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सूक्ष्म छे. ते स्थूळ स्कंधमां भळतां स्थूळरूपे परिणमन करे छे, त्यां ते पोतानी पर्यायनी योग्यताथी सूक्ष्ममांथी स्थूळरूपे परिणमे छे; तेमां स्थूळ स्कंध तेने कारणभूत नथी. बे गुण चीकाशवाळो एक परमाण, चार गुण चीकाशवाळा अन्य परमाणुं साथे भळतां चार गुण चीकाशरूपे परिणमी जाय छे ते पोतानी पर्यायनी शक्तिनी योग्यताथी चार गुण चीकाशरूपे परिणमे छे. निमित्तना कारणे ते परमाणु चार गुण चीकाशपणे परिणमे छे एम नथी. अहा! उत्पादव्ययध्रुवत्व ए प्रत्येक द्रव्यनो स्वभाव छे, अने तेथी ते (द्रव्य) स्वतंत्रपणे पोताथी ज उत्पादव्ययरूपे परिणमे छे. अहा! स्वसन्मुखताना अंतःपुरुषार्थपूर्वक निर्विकल्प अनुभव थया विना आ क्रमबद्ध आदिनुं यथार्थ ज्ञान थतुं नथी. खाली क्रमबद्धनुं नाम लई पुरुषार्थहीन थवुं ए तो स्वच्छंदता छे, अज्ञान छे.
अहा! आत्माने पोताना अंतरंग स्वरूपनुं ज्ञान थाय त्यारे ज अन्य जीवपुद्गलादि द्रव्योना द्रव्य-गुण- पर्यायनुं यथार्थ ज्ञान थाय छे. आ वात समयसार कळशटीका, कळश ६०मां कही छे. त्यां कह्युं छे-“जेम अग्नि अने पाणीना उष्णपणा अने शीतपणानो भेद निजस्वरूपग्राही ज्ञानथी प्रगट थाय छे तेम. भावार्थ आम छे के-जेम अग्निसंयोगथी पाणी ऊनुं करवामां आवे छे, कहेवामां पण ‘ऊनुं पाणी’ एम कहेवाय छे, तो पण स्वभाव विचारतां उष्णपणुं अग्निनुं छे, पाणी तो स्वभावथी शीतळ छे-आवुं भेदज्ञान, विचारतां ऊपजे छे.” जुओ, आ भेदज्ञान! उष्णता पाणीनुं स्वरूप नथी, तेम राग-विकार आत्मानुं स्वरूप नथी. हवे आम छे त्यां रागथी- व्यवहारथी निश्चय थाय एम कयां रह्युं? एम छे नहि.
अहा! सत् छे ते उत्पाद-व्यय-ध्रुवस्वरूप छे. तत्त्वार्थसूत्रमां आवे छे के ‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तम् सत्’, तेनुं अहीं उत्पादव्ययध्रुवत्वशक्तिरूपे वर्णन कर्युं छे. कहे छे-क्रमवृत्तिरूप अने अक्रमवृत्तिरूप वर्तन जेनुं लक्षण छे एवी उत्पादव्ययध्रुवत्व शक्ति. तेमां क्रमवृत्तिरूप पर्यायो उत्पादव्ययरूप छे, ने अक्रमवृत्तिरूप गुणो ते ध्रुवतारूप छे. आवा क्रम-अक्रमवर्ती भावोनो समूह अर्थात् गुणपर्यायोना एक पिंड ते द्रव्य छे. आत्मा अने जगतना सर्व द्रव्यो आवा उत्पाद-व्ययध्रुवस्वरूप सहज पोताथी छे. अहा! आवा निज आत्मद्रव्यनो निर्णय करी द्रव्यस्वभावमां एकाकार थई परिणमे तेने स्वभाव-आश्रित निर्मळ निर्मळ पर्यायोनो उत्पाद थाय छे. आनुं नाम धर्म छे.
प्रश्नः– समयसार, गाथा ३८नी टीकामां पर्यायने क्रम-अक्रमरूप प्रवर्तती कही छे ते शुं छे? उत्तरः– हा, त्यां बीजी अपेक्षाथी वात छे. त्यां ‘अक्रम’ एटले पर्याय आगळ-पाछळ थाय छे एवो अर्थ नथी. त्यां कह्युं छे-“चिन्मात्र आकारने लीधे हुं समस्त क्रमरूप तथा अक्रमरूप प्रवर्तता व्यावहारिक भावोथी भेदरूप थतो नथी माटे हुं एक छुं.” हवे आमां गतिनी पर्याय एक पछी एक थाय छे तेथी तेने क्रमरूप प्रवर्ततो भाव कहेल छे; ने योग, कषाय, लेश्या आदि भावो एक साथे होय छे तेथी तेने अक्रमरूप प्रवर्तता भावो कहेल छे. प्रत्येक गुणमां थतुं परिणमन तो क्रमवर्ती ज होय छे एम यथार्थ जाणवुं. ल्यो,
आ प्रमाणे अहीं उत्पादव्ययध्रुवत्वशक्ति पूरी थई.
‘द्रव्यना स्वभावभूत ध्रौव्य-व्यय-उत्पादथी आलिंगित (-स्पर्शित), सदृश अने विसदृश जेनुं रूप छे एवा एक अस्तित्वमात्रमयी परिणामशक्ति.’
जुओ, त्रिकाळी स्वद्रव्यना लक्षे थतां ज्ञानमात्र भावना परिणमनमां एकलुं ज्ञान ज नथी, पण ज्ञाननी साथे श्रद्धा, आनंद, वीर्य आदि अनंत शक्तिओ भेगी उल्लसे छे; तेमां एक ‘परिणामशक्ति’ छे. केवी छे आ परिणामशक्ति? तो कहे छे-‘द्रव्यना स्वभावभूत ध्रौव्य-व्यय-उत्पादथी आलिंगित सदृश अने विसदृश जेनुं रूप छे एवा एक अस्तित्वमात्रमयी परिणामशक्ति छे.’ जुओ, शुं कीधुं? के आत्मा द्रव्य छे तेना स्वभावभूत ध्रौव्य-व्यय- उत्पाद छे. ध्रौव्य-नित्य टकवापणुं द्रव्यना स्वभावथी ज छे, ने क्षणे क्षणे पर्यायना थतां उत्पाद-व्यय पण द्रव्यना स्वभावथी ज छे. मतलब के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य त्रणेय परथी नथी. परने-निमित्तने लीधे आत्माना परिणाम उपजे छे एम नथी.
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वळी द्रव्यनी जे सत्ता-अस्तित्व छे ते ध्रौव्य-उत्पाद-व्ययथी आलिंगित छे. मतलब के ध्रौव्य-ध्रुवता ने उत्पाद-व्यय कांई त्रण भिन्न-भिन्न सत्ता नथी, पण त्रणेय मळीने एक सत्ता-अस्तित्व छे. अहाहा...! त्रणेयथी आलिंगित एक अस्तित्वमात्रमयी परिणामशक्ति छे. ध्रौव्यनी अपेक्षाए ते (-अस्तित्वए) सदृश छे ने उत्पाद- व्ययनी अपेक्षाए ते विसदृश छे. अहा! आवा सदृश-विसदृशरूप एक अस्तित्वमात्रमयी परिणामशक्ति छे. बहु झीणुं भाई! पण ध्यान राखे तो पकडाय एवुं छे.
भाई! आ कांई कथा वार्ता नथी. आ तो तत्त्वज्ञाननो विषय-बहु सूक्ष्म बापु! कहे छे-भगवान आत्मा द्रव्य छे ते ध्रौव्य-उत्पाद-व्यय त्रणेने एक समयमां आलिंगन करे छे. गजब वात भाई! जो ध्रौव्य न होय तो परिणाम शामां थाय? ने जो उत्पाद-व्यय न होय तो परिणाम केवी रीते थाय? ध्रौव्य-उत्पाद-व्यय त्रणेय एकी साथे होया विना परिणामशक्ति बनी शके नहि. तेथी कह्युं के-ध्रौव्य-व्यय-उत्पादथी आलिंगित एवा एक अस्तित्वमात्रमयी परिणाम शक्ति छे. ‘सद्द्रव्य लक्षणम्’ ने ‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तम् सत्’-एवा जे बे महान सूत्रो तत्त्वार्थसूत्रमां आव्या छे ते आमां समाई जाय छे. अहीं अस्तित्वमात्र कहीने एक सत्-सत्ता बतावी छे.
भाई! प्रत्येक द्रव्य प्रतिसमय पोताना ध्रौव्य-उत्पाद-व्ययने आलिंगन करे छे. समयसार गाथा त्रणमां आवे छे के-प्रत्येक द्रव्य पोताना धर्मोना चक्रने चुंबे छे, पण परने स्पर्शतुं नथी. त्यां कह्युं छे के-“केवा छे ते सर्व पदार्थो? पोताना द्रव्यमां अंतर्मग्न रहेल पोताना अनंत धर्मोना चक्रने चुंबे छे-स्पर्शे छे तोपण जेओ परस्पर एकबीजाने स्पर्श करता नथी.” जुओ, आम वस्तुस्वरूप छे छतां केटलाक लोको माने छे के-कर्मथी विकार थाय छे, पण ते मान्यता बराबर नथी. कर्मनो उदय जीवनी पर्यायने अडतो सुद्धां नथी तो कर्मना उदयथी जीवने विकार केम थाय? ए तो जीव पोते परनो संग करे छे माटे रागादि विकार थाय छे. अरे! पोताना असंग स्वरूपने भूली अज्ञानी जीव परनो संग करे छे तेथी तेने पर्यायमां रागद्वेषादि विभाव भावो उत्पन्न थाय छे. भाई! विकार थाय छे ते जीवनी पोतानी तेवी योग्यताथी थाय छे. परथी-कर्मथी ते थाय छे एम छे ज नहि.
प्रवचनसारमां ४७ नयनो अधिकार छे. तेमां एक इश्वरनय कह्यो छे. त्यां कह्युं छे-“आत्मद्रव्य इश्वरनये परतंत्रता भोगवनार छे, धावनी दुकाने धवडाववामां आवता मुसाफरना बाळकनी माफक.” आम जीव पोते निमित्तने आधीन थईने पर्यायमां पराधीन थई विकाररूपे परिणमे एवी तेनामां योग्यता छे. कर्मने लईने विकार थाय छे एम छे नहि.
अहीं कहे छे-भाई! तारी चीजमां ध्रौव्य-उत्पाद-व्ययथी आलिंगित एवा एक अस्तित्वमात्रमयी परिणाम- शक्ति छे. शक्ति ध्रुव छे ते उत्पाद-व्ययरूपे पर्यायमां परिणमे छे. तेमां ध्रुव छे ते सदृश एकरूप छे, अने उत्पाद- व्यय छे ते विसदृश छे. उत्पाद-व्यय एक सरखा नथी, परस्पर विरुद्ध छे माटे तेने विसदृश कहेल छे. धवलमां तेमने (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यने) विरुद्ध अने अविरुद्ध कह्या छे. उत्पाद-व्यय विरुद्ध छे, अने त्रिकाळी ध्रुव सदृश ते अविरुद्ध छे. व्यय छे ते पूर्व पर्यायनो अभाव छे, ने उत्पाद छे ते वर्तमान पर्यायनो भाव छे. एक भावरूप ने बीजो अभावरूप छे, तेथी उत्पाद-व्यय छे ते विरुद्ध अर्थात् विसदृश छे; अने ध्रौव्य छे ते अविरुद्ध अर्थात् सदृश छे. ध्रुव कहो, एक कहो, सामान्य कहो, सदृश कहो-बधु एक ज छे.
आ समजे तो जन्म-मरणना अंत आवी जाय एवी आ चीज छे. दया, दान, पूजा, भक्ति इत्यादि भाव तो जीव अनादिथी कर्या करे छे, पण ते कांई धर्म नथी. अंदर आत्मा शुद्ध चैतन्यमूर्ति प्रभु छे, तेनी अंतरमां द्रष्टि थया विना धर्म थई जाय एवुं स्वरूप नथी. अरे भाई, आत्मामां कोई एवी शक्ति नथी के विकार करावे, भवभ्रमण करावे. शक्ति अने शक्तिवान द्रव्य त्रिकाळ ध्रुव पवित्र परमात्मस्वरूप छे, ने तेने द्रष्टिमां लेता पवित्रतानो-निर्मळ परिणामनो उत्पाद थाय छे. अहीं निर्मळ-पवित्र परिणामनी ज वात छे, अहीं मलिनतानी वात ज नथी. निर्मळ परिणाम ते क्रमवर्ती अने निर्मळ गुणो ते अक्रमवर्ती-ते बधानो समुदाय ते आत्मा छे एम अहीं वात छे.
तो नियमसार, गाथा ३८मां त्रिकाळी ध्रुवने निश्चय आत्मा कह्यो छे? हा, त्यां द्रष्टिनो विषय सिद्ध करवो छे. जेनी द्रष्टि करी परिणमता निर्मळ-निर्मळ परिणाम थया करे ते द्रष्टिनो विषय त्यां बताववो छे. तेथी त्यां त्रिकाळी ध्रुवने निश्चय आत्मा कह्यो ने पर्याय निर्मळ हो तोपण ते व्यवहार आत्मा छे एम त्यां कह्युं छे. ध्यान राखीने समजवुं बापु! आ विषय बहु सूक्ष्म गंभीर छे. कोई निश्चय- निश्चय एक एकलुं
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कह्या करे तो एम वात नथी. अहाहा...! अंदर कारणपरमात्मा-नित्यानंद, चिदानंद ध्रुव प्रभु-त्रिकाळ बिराजे छे. तेनी प्रतीति-अंतर्द्रष्टि अने अनुभव थतां जे निर्मळ-निर्मळ पर्यायनो उत्पाद थाय तेने अहीं आत्मा कह्यो छे. अपेक्षा बराबर समजवी जोईए.
जुओ, अहीं परिणामशक्तिनी वात चाले छे. कोईने एम थाय के १८मी उत्पादव्ययध्रुवत्वशक्ति अने आ १९मी परिणामशक्ति बन्ने एक छे; पण एम नथी. क्रमवृत्तिरूप अने अक्रमवृत्तिरूप वर्तन जेनुं लक्षण छे एवी उत्पादव्ययध्रुवत्वशक्ति कही, ज्यारे अहीं आ परिणामशक्तिमां, ध्रौव्य-व्यय-उत्पादथी आलिंगित सदृश अने विसदृश जेनुं रूप छे एवा एक अस्तित्वमात्रमयी परिणामशक्ति-एम कहेल छे. आम बन्नेमां फेर छे.
भाई! सदृश अने विसदृश एवा बन्ने स्वभाववाळुं तारुं अस्तित्व छे. उत्पाद-व्यय विसदृश अर्थात् विरुद्ध छे, ने ध्रुव ते सदृश अर्थात् अविरुद्ध छे. समयसार, गाथा ३नी टीकामां आ वात आवी छे. त्यां कह्युं छे-“जेओ टंकोत्कीर्ण जेवा (शाश्वत) स्थित रहे छे अने समस्त विरुद्ध कार्य अने अविरुद्ध कार्यना हेतुपणाथी जेओ हंमेशां विश्वने उपकार करे छे-टकावी राखे छे.” आमां उत्पाद-व्ययने विरुद्ध कार्य कहेल छे, ने ध्रौव्यने अविरुद्ध. अहीं शक्तिना वर्णनमां तेने सदृश-विसदृश कहेल छे. ध्रौव्य त्रिकाळ एकरूप छे तेथी सदृश अने पर्याय उत्पाद-व्ययरूप- भाव-अभावरूप एम बेपणे छे तेथी विसदृश छे. अहा! आवा सदृश-विसदृशरूप एक अस्तित्वमात्रमयी परिणामशक्ति छे.
