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परिणमन थई, पर्यायमांथी कंप छूटी, तने सादि-अनंत अकंप एवी पूर्ण सिद्धदशा प्रगटशे. ल्यो, -
आ प्रमाणे अहीं तेवीसमी निष्क्रियत्वशक्ति पूरी थई.
‘जे अनादि संसारथी मांडीने संकोचविस्तारथी लक्षित छे अने जे चरम शरीरना परिमाणथी कांईक ऊणा परिमाणे अवस्थित थाय छे एवुं लोकाकाशना माप जेटला मापवाळुं आत्म-अवयवपणुं जेनुं लक्षण छे एवी नियतप्रदेशत्वशक्ति. (आत्माना लोकपरिमाण असंख्य प्रदेशो नियत ज छे. ते प्रदेशो संसार-अवस्थामां संकोचविस्तार पामे छे अने मोक्षअवस्थामां चरम शरीर करतां कांईक ओछा परिमाणेे स्थित रहे छे.)’
जुओ, समयसारमां आ शक्तिनो अधिकार चाले छे. शक्ति एटले शुं? के भगवान आत्मा ज्ञायकस्वभावमात्र वस्तु छे ते द्रव्य छे. तेमां अनंत स्वभाव नाम गुण छे. गुण कहो के शक्ति कहो, ते एक ज वस्तु छे. आत्मा द्रव्य तरीके अभेद एक छे, अने शक्तिए (भेदथी) अनंत छे. आ अनंतनो (अनंत गुणनो) कथनविस्तार केम करी शकाय? एटले आचार्यदेवे अहीं ४७ शक्तिनुं वर्णन कर्युं छे. एम तो आत्मामां सामान्य गुणो अनंत छे, ने विशेष गुणो पण अनंत छे. ते अनंत गुणनो विस्तार करवा जाय तो अनंत काळेय पार न आवे, वळी शब्दो पण सीमित छे, ने ज्ञान (क्षायोपशमिकज्ञान) नी पण मर्यादा छे. तेथी टूंकामां आचार्य भगवाने अहीं ४७ शक्तिओनुं वर्णन कर्युं छे.
अहाहा...! भगवान आत्मा परम पवित्र शुद्ध चैतन्यमय अनंतगुणरत्नाकर छे. ओहो...! शुद्ध चैतन्य शक्तिओनो सागर प्रभु आत्मा छे. अहा! तेनो अपरिमित महिमा छे; क्षेत्र भले शरीर प्रमाण होय, पण तेना पवित्र शुद्ध चैतन्यस्वभावमां परिमितता नथी, मर्यादा नथी. अहाहा...! एकेक शक्तिमां अनंत अनंत सामर्थ्य भर्युं छे. आवी अनंत शक्तिओनुं एकरूप, अभेद चिन्मात्रस्वरूप ते भगवान आत्मा छे. भाई! अहीं शक्तिनुं वर्णन तो पूरण एक अभेदने समजवा माटे छे. तेथी आ शक्ति अने आ शक्तिवान-एवो जे भेद छे तेनुं लक्ष दूर करी त्रिकाळी अभेद एक ज्ञायकनी द्रष्टि करतां शक्तिनुं निर्मळ निर्मळ परिणमन थईने तेनो स्वाद आवे छे. ज्ञाननो स्वाद, दर्शननो स्वाद, सुखनो स्वाद, जीवत्वनो स्वाद-एम अनंत शक्तिना एकरूपनो पर्यायमां स्वाद आवे छे. आनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. समजाय छे कांई...?
प्रश्नः– आ स्वाद शुं छे? उत्तरः– स्वानुभव थतां निज ज्ञानानंद स्वरूपनुं वेदन थाय छे तेने स्वाद कहे छे. आ दाळ, भात, लाडवा खाय त्यां स्वाद आवे छे ते जडनो स्वाद तो आत्माने आवतो नथी. ते जड पदार्थनुं लक्ष करीने आ ठीक छे एवी जे रागनी वृत्ति उठे छे तेनो तेने स्वाद आवे छे. वींछी करडे त्यां वींछीना डंखनुं-जडनुं एने वेदन नथी, पण तेना प्रत्ये जे अणगमो-द्वेष थाय छे ते द्वेषनुं तेने वेदन छे. भगवान आत्मा अरूपी चैतन्य द्रव्य छे, तेने जड पदार्थोनो स्वाद के वेदन न होय; पण पोताना स्वभावनुं लक्ष छोडी, अनुकूळ चीजमां राग करे ने प्रतिकूळ चीजमां द्वेष करे, त्यां तेने पर्यायमां रागद्वेषनो कलुषित स्वाद आवे छे. अरे! एणे पोतानुं ज्ञानानंद स्वरूप छे तेनो अकषायी निराकुल स्वाद कदीय लीधो नहि!
आत्मानुं क्षेत्र शरीरप्रमाण छे, पण तेनी शक्तिनुं सामर्थ्य तो अपरिमित अनंत छे. अहाहा...! संख्याए शक्तिओ अनंत अने एकेक शक्तिनुं सामर्थ्य पण अमाप... अमाप... अपरिमित अनंत छे. जुओ, लोकनी बधी बाजुए आकाश अनंत अनंत विस्तरेलुं छे. आ आकाशना प्रदेशो अनंत छे. प्रदेश एटले शुं? के एक परमाणु आकाशना जेटला क्षेत्रने रोके तेने प्रदेश कहे छे. आकाशना आवा अनंत अनंत प्रदेश छे, अने तेनाथी अनंत गुणा गुण एकेक जीवद्रव्यमां त्रिकाळ छे. भाई! स्वभाव छे तेने क्षेत्रनी महत्ता साथे संबंध नथी. स्वभावमां तो तेनी बेहद शक्ति-सामर्थ्यनी महत्ता छे. एकेक जीवमां आवी अनंत सामर्थ्ययुक्त त्रिकाळी अनंत शक्तिओ छे. तेमां अहीं नियतप्रदेशत्वशक्तिनुं वर्णन चाले छे.
प्रत्येक शक्ति द्रव्य-गुणमां त्रिकाळ व्यापक छे, अने पोताना त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यनी द्रष्टि थये ते पर्यायमां व्यापक थाय छे. चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मा पोते छे तेनो स्वीकार अने सत्कार थये ‘हुं त्रिकाळी सत् छुं, एम प्रतीति थईने पर्यायमां तेनुं परिणमन थाय छे, पर्यायमां तेनो स्वाद आवे छे.
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आत्मानी एकेक शक्तिमां अनंत सामर्थ्य छे. एकेक शक्तिनी अनंती पर्यायो छे. आम अनंत शक्तिनी उत्पाद-व्ययरूप क्रमवर्ती पर्यायोने अक्रमवर्ती अनंत गुणो-एमनो समुदाय ते आत्मा छे. प्रत्येक शक्ति सहजभावरूप पारिणामिकभावे छे. तेनुं भान थतां क्रमवर्ती निर्मळ पर्याय प्रगट थाय छे. ते औपशमिकभावरूप, क्षायोपशमिकभावरूप वा क्षायिकभावरूप छे, औदयिकभावनो तेमां अभाव छे. आ शक्तिना अधिकारमां विकारी भावनी वात ज लीधी नथी, केमके विकार ते कांई शक्तिनुं कार्य नथी.
