PDF/HTML Page 3941 of 4199
single page version
थाय छे ते पर्यायमां थाय छे. नित्य ध्रुव द्रव्य, ने अनित्य पर्याय-बन्ने मळीने आखी अनेकान्तमय वस्तु आत्मा छे; अने एने ज्ञानमात्र आत्मा कहीए छीए.
आत्मा ज्ञानमात्र स्वरूप छे. आटलुं सांभळी शिष्ये प्रश्न कर्यो के-भगवान! ज्ञानमात्र भाव कहो एमां तो एकांत थई जाय छे. जीव ज्ञानमात्र स्वरूप छे एम कहेवाथी तेमां अनंत गुण न आव्या; अने जो अनंत गुण छे तो एकलो ज्ञानमात्र केम कह्यो? तेना उत्तरमां आचार्यदेव कहे छे-तुं एक वार सांभळ तो खरो. ज्ञानमात्र कहीने अमे तेमां शरीर, कर्म, वाणी अने पुण्य-पापना भावो नथी एम जडपणानो निषेध कर्यो छे. बाकी ज्ञानमात्र आत्मामां एना अनंत गुण समाई जाय छे. अहा! ज्ञानमात्र वस्तु एक ज्ञायक प्रभुनो अंतःसन्मुख थई स्वीकार करतां ज जीवमां ज्ञानचेतना प्रगट थाय छे; तेनी साथे श्रद्धा, चारित्र, सुख, वीर्य इत्यादि सर्व अनंत गुणोनी निर्मळ पर्यायो प्रगट थाय छे. अहाहा...! समुद्रमां कांठे जेम भरती आवे तेम चैतन्यरत्नाकर प्रभु आत्मामां ज्ञानमात्र भावनुं परिणमन थतां सर्व शक्तिओ आनंदना हिलोळे निर्मळ निर्मळ उछळे छे; तेमां आनंदनी भरती आवे छे. आम आवुं आत्मानुं अनेकान्तस्वरूप छे.
प्रश्नः– पण शक्तिओ उछळे एमां धर्म शुं थयो? कांई तप-बप करे तो धर्म थाय ने? उत्तरः– अरे भाई! तुं आत्मा वस्तु-पदार्थ छो के नहि? छो; तो एनो स्वभाव शुं? अहाहा...! चैतन्य... चैतन्य... चैतन्य एनो स्वभाव छे. भगवान! तुं चैतन्यस्वभावमय वस्तु छो. आचार्य भगवान कहे छे-तारी चैतन्यस्वभावमय वस्तुमां ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, आनंद, प्रभुता आदि अनंत शक्ति-गुणनी ऋद्धि भरी छे. अहाहा...! ए चैतन्यस्वभावमय अनंत गुणनिधि प्रभु आत्मद्रव्यना आश्रयमां जतां, तेमां ज अंतर्मग्न थई परिणमतां, अहीं कहे छे, एक साथे अनंत गुणो निर्मळ निर्मळ उछळे छे. निर्मळ ज्ञान, श्रद्धान, चारित्र प्रगट थाय छे. भाई! आ निर्मळ ज्ञान-श्रद्धान-चारित्रनुं प्रगटवुं ते धर्म नहि तो शुं छे? भाई! आनुं ज नाम धर्म छे. आत्मानी ज्ञान, श्रद्धान, चारित्र आदि शक्तिओ त्रिकाळी द्रव्यना आश्रये निर्मळ निर्मळ परिणमे ए ज धर्म छे, अने ए सिवायनां व्रत, तप आदि कोई धर्म नथी. समजाणुं कांई...? धर्मना दश भेद ने तपना बार भेद ए तो भेदथी-व्यवहारथी कहेवाय छे. बाकी एक वीतराग भाव थवो ते ज धर्म अने चैतन्यनुं स्वरूपविश्रांत थई अंतरंगमां प्रतपवुं ते ज तप छे, ‘सम्यग्ज्ञान दीपिका’मां क्षुल्लक श्री धर्मदासजीए लख्युं छे के-आत्मा एक अने परिषह बावीस कयांथी आव्या? आत्मा एक अने धर्मना प्रकार दश कयांथी आव्या? ए तो भेदथी कथन कर्युं छे. बाकी कांई धर्म दश नथी; वीतरागभाव एक ज धर्म छे. वीतराग परमेश्वरनो आवो मारग छे. बाकी बधा पामरना ने पामरताना पंथ छे. आवी वातुं छे.
अहा! ज्ञानमात्र आत्मामां ‘ज्ञान छे’ एम कहेतां ज्ञानमां अस्तित्व गुणनुं रूप आव्युं. आम जुदो अस्तित्व गुण सिद्ध थयो. ज्ञान आनंदरूप छे एम कहेतां ज्ञानमां आनंद गुणनुं रूप आव्युं. आम जुदो आनंद गुण सिद्ध थयो. एम ज्ञानमां अनंता गुणोनुं रूप होवाथी आत्मामां अनंत गुण सिद्ध थाय छे. अहाहा...! भगवान आत्मा, आ प्रमाणे, अनंत गुणनुं गोदाम छे, शुं कीधुं? विकारनुं गोदाम छे एम नहि; अहाहा...! जेमां अनंत गुण निर्मळ उछळे एवा पवित्र गुणोनुं गोदाम प्रभु आत्मा छे. भाई! आ पुण्य-पापना जे भाव छे ए तो औपाधिकभाव छे अने ते पर्यायद्रष्टिथी कृत्रिम ऊभा थाय छे. वस्तुमां ते उत्पन्न थाय एवी कोई शक्ति नथी. ए तो पर्यायद्रष्टि जीवने पर्याय उपर लक्ष जाय छे तो विकृत दशा उत्पन्न थाय छे. बाकी वस्तु-भगवान आत्मा तो एक सेकन्डना असंख्यातमा भागमां (प्रतिक्षण) अनंत शुद्ध शक्तिनो चैतन्यमय पिंड छे. अहाहा...! परवस्तु-निमित्त, राग-विकार ने एक समयनी पर्याय-अंश-एनुं लक्ष छोडीने त्रिकाळी पूर्ण-ज्ञानघन निज आत्मद्रव्य उपर नजर ठेरवतां ज अनंत गुणनी निर्मळ पर्याय उत्पन्न थाय छे. आनुं नाम धर्म छे, ने आ मोक्षमार्ग छे. आ सिवाय व्रत, तप आदि कांई (-धर्म) नथी. समजाणुं कांई...?
आ सत् नारायणनी कथा छे. सत्नारायण नाम कोईनुं होय एनी आ वात नहि, आ तो सत् नाम भगवान आत्मा तेनी परमात्मा थवानी कथा छे. अहाहा...! नरमांथी नारायण थवानी-परमात्मा-भगवान थवानी भगवाने कहेली आ भागवत कथा छे. अहीं कहे छे-अजडत्वमय चितिशक्ति अर्थात् पूरण चैतन्यस्वभावनो सागर सच्चिदानंद प्रभु आत्मा छे; अहाहा...! तेना आश्रये परिणमतां-तेमां अंतर्लीन थई परिणमतां चैतन्यस्वभावनो सागर प्रभु अनंत शक्तिओ सहित उछळे छे. अहाहा...! तेमां चितिशक्ति सहित अनंत शक्तिओ पर्यायमां निर्मळपणे उपजे छे. आ अनेकांत छे. आत्माने ज्ञानमात्र कीधो तो तेमां एकलुं ज्ञान छे एम नहि, ज्ञाननी साथे जीवत्व, दर्शन, श्रद्धा, आनंद,
PDF/HTML Page 3942 of 4199
single page version
वीर्य, अस्तित्व, वस्तुत्व आदि अनंत धर्मो-गुणो तेमां भेगा आवी जाय छे. ज्ञानमां आ अनंत गुणनुं रूप छे छतां ते अनंत गुण बधा भिन्न भिन्न छे; अने अनंत गुण प्रत्येक भिन्न होवा छतां बधा मळी अखंड अभेद एक आत्मा छे. अहो! आवुं वस्तुनुं अनेकान्तमय स्वरूप कोई अद्भुत अलौकिक छे.
आ तो वीतरागनो मार्ग छे बापु! आ कोई साधारण चीज नथी; अंतर-अनुभवना महान पुरुषार्थ वडे प्राप्त थाय एवी चीज छे. पण अरे! पोताना त्रिकाळी स्वरूपने भूलीने अनादिथी एणे पर्याय उपर लक्ष कर्युं छे! एक समयनी पर्यायनी पाछळ पूरण परमात्मतत्त्व अंदर पडयुं छे, पण अरे! एनी द्रष्टिना अभावे एना भवना अंत आव्या नहि! अहा! भाई! पंचमहाव्रतादिना क्रियाकांडमां मंद राग करे तो देवना भव मळे, पण भवना अंत न आवे. आवुं बधुं तो एणे अनंत काळमां अनंत वार कर्युं छे, ए पहेलुं-नवुं नथी. अहाहा...! अंदर भगवान आत्मा अनंत शक्तिनो सागर चैतन्य निधान प्रभु छे तेनी अंतःद्रष्टि वडे आनंदनो अनुभव आवे, निराकुळ शांतिनो स्वाद आवे ते अपूर्व छे. अहाहा...! अंतःपुरुषार्थ जाग्रत करी स्वरूपमां स्फुरायमान वीर्य वडे अनंत गुणनी निर्मळ पर्यायना स्वरूपनी रचना करे तेने भवना अंत आवी जाय छे. आवो मारग छे.
अहाहा...! अंदर आत्मामां एक वीर्यगुण छे, आत्मबळ नामनो अंदर एक गुण छे. ते स्फुरायमान थवा वडे चेतना गुणना परिणमननी साथे बीजा अनंता गुणनी निर्मळ परिणतिनी ते रचना करे छे. अहा! रागनी रचना करे ते वीर्यगुणनुं कार्य नहि; दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादिना शुभरागनी रचना करे ए तो नपुंसकता छे. अहा! जेम हीजडाने वीर्य नथी तो तेने प्रजोत्पत्ति थती नथी तेम भगवान आत्माने भूलीने शुभाशुभ भावनी रचना करे तेने (-नपुंसकने) धर्मनी पर्यायरूप प्रजानी उत्पत्ति थती नथी.
भाई! शुभाशुभ भाव थाय ते आत्मानी चीज नथी, स्वभावपर्यायनी उत्पत्ति थाय ते आत्माना वीर्यगुणनुं कार्य छे, अने ते अंतःसन्मुख पुरुषार्थ वडे द्रष्टिमां भगवान आत्मानो स्वीकार कर्ये प्रगट थाय छे. अहा! भगवान आत्मानो ज्यां द्रष्टिमां स्वीकार कर्यो त्यां अनंत शक्तिओ पर्यायमां निर्मळ उछळे छे. आ अंतःसन्मुख थई जे निज परमात्मद्रव्यनो स्वीकार करे तेनी वात छे हों, मात्र उपर उपरथी हा पाडे एनी आ वात नथी. अरे भाई! निज परमात्मद्रव्य तो त्रिकाळ शुद्ध एक चित्स्वभावपणे अंतरंगमां विराजे छे; पण अज्ञानीने एनो स्वीकार कयां छे? ए तो अंतःसन्मुख थई एनी द्रष्टि करतां एनो स्वीकार थाय छे अने त्यारे एने ज्ञानमात्र भावनी अंदर जीवत्व, चिति, द्रशि, वीर्य आदि अनंत शक्तिओ पर्यायमां प्रगट थाय छे. आनुं नाम धर्म ने आ मोक्षमार्ग छे. आ सिवाय व्रत, तप, भक्ति आदि बधुं थोथां छे.
जुओ, अहीं बीजी चितिशक्तिनुं वर्णन चाले छे. आत्मद्रव्यने कारणभूत पहेलां जीवत्वशक्ति कहीने तेना चार-दर्शन, ज्ञान, आनंद ने वीर्य-चैतन्यभावप्राण कह्या. अहाहा...! आवा चैतन्यभावप्राण वडे जीव अनादिथी जीवे छे, जीवतो हतो ने अनंतकाळ जीवशे.
तो लोको कहे छे ने के-‘जीवो अने जीववा दो’-आ भगवान महावीरनो संदेश छे. अरे जैनो पण रथयात्रा प्रसंगे सूत्रो पोकारे छे के-
अरे भाई! ‘जीववा दो’ एटले बीजा जीवोनुं जीवन आना हाथमां छे-एवो भगवान महावीरनो संदेश नथी. बीजो बीजाने जिवाडे, अने बीजानो जीवाडयो बीजो जीवे ए भगवान महावीरनी वाणी नथी. कोई कोईने जिवाडे के हणे ए वस्तुस्वरूप नथी, अने ए भगवाननी वाणी नथी. जीवमां त्रिकाळ जीवत्व नामनी शक्ति छे, अने त्रिकाळ चैतन्यभावप्राण वडे अनादि-अनंत जीवनुं जीवन छे. अहा! आवी निज जीवनशक्तिने ओळखी अंतर्मुख निराकुल जीवन जीव जीवे ते यथार्थ जीवन छे. अहा! आवुं जीवन ‘पोते जीवो ने सौ कोई जीवो’-एवो भगवान महावीरनो संदेश छे, उपदेश छे. समजाणुं कांई...?
समयसारनी बीजी गाथामां ‘जीवो’ शब्द छे एमांथी आचार्यदेवे आ जीवत्वशक्ति काढी छे, ने जीवत्वनुं चितिशक्ति लक्षण छे तेथी अहीं बीजी चितिशक्ति कही. अहाहा...’ आ जीवत्वशक्ति, चितिशक्ति इत्यादि शक्तिओ छे
PDF/HTML Page 3943 of 4199
single page version
ए तो त्रिकाळ जीवता-जागता जीवनी जाहेरात करे छे. भाई! आ शक्तिओ छे ए तो अंदर भगवानना दरबारनो अनुपम अणमोल खजानो छे; अंतःसन्मुख द्रष्टि वडे तेने खोली दे. अहाहा...! चैतन्यनुं निधान ध्रुवधाम प्रभु आत्मा छे, अहाहा...! आवा पोताना ध्रुवधामने ध्येय बनावी, धीरजथी ध्याननी धधकती धूणी धखावी धर्मी जीव जीवन जीवे तेने धन्य छे. सौ जीवो आवुं जीवन जीवो एवो भगवान महावीरनो संदेश छे.
आ प्रमाणे आ बीजी चितिशक्ति अहीं पूरीं थई.
‘अनाकार उपयोगमयी द्रशिशक्ति. (जेमां ज्ञेयरूप आकार अर्थात् विशेष नथी एवा दर्शनोपयोगमयी- सत्तामात्र पदार्थमां उपयुक्त थवामयी-द्रशिशक्ति अर्थात् दर्शनक्रियारूप शक्ति.)’
जुओ, आत्मामां अनंत शक्तिओ छे. तेमां जीवत्व अने चितिशक्तिनुं आचार्यदेवे पहेलां वर्णन कर्युं. आ तो वर्णनमां क्रम पडयो, बाकी वस्तुमां तो शक्तिओ अक्रमे छे. हवे अहीं त्रीजी द्रशिशक्ति कहे छे. केवी छे द्रशिशक्ति? तो कहे छे-‘अनाकार उपयोगमयी द्रशिशक्ति’ छे. द्रशि नाम दर्शन-देखवारूप आ शक्ति छे. ते आत्मद्रव्यने देखे छे, पोताने देखे छे, परने देखे छे; गुणने देखे छे, पर्यायने देखे छे; अने ते बधाने भेद पाडया विना देखे छे. आ स्वद्रव्य छे, आ परद्रव्य छे; आ चेतन छे, आ अचेतन छे एम भेद पाडीने देखती नथी, सामान्य सत्तामात्र वस्तुने ग्रहण करे छे, देखे छे. बहु सूक्ष्म वात भाई!
प्रश्नः– तो शुं दर्शन-उपयोग जीव-अजीव बधाने एकमेक करी देखे छे? उत्तरः– ना, एम नथी; ते सत्तामात्र ज देखे छे, ‘आ सत् छे’ बस एटलुं ज देखवापणुं छे, पण आ स्व छे आ पर छे इत्यादि एमां विशेष ग्रहण करवापणुं नथी. विशेष-भेद पाडीने ग्रहण करवानुं तो ज्ञाननुं कार्य छे.