हवे जे परिणमन थाय छे ते गुणमांथी थाय छे के द्रव्यमांथी थाय छे? ‘चिद्दविलास’मां आनुं समाधान कर्युं छे के-द्रव्य परिणमे छे, गुण नहि. परिणमनशक्ति द्रव्यमां छे ए बाबत चिद्दविलासमां नीचे मुजब स्पष्टीकरण कर्युं छेः “कोई प्रश्न करे छे के-गुणद्वारथी जे परिणति ऊपजी ते गुणनी छे के द्रव्यनी छे? जो गुणनी होय तो गुणो अनंत छे तेथी परिणति पण अनंत होय; अने (जो ते परिणति) द्रव्यनी होय तो गुणपरिणति शा माटे कहो छो?-
तेनुं समाधानः– ए परिणमनशक्ति द्रव्यमां छे; द्रव्य गुणोनो पुंज छे, ते पोताना गुणरूपे पोते ज परिणमे छे; तेथी गुणमय परिणमता (तेने) गुणपर्याय कहीए. तेथी द्रव्यनी परिणति, गुणनी परिणति-एम तो कहीए छीए; परंतु आ परिणमनशक्ति द्रव्यमांथी उठे छे, गुणमांथी नहि. एनी साक्षी सूत्रजीमां (तत्त्वार्थसूत्रमां) दीधी छे के- ‘द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः’ द्रव्यना आश्रये गुण छे, गुणना आश्रये गुण नथी. ‘गुणपर्ययवद् द्रव्यम्’ (- गुणपर्यायवाळुं द्रव्य छे)-एम पण कह्युं छे. पर्यायवाळुं द्रव्य ज कह्युं, (पण) गुण न कह्यो.”... “परिणमनशक्ति द्रव्यथी छे. द्रव्य गुणलक्षणरूपे परिणमे छे, तेथी क्रम-अक्रम स्वभाव द्रव्यनो कह्यो छे.” अने अहीं पण क्रमवर्ती पर्याय अने अक्रमवर्ती गुणोनो समुदाय ते आत्मा एम प्रथम वात करी छे.
जुओ, ध्रौव्य-व्यय-उत्पाद एम त्रणथी आलिंगित सदृश अने विसदृश जेनुं रूप छे एवी परिणामशक्ति परिणमे छे तो परिणति द्रव्यमांथी उठे छे, गुणमांथी नहि. माटे शक्ति अने शक्तिवान एवो जे भेद छे तेनुं लक्ष छोडी दे, केमके भेदना लक्षे सम्यग्दर्शन आदि निर्मळ परिणाम थता नथी. भेद छे ते तो अभेदने बताववा पूरतो छे. तेथी भेदनुं लक्ष छोडी अभेदने ग्रहण कर. अहाहा...! अभेद एकरूप सामान्य अबद्धस्पृष्ट जे ध्रुव स्वभावभाव छे तेनी द्रष्टि करी तेमां ज एकाग्र था; तेथी सम्यग्दर्शन आदि धर्म प्रगट थशे. मारग आ छे भाई!
अहीं द्रव्यद्रष्टि कराववी छे. परिणामशक्ति छे अर्थात् परिणाम द्रव्यनो स्वभाव छे एटले द्रव्यनुं परिणमन थतां तेनी विशेषता-गुणनुं परिणमन-थाय छे, तेथी परिणति द्रव्यथी उठे छे, गुणथी नहि. द्रव्य पोते ज पोतानी विशेषतारूप परिणमी जाय छे. अहाहा...! धर्म करवो होय तो आवी जे पोतानी चीज छे तेनुं ज्ञान भली प्रकार करवुं पडशे भाई! आ तमारां हीरा-मोती ने बाग-बंगला तेमां काम नहि आवे. आ तो फुरसद लईने समजवा जेवी चीज छे बापु!
परिणामशक्ति कही तेमां शक्तिथी परिणति उठती नथी. खरेखर द्रव्य ज द्रवे छे, द्रव्यथी परिणति उठे छे. पंचास्तिकाय गाथा ९मां मूळ पाठमां कह्युं छे के-“ते ते सद्भावपर्यायोने जे दवियदि–द्रवति-द्रवे छे-गच्छदि– गच्छति- पामे छे, तेने (सर्वज्ञो) द्रव्य कहे छे-के जे सत्ताथी अनन्यभूत छे.” आ मूळ पाठ छे. अहीं गुण द्रवे छे एम नथी कह्युं, पण द्रव्य द्रवे छे एम कह्युं छे. श्री जयसेनाचार्यदेवनी टीकामां पण अहींनी माफक ज ‘द्रवति गच्छति’ नो एक अर्थ तो ‘द्रवे छे अर्थात् पामे छे’ एम करवामां आव्यो छे, ते उपरांत ‘द्रवति एटले स्वभावपर्यायोने द्रवे छे अने गच्छति एटले विभावपर्यायोने पामे छे’ एवो बीजो अर्थ पण त्यां करवामां आव्यो छे. अहीं तो द्रव्य शुद्धतारूपे
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परिणमे छे एम वात छे, अहीं अशुद्धताना परिणमननी वात ज नथी. परिणमन थाय ते परिणामशक्तिनुं कार्य छे, पण ते परिणमन द्रव्यमांथी उठे छे, गुणमांथी नहि. द्रव्य पोते गुण-लक्षणरूपे परिणमे छे तेथी क्रम-अक्रमस्वभाव द्रव्यनो कह्यो छे. आवी झीणी वात! भाषा तो सरळ छे, पण भाव उंडो गंभीर छे.
द्रव्यनुं परिणमन थाय छे त्यारे भेगुं गुणनुं परिणमन अविनाभावीपणे होय छे, पण अहीं द्रव्य द्रवति- द्रवे छे एम कहीने भेदनी वासना मटाडी द्रव्यद्रष्टि करावी छे. पाणीमां जेम तरंग उठे छे तेम वस्तु जे द्रव्य छे तेमां तरंग उठे छे. गुण द्रवे छे, पर्याय द्रवे छे एम कहेवामां आवे छे ते भेदनुं कथन छे. वास्तवमां आनंदनी जे परिणति उठे छे ते आनंद गुणमांथी नहि, द्रव्यमांथी उठे छे. सम्यग्दर्शनरूप निर्मळ श्रद्धाननी जे परिणति उठे छे ते श्रद्धा गुणमांथी नहि पण द्रव्यमांथी उठे छे. श्रद्धा गुण सम्यग्दर्शनरूपे थयो छे ए तो भेदकथन छे. परमार्थे त्रिकाळी द्रव्य जे भगवान आत्मा छे ते सम्यग्दर्शनरूपे परिणत थाय छे. आम गुण परिणमे छे एम न लेता द्रव्य परिणमे छे एम लेवुं परमार्थ छे. भाई! आ तो वीतराग भगवाननो मार्ग! ए तो वीतरागतामय ज होय छे. अहा! ते वीतरागता केम प्राप्त थाय? तो कहे छे-त्रिकाळी शुद्ध जे निज आत्मद्रव्य छे तेनुं लक्ष करी परिणमता वीतरागता प्राप्त थाय छे. आवो मारग जेम छे तेम यथार्थ जाणवो-समजवो जोईए. अहा! आत्मा एक समयमां अनंत स्वभावनो सागर छे. तेनो आश्रय लेता अनंत शक्तिना परिणमन सहित द्रव्य-आत्मा उछळे छे; तेने परिणामशक्ति कार्यरूप-परिणत थई एम भेदथी कहेवामां आवे छे.
प्रश्नः– हवे आवो नवो मारग कयांथी काढयो? उत्तरः– आ नवो मारग नथी भाई! आ तो अनंता तीर्थंकरोए दिव्यध्वनि द्वारा बतावेली वात छे. अने ते परंपराए अनादिथी प्रवाहरूपे चाली आवी छे. आ वात हमणां चालती न हती अने अहींथी प्रसिद्धिमां आवी तेथी नवी लागे छे.
प्रश्नः– शुं आवुं समज्या विना धर्म न थाय? उत्तरः– भाई! प्रथम धर्म शुं छे, ने ते केम थाय ते बधुं जाणवुं-समजवुं जोईए. तत्त्वनी वास्तविक समजण कर्या विना तत्त्वद्रष्टि-अंतर्मुख द्रष्टि केवी रीते थाय? अने अंतर्मुख द्रष्टि थया विना धर्म केवी रीते थाय? अनंत काळनां दुःख मटाडवानो उपाय तो बराबर जाणवो जोईए ने?
प्रश्नः– तो शुं तिर्यंच समकित पामे तेने आवुं बधुं ज्ञान होय छे? उत्तरः– हा, तिर्यंचोने सम्यग्दर्शन थतां साते तत्त्वोनुं ज्ञान-श्रद्धान थई जाय छे. मारुं द्रव्य जे आ पूर्ण आनंदस्वरूप छे ते हुं जीवतत्त्व छुं, दुःखनुं वेदन ते आस्रव, बंध छे; आ आनंदनुं वेदन थयुं ते संवर, निर्जरा छे. आम, शब्दोनुं भले तेने ज्ञान न होय तो पण, भावनुं भासन तिर्यंच सम्यग्द्रष्टिने पण बराबर होय छे. मोक्षमार्ग प्रकाशकमां आ विषयनो खुलासो कर्यो छे. भोगभूमिमां क्षायिक समकिती तिर्यंचो छे तेमने सात तत्त्वना भावनुं भासन यथार्थ होय छे. सम्यग्दर्शन थवा पहेलां तिर्यंचना आयुष्यनो बंध पडी गयो होय तो ते जीव भोगभूमिनो तिर्यंच थाय छे. ते क्षायिक समकित लईने पण तिर्यंचमां जाय छे. हवे ते जीवने त्यां कदाच सात तत्त्वना नामनी खबर न होय पण, साते तत्त्वोना भावनुं यथार्थ भासन तो होय छे.
द्रव्य सत्, गुण सत् अने पर्याय सत् एम ते त्रणे सत् कहेवाय, पण वास्तवमां सत् त्रण नथी, त्रणे मळीने एक सत् छे. सत् द्रव्यनुं लक्षण छे. अहाहा...! ध्रौव्य-व्यय-उत्पादथी आलिंगित सत् द्रव्यनुं लक्षण छे. आ रीते जगतनां सर्व द्रव्यो सत् छे. तेथी सर्व द्रव्योनुं टकीने बदलवापणुं छे ते पोतपोताना स्वभावथी ज छे, कोईना कारणे बीजा कोईनुं बदलवापणुं छे ज नहि. आ प्रमाणे स्व-परनी सत्ता भिन्न-भिन्न होवा छतां, परवस्तुना कार्यो हुं करुं छुं एम जे माने छे ते परवस्तुनी स्वतंत्र सत्तानो इन्कार करी, परने पोताने आधीन मानी तेनी स्वाधीनताने हणवा इच्छे छे. पण अरे, परवस्तु तेने आधीन थईने परिणमती नथी. परिणामे अज्ञानी जीव परना आश्रये परिणमतो थको आकुळ-व्याकुळ थई पोतानी सत्ताने ज हणे छे. अज्ञानी परनी सत्तामां घालमेल करवा जाय छे, पण एम बनवुं संभवित नथी, तेथी त्यां विसंवाद ऊभो थाय छे, तेनी शांति हणाय छे, तेने अशांति अने दुःखपूर्ण संसार ज फळे छे. आ प्रमाणे तत्त्वना वास्तविक स्वरूपने जाण्या विना जीव दुःखी थाय छे.
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द्रव्यना स्वभावभूत ध्रौव्य-व्यय-उत्पादथी आलिंगित अस्तित्वमात्रमयी परिणामशक्ति छे. ध्रौव्य-व्यय- उत्पादने आलिंगन करवुं ए द्रव्य-स्वभाव छे. द्रव्य पोताना गुणपर्यायरूप धर्मोने चुंबे छे, पण द्रव्य परने चुंबतुं नथी. तेथी कर्मे जीवने हेरान कर्यो छे ए मान्यता बराबर नथी; केमके कर्मनो उदय जीवना विकारने अडतो नथी, ने जीवनो विकार कर्मना बंधने अडतो नथी. जीव पोताना उलटा परिणमननी योग्यताथी चार गतिमां रखडे छे. अहा! तारी अशुद्धता पण मोटी अने शुद्धता पण मोटी-एम अनुभवप्रकाशमां कह्युं छे. पोतानी अशुद्धताथी जीव रखडे छे, कर्मना कारणे रखडे छे एम नथी. अहा! तीर्थंकरदेवनी ॐ वाणी जीवे अनंत वार सांभळी छे, पण एने तत्त्वद्रष्टि थई नहि, पोताना परिणाम द्रव्य सन्मुख वळ्या नहि ते तेनो पोतानो दोष छे, तेमां कर्मनो उदय बीलकुल कारण नथी. (कर्मनो उदय तो निमित्तमात्र छे).
चिद्दविलास पा. ३३ उपर परिणामशक्तिना वर्णनमां कह्युं छे के-“एक अभेद वस्तुमां सर्व सिद्धि छे, जेम चंद्र अने चंद्रनो प्रकाश एक ज छे. सामान्यताथी निर्विकल्प छे; विशेषताथी शिष्यने प्रतिबोध करवामां आवे त्यारे जेम जेम शिष्य, गुरुना प्रतिबोधवाथी गुणनुं स्वरूप जाणी जाणीने विशेष भेदी थतो जाय तेम तेम ते शिष्यने आनंदना तरंग उठे, ते समये वस्तुनो निर्विकल्प आस्वाद करे. आ कारणे गुण-गुणीनो विचार योग्य छे. गुणना विशेषने (परिणाम) कह्या छे; आ परिणामथी ज उत्पाद-व्यय वडे वस्तुनी सिद्धि छे एम कहीए छीए. ” आम भेद द्वारा अभेदनुं ज्ञान कराववानुं प्रयोजन छे.
आ शक्तिनुं परिणमन द्रव्यमांथी उठे छे, गुणमांथी नहि, केमके गुण द्रव्यना आश्रये छे, गुणना आश्रये गुण नथी. वळी गुणपर्यायवाळुं द्रव्य छे एम कह्युं छे त्यां पर्यायवाळुं द्रव्य ज कह्युं (पण) गुण न कह्यो. आम गुणभेदनी वासना मटाडी द्रव्यद्रष्टि करावी छे.
प्रश्नः– जो एम छे तो आ शक्तिओने जुदी जुदी समजवानी कसरत शुं काम करवी? उत्तरः– अरे भाई! आ शक्तिओ यथार्थ समजे तो अंतरमां आनंदना तरंग उछळे एवी स्वभावद्रष्टिनो पुरुषार्थ जाग्रत थाय छे. आ समजवुं ते खाली ‘कसरत’ नथी, पण अनंत काळनो थाक उतारवाना पुरुषार्थनो मारग छे बापु! एकेक शक्तिने यथार्थपणे समजी शक्तिवान द्रव्यनी द्रष्टि करे त्यां अभेद एक ज्ञानमात्र वस्तु आत्मानुं परिणमन थाय छे ने भेगी तेमां अनंती शक्तिओ एक साथे उछळे छे. आ रीते अनंत गुणथी अभेद निज आत्मवस्तुनी द्रष्टि कराववा आ शक्तिओनुं वर्णन छे. वस्तु-आत्मा स्वभावथी अनेकांतमय केवी रीते छे अर्थात् तेमां अनंत धर्मो कई रीते छे ते स्पष्ट जाणवा-समजवा आचार्यदेवे अहीं शक्तिओनुं वर्णन कर्युं छे. त्यां भेदवासनामां न रोकावुं, केमके भेदना लक्षे सम्यग्दर्शन आदि निर्मळ पर्याय प्रगटती नथी. आवी वात!
हवे आवी तत्त्वज्ञाननी वात सूक्ष्म पडे एटले अत्यारे तो लोको बहारमां-स्थूळ रागमां रोकाई गया छे. व्रत करो, दया पाळो, तप करो, भक्ति करो-इत्यादि आचरणमां धर्म थवानुं मानी त्यां रोकाई गया छे. पण ए तो बधो शुभराग छे भाई! ए तो बंधनुं ज कारण छे. एनाथी तुं धर्म थवानुं माने ए तो मिथ्याभाव छे.
