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जेम हाथी चुरमुं अने घासने जुदा पाडया विना ज भेगा ज खाय छे तेम ज्ञानस्वरूपी आत्मा अने ज्ञेयोने भेळसेळ करी आ बधुं हुं छुं एम अनुभवे छे ते बधा हाथीनी जेम ढोर जेवा छे. लोको मांगलिकमां बोले खरा के-चत्तारि मंगलम्-अरिहंता मंगलम्, सिद्धा मंगलम्, साहू मंगलम्, केवली पण्णत्तो धम्मो मंगलम्- पण ए बोले एटलुं. पूछो के केवळीए कहेलो धर्म शुं? तो कांई खबर न मळे. (एम के ए तो केवळी जाणे.) आत्मा ज्ञानस्वरूपी छे, ते पोताना ज्ञानस्वरूपे-तत्पणे परिणमे अने ज्ञेयस्वरूपे- अतत्पणे न परिणमे तेने धर्म कह्यो छे. पण लोको तो व्रत करो, ने तप करो, ने भक्ति करो ने दानमां पांच-पचीस लाख खर्च करो एटले थई गयो धर्म -एम माने छे. पण बापु! ए तो बधा रागना प्रकार परज्ञेय छे. परथी-रागथी लाभ-धर्म मानीने तुं परनुं आचरण करे ए तो बापु! तारी ढोर जेवी स्वच्छंद चेष्टा छे. कह्युं ने अहीं के-एवा जीवो ढोरनी जेम स्वच्छंदपणे चेष्टा करे छे. आ तो भाई! थोडा शब्दो घणा गंभीर अर्थथी भरेला छे.
अहा! पोते स्वस्वरूपथी तत् ने परथी अतत् छे छतां परथी-पैसाथी, धन- संपत्ति-जर-जवाहरथी, शरीरथी, इन्द्रियथी ने विषयोथी मने ठीक छे, आनंद छे एम माननारा बहिरात्मा पशु जेवा निजानंदस्वरूपने भूलीने स्वच्छंदे अज्ञाननुं आचरण करे छे. तेओ मिथ्याद्रष्टि रह्या थका दुःखमय चार गतिमां परिभ्रमण कर्या ज करे छे.
हवे कहे छे– ‘पुनः’ अने ‘स्याद्वाददर्शी’ स्याद्वाददर्शी तो (स्याद्वादनो देखनार तो), ‘यत् तत् तत् पररूपतः न तत् इति’ जे तत् छे ते पररूपथी तत् नथी (अर्थात् दरेक तत्त्वने स्वरूपथी तत्पणुं होवा छतां पररूपथी अतत्पणुं छे) एम मानतो होवाथी, ‘विश्वात् भिन्नम् अविश्व–विश्वघटितं’ विश्वथी भिन्न एवा अने विश्वथी (-विश्वना निमित्तथी) रचायेलुं होवा छतां विश्वरूप नहि एवा (अर्थात् समस्त ज्ञेय वस्तुओना आकारे थवा छतां समस्त ज्ञेयवस्तुथी भिन्न एवा) ‘तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत्’ पोताना निजतत्त्वने स्पर्शे छे-अनुभवे छे.
अहा! स्याद्वाद वडे वस्तुने देखनार स्याद्वाददर्शी-धर्मी तो...... , वस्तुने केवी देखे छे? के हुं तो पोताना ज्ञान ने आनंदस्वरूपथी तत् छुं, ने परथी अतत्
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छुं. परथी हुं नथी माटे मारां ज्ञान, दर्शन, सुख, समकित, शान्ति स्वमां स्वथी थाय, परथी न थाय. ल्यो, आवी वस्तु देखे ते डाह्यो-विचक्षण पुरुष छे. बाकी दुनियानां काम करनारा, दुनियानो उद्धार करवा नीकळेला दुनियाना (कहेवाता) डाह्या तो दुनियामां रखडवा क्यांय ऊंडा (नरकादिमां) जशे. ते डाह्या नथी भाई! ते तो मूढ, पागल छे. तेमने अहीं कळशमां पशु कह्या छे. आ तो जेने अंदर आत्मज्ञान थयुं छे ते डाह्या छे, केमके ते फाया (फाव्या) छे, ते तरी जशे. समजाय छे कांई...?
अहा! मारो चैतन्यमहाप्रभु मारा स्वरूपथी-ज्ञानस्वरूपथी तत् छे, ने परथी अतत् छे. भले ज्ञेयनुं ज्ञान थाय, पण ए ज्ञेयनुं ज्ञान नथी, ज्ञाननुं ज ज्ञान छे. आम स्व-रूपथी तत्पणुं ने पररूपथी अतत्पणुं मानतो होवाथी, स्याद्वादी, ज्ञेयोनुं ज्ञान- जाणवापणुं थवा काळे, ज्ञाननी रचना पोताथी थई छे एम जाणतो विश्वरूप नहि एवा निजतत्त्वने अनुभवे छे. जेटलुं विश्व छे तेनुं अहीं ज्ञान थाय ए तो आत्मानो निज स्वभाव छे. ‘विश्वथी भिन्न एवा अने विश्वथी रचायेलुं होवा छतां विश्वरूप नहि एवा पोताना निजतत्त्वने अनुभवे छे’ -एटले शुं? के निज ज्ञायक तत्त्व छे ते विश्वथी भिन्न ज छे; अने विश्वने जाणवारूप एनी ज्ञानदशा थई तेमां विश्व निमित्त छे तेथी ते विश्वथी रचायेलुं होवा छतां ज्ञान ज्ञानरूप ज छे, विश्वरूप थयुं नथी. ल्यो, आवुं जाणतो स्याद्वादी विश्वरूप नहि एवा निजतत्त्वने अनुभवे छे. विश्वने जाणे छे, छतां विश्वरूपे थतो नथी. व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान छे एम आव्युं ने १२ मी गाथामां? ल्यो, ए आ वात अहीं छे. अहा! आवी यथार्थ द्रष्टि जेने थाय छे ते स्व-आश्रयमां जई संसार तरी जाय छे ने पूर्णानंदने पामे छे. आ धर्म ने धर्मनुं फळ छे.
‘एकान्तवादी एम माने छे के -विश्व (-समस्त वस्तुओ) ज्ञानरूप अर्थात् पोतारूप छे. आ रीते पोताने अने विश्वने अभिन्न मानीने, पोताने विश्वमय मानीने, एकान्तवादी, ढोरनी जेम हेय-उपादेयना विवेक विना सर्वत्र स्वच्छंदपणे प्रवर्ते छे.’
जोयुं? एकान्तवादी, ज्ञानमां परज्ञेय देखीने, आ परज्ञेय न होय तो मारुं ज्ञान केम होय? -एम विचारतो-मानतो थको परज्ञेयोरूप-विश्वरूप करे छे. भगवान आत्मा स्वभावथी ज्ञानानंदस्वरूप होवा छतां रागादि परवस्तु साथे एकपणुं मानतो पोताने विश्वमय -सर्वरूप मानी एकान्ती ढोरनी जेम हेय-उपादेयना विवेक विना सर्वत्र स्वच्छंदपणे प्रवर्ते छे. निमित्तथी-परथी मारामां कार्य थाय, ने शुभरागथी धर्म थाय एम माननार, आ रागादि पर हेय छे, ने निज ज्ञायकतत्त्व एक उपादेय छे-एवा हेय-उपादेयना विवेक विना स्वच्छंदपणे रागादिना ज आचरणरूप प्रवर्ते छे. ते अपार घोर संसारमां परिभ्रमे छे. परंतु.....
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‘स्याद्वादी तो एम माने छे के-जे वस्तु पोताना स्वरूपथी तत्स्वरूप छे, ते ज वस्तु परना स्वरूपथी अतत्स्वरूप छे; माटे ज्ञान पोताना स्वरूपथी तत्स्वरूप छे, परंतु परज्ञेयना स्वरूपथी अतत्स्वरूप छे अर्थात् परज्ञेयोना आकारे थवा छतां तेमनाथी भिन्न छे.’
जोयुं? हुं पोताथी-निजज्ञानस्वरूपथी तत् छुं, ने पुण्य-पापना परिणामथी के व्यवहारना विकल्पथी अतत् छुं -एम ज्ञानी जाणे छे; अने एम जाणतो थको परज्ञेयोथी भिन्न निज ज्ञानतत्त्वने एकने स्पर्शे छे-अनुभवे छे. हवे परथी-निमित्तथी थाय ने व्यवहारथी थाय -एवा वलणमां ने वलणमां एणे आवी अंतरमां वात कदी रुचिथी सांभळी नथी; बहारमां संतुष्ट थईने बेठो छे, पण बापु! आ ज मारग छे, ने आ ज रीत छे.
अहीं पहेला भंगमां पोताथी एटले पोताना द्रव्य-गुण-पर्यायथी तत् छे एम सिद्ध कर्युं, ने आ बीजा भंगमां परथी अतत् छे, परथी नथी एम सिद्ध कर्युं. ज्ञानी धर्मात्मा, हुं परथी नथी एम परथी विमुख थई स्वस्वरूपना आश्रये प्रवर्ते छे ने ए रीते निर्मळ अंतरंग ज्ञान-श्रद्धान-आचरणने प्राप्त थई निराकुळ आनंदने अनुभवे छे. आवी वात छे.
