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त्यारे स्वक्षेत्रमां रहीने परक्षेत्रगत ज्ञेयोना आकाररूपे परिणमवानो ज्ञाननो स्वभाव होवाथी अर्थात् स्वस्वरूपमां रहीने पर पदार्थोने जाणवानो आत्मानो स्वभाव होवाथी परक्षेत्रथी नास्तित्व प्रकाशतो-परक्षेत्र मारामां नथी, परक्षेत्रथी हुं नथी एम परथी पोतानुं नास्तित्व प्रगट करतो अनेकान्त ज तेनो नाश थवा देतो नथी. आथी विरुद्ध परक्षेत्रथी मारुं अस्तित्व छे, परक्षेत्रथी मने लाभ छे एम माननारा जूठा छे.
प्रश्नः– क्षेत्रथी कांई फेर नहि पडतो होय? समोसरणना क्षेत्रथी, महाविदेहक्षेत्रथी शुं कांई लाभ न थाय?
उत्तरः– अरे भाई! अनंतगुणधाम एवा स्वक्षेत्रमां ध्रुव चैतन्य-परमेश्वर विराजे छे, तेनी प्रीति ने रति कर तो लाभ थाय ने तो फेर पडे; बाकी परक्षेत्रथी कांई लाभ ते थाय, ने कांई फेर ना पडे.
जुओ, महाविदेहमां कोई संत-मुनिवर होय ने कोई दुश्मन-देव एने उपाडीने भरतक्षेत्रे मूकी जाय अने ते धर्मात्मा अहीं केवळज्ञान पामे. हवे एमां क्षेत्र क्यां नडयुं? अने कोई समोसरणमां बेसीने मिथ्याभाव सेवे तो क्षेत्रनो एने शुं लाभ थयो? भाई! लाभ-नुकशान तो अंतरंग परिणामथी छे, परक्षेत्रथी नथी. वास्तवमां परक्षेत्रथी तो एनी नास्ति ज छे.
पोते स्वक्षेत्रथी छे, ने परक्षेत्रथी नथी एम न मानतां बन्नेथीय छे एम माने ते पण भ्रमणामां छे. एवी मान्यतामां तो बधुं भेळसेळ-एक थई गयुं. वेदांतवाळा परक्षेत्रमां सर्वत्र व्यापक हुं अखंड छुं एम माने छे. ते खरेखर स्वक्षेत्रने चूकी गया छे. ज्ञानी-धर्मी पुरुष स्वक्षेत्रमां ज हुं सदाय छुं एम माने छे. सिद्धक्षेत्रमां रहेला सिद्ध भगवंतो पोतपोताना स्वक्षेत्रमां ज रहेला छे, तेओ परक्षेत्रमां रह्या नथी. ज्यां सिद्ध परमात्मा छे त्यां ते ज आकाशना क्षेत्रे बीजा अनंत निगोदना जीव छे, पण सौनुं- प्रत्येकनुं क्षेत्र जुदुं जुदुं ज छे, सौ स्वक्षेत्रमां ज छे. समजाणुं कांई.....?
नवमो काळनो बोलः- ‘ज्यारे आ ज्ञानमात्र भाव पूर्वालंबित पदार्थोना विनाशकाळे (-पूर्वे जेमनुं आलंबन कर्युं हतुं एवा ज्ञेय पदार्थोना विनाश वखते) ज्ञाननुं
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असत्पणुं मानीने-अंगीकार करीने नाश पामे छे, त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) स्वकाळथी (-ज्ञानना काळथी) सत्पणुं प्रकाशतो थको अनेकान्त ज तेने जिवाडे छे-नाश पामवा देतो नथी.’
जुओ, शुं कहे छे? भगवान आत्मा ज्ञानानंदस्वरूपी प्रभु छे. एना ज्ञानना परिणमनमां परकाळनुं-परद्रव्यनुं परिणमन जणातां ए परिणमन हुं छुं. वा एने लईने हुं छुं-मारुं परिणमन छे-एम मानी अज्ञानी पोतानो नाश करे छे- अरे भाई! स्वकाळे पोतानी ज्ञाननी पर्याय परने अने पोताने जाणवारूपे थाय ए तो एनुं स्वरूप छे. पण अरे! एम न मानतां परिणमता परद्रव्यनी पर्यायथी मारी पर्याय थई अने नाश थतां मारी पर्याय नाश पामी गई एम मानीने अज्ञानी जीवो पोताना स्वकाळनो अभाव- नाश करे छे. परकाळथी-परद्रव्यनी अवस्थाथी पोतानुं अस्तिपणुं माननारा पोताना स्वकाळनो नाश करे छे.
जुओ, आ आत्मानी अपेक्षाए परद्रव्यनी-निमित्तनी पर्याय परकाळ छे. भले एनी अपेक्षा ते स्वकाळ हो, आ जीवनी अपेक्षा ते परकाळ छे. स्वकाळमां परकाळनो अभाव छे. छतां निमित्तने- परद्रव्यने लईने मारी अवस्था-स्वकाळनी परिणति-थई एम माने ते पोताना स्वकाळनो नाश करे छे.
हा, पण आ पंचमकाळने लईने अहीं केवळज्ञान थतुं नथी ने? एम नथी बापु! पंचमकाळने लईने केवळज्ञान थतुं नथी, ने चोथा काळने लईने थाय एम तुं माने ए तो नर्युं मूढपणुं छे, केमके परकाळनी तारा स्वकाळमां नास्ति छे. अरे भाई! चोथा काळमां पण तुं हतो के नहि? पण परकाळ तने शुं करे? परकाळथी पोताने लाभ माने ए पोताना स्वकाळनो नाश करे छे अर्थात् ए मिथ्याद्रष्टि ज रहे छे. आ चक्षु अने चश्मां छे तो ज्ञान थाय छे एम माननारा बधा परकाळने पोतानो माने छे. आ आत्मानी अपेक्षा चक्षु ने चश्मां परकाळ छे भाई! छतां एनाथी पोताने ज्ञान थवानुं माने ए तो मिथ्यादर्शननो ज प्रभाव छे.
प्रश्नः– पण चश्मां होय तो ज देखाय छे ने? वंचाय छे ने? उत्तरः– एम नथी भाई! वंचाय, न वंचाय ए तो ते ते काळे एनी स्वकाळनी दशा छे, ने बाह्य पदार्थ चश्मां आदि (होवां, न होवां) तो निमित्तमात्र छे. जुओ, ते काळे वंचातुं नथी एवुं ज्ञान पोताथी थयुं छे के (चश्मां आदि) परथी? नथी वंचातुं एवुं ज्ञान स्वकाळथी पोताथी ज थयुं छे. परने लईने स्वमां कांई थाय ए मान्यता महान भ्रम छे, भाई!
अहीं कहे छे -ज्यारे ज्ञानमात्र भाव पूर्वे जेमनुं आलंबन कर्युं हतुं ते ज्ञेय पदार्थोना विनाशकाळे ज्ञाननुं असत्पणुं मानीने अर्थात् परकाळ पलटातां मारो नाश
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अरे! एक तो माणसो शास्त्र-स्वाध्याय करता नथी, अने कोई करे छे तो पोतानी मति-कल्पनाथी शास्त्रोनां अर्थ करे छे, पण शास्त्रनो अभिप्राय शुं छे ते प्रत्ये पोताना ज्ञानने दोरी जता नथी! अहा! तेने शास्त्र शुं (गुण) करे?
तो देव-गुरु-शास्त्रना सत्संगमां रहेवुं एम उपदेश आवे छे ने? हा, आवे छे. पण ए तो निमित्तथी कथन छे बापु! धर्मी-ज्ञानी जीवने संग करवानो भाव-विकल्प होय छे त्यारे बहारमां ए चीज निमित्तपणे होय छे एम त्यां ज्ञान कराववुं छे, बाकी जे जे पर्याय थाय ते तेनो स्वकाळ छे, परने लईने -देव-गुरु- शास्त्रने लईने थाय छे एम छे नहि.
हा, पण समयसार वांचे तो समयसारनुं ज्ञान थाय ने पद्मपुराण वांचे तो पद्मपुराणनुं ज्ञान थाय -एम छे के नहि?
ना, एम नथी भाई! अहीं एनी ना पाडे छे; केमके शास्त्रना शब्दो वडे अहीं ज्ञाननी दशा थाय छे एम छे नहि. पोतानी समयसमयनी पर्याय एना (पोताना) स्वकाळने लईने थाय छे, परकाळने लईने नहि. ए ज कहे छे के-स्वकाळथी मारुं होवापणुं छे, परकाळथी नहि-एम जाणतो धर्मी अनेकान्त वडे पोताने जिवाडे छे अर्थात् पोतानो नाश थवा देतो नथी.