प्रश्नः– तो ज्ञानी पण दया, दान, व्रत, तप, भक्ति आदि आचरण करे छे ने? उत्तरः– अरे भाई! अस्थानना रागथी ने अशुभथी बचवा माटे ज्ञानीने दया, दान, व्रत आदिनो शुभराग आवे छे, पण तेने ते हेय माने छे. ज्ञानी तेने धर्म के धर्मनुं साधन मानता नथी. ज्ञानीनी परिणतिमां व्रतादि व्यवहार भले हो, छतां पण एनाथी जुदुं शुद्धतानुं परिणमन तेने अंतरंगमां वर्ते छे; ते शुद्धतामां तन्मय छे, ने रागमां अतन्मय छे. खरेखर तेने स्वभाव सन्मुखी उत्पाद-व्ययमां निर्मळता थई छे, ने तेमां रागनो प्रवेश नथी; राग तो भिन्न ज्ञेयपणे रही जाय छे, ने तेनुं ज्ञान स्वकाळमां समाय छे. राग ते चैतन्यनो स्वकाळ नथी, परकाळ छे, परपरिणति छे. अहाहा...! ज्ञान ने राग-बन्ने समकाळे ने समक्षेत्रे होवा छतां एक (-ज्ञान) स्वकाळ अने बीजो परकाळ. अहो! केवुं सूक्ष्म भेदज्ञान! आ तो अलौकिक वीतरागी विज्ञान भाई! जे ज्ञानीने प्रगट थयुं होय छे. अज्ञानी तो रागने उपादेय माने छे. आम व्रतादि होवा छतां ज्ञानी-अज्ञानीना अभिप्रायमां घणो फेर छे. आवी वात! समजाणुं कांई!
हवे केटलाक तो समज्या विना व्रत-पडिमा लई ले छे; बे, पांच, अगियार पडिमा-अरे, जो पडिमा पंदर होय तो अज्ञानी जीवो पंदर पडिमा पण लई ले. केमके तेमने पडिमाना स्वरूपनीय खबर नथी, ने निज चैतन्यवस्तुना
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स्वरूपनीय खबर नथी. अरे, तेओ तो बिचारा आंधळे-बहेरुं कूटे राखे छे. एक त्यागी कहेता हता के-में पडिमा लीधी छे तो खरी, पण पडिमा मारी पासे आवी छे के नहि एनी मने खबर नथी. ल्यो, तत्त्व समज्या विना आवुं बधुं बहारमां चाल्या करे छे; पण आ कोई मारग नथी भाई!
शास्त्रमां व्रत-अव्रतमां छाया-आतपनो फेर कह्यो छे ने? हा, कह्यो छे; शास्त्रमां एम कह्युं छे के तडके ऊभा रहेवा करता छांयामां ऊभा रहेवुं सारुं छे, अर्थात् अव्रत करतां व्रत सारुं छे, भलुं छे. पण कोने? के जेने अंतरमां शुद्ध अंतःतत्त्वरूप निज आत्मानुं भान थयुं छे, आनंदना अनुभवनी वृद्धि थई छे तेने अव्रतनो विकल्प छूटी व्रतनो विकल्प आवे छे, अने तेना ए (व्रतने) अव्रतनी दशा अपेक्षा सारो कह्यो छे. अहाहा...! जेने सम्यग्दर्शनपूर्वक आनंदनी धारा विशेषताए प्रगटी छे तेने पांचमा गुणस्थानमां व्रत-पडिमा लेवानो विकल्प उठे छे अने ते यथार्थ व्यवहार छे; पण अज्ञानीने ए वात लागु पडती नथी, केमके तेने यथार्थ व्रत (सम्यग्दर्शनपूर्वकना) छे कयां? (व्यवहाराभास छे). आ तो-
चोथा गुणस्थानवर्ती सर्वार्थसिद्धिना देव करतां पांचमां गुणस्थानवर्ती श्रावकने व्रतना विकल्प वखते पण अंदर शांतिनी विशेष धारा होय छे, अने तेना विकल्पने छाया कहेवामां आवी छे. खरेखर तो त्यां अंतरमां आनंदरसनी धारा प्रगटी छे ते खरी छाया छे. साथे व्रतादिनो विकल्प होय छे तेने व्यवहारथी उपचारमात्र छाया कहेवामां आवे छे. आवी वात छे. ल्यो,
अहीं आ प्रमाणे ओगणीसमी परिणामशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
‘कर्मबंधना अभावथी व्यक्त करवामां आवता, सहज, स्पर्शादिशून्य (-स्पर्श, रस, गंध अने वर्णथी रहित) एवा आत्मप्रदेशोस्वरूप अमूर्तत्वशक्ति!
अहाहा...! ज्ञानलक्षणथी लक्षित भगवान आत्मामां एक अमूर्तत्व नामनी शक्ति छे. शुं कीधुं? जे इन्द्रियग्राह्य नथी, अतीन्द्रियज्ञान द्वारा ज जे जाणवामां-अनुभवमां आवे छे एवाभगवान आत्मानो, कहे छे, अमूर्तत्व स्वभाव छे, कर्मबंधना अभावथी तेनुं व्यक्तरूपे परिणमन थाय छे. समस्त कर्मोनो अभाव थईने सिद्धदशा प्रगटे छे त्यारे साक्षात् पूर्ण अमूर्तपणुं व्यक्त-प्रगट थाय छे. अने चोथे गुणस्थाने जेटलो कर्मबंधनो अभाव छे एटलुं आ अमूर्तत्वशक्तिनुं परिणमन थाय छे. अहाहा...! अनंत गुणोनो समुदाय प्रभु आत्मा छे. तेनी सन्मुखनी द्रष्टि-द्रव्यद्रष्टि थतां अनंत गुणोनो एक-एक अंश पर्यायमां प्रगट थाय छे, अने त्यारे भेगी आ अमूर्तत्वशक्ति पण अंशे व्यक्तरूपे परिणमे छे.
अहा! रागथी खसीने त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यनो आश्रय लेता अनंत गुणमां अंशे अमूर्तपणानुं व्यक्त परिणमन थाय छे, आत्मप्रदेशोरूप अमूर्तपणुं प्रगट थाय छे. एम आत्मा छे तो अमूर्त चीज, पण कर्मना संबंधथी तेने रूपी कहेवामां आवे छे. सम्यग्द्रष्टिने जे रागादि भाव छे तेने पण रूपी-मूर्त कहे छे. राग पुद्गलना परिणाम छे माटे ते रूपी छे. द्रव्यस्वभावनी द्रष्टिपूर्वक जेटली स्वरूपलीनता थाय छे तेटलो कर्मबंधनो अभाव थाय छे, ने तेटला प्रमाणमां रागना अभावरूप जे शुद्धत्व-परिणमन व्यक्त थाय छे ते अमूर्तत्वशक्तिनुं परिणमन छे. साधकने भले पूर्ण प्रगट न थाय तोपण अंशे अमूर्तत्वशक्तिनुं व्यक्तरूपे परिणमन थाय छे, अने ते परिणमन स्पर्श-रस-गंध- वर्णथी रहित होय छे.
आस्रव अधिकारमां आ वात लीधी छे. चोथा गुणस्थाने द्रव्यद्रष्टि थतां जेटला अंशे शुद्धि प्रगट थाय छे तेटला अंशे त्यां कंपननो अभाव थईने अजोगपणुं व्यक्त थाय छे. ते ज प्रमाणे अमूर्तत्वशक्तिनुं पण व्यक्त परिणमन चोथा गुणस्थानमां थाय छे. निष्क्रयत्वशक्तिनुं वर्णन हवे पछी आवशे. आत्मानो अनुभव थतां ज्ञानीने पर्यायमां अंशे निष्क्रियत्व शक्तिनुं परिणमन थाय छे, त्यां अकंपदशा थाय छे. आवी वात!
आ बधो अभ्यास करवो जोईए भाई! तिर्यंचने सम्यग्दर्शन थाय छे पण तेने बीजा शल्य होता नथी. (शरीरादिमां) एकत्वबुद्धिनुं एक ज शल्य होय छे अने ते थतां छूटी जाय छे. अहीं मनुष्यपणामां तो घणा
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शल्य अने घणा बधा विपरीत आग्रह होय छे. माटे ते अनेकविध शल्यने दूर करवा सारु अनेक प्रकारे तत्त्वाभ्यास करी साचुं ज्ञान करवुं जोईए.
अहा! ज्ञानस्वरूपी आत्मा सदाय अमूर्त ज छे; अमूर्तत्व ए तेनो स्वभाव छे ने ते गुणपर्यायमां व्यापे छे; जेथी तेना गुणो अमूर्त अने पर्यायो पण अमूर्त छे. अरे भाई! ज्ञानमात्र भावमां मूर्तपणानो प्रवेश ज नथी, तेमां कर्मनो संबंध ने देहनो संबंध कयांय आवतो नथी. अहा! अशरीरी चैतन्यबिंब-बीनमूरत चिन्मूरत प्रभु-तेने मूर्त देहना संबंधथी ओळखवो ए तो कलंक छे, मिथ्याभाव छे. अरे भाई! पोतानी अनंत चैतन्यशक्तिमां भगवान आत्माए मूर्तपणाने-देहने, कर्मने ने रागादि विकारने कदी ग्रह्यां ज नथी; ए तो सदाय अमूर्तपणे शोभी रह्यो छे. हमणां पण शुद्धनयथी जोतां आत्मा कर्मना संबंध रहित अबद्ध-अस्पृष्ट अने रागना संबंध रहित छे. धर्मी जीव अंतर्द्रष्टि वडे पोताना आत्माने कर्मना संबंध वगरनो अमूर्त अनुभवे छे. अहाहा...! त्रिकाळी द्रव्य-भगवान आत्मा त्रिकाळ अमूर्त अने तेनी स्वभावद्रष्टिमां जे निर्मळ पर्याय प्रगटी ते पण अमूर्त-देह, कर्म अने वर्णादिभावोथी रहित छे. तथापि अत्यारे तो आत्मा कर्मना संबंधवाळो छे, देहवाळो छे, मूर्त छे, विकारी छे एम ज जे अनुभव्या करे छे ते आत्मा-अनात्माना विवेकरहित मिथ्याद्रष्टि छे.
तो शास्त्रोमां जीवने मूर्त पण कह्यो छे ने? हा, कह्यो छे; संसारदशामां जीवने मूर्त कर्मो साथे निमित्त संबंध छे तेथी तेनुं ज्ञान कराववा उपचारथी तेने मूर्त कह्यो छे; तोपण निश्चयथी जेनो सदाय अमूर्तस्वभाव छे अने उपयोगगुण वडे जे समस्त अन्य द्रव्योथी अधिक छे एवा जीवने वर्णादिरूप मूर्तपणुं जराय नथी. समयसार गाथा ६२मां, वर्णादि भावो साथे जीवनुं तादात्म्य माननारने कह्युं छे-“हे मिथ्या अभिप्रायवाळा! जो तुं एम माने के आ वर्णादिक सर्व भावो जीव ज छे”-अर्थात् जीव मूर्त ज छे, “तो तारा मतमां जीव अने अजीवनो कांई भेद रहेतो नथी.” वळी संसारी जीवो मूर्त छे एम जो तुं कहे तो मूर्त तो पुद्गल ज होय छे तेथी तारी मान्यतामां पुद्गल ज जीव ठर्यो, जुदो जीव तो रह्यो नहि; मोक्षदशामां पण मोक्ष तो पुद्गलनो ज थयो. माटे न्याय तो आ ज छे के मोक्षदशामां के संसारदशामां भगवान आत्मानो सदा अमूर्त-स्वभाव ज छे. (जुओ समयसार गाथा ६३-६४).
अहीं ‘कर्मबंधना अभावथी व्यक्त करवामां आवता... आत्मप्रदेशोस्वरूप अमूर्तत्वशक्ति’-एम कहीने त्रिकाळी शक्ति अने तेनी निर्मळ पर्याय बतावी छे; तेम ज संसारदशामां कर्मबंधनुं निमित्तपणुं छे एम पण बताव्युं छे. आत्माने संसारदशा छे त्यारे तेना निमित्तरूप कर्मनो संबंध पण छे, पण ते कृत्रिम उपाधिरूप छे, ने ते अभूतार्थ छे, जे जीव पोतानी अवस्थानी अशुद्धताने तथा तेना निमित्तने जेम छे तेम जाणी, तथा पोतानी शक्तिने ओळखी, शक्तिवान निज आत्मद्रव्यना आश्रये परिणमे छे तेने अशुद्धता टळी शुद्धता प्रगटे छे, ने त्यारे कर्मबंधना अभावपूर्वक आत्मप्रदेशो सहज-स्वाभाविक अमूर्तपणे व्यक्त थाय छे. आम सहज स्पर्शादिशून्य आत्मप्रदेशोस्वरूप अमूर्तिकपणुं त्रिकाळ छे ते पर्यायमां व्यक्त थाय छे. आवी वात! समजाणुं कांई...? ‘समजाणुं कांई...? ’ -एटले कई पद्धतिए कहेवाय छे तेनो ख्याल आवे छे के नहि? बाकी वास्तविक समजण करी अंतर-अनुभव करे ए तो न्याल थई जाय, एने आत्मा प्रत्यक्ष थई जाय एवी आ वात छे
अहा! चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मा सदाय अमूर्त छे, ने आ शरीर तो मूर्त ज छे. अत्यारे पण बन्नेनां लक्षण जुदां छे. अहा! आम लक्षणभेद वडे बन्नेनी भिन्नता जाणीने हे भाई! तुं मूर्त शरीरनो पाडोशी थई जा. अहाहा...! जेवा सिद्ध प्रभु अमूर्त, तेवो ज तुं अमूर्त छो. माटे मूर्त शरीरनी क्रियाथी भिन्न एवा तारा चैतन्यस्वरूपने जाण. आ इन्द्रियादि मूर्त पदार्थो तारा कांई नथी. माटे त्यांथी लक्ष हठावी, उपयोगने स्वस्वरूपमां जोडी दे. अरेरे! विज्ञानघन प्रभु आत्मा मूर्त कलेवरमां मूर्छाई जाय ए तो महा कलंक ने महा विपरीतता छे.
भाई! यथार्थ समज्या विना (एकांते) कर्मथी राग थाय, ने रागथी-शुभरागथी धर्म थाय एम तुं माने पण ते बराबर नथी. जो कर्मथी राग थाय तो कर्म-पुद्गल ज संसार थयो, पण संसार तो जीवनी विकारी पर्याय अर्थात् विभाव दशा छे, अने ते पोतानी योग्यताथी थई छे, कर्मने लईने नहि. तथा जो शुभरागथी धर्म थाय तो शुभराग ज धर्म ठर्यो, पण धर्म तो वीतरागतारूप छे. अहा! आ प्रमाणे यथार्थ तत्त्वद्रष्टि थया विना, आत्मभान विना कोई मुनिपणुं-द्रव्यलिंग बहारमां अंगीकार करे, पण तेथी शुं? श्री प्रवचनसारमां तेने संसारतत्त्व कह्युं छे. द्रव्यलिंग धारण करे, पंच
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महाव्रतादि पाळे, छतां जो वस्तुस्वरूपने बीजी रीते माने तो एवा नग्न दिगंबर जैन साधुने प्रवचनसारनी गाथा २७१मां संसारतत्त्व कहेल छे. राग अने पुण्यना भावने पोताना माननारने, हितरूप माननारने मोक्ष के मोक्षनो मारग होतो नथी; ते तो संसारी ज छे; अने कर्मना संबंधे परिणमे ते पण संसारी ज छे.
अरे भाई! आत्मानी पर्यायमां विकार छे, कर्मनो संबंध छे-एम जाणवुं ते व्यवहार छे, अने चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मा विकार ने बंधनथी रहित छे एवा एना चिन्मात्र स्वभावने जाणवो ते निश्चय छे. त्यां जे जीव एकांते व्यवहारने ज स्वीकारी तेना आश्रयमां अटकी रहे छे ते संसारी मिथ्याद्रष्टि छे; ने जे जीव चिन्मात्र शुद्ध आत्मद्रव्यनो आश्रय करे छे ते सम्यग्द्रष्टि छे, धर्मात्मा छे; तेने शुद्ध द्रव्यना आश्रये पर्याय निर्मळ-निर्मळ थती जाय छे, अने कर्म साथेनो संबंध मटतो जाय छे, ने क्रमे साक्षात् सिद्धदशानी प्राप्ति थाय छे. त्यां आत्मानो अमूर्तस्वभाव पूर्ण खीली जाय छे. आवो मारग छे भाई! योगसारमां योगीन्दुदेवे कह्युं छे ने के-
शरमजनक जन्मो टळे, पीए न जननीक्षीर.
भाई! भवथी छूटवुं होय, अशरीरी थवुं होय तो ध्यान वडे तारा अंतरमां अशरीरी ज्ञानस्वभावने देख; तेने ध्यातां परम सुखमय अशरीरी सिद्धदशा थशे; पछी फरीवार बीजी मातानुं दूध नहीं पीवुं पडे.