आत्मामां अनंत शक्तिओ अक्रमे त्रिकाळ छे; तेमां एक नियतप्रदेशत्वशक्ति त्रिकाळ छे. एटले शुं? आत्माना क्षेत्रमां असंख्य प्रदेशो नियत छे. अहाहा...! जे क्षेत्रमां चैतन्यना अनंतगुणनो प्रकाश उठे छे ते आत्माना प्रदेशोनी संख्या नियत छे. अहीं असंख्य प्रदेशने नियत कहेल छे; अन्यथा असंख्य प्रदेशने व्यवहार कहेवामां आवे छे. पंचास्तिकायनी गाथा ३२नी टीकामां जीवनुं क्षेत्र एक प्रदेशवाळुं कहेल छे. त्यां कह्युं छे-“जीवो खरेखर अविभागी-एकद्रव्यपणाने लीधे लोकप्रमाण-एकप्रदेशवाळा छे” जुओ, आमां शुं अपेक्षा छे? के असंख्य प्रदेशना भेदनो निषेध करी जीवने अविभागी-एकद्रव्यपणाने लीधे लोकप्रमाण एक प्रदेशी कहेल छे. असंख्यप्रदेशो एक द्रव्यमय अभेद एकरूप छे एम त्यां वात लेवी छे, त्यारे अहीं, प्रदेशोनी संख्या छे ते त्रिकाळ नियत छे, तेमां वधघट नथी तेथी, असंख्य प्रदेश नियत छे एम कह्युं छे. आ रीते पंचास्तिकायमां एक प्रदेशी जीव द्रव्य कह्युं ने अहीं नियत-असंख्य प्रदेशी जीव द्रव्य कह्युं ए बेउ कथनमां विरोध नथी, अविरोध छे; मात्र विवक्षाभेद छे, अपेक्षाथी बन्ने कथन बराबर छे.
कळशटीकामां असंख्य प्रदेश एकरूप छे, ने तेमां भेद पाडवो ते व्यवहार छे एम कह्युं छे. कळश २प२मां आ वात करी छे. द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावनी त्यां वात छे. त्यां एकरूप वस्तुने स्वद्रव्य कह्युं छे, अने ‘आ द्रव्य, आ गुण’-एम भेद पाडवो तेने परद्रव्य कह्युं छे. असंख्य प्रदेश एकरूप छे ते स्वक्षेत्र छे अने तेमां ‘आ प्रदेश, आ प्रदेश’-एवो भेद पाडी लक्षमां लेवुं तेने परक्षेत्र कह्युं छे. भगवान आत्मा त्रिकाळी द्रव्य भूतार्थ अभेद एकाकार ते स्वकाळ छे, ने पर्यायनो भेद पाडी तेनुं ज्ञान करवुं तेने परकाळ कह्यो छे. अनंत शक्ति-अनंत स्वभावरूप एक भाव ते स्व-भाव छे, अने एकेक शक्तिनो भेद पाडी तेने लक्षमां लेवी तेने परभाव कह्यो छे. हवे आवी वात जरा धीरज राखी ध्यान दईने सांभळे तो बधो मिथ्या आग्रह मटी जाय एवी आ वात छे. भाई! आ कल्पित वात नथी बापु! आ तो भगवान केवळीओना प्रवाहथी चाली आवती वाणी छे. भेदने छोडी, अभेदने पकडवाना पुरुषार्थने जगाडनारी आ अमृतवाणी छे. भाई! भेद छे ते अभेदने समजवा पूरतो छे, बाकी भेद द्रष्टिनो विषय नथी.
अहाहा...! आत्मा अनंत गुणस्वभावोनो एकरूप चैतन्य स्वयंभू भगवान छे. स्वयंभूरमण नामनो छेल्लो समुद्र छे, तेनो असंख्य योजनमां विस्तार छे. तेना तळिये रेती नथी, रत्नो भर्यां छे. तेम आत्मानुं असंख्य प्रदेशी क्षेत्र छे, तेमां एकेक प्रदेशे अनंत गुणरूपी चैतन्यरत्नो भर्यां छे. अहाहा...! एवा अनंतभावरूप त्रिकाळी एक भाव ते स्व-भाव कहेवाय, ने तेमां एकेक गुण-शक्तिनो भेद पाडवो-आ ज्ञान, आ सुख, -एम भेद पाडवो तेने परभाव कहेवामां आवे छे. वास्तवमां जे स्वद्रव्य छे ते ज स्वक्षेत्र छे, ते ज स्वकाळ छे ने ते ज स्वभाव छे. आम द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावना भेद रहित भगवान आत्मा स्वयंभू आनंदकंद प्रभु छे ते अकषाय, वीतरागस्वभावथी भरेलो शुद्ध स्वद्रव्य छे. अहाहा...! आत्मा चैतन्य-अमृतनो पिंड प्रभु छे. भाई! समजाय एटलुं समजो बापु! आ तो वीतरागनो मारग छे; भेदनुं लक्ष दूर करी अभेद एक त्रिकाळीने लक्षमां लेतां ते प्राप्त थाय छे. एने धर्म कहो के मोक्षनो मारग कहो, एक ज वात छे. जेम केरीमां जे वर्ण छे ते ज गंध, ते ज रस अने ते ज स्पर्श छे. भेदने लक्षमां न लईए तो आखी चीज वर्ण-गंध-रस-स्पर्शमय छे; तेम भगवान आत्मा चिन्मात्र अभेद एक द्रव्य- क्षेत्र-काळ-भावमय छे. अहाहा...! आवा अभेदनी द्रष्टि ते द्रव्यद्रष्टि अने द्रव्यद्रष्टि ते सम्यग्द्रष्टि. समजाणुं कांई...?
अहीं कहे छे-अनादि संसारथी मांडीने संकोचविस्तारथी लक्षित एवुं लोकाकाशना माप जेटला मापवाळुं आत्म-अवयपणुं जेनुं लक्षण छे एवी एक नियतप्रदेशत्वशक्ति आत्मामां त्रिकाळ पडी छे. आत्मामां जे असंकुचितविकासत्वशक्ति छे ते जुदी चीज छे, ने आ संकोचविस्तारथी लक्षित जे नियतप्रदेशत्वशक्ति छे ते जुदी चीज छे.
असंकुचितविकासत्वशक्तिनुं स्वरूप तो एवुं छे के-जेमां संकोचनो अभाव छे एवो पर्यायमां गुणनो अपरिमित विस्तार थाय ते असंकुचितविकासत्वशक्ति छे. अहाहा...! पूर्ण द्रव्य, पूर्ण क्षेत्र, पूर्ण काळ अने पूर्ण भाव-ए बधाने संकोच रहित पूर्ण विकासरूप शक्तिना सामर्थ्यथी जाणे एवी जीवमां असंकुचितविकासत्वशक्ति छे. अहाहा...! जेमां संकोच नहि, परिमितता नहि एवो ज्ञानादिमां पूर्ण विकास थाय, एवी असंकुचितविकासत्वशक्ति छे. लोकोने आवी वात मळे
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नहि एटले तेओ बहारमां-क्रियाकांडमां रोकाई जाय छे; पण भाई, निज स्वरूपनी ओळखाण विना ए बधुं कांई ज नथी; थोथां छे. ज्यां सुधी क्रियाकांडमां-रागमां मूढपणे रोकाई रहे त्यां सुधी स्वानुभव थवो संभवित नथी.