आ प्रमाणे पररूपथी अतत्पणानो भंग कह्यो.
हवे त्रीजा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-
‘पशुः’ पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, ‘बाह्य–अर्थ–ग्रहणस्वभाव– भरतः’ बाह्य पदार्थोने ग्रहण करवाना (ज्ञानना) स्वभावनी अतिशयताने लीधे, ‘विष्वग्–विचित्र–उल्लसत्–ज्ञेयाकार–विशीर्ण–शक्तिः’ चारे तरफ (सर्वत्र) प्रगट थता अनेक प्रकारना ज्ञेयाकारोथी जेनी शक्ति विशीर्ण थई गई छे एवो थईने (अर्थात् अनेक ज्ञेयोना आकारो ज्ञानमां जणातां ज्ञाननी शक्तिने छिन्नभिन्न-खंडखंडरूप-थई जती मानीने) ‘अभितः त्रुटयन्’ समस्तपणे तूटी जतो थको (अर्थात् खंडखंडरूप अनेकरूप -थई जतो थको) ‘नश्यति’ नाश पामे छे;......
जोयुं? जे मिथ्यात्वथी बंधाय छे तेने अहीं पशु कहीने बोलाव्यो छे. एकान्तवादी अज्ञानी पशु छे, केमके ते मिथ्याभावयुक्त होवाथी बंधाय छे. केवी रीते? पोतानी ज्ञाननी पर्यायमां अनेकपणुं-अनेक ज्ञेयाकारो जणातां जाणे हुं अनेक थई गयो एम मानतो अज्ञानी पोताना स्वरूपनी अस्तिनो-होवापणानो नाश करे छे, अर्थात् ते मिथ्याभावथी बंधाय छे. एक समयनी ज्ञाननी पर्यायमां छए द्रव्योना द्रव्य-
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गुण-पर्यायोने जाणवानो आत्मानो स्वभाव छे. परंतु अज्ञानी माने छे के अनेक प्रकारना ज्ञेयाकारोथी मारी ज्ञानशक्ति खंडित-छिन्नभिन्न थई गई, मारामां एकपणुं ना रह्युं. खरेखर तो वस्तु जे एकस्वरूप छे ते ज अनेकस्वरूप छे. पर्यायमां अनेकपणुं होवा छतां द्रव्यना एकपणाने कांई आंच आवी नथी. परंतु एकान्ते एकपणुं ईच्छनारने आ विभ्रम थई गयो छे के हुं अनेक थई गयो; अरे! आ अनेकपणुं क्यांथी? ज्ञानमां अनेकपणुं जणाय ए हुं नहि, ए मारी चीज नहि. एम अनेकपणाथी पोतानी ज्ञानशक्ति खंडखंडरूप थई जती मानीने, समस्तपणे तूटी जतो थको, अर्थात् एकपणुं तो प्राप्त थयुं नहि अने अनेकने जाणवानुं परिणमन जोई पोते खंडखंड थई गयो एम मानतो थको, अनेकपणानो इन्कार करी पोतानी सत्तानो नाश करे छे; अर्थात् मिथ्यात्वभावे परिणमे छे.
अहा! द्रष्टिना विषयभूत एवो जे एकरूप स्वभाव-तेनी प्राप्ति-तेनो आश्रय तो पर्यायमां होय छे. हवे जे वस्तुना पर्यायने ने पर्यायना स्वभावने ज एकांते स्वीकारतो नथी एने यथार्थ द्रष्टि-सम्यक् द्रष्टि केम होय? होती नथी. वस्तु तो बापु! द्रव्यपर्यायरूप छे, द्रव्यपणे पण छे ने पर्यायपणे पण छे. द्रव्यपणे जे एक छे, ते ज पर्यायथी अनेक छे. एकांते द्रव्यरूप-एकरूप ज वस्तु छे एम नथी. परंतु एकांतवादी एकान्ते एकपणुं गोतीने पर्यायने छोडी दे छे, ने ए रीते ते पोताना सत्त्वनो ज नाश करे छे. समजाणुं कांई....?
हवे कहे छे- ‘अनेकान्तवित्’ अने अनेकान्तनो जाणनार तो, ‘सदा अपि उदितया एक–द्रव्यतया’ सदाय उदित (-प्रकाशमान) एक द्रव्यपणाने लीधे ‘भेदभ्रमं ध्वंसयन्’ भेदना भ्रमने नष्ट करतो थको (अर्थात् ज्ञेयोना भेदे ज्ञानमां सर्वथा भेद पडी जाय छे एवा भ्रमनो नाश करतो थको) ‘एकम् अबाधित–अनुभवनं ज्ञानं’ जे एक छे (-सर्वथा अनेक नथी.) अने जेनुं अनुभवन निर्बाध छे एवा ज्ञानने ‘पश्यति’ देखे छे-अनुभवे छे.
शुं कीधुं? वस्तुना अनंत धर्मोने यथावत् जाणनार स्याद्वादी सम्यग्द्रष्टि तो, पर्यायमां अनेकने जाणवापणुं भले हो, हुं तो नित्य उदयमान अखंड एकद्रव्यपणाने लीधे एक छुं. पर्यायमां अनेकने जाणवापणुं छे एय मारो स्वभाव छे. पण तेथी सदाय प्रकाशमान एकरूप द्रव्यस्वभावने शुं छे? ए तो एक अखंडित ज छे. अहा! आम ज्ञेयोना भेदोथी ज्ञानमां-वस्तुमां भेद-खंड पडी गयो एवा भ्रमनो नाश करतो थको, अनेकपणाने गौण करतो, ते निर्बाधपणे एक ज्ञानस्वरूपने देखे छे- अनुभवे छे. ल्यो, आनुं नाम धर्म छे. आ सिवाय बधुं थोथे-थोथां छे. समजाणुं कांई......?
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‘ज्ञान छे ते ज्ञेयोना आकारे परिणमवाथी अनेक देखाय छे, तेथी सर्वथा एकांतवादी ते ज्ञानने सर्वथा अनेक-खंडखंडरूप -देखतो थको ज्ञानमय एवा पोतानो नाश करे छे.’
अहा! पर्यायमां अनेक ज्ञेयाकारो जोईने, एकान्तवादीने वस्तुपणे अंदर एकलो हुं अखंडानंद-नित्यानंद-ज्ञानानंद प्रभु छुं एम एने पोतानुं एकपणुं बेसतुं नथी. जाणे सर्वथा हुं खंडखंड थई गयो एम देखतो थको ते ज्ञानमय एवा पोतानो नाश करे छे.
‘अने स्याद्वादी तो ज्ञानने, ज्ञेयाकार थवा छतां, सदा उदयमान द्रव्यपणा वडे एक देखे छे.’
अहा! स्याद्वादी -ज्ञानी पुरुष तो, अनेक ज्ञेयाकारोने जाणवारूप पर्यायने गौण करीने, सदा उदयमान द्रव्यपणा वडे ज्ञानने एक देखे छे, एक ज्ञानस्वरूपने देखे छे- अनुभवे छे. वस्तुपणे हुं आ एक छुं एम अनुभवे छे. समजाणुं कांई....?
आ प्रमाणे एकपणानो भंग कह्यो.
हवे चोथा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-
‘पशुः’ पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, ‘ज्ञेयाकार–कलङ्क–मेचक–चिति प्रक्षालनं कल्पयन्’ ज्ञेयाकारोरूपी कलंकथी (अनेकाकाररूप) मलिन एवा चेतनमां प्रक्षालन कल्पतो थको (अर्थात् चेतननी अनेकाकाररूप मलिनताने धोई नाखवानुं कल्पतो थको), ‘एकाकार–चिकीर्षया स्फुटम् अपि ज्ञानं न इच्छति’ एकाकार करवानी ईच्छाथी ज्ञानने-जो के ते ज्ञान अनेकाकारपणे प्रगट छे तो पण -इच्छतो नथी (अर्थात् ज्ञानने सर्वथा एकाकार मानीने ज्ञाननो अभाव करे छे);......
आ पोताने सर्वथा एकपणुं माने ने पर्यायथी अनेकपणुं छे ते स्वीकारे नहि ते पशु-एकांतवादी अज्ञानी छे एम कहे छे. अहाहा....! वस्तु तो सहज ज द्रव्यपर्यायरूप छे. द्रव्यरूपथी एकपणुं ने पर्यायथी अनेकपणुं ए वस्तुगत स्वभाव छे. जे अपेक्षा एक छे ते अपेक्षा अनेक छे एम नहि, तथा जे अपेक्षा अनेक छे ते अपेक्षा एक छे एम नहि. त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यस्वभावथी आत्मा एक छे, अने तेमां अनंतगुण ने प्रति समय तेनी अनंत पर्याय छे, ज्ञानमां ते जणाय पण छे-ए अपेक्षा -पर्याय अपेक्षा ते अनेक छे. परंतु अज्ञानी, तेनी ज्ञाननी पर्यायमां जे अनेक परज्ञेयो जणाय छे तेने कलंक मानी काढी नाखवा ईच्छे छे. ज्ञानमां जणाता ज्ञेयाकारोनो नाश करवा मागे छे.