अहाहा...! अनाकार उपयोगमयी दर्शनशक्ति छे. अनाकार अर्थात् आकार नहि. एटले शुं? शुं तेनो आकार नाम क्षेत्र नथी? एम नथी. भगवान आत्मानुं जे असंख्य प्रदेशी क्षेत्र छे ते ज एनुं क्षेत्र छे. सर्व अनंत गुणनुं आ एक ज क्षेत्र छे. जो क्षेत्र न होय तो शक्ति ज न होय, शक्तिनुं होवापणुं ज सिद्ध न थाय, अने तो वस्तु ज सिद्ध न थाय. दर्शनने अनाकार कह्युं ए तो एनो विषय सामान्य सत्तामात्र ज छे ए अपेक्षाए वात छे. आ चीज आत्मा छे, आ चीज जड छे; आ स्व छे, आ पर छे; आ जीव छे, आ ज्ञान छे-एम भेदरूप आकारनुं ग्रहण दर्शनशक्तिमां नथी, बधुं सामान्य सत्पणे ग्रहण होय छे बस. भाई! आ शक्तिनुं सामर्थ्य तो जो. अहाहा...! तेनुं क्षेत्र तो असंख्य प्रदेशी ज छे, पण आखा लोकालोकने देखी लेनारा केवळदर्शनरूप थाय एवुं एनुं अपरिमित बेहद सामर्थ्य छे. ओहो! आ तो अलौकिक वस्तु छे.
भाई! तारी वस्तु आवी अपार-अनंत समृद्धिथी भरी छे. पण अरे! तें तारा चैतन्यनिधानमां नजर करी नहि! भाई! तुं मान के दया, दान, व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादि शुभ-अनुष्ठान वडे धर्म थई जशे पण एवी तारी चीज नथी बापु! ने एवुं धर्मनुं स्वरूप पण नथी. विचार तो कर; अनादि काळथी क्रियाकांडना रागनुं सेवन करीने मरी गयो पण धर्म प्रगट थयो नहि. अरे! तारो चैतन्य महाप्रभु भगवानस्वरूपे अंदर विराजे छे तेनो तें अनादर कर्यो छे; अने देह अने रागनो आदर कर्यो छे. देखवानी शक्तिवाळो जे देखनार महाप्रभु छे तेने तें देख्यो नहि! अहा! देखनारने देखवानी दरकार सुद्धां करी नहि! पण भाई! अंदर देखनारो दृष्टा छे तेमां द्रष्टि करे त्यारे ज धर्म प्रगट थाय. आवी वात!
अहाहा-! आ आत्मा कारणपरमात्मा छे. त्रिकाळी ध्रुव चिन्मात्र द्रव्यने कारण परमात्मा कहेवाय छे, अने केवळदर्शन, केवळज्ञाननी पर्याय प्रगट थाय तेने कार्यपरमात्मा कहे छे. त्यारे एक वार प्रश्न थयो हतो के-
“जो भगवान आत्मा ध्रुव कारणपरमात्मा छे तो तेनुं कार्य प्रगट थवुं जोईए ने?” त्यारे कह्युं‘तुं के-ध्रुव द्रव्य ते कारणपरमात्मा छे, पण तेनी जेने द्रष्टि थाय तेने तेनुं कार्य पर्यायमां प्रगट थाय छे. अहाहा...! वस्तु-कारणपरमात्मा तो पूर्णानंदस्वरूपे नित्य विराजमान छे; पण तेनी द्रष्टि अने तेमां रमणता- लीनता करे तेने पर्यायमां कार्यपरमात्मा प्रगट थाय छे. हवे जेने हुं परमात्मस्वरूप त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य छुं एम स्वीकार
PDF/HTML Page 3944 of 4199
single page version
ज नथी तेने कारणपरमात्मा कयां छे? देखवानी शक्तिनो धरनारो अनंत शक्तिसंपन्न प्रभु कारणपणे शाश्वत विद्यमान छे, पण तेनुं भान कर्या विना, तेनो द्रष्टिमां स्वीकार कर्या विना कारणपरमात्मा छे ए कयां रह्युं? भाई! उपयोगने अंतरमां वाळी त्रिकाळी द्रव्यनां ज्ञान-श्रद्धान प्रगट करे तेने ज हुं कारणपरमात्मा छुं एम निश्चय थाय छे अने तेने ज अंतर्लीनता वडे केवळदर्शन-केवळज्ञानरूप कार्य प्रगट थाय छे.
आत्मा पूर्णानंद प्रभु अनंत शक्तिनो पिंड त्रिकाळ एकरूप द्रव्य छे. अहा! शक्ति अने शक्तिवाननो भेद पण जेमां नथी एवा आ अभेद एकरूप सामान्यने विषय बनावी तेनां प्रतीति अने अनुभव करे तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. त्रिकाळी वस्तु तो वस्तुमां छे, पण आवुं हुं त्रिकाळी ध्रुव चैतन्यतत्त्व छुं एम श्रद्धानी पर्यायमां तेनो स्वीकार थाय त्यारे कारणपरमात्मानो यथार्थ निर्णय थाय छे. त्रिकाळी चीज छे ते कांई पर्यायमां आवती नथी, पण त्रिकाळी द्रव्यनुं ज्ञान अने श्रद्धान पर्यायमां प्रगटे छे, अने त्यारे ‘आ हुं कारणपरमात्मा छुं’ एम एनो वास्तविक स्वीकार थाय छे. अरे भाई! द्रशिना विषयने-द्रष्टाने देख्या विना तेनी प्रतीति केवी? अने विना प्रतीति कारणपरमात्मा छुं ए वात कयां रहे छे?
अहीं कहे छे-आत्मामां अनाकार उपयोगमयी एक द्रशिशक्ति छे. तेनुं कार्य शुं? तो कहे छे-आ आत्मा, आ ज्ञान, आ दर्शन, आ पर्याय, आ हेय ने आ उपादेय-एम कोई भेद पाडया विना जे सामान्य प्रतिभास थाय छे ते द्रशिशक्तिनुं कार्य छे. अहाहा...! भेद जेनो विषय नथी एवी अनाकार उपयोगमयी द्रशिशक्ति छे. अनाकार एटले विशेष विना सामान्यपणे देखवुं. अहाहा...! जेमां ज्ञेयरूप आकार नथी, विशेष नथी, जेमां सत्तामात्र पदार्थनो प्रतिभास थाय छे एवी सामान्य अवलोकनमात्र द्रशिशक्ति छे. आ द्रशिशक्ति सूक्ष्म छे. भेद पाडीने विशेषपणे जाणवुं ए तो ज्ञाननुं कार्य छे. आ आत्मा छे एम निर्णय थयो ए तो ज्ञान छे. ते ज्ञानना थवा पहेलां (छद्मस्थने) द्रशिशक्तिमां सामान्य प्रतिभासरूप उपयोग वर्ते छे. (केवळीने ज्ञान ने दर्शन बन्ने उपयोग साथे वर्ते छे).
द्रशिशक्ति एक गुण छे, तेनो धरनार आत्मा गुणी छे. ज्यारे गुणी एवा त्रिकाळी द्रव्यनो अंतरमां स्वीकार थाय त्यारे द्रशिशक्ति पर्यायमां उछळे छे, तेनुं पर्यायमां परिणमन थाय छे, देखवारूप पर्याय प्रगट थाय छे. देखवारूप स्वभाव ध्रुवपणे हतो तेनुं पर्यायमां परिणमन थईने देखवारूप कार्य प्रगट थाय छे. हवे आवी पोतानी चीजनी दिगंबरमां जन्मेलानेय खबर न मळे; शुं थाय? कुळथी कांई दिगंबर धर्म नथी, दिगंबर धर्म तो वस्तुनुं स्वरूप छे.
अहाहा...! आत्मा अंतरमां विकल्पना वस्त्ररहित (निर्विकल्प) अनंत शक्तिओनो पिंड छे तेने दिगंबर कहीए, अने ज्यारे आवा आत्माना भान सहित अंतरंग दशामां मुनिपणुं प्रगट थाय त्यारे बहारमां पंचमहाव्रत ने नग्नदशा निमित्तपणे होय छे तेनुं नाम दिगंबर धर्म छे. आ कोई पक्षनी वात नथी प्रभु! आ तो वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे. समजाणुं कांई...?
अनाकार उपयोगमयी द्रशिशक्ति छे. एटले शुं? के जेमां ज्ञेयरूप आकार नथी, विशेषता नथी, बधुं सामान्य सत्तामात्र देखवामां आवे छे एवा उपयोगमय दर्शनशक्ति छे. दर्शननी पर्याय स्वने अने परने देखे छे, पण एमां आ स्व अने पर एम भेद होतो नथी. भेद ए दर्शनशक्तिनो विषय नथी. वळी एकला परने देखे ए दर्शनशक्तिनुं वास्तविक कार्य नथी. आत्मा सहित सर्व पदार्थोनी सत्ताने देखे ते ज एनुं वास्तविक कार्य छे. अहा! द्रव्य-गुणमां व्यापक आ दर्शनशक्ति वास्तविक कयारे परिणमे?-के ज्यारे उपयोगने अंतरमां अभेद करी स्वने ग्रहे-देखे त्यारे. आ सिवाय एकला परने जाणता पहेलां अज्ञानीने तेनुं जे सामान्य दर्शन थाय छे ते शक्तिनुं वास्तविक कार्य नथी, ए तो अदर्शन छे, अज्ञानता छे.
द्रशिशक्तिवाळा द्रव्यने देखवाथी पोताने अने परने भेद पाडया विना देखवानी पर्याय उत्पन्न थायछे, अने तेनी साथे बीजा अनंत गुणनी निर्मळ पर्याय प्रगट थाय छे. अहीं विकारनी-रागनी वात लीधी नथी, केमके विकार कोई शक्तिनुं कार्य नथी. विकार तो पर्यायबुद्धिथी पर तरफ लक्ष करवाथी उत्पन्न थाय छे, खरेखर ते जीवना त्रिकाळी स्वरूपमां नथी; अने दर्शन गुणनी निर्मळ पर्याय प्रगटवा साथे जे अनंत गुणनी निर्मळ पर्याय प्रगट थाय तेमांय रागादि व्यवहार नथी, एनो अभाव-नास्ति छे. आम बधुं अनेकान्त छे.
केटलाक कहे छे-व्यवहारथी निश्चय थाय, पण ए बराबर नथी, अहीं तेनी ना पाडे छे. अरे भाई! जरा समजणमां तो ले के आ शुं वात छे? पछी अंतरमां प्रयोग करे ए तो अलौकिक वात छे. त्रिकाळी द्रव्यना आश्रये ज्ञानमात्र
PDF/HTML Page 3945 of 4199
single page version
भावनुं परिणमन थतां अंदर द्रशिशक्ति उछळे छे-परिणमे छे, अने साथे अनंत शक्तिओ उछळे छे-पर्यायमां प्रगट थाय छे. आ बधी क्रमबद्ध प्रगट थाय छे अर्थात् ते काळे तेमनी जन्मक्षण छे तो प्रगट थाय छे. प्रवचनसारना ज्ञेय अधिकारमां गाथा १०२मां आ वात आवी छे. ज्ञेयनो (द्रव्यनो) आवो स्वभाव छे एम त्यां वर्णन कर्युं छे.
श्री जयसेनाचार्यदेवे आ (प्रवचनसारना) ज्ञेय अधिकारने सम्यग्दर्शननो अधिकार कह्यो छे. त्यां ज्ञेयनो स्वभाव एटले द्रव्यना स्वभावनी वात छे. छए द्रव्योनो आ स्वभाव छे के तेनी प्रत्येक पर्यायनी जन्मक्षण छे. अर्थात् जे समये जे पर्याय थवानी होय ते पर्याय ते समये प्रगट थाय ज छे. द्रव्यनी प्रत्येक पर्याय पोताना स्वकाळे प्रगट थाय छे. त्यारे तो कह्युं के-क्रमवर्ती पर्याय अने अक्रमवर्ती गुणोनो समुदाय ते आत्मा छे. भाई! भगवाननो पंथ जेवो छे तेम ख्यालमां लेवो जोईए.
एकेक शक्ति पोताना स्वभावथी ज परिणमन करे छे, ने तेमां व्यवहारनो-रागनो अभाव छे. आ वस्तुस्वभाव छे. व्यवहारथी पण शक्ति प्रगट थाय ने निश्चयथी पण प्रगट थाय एम छे नहि. लोकोने सत्यार्थनी खबर नथी तेथी तेओ आ वातनो विरोध करे छे, पण खरेखर तो तेओ पोतानो विरोध करे छे. शुं थाय? एकेक शक्ति निर्मळपणे परिणमे छे तेमां व्यवहारनो अभाव ज छे. आ स्याद्वाद अने आ अनेकान्त छे. अनेकान्तनो अर्थ एवो नथी के निर्मळ पर्याय व्यवहार-रागना लक्षेय थाय ने पोताना निश्चय द्रव्यना लक्षेय थाय. ए तो फूदडीवाद छे भाई!
आत्मा चैतन्यवस्तु छे ते द्रव्य छे. तेमां अनंत शक्तिओ छे. शक्तिनुं परिणमन थाय ते पर्याय छे. अने जे वेदन थाय ते पर्यायमां थाय छे. शक्ति तो नित्य ध्रुवस्वरूपे छे, तेमां कार्य नथी, कार्य पर्यायमां थाय छे. वेदन- अनुभव पर्यायमां थाय छे. ‘अनुभव करो, अनुभव करो’ -एम केटलाक कहे छे. पण बिचाराओने अनुभव शी चीज छे एनी खबर नथी. निराकुल आनंदनुं वेदन थाय ते अनुभव छे, अने ते पर्याय छे. जुओ, पर्यायमां दुःख छे, द्रव्य-गुणमां दुःख नथी. स्वानुभव करतां पर्यायमां जे दुःख छे तेनो नाश थाय छे, ने आनंदना वेदननी नवी अवस्था उत्पन्न थाय छे. पण हवे वेदांतीओनी जेम पर्याय शुं चीज छे एनीय खबर न मळे अने अनुभवनी वात करे, पण तेने अनुभव शी रीते थाय? एने तो दुःखनो ज अनुभव रहे. भाई! उपयोगनी दशाने अंतर्मुख- स्वाभिमुख कर्या विना स्वानुभवनी दशा प्रगटती नथी. वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरे कहेली वस्तु जेम छे तेम यथार्थ जाणवी जोईए.
आत्मानी शक्तिओ छे ते पारिणामिकभावस्वरूप छे. द्रशिशक्ति ते भाव (त्रिकाळी) अने आत्मद्रव्य ते भाववान. तथा ते बन्ने परिणामिकभावे छे. पर्यायमां जे भाव प्रगटे छे ते बीजी चीज छे. आ तो शक्ति अने शक्तिवान सहज अकृत्रिम स्वभावरूप छे ते पारिणामिकभावे छे. ते नवीन उत्पन्न थतो नथी, ने तेनो अभाव थतो नथी. अहा! आवा पारिणामिकभावरूपे द्रशिशक्ति छे. पर्यायो नवी नवी उत्पन्न थाय छे, ज्ञान, दर्शन आदि गुणो छे ते उत्पन्न थता नथी, विनशता पण नथी, त्रिकाळ शाश्वतपणे रहे छे. अहो! आ जैनदर्शन बहु सूक्ष्म अलौकिक छे. तेनो पत्तो लागी जाय तेना भवनो अंत आवी जाय छे. एना विना बधा क्रियाकांड-व्रत, तप आदि सर्व-फोगट छे, संसारनुं-बंधनुं ज कारण बने छे.