आत्मानी समयसमयनी ज्ञाननी अवस्था पोतपोतानी योग्यता अनुसार आत्मामां थाय छे, निमित्तने कारणे थाय छे एम नहि. निमित्त हो भले, अने एने जाणे पण, परंतु निमित्तने जाणनारी ज्ञाननी दशा पोतानी पोताथी छे, निमित्तने लईने नथी. झीणी वात छे भाई! जेवुं निमित्त होय तेवुं थाय एम ओला (-बीजा) कहे छे ने? तो कहे छे- एम नथी. आत्माना अनंतगुणनी अवस्था पोताना स्वकाळे पोतामां पोताथी थाय छे, निमित्तथी नहि. छतां लक्ष निमित्त पर होवाथी निमित्तने लईने मारी पर्याय थाय छे एम अज्ञानी माने छे- अज्ञानी पोताना सत्ने असत् करे छे.
आ काने शब्दो पडे छे ने? एनुं जे ज्ञान थाय छे ते ज्ञाननी पर्यायनो वर्तमान स्वकाळ छे; पोताने लईने ते पर्याय थाय छे, वाणी-शब्दोने लईने नहि. वाणी बंध थतां ए जातनुं ज्ञान बंध थयुं एटले वाणीने लईने मारामां ज्ञान थतुं हतुं ते
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बंध थयुं एम अज्ञानी माने छे ते तेनी मिथ्या दशा (मिथ्या मान्यता) छे, ते परकाळथी स्वकाळ माने छे.
अहा! त्रिकाळ शक्तिरूप जे वस्तु छे तेनुं वर्तमान ते एनो स्वकाळ छे-काळलब्धि छे, ते निमित्तने लईने छे एम नथी. निमित्त नथी एम वात नथी, निमित्तने लईने आमां (-आत्मामां) कांई (विलक्षणता) थाय छे एम नथी. तो-
प्रश्नः– दुकाने बेठा होईए त्यारे अमुक प्रकारनी (धंधारूप पापनी) पर्याय थाय छे अने अहीं स्वाध्याय मंदिरमां आवीए छीए त्यारे बीजा प्रकारनी (प्रशस्त रागनी) पर्याय थाय छे ते कोने लईने?
उत्तरः– कह्युं ने के प्रत्येक पर्याय स्वकाळे पोताने लईने थाय छे. कोई वळी कहे छे- मणिरत्ननी माळा गणीए तो एने लईने विशेष सारा भाव थाय. परंतु ए (मणिरत्ननी माळा) ए तो परज्ञेय छे बापा! अने तत्संबंधी अहीं जे ज्ञान थाय छे ए पोतानुं छे; ए कांई मणको के मणकाना फरवाने लईने थयुं छे एम नथी. भगवाननी वाणी नीकळे ते काळे वाणी सांभळीने जे ज्ञान थाय छे ते पोतानी ज्ञाननी पर्यायनी तत्काळ योग्यता छे, एनो ते स्वकाळ छे, वाणीना कारणे ते ज्ञाननी पर्याय थई छे एम नथी. आ पानुं अने आ पंकित-लीटीना आलंबनकाळे आ पानुं अने आ पंक्ति लक्षमां आवे छे तेथी एने लईने मारुं ज्ञान थाय छे एम अज्ञानी माने छे, पण एम छे नहि. अज्ञानीनो आ तर्क छे के-
जो ज्ञान निमित्तथी थतुं न होय तो सांभळवा जाओ छो शुं काम? प्रभु! सांभळ. ते समये (सांभळवाकाळे) ज्ञाननी पर्याय थई छे ते एनो स्वकाळ छे, अने सांभळवाना रागनी पर्याय थई छे ते पण एनो स्वकाळ छे. बन्नेनो समकाळ अवश्य छे, पण एकने लईने बीजी अवस्था छे एम नथी. (आ तो आवो सहज निमित्त-नैमित्तिक भाव बने छे). अहा! एक स्वकाळनो यथार्थ निर्णय थाय तो शुं वात छे? (एम के बधी अज्ञानजन्य मान्यताओ उडी जाय). पण अरे! अनादिकाळथी वर्तमान अवस्था परने लईने छे एवा मिथ्यात्वभावने एणे घूंटयो छे ते छोडतो नथी! ते पोताना सत्ने असत् करे छे. हुं ज्ञानस्वरूप छुं, ने वर्तमान ज्ञाननी जे दशा थई छे ते मारुं सत् छे, ते स्वकाळ छे एम अज्ञानी मानतो नथी, केमके एनी द्रष्टि स्व उपर नहि पण पर उपर छे. सामे शब्दो-निमित्त भले हो, पण ते काळे ज्ञाननी पर्यायनो तेने जाणवानो स्वकाळ छे ते सत् छे-एम अज्ञानी वस्तुस्थिति मानतो नथी, ने ए रीते पोतानो नाश करे छे.
आत्मानां द्रव्य-गुण ने पर्याय-त्रणे सत् छे एनो अर्थ शुं? एनो अर्थ
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उपादान अने निमित्त-बन्नेमां परिणमन पोतपोतानुं एक साथे थाय छे, प्रत्येकनी ते ते पर्याय ते एनो स्वकाळ छे, मतलब के एकने (निमित्तने) लईने बीजामां (उपादानमां) कांई थाय छे एम छे नहि. बन्नेमां काळप्रत्यासत्ति ने क्षेत्र प्रत्यासत्ति जोईने अज्ञानीने भ्रम थई जाय छे के आने (निमित्तने) लईने आ (उपादाननुं कार्य) थयुं छे, पण एम छे नहि. जो निमित्तने लईने कार्य थाय तो एनी द्रव्यगत तत्कालीन योग्यता अर्थात् उपादान सिद्ध ज नहि थाय. भाई! माटीमांथी घडो थयो ते माटीमां तत्काळ जे योग्यता घडारूप थवानी हती ते प्रगट थई घडो थयो छे, कांई कुंभारने कारणे-कुंभारे आम-तेम हाथ फेरव्यो ते कारणे घडो थयो छे एम नथी. अहा! आत्मद्रव्यनी जेम एक एक पुद्गल-परमाणुमां पण अनंतगुण छे, अने एनी समयसमयनी पर्यायो जे थाय छे ते, ते ते पर्यायनो स्वकाळ छे. (परने लईने तेओ थाय छे एम छे नहि).
पण आ तो क्रमबद्ध सिद्ध थयुं? हा, क्रमबद्धपर्याय-क्रमनियमित पर्याय ए तो वस्तुस्थिति छे. आ तो अद्भुत अलौकिक वात छे भाई! भगवान! तुं ज्ञातास्वरूप ज छो, स्वमां के परमां जे पर्याय थाय तेने बस जाण; एमां तारे करवानुं कांई ज नथी.
साधकने जे सम्यग्ज्ञाननी दशा थई छे ते स्वकाळे थई छे, ते दशा तेनो स्वकाळ छे, परंतु ते अपूर्ण छे एटले साथे ते काळे राग-व्यवहार होय छे. आ शुद्ध परिणति ते निश्चय अने साथे जे राग ते काळे छे ते व्यवहार. आ व्यवहार अने आ निश्चय-एम बन्नेनुं साधकने ज्ञान छे, पण व्यवहारथी निश्चय थाय एम एमां नथी, अने एवी वस्तुस्थिति पण नथी. समजाय छे कांई....? आ समजवुं पडशे भाई! बाकी बहारमां- पैसा बैसामां बधुं धूळधाणी छे. ए पैसो-बैसो बधुं एनामां एना स्वकाळे छे, ए तारामां नहि अने ताराथीय नहि. आवुं झीणुं छे बधुं!
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प्रश्नः– पण आ पेटमां भूख लागी होय ने धर्म केम थाय?
उत्तरः– हमणां भूख्या पेटे धर्म न थाय एम कहो छो, ने आहार-पाणी पेटमां पडया पछी कहेशो के ते पचे नहि त्यां सुधी धर्म न थाय, अने पछी कहेशो के दिशा (संडास) उतरे नहि त्यां सुधी धर्म न थाय ने पछी पाछुं पेट तो भूख्युं ने भूख्युं, तो पछी धर्म क्यारे थाय? भाई! तुं माने छो एम नथी बापु! धर्म तो तारो पोतानो स्व- भाव छे अने ते अंतर-आलंबनना पुरुषार्थ वडे पोताना स्वकाळे प्रगट थाय छे; मतलब के ते आहार-पाणी ईत्यादि परना कारणे थतो नथी. जो तो खरो! नरकमां आहारनो एक कण न मळे, पाणीनुं एक बुंद न मळे, जन्मथी ज सोळ-सोळ रोग होय तोपण कोई नारकी जीव अंतर-आलंबनमां उतरी जईने समकित (धर्म) प्रगट करी ले छे. माटे परथी थाय ए जवा दे, ने स्वमां सावधान थई जा.
