां जणावाना भावपणे प्रमेय पण छे. आम एक ज्ञान-प्रमाणमां द्वैत छे, भेद छे.
भाई! आ एक वात यथार्थ समजे तो निमित्तथी थाय ने व्यवहारथी थाय, ने क्रमबद्ध न थाय इत्यादि बधी तकरारो मटी जाय. केटलाक कहे छे के-होनहार (जे काळे जे थवानुं होय ते काळे ते ज थाय) एम कहीने तमे बधुं नियत कहेवा मागो छो, तेने कहीए छीए के-हा भाई! ए सम्यक् नियत ज छे. जे समये वस्तुनो जे पर्याय स्वकाळे प्रवर्तीत छे ते परने लईने तो नहि पण बीजी पर्याय जे बीजे समये थवानी होय के थई होय ते पर्यायने लईने पण नहि. ते पर्याय ते समये नियत ज छे. वस्तु जे वर्तमान-वर्तमान परिणमे छे ते पोतानी पर्यायथी स्वतंत्र ज परिणमे छे. आवी ज वस्तुस्थिति छे त्यां शुं थाय?
अत्यार सुधी टुंकामां जे कहेवायुं तेनो हवे विस्तार करे छेः- ‘त्यां, ज्यारे आ ज्ञानमात्र भाव (-आत्मा), शेष (बाकीना) भावो साथे निज रसना भारथी प्रवर्तेला ज्ञाता-ज्ञेयना संबंधने लीधे अने अनादि काळथी ज्ञेयोना परिणमनने लीधे ज्ञानतत्त्वने पररूपे मानीने (अर्थात् ज्ञेयरूपे अंगीकार करीने) अज्ञानी थयो थको नाश पामे छे, त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) स्व-रूपथी (-ज्ञानरूपथी) तत्पणुं प्रकाशीने (अर्थात् ज्ञान ज्ञानपणे ज छे एम प्रगट करीने), ज्ञातापणे परिणमनने लीधे ज्ञानी करतो थको अनेकान्त ज (स्याद्वाद ज) तेने उद्धारे छे-नाश थवा देतो नथी.’
शुं कीधुं आ? के आ आत्मा पोतानाथी अन्य पदार्थो साथे निज रसथी प्रवर्तेला ज्ञाता-ज्ञेयना संबंधने लीधे-पोते ज्ञाता छे ने बीजा पदार्थो ज्ञेय छे एवा सहज संबंधने लीधे -अनादिकाळथी ज्ञेयोना परिणमनथी पोतानुं (ज्ञाननुं) परिणमन छे एम मानी बेठो छे. ज्ञानमां ज्ञेय जणातां ज्ञेयने लईने मारुं परिणमन छे एम ते
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जेम सूका हाडकाने चावता कूतराने हाडकु वागतां मोढामांथी लोही नीकळे छे, ने माने छे के हाडकामांथी लोही आवे छे तेम अज्ञानी प्राणी परिणमता परज्ञेयथी मने ज्ञान थाय छे एम माने छे. आ भगवाननी वाणी आ शास्त्रो छे तेने लईने मारुं ज्ञान थयुं छे एम अज्ञानी माने छे. शास्त्रमां शब्दो जेवा भिन्न भिन्न छे एवुं ज्ञाननुं परिणमन अहीं (-आत्मामां) स्वतः ज थाय छे, तो शब्दोने लईने अहीं ज्ञाननुं परिणमन थयुं एम ते माने छे. कानमां शब्दो पडया ते शब्दोनुं परिणमन छे, ने ते काळे ज्ञान तेने स्वयं स्वतः जाणे छे, पण शब्दोने लईने आ मारा ज्ञाननुं परिणमन थयुं एम अज्ञानी जीव माने छे. हुं एक ज्ञायकतत्त्व छुं, ने मारुं ज्ञेयोने जाणवारूप परिणमन स्वतः सहज थई रह्युं छे एम तेने श्रद्धा नथी. आ रीते ते पोताना ज्ञानतत्त्वने पररूप करीने, पोताने परज्ञेयरूप अंगीकार करीने अज्ञानी थयो थको नाश पामे छे, पोताना ज्ञानस्वभावनो अभाव करे छे.
जगतमां ज्ञानतत्त्व छे, ने एनाथी जुदुं ज्ञेयतत्त्व पण छे. बन्ने भिन्नभिन्न छे. ज्ञेयना अस्तित्वमां ज्ञान नथी, ने ज्ञाननी सत्तामां ज्ञेय नथी. ज्ञाननुं परिणमन ज्ञानना अस्तित्वमां पोताने लईने ज छे. ज्ञेयने लईने जराय नहि; ज्ञानमां ज्ञेय जणायुं माटे ज्ञाननुं परिणमन थयुं छे एम बिलकुल नथी; छतां अज्ञानी ज्ञाननुं परिणमन ज्ञेयकृत छे एम विपरीत मानीने पोताने ज्ञेयरूप करतो थको पोताना ज्ञानतत्त्वनो अभाव करे छे.
भाई! आ आत्मा एक वस्तु छे के नहि? मोजुदगीवाळी चीज छे के नहि? जेम आ शरीर छे तेम आत्मा, एनो जाणनारो मोजुदगीवाळो-अस्तिरूप एक पदार्थ छे. ते आ भगवान आत्मा एना द्रव्ये एटले वस्तुए ज्ञानभाव, एनी शक्तिए-गुणे ज्ञानभाव अने पर्याये पण खरेखर ज्ञानभावे परिणमवापणे छे. पण एना उपर (ध्रुव एक ज्ञानस्वभावी आत्मा उपर) एनी द्रष्टि नहि होवाथी, अनादिथी पोते चैतन्यप्रकाशमां पोतानी शक्तिथी प्रवर्ततो होवा छतां, एना ज्ञानमां जे दया, दान, पूजा, भक्ति आदिनो राग ने शरीर, मन, वाणी इत्यादि परज्ञेय जणाय छे ते हुं छुं, एनाथी हुं
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छुं एम मानीने ते पोतानी ज्ञानसत्तानो अनादर करे छे, पोतानी जे रीते (ज्ञानस्वभावमात्र) मोजुदगी छे ते रीते स्वीकारतो नथी.
भगवान आत्मा ज्ञाता छे, ने शरीरादि पदार्थो ज्ञेय छे; आत्मा द्रष्टा छे, ने शरीर-मन-वाणी आदि द्रश्य छे. ज्ञाता-ज्ञेय, द्रष्टा-द्रश्य-एवो (व्यवहार) संबंध जोईने, पोते ज्ञानस्वभावमात्र होवा छतां, जे ज्ञेयो-शरीर, मन, वाणी, स्त्री-कुटुंब आदि-ज्ञानमां जणाय ते वडे मारा ज्ञाननुं परिणमन छे वा ते हुं छुं एम मानतो थको, पोताने पररूप करीने अज्ञानी पोताना ज्ञानस्वभावनो ईन्कार-तिरस्कार करे छे. शुं करे बिचारो? जे रीते पोते ज्ञानस्वभावमात्र छे ए रीते लक्षमां न आवे त्यां सुधी क्यांक बीजे हुं छुं एम मानवुं पडे, एटले ज्ञानमां जे पुण्य-पाप आदि भावो ने शरीर, मन, वाणी ईत्यादि देखाय छे ते हुं छुं एम पोताने पररूप मानीने, पोताना ज्ञानस्वभावमय जीवननो घात करे छे. आनुं नाम ज वास्तविक हिंसा छे. समजाणुं कांई....? न्याय समजाय छे के नहि? आ तो भेदज्ञाननी वातु बापु! अरे, आवा भेदज्ञान विना एणे व्रत-तप आदि अनंतवार कीधां, महिना-महिनाना उपवास कर्या, बब्बे महिनाना संथारा कर्या, पण ए बधुं शुं काम आवे? विना भेदज्ञान बधुं थोथेथोथां छे बापु!