अहा! त्रिकाळी द्रशिशक्ति छे ते पारिणामिकभावे छे. ३२०मी गाथामां मोक्षनुं कारण कया भाव छे तेनो खुलासो कर्यो छे. औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक-आ चार भाव पर्यायरूप छे, ने द्रव्य-गुण छे ते पारिणामिकभाव छे. तेमांथी मोक्षनुं कारण कोण? त्यां खुलासो कर्यो छे के-
-पारिणामिकभाव छे ते मोक्षनुं कारण नथी, केमके ते अक्रिय छे, तेमां कार्य थतुं नथी. -औदयिकभाव मोक्षनुं कारण नथी, केमके रागादि औदयिकभाव छे ते बंधरूप ने बंधनाकारणरूप छे. -बाकीना उपशम, क्षयोपशम अने क्षायिक ए त्रण भाव मोक्षनुं कारण थाय छे; केमके ते शक्तिना निर्मळ
अहीं दर्शनशक्तिनी वात चाले छे. अहा! तेनुं अंशे निर्मळ परिणमन छे ते क्षयोपशमभावे छे, केवळदर्शन क्षायिकभावरूप छे ने दर्शनमां उपशमभाव होतो नथी ने शक्तिना परिणमनमां औदयिकभावनो तो अभाव ज छे. आवी वात छे.
चोथा गुणस्थानके क्षायिक समकित थाय छे ते क्षायिकभाव छे. श्रेणीक राजा प्रथम बौद्धधर्मी हता. तेमने मुनिराजनो
PDF/HTML Page 3946 of 4199
single page version
समागम थतां ते समकित पाम्या. आत्मज्ञान थया पछी ते भगवान महावीरना समोसरणमां पधार्या. त्यां क्षायिक समकित पाम्या; भगवानना कारणे नहि हों, पोताना अंतःपुरुषार्थथी; भगवान तो तेमां निमित्तमात्र छे. क्षायिक समकित थया पछी कदी तेनो अभाव न थाय. क्षायिक समकित पर्याय छे एटले पलटे खरी, पण अभाव थईने कदी मिथ्यात्व न थाय. समकित थया पहेलां तेमने नरकगतिनुं आयुष्य बंधाई गयेलुं. वर्तमानमां तेओ प्रथम नरकमां छे. पण नरकमांय तेमने शील छे. सम्यग्दर्शन-ज्ञान ने स्वरूपाचरणरूप शील तेमने त्यांय छे. ते शीलना प्रतापे त्यांथी नीकळी आवती चोवीसीमां भरतना प्रथम तीर्थंकर थई मोक्ष पामशे. पांचमा, छट्ठा गुणस्थानमां शीलनी विशेषता होय छे, तथापि चोथेय शील होय छे. अनंतानुबंधी कषायनो अभाव छे एटलुं त्यां नरकमांय चोथे गुणस्थाने शील छे. शील एटले बहारमां ब्रह्मचर्य होय एनी वात नथी. आ तो स्वरूपनां श्रद्धान-ज्ञान ने लीनतारूप परिणाम तेने शील कहे छे. अरे! अनंत वार मुनिपणुं लईने ए नवमी ग्रैवेयकनो देव थयो, पण आत्मभान विना एने शील न थयुं अहा! एना पंचमहाव्रतना भाव शील न हता. समजाणुं कांई...?
भाई! आ बधुं खास अभ्यास करीने समजवुं पडशे हों. बहार (चतुर्गतिमां) रखडवानो अभ्यास तो अनादि काळथी करतो आवे छे. सारी नोकरी मळे, बाग-बंगला मळे ने पासे पांच-दस लाखनी मूडी थई जाय ए बधुं तो धूळधाणी छे. बहारमां लाखोनी पेदाश थाय ए बधो खोटनो धंधो छे. बहारना एम. ए. , ने एल. एल. बी. ना अभ्यासमां वर्षो गाळे ए एकलो पापनो अभ्यास छे. तेना फळमां तने दुःखनां निमित्तो मळशे. अने अहा! आ अध्यात्मविद्यानो अभ्यास करे तो तेना फळमां स्वाधीन अतीन्द्रिय आनंद मळशे. आ संयोगोनी द्रष्टि जवा दे भाई! संयोग तो जे आववायोग्य हशे तेज आवशे. ‘दाणे दाणे खानारनुं नाम’-लोकमां एम कहे छे ने? एनो अर्थ शुं? ए ज के जे रजकणो संयोगमां आववाना छे ते आवशे ज, अने नहि आववायोग्य संयोग क्रोड उपाय कर्ये पण नहि आवे. भाई! संयोग मेळववानो उधम करे छे माटे ते मळे छे एम नथी. (हवे तत्त्वाभ्यास विना आ केम समजाय?)
भाई! आ शक्तिनो अधिकार सूक्ष्म छे; माटे शांतिथी सांभळवुं. आ आत्माना अंतरनी हितनी वात छे. दुनिया माने न माने एनाथी कांई ज संबंध नथी. अहीं कहे छे-दर्शनशक्ति अनाकार उपयोगमयी छे. दर्शन एटले श्रद्धा शक्तिनी आ वात नथी. आत्मानी प्रतीतिरूप-सम्यग्दर्शनरूप जेनुं कार्य छे ते श्रद्धाशक्तिनी आ वात नथी. आ तो निर्मळ देखवाना उपयोगरूप दर्शनशक्तिनी वात छे. पोताना द्रव्य अने अनंत गुण-पर्यायोने पर्यायमां देखे एवी अनाकार उपयोगमयी दर्शनशक्तिनी आ वात छे. अहाहा...! द्रशिशक्ति सहित अंदर द्रव्यमां जयां देखवा जाय त्यां ते द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापी जाय छे. वळी परने देखवाथी दर्शनशक्तिनो उपयोग साकार थई जाय छे एम नथी. दर्शन उपयोग तो स्वने, परने-सर्वने भेद पाडया विना ज सामान्यपणे देखे छे. द्रशिशक्ति, तेनी साथे अनंता गुणो, अने एकरूप त्रिकाळी द्रव्य ए बधुं दर्शन उपयोगमां सामान्यसत्तामात्र देखवामां आवे छे. भाई! आ दर्शन उपयोग सूक्ष्म छे. अनाकार छे ने? तेथी छद्मस्थ तेने पकडी न शके, पण आगम, अनुमान अने अंतर्मुख थयेला ज्ञान वडे ते समजाय एम छे. आ तो बापु! अंतरनी पोतानी चीजने पहोंचवानी वात छे. बाकी ११ अंगनुं जाणपणुं थई जाय तोय आत्मा देखाय एम नथी.
अहाहा...! अनाकार उपयोग (शक्तिपणे) तो त्रिकाळ छे, परंतु अज्ञानीने अनादिथी वर्तमान वर्ततो उपयोग केवळ परसन्मुख प्रवर्ततो होवाथी तेने शक्तिनुं वास्तविक परिणमन प्रगटतुं नथी, तेने शक्तिनुं यथार्थ फळ आवतुं नथी. पण ज्यारे ते स्वसन्मुख थई स्व-आश्रये परिणमे छे त्यारे निर्मळ उपयोग (स्व-परने देखवारूप) प्रगट थाय छे अने साथे अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे. अहाहा...! अनंत गुणोनुं रूप तेमां आवी जाय छे. बीजा गुण तेमां आवी जाय एम नहि, पण बीजा गुणनुं रूप तेमां आवी जाय छे. अहाहा...! बधुं देखाय पण आकार नहि, उपयोग निराकार निर्विकल्प होय छे. बधाने देखे पण उपयोग साकार न थाय, सत्तामात्र देखे बस. ज्ञान छे ते सविकल्प छे, ते स्व-परने सर्वने भेद पाडीने जाणे छे. परंतु दर्शनशक्तिनो उपयोग तो सत्तामात्र वस्तुमां उपयुक्त थवारूप छे. दर्शनक्रियामात्र छे. भाई! आ तारा आत्माना गुणोनो खजानो खोलवामां आवे छे. (एम के सावधान थई खजानो जो.)
अहा! भगवान केवळी कहे छे-भाई! तारी चैतन्य वस्तुमां अनाकार उपयोगमयी एक दर्शनशक्ति छे. अहाहा...! आ उपयोग अने आ उपयोगवान एवा भेदनुं लक्ष छोडी अभेद एक चैतन्य वस्तुनुं ज्यां अंतर-आलंबन करे के तत्काल निर्मळ उपयोगनी दशारूपे शक्ति प्रगट थाय छे; ते द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. अहाहा...! द्रव्य
PDF/HTML Page 3947 of 4199
single page version
द्रष्टा, गुण द्रष्टा, अने पर्याय पण एक द्रष्टाभावरूप प्रगट थाय छे. अहा! आ दर्शनशक्ति क्रमे निर्मळ निर्मळ एवी परिणमे के आखा लोकालोकने देखनारा केवळदर्शनरूप परिणमी जाय छे. ते लोकालोकना पदार्थोने करे एम नहि, मात्र सामान्यसत्तारूप देखे बस. अहा! आम द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे एवी दर्शनशक्तिना उपयोग वडे तुं देखे ते यथार्थ देखवुं छे. केमके तेमां परावलंबन नथी. बाकी इन्द्रियोना के विकल्पना आलंबने-आश्रये जे उपयोग प्रगट थाय ते तो आत्मानो उपयोग ज नथी, ते शक्तिनुं कार्य नथी. शक्तिनी साथे एकता करी परिणमे ते शक्तिनुं कार्य छे. आवी वात छे.
अहाहा...! आत्मानी एकेक शक्ति अनंत शक्तिमां व्यापक छे. अने ते प्रत्येक शक्ति द्रव्यद्रष्टि थतां पर्यायमां पण व्यापे छे. आ दर्शनशक्ति छे तेय द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. त्यां शक्ति ध्रुव त्रिकाळ छे ते ध्रुव उपादान छे, अने तेनी वर्तमान पर्याय प्रगट थाय ते क्षणिक उपादान छे.
तो कोई निमित्त छे के नहि? इन्द्रियादि बाह्य पदार्थो तेमां निमित्त हो, पण शक्तिने तेनुं आलंबन नथी. निर्मळ दर्शनोपयोग प्रगट थाय ते स्वालंबी छे, इन्द्रियादि बाह्य चीजोथी ते निरपेक्ष प्रगट थाय छे. अहा! दर्शनशक्ति तो ध्रुव छे, पण तेनुं अनाकार उपयोगरूपे परिणमन थाय छे ते तेनी इन्द्रियादि निमित्तथी निरपेक्ष स्वालंबी क्रिया छे. शक्तिना परिणमननां छए कारको स्वाधीन छे. अहो! आवो अद्भुत अलौकिक कोई आत्मद्रव्यनो महिमा छे. भाई! आ बधुं पोताने जाणवा-समजवा माटे छे. बीजाने विस्मय पमाडवानी आ वात नथी. भाई! अद्भुत अनंत आश्चर्योनुं निधान चैतन्यचमत्कार वस्तु तुं छो. तेनो अंतरमांमहिमा लावी एक वार अंतर-द्रष्टि करी परिणमी जा; एथी तने सुखनुं निधान एवो धर्म प्रगटशे, अने अनादिकालीन संसारनी रझळपट्टी मटशे. समजाणुं कांई...?
आ प्रमाणे आ त्रीजी द्रशिशक्ति पूरी थई.
‘साकार उपयोगमयी ज्ञानशक्ति. (जे ज्ञेय पदार्थोना विशेषोरूप आकारोमां उपयुक्त थाय छे एवी ज्ञानोपयोगमयी ज्ञानशक्ति.)’
‘साकार उपयोगमयी ज्ञानशक्ति’ -अहाहा...! शुं कहे छे? पहेलां निरंजन निराकार द्रशिशक्ति कही. ते ज्ञेयपदार्थोने सर्वने सत्तामात्र देखवारूप छे. अहीं कहे छे-जे समये द्रशिशक्ति छे तेज समये आत्मामां साकार उपयोगमयी ज्ञानशक्ति छे. ज्ञानशक्ति साकार छे एटले शुं? के ते ज्ञेयपदार्थोने-स्व अने पर, जीव अने अजीव सर्व पदार्थोने-विशेषपणे भिन्न भिन्न करीने पण जाणे छे. ज्ञान अभेदने जाणे छे, भेदने पण जाणे छे; द्रव्य-गुण-पर्याय- सर्वने जाणे छे. अहाहा..! ज्ञाननुं कोई अलौकिक सामर्थ्य छे, एनो आ महान विशिष्ट स्वभाव छे के ते सर्वने-सर्व भावोने भेदरूप पण जाणे छे. अध्यात्म पंचसंग्रहमां आवे छे के-
अहो! एक समयनी पर्यायमां द्रशिशक्तिनो उपयोग कोई पण भेद कर्या विना पूर्ण देखे अने ते द्रशिशक्तिना परिणमननी साथे ज्ञानशक्तिनुं जे परिणमन छे ते परिणमन एकेक द्रव्यने भिन्न भिन्न जाणे, एकेक गुणने भिन्न भिन्न जाणे, एकेक पर्यायने भिन्न भिन्न जाणे, अने एकेक पर्यायना अनंत अविभाग प्रतिच्छेदोने भिन्न भिन्न जाणे. आ रीते एक समयनी ज्ञाननी पर्याय सर्वने भिन्न भिन्न जाणे अने ते ज समये द्रशिशक्तिनी पर्याय सर्वने अभिन्न देखे. अहो! आ ज्ञाननी कोई अद्भुत लीला छे. आवी वात!
हवे इन्द्रियोथी-निमित्तथी ने विकल्पथी आत्मा जाणे ए तो कयांय दूर रही गयुं (अज्ञानमां गयुं), अहीं तो कहे छे-आत्मामां साकार उपयोगमयी एक ज्ञानशक्ति छे जेना एक समयना निर्मळ उपयोगमां स्व-पर सहित सर्व जीव-अजीव पदार्थो जाणवामां आवे छे. अहाहा...! ज्ञाननी एक समयनी पर्यायमां अनंता सिद्धो ने केवळी भगवंतो ज्ञेयपणे जणाय एवुं अचिंत्य एनुं सामर्थ्य छे. समजाय छे कांई...?
ज्ञानशक्ति साकार उपयोगमयी छे. साकार एटले शुं? प्रदेश अपेक्षा तेने आत्मानो असंख्यप्रदेशी अरूपी आकार-क्षेत्र छे माटे ज्ञान साकार छे एम वात अहीं नथी. वळी तेने जेम जड-पुद्गलने स्पर्शादि सहित आकार- मूर्तपणुं होय छे तेवो मूर्त आकार छे एम पण नथी, केमके आत्मा तो त्रिकाळ अरूपी-अमूर्त ज छे. तेथी पुद्गलनी जेम मूर्तपणुं
PDF/HTML Page 3948 of 4199
single page version
नहि होवाथी ज्ञान अरूपी अनाकार-निराकार ज छे. तो साकार केवी रीते छे? अहाहा...! ज्ञानमां स्व-पर सहित चेतन-अचेतन समस्त पदार्थोने विशेषपणे आकारो सहित जाणवानुं विशेष-असाधारण सामर्थ्य छे तेथी ते साकार छे. आ प्रमाणे-
-पुद्गलनी जेम मूर्तिक नहि होवाथी ज्ञान निरंजन निराकार-अनाकार छे. -अरूपी आकार-क्षेत्र सहित होवाथी साकार छे, पण ए वात अहीं नथी. -स्व-परने-द्रव्य-गुण-पर्याय सहित समस्त पदार्थोने विशेषपणे भिन्न भिन्न जाणवाना असाधारण सामर्थ्य
अहा! भेदने विषय नहि करती होवाथी दर्शनशक्ति अनाकार उपयोगमयी छे, अने भेद-अभेद सर्वने जाणी लेतुं होवाथी ज्ञान साकार छे. अहो! ज्ञाननी कोई अचिंत्य अद्भुत लीला छे.
अहा! स्वाभिमुख ज्ञाननो उपयोग पोताने जाणे छे, त्रिकाळी ध्रुवने जाणे छे, साथे एना अनंता गुणोने ने अनंती पर्यायोने जाणे छे, अंतरंगमां प्रगट थयेली अतीन्द्रिय आनंदनी लहरने पण जाणे छे. भले श्रुतज्ञाननो उपयोग होय, श्रुतज्ञाननी पर्यायनुं पण सामर्थ्य एटलुं छे के ते पोताना त्रिकाळी द्रव्यने, त्रिकाळी गुणोने अने पोतानी अनंत पर्यायोने जाणे छे अने अनंता पर द्रव्य-गुण-पर्यायने-बधाने ज्ञाननी पर्याय जाणी ले छे. अहाहा...! जाणवानो जेनो अक्षय अपरिमित स्वभाव छे ते कोने न जाणे? अहाहा...! ज्ञान पोते पोतामां ज स्थित रहीने सर्वने जाणी ले छे. अहा! आवी साकार उपयोगमयी जीवमां ज्ञानशक्ति त्रिकाळ छे. अहा! आवी शक्तिवाळा शक्तिवान आत्मानो महिमा लावी अंतरमां एनी रुचि करे तेने केवळज्ञाननी शंका रहे नहि.