ओहो! प्रत्येक आत्मा अनंतगुणथी भरेलो भगवान चैतन्य-ईश्वर छे, ने प्रत्येक रजकण पण पोताना अनंतगुणथी भरेलो जडेश्वर छे. भगवान आत्मा अने परमाणुमां जेटला प्रत्येकमां जे गुणो छे प्रत्येक समये तेटली गुणोनी पर्याय थवानो स्वकाळ छे; जे समये जे थवानी होय ते धारावाही थाय ज छे ए वस्तुनुं स्वरूप छे. कर्ममां उदय, उदीरणा, उत्कर्षण, अपकर्षण ईत्यादि एना स्वकाळे थाय छे, एमां जीवना परिणाम निमित्त हो, पण जीवने लईने कर्मनी अवस्था थाय छे एम क्यां छे? कर्मनुं कार्य कर्म करे ने जीवनुं जीव; कोई कोईना कर्ता-हर्ता नथी, कह्युं ने के बन्ने ईश्वर छे- एक जडेश्वर ने एक चैतन्य-ईश्वर. भाई! आ स्वकाळनी वात जेने बेसे तेना जन्म-मरणनो अंत आवी जाय एवी आ वात छे. कह्युं ने के -ज्ञानी स्वकाळथी सत्पणुं प्रकाशतो थको अनेकान्त वडे पोताने जिवाडे छे-नाश थवा देतो नथी. आवी वात छे.
हवे दसमो बोलः ‘वळी ज्यारे ते ज्ञानमात्र भाव पदार्थोना आलंबन काळे ज (-मात्र ज्ञेय पदार्थोने जाणवा वखते ज) ज्ञाननुं सत्पणुं मानीने-अंगीकार करीने पोतानो नाश करे छे, त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) परकाळथी (-ज्ञेयना काळथी) असत्पणुं प्रकाशतो थको अनेकान्त ज तेने पोतानो नाश करवा देतो नथी.’
शुं कहे छे? के अज्ञानी जीव निमित्तरूप पदार्थोना आलंबन काळे ज अर्थात् परकाळथी ज पोतानुं ज्ञाननुं सत्पणुं-होवापणुं माने छे. अहा! हुं ज्ञानस्वरूप ज छुं, ने वर्तमान ज्ञाननी दशा जे प्रगट थई छे ते एनो स्वकाळ छे, ते पोताथी थई छे-एम न मानतां, जाणवामां आवता निमित्तथी-परकाळथी ज मारा ज्ञाननुं परिणमन थई रह्युं छे एम अज्ञानी माने छे, अने एम विपरीत मानतो थको ते पोतानो नाश
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त्यारे धर्मी-ज्ञानी पुरुष ते ज्ञानमात्र भावनुं परकाळथी असत्पणुं प्रकाशतो थको अर्थात् सामे जे निमित्त छे एनी अवस्थाथी मारी ज्ञाननी दशा नथी, पण मारी ज्ञानदशा ते एनो स्वकाळ छे एम मानतो थको अनेकान्त द्वारा पोताने नाश पामवा देतो नथी. अहा! ज्ञान ने आनंद आदि जे दशा प्रगट छे ते स्वकाळे सत् छे, ने परकाळथी- परद्रव्यना परिणामथी असत् छे-आवुं अनेकान्त धर्मात्माने जिवाडे छे-नाश पामवा देतुं नथी. सामे निमित्तनी दशा जे छे ते आ आत्मानी अपेक्षाए परकाळ छे, ने ते परकाळथी हुं असत् छुं आवो अनेकान्त धर्मात्माने नाश थवा देतो नथी अर्थात् अनेकान्तद्रष्टि वडे धर्मात्मा पोताना निर्मळ ज्ञान-श्रद्धान-शान्तिना परिणामने प्राप्त करी ले छे. समजाणुं कांई....! भाई! आ समज्या विना तारां व्रत, तप, भक्ति ने पूजा ईत्यादि बाह्य क्रियाकांडनो सघळो आडंबर फोगट छे. तुं माने के में दुकान, धंधा-व्यापार ने बायडी-छोकरांनो त्याग कर्यो छे, पण अंदरमां मिथ्यात्वना शल्यनो त्याग थया विना शुं त्याग्युं? कांई ज नहि. (एक आत्मा त्याग्यो छे.) आवी वात!
बोल अगियारमोः- ‘ज्यारे आ ज्ञानमात्र भाव, जाणवामां आवता एवा परभावोना परिणमनने लीधे ज्ञायकस्वभावने परभावपणे मानीने-अंगीकार करीने नाश पामे छे, त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) स्वभावथी सत्पणुं प्रकाशतो थको अनेकान्त ज तेने जिवाडे छे-नाश पामवा देतो नथी.’
शुं कहे छे? के भगवान आत्मा एक ज्ञायकभावस्वरूप छे. जाणवुं.... जाणवुं.... जाणवुं ते एनो स्वभाव छे. अहा! एम न मानतां आ जे परद्रव्यना भावो एना जाणवामां आवे छे ते-पणे-परभावपणे हुं थई गयो एम अज्ञानी माने छे. परभावने जाणवा काळे ज्ञान तो एक ज्ञायकभावपणे ज छे, तोपण जाणे परभावपणे थई गयुं छे एम अज्ञानीने भ्रम थई गयो होय छे, केमके अंदर एक ज्ञायकस्वभाव पोते छे एनुं एने लक्ष नथी, परभाव उपर ज एनुं लक्ष छे. अहा! परभावने लईने मारुं परिणमन थयुं छे एम पोताने परभावरूप करतो अज्ञानी पोताना एक ज्ञायकभावनो अभाव करीने पोतानो नाश करे छे.
त्यारे धर्मी पुरुषनुं अंदर पूर्ण एक ज्ञायकभाव-स्वभावभाव उपर लक्ष होवाथी, आ परभावने जाणनारुं ज्ञान मारा ज्ञायकभावथी ज छे एम स्वभावथी सत्पणुं प्रकाशतो ते अनेकान्तद्रष्टि वडे पोताने जिवाडे छे- नाश पामवा देतो नथी. परभावने जाणतां ज्ञान
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परभावरूप थई गयुं छे एम नहि, पण निज स्वभावभावरूप-ज्ञानभावरूप ज रह्युं छे एम पोतानी आत्मलीलाने यथार्थ जाणतो ज्ञानी पोताना जीवतरने सुरक्षित टकावी राखे छे. अहा! आत्मामां अनंतगुणोना अस्तित्वमय ज वर्तमान भावनुं परिणमन थाय छे ए आत्मलीला छे. मारा भावथी मारी पर्याय छे. परभावथी नथी-आवुं अनेकान्त जेवुं छे तेवुं आत्मानुं जीवन टकावी राखे छे. अहो! अनेकान्त परम अमृत छे.
बारमो बोलः ‘वळी ज्यारे ते ज्ञानमात्र भाव “सर्व भावो हुं ज छुं” एम परभावने ज्ञायकभावपणे मानीने-अंगीकार करीने पोतानो नाश करे छे, त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) परभावथी असत्पणुं प्रकाशतो थको अनेकान्त ज तेने पोतानो नाश करवा देतो नथी.’
जुओ, आत्मा वस्तु छे ते ज्ञानस्वभावमात्र छे. परंतु अज्ञानी जगतना जे बधा जड-चेतन भावो छे एना पर लक्ष जतां आ परभावो हुं छुं, ए परभावोने लईने मारो वर्तमान पर्यायभाव छे-एम माने छे. जेमके- आ शास्त्र सांभळतां, पहेलां ज्ञाननी दशा आ प्रमाणे नहोती अने हवे नवी थई त्यां एने एम थई जाय छे के आ ज्ञाननी पर्याय शास्त्र सांभळवामांथी आवी, परंतु अंदर पोताना भावमांथी (ज्ञानभावमांथी) आवी छे एम ते कबुलतो नथी. अहाहा......! ज्ञानसामान्यमांथी ते विशेष-ज्ञानदशा वर्तमान आवी छे एम न मानतां, जे परभावनुं लक्ष छे ते परभावमांथी ते आवी छे एम मानतो थको ते परभावने पोतारूप करे छे. आम परभावने निजभाव-रूप करतो थको अज्ञानी पोतानो-पोताना स्वभावनो नाश करे छे.
अहाहा....! भगवान आत्मा चैतन्यमूर्ति प्रभु अंदर एक स्वभावभाव- ज्ञानभावथी भरेलो पदार्थ छे. गमे ते क्षेत्र, गमे ते काळ ने गमे ते परभावोने देखतो होय छतां ते काळे तेनी जाणवारूप दशा पोताना भावमांथी-ज्ञानभावमांथी आवी छे. परंतु एम न मानतां आ परभावमांथी मारी जाणवानी दशा थई छे एम अज्ञानी माने छे अने ए रीते ते पोताने नाश करे छे. लोको कहे छे ने के-बहार पर्यटन खूब करीए तो ज्ञाननो विकास थाय. धूळेय न थाय सांभळने. बहारमांथी-परभावमांथी तारुं ज्ञान आवे छे एम छे ज नहि. समये समये पोताना भावमांथी-ज्ञानभावमांथी ज ज्ञानदशा आवे छे. ज्ञाननी दशा ज्ञानभावमांथी, श्रद्धानी दशा श्रद्धाभावमांथी ने शांतिनी दशा अंदर शान्तिना भावमांथी आवे छे. आवुं वस्तुस्वरूप छे.