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जुओ, अरिसामां सामे कोलसो होय तो कोलसो जणाय, अने सामे वींछी होय तो वींछी जणाय. परंतु त्यां अरिसामां जे जणाय छे ते (खरेखर) कोलसो के वींछी नथी, ए तो अरिसानी ज अवस्था छे. हवे ते अवस्थामांथी कोलसो ने वींछी काढी नाखवा मागे तो अरिसानी अवस्थानो ज नाश थई जाय, अने तेम थतां अरिसानो नाश थई जाय. तेम आ आत्मा चैतन्य-अरिसो छे. ते द्रव्यरूपथी कायम एकरूप रहीने, तेनी एक समयनी ज्ञाननी पर्याय, परज्ञेयोने अडया विना ज, तेनो आश्रय लीधा विना ज अनेक ज्ञेयोने जाणवापणे थाय छे. सामे परज्ञेयो छे माटे ज्ञेयाकारे एनुं ज्ञान थाय छे एम नथी; ए तो एनी ज्ञाननी पर्यायनो एवडो स्वभाव छे के अनंता ज्ञेयाकारोना ज्ञाननुं परिणमन पोतानुं पोतामां पोताथी थाय छे. अज्ञानी तेने कलंक मानी धोई नाखवा मागे छे. ते विचारे छे-हुं तो एकरूप छुं, तेमां आ अनेकता केवी? आ ज्ञाननी दशामां परमाणु ने निगोदादि बीजा जीवो जणाय छे ते शुं? आ तो कलंक छे. एम मानी ते ज्ञेयाकारोने दूर करवानी ईच्छा वडे ते पोतानी सत्तानो नाश करे छे; अहा! अनंतना जाणवापणे परिणमवुं ए पोतानी पर्यायनो सहज भाव छे एम ते जाणतो नथी!
आ तो धीरानां काम बापु! धर्म कांई बहारमां भर्यो नथी के बहारथी मळी जाय.
प्रश्नः– पण आप धर्म केम थाय एनी वात करोने? आ बधुं शुं मांडयुं छे? उत्तरः– आ धर्मनी (वात) तो मांडी छे भाई! धर्म करनारो, एनुं होवापणुं, एनुं द्रव्य, एनुं क्षेत्र, एनो काळ (पर्याय) अने एना भाव-स्वभाव-ईत्यादिनुं शुं स्वरूप छे ए तो नक्की करीश के नहि? एम ने एम धर्म क्यां थशे भाई! कोना आश्रये धर्म थाय ए जाण्या विना धर्म केम प्रगट करीश? आ दया-दान ने भक्ति-पूजाना परिणाम ए कांई धर्म नथी, ए तो बधो विकल्प-राग छे. स्वना आश्रयमां गया विना भवनो अभाव करवाना बीजरूप सम्यग्दर्शन त्रणकाळमां थतुं नथी.
धर्मना स्वरूपनी भाई! तने खबर नथी. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप जे निर्मळ रत्नत्रय जेने निश्चय मोक्षमार्ग कहीए ते धर्म छे. अष्टपाहुडमां तेने ‘अक्षय अमेय’ कह्यो छे. अहा! शुद्ध एक ज्ञायकना अवलंबने प्रगट थयेली धर्मनी पर्यायने कदी नाश न थाय तेवी अक्षय अने अनंत सामर्थ्यवाळी कही छे. अहा! एकरूप ज्ञायकनुं जेमां ज्ञान थयुं तेने ‘अक्षय अमेव’ कही, केमके ते पर्यायमां अनंतने जाणवानी ताकात पोताथी ज छे. तेवी रीते एक शुद्ध ज्ञायकनुं जेमां श्रद्धान थयुं ते पर्याय पण ‘अक्षय अमेय’ छे, केमके अनंतने श्रद्धवानी (निश्चयथी अनंत सामर्थ्यवान एवा पोताने) श्रद्धवानी एनी ताकात पोताने लईने छे. तेवी रीते चारित्रनी, आनंदनी, वीर्यनी पर्याय ‘अक्षय अमेय’ छे. अक्षय अनंत सामर्थ्यवाळा आत्मतत्त्वनो, शुद्ध एक ज्ञायकनो आश्रय करे छे तेथी ते पर्यायोने पण ‘अक्षय अमेय’ कही छे. आम अनंत
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गुणनी एक समयमां अनंत पर्याय अक्षय अमेय छे. अहाहा....! जेम वस्तु त्रिकाळी शुद्ध ज्ञायक तत्त्व अक्षय अमेय छे तेम तेना आश्रये प्रगट थयेली (निर्मळ) पर्यायो अक्षय अमेय छे. ल्यो, आवो (अलौकिक) धर्म! अरे! लोकोने रागथी धर्म मनाववो छे! पण रागने तो परनो आश्रय छे, ने ते वडे तो बंधन ज थाय छे. एनाथी धर्म केम थाय?
अहीं कहे छे- अज्ञानी एकाकारनी ईच्छाथी ज्ञानने-जो के ते ज्ञान अनेकाकारपणे प्रगट छे-तो पण इच्छतो नथी, अर्थात् ज्ञानने सर्वथा एकाकार मानीने, अनेकाकारे थयेला ज्ञानना ईन्कार द्वारा ते ज्ञाननो -पोतानो अभाव करे छे. शुं कीधुं? वस्तुपणे अनंतगुणनुं एकरूप पोते होवा छतां एक समयमां अनंतगुणनी अनंत पर्यायो छे, अने ते एक एक पर्यायमां अनंतता छे. ज्ञाननी एक पर्यायमां रागथी मांडी आखुं विश्व ज्ञेयपणे-निमित्तपणे छे. आवुं वस्तुनुं स्वरूप छे तेने नहि मानतां, एकांते एकपणाने ज इच्छतो ते अनंतपणाने तोडी नाखे छे. त्यां अनंतपणाने कलंक मानीने अनंतपणाने काढवा जतां पोतानी पर्यायना नाश द्वारा द्रव्यनो नाश करे छे. एटले शुं? के एनी पर्यायमां द्रव्यनुं यथार्थ स्वरूप हाथ आवतुं नथी.
एकने लक्षमां लेनार तो अनंतने जाणवावाळी पर्याय छे. पण अनंतने जाणे ए तो कलंक थई गयुं एम जाणी पर्यायने छोडी दे छे. तेने पोतानुं एकाकार द्रव्य पण छूटी जाय छे, हाथ लागतुं नथी. आम अज्ञानी पोताने सर्वथा एकाकार मानीने ज्ञाननो- पोतानो अभाव करे छे. समजाणुं कांई.....?
हवे कहे छे– ‘अनेकान्तवित्’ अने अनेकान्तनो जाणनार तो, ‘पर्यायैः तद्– अनेकतां परिमृशन’ पर्यायोथी ज्ञाननी अनेकता जाणतो (अनुभवतो) थको, ‘वैचिक्र्ये अपि अविचित्रतां उपगतं ज्ञानं’ विचित्र छतां अविचित्रताने प्राप्त (अर्थात् अनेकरूप छतां एकरूप) एवा ज्ञानने ‘स्वतः क्षालितं’ स्वतः क्षालित (स्वयमेव धोयेलुं-शुद्ध) ‘पश्यति’ अनुभवे छे.
शुं कहे छे? के एक पण छुं, अनेक पण छुं- एम स्याद्वाद वडे वस्तुना स्वरूपनो जाणनार अनेकान्तवादी तो पर्यायोथी ज्ञाननी अनेकता जाणतो थको अर्थात् एक समयमां अनंतगुणनी अनंतपर्याय, अने एक एक पर्यायमां अनंती ताकात-एम जाणतो थको, अनेकरूप छतां हुं द्रव्यरूपथी एकरूप ज छुं एम जाणी एकरूप एवा ज्ञानने स्वतःक्षालित-स्वतः शुद्ध जाणी एकने शुद्धने अनुभवे छे. आ अनेकपणानुं ज्ञान छे ते कलंक छे, मलिनता छे एम स्याद्वादी मानतो नथी, केमके अनंतने जाणवुं ए तो सहज वस्तुस्वभाव छे. ए तो एने गौण करी सहज शुद्ध वस्तुने-एकने
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अंतरंगमां अनुभवे छे. भाई! आमां तो मिथ्यादर्शननो नाश थई धर्म-सम्यग्दर्शन आदि-केम थाय एनी वात छे. ल्यो.
‘एकांतवादी ज्ञेयाकाररूप (अनेकाकाररूप) ज्ञानने मलिन जाणी, तेने धोईने- तेमांथी ज्ञेयाकारो दूर करीने, ज्ञानने ज्ञेयाकारो रहित एक-आकाररूप करवा इच्छतो थको ज्ञाननो नाश करे छे;.....’
अहा! पोतानुं जे टकतुं तत्त्व ते पर्यायमां अनंत ज्ञेयाकारोने जाणवापणे थयुं छे ते एनो-पर्यायनो स्वभाव छे एम न मानतां, ए कलंक थई गयुं एम मानी ज्ञानने ज्ञेयाकारो रहित एक आकाररूप करवा ईच्छतो थको ते पर्यायनो नाश करे छे, अने ए रीते पोतानो नाश करे छे.
‘अने अनेकांती तो सत्यार्थ वस्तुस्वभावने जाणतो होवाथी, ज्ञानने स्वरूपथी ज अनेकाकारपणुं माने छे.’