आ प्रमाणे वीसमी अमूर्तत्वशक्ति पुरी थई.
‘समस्त, कर्मथी करवामां आवता, ज्ञातृत्वमात्रथी जुदा जे परिणामो ते परिणामोना करणना उपरमस्वरूप (ते परिणामोना करवानी निवृत्तिस्वरूप) अकर्तृत्वशक्ति. (जे शक्तिथी आत्मा ज्ञातापणा सिवायना, कर्मथी करवामां आवता परिणामोनो कर्ता थतो नथी, एवी अकर्तृत्व नामनी एक शक्ति आत्मामां छे.)’
जुओ, कर्मना निमित्ते, कर्मना निमित्तना आश्रयथी करवामां आवता जे रागादि परिणाम तेनो कर्ता आत्मा नथी. आठ कर्मना निमित्ते जे शुभाशुभ परिणाम थाय छे ते सघळा ज्ञातृत्वमात्रथी जुदा परिणाम छे, अनात्म परिणाम छे, अस्वभावभावो छे; भगवान आत्मा तेनो कर्ता नथी. ओहो! समकितीने जे स्वरूपनां निर्मळ ज्ञान- श्रद्धान प्रगट थयां छे तेना भेगुं रागादिनुं अकर्तृत्व पण प्रगटयुं ज होय छे, जेथी ज्ञानी-धर्मी जीव रागादिनो कर्ता थतो नथी. अहा! आवो आत्मानो अकर्ता स्वभाव छे.
अहा! आत्मामां अकर्तापणानो एक गुण छे. तेनुं कार्य शुं? के कर्मना निमित्तना आश्रये उत्पन्न थयेला पुण्य-पापना विकारी भाव तेने करे नहि, करवानी निवृत्तिस्वरूप परिणमे ते एनुं कार्य छे. बस, विकारथी निवर्तवुं... निवर्तवुं... निवर्तवुं ने स्वरूपमां-ज्ञानस्वभावमां ठरवुं ज ठरवुं ए एनुं कार्य छे. अहा! सिद्ध परमात्मानुं जे कार्य नथी ते (-विकार) भगवान आत्मानुं कार्य नाम कर्तव्य नथी. आवो ज आत्मानो अकर्तृत्व स्वभाव छे.
प्रश्नः– तो शुं ज्ञानी-धर्मी पुरुषने राग होतो ज नथी. उत्तरः– भाई! एम वात नथी. अस्थिरताना काळमां धर्मीनेय यथासंभव शुभाशुभ होय छे, पण तेनुं श्रद्धान-ज्ञान आम छे के आ विकार मारुं स्वरूप नथी, मारुं कर्तव्य नथी. हुं तो एक ज्ञानानंदस्वरूप प्रभु ज्ञायक छुं, ने तेमां ठरुं ए ज मारुं कर्तव्य छे. आम पर्यायमां ज्ञानीने दया, दान आदि रागना परिणाम छे, पण तेनुं एने कर्तृत्व नथी. ज्ञान साथे रागनुं अकर्तापणुं नियमथी ज्ञानीने प्रगट थयुं ज होय छे. समजाणुं कांई...?
त्यारे कोई वळी कहे छे-आत्मा कर्मने करे ने कर्मने भोगवे. अरे, तुं शुं कहे छे आ भाई? अनंतगुणनिधान प्रभु आत्मामां एवी कोई शक्ति ज नथी जे कर्मने करे ने कर्मने भोगवे. ए तो अज्ञान द्रष्टिमां ज तने कर्मनुं कर्तापणुं भासे छे, बाकी स्वभावद्रष्टिवंतने तो आत्मा अकर्ता ज छे, अभोक्ता ज छे. राग करवो ए आत्मानुं स्वरूप ज नथी.
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जुओ, नीचे नरक गति छे. नरकनी भूमिमां वैतरणी नामनी नदी छे. ते नदीनुं पाणी अग्निनी ज्वाळा जेवुं उष्ण छे. परमाधामी देवो नारकी जीवोने ते नदीना पाणीमां फेंके छे. अररर! केटली पीडा! अहीं मोटा राजा होय ते हिंसादि कुकर्मो वडे मरीने नरकमां जाय छे. त्यां उपजवानां भमरीना दर जेवां बील होय छे. त्यांथी पटकाईने नीचे पडे तेनी वेदनानुं शुं कहेवुं? पारावार असह्य वेदना होय छे. श्रेणिक राजा क्षायिक समकित सहित पहेला नरकमां गया छे. त्यां दुःखना परिणाम थाय तेना तेओ कर्ता नथी, भोक्ता नथी. ज्ञानीने तो जाणवा-देखवारूप परिणाम थाय छे अने तेना तेओ कर्ता छे. ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि होवाथी, पर्यायमां कर्मना निमित्ते जे विकारी भाव थाय छे तेना तेओ मात्र ज्ञाता-द्रष्टा छे, कर्ता नथी. जाणवा-देखवाना परिणाम थाय ते ज्ञानीनुं कर्म अने तेना ज्ञानी कर्ता छे, साथे व्यवहार-राग छे तेना ज्ञानी कर्ता नथी. भाई! साचा देव-गुरु-शास्त्रनी भेदरूप श्रद्धाना परिणाम ते राग छे, ते परिणाम मिथ्यात्व नथी, पण तेने धर्म मानवो ते मिथ्यात्व छे. खानिया तत्त्वचर्चामां आ प्रश्न चर्चायो छे.
प्रश्नः– देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो भाव शुं मिथ्यात्व छे? उत्तरः– ना, बीलकुल नहि; देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो भाव ते शुभभाव छे, ते मिथ्यात्व नथी; ते धर्म पण नथी, तेने धर्म मानवो ते मान्यता मिथ्यात्व छे. पं. फूलचंदजीए जवाब आपी बराबर खुलासो कर्यो छे. देव-गुरु- शास्त्र छे ते परद्रव्य छे. तेमना प्रति लक्ष जाय ते भाव शुभ छे. ते भाव ज्ञानीने पण आवे छे, पण तेने ते धर्म मानता नथी. अरे भाई! देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धा-भक्ति-विनय होय ए जुदी वात छे अने तेमना प्रत्येनी श्रद्धाना रागने धर्म मानवो ए जुदी वात छे.
द्रव्यसंग्रहनी गाथा ४७मां कह्युं छे के ज्ञायकभावनुं ध्यान करतां जे निर्विकल्प दशा थई ते निश्चय मोक्षमार्ग छे, तथा साथे जे राग रह्यो तेने आरोपथी व्यवहार मोक्षमार्ग कह्यो छे. आ प्रमाणे व्यवहारनो राग होय छे पण तेनो आत्मा कर्ता नथी. अहाहा...! रागना अकर्तापणे परिणमे एवो आत्मानो सहज अकर्ता स्वभाव छे. रागना कर्तापणे परिणमे एवी आत्मामां कोई शक्ति ज नथी. आवी वात!
हवे आवुं समजवानी एने कयां फुरसद छे? ए तो बस खावुं, पीवुं, खेलवुं ने बैरां-छोकरांने राजी राखवामां रोकाई गयो छे. अने तेमां कांईक धन-पांच पचास लाखनुं कमाय एटले राजी राजी थई जाय ने फूलाई जाय. पण ए तो बधी पुद्गलनी चीज; धूळ छे बापु! खाय, पीवे ने कमाय-ए बधी तो पृथक्भूत पुद्गलनी क्रिया छे, तेनो कर्ता आत्मा नथी तथा ते पदार्थोना लक्षे जे रागनी वृत्तिनुं उत्थान थाय तेनो पण कर्ता आत्मा नथी. आत्मा तो तेनो ज्ञाता-द्रष्टा छे, कर्ता नहि. परना लक्षे राग थाय तेने पण शास्त्रमां पुद्गलना परिणाम कह्या छे, तेनुं कतृत्व आत्माने नथी अर्थात् तेने न करवा एवी अकर्तृत्व नामनी आत्मानी शक्ति छे.
अरे भाई! आ देह तो जोतजोतामां फू थईने उडी जशे. देहनी स्थिति कयारे पूरी थशे ते कोण जाणे छे? माटे जगतनी जंजाळ अने देहनी संभाळ एक कोर मूकीने आत्मानी-पोतानी संभाळ कर. जगतनुं कांई काम करवुं ने देहने ठीक राखवो ए तो तारा अधिकारनी वात नथी. माटे जूठा विकल्पथी विराम पामी निज शक्तिनी संभाळ कर; तेमां ज आ उत्तम अवसरनी सार्थकता छे. आमां त्रण वातनो निश्चय थाय छे.
१. पृथक्भूत परद्रव्यनुं कर्तृत्व आत्माना द्रव्य-गुण-पर्यायमां कोई प्रकारे नथी. २. स्वभावथी तो विकारनुं पण आत्माने अकर्तृत्व ज छे. हुं करुं छुं-एवी मिथ्या मान्यताने कारणे अज्ञानी
परिणमे छे).
३. स्वस्वरूपनी संभाळ करीने जे स्वसन्मुख थई निर्मळ-निर्मळ परिणमे छे ते ज्ञानी विकारनो साक्षात्
अरे भाई! आ अवसरमां स्वाध्याय वडे यथार्थ तत्त्वनिर्णय करवो जोईए.
जुओ, शास्त्र-स्वाध्यायनो भाव आवे ते शुभ विकल्प छे, तथापि प्रवचनसारमां स्वभावना लक्षे आगमनो अभ्यास करवानुं कह्युं छे. समयसारनी पहेली ज गाथामां श्री कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे-केवळी, श्रुतकेवळीनुं कहेल समयप्राभृत हुं कहुं छुं, ते हे शिष्य! तुं सांभळ; केवी रीते? के अनंत सिद्धोनुं तारी पर्यायमां स्थापन करीने सांभळ. में तो अनंत सिद्धोनुं मारी पर्यायमां स्थापन कर्युं छे, तुं पण अनंत सिद्धोनी तारी पर्यायमां स्थापना करीने समयसार नाम शुद्ध आत्मा
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-तेने कहेनारुं आ समयसार शास्त्र सांभळ. सिद्धनी पर्याय तो एक समयनी छे, पण पोतानो आत्मा अनंत अनंत सिद्ध पर्यायोनो पिंड छे ने! अहा! एवा स्वरूपनी तुं आ वात सांभळ. अहाहा...! ‘वंदित्तु सव्वसिद्धे’ नो आवो अर्थ छे. अहाहा...! अनंत सिद्धोनुं पर्यायमां स्थापन करे त्यां पोतानी द्रष्टि त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य भणी जाय छे.
अहीं कहे छे. -शुभाशुभ रागना परिणाम ज्ञातृत्वथी भिन्न छे ने ते परिणाम कर्मथी करवामां आवे छे. पण भगवान आत्मा तेनो कर्ता नथी. केमके आत्मा ते परिणामोना करवानी निवृत्तिस्वरूप अकर्तृत्वस्वभावी छे. अहाहा...! आत्मा ज्ञातापणा सिवायना, कर्मथी करवामां आवता शुभाशुभ परिणामोनो कर्ता थतो नथी, एवो ज एनो अकर्तृत्व स्वभाव छे. जे भावथी तीर्थंकर नामकर्मनी प्रकृतिनो बंध पडे ते भावनो कर्ता आत्मा नथी, तेनो मात्र ज्ञाता-द्रष्टा छे. कर्मकृत परिणामोनो आत्मा जाणनार छे, कर्ता नथी.
अहीं शुभाशुभ विकार थाय छे तेने कर्मकृत कह्या तेथी ते कर्मथी नीपजे छे एम अर्थ नथी. विकारभाव तो जीव पोते स्वतंत्रपणे करे छे, पण कर्म-निमित्तने आधीन थई विकारने करतो होवाथी तेने कर्मकृत कह्या छे. बाकी कर्म तो बिचारां जड छे, ते शुं करे? पूजानी जयमालामां आवे छे ने के-
अगनि सहे घनघात, लोहकी संगति पाई.
तो गोम्मटसारमां ज्ञानावरणथी ज्ञान रोकाय इत्यादि आवे छे ने? हा, पण ए तो निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटेनुं निमित्तपरक कथन छे. ज्ञान कांई ज्ञानावरणीय कर्मना उदय वडे रोकाई गयुं छे एम नथी. ज्ञाननी हीनदशानुं होवुं ए तो पोतानी ज योग्यताथी छे, कर्म तो निमित्तमात्र छे. विकार कर्मनुं निमित्त होतां थाय छे तेथी तेने कर्मकृत कहेवामां आवे छे.
सम्यग्द्रष्टिने जे किंचित् राग थाय छे ते पोतानी योग्यताथी कमजोरीवश थाय छे, पण स्वभावद्रष्टिवंत ज्ञानी तेना कर्ता नथी, केमके विकारने करे नहि एवो आत्मानो अकर्ता स्वभाव छे. अहाहा...! राग थाय ते ज्ञायकथी भिन्न परिणाम छे; अने ज्ञातृत्वमात्रथी जुदा जे परिणाम छे ते परिणामोना करणना उपरमस्वरूप भगवान आत्मानो अकर्ता स्वभाव छे.
त्यारे कोई वळी कहे छे-आपणने आतमा-फातमा कांई समजाय नहि, आपणे तो पुण्य कर्या करवां ने स्वर्गादिनां सुख भोगववां बस.
अरे भाई! अंदर तुं सुखनिधान ज्ञाता-द्रष्टास्वरूप भगवान छो तेनो ईन्कार करीने पुण्यना फळनी होंश- मीठाश करी रह्यो छो, पण तेमां तो अनंत संसाररूपी वृक्षना मिथ्यात्वरूप मूळियां पडयां छे. अहीं कहे छे-पुण्य परिणाम भगवान ज्ञायकथी भिन्न छे, अने तेना करणना उपरमस्वरूप भगवान आत्मानो अकर्ता स्वभाव छे. हवे पोताना आवा स्वभावने ओळख्या विना पुण्य ने पुण्यकर्मनी होंश तुं कर्या करे छे. पण अनादि संसारमां पुण्य अने पुण्यकर्मनो काळ अत्यंत अल्प होय छे; मिथ्यादशामां अनंत अनंत काळ तो जीवनो पाप अने पापना फळरूप दुःखमां ज व्यतीत थाय छे. समजाय छे कांई...?
एक अजाण्या गृहस्थ थोडा वखत पहेलां आवेला. ते कहे-“हुं तीर्थंकर छुं, चार घातिकर्मनो मने क्षय थयो छे, चार अघातिकर्म बाकी छे.” पछी थोडी वार पछी ते कहे-“मारी पासे पैसा नथी, मारा माटे सगवड करी आपो.” जुओ, आ विपरीतता! तेने कह्युं-भाई! आ तो तद्न विपरीत द्रष्टि छे, केमके वस्त्र सहित मुनिपणुं होई शके नहि, पछी केवळज्ञान थई जाय, अने चार घातिकर्मनो क्षय थई जाय ए तो संभवे ज कयांथी? हवे आवुं ने आवुं-घणुं बधुं विपरीत-माननारा जगतमां घणा पडया छे!
अहाहा...! आत्मा अनंत शक्तिनो पिंड, अनंत गुणरत्नोथी भरेलो भगवान रत्नाकर छे. तेनो अंतरसन्मुख थई अनुभव थतां साथे अतीन्द्रिय आनंदनी लहर उठे छे; आनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. जुओ, ‘चारित्तं खलु धम्मो’- चारित्र खरेखर धर्म छे, अने ‘दंसण मूलो धम्मो’ -धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे. एटले शुं? के सम्यग्दर्शन छे ते चारित्रनुं मूळ छे; सम्यग्दर्शन विना चारित्र होतुं नथी. सम्यग्दर्शन विना कोई बहारमां व्रत, तप करो तो करो, पण ए कांई नथी, थोथां छे; अर्थात् भगवाने तेने बाळव्रत अने बाळतप कह्यां छे.
