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पण शरीरनी निरोगता होय तो धर्म थई शके ने? एम नथी भाई! शरीरनी निरोगता होय तो मननी स्फुर्ति रहे ने धर्म थई शके एम मानी अज्ञानी शरीरथी एकत्व करे छे, पण ए तो अशोभा छे, कलंक छे भाई! केमके शरीरथी एकत्व छे ए ज मिथ्यात्वनुं महाकलंक छे. ज्ञानी तो रोगना काळे पण हुं रोगनी दशानो जाणनार मात्र छुं एम जाणी पोताना शुद्ध स्वभावमां रहेतो थको उज्ज्वळ पवित्र शोभाने पामे छे. ल्यो, आवी वातु छे.
आ प्रमाणे परभाव-अपेक्षाथी नास्तित्वनो भंग कह्यो.
हवे तेरमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-
‘पशुः’ पशु अर्थात् एकांतवादी अज्ञानी, ‘प्रादुर्भाव– विराम–मुद्रित–बहत्– ज्ञान–अंश–नाना–आत्मना निर्ज्ञानात्’ उत्पाद-व्ययथी लक्षित एवा जे वहेता (- परिणमता) ज्ञानना अंशो ते-रूप अनेकात्मकपणा वडे ज (आत्मानो) निर्णय अर्थात् ज्ञान करतो थको, ‘क्षणभङ्ग–सङ्ग–पतितः’ क्षणभंगना संगमां पडेलो, ‘प्रायः नश्यति’ बाहुल्यपणे नाश पामे छे;........
जुओ, शुं कीधुं? के आत्मा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त सत् छे. एटले शुं? के ते ध्रुवपणे नित्य टकतो एवो नवी नवी अवस्थापणे उत्पन्न थाय छे, ने पूर्वपूर्व अवस्थापणे नाश पामे छे. आम एक समयमां अनंतगुणनी अनंती पर्यायो उत्पन्न थाय छे, अने बीजे समये तेनो व्यय थई जाय छे. आ वस्तुनो पर्यायधर्म छे. आम आत्मा नित्य-अनित्य बन्नेरूप छे. छतां अज्ञानी उत्पाद-व्ययथी लक्षित अर्थात् उत्पाद-व्ययथी जाणवामां आवता ज्ञाननां अंशरूप अनित्य भावोमां ज एकांते आ आत्मा छे एम निर्णय करे छे, एम माने छे. अहाहा.....! शुं कीधुं? के क्षणभंगना संगमां पडेलो-अनित्य पर्यायना संगमां पडेलो ते आ उत्पाद-व्ययरूप पर्याय जेटलो ज हुं आत्मा छुं एम माने छे. ते पोतानो जे ध्रुव नित्यपणानो स्वभाव छे तेने मानतो ज नथी. पोताना नित्य स्वभावने द्रष्टिओझल करी, आ उत्पाद-व्ययथी लक्षित एवा वहेता जे ज्ञानना अंशो ते ज हुं आखो आत्मा छुं एम ते
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माने छे. ज्ञानी तो नित्यनी द्रष्टिपूर्वक पर्यायमां उत्पाद-व्यय थाय छे एम माने छे. परंतु अज्ञानी एकांते अनित्य पर्यायने ज पोतानुं स्वरूप मानीने नाश पामे छे.
‘क्षणभंगना संगमां पडेलो’ एटले शुं? क्षणे उत्पन्न थाय अने क्षणे नाश पामे ते पर्याय-तेना संगमां पडेलो एटले ते अनित्य पर्याय जेटलो ज हुं छुं एम पोताने क्षणिक मानतो-अहाहा...! अज्ञानी नाश पामे छे. त्यां वस्तु नाश पामती नथी, पण जेवी वस्तु छे तेवी अज्ञानी मानतो नथी, एकांते अन्यथा माने छे तेथी मिथ्यात्वभाव वडे चारगतिमां क्यांय (निगोदादिमां) खोवाई जाय छे. समजाणुं कांई....?
हवे कहे छे- ‘स्याद्वादी तु’ अने स्याद्वादी तो ‘चिद्–आत्मना चिद्–वस्तु नित्य–उदितं परिमृशन्’ चैतन्यात्मकपणा वडे चैतन्यवस्तुने नित्य-उदित अनुभवतो थको, ‘टङ्कोत्कीर्ण –धन–स्वभाव–महिम ज्ञानं भवन्’ टंकोत्कीर्णघनस्वभाव (- टंकोत्कीर्णपिंडरूप स्वभाव) जेनो महिमा छे एवा ज्ञानरूप वर्ततो, ‘जीवति’ जीवे छे.
अहाहा....! पर्यायथी उत्पाद-व्यय थवा छतां मारी चीज पर्यायमात्र नथी, हुं पर्याय जेटलो नथी, हुं तो त्रिकाळ ध्रुव टंकोत्कीर्ण-शाश्वत जेना स्वभावनो महिमा छे एवी शुद्ध चैतन्यवस्तु आत्मा छुं-एम धर्मी पोताना नित्य-उदित स्वभावने अनुभवतो थको, ज्ञानरूप वर्ततो, जीवे छे, नाश पामतो नथी.
एकांतवादी ज्ञेयोना आकार अनुसार ज्ञानने उपजतुं -विणसतुं देखीने अनित्य पर्यायो द्वारा आत्माने सर्वथा अनित्य मानतो थको, पोताने नष्ट करे छे; अने स्याद्वादी तो, जो के ज्ञान ज्ञेयो अनुसार उपजे-विणसे छे तोपण, चैतन्यभावनो नित्य उदय अनुभवतो थको जीवे छे-नाश पामतो नथी.
आ प्रमाणे नित्यत्वनो भंग कह्यो.