भाई! तारो आत्मा तो अक्षय अपरिमित ज्ञानस्वभावनो समुद्र छे. अहाहा...! तेमांथी निरंतर ज्ञाननी पर्यायो -लहरो उठया करे एवुं तेनुं सामर्थ्य छे. सादि-अनंतकाळ पर्यंत तेमांथी केवळज्ञान नीकळ्या ज करे तोय ज्ञान स्वभावमां कांई क्षति न थाय एवुं तारा केवळज्ञानस्वभावनुं अचिंत्य सामर्थ्य छे. भाई! तुं अंदर जो तो खरो; तत्काल तने तेनी रुचि-प्रतीति थशे.
अहाहा...! दर्शनशक्ति जरा सूक्ष्म छे. दर्शनशक्तिनी पर्यायमां द्रव्य-गुण-पर्याय सहित स्व-पर सर्वंने देखवानुं कार्य थाय छे, पण दर्शनशक्तिनो उपयोग साकार नथी. आ ज्ञानशक्ति छे ते साकार उपयोगमयी छे. पूर्ण स्वद्रव्य, त्रिकाळी ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनंत गुण अने पोतानी अनंती पर्याय अने ते सिवाय अनंता पर द्रव्य-गुण-पर्याय ए बधुं ज एक समयमां साकार नाम विशेषपणे जाणवारूप परिणमन करे एवुं अद्भुत आ ज्ञानशक्तिनुं कार्य छे. आवो झीणो मारग!
हा, पण आवुं ज्ञान प्रगट केम थाय? बहु शास्त्र भणे तो थाय खरुं ने? अरे भाई! ज्ञान तो आत्मानी निजशक्ति छे. हवे निजशक्तिने जाणी शक्तिवान त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यमां द्रष्टि स्थापित करे त्यारे शक्ति स्वयं परिणमी जाय छे, पर्यायमां व्यक्त थाय छे. ज्ञानशक्तिनुं परिणमन कयांय बहारथी- शास्त्रमांथी के देव-गुरु आदिमांथी नथी आवतुं. अहा! महामहिमावंत ज्ञानशक्तिवाळा आत्मानी द्रष्टि कर्या विना एकला परलक्षे शास्त्र कोई भणी जाय तोय शुं? एथी कांई शक्तिनुं कार्य जे सम्यग्ज्ञान ते प्रगटतुं नथी. शास्त्र तो बापु! निमित्तमात्र छे. तेय कोने? जे अंतर-अवलंबने परिणमे तेने. जे स्वस्वरूपनुं आलंबन ले नहि तेने शास्त्र शुं करे? कांई ज न करे. समजाणुं कांई...?
जुओ, अभविने ज्ञाननी परिणति नथी अहाहा...! अनेक शास्त्र भणे, अगियार अंग भणे तोय अभविने ज्ञाननी परिणति नथी. झीणी वात छे भाई! अभविने ज्ञाननो क्षयोपशम छे, पण अभव्यत्वरूप अयोग्यता छे ने? मिथ्याद्रष्टि छे ने? तेथी तेने ज्ञाननी परिणति नथी, तेने शुद्धज्ञानमय आत्मानुं ज्ञान-श्रद्धान उदय पामतुं नथी. ज्ञाननी परिणति तो शुद्ध सम्यग्द्रष्टिने ज होय छे. एम तो ज्ञाननी पर्यायमां अज्ञानीने पण आत्मद्रव्य जाणवामां आवे छे. आवो १७-१८ गाथामां पाठ छे. ज्ञानगुण तो त्रिकाळ ध्रुव छे, तेमां जाणवानुं कार्य थतुं नथी, जाणवानुं कार्य पर्यायमां थाय छे. तो जाणवानी पर्यायमां अज्ञानीने पण स्वद्रव्य जाणवामां आवे छे, पण तेनी द्रव्य उपर द्रष्टि नथी, तेनी पर्याय अने राग उपर ज द्रष्टि छे. तेथी पर्याय ने राग हुं छुं एम ते जाणे छे, माने छे. आ रीते शास्त्र भणवा छतां अंतःद्रष्टि विना अज्ञानीने शास्त्र भणवानो लाभ थतो नथी. आवी वात! समजाणुं कांई...?
PDF/HTML Page 3949 of 4199
single page version
अहाहा...! कहे छे-साकार उपयोगमयी ज्ञानशक्ति छे. ‘उपयोगवाळी’ एम नहि, ‘उपयोगमयी’ एम कहीने उपयोगनुं ज्ञानगुण साथे अभेदपणुं होवानुं सिद्ध कर्युं छे. अहाहा...! जे उपयोग ज्ञानस्वभावी स्वद्रव्यमां एकाकार-अभेद थई प्रवर्ते तेने ज, कहे छे, अमे उपयोग कहीए छीए. अहा! जे उपयोग बहार परद्रव्यमां ने रागादिमां तन्मय थई प्रवर्ते तेने आत्मानो उपयोग कहेता ज नथी, तेने निर्मळ ज्ञाननी परिणति कहेता नथी; ए तो अज्ञान छे. आ शक्तिनो अधिकार बहु सूक्ष्म छे. आ पोताना हितनी वात छे, पण हित कयारे थाय? अहाहा...! वर्तमान ज्ञाननी पर्याय ज्ञानस्वभावी स्वद्रव्यनी सन्मुख थई तेमां तन्मयपणे प्रवर्ते त्यारे ‘आ हुं ज्ञानस्वभावी स्वद्रव्य छुं’-एम ज्ञान-श्रद्धान प्रगट थाय छे; आनुं नाम सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान छे, अने आ हितरूप धर्म छे. अज्ञानीने पण ज्ञाननी दशामां स्वद्रव्य जणाय छे, पण तेनुं लक्ष त्यां स्वद्रव्य पर नथी, तेनुं लक्ष बहार पर्याय ने रागादि पर छे. तेथी तेने ज्ञानस्वभावी आत्मद्रव्य हुं छुं एम जाणपणुं न थतां आ वर्तमान पर्याय ने रागादि हुं छुं एम मिथ्या ज्ञान-श्रद्धान थाय छे. आ पोताना अहितनी दुःखनी दशा छे. भाई! उपयोग निजस्वरूपमां एकाकार-अभेद थई प्रवर्ते ते ज हितनी दशा छे; ते ज मोक्षमार्ग छे.
अहाहा...! आ ज्ञानशक्ति छे ते सहज स्वभावरूप पारिणामिकभावरूप छे. अज्ञानी जीवने एनी खबर नथी. अहाहा...! पण आ त्रिकाळ पारिणामिकभाव छे एम जणाय कयारे? एनुं भान कयारे थाय? तो कहे छे- स्वस्वरूपमां अंतर-एकाग्र थई एनी सत्तानो स्वीकार करे त्यारे. अहाहा...! पारिणामिकभाव तो त्रिकाळ छे, पण अंतर्मुख ज्ञानना परिणमनमां तेनो प्रतिभास थाय त्यारे ते छे एम निश्चय थाय छे. अरे भाई! अंतर- एकाग्रताथी निश्चय कर्या विना ए छे एम वात कयां रहे छे? अहा!आवुं बहु सूक्ष्म वस्तुनुं स्वरूप छे. तेने हमणां नहि समजे तो भाई! कयारे समजीश?
अहा! बस जाणवुं ए ज्ञाननो स्वभाव छे. ज्ञान जेम स्वद्रव्यने जाणे तेम पुद्गलादि परद्रव्यने जाणे छे ने एक समयनी पर्यायमां विकार-राग छे तेनेय जाणे छे. पण तेथी कांई ज्ञान पुद्गलादि परद्रव्यरूप के रागरूप थई जतुं नथी; अर्थात् ते पुद्गलादि परद्रव्यने के रागने करतुं नथी. आ वस्तुस्थिति छे. अनादिथी आ नहि मानतो होवाथी ज जीव अज्ञानी छे. ज्ञान स्वद्रव्यने जाणे तेम तेना अनंत गुणने पण भिन्न भिन्न जाणे छे, पण ज्ञान कांई बीजा अनंत गुणरूप थई जतुं नथी. जो थाय तो ज्ञान ज न रहे, ज्ञाननो अभाव थाय, अने तो द्रव्यनो पण अभाव थाय. पण एम छे नहि. द्रव्यमां एक गुण बीजा गुणरूप थाय एवी वस्तुस्थिति ज नथी. छतां बधा अनंत गुण एक द्रव्यमां अभेदपणे व्यापक छे. अहा! आवा अभेदनी जेने द्रष्टि थाय तेने अंदर आनंद उछळे छे अर्थात् अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे. आनुं नाम धर्म छे. लोकोने खबर नहि एटले ‘एकान्त छे’ एम राडो पाडे पण बापु! आ सम्यक् एकान्त छे. तुं सांभळ तो खरो; भाग्य होय तो सांभळवाय मळे एवी आ अलौकिक वात छे.
अहाहा...! आ ज्ञानशक्ति द्रव्यनी अनंत शक्तिमां व्यापक छे. शक्ति कहो के गुण कहो; अहाहा...! एकेक गुण सर्व अनंत गुणमां ने अनंतगुणमय द्रव्यमां व्यापक छे. अहाहा...! आ ज्ञानशक्ति द्रव्यमां व्यापक छे, गुणमां व्यापक छे, अने अभेद एक त्रिकाळी द्रव्यनी द्रष्टि थतां पर्यायमां व्यापक थाय छे. अने त्यारे राग भिन्न रही जाय छे केमके अभेदनी द्रष्टिमां राग व्यापतो नथी. अहा! पहेलां पर्यायमां राग व्यापतो हतो, मिथ्यात्वादि व्यापतां हतां, अने त्यारे संसारनुं फळ आवतुं हतुं; पण हवे ज्यां द्रव्यद्रष्टि थई, आ ज्ञानस्वभावी हुं आत्मा छुं एम द्रष्टि थई तो पर्यायमां ज्ञान ने आनंद उछळ्यां, अनंत शक्तिओ निर्मळ उछळी. अहाहा...! अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंद प्रगट थयां. परद्रव्यमांथी मारुं ज्ञान ने सुख आवे छे एवा मिथ्या अभिप्रायनो नाश थई गयो, ने ज्ञानना निर्मळ निर्मळ परिणमननी धारानो क्रम शरू थयो. अहो! आवी द्रव्यद्रष्टि अलौकिक चीज छे.
अहा! आ ज्ञानशक्ति द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. तेमां ज्ञानशक्ति त्रिकाळ ध्रुवरूपे छे ते त्रिकाळी ध्रुव उपादान छे अने पर्यायमां ज्ञानना उपयोगरूप तेनुं परिणमन थाय ते क्षणिक उपादान छे. हवे आवी वात तमारी लौकिक कोलेजना भणतरमां बी. ए. ने एल. एल. बी. मां न आवे. पण आ तो केवलज्ञाननी कोलेज बापु! अहाहा...! ज्यां ज्ञानशक्तिनुं स्व-आश्रये निर्मळ परिणमन थयुं त्यां ए ज्ञाने पोतानुं त्रिकाळी द्रव्य जाण्युं, पोताना अनंत गुण जाण्या, पोतानी निर्मळ परिणति पण जाणी; अहाहा...! ते समये अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन थयुं तेम (पोतानुं छे एम) जाण्युं, अहाहा...! पण व्यवहाररत्नत्रयनो राग कयांय दूर रही गयो. (पोतानो छे एम न जणायो.) अहाहा...! आनुं नाम अनेकान्त छे. व्यवहारथी-रागथी पण धर्म थाय अने निश्चयथी पण धर्म थाय एवुं अनेकान्तनुं स्वरूप नथी; ए तो फुदडीवाद छे.
PDF/HTML Page 3950 of 4199
single page version
आ शक्तिनुं वर्णन चाले छे. तेमां ज्ञानशक्ति छे ते त्रिकाळी गुण छे, अने गुणनुं धरनारुं त्रिकाळी द्रव्य छे ते गुणी छे. अहाहा...! त्यां गुणी-त्रिकाळी द्रव्य सन्मुखनी द्रष्टि थतां शक्ति छे ते क्रमवर्ती निर्मळ निर्मळ परिणमे छे, ने विकार तो कयांय भिन्न रही जाय छे. अरे भाई! शक्ति अने शक्तिना परिणमनमां विकारनो सदाय अभाव छे, केमके विकारने करे एवी आत्मद्रव्यमां कोई ज शक्ति नथी. आ व्यवहाररत्नत्रयनो राग थाय ते शक्तिनुं कार्य नथी, निर्मळ ज्ञानानंदमय परिणमनमां व्यवहार रत्नत्रयनो तो अभाव ज छे. आ अनेकान्त छे. अहो! आवो मार्ग दिगंबर संतोए खुल्लो कर्यो छे. हवे एमां मने न समजाय एवुं शल्य जवा दे भाई! संतोए तने समजाय एवी चीज छे एम जाणीने आ वात करी छे.
भाई! जिज्ञासाथी ध्यान दईने आ समजे तो आत्मज्ञान थई जाय एवी आ वात छे. अहा! पाणीनी तरस लागी होय तो घरे घोडो होय तेने न कहेवाय के-पाणी लाव; पण जेनामां समजशक्ति छे तेवा आठ वरसना बाळकने कहेवाय के पाणी लाव. अहाहा...! तेम आचार्यदेव जेनामां समजशक्ति छे एवा संज्ञी भव्य जीवोने कहे छे के-ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्माने तुं जाण. अहाहा... अंदर जाणवाना स्वभाववाळो भगवान आत्मा तुं छो-तेने तुं जाण. अहाहा...! आचार्यदेव कांई जड शरीरने के रागने कहेता नथी के तुं आत्माने जाण!
ओहो...! ‘साकार उपयोगमयी ज्ञानशक्ति’ कहीने आचार्यदेवे केटलुं भरी दीधुं छे! शक्तिमां व्यापक-तन्मय थईने प्रगट थती ज्ञाननी क्रमवर्ती पर्यायने पोतानां कर्ता, कर्म आदि षट्कारक स्वाधीन छे. कांई परना के रागना आश्रये ज्ञान परिणमे छे एम नथी. अहा! ज्ञाननां कारको परमां ने रागमां नथी, पण ज्ञाननां कारको ज्ञानमां ज छे. अहाहा...! ज्ञानशक्तिमां कर्ता, कर्म, करण आदि आत्मद्रव्यनी षट्कारक शक्तिओनुं रूप छे. शुं कीधुं? ज्ञानशक्तिमां षट्कारक शक्तिओ नथी, पण तेमां षट्कारक शक्तिओनुं रूप छे. तेथी ज्ञान स्वयं ज कर्ता थईने, साधन थईने पोतामां स्वतंत्र ज्ञाननुं कर्म करे छे, तेने कोई परनी के रागनी अपेक्षा नथी. हवे आवी वात पैसा ने आबरू रळवामां रोकाई गया होय ने विषयोमां रोकाई गया होय तेमने शें समजाय?
पण अरे भाई! ए पैसा ने आबरू ने विषयो-ए बधुं तो जड माटी-धूळ छे. एमां-जडमां सुख कयां छे के तने मळे? एमांथी सुख मळे एम त्रणकाळमां संभवित नथी. सुख तो तारा आत्मानो स्वभाव छे; तेमां एकाग्र था ने तेमां ज रोकाई जा; तने सुख मळशे.