अहाहा...! भगवान आत्मा मूढ नथी; तेना ज्ञान, दर्शन आदि अनंत गुण शक्तिए अमूढ छे. भाई! आत्मामां अमूढ स्वभावनो पार नथी. अहाहा...! धर्मी-ज्ञानी एम अनुभवे छे के-हुं अपरिमित अनंत शक्तिओथी भरेलो चिदानंदकंद प्रभु अमूढ छुं अहाहा...! एक समयमां त्रणकाळ-त्रणलोकने जाणे एवी अनंत पर्यायोनो पिंड ज्ञान गुण मारामां पडयो छे; अहाहा...! पूर्णानंदनी प्रतीतिरूप सादि-अनंत पर्यायोनो पिंड श्रद्धा गुण मारामां पडयो छे; एक समयमां निर्बाध अनंत आनंदने आपे एवी सादि-अनंत आनंदनी पर्यायोनो पिंड आनंद गुण मारामां पडयो छे. अहाहा...! आवा अनंत गुणनो रत्नाकर प्रभु हुं आत्मा छुं. अरे, आवा पोताना आत्माने भूली, हे जीव! तुं आ आकुळतानी भट्ठीना वेदनमां कयां रोकाई गयो!
अहाहा...! पूर्णानंद-सच्चिदानंदस्वरूप चैतन्यचमत्कारमय प्रभु आत्मा छे. तेनो अंतरमां स्वीकार अने सत्कार कर्ये तेनी पर्यायमां ज्ञान ने आनंदनो स्वाद आवे छे. कह्युं छे ने के-
अहाहा...! त्यां वर्तमानमां जे आनंद प्रगट थयो ते भविष्यना पूर्ण आनंदनुं कारण छे. वर्तमान प्रगट ज्ञान ने आनंदनी दशाने पूर्ण आनंदनुं कारण कहेवुं ते व्यवहारथी छे. वास्तवमां तो एक समयमां जे पूर्ण आनंदनी दशा प्रगट थई ते तत्समयनी षट्कारकनी परिणतिथी प्रगट थई छे. भाई! पूर्वनी मोक्षमार्गनी पर्यायनो व्यय थयो माटे अहीं केवळज्ञान प्रगट थयुं एम वास्तवमां नथी, एम कहेवुं ए व्यवहार छे; केमके उत्पाद छे ते कांई व्ययनी अपेक्षा राखतो नथी. पूर्व पर्यायनो व्यय छे, वर्तमान पर्यायनो उत्पाद छे; तथापि उत्पादने व्ययनी अपेक्षा नथी. झीणी वात छे भाई! केवळज्ञाननी एक समयनी पर्याय ते कर्ता, जे पर्याय प्रगटी ते कर्म, ते पर्याय ज करण अर्थात् साधन, - पूर्वनी चार ज्ञाननी पर्यायनो व्यय ते साधन एम नहि, जे पर्याय प्रगटी ते पोतामां ज राखी ते संप्रदान, पर्याय पोतामांथी थई ते अपादान, अने पर्यायनो आधार ते पर्याय ते अधिकरण-आम पोताना षट्कारकना परिणमनथी केवळज्ञान उत्पन्न थाय छे. पूर्वनी चार ज्ञाननी पर्यायनो व्यय थयो माटे केवळज्ञान उपज्युं एम कहेवुं ए व्यवहारनुं कथन छे. अभाव थईने भाव थयो तो ते भाव कयांथी आव्यो? अभावमांथी नहि, पण द्रव्यमां सर्वज्ञत्व आदि शक्ति तेना नियत प्रदेशमां त्रिकाळ पडी छे अने तेमांथी शक्तिवान द्रव्यनो आश्रय लेतां पर्यायमां केवळज्ञान आदि पूर्ण दशा प्रगट थाय छे. आवी सूक्ष्म वात छे.
अहीं नियतप्रदेशत्वशक्तिनी वात चाले छे. कहे छे-आत्माना प्रदेशनी संख्या नियत-लोकप्रमाण असंख्य छे. अहीं प्रदेशनी संख्याने नियत-निश्चय कहेल छे; पंचास्तिकायमां अस्तिकाय द्रव्यनी सिद्धि करवी छे तेथी त्यां प्रदेशनी एकरूपतानी वात करी छे. आवी वात! हवे पोते केवो अने केवडो छे ते बहु गरज करीने, दरकार राखीने जाणे नहि तो धर्म केवी रीते थाय? अहा! एक राजाने-बादशाहने मळवा जवुं होय तो केटली तैयारी करीने जाय? तो अहीं तो भगवानना भेटा करवा जवुं छे, तो पछी तेमां केटली तैयार जोईए? अनंत अनंत अंतःपुरुषार्थनी साथे भेट बांधीने जाय तो भगवानना भेटा थाय. अहाहा...! त्रण काळ त्रण लोकने जाणवानुं सामर्थ्य राखे, अने ते पण एक समयमां, एवो अनंत शक्तिनो भंडार भगवान आत्मा सर्वोपरि चैतन्य बादशाह छे. एना भेटा करवा जवुं छे तो आ बहारनी -हीरा, माणेक, मोतीनी भेट काम नहि आवे, अने क्रियाकांडना रागनी भेट पण काम नहि आवे; अहा! ए तो अंतःपुरुषार्थ जाग्रत करी, एना स्वभावनी समीप जईने अनुभव कर्ये तत्काल दर्शन दे एवो ते परमात्मा छे. माटे हे भाई! बहारना कोलाहलथी विराम पामी अंतर्मुख था.
आ बहारना पैसा आदि संयोग तो पुण्य योगे मळे छे. ते संयोग हो के न हो; ते जीवने शरण नथी, ने व्रतादिनो राग पण शरण नथी, एक समयनी पर्याय पण शरण नथी. अंदर भगवान पूर्णानंदनो नाथ चिन्मात्रचिंतामणि स्वयमेव देव विराजी रह्यो छे ते एक शरण छे, ते मंगळ छे ने उत्तम छे. बहारमां जिनदेव, जिनगुरु, जिनधर्मने शरण, मंगळ ने उत्तम जाणवा ते व्यवहारथी छे.
अनादि संसारथी मांडीने जीवना प्रदेशोनो संकोचविस्तार थाय छे. निगोदनी दशामां जीवना प्रदेशोनो संकोच थाय तो पण प्रदेशोनी संख्या ओछी थती नथी ने हजार जोजनना मच्छना शरीरमां रहेला जीवना प्रदेशोनो विस्तार थाय
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तो पण प्रदेशोनी संख्या वधती नथी. जीवना प्रदेशोनी संख्या तो त्रणे काळ एटली ने एटली-असंख्य रहे छे.
जीव सिद्धदशाने प्राप्त थतां तेनी अवगाहना छेल्ला शरीरथी किंचित् न्यून जेटली रहे छे. आ अवगाहना सादि-अनंत काळ रहे छे. संसारदशामां असंख्य प्रदेशोनो संकोचविस्तार थाय छे ते जाणवालायक छे. संसारदशामां एकरूप अवगाहना रहेती नथी. कपडाने संकेली लेतां तेना प्रदेशनी संख्या घटती नथी, ने कपडाने पहोळुं-खुल्लुं करतां तेना प्रदेशोनी संख्या वधती नथी; प्रदेश जेटला छे तेटला ज रहे छे.
जुओ, निगोदियानुं शरीर अंगुलना असंख्यातमा भाग जेटलुं होय छे अने एक शरीरमां अनंता निगोदना जीव होय छे. केटला? अनंता. छ मास अने आठ समयमां छसो ने आठ जीवो मुक्ति पामे छे. अनादिथी आज सुधीमां अनंत पुद्गल परावर्तन काळ व्यतीत थयो. ते काळमां अनंता जीव मोक्षदशाने पाम्या छे. अहा! तेमनी संख्या करतां निगोदना एक शरीरमांना जीवनी संख्या अनंतगुणी छे. त्यां निगोदमां जीवना प्रदेशो संकोचाई गया छे.
