Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). 7 PrabhutvaShakti; 8 VibhutvaShakti; 9 SarvadarshitvaShakti; 10 SarvagnatvaShakti.

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वंदित्तु सव्वसिध्दे धुवमचलमणोवमं गदिं पत्ते।
वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवली भणिदं।।

कहे छेः- श्रुतकेवळीओए कहेला आ समयसार नामना प्राभृतने कहीश. आचार्य अमृतचंद्रस्वामीए एम अर्थ कर्यो छे के केवळी अने श्रुतकेवळीनुं कहेलुं आ समयप्राभृत कहीश.

नियमसारनी प्रथम गाथामां श्रीमद् भगवत् कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छेः-

वोच्छामि णियमसारं केवलि सुद केवली भणिदं।।

केवळी अने श्रुतकेवळीनुं कहेलुं नियमसार हुं कहीश. केवुं छे नियमसार? केवळी अने श्रुतकेवळीओए कहेलुं छे, भाई! केवळी परमात्माए साक्षात् कहेलुं आ शास्त्र छे. वळी श्री कुंदकुंदाचार्यदेव विदेहमां पधार्या हता ते संबंधी देवसेनाचार्यरचित दर्शनसार शास्त्रमां आ लेख छेः

“(महाविदेहक्षेत्रना वर्तमान तीर्थंकर देव) श्री सीमंधरस्वामी पासेथी मळेला दिव्य ज्ञान वडे श्री पद्मनंदिनाथे (श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे) बोध न आप्यो होत तो मुनिजनो साचा मार्गने केम जाणत?”

आ प्रमाणे आचार्य कुंदकुंददेव भगवान पासे साक्षात् जईने आ बोध लाव्या छे. तेमां अहीं कहे छेः- स्वरूपनी रचनाना सामर्थ्यरूप वीर्यशक्ति छे. अहाहा...! स्वरूपनां श्रद्धान-ज्ञान-रमणतारूप जे शुद्ध चैतन्यपरिणतिनी रचना थाय ते कहे छे, वीर्यशक्तिनुं कार्य छे. आत्मा पोते पोतानी वीर्यशक्ति वडे शुद्ध वीतराग परिणतिनी रचना करे छे. आ शुद्ध परिणति व्रतादि प्रशस्त रागनुं कार्य होय एम कदीय नथी. अहा! जेम आत्मामां वीर्य गुण छे तेम एक अकार्यकारणत्व नामनो गुण छे. वीर्यगुणमां आ अकार्यकारणत्वनुं रूप छे, जेथी स्वरूपनी रचना थाय तेमां व्यवहार रत्नत्रयनो राग कारण अने स्वरूपनी रचना थाय ते तेनुं कार्य एम कदीय नथी. अहा! आत्मा रागनुं कारण पण नथी अने कार्य पण नथी. चैतन्य-चैतन्यभाव कारण ने राग तेनुं कार्य एम कदीय नथी. ल्यो, आवुं स्पष्ट वस्तुस्वरूप होवा छतां व्यवहारथी निश्चय थाय एम बधी गरबड अत्यारे चाले छे; पण भाई! रागभाव तो पामरता छे, तेनाथी प्रभुता केम प्रगट थाय? अने निर्मळानंदनो नाथ आत्मा चिदानंद प्रभु छे ते रागभावरूप क्लेशने केम रचे?

पहेलां शराफने त्यां कोई वार खोटो रूपियो कयांकथी आवी जातो तो तेने बहार फरतो मूकवामां न आवतो, पण दुकानना उंबरामां खीलीथी जडी देवातो. तेम आ भगवान वीतराग सर्वज्ञदेवनी शराफी पेढी छे; तेमां खोटी वात चालवा न देवाय. परमात्मानी सत्यार्थ वात अहीं संतो आडतिया थई जगत समक्ष जाहेर करे छे. कहे छे-भगवान! तारामां वीर्य नामनो जे गुण छे तेनुं रूप आत्माना बीजा अनंत गुणोमां छे. तेथी अनंता गुणो पोताना वीर्यथी पोताना स्वरूपनी-सम्यग्दर्शनादिनी रचना करे छे, पण विकारनी रचना करता नथी. भाई! तारो वीर्यगुण स्वभावथी ज एवो छे के आत्मा कोई परनी के विकारनी रचना करी शके नहि. जो वीर्य गुण विकारने- रागादिने रचे तो ते सदाय रागादिने रच्या करे! -तो पछी आत्मानी रागरहित वीतराग मुक्तदशा केवी रीते थाय? तेथी परवस्तुमां कांई करे के विकारने रचे एवुं खरेखर आत्मानुं बळ-वीर्य नथी. वळी स्वरूपनी-सम्यग्दर्शनादिनी रचना जे थाय ते परनुं के रागनुं कार्य नथी. परवस्तु (देवादि) के रागादिभाव (व्यवहार रत्नत्रय) स्वरूपरचनानुं कारण नथी. अहो! कोईनी पण ओशियाळ न रहे एवो आत्मानो वीर्यगुण अलौकिक छे! समजाणुं कांई...? माटे सावधान थई स्वरूपनी संभाळ कर.

प्रश्नः– जो आत्मा परनुं कांई न करे तो आ जगतनी रचना कोण करे? समाधानः– अरे भाई! छ द्रव्यमय आ लोक छे ते अकृत्रिम छे, स्वयंसिद्ध छे, कोई एनो रचनारो छे एम छे ज नहि. आत्मा परनी रचना करे एम मानवुं ए तो महामूढता छे. अज्ञानीओ ज कोई परने (इश्वरने) जगतनो रचनारो माने छे; बाकी जेमने अनंतआत्मबळ-अनंतवीर्य प्रगटयुं छे एवा अरहंत के सिद्ध भगवान पण परनी रचना करवानुं सामर्थ्य धरावता नथी. पोताना स्वरूपनी रचना करवानुं पूरण अनंत सामर्थ्य छे, पण परनुं कांई पण करवामां तेओ पंगु छे, अर्थात् लेशपण सामर्थ्य धरावता नथी.

वळी आत्मा पोते ज पोतानी पर्यायनी रचना वीर्यशक्ति वडे करे छे, कोई इश्वर के पर निमित्त आत्मानी- पर्यायनी रचना करे एम त्रण काळमां नथी. अहा! आवी वीर्यशक्ति आत्मामां त्रिकाळ छे. आवी पोतानी वीर्यशक्ति


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जाणी अभेद चिन्मात्र नित्यानंदस्वरूप आत्मवस्तुमां तन्मय थई प्रवर्तवुं ते धर्म छे, ते मोक्षमार्ग छे.

प्रश्नः– वीर्यगुण विकारने रचतो नथी, तो पछी विकार थाय छे केम? उत्तरः– अनादिकाळथी जीव अज्ञानी पर्यायदृष्टि छे. ते पर्यायबुद्धिथी ज विकारने उत्पन्न करे छे. पर्यायबुद्धिमां ज विकारनी रचना छे. पोते ज्यांसुधी परमां ने पर्यायमां अटकयो छे त्यां सुधी विकारनी रचना थाय छे. बाकी स्वभावमां विकार नथी, ने स्वभाव-दृष्टिमां-द्रव्यदृष्टिमां विकारनी रचना थती नथी. आत्मानी वीर्यशक्ति स्वभावदृष्टि थतां स्वरूपनी-निर्मळ निर्मळ पर्यायनी ज रचना करे छे. माटे हे जीव! पर्यायबुद्धिनो त्याग करी स्वभावनी दृष्टि कर. अरे भाई! तारा स्वभाववीर्यमां चैतन्यनी जेटली शक्तिओ छे ते बधानुं रूप छे. दृष्टिमां ज्यां शुद्ध अंतःतत्त्वनो स्वीकार थयो त्यां पर्यायमां अनंतगुणोनी निर्मळ पर्यायनुं कार्य प्रगट थाय छे, ने आ निर्मळ पर्याय ते मोक्षमार्ग छे. (पर्यायबुद्धि ते संसारमार्ग छे).

पंडित दीपचंदजी काशलीवाले ‘चिद्दविलास’ ग्रंथमां वीर्यशक्तिनुं बहु वर्णन कर्युं छे. द्रव्यवीर्य, गुणवीर्य, पर्यायवीर्य, क्षेत्रवीर्य, काळवीर्य, तपवीर्य, भाववीर्य इत्यादि त्यां विशेष (वात) छे. द्रव्य द्रव्यथी शक्तिवान छे, पर्याय पर्यायथी शक्तिवान छे इत्यादि. द्रव्यनुं (-आत्मानुं) जे असंख्यप्रदेश क्षेत्र छे ते क्षेत्रवीर्य छे. आ क्षेत्रवीर्य पोताथी रह्युं छे. नरक दुःखनुं क्षेत्र छे, स्वर्ग संसारसुखनुं क्षेत्र छे-ए तो संयोगथी क्षेत्रनी वात छे. भगवान आत्मानुं असंख्यप्रदेश-क्षेत्र छे ते क्षेत्रवीर्य छे. आ असंख्यप्रदेशरूप वीर्य सुखस्वरूप छे. असंख्यप्रदेशमां जेनो निवास-वास्तु छे तेने अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थाय छे, अने पुण्य-पापरूप रागादिमां जेनो निवास छे तेने दुःखनुं वेदन थाय छे. आवो भगवाननो मारग बहु झीणो-सूक्ष्म!

आत्मा पोते सूक्ष्म छे. आत्मामां सूक्ष्मत्व नामनो गुण छे ने! तेथी आत्मानी दरेक चीज सूक्ष्म छे. ज्ञानसूक्ष्म, दर्शनसूक्ष्म, आनंदसूक्ष्म, वीर्यसूक्ष्म इत्यादि बधुं सूक्ष्म छे. तेवी रीते वीर्यनुं रूप पण द्रव्यवीर्य, क्षेत्रवीर्य, काळ (पर्याय) वीर्य ने भाववीर्य इत्यादिपणे छे. आम दीपचंदजीए खूब विस्तारथी वात करी छे. अहाहा...! दीपचंदजी साधर्मी गृहस्थ हता. लोकमां कोई करोडपति आसामीने गृहस्थ कहे ते नहि, ए तो खरो गृहस्थ नथी; आ तो पोताना चैतन्यघरमां जे स्थित छे ते साचो गृहस्थ एम वात छे. पोताना चैतन्यस्वभावमां एकाग्र थई स्थित थवुं ते आत्मवीर्य छे. पोताना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावमां पोतानुं काम करे ते पोतानुं वीर्य छे; पुण्य-पापमां स्थित थाय ते आत्मवीर्य नथी.

द्रव्यना आलंबनथी जे मोक्षमार्गनी निर्मळ पर्याय प्रगट थाय ते पर्यायनुं क्षेत्र भिन्न छे अने द्रव्य-गुणनुं क्षेत्र भिन्न छे. द्रव्यानुयोगनी वात बहु सूक्ष्म छे भाई! संवर अधिकारमां आव्युं छे के-विकार जुदी वस्तु छे, तेनुं क्षेत्र द्रव्य-स्वभावथी भिन्न छे. पर्यायनुं क्षेत्र पर्याय, पर्यायनी शक्ति पर्याय, पर्यायनुं कारण पर्याय छे. द्रव्य-गुण ते पर्यायनुं खरेखर कारण नथी. सर्वज्ञ परमेश्वर सिवाय आवी वात बीजे कयांय छे नहि. अहा! सर्वज्ञ परमेश्वरे जे आत्मा जोयो तेनी आ वात छे. एक स्तवनमां आवे छे ने के-

प्रभु तुम जाणग रीति, सौ जग देखता हो लाल;
निजसत्ताए शुद्ध, सौने देखता हो लाल.

हे परमात्मा! आप त्रणकाळ त्रणलोक देखो छो. तेमां आत्मा निज सत्ताए शुद्ध पवित्रधाम प्रभु छे एम आप जाणो छो. अनादिअनंत अकारण शुद्ध चैतन्यसत्तास्वरूप जीववस्तु छे एम आपे केवळज्ञानमां जोयुं छे. अहा! सर्वज्ञ परमात्माए जोयेला आवा आत्माने-निज शुद्ध अंतःतत्त्वने-अंतर्मुख थई देखे छे तेने सम्यग्दर्शन आदि धर्म प्रगट थाय छे, आनुं नाम आत्मवीर्यनी स्फुरणा छे. बाकी जे पुण्यभावमां स्थित रहे छे तेनुं आत्मवीर्य स्वरूपनी रचना प्रति जाग्रत थतुं नथी, तेने संसार अर्थात् दुःख ज फळे छे, केमके पुण्यभाव छे ते वर्तमान दुःखरूप छे अने एनां जे फळ पाके छे एय दुःखरूप छे. समयसारनी गाथा ७४मां आवे छे के-आस्रवो-‘दुक्खा दुक्खफल त्ति...’ अर्थात् आस्रवो दुःखरूप अने दुःख फळरूप छे. आथी ज विवेकी पुरुषो पुण्यभावथी पण विरक्त थई निज आत्मवीर्यने स्वरूपनी रचना प्रति जाग्रत करे छे. आनुं नाम पुरुषार्थ छे अने आ मार्ग छे.

आ प्रमाणे छट्ठी वीर्यशक्ति अहीं पूरी थई.

*

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७ः प्रभुत्वशक्ति

‘जेनो प्रताप अखंडित छे अर्थात् कोईथी खंडित करी शकातो नथी एवा स्वातंत्र्यथी (-स्वाधीनताथी) शोभायमानपणुं जेनुं लक्षण छे एवी प्रभुत्वशक्ति.’

अहाहा...! जुओ, आ प्रभुत्वशक्ति! आ तो अलौकिक वात प्रभु! आ अध्यात्मवाणी छे. अहाहा...! भगवान जैन परमेश्वरे कहेली भगवान आत्मानी भगवान थवानी आ भागवतकथा छे. नियमसारमां कह्युं छे के- आ भागवतशास्त्र छे. कळश टीकामां आवे छे के-आ शास्त्र परमार्थरूप छे, वैराग्य-उत्पादक छे, भारत-रामायण पेठे रागवर्धक नथी. आ शास्त्र वीतरागभावनी प्रेरनारी रामायण अने भागवत कथा छे.

अहीं कहे छे- ‘जेनो प्रताप अखंडित छे...’ कोनो? के आत्मद्रव्यमां एक प्रभुत्व नामनी शक्ति छे तेनो प्रताप अखंडित छे, अबाधित छे. अहाहा...! प्रभुत्वशक्ति कहो के इश्वरशक्ति कहो के परमेश्वरशक्ति कहो-बधुं एक ज छे. ते पोताना प्रभुपद-परमात्मपदने भूली गयो छे. भाई! आ तुं जेनुं स्मरण करे छे ते वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वर साचा परमेश्वर छे, पण ते पर होवाथी तेमना स्मरण आदि वडे राग ज उत्पन्न थाय छे. पण जो कोई तेमने जोईने पोताना चैतन्यपरमेश्वरने याद करी ले छे, जाणी ले छे तो तेने भवना अभावना बीज रूप सम्यग्दर्शन आदि प्रगट थाय छे, ओहो! जेणे पोताना प्रभुने-चैतन्य महाप्रभुने अंतरमां दीठा तेने पर्यायमां प्रभुता प्रगट थाय छे.

समयसारनी गाथा ३८मां कह्युं छेः- “जेम कोई मूठीमां राखेलुं सुवर्ण भूली गयो होय ते फरी याद करीने ते सुवर्णने देखे ते न्याये, पोताना परमेश्वर-(सर्व सामर्थ्यना धरनार) आत्माने भूली गयो हतो तेने जाणीने, तेनुं श्रद्धान करीने तथा तेनुं आचरण करीने (-तेमां तन्मय थईने) जे सम्यक् प्रकारे एक आत्माराम थयो, ते हुं एवो अनुभव करुं छुं के हुं चैतन्यमात्र ज्योतिरूप आत्मा छुं के जे मारा ज अनुभवथी प्रत्यक्ष जणाय छे. ... आम सर्वथी जुदा एवा स्वरूपने अनुभवतो आ हुं प्रतापवंत रह्यो.”