हवे चौदमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-
‘पशुः’ पशु अर्थात् एकांतवादी अज्ञानी, ‘टंङ्कोत्कीर्ण–विशुद्ध–बोध–विसर– आकार–आत्म–तत्त्व– आशया’ टंकोत्कीर्ण विशुद्ध ज्ञानना फेलावरूप एक-आकार (सर्वथा नित्य) आत्मतत्त्वनी आशाथी, ‘उच्छलत्–अच्छ– चित्परिणतेः भिन्न किञ्चन वाञ्छति’ उछळती निर्मळ चैतन्यपरिणतिथी जुदुं कांईक (आत्मतत्त्वने) इच्छे छे (परंतु एवुं कोई आत्मतत्त्व छे नहि);
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आत्मा ध्रुवपणे त्रिकाळी नित्य छे अने अवस्थापणे क्षणे क्षणे बदले छे, अनित्य छे. आवुं ज नित्य-अनित्य एनुं स्वरूप छे. परंतु एकान्तवादी पशु जेवो अज्ञानी, टंकोत्कीर्ण विशुद्धज्ञानना फेलावरूप एक-आकार सर्वथा नित्य आत्मतत्त्वनी आशा करे छे. शुं कीधुं आ? के पर्यायमां जे अनेक-आकार ज्ञाननी दशा थाय ए कांई (वस्तु) नहि, मने तो नित्य ध्रुव एक-आकार जोईए-एम अज्ञानी ईच्छे छे. अनेक-आकाररूप ज्ञाननी परिणति थती होवा छतां, एनाथी रहित हुं एकलो ध्रुव केम रहुं? एम ध्रुव नित्य तत्त्वनी आशाथी अज्ञानी वर्तमान वर्तती पर्यायनो उच्छेद करे छे, उथापे छे. अहाहा.....! टंकोत्कीर्ण विशुद्धज्ञान अर्थात् शाश्वत शुद्ध एक ज्ञान जे ध्रुव नित्य छे तेने लक्षमां लेवा अज्ञानी वर्तमान पर्याय जे अनेकपणे परिणमे छे तेने उडावी दे छे. अहा! एने खबर नथी के नित्यनो निर्णय करनारी तो वर्तमान अवस्था -पर्याय छे. आम वर्तती पर्यायने अवगणीने ते ध्रुव तत्त्व एवा चैतन्यमय आत्माने नहि पामतो पोतानो नाश करे छे.
अहाहा.....! अज्ञानी, ‘उच्छलत् अच्छ–चित्परिणतेः भिन्नं किञ्चन वाञ्छति’ आत्मानी वर्तमान दशामां ज्ञानादिनी अनेक निर्मळ अवस्थाओ उछळे छे एनाथी भिन्न कांईक पोतानुं तत्त्व छे एने ईच्छे छे. अहा! एक-आकार सर्वथा नित्य आत्मतत्त्वने वांछनारो तेनी वर्तमान ज्ञानादि जे अवस्थाओ थाय छे तेने छोडी दे छे अर्थात् पर्यायथी कांईक जुदुं आत्मतत्त्व छे एम मानीने एवा आत्मतत्त्वनी वांछा करे छे. पण परिणामी परिणाम विना अने परिणाम परिणामी विना संभवित ज नथी, होई शकतां ज नथी. अरे भाई! परिणाम परिणामीनुं छे, अवस्था अवस्थायीनी छे, पर्याय पर्यायवान द्रव्यनी छे. पर्यायथी जुदुं (अलग) आत्मतत्त्व तुं शोधवा जाय पण ए तो छे नहि. तेथी अनित्य पर्यायने छोडी दईने तुं पोतानो ज नाश करे छे, केमके तने वांछित जे ध्रुव, नित्य आत्मतत्त्व तेनो निर्णय, तेनुं परिज्ञान अनित्य पर्यायमां ज थाय छे.
आ शरीर, मन, वाणी, ईन्द्रिय-ए तो परद्रव्यरूप छे; ए प्रत्यक्ष भिन्न छे तेथी एनी साथे आत्माने कोई संबंध नथी. तेथी अहीं एनी वात नथी. अहीं तो वस्तुमां आत्मामां नित्य ने अनित्य-एम बे पडखां छे एनी वात छे. ध्रुव त्रिकाळी द्रव्यरूपथी आत्मा नित्य छे, ने पर्यायरूपथी ते बदले छे, अनित्य छे. त्यां बदलती दशाने जोईने एकांतवादी तेनो त्याग करीने मारे तो ध्रुव नित्य आत्मतत्त्व जोईए एम वांछा करे छे. पण, अहीं कहे छे, एवी कोई वस्तु नथी. नित्य ध्रुव जुदुं, ने पर्याय जुदी -एवी कोई वस्तु नथी. भले पर्याय त्रिकाळीरूप नथी; पण परिणाम -पर्याय परिणामी द्रव्यनुं ज छे, परिणाम परिणामीथी भिन्न नथी; केमके बन्नेना प्रदेशो एक छे. असंख्य प्रदेशमां जेटलामां परिणाम उठे छे ए क्षेत्रनो अंश अने त्रिकाळी ध्रुवना असंख्य प्रदेशोनो अंश - ए बन्ने भिन्न गणवामां आव्या छे ए बीजी अपेक्षाए वात छे. पण जेम आ बे आंगळी भिन्न छे तेम परिणाम-परिणामी भिन्न नथी. तेथी पर्यायभावने छोडी
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दईने असंख्यप्रदेशी एक अखंड प्रदेशमां अनंत गुणधाम एवा ध्रुव आत्मानी आशाए एने ज्यां तपासवा जाय छे त्यां अज्ञानी भोंठो पडे छे, अर्थात् एने कांई ज हाथ आवतुं नथी, केमके पर्याय विनानुं ध्रुव होई शकतुं ज नथी. अहा! पर्यायथी रहित जुदुं ए ध्रुव जोवा जाय पण एने क्यां जोवा मळे?
प्रश्नः– तो आप कहो छो के -ध्रुवमां पर्याय नथी, ने पर्यायमां ध्रुव नथी. ए शुं छे?
उत्तरः– ए बीजी अपेक्षाए वात छे भाई! एक समयनी अवस्थानो अंश ते त्रिकाळीध्रुवरूप नथी, ने त्रिकाळी ध्रुव एक समयनी अवस्थारूप थई जतो नथी एम परस्पर अन्यतानी वात छे. ए तो समयसार गाथा ४९ मां ‘अव्यक्त’ ना पांचमां बोलमां आवे छे के- “व्यक्तपणुं तथा अव्यक्तपणुं भेळा मिश्रितरूपे तेने प्रतिभासवा छतां पण ते व्यक्तपणाने स्पर्शतो नथी माटे अव्यक्त छे.” त्यां तो (निश्चये) अभेद एक ध्रुव तत्त्व केवुं छे ते सिद्ध करवुं छे तो कह्युं के- ध्रुव एक समयना अंशमां -पर्यायमां नथी-पर्यायने स्पर्शतुं नथी, ने पर्याय ध्रुवमां नथी-ध्रुवने स्पर्शती नथी. पण अहीं ए वात नथी. अही तो एकांतवादी पर्यायरहित एकला ध्रुवनी आशा करीने बेठो छे, तेने कहीए छीए के-भाई! तुं पर्याय विनानुं ध्रुव जोवा जाश पण तने कांई हाथ नहि आवे, केमके एक तो पर्यायरहित ध्रुव होतुं ज नथी, अने ध्रुवनो निर्णय करनारी पर्याय छे, ध्रुव (कांई) ध्रुवनो निर्णय करतुं नथी. समजाणुं कांई....? अहो! आचार्यदेवे चीज जेवी छे तेवी दीवा जेवी चोकखी बतावी छे. अहीं तो कहेवुं छे के परिणाम अने परिणामी बे चीज एक वस्तुना अंशो छे. भाई! सर्वज्ञ परमेश्वरे कहेलुं तत्त्व बहु गूढ-सूक्ष्म छे भाई! अपूर्व अंतर-पुरुषार्थथी जणाय एवुं छे.