तो शुं जीवनो एक प्रदेश जेटलो छे तेनाथी संकोचाई जाय छे? ना, एम वात नथी. त्यां एकेक प्रदेशमां संकोच थाय छे एम वात नथी. प्रदेशमां संकोच थतो नथी. प्रदेश तो अविभागी अंश छे, ते जेवडो छे तेवडो ज छे, तेमां संकोच न थाय; परंतु संसारदशामां जीवना प्रदेशो संकेलाय अथवा विस्तृत थाय छे. सर्व प्रदेशोनी अवगाहना ओछी-वत्ती थाय छे, प्रदेशो तो छे तेटला ज नियत रहे, अने प्रदेश पण जेवडो छे तेवडो ज रहे छे, मात्र प्रदेशो संकेलाई परस्पर अवगाहना पामे छे अथवा विस्तृत थाय छे. प्रदेशोनी संख्या तो नियत असंख्य ज रहे छे. हवे आवी वात एक सर्वज्ञना मारग सिवाय बीजे कयां छे भाई? जीवना असंख्यप्रदेशी क्षेत्रनी वात बीजे कयांय छे ज नहि.
वेदांत वगेरे अन्यमतमां आत्मा शुद्ध चैतन्य छे एम वात करी छे, पण तेनुं स्वरूप त्यां बराबर बताव्युं नथी. श्रीमद् राजचंद्रजीए वेदांतना एक अभ्यासीने पत्र लखेल छे के-“आपणे पदार्थनी व्याख्या चार प्रकारे करी शकीए. कोई पण पदार्थमां द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भाव आवा चार अंश होय छे. आत्मामां पण द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भाव एम चार बोल उतारवा जोईए.” आत्मा द्रव्ये एक छे, क्षेत्रथी असंख्य प्रदेशी छे, काळथी त्रिकाळी अथवा एक समयनी अवस्थारूप अने भावथी अनंत गुणमय छे. अन्यमतवाळा आवा चार भेद मानता नथी. तेओ आत्माने मात्र एक, सर्वव्यापक, शुद्ध चैतन्यमय, अभेद माने छे, पण ए तो कथनमात्र छे, आत्माना वास्तविक स्वरूपनी तेओने खबर नथी.
अहीं कहे छे-आत्मा असंख्य प्रदेशी छे. संसारदशामां तेना प्रदेशोनो संकोचविस्तार थाय छे. (एक) प्रदेश संकोचातो के पहोळो थतो नथी, पण प्रदेशोनो परस्पर अवगाहनारूप संकोच-विस्तार थाय छे. मुक्त थतां जीव आखरना शरीरना परिमाणथी कांईक न्यून परिमाणे अवस्थित थाय छे, अने आ अवगाहना सादि-अनंतकाळ अवस्थित रहे छे.
लोकाकाशना जेटला असंख्य प्रदेशो छे, धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकायना जेटला असंख्य प्रदेशो छे, तेटला प्रदेशोनी संख्या एक जीवनी होय छे. लोकाकाश-प्रमाण जीव व्याप्त नथी, पण लोकाकाशना जेटला-असंख्य प्रदेशो छे तेटला एक जीवना प्रदेशो छे. आत्मा अवयवी छे, ने प्रदेश तेना अवयव छे, जेम शरीर अवयवी छे अने हाथपग तेना अवयव छे तेम; जेम श्रुतज्ञान प्रमाण ते अवयवी अने निश्चय-व्यवहारनय तेना अवयव छे तेम.
श्रुतज्ञान प्रमाणमां ज्यारे आत्मानो अनुभव थाय छे त्यारे ते श्रुतज्ञाननी पर्याय-के जे प्रमाण छे ते- अवयवी छे, अने तेना निश्चय अने व्यवहारनय-एम भेद पडे ते अवयव छे. भावश्रुतज्ञान ते पर्याय छे. ते पर्यायने अखंड गणीने तेने अवयवी कहे छे अने निश्चय-व्यवहारना भेदने अवयव कहे छे. तेम भगवान आत्मा एक छे ते अवयवी छे अने असंख्य प्रदेश तेना अवयव छे. हाथ, पग, मोढुं, नाक कान इत्यादि शरीरना अवयव छे ते जड छे, ते आत्माना अवयव नथी. शरीर अने शरीरना अवयवथी पोते भिन्न छे, अने पोताथी ए बधा भिन्न छे; पण अज्ञानी जीव आवुं भेदज्ञान करतो नथी, ने स्वपरनो खीचडो करे छे तेथी ते चतुर्गति-परिभ्रमण कर्या करे छे.
आत्माना असंख्य प्रदेशी क्षेत्रमां प्रदेशे प्रदेशे अनंत गुण व्यापक छे, तेने शास्त्रमां तिर्यक् प्रचय कहे छे. तेना एक प्रदेशमां बीजा प्रदेशनो अभाव छे. भाई! आम मानीए तो ज असंख्य प्रदेशनी सिद्धि थाय. एक प्रदेशमां ज्यां एक गुण छे त्यां बीजा अनंता गुण पण व्यापक छे. असंख्य प्रदेशी आखा क्षेत्रमां दरेक प्रदेशे अनंत गुण रहेला छे. आत्मा तो अनंत गुणोनो पाटलो छे भाई; जेम सोनानो पाटलो होय छे तेम आत्मा अनंत गुणनो एक पिंड छे. हवे, पोतानुं घर-पोतानुं क्षेत्र केवुं अने केवडुं छे एनो कदी विचार ज कर्यो नथी! पोताना असंख्यप्रदेशी क्षेत्रमां गुणो केवा
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छे, ने एनी पर्याय केवी छे-ए समजवा-विचारवानी एने फुरसद नथी! निश्चयथी असंख्यप्रदेशी क्षेत्रमां अनंत गुणनी निर्मळ पर्यायो प्रगट थाय एवुं एनुं स्वरूप छे. अहीं शक्तिना वर्णनमां निर्मळ पर्यायनी वात छे, मलिननी वात नथी. संकोचविस्तार थाय एवी मलिन पर्यायनो निर्मळ पर्यायमां अभाव छे. झीणी वात भाई!