हवे ज्ञानस्वभावथी पोताने तत्पणुं छे एम प्रकाशीने ज्ञानी-धर्मी पुरुष पोताने जीवाडे छे, नाश थवा देतो नथी एम वात करे छेः
शुं कहे छे? के ज्ञानमात्रवस्तु हुं आत्मा स्वस्वरूपथी-ज्ञानस्वरूपथी तत् छुं एवी प्रतीतिना अभावे हुं परज्ञेयस्वरूप छुं एम मानतो थको अज्ञानी जीव रागद्वेषमोहभावे परिणमीने पोतानो नाश करे छे; त्यारे धर्मी-ज्ञानी पुरुष आ ज्ञानमात्रवस्तु हुं आत्मा स्वस्वरूपथी-ज्ञानस्वरूपथी तत् छुं एम प्रकाशतो थको स्वस्वरूपना निर्मळ ज्ञानश्रद्धानरूप परिणमन वडे पोताने जिवाडे छे. अहा! हुं त्रिकाळ ज्ञानानंदस्वभावी प्रभु आत्मा छुं अने मारुं अस्तिपणुं माराथी ज छे एम अंतरंगमां निर्णय थाय त्यारे अवस्थामां परिणमन शुद्ध थाय छे. आ शुद्ध परिणमन पोताना षट्कारकपणे स्वतंत्र थाय छे हों. जेम आत्मामां ज्ञान, आनंद आदि स्वभाव त्रिकाळ छे, तेम तेमां कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, अधिकरण-एम षट्कारकरूप स्वभाव त्रिकाळ छे. आत्मामां कर्ता थवानो कर्म-कार्य थवानो, साधन थवानो, संप्रदान (निर्मळ पर्याय पोते प्रगट करी पोताने देवानो) थवानो, अपादान थवानो, ने अधिकरण थवानो स्वभाव त्रिकाळ छे. तेथी जे निर्मळ ज्ञान-श्रद्धान आदि परिणमन थयुं तेनुं अन्य कोई निमित्त के राग कर्ता ने ते परिणमन एनुं कार्य एम छे नहि. अहा! हुं शुद्ध चैतन्यप्रकाशमय छुं एवी प्रतीति-निर्णयरूप जे कार्य थयुं ते कोई निमित्तनुं-देव-गुरु-शास्त्रनुं कार्य छे एम
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भगवान आत्मा जाणग-जाणग स्वभावी चैतन्यसूर्य छे एवा भावनुं तत्पणुं प्रकाशीने... एटले शुं? के ज्ञानस्वरूपथी हुं छुं, ने विकल्प ने पुण्य ने शरीरादिने लईने हुं नथी एवो निर्णय अंतर्द्रष्टि -ज्ञायकनी द्रष्टि थतां पर्यायमां थाय छे, अने त्यारे अंतरंगमां शुद्ध अंतःतत्त्व अनुभवातां पर्यायमां आत्माना ज्ञान ने आनंदस्वभावनुं शुद्ध परिणमन प्रगट थाय छे. आ ज्ञातानुं परिणमन छे. ते परिणमन परने (देव-गुरुने) लईने थयुं छे एम नथी. ज्ञेयनी पर्याय ते काळे भले हो, पण एने लईने अहीं ज्ञातानुं परिणमन थयुं छे एम छे नहि.
अहाहा...! भगवान, तुं ज्ञानभावमात्र छो ने! ए ज्ञानभावमां अनंतगुणो समाई जाय छे. अहा! आवी ज्ञानभावमात्र वस्तुनो अंतरंगमां तत्पणे-ज्ञानभावपणे अंर्तद्रष्टि वडे स्वीकार करतां पर्यायमां ज्ञातास्वभावना परिणमनरूप अवस्था ज्ञानपणे, आनंदपणे, श्रद्धानपणे शान्तिपणे परिणमी जाय छे. ते परिणमनमां परनो बिलकुल अधिकार नथी. हुं ज्ञानमात्र आत्मा छुं एम जाणीने ज्ञाननी पर्याय ज्यां एमां ठरी त्यां अनंतगुण भेगा निर्मळ उत्पादरूप थाय छे, प्रगट थाय छे. हजु केवळज्ञान थयुं नथी त्यां सुधी कंईक राग छे. पण ए तो परज्ञेय छे; मारा निर्मळ परिणमनमां ए कांई नथी. ल्यो, आवुं ज्ञातानुं ज्ञानमय परिणमन छे. आ तो अंतरनी चैतन्यलक्ष्मीनी वात छे. अंतरनी लक्ष्मी ए ज लक्ष्मी छे, ज्ञान ए ज लक्ष्मी छे, बाकी आ तमारा पैसा आदि तो बधी धूळनी धूळ छे. समजाणुं कांई....?
आ तो भगवानना दरबारमांथी-धर्मसभामांथी आवेली वातु छे. सर्वज्ञ परमात्मा त्रणलोकना नाथ अरिहंत प्रभु दिव्यध्वनि द्वारा उपदेश करे छे. गणधरो, मुनिवरो ने बत्रीस-बत्रीस लाख विमाननो स्वामी शक्रेन्द्र ते सांभळे छे. अहा! ते वाणी केवी होय! जीवोनी दया पाळो ने धर्म थई जशे-शुं भगवाननी वाणीमां आ आवतुं हशे? ना हो; दया पाळो एम तो कुंभार पण कहे छे. बापु! भगवाननी वाणी तो अंतःपुरुषार्थ जगाडनारी अद्भुत अलौकिक होय छे. स्तवनमां आवे छे ने के- ‘जिनेश्वरनी वाणी जेणे जाणी तेणे जाणी छे.’ अहा! ए ॐध्वनि सांभळी गणधर भगवान तेनो अर्थ विचारे छे अने संतो-मुनिवरो ते भावोने समजी आगम रचे छे. एमांनुं आ परमागम शास्त्र छे. तेमां अहीं कहे छे -
कायम टकता त्रिकाळी द्रव्य उपर पर्यायनुं लक्ष जतां ‘आ ज्ञानमात्र आत्मा हुं छुं’
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-एवा अनुभवरूप ज्ञान ने आनंदनुं परिणमन थाय छे अने एमां द्रव्य, गुण ने पर्याय -त्रणेय-त्रिमय हुं छुं, अने पररूप हुं नथी एम आत्मानो स्वीकार थयो ते ज जीवनुं यथार्थ जीवन छे. अहा! जेणे पोतानी मोजुदगी जे रीते छे ते रीते स्वीकारी तेणे पोतानी जीवती ज्योतने जीवती राखी, तेनुं जीवन सफळ ने धन्य थयुं. अने जेणे ए रीते (ज्ञानमात्रपणे) न स्वीकारतां हुं पुण्यवाळो ने शरीरवाळो ने बायडीवाळो ने धनवाळो ईत्यादि मान्युं तेणे जीवती ज्योतने बुझावी दीधी, पोताना जीवतरनो नाश करी नाख्यो, आत्मघात कर्यो. समजाणुं कांई....?
अहा! स्वरूपथी-ज्ञानस्वभावथी तत्पणे प्रकाशतो थको धर्मी पुरुष ज्ञातापणे परिणमे छे. एटले शुं? के हवे तेने परना-निमित्तना आश्रयनी जरूर भासती नथी. अहा! हवे स्वभावथी संबंध जोडीने तेणे निमित्तनो संबंध तोडी नाख्यो छे, रागथी संबंध तोडी नाख्यो छे. आ प्रमाणे ज्ञानरूपथी पोतानुं तत्पणुं प्रकाशीने अर्थात् ज्ञान ज्ञानपणे ज छे एम प्रगट करीने ज्ञातापणे परिणमनने लीधे अनेकान्त ज तेने जिवाडे छे, अर्थात् तेना जीवतरने नष्ट थवा देतो नथी, पण यथार्थ ज्ञानमय जीवनने प्रगट करे छे, स्वरूपथी तत् छुं ने पररूपथी अतत् छुं एवुं अनेकान्त ज जीवनने सफळ-उत्तम फळ सहित-प्रगट करे छे.