अहाहा...! पोतानी प्रभुतानुं भान थयुं अर्थात् पोते ज पोतानो परमेश्वर छे एम जाण्युं तो मोहनो नाश थईने अखंड प्रतापथी स्वाधीन शोभायमान निज चैतन्य परमेश्वरनां ज्ञान-श्रद्धान अने आचरण उदय पाम्यां. आनुं नाम धर्म अने आ मोक्षमार्ग. समजाणुं कांई...?

अहाहा...! भगवान आत्मा चिदानंद प्रभु अनंत गुणरत्नोथी भरेलो चैतन्यरत्नाकर छे. तेमां जेम ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुणो छे तेम प्रभुत्व नामनो एक गुण छे. अहा! आ प्रभुत्व गुण बीजा अनंत गुणमां व्यापक छे. ज्ञानमां प्रभुत्व, दर्शनमां प्रभुत्व, आनंदमां प्रभुत्व, वीर्यमां प्रभुत्व, अस्तित्वमां प्रभुत्व, कर्ता, कर्म, करण आदि षट्कारक शक्तिओमां प्रभुत्व-एम अनंतगुणमां प्रभुत्व व्यापक छे. अहाहा...! आ प्रभुत्वशक्ति द्रव्यमां व्यापक छे, गुणमां व्यापक छे, ने अखंड प्रतापथी स्वाधीन शोभायमान त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यनी दृष्टि थतां पर्यायमां पण व्यापक थाय छे. आम द्रव्य-गुण-पर्यायमां-त्रणेयमां प्रभुत्वशक्ति व्यापे छे. द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणे य अखंड प्रतापथी स्वाधीन शोभी ऊठे छे. अहा! एना प्रतापने तोडी शके एवी कोई चीज जगतमां नथी. गाथा ३८नी टीकामां आव्युं ने के-

“आम सर्वथी जुदा एवा स्वरूपने अनुभवतो आ हुं प्रतापवंत रह्यो. एम प्रतापवंत वर्तता एवा मने, जो के (मारी) बहार अनेक प्रकारनी स्वरूपनी संपदा वडे समस्त परद्रव्यो स्फुरायमान छे तो पण, कोई पण परद्रव्य परमाणुमात्र पण मारापणे भासतुं नथी के जे मने भावकपणे तथा ज्ञेयपणे मारी साथे एक थईने फरी मोह उत्पन्न करे; कारण के निजरसथी ज मोहने मूळथी उखेडीने-फरी अंकुर न ऊपजे एवो नाश करीने महान ज्ञानप्रकाश मने प्रगट थयो छे.”

जुओ, आ अप्रतिहत श्रद्धान ने अप्रतिहत वीर्य! अंतरमां प्रभुता प्रगट थई पछी एना प्रतापने कोण तोडी-हणी शके? अहा! पोताना परमेश्वरना भेटा थया ए दशानी शी वात!

प्रश्नः– पण आकरां कर्म उदयमां आवे तो?-तो आत्माने लूंटी जाय ने? उत्तरः– आकरां कर्म उदयमां आवे तो आत्माने लूंटी जाय ए वात बराबर नथी. केटलाक लोको कहे छे के कर्म


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जीवने हेरान करे छे, कर्म वेरी छे, जीवने लूंटी ले छे, पण तेमनी ए वात खोटी छे; केमके कर्म तो जड अने पर छे. ए परद्रव्य तो जीवना द्रव्य-गुण-पर्यायने स्पर्श सुध्धां करतां नथी तो पछी ते जीवने हेरान करे ने लूंटी ले ए वात कयां रहे छे? भाई! आ तारी उंधी मान्यतानुं शल्य ज तने हेरान करे छे. भाई! भगवान आत्मानो प्रताप अखंडित छे, कोईथी बाधित न थाय एवो अबाधित छे तेनी तने खबर नथी. ते अखंडित छे केमके ते स्वाधीन छे. हा, जेम भरत चक्रवर्तीनो प्रताप बाहुबली वडे खंडित थयो तेम मोटा राजा-महाराजाओनो प्रताप खंडित थाय, केमके ते पुण्यकर्मने आधीन छे; पण आ चैतन्यचक्रवर्ती-चैतन्य महाप्रभु भगवान आत्मानो प्रताप कोईथी खंडित न थाय तेवो अखंडित, स्वाधीन छे. अहा! जेने अंतरमां पोतानुं प्रभुत्व भास्युं, परमेश्वर स्वरूप भास्युं तेने आकरां कर्म ने आकरा परिषह आदि शुं करे? कर्म तो एनी सामे बिचारां छे. एक पदमां आवे छे ने के-

कर्म बिचारे कौन, भूल मेरी अधिकाई;
अग्नि सहै घनघात, लोह की संगति पाई.
अहीं प्रभुत्व शक्तिमां चार बाबतो बतावी छेः
१. प्रताप (जयवंत तेज)
२. अखंडितता
३. स्वातंत्र्य अर्थात् स्वाधीनपणुं
४. शोभा, शोभायमानपणुं.

आ प्रमाणे भगवान आत्मा चैतन्य-प्रभु स्वाधीनपणे पोताना अखंडित प्रताप वडे नित्य शोभायमान छे ते तेनुं प्रभुत्व छे. गुजराती भाषामां एक कविए (दलपतरामे) लख्युं छे-

प्रभुता प्रभु तारी तो खरी,
मुजरो मुज रोग ले हरी.

जो के कविए तो कोई बीजा प्रभुने (जगत-परमेश्वरने) लक्ष करीने आ भाव प्रगट कीधो छे, पण अहीं ए वात नथी. अन्य कोई परमेश्वर आनो रोग हरी ले ए जैनमत नथी. अहीं तो आत्मा पोते ज राग अने अज्ञानना रोगने हरी ले एवो प्रभु छे एम वात छे. अहाहा...! अखंडित प्रतापथी स्वाधीन शोभायमान भगवान आत्मा पोते ज जन्म-मरणना रोगने हरी ले एवो प्रभु छे. भाई!-

- तारुं आत्मद्रव्य अखंडित प्रतापथी स्वाधीन शोभायमान, - तारा गुण अखंडित प्रतापथी स्वाधीन शोभायमान, ने - स्व-आश्रये प्रगट थयेली तारी पर्याय पण अखंडित प्रतापथी स्वाधीन शोभायमान छे. अहा! द्रव्य-

गुण-पर्याय त्रणेमां प्रभुता व्यापी छे. अहाहा...!

सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निर्मळ पर्याय प्रगट थई तेमां प्रभुता व्यापक छे. अहा! तेनी प्रभुताने कोई आकरा उपसर्ग अने परिषह, आकरो कर्मोदय खंडित करी शके नहि एवुं तेनुं स्वरूप छे. अहा! तारा द्रव्य-गुण-पर्यायनी प्रभुतामां अशुद्धतानो अभाव छे, केमके अशुद्धता तो बहार ने बहार छे. ते शुं करे? ऊलटुं प्रगट थयेली प्रभुता वृद्धिगत थई अशुद्धताना-रागना खंड-खंड करी दे एवो तेनो स्वभाव छे. समजाणुं कांई...?

प्रश्नः– हा, पण ते अशुद्धता नाम व्यवहार रत्नत्रयनो राग प्रभुतानुं साधन तो छे ने? उत्तरः– ना, एम नथी; केमके कोईपण राग छे ते पामरता छे, ने पामरता प्रभुतानुं साधन थाय एम बनी शके नहि. तेने साधन कहीए ए तो उपचारमात्र छे. त्रिकाळी द्रव्यमां ने श्रद्धा, ज्ञान, आनंद आदि गुणोमां तो प्रभुता त्रिकाळ भरी ज छे, अने तेनी वर्तमान दशा तो त्रिकाळीनी सन्मुख दृष्टि करी, तेमां रमणता करतां प्रगट थाय छे, कांई व्यवहार रत्नत्रयना रागथी प्रगट थाय छे एम नथी. भाई! त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यना आलंबन वडे ज अखंड प्रतापथी शोभित प्रभुता प्रगट थाय छे; ते काळे व्यवहारनो राग हो भले, पण ते आत्मा माटे कांई ज लाभदायक नथी. आवी वात छे. समजाणुं कांई...?


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अहाहा...! आत्मद्रव्य अने तेनी एकेक शक्ति अने तेनी निर्मळ व्यक्तिनी प्रभुतानो अखंड प्रताप छे, अने ते स्वतंत्र-स्वाधीनपणे शोभायमान छे. जुओ, आ शोभा-शणगार! आ शरीर पर घरेणांनो शणगार करे छे ने! ए तो धूळे य शणगार नथी सांभळने; ए तो मडदानो-माटीनो शणगार छे. देहनां शणगार-शोभा ए कांई आत्मानी शोभा नथी, ने देहना नेहरूप परिणमे ए पण आत्मानी शोभा नथी. अहाहा...! देह अने रागथी भिन्न अंदर चैतन्य चिदानंद प्रभु छे तेनी सन्मुख थई परिणमे ते आत्मानी शोभा छे, अने ते धर्म छे. अहा! जुओ तो खरा! भावलिंगी मुनिराज देहनी शोभाथी (संस्कारथी) रहित छे. अहा! तेओ आहार लेवा माटे नगरमां जाय ने कोई रुदन संभळाय तो आहार लीधा वीना ज वनमां पाछा फरी जाय छे. अहा! स्वाधीनपणे शोभित मोक्षमार्गने साधवा नीकळ्‌या त्यां आ अशोभनिक शुं? अहा! आनंदनो भंडार खोलवो छे त्यां आ देहने शुं भरवो? ल्यो, आम विचारी दुःखनो चित्कार सांभळतां ज आहार लीधा विना ज वनमां चाल्या जाय छे अने स्वस्वरूपमां लीन थई जाय छे.

ओहो! अंदरमां त्रणलोकनो नाथ भगवान विराजे छे, पण भाई! तने तेनी किंमत नथी. कोई लाकडां वेचनारा एक कठियाराने जंगलमांथी एक हीरो जडयो. तेणे घेर आवीने पोतानी स्त्रीने ते आप्यो अने कह्युं-आ पथ्थर खूब चमकदार छे एटले हवे आपणे ग्यासतेलनो दीवो नहि करवो पडे. एक दिवस एक हीरा-पारखु (झवेरी) तेना घर आगळ थई नीकळ्‌यो. तेणे हीरानो प्रकाश जोयो. तेणे कठियाराने कह्युं-मने आ चमकतो पथ्थर आप, तेना बदलामां हुं तने एक हजार सोनामहोर आपुं. त्यारे कठियाराने खबर पडी के आ पथ्थर तो सर्व दरिद्रतानो नाश करे एवो महा किंमती हतो. ‘अनुभव प्रकाश’मां आ दृष्टांत आव्युं छे. तेम अहीं कहे छे-भाई! आ आत्मा चैतन्य-हीरलो छे. एना चैतन्यप्रकाशमां आखुं लोकालोक जणाय एवुं तेनुं प्रभुत्व छे. तेना द्रव्य-गुणमां तो प्रभुता भरी ज छे, पण तेना ज्ञान-श्रद्धानरूप जे निर्मळ परिणमन थाय ते पण अखंड प्रतापथी शोभायमान छे. साथे अतीन्द्रिय आनंदनी पर्याय उत्पन्न थाय तेमां पण प्रभुतानो अखंड प्रताप शोभे छे. अहा! स्वाधीनपणे शोभित ज्ञान-आनंदनी दशानी प्रभुताने कोई लूंटी के नुकसान करी शके एम नथी.

जुओ, सम्यग्दर्शन केम थाय एनी आमां वात छे. कहे छे-सम्यग्दर्शननी पर्याय स्वतंत्रपणे-स्वाधीनपणे शोभायमान थईने प्रगट थाय छे. आवुं ज तेनुं प्रभुत्व छे. शुभराग-व्यवहारना कारणे सम्यग्दर्शन प्रगट थाय एम कदी य छे नहि, केमके शुभराग परावलंबी छे, स्वालंबी-स्वाधीन नथी. तेवी रीते शुद्ध रत्नत्रयरूप चारित्रनी दशा पण स्वाधीनपणे प्रगट थाय छे, व्यवहार रत्नत्रयना कारणे कांई चारित्र प्रगटे छे एम नथी. व्यवहार रत्नत्रय ए कांई वास्तविक रत्नत्रय नथी, चारित्र नथी; ए तो परावलंबी रागनी ज दशा छे.

अहाहा...! साधु-मुनिवर-संत तो पंच परमेष्ठीपदमां विराजे छे. तेओ लोकमां पूजनीक छे, वंदनीक छे. ‘णमो लोए सव्वसाहूणम्’ एम पाठ छे ने? मतलब के प्रचुर वीतरागी आनंदनी दशा जेने अंतरंगमां प्रगट थई छे एवा चारित्रवंत सर्व निग्रंथ साधुओने नमस्कार छे. अहाहा...! चारित्र एटले शुं? समकितीने स्वभावनो अति उग्र आश्रय अने रमणता थतां चारित्र प्रगट थाय छे. ‘स्वरूपे चरणं चारित्रं’ अहाहा...! ए चारित्रनी दशा अखंडित प्रतापवाळा स्वातंत्र्यथी शोभायमान प्रभुत्वमय छे. समजाणुं कांई...?

भगवान आत्मा चैतन्यशाळी छे. चैतन्यशाळी एटले चैतन्यवंत अने चैतन्यवडे शोभायमान एम बे अर्थ थाय छे. लोकमां करोडोनी संपत्तिवाळाने भाग्यशाळी-भाग्य वडे शोभायमान-कहे छे. पण जड संपत्तिथी कांई जीवनी शोभा नथी, अने तेना तरफनो ममतानो भाव ते महा अशोभनीक पापभाव छे. अरे, धर्मी पुरुषोने तो पंच परमेष्ठी भगवंतो प्रति जे विनय-भक्तिनो भाव आवे छे ते य पोसातो नथी, हेय भासे छे. योगसारमां आवे छे ने के-

पापरूपने पाप तो जाणे जग सहु कोई;
पुण्यतत्त्व पण पाप छे, कहे अनुभवी बुद्ध कोई

प्रवचनसारनी गाथामां (गाथा ७७) आ स्पष्ट कह्युं छे के पुण्य ठीक छे अने पाप अठीक छे एम जे बेमां (पुण्य-पापमां) भेद माने छे ते मोहाच्छादित थयो थको घोर अपार संसारमां परिभ्रमे छे. समयसार पुण्य-पाप अधिकारमां पण आवे छे के-शुभाशुभभाव बन्ने कुशील छे. शुभभाव पण कुशील छे. जे भाव जीवने संसारमां दाखल करे तेने सुशील केम कहीए? शुभभाव जीवने संसारमां प्रवेश करावे छे. तेनुं फळ भवसंसार ज छे. तेथी शुभभाव शोभनीक नथी. जे भावथी भवनो अभाव थाय ते शुद्धभाव ज एक उपादेय अने शोभनीक छे. धर्मी पुरुषने शुभभाव


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हो भले, पण तेने एक शुद्धोपयोगनी ज भावना होय छे.

