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सातमी नरकना घोर दुःखना क्षेत्रमां गया छे. दश क्रोडाक्रोडी पल्योपमनो एक सागर थाय छे, अने एक पल्योपम काळना असंख्यातमा भागमां असंख्यात अबज वर्ष समाय छे.
अहा! आत्मा अंदरमां पूरण आनंदनुं निधान प्रभु छे. तेनो अनादर करी भोगना सुखनो आदर अने स्वीकार कर्यो तो ते कल्पित सुखना फळमां सातमी नरकमां ३३ सागरोपमनी स्थितिमां ते जीव महान दुःख भोगवी रह्यो छे. भोगमां सुख नथी भाई! भोग तो रोग छे, दुःख छे, ने तेनुं फळ पण दुःख छे. आ (ब्रह्मदत्त) चक्रवर्तीने कुरुमति नामनी एक राणी हती. तेनी एक हजार देवो सेवा करता. तेनुं शरीर अति सुंदर रूपाळुं अने कोमळ हतुं. चक्रवर्तीए हीराना पलंगमां सूतां सूतां अंतिम समये “कुरुमति, कुरुमति” एवा आर्त पोकारो सहित प्राण छोडया, अने ते जीव सातमी नरके पडयो.
अहीं कोई एम तर्क करे के-आमां तो काकडीना चोरने कटार मारवा जेवी वात छे. पण एम नथी भाई! भोगमां (मिथ्यात्व सहित) अति तीव्र आसक्तिना महा अशुभ परिणाम तेने हता. पोताना सर्वज्ञस्वभावनो अनादर करी, तीव्र भोगासक्त बनी ते जीव सातमी नरकमां गयो छे. अहा! पोताना सर्वज्ञस्वभावी आत्मानो आश्रय लई परिणमे तो ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप निर्मळ परिणति सहित आनंदरूपी पुत्रनो जन्म थाय छे, अने विषयमां सुखबुद्धि करी, भोग-विषयना महा तीव्र परिणामनुं सेवन करे तो एना फळरूपे महादुःखना परिणाम उत्पन्न थईने जीव हलकी गतिमां उपजे छे.
अहाहा...! भगवान आत्मानो सर्वज्ञस्वभाव छे. अहाहा...! तेनुं अंतर्मुहूर्त ध्यान करे तो केवळज्ञाननी झळहळती ज्योत प्रगट थाय छे अने तेनी साथे अनंत अतीन्द्रिय आनंदनी उत्पत्ति थाय छे. दरेक समये ते ते पर्याय भिन्न भिन्न प्रगट थाय छे. बीजे समये एवी ने एवी पर्याय प्रगट थाय छे, पण एनी ए नहि. अहा! आवा निजनिधानने ओळख्या विना मिथ्यात्वनुं सेवन करी पारावार दुःखमय संसारमां जीव परिभ्रमे छे. अहा! एना दुःखने कोण कहे? ते वचन-अगोचर छे, कही न शकाय तेवुं छे.
जुओ, ‘होला’ नामना एक जातना पक्षी थाय छे. ते होला ‘सोडहम्, सोडहम्’ एवो अवाज करे छे. पण ‘सोडहम्’ एटले शुं एनुं एने कयां भान छे? ‘सोडहम्’ एटले हुं सिद्ध परमात्मा समान छुं. ‘सिद्ध समान सदा पद मेरो’-एम आवे छे ने? हा, ए पण शुभ विकल्प छे. तेमांथी ‘सो’ (-सिद्ध परमात्मा) काढी नाखीने ‘अहम्’ हुं छुं एम स्वलक्ष-अंतरलक्ष करीने स्वानुभव करतां परिणमन थाय छे त्यारे सर्वज्ञत्वशक्तिनी तेने प्रतीति थाय छे. अहाहा...! सर्वज्ञशक्तिथी भरेलो पोतानो पूरण परमात्मस्वभाव-तेनी अंतर-प्रतीति परिणमन थईने थाय तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे, अहा! ते काळे अनुभवनो रस-आनंदरस प्रगटयो पछी कोण पूछे के-कोण कर्ता, कोण करणी ने कोण करम?
अहीं सर्वज्ञशक्तिने ‘परिणत’ कहेल छे. पहेलां पण आत्माने ज्ञानमात्र कह्यो त्यां शिष्ये प्रश्न कर्यो हतो के- प्रभु! आत्माने ज्ञानमात्र कहेतां तो एकलुं ज्ञान आव्युं, तो एकान्त थई जशे के केम? त्यारे त्यां श्रीगुरुए समाधान कर्युं के-सांभळ, आत्माने ज्ञानमात्र कहेतां एकान्त थई जतुं नथी, पण अनेकान्त ज सिद्ध थाय छे. केमके ज्ञानमात्र भावमां अनंता धर्मो साथे आवी जाय छे. जेमके-ज्ञान अस्तिपणे छे, वस्तुपणे छे, प्रमेयपणे छे, ज्ञायकपणे छे-एम ज्ञानमात्र कहेतां तेमां अनंत धर्मो भेगा आवी जाय छे. माटे अहीं एकान्त थतुं नथी. ज्ञानमात्र भावनुं परिणमन थतां ज्ञानमात्र भावमां साथे अनंत शक्तिओ उछळे छे, भेगी सर्वज्ञत्वशक्ति पण परिणत थाय छे. अहा! ए परिणाममां परनुं ने रागनुं कर्तापणुं तो दूर रहो, हुं परने अने रागने जाणुं, ए मारां ज्ञेय छे एमेय नथी. झीणी वात छे प्रभु! पण आ परमार्थ सत्य वात छे. लोकोना सद्भाग्ये परम सत्य वात प्रसिद्धिमां आवी छे.
चोथा गुणस्थाने ज्ञानमां स्वज्ञेय-त्रिकाळी स्वद्रव्य-जाणवामां आव्युं त्यां सर्वज्ञत्वशक्तिनी प्रतीति प्रगट थाय छे, अने त्यारे समकितीने श्रद्धापणे केवळज्ञान प्रगट थयुं एम कहेवाय छे. जो के साक्षात् केवळज्ञाननी पर्याय तो तेरमा गुणस्थाने प्रगट थशे, परंतु समकितीने चोथे गुणस्थाने शक्तिनुं परिणमन थतां, अर्थात् सर्वज्ञत्वशक्ति परिणत थतां, श्रद्धानमां केवळज्ञानस्वभाव अने केवळज्ञाननी प्रतीति थई गई छे, तेथी तेने वर्तमान मति- श्रुतज्ञानपूर्वक श्रद्धारूपे केवळज्ञान प्रगट थयुं छे एम कहीए छीए. पहेलां केवळज्ञानने मान्युं न हतुं, हवे केवळज्ञाननो अंतरमां स्वीकार थतां केवळज्ञानने मान्युं. आनुं नाम ते मति-श्रुतज्ञान केवळज्ञानने बोलावे छे. धवल सिद्धांत शास्त्रमां पाठ छे ने के मति-श्रुतज्ञान केवळज्ञानने बोलावे छे. मतलब के मति-श्रुतज्ञानमां केवळज्ञाननो निश्चय थयो छे अने ते ज्ञान वधतुं-वधतुं पूर्ण केवळज्ञान
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थई जशे. आनुं नाम सर्वज्ञनी-अरहंतनी वास्तविक प्रतीति छे.
प्रवचनसार, गाथा ८०मां कह्युं छेः-
ते जीव जाणे आत्मने, तसु मोह पामे लय खरे.
जे जीव अर्हंतने द्रव्यपणे, गुणपणे अने पर्यायपणे जाणे छे, ते (पोताना) आत्माने जाणे छे अने तेनो मोह अवश्य लय पामे छे.
आमां शुं कीधुं? के अर्हंतभगवानना द्रव्य-गुण ने केवळज्ञाननी पर्यायने प्रथम विकल्प द्वारा जाणीने पछी पोताना आत्मा साथे तेनुं मिलान करे छे; ओहो! वर्तमानमां मने भले केवळज्ञान प्रगटरूप नथी, पण द्रव्यरूपथी मारो केवळज्ञानस्वभाव छे. अहाहा...! आम विचारी सर्वज्ञस्वभावी निज आत्मद्रव्यने कारणपणे ग्रहण करीने तेनी सन्मुख थई परिणमे छे त्यां अवश्य तेनो मोह नाश पामी जाय छे, अर्थात् तेने पर्यायमां स्वस्वरूपनी प्रतीतिरूप सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. अहा! ज्यां सम्यग्दर्शन थयुं त्यां आ निश्चय थयो के हुं तो एकलो ज्ञानस्वरूप शक्तिए पूर्ण वस्तु छुं. अहाहा...! केवळज्ञान-शक्ति मारामां त्रिकाळ पडी छे ते अंतःपुरुषार्थ वडे अल्पकाळमां ज पूरण प्रगट थई जाशे. ल्यो, आवी वात! पहेलां आम प्रतीति नहोती तो श्रद्धापणे केवळज्ञान न होतुं, पण ज्यां अंदर त्रिकाळी स्वद्रव्यने ज्ञेय बनाव्युं तो सर्वज्ञस्वभावनी प्रतीति थई, श्रद्धानमां केवळज्ञान प्रगट थयुं अने पर्यायमां अल्पकाळमां ज साक्षात् केवळज्ञान प्रगट थवानी तैयारी थई गई. समजाणुं कांई...?
हवे आवी सार-सार वात छोडीने लोको बहारनी तकरारमां पडया छे. शुभभावथी धर्म थाय, पुण्य धर्मनुं साधन छे वगेरे खोटी मान्यतामां तेओ राचे छे. पण भाई, शुभभाव तारा स्वरूपमां छे नहि, तारा द्रव्य-गुणमां नथी, अने शक्तिनुं जे निर्मळ परिणमन थाय तेमांय नथी. स्वरूप लक्षे सम्यग्दर्शननुं परिणमन थाय तेमांय कयांय शुभभाव छे नहि. हा, एटलुं छे के सम्यग्दर्शननी साथे सर्वज्ञशक्ति परिणत थतां जे ज्ञाननी दशा प्रगट थई ते ज्ञान, ते काळे जेवो जेवो राग छे तेने जाणे छे बस. ते ज्ञान ते काळे स्वाश्रित प्रगट थयुं छे, कांई रागने लईने प्रगट थयुं छे एम नथी. अहा! शक्तिनुं परिणमन एकलुं आत्मज्ञानमयी छे, रागमयी के परज्ञानमयी नथी.
ज्ञानीने राग आवे छे; राग जे होय तेने ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे. १२मी गाथामां ‘तदात्वे’ शब्द पडयो छे. ज्ञानी-धर्मी पुरुषने राग आवे छे तेने ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे, एटले के स्वपरप्रकाशी ज्ञाननी पर्याय सहज पोताना सामर्थ्यथी ज ते काळे प्रगट थाय छे, रागने लईने रागनुं ज्ञान थाय छे एम नथी. रागनो तो ज्ञानमां अभाव छे भाई! खरेखर तो ज्ञान पोतानी परिणतिने जाणे छे, रागने ज्ञान जाणे छे एम कहीए ते व्यवहार छे. ज्ञानीने ज्ञाननी पर्याय अल्पज्ञरूप छे, अने ते काळे तेने पर्यायमां राग पण छे, तो ज्ञान रागने जाणे छे एम कहेवुं ते व्यवहार छे, निश्चयथी तो पोते पोताने-पोतानी परिणतिने ज जाणे छे.
निश्चयथी केवळी भगवान पोतानी परिणतिने जाणे छे, केमके ज्ञान, ज्ञाता अने ज्ञेय-बधुं आत्मा छे. आत्मा ज्ञाता अने परवस्तु ज्ञेय ए वस्तु निश्चयथी छे नहि. सर्वज्ञशक्तिनी स्वाश्रये सम्यग्ज्ञानरूप परिणति प्रगट थई तेमां पूर्ण स्वभाव अने पूर्ण पर्यायनी प्रतीति आवी ज गई छे; आनुं नाम आत्मज्ञानमयी सर्वज्ञशक्तिनी परिणति छे.
अहा! आ सर्वज्ञशक्तिमां घणी गंभीरता छे भाई! सर्व शक्तिओनुं परिणमन स्व-आश्रये पोताथी थाय छे तेथी अहीं एम कह्युं के-समस्त विश्वना विशेष भावोने जाणवारूपे परिणमता एवा आत्मज्ञानमयी सर्वज्ञत्वशक्ति छे. अहा! सर्वज्ञशक्ति जे त्रिकाळ छे ते सर्व भावोने जाणवारूपे वर्तमान परिणत थाय छे त्यां तेना परिणाम आत्मज्ञानमयी छे, परज्ञानमयी नथी. ‘खानिया तत्त्वचर्चा’मां आ संबंधी प्रश्न उठावी तर्क कर्यो छे के- सर्वज्ञशक्ति छे ते सर्वने जाणवानी अपेक्षा राखे छे माटे व्यवहारे सर्वज्ञ छे. पण आ वात बराबर नथी. वास्तवमां आत्मद्रव्यमां सर्वज्ञस्वभाव-सर्वज्ञशक्ति सहज ज ध्रुवपणे त्रिकाळ छे; अहा! आवी शक्तिनो धरनार जे भगवान आत्मा तेनी सन्मुख थई स्व-आश्रये परिणमवाथी स्वरूपना श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे; भेगी अनंत शक्ति सहित सर्वज्ञशक्ति पण निर्मळ परिणत थाय छे तो श्रद्धापणे केवळज्ञान प्रगट थयुं एम कहेवामां आवे छे. साक्षात् परिणमनरूप केवळज्ञान थयुं एम नहि, सर्वज्ञशक्तिनी प्रतीति थई तो श्रद्धापणे केवळज्ञान थयुं एम कहेवाय छे. पहेलां आत्मा अल्पज्ञ ज छे अर्थात् सर्वज्ञशक्ति नथी एवी द्रष्टि हती ते मिथ्या द्रष्टि हती. हवे स्वसन्मुख थई परिणमतां सर्वज्ञस्वभावी हुं छुं एम निश्चय थयो
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तो द्रष्टि सम्यक् थई. आवी वात! समजाणुं कांई...? भाई! सर्वज्ञशक्ति छे ते सर्वने जाणवानी अपेक्षा राखे छे माटे व्यवहारे सर्वज्ञ छे एम नहि, सर्वज्ञशक्ति परिणत थतां ते आत्मज्ञानमयी ज छे, पण सर्वने-परने जाणवानी विवक्षा करतां व्यवहार प्रगट थाय छे. आवी वात छे भाई!
संप्रदायमां पण अमारे आ चर्चा-वार्ता चालती. एक वार अमे पूछयुं के-जगतमां सर्वज्ञ छे के नथी? त्यारे तेओ कहे-सर्वज्ञनुं सर्वज्ञ जाणे; अमारे एनुं शुं काम छे?
अरे प्रभु! तुं शुं कहे छे आ? भगवान! तुं आत्मा पदार्थ छो के नहि? तो तेनो स्वभाव शुं? अहाहा...! ‘ज्ञ’ तेनो स्वभाव छे, त्रिकाळी ‘ज्ञ’ स्वभाव आत्मा छे. ‘ज्ञ’ स्वभाव कहो के सर्वज्ञस्वभाव कहो-ते आत्मानुं स्वरूप छे. अहाहा...! आवा सर्वज्ञस्वभावी आत्मानी द्रष्टि थतां सर्वज्ञस्वभावनुं पर्यायमां परिणमन थाय छे. बापु! धर्मनुं मूळ ज सर्वज्ञ छे, केमके सर्वज्ञस्वभावने आलंबीने सर्वज्ञ थया छे, ने सर्वज्ञथी ज आ वीतरागी धर्मनी स्थिति उत्पन्न थई छे. माटे सर्वज्ञ कोण छे अने सर्वज्ञदशानुं परिणमन केम प्राप्त थाय ते बराबर जाणवुं आवश्यक छे.