आत्माना असंख्य प्रदेशोने अहीं नियत कहेल छे. नियत प्रदेश ते निश्चय छे; एनो अर्थ एम छे के जे प्रदेशो छे ते नियत संख्याए-असंख्य छे, ने तेना स्वस्थान पण नियत छे. भले संकोचविस्तार थाय, पण प्रदेशोनी संख्या नियत ज छे. वस्तुनुं निजघररूपी द्रव्य, निजघररूपी असंख्य प्रदेशी नियत क्षेत्र, त्रिकाळ निजघररूपी काळ अने निजघररूपी भाव-चारेय एक छे भाई! भेदनी द्रष्टि छोडी, अभेद एकनी द्रष्टि करवी ते सम्यग्दर्शन अने धर्म छे. कळशटीकाना कळश २प२मां कह्युं छेः- द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भाव चारेय अभेद एकरूप वस्तु छे. तेमां पर्यायना भेदने ग्रहण करवो ते परकाळ छे, ने असंख्य प्रदेशना भेदनुं लक्ष करवुं ते परक्षेत्र छे. स्वकाळमां परकाळनी नास्ति छे, स्वक्षेत्रमां परक्षेत्रनी नास्ति छे. परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाळ, परभाव परपणे तो अस्तिरूप छे, पण परद्रव्य-क्षेत्र- काळ-भावनी आत्मामां नास्ति छे. झीणी वात छे भाई! स्वचतुष्टयमां परचतुष्टयनो अभाव छे ए तो स्थूळ वात छे. अहीं तो त्रिकाळी पोतानुं स्वरूप ते स्वद्रव्य, स्वकाळ छे, ने एक समयनी विकारी-निर्विकारी पर्यायना भेद उपर लक्ष करवुं ते परद्रव्य, परकाळ छे. नियमसारमां (गाथा-प०) एक समयनी पर्यायने परद्रव्य कह्युं छे. त्यां कह्युं छे- “पूर्वोक्त सर्व भावो परस्वभावो छे, परद्रव्य छे, तेथी हेय छे; अंतःतत्त्व एवुं स्वद्रव्य-आत्मा-उपादेय छे.” आवी वात! तत्त्वज्ञाननो विषय बहु सूक्ष्म छे भाई! अभेद एक शुद्ध ज्ञायकमात्र वस्तु द्रष्टिनो विषय छे ए मूळवात छे.
शक्ति एटले आत्माना गुणोनुं आ वर्णन छे. गुणी नाम आत्मा अनंत गुणरत्नोनो भंडार-खजानो छे. त्यां गुण-गुणीना भेदनुं लक्ष छोडी, गुणी नाम अभेद ज्ञायकस्वरूपनी द्रष्टि करवी ते सम्यग्दर्शन छे. निर्मळ रत्नत्रयस्वरूप मोक्षनो मार्ग कह्यो छे ने? अहा! ते रत्नत्रय केम प्रगट थाय? आत्मा शुद्ध चैतन्यरत्नाकर छे, तेना उपर द्रष्टि करी तेमां ज रमणता करवाथी-त्यां ज लीनता करवाथी-सम्यग्दर्शन सहित निर्मळ रत्नत्रय प्रगट थाय छे. आनुं नाम धर्म छे, ने आ मोक्षमार्ग छे. भाई! जाणपणुं (क्षयोपशम) घणुं बधु न होय, वा क्षेत्र-अवगाहना नानी-मोटी होय तेनी साथे कोई संबंध नथी; अभेद एक निज चैतन्यवस्तुनी द्रष्टि अने रमणता करवी ते रत्नत्रयरूप धर्म छे, ने तेनुं फळ पूर्णदशारूप मोक्ष छे. समजाणुं कांई...?
प्रवचनसारनी ९९मी गाथामां लीधुं छे के असंख्यप्रदेशस्वरूप तिर्यक्प्रचय छे; तेमां एक प्रदेशमां बीजा प्रदेशनो अभाव छे, अर्थात् कोई प्रदेश बीजा प्रदेशमां भळी जतो नथी. एम होय तो ज असंख्य प्रदेश सिद्ध थाय. आ असंख्य प्रदेशरूप क्षेत्रनी जे आकृत्ति छे तेने व्यंजन पर्याय कहे छे. ते व्यंजन पर्याय संसारदशामां संकोचविस्तार पामे छे. सिद्धमां छेल्ला शरीरथी कांईक न्यून आकारे व्यंजन पर्याय अवस्थित रहे छे.
प्रदेशत्व गुणनी पर्यायने व्यंजन पर्याय कहे छे; प्रदेशत्व सिवायना अन्य गुणोनी पर्यायने अर्थपर्याय कहे छे. व्यंजन पर्याय अने अर्थपर्यायनी क्रमवर्ती पर्याय अने अक्रमवर्ती गुणो-ए बेना समुदायने अहीं आत्मा कह्यो छे. अहीं अशुद्ध पर्याय न लेवी. वळी प्रदेशमां जे कंपन थाय छे तेनो अहीं अभाव लेवो, आ वात पहेलां निष्क्रियत्वशक्तिमां आवी गई छे. निष्क्रियत्वशक्ति अनंत गुणमां व्यापक छे. असंख्य प्रदेशमां जे व्यंजन पर्याय छे तेमां निष्क्रियत्वशक्ति व्यापे छे; ते प्रदेश त्यां स्थिर थई गया. जेटली अस्थिरता छे तेनो आ व्यंजन पर्यायमां अभाव छे. बहु झीणी वात प्रभु!
चिद्दविलासमां गुण अधिकार पान ८ उपर आम कह्युं छेः- “एक ज्ञाननृत्यमां अनंत गुणनो घाट जाणवामां आव्यो छे. तेथी (ते अनंत गुणनो घाट) ज्ञानमां छे; अनंत गुणना घाटमां एकेक गुण अनंतरूपे थईने पोताना ज लक्षणने धारे छे, ते कळा छे; एकेक कळा गुणरूप होवाथी अनंत रूपने धारे छे; एकेक रूप जे रूपे थयुं तेनी अनंत सत्ता छे; एकेक सत्ता अनंत भावने धारे छे; एकेक भावमां अनंत रस छे; एकेक रसमां अनंत प्रभाव छे. आ प्रकारे आ भेदो अनंत सुधी जाणवा.” सवैया टीकामां आ विषयनुं विस्तारथी वर्णन कर्युं छे.
एक ज्ञाननी पर्याय द्रव्यने जाणे, गुणने जाणे, पर्यायने जाणे; ए रीते एक समयनी अनंत गुणनी पर्याय सहित द्रव्यने जाणे-एवुं ज्ञाननी पर्यायनुं नृत्य थाय छे. एक समयनी ज्ञाननी पर्यायमां अनंत नट, ठट होय छे. सामान्य-विशेष वस्तुने ज्ञान जाणे, संकोचविस्तारने जाणे, अवस्थितने जाणे, अनंत गुण, अनंत पर्यायने जाणे. एकेक पर्यायमां
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अनंत नट, ठट, कळा होय छे. आवुं बहु सूक्ष्म वर्णन सवैयामां पं. श्री दीपचंदजीए कर्युं छे. तेओ २०० वर्ष पहेलां थई गया, समकिती धर्मात्मा हता, विशेष क्षयोपशम धरावता हता. तेमणे सूक्ष्म अलौकिक वर्णन कर्युं छे.
अहाहा...! एकेक गुण, एकेक पर्याय, तेमां नृत्य, ठट, रूप, सत्ता, रस, प्रभाव-अहोहो...! अनंत दरबार भर्यो छे. जेम भगवाननुं समोसरण दिव्य, अलौकिक धर्म दरबार छे ने! तेम भगवान आत्मा, चैतन्यरत्नाकर प्रभु-तेमां अनंतगुणनिधानरूप अलौकिक दरबार भर्यो छे. भाई! तारी चीज-चैतन्य वस्तुथी जगतमां ऊंचुं कांई नथी; माटे अंतर्द्रष्टि करी तेनुं सेवन कर.