विकार पण जे अंदर थाय छे ते भावनी (-गुणनी) उलटी दशा छे. एय कांई निमित्तने लईने थाय छे एम नथी. जो के ते निमित्तना लक्षे-निमित्तने आधीन थई (स्वाधीनपणे) परिणमवारूप दशा छे (निमित्त आधीन करे छे एम नहि, पोते निमित्तने आधीन थाय छे), तोपण ते पोतानी दशा छे. क्रोधादिभावरूपे परिणमे छे
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अहा! भगवान आत्मा अनंत भाव-स्वभाव जेवा के ज्ञानभाव, दर्शनभाव, आनंदभाव ईत्यादि पूरण भरेलो प्रभु छे. एना उपर पोतानुं लक्ष नथी, अने परभावनुं लक्ष रहेतां आ परभावमांथी मारो भाव-पर्याय आवे छे एम अज्ञानीने भ्रम छे. परभाव मारो भाव छे अथवा सर्व परभावो हुं ज छुं एम मानीने अज्ञानी परभावने पोतापणे करे छे, अने ए रीते पोतानो नाश करे छे.
अज्ञानी आ रीते परभावने पोतारूप करतो पोतानो नाश करे छे त्यारे धर्मी परभावथी पोतानुं असत्पणुं प्रकाशतो थको अर्थात् परभाव मारो कोई छे ज नहि. हुं परभावथी असत् छुं, ने स्व-भावथी सत् छुं एम अनेकान्तद्रष्टि वडे पोताने उद्धारे छे अर्थात् पोतानो नाश थवा देतो नथी. अहाहा....! धर्मी पोताना एक ज्ञायकभावने अनेकान्त वडे परथी जेम छे तेम भिन्न टकतो राखीने पोताने जिवाडे छे. तो-
प्रश्नः– श्रीमदे एम कह्युं छे के-
ते तो प्रभुए आपीयो, वर्तुं चरणाधीन.”
समाधानः– ए तो व्यवहारे विनयनां वचन छे बापु! शिष्यने विनयनो भाव आवतां व्यवहारथी एम कह्युं छे. व्यवहारनी एवी ज पद्धति छे. बाकी भाई! तुं कोई वस्तु छे के नहि? छो तो एनो कोई भाव-स्वभाव छे के नहि? जो छे तो जे कोई पर्याय समये समये आवे छे ते ए भावमांथी आवे छे, ते ए भावरूप छे, परभावरूप नथी. समजाय छे कांई.....?
भाई! तुं तारा द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी छो, ने परद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी नथी- आवुं वस्तुनुं सहज अनेकान्तस्वरूप छे. परद्रव्यो ज्ञानमां जणाय माटे परद्रव्यथी छुं, परक्षेत्रनो आकार ज्ञानमां जणाय माटे परक्षेत्रथी छुं, परकाळनुं पर्यायमां ज्ञान थाय माटे परकाळथी छुं, परभावनुं ज्ञान थाय माटे परभावथी छुं-एम छे नहि. अहो! केवुं सुंदर अनेकान्तनुं स्वरूप कह्युं छे. आ परम सत्य छे भाई! आ परम सत्यने स्वीकारीने ज्ञानी अंतर्लीन दशाने प्राप्त थई निराकुळ आनंदमय जीवन जीवे छे, ज्यारे अज्ञानी एकांते हुं परभावरूप छुं, ने परभाव मारारूप छे एम मानीने नाश पामे छे, चार गतिमां परिभ्रमे छे. पैसा-धन, स्त्री-कुटुंब-परिवार ईत्यादि बधां परभावरूप होवा छतां हुं
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ते-रूप छुं अथवा ते मारा-रूप छे एम मानतो अज्ञानी दुःखी दुःखी थईने घोर संसारमां ज परिभ्रमे छे.
हवे तेरमो बोलः- ‘ज्यारे आ ज्ञानमात्र भाव अनित्य ज्ञानविशेषो वडे पोतानुं नित्य ज्ञानसामान्य खंडित थयुं मानीने नाश पामे छे, त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) ज्ञानसामान्यरूपथी नित्यपणुं प्रकाशतो थको अनेकान्त ज तेने जिवाडे छे-नाश पामवा देतो नथी.’
जुओ, वस्तु द्रव्य सामान्यथी नित्य छे, ने विशेष-पर्याय अपेक्षाए अनित्य छे. पर्याय समये समये बदले-पलटे छे ने! तेथी पर्यायथी-विशेषथी अनित्य छे. आत्मा पण ज्ञानसामान्यपणे नित्य छे अने पर्याय-विशेषथी अनित्य छे-हवे त्यां अनित्य पर्यायने जोईने पोतानुं नित्य सामान्य-ज्ञानसामान्य खंडित थई गयुं. अर्थात् अरेरे! मारे तो त्रिकाळ एकरूप रहेवुं जोईए एने बदले आ पलटना क्यांथी? अरे! हुं खंडित थई गयो, मारो आखो नाश थई गयो-एम अज्ञानी माने छे. पलटवुं ए तो पर्यायनो धर्म छे, ने ते वस्तुनुं-आत्मानुं सहज छे, पण एने नहि मानतां मारी एकरूपता खंडित थई गई, माटे ए (-पर्याय) हुं नहि एम पोताना अनित्य भावनो ईन्कार करीने अज्ञानी पोतानो नाश करे छे.
वस्तुपणे ध्रुव नित्य होवा छतां आत्मा पर्याये अनित्य छे. परंतु अनित्यने नहि ईच्छनारा, अनित्य वडे नित्य खंडखंड थई जाय छे एम मानीने अनित्यने छोडी दे छे. आ रीते पर्यायनो अभाव करीने अज्ञानी पोतानो नाश करे छे. अज्ञानीने एकांते नित्यपणानो-एकपणानो अध्यास छे. ते बदलती पर्यायने जोईने आ हुं नहि एम पर्यायने छोडी दईने ते पोतानो नाश करे छे. (केम के पर्यायरहित कोई द्रव्य होतुं ज नथी).
अरे भाई! अवस्थापणे वस्तु पलटती न होय तो अज्ञाननो नाश करी ज्ञान प्रगट करवानुं क्यां रह्युं? दुःखथी मुक्त थाओ-भगवानना एवा उपदेशनी सार्थकता शुं रही? दुःखथी मुक्त थाओ-एनो अर्थ ज ए छे के जीव वर्तमान अवस्थामां दुःखी छे ने ते पलटीने परमसुखनी दशारूप थई शके छे. अहाहा.....! पोते अनंत आनंदनो कंद प्रभु छे एम स्वीकारी अंर्तद्रष्टि करतां ज दुःख-मलिनता जे छे ते पलटी जाय छे. आम पर्यायथी पलटवुं ए तो द्रव्यनुं-पोतानुं सहज स्वरूप छे भाई! पण पलटती पर्यायने जोईने, हुं खंडखंड थई गयो एम मानी, आ अनित्य पर्याय हुं नहि एम अनित्यने छोडी दईने अज्ञानी पोतानो नाश करे छे, केमके वस्तुनुं तो सहज ज द्रव्य-पर्याय स्वरूप छे. अहीं अनित्य (पर्याय) हुं नहि एम माननार पोतानो नाश करे छे एम कहीने पर्यायनो आश्रय कराववो छे एम वात नथी. पर्यायनो
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ज्यारे परथी जुदाई (भेदविज्ञान) करवी होय त्यारे पोताना द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणे निश्चय आत्मा छे, ने पर ते व्यवहार कह्यो. हवे ज्यारे अंतरंग प्रयोजन (सम्यग्दर्शन आदि प्रयोजन) सिद्ध करवुं होय त्यारे द्रव्य-पर्याय बेमांथी मुख्य ते निश्चय अने गौण ते व्यवहार एम कह्युं. निश्चय ते मुख्य एम नहि केमके निश्चय तो द्रव्य-गुण ने पर्याय त्रणे छे. सम्यग्दर्शन आदि प्रयोजन मुख्य एवा त्रिकाळी ध्रुव एक द्रव्यना आश्रये थाय छे माटे द्रव्य ते निश्चय अने पर्यायने गौण करी व्यवहार कही. जुओ गुणभेद ने पर्यायभेद ते गौण छे, अभाव नहि. समयसार गाथा ११ मां ज्यां व्यवहार अभूतार्थ-असत्यार्थ कह्यो छे त्यां ते गौण छे एम आशय छे. पर्यायने गौण करीने असत्य कही अने द्रव्यने मुख्य करीने सत्य कह्युं छे; बाकी छे तो बेय सत्. भाई! बेय सत् छे एम ज्ञान करी, पर्यायने गौण-पेटामां राखी द्रव्यनो आश्रय करवानो छे, अन्यथा वस्तु हाथ नहि आवे अर्थात् द्रव्यद्रष्टि नहि थाय. जुओ, ११मी गाथामां परिणाममात्रने असत्य कह्या अने अहीं परिणामने (पर्यायने) निश्चय-सत्य कही; तो ज्यां जे अपेक्षा छे ते यथार्थ जाणवी जोईए. ज्यारे (एक आखी) सत्ता सिद्ध करवी होय त्यारे नित्य-अनित्य बन्ने निश्चय छे, पण ते जाणवा माटे छे, अने ज्यारे आश्रय करवो छे त्यारे पर्यायने गौण राखीने एक त्रिकाळी ध्रुव सामान्य-सामान्य द्रव्यनो ज आश्रय करवानो होई ते एक निश्चय छे, अने पर्याय व्यवहार. द्रव्यनो आश्रय करनार तो पर्याय छे. अज्ञानी तो पर्यायनो ज अभाव ईच्छे छे तेथी ते वडे ते पोतानो ज नाश करे छे.