अहाहा...! भगवान केवळी कहे छे-भाई! तारी आत्मवस्तुमां एक प्रभुत्वशक्ति छे. त्यां आ शक्ति अने शक्तिवान एवा भेदनुं लक्ष मटाडी अभेद एक त्रिकाळी शुद्ध चिन्मात्र वस्तुनुं लक्ष करतां तारी प्रभुत्वशक्ति अखंडित प्रताप सहित तत्काल प्रगट थाय छे. अहाहा...! ते द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेयमां व्यापे छे. अहाहा...! द्रव्यमां प्रभुत्व, गुणोमां प्रभुत्व अने पर्यायमां प्रभुत्व प्रगटे छे; अर्थात् तारी प्रभुत्वशक्ति क्रमे निर्मळ-निर्मळ एवी परिणमे छे के एनो प्रताप कोईथी निवारी शकातो नथी. जुओ, -

- आ देव-गुरु आदि पंच परमेष्ठी भगवंतो परद्रव्य होवाथी तारा आत्माना द्रव्य-गुण-पर्याय एकेयमां

व्यापता नथी,

-वळी देव-गुरु प्रत्येनो विनय-भक्ति आदिनो शुभराग-विकार ते य आत्माना द्रव्य-गुणमां व्यापतो नथी,

एक समयनी पर्यायमां ते व्यापे छे तोपण ते सर्व पर्यायोमां व्यापतो नथी. ज्यारे-

-धर्मी पुरुषने आ प्रभुत्व शक्ति द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेयमां व्यापे छे. अहाहा...! तेथी पोताना द्रव्य-गुणमां व्यापक एवी प्रभुत्वशक्ति वडे प्रभु! तारुं जीवन चैतन्यना अखंडित प्रतापथी स्वाधीन शोभायमान थाय ते ज जीवननी वास्तविक शोभा छे, उज्ज्वळता छे. आ सिवाय बीजा कोईथी तारी शोभा नथी.

अरे, अज्ञानी जीवो पोताने पामर मानीने बेठा छे. अमे तो गरीब छीए, संसारी-रागी छीए, अल्पज्ञ छीए, अमे शुं पुरुषार्थ करीए? आम अज्ञानीओ दीनता करी रह्या छे. तेमने अहीं कहे छे-भाई! तारुं स्वरूप अंदर अनंत प्रभुताथी विराजे छे. तारा एकेक गुणमां प्रभुत्व शक्ति भरी छे. अहाहा...! अनंत अनंत प्रभुताथी भरेलो हुं चैतन्य महाप्रभु छुं एम भान करी अंतर-लक्ष करतां ज पर्यायमां प्रभुता ऊछळे छे; साथे ज्ञान, दर्शन आदि अनंती शक्तिओ निर्मळ ऊछळे छे. आनुं नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे.

तो ज्ञानी पण पोताने अल्पज्ञ अने पामर जाणे छे ते कई रीते छे? उत्तरः– सम्यग्द्रष्टिने द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेयमां प्रभुता व्यापी छे. तथापि पूर्ण दशा प्रगटी नथी, पूर्ण वीतरागता अने केवळज्ञान थयां नथी, तो जेटली वर्तमान दशा अधूरी छे तेटली त्यां पामरता अने अल्पज्ञता छे एम ज्ञानी यथार्थ जाणे छे. आ स्याद्वाद छे. पूर्ण परमात्मदशा प्रगटी नथी ते अपेक्षाए साधक पोतानी पर्यायने पामर जाणे छे. आ तेनो पर्याय-विवेक छे.

समकिती पोताना आत्माने तृण समान समजे छे-एम स्वामी कार्तिकेय अनुप्रेक्षामां आवे छे. त्यां अंतरंगमां प्रभुतानी प्रतीति सहित पर्यायना विवेकनी वात छे. एम के-कयां दिव्य केवळज्ञान? अने कयां मारी अल्पज्ञ दशा? अहाहा...! -आम विवेक करीने द्रव्यना आश्रये पूरण दशा प्रगट करवानी धर्मी पुरुष भावना भावे छे. भाई! जो एकली ज पामरता माने, अने अंतरंग प्रभुता न ओळखे तो पामरता दूर करी प्रभुता कयांथी लावे?

सम्यग्द्रष्टिने पोताना स्वरूपनो अनुभव थतां ज निज पूर्णानंद प्रभुनी अंतर-प्रतीति थाय छे, अने तेने अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे. परंतु ज्यां सुधी पूरण चारित्रनी दशा-पूर्ण वीतरागता न थाय त्यां सुधी किंचित् राग आवे छे. ते रागने ते पामरता समजे छे. अहाहा...! चारित्रवंत महा मुनिवरनी आनंदनी रमणतानी दशा कयां? अने मारी वर्तमान वर्तती चोथा गुणस्थाननी दशा कयां?

श्रेणिक राजा क्षायिक समकिती हता; तीर्थंकर गोत्र बांध्युं छे. अत्यारे तेमने क्षायिक समकित छे; अने आगळ जतां केवळज्ञान प्रगट करशे. तेओ हमणां जाणे छे के अमारी वर्तमान दशा पामर छे. अहा! कयां चारित्रवंत महा मुनिवरोनी दशा? कयां केवळज्ञाननी दशा? अने कयां अमारी वर्तमान अल्पज्ञ दशा? आवो साधकदशामां धर्मीने पर्यायनो विवेक होय छे.

धवलमां एवो पाठ छे के-स्वभावना आश्रये मति-श्रुतज्ञाननी जे वर्तमान दशा प्रगट थई छे ते केवळज्ञानने बोलावे छे. एटले शुं? के वर्तमान सम्यक्ज्ञाननी दशा केवळज्ञानना स्वरूपने जाणे-ओळखे छे अने ते ज वधती-वधती


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केवळज्ञानरूप थई जशे. अहो! संतोए शुं कमाल काम कर्यां छे! एकवार सांभळ, नाथ! तारा द्रव्य-गुण-पर्यायनुं संरक्षण अने संवर्धन करनार तुं पोते ज छो, क्षेमनो करनार तुं पोते तारो नाथ छो.

पति पत्नीनो नाथ कहेवाय छे, केमके पत्नी पासे जे संयोग छे तेनी ते रक्षा करे छे, अने जे (कपडां, दागीना वगेरे) नथी ते मेळवी आपे छे. तेम जे ज्ञान-श्रद्धान-आनंदनी निर्मळ पर्याय प्रगट थई तेनी रक्षा करे अने अनंतकाळमां जे केवळज्ञान नथी मळ्‌युं ते मेळवी आपे-एवो क्षेमनो करनारो तुं पोते ज तारो नाथ छो. तारी रक्षा करनार बीजो कोई प्रभु छे एम छे नहि.

अहाहा...! मतिज्ञान केवळज्ञानने कहे छे-आव रे केवळज्ञान आव! अहाहा...! सम्यग्द्रष्टि-धर्मी विचारे छे -अहो! धन्य आ अवतार! मारी ऋद्धिनुं प्रभुत्व मारी पर्यायमां प्रगट थयुं छे, पण पूर्ण दशानी प्रगटता थवी हजी बाकी छे. द्रव्य अने गुण तो पूर्ण छे, पण जेवो-केवळज्ञान, केवळदर्शन, अनंत आनंद, अनंत वीर्य, अनंत प्रभुता आदि पूर्ण वैभव छे ते सघळो अहाहा...! मारी पर्यायमां शीध्र प्रगटो! ल्यो, आम मतिज्ञान पोकारे छे. अहा! धर्मीने -सम्यग्द्रष्टिने अपूर्णता रहे (किंचित् पामरता रहे) तेनुं पोसाण नथी. समजाय छे कांई...?

आत्मामां षट्कारकरूप छ शक्तिओ छे. कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, अधिकरण -एम आ छ शक्तिओ स्वाधीनपणे शोभायमान छे; केमके तेओ पोताना प्रभुत्वमय छे अर्थात् तेमां प्रभुत्व गुण व्यापक छे. जेथी तेओ पोतानुं कर्म (-कार्य) निपजाववामां पराधीन नथी, परनी अपेक्षारहित स्वाधीन छे. कर्ता स्वाधीन, कर्म स्वाधीन, करण स्वाधीन एम छए कारकशक्ति स्वाधीन छे. अहा! आ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप कर्म नीपजे तेने जीव पोते षट्कारकपणे परिणमीने स्वाधीनपणे प्राप्त थाय छे, तेमां राग के निमित्त-परवस्तुनी अपेक्षा नथी. नियमसारनी बीजी गाथामां (टीकामां) कह्युं छे के निश्चय रत्नत्रय परम निरपेक्ष छे, व्यवहार रत्नत्रयना विकल्पनी, पर निमित्तनी के भेद-विकल्पनी -कोईनी तेने अपेक्षा नथी. आवुं प्रभुताथी भरेलुं वस्तु तत्त्व स्वाधीन छे भाई! लोकमां जेम राजा स्वाधीन शोभायमान होय छे ने! तेम वस्तुतत्त्व स्वाधीन शोभायमान छे. समयसार गाथा १७- १८मां आत्माने चैतन्य राजा कह्यो छे. अहाहा...! राजा एटले शुं? ‘राजते शोभते इति राजा’ - जे अखंडित प्रतापथी स्वाधीन शोभे छे ते राजा छे. अहाहा...! आ चैतन्यराजा पोतानी अनंत गुणपर्यायथी अनिवारित जेनुं तेज छे एवा प्रतापथी स्वाधीन शोभायमान छे. समजाणुं कांई...?

जुओ, पंडित दीपचंदजी साधर्मी गृहस्थ हता. तेमणे ‘पंचसंग्रह’ ग्रंथ लख्यो छे. तेमां शृंगार आदि आठ रसनुं बहु तात्त्विकरीते अनोखुं वर्णन कर्युं छे. त्यां ते लखे छे-आनंदरसकंद प्रभु आत्मानी अनंतशक्तिनुं परिणमन थाय ते शृंगाररस छे. आ व्यवहार रत्नत्रय ते आत्मानो शृंगार नथी, ए तो राग नाम दुःख छे. त्यां तेओ लखे छे-आत्मा गृहस्थ छे, ब्रह्मचारी छे इत्यादि विस्मयकारी वातो त्यां दर्शावी छे.

अहाहा...! एक समयनी दर्शननी पर्याय लोकालोकने भेद पाडया विना सामान्य देखे, ते ज समये ज्ञाननी पर्याय आ जीव छे, आ गुण छे, आ पर्याय छे, आ पर्यायना अविभाग प्रतिच्छेद छे-एम भेद पाडीने जाणी ले छे. अहाहा...! दर्शननी पर्याय बधुं अभेद सामान्यरूपे देखे, ने ज्ञाननी पर्याय ते ज काळे स्व-पर बधाने भिन्नभिन्नपणे भेद पाडीने जाणे. अहो! आवो चमत्कारी अद्भुत रस आत्मामां छे. आम अद्भुत रस, शृंगाररस वगेरे आत्मामां एकीसाथे स्वतंत्र शोभे छे ते आत्मानुं प्रभुत्व छे.

आत्मा द्रव्य-वस्तु छे. तेमां संख्याए एक, बे, त्रण-एम अनंत शक्ति छे. द्रव्य एक अने शक्ति अनंत. तेमां एनी प्रभुत्वशक्ति अखंडित प्रतापमय स्वातंत्र्यथी शोभायमान छे. आ प्रभुत्वशक्ति द्रव्य-गुण-पर्यायमां-त्रणेमां व्यापे छे, पण ते पर्यायना काळने आघोपाछो करवा समर्थ नथी. नियत क्रममां जे समये जे पर्याय थवानी होय ते ज थाय छे.

प्रश्नः– दरेक पर्याय थवानी होय ते नियत क्रममां क्रमबद्ध थायतो पुरुषार्थ करवानो कयां रह्यो? उत्तरः– द्रव्यमां जे समये जे पर्याय प्रगट थवानी होय ते समये ते ज प्रगट थाय एवो यथार्थ निर्णय करनारनी द्रष्टि पोताना त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यद्रव्य उपर ज होय छे. द्रष्टि त्रिकाळी द्रव्य उपर जाय त्यारे ज क्रमबद्ध पर्यायनो साचो निर्णय थाय छे. आ निर्णयमां द्रव्यद्रष्टिनो अनंतो सम्यक् पुरुषार्थ छे; केमके द्रव्यद्रष्टि ते ज सम्यक् द्रष्टि छे. प्रत्येक समये द्रव्यमां जे पर्याय प्रगट थाय छे ते तेनी जन्मक्षण छे एम प्रवचनसारमां (गाथा १०२ मां) पाठ छे. एटले


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शुं? के तेने कोई परवस्तुनी-निमित्तादिनी अपेक्षा नथी. निमित्त आवे तो थाय एम माननार तो एकांत निमित्तवादी अज्ञानी छे. निमित्तनी तो शुं? प्रगट थती-उत्पादरूप थती-पर्यायने पूर्व पर्यायना व्ययनी पण अपेक्षा नथी. निमित्त छे, पूर्व पर्यायनो व्यय छे (नथी एम वात नथी), पण उत्पादरूप पर्यायने तेनी अपेक्षा नथी. अहो! वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वर सिवाय आवी बीजे क्यांय वात नथी.

प्रश्नः- पण आवुं समजवामां तो केटलो बधो वखत जाय? उत्तरः– अरे! संसारना भणतर पाछळ केटलो वखत काढे छे? वळी विदेशमां भणवा जाय छे ने लाखो रूपियानो खर्च करे छे. पण आ लौकिक भणतर शुं काम आवे? (संसार वधारवा सिवाय) कांई ज काम न आवे. माटे आ तत्त्वज्ञाननो अभ्यास क्रोड उपाय करीने पण करवो जोईए. छहढालामां कह्युं छे ने के-

‘कोटि उपाय बनाय भव्य ताको उर आनो.’

‘स्वामी कार्तिकेय अनुप्रेक्षा’ नामना ग्रंथमां गाथा ३२१-३२२-३२३मां श्री कार्तिकेय स्वामीए कह्युं छे के- सर्वज्ञदेवे जे जीवने जन्म, मरण, सुख, दुःख आदि जे देशमां, जे काळे, जे विधिथी थवानुं नियत जाण्युं छे ते जीवने ते देशमां, ते काळे, ते विधिथी ते ते थाय ज छे; तेमां इन्द्र के जिनेन्द्र-कोई कांई फेरफार करवा समर्थ नथी. आ प्रमाणे जे निश्चयथी सर्व द्रव्यो अने सर्व पर्यायोने जाणे छे ते शुद्ध सम्यग्द्रष्टि छे, अने जे शंका करे छे ते कुद्रष्टि अर्थात् मिथ्याद्रष्टि छे. अहा! दरेक द्रव्यनी, दरेक गुणनी जे काळे जे पर्याय थवायोग्य होय ते काळे ते ज पर्याय उत्पन्न थाय छे एम यथार्थ जाणनारनुं लक्ष पर्याय उपर न रहेतां त्रिकाळी द्रव्य स्वभाव उपर जाय छे अने ए ज स्वभाव-द्रष्टिनो सम्यक् पुरुषार्थ छे, आ रीते क्रमबद्ध पर्यायनो निर्णय करवामां भेगो पुरुषार्थ आवी ज जाय छे. माटे क्रमबद्ध मानवाथी पुरुषार्थ ऊडी जाय छे एवी शंका करवी योग्य नथी. भाई! नियत क्रम छोडीने कोई प्रकारे (निमित्तादि वडे) पर्याय यथेच्छ आघीपाछी थवानुं तुं माने पण ए तो मिथ्यादर्शन छे अने तारी एवी चेष्टा मिथ्या पुरुषार्थ-मिथ्या विकल्प सिवाय कांई ज नथी. समजाणुं कांई...?

प्रश्नः– हा, पण प्रवचनसारमां नय प्रकरणमां काळनय अने अकाळनय एम बन्नेनुं विधान छे. तेथी एकांते बधुं क्रमनियत-क्रमबद्ध मानवुं योग्य नथी.

उत्तरः– प्रवचनसारमां ४७ नयनो अधिकार छे; तेमां काळनय अने अकाळनयनी वात आवी छे. त्यां ३०मा काळनयथी कथन करतां कह्युं छे के-

“आत्मद्रव्य काळनये जेनी सिद्धि समय पर आधार राखे छे एवुं छे, उनाळाना दिवस अनुसार पाकता आम्रफळनी माफक.”