अनेकान्त-अनेक अंत; आत्मा अनेक (अनंत) गुण-धर्मस्वरूप छे. पोते स्वथी तत् ने परथी अतत्-एम आत्मामां तत्-अतत्पणुं छे ए अनेकान्त छे, अने आ अनेकान्त परम अमृत छे. प्रवचनसारमां आवे छे के-आ परिपूर्ण परमानंदस्वरूप प्रभु पोते स्वस्वरूपथी छे ने रागथी ने परथी नथी एवुं भेदविज्ञान पामतां अंदर पर्यायमां आनंदनो स्वाद आवे छे, अमृत झरे छे. अहा! एने धर्म कहीए ने एने ‘अमृतना वेणलां वायां’ कहीए. आ बाईयुं लग्नमां गाय छे ने! के ‘वेणलां भलां वायां रे’ . त्यां तो धूळेय वेणलां वायां नथी सांभळने. अनादिनुं वेण एणे परमां ने रागमां ने पुण्यमां जोडी दीधुं छे. ए तो बधुं झेर बापा! अहीं तो अंदर आनंदकंद प्रभु पोते छे तेने तत्पणे प्रकाशीने -आ ज हुं छुं एम निर्णय करीने- जे आनंदरूपे परिणम्यो तेने आनंदनां-अमृतनां वेणलां वायां. भाई! पूर्णानंदनो नाथ प्रभु पोते छे एनी अंर्तद्रष्टि करी अने परथी द्रष्टि हठावी जे तत्पणे-ज्ञानस्वभावपणे प्रकाश्यो तेनुं जीवन सफळ छे, ते सत्यार्थपणे जीवतो छे, बाकी बधां मडदां ज छे. अष्टपाहुडमां एवा जीवोने चलशब - चालतां मडदां कह्या छे जेने पोतानी स्वभावथी टकती सत्तानो स्वीकार नथी, एनी द्रष्टि नथी, एमां एकता नथी एवा बधा जीवोने रागमां ने परमां एकता छे, ते बधा जीवो मडदा समान ज छे.
ज्ञानी-धर्मी पुरुष पोताना शाश्वत टकता तत्त्वने जोईने पोतानुं जीवन टकावी
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हवे कहे छे- ‘वळी ज्यारे ते ज्ञानमात्र भाव “खरेखर आ बधुं आत्मा छे” एम अज्ञानतत्त्वने स्व-रूपे (ज्ञानरूपे) मानीने-अंगीकार करीने विश्वना ग्रहण वडे पोतानो नाश करे छे (-सर्व जगतने पोतारूप मानीने तेनुं ग्रहण करीने जगतथी भिन्न एवा पोताने नष्ट करे छे), त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) पररूपथी अतत्पणुं प्रकाशीने (अर्थात् ज्ञान परपणे नथी एम प्रगट करीने) विश्वथी भिन्न ज्ञानने देखाडतो थको अनेकान्त ज तेने पोतानो (-ज्ञानमात्र भावनो) नाश करवा देतो नथी.
शुं कह्युं? ज्ञानमात्रभाव.... जाणग जाणगस्वभाव ते आत्मा छे, अने पुण्य- पापना भाव अने शरीर-मन-वाणी ईत्यादि बधुं अनात्मा छे, अज्ञानतत्त्व छे. ते अज्ञानतत्त्वने-अनात्माने अज्ञानी जीवो आत्मारूप माने छे. अहा! आ पुण्य-पापना भाव ने शरीर, मन, वाणी इत्यादि जे ज्ञानमां परज्ञेयपणे जणाय छे ए बधुं हुं आत्मा छुं एम अज्ञानी माने छे. गजब छे भाई! भगवान आत्मा चैतन्यमूर्ति ज्ञानपुंज प्रभु स्वरूपथी-ज्ञानरूपथी तत् छे, ने पुण्य-पाप आदि तथा शरीरादि परज्ञेयरूपथी अतत् छे. छे तो आम; पण एम न मानतां परज्ञेयोथी-शरीरादिथी हुं तत् छुं एम अज्ञानीओ माने छे अने ए रीते तेओ पोताना चैतन्यस्वरूप आत्मानो लोप-अभाव करे छे.
कोई पूछे के- अज्ञानीने धर्म केम थतो नथी? तो कहे छे- पोते अंदर चैतन्य प्रकाशनो पुंज ज्ञानानंदस्वभावी प्रभु छे तेने ‘आ हुं छुं’ एम न मानतां आ पुण्य- पापना परिणाम हुं छुं, पुण्यभावथी मने लाभ-धर्म छे, ने जड शरीरनी क्रियाओ (उपवासादि) थाय छे ते मारी छे, शरीर मारुं छे-एम पर एवा अजीव अने आस्रव तत्त्वने ते आत्मा माने छे. पुण्य-पाप आदि विकारी भाव ते आस्रव तत्त्व छे. ते दुःख अने बंधनुं कारण छे, अने भगवान आत्मा सदा आनंदस्वरूप ने अबंधस्वरूप छे. आ रीते आस्रव अने अजीवथी पोताने-आत्माने भिन्नता होवा छतां तेने आत्मस्वरूप मानीने ते पोताना आत्मानो अनादर करे छे. हवे पोतानो ज अनादर-तिरस्कार करे तेने धर्म केम थाय? न थाय.
प्रश्नः– पुण्य-पापना भाव थाय छे तो आत्मानी पर्यायमां? तेने अज्ञानतत्त्व केम कहो?
उत्तरः– भाई! पुण्य-पापना भाव थाय छे तो आत्मानी पर्यायमां, पण तेओ विभाव अर्थात् विपरीत भाव छे. तेओ दुःखरूप अने दुःख अने बंधना कारणरूप छे. वळी तेमां चैतन्यनो-ज्ञाननो अंश नथी. तेथी तेओ चैतन्यथी जुदा अज्ञानतत्त्व छे एम कहीए छीए. समजाणुं कांई........?
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अरे भाई! पुण्य-पाप आदि भाव अने आ शरीर, मन, वाणी, दीकरा, दीकरी, कुटुंब-परिवार, धन आदि अनात्मरूप चीजो तारी क्यांथी आवी? ए तारा चैतन्यप्रकाशस्वरूप छे ज नहि. मारी छे, ए तो तारी अनादिकालीन भ्रमणा छे बापु! भ्रमणामां ने भ्रमणामां तें आ सर्व अज्ञानतत्त्वने तारा ज्ञानतत्त्व साथे भेळवीने एकमेक करी दीधां छे. अरे, तारा आत्मानी अपेक्षाए साक्षात् सर्वज्ञपरमात्मा, पंच परमेष्ठी अने शास्त्र ईत्यादि बधुंय अज्ञानतत्त्व छे, केमके ते आ आत्माना ज्ञानरूप नथी, परज्ञेयरूप छे. आ भेदज्ञान छे. पोतानी भिन्न चीज छे एने भिन्न नहि मानतां बीजी चीज (अज्ञानतत्त्व) हुं छुं एम तुं माने ए तो नर्युं अज्ञान छे; ए वडे तो तारा आत्मानो- तारा वास्तविक जीवननो-नाश ज थई रह्यो छे. समजाणुं कांई......? अहो! आ अनेकान्तमां तो आचार्यदेवे आखुं भेदविज्ञान समावी दीधुं छे!