कोईने थाय के-आ बधुं शें समजाय? तेने कहीए-भगवान! आ बधुं न समजाय एम न मान. तारामां तो केवळज्ञान लेवानी ताकात छे ने प्रभु! आ न समजाय ए (शल्य) काढी नाख. बाळकथीय समजाय ने मोटाथीय समजाय; निरोगीथी समजाय ने रोगीथीय समजाय. समजवानी अंदर रुचि थाय ते सौने आ समजाय एवी आ वात छे भाई! पोतानी वात छे ने! तो एनी (-पोतानी) रुचि करे तो समजाय ज.
अहा! आ शरीरथी जुदो अंदर पूर्णानंदनो नाथ परमात्मस्वरूप वस्तुए अनादि अनंत नित्य प्रभु छे, अने ते ज पर्यायमां पामर छे. बे थईने आखुं प्रमाण थाय छे. प्रमाण पण निश्चयना विषयने राखीने पर्यायने भेळवी (बन्नेनुं) ज्ञान करे छे, निश्चयने उडाडीने नहि. एम नथी के निश्चयनो निषेध करीने प्रमाण व्यवहारने
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(पर्यायने) भेळवे छे. आवी वात! त्रिकाळी ध्रुव सामान्य एकरूप द्रव्य छे ते परम निश्चय छे. प्रमाण तेना स्वीकारपूर्वक जे कोई शुभाशुभ के शुद्ध पर्याय उत्पन्न थाय छे एनुं ज्ञान करे छे. भाई! द्रव्य-पर्यायस्वरूप जेवी वस्तुनी स्थिति छे तेवी धीरज अने शान्तिथी समजवी जोईए. पण अरे! अंतरनो मार्ग पाम्या विना बहारमां ने बहारमां ए क्रियाकांड करी करीने मरी गयो छे!
अहीं कहे छे- आ ज्ञानमात्र भाव अनित्य ज्ञान विशेषो वडे पोतानुं नित्य सामान्यज्ञान खंडित थई गयुं मानीने....... , आ हुं एकरूप रहेवा मागुं छुं एमां आ पलटती विशेष दशा शुं? ए हुं नहि-एम मानीने-पोतानी हयातीनो अज्ञानी नाश करे छे त्यारे धर्मी-ज्ञानी पुरुष पोताने ज्ञानसामान्यरूपथी नित्यपणे प्रकाशतो..... , अर्थात् पर्यायपणे विशेषता हो तो भले हो, हुं तो द्रव्यरूपथी त्रिकाळ ध्रुव एकरूप नित्य छुं, मारा नित्यपणाने कोई आंच नथी-एम पोताने नित्य-स्वरूपे प्रकाशतो थको अनेकान्तद्रष्टि वडे पोताने जिवित राखे छे- नाश पामवा देतो नथी. अहा! स्याद्वादी धर्मीने नित्य-अनित्यपणुं जेम छे तेम ज्ञानगोचर थाय छे. ते पर्यायमां अनित्यता देखतो होवा छतां वस्तुए हुं नित्य छुं-एम नित्यपणाना अंतर-अनुभव द्वारा ते पर्यायमां निराकुळ शान्तिने प्राप्त थाय छे. ल्यो, आवी झीणी वात छे.
चौदमो बोलः- ‘वळी ज्यारे ते ज्ञानमात्र भाव नित्य सामान्यनुं ग्रहण करवा माटे, अनित्य ज्ञानविशेषोना त्याग वडे पोतानो नाश करे छे (अर्थात् ज्ञानना विशेषोनो त्याग करीने पोताने नष्ट करे छे), त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) ज्ञानविशेषरूपथी अनित्यपणुं प्रकाशतो थको अनेकान्त ज तेने पोतानो नाश करवा देतो नथी.’
शुं कीधुं आ? के ज्ञानमात्रवस्तु आत्मा तो नित्य-अनित्यरूप छे. परंतु अज्ञानी जीव नित्य ज्ञानसामान्यने ग्रहण करवा अनित्य ज्ञानविशेषोनो त्याग करी दे छे. एटले शुं? के क्रमे प्रगट थता आ अनित्य ज्ञानविशेषोथी मने शुं काम छे? मने तो एक नित्य ज्ञानसामान्यनुं ग्रहण ज ईष्ट छे एम मानीने अज्ञानी पोताना अनित्य ज्ञानविशेषोनो त्याग करी दे छे अने ए रीते ते पोतानो नाश करे छे. अनादिनुं पर्याय अपेक्षा क्षणे- क्षणे वस्तुनुं बदलवुं ए तो सहज छे, अनित्य ज्ञानविशेषोनुं थवुं ए ज्ञाननुं सहज छे, ज्ञाननो ए स्वभाव छे, अने ए बदलता अनित्य ज्ञानविशेषोमां ज नित्यनुं भान-ज्ञान थाय छे. आवी ज वस्तु-व्यवस्था छे छतां आ पलटता अनित्य ज्ञानविशेषोथी मने शुं छे? -एम मानीने अज्ञानी अनित्य ज्ञाननी दशाओना त्याग-अस्वीकार द्वारा पोतानो नाश करे छे. तेने नित्यपणुं पण रहेतुं नथी, केमके नित्यपणानुं ज्ञान करनारी पर्यायविशेषनो तो एणे त्याग करी दीधो छे. अहा! एक नित्य ज हुं छुं-एम मानीने अनित्य पर्यायने छोडे छे (ज्ञानमांथी काढी नाखे छे) तेने नित्य
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अहा! वस्तुस्वरूप अनेकान्तमय छे; ते नित्य-अनित्य बेय छे. धर्मी-स्याद्वादी, पोतानी ज्ञानमात्र वस्तु ज्ञानसामान्यथी नित्य होवा छतां, एनी वर्तमान वर्तती ज्ञान- दशाथी ते अनित्य छे एम बराबर जाणे छे. ‘ज्ञानमात्र भावने ज्ञानविशेष पण छे-’ एम नित्य-अनित्य बेयने स्वीकारी, नित्य उपर लक्ष करतो थको (नित्यना आश्रये प्रवर्ततो) अनित्य एवी पर्यायमां ते स्वात्मजनित आनंद ने शांतिने अनुभवे छे.
अनादिथी जीवने स्वस्वरूपनी भ्रमणा छे. हवे भ्रमणानो नाश करी निर्भ्रान्त थवुं ए पण बदल्या विना शी रीते थाय? परम आनंदस्वरूप धर्म अने मोक्ष ए पण पर्याय छे. हवे जो पर्यायनेज उडाडी दे तो आ कांई रहेतुं ज नथी, बदलवुं ए जो वस्तुनो स्वभाव न होय तो दुःखथी मुक्त थवापणुं पण रहेतुं नथी. तेथी पलटती ज्ञानदशाने नहि माननार, अवस्थाने उडाडीने अंतरंगमां जे शुद्ध ध्रुव नित्य छे तेने पण पामता नथी अर्थात् शुद्धनो अनुभव करी शकता नथी केमके अनुभव तो पर्यायमां ज थाय छे.
परंतु धर्मी-ज्ञानी तो अनित्यने अनित्य जाणतो, नित्यनो द्रष्टिमां लेतो, अनेकान्तद्रष्टि द्वारा, पोताना स्वरूपने जाणे-अनुभवे छे, पोतानो नाश थवा देतो नथी.
(अहीं तत्-अतत्ना २ भंग, एक-अनेकना २ भंग, सत्-असत्ना द्रव्य-क्षेत्र- काळ-भावथी ८ भंग, अने नित्य-अनित्यना २ भंग-एम बधा मळीने १४ भंग थया. आ चौद भंगोमां एम बताव्युं के -एकांतथी ज्ञानमात्र आत्मानो अभाव थाय छे अने अनेकान्तथी आत्मा जीवतो रहे छे; अर्थात् एकांतथी आत्मा जे स्वरूपे छे ते स्वरूपे समजातो नथी, स्वरूपमां परिणमतो नथी, अने अनेकान्तथी ते वास्तविक स्वरूपे समजाय छे, स्वरूपमां परिणमे छे). हवे-
अहीं नीचे प्रमाणे (१४ भंगोना कळशरूपे) १४ काव्यो पण कहेवामां आवे छेः- त्यां-
प्रथम, पहेला भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-
‘बाह्य–अर्थैः परिपीतम्’ बाह्य पदार्थो वडे समस्तपणे पी जवामां आवेलुं, ‘उज्झित–निज–प्रव्यक्ति– रिक्तिभवत्’ पोतानी व्यक्तिने (-प्रगटताने) छोडी देवाथी खाली (-शून्य) थई गयेलुं, ‘परितः पररुपे एव विश्रान्तं’ समस्तपणे पररूपमां ज विश्रांत (अर्थात् पररूप उपर ज आधार राखतुं) एवुं ‘पशोः ज्ञानं’ पशुनुं
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ज्ञान (-तिर्यंच एवा एकान्तवादीनुं ज्ञान) ‘सीदति’ नाश पामे छे;..........