मतलब के जे काळे जे पर्याय थवानी होय ते काळे ते थाय एनुं नाम काळनय छे. वळी, त्यां ३१मा अकाळनयथी वर्णन करतां कह्युं छे के-

“आत्मद्रव्य अकाळनये जेनी सिद्धि समय पर आधार राखती नथी एवुं छे, कृत्रिम गरमीथी पकववामां आवता आम्रफळनी माफक.”

अहीं बन्ने-काळनय अने अकाळनय-एक ज कार्य प्रति पोतपोतानी विवक्षा रजू करे छे. जेम काळनयमां काळनी विवक्षा छे तेम अकाळनय ते ज कार्य प्रति अन्य हेतुओ-स्वभाव, पुरुषार्थ, नियत अने निमित्तनी विवक्षा दर्शावे छे. अहीं अकाळनयनो एवो अर्थ कयां छे के पर्याय थवानी होय ते न थतां आघी-पाछी थाय के बीजी थाय? अकाळनो अर्थ एम छे के स्वभाव, पुरुषार्थ, नियत अने निमित्त-ए बधा पण पर्याय थवाना काळे साथे ज छे; बाकी पर्याय थवा योग्य होय ते आगळ-पाछळ थाय के बीजी थाय एवो तेनो अर्थ नथी. वास्तवमां प्रत्येक पर्याय पोताना नियतक्रममां ज प्रगट थाय छे अने ते काळे बाह्य अने अभ्यंतर सामग्रीनो सहज ज योग होय छे.

एक पंडित अहीं आवेला. अहींनी वात सांभळी तेओ बहु खुशी थयेला. पोते बहु नरम माणस हता. तेमणे पंचाध्यायीनो हिंदीमां अनुवाद कर्यो छे. तेमां भूल रही गयेली ते बतावी तो बोल्या, -अमारी भूल होय तो सुधरावो, महाराज! त्यां पंचाध्यायीमां (तेमणे) एम वात करी छे के बुद्धिपूर्वकनो राग छठ्ठा गुणस्थाने होय छे अने अबुद्धिपूर्वकनो राग सातमा गुणस्थाने होय छे. परंतु आ कथन, कीधुं, सदोष छे. छठ्ठा गुणस्थानमां ज ख्यालमां आवे एवो जे राग


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छे ते बुद्धिपूर्वकनो राग छे, अने ते ज वखते (छट्ठे गुणस्थाने) ख्यालमां न आवे एवो राग छे ते अबुद्धिपूर्वकनो राग छे. सातमा गुणस्थाने एकलो अबुद्धिपूर्वकनो राग होय छे, आम यथार्थ समजवुं.

जुओ, समयसार गाथा ३०८ थी ३११नी टीकामां आचार्य अमृतचंद्रदेवे क्रमबद्ध विषे स्पष्ट वात करी छे. त्यां कह्युं छे-“प्रथम तो जीव क्रमबद्ध एवा पोताना परिणामोथी उपजतो थको जीव ज छे, अजीव नथी; एवी रीते अजीव पण क्रमबद्ध पोताना परिणामोथी ऊपजतुं थकुं अजीव ज छे, जीव नथी.” मूळ संस्कृत टीकामां ‘क्रमनियमित’ शब्द पडयो छे. एटले द्रव्यमां प्रगट थता प्रत्येक परिणाम क्रमथी निश्चित तेना क्रममां थवाना काळे ज प्रगट थाय छे, आघा-पाछा थता नथी. भाई! आ तो त्रिलोकीनाथ सर्वज्ञदेवनी वाणीमां झरेलुं परमामृत छे. एना रसपान विना बधुं थोथां छे. शुं थाय? अत्यारे तो बधा पंडितोनुं भणतर ज निमित्ताघीन बुद्धिवाळुं छे, एम के निमित्तथी थाय; पण परथी परनुं परिणमन न थाय एवो अभ्यास ज नथी, पछी स्वानुभव तो कयांथी थाय?

आ वात सांभळीने पं. देवकीनंदन बोलेला के-संतो आगमचक्षु होय छे ए वात हवे बराबर समजाय छे. भाई! गमे तेम करीने जीवनमां आ वात समजवा जेवी छे हों. अहाहा...! अंतर्मुहूर्तमां केवळज्ञान प्रगट करवानी तारी ताकात छे. माटे आ मने न समजाय एवुं शल्य छोडीने अभ्यास कर, जरूर तने स्वानुभव प्रगट थशे. समयसारना एक कळशमां कह्युं छे के-एक चैतन्यमात्र वस्तुने पोते निश्चळ लीन थई देख; एवो छ महिना अभ्यास कर अने जो (-तपास) के एम करवाथी पोताना हृदय-सरोवरमां जेनुं तेज-प्रताप-प्रकाश पुद्गलथी भिन्न छे एवा आत्मानी प्राप्ति नथी थती के थाय छे? भाई! प्राप्ति थाय ज एवी आ वात छे. पोते जागतो ऊभो छे ते कयां जाय? प्राप्त थाय ज. अहीं छ महिनानो अभ्यास कह्यो तेथी एम न समजवुं के एटलो वखत लागे. तेनुं थवुं तो अंतर्मुहूर्तमां ज छे, परंतु कोई मंद रुचिवाळो होय तो तेना माटे कह्युं छे के-छ महिना आ तत्त्वज्ञाननो स्वलक्षपूर्वक अभ्यास कर, तने अनुभव थशे ज थशे. अंतरनी रुचि वडे वास्तविक तत्त्वज्ञाननो अभ्यास करे तेने आत्म-अनुभूति थाय ज एम वात छे. पण अरे! रळवा-कमावा पाछळ मजूरनी जेम आखी जिंदगी वेडफी नाखे! नोकरीवाळा तो पप वर्षनी उंमरे निवृत्त-छूटा थाय, पण आ तो धंधानी ममता आडे ८०-९० वर्षनी उंमर थाय छतां त्यांथी निवृत्त थई आवुं तत्त्व समजवा फुरसद ना ले तो शुं थाय? भाई! जिंदगी हारी जईश हों. मरीने कयांय संसार-समुद्रमां खोवाई जईश.

समयसारनी पमी गाथामां आचार्यदेवे कह्युं के- ‘ते एकत्व-विभक्त आत्माने हुं आत्माना निज वैभव वडे देखाडुं छुं; जो हुं देखाडुं तो प्रमाण (स्वीकार) करवुं.’ ‘प्रमाण करवुं’ एटले शुं? के जे एकत्व-विभक्त आत्माने दर्शावुं छुं तेने स्वयमेव पोताना अनुभव-प्रत्यक्षथी परीक्षा करी प्रमाण करवुं. एकली हा पाड एम नहि, पण हे शिष्य! पोताना स्वसंवेदन-प्रत्यक्षथी प्रमाण कर-एम कहेवुं छे. वस्तु पोते आत्मा स्वानुभव-प्रत्यक्ष न थाय एम वात ज नथी. अहो! दिगंबर संतोनी आ रामबाण वाणी छे. समजाणुं कांई...?

अरे भाई! जीवोनी दया पाळो, दान आपो, ने भक्ति करो तो धर्म थाय एवी वात तो लौकिकमां सामान्य लोको पण करे छे. घणा वर्षो पहेलां अमारा गाममां एवो रिवाज हतो के जैनोनां पर्युषण आवे एटले घांची, कुंभार वगेरे लोको एक मास सुधी पोतानो धंधो बंध राखता, निंभाडा, घाणी वगेरे चालु न राखता. पण एथी शुं? ए बधाथी कांई धर्म थोडो थाय? राग मंद होय तो पुण्यबंध थाय, बस. धर्म वस्तु तो कोई अलौकिक चीज छे बापु! जगतना प्राणीओने धर्मना स्वरूपनी खबर नथी. स्वस्वरूपमां सन्मुख थई त्यां ज रमवुं, तेमां ज लीन- स्थिर थवुं ते वीतरागी जैनधर्म छे. आवी दशा थतां धर्मीने दया, दाननो राग आवे छे, पण तेने ते जाणवालायक छे बस. तेनी द्रष्टि तो निरंतर अखंड एक नित्य प्रतापवंत निज ज्ञायक पर ज होय छे; अने त्यां ज स्थित थवा ते प्रवृत्त थाय छे. ल्यो, आवो धर्म!

जुओ, निमित्त-उपादान निश्चय-व्यवहार, ने क्रमबद्ध ए पांच वात अहींथी खास बहार आवी छे ते खास समजवा जेवी छे. केटलाक समज्या विना ज तेनो विरोध करे छे. अहींनी वात सांभळी पं. देवकीनंदन बोल्या हता के-अहो! क्रमबद्धनी आवी वात अमे कयांय सांभळी नथी. अमारा बधा पंडितोनुं भणतर ज निमित्ताधीन द्रष्टिवाळुं छे. प्रत्येक द्रव्यनी पर्याय स्वतंत्रपणे पोताना उपादानथी प्रगट थाय छे एवी वात अमारा अभ्यासमां कदी आवी नथी; अनुभव थवानी वात तो कयांय दूर रही गई.

अरे भाई! भगवाने आ विश्वमां छ द्रव्यो जोयां छे. तेमां एक जीव अने बाकीनां पांच द्रव्यो-पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, अने काळ-ते अजीव छे. आ सर्व जीव-अजीव द्रव्यो प्रतिसमय पोतपोताना


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क्रमबद्ध परिणामोथी निरंतर उपजे छे. कोई द्रव्य कोई अन्यद्रव्यना परिणामने उपजावे एवी वस्तुस्थिति ज नथी. गाथा ३०८ थी ३११ मां-टीकामां आ वात आचार्यदेवे प्रसिद्ध करी छे. आवी वस्तुव्यवस्था स्वीकारीने जे अतंर्मुख द्रष्टि करे छे तेने क्रमबद्धनो साचो निर्णय थाय छे अने तेने क्रमबद्ध निर्मळ आनंद आदि पर्यायनी धारा शरू थाय छे. बाकी तो जगतना जीवो बिचारा दुःखमां पीलाय छे. अरे! घाणीमां तल पीलाय तेम रागद्वेषनी घाणीमां तेओ पीलाय छे. अहा! अनंत प्रभुतामय पोताना प्रभुने-आत्माने ओळख्या विना बिचारा शुं करे? कयां जाय? (दुःखमां डूबी मरे छे). कोईक विरल जीव अंतर स्वभाव-सन्मुखनो पुरुषार्थ करे ते अल्पकाळमां केवळज्ञान लईने मोक्ष प्राप्त करे छे. सज्झायमां आवे छे ने के-

सहजानंदी रे आत्मा, सूतो कंई निश्चिंत रे,
मोहतणा रे रणिया भमे, जाग जाग मतिवंत रे;
लूंटे जगतना जंत रे, विरला कोई उगरंत रे..

अरे प्रभु! आ मोह-राग-द्वेषादि रणिया तारा माथे भमे छे ने तुं पोताना सहजानंदी स्वरूपने भूली प्रमादी थई सूतो छे! जाग रे जाग नाथ! आ जगतना प्राणीओ तने लूंटे छे. आ बैरां-छोकरां वगेरे कुटुंबीजनो पोतानी आजीविका हेतु तारा आनंदने लूंटे छे. नियमसारमां आवे छे के आ स्त्री-पुत्र आदि परिजन पोतानी आजीविका माटे तने धूताराओनी टोळी मळी छे. हवे आवी स्थितिमां कोई विरल जीव मोहमुक्त थई पोताना त्रिकाळी शुद्ध सहजानंद-ज्ञानानंद स्वरूपनी संभाळ करे छे ते उगरी जाय छे अर्थात् पोतानुं कल्याण करी ले छे.

अहा! अंदर पोते चैतन्य महाप्रभु विराजे छे तेने भूलीने तुं बहार फांफां मारे छे? बहारमां कयां तारां प्रभुता ने आनंद छे? अहा! अनंत गुणनी प्रभुताना सत्त्वथी भरेलो तुं प्रभु छो. अहा! आवा निज स्वरूपनो महिमा लावी अंतर्मुख था. तेम करतां ज अखंडित तेज वडे तारो आत्मा प्रभुताथी पर्यायमां शोभी उठशे. आ सिवाय बहारमां कयांयथी तारी प्रभुता प्रगट थाय एम छे नहि. समजाणुं कांई...! ल्यो, -

आ प्रमाणे अहीं प्रभुत्वशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं. -

*
८ः विभुत्वशक्ति

‘सर्व भावोमां व्यापक एवा एक भावरूप विभुत्वशक्ति. (जेम के, ज्ञानरूपी एक भाव सर्व भावोमां व्यापे छे.)’

आ शक्तिनो अधिकार चाले छे. तेमां अहीं आ आठमी विभुत्वशक्तिनुं वर्णन छे. अहाहा...! आत्मा शुद्ध चैतन्यमय पदार्थ छे ते कर्म अने शरीरथी सदाय भिन्न चीज छे; वळी अंदर जे पुण्य-पापना विकल्पो उत्पन्न थाय छे तेनाथी पण आत्मा वास्तवमां भिन्न वस्तु छे, केमके ते विकल्पो त्रिकाळी चैतन्यवस्तुमां प्रसरता नथी. परंतु पोतानी जे अनंत शक्तिओ छे तेनाथी आत्मा अभिन्न छे, एक छे; केमके सर्व अनंत शक्तिओ पूरी आत्मवस्तुमां अभेदपणे व्यापक छे. अहाहा...! आ शक्तिओमांथी अहीं विभुत्वशक्तिनुं वर्णन कर्युं छे.

केवी छे विभुत्वशक्ति! तो कहे छे-‘सर्व भावोमां व्यापक एवा एक भावरूप विभुत्वशक्ति.’ भाव एटले शुं? के आत्मवस्तुमां जे ज्ञान, दर्शन, चिति, जीवत्व, प्रभुत्व आदि शक्तिओ छे तेने अहीं भाव कहेल छे. भाव शब्द चार अर्थमां कहेवाय छे.

१. द्रव्यने भाव कहे छे, २. गुणने भाव कहे छे, ३. पर्यायने भाव कहे छे, अने ४. रागने-विकारी पर्यायने पण भाव कहे छे. तेमां अहीं त्रिकाळी शक्तिने भाव कहेल छे. मतलब के सर्व अनंत शक्तिओमां व्यापक एवा एक भावरूप विभुत्वशक्ति छे. समजाणुं कांई...?

अहाहा...! आत्मद्रव्यमां जे विभुत्वशक्ति छे ते द्रव्यना सर्व भावोमां व्यापक एवा एक भावस्वरूप छे. अर्थात् द्रव्यना सर्व अनंत भावोमां व्यापक छतां विभुत्वशक्ति अनंत भावरूप थई जती नथी, सदा ते एक भावरूप ज रहे


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छे. अहा! एकपणे रहीने अनंत गुणस्वभावोमां व्यापे एवुं आत्मानुं विभुत्व छे. अहीं ज्ञाननुं द्रष्टांत आप्युं छे ने! के ज्ञानरूपी एक भाव सर्व भावोमां व्यापे छे. तेवी रीते एक भावरूप विभुत्व सर्व भावोमां ने आत्मद्रव्यमां व्यापे छे. आ रीते विभुत्व स्वभाव वडे आत्मा विभु अर्थात् सर्वव्यापक छे, ने आत्माना प्रत्येक गुण पण विभु अर्थात् सर्वव्यापक छे.