शुं कीधुं? अनंतने जाणवुं ए तो वस्तुनो-पर्यायनो स्वभाव छे. आ रीते ज्ञानने स्वरूपथी ज अनेकाकारपणुं छे त्यां मलिनता केवी? ज्ञानमां अनंतु जणाय ए तो ज्ञाननी निर्मळता छे. केवळज्ञानमां जणाय छे के नहि? अहीं मति-श्रुतज्ञाननी पर्यायमां अनंतु जणाय छे एम लीधुं छे. पर्यायमां अनंतु जणाय छतां पर्याय तो एक ज्ञानरूप ज छे, ज्ञेयरूप थती नथी, अने वस्तुपणे तो हुं एक ज छुं एम अनेकान्ती वस्तुने-ज्ञानने सम्यक् प्रकारे जाणे-अनुभवे छे.
आ प्रमाणे अनेकपणानो भंग कह्यो.
हवे पांचमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-
‘पशुः’ पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, ‘प्रत्यक्ष–आलिखित–स्फुट– स्थिर–परद्रव्य–अस्तिता–वञ्चितः’ प्रत्यक्ष आलिखित एवां प्रगट (-स्थूल) अने स्थिर (-निश्चळ) परद्रव्योना अस्तित्वथी ठगायो थको, ‘स्वद्रव्य–अनवलोकनेन परितः शून्यः’ स्वद्रव्यने (-आत्मद्रव्यना अस्तित्वने) नहि देखतो होवाथी समस्तपणे शून्य थयो थको ‘नश्यति’ नाश पामे छे;......
शुं कीधुं आ? के शरीर, इन्द्रिय, स्त्री-पुत्र आदि परद्रव्यो वडे मने ठीक छे एम माननारा बधा मूढ, पशु जेवा छे. अरे भाई! ए स्त्री-पुत्र आदि चीजो थोडा
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हा, पण कोईने पति-पत्नी बे ज होय ने पत्नी मरी जाय तो पति एकलो पडी जाय के नहि?
आत्मा तो सदाय एकलो ज छे भाई! पत्नीथी तें ठीकपणुं मान्युं छे ए ज तारुं पागलपणुं छे. शुं थाय? हवे पोते कोण छे एनी खबर न मळे ने एम ने एम पागलनी जेम जिंदगी पूरी थई जाय!
अहीं कहे छे- अज्ञानी प्रत्यक्ष आलिखित एवां प्रगट-स्थूल अने स्थिर-निश्चल परद्रव्योना अस्तित्वथी ठगायो थको..... , जुओ, इन्द्रिय (आंख वगेरे) वडे शरीर, स्त्री, दीकरा, दीकरी ईत्यादिने सामे प्रत्यक्ष देखीने एने लईने हुं छुं, एनाथी मने ठीक छे-एम जे माने छे ते, कहे छे, ठगाई गयो छे. आ शरीर ठीक-निरोगी होय, पत्नी-दीकरा-दीकरी सेवा करतां होय, रहेवा मकान अनुकूळ होय, खावा-पीवानी सामग्री भरपुर होय, ने मित्रो-साथीओ खबर पूछनारा होय एटले मने ठीक पडे छे एम माननार परथी ठगाई गयो छे. अने एना विना मने ठीक नथी एम माननार पण ठगाई गया छे. अहा! आवा बधा परना होवापणाथी पोतानुं होवापणुं माने छे ने? वळी तेओ ते परद्रव्योने थोडो काळ स्थिर देखीने स्थिर माने छे ने? अहा! तेओ मोहवश ठगाई गया छे. केम? केमके परद्रव्यो कदी निज आत्मरूप थई शकता नथी ने तेओ पर्यायपणे स्थिर पण नथी. तेमनो संयोग रह्या ज करशे एवा तेओ स्थिर नथी. समजाणुं कांई....?
अहा! अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष एवुं जे पोतानुं अव्यक्त (इन्द्रिय-अप्रत्यक्ष) आत्मद्रव्य- त्रिकाळ ज्ञानानंदमय-तेने अज्ञानी मानतो नथी, तेने जाणवा-देखवानी कदी दरकार पण करतो नथी. आम पोताना आत्मद्रव्यना अस्तित्वने नहि देखतो, समस्तपणे शून्य थयो थको, जे बाह्य चीजोने जाणे छे ते ज हुं छुं एम माने छे. श्रीमदे कह्युं छे ने के-
जाणनारने मान नहि, कहिए केवुं ज्ञान?
अहा! जाणनारनी हयातीमां-ज्ञानभूमिकामां आ बधी बाह्य चीजो देखीने, आ जाणनारो ते हुं छुं एम न मानतां, आ बाह्य चीजो ते हुं छुं एम मानीने, पोते शून्य- अभावरूप थयो थको अज्ञानी पोतानो नाश करे छे. अहो! मोहनो कोई गजब महिमा छे. आखुं जगत मोहथी मूर्च्छा पामी ठगाई रह्युं छे. आचार्यदेवे आखा जगतनो चितार खडो कर्यो छे.
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कोईने चालीस वर्षनी उंमरे पत्नी मरी जाय एटले खूब शोकातुर ने व्यग्र थाय. पछी विचार करे के आना करतां दस वरस पहेलां मरी गई होत तो सारुं; एम के त्यारे बीजी तो परणी शकात. जुओ, आ पहेलां तो स्त्रीने मारी, मारी एम कहीने तूटी जतो हतो, ने हवे कहे छे-दस वर्ष पहेलां मरी होत तो सारुं. जुओ, आ संसारनी विचित्रता! बधा आवा ने आवा मूढ भेगा थया छे. ए तो नियमसारमां एक कळशमां आव्युं छे के -मा, बाप, स्त्री, दीकरा-दीकरी, कुटुंब-परिवार ईत्यादि बधां धुतारानी टोळी छे. पेट भरवा बधां भेगां थयां छे; अनुकूळ होय त्यांसुधी साथ आपे, बाकी कोई सामुंय ना जुए. आ जोता नथी? घरमां प० वरसनी बा होय ने बिमार पडे, लकवो पडी जाय ने बिमारी लंबाय, घरमां कांई कामना न रहे एटले कोई सामुंय ना जुए; बधां एम ज विचारवा लागी जाय के बा क्यारे मरे. ल्यो, बा, बा, बा एम बाने जोईने हरख करनारां हवे विचारे छे के बा क्यारे मरे? आ तो बधुं जोयुं छे बापु! बधां स्वार्थना पूतळां छे भाई! अहीं कहे छे- परद्रव्योथी मने ठीक छे (वा एना अभावमां ठीक नथी) एम माननारा ठगाई गया छे; केमके परद्रव्य आ जीवस्वरूप पण नथी, ने संयोगथी स्थिर पण नथी.
अहा! पोतानी चैतन्यवस्तु पोताथी-स्वद्रव्यथी छे एना भान विना स्वद्रव्यने नहि देखतो परने लईने मने ठीक पडे छे, परथी मारुं होवापणुं छे एम अज्ञानी माने छे. हुं स्वद्रव्यथी संपूर्ण छुं एम जाणवा-अनुभववाने बदले, परवस्तुओ होय तो भरेलो देखाउं एम मानीने अज्ञानी पोताना भावथी खाली-शून्य थयो थको पोतानी अनादिअनंत नित्य स्वद्रव्यरूप चैतन्यसत्तानो नाश करे छे. वास्तवमां ते स्वद्रव्यनुं खून करनारो खूनी छे. समजाणुं कांई.....? हवे कहे छे-
‘स्याद्वादी तु’ अने स्याद्वादी तो, ‘स्वद्रव्य–अस्तितया निपुणं निरूप्य’ आत्माने स्वद्रव्यने अस्तिपणे निपुण रीते अवलोकतो होवाथी, ‘सद्यः समुन्मज्जता विशुद्ध–बोध– महसा पूर्णः भवन्’ तत्काळ प्रगट थता विशुद्ध ज्ञानप्रकाश वडे पूर्ण थतो थको ‘जीवति’ जीवे छे-नाश पामतो नथी.
अहाहा....! कहे छे-धर्मी-स्याद्वादी तो शुद्ध चैतन्यसत्तामय स्वद्रव्यथी हुं सत् छुं एम निपुणपणे आत्माने अवलोके छे. अहा! अस्तिपणे हुं पूर्ण छुं एम ज्यां अंदरमां पोताना ज्ञान-श्रद्धानमां स्वीकार थयो के तत्काळ अंदर अस्तिमांथी ज्ञान उछळ्युं, ने ते ज्ञाननी दशामां भास थयो के-अहो! आ पूर्ण ज्ञानघनवस्तु हुं माराथी ज अस्तिरूप छुं. आम तत्काळ प्रगट थता विशुद्ध ज्ञानप्रकाश वडे पूर्ण थतो थको स्याद्वादी जीवे छे अर्थात् पोतानुं जेवुं सत्यार्थ जीवन छे तेने जीवतुं राखे छे, निराकुळ आनंदथी धबकतुं राखे छे.