अहाहा.....! आत्मा सच्चिदानंद प्रभु सत् नाम शाश्वत ज्ञान ने आनंदनी त्रिकाळ ध्रुवता धरनारुं तत्त्व छे. एनी वर्तमान दशामां कार्य-पर्याय जे थाय छे ते एनी चीज छे, एनाथी अभिन्न छे. पंचास्तिकायमां आवे छे के- पर्याय रहित द्रव्य ने द्रव्यरहित पर्याय कोई चीज नथी. आ वस्तुस्थिति छे. तथापि अनित्य पर्यायने अनेकरूप परिणमती देखीने, आ (-पर्याय) हुं नहि एम मानीने, अज्ञानी एनाथी जुदा ध्रुव आत्मतत्त्वने शोधवा जाय छे, पण एने कांई नजरमां आवतुं नथी. जेम द्रष्टि-आंख फोडीने देखवा जाय एने कांई देखातुं नथी. तेम वर्तमान नजर-पर्यायने उडाडीने ध्रुव तत्त्व जोवा जाय तेने कांई ज जणातुं नथी. पण शुं जणाय? जोनारी नजर-पर्याय ज नथी त्यां शुं जणाय? वेदांतादि मतवाळा जे वस्तुने सर्वथा फूटस्थ माने छे, पर्यायने मानता ज नथी तेमने वस्तुतत्त्वनी कदीय उपलब्धि थती नथी.
हवे आवी वात समजवी आकरी पडे एटले लोको दया, दान, व्रत, भक्ति,
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हवे कहे छे- ‘स्याद्वादी’ अने स्याद्वादी तो, ‘चिद्–वस्तु–वृत्ति–क्रमात् तद्– अनित्यतां परिमृशन’ चैतन्य वस्तुनी वृत्तिना (-परिणतिना, पर्यायना) क्रम द्वारा तेनी अनित्यताने अनुभवतो थको, ‘नित्यं ज्ञानं अनित्यता–परिगमे अपि उज्जवलम् आसादयति’ नित्य एवा ज्ञानने अनित्यताथी व्याप्त छतां उज्ज्वळ (-निर्मळ) माने छे- अनुभवे छे.
अहाहा! भगवान आत्मा ज्ञान, दर्शन, आनंद आदि जेनो स्वभाव छे एवो ज्ञानानंद-नित्यानंद प्रभु अस्तिरूप महापदार्थ छे. एनी वर्तमान दशा क्रमथी थाय छे. पर्यायनुं लक्षण ज क्रमवर्तीपणुं छे. क्रमवर्ती एटले शुं? पर्याय पलटीने बीजी थाय मात्र एम नहि, परंतु पलटीने जे काळे जे थवानी होय ते ज थाय. प्रवचनसारमां मोतीना हारनो दाखलो आप्यो छे. जेम १०८ मोतीनो हार होय तेमां बधांय १०८ मोती-प्रत्येक पोतपोताना स्थानमां प्रकाशे छे. तेमां कोई आडुं-अवळुं के आगळ-पाछळ करवा जाय तो हार तूटी जाय. तेम आत्मामां त्रिकाळवर्ती सर्व पर्यायो-प्रत्येक पोतपोताना स्थानमां (- स्वकाळमां) प्रकाशे छे. एटले शुं? के जे अवस्था जे काळे प्रगट थवानी होय ते काळे ते ज प्रगट थाय. कोई आगळ-पाछळ के आडी-अवळी न थाय. आवुं पर्यायोनुं क्रमवर्तीपणुं धर्मी जाणे छे तेथी क्रम द्वारा तेनी अनित्यताने जाणतो थको, वस्तु जे नित्य छे ते अनित्यताथी व्याप्त होवा छतां, तेने उज्ज्वळ-निर्मळ अनुभवे छे, वस्तु वस्तुपणे त्रिकाळी नित्य होवा छतां धर्मी पुरुष पर्यायमां अनेकरूपता क्रमसर थाय छे तेने जाणे छे, अने छतां अनेक अवस्थाओ छे माटे हुं अनेकरूप, मलिन, अशुद्ध थई गयो एम नहि मानतो थको ते नित्य शुद्ध आत्मस्वरूपने अनुभवे छे.
भाई! वस्तु जे नित्य छे ते ज अनित्य छे, ने जे अनित्य छे ते ज नित्य छे- आवुं प्रमाणज्ञान ज्यां सुधी न थाय त्यां सुधी पर्यायमां निर्मळता-धर्म प्रगट थतो नथी.
धर्मी जीव आत्मानी वर्तमान दशामां क्रमवर्तीपणे जे अनित्यता वर्ते छे तेने जाणतो थको, अवस्थामां एक पछी एक पर्याय थाय छे एनाथी सहित होवा छतां,
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पोताना नित्य पवित्र स्वभावने एकने निर्मळ अनुभवे छे. पर्यायनुं बदलवुं छे छतां सर्वथा अनित्य अने अनेकरूप थई गयो एम धर्मी कदी मानतो नथी.
‘एकांतवादी ज्ञानने सर्वथा एकाकार-नित्य प्राप्त करवानी वांछाथी, उपजती- विणसती चैतन्यपरिणतिथी जुदुं कांईक ज्ञानने इच्छे छे, परंतु परिणाम सिवाय जुदो कोई परिणामी तो होतो नथी......’
अहाहा...! एक ज धर्मने जोनारो एकांतवादी, चैतन्यनी जे अनेकरूप परिणति थाय तेने उपाधि माने छे. तेने दूर करीने ते सर्वथा नित्य आत्मतत्त्वने प्राप्त करवा मागे छे. पण चैतन्यनी परिणतिथी जुदुं एवुं कोई आत्मतत्त्व छे नहि, केमके परिणाम विनानो जुदो कोई परिणामी होतो नथी. तेथी एकांतवादीने चैतन्य ध्रुव तत्त्वनी प्राप्ति थती नथी.