आगळ वात आवी गई के आत्माना नियत असंख्य प्रदेशमां सर्वज्ञत्व अने सर्वदर्शित्व शक्तिनां अनुपम निधान पडयां छे. आ शक्तिओ ज्यारे पर्यायमां पूरण प्रगट थाय छे त्यारे सर्वदर्शित्व शक्तिनी पर्याय विशेष भेद पाडया विना सामान्य सत्ने देखे छे, अने केवळज्ञाननी पर्याय एकेक द्रव्यना भिन्न भिन्न गुणो, एकेक गुणनी भिन्न भिन्न पर्यायो, एकेक पर्यायना भिन्न भिन्न अनंत अविभाग प्रतिच्छेदो, ने तेनां (पर्यायोनां) नट, ठट, कळा, रूप, रस इत्यादि बधाने एक समयमां जाणे छे. तेने अहीं शास्त्रमां अद्भुत रस कह्यो छे. एक समयमां बे शक्तिनुं परिणमन, तेमां बन्नेनां लक्षण भिन्न भिन्न! अहा! तेने अद्भुत रस कहीए.
अहो! भगवान आत्मानी सत्ता आवी अद्भुत चमत्कारिक छे. ज्ञान साकार छे, दर्शन निराकार छे. बन्नेनी सत्ता एक द्रव्यमां एकी साथे एक समयमां छे. आने अद्भुत रस शास्त्रमां कह्यो छे.
ज्ञान साकार छे एटले शुं? साकारनो अर्थ आकार नहि, पण स्वपर अर्थने ज्ञान भिन्न भिन्न जाणे छे तेथी ज्ञानने साकार कह्युं छे. परनो आकार वा परनी झलक ज्ञानमां पडे छे माटे ज्ञानने साकार कह्युं नथी, ज्ञाननो स्वपर अर्थनो प्रकाशक स्वभाव छे माटे ज्ञानने साकार कह्युं छे. वळी दर्शन निराकार छे एटले तेने प्रदेश नथी एम नहि, पण भेद पाडया विना ज सामान्य अवलोकनमात्र दर्शन छे माटे तेने निराकार कह्युं छे. साकार एटले सविकल्प; स्वपरने ज्ञान भेद करीने जाणे माटे सविकल्प. आवी वात!
अहा! आत्माना असंख्य प्रदेशो सर्वत्र अनंत गुणोथी व्यापक छे. तेमां एम नथी के गुणनो अमुक अंश अमुक प्रदेशमां ने अमुक अंश बीजा प्रदेशमां होय. आत्माना प्रदेशोमां कोई प्रदेश गुणथी हीन के अधिक नथी. हे भाई! जे कांई छे ते सर्वस्व तारुं नियत असंख्य प्रदेशमां ज छे, तारा असंख्य प्रदेशनी बहार तारुं कांई नथी. माटे परद्रव्यथी विराम पामी, अनंत गुणस्वभावमय एक स्वद्रव्यने ज जो, तेथी तने ज्ञान, सुख अने शांतिनी प्राप्ति थशे.
आ प्रमाणे नियतप्रदेशत्वशक्ति अहीं पूरी थई.
‘सर्व शरीरोमां एकस्वरूपात्मक एवी स्वधर्मव्यापकत्वशक्ति. (शरीरना धर्मरूप न थतां पोताना धर्मोमां व्यापवारूप शक्ति ते स्वधर्मव्यापकत्वशक्ति)’.
अहाहा...! निगोदथी मांडीने चरम शरीर सुधी जीवे अनंतां शरीर धारण कर्या; पण आ बधा शरीरोमां भगवान आत्मा तो पोताना एकस्वरूपात्मक एक ज्ञायकभावमात्र ज छे एवो एनो स्वधर्मव्यापकत्व स्वभाव छे. अहा! संसार परिभ्रमण करतां जीवे मनुष्य-देव-नारकी अने तिर्यंचनां-प्रत्येकना अनंतां शरीर धारण कर्यां, ते ते शरीरना आकार प्रमाणे पोतानी व्यंजन पर्याय थई, छतां शरीरमां आत्मा व्यापक नथी; केमके शरीर व्याप्य अने भगवान आत्मा व्यापक एम छे नहि. आत्मानुं स्वरूप सदा एक ज्ञायक छे, शरीरमां के रागमां व्यापे एवुं एनुं स्वरूप नथी.
पोताना अनंत गुणो अने पोतानी निर्मळ पर्यायोमां आत्मा व्यापे एवो एनो स्वधर्मव्यापकत्व गुण छे. अहीं निर्मळ पर्यायनी वात छे, मलिननी नहि, केम के मलिन पर्यायमां आत्मा व्यापक नथी. भाई! आत्मा जडमां- शरीरमां
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तो व्यापक नथी, ते रागमां-विकारमां पण व्यापक नथी. अनादि संसारथी एने राग तो विविध प्रकारना अनेक थया छे, असंख्य प्रकारना शुभाशुभ भाव थया छे, पण तेमां भगवान आत्मा व्यापक-तन्मय नथी. आत्मा रागमय थई जतो नथी; ए तो त्रिकाळ एकस्वरूपात्मक ज छे.
जेम एक दीवो वाराफरती अनेक ओरडाओमां फरे, त्यां दीवो तो निज प्रकाशस्वरूप दीवो ज छे, दीवो कांई ओरडारूपे थई जतो नथी. तेम अनंतां शरीरोमां ने असंख्यात प्रकारना रागमां फरवा छतां आ चैतन्यदीवडो प्रभु आत्मा त्रिकाळ निज चैतन्यना प्रकाशरूप-एकस्वरूप-ज्ञायकस्वरूप ज छे; जेम दीवो ओरडामां व्यापतो नथी, तेम चैतन्य-दीवडो-आत्मा शरीरमां ने रागमां व्यापतो नथी. अहाहा...! एनी पर्यायमां जे दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना विकल्प थाय छे तेमां भगवान आत्मा तन्मयपणे व्यापतो नथी. ल्यो, हवे लोको पोकार करे छे के- व्यवहारथी निश्चय थाय; पण अहीं कहे छे-आत्मा व्यवहारमां व्यापतो नथी. भाई! आत्मा व्यापक ने व्यवहार-राग तेनुं व्याप्य एम वस्तुनुं स्वरूप ज नथी. भगवान आत्मा व्यापक एटले कर्ता छे ते निर्मळ पर्यायरूप व्याप्य अवस्थानो कर्ता छे; खरेखर तो एम कहेवुं एय व्यवहार छे, केमके ते निर्मळ पर्याय पोते पोताथी उत्पन्न थई छे. ते पर्याय कर्ता अने ते पर्याय पोते ज कर्म छे. अहीं तो परथी भिन्नता सिद्ध करवी छे ने? तो कह्युं के-अनंत शरीरोमां आ ज्ञायक प्रभु त्रिकाळ एकस्वरूपात्मक छे एवो एनो स्वधर्मव्यापकत्व स्वभाव छे.
ते एक हजार योजन लंबाईवाळा शरीरने प्राप्त थयो होय के तेने अंगुलना असंख्यातमा भागप्रमाण शरीर मळ्युं होय, भगवान आत्मा तो स्वयं पोताना स्वरूपमां ज व्यापक छे; ते शरीरमां व्यापक नथी, ने रागमां पण कदी व्यापक नथी. अहाहा...! आवो पूर्णानंदनो नाथ सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु अंदर आत्मा त्रिकाळ बिराजे छे. भाई! अंदर तारां चैतन्यनां निधान शुं छे तेनी तने खबर नथी. अहाहा...! भगवान! तुं पूर्ण ज्ञानानंदस्वरूप जिनस्वरूपी प्रभु छो. अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख इत्यादि अनंत गुणस्वरूपथी शोभायमान प्रभु तुं स्वधर्मव्यापक छो. तने नानां-मोटां शरीर मळ्यां, पण तेमां तुं व्यापक नथी. अरे, शरीरने तुं कदी अडयो पण नथी, अने रागने पण तुं अडयो नथी. अहा! आवो त्रिकाळ एकस्वरूपात्मक भगवान आत्मा छे तेने ओळखी तेनो आश्रय करतां निर्मळ निर्मळ पर्यायो प्रगट थाय छे.