अन्यमतमां आत्मा आखा विश्वमां सर्वव्यापक छे एम मानवामां आवे छे. तेओ आकाशमां (लोकालोकमां) सर्वत्र भगवाननो-एक ब्रह्मनो वास छे एम माने छे, पण भाई! एवी आत्मवस्तु नथी. अहीं तो पोताना सर्व- अनंता गुण-पर्यायोमां व्यापक एवो आत्मा विभु अर्थात् सर्वव्यापक छे एम वात छे. भाई! प्रत्येक आत्मवस्तु पोताना स्वरूपने छोडीने पोताना असंख्यप्रदेशी क्षेत्रनी बहार कयांय (अन्य द्रव्यमां) व्यापतो नथी. अहाहा...! आवो बहारना सर्व परद्रव्योथी भिन्न अने अंदर सर्व अनंत गुणपर्यायोमां व्यापक एवो आत्मा विभु स्वभावी छे.

तो स्तुतिमां-भक्तामर स्तोत्र आदिमां-भगवानने विभु कह्या छे ने? हे नाथ! आप विभु छो-एम कह्युं छे ने?

समाधानः– हा, कह्या छे; पण ए तो आत्मानी विभुत्वशक्तिनी अपेक्षाए कह्या छे. भगवान कांई लोकालोकमां व्यापी रह्या छे अने माटे तेओ विभु छे एम नथी. ए तो विभुत्व स्वभावनी प्रगटता थतां पोताना सर्व अनंता गुण-पर्यायोमां भगवान व्यापक छे ए अपेक्षाए भगवान आप विभु छो. एम कह्युं छे. भाई! लोकालोकमां व्यापे एवुं कांई आत्मानुं विभुत्व नथी, पण पोतामां रहीने लोकालोकने सहज जाणी ले एवुं आत्मानुं विभुत्व छे. अहाहा...! केवळज्ञान पोतामां रहीने (प्रसरीने) आखा लोकालोकने जाणी ले तेवुं एनुं विभुत्व छे. आवी वात छे. समजाणुं कांई...?

अहो! आ विभुत्वशक्ति तो अजब छे. विभुत्व स्वभाव वडे जेम आत्मा विभु छे तेम तेना अनंता गुण- प्रत्येक विभु छे. ज्ञान विभु, दर्शन विभु, चारित्र विभु-एम दरेक गुण विभु छे. गजब छे ने! जेम अस्तिगुणथी बधा (अनंता गुण) अस्तिरूप छे तेम विभुत्व गुणथी बधा विभुस्वरूप छे. जेम अस्तित्व गुण व्यापीने बधाने अस्तिरूप करे छे तेम विभुत्व गुण व्यापीने बधाने विभुत्व अर्पे छे. अहो! आवी पोतानी विभुत्वशक्तिने जाणी, आ शक्ति अने आ शक्तिवान द्रव्य एवा भेदनुं लक्ष छोडी अभेद अखंड एक शक्तिवान द्रव्य पर द्रष्टि करवी ते सम्यग्दर्शन छे. आ धर्म प्रगट करवानी रीत छे. भाई! शक्तिओ नो भेद छे ते जाणवा माटे छे, पण सम्यग्दर्शन प्रगट करवा माटे तो भेदनुं लक्ष मटाडी अभेदनी अंतर्द्रष्टि करवी ए ज साधन छे.

जुओ, द्रव्यमां-आत्मवस्तुमां सर्व शक्तिओ अक्रम अर्थात् एक साथे रहेली छे, अने पर्यायो क्रमसर एक पछी एक सुनिश्चित थाय छे. अहा! ज्ञाननी पर्याय क्रमबद्ध एक पछी एक थाय छे तेम दरेक गुणनी पर्याय क्रमबद्ध एक पछी एक थाय छे. हवे केटलाक आमां तर्क करे छे के-“केवळज्ञाननी अपेक्षाए तो दरेक पर्याय नियत क्रमबद्ध छे ए वात बराबर छे, परंतु श्रुतज्ञान अल्प छे, माटे श्रुतज्ञाननी अपेक्षाए पर्याय क्रमबद्ध थाय ए वात बराबर नथी. बाह्य साधनो वडे जेवो पुरुषार्थ करे तेवी पर्याय थाय, क्रमबद्ध नहि.” खानिया तत्त्वचर्चामां आवो तर्क थयेलो छे, तेनुं समाधान पंडित श्री फूलचंदजीए बराबर करेलुं छे. अरे भाई! शक्ति अने शक्तिवान द्रव्य एवा भेदनुं लक्ष मटाडी अभेद एक त्रिकाळी ज्ञायकस्वभाव सन्मुख थाय त्यारे सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे अने त्यारे साथे ज भावश्रुतज्ञान प्रगट थाय छे. आ भावश्रुतज्ञान केवळज्ञानने अनुसरे छे तेथी श्रुतज्ञानमां पण सर्व पर्यायो क्रमबद्ध थाय छे एवो निर्णय होय छे. अहा! केवळज्ञानमां जे वस्तुव्यवस्था भासी तेनाथी अन्य प्रकारे (विपरीत) (वस्तुव्यवस्था) श्रुतज्ञानमां भासे तो ते श्रुतज्ञान केवुं? ते श्रुतज्ञान नथी, ए तो मिथ्याज्ञान ज छे.

भाई! अमे तो अहीं वर्षोथी कहीए छीए के-प्रत्येक द्रव्यनी प्रतिसमय जे जे पर्याय थाय छे ते ते क्रमबद्ध- क्रमनियमित प्रगट थाय छे. प्रत्येक समये जे पर्याय थवायोग्य होय ते ज त्यां क्रमनियमित प्रगट थाय छे. तेमां कांई आघुंपाछुं के आडुंअवळुं थवानो सवाल ज नथी. भाई! आ तो भगवान केवळीनुं फरमान छे. जेम मोतीनी माळामां ज्यां ज्यां जे जे मोती छे ते त्यां त्यां (प्रकाशे) छे; तेने आघांपाछां करवा जाय तो माळा तूटी जशे. तेम दरेक द्रव्यनी प्रत्येक पर्याय त्रणे काळे जे थवानी छे ते ज प्रगट थाय छे, तेमां आघुंपाछुं करवा जाय तो पर्यायनो क्रम तूटी जशे अने अखंड द्रव्य सिद्ध नहि थाय. (अर्थात् मिथ्यात्व ज रहेशे).


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कोई वळी कहे छे-क्रमबद्धनो अर्थ एक पछी एक थाय एम बराबर, पण अमुक आ ज थाय एम नहि. परंतु एवी वस्तुस्थिति नथी भाई! द्रव्यनी (त्रिकाळवर्ती) प्रत्येक पर्यायनो क्रम नियत-निश्चित ज छे. कोई पर्याय कदीय आडीअवळी थई शके नहि. दरेक पर्याय पोताना क्षणिक उपादाननी योग्यतानुसार जे काळे जे थवायोग्य होय ते ज ते काळे निश्चित प्रगट थाय छे.

जुओ, आत्मामां एक विभुत्वशक्ति छे एनी अहीं वात छे. आ विभुत्वशक्ति पूरा द्रव्यमां अने तेना अनंत गुणोमां व्यापक छे. द्रव्यनी अनंत शक्तिओ क्रमबद्ध पर्यायपणे परिणमे छे. बहिद्रष्टिने तेनो अंदर स्वीकार थतो नथी, पण एक अभेद शुद्ध अंतःतत्त्वनी द्रष्टि करतां ज पर्याय क्रमबद्ध थाय छे तेनो यथार्थ निर्णय थाय छे. अमे तो आ वात प्रवचनोमां विस्तारथी करी छे

प्रश्नः– तो आप छापीने बहार पाडवानुं कहो तो वहेली प्रसिद्ध थाय. उत्तरः– अमे कोईने कांई कहेता नथी. तत्त्व-विचार अने स्वाध्याय करवा सिवाय बीजा कोई काममां अमे पडता नथी. शुं छापवुं ने बहार पाडवुं ए समाजनुं काम छे, अमारुं ते काम नथी.

आ विभुत्व नामनी शक्ति सर्व शक्तिओमां व्यापे छे, द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. तेथी द्रव्य विभु, गुण विभु ने वर्तमान पर्याय विभु छे. सूक्ष्म वात छे प्रभु! आ ज्ञानस्वभाव विभु छे, ने ज्ञाननी वर्तमान दशा विभु छे. ज्ञाननी क्रमसर पर्याय सुनिश्चित जे थवायोग्य होय ते ज प्रगट थाय छे, अने तेनी साथे अनंत गुणनी पण ते समये सुनिश्चित जे पर्याय प्रगट थवानी होय ते ज प्रगट थाय छे, अनंत गुणनी पर्यायमां पण आ विभुत्व गुण व्यापे छे.

त्यारे कोई वळी कहे छे-क्रमबद्ध पर्याय मानवाथी नियत (-नियतवाद) थई जाय छे. अरे भाई! जेम द्रव्य अने तेनी शक्ति नियत छे अने निश्चित छे तेम पोतानी क्षणिक उपादाननी योग्यता अनुसार समय समये प्रगट थती दरेक पर्याय पण नियत ज छे. जे समये जे पर्याय थवायोग्य छे ते ज प्रगट थाय छे; पण पर्याय क्रमबद्ध छे एवो निर्णय करनारनी द्रष्टि त्रिकाळी शुद्ध एक ज्ञायक उपर जाय छे त्यारे ज क्रमबद्धनो यथार्थ निर्णय थाय छे. द्रव्यद्रष्टि रहित अज्ञानीने आ वात गोठती नथी. ते कहे छे-श्रुतज्ञाननी अपेक्षा नियत नथी. पण भाई! तारो तर्क यथार्थ नथी, केमके श्रुतज्ञाननी अपेक्षा पण दरेक पर्याय क्रमबद्ध ज छे एवो यथार्थ निर्णय सम्यग्द्रष्टिने होय छे. भाई! जरा द्रष्टि सूक्ष्म करी आ समजवा माटे प्रयत्न करवो जोईए; आ अवसर छे.

प्रश्नः– हा, पण पंचास्तिकायनी गाथा १पपमां संसारी जीवने नियत तथा अनियत एम बन्ने प्रकारनी पर्यायो थया करे छे एम कह्युं छे ने? गाथा आ प्रमाणे छे-

जीवो सहावणियदो अणियदगुणपज्जओध परसमओ
जदि कुणदि सगं समयं पब्भस्सदि कम्मबंधादो।।

उत्तरः– हा, पंचास्तिकायनी गाथा १पपमां नियत अने अनियत पर्यायनी वात छे. त्यां स्वभाव अने स्वभावलीन निर्मळ पर्याय प्रगट थाय तेने नियत कहेल छे अने विभाव पर्याय प्रगट थाय तेने अनियत कहेल छे. अनियत पर्याय एटले ते आगळ-पाछळ के आडी-अवळी थाय एवो त्यां अर्थ नथी. अनियत एटले स्वभावमां अनवस्थित अनेकरूप विकारी पर्याय; ते पण जे समये प्रगट थाय ते नियत क्रमबद्ध ज प्रगट थाय छे. गाथामां अने टीकामां पण गुण-स्वभाव अने निर्मळ पर्यायने नियत कहेल छे, अने विकारी विभाव पर्यायने अनियत कहेल छे. अहीं अनियतनो अर्थ पर्याय आडी-अवळी थाय छे एम छे नहि. भाई! पोतानी मति-कल्पनाथी शास्त्रना अर्थ करे ते केम चाले? न चाले. पाणीनो शीतळ स्वभाव ते नियत छे, स्वभावलीन शीतळ दशा ते नियत छे अने अग्निना निमित्ते तेनी उष्ण दशा ते अनियत छे. आवी वात! समजाणुं काई...!

शुं थाय? लोकोने पूर्वना आग्रह (हठाग्रह) होय एटले आ बेसे नहि. आ वात पहेलां हती नहि; हमणां सोनगढथी प्रसिद्धिमां आवी छे एटले केटलाक हठपूर्वक तेनो विरोध करे छे. ए तो ‘जैनतत्त्वमीमांसा’मां केवळज्ञान- स्वभावमीमांसा नामना प्रकरणमां पं. श्री. फूलचंदजीए आ बाबते कह्युं छे के-“ज्यारथी सर्व द्रव्योनी पर्यायो क्रमनियमित (क्रमबद्ध) थाय छे आ तथ्य प्रमुखरूपथी बधानी सामे आव्युं छे त्यारथी विद्वानो द्वारा आवा कुतर्क उठाववामां आव्या छे. जेमना मनमां एवुं शल्य घर करी बेठुं छे के केवळज्ञानने सर्व द्रव्यो अने तेनी सर्व पर्यायोनुं ज्ञाता मानी


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लेवाथी सोनगढना विरोधमां जे अमारा तरफथी हुमलो करवामां आवी रह्यो छे ते कमजोर पडी जशे तेओ ए चाहता नथी के आम जनतामां सोनगढनो प्रभाव वधे, आथी तेओ केवलज्ञानना सामर्थ्य पर ज उक्त प्रकारना कुतर्क करवा लाग्या छे. परंतु, आ प्रकारना कुतर्क करतां तेओ ए भूली जाय छे के जैनधर्ममां तत्त्वप्ररूपणानो मूळ आधार ज केवळज्ञान छे.”

‘खानिया तत्त्वचर्चा’मां पण पं. श्री फूलचंदजीए लख्यु छे के “जिनवाणी अने एक महापुरुष द्वारा क्रमबद्ध-पर्यायनी स्वतंत्रतानो ढंढेरो पीटवामां आव्यो छे त्यारथी केटलाक पंडितो केवळज्ञानना विषयमां पण शंका करवा लाग्या छे. जो के केवळज्ञानना हिसाबे दरेक पर्याय क्रमबद्ध होवानुं स्वीकारे छे पण श्रुतज्ञान अपेक्षाए पर्याय क्रमबद्ध छे ए वात तेमने मान्य नथी. पण ए मान्यता बराबर नथी. श्रुतज्ञान छे ते केवळज्ञान अनुसारी छे; श्रुतज्ञान कांई कल्पना नथी.

अरे जीवोने मूळ वातनी खबर नथी. शुभ क्रियामां धर्म मानीने बेठा छे पण एवी क्रियाओ तो जीवे अनंत वार करी छे. शुभरागनी क्रियाओ तो बंधनुं कारण छे. शक्ति अने शक्तिवान द्रव्य जेम नियत छे तेम तेनी दरेक पर्याय नियत छे. पर्याय नियत छे एवो निर्णय करनारनी द्रष्टि त्रिकाळी ज्ञायक उपर जाय छे. आ विषयनो अभ्यास करवो जोईए.”

प्रश्नः– क्रम आवशे त्यारे अभ्यास करीशुं. उत्तरः– अभ्यासनो पुरुषार्थ करनारने क्रम आवी जाय छे. स्वामी कार्तिकेय अनुप्रेक्षामां छए द्रव्यमां काळलब्धिनी वात करी छे. जे द्रव्यनी जे समये जे पर्याय थवानी होय ते ज पर्याय ते समये त्यां प्रगट थाय एनुं नाम काळलब्धि छे. प्रवचनसार गाथा १०२मां द्रव्यनी जे पर्याय प्रगट थाय ते तेनी उत्पत्तिनी जन्मक्षण छे एम कह्युं छे. प्रवचनसार गाथा ९९मां पण हारना द्रष्टांते कह्युं छे के पर्याय पोतपोताना अवसरे प्रगट थाय छे. ज्ञेयनो स्वभाव एवो छे के पोतपोतानी ते ते पर्याय पोताना अवसरे प्रगट थाय. आम दरेक पर्यायनी काळलब्धि छे, पण तेनुं सत्यार्थ ज्ञान कोने थाय? के जे निज त्रिकाळी शुद्ध अंतःद्रव्यनो आश्रय ले तेने पर्यायनी काळलब्धिनुं साचुं ज्ञान थाय छे. बाकी पर्यायना क्रम सामे (ताकीने) जोया करे ते तो पर्यायमूढ छे, तेने काळलब्धिनी खबर नथी.