अहा! स्वस्वरूपमां तन्मय एवी ज्ञाननी पर्याय पोताने जाणती प्रगट थई ते तेनी जन्मक्षण छे. प्रवचनसार गाथा १०२मां आ वात आवे छे. अहा! उत्पन्न थवानो ते काळ हतो तो ज्ञाननी पर्यायनो उत्पाद थयो. ते उत्पाद पूर्व पर्याय अने ध्रुवनी अपेक्षा राखतो नथी. जरा झीणी वात छे भाई! ज्ञाननी पर्याय ध्रुवनी सन्मुख थयेली ध्रुवने जाणे खरी, पण ते पर्याय ध्रुवनी अपेक्षा राखती नथी. ते पर्याय पोते ज कारण अने पोते ज कार्य छे. हवे आम छे त्यां परथी-देव-गुरु-शास्त्रथी थाय ने व्यवहारथी थाय ए वात ज कयां रहे छे? अहा! आवी चैतन्यना उपयोगमयी आत्मानी एक असाधारण ज्ञानशक्ति छे जे एक ज्ञानमात्र भावमां उछळे छे, अने त्यारे श्रद्धा, चारित्र आनंद आदि अनंत शक्तिओ भेगी उछळे छे अने आत्माने अचिंत्य आनंद पमाडे छे. आवो मार्ग छे भाई!
अहा! आवा ज्ञानस्वभावी आत्मानी स्वसन्मुख थई अंतर-प्रतीति करवी ते सम्यग्दर्शन छे अने ते धर्म छे. आ प्रमाणे आ चोथी ज्ञानशक्ति पूरी थई.
‘अनाकुळता जेनुं लक्षण अर्थात् स्वरूप छे एवी सुखशक्ति.’ अहाहा...! शुं कीधुं? के आत्मामां जीवना जीवनरूप जेम एक जीवत्वशक्ति छे तेम एक अतीन्द्रिय आनंदशक्ति छे; अर्थात् आत्माना अनाकुळ आनंदस्वभावमय आनंदशक्ति छे. अहाहा...! आत्मा त्रिकाळ सच्चिदानंद प्रभु छे. एमां सत् नाम शाश्वत चित् अने आनंद शक्ति त्रिकाळ पडी छे. जेम द्रव्य त्रिकाळ छे तेम तेमां अतीन्द्रिय आनंदनी शक्ति त्रिकाळ पडी छे. अहाहा...! त्रिकाळी ध्रुव आत्मद्रव्य अंदर पूरण आनंदना स्वभावथी भरेलुं छे तेना आश्रये परिणमतां, तेनी सन्मुख द्रष्टि करी परिणमतां, अंदरथी आ आनंदशक्ति उछळे छे अर्थात् अतीन्द्रिय आनंदना संवेदनवाळी अनाकुळ
PDF/HTML Page 3951 of 4199
single page version
दशा प्रगट थाय छे. गाथा पमां आचार्यदेव कहे छे ने के-अमने निरंतर झरतो-आस्वादमां आवतो सुंदर जे आनंद तेमय प्रचुरस्वसंवेदनस्वरूप स्वसंवेदन प्रगट छे. अहाहा...! ते आ आनंदशक्तिनुं कार्य छे. समजाणुं कांई...! अहाहा...! अंदर आनंदशक्तिपणे पूरण भरेलो छे, आचार्यने तेनी व्यक्ति प्रगट दशामां थई छे. आवी वात!
आ सुखशक्तिनुं वर्णन छे. केवी छे सुखशक्ति? तो कहे छे-अनाकुळता लक्षणस्वरूप छे. शुं कीधुं? एक समयनी वर्तमान दशामां आकुळता-दुःख छे ते गौण छे, अंदर वस्तु त्रिकाळी ध्रुव नित्यानंद छे ते अनाकुळतालक्षण छे. झीणी वात छे प्रभु! ‘कांईक हुं करुं’-एवी वृत्ति जे उठे ते आकुळता छे. शुभाशुभ विकल्प उठे ते आकुळता छे. पण मारे कांई ज करवुं नथी, ज्ञान पण करवुं नथी, थाय छे तेने शुं करवुं? अहाहा...! आवी सर्व विकल्प रहित, कांईपण करवाना बोजा रहित निर्भारता ते अनाकुळता छे. अहाहा...! आवी अनाकुळता लक्षण सुखशक्ति छे, अने तेनुं कार्य पण अनाकुळ आनंदमय छे; एनो स्वाद भगवान सिद्धना सुख जेवो होय छे. समजाणुं कांई...?
४७ शक्तिना आ अधिकारमां श्रद्धा अने चारित्र-ए बन्ने शक्तिओनुं अलगथी वर्णन कर्युं नथी. आ सुखशक्तिमां ते बन्ने शक्तिओ समावी दीधी छे. सुखशक्तिनी जेम श्रद्धाशक्ति त्रिकाळ छे. आ ज्ञानानंदमय त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य ते हुं छुं एवी प्रतीति-श्रद्धान थाय ते तेनुं कार्य छे. अहाहा...! सम्यग्दर्शनरूप थवुं ते श्रद्धाशक्तिनुं कार्य छे; अने ते प्रगटतां साथे ते ज समये नियमथी अनाकुळ आनंदनुं संवेदन प्रगट थाय ज छे. आ प्रमाणे सुखशक्तिना कार्य द्वारा-अनाकुळ आनंदना संवेदन द्वारा श्रद्धाशक्ति अने तेनुं कार्य प्रगट थयानुं समजी शकाय छे. आ रीते सुखशक्तिमां आचार्यदेवे श्रद्धाशक्ति गर्भित करी दीधी छे. (त्यां बन्नेनां लक्षण तो भिन्न ज जाणवां).
अहाहा...! श्रद्धा अने चारित्र तो मूळ चीज छे. ४७ शक्तिमां तेनुं वर्णन नथी तेथी ते नथी एम न समजवुं. बन्नेने आ सुखशक्तिमां समावी दीधेल छे एम यथार्थ जाणवुं. अहाहा...! आत्मामां जेम श्रद्धाशक्ति त्रिकाळ छे तेम चारित्रशक्ति त्रिकाळ छे. स्वरूपाचरण-स्वरूपस्थिरतानी क्रमे विशेषता थवी ते चारित्रशक्तिनुं कार्य छे, अने ते त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यना उग्र आलंबनथी प्रगट थाय छे. अहा! आवी चारित्रनी क्रमवर्ती वीतरागी दशा प्रगट थाय छे त्यारे तेनी साथे नियमथी अनाकुळ आनंदनी प्रचुर-प्रचुरतर दशा अनुभवाय छे. आ प्रमाणे अनाकुळ सुखशक्तिना कार्य द्वारा चारित्र गुणनी दशा समजी शकाय छे.
अहाहा...! स्वस्वरूपना आश्रये स्वरूपरमणतानी आत्मानुभवनी दशा थतां महा वैराग्य अने चारित्रनी दशा प्रगट थाय छे. आ दशामां अनुपम अनाकुळ आनंद भेगो होय ज छे. अहाहा...! आत्मानुभव थतां महा हितकारी वीतरागता सहित अनाकुळ आल्हादजनक सुखनी दशा प्रगट थाय छे. पण अरे! अज्ञानी जीव आवी चारित्रदशाने कष्टदायक माने छे. छहढालामां आवे छे ने के-
पण भाई! एक वार सांभळ तो खरो, अहाहा...! अंदर त्रिलोकीनाथ भगवान सच्चिदानंद प्रभु अनंत शक्तिओनो सागर लहराई रह्यो छे. अहाहा...! तेनी एकेक शक्तिमां बीजी अनंत शक्तिनुं रूप छे; एकेक शक्तिमां अनंत शक्ति व्यापक छे. अहा! आवा अनंत शक्तिमय भगवान आत्माने ज्यारे पर्याय अंतरमां वळीने देखे छे, श्रद्धे छे, ने तेमां रमे छे त्यारे प्रचुर आनंदनी-महा आनंदनी दशा प्रगटे छे. आवी आ आनंदशक्तिमां श्रद्धा अने चारित्र बन्नेने समावी दीधेल छे.
भाई! सम्यग्दर्शन थाय, सम्यक्चारित्र प्रगटे, अने साथे आनंद न आवे एवी वस्तुस्थिति नथी, केमके ज्ञान-मात्र भावना परिणमनमां सर्व अनंती शक्तिओ एक साथे उछळे छे; एटले तो सर्व गुणांश ते समकित एम कह्युं छे. कोई कहे के अमने समकित थयुं छे पण आनंद-अनाकुळ आल्हाद प्रगटयो नथी तो तेनी वात जूठी छे, अर्थात् तेने समकित थयुं ज नथी, ते अज्ञानी ज छे. घणा जैनाभासीओ एवुं माने छे के-अमने समकित तो छे, ने हवे व्रत लईए एटले चारित्र आवी जशे, पण तेमनी ए मान्यता तद्न जूठी छे, केमके अनाकुळ आनंदनी दशा प्रगटया विना समकित होतुं ज नथी; कुळपद्धतिथी कांई समकित होतुं नथी.
संप्रदायमां अमारा गुरुभाई कहेता के-आपणे जैनकुळमां जन्म्या छीए, एटले समकित तो गणधरदेव जेवुं ज थयेलुं छे, हवे बस व्रत, तप, दीक्षा ग्रहण करीए एटले चारित्र थई जाय. अरे भगवान! शुं वात छे आ? सम्यग्दर्शन
PDF/HTML Page 3952 of 4199
single page version
कांई कुळपद्धतिनी चीज नथी भाई! अहाहा...! अंदर पूर्णानंदनो नाथ सच्चिदानंद प्रभु त्रिकाळ विराजे छे तेनी रुचि-प्रतीति थवी ते सम्यग्दर्शन छे, अने ते स्वानुभूतिनी दशामां प्रगट थाय छे. अहा! आ समकित तो सर्व धर्मनुं मूळ छे भाई! हवे समकित शुं चीज छे एय जाणे नहि ते एनो पुरुषार्थ केम करे? अने विना समकित चारित्रनी दशा केम प्रगट थाय? आ धार्मिक वर्गमां आवेला सौ बराबर जाणे के समकित अने धर्म-चारित्र शुं चीज छे, केमके लोकमां ए ज सारभूत हितकारी चीज छे. आवे छे ने के-
भाई! सम्यग्दर्शननी पर्यायमां आखुं त्रिकाळी आत्मद्रव्य आवी जाय एम नहि, पण एमां पूर्ण आनंदस्वभाव एवा त्रिकाळी द्रव्यनी ने एना पूर्ण त्रिकाळी सामर्थ्यनी प्रतीति-श्रद्धा अवश्य आवी जाय छे. अहो! सम्यग्दर्शन आवी कोई अलौकिक चीज छे. एनी प्राप्ति थतां निर्मळ रत्नत्रयरूपी मोक्षमार्ग खुली जाय छे. अहा! चोथे, पांचमे, छठ्ठे गुणस्थाने सम्यग्दर्शन सहित जे अंतरात्मा छे तेने शिवमगचारी कह्यो छे. छहढालामां आवे छे के-
जघन कहे अविरत समदृष्टि, तीनों शिवमगचारी.
अहीं मार्गमां गमन शरू कर्युं छे तो चोथे अविरत सम्यग्द्रष्टिने पण शिवमगचारी कह्यो छे. चारित्रनी पूर्णता तो चौदमा गुणस्थानना अंतसमयमां थाय छे; छतां छट्ठा सातमा गुणस्थानमां स्वस्वरूपनी द्रष्टि सहित स्वरूपमां रमणता-लीनतानी विशेष दशा प्रगट थाय छे, अने त्यारे साथे प्रचुर आनंदनी दशा प्रगटे छे, अहा! आ छट्ठा- सातमा गुणस्थानथी मुख्यपणे चारित्र गणवामां आव्युं छे; अने त्यांथी मोक्षमार्ग कहेवामां आवे छे. चोथा गुणस्थानथी मार्ग खुले छे, तथापि चोथामां साक्षात् चारित्रदशा नथी; साक्षात् मोक्षमार्ग नथी. साक्षात् चारित्रदशा तो स्वरूपनी उग्र रमणतानी विशेष दशा थतां प्रगट थाय छे.
जुओ, श्रेणिक राजा क्षायिक समकिती हता. अंदर पूर्णानंदस्वरूप निज आत्मद्रव्यनी निश्चल प्रतीति थई हती. तथापि तेओ चारित्र लई शकया न हता, स्वस्वरूपनी उग्र रमणतारूप चारित्रनी दशा तेमने प्रगट थई न हती. तेवी रीते श्री ऋषभदेव भगवान वर्तमान चोवीसीना प्रथम तीर्थंकर हता; ८४ लाख पूर्वनुं तेमनुं आयुष्य हतुं, क्षायिक समकिती हता, त्रण ज्ञान साथे लईने अवतर्या हता. छतांय ८३ लाख पूर्व सुधी तेओ गृहस्थाश्रममां रह्या, चारित्र धारण न करी शकया. एक पूर्व एटले केटलां वरस खबर छे? एक पूर्वमां ७० लाख प६ हजार करोड वर्ष थाय छे. अहा! आवा ८३ लाख पूर्व सुधी तेओ चारित्र लई शकया न हता. उत्तरपुराणमां एम वर्णन छे के बधा तीर्थंकरो आठ वर्षनी उंमरे बार व्रत धारण करे छे. आ रीते अबजो वर्ष तेमने पांचमुं गुणस्थान रह्युं, पण त्यांलगी आगळ न वधी शकया. चोथे, पांचमे गुणस्थाने, जो के चारित्रनो अंश होय छे, पण मुनिदशाने योग्य साक्षात् चारित्रदशा त्यां होती नथी. अहो! आवी चारित्रदशा कोई अलौकिक होय छे अने ते महा पुरुषार्थी बडभागी पुरुषोने प्राप्त थती होय छे.
भाई! समकितनी प्राप्तिमां जो अंतर्मुख द्रष्टिनो अपूर्व पुरुषार्थ जोईए तो चारित्रदशानी प्राप्तिमां पण स्वरूपरमणतानो महान पुरुषार्थ जोईए. मात्र नग्न थई जवुं के २८ मूळगुण पाळवा तेनुं नाम कांई चारित्र नथी; अंदर आनंदस्वरूप आत्मामां उग्र लीनता-रमणता थई जाय, आनंदस्वरूपनी अस्तिनी मस्तीमां मश्गुल थई जाय तेनुं नाम चारित्र छे. अत्यारे तो चारित्रना नाम पर बधी गडबड थई गई छे. हवे र८ मूलगुणनांय ठेकाणां न होय, पांच महाव्रतनांय ठेकाणां न होय, ने मात्र बहार नग्नता वडे चारित्र मानवा-मनाववा लाग्या छे, पण ए तो अज्ञान छे भाई! एमां तने कोई लाभ नथी बापु! उंधी-विपरीत मान्यतानुं फळ तो बहु आकरुं छे भाई! स्वरूपलीनता विना २८ मूलगुण पण कांई ज नथी बापु! तेथी तो कह्युं के-
पै निज आतमज्ञान विना, सुख लेश न पायो.
अरे, पांच महाव्रत चोख्खां पाळे, अट्ठावीस मूलगुण बराबर धारण करे, पोताना माटे बनावेलां आहार-पाणी प्राणांते पण न ले, तथा अगियार अंग भणी जाय-अहा! आवा क्रियाकांडना शुकल लेश्याना परिणाम पण जीवे अनंत वार
PDF/HTML Page 3953 of 4199
single page version
कर्या छे, अने छतां सम्यग्दर्शन-ज्ञान विना ते लेश पण सुख पाम्यो नथी, अर्थात् दुःख ज पाम्यो छे. मतलब के पांच महाव्रतादिना परिणाम आस्रव होवाथी दुःखरूप ज छे, चारित्र नथी.
तो चारित्रवंत महामुनिवरोने ते होय छे तो खरा? होय छे, चारित्रवंतोने ते अवश्य होय छे, तथापि ते चारित्र नथी, मुनिवरो तेने चारित्र कहेता नथी. चारित्रनी साथे ते भले हो, पण ए बधुं व्यवहार आचरण राग होवाथी दुःखरूप ज छे. तेने समयसार नाटकमां जगपंथ कह्यो छे. त्यां कह्युं छे के-
परमादी जगकौं धुकै, अपरमादि सिव ओर. –४०, मोक्षद्वार.
भाई! जेटलो राग आवे छे ते संसार छे एम पंचसंग्रहमां पण कह्युं छे. आवी वात! समजाय छे कांई...?