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अहाहा...! स्वस्वरूपनी रमणतारूप चारित्र तो कोई अलौकिक चीज छे भाई! निजानंद-ज्ञानानंदस्वरूपमां रमवुं, चरवुं, ठरवुं एनुं नाम चारित्र छे. प्रचुर अतीन्द्रिय आनंदनुं ज्यां भोजन छे एनुं नाम चारित्र छे. ए तो कोई परम पारलौकिक दशा बापु! चारित्र कोने कहीए? अहो! धन्य ए चारित्र दशा ने धन्य अवतार! सम्यग्द्रष्टिने आ चारित्रदशा पूजनीक छे. अहाहा...! अभेद रत्नत्रयस्वरूप भगवान आत्मा अनंतगुण-रत्नाकर छे; तेना सन्मुखनी द्रष्टि करी तेनो स्वसंवेदनमां अनुभव करवो ते सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान छे, अने ते महा महिमावंत मोक्ष दशानुं प्रथम सोपान छे. छहढालामां आवे छे ने के-
सम्यक्ता न लहै सो दर्शन, धारो भव्य पवित्रा.
अध्यात्म पंचसंग्रहमां पं. दीपचंदजीए कह्युं छे के-अभव्य जीवने ज्ञान होय छे पण ज्ञाननी परिणति होती नथी. एटले शुं? अहाहा...! अंदर ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मा छे तेनुं स्वसंवेदन ज्ञान थाय तेने ज्ञान परिणति कहे छे. अभविने ११ अंग अने नव पूर्वनुं ज्ञान थाय छे, पण तेने ज्ञाननी परिणति थती नथी. ओहोहो...! अगियार अंगनुं ज्ञान कोने कहीए? एक आचारांग शास्त्रना १८००० पद छे, अने एक पदना प१ करोड झाझेरा श्लोक छे. बीजा सूयडांगना एनाथी बमणा, एम बमणा बमणा करतां ११ अंग सुधी लेवुं. आ उपरांत नव पूर्वनुं ज्ञान होय छे. आवुं ज्ञान कांई अभ्यास करवाथी प्रगटतुं नथी. ए तो सहजपणे ए जातनी लब्धि प्रगटे छे. सात द्वीप अने सात समुद्र देखे एवुं विभंग ज्ञान पण अभविने प्रगट थाय छे; परंतु तेने ज्ञाननी परिणति नथी. अहा! जेमां निज ज्ञायकस्वभावनुं निर्मळ ज्ञान-श्रद्धान थाय तेवी ज्ञाननी परिणति तेने नथी.
अहाहा...! शक्ति अने शक्तिवानना भेदनुं लक्ष छोडीने, सच्चिदानंदस्वरूप अंदर आत्मा निर्विकल्प अभेद एक बिराजे छे तेने ज्ञानमां ज्ञेय बनावी, तेनां निर्मळ ज्ञान-श्रद्धान करवां तेनुं नाम ज्ञान परिणति छे. अहाहा...! आवुं निज आत्मानुं ज्ञान थतां ज्ञाननी परिणतिनी साथे अनंत शक्तिओ पण भेगी व्यक्त थईने पर्यायमां उछळे छे, उदित थाय छे. आनुं नाम आत्मज्ञान छे, अने ते ज्ञानमां अहीं कहे छे, रागनुं कर्तापणुं नथी. ज्ञान साथे भेगो अकर्ता स्वभाव उछळे छे ने! तेथी ज्ञानी रागनो कर्ता नथी, मात्र ज्ञाता छे. आवी वात!
जुओ, मध्यलोकमां असंख्यात द्वीप-समुद्रो छे. तेमां छेल्लो स्वयंभूरमण नामनो समुद्र छे. तेनो विस्तार असंख्य जोजनमां छे. तेमां नीचे रेती नथी, रत्नो भर्यां छे. तेम भगवान आत्मा-अखंड एकरूप चैतन्य महाप्रभु- अनंत चैतन्य-रत्नोनो भंडार छे, स्वयंभू चैतन्यरत्नाकर छे. प्रवचनसारनी गाथा १६मां तेने स्वयंभू कहेल छे. अहाहा...! तेनी द्रष्टि करी अंदर झुकवाथी अर्थात् तेमां तन्मय थई परिणमवाथी अनंत गुणरत्नो पर्यायमां निर्मळ- निर्मळपणे व्यक्त थई उछळे छे. अहा! ते पर्यायो क्रमरूपे प्रवर्ते छे. अहीं शुद्ध पर्यायोनी वात लेवी, केमके शक्तिना अधिकारमां अशुद्ध पर्यायनी वात ज नथी.
नियमसारनी गाथा ३८मां पर्यायथी रहित त्रिकाळी जे एक ज्ञायकभाव छे तेने आत्मा कह्यो छे. त्यां द्रव्यद्रष्टिनो विषय एवुं त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य सिद्ध करवुं छे. ज्यारे अहीं त्रिकाळी ध्रुव एक ज्ञायकनां श्रद्धान-ज्ञान थतां जे पर्यायोमां अनंत शक्तिओनुं परिणमन थयुं ते पर्यायो अने गुणोना समूहने आत्मा कह्यो छे. अहीं द्रव्यनी शक्तिओ अने तेनुं परिणमन सिद्ध करवुं छे. तेथी द्रव्यमां अक्रमे प्रवर्तती शक्तिओ अने क्रमवर्ती पर्यायोनो समूह ते आत्मा एम कह्युं छे. आमां विकारी परिणमननी वात आवती नथी, केमके विकार ते शक्तिनुं कार्य नथी, पण कर्मना निमित्ते उत्पन्न थतो औपाधिकभाव छे; वास्तवमां तेनुं कर्तृत्व भगवान आत्माने नथी.
आ ४७ शक्तिओ कही छे ते बधी आत्मामां तो एक साथे छे, अहीं तेनुं वर्णन एक पछी एक कर्युं छे. तेम प्रवचनसारमां छेल्ले ४७ नयनो अधिकार छे. अने ते नयना विषयरूप धर्मो पण द्रव्यमां एकी साथे छे. शुं कीधुं? नित्य, अनित्य आदि बधा धर्मो एकी साथे छे. ने तेथी काळे मोक्ष थाय अने अकाळे मोक्ष थाय एम कह्युं छे छतां ते बन्ने धर्मो एकी साथे एक समयमां रहे छे. ते जातनी जे द्रव्य के पर्यायगत योग्यता छे तेने धर्म कहेल छे. नियतिनय अने अनियतिनयना विषयरूप बन्ने धर्मो पर्यायमां एक ज समये छे. स्वभावरूप पर्यायने नियत कीधी छे, ने विभावरूप पर्यायने अनियत कही छे. तेवी रीते क्रियानय अने ज्ञाननयनी पण त्यां वात करी छे;
“आत्मद्रव्य क्रियानये अनुष्ठाननी प्रधानताथी सिद्धि सधाय एवुं छे.”
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“आत्मद्रव्य ज्ञाननये विवेकनी प्रधानताथी सिद्धि सधाय एवुं छे.” आ बन्ने धर्मो आत्मामां एकी साथे छे. एक जीवने क्रियाथी मोक्ष थाय ने बीजा जीवने ज्ञानथी मोक्ष थाय एम बनतुं नथी. तेम ज जीवने कोईवार क्रियाथी अने कोईवार ज्ञानथी मोक्ष थाय एम पण बनतुं नथी. बन्ने धर्मो द्रव्यमां एकी साथे होय छे; मात्र विवक्षाभेद छे.
अहीं अकर्तृत्वशक्तिनुं वर्णन चाले छे. कर्मो द्वारा करवामां आवेला विकारी परिणामना करवाना अभावस्वरूप अकर्तृत्वशक्ति छे. विकारना परिणाम कर्म-निमित्तना आश्रये थाय छे तेथी कर्मो द्वारा करवामां आवेला परिणाम-एम कह्युं छे. विकार कांई स्वभावना आश्रये थतो नथी, ने आत्मामां विकार करवानो कोई स्वभाव-शक्ति नथी. पर्यायमां विकार थाय छे ते शक्तिनुं कार्य नथी. तेथी दया, दान आदि विकारना परिणामने कर्मथी करवामां आवेला परिणाम कह्या छे.
पंचास्तिकायनी गाथा ६२मां विकार पोतानी पर्यायना षट्कारकथी उत्पन्न थाय छे एम कह्युं छे. मतलब के एक समयनी पर्यायमां थती मिथ्यात्व अने रागद्वेषरूप विकृति पोतानी पर्यायना षट्कारकथी थाय छे, परना कारणे नहि ने पोताना द्रव्य-गुणना कारणेय नहि.
त्यारे समयसारनी कर्ताकर्म अधिकारनी गाथा ७प-७६-७७मां एम कह्युं छे के धर्मीने पोतानो पूर्ण स्वभावद्रष्टिमां आवतां जे निर्मळ परिणाम प्रगट थया छे ते तेनुं व्याप्य छे अने आत्मा तेनो व्यापक छे. परंतु तेने (-धर्मीने) जे विकार बाकी छे ते विकार तेनुं व्याप्य नथी. त्यां, विकार छे ते व्याप्य छे अने पुद्गल कर्म तेने व्यापक छे एम कह्युं छे. ए तो त्यां विकारथी भिन्न त्रिकाळी द्रव्य स्वभाव सिद्ध करवो छे माटे एम कह्युं छे. राग स्वभावभूत नथी, पुद्गल कर्मना संगमां थाय छे ने तेनो संग मटी जतां मटी जाय छे तेथी तेने पुद्गल कर्मनुं व्याप्यकर्म कह्युं छे.
कळश टीका, कळश ६८मां कह्युं छे के-राग-द्वेष-मोहना परिणाम व्याप्य छे अने मिथ्याद्रष्टि जीव तेमां व्यापक छे. तेथी ते मिथ्याद्रष्टि जीव अशुद्ध चेतनपरिणामोनो कर्ता छे. अज्ञानी जीव विकारमां तन्मय थईने परिणमे छे तेथी ते विकारनो कर्ता थाय छे. भाई! कई अपेक्षाथी कयां शुं कथन कर्युं छे ते ध्यानमां राखीने तेना अर्थ समजवा जोईए. अहीं कहे छे-विकारना परिणाम कर्म द्वारा करवामां आव्या छे. अहीं स्वभावना परिणामनुं वर्णन छे ने! तेथी विभावने कर्मना उदयना निमित्ताधीन भाव गणी तेने कर्मो द्वारा करवामां आवेला परिणाम कह्या छे. आम ज्यां जे अपेक्षाथी कथन होय त्यां ते यथार्थ समजवुं जोईए. शास्त्रमां आवे छे के दरेक कथनना पांच प्रकारथी अर्थ करी तेने यथार्थपणे समजवुं. १. शब्दार्थ, २. आगमार्थ, ३. मतार्थ, ४. नयार्थ, अने प. भावार्थ-आम पांच प्रकारे अर्थ करी कथनने यथार्थ जाणवुं.
भगवान आत्मा शुद्ध ज्ञायकमात्र वस्तु छे. तेना सन्मुखनो अनुभव थतां ज्ञान अने आनंदनी निर्मळ दशा प्रगट थाय छे, तेना भेगी अनंत शक्तिओ पण उछळे छे, पण विकारना परिणाम भेगा समाता नथी, केमके विकार परिणामना उपरमस्वरूप भगवान आत्मानो अकर्ता स्वभाव छे. अक्रमे प्रवर्तता गुणो ने क्रमवर्ती निर्मळ पर्यायो-ए बन्नेनो समुदाय तेने अहीं आत्मा कह्यो छे. दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजाना परिणाम कर्मथी करवामां आवेला विकृत परिणाम छे, ते ज्ञातृत्वमात्रथी भिन्न परिणाम छे अने तेनाथी (तेने करवाथी) ज्ञानी निवृत्तस्वरूप छे; अर्थात् ज्ञानी ज्ञातापणा सिवायना कर्मथी करवामां आवता परिणामोनो कर्ता नथी.
प्रश्नः– आमां तो आप पुण्यने उडावो छो? उत्तरः– एम नथी भाई! आमां तो विकार रहित तारा एक ज्ञायकस्वभावनी प्रसिद्धि थाय छे. तारा स्वभावनो महिमा लावी प्रसन्न था. स्वभावनी समजणना काळे तने जे पुण्य बंधाशे ते पण बहु उंचां हशे. वळी निज स्वभावने समजीने पुण्य-पापना विच्छेदरूप परिणमे तो तो शुं वात छे! तो वीतरागता ने केवळज्ञान थशे; अने ते तो कर्तव्य ज छे, इष्ट ज छे. समजाणुं कांई...?
अहाहा...! अनंत शक्तिना धारक भगवान आत्मानी अंतर्द्रष्टि करी तेनो ज्यां आश्रय लीधो त्यां धर्मी विकारना-रागना परिणामथी निवृत्तस्वरूप छे; विकारमां ज्ञानी प्रवृत्तस्वरूप नथी; माटे ज्ञानीने विकारनुं कर्तृत्व नथी. मारग बहु जुदो छे भाई! अहाहा...! जेना फळमां अनंत काळ पर्यंत रहे एवा अनंत चतुष्टय-अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख ने अनंत वीर्य प्रगटे अहाहा...! तेनो उपाय कोई अनुपम अलौकिक होय छे. अहाहा...! आवो वीतरागनो लोकोत्तर मारग कोई महा भाग्यशाळी होय तेने प्राप्त थाय छे. बाकी लोको तो व्रत करो ने दान करो ने तप करो-एम पुण्य
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करवामां मारग समजी संतुष्ट थाय छे, पण ए मारग नथी बापु! ए तो सघळो पराश्रयरूप व्यवहार, बंधनुं ज कारण छे.
अहाहा...! धर्मी-ज्ञानी एने कहीए के जे पराश्रयरूप व्यवहार-रागना करवाथी निवृत्तस्वरूपे ज्ञानमय परिणामे, आनंदमय परिणामे परिणमे छे. रागनो-व्यवहारनो पोताने जे कर्ता माने छे ते तो व्यवहारमूढ छे, मिथ्याद्रष्टि छे. अहा! व्यवहारना आश्रये मोक्षमार्ग नथी तेथी तो भगवाने व्यवहारना आश्रयनो निषेध कर्यो छे. जेम परने हुं करुं -एवो स्व-परनी एकतानो मिथ्या अध्यवसाय बंधनुं ज कारण छे तेम पराश्रित व्यवहारना भावोथी मोक्षमार्ग थशे एवी मान्यता पण मिथ्या छे ने ते बंधनुं ज कारण छे. भाई! आ भगवानना श्रीमुखेथी आवेली वात छे, आमां कयांय विरोध करवा जेवुं नथी.
धर्मी पुरुष व्यवहारना रागथी निवृत्तस्वरूप छे. परनी क्रिया थाय तेनो कर्ता आत्मा छे ए वात तो दूर रहो, रागना-व्यवहारना परिणामना करणथी-करवाथी आत्मद्रव्य निवृत्तिस्वरूप छे. सर्व परद्रव्यो नकामा अर्थात् कदीय कार्य विनाना नथी. प्रत्येक द्रव्य पोतानुं काम निरंतर करी ज रह्युं छे, कोई पण द्रव्य एक क्षणमात्र पण पोताना कार्य विनानुं होतुं नथी. माटे बीजो-अन्य द्रव्य तेनुं कार्य करे ए वात तो छे ज नहि; परंतु ज्ञानीने जे किंचित् राग छे तेनोय ते कर्ता नथी, मात्र ज्ञाता-द्रष्टा छे. ज्ञानीनी रीति-चाल बहु निराळी छे बापु! भजनमां आवे छे ने के-
प्रश्नः– तो प्रवचनसारमां नयोना अधिकारमां तेने कर्ता कह्यो छे ने? उत्तरः– हा, ज्ञानीने जेटलो राग छे तेटला ते परिणामनो, ज्ञान अपेक्षाए, कर्ता पण कह्यो छे. रागना परिणाम करवालायक छे एम नहि, ज्ञानीने कर्तृत्वबुद्धिथी रागनी प्रवृत्ति होती नथी; तथापि कमजोरीवश जेटलो राग छे तेटला रागनो, परिणमन अपेक्षाए ज्ञानीने त्यां कर्ता कह्यो छे. त्यां प्रवचनसारमां ज्ञानप्रधान शैलीथी वात छे. अहीं द्रष्टि अने द्रष्टिना विषयनी अपेक्षाए वात छे; तेथी अहीं ज्ञानी रागथी निवृत्तस्वरूप छे एम कह्युं छे. साथोसाथ रागनुं परिणमन छे एटलो ते कर्ता छे एम (कर्तृनये) ज्ञान अपेक्षाए समजवुं.