त्रिकाळ सर्वज्ञस्वभाव विषे बे मत छे. श्वेतांबर मतवाळा कहे छे-केवळज्ञान सत्तास्वरूप छे; एम के केवळज्ञान पर्यायरूपे सत्तामां प्रगटरूप छे, अने उपर कर्मनुं आवरण छे. दिगंबर संतो-ऋषिवरो कहे छे-केवळज्ञान द्रव्यमां शक्तिरूपे छे अने पर्यायमां तेनुं अल्पज्ञरूपे परिणमन छे, पूर्ण ज्ञान (पर्यायमां) प्रगट नथी तेमां निमित्तरूपे कर्मनुं आवरण छे. आम बन्ने वातमां महान-आसमानजमीननुं-अंतर छे. वास्तवमां केवळज्ञान वर्तमान पर्यायमां सत्तारूपे प्रगट नथी, पण शक्तिरूपे द्रव्यमां त्रिकाळ पडेलुं छे. प्रगट छे ने आवरण छे एम नहि, पण शक्तिरूपे अने तेनुं पर्यायमां अल्पज्ञपणे परिणमन छे.
श्रीमद् राजचंद्र स्वरूपने प्राप्त समकिती सत्पुरुष थई गया. तेओ कहे छेः- जो कदी प्रगटपणे वर्तमानमां केवळज्ञाननी उत्पत्ति थई नथी, पण जेना वचनना विचारयोगे शक्तिपणे केवळज्ञान छे एम स्पष्ट जाण्युं छे, श्रद्धापणे केवळज्ञान थयुं छे, विचारदशाए केवळज्ञान थयुं छे, इच्छादशाए केवळज्ञान थयुं छे, मुख्य नयना हेतुथी केवळज्ञान वर्ते छे, ते केवळज्ञान सर्व अव्याबाध सुखनुं प्रगट करनार जेना योगे सहज मात्रमां जीव पामवा योग्य थयो, ते सत्पुरुषना उपकारने सर्वोत्कृष्ट भक्तिए नमस्कार हो! नमस्कार हो!!
अहा! ‘णमो अरिहंताणं’ एम लोको बोली जाय छे, पण अरिहंतदेव शुं चीज छे एनी तमने खबर नथी! अरि नाम विकार, ने हंत नाम तेनो नाश करी स्वना आश्रयथी जे पूरण वीतराग सर्वज्ञदशाने प्राप्त थया ते अरिहंत प्रभु छे. हवे जेने अरिहंतदशा प्रगट नथी, पण हुं सर्वज्ञस्वरूपी अखंड एक आत्मद्रव्य छुं एम प्रतीतिमां आव्युं तेने ते श्रद्धापणे केवळज्ञान थयुं; वळी ते काळे प्रगट ज्ञानमां एवो निश्चय थयो ते विचारदशाए केवळज्ञान थयुं, वळी सर्वज्ञस्वभावनी पूरण प्रगटतारूप केवळज्ञाननी भावना थई ते इच्छादशाए केवळज्ञान थयुं.
पहेलां पर्यायबुद्धिमां केवळज्ञाननां श्रद्धान-ज्ञान ने भावना न हतां. पर्यायबुद्धिमां हुं अल्पज्ञ ज छुं एम मान्युं हतुं, अने तेमां ज रागबुद्धि वर्तती हती. पण हवे, चैतन्यप्रकाशनो पुंज, ज्ञानानंदनो दरियो, शांतरसनो समुद्र हुं सर्वज्ञस्वभावी भगवान आत्मा छुं एम अंतरमां स्वीकार थयो त्यां पर्यायमां श्रद्धापणे केवळज्ञान प्रगट थयुं, विचारदशाए केवळज्ञान प्रगट थयुं, ने अल्पकाळमां आ मति-श्रुतज्ञाननो व्यय थई केवळज्ञान थशे-एम भावनादशाए केवळज्ञान थयुं. अहा! जेम आरसना स्थंभनी एक हांस देखाती होय तो ते एक हांसना ज्ञानथी आखा स्थंभनुं ज्ञान थई जाय छे तेम पोताना सर्वज्ञस्वभावनो निश्चय थतां ज्ञानमां आखा ज्ञेयनो निश्चय थई जाय छे. जेमके मति-श्रुतज्ञान अवयव-अंश छे, ने केवळज्ञान अवयवी-अंशी छे; अंशनुं ज्ञान थतां तेमां अंशीनुं ज्ञान आवी जाय छे. धवलमां आवे छे के -मतिज्ञान ते केवळज्ञाननो अंश छे.
‘खानिया तत्त्वचर्चा’मां पंडितोए दलील करी छे के-आत्मज्ञानमयी एक धर्म छे, ने सर्वज्ञत्व बीजो धर्म छे. पण एम नथी बापु! ए तो विवक्षानो भेद छे, बाकी बन्ने एक ज धर्म छे. सर्वने जाणे अने पोताने जाणे एवी आत्मज्ञानमयी सर्वज्ञत्वशक्ति छे, स्वाश्रित सर्वज्ञदशा प्रगट थई छे तेमां परनी रंचमात्र अपेक्षा नथी. सर्वज्ञपणुं कहो के आत्मज्ञपणुं कहो-बन्ने एक ज चीज छे. समजाय एटलुं समजो बापु! आ वस्तुस्वरूप छे. अरे भाई! केवळज्ञान लेवानी आत्मानी ताकात छे. एने परनी किंचित् अपेक्षा नथी. केवळज्ञाननी पर्याय विश्वना सर्व भावोने जाणे माटे
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तेमां परनी अपेक्षा छे एम खरेखर नथी. एक समयमां ते काळे (थवा योग्य) केवळज्ञाननी पर्याय पोताना कारणे प्रगट थई छे, पूर्वना चार ज्ञाननो अभाव थईने केवळज्ञान प्रगटयुं एम कहेवुं एय व्यवहार छे. वास्तवमां सर्वज्ञपणुं ते आत्मज्ञपणुं छे. आवी वात छे.
संवत १९८३मां दामनगरमां एक शेठ साथे आ प्रश्न उपर चर्चा थयेली. तेओ कहे के-लोकालोक छे माटे केवळज्ञान प्रगट थाय छे. त्यारे अमे कह्युं, -एम बीलकुल नथी. ज्ञेय छे तो ज्ञान थाय एवो वस्तुनो स्वभाव नथी. सर्वज्ञपणानी पर्याय स्वाश्रये प्रगट थई छे, तेमां लोकालोकनी जराय अपेक्षा नथी. पण आवो निश्चय कोण करे? कोने (स्व-आश्रयनी) पडी छे? अरे भाई! आ अल्पज्ञता अने आ शुभाशुभ राग तारुं स्वरूप नथी. तुं तो सर्वज्ञस्वभावी छो ने प्रभु? अहाहा...! तारामां सर्वज्ञशक्तिनुं सामर्थ्य भर्युं छे. केवी छे सर्वज्ञशक्ति? तो कहे छे- विश्वना सर्व भावोने जाणवारूप एवा आत्मज्ञानमयी सर्वज्ञशक्ति छे. आत्मज्ञानमयी कहो के सर्वज्ञत्वशक्ति कहो- एक ज वात छे. अरे, लोकोने वात बेसे नहि एटले विरोध करे ने बीजी रीते कहे, पण आ ज सत्य वात छे. अहा! जेना फळमां अनंत केवळज्ञान ने अनंत अतीन्द्रिय आनंद प्रगटे ते चीज केवी होय बापु! ने तेनो उपाय पण केवो होय? परमपद प्राप्तिनी भावना करतां श्रीमद् कहे छे ने? के-
अनंत दर्शन, ज्ञान, अनंत सहित जो... अपूर्व.
अहा! केवळज्ञान नवुं प्रगट थाय छे माटे सादि-आदिसहित छे, अने तेनो अंत नथी माटे अनंत छे. आ प्रमाणे केवळज्ञाननो काळ सादि-अनंत छे. अहाहा...! अनंत काळ पर्यंत सर्वज्ञदेव समाधिसुखमां लीन-तल्लीन रहे छे. स्तवनमां आवे छे ने के-
अहाहा...! परम चारित्ररूप पूरण वीतरागदशा प्रगट थतां पूरण अकषाय-शांत... शांत... शांतरसनुं भगवानने वेदन होय छे. भगवान निजानंदरसलीन छे. आ ‘परिणमता एवा आत्मज्ञानमयी’ शब्द पडयो छे एनो विस्तार छे. अहा! दिगंबर संत श्री अमृतचंद्राचार्यदेव धर्मना स्थंभ हता. अहाहा...! वीतराग परिणतिना स्थंभ समा वीतरागी संतोनी आ वाणी छे. भाई! तारो स्वभाव पण आवो पूरण वीतरागतामय अने सर्वज्ञताना सामर्थ्यथी भरेलो छे. अंदर जो तो खरो, जोतां वेंत ज हालत थई जशे. अहाहा...! अत्यारे पर्यायमां सर्वज्ञता भले प्रगटी न होय, पण मारी पर्यायमां अल्पकाळमां सर्वज्ञपद प्रगट थई जशे एवी चोथे गुणस्थाने सम्यग्द्रष्टिने सम्यक् प्रतीति थई जाय छे; जेम बीज उगी ते पूनम थशे ज तेम.
अहाहा...! भगवान आत्मा आ शरीरना रजकणथी भिन्न, अचेतन कर्मथी भिन्न, पुण्य-पापरूप भावकर्मथी भिन्न अने अल्पज्ञपणानी दशाथी भिन्न अखंड एकरूप सर्वज्ञस्वरूप वस्तु छे. अहा! ते स्वानुभूतिमां प्राप्त थाय छे, पण रागनी क्रियाथी के व्यवहार करतां करतां प्राप्त थाय एवुं एनुं स्वरूप नथी. व्यवहाररत्नत्रय पण शुभविकल्प छे. ते करतां करतां सम्यग्दर्शन अने केवळज्ञान प्रगट थाय एम बनवाजोग नथी, केमके पोतानी वस्तु एवी नथी. अहीं तो कहे छे-सम्यग्दर्शन थतां एवी प्रतीति थई जाय छे के हुं सर्वज्ञशक्तिमय छुं, ने तेनी परिणति पोताथी उत्पन्न थाय छे, एने लोकालोकनी कोई गरज-अपेक्षा नथी.
अरे भाई! तुं कोण छो? तारा स्वरूपनी तने खबर नथी! समयसारनी जयसेनाचार्यकृत टीकामां आवे छे के कोई एक भाव जो यथार्थ बेसी जाय तो आखी वस्तु यथार्थ ख्यालमां आवी जाय. अहा! द्रव्य-गुण-पर्याय, सर्वदर्शित्व शक्ति, सर्वज्ञत्वशक्ति इत्यादि कोई एक भाव बराबर लक्षमां बेसी जाय तो वस्तु आखी लक्षगत थई समजाई जाय.
अहीं एम बताववुं छे के-आत्मज्ञानमयी अने सर्वज्ञत्वशक्ति ए बे चीज नथी. बन्ने थईने एक ज चीज छे. आत्मज्ञानमयी सर्वज्ञत्वशक्ति ते निश्चय छे, ने लोकालोकने जाणे एम विवक्षाभेद करवो ते व्यवहार छे. अहीं शक्तिना प्रकरणमां निश्चय छे ते मुख्य छे. कोई कहे छे-
आप निश्चयनी वकीलात करो छो. पण भाई! आ जुदी जातनी वकीलात हों; भगवान थवानी आ वकीलात छे. पोते भगवानस्वरूप छे तेने पर्यायमां
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प्रगट करवानी आ वात छे.
सवारे रेकोर्डींगमां प्रथम कळशनी बहु सारी वात आवी हतीः “... तेनी अन्तरछेदी अर्थात् एक समयमां युगपद् प्रत्यक्षरूपे जाणनशील जे कोई शुद्ध जीववस्तु, तेने मारा नमस्कार. शुद्ध जीवने ‘सार’पणुं घटे छे. सार अर्थात् हितकारी, असार अर्थात् अहितकारी. त्यां हितकारी सुख जाणवुं, अहितकारी दुःख जाणवुं; कारण के अजीव पदार्थने-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काळने-अने संसारी जीवने सुख नथी, ज्ञान पण नथी, अने तेमनुं स्वरूप जाणतां जाणनहार जीवने पण सुख नथी, ज्ञान पण नथी, तेथी तेमने ‘सार’पणुं घटतुं नथी. शुद्ध जीवने सुख छे, ज्ञान पण छे, तेने जाणतां-अनुभवतां जाणनहारने सुख छे, ज्ञान पण छे, तेथी शुद्ध जीवने ‘सार’ पणुं घटे छे.”
अहीं एम कहे छे के-एक पुद्गल परमाणुथी मांडीने शरीर, मन, वाणी, पैसा, स्त्रीनुं शरीर इत्यादि चीजोमां सुख नथी, ज्ञान पण नथी. निगोदना अनंता जीव छे तेने पण परिणतिमां सुख नथी, ज्ञान पण नथी. जुओ, आ शक्तिनी वात नथी. निगोदना अनंत जीव अने आ शरीरादि परमाणुना स्कंध तेने जाणनार जीवने पण सुख नथी, ज्ञान नथी, अहाहा...! संसारी प्राणी-निगोद आदि अनंत जीव-जे मलिनभावे पर्यायमां परिणम्या छे तेमने प्रगट दशामां सुखेय नथी, ज्ञानेय नथी. वस्तुमां त्रिकाळ सुखस्वभाव ने ज्ञानस्वभाव छे एनी अहीं वात नथी. अहीं तो कहे छे-अज्ञानी जीव जे निगोदादि संसारी जीवने जाणे तो ते जाणनहारने सुख नथी, ज्ञान पण नथी. अहा! राजमलजीए गजबनी टीका करी छे. निगोदादि संसारी जीवोने तो पर्यायमां सुख नथी, तेना जाणनारनेय सुख ने ज्ञान नथी. गजब वात छे भाई!
शुद्ध चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा पूर्णानंदनो नाथ प्रभु अने सिद्ध परमात्मा ते शुद्ध जीव छे. ते बन्नेने सुख पण छे, ज्ञान पण छे; अने तेमने जाणनार जीवने पण सुख छे अने ज्ञान पण छे. परंतु शुद्ध जीवने जाण्यो कयारे कहेवाय? के भगवान सिद्ध परमात्मा जेम शुद्ध छे तेम मारो भगवान आत्मा पण त्रिकाळ शुद्ध छे. अहाहा...! ‘सिद्ध समान सदा पद मेरो.’ अहा! आ त्रिकाळी शुद्धनी द्रष्टि करी परिणमवाथी, ते स्वद्रव्यनी सन्मुख थईने तेना आश्रये परिणमवाथी स्वानुभवनी दशा प्रगट थाय छे, निर्मळ श्रद्धान-ज्ञान प्रगट थाय छे अने भेगी अतीन्द्रिय सुखना आस्वादरूप दशा प्रगटे छे. आवे छे ने नाटक समयसारमां के-
रस स्वादत सुख उपजै, अनुभव ताको नाम,
अहा! आवी स्वानुभवनी दशा प्रगट करे त्यारे शुद्धने जाण्यो कहेवाय. शुद्ध जीवमां सुख छे, ज्ञान छे, माटे तेना जाणनारने पण सुख अने ज्ञान छे.
प्रश्नः– सिद्धने जाणतां सुख छे के नहि? उत्तरः– हा, सिद्धने जाणतां सुख छे; पण सिद्धने जाण्या कयारे कहेवाय? के पोतानो स्वभाव सदा सिद्ध समान शुद्ध छे एम निश्चय करी स्वभावसन्मुख थईने तेनो अनुभव अने प्रतीति करे त्यारे सिद्धने जाण्या कहेवाय. साथे तेमां अतीन्द्रिय सुखनो आस्वाद पण होय छे.
प्रश्नः– आमां स्वद्रव्यने जाणवानी शी जरूर छे? उत्तरः– अरे भाई! परद्रव्यने जाणवा जाय ए तो विकल्प छे, अने विकल्प छे ए तो दुःख ज छे. मोक्षपाहुडनी सोळमी गाथामां आचार्यदेव कहे छे-‘परदव्वादो दुग्गई’. अहा! भगवाननी वाणीमां आवेली कोई अलौकिक वातो दिगंबर संतोए करी छे. स्वद्रव्य सिवाय भाई! अन्य द्रव्य उपर तारुं लक्ष जशे तो नियमथी विकल्प ज उत्पन्न थशे, अने तेथी तने दुःख ज थशे. त्यां तो परद्रव्यना लक्षे विकल्प थाय ते दुर्गति छे एम जाणी पोताना स्वरूपमां मग्न थई जाय छे एनी वात करी छे.