अरे, सम्यग्दर्शनना स्वरूपनी अने तेने प्रगटाववानी रीतनी खबर विना जीव पोतानी मति-कल्पनाथी व्रत-तप धारण करीने तेने धर्म मानी ले पण तेथी कांई तेने धर्म थाय नहि. जेने स्वरूपनां श्रद्धान-ज्ञान थयां होय अने स्वरूपनी उग्र रमणता थाय तेने चारित्र ने धर्म थाय छे, अने तेने अंतरमां अनाकुळ आनंदनो प्रचुर आस्वाद आवे छे. अहा! आवा अंतरंग चारित्र विना मुक्ति थती नथी. भाई! जेमां आस्वादमां आवती अतीन्द्रिय आनंदना रसनी प्रबळ धारा प्रगट थाय एनुं नाम चारित्र छे, अने ते सम्यग्दर्शनना अभावमां कदीय होतुं नथी.
अहाहा...! भगवान आत्मा नित्य ज्ञानानंदस्वरूप छे. तेनी अंतर-रमणता थाय ते चारित्रदशा छे. अहा! आवा चारित्र साथे अंदर अतीन्द्रिय आनंदनी प्रकृष्ट धारा वहे छे. आवी अनाकुळ आनंदनी भूमिकामां मुनिने किंचित् व्यवहार-रत्नत्रयनो राग आवे, पण तेनुं तेने स्वामित्व नथी; व्यवहारनो राग अने तेनुं फळ-जे इन्द्र- इन्द्राणीना वैभव ने करोडो अप्सराओनो संयोग आवे ते-एने झेर समान हेयबुद्धिए होय छे. पुण्य अने पुण्यनां समस्त फळ समकितीने झेर जेवां लागे छे. इन्दोरना काचमंदिरमां लख्युं छे के-
कागविट् सम गिनत है, सम्यग्द्रष्टि लोग.
कोईने थाय के पुण्यनां फळने काग-विट् अर्थात् विष्टा समान केम कह्यां? अरे भाई? भगवाने तो पुण्य अने पुण्यनां फळने झेर कह्यां छे. छतां तने पुण्यनो आटलो बधो हठीलो प्रेम केम छे? जो तारे धर्म-चारित्र जोईए छे तो पुण्यनो प्रेम प्रथम ज छोडवो जोईशे; केमके जेणे पुण्यने उपादेय मान्युं छे तेने आनंदस्वरूप आत्मा हेय ज थई गयो छे, अने जेने आत्मा उपादेय छे तेने पुण्य हेय ज होय छे. आवी वात छे.
अहीं कहे छे-अनाकुळता जेनुं लक्षण-स्वरूप छे एवी सुखशक्ति छे. अहाहा...! जेम जाणवुं-जाणवुं ए ज्ञाननुं लक्षण छे. तेम अनाकुळता सुखशक्तिनुं लक्षण छे. अहाहा...! आवा सुखथी भरेलो अक्षय भंडार भगवान आत्मा छे. अहा! ए सुख कोने कहीए? के जेमां आकुळतानुं नामनिशान नथी. सुखशक्तिमां आकुळता नहि ने तेना क्रमवर्ती परिणमनमां पण आकुळता नहि. भाई! तारे सुख जोईए छे तो अनाकुळ सुख जेनो स्वभाव छे एवा तारा आत्मद्रव्यनी द्रष्टि कर अने तेमां ज लीन था. बाकी आ रागादि विकार तो आकुळता छे; पुण्यना परिणाम पण आकुळता छे, दुःखरूप छे. भाई! मारे सुख जोईए एम सुखनी अभिलाष-इच्छा कर्ये सुख नहि मळे, केमके इच्छामात्र दुःखरूप छे, दुःखमूळ छे. कह्युं छे ने के-
माटे इच्छामात्रथी विराम पामी सुखना भंडार एवा स्वस्वरूपमां गुप्त थई जा.
जुओ, हरणनी नाभिमां कस्तुरी होय छे; पण एनी एने खबर नथी. तेथी गंध आवतां एनी शोधमां ते बहार दोडादोड करी मूके छे. पण बहारमां होय तो मळे ने? बिचारुं थाकीने नाहक खेदखिन्न-दुःख थाय छे. तेम भगवान आत्मामां सुखशक्ति त्रिकाळ छे. परंतु अज्ञानी जीवने एनी खबर नथी. तेथी ते सुखनी शोधमां बहार इन्द्रियना विषयोमां-खानपानमां, स्त्रीना देहमां, बाग-बंगलामां, रंगरागमां इत्यादिमां सुख छे एम मानी इन्द्रियना विषयो प्रति दोडादोड करी मूके छे. पण त्यां बहारमां-ए जड पदार्थोमां-सुख होय तो मळे ने? विषयोमां फोगट फांफां
PDF/HTML Page 3954 of 4199
single page version
मारीने ते नाहक खेदखिन्न थाय छे, दुःखी ज थाय छे. अरे भाई! बहारना जड विषयोमां सुख नथी, विषयोनी ममता ने अनुरागमां सुख नथी ने केवळ विषयोने ज जाणनारा बहिर्लक्षी ज्ञानमांय सुख नथी. अहा! एक स्वानुभूतिमां ज सुख छे. माटे सुख जोईए तो इच्छाथी विराम पामी स्वानुभूति कर. अहा! ल्यो, आवो मारग!
भगवान आत्मामां शक्तिरूपे सुख त्रिकाळ भर्युं छे. भगवान सिद्धने तेनी पूर्ण व्यक्ति थई छे. सिद्ध भगवानने सुखनी पूर्ण दशा-अनंत सुख होय छे. सिद्ध भगवानने प्रगट आठ गुणना वर्णनमां सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, ने वीर्य ए चार आवे छे. चार घातिकर्मना क्षयथी सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, अने वीर्य प्रगट थाय छे अने चार अघातिकर्मना क्षयथी अव्याबाध, अवगाहन, सूक्ष्मत्व अने अगुरुलघु गुण प्रगट थाय छे. अहा! आवी सर्वोत्कृष्ट दशा अनंतमहिमायुक्त, अनंतशक्तिमय निज आत्मद्रव्यनां ज्ञान-श्रद्धान अने रमणता करतां प्राप्त थाय छे. अरे! लोको (कोई जैनाभासीओ) समज्या विना ज व्रत, प्रतिमा वगेरेने चारित्र कहे छे; पण भाई! ए मार्ग नथी. आत्मा स्वरूपथी ज सदा आनंदमय-सच्चिदानंदमय छे, तेनां ज्ञान-श्रद्धान अने रमणता करतां अनाकुळ सुख प्रगटे छे, तेनी पूर्णता थये पूर्ण सुख-अनंत सुख प्रगटे छे. बस, आ ज मार्ग छे. समजाणुं कांई...?
आ पंदरमी ओगस्टे देशनो स्वातंत्र्य दिवस उजवे छे ने? पण ए तो तारो देश-स्वदेश नहि भाई! तुं एनो स्वामी नहि; ए तो प्रत्यक्ष भिन्न चीज छे बापु! एनी सेवा (ममत्व) कर्ये तने (संसार सिवाय) कांई ज लाभ नथी. अहाहा...! असंख्य प्रदेश-के जेमां आत्मानां अनंत गुण सर्वत्र व्यापीने त्रिकाळ रह्याछे ते एनो स्वदेश छे. अहाहा...! आत्मा एनो स्वामी छे. अहा! आवा स्व-देशनी सेवा सेवन कर्ये अंदर स्वातंत्र्य-स्वराज प्रगट थाय छे, अर्थात् अनंत गुण सहज निर्मळ परिणमी जाय छे. जुओ, आ स्वराज! समयसारनी १७-१८ मी गाथामां आत्माने राजा-‘जीवराया’ -कह्यो छे. अहाहा...! ‘राजते-शोभते इति राजा’ जे अनेक समृद्धि वगेरेथी शोभे ते राजा छे. अहाहा...! जेम बहारमां राजा तेना छत्र, चामर आदि विभूति अने शरीरनी ऋद्धि तथा बाह्य समृद्धि वगेरेथी शोभे छे तेम आ आत्म-राजा पोताना सुखादि अनंत गुणोनी समृद्धिथी शोभे छे. विकार परिणाम अने संयोगथी शोभे ते आत्म-राजा नहि, अने चक्रवर्ती के इन्द्रना वैभवथी शोभे ते पण आत्म-राजा नहि. अहाहा...! जेमां आनंदरसनो आस्वाद आवे एवा अनंतगुण-वैभवनी प्रगटताथी शोभायमान ते आत्म-राजा छे. समजाणुं कांई...!
अहाहा...! जुओ तो खरा मुनिवरोनी अंतरदशा! आत्मज्ञानी ध्यानी निजानंदरसना अनुभवमां लीन मुनिवरो, तेमने देहनी स्थिति पूरी थवानो ख्याल आवी जाय त्यारे केवुंक चिन्तवन करे छे! अहाहा...!
कलेवर भखे जनावरा, मुवा न रोवे कोई.
अहाहा...! मुनिराज पोतानी शुद्ध परिणतीने कहे छे-ज्यां आनंदनो सागर-आनंद-सुधासिंधु भगवान छे त्यां चालो जईए. अंदर एवा मग्न-लीन थईए के कलेवरने-आ मडदाने शियाळियां खाई जाय तोय खबर न पडे; तथा देह छूटी जाय तो कोई पाछळ रोनार न होय. अहाहा...! केवी अंतर-लीनता अने केवुं निर्ममत्व! आनंदसागर आत्मामां तल्लीन थवा महामुनिराज गिरिगुफामां चाल्या जाय छे; निश्चयथी तो निज शुद्धात्मा चिदानंद प्रभु छे ते ज गिरिगुफा छे.
प्रवचनसारमां चरणानुयोग चूलिकामां दीक्षार्थीनुं बहु सुंदर वर्णन छे. अहाहा...! दीक्षार्थी आत्माना आनंदमां लीन थवा दीक्षित थाय छे त्यारे पोतानी स्त्रीने कहे छे-मारा देहने रमाडनार हे रमणी! मारी अनुभूतिस्वरूप रमणी तो अनादिअनंत अंदर शाश्वत पडी छे, हवे तेनी साथे रमवा अर्थात् मारा स्वस्वरूपमां लीन थवा हुं जाउं छुं. समयसार गाथा ७३मां पण आ त्रिकाळी अनुभूतिनी वात आवी छे. त्यां कह्युं छे-“सर्व कारकोना समूहनी प्रक्रियाथी पार उतरेली जे निर्मळ अनुभूति, ते अनुभूतिमात्रपणाने लीधे शुद्ध छुं.” जुओ, आत्मानी पर्यायमां रागनी क्रिया थाय ते तो मारा आत्मानुं स्वरूप नहि, पण राग रहित निर्विकार परिणति पर्यायना षट्कारकथी थाय ते पण हुं त्रिकाळ अनुभूतिस्वरूप आत्मा नहि. हुं परथी जुदो, रागथी जुदो, ने निर्मळ षट्कारकनी परिणति जे थाय तेनाथीय जुदो त्रिकाळी अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा छुं, आ अनुभूति ते त्रिकाळी एकरूप स्वभावनी वात छे हों, आ अनुभूतिनी पर्यायनी वात नथी. अहाहा...! दीक्षार्थी कहे छे-हुं मारो त्रिकाळी अनुभूतिस्वरूप भगवान ज्यां छे त्यां जाउं छुं, हवे त्यां ज मारे आनंदथी रमवुं छे; माटे आ देहने रमाडनारी हे रमणी! अनुमति दे, अर्थात् मने छोडी दे. ल्यो, अनुमति आपे के न आपे, ए तो सररर अंदर चाल्या जाय छे; वनवास चाल्या जाय छे.
PDF/HTML Page 3955 of 4199
single page version
वळी दीक्षा धारण करवाना प्रसंगे माताने संबोधे छे-हे जनेता! आ शरीरनी जन्मदाता तुं जनेता छो, पण हुं तो अनाकुळ आनंदस्वभावी आत्मा छुं, आ आत्मानी तुं जनेता नथी. मारा आनंदस्वरूपी आत्मामांथी मारी आनंदनी दशानो जन्म थाय छे तेथी निश्चयथी ते ज मारी जनेता छे. माता! मने रजा दे, हुं मारी त्रिकाळ आनंदस्वरूपी मातानी गोदमां जाउं छुं; त्यां हुं एवो रमुं-रमणता करुं के फेर जन्म ना धरुं. माता, एक वार तारे रोवुं होय तो रोई ले, हवे हुं बीजी माता नहि करुं-आ मारो कोल छे. अहाहा...! आम अंतरमां दृढ वैराग्य धारण करीने युवान राजकुमारो प्रचुर आनंदना स्वादनी प्राप्ति अर्थे वनवासमां-आत्मवासमां चाल्या जाय छे. अहाहा...! केवो वैराग्य! केवुं निर्ममत्व!!
अरे! अज्ञानी बाह्यमां सुख माने छे. ज्ञानी ज्यांथी विरक्त थाय छे, अज्ञानी त्यां चैन मानी झंपलावे छे. अज्ञानी स्त्री, परिजन, धन, मकान इत्यादिमां सुख माने छे, अने त्यां ज रोकाई रहे छे. सुख तो पोतामां ज भर्यु छे, पण एनी खबर नथी तेथी ते बधे बहार ज फांफां मारे छे, अने निराश थई दुःखी दुःखी थाय छे.
हा, पण कोई कोई ए संयोगोमां सुखी होय एम देखाय छे? धूळेय सुखी नथी सांभळने. सुख तो दूर रहो, ए संयोगोमां सुखनी गंधेय नथी; उलटुं एना तरफनुं जे वलण छे ते महा पाप अने दुःख छे. भाई! सुख तो तेने कहीए जेमां आकुळतानी छांट पण न होय अने जे कदी नाश न पामी जाय, कदी पलटी न जाय.
गजसुकुमार मुनिनी वात शास्त्रमां आवे छे. ज्यारे श्रीकृष्ण श्री नेमिनाथ भगवाननां दर्शन करवा हाथी पर बेसीने समोसरणमां जाय छे त्यारे तेना खोळामां नानाभाई गजसुकुमार बेठेल छे. मार्गमां एक सोनीनी अति स्वरूपवान कन्या सोनाना गेडीदडे रमती हती. तेने दूरथी जोईने श्रीकृष्णे सेवकोने आज्ञा करी के-आ कन्याने अंतःपुरमां लई जाओ, तेनां गजसुकुमार साथे लग्न करवां छे. सेवको ते कन्यांने अंतःपुरमां लई गया, अने अहीं श्रीकृष्ण गजसुकुमारने लईने भगवाननां दर्शनार्थ समोसरणमां पधार्यां. पछी शुं थयुं? अहा! भगवाननी ॐध्वनि सांभळीने गजसुकुमारनुं चित्त अति दृढ वैराग्यथी भराई गयुं. तेओ बोल्या-नाथ! हुं मुनिपणुं अंगीकार करवा चाहुं छुं. माता देवकी पासे जई कहेवा लाग्या-हे माता! अंदर आनंदनो नाथ विराजे छे तेनी सारसंभाळ-सुरक्षा माटे हुं भगवती दीक्षा अंगीकार करवा मागुं छुं. हवे हुं स्वरूपनी संभाळ माटे वनमां जाउं छुं. हे माता! आ देहनुं ममत्व दूर करो. मारी पर्यायमां जरा दुःख छे, पण ते दुःखनो मारा आनंदनी परिणतिमां अभाव छे.
पछी तो गजसुकुमार भगवान पासे दीक्षित थईने द्वारिकाना स्मशानमां ध्यान करवा चाल्या गया. तेमनुं शरीर हाथीना ताळवा जेवुं लालचोळ, कोमळ हतुं. तेथी तेमनुं नाम गजसुकुमार पाडवामां आव्युं हतुं. अहा! मुनिराज तो निज आनंदस्वरूपना ध्यानमां तल्लीन हता त्यारे क्रोधाग्निथी बळी रहेला पेला सोनीनी कन्याना पिता त्यां आव्या. तेमणे स्मशाननी राख लई तेमां पाणी रेडी गजसुकुमार मुनिना माथा उपर पाळ बनावी, अने अंदर मसाणना धगधगता अंगारा पूर्या; माथा उपर भडभड अग्नि बळवा लागी. पण मुनिराज तो ध्यानमां अचळ रह्या. अहा! एककोर भडभड अग्निथी माथुं बळे अने एककोर मुनिराजे प्रगटावेली ध्यानाग्निमां कर्म बळे. माथुं बळे तेनी तरफ तो मुनिराजनुं लक्ष ज नथी. आखरे ध्यानाग्निमां सर्व कर्म भस्मीभूत थयां. मुनिराज तत्काल केवळज्ञान प्रगटावी परमसुखस्वरूप निजपद-मोक्षपदने पाम्या. अहो! स्वरूपध्याननी-स्वानुभूतिनी दशानो कोई अचिंत्य महिमा छे; एनुं फळ परम सुखधाम एवुं मोक्ष छे.