जुओ, शुं कह्युं? के आत्मामां ज्ञान, आनंद इत्यादिनी अनेक पर्यायो थाय छे ते परज्ञेयोथी-निमित्तथी थाय छे एम जे माने छे तेनुं ज्ञान तो परज्ञेयो-निमित्त समस्तपणे पी गयुं छे. अहाहा.....! त्रिकाळी शुद्ध विज्ञानघन प्रभु आत्मा छे. तेनी वर्तमान ज्ञाननी दशा प्रगट थई छे ते कांई बाह्य निमित्तोने लईने थई छे एम नथी, पण अज्ञानीनी द्रष्टि बहार निमित्त उपर ज होवाथी, निमित्त जेवुं आवे तेवी अहीं ज्ञानमां पर्याय थाय एम ते माने छे. ते कहे छे- उपादानमां-उपादाननी पर्यायमां योग्यता तो अनेक प्रकारनी छे, पण सामे जेवुं निमित्त-बाह्य सामग्री आवे एवी पर्याय थई जाय छे. जेम के - माटीमां घडो थवानी योग्यता छे, साथे साथे ते ज काळे शकोरुं आदि थवानी अनेक योग्यताओ तेमां विद्यमान छे. माटीमांथी शुं थाय ए कुंभार पर निर्भर छे. कुंभारनी मरजी घडो करवानी होय तो घडो थाय, ने शकोरुं करवानी होय तो शकोरुं थाय. अहा! आवी जेनी मान्यता छे तेनुं ज्ञान तेनी बधी पर्यायो अहीं कहे छे, बाह्य निमित्त पी गयुं छे, केमके तेणे पोतानुं सघळुं परिणमन निमित्तने आधीन करी दीधुं छे. न्याय समजाय छे के नहि? अहा! पोतानी दशा पर-निमित्तने लईने थाय जेवुं निमित्त आवे तेम पोतामां थाय एम माननारनी बधी दशाओ निमित्त ज लई गयुं छे. परिपीतम् शब्द छे ने! मतलब के एने तो समस्तपणे निमित्त ज पी गयुं छे; केमके हुं ज्ञानस्वरूप छुं, ने वर्तमान ज्ञाननी दशा मारी माराथी थई छे एम एणे मान्युं नथी.
अज्ञानीनी दलील छे के-कपडामां कोट थवानी तो योग्यता छे, पण दरजी कोट करे त्यारे थाय ने? कपडुं पडयुं पडयुं कांई कोट थई जाय? माटे उपादानमां योग्यता होवा छतां निमित्त आवे तो कार्य-पर्याय थाय छे. आवा जीवो कपडामां कोट बनवानो स्वकाळ-पर्यायकाळ होय छे अने त्यारे दरजी निमित्त होय छे एम स्वीकारता नथी. (तेओ तो एक पर्यायना काळे बीजी पर्यायनी कल्पना करी निमित्तथी कार्यनी सिद्धि थवी चाहे छे).
अहा! त्रणकाळना जेटला समयो छे तेटली दरेक द्रव्यनी त्रणकाळनी पर्यायो छे. तेथी अहीं (आत्मामां) जे समये जे पर्याय छे ते समये ते ज छे, वळी सामे (बाह्य पदार्थोमां, निमित्तमां) पण जे समये जे निमित्त छे ते समये ते ज (प्रतिनियत ज) छे- आ तो आम केवळज्ञानमां भास्युं छे एनी वात छे. छतां अज्ञानी तर्क करे छे के- ‘आ काळे आ ज छे’ एम केवळज्ञानमां भास्युं छे ए तो बराबर छे, श्रुतज्ञानी-अल्पज्ञानीए तेनुं श्रद्धान पण करवुं जोईए, पण कर्तव्यना प्रसंगमां तो (थवायोग्य पर्याय प्रत्यक्ष नथी तेथी) अनियत मानीने निमित्तने जुटाववुं-मेळववुं
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जोईए. जुओ आ अज्ञान! केवळीनी श्रद्धारहित छे ने! तेथी कुतर्क वडे निमित्तथी कार्य थवानुं स्थापे छे.
वळी कोई कहे छे- केवळज्ञानमां अनंता पदार्थोने जाणवानी शक्ति तो छे, पण सामे पदार्थ नथी तेथी केवळज्ञान तेने जाणतुं नथी, पदार्थ होय तो तेने जाणे, मतलब के पदार्थने लईने अहीं ज्ञान थाय छे. पण एनी आ मान्यता खोटी छे. अरे! केवळज्ञानमां समग्र लोकालोकने जाणवानुं सामर्थ्य छे एटलुं ज नहि, बीजा अनंत लोकालोक होय तो तेने पण जाणवानुं पोतानुं सहज सामर्थ्य छे. आ सामर्थ्य कांई लोकालोकने कारणे छे, बाह्य पदार्थोने लईने छे एम नथी. लोकालोक छे माटे केवळज्ञान तेने जाणे छे एम नथी.
प्रश्नः– हा, पण लोकालोक न होय तो ज्ञान क्यांथी थाय? माटे लोकालोक छे तो केवळज्ञान तेने जाणे छे.
उत्तरः– भाई! एम नथी बापु! लोकालोक छे, केवळज्ञान छे, अने केवळज्ञान एक समयमां लोकालोकने जाणे छे-ए बधुंय छे छतां लोकालोकने कारणे केवळज्ञान तेने जाणे छे एम नथी भाई! केवळज्ञान जे उत्पन्न थयुं छे ते तो पोतामां पोताथी थयुं छे. लोकालोकथी तो ते वास्तवमां असत् छे; एनाथी ए केम थाय?
आत्मामां जे समये जे पर्याय थवायोग्य छे ते पोताथी ज थाय छे. परंतु अज्ञानी एम न मानतां जे समये पर्याय थई ते निमित्त आव्युं ते वडे थई एम माने छे. ते पोतानी पर्यायनुं अस्तित्व परथी-निमित्तथी माने छे. प्रगट थयेली पर्याय ते ते समयनुं सत् छे एम नहि मानीने ते पोताना सत्ने उडाडे छे, निमित्तने हवाले करी दे छे. भाई! आ बधुं समजवुं पडशे हों. मूळ वातने समज्या विना शुभभावनी क्रिया लाभ मानीने कर्या करे पण एथी शुं? महान अशुभ जे मिथ्यात्व ते तो पडयुं छे अंदर. स्वथी थाय ने परथी न थाय एवुं जे वस्तुनुं स्वरूप छे ते यथार्थ समजमां लीधा विना ज्ञाननुं सम्यक् परिणमन थतुं नथी, सम्यक् श्रद्धान उदय पामतुं नथी.
आ घउंना लोटनी रोटली बने छे ने? ते कोने आधीन हशे? स्त्रीनी-बाईनी इच्छाने आधीन हशे, केम खरुं के नहि? भाई! ए लोटना अनंता रजकणो छे ते स्वयं रोटलीनी अवस्थापणे ते काळे परिणमी जाय छे. रजकणो स्वयं पलटीने रोटली- अवस्थाए थया ते रोटलीनो स्वकाळ छे, अने बाई वगेरे ते काळे बहार निमित्त होय छे बस एटलुं पण बाईनी ईच्छाने आधीन रोटली थई छे एम माननार रजकणोनी ए दशा ए काळे सत् छे एम मानतो नथी.
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कोई वळी कहे छे -जिवित शरीरथी धर्म थाय. जिवित शरीर होय तो यथेच्छ बोलाय, धार्यां होय ते काम थाय. मडदाथी कांई थाय? अरे भाई! तुं शुं कहे छे आ? जीवना (एकक्षेत्रावगाह) संबंधथी शरीरने जिवित कहीए; बाकी शरीर क्यां जीव छे? ए हमणां पण मडदुं-अजीव ज छे. शरीरथी जीवने धर्म थाय एम तुं माने ए तो एना साथे एकत्वबुद्धिथी उत्पन्न नरी मूढता छे भाई! अरे! अज्ञानी जीवो निमित्त-परज्ञेयो साथे एकता करीने पोतानी व्यक्ति-प्रगटता जे आत्मभावरूप छे तेने छोडी दे छे. मारी पर्याय ने हुं माराथी छुं, पोताथी छुं एवी स्थिति छोडी देवाथी ज्ञान खाली-शून्य थई जाय छे.