अहा! मारी पर्यायमां सर्वज्ञता नथी, ने भगवानने पर्यायमां सर्वज्ञपणुं प्रगट छे तो ते सर्वज्ञपणुं आव्युं कयांथी? के पोताना स्वरूपमां सर्वज्ञशक्ति त्रिकाळ पडी छे तेम निश्चय करी निज स्वरूपनुं आलंबन लेवाथी पर्यायमां सर्वज्ञपणुं प्रगट थयुं छे, परने जाणतां प्रगट थयुं छे एम नथी. माटे परने जाणवाना क्षोभथी-आकांक्षाथी विराम पामी स्वस्वरूपना आश्रये परिणमवुं ने त्यां ज रमवुं, ठरवुं ने लीन थवुं ते ज सर्वज्ञ थवानो मार्ग छे. आवी वात छे. ल्यो,
आ प्रमाणे अहीं सर्वज्ञत्वशक्ति पूरी थई.
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‘अमूर्तिक आत्मप्रदेशोमां प्रकाशमान लोकालोकना आकारोथी मेचक (अर्थात् अनेक-आकाररूप) एवो उपयोग जेनुं लक्षण छे एवी स्वच्छत्वशक्ति. (जेम दर्पणनी स्वच्छत्वशक्तिथी तेना पर्यायमां घटपटादि प्रकाशे छे, तेम आत्मानी स्वच्छत्वशक्तिथी तेना उपयोगमां लोकालोकना आकारो प्रकाशे छे.)’
ओहो! ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनंत शक्तिओनो भंडार एवा भगवान आत्माने असंख्य प्रदेशो छे ते अमूर्तिक छे. अहाहा...! चैतन्यना असंख्य प्रदेशो अमूर्तिक छे. अमूर्तिक एटले शुं? के तेमां कोई स्पर्श, रस, गंध के वर्ण नथी. समजाणुं कांई...? अहा! ते प्रदेशोमां, कहे छे, प्रकाशमान लोकालोकना आकारोथी मेचक अर्थात् अनेक आकाररूप एवो उपयोग जेनुं लक्षण छे एवी स्वच्छत्व नामनी शक्ति त्रिकाळ पडी छे. अहीं लोकालोकना आकारो कह्या तेमां जड ने चेतन सर्व पदार्थो आवी गया. जड पुद्गलना स्पर्श, रस, गंध, वर्ण अहीं उपयोगमां जाणवामां आवे छे, पण ते जड मूर्तिक पदार्थो कांई आत्माना अमूर्तिक प्रदेशोमां प्रवेशे छे एम नथी. ए तो आत्मा सर्व पदार्थोने कोई परनी अपेक्षा विना ज पोताना उपयोगमां जाणी ले एवो ज तेनी स्वच्छत्वशक्तिनो स्वभाव छे.
प्रश्नः– लोकालोक छे तो तेनुं ज्ञान थाय छे ने? उत्तरः– ना, एम बीलकुल नथी. स्वच्छत्वशक्ति स्वतः पोताथी ज स्वच्छतारूपे परिणमे छे अने ते वडे उपयोगमां लोकालोकना आकारो सहज ज जणाय छे. लोकालोक छे तो उपयोगमां तेनुं जाणवारूपी कार्य थाय छे एम छे नहि.
आ तो भगवान सर्वज्ञदेवनी वाणी भाई! भगवानना समोसरणमां सो इन्द्रो आ वाणी सांभळवा आवे छे. केसरी-सिंह, वाघ, मोटा काळा नाग वगेरे पण भगवाननी वाणी सांभळवा जंगलमांथी आवे छे. समोसरणमां उपर जवा माटे २० हजार रत्नमय पगथियां होय छे. एक अंतर्मुहूर्तमां सौ उपर पहोंची जाय छे, ने त्यां जई भगवाननी दिव्य ओम्ध्वनि सांभळे छे. ओहो! निर्वेर थई अति नम्रभावे समोसरणमां बेसीने सौ भगवाननी वाणी सांभळे छे.
प्रश्नः– तो शुं सिंह अने वाघ ते वाणी समजतां हशे? उत्तरः– हा, पोतपोतानी भाषामां बराबर ते तिर्यंचो समजी जाय छे; अने केटलांक तो वाणी सांभळीने त्यां सम्यग्दर्शन पण पामी जाय छे. शरीर-कलेवर भले सिंह के वाघनुं होय, पण अंदर तो सर्वज्ञस्वभावी भगवान आत्मा विराजे छे ने? अहाहा...! अंदर पूणानंदनो नाथ प्रभु आत्मा छे ते यथार्थ समजी जाय छे. भाई! तुं पण मनुष्य नथी, भगवान आत्मा छो. (एम यथार्थ चिंतव).
अढी द्वीप सुधी मनुष्य छे. अढी द्वीपनी बहार असंख्य तिर्यंचो सम्यग्द्रष्टि, पंचम गुणस्थानवाळा पडयां छे. छेल्लो स्वयंभूरमण नामनो समुद्र छे. तेमां हजार योजननी लंबाईवाळा शरीरधारी मोटा मगरमच्छ छे. तेमां कोई कोई सम्यग्द्रष्टि अने पांचमा गुणस्थानवाळा श्रावक तिर्यंचो छे. अंतरंगमां शांतिनी वृद्धि थईने तेमने श्रावकदशा प्रगटी छे. आगममां पाठ छे के अढी द्वीपनी बहार असंख्य सम्यग्द्रष्टि आत्मज्ञानी तिर्यंचो छे. तेमांथी कोई कोईने तो सम्यग्दर्शन उपरांत स्व-आश्रये शांतिनी वृद्धि थईने श्रावकनुं पांचमुं गुणस्थान वर्ते छे. तेमां केटलाक जातिस्मरणज्ञानवाळा, अवधिज्ञानवाळा पंचम गुणस्थानवर्तीछे. कोई स्थळचर प्राणीओ-वाघ, रींछ, हाथी, घोडा वगेरे, कोई जलचर ने कोई नभचर-कौआ, पोपट, चकला, चकली वगेरे असंख्य तिर्यंचो सम्यग्दर्शन सहित पांचमा गुणस्थानवाळा त्यां अढी द्वीपनी बहार छे. भले थोडां छे, तोपण असंख्य छे. तिर्यंचोनी संख्या घणी मोटी छे. तेमां असंख्य मिथ्याद्रष्टि सामे कोईक एक सम्यग्द्रष्टि छे.
जीवे सौथी ओछा भव मनुष्यना कर्या छे. अनंत वार आ जीवने मनुष्यपणुं आव्युं छे, तो पण चारे गतिमां सौथी ओछा भव मनुष्यना कर्या छे. जेटला (-अनंत) भव मनुष्यना कर्या छे तेना करतां असंख्यात गुणा अनंत भव नरकना कर्या छे. नरकना जेटला भव कर्या छे तेनाथी असंख्यात गुणा अनंत भव स्वर्गना कर्या छे. स्वर्गमां जीव कयांथी आवे छे? नरकमांथी तो जीव स्वर्गमां जता नथी, ने मनुष्य बहु थोडी संख्यामां छे. एटले तिर्यंचमांथी ज मरीने घणा जीवो स्वर्गमां जाय छे. तिर्यंचमांथी केटलाक जीवो मरीने नरकमां पण जाय छे. मनवाळा अने मन वगरना पंचेन्द्रिय तिर्यंचोनी संख्या घणी मोटी छे. तेमां कोईने शुक्ललेश्या, पघलेश्या के पीतलेश्याना भाव थाय छे, ते मरीने स्वर्गमां जाय छे.
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आ बळद वगेरे पशुओने देखीने एम थाय छे के-अरेरे! आ बिचारा जीव कयां जशे? धर्मना परिणाम तो तेने नहि, ने पुण्यनां पण कयां ठेकाणां छे? अरेरे! मरीने नरके जशे अथवा पशु मरीने पशु थशे. स्वर्गना भव करतां एकेन्द्रियथी पंचेन्द्रिय सुधीना तिर्यंचना भव जीवे असंख्यात गुणा अनंता कर्या छे. अरे! आत्मज्ञान विना देहबुद्धि वडे आवा अनंत भव करी करीने जीव मरी गयो छे, महादुःखी थयो छे. अहा! तेना दुःखनुं शुं कथन करीए? पारावार अकथ्य दुःख एणे सहन कर्यां छे.
अहीं कहे छे-भगवान आत्माना प्रदेशो अमूर्तिक छे. तेमां मूर्त द्रव्य आवतुं-पेसतुं नथी. हा, पण मूर्तिकनी ज्ञानमां प्रतिच्छाया तो पडे छे ने? ना, आ सामे लीमडो छे तो शुं ज्ञानमां लीमडानो आकार आवे छे? ना, लीमडो (कलेवर) तो जड छे, स्पर्श, रस, गंध, वर्णवाळो मूर्तिक पदार्थ छे. ते मूर्तिक पदार्थ अमूर्तिक चैतन्यप्रदेशोमां आवतो-पेसतो नथी; ने ते मूर्तिक पदार्थ संबंधीनुं ज्ञान अहीं पोताथी ज परिणमे छे. जो जड ज्ञेयाकार ज्ञानमां पेसे तो ज्ञान जड थई जाय, पण एम छे नहि. मूर्तिक पदार्थने जाणतां ज्ञाननी पर्याय मूर्तिक थई जाय एम त्रणकाळमां नथी. अमूर्तिक चैतन्यप्रदेशो मूर्तिक केवी रीते थाय?
अहा! ज्ञानमात्र वस्तु आत्मा छे तेनी सन्मुख थई परिणमतां सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रगट थाय छे. त्यारे भेगी स्वच्छत्वशक्ति पण परिणमी जाय छे. अहा! ते स्वच्छ उपयोग लोकालोकने जाणतो थको मेचक-अनेकाकार छे छतां तेमां कांई मलिनता थती नथी, उपयोग तो स्वच्छ एक ज्ञानरूप ज रहे छे. अहा! साधकनुं ज्ञान एवी स्वच्छतापणे परिणम्युं छे के ते सहचर रागने जाणे छतां रागरूप मलिन थई जतुं नथी. शुं कीधुं? राग छे ते मेल छे, पण रागने जाणनारुं ज्ञान मलिन नथी, स्वच्छ छे. स्वच्छत्वशक्ति परिणमतां आत्माना उपयोगनुं एवुं सामर्थ्य प्रगटे छे के उपयोग अनेक पदार्थोने जाणे छतां ते मलिन थतो नथी, पण अरूपी, स्वच्छ ने निरुपाधिक निर्विकार ज रहे छे. आखा लोकालोकने जाणवारूप जे मेचकता (अनेकपणुं) छे ए तो ज्ञाननी-उपयोगनी स्वच्छताने प्रसिद्ध करे छे. अहा! ज्ञानमां पूरो लोकालोक न जणाय तो ते ज्ञाननी स्वच्छता शुं? ने दिव्यता पण शुं?
आत्माना प्रदेशोमां लोकालोकना आकारोथी अनेक आकाररूप उपयोग परिणमे छे. एवो उपयोग ते स्वच्छत्वशक्तिनुं लक्षण छे. स्व अने पर संबंधीनुं विशेष ज्ञान थाय तेने अहीं आकार कहेल छे. स्व-पर अर्थनुं ज्ञान तेने आकार कहे छे. अर्थ-विकल्पने ज्ञानाकार कहे छे. आमां तो वाते वाते फेर छे भाई! आवो मारग सूक्ष्म, जेवो छे तेवो यथार्थ समजवो जोईए.
दर्शन निराकार-निर्विकल्प छे, ने ज्ञान साकार छे. ज्ञान साकार छे एटले तेमां जडनो आकार आवे छे वा ते परना-जडना आकाररूपे थई जाय छे एम तेनो अर्थ नथी. स्व अने परने भिन्न भिन्न प्रकाशनारी ज्ञाननी परिणतिने अहीं आकार कहेल छे. ज्ञेयाकारोने जाणवापणे ज्ञाननुं विशेषरूपे परिणमन थवुं तेने अहीं आकार कहेवामां आवेल छे. विश्वना समस्त ज्ञेयाकारोने जाणवापणे विशेष परिणमे ते खरेखर उपयोगनी स्वच्छता छे अने ते खरेखर जीवनी स्वच्छत्वशक्तिनुं लक्षण छे. हवे आवी वात कदी कानेय न पडे ते बिचारा पोतानी चीज शुं छे ते केम जाणे?
अरेरे! जीव बिचारा चोरासीना अवतारोमां रखडी मरे छे. अहा! अहीं मोटो अबजोपति शेठ होय ने क्षणमां मरीने ते सातमी नरकमां जई पडे! तेनी पीडानी शी वात करवी भाई! एवी अपार अंकथ्य एनी वेदना ने पीडा छे के तेने जोनारने पण रूदन आवी जाय. अहा! आवा पीडाकारी स्थानमां जीवे अनंत वार जन्म-मरण कर्यां छे. अहा! पण ते भूली गयो छे. अहीं मनुष्यपणुं मळ्युं, तेमां वळी पांच-पचीस लाखनी मूडी थई, ने स्त्री- बाळको कांईक सरखां-सारां मळ्यां तो त्यां गर्वित थई मोहवश ते मिथ्या अभिमानमां चढी गयो छे. पण अरे भगवान! आ तुं शुं करे छे? आवुं पागलपणुं-गांडपण तने कयांथी आव्युं? तारी चीज शुं छे ए तो जो.
वळी शरीर कांईक सुंदर-रूपाळुं मळ्युं होय तो त्यां पागल थई गयो. तेने नवडावे, धोवडावे ने अरीसामां मोढुं जोई तेना पर अनेक संस्कार करे ने माने के हुं रूपाळो-स्वच्छ थई गयो. अरे भाई! तें आ शुं पागलपणुं मांडयुं छे? शुं शरीरने धोवाथी कदी आत्मा स्वच्छ थाय? शरीरने धोवाथी शरीर स्वच्छ न थाय तो आत्मा कयांथी स्वच्छ थाय? स्वच्छता तो आत्मानो स्वभाव छे, ते कांई शरीर धोवाथी प्रगटे एम नथी; पण स्वच्छता जेनो स्वभाव छे तेवा निज
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आत्मस्वरूपनी सन्मुख थई परिणमतां स्वच्छता प्रगटे छे. अरे! अज्ञानीओ निज चैतन्यना स्वच्छताना स्वभावने भूलीने देहना संस्कारमां (स्नानादिमां) धर्म थवानुं माने छे! पण भाई! एमां कांई हाथ आवे एम नथी. समजाणुं कांई...?
भाई! आ लाकडां ने घास जेम बळे तेम तुं जेना संस्कार (स्नानादि) करे छे ते आ रूपाळुं शरीर बळीने खाक थई जशे. तेमांथी बीजुं कांई नहि नीकळे; अर्थात् आत्मानां शांति ने स्वच्छता तेमांथी नहि नीकळे. आवी वात!
भगवान! तुं तो चैतन्यमय अमूर्तिक प्रदेशोनो पुंज छो ने प्रभु! अहाहा...! तारा स्वच्छ उपयोगमां जड मूर्तिक पदार्थो जणाय छे तो उपयोग कांई जड मूर्तिक आकाररूप थई जतो नथी. तारा ज्ञानना उपयोगमां कांई मूर्तिकनो आकार आवतो नथी. ज्ञानने साकार कह्युं त्यां आकार एटले विशेषता सहितनुं ज्ञान एम अर्थ छे. ज्ञेयनुं जेवुं स्वरूप छे ते प्रमाणे विशेषता सहित ज्ञाननुं परिणमन थाय तेने आकार कहे छे. ज्ञान तो ज्ञानाकार ज छे, ते ज्ञानाकार-स्व-आकार रहीने ज अनेक पर ज्ञेयाकारोने जाणे छे. अहा! लोकालोकने जाणतां अनेकाकाररूप उपयोग छे ते ज्ञानाकार-स्व-आकाररूप छे अने ते स्वच्छत्वशक्तिनुं लक्षण छे. आवी सूक्ष्म वात!