वळी अज्ञानी परिणाम पोताथी थाय छे एम मानतो नथी. जुदी जुदी परिणति थाय छे ते परने लईने थाय छे एम माने छे. हवे जो परिणाम परथी थया तो शुं आत्मा परिणाम विनानो छे? शुं परिणमवुं ए आत्मानो स्वभाव नथी? परिणामथी जुदो कोई परिणामी होतो तो नथी.
आत्मा नित्य अपरिणामी छे एम कह्युं ए तो द्रव्यस्वभावनी द्रष्टि कराववाना प्रयोजनथी कह्युं हतुं. परंतु द्रष्टि करनार तो पर्याय छे. तेथी उछळती परिणतिने न माने अने एनाथी रहित आत्मतत्त्वने इच्छे तो एने ते क्यांथी मळे? न मळे; केमके एवुं कोई पृथक् ज्ञान-आत्मतत्त्व छे नहि. भाई! पर्यायथी दूर-जुदुं कोई द्रव्य छे एम छे नहि. अंशमां अंशी नथी, अंशीमां अंश नथी-ए तो अभेदनी द्रष्टि करवा अपेक्षाथी कथन छे, बाकी परिणाम क्यांय रहे छे, ने परिणामी बीजे क्यांक छे एम बेनो क्षेत्रभेद छे नहि. त्रिकाळी ध्रुव ज्यां (जे असंख्य प्रदेशमां) छे त्यां ज एनी दशा छे. आ वास्तविक स्थिति छे. हवे आ न समजाय एटले लोको रागमां चढी जाय. पण भाई! राग तो आग छे बापा! ए तो तारा आत्मानी शांतिने बाळीने ज रहेशे. समजाणुं कांई.....?
‘स्याद्वादी तो एम माने छे के - जो के द्रव्ये ज्ञान नित्य छे तोपण क्रमशः उपजती-विणसती चैतन्य परिणतिना क्रमने लीधे ज्ञान अनित्य पण छे; एवो ज वस्तुस्वभाव छे.’
जुओ, आत्मा द्रव्ये नित्य होवा छतां पर्याये अनित्य छे, ने पर्याये अनित्य होवा छतां द्रव्ये नित्य छे. ल्यो, आवुं यथार्थ माने एनुं नाम स्याद्वादी-अनेकांतवादी
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अनादि-अनंत त्रिकाळ ध्रुव ज छे. वस्तु अपेक्षा एने कोईए उपजाव्यो नथी. सत् छे ने? एने कोण उपजावे? अने सत्नो नाश केवो? सत् तो त्रिकाळ सत् ज छे. आम वस्तुपणे नित्य छे तोपण क्रमेक्रमे उपजती-विणसती चैतन्यनी अवस्थाओनी अपेक्षा ज्ञान-आत्मा अनित्य पण छे. आवो ज वस्तुनो स्वभाव छे. स्याद्वादी एने यथार्थ जाणतो थको नित्यस्वभावना आलंबननी द्रष्टि वडे जिवित रहे छे-नाश पामतो नथी आवी वातु छे.
आ प्रमाणे अनित्यत्वनो भंग कह्यो.
‘पूर्वोक्त रीते अनेकान्त, अज्ञानथी मूढ थयेला जीवोने ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व प्रसिद्ध करी दे छे- समजावी दे छे’ एवा अर्थनुं काव्य हवे कहेवामां आवे छेः-
‘इति’ आ रीते ‘अनेकान्तः’ अनेकांत अर्थात् स्याद्वाद ‘अज्ञान–विमूढानां ज्ञानमात्रं आत्मतत्त्वं प्रसाधयन्’ अज्ञानमूढ प्राणीओने ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व प्रसिद्ध करतो ‘स्वयमेव अनुभूयते’ स्वयमेव अनुभवाय छे.
जुओ, अहीं अनेकान्तनो अर्थ स्याद्वाद कर्यो छे. वास्तवमां अनेकान्त वस्तुनुं स्वरूप छे, अने स्याद्वाद वस्तुना अनेकान्त स्वरूपनो (द्योतक) बतावनारो छे. ‘स्यात्’ कहेतां अपेक्षाओ (जे धर्म वस्तुमां होय ते अपेक्षाए) वाद कहेतां वचन-कथन. आ रीते स्याद्वाद ते अनेकान्तस्वरूप वस्तुने कहेनारी वचन-पद्धति छे. जेमके-आत्मा नित्य छे तो कथंचित्-द्रव्य अपेक्षाए नित्य छे; आत्मा अनित्य छे तो कथंचित्-पर्याय अपेक्षाए अनित्य छे. आम स्याद्वाद, अपेक्षाथी कथन करीने अनेकान्त-वस्तुने सिद्ध करे छे, वस्तुना यथार्थ स्वरूपने बतावे छे.
अहीं कहे छे-आ रीते अनेकान्त, अज्ञानथी विमूढ प्राणीओने, ज्ञानमात्र आत्मतत्त्वने प्रसिद्ध करतो स्वयमेव अनुभवाय छे. अहाहा....! हुं स्वस्वरूपी- ज्ञानस्वरूपथी छुं ने पररूपथी नथी एम तत्-अतत् आदि धर्मो द्वारा अनेकान्त, अज्ञान- मूढ प्राणीओने ज्ञानमात्र आत्मा प्रसिद्ध करे छे एम स्वयमेव अनुभवाय छे. अहाहा...! अनेकान्तने जाणतां स्वस्वरूपवस्तु आत्मा स्वयमेव-पोतावडे ज अनुभवमां आवी जाय छे. वस्तुने-आत्माने जाणवारूप पर्याय स्वयमेव-पोताथी ज परिणमी जाय छे. हवे आमां लोकोने (-केटलाकने) ‘स्वयमेव’ शब्दना वांधा छे. एम के ‘स्वयमेव’ नो अर्थ पोते पोताथी ज एम नहि, पण पोतारूप-चेतन चेतनरूप ने जड जडरूप-परिणमे -एम लेवो जोईए. पण ए बराबर नथी. ‘स्वयमेव’ कहीने अहीं पोताथी ज, परथी नहि एम निश्चय कराववो छे.