समयसारनी आत्मख्याति टीकाना मंगलाचरणमां प्रथम ज श्री अमृतचंद्र स्वामी कहे छे-
अहाहा...! कहे छे- ‘नमः समयसाराय’ अहाहा...! राग रहित ज्ञान अने आनंदथी भरेलुं मारुं स्वरूप छे तेने हुं नमन करुं छुं. अहा! समयसार मारो नाथ आनंदनो सागर छे तेमां हुं मारी परिणतिने झुकावी नमन करुं छुं. आवी वात!
PDF/HTML Page 3956 of 4199
single page version
केवो छे समयसार? ‘स्वानुभूत्या चकास्ते’ अहाहा...! मारा आनंदनो नाथ स्वानुभवप्रत्यक्ष निज स्वानुभूतिथी प्रगट थाय तेवो छे. अहा! ते दया, दान, आदि कोई व्यवहारना भावोथी प्रगट थतो नथी. वळी
‘चित्स्वभावाय भावाय’ अहाहा! ‘भावाय’ नाम सत्तास्वरूप आत्मपदार्थ चित्स्वभावमय छे, ज्ञान-दर्शनरूप चैतन्यस्वभावमय छे. अहा! ज्ञानादि गुण छे ते तेनो स्वभाव छे, अने स्वानुभूतिमां ते प्रसिद्ध थाय छे. वळी
‘सर्वभावन्तरच्छिदे’ त्रणकाळ त्रणलोकना समस्त पदार्थोने एक समयमां पूर्ण जाणे एवो तेनो सर्वज्ञस्वभाव छे. अहा! आ सर्वज्ञशक्ति पहेलां जे ज्ञानशक्ति कही तेमां गर्भित छे. अहा! आवो सर्वज्ञस्वभाव स्वानुभूतिमां प्राप्त थाय छे. आवो सूक्ष्म मारग छे भाई!
केटलाक कहे छे ने के-आ तो बहु सूक्ष्म छे. पण शुं थाय? भगवान! तारुं स्वरूप ज सूक्ष्म छे. सूक्ष्मत्व गुण द्रव्यमां व्यापक होवाथी ज्ञान सूक्ष्म, दर्शन सूक्ष्म, आनंद सूक्ष्म, कर्ता सूक्ष्म-एम सर्व गुण सूक्ष्म छे. अहा! आवा सूक्ष्मने पामवानो मारग सूक्ष्म छे भाई! पुण्य-पापना स्थूळ भावोमां ए सूक्ष्म जणातो नथी.
कोईने एम थाय के आ व्यवहारनो निषेध करे छे. पण शुं थाय? वस्तुनुं स्वरूप ज एवुं छे. श्लोकना चारे चरणमां अस्तिथी वात करी छे. आत्मामां अजीव नथी, पुण्य-पाप नथी, व्यवहार नथी एम नास्ति तेमां सिद्ध थई जाय छे. समजाणुं कांई...?
जुओ, आ सामे शत्रुंज्य पहाड उपर पांच पांडवो मुनिदशामां विचरता हता. भगवानना दर्शननो भाव थयो त्यां खबर पडी के भगवान नेमिनाथ तो मोक्ष पधार्या. अरे, भरतक्षेत्रमां भगवाननो विरह पडी गयो. अहा! पांचे मुनिवरोने महिना महिनाना उपवास छे, अने पहाडना शिखर पर ध्यानमग्न ऊभा छे. त्यां दुर्योधनना भाणेजे आवी उपसर्ग मांडयो; धगधगतां लोखंडनां धरेणां तेमने पहेराव्यां. अहा! माथे धगधगतो मुगट, कंठमां धगधगती माळा अने हाथ-पगमां धगधगतां कडां पहेरावी तेणे महामुनिवरो पर भयंकर उपसर्ग कर्यो. धर्मराजा, अर्जुन अने भीम-ए त्रण मुनिवरोए त्यां ज शुकलध्याननी श्रेणी मांडी, केवळज्ञान उपजावी मोक्षपद प्राप्त कर्युं. नाना बे भाईओ सहदेव अने निकुळने जरा विकल्प थई आव्यो के-अरे! मोटाभाई धर्मराजा पर आवो उपसर्ग! आटला विकल्पना फळमां तेमने बे भव थई गया. मोटा त्रण पांडवो पूरण वीतराग थई मोक्षपद पाम्या, ज्यारे नाना बेने जराक विकल्प आव्यो तेमां बे भव थई गया. बन्ने सर्वार्थसिद्धि नामना देवलोकमां ३३ सागरोपमनी आयुस्थितिमां गया. विकल्प आव्यो तो केवळज्ञान अटकी गयुं. जुओ, शुभविकल्प तेय संसार छे. अज्ञानी जीवो शुभभावथी लाभ-धर्म थवानुं माने छे, पण ए एमनो भ्रम ज छे, केमके शुभभाव पण बंधनुं ज कारण छे, अबंध नथी. आवी वात!
अरे भाई! तारा स्वभावमां तो एकलुं सुख-सुख-सुख बस सुख ज भर्युं छे. अहाहा...! वीणाना तारने छेडतां जेम झणझणाट करती वागे छे तेम सुखशक्तिथी भरेला आत्मामां एकाग्र थतां झणझणाट करती सुखना संवेदननी दशा प्रगट थाय छे. पण अरे! एने निज स्वभावनो महिमा नथी! अनंत गुणना रसथी भरेला निजपदनी संभाळ कर्या विना अहा! ते अनादिथी परपदने पोतानुं मानी भवसागरमां गोथां खाया करे छे. अहा! एनी दुर्दशानी शी वात! दारुण दुःखोथी भरेली एनी कथनी कोण कही शके? अरे भाई! अहीं आचार्य भगवान तने तारुं सुखनिधान बतावे छे. तो हवे तो निजनिधान पर एक वार नजर कर. अहा! नजर करतां ज तुं न्याल थई जाय एवुं तारुं दिव्य अलौकिक निधान छे. अहा!
आ हरि ते कोई बीजी चीज नहि, निज शुद्धात्मा चिदानंदघन प्रभु ते हरि छे. जे दुःखने हरे अर्थात् सुखने करे ते हरि छे. पंचाध्यायीमां आवे छे के- ‘हरति इति हरिः’ दुःखना बीजभूत जे मिथ्यात्वादिने हरे ते हरि नाम सुखनिधान आनंदस्वरूप भगवान आत्मा छे. अहा! प्रमाद छोडीने, विषयोनुं वलण छोडीने पोताना हरि नाम भगवान आत्माने एकाग्र थई नीरखवो, भजवो ते सुखनो उपाय छे. ल्यो....
आ प्रमाणे आ पांचमी सुखशक्ति पूरी थई.
PDF/HTML Page 3957 of 4199
single page version
‘स्वरूप (-आत्मस्वरूपनी) रचनाना सामर्थ्यरूप वीर्यशक्ति’ अहाहा...! आत्मामां जेम ज्ञान गुण छे तेम वीर्य नामनो एक गुण छे. आ पुत्र-पुत्री थवाना निमित्तरूप जे शरीरनुं वीर्य-जड वीर्य छे तेनी अहीं वात नथी. वीर्य एटले बळ नामनी आत्मामां एक शक्ति छे. आ शक्ति वडे आत्मा बळवान छे. अहाहा...! पोताना स्वरूपनी रचना करे-स्वरूपने धारी राखे एवो जे आत्मानो स्वभाव ते वीर्यशक्ति छे.
अहाहा...! वीर्यशक्तिनो स्वभाव आत्माना स्वरूपनी रचना करवानो छे. शुं कीधुं? ज्ञान, दर्शन, आनंद, प्रभुता, स्वच्छता आदि अनंत गुणो ते आत्मानुं स्वरूप छे. अहाहा...! अनंत गुणनो स्वामी आत्मा अनंतनाथ भगवान छे. तेनी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र, अनाकुळ अतीन्द्रिय आनंद, सम्यक् वीर्य इत्यादि निर्मळ पर्यायने रचे ते वीर्यशक्तिनुं कार्य छे. पण रागनी रचना करे, के जडनी-शरीरनी, मकाननी, समाजनी के देशनी रचना करे ते आत्मानी वीर्यशक्तिनुं कार्य नहि. भाई! आत्मामां जे बळशक्ति-वीर्यशक्ति छे ते निर्मळ स्वस्वरूपनी रचना करवाना सामर्थ्यरूप छे; अने जडनी रचना तो जडनी शक्तिनुं कार्य छे. समजाणुं कांई...?
जुओ, नेमिनाथ भगवान गृहस्थदशामां हता त्यारनो एक प्रसंग पुराणमां वर्णवेलो छे. श्रीकृष्ण-वासुदेवनी राजसभामां एक वार चर्चा नीकळी के अहीं सौथी बळवान कोण? कोई कहे पांडवो बळवान छे, बीजो कहे के बळभद्र बळवान छे, त्रीजो कहे के श्रीकृष्ण-वासुदेव बळवान छे, चोथो कहे के धर्मराजा बळवान छे. एवामां ते ज वखते राजसभामां नेमिकुमार पधार्या. त्यारे बळभद्रे कह्युं के-बधा बळवान भले हो, पण नेमिकुमारना तोले नहि; नेमिकुमार बावीसमा तीर्थंकर छे अने ते ज सौमां बळवान छे. श्रीकृष्णने आ वात रुचि नहि; एटले तेमणे नेमिकुमारने कुस्ती करीने पोतानुं बळवानपणुं साबित करवा आह्यान आप्युं. नेमिकुमारे कह्युं-बंधुवर! मोटाभाईनी साथे कुस्ती न कराय, पण बळनी परीक्षा ज करवी छे तो आ मारो पग अहींथी तमे खसेडी दो. श्रीकृष्णे घणी महेनत करी, पण ते नेमिकुमारनो पग खसेडी शकया नहि. पछी नेमिकुमारे पोतानी टचली आंगळी सीधी करी कह्युं-आ मारी टचली आंगळी वाळी आपो. श्रीकृष्ण टचली आंगळी पर पूरी ताकातथी आखा टींगाई गया, पण आंगळी वळी नहि. पण आ तो शरीरनुं -जडनुं बळ बापु! तेमां आत्माने कांई नहि. नेमिकुमार तो त्यारेय जाणता हता के आ शरीरबळ ते हुं नहि, ने आ कसोटीनो विकल्प उठयो तेय हुं नहि. हुं तो निज चैतन्यस्वरूपने धारण करनारी वीर्यशक्ति जेनुं बळ छे एवो स्वरूपनी रचनारूप तेने शक्तिनुं फळ-कार्य प्रगट नहोतुं; पण ज्यां निज वीर्य शक्तिनो महिमा लावी शक्तिमान द्रव्यमां अंतर्द्रष्टि करी के तत्काल स्वरूपनी रचना करनारुं वीर्य पर्यायमां प्रगट थयुं. अहाहा...! आ रीते द्रव्यमां वीर्य, गुणमां वीर्य ने पर्यायमां वीर्य-एम द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेयमां वीर्यशक्ति व्यापक थाय छे, अने निर्मळ ज्ञान, आनंद, सुख, प्रभुता, जीवत्व, स्वच्छत्व आदि अनंतगुणस्वभावोनी पर्यायनी रचना करे छे. अहाहा...! आवी छे आ वीर्य शक्ति! समजाय छे कांई...!
ओहो! केवळी परमात्माए बतावेलो परमात्मा थवानो मार्ग अहीं संतो प्रसादरूपे खुल्लो करे छे. अहा! जेम बाळकनी माता तेने सुवाडवा तेनी प्रशंसानां मधुर हालरडां गाय छे के-
‘दीकरो मारो डाह्यो ने पाटले बेसी नाह्यो’-इत्यादि. तेम अहीं संतो-केवळीना केडायतीओ-अज्ञानीओने जगाडवा तेनी (आत्मानी) प्रशंसाना मधुर गीत गाय छे. कहे छे-जेनी स्फुरणा थतां तुं त्रणलोकनो नाथ थाय एवी वीर्यशक्तिनो स्वामी तुं भगवान छो. जाग रे जाग! जागवाना तारे आ अवसर आव्या छे. भगवान! तारे भगवान थवाना अवसर आव्या छे; इत्यादि.
अमे नानी उंमरमां वडोदरामां एक नाटक जोयेलुं. ‘अनसूया’नुं नाटक हतुं. अनसूया सती गणाती. ते एक अंध बाह्मणने परणी हती. तेने एक बाळक थयुं. ते पोताना बाळकने सुवाडवा पारणुं झुलावी मीठी हलके गाती- ‘बेटा!
‘हे पुत्र! तुं शुद्ध छो, ज्ञानी छो, उदासीन छो, निर्विकल्प छो.’ -आम वखाण करती. आ तो ए वखतनां नाटको
PDF/HTML Page 3958 of 4199
single page version
पण केवां वैराग्यरसथी भरपूर भजवातां एनी वात छे. आवां द्रश्यो जोईने अमने ते वखते वैराग्यनी खुमारी ज चडी जती. अत्यारे तो कांई वात करवा जेवी नथी, तद्दन हलकी कक्षानां दृश्यो बतावाय छे.
समयसारना बंध अधिकारमां छे के भगवान आत्मा शुद्ध, बुद्ध, निर्विकल्प अने उदासीन छे. श्रीमद् पण कहे छे-
अहाहा...! लोकमां प्रत्येक आत्मा पूर्ण ज्ञानानंदस्वभावथी भरेलो भगवान छे. पोताना आवा स्वरूपने लक्षमां लई तेमां एकाग्र थतां स्वरूपनी रचनाना सामर्थ्यरूप वीर्यशक्ति पर्यायमां प्रगट थाय छे. आ कर्तव्य ने आ धर्म छे.
भाई! जेने सुखी थवुं होय, संसारनी पीडाथी मुक्त थवुं होय तेणे पोते शुं चीज छे ते जाणवुं जोईए. भगवान कहे छे-भगवान! तुं अनंत शक्तिओनो पिंड प्रभु आत्मा छो. तारी एकेक शक्तिमां बीजी अनंत शक्तिओनुं रूप छे. अहाहा...! अनंत सामर्थ्यथी भरेली एकेक शक्ति अने एवी अनंत शक्तिओथी भरेलो भगवान! तुं चैतन्य-प्रकाशना नूरनुं पूर छो, पण अरे! एणे पोताना अंतरंग स्वरूपने जोयुं नथी! चैतन्यप्रकाशनो पुंज प्रभु पोते पोताने भूलीने अंधारे अटवायो छे. आ पुण्य-पापना भाव ते बापु! अंधारुं छे, ने जड पुण्य-पाप कर्म ए य अंधारुं छे; तथा ए पुण्य-पाप कर्मनुं फळ जे स्वर्ग-नर्क आदि ए य अंधारुं छे, केमके ए सर्वमां चैतन्यप्रकाशनो अभाव छे. अहाहा...! आवो द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्मथी रहित शुद्ध बुद्ध प्रभु! तुं चैतन्यप्रकाशनो पुंज आत्मा छो.
अहीं एनी वीर्य नाम बळशक्तिनी वात चाले छे. आ वीर्यशक्ति आत्माना असंख्यात प्रदेशमां व्यापक छे. पोताना स्व-देशमां वीर्यशक्ति सर्वत्र व्यापेली छे. आत्मानो असंख्यात प्रदेश ते स्व-देश छे. रागादि पुण्य-पापना भाव ते पर-देश छे.