प्रथम चितिशक्ति कहीने तेना बे भेद पाडया-दृशिशक्ति अने ज्ञानशक्ति. पछी सर्वदर्शित अने सर्वज्ञत्व शक्तिओ कही. तेनाथी भिन्न आ स्वच्छत्वशक्ति अहीं कहेवामां आवी. केवी छे स्वच्छत्वशक्ति? तो कहे छे- ‘अमूर्तिक आत्मप्रदेशोमां प्रकाशमान लोकालोकना आकारोथी मेचक-अनेकाकाररूप एवो उपयोग जेनुं लक्षण छे एवी स्वच्छत्व-शक्ति.’ अहा! स्वस्वरूपना आश्रयपूर्वक स्वच्छता परिणत थतां ज्ञाननी-उपयोगनी एवी कोई निर्मळता- स्वच्छता थाय छे के एना परिणमनमां लोकालोक-मूर्तिक अने अमूर्तिक एम बधुंय-तेमां-अमूर्तिक आत्मप्रदेशोमां झळके छे, प्रतिभासे छे, जणाय छे. अहा! अंतर्मुख ऊंडा उतरीने जुए तो अंदर आवां विस्मयकारी अद्भुत चैतन्यनां निधान पडयां छे; पण अरे! अज्ञानी प्राणीओ बहारमां-धन अने देहादिमां-मूर्च्छित-पागल थईने पडया छे!
हवे अहीं अरीसानुं द्रष्टांत आपे छेः ‘जेम दर्पणनी स्वच्छत्वशक्तिथी तेना पर्यायमां घटपटादि प्रकाशे छे, तेम आत्मानी स्वच्छत्वशक्तिथी तेना उपयोगमां लोकालोकना आकारो प्रकाशे छे.’
जोयुं? स्वच्छत्व दर्पणनो स्वभाव-शक्ति छे, अने तेनी पर्यायमां घट-पट आदि पदार्थो प्रकाशे-प्रतिभासे छे. त्यां घट-पट आदि पदार्थो कांई दर्पणमां जता नथी, पेसता नथी, पण ए तो घट-पट आदि संबंधी अरीसानी स्वच्छतानी पर्याय जोवामां आवे छे. अरीसानी सामे अग्नि होय के बरफ होय, अरीसामां ते ते प्रकारना प्रतिभासरूप प्रतिबिंब देखाय छे. त्यां वास्तवमां कांई अरीसामां अग्नि के बरफ नथी. फक्त सामे जे जे पदार्थ छे ते प्रकारनी अरीसानी स्वच्छतानी पर्याय अरीसामां देखाय छे. खरेखर अरीसामां अग्नि के बरफ नथी देखातो, पण तेवुं अरीसानी स्वच्छतानुं ज परिणमन छे जे देखाय छे. तेवी ज रीते भगवान आत्मानी स्वच्छत्वशक्ति परिणमतां तेना उपयोगमां लोकालोक जाणवामां आवे छे. अहा! आवी ज स्वच्छत्व शक्तिनी निर्मळ पर्याय छे. अरे! जीवे आवुं पोतानुं स्वरूप समजवानी कदी दरकार करी नथी. मारुं शुं थशे? हुं मरीने कयां जईश? -एने एवो विचार ज नथी!
अहाहा...! भगवान! तुं कोण छो? अहाहा...! लोकालोकनो अरीसो एवो चैतन्यमूर्ति प्रभु तुं आत्मा छो. अहा! तारी स्वच्छतामां लोकालोक एवा स्पष्ट झळके-प्रतिभासे छे के जाणे लोकालोक तेमां (-उपयोगमां) पेसी गया होय? पण खरेखर कांई लोकालोक आत्माना उपयोगमां पेसी जता नथी, लोकालोक तो बहार ज छे, पण आत्मानो स्वच्छ उपयोग ज तेवा प्रतिभासस्वरूपे परिणम्यो छे. अहा! लोकालोक जणाय छे ते खरेखर उपयोगनी स्वच्छता ज जणाय छे. अहा! आवी स्वच्छत्वशक्ति आत्मामां त्रिकाळ छे अने ते द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. अहा! उपयोगनी स्वच्छतानो एवो कोई अचिंत्य स्वभाव छे के परनी साथे जोवा विना ज पोते पोताना स्वभावथी ज लोकालोकने जाणवारूपे परिणमी जाय छे. आवी वात! समजाणुं कांई...? हवे पोते कोण छे? केवडो छे?-एनी खबर न मळे ए बिचारा शुं करे? (भवसमुद्रमां डूबी मरे.)
सं. १९६४नी सालमां अमे एक ‘अनसूया’नुं नाटक जोयेलुं. ते वखतनां नाटको वैराग्यरसथी भरपुर भजवातां. अनसूया परणी न हती. स्वर्गे जतां तेने देवे कह्युं, -‘अपुत्रस्य गतिर्नास्ति’-जेने पुत्र न होय तेने स्वर्गनी गति
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न मळे. (आ तो अन्यमतनी मान्यता छे, खरेखर एम छे एम नहि.) माटे तुं नीचे जा, अने प्रथम जे सामे मळे तेने वर. पछी अनसूया नीचे आवी, अने प्रथम सामे मळेल अंध ब्राह्मण साथे परथी. तेने एक बाळक थयुं. अनसूया बाळकने पारणामां झुलावी हालरडुं गाती के-‘बेटा! तुं शुद्ध छो, तुं निर्विकल्प छो, तुं उदासीन छो.’ ल्यो, आवुं हालरडुं गाईने बाळकने सुवाडती. हवे ते वखते नाटकमां पण आवी वात बतावाती! समयसार बंध अधिकारमां अने सर्वविशुद्धज्ञान अधिकारमां (जयसेनाचार्यदेवकृत तात्पर्यवृत्ति टीकामां) पण आ वात छे. परमात्मप्रकाशमां पण छेल्ले घणा विशेषणो सहित आ वात आवी छे. तुं त्रिकाळ शुद्ध छो, पूर्णानंदस्वरूप भगवान छो, तेनी भावना कर तो तारुं कल्याण थशे एम त्यां वात छे.
परमात्मप्रकाशमां अंतिम कथन करतां टीकाकार श्री ब्रह्मदेवसूरि कहे छेः- आ परमात्मप्रकाशनी वृत्तिनुं व्याख्यान जाणीने भव्यजनोए शुं करवुं? तो आ परमात्मप्रकाशनी वृत्तिनुं व्याख्यान जाणीने भव्यजनोए आवो विचार करवो जोईए के-
“शुद्धनिश्चयनयथी हुं एक (केवळ) त्रण लोकमां त्रणकाळमां मन-वचन-कायाथी अने कृत-कारित- अनुमोदनथी उदासीन छुं, निज निरंजन शुद्ध आत्माना सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्अनुष्ठानरूप निश्चयरत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधिथी उत्पन्न वीतराग सहजानंदरूप सुखानुभूतिमात्र लक्षणवाळा, स्वसंवेदनज्ञानथी स्वसंवेद्य, गम्य, प्राप्त एवो परिपूर्ण हुं छुं. राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, पांच इन्द्रियोना विषय व्यापार, मन-वचन-कायाना व्यापार, भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म, ख्याति, लाभ, पूजा, देखेला, सांभळेला अने अनुभवेला भोगोनी आकांक्षारूप निदान, माया, मिथ्यात्व-ए त्रणे शल्य आदि सर्वे विभावपरिणामोथी रहित-शून्य हुं छुं. सर्वे जीवो पण आवा ज छे, -एवी निरंतर भावना करवी.”
अहा! आम आत्मा अनंत गुण-स्वभावोनुं संग्रहस्थान त्रिकाळ शुद्ध, पवित्र, स्वच्छ चैतन्यमय महापदार्थ छे. अहा! तेनी अनंत शक्ति-स्वभावोने जाणीने शक्तिवान निज द्रव्य उपर अंतर-द्रष्टि देवी ते सम्यग्दर्शन छे अने ते धर्मनी प्रथम दशा छे. अहाहा...! द्रव्य द्रष्टि ते सम्यग्द्रष्टि छे. समयसारमां द्रव्यद्रष्टिनो अधिकार छे; अहीं (-परिशिष्टमां) आचार्यदेवे शक्तिनो अधिकार लीधो छे. तेमां शक्तिनो आधार हुं आत्मा अने आधेय शक्ति एवो भेद दूर करी अभेद एक निज आत्मद्रव्यनी सन्मुख ज्ञाननी पर्यायने झुकाववाथी ज्ञाननी पर्यायमां तेनुं भान थईने अंतर-प्रतीति प्रगट थाय छे एम कह्युं छे. आनुं नाम सम्यग्ज्ञान अने सम्यग्दर्शन छे; अने आ धर्म छे. लोकोने आ कठण पडे छे एटले आ एकान्त छे एम राडो नाखे छे, पण भाई! आ सम्यक् एकान्त छे बापु! बाकी निमित्तथी उपादानमां कार्य थाय, व्यवहारथी निश्चय थाय इत्यादि तुं माने पण तारी एवी मान्यता यथार्थ नथी, मिथ्या छे.
अरे भाई! समयसार गाथा ३७२ मां आचार्यदेव वस्तुस्थिति तो आवी प्रगट करे छे के-कुंभारथी घडो थाय एवुं अमे देखता नथी. माटीथी घडो थाय छे, कुंभारथी नहि. माटी ध्रुव उपादान छे अने घडानी पर्याय क्षणिक उपादान छे; तेमां कुंभार निमित्त छे, पण निमित्त शुं करे? निमित्त परनुं कांई पण करे ए त्रणकाळ त्रणलोकमां संभवित नथी, केमके पर वडे परनुं कार्य करावानी अयोग्यता छे. निमित्तथी उपादाननुं कार्य थाय ए वात जैनदर्शनमां नथी. तेमव्यवहार छे ते निश्चय अपेक्षा निमित्त हो, पण व्यवहारनो शुभराग आत्मस्वभावनी प्राप्तिमां सहायक छे एम नथी. लोकोने-केटलाकने आ आकरुं लागे छे पण शुं थाय? मार्ग ज आवो छे, ने वस्तु पण आवी ज छे.
सवारे कळशटीकाना कळश ६०मां आव्युं हतुं के-“... ज्ञान भिन्न, क्रोध भिन्न-एवुं अनुभववुं घणुं ज कठण छे. उत्तर आम छे के साचे ज कठण छे, परंतु वस्तुनुं शुद्ध स्वरूप विचारतां भिन्नपणारूप स्वाद आवे छे.”
भाई! कठण तो छे, पण अशकय नथी. घणुं कठण लागे छे केमके अनादिथी भेदज्ञाननो अभ्यास नथी. शरीर मारुं, राग मारो, पुण्य मारां अने आ पर्याय ते ज हुं-आवी विपरीत द्रष्टि आडे तेनाथी भेदज्ञान करवानो तेने अभ्यास ज नथी; अने भेदज्ञानना अभ्यास विना प्राप्त थाय एवी आ चीज नथी.
अहीं स्वच्छत्वशक्तिनी वात चाले छे. जेम दर्पणमां घट, पट आदि प्रकाशे छे ते घट के पट आदि नथी, ते तो दर्पणनी स्वच्छतानी ज अवस्था छे; तेम अमूर्तिक भगवान आत्माना असंख्य अमूर्तिक चैतन्यप्रदेशो छे, तेमां लोकालोकना आकारनो भास थाय छे ते खरेखर लोकालोक नथी, ए तो पोतानी स्वच्छत्वशक्तिनुं परिणमन छे. अहो! लोकालोकने प्रकाशनारो भगवान आत्मा कोई अद्भुत चैतन्य अरीसो छे. ते पोते पोताने प्रकाशे ने परने पण प्रकाशे
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छे. भाई! जरा स्थिर थईने, अने धीर थईने तुं पोते पोताना चैतन्य अरीसामां अंतर्मुख जुए तो तेमां पोतानुं शुद्धस्वरूप देखाय ने साथे लोकालोक पण जणाई जाय. अहो! आवो आश्चर्यकारी चैतन्यचमत्कार प्रभु तुं आत्मा छो. माटे हे भाई! तुं परने जाणवानी आकांक्षाथी-आकुळताथी बस कर, ने अंतर्मुख थई स्वरूपमां ठरी जा. अहाहा...! तेथी परमसुखनी प्राप्तिरूप आत्मोपलब्धि थशे अने तारा स्वच्छ उपयोगमां लोकालोक स्वयमेव झळकशे. अहा! आवुं स्वच्छत्वशक्तिनुं परिणमन छे! अहा! केवी स्वच्छता!
प्रश्नः– लोकालोकनुं ज्ञान थाय तेमां लोकालोक निमित्त छे, निमित्त छे के नहि? उत्तरः– लोकालोकनुं अहीं पोतानी पर्यायमां ज्ञान थयुं तेमां लोकालोक अवश्य निमित्त छे, निमित्त छे नहि एम कयां वात छे? पण तेथी करीने अहीं स्वच्छतानी जे पर्याय थई तेनो कर्ता कांई लोकालोक नथी. उपयोगनी स्वच्छतानी पर्यायमां अनेकरूपता आवी ते पोतानी पर्यायनो स्वभाव छे, तेमां लोकालोकनुं कांई ज कार्य नथी. समजाणुं कांई...? निमित्त नथी एम वात नथी, पण निमित्तथी उपादाननुं कांई कार्य थाय एम त्रणकाळमां नथी. भाई! आ तो जैनदर्शननी मूळ वात छे.
जुओ, शास्त्रमां आवे छे के-लोकालोकमां केवळज्ञान निमित्त छे. आखो लोकालोक-छ द्रव्यो, तेना द्रव्य-गुण- पर्यायो, अनंता सिद्धो अने अनंता निगोदना जीव आदि-एमां केवळज्ञान निमित्त छे. शुं तेथी एम अर्थ छे के केवळज्ञाने लोकालोक बनाव्यो छे? एम कदीय नथी. न तो लोकालोक केवळज्ञाननुं वास्तविक कारण छे, न केवळज्ञान लोकालोकनुं कारण छे. आ वस्तुस्थिति छे.
अहा! आ स्वच्छत्वशक्ति द्रव्यना अनंत भावोमां व्यापक छे, जेथी द्रव्य स्वच्छ, गुण स्वच्छ ने स्वाभिमुख थयेली पर्याय पण स्वच्छ छे; बधुं ज स्वच्छ-ज्ञान स्वच्छ, दर्शन स्वच्छ, आनंद स्वच्छ, वीर्य स्वच्छ इत्यादि अनंत स्वभावो स्वच्छ छे, निर्मळ छे. भाई! तारी स्वच्छत्वशक्ति एवी छे के तारा द्रव्य-स्वभावमां विकार समातो नथी, ने द्रव्यस्वभावमां अभेदपणे परिणमतां प्रगट पर्यायमां पण विकार समातो नथी. अहाहा...! आंखमां जेम रजकण समाय नहि तेम आत्माना स्वच्छ उपयोगमां विकारनो कण पण समाय नहि. अहो! आवी अद्भुत स्वच्छत्वशक्ति छे. ल्यो, -
आ प्रमाणे अहीं स्वच्छत्वशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
‘स्वयं प्रकाशमान विशद (-स्पष्ट) एवा स्वसंवेदनमयी (-स्वानुभवमयी) प्रकाशशक्ति.’ अहीं शुं कहे छे? के भगवान आत्मामां एवी प्रकाशशक्ति छे जे स्वयं एटले पोताथी ज प्रकाशमान छे, अने स्पष्ट स्वसंवेदनमयी छे. अहा! पोताथी पोतानुं प्रत्यक्ष वेदन थाय एवी आत्मामां त्रिकाळ प्रकाशशक्ति छे. आमां महत्त्वनी बे वात छे. के आत्मानो प्रकाशस्वभाव-
(१) पोते पोताथी ज प्रकाशमान छे; एने कोई परनी अपेक्षा नथी. (२) स्पष्ट स्वसंवेदनमयी छे. स्वानुभवमां आत्मा प्रत्यक्ष स्पष्ट जणाय एवो आत्मानो प्रकाशस्वभाव छे. अहा! जेम दीवो स्वयं पोताथी ज प्रकाशमान छे, तेने देखवा-प्रकाशवा बीजा दीवानी जरूर नथी तेम भगवान आत्मा चैतन्यप्रकाशनुं बिंब प्रभु स्वयं पोताथी ज प्रकाशमान छे, अहाहा...! स्वसंवेदनमां पोते ज पोताने प्रकाशी रह्यो छे; तेने प्रकाशवा-जाणवा बीजा कोईनी-रागनी, व्यवहारनी के निमित्तनी अपेक्षा नथी. अहाहा...! व्यवहारनी (व्रतादि रागनी) के निमित्तनी (देव-गुरु आदिनी) अपेक्षा विना ज स्वसंवेदनमां-स्वानुभवमय दशामां प्रत्यक्ष थाय एवो आत्मानो प्रकाशस्वभाव छे. भाई! बाह्य निमित्तथी के व्यवहारथी प्रत्यक्ष वेदनमां आवे एवुं आत्मानुं स्वरूप नथी. सूक्ष्म वात छे प्रभु?