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घणा वर्ष पहेलां जामनगरमां एक छोकराए पूछयुं’ तुं के-महाराज! तमे आत्मा देखो, ज्ञानमात्र वस्तुने देखो-एम कह्या करो छो पण ए देखवो केवी रीते? बहार देखीए तो आ बधुं (मात-पिता-परिवार, बाग-बंगला आदि) देखाय छे, ने अंदर (- आंख बंध करीने) देखीए तो अंधारुं देखाय छे; आत्मा तो देखातो नथी. तेने कहेलुं के -भाई! आ अंधारुं छे एम जाण्युं कोणे? अंधारामां कांई जणाय नहि, ने वळी अंधारुं अंधारा वडे जणाय नहि; तो अंधाराने जाण्युं कोणे? आ अंधारुं छे एम शा वडे जाण्युं? ज्ञान वडे; खरुं के नहि? अंधारानो जाणनार अंदर भिन्न ज्ञानस्वरूप आत्मा छे. अहाहा....! ज्यां अंधारुं जणाय छे त्यां ज जाणनार-ज्ञानप्रकाश छे. बीजी रीते कहीए तो आत्मा जणातो नथी एवो निर्णय कोणे कर्यो? भाई! ए निर्णय तारा ज्ञाननी भूमिकामां थयो छे. हुं नथी एम कहेतां ज हुं छुं एम एमां आवी जाय छे. (परस्वरूपथी हुं नथी एम जाणतां ज स्वस्वरूपथी हुं छुं एम सिद्ध थई जाय छे). देखतो नथी एम कहेतां ज देखनारो पोते छे एम निश्चय थाय छे. भाई! स्वस्वरूपमां अंतर्मुख द्रष्टि करे तो अवश्य देखनारो देखाय छे. समजाणुं कांई.....?
‘ज्ञानमात्र आत्मवस्तु अनेकान्तमय छे. परंतु अनादिकाळथी प्राणीओ पोतानी मेळे अथवा तो एकांतवादनो उपदेश सांभळीने ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व संबंधी अनेक प्रकारे पक्षपात करी ज्ञानमात्र आत्मतत्त्वनो नाश करे छे.’
‘ज्ञानमात्र आत्मवस्तु अनेकान्तमय छे.’ जुओ, शिष्यनो प्रश्न हतो के आत्माने ज्ञानमात्र कहेतां एकान्त तो थई जतुं नथी ने? तो कहे छे- ज्ञानमात्र आत्मवस्तु अनेकान्तमय छे. अहा! ज्ञानमात्र कहेतां ज आत्मा ज्ञानस्वरूपथी तत् अने परज्ञेयस्वरूपथी अतत्, स्वद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी सत् अने परद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी असत् ईत्यादि अनेक धर्मो आत्मामां सिद्ध थई जाय छे. हुं वस्तुपणे एक छुं एम कहेतां ज गुण-पर्यायथी अनेक छुं, तथा हुं द्रव्यरूपथी नित्य छुं एम कहेतां ज पर्यायरूपथी अनित्य छुं एम सिद्ध थई जाय छे. आम ज्ञानमात्र कहेतां आत्मावस्तु अनेकान्तमय सिद्ध थाय छे. अहा! आ चौद बोलथी आचार्यदेवे संक्षेपमां आत्मानुं वास्तविक दर्शन कराव्युं छे.
आमां तो भाई! निमित्तथी कार्य थाय ए वात ज उडी जाय छे. प्रश्नः– हा, पण परद्रव्य निमित्त-कर्ता तो छे ने? उत्तरः– परद्रव्यने निमित्त-कर्ता कहीए ए तो आरोपित कथन छे. वास्तवमां निमित्त कर्ता नथी. असद्भूत व्यवहारनयथी एने कर्ता कहेवामां आवे छे. पोते पोतानी
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भाई! प्रत्येक द्रव्यनी त्रणेकाळनी पर्यायो-पोतानी प्रत्येक पोताथी प्रगट थाय छे, परथी नहि. तेथी निमित्तथी उपादानमां कांई (विलक्षणता) थाय ए वात रहेती नथी. वळी आथी द्रव्यमां प्रगट थती प्रत्येक पर्याय पोताना स्वकाळे क्रमबद्ध प्रगट थाय छे एम सिद्ध थाय छे. पर्याय विकारी के निर्मळ हो, ते पोताना स्वकाळे क्रमबद्ध प्रगट थाय छे. पण एनुं यथार्थ ज्ञान क्यारे थाय? के ज्ञायकस्वभावनी अंतर्दष्टि थाय त्यारे. ज्ञानस्वभावनी अंतर प्रतीति थाय त्यारे ज क्रमबद्ध, भवितव्यता, काळलब्धि ने निमित्तादिनुं सम्यक् ज्ञान थाय छे.
परंतु अनादि काळथी प्राणीओ पोतानी मेळे अथवा तो एकांतवादनो उपदेश सांभळीने ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व संबंधी अनेक प्रकारे पक्षपात करी ज्ञानमात्र आत्मतत्त्वनो नाश करे छे. कोई सर्वथा पर्यायने ज आत्मा माने छे तो कोई सर्वथा नित्य ध्रुव द्रव्यने ज आत्मा कहे छे; कोई सर्वथा आत्माने एकरूप माने छे तो कोई सर्वथा अनेकरूप माने छे. वळी कोई स्व-परने एक करी माने छे. आम अनेक प्रकारे पक्षपात करी एकांतवादीओ पोताना आत्मतत्त्वनो नाश करे छे, अर्थात् वस्तुतत्त्वने प्राप्त थता नथी. अरे! जीवोने वस्तुनुं यथार्थ स्वरूप समजवानी दरकार नहि एटले शास्त्रना अर्थ पण पोतानी मति-कल्पनाथी करे छे; शास्त्रने खरेखर शुं कहेवुं छे ए समजवा प्रति पोतानी बुद्धिने दोरी जता नथी.
वळी केटलाक कहे छे-उपादानमां अनेक प्रकारनी योग्यताओ छे. एमां कई योग्यता कार्यरूप परिणमे ए निमित्तोने आधीन छे. जेवुं निमित्त आवे तेवुं कार्य थाय. हवे आवा जीवो पण कार्य परथी -निमित्तथी थवानुं माननारा छे. तेओ वस्तुना परिणमननुं जेवुं स्वरूप छे तेवुं यथार्थ मानता नथी. तेमना ज्ञानमांथी पण वस्तु- आत्मतत्त्व छूटी गयुं छे अर्थात् द्रष्टिमां तेओए आत्मतत्त्वनो नाश कर्यो छे. तेओ एकांतना झेरने पीने मूर्च्छित थई मूढपणे वर्तता संसारमां परिभ्रमे छे.