अहा! आत्मा ज्ञानानंदस्वभावी प्रभु जेम स्वस्वरूपथी शोभित छे, तेम एनी वर्तमान ज्ञाननी दशा पोताथी शोभित छे. परज्ञेयोना-निमित्तना कारणे एनी वर्तमान दशा थई छे एम नथी. जेवां निमित्त आवे एवी अहीं - (-आत्मानी) दशा थाय एम माननारनुं (पशुनुं) ज्ञान, अहीं कहे छे, पोतानी प्रगटताने छोडी देवाथी शून्य -खाली थई गयेलुं, समस्तपणे पररूपमां ज विश्रांत एवुं ‘सीदति’ नाश पामे छे. हुं अने मारी दशा पर-निमित्तने लईने छे एम माननारनुं ज्ञान परमां विश्राम पाम्युं छे, अर्थात् परना आधारमां जई पडयुं छे. तेथी आ मारुं सत् छे एम तो रह्युं नहि. आ रीते ते नाश पामे छे. समजाय छे कांई....?
जुओ, बाह्य पदार्थनी-ज्ञेयोनी हयातीने लईने वर्तमान मारी (मारा ज्ञाननी) हयाती छे एम माननारने अहीं पशु कह्यो छे. छे ने अंदर? ‘पशोः ज्ञानं सीदति’ छे के नहि? छे. एम केम कह्युं? केमके विपरीत मान्यता-मिथ्यात्वनुं फळ पशुगति ने निगोद छे. भविष्यमां एवा जीवो निगोद जशे. आथी आचार्य अमृतचंद्रदेव अत्यंत अकारण करुणाथी कहे छे- अरे, पशु जेवा एकान्तवादी अज्ञानी! जो तुं एम माने छे के तारी अने परद्रव्यनी समये समये थती अवस्थानुं अस्तित्व परने लईने छे तो तुं पशु छे. अरेरे! तारी वर्तमान दशा पशु जेवी छे, ने भविष्यनी दशा पण निगोद थशे. (माटे मिथ्या मान्यताथी हठी जा). भाई! तारी हयाती परने लईने मानवा जतां तारुं आखुं सत्-अस्तित्व उडी जाय छे, एटले के अंदरमां आवरण आवे छे अने आवरण आवतां छती शक्तिनो घात थाय छे. अरे! छती शक्तिने-भगवान ज्ञानानंदस्वरूपने आळ आपवाथी एना ज्ञाननी दशा अत्यंत बेहोश-मूर्च्छित थई अक्षरना अनंतमा भागे एटले के निगोदनी दशारूप थई जशे. आवी वात! हवे आ तो सोनगढथी नवी नीकळी एम कही तुं एनी उपेक्षा करीश, वा ठेकडी करी अवज्ञा करीश तो तने भारे नुकशान छे भाई! आ सोनगढथी नवी नीकळी नथी, पण आ तो अनादि प्रवाहमां संतो-केवळीओ कहेता आव्या छे ते वात छे बापु!
अज्ञानी कहे छे -सामे घडो होय ते काळे घडानुं ज्ञान थाय छे माटे घडाने
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सामे घट छे ते काळे एने पटनुं ज्ञान केम न थयुं? घटनुं ज केम थयुं? अरे भाई! तुं शुं विचारे छे आ? जे काळे घडाने जाणवारूप ज्ञाननी दशा थई छे ते तेनी ते काळे योग्यता छे, अने ते पोतानी पोताथी छे. तुं एक अवस्थाना (घटज्ञाननी अवस्थाना) काळे बीजी अवस्थानी (पटज्ञाननी अवस्थानी) कल्पना करे ए तो मिथ्या कल्पना ज छे, केमके एक काळे एक नियत अवस्था ज होय छे. तथापि घटज्ञान जो घडाथी थतुं होय तो सामे थांभलो होय तेने पण ज्ञान थवुं जोईए. पण एम छे नहि. वास्तवमां जेमां ज्ञान छे, जे ज्ञानस्वरूप छे तेने ज्ञान थाय छे अने ते पोताथी ज थाय छे, सामे घट छे माटे अहीं एनुं ज्ञान थाय छे एम नथी. जुओ, सामे अक्षरो छे माटे एनुं ज्ञान थाय छे शुं एम छे? ना, एम नथी. जो एम होय ने? तो आंखना कांडाने पण ज्ञान थवुं जोईए. पण एम बनतुं नथी, केमके ज्ञान तो ज्ञानस्वरूप जे छे एमां थाय छे अने ते पोताथी थाय छे, परने कारणे नहि.
ओहो! जगतमां अनंता जीव, अनंतानंत पुद्गलो इत्यादि अनंता द्रव्यो छे. तेमां जेनो जे प्रकारनो काळ (पर्याय) छे तेनो ते प्रकारे पोताथी अस्तिपणे छे, ने परथी बिलकुल नथी. परमां पर-निमित्त तो अकिंचित्कर छे. निमित्तने शास्त्रमां (प्रवचनसार गाथा ६७मां) अकिंचित्कर कह्युं छे. उपादान स्वयं कर्ता थईने कार्यरूप परिणमे त्यारे निमित्तने निमित्त-कर्तानो आरोप आवे छे, पण वास्तवमां निमित्तथी कार्य थाय छे एम नथी. आ वस्तुस्थिति छे. पण शुं थाय? जगत एटले के पशु-अज्ञानीओ, पोताना सत्ने सत्पणे नहि राखीने, अर्थात् पोताना सत्ने परमां भेळवी दईने स्वस्वरूपना ईन्कार द्वारा नाश पामे छे अर्थात् चिरकाळपर्यंत घोर चतुर्गतिरूप संसार समुद्रमां डूबी मरे छे. आवी वात! समजाणुं कांई....?
हवे कहे छे- ‘स्याद्वादिनः तत् पुनः’ अने स्याद्वादीनुं ज्ञान तो, ‘यत् तत् तत् इह स्वरूपतः तत् इति’ जे तत् छे ते स्वरूपथी तत् छे (अर्थात् दरेक वस्तुने-तत्त्वने स्वरूपथी तत्पणुं छे) -एवी मान्यताने लीधे ‘दूर–उन्मग्न–घन–स्वभाव–भरतः’ अत्यंत प्रगट थयेला ज्ञानघनरूप स्वभावना भारथी, पूर्ण समुन्मज्जति’ संपूर्ण उदित (प्रगट) थाय छे.
अहाहा....! जोयुं? कहे छे- ‘स्याद्वादीनुं ज्ञान तो....’ , अर्थात् स्याद्वाद द्वारा
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जेणे अनेकान्तस्वरूप वस्तुना यथार्थ रूपने साध्युं छे ते ज्ञानी-धर्मी पुरुषनुं ज्ञान तो, ‘जे तत् छे ते स्वरूपथी तत् छे’ अर्थात् मारुं ज्ञायक तत्त्व, एना अनंत गुण तथा एनी वर्तमान दशा -सहु पोताथी तत् छे, ने परथी-निमित्तथी नथी-एवी यथार्थ मान्यताने लीधे, अत्यंत प्रगट थयेला ज्ञानघनरूप स्वभावना अतिशय तेजथी संपूर्णपणे उदित थाय छे. एटले शुं? के ज्ञानस्वभावी भगवान आत्मा -पोताना द्रव्य-गुण-पर्याय-निज स्वरूपथी-ज्ञानस्वरूपथी तत् छे, ने परथी नथी-एवी भेदज्ञाननी द्रष्टि थतां ज्ञानीने झळहळ ज्योतिस्वरूप भगवान आत्मा संपूर्ण पर्यायमां प्रगट थाय छे-जणाय छे, अनुभवाय छे. आ तो अंतर-समजणथी चीज बापु! आ कांई वादविवादथी के क्रियाकांडथी हाथ आवे एवी चीज नथी.
अहा! पर्यायमां जे पूर्णपणुं प्रगट थाय छे ते पोताथी तत् छे, ने तेवी ज रीते सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी एकतारूप मोक्षमार्ग थाय ते पण पोताथी तत् छे, परने लईने के शुभरागने लईने छे एम नथी. व्यवहाररत्नत्रयने लईने निर्मळ रत्नत्रय थयां छे एम नथी, ने देव-गुरु-शास्त्रने लईने थयां छे एम पण नथी. कर्मनां उपशमादि तो क्यांय (कर्ममां) रही गयां. समजाणुं कांई.....?