अहाहा...! आत्मामां जेम ज्ञान, दर्शन आदि छे तेम एक प्रकाशशक्ति छे. तेनुं कार्य शुं? तो कहे छे- स्वसंवेदनमां आत्मा प्रत्यक्ष थाय ते तेनुं कार्य छे. सम्यग्दर्शन थतां मति-श्रुतज्ञानमां स्वसंवेदन द्वारा आत्मा प्रत्यक्ष थाय-अनुभवाय ते आ शक्तिनुं कार्य छे. कोई कहे के मने अरूपी आत्मा केम जणाय? तो कहे छे-स्वसंवेदनमां आत्मा
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प्रत्यक्ष जणाय एवो एनो स्वभाव छे; भाई! परोक्ष रहे एवो आत्मानो स्वभाव नथी. हा, पण ते ईन्द्रिय प्रत्यक्ष नथी, स्वरूप प्रत्यक्ष-स्वसंवेदन प्रत्यक्ष छे. समजाणुं कांई...?
अहाहा...! स्वसन्मुख थतां आत्माना अतीन्द्रिय आनंदनुं प्रत्यक्ष वेदन थयुं ते प्रकाशशक्तिनुं कार्य छे; साथे व्यवहार छे ने बाह्य निमित्त छे तो आ कार्य नीपज्युं छे एम नथी.
प्रश्नः– तो शुं व्यवहार नथी? निमित्त नथी? आप व्यवहार ने निमित्तने उडावो छो. उत्तरः– अरे भाई! व्यवहार नथी, निमित्त नथी-एम कोण कहे छे? व्यवहार छे, बाह्य निमित्त छे; ते जेम छे तेम न जाणे तो तेनुं ज्ञान मिथ्या छे, वळी व्यवहार ने निमित्तथी आत्मा प्रत्यक्ष थाय, वा तेनां निर्मळ ज्ञान- श्रद्धान प्रगट थाय-एम माने तेय विपरीत श्रद्धान छे. अहीं एम वात छे के व्यवहार के बाह्य निमित्तथी आत्मा प्रत्यक्ष न थाय, पण तेनुं लक्ष छोडी स्व सन्मुखता करतां स्वसंवेदनमां ज आत्मा प्रत्यक्ष थाय छे. अहाहा...! आवो आत्मानो प्रकाशस्वभाव छे. अहीं तो व्यवहार ने निमित्तनुं जेम छे तेम स्थापन छे, पण तेना लक्षे-आश्रये आत्मानुभवरूप -आत्माना ज्ञान-श्रद्धान-रमणतारूप धर्म प्रगट थाय ए मान्यतानो निषेध छे, केमके एवुं वस्तुस्वरूप नथी. समजाणुं कांई...?
अहा! अनंत काळथी चोरासीना अवतारोमां रखडतां-रझळतां भाई! तने मांड आ मनुष्यभव मळ्यो, अने तेमांय जैनमां तारो जन्म थयो ए कोई महाभाग्य छे; अहा! आ बधुं होवा छतां अंतरमां रुचि लावी तुं आ तत्त्व-ज्ञाननी-भेदज्ञाननी तारा हितनी वात तुं न समजे तो अंतर-अनुभव कयांथी थाय? अरे भाई! तुं सांभळ तो खरो, अहीं संतो परमात्मानो संदेश पोकारीने जगत पासे जाहेर करे छे के-प्रभु! तारा स्वसंवेदनमां तारो आत्मा प्रत्यक्ष थाय एवी प्रकाशशक्तिथी तुं त्रिकाळ भरपुर छो.
हवे जिंदगीमां कदी आवी तत्त्वनी वात सांभळवानी फुरसद न होय ए तो बिचारा-मोटा करोडपति होय तोय बिचारा हों-रळवुं-कमावुं, खावुं-पीवुं ने खेलवुं, ने विषयभोगमां रहेवुं-बस एम ज जिंदगी वीतावे छे, पण ए तो जिंदगीएळे (-निष्फळ) जाय छे हों. अरे प्रभु! तुं कोण छो? ने तारुं कार्य शुं छे? -तेनी तने खबर नथी! अहा! तुं आत्मानुं (अंतर-अनुभवनुं) कार्य करवानुं छोडी दईने दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा इत्यादि शुभरागनी क्रियामां धर्म मानी त्यां ज रोकाई गयो! पण भाई! ए तो जगपंथ छे, ए धर्मपंथ नहि; धर्मपंथ तो स्वानुभवमयी कोई अलौकिक छे.
प्रवचनसार, गाथा १७२मां ‘अलिंगग्रहण’ शब्द आवे छे. श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे ते शब्दना २० अर्थ कर्या छे. तेमां कह्युं छे-
“ग्राहक (-ज्ञायक) एवा जेने लिंगो वडे एटले के ईन्द्रियो वडे ग्रहण (-जाणवुं) थतुं नथी ते अलिंगग्रहण छे; आ रीते आत्मा अतीन्द्रियज्ञानमय छे एवा अर्थनी प्राप्ति थाय छे. -१.
ग्राह्य (जणावायोग्य) एवा जेनुं, लिंगो वडे एटले के इन्द्रियो वडे ग्रहण (-जाणवुं) थतुं नथी ते अलिंगग्रहण छे; आ रीते आत्मा इन्द्रियप्रत्यक्षनो विषय नथी एवा अर्थनी प्राप्ति थाय छे. -२.
जेम धुमाडा द्वारा अग्निनुं ग्रहण थाय छे तेम लिंग द्वारा एटले के इन्द्रियगम्य द्वारा (-इन्द्रियोथी जणावायोग्य चिन्ह द्वारा) जेनुं ग्रहण (-जाणवुं) थतुं नथी ते अलिंगग्रहण छे; आ रीते आत्मा इन्द्रियप्रत्यक्षपूर्वक अनुमाननो विषय नथी एवा अर्थनी प्राप्ति थाय छे. -३.
बीजाओ वडे मात्र लिंग द्वारा ज जेनुं ग्रहण थतुं नथी ते अलिंगग्रहण छे; आ रीते आत्मा अनुमेयमात्र (केवळ अनुमानथी ज जणावायोग्य) नथी एवा अर्थनी प्राप्ति थाय छे. -४.
जेने लिंगथी ज परनुं ग्रहण थतुं नथी ते अलिंगग्रहण छे; आ रीते आत्मा अनुमातामात्र (केवळ अनुमान करनारो ज) नथी एवा अर्थनी प्राप्ति थाय छे. -प.
लिंग द्वारा नहि पण स्वभाव वडे जेने ग्रहण थाय छे ते अलिंगग्रहण छे; आ रीते आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता छे एवा अर्थनी प्राप्ति थाय छे.” -६.
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जुओ, आ छठ्ठा बोलमां स्वभाव वडे जेने ग्रहण थाय छे एवो आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता छे एम कह्युं छे. अहा! आवो आ वीतरागनो मार्ग छे. पण अरेरे! सर्वज्ञ परमेश्वरना विरह पडया, ने बहारमां घणी बधी गरबड उभी थई गई! अहीं कहे छे-इन्द्रियप्रत्यक्ष के इन्द्रियप्रत्यक्षपूर्वक अनुमान वडे जाणवामां आवे एवो आत्मा नथी. तेम ज पोते इन्द्रियथी के अनुमानथी परने जाणे एवो पण आत्मा नथी. अहाहा...! पोताना स्वभाव वडे जाणवामां आवे एवो प्रत्यक्ष ज्ञाता प्रभु आत्मा छे. अहीं आ १२मी शक्तिना वर्णनमां आ ज वात करी छे के- आत्मा पोते ज पोताना स्वसंवेदनमां प्रत्यक्ष थाय एवो तेनो प्रकाशस्वभाव छे. अहाहा...! इन्द्रियोथी नहि, रागथी नहि, पण पोताना स्वभावथी जाणवामां आवे एवो आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता छे-एवा अलिंगग्रहणना छठ्ठा बोल साथे अहीं मेळ छे. समजाणुं कांई...!
अहा! आ प्रकाशशक्तिमां एवुं अचिन्त्य दिव्य सामर्थ्य छे के कोई पर-निमित्तनी अपेक्षा विना ज ते पोताना ज स्वसंवेदन वडे आत्माने प्रत्यक्ष करे छे. अहा! आवी दिव्यशक्ति संपन्न निज आत्माने अंतर्मुख थई देखे तो द्रव्यद्रष्टि उघडी-खीली जाय. भाई! तारा आत्मानो अपार-अनंतो वैभव देखवो होय तो तारां दिव्यचक्षु याने द्रव्यचक्षु खोल; आ बहारनां चामडानां चक्षु वडे ए नहि देखाय, ने अंदर रागनां चक्षु वडे पण ए नहि देखाय; अंतरनां स्वभावचक्षु वडे ज ते जणाशे-अनुभवाशे. समजाणुं कांई...? ए तो टीका प्रारंभ करतां मंगलाचरणमां ज आचार्यदेवे कह्युं के-
एम के-पोते पोतानी अनुभूतिथी प्रकाशमान छे एवा समयसार नाम शुद्ध आत्माने नमस्कार. अहाहा...! निमित्त के व्यवहारना आलंबन विना ज, आत्मा सच्चिदानंद प्रभु स्वयं पोताना स्वभावथी ज स्वानुभूतिमां प्रकाशे छे.
भाई! आ तो तने त्रिलोकीनाथ केवळी परमात्मानां वेण अने कहेण आव्या छे; तेनो नकार न कराय. लौकिकमां पण एम होय छे के-दीकरानी सगाई करवानी होय ने दस-वीस घरनां नाळियेर आव्यां होय तो तेमांथी जे मोटा घरनुं कहेण होय ते स्वीकारी ले छे. तो आ तो केवळी सर्वज्ञ परमात्मानां सर्वोच्च घरनां कहेण बापु! तेनो झट स्वीकार कर, ना न पाड प्रभु! मुक्ति-सुंदरी साथे तारां सगपण करवानां कहेण छे. आनंदधनजीना एक पदमां आवे छे के-
अहा! पण समकित साथे सगाई कयारे थाय? के स्वभावसन्मुख थई आत्माने स्वसंवेदनथी प्रत्यक्ष जाणे त्यारे. आ सर्वज्ञ परमात्मानी दिव्यध्वनिमां आवेलां कहेण छे. अहो! आ तो जन्म-मरणना रोगनुं निवारण करनारी भगवान केवळीए कहेली परम अमृतमय औषधि छे.
वळी त्यां (-प्रवचनसारमां) अलिंगग्रहणना सातमा बोलमां कह्युं छे के-“जेने लिंग वडे एटले के उपयोग नामना लक्षण वडे ग्रहण एटले के ज्ञेय पदार्थोनुं आलंबन नथी ते अलिंगग्रहण छे; आ रीते आत्माने बाह्य पदार्थोना आलंबनवाळुं ज्ञान नथी एवा अर्थनी प्राप्ति थाय छे.” जुओ, कहे छे-आत्माना उपयोगमां परपदार्थ- परज्ञेयनुं आलंबन नथी. भाई! तारी शक्ति स्वयं प्रकाशमान स्वसंवेदनमय स्वरूप जेनुं छे एवी छे; तने कयांय परावलंबन नथी.
पण ए (स्वसंवेदन) कठण थई पडयुं छे ने? हा, ए तो कळशटीकाना ६०मा कळशमां कह्युं छे के-“सांप्रत (हालमां) जीवद्रव्य रागादि अशुद्ध चेतनारूपे परिणम्युं छे त्यां तो एम प्रतिभासे छे के ज्ञान क्रोधरूप परिणम्युं छे तेथी ज्ञान भिन्न, क्रोध भिन्न-एवुं अनुभववुं घणुं ज कठण छे. उत्तर आम छे के साचे ज कठण छे, परंतु वस्तुनुं शुद्धस्वरूप विचारतां भिन्नपणारूप स्वाद आवे छे.”
भाई! स्वभावनो अनुभव करवो कठण तो छे, पण अशकय नथी, असंभव नथी. घणुं कठण लागे छे, केमके अनंत काळथी भेदज्ञाननो अभ्यास नथी. पण वस्तुस्वरूप विचारतां-ध्यावतां भिन्नपणारूप स्वाद आवे छे, अशकय नथी. अहा! पोताना स्वभावनी प्राप्ति पोताने अशकय केम होय? ए तो त्यांसुधी ज प्राप्त नथी ज्यां सुधी स्वभावनी द्रष्टि करतो नथी. ज्यां अंतर-द्रष्टि करे के तत्काल आत्मा स्वसंवेदनमां प्रत्यक्ष थाय छे. हवे जीवोए अभ्यास कर्यो नथी, अने आ पद्धतिनो वर्तमानमां बहु लोप छे तेथी पोतानी चीज प्राप्त थवी कठण थई पडी छे. पण मारग तो आवो छे प्रभु! थोडुं कह्युं झाझुं करी जाणवुं बापु!
अहाहा...! भगवान आत्मा अनुभवमां-स्वानुभवमां प्रत्यक्ष थाय एवी एनी शक्ति छे. अहा! अनंत गुण-स्वभावोमां प्रकाशशक्ति व्यापक छे; जेथी ज्ञान प्रत्यक्ष, दर्शन प्रत्यक्ष, सुख प्रत्यक्ष, वीर्य प्रत्यक्ष-एम दरेक शक्ति
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प्रत्यक्ष थाय एवुं ज एनुं स्वरूप छे. अहाहा...! भगवान! तारा घरमां अनंत चैतन्यलक्ष्मी भरी छे. तारो आत्मा प्रत्यक्षपणे आनंदनुं वेदन करे एवी तारामां लक्ष्मी भरी छे. भाई! तारी आवी स्वरूपलक्ष्मी छे तेनी हा तो पाड; हा पाडीश तो तेनी लत लागशे अने ‘हालत’ प्रगट थई जशे. अहा! आ तो-
अहा! हा पाडी अंतःपुरुषार्थ करे तेने रत्नत्रयनी प्राप्ति थाय. पण रागथी थाय ने निमित्तथी थाय ने व्यवहारथी थाय एम विचारी अंतःपुरुषार्थहीन-भाग्यहीन रहे तेने आत्मा प्रत्यक्ष थतो नथी, तेने तो चार गति ज ऊभी रहे छे. कह्युं छे ने के-
आवी वात छे. आ कोई संप्रदायनी वात नथी, आ तो वस्तुना घरनी वात छे.
आ बारमी प्रकाशशक्तिमां गजबनी वात करी छे. पोतानो ज्ञाननो अने आनंदनो स्वभाव छे तेनुं स्वयं प्रत्यक्ष संवेदन थाय, अरे, अनंत गुणोनुं प्रत्यक्ष वेदन थाय एवो प्रकाशशक्तिना सामर्थ्यनो अचिंत्य महिमा छे. शुं कहीए? जेटलुं अंतरमां भासे छे तेटलुं भाषामां आवतुं नथी, केमके भाषानुं परिणमन स्वतंत्र छे, अने तेनी कहेवानी शक्ति मर्यादित छे.