जुओने! एक बाजु राम ने एक बाजु गाम मूकी दीधां छे. एक बाजु अनंत गुणस्वरूप ज्ञानपुंज प्रभु आत्मा ते राम, अने बीजी बाजु पुण्य-पापना विकल्पथी मांडीने शरीर, मन, वाणी, धन, परिजन, देव, गुरु इत्यादि विश्वनी सघळी पर चीज ते गाम छे. ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मा विश्वनी आ सघळी परचीजने जाणवावाळो छे, पण ए बधी परचीज पोतानी छे एम एमां क्यां छे? नथी. छतां अज्ञानी जीव जेमां पोतानो ज्ञानस्वभाव नथी एवी आ परचीज-अज्ञानतत्त्व हुं छुं एम अज्ञान-तत्त्वने - परचीजने स्वपणे मानीने-अंगीकार करीने विश्वना ग्रहण वडे अर्थात् पोताना सिवाय अनंत पर पदार्थोना ग्रहण वडे पोताना ज्ञानतत्त्वनो-ज्ञानस्वरूपनो अनादर करे छे, पोतानी शुद्ध चैतन्यमय जीवनशक्तिनो नाश करे छे. आवो आत्मघात ए ज हिंसा छे, अधर्म छे. भाई! धर्म ने अधर्म ए तो अंतरंग मान्यता ने आचरणना आधारे छे, बाह्यथी एनुं माप नीकळे एम नथी.
अहा! भगवान आत्मा अतिन्द्रिय आनंदनो कंद प्रभु छे. क्यांय बीजे (इन्द्रिय के इन्द्रियना विषयोमां) एनो आनंद नथी; आनंदनुं ढीम छे ने पोते! छतां मारो आनंद परमांथी (विषयोमांथी) आवे छे, परथी मने सुख थाय छे एम जे माने छे ते परने पोतारूप-स्वरूप माने छे. आ पैसाथी मने सुख मळे छे, आ मनोहर बाग-बंगलामां मने आराम छे, चैन छे, मझा छे, आ रूपाळा वस्त्रोथी मारी शोभा छे एम जे माने छे ते पैसाने, बाग-बंगलाने ने वस्त्रादिने ज आत्मरूप करे छे, आत्मा माने छे; अने ए रीते ते पोताना आनंदस्वभावनो, आ आनंदस्वभावी आत्मा हुं नहि, आ पैसा आदि परचीज हुं छुं; एम परचीजने अंगीकार करीने, नाश करे छे. समजाणुं कांई......?
आ देह तो माटी-धूळ छे भाई! अने आ मीठां भोजन-लाडवा ने पांतरां
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वळी कोई वेदांतवाळा एम माने छे के ज्ञानमां कपासादि (परज्ञेयो) जणाय छे माटे ते (कपासादि) ज्ञाननी जात छे, कारण के ज्ञाननी जात होय ते जणाय; पण आ मान्यता अज्ञान छे. सर्वने (परज्ञेयोने) ज्ञानस्वरूप-आत्मस्वरूप मानवा ए अज्ञान छे, केमके वस्तु एम नथी. पोते (-आत्मा) एक ज्ञानस्वरूप छे, ने ते सिवायनुं बधुं ज परज्ञेय छे. समजाणुं कांई.....?
आ माणसो ध्यान नथी करतां? ध्यान करे छे त्यारे ते पोतानी सन्मुख थाय छे; एटले के पोते जेटला क्षेत्रमां व्यापक छे तेनी सन्मुख थाय छे. मतलब के पोताना क्षेत्रमां ज एनुं होवापणुं छे. छतां विश्वनी जे अनंत चीजो छे ते सर्वमां हुं व्यापक छुं -मारो आत्मा विश्वना बधा क्षेत्रमां व्यापक छे एम कोई माने तो ते अज्ञानी छे, ते पोतानी ज्ञानस्वभावमात्र वस्तुनो अनादर करीने पोतानो घात-हिंसा करे छे. अहा! विश्वनां बधां (अनंता) द्रव्योने पोतारूप-स्वरूप मानी-करीने ते जगतथी भिन्न एवा निज आत्मस्वरूपनो-ज्ञानानंदस्वरूपनो नाश करे छे. बधी चीजोथी (परज्ञेयोथी) पोते भिन्न छे एम जे मानतो ने अनुभवतो नथी ते पोतानो नाश करे छे.
वळी कोईने पांच-पचास हजारनुं मकान नवुं थयुं होय एटले वात-वातमां कहे - एम के भूख्या-तरस्या तो थोडा दि’ रहेवाय पण शुं मकान विना रहेवाय? रोटला विना थोडा दि’ चाले, पण ओटला (मकान) विना केम चाले? आ बधाय मूढेमूढ भेगा थया छे. खबर न मळे के रोटला ने ओटला बधीय परवस्तु छे. शुं आत्मा ओटलामां- मकानमां रही शके छे? ए तो परवस्तु छे; एमां ए केम रहे? एमां एनी रक्षा केम थाय? लोकोने आ तत्त्वनी वात कठण पडे छे. एटले धर्मने नामे बहारनी क्रियाओ-व्रत, तप, दान, भक्ति आदि अनंतकाळथी कर्या करे, पण भाई! ए तो बधो शुभराग छे बापु! ए कांई धर्म नथी, ने धर्मनुं कारणेय नथी. पण शुं थाय? रागथी ने परथी
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भिन्न पोतानी चीजनो जे स्वीकार करतो नथी ते बीजे पोतापणुं करीने, जगतने पोतारूप मानीने पोतानो नाश करे छे.
त्यारे ते ज्ञानमात्रभावनुं पररूपथी अतत्पणुं प्रकाशीने विश्वथी भिन्न पोताने मानतो थको ज्ञानी पोतानो नाश थवा देतो नथी. हुं स्वरूपथी ज ज्ञानानंदस्वभावपणे तत् छुं एम पोताथी तत् ने पुण्य-पाप आदि ने शरीर आदि अनंता परज्ञेयोथी अतत् छुं एवी भेदज्ञाननी द्रष्टि धर्मीने खीली गई होय छे. आ रीते धर्मी सत्यार्थ द्रष्टि वडे पोताने जीवतो राखे छे अर्थात् आनंदमय जीवन जीवे छे. अहा! चाहे दया, दान, व्रत, तप आदि पुण्यभावरूप प्रशस्त राग हो के चाहे बहारमां अनुकूळ धन, परिजन, मकान आदि ईष्ट संयोग हो-ए बधुं हुं नहि, एनाथी मारां अनुकूळ धन, परिजन, मकान आदि ईष्ट संयोग हो- ए बधुं हुं नहि, एनाथी मारां ज्ञान, आनंद ने शान्ति नहि - एम परथी अतत्पणुं प्रकाशतो, विश्वथी भिन्न पोताना ज्ञानानंदस्वरूपने ज पोतापणे अनुभवतो धर्मी जीव पोतानो नाश थवा देतो नथी, आवी वात!
‘ज्ञानमात्रभावनुं परथी अतत्पणुं प्रकाशीने’ ..... , ल्यो, हवे आवुं छे त्यां ओला (एक श्वेतांबर साधु) कहे -चश्मां विना ज्ञान न थाय. अरे, आ शुं कहे छे बापु? चश्मां होय तो ज्ञान थाय- आ शुं (अज्ञान) छे? लींबडीमां एक फेरी चर्चा थयेली श्वेतांबर साधु साथे. ए आव्या’ ता त्यां चर्चा करवा. त्यारे कह्युं’ तुं के-भाई! अमे कोई साथे चर्चा-वाद करता नथी. तो ए कहे-
तमे नहि करो तो तमारी किंमत नहि रहे. (एम के तमे चर्चाथी डरी गया) वळी कहे -तमे सिंह छो तो हुंय सिंहनुं बच्चुं छुं. त्यारे कह्युं-
भाई! अमे सिंहेय नथी, बच्चुंय नथी. अमारे वादथी-चर्चाथी काम नथी. पछी थोडीवार पछी ए कहे-
चश्मां होय तो देखाय ने? चश्मां विना देखाय? मे कह्युं- थई गई चर्चा. हवे पोतानी ज्ञाननी पर्याय आंखथी ने चश्मांथी थाय एम मानी, ने पोताथी थाय छे एम मानी नहि ए तो एकलुं अज्ञान छे. शुं पोतानी ज्ञाननी दशा आंखथी ने चश्मांथी-जडथी थाय छे? आ आंख ने चश्मां तो माटी-जड छे; एमां शुं ज्ञान छे? पण अज्ञानी एवुं माने छे के निमित्तथी ने ज्ञेयथी ज्ञान थाय छे. अहीं कहे छे-ज्ञानी, पोताना ज्ञानमात्रभावनुं परथी अतत्पणुं अर्थात् पररूपे नहि होवापणुं प्रकाशीने, विश्वथी भिन्न पोताने ज्ञानपणे प्रगट करीने, पोताने जिवित राखे छे, नष्ट-भ्रष्ट थवा देतो नथी. जुओ आ अनेकान्तनो महिमा! हुं पूर्णानंद प्रभु स्वरूपथी तत् छुं ने परथी अतत् छुं एवो अनेकान्त जीवने जिवाडे छे, आत्मानुभूति पमाडे छे. समजाणुं कांई....?