प्रवचनसारमां तो जेटलो राग छे तेटलो तेनो भोक्ता ज्ञानी छे एम पण कह्युं छे. ज्ञानीने जेटलो राग छे तेटलुं त्यां दुःखनुं वेदन पण छे. जुओ, श्रेणिक राजा आगामी चोवीसीना प्रथम तीर्थंकर थशे. वर्तमानमां नरकक्षेत्रमां छे. तेओ क्षायिक समकिती छे. तेओ त्यांथी (-नरकथी) नीकळी माताना गर्भमां अवतरण करशे त्यारे स्वर्गना इन्द्रो आवी मोटो उत्सव उजवशे. इन्द्र पण क्षायिक समकिती छे, एक ज भव करी मोक्ष जशे. छतां भगवाननी माताने स्तुति द्वारा कहे छे-हे माता! आप जगत्जननी, रत्नकूंखधारिणी छो. आ बाळकनुं जतन करीने, संभाळीने राखजो. हे माता!
माता! जतन करीने राखजो, तुम सुत अम आधार रे.
जुओ, समकिती इन्द्र भक्तिभावथी स्तुति करीने आम कहे छे के-हे माता! आपने मारा नमस्कार हो. अहा! आवो राग क्षायिक समकिती एकभवतारी इन्द्रने पण आवे छे, छतां ते रागना विकल्पथी खरेखर ज्ञानी निवृत्तिस्वरूपे परिणमे छे. रागना-विकल्पना तेओ ज्ञाता ज छे, कर्ता नहि. धंधा-पाणीनी क्रिया तो जडनी-जडस्वरूप छे, तेनो तो कर्ता आत्मा नथी, पण ज्ञानीने भगवान प्रत्ये जे भक्ति विनयनो विकल्प उठे छे तेनोय ते र्क्ता नथी, तेनाथीय ज्ञानी तो निवृत्तस्वरूप छे. अहो! मुनिराजने जे व्रतादिना विकल्प उठे छे तेना करवाथी तेओ निवृत्तस्वरूप छे. हवे आवी अंतरनी वात समज्या विना लोक तो व्रत, तप आदि करवामां मंडी पडया छे, पण ए बधी क्रियाओ तो थोथां छे भाई! एना कर्तापणे परिणमवुं ए तो मिथ्यादशा छे. समकितीने तो शुद्धतारूपे अकर्तृत्वशक्ति परिणमी छे अने ते रागना निवृत्तिस्वरूप छे; आ अनेकान्त छे.
रागथी धर्म थवानुं माने अने ज्ञाताद्रष्टा स्वभावना आश्रये पण धर्म थवानुं माने ते अनेकान्त नथी, स्याद्वाद नथी; ए तो फूदडीवाद छे. आत्मा पोताना निर्मळ परिणामनो कर्ता छे अने रागना-व्यवहारना कर्तृत्वथी निवृत्त छे-आ सम्यक् अनेकान्त छे.
तो पंचास्तिकायमां व्यवहार साधन कह्युं छे ने? हा, पंचास्तिकायमां भिन्न साधन-साध्यनी वात करी छे, पण ए तो बाह्य सहचर अने निमित्तनुं ज्ञान कराववा
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माटेनी वात छे. वास्तवमां भिन्न साधन-साध्य छे ज नहि. परमार्थे साधन बे नथी, पण शास्त्रमां साधननुं बे प्रकारे निरूपण कर्युं छे; जेम मोक्षमार्ग बे नथी, पण मोक्षमार्गनुं कथन शास्त्रमां बे प्रकारे छे तेम. मोक्षमार्ग तो त्रणेकाळ एक ज छे, वीतरागभावरूप एक ज मोक्षमार्ग छे. ते साथे सहचरपणे राग बाकी होय छे तेथी तेने आरोप दईने व्यवहारथी मोक्षमार्ग कह्यो छे, पण ते छे तो बंधनो ज मार्ग. ज्ञानी तो तेना कर्तृत्वथी निवृत्तस्वरूप ज छे.
अहा! अकर्तृत्वशक्ति परिणमे छे तेना भेगी अकार्यकारणत्वशक्ति पण परिणमे छे. तेथी शुभभाव कारण अने स्वानुभव थयो ते एनुं कार्य एम नथी. तथा निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रगट थयुं ते कारण अने व्यवहारनो शुभराग थाय ते एनुं कार्य एम पण नथी. भाई! आत्मा रागनुं कारणेय नथी, अने रागनुं कार्य पण नथी. तेम जे शुभराग छे ते ज्ञाननुं कारणेय नथी, अने ज्ञाननुं कार्य पण नथी. अहा! आ तो जैनदर्शननी अलौकिक वात! धर्म केम थाय ते समजवा माटे आ बधुं पहेलां जाणवुं जोईशे हों; आ समज्या विना धर्म थवो संभवित नथी.
भाई! शास्त्रमां कई पद्धतिथी शुं कह्युं छे ते बराबर समजवुं जोईए; पोतानी मति-कल्पनाथी उंधा अर्थ करशे तो द्रष्टि विपरीत थशे; अने तो शास्त्र-स्वाध्यायनुं साचुं फळ नहि आवे, संसार-परिभ्रमण ज रहेशे.
अहो! एकेक शक्तिने वर्णवीने आचार्यदेवे भगवान समयसार नाम शुद्धात्मा प्रसिद्ध कर्यो छे. एक शक्तिने पण यथार्थ समजे तो अनादिकालीन जे विकारनी गंध पेसी गई छे ते नीकळी जाय. अहाहा...! एकेक शक्ति जे एक ज्ञायकने प्रसिद्ध करे छे ते ज्ञायकनी द्रष्टि थतां अने तेमां ज ठरतां विकारनो अंत आवी जाय एवी आ वात छे. हे भाई! विकार कांई मारी चीज नथी एम जाणी विकारथी भिन्न निज ज्ञायकभावनी द्रष्टि कर, ने तेमां ज ठर, तेमां ज चर; जेथी आत्मानो अकर्तास्वभाव अंतरमां प्रगट थशे. भवभ्रमणनो नाश करवानी आ ज रीत छे भाई!
आ प्रमाणे अहीं अकर्तृत्वशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
‘समस्त, कर्मथी करवामां आवता, ज्ञातृत्वमात्रथी जुदा परिणामोना अनुभवना (-भोगवटाना) उपरमस्वरूप अभोक्तृत्वशक्ति.’
जुओ, अहीं एम कहे छे के-आहार, पाणी, स्त्रीनुं शरीर वगेरेनो भोक्ता तो आत्मा नथी, पण कर्मथी करवामां आवेला, ज्ञातृत्वमात्रथी जुदा एवा जे समस्त विकारी भाव छे तेनो पण जीव भोक्त नथी. अहा! आवो भगवान आत्मानो अभोक्तापणानो स्वभाव छे. ज्ञानीने भोगनी आसक्तिना परिणाम थाय, पण ते परिणामना भोगवटाथी ज्ञानी निवृत्तिस्वरूप छे. अहा! हरख-शोकना, साता-असाताना जे परिणाम छे ते ज्ञानीना ज्ञातापरिणामथी जुदा ज छे, ज्ञानी तेमां तन्मय थतो नथी, तेथी ज्ञानी तेनो भोक्ता नथी, मात्र ज्ञाता ज छे. जुओ, आ ज्ञानभाव साथेनुं अभोक्तृत्व स्वभावनुं परिणमन! पर्यायमां विद्यमान होवा छतां ते हरख-शोक आदि परभावनुं ज्ञानीने अभोक्तापणुं छे. अहो! आ तो स्वभावद्रष्टिनी कोई अद्भुत कमालनी वात छे. स्वभावनी परिणति थया विना न समजाय एवी आ अंतरनी अलौकिक वात छे. समजाणुं कांई...?
दाळ, भात, मोसंबीनो रस, रसगुल्लां इत्यादि जड, माटी, अजीव तत्त्व छे. ते रूपी पदार्थ छे. अरूपी एवो भगवान आत्मा तेनो भोक्ता नथी. रूपी पदार्थ तरफ लक्ष करीने आ चीज ठीक छे एवो राग जीव उत्पन्न करे, अने त्यां अज्ञानी एम माने के हुं शरीरादिने भोगवुं छुं, परचीजने भोगवुं छुं, पण ए तो एनी मिथ्या मान्यता छे, केमके परचीजने आत्मा त्रणकाळमां भोगवी शकतो नथी-जडने जो आत्मा भोगवे तो तेने जडपणुं आवी पडे.
कोई मोटो शेठ होय, भारे पुण्यना ठाठ वच्चे उभो होय, रूपाळो देह मणि-माणेकथी मढेलो होय ने घरे बाग-बंगला-बगीचा-मोटरो इत्यादि करोडोनी साह्यबीभर्यो वैभव होय, त्यां अज्ञानीने मोंमां पाणी वळे के-अहा! केवी साह्यबी ने केवो भोगवटो! आ शेठ केवा सुखी छे! पण भाई! आ तो तारी बहिद्रष्टि छे अने ते मिथ्या छे; केमके जड पदार्थोनो भोगवटो आत्माने छे ज नहि. सुखनो एक अंश पण तेमांथी आवे तेम नथी.
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अहीं तो धर्मी जीवनी वात छे. धर्मी जीवने स्वस्वरूपनी द्रष्टि थतां आत्मज्ञान प्रगट थयुं छे तेथी तेओ प्रगट अतीन्द्रिय आनंदना भोक्ता छे; तेमने किंचित् राग बाकी छे, पण ते रागना तेओ भोक्ता नथी. अहा! सिंह के शियाळियां फाडी खातां होय ते काळेय निजानंदरसलीन एवा मुनिराज आनंदना भोक्ता छे; किंचित्विषादना परिणाम ते काळे थाय, पण तेना तेओ भोक्ता नथी. अंदर अभोक्तृत्व स्वभाव प्रगटयो छे ने? तेथी ज्ञानी हरख-शोकना भोगववाना निवृत्तिस्वरूपे परिणम्या छे. आवी वात! अज्ञानीने देहाध्यास छे तेथी ज्ञानीनुं अंतरंग परिणमन तेने भासतुं नथी.
प्रश्नः– हा, पण तो रागने कोण भोगवे छे? उत्तरः– कोण भोगवे? रागने भोगवे रागी. रागना परिणाम पोताना षट्कारकथी पर्यायमां थाय छे, ने रागी जीवो तेमां तन्मय थई परिणमे छे; ज्ञानी तेमां तन्मय नथी, तेथी ज्ञानी रागना भोक्ता नथी. अहीं आ स्पष्ट कह्युं छे के-जीवनी अभोक्तृत्वशक्ति, राग-द्वेषादिना अनुभवथी उपरमस्वरूप छे. कोई पण परद्रव्यनो भोक्ता तो जीव त्रणकाळमां नथी, पण रागना भोगवटाथी पण उपरमस्वरूप जीवनो स्वभाव छे, तेथी स्वभावनियत ज्ञानी पुरुष रागना भोक्ता नथी.
त्यारे कोई पंडितोए इंदोरमां एक वार कहेलुं-“जीवने परद्रव्यनो कर्ता न माने ते दिगंबर नथी.” अरे, तुं शुं कहे छे आ? महान दिगंबराचार्यो-केवळीना केडायतीओ शुं कहे छे ए तो जो. अहीं आ स्पष्ट कह्युं छे के-आत्मा रागनो कर्ता-भोक्ता नथी. परना कर्ता-भोक्तापणानी तो वात ज कयां रही? अरे भाई! स्वभावना द्रष्टिवंतने एक निजानंदनो ज भोगवटो छे, ते अन्य (रागादिना) भोगवटाथी सदा उपरमस्वरूप छे. अरे भाई! -
• आत्मा जो जडने भोगवे तो तेने जडपणुं आवी पडे.
• आत्मा जो रागने तन्मयपणे भोगवे तो तेने बहिरात्मपणुं आवी पडे. तेथी
• आत्मा (ज्ञानी पुरुष) निज स्वभावथी पोताना ज्ञानानंदमय निर्मळ भावने ज भोगवे छे, अने ते ज
भाई! तने समजमां न आवे तेथी शुं थाय? मारग तो आवो ज छे.
अरे भाई! एक वार आ शरीरादिनो मोह छोडी, कुतुहल करीने अंदर स्वरूपमां डूबकी तो मार. तने त्यां कोई अचिन्त्य निधान देखाशे. आ देह तो हाड-मांस-चामनुं, माटीनुं ढींगलुं छे अने आ बधा बाग-बंगला-मोटरुं पण धूळनी धूळ छे. एनाथी तने शुं छे? एना लक्षे तो तने राग अने दुःख ज थशे. अने ए रागने भोगववानी द्रष्टि तो तने अनंत जन्म-मरण करावशे. काळकूट सर्पनुं झेर तो एक वार मरण करावे पण आ उंधी द्रष्टिनुं झेर तो अनंत मरण करावशे. माटे हे भाई! अनंतसुखनिधान निज चैतन्यस्वरूपने ओळखीने तेना अनुभवनो उद्यम कर; ते ज तने अनंत जन्म-मरणथी उगारी परम सुखनी प्राप्ति करावशे.
ज्ञानीने किंचित् आसक्तिना परिणाम थाय छे, पण तेनी तेने रुचि नथी, तेमां तेने सुखबुद्धि नथी. ज्ञानीने निज चैतन्यस्वभावनुं भान थवाथी, रागना अभावस्वभावस्वरूप जे अभोकतृत्व शक्ति छे तेनुं परिणमन थयुं छे. अने तेथी ते आसक्तिना परिणामनो भोक्ता थतो नथी. अहाहा...! चैतन्य चिदानंदमय एक ज्ञायकभावना तळनो स्पर्श करीने ज्ञाता-द्रष्टाना परिणाम प्रगट थया छे तेथी ज्ञानी विकारना-आसक्तिरूप परिणामना भोगवटाथी निवृत्तस्वरूप छे. आ समजवा खूब धीरज जोईए भाई! आ तो धर्मकथा छे बापु!
जुओ, भरत चक्रवर्ती क्षायिक समकिती हता, छ खंडना राज्यमां हता ने छन्नु हजार राणीना भोगनी आसक्तिना परिणाम तेमने थता हता. छतां द्रष्टि स्वभाव पर हती, तेथी ते काळे तेओ ज्ञाता-द्रष्टा परिणामना भोक्ता हता, विकारना विषैला स्वादना नहि. अरे भाई! ज्ञाता-द्रष्टारूप परिणाम स्वयं विकारना अभोक्तृत्वस्वरूप छे. सम्यग्द्रष्टि जीव नरकना भारे प्रतिकूळ संयोगमां होय ने तेने किंचित् आकुळताना परिणाम थाय. छतां ते आकुळताने भोगवतो नथी, ए तो स्वभावनी द्रष्टि वडे निर्मळ परिणतिना सुखनी अंतरमां गटागटी करे छे. अहाहा...!
चिन्मूरत द्रगधारीकी मोहि, रीति लगति है अटापटी.
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अहाहा! सम्यग्द्रष्टिनी परिणति अटपटी छे. श्रेणिक राजानो जीव नरकमां पण अत्यारे निराकुळ आनंदरूप परिणामनो ज भोक्ता छे, ने जे दुःख छे, प्रतिकूळता छे तेने बहारनी चीज जाणी तेना भोगववाना उपरस्वरूप ज तेओ परिणमी रह्या छे. आवी वात! समजाणुं...?
शुं थाय? अज्ञानी तो बहानुं करवामां रोकाई गयो छे; आखो दिवस पाप, पाप ने पाप. हवे ते कयारे निवृत्ति ले अने कयारे तत्त्व समजे? पण आ तो जीवन चाल्युं जाय छे भाई! पछी कयां जईश, कयां उतारा करीश? जरा विचार कर.
अहीं कहे छे-अनंतगुणनिधान प्रभु आत्मामां, ज्ञातृत्वमात्रथी भिन्न एवा विकारी परिणामना भोगवटाथी निवृत्तस्वरूप एवुं त्रिकाळ अभोक्तापणुं छे. ने आवा स्वभावनो अंतर-लक्ष करी स्वीकार करतां पर्यायमां पण अभोक्ता गुणनुं परिणमन भोक्ता थतो नथी. भाषा तो सादी छे, भाव गंभीर छे. अहा! अभोक्तृत्वशक्तिनुं भान थतां पर्यायमां अभोक्तापणुं प्रगटयुं अने हवे ते रागना-विकारना परिणामनो भोक्ता नथी. आनुं नाम धर्म छे.