दिव्यध्वनिमां जे निरूपण आवे छे ते भगवानने केवळज्ञान छे माटे आवे छे एम नथी. वाणी छूटे छे ते तो वाणीनुं उपादान छे, ने ज्ञान अने योग तो तेमां निमित्तमात्र छे. जुओ, भाषावर्गणा (परिणमन) चार प्रकारे छे; सत्यभाषा, असत्यभाषा, मिश्रभाषा ने व्यवहारभाषा. आ चार प्रकारनी वचनवर्गणा भिन्न भिन्न छे. हवे भगवानने तो एकलुं केवळज्ञान छे, तो भाषामां एकली सत्यभाषा नीकळवी जोईए; पण भाषामां सत्य अने व्यवहार-एम बे प्रकारे वाणी आवे छे. केवळज्ञानमां कोई व्यवहार नथी. परंतु भाषामां योग्यता ज एवी छे के सत्य अने व्यवहार बन्नेने ते बतावे. आम भाषानी पर्याय पोते पोताथी स्वतंत्र परिणमे छे. तेमां ज्ञान निमित्त हो, पण निमित्त तेनुं कर्ता नथी, भाषावर्गणानी पर्यायनो कर्ता आत्मा नथी, भगवान केवळी नथी; केवळीना योगनुं कंपन छे ते पण भाषावर्गणानी पर्यायनो कर्ता नथी. भाषावर्गणा जड छे ते स्वयं स्वतंत्र जे काळे जेम परिणमवायोग्य होय तेम ते काळे परिणमी जाय छे, प्रयोग करीने आत्मा तेने परिणमावी दे एम त्रणकाळमां छे नहि.
भाषामां स्व-परने कहेवानी ताकात छे, ने आत्मामां स्व-परने जाणवानी ताकात छे. मार्ग तो जुओ प्रभुनो! द्रव्यमां पर्याय पोताथी स्वतंत्र प्रगट थाय छे. वाणीमां स्व-परने जाणवानी ताकात नथी, ने आत्मामां स्व-परने कहेवानी ताकात नथी. आम वस्तुस्थिति छे, छतां हुं वाणी करुं एम कोई माने तो ते मूढ ज छे. अरे भाई! आ बहारनी लक्ष्मी, मकान, शरीर, मन, वाणी इत्यादि मारां छे एम माने ए तो भ्रान्ति छे, मिथ्या भ्रम छे, पाखंड छे. अरे, आ रागनो अंश पण ज्यां तारो नथी तो ताराथी त्रिकाळ भिन्न एवी परचीज तारी कयांथी थई गई? परचीजनुं तो क्षेत्र ज भिन्न छे ने प्रभु!
समवशरणमां जीव अनंत वार गयो, ने त्यां भगवाननी दिव्यध्वनि अनंत वार सांभळी. त्यां वाणी सांभळीने जे ज्ञाननी पर्याय प्रगट थई ते पोताथी थई छे, वाणीना कारणे थई छे एम नथी. भले ते परलक्षी ज्ञान हो, पण वाणीथी ते परलक्षी ज्ञान थयुं छे एम नथी; परलक्षी ज्ञानेय पोताना उपादानथी थाय छे. हा, एटलुं छे के परलक्षी ज्ञानमां आत्मा प्रत्यक्ष थतो नथी. जुओ, लोको कयांय दूरदूरथी आ वात सांभळवा आवे छे. अमे तो परमात्मानी दिव्यध्वनिमां आवेली आ वात फरमावीए छीए के-आ ज्ञान थयुं ते शास्त्र-श्रवणथी थयुं नथी, पोताथी थयुं छे. श्रवणना निमित्ते थयेली ज्ञाननी पर्यायमां, ते पोताथी थई छे तोपण तेमां पराश्रयपणुं छे तेथी, आत्मा प्रत्यक्ष थतो नथी. जेमां आत्मा प्रत्यक्ष थतो नथी ते एकलुं परलक्षी ज्ञान, ज्ञान ज नथी; ए तो मिथ्याज्ञान छे. परंतु कोई परमात्मानी वाणी सांभळीने, शक्तिवान निज द्रव्यने विचारे छे, ध्यावे छे तो तेने द्रव्य-गुणमां जे अनादिकालीन शक्ति छे तेनुं पर्यायमां परिणमन थईने आत्मा स्वसंवेदनमां प्रत्यक्ष थाय छे, अने त्यारे वाणीने निमित्त कहेवाय छे. आवी वात छे.
आमां ‘स्वयं’ ने ‘विशद’ ए बे शब्दो पर खास वजन छे. आत्मा कोईनी अपेक्षा रहित स्वयं प्रकाशमान छे, अने विशद एटले स्पष्ट, प्रत्यक्ष स्वसंवेदन थईने आत्मा जाणवामां आवे छे. भाई! धीरे धीरे आ विषय समजवो
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बापु! आ तो भगवाननी दिव्यध्वनिनो सार छे. अहो! आचार्य भगवंतोए वनमां वसीने केवां अजब काम कर्यां छे! जुओ, मूळ गाथाओ श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे बे हजार वर्ष पर रची छे, ने तेना एक हजार वर्ष पछी तेनी टीका आचार्य श्री अमृतचंद्रसूरिए बनावी छे. अहो! दिगंबर मुनिवरो! जाणे हालता-चालता सिद्ध! निज एक ज्ञायकभावमां जेमणे उपयोगनी-शुद्धोपयोगनी उग्र जमावट करी छे अने जेओ प्रचुर स्वसंवेदनमां मस्त, निजानंदरसमां लीन रहेनारा छे एवा योगीवरोए आ दिव्य शास्त्र रच्युं छे.
एम शुद्धोपयोग तो चोथा गुणस्थानथी होय छे, परंतु शुद्धोपयोगनी जेवी उग्र जमावट मुनिवरोने होय छे तेवी समकितीने चोथे गुणस्थाने होती नथी. मुनिराजने तो त्रण कषायना अभाववाळी शुद्धोपयोगनी तीव्र लीनता होय छे. तथापि सम्यग्द्रष्टिने चोथे गुणस्थाने गृहवासमां रहेवा छतां आत्मा स्वसंवेदनप्रत्यक्षथी अनुभवमां आवे एवी आत्मानी आ प्रकाशशक्ति छे. आ न्यायथी-युक्तिथी वात छे. चोथे गुणस्थाने समकिती कहे छे-मारा आत्माना स्वसंवेदन-प्रत्यक्षथी हुं मने अनुभवुं छुं. अहो! आ स्वसंवेदन अचिंत्य महिमायुक्त छे, तेमां अनंत गुणोनो रस समाय छे, तेमां अतीन्द्रिय आनंद झरे छे, स्वरूपनी प्रतीति प्रगटे छे, अने अनंत शक्तिओ निर्मळपणे उछळे छे. अहो! आ स्वसंवेदन तो मोक्षनां द्वार खोलवानो रामबाण उपाय छे.
समकिती चक्रवर्ती भले छ खंडना राज्यमां बहारथी देखाय, पण खरेखर ते राज्यनो स्वामी नथी. ४७ शक्तिमां छेल्ली स्व-स्वामित्वमयी संबंधशक्ति छे. अहाहा...! शक्तिनुं परिणमन थयुं छे एवो समकिती, ज्ञानी चक्रवर्ती छन्नु हजार राणीओना वृंदमां देखाय तो पण ते पोताना द्रव्य-गुण अने स्वसंवेदननी निर्मळपर्याय जे तेने प्रगट थई छे तेनो ते स्वामी छे, रागनो-विकल्पनो स्वामी नथी. हवे रागनो स्वामी नथी तो पछी राज्यनो, परनो के स्त्रीनो स्वामी होय ए वात कयां रही?
अहा! आ प्रकाशशक्तिनुं बीजी अनंत शक्तिओमां रूप छे. तेथी ज्ञान, श्रद्धा, आनंद वगेरे प्रत्यक्ष थाय एवुं एनुं स्वरूप छे. अहो! आ तो मोटो भंडार भर्यो छे, जेनो पार न आवे एवी आ वात छे. एकेक शक्तिमां केटलुं भर्युं छे! एक ‘जगत’ शब्द लईए एमां केटलो विस्तार भर्यो छे? अहाहा...! छ द्रव्य, एना गुण, एनी पर्याय, त्रण काळ, अनंता सिद्ध, अनंता निगोदराशि, अनंताअनंत पुद्गलो... ओहोहोहो...! ‘जगत’ शब्दे केटलुं बधुं आवे! हवे ए जगतने जाणनार ज्ञानना सामर्थ्यनुं शुं कहेवुं? आम एकेक शक्तिनो घणो अपरिमित विस्तार छे. (मात्र प्रत्यक्ष अनुभवमां ज पार पमाय एम छे.)
द्रव्यसंग्रहनी ४७मी गाथामां श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्तीदेव कहे छे-निश्चय अने व्यवहार मोक्षमार्ग ध्यानमां प्रगट थाय छे.
तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समब्भमसह।। ४७।।
धर्मीपुरुष स्वरूपमां ज्यारे उपयोग लगावे त्यारे ध्यान थाय छे. ध्यान ते ज शुद्धोपयोग छे. ज्ञायकनुं ध्यान लगावतां आत्मा ज्ञानमां प्रत्यक्ष थाय छे, अनुभवमां आवे छे. मति-श्रुतज्ञानमां आत्मा प्रत्यक्ष छे.
प्रश्नः– मति-श्रुतज्ञानने तमे प्रत्यक्ष कहो छो, परंतु तत्त्वार्थसूत्रमां ‘आद्ये परोक्षम्’ आरंभनां बे अर्थात् मति-श्रुतज्ञान परोक्ष छे एम कह्युं छे. तो आ केवी रीते छे?
उत्तरः– तत्त्वार्थसूत्रमां मति-श्रुतज्ञानने परोक्ष कह्यां छे ते तो परने जाणवानी अपेक्षाए परोक्ष कह्यां छे, पोताने जाणवानी अपेक्षाए तो मति-श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष छे. आ वात एमां गर्भित छे. व्यवहारमां जेम कहे छे ने के- आ माणसने में प्रत्यक्ष जोयो छे, तेम भगवान आत्मा स्वसंवेदनज्ञानमां स्पष्ट स्वयं प्रकाशमान थाय छे. श्रुतपर्याय अंतरमां वळीने ज्यां चैतन्यस्वरूपने ध्येय बनावे छे त्यां तेनुं प्रत्यक्ष स्वसंवेदन थाय छे. स्वानुभवमां आत्मा स्वयं प्रगट थाय छे.
में राजाने प्रत्यक्ष जोयो एम कहेवुं ते व्यवहारप्रत्यक्ष छे. परनुं ज्ञान पण जेने स्वरूपग्राही सत्यार्थ ज्ञान होय तेने साचुं होय छे. आ देव छे, आ गुरु छे, आ शास्त्र छे-एवुं परसंबंधीनुं ज्ञान तेने साचुं होय छे जेने स्वनुं भान छे. जेने स्वनुं ज्ञान थयुं नथी तेने परनुं ज्ञान ते ज्ञान नथी, ए तो एकांत परप्रकाशक ज्ञान छे.
वर्षो पहेलां संप्रदायमां अमे कह्युं हतुं के-स्वानुभव करो, स्वानुभव करवो जोईए. स्वानुभव मुख्य छे.
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त्यारे एक भाई कहे-आ स्वानुभवनी वात कयांथी काढी? अमारा गुरुए तो आवुं कदी कह्युं नथी. अरे भाई! स्वानुभवप्रत्यक्ष आत्मद्रव्य छे; परोक्ष रहे एवो एनो स्वभाव नथी. आत्मानो अनुभव प्रत्यक्ष थाय छे. स्वानुभव काळे आत्मा पोताना द्रव्य-गुण-पर्यायमां तन्मय थयो थको पोते पोताने स्पष्ट प्रत्यक्ष वेदे छे, ने आनुं नाम सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने धर्म छे. मति-श्रुतज्ञानमां आ रीते आत्मा प्रत्यक्ष वेदनमां-जाणवामां आवे छे.
ओहो! अंदर तो जुओ! भगवान आत्मानी शक्ति अपरिमित अपार छे. आ प्रकाशशक्तिनां बे रूप-एक ध्रुवरूप ते ध्रुव उपादान, अने परिणति प्रगटे ते क्षणिक उपादान छे. अहीं शक्ति ने शक्तिनी निर्मळ व्यक्तिनी वात छे. ध्रुव पण स्वानुभूतिनी पर्यायमां प्रत्यक्ष जाणवामां आवे छे.
समयसार कळशटीका, कळश ६०मां कह्युं छे के-वस्तुना शुद्ध स्वरूपनो विचार करतां अर्थात् ध्यावतां भिन्न आत्मानो अनुभव थईने अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे. एकला राग अने पुण्य-पापनो विचार करे ए तो परप्रकाशक मिथ्याज्ञान छे. राग अने पर्याय प्रति तो अनादिथी झुकी रह्यो छे. अहा! ते तरफनुं लक्ष छोडी ज्ञानने पोताना शुद्धस्वरूप सन्मुख झुकाववाथी ते ज्ञाननी दशामां आत्मा प्रत्यक्ष थाय छे, अने अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे.
भाई! तारा आत्मानो प्रकाशस्वभाव छे तेमां परोक्षपणानो अभाव छे. समकितीने आत्मस्वभावनुं अंशे प्रत्यक्ष स्वसंवेदन प्रगट थयुं होय छे. तेने साधकदशामां पूर्ण प्रत्यक्षज्ञान प्रगटयुं नथी, ने परोक्षज्ञान पण वर्ते छे. स्वरूपना उग्र आलंबने जेम जेम तेने आत्मानुं प्रत्यक्ष स्वसंवेदन वधतुं जाय छे तेम तेम परोक्षपणुं छूटतुं जाय छे ने अंते परोक्षपणानो सर्वथा अभाव थई पूर्ण प्रत्यक्षज्ञान-केवळज्ञान प्रगट थाय छे; आ प्रकाशशक्तिनी परिपूर्ण प्रगटता छे जेमां एकली पूर्ण प्रत्यक्षता ज छे. आ रीते-
-अज्ञानीने सर्वथा परोक्ष ज ज्ञान होय छे, -समकितीने, साधकने अंशे प्रत्यक्ष स्वसंवेदन होय छे, ने साथे क्रमे अभावरूप थतुं परोक्षपणुं पण होय छे, ने -केवळीने सर्वप्रत्यक्षपणुं-पूर्ण प्रत्यक्षपणुं होय छे. आवी वात!
भाई! गुप्त रहे एवुं आत्मानुं स्वरूप ज नथी. पण तने अनंतशक्तिसंपन्न निज आत्मद्रव्यनो विश्वास आवे त्यारे ने? लोकोमां कहेवाय छे के विश्वासे वहाण तरे. तेम तुं अनंतगुणधाम निज आत्मद्रव्यनो विश्वास लावी अंतर्मुख था, तेम करवाथी आत्मानुं वहाण तरीने पार उतरी जशे. अहा! आ अनंत जन्म-मरणना अंत करवानी वात बापा! बाकी दया, दान आदि भावना फळमां तो तुं भवभ्रमण करशे. दया, दान आदि भाव वडे कदाच तुं स्वर्गे जईश तो त्यां पण सम्यग्दर्शन विना दुःखी ज थईश अने मरीने अंते नर्क-निगोदमां चाल्यो जईश.
भाई! स्वर्गना भव पण ते अनंत कर्या छे. अने त्यांथी नीकळी भवभ्रमणमां तुं निगोदमां उपज्यो त्यां पण अनंत भव कर्या, स्वर्ग करतां एकेन्द्रियमां असंख्यगुणां अनंता भव जीवे कर्या छे. एक श्वासमां अढार भव निगोदमां थाय छे. आवा अनंत अनंत भव निगोदमां कर्या छे. अहा! आवा भवना दुःखथी मुक्त थवुं होय तो अनंत शक्तिवान एवा ध्रुव निज आत्मद्रव्यमां द्रष्टि लगाडी दे. शक्ति अने शक्तिवान एवा भेदनुं पण लक्ष छोडी त्रिकाळी द्रव्यमां द्रष्टि कर, तेथी तारा ज्ञानपर्यायमां आत्मा प्रत्यक्ष थशे. स्वसंवेदनमां स्वयं आत्मा प्रत्यक्ष थाय एवो ज एनो प्रकाशस्वभाव छे. समजाणुं कांई...? ल्यो, -
आ प्रमाणे प्रकाशशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
‘क्षेत्र अने काळथी अमर्यादित एवा चिद्दविलासस्वरूप (-चैतन्यना विलासस्वरूप) असंकुचितविकासत्वशक्ति.