पंडितप्रवर श्री टोडरमलजीए मोक्षमार्ग प्रकाशकना ९मा अधिकारमां काळलब्धि अने भवितव्य कोई वस्तु नथी एम कह्युं छे. तो आमां शुं समजवुं?

भाई, त्यां शिष्यनो प्रश्न छे के- “प्रश्नः– मोक्षनो उपाय काळलब्धि आवतां भवितव्यानुसार बने छे के मोहादिकनो उपशमादिक थतां बने छे, के पोताना पुरुषार्थथी उद्यम करतां बने छे? ते कहो. जो पहेलां बे कारणो मळतां बने छे तो तमे अमने उपदेश शा माटे आपो छो? तथा जो पुरुषार्थथी बने छे तो सर्व उपदेश सांभळे छे छतां तेमां कोई पुरुषार्थ करी शके छे तथा कोई नथी करी शकता तेनुं शुं कारण?

उत्तरः– एक कार्य थवामां अनेक कारणो मळे छे. मोक्षनो उपाय बने छे त्यां तो पूर्वोक्त त्रणे कारणो मळे छे तथा नथी बनतो त्यां ए त्रणे कारणो नथी मळतां; पूर्वोक्त त्रण कारणो कह्यां तेमां काळलब्धि वा भवितव्य (होनहार) तो कोई वस्तु नथी, जे काळमां कार्य बने छे ते ज काळलब्धि तथा जे कार्य थयुं ते ज भवितव्य. वळी जे कर्मना उपशमादिक छे ते तो पुद्गलनी शक्ति छे, तेनो कर्ताहर्ता आत्मा नथी, तथा पुरुषार्थथी उद्यम करवामां आवे छे ते आ आत्मानुं कार्य छे माटे आत्माने पुरुषार्थपूर्वक उद्यम करवानो उपदेश आपीए छीए. हवे आ आत्मा जे कारणथी कार्यसिद्धि अवश्य थाय ते कारणरूप उद्यम करे त्यां तो अन्य कारणो अवश्य मळे ज अने कार्यनी सिद्धि पण अवश्य थाय ज, तथा जे कारणथी कार्यसिद्धि थाय अथवा न पण थाय ते कारणरूप उद्यम करे तो त्यां अन्य कारणो मळे तो कार्यसिद्धि थाय, न मळे तो न थाय. हवे जिनमतमां जे मोक्षनो उपाय कह्यो छे तेनाथी तो मोक्ष अवश्य थाय ज, माटे जे जीव श्री जिनेश्वरना उपदेश अनुसार पुरुषार्थपूर्वक मोक्षनो उपाय करे छे तेने तो काळलब्धि वा भवितव्य पण थई चूकयां तथा कर्मनां उपशमादि थयां छे त्यारे तो ते आवो उपाय करे छे, माटे जे पुरुषार्थ वडे मोक्षनो उपाय करे छे तेने तो सर्व कारणो मळे छे अने अवश्य मोक्षनी प्राप्ति थाय छे एवो निश्चय करवो.”

जुओ, अही कार्यनां सर्व कारणो एक साथे ज समकाळ होय छे एम कह्युं छे. जीव पोताना त्रिकाळी द्रव्य स्वभाव-सन्मुखनो पुरुषार्थ करे त्यारे जे समकित आदि निर्मळ पर्याय प्रगट थई ते ज भवितव्य छे, अने ते पर्याय


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तेना स्वकाळे प्रगट थई ते तेनी काळलब्धि छे. काळलब्धि अने भवितव्य कांई जे निर्मळ पर्याय प्रगट थई एनाथी भिन्न वस्तु नथी. वळी ते ज वखते कर्मना उपशमादि पण स्वयं निमित्तपणे होय ज छे. आवो सहज ज योग होय छे. माटे पोताना त्रिकाळी एक ज्ञायकस्वभावनी जे द्रष्टि करे छे तेने ज काळलब्धिनुं साचुं ज्ञान थाय छे बाकी धारणाथी काळलब्धि-काळलब्धि एम कहे, पण तेने काळलब्धिनी खबर नथी अर्थात् तेने काळलब्धि थई ज नथी. समजाणुं कांई...? अहा! आवो वीतरागनो मारग वीतराग मार्गना अंतर-पुरुषार्थथी प्रगट थाय छे.

जुओ, पंचास्तिकायनी गाथा १७२मां चारे अनुयोगनुं तात्पर्य वीतरागता कह्युं छे. त्यां टीकामां कह्युं छे-“ विस्तारथी बस थाओ. जयवंत वर्तो वीतरागपणुं के जे साक्षात्मोक्षमार्गनो सार होवाथी शास्त्रतात्पर्यभूत छे.” आम चारे अनुयोगनो सार वीतरागता छे. आ वीतरागता कयारे प्रगट थाय? के त्रिकाळी शुद्ध एक ज्ञायकभावनो आश्रय करे त्यारे पर्यायमां वीतरागता प्रगट थाय छे; निमित्त, राग के पर्यायना आश्रये वीतरागता प्रगट थती नथी. आम चारे अनुयोगनो सार आ छे के एक स्वद्रव्यनो-निज ज्ञायकवस्तुनो आश्रय करवो. स्वद्रव्यनो आश्रय कर्या विना पर्यायना क्रमबद्धपणानुं साचुं ज्ञान थतुं नथी.

वळी पर्यायना क्रमने आडो-अवळो माने तेनुं तो परलक्षी बाह्य ज्ञान पण जूठुं छे, तो पछी तेने द्रव्यद्रष्टि कयांथी प्रगट थाय? पंचास्तिकायमां पर्यायने अनियत कहेल छे त्यां पर्याय आडी-अवळी के क्रमरहित आगळ- पाछळ थाय छे एवो तेनो अर्थ नथी; त्यां तो विकारी-विभाव पर्यायने अनियत कहेल छे. वास्तवमां विकारी पर्याय पण क्रमबद्ध स्वकाळे प्रगट थाय छे. कोई पण पर्याय आघी-पाछी थाय एवो वस्तुनो स्वभाव ज नथी, एवी वस्तु ज नथी.

दामनगरना एक शेठ हता. तेओ दिगंबर शास्त्रो वांचता, पण तेमनी द्रष्टि विपरीत हती. तेमणे एक वार अमने पूछेलुं के-चोवीस तीर्थंकर, बार चक्रवर्ती-ए बधा काळे (स्वकाळे) थाय छे माटे काळलब्धि आवे त्यारे कार्य थाय. त्यारे कह्युं’तुं के-काळलब्धिनुं ज्ञान कोने होय छे-खबर छे? ज्ञायकस्वरूपी भगवान आत्मानो जे आश्रय करे छे तेने काळलब्धिनुं साचुं ज्ञान होय छे. बाकी काळलब्धि सामे मों ताकीने बेसे तेने काळलब्धि पाकती ज नथी. सवारे आव्युं हतुं ने प्रवचनमां के-

सुद्धता विचारै ध्यावै, सुद्धतामैं केलि करै;
सुद्धतामैं थिरह्यै मगन, अमृतधारा बरसै.

अहाहा...! पोताना शुद्ध एक सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु आत्मानो ज्यारे आश्रय ले, त्यां ज रमे, अने त्यां ज मग्न थई रहे तेने अमृतधारास्वरूप वीतरागता प्रगट थाय छे; अने आ वीतरागता बार अंग अने चौद पूर्वनो सार छे.

जिन सो ही है आत्मा, अन्य सो ही है कर्म;
यही वचनसे समज ले, जिन प्रवचनका मर्म,

जिनस्वरूप पोते आत्मा छे; एक तेनो आश्रय करे ते ज धर्म छे. बाकी बधुं कर्म छे, संसार छे. आ भगवाननी वाणीनो मर्म नाम रहस्य छे. भाई! समकितथी मांडीने पूरण मोक्ष सुधीनी बधी ज दशा एक शुद्ध आत्मद्रव्यना आश्रये छे.

पण अरे! जैन कुळमां-दिगंबरमां जन्मेलाने पण जैन तत्त्वनी खबर नथी! कोई एक पंडित कहेता हता के-दिगंबर कुळमां जन्म्या ते बधा सम्यग्द्रष्टि छे, हवे व्रत अने चारित्र धारण करी ले एटले बस कल्याण थई जाय. ल्यो, आवी वात! हवे शुं कहेवुं? ‘मोक्षमार्ग प्रकाशक’मां पं. श्री टोडरमलजीए श्वेतांबरादिने तो अन्यमत कहेल छे, पण त्यां जैन कुळमां जन्मेला अने दिगंबर जैनधर्मनी बाह्य मान्यता होवा छतां पण जीवने अंदर सूक्ष्म मिथ्यात्व रही जाय छे तेनुं विस्तारथी सातमा अधिकारमां वर्णन कर्युं छे. भाई! कुळथी ने जन्मथी जैनपणुं नथी बापु! अहीं तो अंतरमां-अंतःतत्त्वमां समाई जाय ते जैन छे. बाकी बहारना क्रियाकांड तो बधां कर्मनां काम बापु! एनाथी कर्म नाम संसार नीपजे, धर्म नहि.

अहा! मिथ्यात्व ते ज मूळ संसार छे. आ बैरां-छोकरां बधां पर छे तेमां संसार नथी अने पोताना द्रव्य- गुणमांय संसार नथी. एक समयनी पर्यायमां मिथ्यात्वादि भूल छे, अने ते भूल मटाडतां (स्वद्रव्यना आश्रये) मोक्षमार्ग प्रगट थाय छे. अहो! दिगंबर संतो-भगवान केवळीना केडायतीओए मार्ग बहु चोक्खो स्पष्ट करीने बताव्यो छे. पण शुं थाय? लोकोनो झुकाव बहारमां (क्रियाकांडमां वा विषयकषायमां) छे एटले तेओ शुद्ध तत्त्वने जाणवा प्रति उद्यमशील थता नथी!


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छए द्रव्यमां काळलब्धि छे. द्रव्यनी प्रत्येक पर्याय स्वकाळे प्रगट थाय तेनुं नाम काळलब्धि छे, ते एनी जन्मक्षण छे. पर्याय पोताना स्वकाळे प्रगट थाय एवो ज ज्ञेयनो स्वभाव छे. श्री जयसेनाचार्यदेवे प्रवचनसारना ज्ञेयाधिकारने सम्यग्दर्शननो अधिकार कह्यो छे. ज्ञेयनो स्वभाव ज एवो छे के जे समये जे पर्याय थवानी होय ते ज थाय; ते तेनी जन्मक्षण छे एम सम्यग्द्रष्टि प्रतीति करे छे. सम्यग्दर्शननो विषय भले अभेद एक ज्ञायक छे, पण ज्ञानप्रधान शैलीथी ज्ञान अने ज्ञेय-बन्नेनी यथार्थ प्रतीतिने सम्यग्दर्शन कहेवामां आवे छे. एकला द्रव्यनी अभेद द्रष्टि ते सम्यग्दर्शन-ए दर्शनप्रधान कथन छे. ज्यारे-

प्रवचनसार गाथा २४२मां ज्ञानप्रधान शैलीथी सम्यग्दर्शननी व्याख्या करी छे. त्यां कह्युं छे-“ज्ञेयतत्त्व अने ज्ञातृतत्त्वनी तथा प्रकारे (जेम छे तेम, यथार्थ) प्रतीति जेनुं लक्षण छे ते सम्यग्दर्शनपर्याय छे; ज्ञेयतत्त्व अने ज्ञातृतत्त्वनी तथाप्रकारे अनुभूति जेनुं लक्षण छे ते ज्ञानपर्याय छे; ज्ञेय अने ज्ञातानी जे क्रियान्तरथी निवृत्ति तेना वडे रचाती द्रष्टिज्ञातृतत्त्वमां परिणति जेनुं लक्षण छे ते चारित्रपर्याय छे.”

जुओ, अहीं ज्ञानप्रधान शैलीथी सम्यग्दर्शननी व्याख्या छे. द्रष्टिप्रधान कथनमां एकला अभेदनी श्रद्धाने सम्यग्दर्शन कह्युं छे. श्रीमद् राजचंद्ररचित आत्मसिद्धिमां ‘अनुभव, लक्ष, प्रतीत’-एम शब्दो आवे छे. त्यां अनुभव ते चारित्रपर्याय, लक्ष ते ज्ञाननी पर्याय ने प्रतीत ते श्रद्धानी पर्याय छे. प्रवचनसारमां अनुभवने ज्ञानपर्याय कही छे, तथा शुभरागनी क्रियाथी निवृत्ति अने जाणनार-देखनार स्वभावमां रमणताने चारित्रनी पर्याय कही छे. नग्नदशा अने पंच-महाव्रतनी क्रिया ए कांई वास्तविक चारित्र नथी.

प्रश्नः– तो सम्यग्दर्शन बे प्रकारनुं छे? उत्तरः– ना, सम्यग्दर्शन बे प्रकारे नथी. सम्यग्दर्शन तो एकली निर्विकल्प प्रतीतिरूप एक ज प्रकारनुं छे; तेनुं कथन बे प्रकारे छे-एक दर्शनप्रधान अने बीजुं ज्ञानप्रधान. प्रवचनसारमां ज्ञानप्रधान निरूपण छे, समयसारमां दर्शनप्रधान निरूपण छे.

अहाहा...! जे जीव विभु एवा पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपनो विश्वास-प्रतीति करी तेमां ज ठरे छे ते अनंत गुणनी विभूति-अनंत चतुष्टयादि निजवैभवने प्राप्त थाय छे.

आ प्रमाणे अहीं विभुत्वशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.

*
९ः सर्वदर्शित्वशक्ति

‘समस्त विश्वना सामान्य भावने देखवारूपे (अर्थात् सर्व पदार्थोना समूहरूप लोकालोकने सत्तामात्र ग्रहवारूपे) परिणमता एवा आत्मदर्शनमयी सर्वदर्शित्वशक्ति.’

आखा विश्वने सामान्यपणे भेद पाडया विना देखे एवी सर्वदर्शित्वशक्तिनुं अहीं वर्णन छे. आ जीव छे, आ जड अजीव छे, आ गुण छे, आ गुणी छे, आ भवि छे, आ अभवि छे इत्यादि भेद पाडया विना सर्व लोकालोकने सामान्य सत्तापणे देखवारूप परिणमती एवी आत्मदर्शनमयी सर्वदर्शित्वशक्ति छे. लोकालोकने सत्तामात्र सामान्यपणे देखे एटले पदार्थ छे बस एटलुं देखे. आ आत्मा छे एम भेद पाडे ए तो ज्ञान थई गयुं. दर्शन कोई भेद पाडतुं नथी.

अहीं आ जे सर्वदर्शित्वशक्ति कही छे ते आत्मदर्शनमयी छे. त्यारे कोई कहे छे-सर्वने देखे एम कहेतां सर्वमां अनंता पर आवी गया, अने तेथी परने देखे एम पण आवी गयुं; तो आत्मदर्शनमयी केवी रीते छे? अर्थात् पूरा लोकालोकने देखे तो तेनी अपेक्षा आवी के नहि?

समाधानः– अरे भाई! सर्वदर्शित्वशक्ति देखवारूपे परिणमे ते आत्मदर्शनमयी परिणाम छे. जरा सूक्ष्म वात छे. आत्मदर्शनमयी परिणाम छे एटले शुं? के स्वने देखतां सहज ज आखा विश्वने देखी ले छे, विश्वने देखवा माटे विश्व प्रति उपयोग जोडवो पडतो नथी. सर्व शब्दे स्व-पर सहित आखुं लोकालोक आवी गयुं. सर्वने देखे छे एम कहीए एमां परने देखे छे एम पण आवी गयुं पण परने देखे छे एम कहीए ए तो असद्भूत व्यवहारनय छे. बाकी सर्वदर्शित्वशक्तिना देखवारूप जे परिणाम थाय ते आत्मदर्शनमयी परिणाम छे, स्वाश्रयी परिणाम छे. तेमां परनी


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-लोकालोकनी कोई अपेक्षा नथी. अहाहा...! पोतामां सर्वदर्शित्वशक्तिनुं स्वरूप छे ते परिणमतां ते शक्ति आत्मदर्शनमयी थाय छे. एमां परने देखुं एम वात ज नथी. जे आत्मदर्शनमय परिणाम छे, ते कांई परदर्शनमय थतुं नथी.