असंख्य प्रदेशी अनंत गुणनुं धाम प्रभु आत्मा छे. आ नाम दईने बोलावे छे ने! ए नाम तो शरीरनुं बापा! शरीरनुं नाम पाडयुं ते आत्मा नथी. अरे, अनेक नामवाळां नानां-मोटां शरीरमां रह्यो छतां शरीरने ते स्पर्श्यो पण नथी. अहा! एना अनंत गुणमां ते व्यापक होवा छतां ते गुणभेदने स्पर्श्यो नथी एवो ते नित्य एकस्वरूप छे; ते अनेक-स्वरूपे कदी थयो ज नथी. हवे आम छे त्यां आ लक्ष्मी मारी, ने आ स्त्री-कुटुंब मारां ने आ महेल-मकान मारां-ए कयां रह्युं? ए तो बधी जुदी चीज बापु! संयोग आवे ने जाय; पण तेरूपे-पररूपे आत्मा कदी थतो ज नथी. समजाय छे कांई...?
अनादिथी आत्मा पोताना एकस्वरूपमां ज रह्यो छे. अहा! आवी पोतानी चीजनी द्रष्टि करवी तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. अरेरे! आवा आ मनुष्यदेहमां, पोतानी आवी चीज समजमां न ले, ने तेनी द्रष्टि न करे तो तेणे जीवनमां शुं कर्युं? कांई ज न कर्युं; जीवन व्यर्थ ज खोयुं. भाई! एकस्वरूप एवा निज ज्ञायकस्वरूपने जाण्या- अनुभव्या विना, चाहे जेटलां व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादि करे पण एथी शुं? एथी कोई ज लाभ नथी, केमके भगवान आत्मा तेमां व्यापक थतो नथी. जेम भिन्न-भिन्न शरीरोमां रहेवा छतां तेमां आत्मा व्यापक थतो नथी तेम शुभाशुभ राग थाय तेमां पण भगवान आत्मा व्यापक थतो नथी. आ शास्त्रनी-परमागमनी छट्ठी गाथामां आव्युं ने के-
एवं भणंति सुध्दं णादो जो सो दु सो चेव।।
अहाहा...! भगवान आत्मा अप्रमत्त नथी, प्रमत्त नथी, एक ज्ञायकभावस्वरूप छे. अहीं शब्दनी वात न लेवी, शब्दनुं जे वाच्य छे ते ज्ञायक तत्त्वने ग्रहण करवानी वात छे. ‘ज्ञायक’ जे शब्द छे तेमां ज्ञायक पदार्थ नथी. ‘साकर’ शब्द वाचक छे, ने साकर पदार्थ तेनुं वाच्य छे. तेम अहीं ‘ज्ञायक’ शब्द वाचक छे, ने ज्ञायक भाव जे त्रिकाळी द्रव्य छे ते वाच्य छे. अहा! ते त्रिकाळी द्रव्य ज्ञायक प्रभु, अहीं कहे छे, एकरूप रह्यो छे, प्रमत्त-अप्रमत्त थयो नथी. पर्याय भले मलिन के निर्मळ हो, वस्तु तो त्रिकाळ एकस्वरूपे ज रही छे. अहा! आवा निज एकस्वरूपात्मक द्रव्यनी द्रष्टि थतां पर्यायमां पण एकस्वरूपात्मकपणानुं-स्वधर्मव्यापकत्वनुं परिणमन थाय छे. आवी वात बहु सूक्ष्म!
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द्रव्य-गुण तो एकस्वरूप त्रिकाळ छे ज, तेनो अंतरमां स्वीकार करवाथी पर्यायमां पण एकस्वरूपात्मकपणानुं परिणमन थाय छे. अहाहा...! निज ज्ञानानंदस्वरूपी-एकस्वरूपी भगवाननो अंतरमां सत्कार करवो, आदर करवो तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. आत्माने-निज स्वरूपने शरीरपणे मानवो, वा रागपणे मानवो वा पर्यायमात्र मानवो ए तो पूर्ण वस्तु पोते आत्मा छे तेनो अनादर छे. अने ते ज आत्मानो घात नाम हिंसा छे. अहा! त्रिकाळ सच्चिदानंदस्वरूप पोते छे तेने रागवाळो मानवो ते तेनो घात एटले हिंसा छे. हिंसा बीजी शुं चीज छे? परजीवना घात करवाना परिणाम थाय ते तो हिंसा छे; पण पोताने शरीरमय ने रागमय मानवो ते स्वघातरूप महा हिंसा छे; केमके सर्व हिंसानुं ते मूळ छे. समजाय छे कांई...?
अहाहा...! अंदर अनंतगुणमय एकस्वरूपात्मक जीवन छे एवुं स्वीकार करवाथी पर्यायमां निर्मळ परिणतिरूप परिणमन थाय छे; एकस्वरूपात्मक द्रव्य छे तेनुं पर्यायमां परिणमन थाय छे. अहा! आत्मानी आवी स्वधर्मव्यापकत्व-शक्ति छे. पोताना धर्मोमां-पोताना गुणो ने निर्मळ पर्यायमां आत्मा व्यापक छे, पण देहमां के मलिन पर्यायमां ते व्यापक नथी. तो पछी शुभराग अने शुभजोगथी धर्म थाय ए वात कयां रहे छे? भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे तो शुभरागने हेय कह्यो छे. पं. कैलासचंदजीए लख्युं छे के-आचार्यदेवनी वात बराबर छे.
परमात्म प्रकाशमां कह्युं छे के जे शुभरागने उपादेय माने छे ते निज आत्माने हेय माने छे. व्यवहार रत्नत्रयरूप जे शुभयोग छे तेने जे आदरणीय अने उपादेय माने छे तेणे चिदानंदस्वरूप पोताना अखंडानंद प्रभुने हेय मान्यो छे, हेय करी दीधो छे. ज्यारे धर्मी जीवो तो रागने हेय मानी शुद्ध त्रिकाळी निज आत्मद्रव्यने उपादेय करता थका प्रवर्ते छे. भाई! तारी चीज जे जे प्रकारे छे ते प्रकारे तेनो स्वीकार कर तेमां ज तारुं हित छे, अन्यथा तो आत्मघात ज छे. सत् परिपूर्ण विज्ञानघन प्रभु त्रिकाळ एकस्वरूप ज छे, ते स्वधर्ममां ज व्यापक छे, पोताना गुण-पर्यायमां ज व्यापक छे, अन्यत्र व्यापक नथी.
प्रश्नः– आत्मा स्वधर्ममां सदाय व्यापक छे, तो पछी तेने धर्म करवानुं कयां रह्युं? उत्तरः– आत्मा स्वभावथी स्वधर्मव्यापक छे ए तो बराबर ज छे, पण अज्ञानीने एनी कयां खबर छे? ए तो देहमय ने रागमय हुं छुं एम जाणे छे. तेथी ‘हुं सदाय स्वधर्ममां रहेलो एकस्वरूप छुं’ एवुं जो अंदरमां भान करे तो तेने पर्यायमां सम्यग्दर्शन आदि धर्म थाय. तेथी ज आ उपदेश छे के-हे भाई! अनंत गुणस्वभावमय निज आत्मद्रव्यने ओळखी तेनी ज द्रष्टि कर, जेथी तने मोक्षमार्ग प्रगट थशे.