अहाहा...! ज्ञानस्वरूपी अनंतगुणसमुद्र प्रभु आत्मामां जेम ज्ञानादि छे तेम तेमां असंकुचितविकासत्व नामनी एक शक्ति छे. एटले शुं? के एना चैतन्यमां संकोच विना विकास थई ते पूर्ण विकसे-विलसे एवो एनो स्वभाव छे. अहाहा...! आत्मानो आवो स्वभाव एना अनंत गुणमां व्यापक छे; जेथी एनी प्रत्येक शक्ति-गुण संकोच विना पूर्ण
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विकासरूप खीली उठे छे. अहा! एना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भाव असंकुचित विकासमय छे. समजाय छे कांई...?
त्यारे कोई वळी कहे छे-भगवान केवळी द्रव्योनी वर्तमान वर्तती पर्यायने जाणे पण त्रिकाळवर्ती सर्व पर्यायोने न जाणे केमके एक समयनी वर्तमान पर्याय वर्ते छे, पण भूत-भविष्यनी पर्यायो वर्तमान वर्तती नथी. पण आ मान्यता बराबर नथी, केमके भगवान केवळीनी ज्ञानशक्ति संकोच रहित खीलीने एवी पूर्णज्ञानरूप- केवळज्ञानरूप थई छे के एक समयमां त्रणे काळनी समस्त पर्यायोने भगवान केवळी सर्वज्ञदेव प्रत्यक्ष जाणे छे. भगवान केवळी वर्तमान वर्तती एक समयनी पर्यायने ज देखे छे, ने भूत-भाविनी पर्यायोने देखता नथी एम छे ज नहि. एम माने एने चैतन्यनी शक्तिनी खबर ज नथी. भाई! आमां एक न्याय फरे तो एमां आखी वस्तु फरी जाय.
अहाहा...! आत्मानी ज्ञानशक्तिमां आ असंकुचितविकासत्वशक्तिनुं रूप छे. एमां असंकुचितविकासत्वशक्ति छे एम नहि, पण एमां असंकुचितविकासत्वशक्तिनुं रूप छे. जेम ज्ञानमां अस्तित्वनुं रूप छे तेम ज्ञानमां असंकुचितविकासत्वशक्तिनुं रूप छे; जेथी ज्ञाननी शक्तिमां संकोच विना पूरण विकास थाय छे अने त्रणकाळ त्रणलोकनी पर्यायोने संकोच विना एक समयमां जाणे छे. चैतन्यनो पूर्ण विलास थतां जाणवामां कोई क्षेत्रनी मर्यादा नथी के आटलुं ज क्षेत्र जाणे, वा काळनी कोई मर्यादा नथी के आटला काळनुं ज जाणे; त्रणकाळ सहित लोकालोकने मर्यादा विना एक समयमां प्रत्यक्ष जाणे एवो अपरिमित पूर्ण अनंत ज्ञानशक्तिनो विकास भगवान केवळीने थयो होय छे.
तत्त्वार्थसूत्रमां आवे छे के चार घातीकर्मोनो नाथ थवाथी केवळज्ञान प्रगट थाय छे. पण आ तो निमित्तथी कथन छे, ते यथार्थ निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटे छे. वास्तवमां चार घातीकर्मोनो क्षय करवो ए आत्माना स्वरूपमां छे ज नहि. ए तो पोतानो एवो असंकुचितविकासत्व स्वभाव छे जे वडे जीव (-ज्ञान) पूर्ण विकासरूप थई केवळज्ञान प्रगट करे छे. पण अरेरे! अज्ञानी पामरने पोतानी प्रभुतानो महिमा बेसवो कठण पडे छे, एम के आवुं ते होय! पण अरे भाई! ज्ञानमां संकोच रहित पूर्ण विकास थाय एवुं असंकुचितविकासत्वशक्तिनुं रूप छे, दर्शनमां पण संकोच न रहे अने विकास थई जाय एवुं रूप छे, जेथी असंकोच-विकासरूप जे दर्शन ते सर्व द्रव्य-क्षेत्र-काळ- भावने पोताना विकासथी देखे छे.
आत्मानो अतीन्द्रिय आनंदनो स्वभाव छे. तेमां पण असंकुचितविकासत्वशक्तिनुं रूप छे, जे वडे आनंदस्वभाव कोई संकोच विना पूर्णानंदस्वरूपे परिणमे छे. वळी जीवमां अकषायस्वरूप चारित्र नामनो एक गुण छे, तेमां पण आ शक्तिनुं रूप छे, जेथी चारित्रनी पूर्ण रमणता-स्थिरता थई पूर्ण अकषायरूप चारित्र प्रगट थाय छे. जो के आ शक्तिना अधिकारमां चारित्र नामनी शक्ति जुदी वर्णवी नथी, पण सुखशक्तिमां श्रद्धा अने चारित्र ए बन्ने शक्ति समाडी दीधी छे. भगवान सिद्धना आठ गुणना वर्णनमां पण चारित्र गुण जुदो कह्यो नथी; सम्यग्दर्शन अने वीर्य गुणनुं कथन कर्युं छे त्यां श्रद्धामां चारित्रशक्ति समावी दीधी छे.
परमात्मप्रकाशमां एक द्रष्टांत आप्युं छे. वांसनो मंडप होय त्यां सुधी वेल मांडवा उपर चढे छे, पण वेलमां हजी उपर जवानी शक्ति तो भरी छे. मंडप वधारे ऊंचो होय तो वेल पण वधारे ऊंचे चढे एवी वेलमां पोताना कारणे (मंडपना कारणे नहि) शक्ति छे. तेम आ त्रणकाळ-त्रणलोकनो मंडप छे तेने केवळज्ञान एक समयमां जाणे छे. वळी एनाथी अनंतगुणा क्षेत्र ने काळ होय तो पण केवळज्ञान तेने जाणे एवी तेनी अनंत विकासरूप शक्ति छे. लोकालोक एक ज छे, पण एनाथी अनंतगुणा लोकालोक होय तो पण संकोच विना विकास थईने केवळज्ञान ते बधाने जाणी ले एवुं तेनुं स्वरूप छे. भाई! एक एक गुणनी एक एक पर्याय संकोच विना पूर्ण विकासरूप थई विलसे एवो आत्मानी असंकोच-विकासशक्तिनो स्वभाव छे. भगवान! अंदर तारुं स्वरूप तो जो.
पं. फूलचंदजीए ‘खानिया तत्त्वचर्चा’ ग्रंथमां आनुं सारुं स्पष्टीकरण कर्युं छे. भाई! वस्तुस्थिति ज आवी छे. अमे तो साक्षात् भगवान पासे सांभळ्युं छे. परंतु वात आवी सूक्ष्म छे एटले लोकोने बेसवी कठण पडे छे.
अहा! आत्मानुं ज्ञान प्रत्यक्ष थईने परिपूर्ण विकसित थाय एवो एनो असंकोच-विकास स्वभाव छे. पण ते पर्यायमां पूर्ण विकासरूप कयारे थाय? के त्रिकाळी प्रत्यक्ष परिपूर्ण एक ज्ञायकभावनो आश्रय करीने परिणमे त्यारे पर्यायमां पूर्ण विकास थाय छे. आ सिवाय जडनो के विकारनो आश्रय करीने लाभ माने तो पर्यायमां विकास न थाय, विकार थाय ने पर्याय संकोचरूप ज रहे. अहा! जीवनी पर्यायमां अनादिथी संकोच छे, ते संकोच टळीने संकोच रहित विकास केम थाय ते अहीं आचार्यदेव बतावे छे.
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अहा! प्रभु! तारामां जेटली अनंत शक्तिओ छे ते बधी संकोच विना विकास पामे एवो प्रत्येक शक्तिनो स्वभाव छे. जीवत्वशक्तिमां ज्ञान, दर्शन, आनंद अने सत्ता एवा चार भावप्राण छे; तेनो संकोच विना पर्यायमां विकास थाय एवो जीवत्वशक्तिनो स्वभाव छे. स्वशक्तिने स्पर्श करीने परिणमतां ज आत्मा स्वयं विकास पामे छे. अरे प्रभु! तुं अंदर जो तो खरो; तुं दीन नथी, भिखारी नथी, पामर नथी, अधुरो नथी. अहाहा...! अनंत अनंत प्रभुतानो स्वामी सर्व शक्तिथी भरपुर परमेश्वर छो ने प्रभु! अहाहा...! दिगंबर संतो तने प्रभु कहीने बोलावे छे ने! गाथा ७२नी टीका लखतां आचार्य अमृतचंद्रस्वामी तने ‘भगवान आत्मा’ कहीने पुकारे छे ने! अहो! अतीन्द्रिय आनंदना झुले झुलनारा विरागी दिगंबर संतो तारा आत्माने भगवान कहीने जगाडे छे. जाग नाथ! जाग. अंतर-प्रतीति करी अंतर-रमणता करतां तारामां (पर्यायमां) परमात्मपदनो विकास थशे.
प्रश्नः– हा, पण आप मुनिने मानता नथी ने? उत्तरः– अरे भाई! अमे तो दिगंबर संतो-महामुनिवरोना दासानुदास छीए. त्रण कषायना अभाववाळी अंतरंगमां अतीन्द्रिय शांति-आनंद प्रगटयां होय एवी मुनिदशा तो साक्षात् मोक्षमार्ग छे. अहा! आवी मुनिदशाने कोण न माने भाई? अहा! दिगंबर संत-मुनिवरोनी अंतर्बाह्य दशा कोई अद्भुत अलौकिक होय छे. पण बाह्य द्रव्यलिंगमात्र मुनिपणुं नथी. आगम प्रमाणे बाह्य व्रतादिनो साचो व्यवहार होय ते द्रव्यलिंग छे. पण आगम प्रमाणेनो साचो व्यवहारेय न होय त्यां शुं करीए? (भावलिंग तो दूर रहो). चोका लगावी पोताना माटे बनावेलो आहार ले एमां तो आगम प्रमाणेना चोख्खा व्यवहारनुं-द्रव्यलिंगनुंय ठेकाणुं नथी. भाई! कोईनो अनादर करवानी के कोईने दुःख लगाडवानी आ वात नथी, पण तारी चीज केवी छे, मोक्षमार्गनुं स्वरूप केवुं छे ते पोताने समजवा माटेनी आ वात छे.
वळी कोई कहे छे -दया, दान, व्रत, भक्ति आदि व्यवहार करतां करतां निश्चय थाय, पण तेनी ए मान्यता यथार्थ-सत्यार्थ नथी. वास्तवमां तेने त्रिकाळी द्रव्य अने द्रव्यनी शक्तिनी अंतरंग प्रतीति थई नथी. अहीं तो कहे छे -रागनी मंदतानी अपेक्षा विना ज पोताना अनंता गुणो संकोच विना पर्यायमां विकासरूपे परिणमे एवो एनो स्वभाव छे. अरे भाई! रागना अभावस्वरूप वीतरागतानी (-चारित्रनी) पूर्ण दशा प्रगट करे एवो आत्मानो स्वभाव छे, पण राग करे एवी तो आत्मानी कोई शक्ति नथी. पूर्ण विकासपणे शक्ति स्वयं परिणमे छे त्यां व्यवहार करतां करतां निश्चय थाय ए वात ज कयां रहे छे? अहो! आ तो आचार्य अमृतचंद्रदेवे अमृतना दरिया भरी दीधा छे.
अहा! चैतन्यरूप अमृतनो सागर प्रभु तुं आ मृतक कलेवरमां कयां मूर्च्छाई गयो? समयसार, गाथा ९६नी टीकामां आवे छे के-अमृतसागर प्रभु आत्मा मृतक कलेवरमां मूर्च्छाई गयो छे. अरे भाई! जेनी तुं रातदिन सेवा ने आळपंपाळ करे छे ते आ शरीर तो जड, अचेतन, मृतक कलेवर छे; एमांथी बळीने राख नीकळशे, पण एमांथी विकसीने केवळज्ञान नहि नीकळे. माटे देहनी ममता जवा दे, आ रूपाळा शरीरना आकारने देखवुं जवा दे, ते तारी चीज नथी. अंदर ज्ञान, आनंद आदि शक्ति त्रिकाळ पडी छे तेमां अंतर्मुख द्रष्टि कर अने तेनी ज सेवा कर; अहाहा...! तेथी ज्ञान ने आनंदनी दशानो विकास थई पूर्ण ज्ञान-केवळज्ञान अने पूर्ण आनंदनी प्रगटता थशे, अने आ जीवननुं नाव संसारसागर तरीने पार उतरी जशे.
अरे भाई! आ संकोचरूप अल्पज्ञ पर्याय ए कांई तारा आत्मानो स्वभाव नथी. अहाहा...! तारामां तो सर्वज्ञत्व अने सर्वदर्शित्व आदि शक्तिओ पडी छे; वळी तेनी पूर्ण विकासरूप सर्वज्ञ दशा अने सर्वदर्शी दशा प्रगट थाय एवो तारो असंकोचविकास स्वभाव छे. माटे आ अल्पज्ञ दशा अने रागनी दशा जे पामर चीज छे तेनी प्रतीति जवा दे. हुं अल्पज्ञ छुं, हुं रागी छुं-एवी प्रतीति जवा दे; ए तो मिथ्या प्रतीत छे भाई! एवी प्रतीति होता तारी संकोचदशा-हीनदशा केम मटशे? अने तने असंकोचविकास कयांथी प्रगटशे? अहाहा...! अंदर वस्तु पोताना पूर्ण बेहद स्वभावथी भरपुर छे एम विश्वास लावी तेमां तन्मय थई परिणमतां वस्तु असंकोचविकासरूप परिणमी जाय छे. आवो मारग छे बापु!
अहा! आत्माना स्वभावनी अंतर-द्रष्टि करवी अने पोतानी त्रिकाळी चीजना बेहद सामर्थ्यनो विश्वास करवो ए कोई अलौकिक चीज छे. अहाहा...! जेने क्षेत्र-काळनी कोई मर्यादा नथी एवी अमर्यादित ज्ञानशक्ति विकास पामीने सर्व लोकालोकने जाणवारूपे परिणमे छे. परमात्मप्रकाशमां जे मंडप अने वेलनुं द्रष्टांत आप्युं छे त्यां वेलमां मंडपथी आगळ जवानी शक्ति नथी एम नथी, तेम लोकालोक छे एनाथी अनंतगुणो होय तो पण ज्ञाननी दशा पूर्ण विकासरूपे
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परिणमीने तेने जाणी ले. अहा! जुओ, आ अरिहंतनुं स्वरूप! अहाहा...! जुओ, आत्मबागनो चिद्दविलास! लोको बागमां विलास करवा जाय छे ने! मुंबईमां फूलझाडना मोटा बगीचा छे, लोको सांजना त्यां हवा खावा जाय छे. ए भाव तो पापरूप छे. आ तो चैतन्यविलासस्वरूप आत्मबागमां अनंत शक्तिओ अमर्यादित विकास पामीने निर्मळ- निर्मळ आनंद आपती परिणमे छे एनी वात छे.
अहाहा...! संकोच न रहे अने पूरण बेहद विकास थई जाय एवी जीवनी शक्ति छे. ज्ञान, दर्शन, आनंद, वीर्य, अस्तित्व, वस्तुत्व, कर्ता, कर्म इत्यादि एकेक शक्ति छे ते संकोच विना अपरिमित विकासरूपे परिणमे एवो भगवान आत्मानो स्वभाव छे. जेम परमाणुमां अनंतगुण लीली, लाल आदि पर्याय थाय छे ते पोताना कारणे थाय छे, तेमां परनुं कारण बीलकुल नथी; तेम भगवान आत्मामां अनंतज्ञान, अनंतसुख, अनंतवीर्य आदि पर्याय उत्पन्न थाय छे ते पोताथी थाय छे, तेमां परनुं रंचमात्र पण कारण नथी. अरे भाई! एक समयमां त्रणकाळ सहित लोकालोकने पूर्ण जाणे, तेनी भूत अने भविष्यनी पर्यायोने पण वर्तमानवत् प्रत्यक्ष जाणे तेने सर्वज्ञ कहेवामां आवे छे. अहाहा...! सर्वज्ञ एटले शुं? ए तो शक्तिनी अमर्यादित असंकुचितविकासरूप अवस्था छे. समजाय छे कांई...?