आखुं विश्व, अनंता द्रव्य, तेना गुणो तथा तेनी पर्यायो-आ आखुं लोकालोक सामान्य सत्तापणे महासत्तारूप छे. महासत्ता नामनी कोई भिन्न सत्ता छे एम नथी, पण बधुं छे... , छे... , छे एवुं भेद पाडया विना सामान्यरूपे जे होवापणुं तेने महासत्ता कहे छे. आ महासत्ताने ग्रहवारूपे परिणमित आत्मदर्शनमयी सर्वदर्शित्वशक्ति छे. आ सर्वदर्शित्वशक्ति अने शक्तिवान आत्मद्रव्य-एवो भेद दूर करी त्रिकाळी आत्मद्रव्यनी अभेदद्रष्टि करतां शक्तिनुं पर्यायमां परिणमन थाय छे, अने ते आत्मदर्शनमयी छे एम कहे छे. समजाणुं कांई...?

अहाहा...! परमात्मा केवळी कहे छे-आत्मामां जेम जीवत्व, चिति, दृशि आदि शक्तिओ छे तेम तेमां अनादि-अनंत एक सर्वदर्शित्व नामनी शक्ति छे. एम तो द्रशिशक्तिमां आ सर्वदर्शित्वशक्ति गर्भित छे. पण द्रशिशक्तिमां त्यां सर्वदर्शीपणानी वात न करी ते कारणे आ सर्वदर्शित्वशक्ति अलगथी दर्शावी छे. अहा! सर्वदर्शित्वशक्तिनुं धरनार त्रिकाळी आत्मद्रव्य ज्यां द्रष्टिमां आव्युं के सर्वदर्शित्वशक्तिनुं पर्यायमां परिणमन थयुं अने त्यारे स्व-परने सर्वने देखवानी पर्याय पोतामां पोताथी पोतारूप सहज ज प्रगट थई छे. सर्व-लोकालोक छे तो ते देखवारूप पर्याय अहीं प्रगट थई छे एम नथी, अने तेमां सर्वने-लोकालोकने देखवानी अपेक्षा छे एम पण नथी; केमके सर्वदर्शित्वशक्ति आत्मदर्शनमयी छे.

सर्वदर्शित्वशक्ति परिणत थतां सर्वने देखे तेमां परनी अपेक्षा छे एम नथी, सर्वने देखवारूप परिणाम सहज ज पोतामां पोताने कारणे प्रगट थया छे. आ विषय पर सं. १९८३ मां एक चर्चा थयेली. जामनगरमां एक मुमुक्षु वकील हता. तेमने दिगंबर शास्त्रोनो सौथी प्रथम अभ्यास हतो. तेमनी साथे एक दामनगरना शेठने चर्चा थई. शेठ कहे के-लोकालोक छे तो सर्वज्ञपर्याय प्रगट थाय छे. अहीं वकील कहे-एम नहि, सर्वज्ञपर्याय पोताना कारणे प्रगट थाय छे, लोकालोक छे माटे सर्वज्ञदशा छे एम छे नहि. पछी ते बन्ने आव्या अमारी पासे. त्यारे अमे कह्युं- भाई! आत्मा ज्ञस्वरूप-सर्वज्ञस्वरूप छे. तेने परसंबंधी ने पोतासंबंधी जाणवानी ज्ञाननी जे पर्याय प्रगट थाय ते पोतामां पोताथी थाय छे, परना कारणे नहि. लोकालोक छे माटे भगवान केवळीने सर्वज्ञदशा प्रगट थई छे एम छे नहि.

अरे भगवान! तारामां केटली अपार ऋद्धि भरी छे-तने तेनी खबर नथी! तुं परमां मूढ थयो छो, पण आंही आचार्यदेव कहे छे-तारामां एक सर्वदर्शित्व नामनी शक्ति त्रिकाळ पडी छे. तेनो आधार अंदर त्रिकाळी द्रव्य छे. अहा! ते त्रिकाळी द्रव्यनो आश्रय लेतां सर्वदर्शित्वशक्तिनुं पर्यायमां स्वपरने देखवारूप परिणमन थाय छे ते, कहे छे, आत्मदर्शनमयी छे, ते परिणमन परदर्शनमय नथी, परना लक्षे थयुं नथी, परमय नथी. हवे आमां केटलाकने कांई फरक न लागे, पण आमां तो पूर्व-पश्चिमनो फेर छे भाई!

आ सर्वदर्शित्वशक्ति छे ते पोताना सहज स्वभावरूप पारिणामिकभावे छे. अहाहा...! जेम सहज स्वाभाविक पारिणामिकभावमय आत्मा छे तेम तेनी सर्वदर्शित्वशक्ति पारिणामिकभावरूप छे. तेमां कोई परनी- निमित्तनी अपेक्षा नथी. अहाहा...! पारिणामिकभावमय निज त्रिकाळी आत्मद्रव्यनो आश्रय लेतां पर्यायमां सर्वदर्शित्वशक्तिनुं परिणमन थाय छे ते क्षायोपशमिक के क्षायिकभावरूप होय छे. शक्तिनी पूर्ण पर्याय ते क्षायिकभाव छे, ने तेनी अधुरी पर्याय ते क्षायोपशमिकभावरूप छे, साथे सम्यग्दर्शन अने सम्यक्चारित्रनी पर्याय प्रगटे छे ते औपशमिक, क्षायोपशमिक के क्षायिकभावे होय छे, ने ते काळे जे राग बाकी छे ते औदयिकभाव छे. जुओ, साधक आत्माने-

-प्रतीति उपशम, क्षयोपशम के क्षायिकभावरूप होय छे, -चारित्रनी दशा उपशम के क्षयोपशमभावरूप होय छे. अने -ज्ञान-दर्शन क्षयोपशमभावरूप होय छे. समस्त विश्वना सामान्यभावने देखवारूपे परिणत एवी आत्मदर्शनमयी सर्वदर्शित्वशक्ति-आम कह्युं छे एमां ‘परिणत’ शब्द कह्यो छे ते सूक्ष्म अर्थनुं सुचन करे छे. शरुआतमां ज एम कह्युं हतुं के क्रमरूप अने अक्रमरूप प्रवर्ततो-ज्ञाननी साथे अविनाभावी संबंधवाळो अनंत धर्मसमूह जे कांई जेवडो लक्षित थाय छे, ते सघळोय खरेखर एक आत्मा छे. अहीं क्रममां विकारी परिणामनी वात ज नथी, केमके आत्मानी शक्तिओ त्रिकाळ शुद्ध ज छे ने तेनी परिणति क्रमसर शुद्ध ज थाय छे एम अहीं वात छे. जे शक्तिओ-गुण छे ते अक्रमरूप छे, अने तेनी व्यक्तिओ क्रमसर शुद्ध छे एम


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वात छे. ते क्रमरूप अने अक्रमरूप धर्मोना समूहने आत्मा कह्यो छे.

‘परिणत’ शब्दनी सूक्ष्मता उपर विचार आवेल छे तेनुं स्पष्टीकरण करीए छीए. अमारे तो आखो दि’ तत्त्वविचार ए ज धंधो छे ने!

अरे भाई! आत्मामां जो दर्शन गुण न होय तो आत्मवस्तु अद्रश्य थई जाय; ने आत्मवस्तु अद्रश्य थाय तो सर्ववस्तु अद्रश्य थाय. एम थतां सर्व ज्ञेयवस्तुनो अभाव ठरे. माटे दर्शन गुण प्रधान छे, सर्वदर्शित्व प्रधान छे.

अध्यात्म पंचसंग्रहमां एम कह्युं छे के अभविने ज्ञान छे पण ज्ञाननी परिणति नथी. अभवि जीवने ११ अंग अने ९ पूर्वनी लब्धि होय छे. आ ज्ञान छे, पण ज्ञाननी परिणति नथी. अहा! एक आचारांगमां अढार हजार पद होय छे, ने एक पदमां प१ क्रोडथी झाझा श्लोक होय छे. तेनाथी बमणुं सूयडांग, एम उत्तरोत्तर बमणा बमणा अगियार अंग अने नव पूर्वनुं ज्ञान अभवि जीवने होय छे, पण तेने ज्ञाननी परिणति नथी, परिणत ज्ञान नथी, केमके ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मानो आश्रय तेने नथी. स्व-आश्रये जे ज्ञान प्रगट थाय तेने ज्ञानपरिणति कहेवामां आवे छे. समजाय छे कांई...?

अध्यात्म पंचसंग्रहमां द्रष्टांत आप्युं छे. सीताजीने छोडाववा माटे रावण साथे लक्ष्मणजीने युद्ध थयुं; त्यारे रावणे लक्ष्मणजीने शक्ति मारी. ते वडे लक्ष्मण बेशुद्ध थई गया. ते प्रसंगे रामचंद्रजी मूर्च्छित लक्ष्मणजीने संबोधीने कहे छे-

आव्या’ता त्यारे त्रण जणा ने, जाशुं एकाएक;
माताजी खबरु पूछशे त्यारे शा शा उत्तर दईश?
लक्ष्मण जाग ने होजी, बोल एक वार जी

हे लक्ष्मण! सीताजीने रावण लई गयो, तुं आम बेशुद्ध थई गयो. माता पासे हवे हुं शुं जवाब आपीश? माटे भाई, जाग! बंधु! एक वार बोल. आम रामचंद्रजी शोकातुर थई विलाप करे छे. त्यारे तेमने कोई निमित्तज्ञानीए कह्युं, -भरतना राज्यमां एक राजानी एक कुंवारी कन्या विशल्या छे. तेने एवी लब्धि प्रगट छे के तेना स्नाननुं जळ लक्ष्मणजी पर छांटवामां आवे तो लक्ष्मणजी मूर्च्छा तजी तत्काल बेठा थशे.

आ विशल्या ते कोण? ते पूर्व भवमां चक्रवर्तीनी पुत्री हती. तेने कोईए जंगलमां छोडी दीधेली. त्यां एक मोटो अजगर तेने गळी गयो. जरा मोढुं बहार हतुं त्यां तेना पिता जंगलमां त्यां आवी पहोंच्या अने बाणथी अजगरने मारवानी तैयारी करी. तो कन्याए पिताने कह्युं, -पिताजी, अजगरने मारशो मा; में तो यावत् जीवन अन्न-जळनो त्याग कर्यो छे. हुं हवे कोई रीते बचुं एम नथी, माटे अजगरने नाहक मारशो नहि. अहा! केवी दृढता! ने केवी करुणा! आ कन्या मरीने भरतना राज्यमां एक राजाने त्यां राजकुंवरी विशल्या थई अवतरी.

सैनिको ए कन्याने लई आव्यां. विशल्याए जेवो लश्करना पडावमां प्रवेश कर्यो के घायल थयेला सैनिकोना घाव क्षणमात्रमां ज आपोआप रूझाई गया अने तेनुं स्नानजळ जेवुं लक्ष्मणजी पर छांटवामां आव्युं के तरत लक्ष्मणजीनी मूर्च्छा उतरी गई अने तेओ भानमां आव्या, क्षणवारमां लक्ष्मणजी ऊभा थई गया, रावणे मारेली शक्ति खुली गई. पछी तो विशल्या साथे लक्ष्मणजीए लग्न कर्यां.

अहीं सिद्धांत एम छे के-त्रिकाळ ज्ञानानंद-सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मा निर्मळ परिणतिरूप रमणी साथे जोडाय छे त्यां तेना अनंत गुणोरूप शक्ति पर्यायमां खुली जाय छे. शक्तिवान द्रव्य साथे जोडाईने जे निर्मळ दशा अंदर प्रगटी तेने अहीं ‘परिणत’ कही छे. शक्ति पर्यायमां खीले नहि, कार्यरूप परिणमे नहि तो शक्ति पडी छे तेनो शो लाभ! सर्वदर्शित्वशक्ति देखवारूप परिणत कही त्यां शक्तिनी निर्मळ प्रगटतानी वात छे, अने ते प्रगटता आत्मदर्शनमय छे, परदर्शनमय नथी एम कहे छे.

आ अध्यात्म वाणी बहु सुक्ष्म भाई! हवे शुभभावमां धर्म मानी संतुष्ट छे तेने आ गळे केम उतरे? पण शुभभाव ए कांई अपूर्व नथी भाई! पूर्वे अनंत वार जीवे शुभभाव कर्या छे. अहा! नवमी ग्रैवेयकना अहमिन्द्र पदने पामे एवा शुक्ललेश्याना परिणाम आ जीवे अनंतवार कर्या छे. आवे छे ने के-


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‘मुनिव्रत धार अनंत बार, ग्रीवक उपजायो.’

अहा! आ शुकललेश्या जुदी चीज छे, ने शुक्लध्यान जुदी चीज छे, शुक्लध्यान तो भावलिंगी मुनिवरने श्रेणी चढे त्यारे सम्यग्दर्शनपूर्वक होय छे. ज्यारे शुक्ललेश्यारूप परिणाम तो अभविने पण थाय छे. बहु उजळा अति मंदकषायरूप परिणाम ते शुक्ललेश्या छे. शुक्ल लेश्यावाळो जीव छठ्ठा देवलोकमां जाय छे. नवमी ग्रैवेयक जनारा जीवने तो घणा उंचा शुक्ललेश्याना शुभभाव मंदकषायरूप होय छे. छठ्ठा देवलोकमां सम्यग्द्रष्टि पण जाय तो शुक्ललेश्याना तेने परिणाम होय छे; परंतु नवमी ग्रैवेयक जनारने तो अहा! एथीय अधिक केवा उंचा मंदकषायरूप शुक्ललेश्याना परिणाम होय छे! छतां आ भाव धर्म नथी, ए तो कषायनो ज अंश छे, आकुळतामय छे. ते धर्मरूप नहि ने धर्मनुं कारणेय नहि.

आ शक्तिनो अधिकार चाले छे. भगवान आत्मामां अनंत शक्तिओ छे. अहीं आचार्यदेवे ४७ शक्तिनुं अति सूक्ष्म अने अलौकिक वर्णन कर्युं छे. क्रमरूप परिणत अने अक्रमरूप प्रवर्तता अनंत धर्मोना समुदायने अहीं आत्मा कह्यो छे. एकली शक्तिओ पडी छे एम वात नथी; शक्तिओनो भंडार पर्यायमां खोली नाख्यो छे. हवे आवी अद्भुत मूळ चीज पोतानी समजता नथी ने लोको विरोध करे छे! पण आ भगवान केवळीनो परम सत्य मार्ग छे.

श्रीमद्ना एक पत्रमां आवे छे के-चोथा गुणस्थाने सम्यग्द्रष्टिने केवळज्ञान श्रद्धापणे प्रगट थयुं छे. एटले शुं? केवळज्ञान परिणमनरूपे पर्यायमां तो तेरमा गुणस्थाने प्रगट थशे. परंतु चोथा गुणस्थानवाळाने पोताना श्रद्धानमां केवळज्ञाननी प्रतीति थई छे तेथी तेने श्रद्धापणे केवळज्ञान थयुं छे एम कहीए छीए. शक्तिनुं अने शक्तिनी अंशरूप ने पूरणस्वरूप प्रगटतानुं समकितीने यथार्थ ज्ञान-श्रद्धान होय छे अने तेथी श्रद्धापणे समकितीने केवळज्ञान ने मोक्ष थयो छे एम कहेवामां आवे छे.