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हुं परने लईने छुं, पर वडे मारुं सत्त्व छे-एम मानीने अज्ञानी पोताना त्रिकाळी स्वतत्त्वनो श्रद्धानमां नाश करे छे, ज्यारे धर्मी पुरुष, पोताना ज्ञानघनस्वरूप पूर्ण द्रव्यने स्वपणे अस्तिरूप स्वीकारीने आत्माने जेवो छे तेवो जीवतो-टकतो राखे छे. आवो मारग! आ तो एकलो न्यायनो मार्ग बापा! अरे! एणे अंदर ऊंडा उतरीने कोईदि’ विचार ज कर्यो नथी; बहारमां -स्त्री-पुत्र-परिवार, बाग-बंगला, धन ने परिजन ईत्यादिमां-रोकाईने के क्रियाकांडमां रोकाईने ए पोताना चैतन्यना सत्त्वरूप स्वद्रव्यने भूली गयो छे, जाणे शून्य थई गयो छे.
स्याद्वादी, हुं स्वद्रव्यपणे सत् छुं एम पोताने निपुणपणे अवलोके छे एटले शुं? के हुं एक ज्ञायकभावमात्र छुं एम पोताने अभेदपणे अनुभवे छे. हुं अने ज्ञायकभाव एम भेद पण एमां रहेतो नथी; अभेद तन्मात्र वस्तुनो अनुभव छे आवी झीणी वात!
समयसार कळशटीकामां आ कळशना अर्थमां विशेष सूक्ष्मताथी वात करी छे. त्यां निर्विकल्पमात्र अभेद वस्तु जेमां गुणभेद पण नहि तेने स्वद्रव्य कह्युं छे, आधारमात्र वस्तुनो प्रदेश अर्थात् असंख्य प्रदेशी होवा छतां एवा भेदथी रहित एकक्षेत्र तेने स्वक्षेत्र कह्युं छे, वस्तुमात्रनी मूळ अवस्था-आखी त्रिकाळस्थित एक वस्तु तेने स्वकाळ कह्यो छे अने वस्तुनी मूळनी सहज शक्ति तेने स्व-भाव कह्यो छे.
वळी त्यां ज सविकल्प भेदकल्पना करवी अर्थात् अखंड एक द्रव्यरूप वस्तुमां आ गुण ने आ गुणी एम भेद पाडवो तेने परद्रव्य कह्युं छे. शुं कीधुं? आ शरीरादि परद्रव्य तो परद्रव्य छे, अहीं तो एक ज चीजमां भेदकल्पना करवी तेने परद्रव्य कह्युं छे. वस्तुनो आधारभूत प्रदेश-तेमां सविकल्प भेदकल्पनाथी आ असंख्यात प्रदेश एम भेदने लक्षमां लेवुं ते परक्षेत्र थई गयुं. पंचास्तिकायमां असंख्य प्रदेशी आत्माने असंख्य प्रदेश होवा छतां एकप्रदेशी कह्यो छे, केमके असंख्य प्रदेश अभेद एकवस्तुपणे रहेला छे. तेने असंख्य प्रदेशनो भेद पाडी समजवुं ते परक्षेत्र छे. द्रव्यनी मूळ निर्विकल्प दशा अर्थात् एकरूप त्रिकाळी वस्तु ते स्वकाळ, तेमां एक समयनी अवस्थानो भेद पाडवो ते परकाळ छे. तेम द्रव्यनी मूळनी सहज शक्ति ते स्वभाव, तेमां आ ज्ञान, आ दर्शन एम भेद पाडवो ते परभाव छे.
टुंकमां त्रिकाळी एकरूप वस्तु ते स्वद्रव्य, ते ज स्वक्षेत्र, ते ज स्वकाळ अने ते ज स्वभाव छे. एमां जे भेदकल्पना करवामां आवे ते परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाळ अने परभाव छे. अहा! आवी भेदकल्पना रहित अभेद एक जे स्वद्रव्य वस्तु तेने स्याद्वादी निपुणपणे अवलोके छे-अनुभवे छे. शा वडे? निर्मळ भेदज्ञानना प्रकाश वडे. समजाणुं कांई....? ल्यो, आ धर्म अने आ साचुं जीवन.
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‘एकांती बाह्य परद्रव्यने प्रत्यक्ष देखी तेनुं अस्तित्व माने छे, परंतु पोताना आत्मद्रव्यने इन्द्रियप्रत्यक्ष नहि देखतो होवाथी तेने शून्य मानी आत्मानो नाश करे छे.’
जुओ, आ शरीर, इन्द्रिय, वाणी, स्त्री-कुटुंब परिवार इत्यादि बधुं एने इन्द्रियो द्वारा प्रत्यक्ष जणाय छे तेथी तेनी हयाती माने छे. कर्म एने प्रत्यक्ष नथी देखातां. छतां एनुं फळ जे अनुकूळ-प्रतिकूळ संयोगो ते तेने देखाय छे तेथी कर्मनुं अस्तित्व-होवापणुं पण ते स्वीकारे छे. पण ए सर्वनो जाणनारो हुं ए सर्वथी न्यारो छुं एम ते स्वीकारतो नथी. अहाहा...! अंदर आनंदनुं धाम ज्ञानघन प्रभु पोते स्वपणे सत् विराजे छे छतां ते ईन्द्रियप्रत्यक्ष नथी तेथी तेने स्वीकारतो नथी. कांई नथी एम शून्य मानी अज्ञानी आ रीते पोतानो नाश करे छे. पर जीवने कोई बचावे के नाश करे ए तो आत्माना अधिकारनी वात नथी, पण अरेरे! अज्ञानी प्राणी, अंदर पूर्ण चैतन्यसत्तापणे स्वस्वरूपे पोते विराजे छे तोपण कांई नथी एम पोताने शून्य मानी पोतानो नाश करे छे. केवी विडंबना!
हवे कहे छे- ‘स्याद्वादी तो ज्ञानरूपी तेजथी पोताना आत्मानुं स्वद्रव्यथी अस्तित्व अवलोकतो होवाथी जीवे छे- पोतानो नाश करतो नथी.’
अहा! धर्मी-स्याद्वादी वर्तमान दशाने अंतरमां वाळीने पोते एक शुद्ध चैतन्यनी हयातीवाळुं तत्त्व छे एम स्वीकारे छे. तेथी ते जीवित छे, ते पोताने आपघातथी बचावे छे. परथी-रागथी हुं छुं एम मानतो अज्ञानी पोताना स्वद्रव्यनो ज निषेध करीने आपघात करे छे, मिथ्याभाव वडे पोताने मरणतोल करी नाखे छे; ज्यारे स्याद्वादी निजस्वरूपनो यथातथ्य स्वीकार करीने जिवित रहे छे, निराकुळ आनंदनुं जीवन जीवे छे. ल्यो, आवी वात छे.
आ प्रमाणे स्वद्रव्य-अपेक्षाथी अस्तित्वनो (-सत्पणानो) भंग कह्यो.
हवे छठ्ठा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-
‘पशुः’ पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, ‘दुर्वासना–वासितः’ दुर्वासनाथी (-कुनयनी वासनाथी) वासित थयो थको, ‘पुरुषं सर्वद्रव्यमयं प्रपद्य’ आत्माने सर्वद्रव्यमय मानीने, ‘स्वद्रव्य–भ्रमतः परद्रव्येषु किल विश्राम्यति’ (परद्रव्योमां) स्वद्रव्यना भ्रमथी परद्रव्योमां विश्राम करे छे;.....
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अहाहा....! जुओ, परवस्तु छे तो हुं छुं, परवस्तु न रहे तो हुं न रहुं-एम परथी ज पोताने मानवावाळा एकांतवादी बधा पशु छे एम कहे छे. भाई! आ पशुनी व्याख्या! बहु आकरी पण आ सत्य छे. अहा! आवो एकांती दुर्वासनाथी -कुनयथी वासनाथी वासित छे. एना चित्तमां, परवस्तुथी हुं छुं -एवा कुनयनी गंध गरी गई छे.
अहा! जुओ तो खरा, संसारमां केवी विचित्रता छे. कोई कहे-अरे, स्त्री मरी गई. हवे एक क्षण पण केम जीवी शकुं? तो कोई नाना बाळकनां मा-बापनो वियोग थतां लोक कहे -अरे, बिचारो नोधारो थई गयो; तो कोईनुं धन लूंटाई जाय तो रोककळ करे के -हाय, हाय! हवे केम जीवीश? कोई कोई तो आबरूना मार्या झेर खाईने पण मरी जाय. मरीने पण आबरू राखवा मागे छे. ल्यो. अहा! आवा जीवो बधा अहीं कहे छे, कुनयनी दुर्वासनाथी वासित छे. परद्रव्यथी-परवस्तुथी मारुं जीवन छे एवी दुर्वासना एमने घर करी गई छे.
तेने ज्ञानी पुरुष कहे छे- अरे, आ तने शुं थई गयुं भाई? शुं तारुं होवापणुं परने लईने छे? परथी तो तुं नास्ति छो ने प्रभु! तारुं चैतन्य तत्त्व सदाय निज भावथी भिन्न टकी रह्युं छे ने! तारे परथी शुं काम छे? आ ते केवी भ्रमणा के जे तारा नथी तेने कल्पना वडे-कल्पितपणे तारा माने छे? दुर्वासनाथी दूर था. जो तो खरो, जेना विना एक क्षण पण नहि जीवाय एम मानतो हतो, एना विना तारो अनंतकाळ वीत्यो छे. श्रीमद्ना एक पत्रमां आवे छे भाई! के-वळी स्मरण थाय छे के जेना विना एक पळ पण हुं नहि जीवी शकुं एवा केटलाक पदार्थो स्त्री, पुत्र, लक्ष्मी वगेरे ते अनंतवार छोडतां तेनो वियोग थयो, अनंतकाळ पण थई गयो वियोगनो..... इत्यादि. मतलब के ईष्टना विरहपूर्वक अनंतकाळ आत्मानो गयो छे. अने संयोगकाळमां पण ए चीज तारी क्यां छे? एना विना ज तुं टकी रह्यो छो.