अरे प्रभु! केवी केवी (-महा आश्चर्यकारी) शक्तिओनो भंडार प्रभु तुं छो तेनी खबर करवाने बदले तुं बीजे क्रियाकांडमां रोकाई गयो! अहा! अनंत अमर्यादित महिमावंत एवी पोतानी चीजना भान विना आ तारा व्रत, तप आदि कांई कामना नथी. निर्जरा अधिकारमां आचार्य भगवाने पोकारीने कह्युं छे के-अज्ञानी जीव आत्माना भान विना व्रतादि क्लेश करे तो करो, पण ते वडे तेने संसारनो नाश थतो नथी.
अरे भाई! तुं अल्पज्ञ रहे, अल्पदर्शी, अल्प वीर्यपणे अने अल्प आनंदपणे रहे एवो तारो स्वभाव नथी, पण भगवान! तुं पूर्णानंद प्रभु पूर्ण ज्ञानानंदनो दरियो छे, अहाहा...! अलौकिक चीज छो तुं प्रभु! अहा! आवुं भेदज्ञान करी अंदर अंतर्मुख वळी अवलोकतां सर्वज्ञत्व, सर्वदर्शित्व आदि अनंत शक्तिमां संकोच विना पूर्ण विकास थाय एवा निजस्वभावनी प्रतीति थाय छे. अहाहा...! आमां आ एक न्याय समजे तो बधा ज भाव समजाई जाय एवी वात छे. अहा! आ असंकुचितविकासत्वशक्ति द्रव्य-गुणमां तो त्रिकाळ व्यापक छे, अने स्वसन्मुखता वडे तेनो स्वीकार करतां ज ते पर्यायमां व्यापक थाय छे. अहाहा...! त्रिकाळी द्रव्य असंकोच विकासरूप, गुणो असंकोच विकासरूप अने तद्रूप-परिणत पर्याय पण असंकोच विकासरूप!! गजब वात, भाई!
हा, पण पूर्ण विकसित ज्ञाननी पर्याय पूर्ण लोकालोकने जाणे तेमां लोकालोक कारण छे के नहि? उत्तरः– ना, जराय नहि, ए तो निज अंतःपुरुषार्थना सामर्थ्यथी ज पूर्ण विकसित ज्ञाननी दशा लोकालोकने प्रत्यक्ष जाणी ले छे; तेमां लोकालोकनुं कांई ज कारणपणुं नथी. जो लोकालोक कारण होय तो लोकालोक तो अनादि छे अने तेथी केवळज्ञान-ज्ञाननी पूर्ण विकसित दशा-अनादि होवी जोईए. पण एम तो छे नहि, केमके केवळज्ञान तो जीवने नवुं सादि प्रगटे छे. तेथी स्पष्ट थाय छे के लोकालोक ज्ञाननुं कारण नथी; वळी ते ज्ञाननुं कार्य छे एम पण नथी.
अहा! ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनंती शक्तिओ असंकुचित विकासने प्राप्त थाय एवो आत्मानो स्वभाव छे अने ते स्वसन्मुखतारूप अंतःपुरुषार्थ वडे सिद्ध थाय छे. आवो मारग छे; आ सिवाय बधुं थोथेथोथां छे. समजाणुं कांई...? ल्यो,
आ प्रमाणे असंकुचितविकासत्वशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
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‘जे अन्यथी करातुं नथी अने अन्यने करतुं नथी एवा एक द्रव्य स्वरूप अकार्यकारणत्वशक्ति. (जे अन्यनुं कार्य नथी अने अन्यनुं कारण नथी एवुं जे एक द्रव्य ते-स्वरूप अकार्यकारणत्वशक्ति.)’
ओहो...! ज्ञानस्वरूपी प्रभु आत्मा अनंत शक्तिओनो एक पिंड छे. तेमां ज्ञान-दर्शननी जेम एक अकार्यकारणत्व शक्ति छे. केवी छे आ? तो कहे छे-‘जे अन्यथी करातुं नथी अने अन्यने करतुं नथी एवा एक द्रव्य स्वरूप अकार्यकारणत्व शक्ति छे.’ शुं कीधुं आमां? के आत्माना द्रव्य-गुण-पर्यायने कोई पर वस्तु करे नहि तेथी आत्मा अकार्य छे, ने परद्रव्यना द्रव्य-गुण-पर्यायने आत्मा करे नहि तेथी आत्मा अकारण छे. ओहो...! परद्रव्य साथे कार्य-कारणभाव रहित आत्मानो आ अलौकिक अकार्यकारणत्व स्वभाव छे. समजाणुं कांई...?
त्यारे कोई अहीं एम कहे छे के-आ तो द्रव्यनी वात छे, एम के द्रव्य कोईनुं कारण नहि अने द्रव्य कोईनुं कार्य नहि एम अहीं वात करी छे.
अरे भाई! तारी आ समजण बराबर नथी, केम के प्रस्तुत विषय द्रव्यनी शक्तिने लगतो छे. अहा! शक्ति जेनी छे एवा शक्तिवान, द्रव्यनो अनुभव थतां पर्यायमां पण अकार्यकारण दशा प्रगट थई जाय छे. अहा! जे पर्याय द्रव्यना आश्रये प्रगट थई ते परनुं-रागनुं कारण नथी अने ते परनुं-रागनुं कार्य पण नथी. जेम द्रव्य- गुण कोईनुं कारण नथी अने कोईनुं कार्य पण नथी तेम तेनी जे पर्याय प्रगट थाय छे ते पर्याय पण कोई परनुं कारण नथी ने कोई परनुं कार्य पण नथी. आ अकार्यकारणत्व शक्ति छे ते द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्याप्त थई जाय छे. समजाणुं कांई...?
द्रव्य-गुण तो परथी न थाय, पण पर्याय परथी थाय एम मानवा तुं प्रेराय छे, पण भाई! एम वस्तु नथी. आ अकार्यकारण स्वभाव छे ते द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. अहाहा...! द्रव्य अकार्यकारणस्वभावमय, गुण अकार्यकारणस्वभावमय अने पर्याय पण अकार्यकारणस्वभावमय छे. अहो! जेम द्रव्य-गुण अन्य वडे कराय नहि तेम पर्याय पण अन्य वडे कराती नथी एवो आ वस्तुनो अलौकिक स्वभाव छे. पर्याय समये समये नीपजतुं नवुं कार्य छे ए बराबर, पण तेथी कांई ते बीजा वडे कराय छे एम कयांथी आव्युं? कारण विना कार्य न होय ए खरुं, पण ते कारण पोतामां होय के परमां? कार्य पोतामां ने कारण परमां-एम छे नहि, ए जिनमत नथी.
अरे भाई! जो पोतानुं कार्य पर-बीजो करे तो पराधीन एवो पोते पोतानुं हित केवी रीते करी शके? अने जो पोते परनां कार्य करे तो पोतानुं कार्य कोण करे? ने कयारे करे? भाई! पोताना कार्यनुं कारण पोतामां ज छे, परनी साथे पोताने कार्यकारणपणुं छे ज नहि-आवो ज वस्तुनो स्वभाव छे.
आचार्यदेवे आ अकार्यकारणत्व शक्ति ७२मी गाथानी टीकामांथी काढी छे. अमे सम्मेदशिखरजीनी यात्रामां गयेला त्यारे त्यां ७२मी गाथा उपर प्रवचनो थयेलां. भाई! आ अकार्यकारणत्व शक्ति छे ते द्रव्य-गुणमां तो त्रिकाळ व्यापक छे ज, पण त्रिकाळी द्रव्यनी द्रष्टि थतां ते पर्यायमां पण व्यापक थाय छे. अहाहा...! दरेक गुणनी परिणति परनुं कारणेय नहि ने परनुं कार्य पण नहि-एम आ शक्ति छे तेनो विकास-विस्तार थाय छे. भगवानने जे केवळज्ञाननी दशा प्रगट थई ते कांई चार घातीकर्मनो नाश थयो माटे प्रगट थई छे एम नथी. पं. फुलचंदजीए जैन तत्त्वमीमांसामां बराबर खुलासो कर्यो छे के-चार घातीकर्मनो नाश थईने तेनी अकर्मरूप दशा थई छे, जे कर्मरूप पर्याय हती ते अकर्मरूप पर्याय थई. (कांई केवळ ज्ञानरूप थई छे एम नथी) केवळज्ञान तो जीवना गुणनी दशा छे. तेथी घातीकर्मना नाशथी केवळज्ञान प्रगट थयुं छे एम नथी.
तो शास्त्रमां एम कह्युं छे ने? ए तो निमित्तनुं (निमित्तनी मुख्यताथी) कथन छे भाई! पं. श्री फुलचंदजीए खानिया तत्त्वचर्चामां दरेक विषय बहु सारी रीते स्पष्ट कर्यो छे. आ एक ऐतिहासिक तत्त्वचर्चा बनी छे. अरे भाई! वस्तुनुं यथार्थ स्वरूप जेवुं छे तेवुं यथार्थ समजवाथी वितरागता सिद्ध थाय छे; कांई वाद विवादे आ वात पार पडे एम नथी. कोईने जुठा पाडवा अने पोतानी वात साची मानवी एवी वात अहीं नथी.
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अहीं तो कहे छे-आत्मानो एवो अकार्यकारण स्वभाव छे के जेथी तेनी स्वाश्रये जे निर्मळ पर्याय प्रगट थाय छे ते रागनुं कार्य नथी. व्यवहार (व्यवहार रत्नत्रय) छे माटे निर्मळ पर्याय प्रगट थई छे एम नथी. व्यवहार रत्नत्रय कारण ने निश्चय रत्नत्रयनी निर्मळ पर्याय कार्य एम नथी. तेम आत्मा (निर्मळ पर्याय) रागनुं-विकारनुं कारणेय नथी. आत्मा संसारनी उत्पत्तिनुं कारण नथी. आवी वस्तुस्थितिनी मर्यादा छे भाई! द्रव्य सत्, गुण सत् ने पर्याय पण सत् छे; त्रणे स्वतंत्र छे. तेथी निश्चये पर्याय पोताथी उत्पन्न थाय छे, कोई बीजुं (अन्य द्रव्य) कारण छे माटे ते उत्पन्न थाय छे एम छे नहि.
निश्चयथी तो एम छे के सम्यग्दर्शन के केवळज्ञाननी जे पर्याय उत्पन्न थई ते तेनी जन्मक्षण छे. तेनी उत्पत्तिनो ते काळ हतो माटे ते पर्याय त्यां उत्पन्न थई छे; ते तेनी काळलब्धि छे. ते समये भव्यतानो भाव उत्पन्न थवानो काळ हतो माटे ते पर्याय पोताथी प्रगट थई छे, परनुं एमां जराय कारणपणुं नथी. जुओ, स्वस्वरूपमां लीन-स्थिर थाय त्यारे चारित्रमोहकर्मनो नाश थाय छे. त्यां चारित्रमोहकर्मना नाशनुं कार्य कांई जीवनुं कार्य नथी. (जीवनुं कार्य तो स्वरूपलीनता छे). तेम चारित्रमोहकर्मनो अभाव थयो ते कारण अने स्वरूपलीनतारूप निर्मळ चारित्र ते कार्य एम पण नथी.
हा, पण निमित्त तो छे ने? अरे भाई! निमित्त छे एनो अर्थ शुं? ए छे बस एटलुं ज, बाकी निमित्त कांई करे छे एम छे नहि. जुओने, आ चोक्खुं तो कह्युं छे के-जे अन्यथी करातुं नथी अने अन्यने करतुं नथी एवा एक द्रव्यस्वरूप अकार्यकारणत्वशक्ति त्रिकाळ जीवद्रव्यमां पडेली छे. हवे आम छे त्यां निमित्त-परवस्तु उपादानमां शुं करे? कांई ज ना करे. वास्तवमां एकेक समयनी पर्याय पोते ज पोताना कारण-कार्यपणे वर्ते छे. परम शुद्धद्रष्टिमां तो कार्य- कारणना भेद ज नथी, भेद पाडवो ते व्यवहार छे.
अहीं द्रव्यनी शक्तिनी वात करी छे, पण द्रव्यमां जे शक्ति छे ते पर्यायमांय व्यापे छे. अहाहा...! त्रिकाळी शक्तिवान निज द्रव्यनो ज्यां स्वाभिमुखपणे स्वीकार थयो त्यां शक्ति पर्यायमां व्यापी जाय छे. तेथी पर्यायमां पण परनुं कार्य-कारणपणुं नथी अहाहा...! जेणे अकार्यकारणरूप द्रव्य स्वभाव स्वीकार्यो ते पर्याय पण अंतर्मुख थईने द्रव्यमां अभेद थयेली छे, तेथी ते पर्याय पण परनुं कार्य-कारण नथी. अहा! द्रव्यनो-द्रव्य स्वभावनो जेमां निर्णय थयो ते पर्याय छे ते प्रगटेली पर्याय एम जाणे छे के हुं आनंदनी मूर्ति चिदानंदघन प्रभु रागनुं कारणेय नथी अने रागनुं कार्य पण नथी. राग रागना कारणे थयो छे अने आनंद आनंदना कारणे. समजाणुं कांई...?
त्यारे कोई कहे छे-रागनुं कारण जड कर्म तो छे ने? तो ए वात पण नथी. जड कर्म निमित्त हो, पण निमित्त निमित्तमां स्वतंत्र छे अने राग रागना कारणे स्वतंत्र थाय छे. अहा! गजब वात छे भाई! कोई जडनी अवस्था के रागनी अवस्थानुं आत्मा कारण नथी, कार्य पण नथी. आवो वस्तुस्वभाव छे.
समयसारनी ७२मी गाथामां आवे छे के-आस्रवो आकुळताना उत्पन्न करनारा छे तेथी दुःखना कारण छे, अने भगवान आत्मा तो सदाय निराकुळ-स्वभावने लीधे कोईनुं कारण नथी, कोईनुं कार्य नथी. ल्यो, आमांथी आचार्यदेवे आ अकार्यकारणत्व शक्ति काढी छे. कोई इश्वर जगतने बनावे ए वात तो दूर रहो, अहीं तो कहे छे- आत्मा परद्रव्यने करे अने परद्रव्य आत्माने करे एवुं परस्पर कार्य-कारणपणुं नथी. भाई! आ तो तुं न्याल थई जाय एवी वात छे. अज्ञानी पण परनुं कांई करे छे एम नथी, ए तो हठथी हुं परनुं करुं छुं एम (मिथ्या) माने छे बस, बाकी वस्तुनो अकार्यकारणस्वभाव तो जेम छे तेम छे; एनो अंतरमां स्वीकार करे ते ज्ञानी छे. आवी वात!
प्रश्नः– तो तत्त्वार्थ राजवार्तिकमां बे कारणथी कार्य उत्पन्न थाय छे एम कथन छे ने? उत्तरः– ए तो कार्य थयुं त्यारे निमित्त कोण छे तेनुं ज्ञान कराववा माटे त्यां ए वात करी छे. पर्याय कोईनुं कारण नहि अने कार्य पण नहि ए मूळ वातने राखीने पछी त्यां निमित्त कोण छे तेनुं प्रमाणज्ञान कराववा बे कारणथी कार्य थाय छे एम कह्युं छे. निश्चयथी पर्याय पोताथी प्रगट थाय छे, पर तेनुं कारण-कार्य नथी ए वात राखीने प्रमाण, निमित्तनुं ज्ञान करावे छे; बाकी निश्चयने जूठो मानीने (उडाडीने) निमित्तनुं ज्ञान करावे तो ते साचुं प्रमाणज्ञान ज नथी, ए तो मिथ्याज्ञान छे. आवी वात! समजाणुं कांई...?
अकार्यकारणत्वशक्तिनी व्याख्यामां जे ‘एक द्रव्यस्वरूप’ एवो शब्द छे तेथी केटलाकने एम लागे छे के आ तो