अरे, पोताना निधान पर नजर नाखे तो समजाय ने? अहा! ज्यां पोताना निधान पर नजर नाखे के तरत निर्मळ पर्याय प्रगट थाय छे. तेमां विकारनी तो गंधेय नथी. जे निर्मळ परिणाम प्रगटया ते भावरूप छे, ने तेमां विकारी भावनो अभाव छे. आनुं नाम अनेकान्त छे. शक्ति अंदर पडी छे ते स्वाभिमुख थतां ज अंदर खीली जाय छे. अहा! पोतानी परिणतिरूपी रमणी साथे रमतां-अंतर एकाग्र थईने रमणता करतां-ते निराकुल आनंदना भोग दे छे; अहा! आवुं छे आनंदनुं जन्मस्थान! आनुं नाम धर्म ने आ मोक्षनो मारग छे. बाकी बधां थोथां छे.

आ शक्तिना वर्णनमां बे वात मुख्यपणे समजवा जेवी कही छे.

(१) शक्तिने परिणत कही छे.
(२) ते आत्मदर्शनमयी छे, परदर्शनमयी नथी.

आ प्रमाणे आ सर्वदर्शित्वशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.

*
१०ः सर्वज्ञत्वशक्ति

‘समस्त विश्वना विशेष भावोने जाणवारूपे परिणमता एवा आत्मज्ञानमयी सर्वज्ञत्वशक्ति.’ ‘बधुं छे’ बस एटली ज वात दर्शनशक्तिमां हती. भेद पाडया विना सामान्यपणे आखुं विश्व, लोकालोक अस्तिरूपे छे एम दर्शनशक्तिमां देखवामां आवे छे. आ आत्मा छे, आ जड छे, आ सिद्ध छे, आ साधक छे, आ गुण छे, आ पर्याय छे-एवो भेद दर्शनशक्तिनो विषय नथी. विश्वना जे अनंता विशेष भावो छे ते बधायने विशेषपणे-भिन्न भिन्न जाणे एवी आत्मानी सर्वज्ञत्वशक्ति छे. जाणे एटलुं ज हों; एमां ठीक-अठीक करे ए सर्वज्ञत्वशक्तिनुं काम नथी. समजाणुं कांई...?

अध्यात्म पंचसंग्रहमां कह्युं छे के-एक समयमां सर्वने भेद पाडया विना अस्तित्वरूपे देखवुं ते सर्वदर्शित्व शक्तिनुं कार्य छे, अने ते ज समयमां सर्व द्रव्य-गुण-पर्यायने भिन्न भिन्न भेद पाडीने जाणवुं ते सर्वज्ञत्वशक्तिनुं कार्य छे. ते बन्ने पर्याय एक समयमां एकीसाथे छे. अहो! एक पर्याय एक ज समयमां सर्वने सामान्यपणे सत्तारूपे देखे अने बीजी पर्याय ते ज समयमां सर्वने विशेषपणे भेद पाडीने जाणे एवो आत्मामां कोई अद्भुतरस छे. त्यां नव रस वर्णव्या छे तेमां अद्भुतरसनुं आवुं अलौकिक वर्णन कर्युं छे.


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अहो! भगवान आत्मा दिव्य चित्चमत्कार प्रभु छे. एना निर्णयमां अनंता केवळी-सिद्ध भगवंतो सहित सर्व लोकालोकना विशेष भावोनो निर्णय समाई जाय छे. अहा! आ सर्वदर्शित्व अने सर्वज्ञत्वशक्ति तो महा आश्चर्यकारी छे. अहा! सर्व लोकालोकना अनंता भावोने देखे-जाणे पण ते प्रति (ज्ञान-दर्शननो) उपयोग जोडवो पडे नहि, अने कयांय परनो आश्रय नहि. गजब वात छे प्रभु! चैतन्यस्वभावमय आत्मानो आ अद्भुत रस छे; अहा! जेमां वीतरागी वीरतानो वीररस ने अनाकुळ आनंदरूप शांतरस समाय छे-एवो आत्मानो आ अलौकिक अद्भुत रस छे.

सर्व लोकालोकने सत्तामात्र सामान्य देखवारूपे परिणमे छे ते सर्वदर्शित्वशक्ति छे, अने ते ज समयमां विश्वना समस्त विशेष भावोने भेद पाडीने जाणवारूप परिणमे ते सर्वज्ञत्वशक्ति छे. विशेष भावो शुं? विशेष भावोमां त्रिकाळी द्रव्यस्वभाव, गुणभाव, पर्यायभाव, एकेक पर्यायमां अनंत अविभाग प्रतिच्छेद, त्रणे काळना अनंता केवळी भगवंतो सहित सर्व अनंता द्रव्यो जाणवामां आवे छे. अहा! केवळी भगवान के जेमना ज्ञानमां लोकालोक जणाय-एवा अनंता केवळी भगवंतो केवळज्ञाननी एक पर्यायमां जणाय ते केवळज्ञाननी एक समयनी पर्यायनी ताकात केटली? निगोदिया जीवने अक्षरना अनंतमा भागे ज्ञाननो विकास छे. तेमां अनंत अविभाव प्रतिच्छेद होय छे. केवळज्ञाननी पर्यायनुं तो शुं कहेवुं? अहाहा...! केवळज्ञाननी एक पर्यायमां अनंत अनंत अविभाग प्रतिच्छेदो छे. तेने भिन्न भिन्न करीने भगवान केवळी जाणे एवुं केवळज्ञाननुं अपार अपरिमित अनंतु सामर्थ्य छे. अहा! प्रत्येक जीवमां आवी सर्वज्ञत्वशक्ति अंदर त्रिकाळ पडी छे. पण तेनी अंतर्मुख थई प्रतीति करे तो खबर पडे ने? स्तवनमां आवे छे केः-

प्रभु तुम जाणग रीति, सौ जग देखता हो लाल;
निज सत्ताए शुद्ध, सौने पेखता हो लाल.

अहा! निगोदना जीव पण सत्ताए शुद्ध त्रिकाळ एक ज्ञायकभावस्वरूप छे एम हे भगवान! आपे केवळज्ञानमां जोयुं छे. भाई! आ पुण्य-पापना भाव थाय ते कांई आत्मा नथी. गंभीर वात छे प्रभु! निगोदना जीव पण स्वभावे शक्ति-अपेक्षा शुद्ध छे; पर्यायमां अशुद्धता छे, पण ए तो एक समयनी छे. एक समयनी पर्यायमां भूल छे, बाकी वस्तु तो अंदर त्रिकाळ शुद्ध पडी छे. अहा! आवी निज आत्मवस्तुमां एकाग्र थईने प्रवर्ते त्यां सर्वज्ञस्वभावनी प्रतीति प्रगट थाय छे, हुं सर्वज्ञस्वभावी छुं एम त्यारे निश्चय थाय छे, परंतु अल्पज्ञपणुं माने त्यां सुधी सर्वज्ञस्वभावनी प्रतीति नथी, अर्थात् त्यां सुधी तेने सर्वज्ञस्वभाव परिणत नथी. समजाय छे कांई...?

अहाहा...! पोते शुद्ध एक ज्ञानानंद-सच्चिदानंद प्रभु आत्मा छे एम निश्चय करी तेमां एकाग्र थतां मारो सर्वज्ञस्वभाव छे अर्थात् मारो केवळज्ञान एटले एकलो ज्ञानस्वभाव छे एम केवळज्ञानस्वभावनी श्रद्धा-प्रतीति प्रगट थाय छे. अहा! चोथे गुणस्थाने आम केवळज्ञानस्वभावनी जेने प्रतीति प्रगट थई छे तेने श्रद्धापणे केवळज्ञान प्रगट थयुं छे. ज्ञाननी केवळज्ञानरूप पूर्ण दशा तो तेरमा गुणस्थाने थाय छे, पण पोताना शुद्ध सर्वज्ञस्वभावनी प्रतीति थतां पर्यायमां शक्तिनुं परिणमन थयुं, शक्ति परिणत थई तेने त्यां श्रद्धापणे केवळज्ञान थयुं एम कहेवामां आवे छे. आवी वात! हवे आमां केटलाकने एम लागे के धर्मनो आ कई जातनो उपदेश?

अरे भाई! त्रिकाळी ध्रुव अखंड एक ज्ञायकस्वभावी आत्मद्रव्यनी द्रष्टि-प्रतीति करतां अज्ञानजन्य परनो महिमा उडी जाय छे; परिणाम स्वमां-स्वस्वरूपमां विश्रांत थाय छे, ठरे छे, ने आत्मामां दर्शन, ज्ञान, श्रद्धा, सुख, वीर्य, प्रभुत्व आदि अनंत शक्तिओनुं निर्मळ निर्मळ परिणमन एक साथे उछळे छे, प्रगटे छे. आ ज धर्म ने आ ज मोक्षमार्ग छे. साध्य आत्मानी आ रीते ज सिद्धि थाय छे. आ सिवाय व्रत पाळवां, दया पाळवी इत्यादि व्यवहार-राग कांई धर्म नथी, धर्मनुं साधनेय नथी, वास्तवमां तो ते राग होवाथी बंधनस्वरूप ज छे. अरे प्रभु! रागनी ममतानी आडमां तारां परम निधान तारी नजरमां आव्यां नहि!

अहीं कहे छे-आत्मामां विश्वना विशेष भावोने जाणवारूपे परिणत एवा आत्मज्ञानमयी सर्वज्ञत्वशक्ति छे. आमां एकली शक्तिनी वात नथी, पण परिणत थयेली आत्मज्ञानमयी शक्तिनी वात छे. अंदर सर्वज्ञत्वशक्ति पडी छे तेनी परिणति प्रगट थई छे ते आत्मज्ञानमयी छे. आत्माने एकने जाणवारूपे परिणत थाय एवी सर्वज्ञत्वशक्ति छे.

तो शुं ते (-परिणति) परने जाणती नथी? परने जाणती नथी एम कयां वात छे? परने जाणवा प्रति ते सावधान नथी, परमां ते तन्मय नथी. परमां तन्मय थईने परने जाणती नथी एम वात छे. तेथी परने जाणे छे एम कहीए ते असद्भूत व्यवहारनय छे. जेमां पर-लोकालोक


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झळके छे एवी पोतानी पर्यायने पोतामां तन्मय थईने जाणे छे.

नियमसार, गाथा १६६मां श्री कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छेः-

प्रभु केवळी देखे निजात्माने, न लोकालोकने;
–जो कोई भाखे एम तो तेमां कहो शो दोष छे?

निश्चयथी केवळी भगवान आत्मस्वरूपने देखे छे, लोकालोकने नहि-एम जो कोइ कहे तो तेने शो दोष छे? अर्थात् कांई दोष नथी. अहीं निश्चय-व्यवहार संबंधी एम समजवुं के-जेमां स्वनी ज अपेक्षा होय ते निश्चय-कथन छे, अने जेमां परनी अपेक्षा आवे ते व्यवहार-कथन छे. माटे केवळी भगवान लोकालोकने-परने जाणे-देखे छे एम कहेवुं ते व्यवहार-कथन छे, अने भगवान केवळी स्वात्माने जाणे-देखे छे एम कहेवुं ते निश्चय छे.

नियमसार, गाथा १६९मां कह्युं छे केः-

प्रभु केवळी जाणे त्रिलोक–अलोकने, नहि आत्मने;
–जो कोई भाखे एम तो तेमां कहो शो दोष छे?

व्यवहारथी केवळी भगवान लोकालोकने जाणे छे, आत्माने नहि-एम जो कोई कहे तो तेने शो दोष छे? अर्थात् कांई दोष नथी.

नियमसारना शुद्धोपयोग अधिकारना श्लोक २८पमां मुनिराज कहे छेः- “तीर्थनाथ खरेखर आखा लोकने जाणे छे अने तेओ एक, अनघ (निर्दोष), निज-सौख्यनिष्ठ (निज सुखमां लीन) स्वात्माने जाणता नथी-एम कोई मुनिवर व्यवहारमार्गथी कहे तो तेने दोष नथी.”

आम ज्ञानी-धर्मी पुरुष जे विवक्षाथी वात कहे ते विवक्षा यथार्थ समजवी जोईए. निश्चयथी केवळी भगवान स्वात्माने जाणे छे, लोकालोकने नहि; ने व्यवहारथी केवळी भगवान लोकालोकने जाणे छे, स्वात्माने नहि- आम आ बन्ने कथन विवक्षाथी बराबर छे.

पण आमां समजवुं शुं? भगवान लोकालोकने जाणता नथी एम वात नथी. परंतु भगवाननो उपयोग खरेखर अंतर्मुख स्वरूपप्रत्यक्ष अने स्वरूपनिष्ठ छे, ते लोकालोकमां तन्मय नथी, लोकालोकमां जोडाईने उपयुक्त नथी. परंतु निजानंदरसलीन छे. जो लोकालोकने, तेमां तन्मय थईने जाणे तो नर्कादि क्षेत्रना दुःखनुं वेदन तेने थवानुं बने. पण एम छे नहि. तेथी ज कह्युं के भगवान लोकालोकने व्यवहारथी जाणे छे. आनुं नाम ते सर्वज्ञत्वशक्ति पूर्णभावे परिणत थतां जे केवळज्ञान थयुं ते आत्मज्ञानमयी छे, परज्ञानमय नथी. गंभीर सूक्ष्म वात छे भाई!

अहा! आत्माना जीवत्व, प्रभुत्व आदि अनंतगुणोमां एक सर्वज्ञत्वशक्ति पण भेगी परिणमी रही छे. अरे, लोकोने पोताना अंतर निधाननी-चैतन्यनिधाननी खबर नथी. अहा! आ सर्वज्ञत्वशक्तिनी पूर्ण प्रगटता ते सर्वज्ञता अथवा केवळज्ञान छे. आ केवळज्ञान ते स्वलक्षे स्वरूपनी एकाग्रताथी खील्युं छे, कांई परना जगतना लक्षे खील्युं छे एम नथी. भाई! जगत छे माटे केवळज्ञान प्रगटयुं छे एम नथी. जगत तो त्रिकाळ अनादि-अनंत छे. जो तेने लईने ज्ञान थतुं होय तो अनादिथी ज प्रत्येक जीवने केवळज्ञान होवुं जोईए. पण एम छे नहि. ए तो जीव ज्यारे स्वमां एकाग्र थई, स्वद्रव्यने ज कारणपणे ग्रहीने स्वस्थित परिणमे छे त्यारे केवळज्ञान थाय छे, अने तेमां जगत आखुं ज्ञेयपणे झळके छे. त्यां शक्तिनुं परिणमन स्वाश्रित छे, पराश्रित नथी, आत्मज्ञानमय छे, परज्ञानमय नथी. अहा! सर्वज्ञता ए तो शक्तिनी स्व-आश्रये पूरण प्रसिद्धि छे. पण शुं थाय? ‘सर्वज्ञ’ सांभळतां ज अज्ञानीओने बहारना ज्ञेयो प्रति लक्ष जाय छे, पण जेमांथी सर्वज्ञदशा खीली ते सर्वज्ञत्वशक्ति-सर्वज्ञस्वभाव प्रत्ये लक्ष जतुं नथी. परंतु अंतर्लक्ष थया विना सर्वज्ञनी साची प्रतीति थती नथी.

अरे! पोताना स्वरूपना भान विना जीव अनंत काळथी रखडे छे. अहा! सातमी नरकमांय ते अनंत वार जन्म्यो-मर्यो छे. जुओ, ब्रह्मदत्त नामना चक्रवर्ती मरीने सातमी नरके गया छे, त्यां महादुःखना वेदनमां पडया छे. अहीं ७०० वर्षनुं आयुष्य भोगवीने, अहींना काल्पनिक सुखना फळमां तेत्रीस सागरना आयुनी स्थिति बांधी तेओ