हवे कहे छे- ‘तेमने (अज्ञानी जीवोने) स्याद्वाद ज्ञानमात्र आत्मतत्त्वनुं अनेकान्तस्वरूपपणुं प्रगट करे छे-समजावे छे. जो पोताना आत्मा तरफ देखी अनुभव करी जोवामां आवे तो (स्याद्वादना उपदेश अनुसार) ज्ञानमात्र आत्मवस्तु आपोआप अनेक धर्मोवाळी प्रत्यक्ष अनुभवगोचर थाय छे.’
ज्ञानमात्र आत्मवस्तु कहेतां तेमां ज्ञान एक ज गुण छे एम नहि, एनी साथे दर्शन, सुख, वीर्य, अस्तित्व, नास्तित्व, वस्तुत्व आदि अनंत धर्मो होवानुं सिद्ध थाय छे. केवी रीते? तो कहे छे- जो पोताना आत्मा तरफ देखी अनुभव करीने जोवामां आवे
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तो ज्ञानमात्र वस्तु आपोआप अनेक धर्मयुक्त प्रत्यक्ष अनुभवगोचर थाय छे. अहाहा....! हुं स्वथी छुं ने परथी नथी, ज्ञानस्वरूपथी छुं ने परज्ञेयथी नथी एम यथार्थ वस्तु-स्वरूप जाणीने नित्य, ध्रुव, ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थई परिणमतां आत्मानो अनुभव थाय छे, अने त्यारे तेमां ज्ञाननी, आनंदनी, श्रद्धानी, स्थिरतानी आदि अनेक पर्यायो प्रत्यक्ष वेदनमां आवे छे; केमके प्रत्यक्ष थवुं, स्वानुभूतिमां जणावुं एवो ज भगवान आत्मानो स्वभाव छे. अहाहा...! वस्तु-आत्मा स्वानुभवगोचर थतां हुं द्रव्यरूपथी एक छुं, पर्यायथी अनेक छुं एम ज्ञानमां यथार्थ भासे छे.
हवे कहे छे- ‘माटे हे प्रवीण पुरुषो! तमे ज्ञानने तत्स्वरूप, अतत्स्वरूप, एकस्वरूप, अनेकस्वरूप, पोताना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी सत्स्वरूप, परना द्रव्य-क्षेत्र- काळ-भावथी असत्स्वरूप नित्यस्वरूप, अनित्यस्वरूप इत्यादि अनेकधर्मस्वरूप प्रत्यक्ष अनुभवगोचर करी प्रतीतिमां लावो. ए ज सम्यग्ज्ञान छे.’
अहाहा....! जाणवानी दशामां आ रीते (अनेकान्तस्वरूप जाणीने) शुद्ध एक आत्मद्रव्यनुं लक्ष करी (ध्याननुं ध्येय बनावी) अनुभवगोचर करी प्रतीति करो-एम कहे छे. वस्तु अनुभवगोचर थईने प्रतीतिमां आवे त्यारे एनी सम्यक् प्रतीति अने सम्यग्ज्ञान थाय छे एम वात छे. तेथी प्रथम एने ख्यालमां लई स्वानुभवप्रत्यक्ष द्वारा निःसंदेह प्रतीति करो एम कहेवुं छे. अहाहा...! प्रत्यक्ष स्वानुभवनी दशामां नित्यनो निर्णय थतां ज एने नित्य अने अनित्य बन्ने धर्मो सिद्ध थई जाय छे. आनुं नाम ज सम्यग्ज्ञान छे.
‘सर्वथा एकांत मानवुं ते मिथ्याज्ञान छे.’ एक पक्षने ज एकांते ग्रहण करवो ते मिथ्याज्ञान छे. उपादानथीय थाय ने निमित्तथीय थाय एम एकांत ग्रहण करवुं ते मिथ्याज्ञान छे, झेर छे भाई! अनेकान्तमां अमृतनो स्वाद छे, ने एकांत तो झेरनो स्वाद छे भाई! समजाणुं कांई.....?
‘पूर्वोक्त रीते वस्तुनुं स्वरूप अनेकान्तमय होवाथी अनेकान्त अर्थात् स्याद्वाद सिद्ध थयो’ एवा अर्थनुं काव्य हवे कहेवामां आवे छेः-
‘एवं’ आ रीते ‘अनेकान्तः’ अनेकान्त- ‘जिनं अलङ्गयं शासनम्’ के जे जिनदेवनुं अलंघ्य (कोईथी तोडी न शकाय एवुं) शासन छे ते ‘तत्त्व–व्यवस्थित्या’ वस्तुना यथार्थ स्वरूपनी व्यवस्थिति (व्यवस्था) वडे ‘स्वयं स्वं व्यवस्थापयन्’ पोते पोताने स्थापित करतो थको ‘व्यवस्थितः’ स्थित थयो-निश्चित ठर्यो-सिद्ध थयो.
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जे समये परमात्मस्वरूप निज ज्ञानमात्र आत्मानुं लक्ष करीने निर्णय करवा प्रति उद्यमशील थाय छे त्यारे अंदरमां जे पर्याय वळे छे ते स्वथी वळे छे, कोई परनी सहाय के टेको छे तो अंतर्मुख वळे छे एम एमां भासतुं नथी. शुं कीधुं? स्वनुं लक्ष करीने स्वतंत्र पणे ज्यां पर्याय प्रगटी त्यां एमां एने ख्याल आवी जाय छे के हुं माराथी छुं ने परथी नथी; अर्थात् कर्मनो उदय मंद पडयो के एनो अभाव थयो माटे स्व तरफनो पुरुषार्थ थयो छे एम एमां भासतुं नथी. अहाहा.....! वस्तुए हुं एक छुं, ने पर्याये अनेक छुं, ने ए बधुं माराथी-पोताथी छे, परथी नहि-आम बधुं ज्ञानमां सिद्ध-निश्चित थई जाय छे.
आ रीते, कहे छे, अनेकान्त वीतराग सर्वज्ञदेवनुं कोईथी तोडी न शकाय एवुं अलंघ्य शासन छे. अनेकान्त तो वस्तुनुं स्वरूप छे, एने जैन परमेश्वरनुं शासन केम कह्युं? अहा! शक्तिए तो दरेक आत्मा पोते अंदर परमेश्वर छे. पण आवुं वस्तुनुं स्वरूप वीतराग जैन परमेश्वरे प्रगट करी बताव्युं छे तेथी एने जैन परमेश्वरनुं शासन अहीं कहे छे. अहा! आवुं जिनदेवनुं शासन अलंघ्य छे. अहा! अंदर जिनस्वरूप भगवान आत्मा छे. जे पुरुष पोताना आवा निजस्वरूपने अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, अविशेष, नियत, असंयुक्त देखे छे ते सर्व जिनशासनने देखे छे-एम समयसार गाथा १प मां आव्युं ने? अहा! आ जिनशासन अलंघ्य छे एम कहे छे.