बिहारप्रांतनी एक बनेली घटना छे. त्यां एक करोडपति शेठ हता. एक दिवस बहार घोडागाडीमां बेसीने फरवा गयेला. त्यां एटलामां भूकंप थयो. तेमां तेनी स्त्री, छोकरां, कुटुंब, मकान, धन-संपत्ति बधुं ज जमीनदोस्त थई दटाई गयुं. फक्त पोते जीवता रही गया. पछी विलाप करी ते कहे-अरे! मारुं बधुं ज गयुं! तेने ज्ञानी कहे छे- धीरो था भाई! तारुं कांई ज गयुं नथी; तुं पूर्ण विज्ञानघन जेवो ने तेवो छो. जे बधां गयां ते तारां हतां ज के दि’ ? जो तारां होय तो तने छोडी जाय केम? ताराथी जुदां पडे ज केम? माटे मारां हता ए दुर्वासनाथी दूर थई अंदर तारो एक विज्ञानघनस्वभाव छे तेनी संभाळ कर.
कोई तो वळी अमुक सगावहालां सारो-मीठो संबंध राखतां होय एटले कह्या
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करे के-आ तो अमारा अंगत माणस छे. धूळेय अंगत नथी सांभळने हवे. ज्यां पदार्थो ज भिन्न भिन्न छे त्यां अंगत केवा? कोई कोईने अंगत नथी.
जेम कोई तंबु बांध्यो होय अने एनी एक खीली खसे तो त्यां जीवने भारे उचाट-खळभळाट थई जाय छे, तेम अज्ञानी, परवस्तुथी हुं छुं एवी दुर्वासनाथी वासित थयो थको, आत्माने-पोताने सर्वद्रव्यमय मानीने-सर्वद्रव्यो हुं ज छुं एम मानीने- जगतनी बधी सगवडताओ-अनुकूळताओमांथी एक ज्यां घटे त्यां हुं घटी गयो-खंडखंड थई गयो -एम भारे रोककळ करी मूके छे. स्त्री, पुत्र, धन, मात, पिता, इत्यादिनो वियोग थतां अज्ञानी भारे आकुळ-व्याकुळ थई आक्रन्द करे छे. तेने कहीए- भाई! तुं अंदर ज्ञानानंदस्वरूप भगवान छो ने! भगवान जेवो भगवान अंदर होवा छतां आ शुं करे छे? ताराथी जुदी पडी ए चीज तारी क्यांथी आवी? त्रण काळमां तारी नथी. मोहनो दारू पीने ज तुं आवी पागलनी चेष्टा करे छे. परद्रव्योमां तने स्वद्रव्यनो भ्रम छे ते भ्रमथी दूर था; ने स्वद्रव्यने अंगीकार कर.
अहीं कहे छे- पशु-एकांतवादी अज्ञानी आत्माने सर्वद्रव्यमय मानीने, स्वद्रव्यना भ्रमथी परद्रव्योमां विश्राम करे छे. मारो आधार परद्रव्यो ज छे एम परद्रव्योमां ज पोतानुं अस्तिपणुं स्थापे छे. हुं परद्रव्यथी असत् छुं, परद्रव्यथी नथी, भिन्न छुं- एम एने बेसतुं नथी. अंदर दुर्वासना घर करी गई छे ने! तेथी स्वद्रव्यनुं भिन्न अस्तित्व एने बेसतुं नथी, परमां ज ते आधार-विश्राम शोधे छे, अने ए रीते पोतानो नाश करे छे.
अहा! एकान्तवादी अज्ञानी परद्रव्यथी मने लाभ थाय एवी कुनयनी वासनाथी वासित छे. कदाचित् कुटुंब-परिवार, धन-लक्ष्मी ईत्यादि छोडी दे तो आ देव-गुरु- शास्त्रथी, आ मंदिर ने आ जिनबिंबथी मने लाभ छे, एनाथी मने ज्ञान थाय छे एम ते माने छे. आ पंचपरमेष्ठीनी भक्तिथी मने लाभ-धर्म थाय छे एम ते माने छे. अरे भाई! ए पंचपरमेष्ठी, ए जिनबिंब अने ए देव-गुरु-शास्त्र ए बधुंय परद्रव्य छे; एनाथी तने केम लाभ थाय? हवे आवी वात एने आकरी पडे छे. शुं थाय?
देव-गुरु-शास्त्र साचुं ज्ञान थवामां अवश्य निमित्त होय छे, तथापि ए निमित्तथी अहीं (-आत्मामां) साचुं ज्ञान थई जाय छे एम नथी. निमित्त हो, पण निमित्त (उपादानमां) कांई ज करतुं नथी. निमित्त (कार्य थवामां) अनुकूळ छे छतां नैमित्तिक भावने-अनुरूपने ते करे छे एम नथी. अहीं (आत्मामां) सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे तेमां निश्चयथी तो पोतानुं स्वद्रव्य ज (स्वद्रव्यनो आश्रय ज) कारण छे, ने व्यवहारे दर्शनमोहकर्मनो अभाव तेमां निमित्त छे. (देव-गुरु-शास्त्र बाह्य निमित्त छे). हवे त्यां आ अनुकूळ निमित्त छे माटे अनुरूप पर्याय (सम्यग्दर्शन) थई छे एम
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प्रश्नः– श्रेणीक राजानो जीव अत्यारे नरकमां छे. ते नरक गतिना उदयने लईने छे के नहि?
उत्तरः– नरकगतिना उदयने लईने तेओ (श्रेणीक राजा) नरकमां गया छे एम कहेवुं ते निमित्तपरक व्यवहारनुं कथन छे. वास्तवमां एम नथी, निश्चयथी तो पोते पोताना परिणामनी योग्यताथी ज नरकमां रहेला छे, नरकगतिनो उदय तो निमित्तमात्र छे. कर्मनिमित्त छे खरुं, पण एनाथी नरकमां गया छे एम नथी. निमित्त छे ते अनुकूळ छे, पण ते अनुकूळ (-निमित्त) अनुरूपने (नैमित्तिक पर्यायने) रचतुं नथी.
जुओ, शास्त्रमां आवे छे के ज्ञानावरणीय कर्म छ प्रकारे बंधाय छे. ते छ प्रकार जे छे ते नवां कर्म बंधाय एने अनुकूळ छे, अने कर्म बंधाय ते नैमित्तिक कार्य अनुरूप छे. त्यां अनुकूळ (निमित्त) छे ते नैमित्तिक-अनुरूपने रचतुं नथी. छ प्रकारथी ज्ञानावरणीय कर्म बंधाय छे एम नथी. परंतु अज्ञानी ज्यां होय त्यां सर्वत्र परथी ज कार्य थवानुं ने परथी ज पोताने लाभ थवानुं माने छे. आ रीते ते पोताने सर्वद्रव्यमय मानीने स्वद्रव्यना भ्रमथी अर्थात् हुं पर वडे ज छुं एवा भ्रमथी परद्रव्योमां विश्राम करे छे, अंदरमां हुं परथी भिन्न ज्ञानानंदस्वरूप भगवान छुं एम तेनुं लक्ष थतुं नथी. खरेखर तो स्वद्रव्यनी अपेक्षा परद्रव्य अद्रव्य छे अर्थात् कांई नथी, पण आणे (अज्ञानीए) तो परद्रव्यमां स्वद्रव्यनो भ्रम करी पोताने अद्रव्य (कांई नहि, शून्य) करी नाख्युं. ल्यो, आवो मोटो अपराध! आ पजुसण पछी क्षमापना दिन मनावे छे ने! खरेखर तो क्षमापना एणे पोताना निज भगवान आत्मा पासे लेवानी छे. ते आम के-हे नाथ! में अनादिथी आज पर्यंत परने पोताना मान्या, अने पोताने पररूप मान्यो; नाथ! क्षमा करो. ल्यो, आम परद्रव्यथी भिन्न स्वद्रव्यनो अस्तिपणे निश्चय करवो एनुं नाम क्षमापना छे. ए ज कहे छे-
‘स्याद्वादी तु’ अने स्याद्वादी तो, ‘समस्तवस्तुषु परद्रव्यात्मना नास्तितां जानन्’ समस्त वस्तुओमां परद्रव्यस्वरूपे नास्तित्व जाणतो थको, ‘निर्मल–शुद्ध–बोध– महिमा’ जेनो शुद्ध ज्ञानमहिमा निर्मळ छे एवो वर्ततो थको, ‘स्वद्रव्यम् एव आश्रयेत्’ स्वद्रव्यनो ज आश्रय करे छे.