आ प्रमाणे अहीं अभोक्तृत्वशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
‘समस्त कर्मना उपरमथी प्रवर्तती आत्मप्रदेशोनी निष्पंदतास्वरूप (-अकंपतास्वरूप) निष्क्रियत्वशक्ति. (सकळ कर्मनो अभाव थाय त्यारे प्रदेशोनुं कंपन मटी जाय छे माटे निष्क्रियत्वशक्ति पण आत्मामां छे.)’
अहाहा...! भगवान आत्मानो-त्रिकाळी एक ज्ञायकभावमात्र वस्तुनो-आश्रय करतां ज्ञाननी पर्यायमां आखुं पूर्ण द्रव्य अने तेनां अनंत गुणनुं ज्ञान थाय छे; ने त्यारे पर्यायमां सर्व गुणोनी एकदेश व्यक्ति प्रगट थाय छे. अहा! अक्रमवर्ती अनंतगुणमय प्रभु आत्मा छे, अने तेनी निर्मळ निर्मळ पर्यायो क्रमवर्ती प्रगट थाय छे. ते अक्रमवर्ती गुणो ने क्रमवर्ती पर्यायोनो समुदाय ते आत्मा छे. विकारी पर्यायनी अहीं वात करी नथी, केमके विकार ए शक्तिनुं-गुणनुं कार्य नथी. अहाहा...! शक्तिना धरनार सामान्य ध्रुव एक स्वभावभाव-एक ज्ञायकभाव उपर द्रष्टि करवाथी सम्यग्दर्शन-ज्ञान आदि निर्मळ पर्याय प्रगट थाय छे, अने त्यारे आत्मामां निष्क्रियत्व सहित जेटला अनंत गुण छे ते पर्यायमां एकदेश प्रगट थाय छे. अहा! ज्ञानभाव प्रगट थतां साथे अनंती शक्तिओ भेगी उछळे छे.
जुओ, पहेलां अकर्तृत्व अने अभोक्तृत्वशक्तिनुं वर्णन कर्युं; त्यां एम कह्युं के-समस्त, कर्मथी करवामां आवता, ज्ञातृत्वमात्रथी जुदा परिणामोना करवाना अने भोगववाना उपरमस्वरूप अकर्तृत्व अने अभोक्तृत्वशक्ति. अहीं आ निष्क्रयत्वशक्तिना वर्णनमां कहे छे-समस्त कर्मना उपरमथी प्रवर्तती आत्मप्रदेशोनी निष्पंदतास्वरूप (- अकंपतास्वरूप) निष्क्रियत्वशक्ति छे. जुओ, आत्मानो स्वभाव तो स्थिर-अकंप-निष्क्रिय छे. प्रदेशोनुं कंपन ए तो कर्मना निमित्ते थयेलो औदयिकभाव छे, ते स्वभावभाव नथी. स्वरूपना आश्रये सर्व कर्मोनो अभाव थतां चैतन्यप्रभु पूर्ण स्थिर-अक्रिय थाय छे. अने ते अक्रियत्व आत्मानो स्वभाव छे, स्वभाव छे तेनी त्यां प्रगटता छे. समकिती धर्मीने पण आ स्वभावनी एकदेश व्यक्तता थाय छे. धर्मीनी द्रष्टिमां कर्म-निमित्तना संबंध रहित एक अकंप चिदानंद स्वभाव ज वर्ते छे, अने तेथी तेने कर्म तरफना कंपन सहित बधा भावोनो द्रष्टि अपेक्षाए अभाव छे.
तद्न अकंपपणुं तो चौदमा गुणस्थानमां प्रगट थाय छे; तथापि चोथा गुणस्थाने क्षायिक समकिती जीवने पण निष्क्रियत्वनो अंश व्यक्त थाय छे. आस्रव अधिकारमां गाथा १७६ना भावार्थमां आ वात आवी छे. खरेखर तो पोतानुं पूर्णानंदस्वरूप त्रिकाळी द्रव्य जयां प्रतीति ने अनुभवमां आव्युं त्यां दरेक सम्यग्द्रष्टि जीवने चोथा गुणस्थाने पर्यायमां एकदेश निष्पंदतारूप परिणमन थाय छे, अर्थात् निष्क्रियत्वशक्तिनो एक अंश पर्यायमां व्यक्त थाय छे. श्रीमद् राजचंद्रजीए पण ‘सर्व गुणांश ते सम्यक्त्व’-एम सम्यग्दर्शननी व्याख्या करी छे; मतलब के सम्यग्दर्शन थतां अविनाभावपणे सर्व अनंत गुणनो अंश प्रगट थाय छे.
रहस्यपूर्ण चिट्ठीमां पं. श्री टोडरमलजी कहे छे-“ए ज प्रमाणे चोथा गुणस्थानमां आत्माने ज्ञानादिगुणो एकदेश
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प्रगट थया छे तथा तेरमा गुणस्थानमां आत्माने ज्ञानादिगुणो सर्वथा प्रगट थाय छे.” जुओ ज्ञान, दर्शन, आनंद गुणनो एक अंश प्रगट थाय छे एम नथी कह्युं, पण ज्ञानादि गुणोनो एटले ज्ञानादि सर्व गुणोनो एकदेश चोथा गुणस्थानमां प्रगट थाय छे एम वात छे. अहाहा...! अनंत... अनंत... अनंत गुणरत्नोनो भंडार चैतन्यरत्नाकर प्रभु आत्मा छे. अने सम्यग्दर्शन प्रगट थतां तेना ज्ञानादि सर्व गुणोनो एक अंश व्यक्तरूपे पर्यायमां परिणमे छे. आनुं नाम सम्यग्दर्शन छे.
अहा! आत्मानी एकेक शक्तिमां अनंतु सामर्थ्य छे. एकेक शक्तिमां अनंत शक्तिनुं रूप छे. एकेक शक्ति अनंत शक्तिमां व्यापक छे. तेथी निष्क्रियत्वशक्ति द्रव्य-गुणमां त्रिकाळ व्यापक छे. अने त्रिकाळी द्रव्यनुं भान थतां निष्क्रियत्वशक्ति पर्यायमां पण व्यापक थाय छे. आ प्रमाणे निष्क्रियत्वशक्तिनो अयोगपणारूप अंश चोथा गुणस्थाने समकितीने पर्यायमां प्रगट थाय छे. चार अघाति कर्मोनो नाश थतां जे प्रतिजीवी गुणो प्रगट थाय छे तेनो पणएक अंश चोथा गुणस्थाने प्रगट थाय छे. रहस्यपूर्ण चिट्ठीमां आ वात स्पष्ट करतां त्यां कह्युं छे-“वळी भाईश्री! तमे त्रण द्रष्टांत लख्यां अथवा द्रष्टांत द्वारा प्रश्न लख्या, पण द्रष्टांत सर्वांग मळतां आवे नहि. द्रष्टांत छे ते एक प्रयोजन दर्शावे छे. अहीं बीजनो चंद्र, जळ बिंदु, अग्निकण ए तो एकदेश छे अने पूर्णिमानो चंद्र, महासागर तथा अग्निकुंड ए सर्वदेश छे. ए ज प्रमाणे चोथा गुणस्थानमां आत्माने ज्ञानादिगुणो एकदेश प्रगट थया छे तथा तेरमा गुणस्थानमां आत्माने ज्ञानादिगुणो सर्वथा प्रगट थाय छे.”
चंद्रमानुं द्रष्टांत अहीं सर्वांग लागु न पडे. चंद्रनो जेम थोडो भाग व्यक्त छे अने बाकीना भागमां आवरण छे तेम अहीं सिद्धांतमां लागु न पडे. सम्यग्दर्शन थतां आखुं द्रव्य ख्यालमां आवे छे, अने व्यक्तमां असंख्य प्रदेशे अनंत गुणोनो एक अंश प्रगट थाय छे. चंद्रनो तो अमुक भाग खुल्लो छे, अने बाकीना भागमां आवरण छे, आ द्रष्टांत अहीं सिद्धांतमां सर्वांग लागु पडतुं नथी. भगवान आत्माना असंख्य प्रदेशना क्षेत्रमां अनंत गुणोनां निधान पडयां छे. ते अनंत गुण पूरा क्षेत्रमां असंख्य प्रदेशमां व्यापक छे. सम्यग्दर्शन थतां चोथा गुणस्थाने ते ज्ञानादि सर्व गुणोनो असंख्य प्रदेशमां एक अंश व्यक्त थाय छे; कोई गुण बाकी रहेतो नथी. चार प्रतिजीवी गुणो तथा आ निष्क्रियत्वशक्तिनो पण पर्यायमां एक अंश प्रगट थाय छे. अहा! आवुं अलौकिक सम्यग्दर्शन छे.
समयसारनी गाथा ११ जैनदर्शननो प्राण छे. तेमां कह्युं छे-
भुदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो।।
व्यवहारनय अभूतार्थ छे अने शुद्धनय भूतार्थ छे एम ऋषीश्वरोए दर्शाव्युं छे; जे जीव भूतार्थनो आश्रय करे छे ते जीव निश्चयथी सम्यग्द्रष्टि छे.
पं. श्री कैलासचंद्रजीए आ गाथाने जैनदर्शननो प्राण कह्यो छे. भूतार्थ, त्रिकाळ सत्यार्थ सच्चिदानंदस्वरूप निज आत्मद्रव्य छे. तेनो आश्रय लेतां पर्यायमां असंख्य प्रदेशे अनंत गुणनो एक अंश प्रगट थाय छे. आनुं नाम सम्यग्दर्शन छे.
जुओ, आस्रव अधिकारनी गाथा १७६ना भावार्थना बीजा फकरामां कह्युं छे-“सम्यग्द्रष्टिने मिथ्यात्वनो अने अनंतानुबंधी कषायनो उदय नहि होवाथी तेने ते प्रकारना भावास्रवो तो थता ज नथी अने मिथ्यात्व तेम ज अनंतानुबंधी कषाय संबंधी बंध पण थतो नथी. (क्षायिक सम्यग्द्रष्टिने सत्तामांथी मिथ्यात्वनो क्षय थती वखते ज अनंतानुबंधी कषायनो तथा ते संबंधी अविरति अने योगभावनो पण क्षय थई गयो होय छे. तेथी तेने ते प्रकारनो बंध थतो नथी;...)” अहीं क्षायिक सम्यग्द्रष्टिनी वात करी, पण दरेक सम्यग्द्रष्टिने चोथा गुणस्थानमां निष्क्रियत्वशक्तिनो एक अंश पर्यायमां प्रगट थाय छे एम समजवुं. अहो! आ वात अद्भुत अलौकिक अने सूक्ष्म गंभीर छे! चोथा गुणस्थानवर्ती आत्माने ज्ञानादि गुणो एकदेश प्रगट थया छे तेनी तथा तेरमा गुणस्थानवर्ती आत्माने ज्ञानादि गुणो सर्वदेशरूप प्रगट थया छे तेनी एक ज जाति छे एम समजवुं-आम कहीने पं. श्री टोडरमलजीए अद्भुत रहस्य खुल्लुं कर्युं छे. भाई! आवी वात सर्वज्ञना मारग सिवाय कयांय नथी.
बहारमां धन-लक्ष्मीनो भंडार मळे ए तो पुण्य होय तो मळे, एमां कांई कोईनी होशियारी के डहापण काम आवतुं नथी. पण जेणे पोतानुं डहापण-विवेकज्ञान अंदर अनंतगुणनिधान चैतन्यलक्ष्मीनो भंडार भर्यो छे तेने जोवा-जाणवामां लगाव्युं, अहाहा...! तेने, कहे छे, द्रव्यमां असंख्य प्रदेशे जे अनंत गुण-शक्तिओ छे ते बधीनो एक अंश
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पर्यायमां व्यक्त थई जाय छे. अहाहा...! द्रव्य-गुणमां तो शक्ति व्यापी छे, ने पर्यायमांय ते व्यापे छे; केमके दरेक शक्ति द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. समजाय छे कांई...? आ द्रव्यानुयोगनुं कथन बहु झीणुं बापु! निज पुर्ण सत्नी प्रतीति जयां थई के सर्व गुणोनो एक अंश पर्यायमां व्यक्त थाय छे. अहो! निष्क्रियतानो अयोगपणारूप एक अंश समकिती धर्मीने चोथा गुणस्थाने प्रगट थई जाय छे.
हवे आ पोताना द्रव्य-गुण-पर्याय शुं एनीय घणाने तो खबर नथी. थानथी एक भाई आवेला. तेमणे अहींना स्वाध्याय मंदिरनी दिवाल उपर लखेलो चाकळो वांच्यो, “द्रव्यद्रष्टि ते सम्यग्द्रष्टि” -पछी ते बोल्या-“ महाराज! आ द्रव्यद्रष्टि ते सम्यग्द्रष्टि-एम अहीं लख्युं छे तो शुं द्रव्य एटले पैसावाळा अहीं घणा लोको आवे छे ते बधा सम्यग्द्रष्टि छे एम आ लखवानो अर्थ छे?” त्यारे तेमने कह्युं-एम नथी भाई! द्रव्य एटले पैसावाळा एवो अर्थ नथी बापु! द्रव्य एटले आत्मद्रव्य-अनंतगुणनिधान परमार्थ वस्तु, गुण एटले एनो त्रिकाळी भाव-स्वभाव, अने पर्याय एटले तेनुं परिणमन थाय ते दशा. द्रव्य-गुण-पर्यायनो आवो अर्थ छे भाई! हवे जैनमां जन्मेलानेय आनी कांई खबर न मळे एने धर्मनुं स्वरूप केवी रीते समजाय, अने धर्मनी प्राप्ति एने केवी रीते थाय? पैसा तो जड छे बापु! अने तेने पोताना माने ए तो जडनो स्वामी, जड थाय छे. जेम भेंसनो पति पाडो होय तेम पैसा अने रागनो स्वामी थनार जड छे, चेतन नथी. निर्जरा अधिकारनी गाथा २०८नी टीकामां आचार्य अमृतचंद्रस्वामी फरमावे छे के-
“जो अजीव परद्रव्यने हुं परिग्रहुं तो अवश्यमेव ते अजीव मारुं ‘स्व’ थाय, हुं पण अवश्यमेव ते अजीवनो स्वामी थाउं; अने अजीवनो जे स्वामी ते खरेखर अजीव ज होय. ए रीते अवशे (लाचारीथी) पण मने अजीवपणुं आवी पडे. मारुं तो एक ज्ञायक भाव ज जे ‘स्व’ छे, तेनो ज हुं स्वामी छुं; माटे मने अजीवपणुं न हो, हुं तो ज्ञाता ज रहीश, परद्रव्यने नहि परिग्रहुं.”
हवे आवी वात ओला व्यवहारथी निश्चय थाय एम माने छे एमने एकान्त लागे छे; पण आ सम्यक् एकान्त छे भाई! तुं न समजे एटले विरोधना पोकार करे पण आ परमार्थ सत्य छे. अहाहा...! पोतानुं स्वरूप अंदर त्रिकाळ ध्रुव एक सच्चिदानंदमय छे. तेमां एकाग्र थतां पर्यायमां एकान्त अर्थात् एकली वीतरागी शांति प्रगट थाय छे. अहीनुं वातावरण पण एकान्तमय-शांतिमय छे ने? स्वरूपनुं भान थये अनंत गुणोमां निर्मळतानो अंश प्रगट थाय छे, आनंद गुणनो अंश प्रगटे छे, ने साथे वीर्य गुणनो अंश पण प्रगटे छे. वीर्य एटले? अहाहा...! स्वस्वरूपनी रचना करे एनुं नाम वीर्य छे. रागनी रचना करे ए वीर्यनी परिणति नहि, ए तो नपुंसकता- हीजडापणुं छे. जेम नपुंसकने प्रजा थाय नहि तेम आने पण धर्मनी प्रजा थती नथी.