आ रीते ते अर्थात् अनेकान्त वस्तुना यथार्थ स्वरूपनी व्यवस्थिति वडे पोते पोताने स्थापित करतो थको स्थित थयो-सिद्ध थयो. भाई! पोते वस्तुतत्त्व एक छे ते ज पोतानी व्यवस्था नाम विशेष अवस्था करवामां व्यवस्थित-सुनिश्चित छे. अहा! निज पर्याय-अवस्थानी व्यवस्था करवामां तत्त्व-वस्तु पोते ज व्यवस्थित छे, पोतानी पर्यायनी व्यवस्था बीजो करे ए जैनशासनने मान्य नथी. वस्तु पोते ज स्वरूपथी एवी छे के पोतानी व्यवस्था (प्रतिसमयनी अवस्था) पोते ज करे; बीजो कोई एनी व्यवस्था करे छे एम भासे ते भ्रान्ति छे. आम वस्तुना यथार्थ स्वरूपना ज्ञान वडे अंतरमां पोते पोताने वाळतो थको स्थित थाय छे, निश्चित थाय छे. अर्थात् पोते पोतामां अंर्तद्रष्टि करी स्थिर थाय छे त्यां जेवी अनेकांतस्वरूप वस्तु छे तेवी पोताने सिद्ध थई जाय छे, अनुभवमां आवी जाय छे. अहा! धर्मीने आम जे निर्विकल्प निर्णय (निश्चयरूप ज्ञान) थयो ते पोते कर्ता थईने कर्यो छे, एमां कोई अन्य कर्ता भासतो नथी. पोते ज पोताने प्रमेय थयो, ने पोते ज पोताने प्रमाण कर्यो, एमां परनी सहाय-अपेक्षा छे ज नहि. समजाणुं कांई.....?
अहाहा...! पोते पोताथी ज पोताने जणाय, ने पोते ज पोताने जाणे एवो ज भगवान आत्मानो स्वभाव छे. भाई! आ सूक्ष्म पडे पण कांई करवानुं होय तो आ
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करवानुं छे. नियमसार-गाथामां आवे छे ने के पोताना शुद्ध स्वरूपनां श्रद्धा-ज्ञान- आचरण एवां रत्नत्रय ज नियमथी कर्तव्य छे.
भाई! पर्याय स्वद्रव्यमां ढळीने अंतर्लीन थतां अनेकान्तपणुं जे वस्तुनुं स्वरूप छे ते व्यवस्थित-सुनिश्चित थईने (ज्ञानमां जेम छे तेम जणाईने) सिद्ध थाय छे अने नियमथी आ ज करवायोग्य कर्तव्य छे. आ सिवाय बधुं थोथेथोथां छे. समजाणुं कांई......?
‘अनेकान्त अर्थात् स्याद्वाद, जेवुं वस्तुनुं स्वरूप छे तेवुं ज स्थापन करतो थको, आपोआप सिद्ध थयो.’
अनेकान्तनी व्याख्या करतां आचार्य अमृतचंद्रदेव लखे छे- “ एक वस्तुमां वस्तुपणानी निपजावनारी परस्पर विरुद्ध बे शक्तिओनुं प्रकाशवुं ते अनेकान्त छे.” जेमके -जे नित्य छे ते अनित्य छे, एक छे ते अनेक छे, अभेद छे ते भेदरूप छे इत्यादि. अहा! स्याद्वादथी एक ज वस्तुमां सत्ता जे अभेदरूप छे ते भेदरूप छे, जे (द्रव्यरूपथी) नित्य छे ते (पर्यायरूपथी) अनित्य छे. एक ज चीजनी अंदरनी वात छे भाई! आ आनुं नाम अनेकान्त छे. पण द्रव्य पोताथी छे ने पर्याय परथी छे, वा द्रव्य स्वथी पण छे ने परथी पण छे तथा पर्याय स्वथी पण छे ने परथी पण छे-एम अनेकान्त नथी. ए तो (मिथ्या) एकान्त थयुं बापा! परनी साथे तो भगवान आत्माने संबंध ज नथी. आव्युं ने कळशमां (कळश २०० मां) के-
आत्मा पोताथीय प्राप्त थाय ने परद्रव्यथी-देवगुरु शास्त्रथीय थाय एवुं अनेकान्तनुं स्वरूप नथी, एवुं जैनदर्शन नथी. आत्मा पोतापणे छे अने परना कोई अंशपणेय नथी ए सम्यक् अनेकान्त छे. जुओ, आमां बीजा बधा पदार्थ (आत्मा ने तेना परिणामथी) काढी नाख्या. जुओ, आ शब्दोना वांचनथी अहीं (आत्मामां) ज्ञाननी पर्याय थाय छे एम नथी; केमके वस्तु पोते ज नित्य ने अनित्य छे. पहेलां ज्ञाननी पर्याय बीजी हती ते बदलीने शब्द (शास्त्र) जाणवारूप थई ते पोताथी ज थई छे, शब्द सांभळवामांथी-वांचवाथी ते थई छे एम नथी. शब्द तो छे, पण ए निमित्तमात्र ज छे. समजाणुं कांई......?
अरे! अज्ञानीओने परद्रव्य मारुं (कार्य, सुख) करे ने हुं परद्रव्यनुं करुं एम ज अनादिथी भास्युं छे. पण भाई! तारी वस्तु ज ज्यां स्वपणे छे, परपणे नथी, ज्ञानस्वरूपथी तत्रूप छे, परज्ञेयस्वरूपथी नथी, त्यां परनुं करवानो प्रश्न ज क्यां रह्यो? तथा परवस्तु आत्मामां (प्रवेशती ज) नथी तो पर आत्मामां कांई करे ए
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मान्युं ते (मान्यताथी) पररूप थई गयो. वळी परथी मने ज्ञान ने सुख थाय एम मान्युं एणे परने ज आत्मा मान्यो, तेणे पोताने मान्यो ज नहि ते पण परमां मूढ थई गयो, खोवाई गयो, अटवाई गयो. अनेकान्त तेने यथार्थ वस्तुस्वरूप देखाडी जिवाडे छे.