जुओ, स्याद्वादी-धर्मी तो एम माने छे के-परद्रव्य हो तो हो, मने ए कांई नथी; अर्थात् परद्रव्यथी मारी नास्ति छे. मारुं होवुं परद्रव्यने लईने नथी, अने मारे लईने परद्रव्य नथी. आम समस्त वस्तुओमां परद्रव्यस्वरूपे नास्तित्व जाणतो थको,
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हुं एक पूर्ण शुद्धज्ञानघन चैतन्यस्वभावमय भगवान आत्मा ज छुं एम वर्ततो थको स्वद्रव्यनो ज आश्रय करे छे. ल्यो, आनुं नाम धर्म छे.
त्यारे कोई वळी कहे छे- दिगंबरमां जन्म्या एटले जैन तो थई गया, हवे चारित्र करवानुं रह्युं. अरे भगवान! आ तुं शुं कहे छे? जैन धर्मना वाडामां जन्म्यो एटले समकित छे एम क्यां छे? हवे निमित्तथी-परद्रव्यथी लाभ थाय ने दया, दान आदि शुभभावथी धर्म थाय एम माने त्यां सुधी तो नर्युं अज्ञान भर्युं छे बापु! परद्रव्य अने परभावथी भेदज्ञान कर्या विना समकित नहि, अने विना समकित चारित्र-धर्म पण नहि. धर्मात्मा परद्रव्यथी ने शुभरागथी लाभ-धर्म थाय एम कदी मानता नथी. ए तो परद्रव्यथी पोतानुं नास्तित्व मानीने एक स्वद्रव्यनो ज आश्रय करे छे. समजाणुं कांई....?
‘एकांतवादी आत्माने सर्वद्रव्यमय मानीने, आत्मामां जे परद्रव्य-अपेक्षाए नास्तित्व छे तेनो लोप करे छे;......’
वेदांत आदि जे बधाने (बधुं थईने) एक माने छे, वा जे परद्रव्यथी स्वद्रव्यने लाभ माने छे ते बधा परद्रव्यने ज आत्मा (स्वद्रव्य) माने छे. तेवा जीवो, आत्मामां जे परद्रव्य अपेक्षा नास्तित्व छे तेनो लोप करे छे, तेओ ऊंडे ऊंडे पण परद्रव्यने साधन मानी पोताना सत्ने खोई बेसे छे.
‘अने स्याद्वादी तो सर्व पदार्थोमां परद्रव्य-अपेक्षाए नास्तित्व मानीने निज द्रव्यमां रमे छे.’
जुओ, धर्मी-स्याद्वादी तो मारी पुंजी-मारी संपदा-लक्ष्मी ने मारुं साधन संपूर्ण मारी पासे छे अने ते हुं ज छुं, पर साधननी-परनी मने कांई ज जरूर-अपेक्षा नथी, परथी तो हुं नास्तिस्वरूप ज छुं एम मानतो थको स्वद्रव्यमां ज रमे छे.
प्रश्नः– जो एम छे तो, जो देव-गुरु आदि आत्माने तारी देता नथी तो नाहक तेमने शा माटे मानो छो? (एम के एमनी भक्ति-पूजा-स्तुति-विनय शा सारु करो छो?)
उत्तरः– भाई! ए तारी देशे एम तो कोण माने? अज्ञानी माने. ज्ञानीने तो परम वीतरागता-परम शुद्धता ज ईष्ट छे. पण शुं थाय? ज्यांसुधी पूर्ण वीतरागता थई नथी, कांईक अस्थिरता छे, त्यांसुधी धर्मीने देव-गुरु-शास्त्र प्रति विनय-भक्ति
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आ प्रमाणे परद्रव्य-अपेक्षाथी नास्तित्वनो (-असत्पणानो) भंग कह्यो.
हवे सातमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-
‘पशुः’ पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, ‘भिन्न–क्षेत्र–निषण्ण–बोध्य– नियत–व्यापार–निष्ठः’ भिन्न क्षेत्रमां रहेला ज्ञेयपदार्थोमां जे ज्ञेयज्ञायकसंबंधरूप निश्चित व्यापार तेमां प्रवर्ततो थको, ‘पुमांसम् अभितः बहिः पतन्तम् पश्यन्’ आत्माने समस्तपणे बहार (परक्षेत्रमां) पडतो देखीने (-स्वक्षेत्रथी आत्मानुं अस्तित्व नहि मानीने) ‘सदा सीदति एव’ सदा नाश पामे छे;....
जुओ, जेम तिर्यंचने चुरमु अने खड बे जुदी चीज छे एम भान-विवेक नथी, तेम अज्ञानीओने-एकांतीओने मकान, पैसा, शरीर आदि परद्रव्योनुं क्षेत्र भिन्न छे अने असंख्यप्रदेशी पोतानुं स्वक्षेत्र भिन्न छे एनो विवेक नथी. तेओ, अहीं कहे छे, पशु छे, पशु जेवा छे. मिथ्यात्वना खीले बंधाय छे ने! तेथी तेओ पशु छे. आवी वात भाई!
पोतानो जे एक ज्ञायकभाव छे ते स्वक्षेत्ररूप छे, अने परज्ञेयो बधा परक्षेत्ररूप छे. बन्ने भिन्न भिन्न छे. बन्ने वच्चे ज्ञेय-ज्ञायकपणानो व्यवहार संबंध हो, पण कांई ज्ञायक ज्ञेयरूप थई जतो नथी, ने ज्ञेयो ज्ञायकरूप थई जता नथी. आ वस्तुस्थिति छे. तोपण अज्ञानी प्राणी, परक्षेत्र-आकारे ज्ञाननी पर्याय थतां, आ मारी ज्ञान पर्याय छे एम न मानता, हुं परक्षेत्रमां चाल्यो गयो, ज्ञान परक्षेत्रमय थई गयुं-एम माने छे. अहा! पोते सदा प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप प्रभु छे. स्वपरने जाणवापणे थवुं ए एनो स्वभाव छे, तेथी सामे शरीर, बाग, बंगला ईत्यादि अनेक परक्षेत्रस्थित पदार्थो एना ज्ञानमां जणाय छे. ए जेमां जणाय छे ए स्वक्षेत्रमां रहेली ज्ञाननी अवस्थानो आकार छे, ए कांई परक्षेत्रनो आकार नथी. छतां अज्ञानी परक्षेत्रनुं ज्ञान थतां हुं बहार परक्षेत्रमां वह्यो गयो एम मानतो थको पोतानो नाश करे छे. समजाणुं कांई.......?
गिरनार, सम्मेदशिखर, शेत्रुंजो आदि तीर्थक्षेत्रे जाय त्यां ज्ञाननी पर्यायमां ए जणाय छे. ए जणातां अज्ञानी माने छे के मारी पर्याय ते क्षेत्रमय थई गई, अर्थात् ते ते क्षेत्रथी मारी पर्याय पवित्र थई गई. मने आ क्षेत्र वडे धर्मलाभ थयो. हवे परक्षेत्रथी पवित्रता ने लाभ थवा माने ते पोताने परक्षेत्ररूप करे छे. ते कहे छे- घेर बेठां बेठां कांई भगवान मळे? ए तो सिद्धक्षेत्रे जईए तो मळे. हवे आवा ने आवा मूढ भेगा थया छे बधा; परक्षेत्रथी पोतामां लाभ-धर्म थाय अने भगवान मळे एम
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माननारा बधा मूढ छे भाई! शुं अंतरंगमां स्वक्षेत्रमां पवित्रता प्रगटे छे ए परक्षेत्रथी प्रगटे छे? एम छे नहि. घरमां रहे, चाहे तीर्थक्षेत्रे जाय, परक्षेत्रथी लाभ-धर्म थवो माननारने, परक्षेत्र मने ठीक छे एम माननारने, कोई लाभ थतो नथी. ते मिथ्यात्वथी ज बंधाय छे.
प्रश्नः– तो धर्मात्मा पण तीर्थक्षेत्रनी वंदनाए जाय छे? उत्तरः– ए तो एवो एने शुभभाव आवे छे. ते अस्थिरताजन्य धर्मानुराग छे, पण एनाथी पोताने धर्म थाय छे, पवित्रतानी वृद्धि थाय छे एम ते मानता नथी. समजाणुं कांई.....?
आत्मानुं-पोतानुं स्वक्षेत्र अंदरमां छे. अहा! जेटलामां पोतानुं ज्ञान अने आनंदस्वरूप रहेलुं छे ते एनुं स्वक्षेत्र छे अने त्यां ज एनुं होवापणुं छे. एना स्वक्षेत्रमां ज एना गुणो-धर्मो रहेला छे, परक्षेत्रमां एना कोई गुणो के पर्यायो नथी. आ शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय, बाग-बंगला, समोसरण के तीर्थक्षेत्र इत्यादि परक्षेत्रमां एना कोई गुण-पर्यायो नथी. अहा! आवुं बधुं ज पोतानुं अस्तिपणुं स्वक्षेत्रमां होवा छतां, भिन्नक्षेत्रे रहेला पदार्थो-ज्ञेयो ज्ञानमां जणातां हुं परक्षेत्रथी छुं, मने परक्षेत्रथी आनंद छे एम मूढ जीव माने छे. तेने कहीए -
अरे भाई! लौकिकमां पण कहे छे के- बीजाने घेर चैन न पडे, त्यां सरखी ऊंघ न आवे; ए तो घरे आवे त्यारे ज चैन पडे ने निरांते ऊंघ आवे. तो पछी भाई! आ तुं परक्षेत्रमां-शरीरादिमां क्यां गरी गयो? त्यां तने सुख नहि थाय, आनंद नहि मळे. आनंदनो भंडार अंदर तारुं स्वक्षेत्र छे, त्यां जा, तुं सुखी थईश. आ सिवाय परक्षेत्रमां तो भटकी-भटकीने महादुःखी थईश, नाश पामीश. अरे! स्वक्षेत्रने छोडी परक्षेत्रमां व्यापेलो छुं एम मानी अज्ञानी पोतानो नाश करे छे!