अहा! जेम नरकनुं क्षेत्र स्वभावथी दुःखरूप छे, स्वर्गनुं क्षेत्र स्वभावथी लौकिक सुखरूप छे, तेम भगवान आत्मानुं स्वक्षेत्र स्वभावथी वीर्यशक्तिथी भरपूर अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदरूप ज्ञान अने आनंदनो पाक नीपजे छे. जेम साधारण जमीन होय तेमां लाल कळथी पाके अने ऊंची जमीन होय तो तेमां सुगंधीदार सफेद उज्ज्वळ बासमतीना चोखा पाके तेम आत्मानुं असंख्यप्रदेशथी जे क्षेत्र छे तेमां निर्मळ ज्ञान अने आनंदना मोल पाके छे. पण कयारे? ज्यारे स्वस्वरूपनो अंतरंगमां अंतर्मुख थई स्वीकार करे त्यारे; त्यारे स्वस्वरूपनी रचना करनारुं वीर्य सहज स्फुरायमान थाय छे अने साथे निज ज्ञानानंद स्वभावनां ज्ञान-श्रद्धान उदय पामे छे. अहो! ते समये प्रगट थता अतीन्द्रिय आह्लादनुं शुं कहेवुं! ते वचनातीत ने उपमारहित होय छे. आवो अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंदनो पाक पाके एवुं आत्मानुं स्व-क्षेत्र छे.
पण आ रागादि विकार थाय छे ने? अरे भाई! आत्माना असंख्य प्रदेश छे. तेमां विकार उत्पन्न थाय एवो कोई गुण नथी. जेम सोनानी सांकळीमां आखी सांकळी ते द्रव्य छे, सांकळीना बधा अंकोडा ते एनुं क्षेत्र छे, अने पीळाश, चीकाश, वजन ते एनी शक्तिओ छे तेम आत्मा द्रव्य छे, बधा असंख्य प्रदेश तेनुं क्षेत्र छे, ते असंख्य प्रदेशोमां व्यापीने रहेला अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत वीर्य, अनंत प्रभुता, अनंत स्वच्छता इत्यादि अनंत आत्मानी निर्मळ शक्तिओ छे. तेमां विकार उत्पन्न करे एवी कोई शक्ति नथी. पण अरे! अनंतकाळमां एणे कदीय स्वस्वरूपनी द्रष्टि करी नथी! पोताने भूलीने ए परमां ने परमां ज रोकाई रह्यो छे. तेथी तेनी वीर्यशक्ति अनादिथी स्फुरायमान थती नथी अने एने पुण्य-पापरूप भावनी रचना थया ज करे छे. पण ए (पुण्य-पाप) कांई आत्माना वीर्यनुं कार्य नथी. भाई! दया, दान, व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादिना शुभभावनी रचना करे ते वीर्य आत्मानुं नथी.
आत्मानु वीर्य तो तेने कहीए जे पर्यायमां पोताना अनंत गुण-स्वभावोना स्वरूपनी रचना करे, अनंत गुणोनी निर्मळ पर्यायो प्रगट करे ते आत्मानुं वीर्य छे. विकारी परिणामनी रचना करे ते आत्माना वीर्यनुं कार्य नथी. अहा! स्वस्वरूपनी रचना करनार वीर्यशक्तिना धारक आत्माने जे देखतो नथी अने पुण्य-पापनी रचना थाय तेने ज (आत्मापणे) देखे छे ते मिथ्याद्रष्टि, अज्ञानी छे अने तेने निरंतर पुण्य-पापना भावोनी ज रचना थया करे छे. भाई! आ बार व्रत ने पांचमहाव्रतनो जे राग एय बधो अचेतन छे, आत्मा नथी. अरे, जे भावथी तीर्थंकर गोत्रनी प्रकृति बंधाय ते भाव पण अचेतन जड छे, ते आत्मा नथी, आत्माना वीर्यनुं कार्य नथी. राग भाव गमे तेवो मंद होय तो य ते
PDF/HTML Page 3959 of 4199
single page version
बंधभाव छे, चैतन्यनी विरुद्ध जातिनो छे; तेमां चैतन्यप्रकाशनो अंश नथी, ते पोताने य जाणतो नथी, ने चैतन्यस्वरूप आत्माने य जाणतो नथी माटे ते अचेतन छे. समजाणुं कांई...? अहो! आवो मारग सूरजना प्रकाशना जेवो स्पष्ट दिगंबर संतोए खुल्लो करी दीधो छे. पण देखे तेने देखाय ने!
अरे! ज्ञान, आनंद आदि अनंतगुण-लक्ष्मीथी शोभायमान निज शुद्धात्मा ते श्री हरि-तेने एणे प्रमाद छोडीने अनंतकाळमां दीठा नहि! हवे श्रीहरि नाम शुद्धात्मानी वात पण सांभळवा न मळे ते एनो कयारे विचार करे, अने कयारे एने देखे-श्रद्धे? कयारे एनी रुचि करे? पण आ अनंतकाळे प्राप्त न थाय एवी अलौकिक चीज छे भाई! (एम के एनी प्राप्तिनो आ अमूल्य अवसर छे).
सादी भाषामां तो कहेवाय छे प्रभु! आ स्त्री-पुरुषनां शरीर छे ए तो हाडकां, चामडां ने मांस-माटी छे. ते कांई आत्मा छे? ना; ते आत्मा नहि, ने तेने करे-रचे ते य आत्मा नहि. वळी अंदर पुण्य-पापना भाव थाय छे ते शुं आत्मा छे? ना; ते आत्मा नहि, ने तेने रचे ते य आत्मा नहि; केमके ए तो अचेतन जड तत्त्व छे, ने भगवान आत्मा एकला चैतन्यप्रकाशनो पुंज छे. जेनी स्फुरणा वडे पर्यायमां निर्मळ रत्नत्रयनी-सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्रनी रचना थाय तेने आत्मानुं वीर्य अर्थात् आत्मा कहीए; बाकी रागनी-विकारनी रचना करे तेने आत्मानुं वीर्य कोण कहे? ए तो नपुंसक वीर्य छे, केमके एने धर्मनी उत्पत्ति थती नथी; समयसार गाथा १प४नी टीकामां एवा जीवोने क्लीब नाम नपुंसक कह्या छे.
अरे प्रभु! तुं भगवान जेवो भगवान थईने, भिखारीनी जेम पामर बनी संसारमां रझळे छे! तुं त्रण लोकनो नाथ चैतन्यस्वरूप प्रभु-तारा गर्भमां अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्य, सर्वज्ञत्व, सर्वदर्शित्व आदि अनंत निर्मळ शक्तिओ पडी छे तेनो तुं पर्यायमां प्रसव न करे अने पुण्य-पापनो-मलिनतानो प्रसव करे ए शुं तने शोभा दे छे? जुओ, कोई स्त्रीने गर्भ रहे अने ते चोवीस वर्ष सुधी रहे छे. गर्भमां रहेवानी उत्कृष्ट स्थिति चोवीस वर्ष छे एम शास्त्रमां कथन छे. एवी स्थितिमां पण तुं अनंत वार रह्यो भगवान? गर्भवासमां रहेवानी उत्कृष्ट स्थिति २४ वर्षनी छे माटे अनंतकाळे आ अवसर आव्यो छे तो त्रिकाळी द्रव्यस्वभावनुं लक्ष करी, स्वरूपसन्मुख थई हमणां ज पर्यायमां ज्ञान अने आनंदनो प्रसव कर. वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरनी आ आज्ञा छे भाई! लोकोने सत् सांभळवा मळे नहि एटले बिचारा शुं करे? तेओ दया, दान व्रत आदि क्रिया अने शरीरनी क्रियाने पोतानुं कर्तव्य मानी मिथ्याभावना सेवन वडे चार गतिमां रझळी मरे छे. शुं थाय? मिथ्याभावना सेवननुं एवुं ज फळ छे.
भाई! तारी चैतन्यवस्तुना पेटमां (-क्षेत्रमां) अनंत-गुण-लक्ष्मीनो भंडार भर्यो छे. त्यां नजर करवाने बदले बहारनी धनसंपत्ति जोई तुं हरखाय छे पण एमां शुं छे? ए तो धूळनी धूळ (पुद्गल-रज) बापा! आ जोता नथी अति तृष्णावंत मोटा करोडपति ने अबजोपति मरीने क्षणमां कयांय नरकादिमां चाल्या जाय छे! भाई! तारे सुखी थवुं होय तो अंदर (स्वस्वरूपमां) नजर कर.
धर्मना नामे अत्यारे तो व्रत करो, पडिमा लो, उपवास करो, आ करो ने ते करो एम प्ररूपणा चाले छे. पण एमां तो धूळे य धर्म नथी सांभळने. ए तो बधी रागनी क्रिया छे, एमां धर्मनो अंश पण नथी. अरे भगवान! जेवी तारी चैतन्यवस्तु छे तेवी तने न अनुभवाय तो धर्म कयां थशे? अने स्थिरता कयांथी आवशे? बहारनां क्रिया-कर्म वडे तुं धर्म थवानुं माने पण बहारनां कर्म (कार्य) कोण करे ने कोण छोडे? आ जड कर्म-नोकर्म ए तो जड परमाणुनी दशा छे, तेने तुं करी शकतो नथी, छोडी शकतो नथी; पुण्य-पापरूप भावकर्म छे ते विकारी दशा छे, ते तारी शक्तिनुं कार्य नथी; अने निर्मळ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप वीतरागी कर्म तथा केवळज्ञान अने सिद्धपद ते तारी शक्तिनुं कार्य छे. आत्मा पोते स्वतंत्रपणे स्ववीर्य वडे पोतानी ते निर्मळ पर्यायोने रचे छे. ते निर्मळ पर्यायोने-
कोई रागनी क्रिया एने रचे एम पण नहि;
अहाहा...! आत्मा पोते ज पोताना स्ववीर्यथी कर्तादि षट्कारकरूप थईने पोतानी सम्यग्दर्शनादिरूप निर्मळ
PDF/HTML Page 3960 of 4199
single page version
पर्यायोने रचे छे. सम्यग्दर्शनथी मांडी सिद्धपद सुधीनी निर्मळ पर्यायने रचनारो पोते ज अनंत शक्तिमान ‘इश्वर’ छे. आवी वात!
भाई! तारा सर्वज्ञस्वभावना सामर्थ्यनी-वीर्यनी शी वात! अहाहा...! एक समयमां सर्व लोकालोकनी भूत, भावि अने वर्तमान समस्त पर्यायोने जाणी ले एवी सर्वज्ञशक्ति आत्मद्रव्यमां त्रिकाळ पडी छे. त्यारे कोई वळी कहे छे-वर्तमान प्रगट वर्तती पर्यायने सर्वज्ञ जाणे, पण भूत, भविष्यने न जाणे; पण तेनी आ वात बराबर नथी, मिथ्या छे. तेने पोताना सर्वज्ञस्वभावना स्वरूपनी ने भगवान सर्वज्ञना दिव्य ज्ञाननी खबर नथी. अरे, जे सर्वज्ञनुं स्वरूप पण बीजी रीते माने तेने आत्मानी प्रतीति कयांथी थाय? न थाय. अरे भाई! जेम परमाणु एक समयमां १४ राजुलोक गमन करे ए परमाणुनी गतिनुं वीर्य छे तेम भगवान आत्मा एक समयमां त्रिकाळवर्ती सर्व लोकालोकने साक्षात् जाणी ले एवुं एनी सर्वज्ञशक्तिनुं वीर्य छे. अहा! आवुं दिव्य ज्ञान भगवान केवळीने होय छे.
अहा! आवी (-कोई अचिंत्य, दिव्य) आत्मामां सर्वज्ञशक्ति छे ने साथे बळशक्ति-वीर्यशक्ति पण छे. आ वीर्यशक्ति भिन्न छे, वीर्यशक्ति सर्वज्ञशक्तिरूप नथी पण सर्वज्ञशक्तिमां वीर्यशक्तिनुं रूप छे. आत्मानी प्रत्येक शक्तिमां बीजी अनंत शक्तिओनुं रूप होय छे. आ रीते ज्ञान, दर्शन, सुख, प्रभुता, सर्वज्ञत्व, सर्वदर्शित्व इत्यादि अनंतगुणमां वीर्यशक्तिनुं रूप होय छे; जेमके ज्ञानवीर्य, दर्शनवीर्य, सुखवीर्य इत्यादि. अहो! आवी अनंत शक्तिओनो सागर प्रभु आत्मा छे. तेनी सन्मुख दृष्टि करवाथी वीर्यशक्ति स्फुरायमान थई अनंत गुणनी निर्मळ पर्यायनी रचना करे छे. आनुं नाम आत्मवीर्य छे. लोकोने आ विषयनो (-अध्यात्मनो) अभ्यास नहि एटले कोरा क्रियाकांडमां लागी जाय छे; पण ए बधी तो एकला रागनी-क्लेशनी क्रियाओ छे. छहढालामां कह्युं छे ने के-
पै निज आतमज्ञान बिना, सुख लेश न पायो.
आनो अर्थ शुं? पंच महाव्रत अनंतवार पाळ्यां छतां आत्मज्ञान विना लेश पण सुख न थयुं अर्थात् दुःख ज थयुं एनो अर्थ शुं? ए ज के पंचमहाव्रतनां परिणाम पण सुखरूप नथी, दुःखरूप छे. अहीं कहे छे-आवा दुःखनी रचना करे ते आत्मानुं वीर्य नथी; स्वरूपलीनता ने स्वरूप-एकाग्रताना ध्यान वडे निर्मळ रत्नत्रय प्रगट करे ते आत्मानुं वीर्य छे, ते पुरुषार्थ छे. समजाय छे कांई...?
स्वरूपरचनाना सामर्थ्यरूप वीर्यशक्ति छे. त्यां द्रव्य अने गुणमां तो रचना करवापणुं शुं छे? द्रव्य-गुण तो त्रिकाळ ध्रुव एकरूप छे; तेमां रचना करवापणुं कांई नथी. जे कांई रचना थाय ते पर्यायमां थाय छे. स्वरूपनी पर्यायमां रचना थाय ते वीर्यशक्तिनुं कार्य छे. ज्ञान, दर्शन आदि अनंत गुणनी निर्मळ परिणतिनी रचना थाय ते वीर्यनुं कार्य छे. हवे आमां व्यवहारनी रचना करे एम न आव्युं, केमके निर्मळ परिणतिमां व्यवहारनो-रागनो अभाव छे. व्यवहार छे खरो, पण तेने तो ज्ञान बस (भिन्न) जाणे ज छे. झीणी वात जरी. ज्यां स्व-आश्रये ज्ञान-श्रद्धान-चारित्रनी शुद्ध परिणति प्रगट थई ते समये राग छे तेने ज्ञान मात्र जाणे छे बस. रागने जाणे छे एम कहीए ए व्यवहार छे. ते समये प्रगट थयेली ज्ञाननी स्वपरप्रकाशक दशा सहज ज पोतामां भिन्न रहीने पोताथी ज रागने जाणे छे, रागने लईने जाणपणुं छे एम नहि; पोतानी ज्ञाननी पर्याय ज एवा सामर्थ्यवाळी छे के ते स्व अने परने पोताथी जाणे छे. हवे कोई लोको कहे छे के व्यवहार-शुभराग करतां करतां निश्चय-शुद्ध दशा प्रगट थशे पण तेमनी ए वात मिथ्या छे. तेमने आत्मानी निर्मळ वीतराग परिणति केम प्रगट थाय एनी खबर नथी अर्थात् तेमने निर्मळ परिणतिने रचनारुं वीर्य स्फुर्युं ज नथी.
अरे! भगवान सर्वज्ञ परमेश्वरना अत्यारे भरतक्षेत्रमां विरह पडया! विदेहक्षेत्रमां तो साक्षात् परमात्मा सर्वज्ञपदमां बिराजमान छे. एक क्रोड पूर्वनुं तेमनुं आयुष्य छे. एक पूर्वमां ७० लाख प६ हजार क्रोड वर्ष व्यतीत थाय छे. ए भगवानना मुखमांथी नीकळेली आ वाणी श्री कुंदकुंदाचार्यदेव अहीं भरतमां लाव्या छे. अहाहा...! भगवान कुंदकुंददेव नग्न दिगंबर भावलिंगी महा संत हता. मोरपींछ अने कमंडळ सिवाय तेमने कोई परिग्रह नहोतो. तेओ सदेहे विदेह गया हता, आठ दिवस रह्या हता. त्यांथी आवीने भगवाननी वाणी अनुसार आ महान परमागमनी रचना करी छे. समयसारनी प्रथम गाथामां कहे छेः-