अहो! अनेकान्त तो वस्तुना स्वरूपने यथार्थपणे बतावनारो महासिद्धांत छे, कहो के जैनदर्शननुं मूळ रहस्य छे. आ तो एकलुं संजीवक अमृत छे भाई! ओहो...! आचार्य परमेष्ठी भगवान अमृतचंद्रदेवे अनेकान्तनी व्याख्या दईने एकलुं अमृत पीरस्युं छे. नित्य-अनित्य; एक-अनेक, सत्-असत् आदि धर्मो परस्पर विरुद्ध होवा छतां तेओ वस्तुने अविरोधपणे साधे छे, सिद्ध करे छे. आ सिवाय कोई बीजी रीते माने के- निश्चयथी पण थाय ने व्यवहारथी पण थाय, उपादानथी पण थाय ने निमित्तथी पण थाय ते अनेकान्तना स्वरूपने समज्यो ज नथी. एक तत्त्व छे ते पोतानी व्यवस्था करवामां पोते ज व्यवस्थित छे. एनी व्यवस्था नाम विशेष अवस्था (पर्याय) करवावाळुं बीजुं द्रव्य होय एवुं जैनशासनमां वस्तुस्वरूप नथी.
कळश टीकाकारे अनेकान्तनुं स्वरूप समजावतां नीचे मुजब कह्युं छे; अनेकान्त अर्थात् स्याद्वाद, ते ज जेनुं स्वरूप छे एवी सर्वज्ञवाणी अर्थात् दिव्यध्वनि छे. अहीं कोईने आही शंका थाय के अनेकान्त ते संशय छे (अने) संशय ते मिथ्या छे. तेना प्रति समाधान एम छे के अनेकान्त तो संशयनुं दूरकरणशील छे तथा वस्तुना स्वरूपनुं साधनशील छे. एनुं विवरण-जे कोई सत्तास्वरूप वस्तु छे ते द्रव्य-गुणात्मक छे. एमां जे सत्ता अभेदरूपथी द्रव्य कहेवाय छे ते ज सत्ता भेदरूपे गुणरूपे कहेवाय छे. एनुं नाम अनेकान्त छे.
हवे कहे छे- ‘ते अनेकान्त ज निर्बाध जिनमत छे अने यथार्थ वस्तुस्थितिनो कहेनार छे. कांई कोईए असत् कल्पनाथी वचनमात्र प्रलाप कर्यो नथी. माटे हे निपुण पुरुषो! सारी रीते विचार करी प्रत्यक्ष अनुमान-प्रमाणथी अनुभव करी जुओ.’
जुओ, आ जिनमत कह्यो. अनेकान्त ज निर्बाध जिनमत छे. गाथामां अलंघ्य पद छे ने! तेनो आ अर्थ कह्यो. कोई बाधा न करी शके एवो अनेकान्त ज निर्बाध जिनमत छे केमके ते जेवी वस्तुस्थिति छे तेवी कहे छे, वस्तुने तेवी स्थापे छे. भाई! आ तो सर्वज्ञ परमेश्वरनी वाणी बापा! आमां असत् कल्पनानो संभव ज क्यां छे? अहाहा.....! वस्तु जेवी छे तेवी केवलज्ञानमां प्रत्यक्ष थई अने ते भगवान केवळीनी वाणीमां आवी त्यां असत् कल्पना केवी? भगवाननी वाणीमां तो यथातथ्य वस्तुना स्वरूपनुं निरूपण आव्युं छे. एटले तो अनेकान्तने जिनदेवनुं अलंघ्य शासन कह्युं छे. समजाणुं कांई......?
माटे, कहे छे, हे निपुण पुरुषो! ........ विचारवान समनस्क छे ने! एटले कहे छे- हे निपुण पुरुषो-डाह्या पुरुषो! तमे वस्तु जेवी छे तेवी ख्यालमां लावीने-विचारमां
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श्री समयसार परमागम उपर अढारमी वखत थयेलां प्रवचनो
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सरिता वहावी सुधा तणी प्रभु वीर! तें संजीवनी;
शोषाती देखी सरितने करुणाभीना हृदये करी,
मुनिकुंद संजीवनी समयप्राभृत तणे भाजन भरी.
ग्रंथाधिराज! तारामां भावो ब्रह्मांडना भर्या.
मुमुक्षुने पाती अमृतरस अंजलि भरी भरी;
अनादिनी मूर्छा विष तणी त्वराथी ऊतरती,
विभावेथी थंभी स्वरूप भणी दोडे परिणति.
तुं प्रज्ञाछीणी ज्ञान ने उदयनी संधि सहु छेदवा;
साथी साधकनो, तुं भानु जगनो, संदेश महावीरनो,
विसामो भवक्लांतना हृदयनो, तुं पंथ मुक्ति तणो.
जाण्ये तने हृदय ज्ञानी तणां जणाय;
तुं रुचतां जगतनी रुचि आळसे सौ,
तुं रीझतां सकलज्ञायकदेव रीझे,
कुंदसूत्रोनां
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ज्ञानी सुकानी मळ्या विना ए नाव पण तारे नहीं;
आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो,
मुज पुण्यराशि फळ्यो अहो! गुरु कहान तुं नाविक मळ्यो.
बाह्यांतर विभवो तारा, तारे नाव मुमुक्षुनां.
अने ज्ञप्तिमांही दरव–गुण–पर्याय विलसे;
निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे,
निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे.
जे वज्रे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके, परद्रव्य नातो तूटे;
–रागद्वेष रुचे न, जंप न वळे भावेन्द्रिमां–अंशमां,
टंकोत्कीर्ण अकंप ज्ञान महिमा हृदये रहे सर्वदा.
करुणा अकारण समुद्र! तने नमुं हुं;
हे ज्ञानपोषक सुमेघ! तने नमुं छुं हुं,
आ दासना जीवनशिल्पी! तने नमुं हुं.
वाणी चिन्मूर्ति! तारी उर–अनुभवना सूक्ष्म भावे भरेली;
भावो ऊंडा विचारी, अभिनव महिमा चित्तमां लावी लावी,
खोयेलुं रत्न पामुं, –मनरथ मननो; पूरजो शक्तिशाळी!
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अहाहा...! आत्मा ज्ञानानंदस्वरूप प्रभु अनंत धर्मस्वरूप वस्तु छे; तेने परद्रव्योथी अने परभावोथी भिन्न ओळखाववा माटे आचार्यदेव ‘ज्ञानमात्र’ कहेता आव्या छे. त्यां ‘ज्ञानमात्रवस्तु आत्मा’ -एम कहेतां ज्ञानथी विरुद्ध जे जड परद्रव्यो अने रागादिभावो एनो तो निषेध थई जाय छे, पण ज्ञाननी साथे रहेनारा जे दर्शन, सुख, वीर्य इत्यादि