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ज्ञानी अतत्ने अतत् माने छे. ज्यारे अज्ञानी अतत्ने तत् माने छे. जे भावथी तीर्थंकर नामकर्म बंधाय ते भावथी पण हुं भिन्न-जुदो छुं एम ज्ञानी माने छे, ज्यारे अज्ञानी तीर्थंकर गोत्र बांधे एने लईने केवळज्ञान थाय एम माने छे. जो के अज्ञानीने तीर्थंकर गोत्र बंधातुं नथी, अने जेने तीर्थंकर गोत्र बंधाय छे ते ज्ञानी तेने पोतानुं मानता नथी. जेमके-श्रेणीक राजा सम्यग्द्रष्टि हता, भगवानना (महावीर स्वामीना) समोसरणमां तेमणे तीर्थंकर गोत्र बांध्युं, पण ते तीर्थंकर गोत्र, अने जे भावथी ते बंधायुं ते भाव मारी चीज छे एम ते मानता न हता; केमके जे भावथी तीर्थंकर नामकर्म बंधाय ए तो शुभराग छे, ते रागथी शुं केवलज्ञान थाय? न थाय.
प्रश्नः– ‘पुण्यफला अरहंता....’ अरिहंतपणुं पुण्यनुं फळ छे एम शास्त्रमां आवे छे ने?
उत्तरः– ए तो बाह्य सामग्रीनी वात छे भाई! अरिहंत परमात्माने बहारमां समोसरणनी रचना थाय, दिव्यध्वनि छूटे ईत्यादि पुण्यना फळरूप छे. बाकी केवळज्ञान थयुं ए कांई पुण्यनुं फळ नथी. पुण्य ने पर पदार्थथी आत्माने लाभ थाय एम जे माने छे ते अतत्ने तत् माने छे. धर्मी पुरुष अतत् एवा निमित्तथी के व्यवहारथी -रागथी पोताने आत्मलाभ थाय एम कदी मानता नथी. आ प्रमाणे, कहे छे, पोताना आत्माने विश्वथी भिन्न देखाडतो अर्थात् अंर्तद्रष्टि वडे पोताने विश्वथी भिन्न राखतो अनेकान्त ज तेने पोतानो नाश करवा देतुं नथी, जिवित राखे छे.
आथी विरुद्ध जे शुभभावथी परंपरा मुक्ति थवी माने छे, शरीरनी क्रियाथी धर्म थवानुं माने छे, कर्मथी विकार थाय एम माने छे ते परथी हुं अतत् छुं एम मानतो नथी अने ए रीते ते पोतानो नाश करे छे. आ तत्-अतत्ना बे बोल पूरा थया.
हवे एक-अनेकना बोल.... ‘ज्यारे आ ज्ञानमात्र भाव अनेक ज्ञेयाकारो वडे (- ज्ञेयोना आकारो वडे) पोतानो सफळ (-आखो अखंड) एक ज्ञान-आकार खंडित (- खंड-खंडरूप थयो मानीने नाश पामे छे, त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) द्रव्यथी एकपणुं प्रकाशतो थको अनेकान्त ज तेने जिवाडे छे-नाश पामवा देतो नथी.’
सूक्ष्म वात छे जरी. श्री समंतभद्राचार्य कहे छे ने के-हे प्रभु! एक सेकन्डना असंख्यात भागमां-एक समयमां आपे उत्पाद-व्यय ने ध्रुव जाण्यां ते आपना सर्वज्ञपणानुं चिह्न छे. एक समयमां वस्तु पूर्व अवस्थाथी व्यय थाय, उत्तर-नवी अवस्थाथी उत्पन्न थाय अने वस्तुपणे ध्रुव कायम रहे ए आपे जाण्युं तेथी में नक्की कर्युं के आप सर्वज्ञ छो. अहा! ए सर्वज्ञनी वाणीमां आवेली आ वात छे.
कहे छे- आ ज्ञानस्वरूप आत्मा छे तेनी दशामां अनेक ज्ञेयोनुं जाणपणुं थाय
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छे; तो अज्ञानी माने छे के हुं खंडखंड थई गयो. जे अनेक ज्ञेयोनुं जाणपणुं थयुं ए तो पर्यायनो स्वभाव-धर्म छे, पण एने ते मानतो नथी. तेथी हुं एक ज्ञान-आकार न रह्यो, अनेकरूप थई गयो, खंडित थई गयो एम मानीने अज्ञानी नाश पामे छे. ते पोताने (सर्वथा) एकरूप ज जाणतो होवाथी पर्यायमां अनेकपणुं थाय छे तेनो निषेध करी पोतानो (अभिप्रायमां) नाश करे छे. हुं अखंड एक ज्ञानाकार छुं, ने जाणवामां पण एकपणुं ज होवुं जोईए एम एकांते मानतो ते, अनेक ज्ञेयो जाणवामां आवतां हुं खंडखंड थई गयो एम मानी पोतानो नाश करे छे. समजाय छे कांई....?
परने लईने अनेकपणुं थाय छे एम माने छे ए अहीं वात नथी. परंतु पोतानी पर्यायमां अनेकपणुं थवुं ते आत्मानो पर्याय-स्वभाव छे, अहा! अनेक ज्ञेयोने जाणे ए एनी ज्ञान-पर्यायनो स्वभाव छे. छतां एकांते मारो तो एकरूप रहेवानो स्वभाव छे एम मानतो थको अज्ञानी, अरे, आ अनेकपणुं केम थयुं? अनेकपणुं थयुं माटे हुं खंडखंड थई गयो-एम पर्यायधर्मनो निषेध करी ते पोतानो नाश करे छे. बीजी रीते कहीए तो आ ज्ञानमात्रभाव अनेक ज्ञेयाकारो द्वारा पोतानो एक अखंड ज्ञानाकार खंडित थयो मानी पोतानो नाश करे छे.
त्यारे ज्ञानमात्रभावनुं द्रव्यथी एकपणुं प्रगट करतो थको अर्थात् पर्यायमां अनेकपणुं होवा छतां द्रव्यस्वभावे हुं अखंड एक छुं एम प्रकाशित करतो थको अनेकान्त ज तेने जिवित राखे छे. द्रव्ये हुं एक ज छुं, अनेक थयो नथी; तथा पर्यायथी हुं अनेक छुं एम द्रव्ये एक ने पर्यायथी अनेक -एवुं जे अनेकान्त ते एने जिवाडे छे, बचावे छे, नष्ट थवा देतुं नथी. अहा! धर्मी जीव हुं द्रव्यथी एक ज छुं, पर्यायथी भले अनेक हो- एवा अनेकान्तपणे पोताने जाणतो थको पोताने जिवित राखे छे.