‘स्याद्वादवेदी पुनः’ अने स्याद्वादनो जाणनार तो, ‘स्वक्षेत्र–अस्तितया– निरुद्ध–रभसः’ स्वक्षेत्रथी अस्तिपणाने लीधे जेनो वेग रोकायेलो छे एवो थयो थको (अर्थात् स्वक्षेत्रमां वर्ततो थको), ‘आत्म–निखात–बोध्य–नियत–व्यापार–शक्तिः भवन्’ आत्मामां ज आकाररूप थयेलां ज्ञेयोमां निश्चित व्यापारनी शक्तिवाळो थईने, ‘तिष्ठति’ टके छे -जीवे छे (नष्ट थतो नथी).
शुं कीधुं? साचो धर्म पाम्यो छे ते स्याद्वादी तो एम जाणे छे के-परक्षेत्रनुं जाणपणुं मारी पर्यायमां थतुं होवा छतां हुं परमां जतो नथी, हुं तो मारामां ज रहेलो छुं ज्यां मारो सच्चिदानंद प्रभु बिराजे छे त्यां हुं मारामां ज छुं. आवुं मानतो धर्मी, जेनो वेग परक्षेत्रमां जतो अटकी गयो छे तेथी स्वक्षेत्रमां ज रहेतो थको आनंदना पाकने प्रगट अनुभवे छे.
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धर्मी आत्मामां ज आकाररूप थयेलां ज्ञेयोमां निश्चित व्यापारनी शक्तिवाळो थईने टके छे-जीवे छे. एटले शुं? के पोताना स्वक्षेत्रमां ज उत्पन्न थयेली ज्ञान पर्यायमां परक्षेत्रनुं ज्ञान थवा छतां, हुं ज मारा ज्ञानमां छुं, मारा ज्ञानमां परक्षेत्रनो प्रवेश नथी- एम पोतामां-परक्षेत्रने जाणवारूप विशेषता थई तेना व्यापारनी शक्तिवाळो थईने पोते जीवे छे, नष्ट थतो नथी. बहु झीणुं भाई! परक्षेत्रने जाणवा छतां, पर्याय परनी नथी, मारा स्वक्षेत्रमां उत्पन्न थयेली मारी पर्याय छे, ते निज शक्तिना व्यापाररूप छे. ल्यो, आम निजशक्तिना व्यापारमां (निजशक्तिरूप परिणमनमां) रहीने धर्मी पोताना जीवनने टकावी राखे छे.
आ बोलो तो भाई! एकला सूक्ष्म न्यायथी भरेला छे. आमां कोई दाखलो नथी. पशु कहीने तो अज्ञाननुं भारे माठुं फळ बताव्युं छे, बाकी दाखलो नथी. अज्ञानी जीवो मिथ्यात्वना आवरणथी बंधाय छे ते पशु जेवा छे. एम के एमना परिणाम पशुना जेवा छे. ल्यो, आवी वात!
‘एकांतवादी भिन्न क्षेत्रमां रहेला ज्ञेयपदार्थोने जाणवाना कार्यमां प्रवर्ततां आत्माने बहार पडतो ज मानीने, (स्वक्षेत्रथी अस्तित्व नहि मानीने,) पोताने नष्ट करे छे;.........
अहाहा.....! शुं कीधुं? के एकांतवादी भिन्नक्षेत्रमां-परक्षेत्रमां रहेला शरीरादि ज्ञेयपदार्थोने जाणतां मारी पर्याय शरीरादिना परक्षेत्ररूप थई गई एम माने छे. परज्ञेयोने जाणवारूप आकारे पोतानी ज पर्याय थई छे एम न मानतां, जाणवापणे प्रवर्तता ज्ञानने-आत्माने बहार पडतो मानीने अज्ञानी पोताना अस्तिपणानो लोप करे छे, नाश करे छे. अहा! पोतामां जे परज्ञेयनुं ज्ञान थाय ते परने लईने छे एम माननार अज्ञानी पोताने परक्षेत्ररूप ज करे छे; ते स्वक्षेत्रनो नाश कल्पीने पोतानो नाश करे छे.
केटलाक कहे छे ने के-तीर्थक्षेत्रमां जईए तो शान्ति मळे, अहीं धंधाना स्थानमां तो अशान्ति ज अशान्ति रहे छे. तेने कहीए-भाई! तीर्थक्षेत्रे जाय तोय धूळेय शान्ति न मळे. तीर्थक्षेत्रेय भाई! तुं अनंतवार गयो, भगवानना समोसरणमां पण अनंतवार गयो, पण परक्षेत्रथी एकत्व ना गयुं तेथी बधुं ज फोगट गयुं. अज्ञानी परक्षेत्रथी लाभ थवानुं मानीने, तेने जाणतां परक्षेत्रमय थई जाय छे अने ए रीते पोताने ज नष्ट करे छे. समजाय छे कांई......?
भाई आ तो एकला मिथ्यात्व, अने तेना अभावरूप सम्यक्त्वनी वात छे. हवे कहे छे- ‘अने स्याद्वादी तो, परक्षेत्रमां रहेलां ज्ञेयोने जाणतां पोताना क्षेत्रमां
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रहेलो आत्मा स्वक्षेत्रथी अस्तित्व धारे छे-एम मानतो थको टकी रहे छे-नाश पामतो नथी.’
शुं कीधुं? के परक्षेत्रनुं ज्ञान स्वक्षेत्रमां थवा छतां आत्मा पोताना ज क्षेत्रमां रहेतो, परक्षेत्ररूपे पोते थयो ज नथी एम जाणतो स्याद्वादी-धर्मी टकी रहे छे, नाश पामतो नथी. परक्षेत्रने जाणवा छतां पोते तो सदाय स्वक्षेत्रना अस्तित्वमय ज छे एम स्वक्षेत्रस्थित निजस्वरूपने जाणतो-अनुभवतो धर्मी जिवित रहे छे.
आ प्रमाणे स्वक्षेत्रथी अस्तित्वनो भंग कह्यो.
हवे आठमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-
‘पशु’ पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, ‘स्वक्षेत्रस्थितये पृथग्विध– परक्षेत्र–स्थित–अर्थं–उज्झनात्’ स्वक्षेत्रमां रहेवा माटे जुदा जुदा परक्षेत्रमां रहेला ज्ञेय पदार्थोने छोडवाथी, ‘अर्थैः सह चिद्–आकारान् वमन्’ ज्ञेय पदार्थोनी साथे चैतन्यना आकारोने पण वमी नाखतो थको (अर्थात् ज्ञेय पदार्थोना निमित्ते चैतन्यमां जे आकारो थाय छे तेमने पण छोडी देतो थको) ‘तुच्छीभूय’ तुच्छ थईने ‘प्रणश्यति’ नाश पामे छे;..........
शुं कहे छे? आ आत्मा पोताना असंख्यप्रदेशी स्वक्षेत्रमां पोताथी ज रहेलो छे. पोतानी पर्यायमां एने जे परक्षेत्रनुं ज्ञान थाय छे ए तो एनो पोतानो स्वभाव छे. परक्षेत्रने जाणवापणे ज्ञानाकार थयो ते स्वक्षेत्रस्थित पोतानी ज ज्ञाननी दशा छे; एमां कांई परक्षेत्र पेसी गयुं छे के पोते परक्षेत्रमां गयो छे एम नथी. आम वस्तुस्थिति होवा छतां, स्वक्षेत्रमां रहेवाना आशयथी, परक्षेत्रमां रहेला ज्ञेयपदार्थोनुं जे पोतानुं ज्ञान तेने छोडी दउं तो स्वक्षेत्रमां रही शकुं एम मानीने अज्ञानी-एकांतवादी ज्ञेय पदार्थोनी साथे चैतन्यना आकारोने-निज ज्ञानाकारोने पण वमी नाखे छे, छोडी दे छे. आ प्रमाणे ज्ञानाकारोथी तुच्छ थयो थको ते पोतानो नाश करे छे.
अहा! एकांती पोताना आत्माने द्रष्टिमां लेतो नथी. तेने संतो कहे छे- अरे भगवान! तुं तो तारा, असंख्यप्रदेशी स्वक्षेत्रमां ज रह्यो छुं ने! आ परक्षेत्रसंबंधी ज्ञान तो तारा ज्ञानस्वभावना कारणे थाय छे, परक्षेत्रना कारणे कांई ए थाय छे एम नथी, तारा क्षेत्रमां कांई परक्षेत्र-परज्ञेयो पेसी गया छे एम नथी; वा तारुं ज्ञान परक्षेत्रमय थई गयुं छे एम नथी. परक्षेत्रने जाणनारुं ज्ञान ते पोताना स्वप्रदेशमां थयेली पोतानी ज ज्ञाननी दशा छे. ल्यो, आवी वात! तोपण एकान्ती पोतानी ज्ञाननी