मारग घणो सूक्ष्म छे भाई! बहारना पदार्थ साथे तने शुं संबंध छे? अरे, शुभरागनो विकल्प थाय तेय दुःखदायक छे. अरे भाई! तने तारी खबर नथी! भगवान! तुं ज्ञानानंदस्वभावी छो ने! तारी दशामां आनंदनो स्वाद आववो जोईए तेना बदले अरे, तुं रागना-दुःखना वेदनमां रोकाई गयो! दुःखना-रागना अभावस्वभाव स्वरूप भगवान! तुं असंगमूर्ति चैतन्यप्रभु छो. अहा! आवा निज आनंदस्वरूपना संगमां-समीपतामां गयो नहि, अने रागना संगमां तुं रोकाई गयो, रागना रंगमां रंगाई गयो! रागनो संग करीने भाई! तें पर्यायमां दुःख वहोरी लीधुं छे. शुभयोगने तुं मोक्षनुं साधन माने पण ए तो तारुं अज्ञान छे. धर्मीने जे अंशे अकंपदशा प्रगट थई छे तेमां शुभयोगनो तो अभाव छे; ते धर्मनुं साधन केम थाय? शुभराग धर्मनुं साधन त्रणकाळमां नथी.
त्यारे कोई एक पंडिते लख्युं छे के-‘शुभरागने हेय माने ते मिथ्याद्रष्टि छे’ अरे भाई! पंडित थईने तें आ शुं लख्युं? तारो आ विपरीत अभिप्राय दुनिया मानी लेशे (केमके दुनिया तो अवळे मार्गे छे ज), पण वस्तुस्थितिमां महा विरोध थशे, वस्तु तारा अभिप्रायथी संमत नहि थाय.
अकर्तृत्वशक्तिमां समस्त, कर्मथी करवामां आवता परिणामोना करणना उपरमस्वरूपनी वात हती. विकारी भाव कर्मथी करवामां आवेला परिणाम छे, ने तेना करणना उपरमस्वरूप अकर्तृत्वशक्ति छे. तेम अकंपनस्वरूप निष्क्रियत्वशक्तिनी विकृत अवस्था कंपनरूप परिणाम छे ते कर्म द्वारा करवामां आवेली दशा छे; वास्तवमां सर्व कर्मना अभावथी प्रवर्तती अकंपतारूप निष्क्रियत्वशक्ति ते आत्मानो त्रिकाळी स्वभाव छे. अहा! आ टीकामां तो भंडार भर्या छे.
भगवान आत्मा चैतन्यरत्नाकर प्रभु छे. तेनी पर्यायमां कंपन थाय छे ते कर्म द्वारा करवामां आवता परिणाम छे, ते आत्मानो स्वभाव नथी, अने तेनो कर्ता आत्मा नथी. चोथा गुणस्थाने धर्मीने जे अंशे अकंपनरूप दशा प्रगट
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थई छे तेमां ते कंपनदशानो अभाव छे. शुं कीधुं? निष्क्रियत्वशक्तिना परिणमनमां जेटली अकंपता थई छे ते द्रव्यनी पर्याय छे, अने कर्मना निमित्ते जेटली कंपन दशा छे तेनो अकंपनदशामां अभाव छे. निर्मळ पर्याय प्रगटी तेमां व्यवहारनो अभाव छे; आ अनेकान्त छे, आ स्याद्वाद छे. निष्कंपशक्तिनुं परिणमन भावरूप छे, तेमां समस्त कर्मनो अभाव छे. मार्ग झीणो छे भाई! लोकोने अभ्यास नथी, बहारना संसारमां रखडवाना लौकिक अभ्यासमां जीवन व्यतीत करे छे; पण आ तो जिंदगी (व्यर्थ) चाली जाय छे भाई!
अमे तो नानी उंमरमां सात चोपडी सुधी अभ्यास करी लौकिक भणवानुं छोडी दीधुं हतुं; तेमांय सातमी चोपडीनी परीक्षा आपी न हती. ते वखते अमारा एक मित्र साथे भणता. ते केटलाक वर्ष बाद अमने भावनगर भेगा थई गया. त्यारे अमे तेमने पूछयुं-“हाल तमे शुं करो छो?” तो तेमणे जवाब दीधेलो-“हुं तो हजी अभ्यास करुं छुं” ल्यो, बावीस-बावीस वर्ष सुधी अभ्यास कर्या करे! समयसारकळशमां आचार्य श्री अमृतचंद्रदेव तो कहे छे- आ तत्त्वज्ञाननो छ मास तो अभ्यास कर. अरे, तुं पोते अंदर परमात्मा छे तेनी एक वार छ मास लगनी लगावी दे. अहाहा...! प्रभु, लागी लगन हमारी! एक वार लगन लागी पछी शुं कहेवुं? अंदर आहलादभर्यो चैतन्यनो स्वानुभव प्रगट थाय छे. आ बीजा (अरिहंतादि) परमात्मानी लगनी लागे ते परिणाम तो राग छे, पण अंदर निज परमात्मस्वरूप आत्मा छे तेनी लगनी लागे तो परम आल्हादकारी, परम कल्याणकारी समकित प्रगट थाय छे; अने त्यारे सर्व कर्मनो अभाव थतां जे चौदमा गुणस्थाने अयोगीदशा प्रगट थाय छे तेनो एक अंश प्रगट थई जाय छे.
अहाहा...! अनंतमहिमानिधान प्रभु आत्मा छे. यथार्थमां एनो महिमा भासे तो शी वात! समयसार नाटकमां छेल्ले जीव-नटनो महिमा कह्यो छे. त्यां कह्युं छे-“जीवरूपी नटनी एक सत्तामां अनंत गुण छे, प्रत्येक गुणमां अनंत पर्यायो छे, प्रत्येक पर्यायमां अनंत नृत्य छे, प्रत्येक नृत्यमां अनंत खेल छे, प्रत्येक खेलमां अनंत कळा छे, अने प्रत्येक कळानी अनंत आकृतिओ छे, -आ रीते जीव घणुं ज विलक्षण नाटक करनार छे.” पंडित श्री दीपचंदजीए पण शक्तिना वर्णनमां घणो महिमा कर्यो छे. अहाहा...! आवा निज चैतन्यमात्र आत्मानो महिमा जाणी अंतर सन्मुख परिणमे तेनुं शुं कहेवुं? एथी तो जीव सर्व कर्मोनो अभाव करी पूर्ण निष्क्रिय-निष्कंप, अभूतपूर्व सिद्धपदने पामे छे. आवी वात छे.
एक बीजो न्यायः शुभभाव छे तेमां शुद्धतानो अंश गर्भित छे. ज्ञाननो अंश वधीने केवळज्ञान थाय छे तेम शुभमां शुद्धनो अंश छे तो ते वधीने यथाख्यात चारित्र थाय छे. शुभमां जो गर्भित शुद्धतानो अंश न होय तो शुभराग वधीने कांई यथाख्यात चारित्र प्रगट थशे? ना, थई शके नहि. माटे शुभयोगमां गर्भित शुद्धता रहेली छे एम सिद्ध थाय छे.
हा, पण ते कोने लागु पडे? जेने ग्रंथिभेद थाय तेने. जेने रागनी एकता तूटी गई छे तेने शुभमां जे गर्भित शुद्धता पडी छे ते वधीने यथाख्यात चारित्ररूपे प्रगट थाय छे. ज्ञाननी शुद्धि वधे माटे चारित्रनी शुद्धि वधे एम छे नहि. आ वात पं. श्री बनारसीदासे उपादान-निमित्तनी चिट्ठीमां करी छे. त्यां कह्युं छे-विशेष एटलुं के गर्भित शुद्धता ए प्रगट शुद्धता नथी, ए बन्ने गुणनी गर्भित शुद्धता ज्यां सुधी ग्रंथिभेद थाय नहि त्यां सुधी मोक्षमार्ग साधे नहि, परंतु (जीवने) उर्ध्वता करे, अवश्य करे ज, (पण मोक्षमार्गना कारणरूप ते न थाय). ए बन्ने गुणोनी गर्भित शुद्धता ज्यारे ग्रंथिभेद थाय त्यारे ए बन्नेनी शिखा फूटे अने त्यारे ए बन्ने गुण धाराप्रवाहरूपे मोक्षमार्ग तरफ चाले.
पं. बनारसीदास ‘परमार्थ वचनिका’ ने अंते कहे छे-“(तत्त्व) वचनातीत, इन्द्रियातीत, ज्ञानातीत छे तेथी आ विचारो बहु शा लखवा? जे ज्ञाता हशे ते थोडुं लखेलुं (पण) बहु समजशे. जे अज्ञानी हशे ते आ चिट्ठी सांभळशे खरो, परंतु समजशे नहि. आ वचनिका जेम छे तेम-(यथायोग्य)-सुमतिप्रमाण केवळी-वचनानुसार छे. जे जीव आ सांभळशे, समजशे, श्रद्धशे, तेने कल्याणकारी छे-भाग्यप्रमाण”. अहाहा...! जुओ तो खरा! आ काळमां केवळज्ञानी तो अहीं छे नहि, ने विदेहमां भगवान पासे तो गया नथी, छतां वाणीमां आटलुं जोर? तो कहे छे-हा, सम्यग्दर्शन थतां आवी दृढता आवी जाय छे. अमे विदेहमां भगवान पासे गया नथी, पण अमारा भगवान आत्मा पासे गया छीए तेना जोरथी खूब दृढताथी अमे आ वात करीए छीए के अमारी आ वात केवळी वचनानुसार छे.
अहो! दिगंबर संतोनी तो बलिहारी छे, साथे समकिती गृहस्थोनीय बलिहारी छे. हवे आमांय केटलाक पंडितो अत्यारे विरोध करे छे. तेमने तत्त्वना स्वरूपनी खबर नथी, एटले पोतानी द्रष्टि प्रमाणे मेळ न खाय एटले विरोध करे छे. पण अरे भाई! सम्यग्द्रष्टि-चोथा गुणस्थानवर्ती धर्मी-जीवनी वाणी हो के पांचमा के छट्ठा गुणस्थानवर्ती संतोनी वाणी हो, तेमनां तत्त्वज्ञाननां बधांय कथन केवळीवचनानुसार छे, तेमां कोई फरक होतो नथी.
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चोथा गुणस्थानमां सम्यग्द्रष्टि जीवने निष्क्रियत्वशक्तिनी निष्कंप दशा अंशे प्रगट थई जाय छे. अहाहा...! मेरु हले तो प्रदेश हले-एवी निष्कंप दशानो एक अंश ज्ञानीने पर्यायमां प्रगट थाय छे; तेमां कर्मनिमित्तक कंपननो अभाव छे. निष्कंप पर्यायो क्रमवर्ती प्रगट थाय छे, अने गुणो अक्रमे रहे छे, ते क्रम अने अक्रमना समुदायने आत्मा कहेवामां आवेल छे. आत्माना स्वभावमां तो अकंपपणुं-अक्रियपणुं त्रिकाळ छे; अहीं पर्यायमां एकदेश अकंपता ज्ञानीने व्यक्त थाय छे एनी वात छे. पर्यायमां जेटलुं कंपन रह्युं छे तेनो आ अकंपदशामां अभाव छे.
शास्त्रमां चौदमा गुणस्थाने अकंपदशा कही छे ए पूर्ण अकंपतानी वात छे; ने तेथी तेरमा गुणस्थानमां सयोगदशा कहेवामां आवी छे. धर्मीने-समकितीने सम्यग्दर्शन प्रगट थतां द्रष्टिमां सर्व कर्मनो अभाव छे, निष्कंपन पर्यायमां कर्मनो अभाव छे, ने कर्मना निमित्ते जे कंपन छे तेनो पण अकंपनदशामां अभाव छे. ओहो...! बहु सूक्ष्म गंभीर वात. द्रष्टिनो विषय बहु सूक्ष्म छे भाई! अहा! दिगंबर संतो सिवाय आवी वात कयांय छे नहि. द्रव्य- गुणमां तो त्रिकाळ कंपननो अभाव छे, ने द्रव्यनी द्रष्टि थये समकितीने निमित्त कर्मना संगे जे कंपन बाकी छे तेनो तेनी अंशरूप अकंपनदशामां अभाव छे. आवो अद्भुत मारग छे बापु!
प्रश्नः– गुरुदेव, आपे तो बधाने निष्कंप बनावी दीधा! उत्तरः– प्रत्येक आत्मा निष्कंपस्वरूप ज छे भाई! निष्कंपता-निष्क्रियता तो आत्मानो त्रिकाळी स्वभाव छे. सक्रियपणुं-कंपनपणुं ए कांई आत्मानुं स्वस्वरूप नथी. अहाहा...! त्रिकाळ निष्क्रिय एक ज्ञायकभाव एवा निज आत्मद्रव्यनो अनुभव थतां पर्यायमां अकंपपणानुं परिणमन थाय छे. अहाहा...! ते अकंपपणुं कारण अने कंपन तेनुं कार्य एम नथी, तेम ज कंपन कारण अने अकंपन तेनुं कार्य एम पण नथी. कंपन साधकदशामां छे खरुं, पण अकंपनरूप जे परिणमन थयुं तेमां कंपननो अभाव छे. शुद्धोपयोग छे तेमां अशुद्धोपयोगनो अभाव छे. ल्यो, आवी आत्मद्रष्टि थवी ते निष्कंप थवानो मार्ग छे. समजाणुं कांई...?
भगवान! तारामां अनंत गुण भर्या छे; तेमां एक अकंपन गुण छे. आ अकंपन गुणनुं अनंत गुणमां रूप छे; तेथी सर्व गुणो अकंपस्वरूप छे. कोई गुण ध्रुजता नथी. शास्त्रमां एक जग्याए एम वात आवी छे के जोगनुं कंपन छे तेमां धर्मास्तिकाय निमित्त नथी, केमके कंपनमां धर्मास्तिकायनुं निमित्त मानवामां आवे तो अकंपनमां अधर्मास्तिकायनुं निमित्त मानवुं पडे; पण एम छे नहि. माटे कंपनमां धर्मास्तिकाय निमित्त नथी. धर्मास्तिकाय तो गतिमां निमित्त छे, ने कंपन तो कर्मकृत औपाधिकभाव छे. आवो मारग बहु झीणो! कोई प्रबळ पुरुषार्थी जीव ज पामे छे. आवे छे ने के-
रागमां राचनारा कायर पुरुषोने आ वीतरागनो मारग प्राप्त थतो नथी. श्रीमद्दे पण लख्युं छे ने के-
औषध जे भवरोगनां, कायरने प्रतिकूळ.
रे गुणवंता ज्ञानी, अमृत वरस्यां रे पंचम काळमां...
अहो! दिगंबर संतोए पंचम काळमां अमृतनी धारा वरसावी छे. एकेक शक्तिमां केटलुं भर्यु छे? आ तो यथाशक्ति वात आवे छे. मुनिवरोना क्षयोपशमनी अने अंतरदशानी तो शी वात! अहाहा...! भगवान केवळीनी दिव्यध्वनिमां आ वात आवे, ने त्रण ज्ञानना धणी, एकभवतारी इन्द्रो सांभळवा आवे ते वात केवी होय प्रभु! अहीं आ अनेकान्त सिद्ध कर्युं के-अकंपशक्तिना परिणमनमां जे अकंपपणुं प्रगट थयुं तेमां कर्म अने कर्मकृत कंपननो अभाव छे. अकंपनदशा भावरूप छे, ने तेमां कंपननो अभाव छे. अकंपन पण छे, ने कंपन पण छे एवुं स्वानुभवनी स्वरूपद्रष्टिमां छे नहि. आत्मामां कंपन छे ज नहि.
उपर आवी गयुं छे के क्रमवर्ती पर्याय अने अक्रमवर्ती गुणनो समुदाय ते आत्मा छे. अहीं क्रमवर्ती पर्यायमां निर्मळताना क्रमनी वात छे. अक्रमवर्ती गुण तो त्रिकाळ निर्मळ छे ज, तेनी क्रमवर्ती अकंपननी दशाय निर्मळ छे. कंपन आत्मानी चीज छे ए वात अहीं स्वीकारी ज नथी; केमके कंपन आत्माना स्वभावनुं कार्य नथी. ज्ञाननी अनुभूतिमां ज्ञानीने कंपननो अनुभव नथी. अहाहा... कंपन वगरनो अकंपस्वभावी निष्क्रिय प्रभु आत्मा छे, अने सर्व कर्मोनो नाश थतां आत्मानो अकंपस्वभाव साक्षात् प्रगट थाय छे; सिद्धदशामां ते सादि-अनंत अविचल स्थिर-स्थिर रहे छे.
हे भाई! तारा आत्माना त्रिकाळी एक निष्क्रिय ज्ञानस्वभाव सामे जो, तारी अनंत शक्तिओनुं निर्मळ- निर्मळ