ज्ञानमां जे अनेक ज्ञेयोना आकार जणाय छे एनो अभाव-त्याग करी अज्ञानी पोतानो नाश करे छे, त्यारे धर्मी द्रव्यथी ज्ञानमात्र भावनुं एकत्व प्रकाशतो, पर्यायमां अनेकपणुं होवा छतां वस्तुपणे हुं एक ज छुं एम द्रव्यथी एकत्व प्रकाशित करतो अनेकान्त वडे पोताने जिवित राखे छे. आवी झीणी वात! हवे कहे छे-
‘वळी ज्यारे ते ज्ञानमात्र भाव एक ज्ञान-आकारनुं ग्रहण करवा माटे अनेक ज्ञेयाकारोना त्याग वडे पोतानो नाश करे छे (अर्थात् ज्ञानमां जे अनेक ज्ञेयोना आकार आवे छे तेमनो त्याग करीने पोताने नष्ट करे छे), त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) पर्यायोथी अनेकपणुं प्रकाशतो थको अनेकान्त ज तेने पोतानो नाश करवा देतो नथी.’
जरी झीणी वात छे भाई! शुं कहे छे -के पोताना एक ज्ञानाकारने ग्रहण करवा माटे अज्ञानी अनेक ज्ञेयोने जाणवानुं छोडी दे छे, परंतु पर्यायमां अनेकनुं जाणपणुं
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आ ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मा छे एमां अनंतगुणनी अनंत अवस्थाओ (समये समये) थाय छे. अज्ञानीने ते अनेकपणुं संमत नहि होवाथी एकपणुं ग्रहण करवा माटे अनेकपणारूप जे अवस्थाओ तेनो त्याग करी दे छे अर्थात् पर्याय अपेक्षा अनेकपणुं ते स्वीकारतो नथी. एक ज्ञाननी पर्याय अनंत ज्ञेयने जाणे छे. आवुं वस्तुस्वरूप अज्ञानीने ख्यालमां नहि होवाथी, मारामां अनंतनुं ज्ञान थाय ए मारी चीज नहि एम ते माने छे. आ रीते, जेम आगळ आवी गयुं तेम, अनेक ज्ञेयाकारोना त्याग द्वारा ते पोतानी चीजनो नाश करे छे.
प्रश्नः– आ कोनी वात छे? शुं केवळज्ञानीनी वात छे? उत्तरः– ना, आ छद्मस्थ अज्ञानी तथा सम्यग्ज्ञानीनी वात छे; केवळज्ञानीनी वात नथी, पण केवळज्ञान थवाना साधननी वात छे. अहाहा....! वस्तुने सिद्ध करी छे कांई! अहो! आचार्य अमृतचंद्रदेवे अद्भुत अलौकिक वात करी छे. भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवे आ पंचम आरामां तीर्थंकरतुल्य काम कर्युं छे तो आचार्य अमृतचंद्रदेवे आ टीका रचीने तेमना गणधरतुल्य काम कर्युं छे. महा अलौकिक परम अमृतस्वरूप!
अहा! ज्ञाननी पर्याय त्रिकाळी द्रव्यने, तेना अनंतगुणने तथा ते साथे प्रगट थयेली दर्शननी, आनंदनी, श्रद्धानी, शान्तिनी, स्वच्छतानी, प्रभुतानी-बधी पर्यायोने पण जाणे छे; वळी ते पर्याय परने अने रागने पण जाणे. अहा! आवुं ज कोई ज्ञाननी पर्यायनुं स्व-परने प्रकाशवानुं चमत्कारिक सामर्थ्य छे. आम पर्याय अपेक्षा अनेकपणुं जेने कबुल नथी एवो अज्ञानी अनेकपणानो त्याग-अभाव करीने पोतानो नाश करे छे अर्थात् स्वानुभूतिमां प्राप्त थवा योग्य अतीन्द्रिय आनंदथी दूर रहे छे; त्यारे धर्मी-ज्ञानी पुरुष ज्ञानमात्र भावनो पर्यायथी अनेकत्व प्रकाशतो थको पोतानो नाश थवा देतो नथी. आवी वात! समजाणुं कांई...?
अहा! धर्मी माने छे के द्रव्यथी हुं एकरूप होवा छतां पर्यायथी अनेकपणुं होवुं ए मारो स्वभाव छे. अनेकपणुं छे ते आश्रय करवा लायक छे एम नहि, आश्रय करवा योग्य तो एक त्रिकाळी द्रव्य ज छे, पण पर्यायथी अनेकपणुं होवुं ए वस्तुस्थिति छे. द्रव्य-वस्तु जे अपेक्षाए एक छे ते ज अपेक्षा अनेक छे एम नहि, तथा जे अपेक्षाए अनेक छे ते ज अपेक्षाए एक छे एम पण नहि. अहीं तो त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यरूपथी एक होवा छतां पर्यायरूपथी तेने अनेकपणुं छे एम वात छे, अने
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धर्मी आ वास्तविक वस्तु-स्थितिने स्वीकारतो थको यथार्थद्रष्टि वडे पोतानुं जीवन सुरक्षित राखे छे, नाश थवा देतो नथी.
पर्याय विकारी हो के अविकारी, ए अनेक पर्यायपणे थवानो मारो स्वभाव छे, ए अनेक पर्यायपणे हुं छुं, अर्थात् मारी विकारी पर्याय पण परने लईने थई छे एम नथी- आवुं धर्मात्माने (अंतरसन्मुखना वलणमां) ज्ञान थाय छे. तेने अनेकपणामां जे रागादि ने निर्मळ पर्याय थाय छे एनो भेद (भेदज्ञान) वर्ते छे, अने ए रीते ते केवळ रागनो ज्ञाता-द्रष्टा रहे छे. साथे रहेवुं ज्ञान जाणे छे के पर्याय अपेक्षाए राग मारामां छे. आम सत्यार्थ द्रष्टि द्वारा धर्मी पुरुष पोताना जीवनने टकावी राखे छे, आ अनेकान्तनुं फळ छे.
प्रश्नः– ज्ञानी पर्यायमां दुःखने वेदे नहि, दुःखने जाणे अने वेदे एम जो कहो तो ज्ञाताद्रष्टापणुं क्यां रह्युं?
उत्तरः– दुःखने जाणे कहो के वेदे कहो-एक ज वात छे. दुःखने दुःखरूपे जाणे-वेदे नहि तो दुःख क्यां आव्युं? एकलो आनंद आव्यो. पण धर्मीने आनंदनी साथे ज दुःखनुं पण वेदन छे. आ दुःख छे ए पोते ज वेदन छे. एक पर्यायमां धर्मीने आनंद अने दुःख बन्नेनुं वेदन छे. आम न मानवामां आवे तो वस्तु सिद्ध नहि थाय. एने दुःख-दोष छे एनो ज्ञाता-द्दष्टा कहीए ए तो द्रव्यद्रष्टिथी वात छे, पण ज्ञान अपेक्षाए ज्ञान (आत्मा) दोष-दुःखने वेदे छे. दोष शुं कांई अद्धर (बहार) थाय छे? ना; तो दोषनुं- दुःखनुं वेदन छे.
प्रश्नः– ज्ञानी रागने-दुःखने जाणे छे, तो ते ज्ञाता छे के भोक्ता छे? उत्तरः– ज्ञाताय छे ने भोक्ताय छे. ते आ रीते -स्वभावनी द्रष्टिए ते ज्ञाता छे, कर्ता-भोक्ता नथी; पण पर्यायनुं ज्ञान करवानी अपेक्षाए ते कर्ता-भोक्ता छे, वेदक छे. आम जो न स्वीकारवामां आवे तो दुःखनुं वेदन परद्रव्यने छे एम (आपत्ति) आवशे. ज्ञानीने कर्मधारा छे एनो अर्थ शुं थयो? के पर्यायना वेदननी अपेक्षा तेने दुःखनुं वेदन छे. आम न माने ए एकान्त छे. आवो मारग! कोईने थाय के व्रत पाळवां, ने दया करवी ने विधवाओनां आंसु लूछवां, दीन-दुःखियाने भोजन-वस्त्र देवां एनी वात तो करता नथी. एवी वात तो भाई! अन्यमतमां पण खूब आवे छे, पण ए तो बधो राग छे बापु! एनाथी धर्म थाय एम माने ए तो मूढपणुं छे. लोकोने कांई खबर न मळे अने परमां ने परमां रोकाई रहे, पण ए तो जीवननो घात करवापणुं छे; केमके परनां काम आत्मा त्रणकाळमां पण करी शकतो नथी. समजाणुं कांई....?