अहा! आमां तो बधुं (बधी मिथ्या मान्यता) उडी जाय छे ने वस्तुव्यवस्था यथार्थ स्थापित थाय छे. शुं? के-
१. परज्ञेयथी ज्ञान नहि. २. शुभराग-व्यवहारथी निश्चय नहि, ने ३. समयसमयनी ते ते काळनी पर्याय स्वरूपथी तत् छे. एटले के प्रत्येक समये जे पर्याय थाय ते पोताथी ज थाय, परथी नहि, तेथी सांकळना अंकोडानी जेम क्रमनियत छे, तेमां कोई आगळ-पाछळ थाय नहि. जेम सांकळमां एक पछी एक अंकोडो क्रमनियत छे, तेम द्रव्यमां समये समये प्रगट थती पर्यायो क्रमनियत छे. जेम सांकळना अंकोडा आगळ-पाछळ करवा जाओ तो सांकळ तूटी जाय तेम द्रव्यमां प्रगट थती अवस्थाओ आगळ-पाछळ करवा जाओ तो द्रव्यनो नाश थई जाय, अर्थात् मिथ्यात्व थाय. हवे जेने आनी समजण ने श्रद्धामां ज वांधा होय तेने आचरण तो क्यांथी उदित थाय? न ज थाय.
‘कोई सर्वथा एकांती तो एम माने छे के-घटज्ञान घटना आधारे ज थाय छे माटे ज्ञान सर्व प्रकारे ज्ञेयो पर ज आधार राखे छे. आवुं माननार एकान्तवादीना ज्ञानने तो ज्ञेयो पी गयां, ज्ञान पोते कांई न रह्युं.’
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जोयुं? ज्ञेयोना आधारे मारुं ज्ञान छे एम माननारनुं ज्ञान ज्ञेयो पी गयां, ज्ञान पोते कांई न रह्युं अर्थात् शून्य थई गयुं, नाश पाम्युं. मतलब के मिथ्याज्ञान थयुं.
‘स्याद्वादी तो एम माने छे के- ज्ञान पोताना स्वरूपथी तत्स्वरूप ज (-ज्ञानस्वरूप ज) छे, ज्ञेयाकार थवा छतां ज्ञानपणाने छोडतुं नथी. आवी यथार्थ अनेकान्त समजणने लीधे स्याद्वादीने ज्ञान (अर्थात् ज्ञानस्वरूप आत्मा) प्रगट प्रकाशे छे.’
जुओ, अनेकान्तमय वस्तुने जाणनार स्याद्वादी केवुं माने छे? के ज्ञान पोताना स्वरूपथी तत्स्वरूप ज छे. ज्ञेयोने जाणवापणे थयेलुं ज्ञान ज्ञानस्वरूप ज छे; ज्ञेयस्वरूप थयुं नथी, पण ज्ञेयोथी पृथक् ज्ञानस्वरूप ज रह्युं छे. अहा! आवी यथार्थ समजणने लीधे स्याद्वादीने ज्ञानस्वरूप आत्मा प्रगट प्रकाशे छे, जणाय छे.
आ प्रमाणे स्वरूपथी तत्पणानो भंग कह्यो.
हवे बीजा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छे.ः-
‘पशुः’ पशु अर्थात् सर्वथा एकान्तवादी अज्ञानी, ‘विश्वं ज्ञानं इति प्रतर्क्य’ विश्व ज्ञान छे (अर्थात् सर्व ज्ञेयपदार्थो आत्मा छे) -एम विचारीने ‘सकलं स्वतत्त्व–आशया दष्ट्वा’ सर्वने (-समस्त विश्वने) निजतत्त्वनी आशाथी देखीने ‘विश्वमयः भूत्वा’ विश्वमय (समस्त ज्ञेयपदार्थमय) थईने, ‘पशुः इव स्वच्छन्दम् आचेष्टते’ ढोरनी माफक स्वच्छंदपणे चेष्टा करे छे-वर्ते छे;........
अहाहा.....! शुं कहे छे? आ शरीर, मन, वाणी इत्यादिथी मांडीने छ द्रव्यमय आखुं जगत ज्ञेय छे, अने भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप-चैतन्यस्वरूप प्रभु भिन्न वस्तु छे. बेय भिन्न भिन्न छे. छतां ए चीजो हुं छुं, ते मारी छे, अने तेने हुं करुं छुं एम माननार ए परज्ञेयोने पोतापणे माने छे, ते मिथ्याद्रष्टि पशु छे, अज्ञानी छे- एम कहे छे.
भाई! सर्वज्ञ परमात्मानी दिव्य वाणीमां आवेली आ वात छे. शुं? के आत्मा चैतन्यबिंब प्रभु सदा ज्ञानानंदस्वरूप छे. एमां आ दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना पुण्यभाव नथी, ने हिंसा, जूठ, चोरी, विषयवासना इत्यादि पापभाव पण नथी; वळी आ शरीर, इन्द्रिय, वाणी, मन, धन, परिजन इत्यादि जगतना पदार्थ पण एमां नथी. अहा! ए सर्व पदार्थ एना ज्ञानमां जणावायोग्य परज्ञेय छे. अहा! ए परज्ञेयो ज्ञानमां जणाय छतां एम नथी के ज्ञान पोतानुं ज्ञानस्वरूप छोडीने ज्ञेयरूप थई जाय. तथा ज्ञेयो पोतानुं स्वरूप छोडीने ज्ञानरूप थई जाय. आ वस्तुस्थिति छे. छतां जाणवामां आवता ए ज्ञेयो बधा हुं छुं, तेओ मारा छे, तेओने हुं करुं छु
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एम जे माने छे ते परज्ञेयोने पोतारूप करे छे. तेओने, अहीं कहे छे, भगवाने पशु, पशु जेवा कह्या छे. कळशमां ‘पशु’ ‘पशुरिव’ एम बे शब्द छे जुओ.
हा, पण तेओ तो मोटा धनपति शेठ, मोटा राजवी ने मोटा देव छे ने? एथी शुं? भले तेओ अबजोपति शेठ होय, के अधिकार-ऐश्वर्ययुक्त राजा होय, मोटा देव होय के मोटा पंडित होय-ज्यां सुधी तेओने वस्तुना स्वरूपसंबंधी एकान्त मान्यतारूप मूढपणुं वर्ते छे त्यांसुधी तेओ पशु-पशु जेवा ज छे. अहा! तेओ मिथ्यात्वना सेवनथी बंधाय ज छे, ने एना फळमां एकेन्द्रियादि तिर्यंचपणे ज अवतरशे. ल्यो आवी वात!
अरे भाई! ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मा छे ते जाणे ने जाणवापणे रहे, पण ए सिवाय शुं करे? शुं आ एक पांपणने पण आत्मा हलावी शके छे? ना हों. ए (- पांपण) तो जड माटी-धूळ छे. तेनुं हालवुं एनाथी-जडथी छे, आत्माथी नहि. जुओने! शरीरमां पक्षघात थाय त्यारे तेने घणुं हलाववा मागे छे, मथे पण छे; पण ए हालतुं ज नथी. केम? केमके एनुं हालवुं एनाथी छे, एना काळे ए हाले छे, तारुं हलाव्युं हाले छे एम छे नहि; वास्तवमां तुं एने हलावी शकतो ज नथी. हालवुं-चालवुं, बोलवुं ने उठवुं-बेसवुं ए तो बधी जडनी-परमाणुनी क्रिया छे भाई! एने आत्मा करी शकतो नथी. आत्मा तो ज्ञेयो जेम छे तेम जाणे बस, अने जाणवापणे रहे. जाणे कहीए एय व्यवहार छे, वास्तवमां तो ते तत्संबंधी पोताना ज्ञानने जाणे छे. आवुं झीणुं! अहा सर्वज्ञ परमेश्वरनुं तत्त्व खूब झीणुं छे भाई! अहा! ए तत्त्वने सर्वज्ञ परमात्माए कर्युं - रच्युं छे एम नहि, ए तो जेम छे तेम जाण्युं ने ॐध्वनि द्वारा कह्युं छे बस. भाई! तुं एने समजणमां तो ले.
अहा! हुं पर जीवोनी दया पाळी शकुं छुं, दीन-दुःखियाने सहाय करी शकुं छुं, अने ए मारुं कर्तव्य छे एम जे माने छे ते ज्ञेयने ज्ञान (आत्मा) माने छे. पुण्य-पाप आदि भाव पण मारा छे, भला छे, कर्तव्य छे एम माने छे तेय ज्ञेयने ज्ञान माने छे. अहा! आम, सर्वथा एकान्तवादी जगत आखुं ज्ञान छे अर्थात् जगत हुं छुं एम माने छे. हुं आत्मा सर्वव्यापक छुं अथवा सर्वज्ञेयो हुं ज छुं एम विचारी सर्वने निजतत्त्वनी आशाथी देखीने अज्ञानी पोताने विश्वरूप करे छे.
अरे! जेने हुं कोण छुं अने केवी रीते छुं एनी खबर नथी ते भले अहीं मोटो शेठ के राजा होय, ते मरीने क्यांय कीडी ने कागडे जशे. शुं थाय भाई? मिथ्यात्वनुं एवुं ज फळ छे. जुओ, ब्रह्मदत चक्रवर्ती हता. सोळ हजार देवो एमनी सेवा करता. एने घरे ९६ हजार राणीओ हती. ए हीराना पलंगमां पोढता. एना वैभवनुं शुं कहेवुं? अपार वैभवनो ए स्वामी हतो. छतां मरीने रौ -रौ नरके गया केम? केमके