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तत्-अतत्, एक-अनेक-एम चार बोल थया. हवे पांचमो बोलः- ‘ज्यारे आ ज्ञानमात्र भाव, जाणवामां आवतां एवां परद्रव्योना परिणमनने लीधे ज्ञातृद्रव्यने परद्रव्यपणे मानीने -अंगीकार करीने नाश पामे छे, त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) स्वद्रव्यथी सत्पणुं प्रकाशतो थको अनेकान्त ज तेने जिवाडे छे- नाश पामवा देतो नथी.’
शुं कहे छे? के आ ज्ञानस्वरूप आत्मवस्तु, एना ज्ञानमां शरीरादि परद्रव्यमय चीजो जाणवामां आवतां, पोताथी भिन्न ते अनंता द्रव्यो पर छे एम न मानतां ते हुं छुं एम मानीने निज ज्ञातृद्रव्यने परद्रव्यपणे अंगीकार करीने पोतानो नाश करे छे. अहा! शरीर, वाणी, कर्म ईत्यादि परद्रव्यने जाणवापणे थयो ते जाणनार हुं छुं एम न मानतां परद्रव्यनुं परिणमन जे जाणवामां आव्युं ते हुं छुं एम पोताने परद्रव्यरूप करीने पोतानो अभाव-नाश करे छे. नाश करे छे एटले वस्तु नाश पामे छे एम नहि. वस्तु तो जेवी ने तेवी ध्रुवपणे छे, पण मिथ्याश्रद्धान वडे ते मिथ्यात्वने सेवे छे, ने दुःखने अनुभवे छे.
आ द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भाव पैकी पहेलो द्रव्यनो बोल चाले छे. शुं कहे छे? के परद्रव्यना शरीरादिरूप परिणमनने जाणवाना काळे अज्ञानीनुं लक्ष पर उपर होय छे. एटले परद्रव्यनी शरीरादि जे जे दशाओ थाय ते हुं छुं अर्थात् परद्रव्य हुं छुं एम अंगीकार करीने ते पोताना स्वद्रव्यनो-ज्ञातृद्रव्यनो लोप करे छे, ईन्कार करे छे. वास्तवमां जे परनुं परिणमन छे ते पररूप छे, आत्मरूप नथी; ने तेनुं पोतामां ज्ञान जे थाय ते पोतानुं छे, पोते छे. पण एम न मानतां अज्ञानी जीव आ परद्रव्यनुं परिणमन छे ते हुं छुं अर्थात् एनाथी हुं छुं एम अंगीकार करीने, स्व-परने एक करतो थको स्वनो नाश करे छे. समजाय छे कांई......?
अनादिथी जीवने परद्रव्यनुं लक्ष छे, स्वद्रव्यनुं लक्ष नथी. एटले ते परनी हयातीमां पोतानी हयाती भाळे छे. पैसा विना न चाले, अन्नपाणी विना न चाले, मकान विना न चाले-एम परथी ज मारुं जीवन छे एम ते माने छे. मूढ छे ने! स्वद्रव्यपणे पोते अनादि-अनंत सत् होवा छतां, एने लक्ष्य अने ध्येय न बनावतां परने लक्ष्य अने ध्येय बनावी पोताने परद्रव्यरूप करे छे अने ए रीते पोतानो - स्वद्रव्यनो अभाव करे छे, अर्थात् स्वानुभूति करतो नथी.
त्यारे धर्मी पुरुष, हुं एक आत्मा-ज्ञातृद्रव्य मारा स्वद्रव्यपणे सत् छुं, मने परद्रव्यथी शुं काम छे? -एम जाणे-माने छे अने अंतर्मुख थई पोताना सत्ने अनुभवे छे. अहा! मारा स्वद्रव्यथी हुं छुं एम स्वद्रव्यथी सत्पणुं प्रकाशतो अर्थात् स्वसत्तामां पोतानी द्रष्टि स्थापतो ज्ञानी पुरुष अनेकान्त तत्त्वनो आदर करीने पोताने जिवाडे छे. अहा! अनेकान्तनो आवो अलौकिक महिमा छे.
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भाई! आमां तो मिथ्यात्वनो नाश अने सम्यक्त्वनी प्राप्ति केम थाय एनी वात छे. ज्यां सुधी हुं स्वद्रव्यथी छुं, ने परद्रव्यथी नथी एवुं भेदज्ञान न करे त्यां सुधी सम्यग्दर्शन अने धर्म थवां संभवित नथी. अहा! जाणनारने जाण्या-ओळख्या विना कोई व्रत-तप करीने सूकाई जाय तोय शुं? ए तो बधो राग छे बापा! एनाथी समकिते नहि ने धर्मेय नहि. वास्तवमां परथी ने रागथी निरपेक्ष पूरण ज्ञानानंदस्वरूपे पोतानुं होवापणुं छे एम स्वसत्तानो स्वाभिमुख थई स्वीकार करे एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे अने ए प्रथम धर्म छे. आ सिवाय तो अज्ञानी परमां पोतानी हयाती भेळवी दईने पोताने मारी नाखे छे, नष्ट करे छे. समजाणुं कांई.....?
हवे छठ्ठो बोलः- ‘वळी ज्यारे ते ज्ञानमात्र भाव “ सर्व द्रव्यो हुं ज छुं (अर्थात् सर्व द्रव्यो आत्मा ज छे) ” एम परद्रव्यने ज्ञातृद्रव्यपणे मानीने-अंगीकार करीने पोतानो नाश करे छे, त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) परद्रव्यथी असत्पणुं प्रकाशतो थको (अर्थात् परद्रव्यरूपे आत्मा नथी एम प्रगट करतो थको) अनेकान्त ज तेने पोतानो नाश करवा देतो नथी.’
जुओ, पांचमा बोलमां स्वद्रव्यथी सत्पणानी वात हती, अने अहीं छठ्ठा बोलमां परद्रव्यथी असत्पणानी वात छे. वेदांत आदि माने छे ने के- बधा आत्माओ-बधुं जगत एक ज छे. आवी मान्यतावाळा जीवो, अहीं कहे छे, पोतानो नाश करे छे, अर्थात् मिथ्याद्रष्टि छे. एवा जीवोने भगवाने पाखंडी कह्या छे, अने एना मतने पाखंड कह्यो छे.
बाळपणमां माबापनो आधार, भणवामां मास्तरनो आधार, धर्ममां देव-गुरुनो आधार एम लोको माने छे ने! पण वास्तवमां कोईने कोईनो आधार नथी. भगवान आत्मा पोताथी सत् ने बधा परद्रव्योथी असत् छे. अरे भाई! जेनाथी तुं असत् छे, जेनाथी तुं छो नहि तेनो शुं आधार? भगवान! तुं ताराथी छो ने परद्रव्यने लईने त्रणकाळमां नथी. आ धारणानी वात नहि बापु! आ तो अंतरमां बेसाडवानी वात छे. परद्रव्योरूप ज्ञेयोथी, शरीर-मन-वाणीथी, देवथी, गुरुथी, शास्त्रथी-हुं त्रिकाळ असत् छुं ए अंतरमां बेसाडवानी वात छे. समजाणुं कांई....? जेओ आ परद्रव्यो हुं छुं एम परद्रव्योने पोतास्वरूप करे छे तेओ परद्रव्यमां भळी जईने पोतानी चैतन्यसत्तानो नाश करे छे; तेओ मूढ छे, अज्ञानी छे, आत्मघाती छे.
अहा! परद्रव्योथी हुं सदाय असत् छुं एम परद्रव्यथी असत्पणुं प्रकाशतो थको- परवस्तुपणे आत्मा नथी एम प्रगट करतो थको अनेकान्त ज तेने पोतानो नाश थवा देतो नथी. जुओ, आ अनेकान्त! स्वपणे त्रिकाळ सत् छुं ने परपणे त्रिकाळ असत् छुं- एम अस्ति-नास्तिरूप अनेकान्त छे, अने एनुं फळ स्व-परनुं भेदविज्ञान छे. निश्चयथी पण धर्म थाय ने व्यवहारथी पण धर्म थाय एम लोको अनेकान्त कहे
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आत्मा स्वद्रव्यथी सत् छे, ने परद्रव्यथी असत् छे. आम होवाथी कोई परद्रव्य वा ईश्वर एनो कर्ता के उत्पादक छे नहि. बापु! आ परम सत्यने पहोंचवुं महा कठण छे. अनंतकाळमां एणे आ लक्षमां लीधुं नथी. (एम के हमणां दाव छे तो यथार्थ लक्ष कर).
हवे सातमो बोलः- ‘ज्यारे आ ज्ञानमात्र भाव परक्षेत्रगत (-परक्षेत्रे रहेला) ज्ञेय पदार्थोना परिणमनने लीधे परक्षेत्रथी ज्ञानने सत् मानीने-अंगीकार करीने नाश पामे छे, त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) स्वक्षेत्रथी अस्तित्व प्रकाशतो थको अनेकान्त ज तेने जिवाडे छे-नाश पामवा देतो नथी.’
शुं कीधुं? आ ज्ञानमात्र भाव स्वक्षेत्रमां छे, ने शरीर-मन-वाणी बधां परक्षेत्र - गत-परक्षेत्रे रहेलां छे. ते परक्षेत्रगत ज्ञेय पदार्थोना परिणमनने लीधे परक्षेत्रथी मारुं ज्ञान छे, परक्षेत्रथी मारुं क्षेत्र छे एम मानीने अज्ञानी स्वक्षेत्रनो नाश करे छे.
रहेवा-सूवानुं सारुं मकान होय, सारुं क्षेत्र होय, उगमणा-आथमणा बेय बाजुथी अजवाळां ने हवाथी भरेलुं होय, वच्चे ढोलियो (पलंग) पडयो होय- आवा लांबा- पहोळा मकानथी-परक्षेत्रथी मने ठीक पडे-आनंद आवे एम परक्षेत्रने लईने पोतानी हयाती माननार मूढ अज्ञानी छे, ते पोताना स्वक्षेत्रनो अर्थात् पोताना स्वरूपनो नाश करे छे.
त्यारे ज्ञानी-धर्मी पुरुष, असंख्य प्रदेशी पोतानुं स्वक्षेत्र एनाथी हुं सत् छुं ने परक्षेत्रथी मने कांई प्रयोजन नथी एम मानतो थको पोतानो नाश थवा देतो नथी. (शरीरगत) लोकप्रमाण चैतन्यना असंख्यात प्रदेश ते मारुं स्वक्षेत्र छे, एनाथी मारी हयाती छे, ए सिवाय बीजे क्यांय (परक्षेत्रमां) हुं नथी एम स्वक्षेत्रथी अस्तित्व प्रकाशतो अर्थात् स्वक्षेत्रमां ज ठरीठाम थतो ज्ञानी पुरुष अनेकान्त द्वारा पोताने जिवाडे छे अर्थात् पोताना वास्तविक जीवनने जीवे छे. आवी वात वीतरागमार्ग सिवाय बीजे क्यांय नथी.
प्रश्नः– हा, पण अमारे धर्म केम करवो ते वात करो ने? आवी झीणी वात शुं करो छो? (एम के आत्मा शरीर प्रमाण असंख्य प्रदेशी छे अने ते प्रदेशो लोकाकाश प्रमाण छे एनाथी (एवी वातथी) अमने शुं प्रयोजन छे?)
उत्तरः– भाई! ए ज तो मांडी छे. (धर्म केम थाय ए ज वात तो थाय छे). परक्षेत्रथी हुं छुं, परक्षेत्रथी मने चैन छे एवी मान्यता अधर्म छे, अने मारुं स्थान- रहेठाण असंख्य प्रदेशी स्वक्षेत्रमां छे एवी द्रष्टि थवी एनुं नाम धर्म छे.
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त्यारे एक भाई कहेता हता के गिरनार ने सम्मेदशिखरजी जईए तो तो लाभ थाय ने? पूजामां आवे छे के - ‘एक वार वंदे जो कोई, ताके नरक-पशु गति नहि होई.’
उत्तरः– एक शुं लाख वार वंदे तोय एनाथी शुं? ए तो शुभभाव छे. एनाथी पुण्य बंधाशे, पण धर्म नहि थाय.
त्यारे कोई वळी कहे छे- शेत्रुंजयनुं क्षेत्र बहु सारुं, त्यां जाय एना भाव बहु सारा-उज्ज्वळ थाय छे.
अरे भाई! शुं ए भाव क्षेत्रने लईने थता हशे? एम बिलकुल नथी, केमके तारुं चैतन्यक्षेत्र ने एने अत्यंत भिन्नता छे; तुं ए परक्षेत्रथी असत् छो.
तो मोक्षमार्गप्रकाशकमां आवे छे के नारकीने क्षेत्रगत वेदना छे. आ केवी रीते छे? हा, कह्युं छे. पण ए तो व्यवहारनयनी कथनी बापु! एनो अर्थ शो? ए क्षेत्रनी वेदना छे के पोतानी वेदना छे? ए पोतानुं वेदन पोताना क्षेत्रमां छे के नारकीना क्षेत्रने लईने छे? भाई! चैतन्यना क्षेत्रमां-स्वक्षेत्रमां तो नरकना क्षेत्रनो अत्यंत अभाव छे. माटे परक्षेत्रने-नरकना क्षेत्रने लईने वेदना न होय. ते काळे मोहजन्य जे पोताना रागद्वेषना भाव पोताना क्षेत्रमां छे एनुं वेदन छे. (पोतानी पर्यायनुं वेदन छे). शास्त्रमां जे क्षेत्रगत वेदनानुं कथन छे ए तो संयोगथी-निमित्तथी करेलुं कथन छे. (निमित्तथी कथन करवानी एवी पद्धति छे). बाकी आत्मा परक्षेत्रने अडे ज छे क्यां के एना कारणे एने वेदन थाय? अरे! लोकोने अनादिथी एवो अध्यास छे के परक्षेत्रने- परचीजने ए वेदे छे. बापु! आ अध्यास-आ शल्य तारो नाश करे छे हों. ए (ए शल्य) वडे तने तारुं एकत्व- विभक्तपणुं भासतुं नथी. अहीं कहे छे-स्वक्षेत्र अने परक्षेत्र वच्चे अंदरथी प्रज्ञारूपी करवत मूक. जो, ज्ञानी स्वक्षेत्रमां ज हुं छुं परक्षेत्रथी नथी एम भेदविज्ञाननी कला अंतरमां विकसावीने स्वक्षेत्रमां निवास पामीने जीवन जीवी जाणे छे, सत्यार्थ जीवनने प्राप्त थाय छे.
हवे आठमो बोलः- ‘वळी ज्यारे ते ज्ञानमात्र भाव स्वक्षेत्रे होवाने (-रहेवाने, परिणमवाने) माटे, परक्षेत्रगत ज्ञेयोना आकारोना त्याग वडे (अर्थात् ज्ञानमां जे परक्षेत्रे रहेल ज्ञेयोना आकार आवे छे तेमनो त्याग करीने) ज्ञानने तुच्छ करतो थको पोतानो नाश करे छे, त्यारे स्वक्षेत्रे रहीने ज परक्षेत्रगत ज्ञेयोना आकारोरूपे परिणमवानो ज्ञाननो स्वभाव होवाथी (ते ज्ञानमात्र भावनुं) परक्षेत्रथी नास्तित्व प्रकाशतो थको अनेकान्त ज तेने पोतानो नाश करवा देतो नथी.’
जुओ, अज्ञानी जीवो एम माने छे के-जे ज्ञानमां परक्षेत्रना ज्ञेयाकारो जणाय छे तेने