समयसारनी गाथा १७-१८नी टीकामां आवो ज प्रश्न पूछयो छे. त्यां शिष्य पूछे छे-प्रभो! आत्मा तो ज्ञान साथे तादात्म्यरूप-एकमेक छे, जुदो नथी; तेथी ज्ञानने सेवे ज छे, तो पछी तेने ज्ञाननी उपासना करवानो उपदेश केम आपवामां आवे छे? त्यां आचार्यदेवे समाधान कर्युं छे के-“ते एम नथी. जोके आत्मा ज्ञान साथे तादात्म्यस्वरूपे छे तोपण एक क्षणमात्र पण ज्ञानने सेवतो नथी; कारण के स्वयंबुद्धत्व अथवा बोधितबुद्धत्व-ए कारणपूर्वक ज्ञाननी उत्पत्ति थाय छे.” आम स्वभावथी पोते एक ज्ञानस्वरूप होवा छतां, ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थई तेनुं सेवन न करे त्यां सुधी जीव अज्ञानी ज रहे छे, अने तेथी ज तेने ज्ञाननी उपासनानो-अंतर एकाग्रतानो उपदेश करवामां आवे छे.
अहो! आ पंचम काळमां भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे तीर्थंकर तुल्य काम कर्युं छे. भाई! शब्दो थोडा छे, पण एथी एनुं महत्त्व ओछुं न आंकवुं. जुओ, ‘जगत’ त्रण अक्षरनो शब्द छे, पण तेमां शुं न आव्युं? बधुं ज आवी गयुं. अहा! एक ‘जगत’ शब्दे अनंता निगोद, अनंत सिद्ध, छ द्रव्य ने छ द्रव्यनां द्रव्य-गुण-पर्याय... ओहोहो...! बधुं ज आवी गयुं. त्रण अक्षरना कानामात्रा विनाना एक ‘जगत’ शब्दमां केटलुं समाई जाय छे? भगवाननी वाणीमां ‘ॐ’ नीकळे छे तेमां बधुं आवी जाय छे. अहा! आवी वाणी!
प्रश्नः– गुरुदेव! आपे पण गजबनुं काम कर्युं छे? उत्तरः– शुं काम कर्युं छे? आचार्य भगवंतोए जे कह्युं छे तेनुं अमे तो स्पष्टीकरण करीए छीए. गायना आंचळमां दूध भर्युं होय तेने कोई कुशळ दोहनार दोहीने बहार काढे तेम शास्त्रोमां तत्त्व भर्युं छे तेने समर्थ आचार्य अमृतचंद्रदेवे तर्क वडे बहार काढी प्रकाश्युं छे. तेमां अमारुं कांई नथी. अमे तो मात्र तेनुं स्पष्टीकरण करीए छीए, बस.
अरे! मूढ-अज्ञानी जीवो निज चिदानंदमय चैतन्यनुं वास्तु छोडीने, जड देहमां ने विकारमां पोतानो वास मानी रह्या छे. तेने कहे छे-हे जीव! ते तारो वास नथी; जड देहमां ने विकारमां वसवानो तारो स्वभाव नथी. तारो स्वभाव
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तो तारा श्रद्धा-ज्ञान-आनंद इत्यादि अनंत स्वधर्मोमां वसवानो छे. अहा! आवा तारा स्वभावने ओळखीने तेमां वास कर, तेनां श्रद्धा-ज्ञान-रमणता कर; ने विकारनी वासना छोडी दे. अहा! देह ने विकारनी वासना छोडी, अनंतधर्मस्वरूप एकस्वरूपात्मक-एकाकार निज आत्माने ओळखवो ते अनेकान्त छे, अने तेनुं फळ परम अमृत छे, परम सुखनी प्राप्तिरूप परमामृत छे. समजाणुं कांई...?
त्यारे केटलाक वळी कहे छे-आपणे तो आखा विश्व उपर प्रेम करवो जोईए. विश्वप्रेम ते धर्म छे. अरे भाई! विश्वप्रेम ए चीज शुं छे? सर्व विश्वनुं ज्ञान करी, निज चैतन्यवस्तुमां एकता स्थापित करवी एनुं नाम प्रेम छे. आ प्रेम एटले वीतरागता छे. बाकी बीजा प्रत्ये प्रेम करवो, अरे, तीर्थंकर प्रभु प्रत्ये प्रेम करवो ए पण राग छे, ते राग आत्माना एकस्वरूपात्मकपणामां छे ज नहि. शरीरना ने परना धर्मरूप न थतां पोताना धर्मोमां व्यापक थाय एवो ज आत्मानो स्वधर्मव्यापकत्व स्वभाव छे.
परमार्थे भगवान आत्मा पोताना निर्मळ गुणो अने निर्मळ पर्यायोमां व्यापे छे, राग अने शरीरने ए कदी अडतो ज नथी. आवो ज द्रव्यस्वभाव छे. हवे पोतानी चीज केवी छे एनी खबर विना धर्म थई जाय एम केवी रीते बने? कदीय न बने. अरे! एनो अनंत काळ एम ने एम चाल्यो गयो! संसारना धंधा आडे ने विषय- कषाय आडे एने निवृत्ति नहि; आखा दिवसमां मांड कलाक देवदर्शन, भक्ति, पूजा ने स्वाध्यायमां काढे, बाकीनो बधो समय एकला अशुभमां काढे-व्यतीत करे छे. घणो तो कुटुंबने ने लोकोने राजी राखवामां वखत जाय छे, पण भाई! एमां तारो आत्मा नाराज थाय छे तेनी तने खबर नथी; अरेरे! तुं दुःखी-दुःखी थई रह्यो छे! अरे भाई! तारे पर साथे शुं संबंध छे? पर साथे प्रेम करवानुं कहे छे पण प्रेम करवानो अर्थ शुं? पोतानी पर्याय पोताना द्रव्यमां एकाग्र थाय ते प्रेम छे; पर तरफनो प्रेमभाव ए तो राग छे, ने तेने करवामां धर्म माने ए तो भ्रान्ति छे; अने ते हेय छे.
अरे भाई! आ देहथी तुं जुदो अव्यापक छो, तो पर (विश्व) तारुं कयांथी थई गयुं? माटे परथी ने जड देहथी जुदो ने जुदो तारो आत्मा एवो ने एवो एकरूप चिदानंद चैतन्यस्वरूपे रह्यो छे एम जाणीने तुं प्रसन्न था, प्रमुदित था, ने तारा आत्माने स्वधर्ममां रहेलो अनुभव; एम करतां शरीरथी संबंध छूटीने तने अशरीरी मुक्त दशानी प्राप्ति थशे.
आ प्रमाणे अहीं स्वधर्मव्यापकत्वशक्ति पूरी थइ.
‘स्व-परना समान, असमान अने समानासमान एवा त्रण प्रकारना भावोना धारणस्वरूप साधारण- असाधारण-साधारणासाधारणधर्मत्वशक्ति’
जुओ, आत्मामां अनंत धर्मो छे. तेमां जे कोई स्व-परना समान धर्मो छे ते साधारण छे, अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व आदि धर्मो साधारण छे, केमके ते धर्मो जेम आत्मामां छे तेम आत्मा सिवायना बीजा अन्य द्रव्योमां पण छे. आवा समान-साधारण धर्मो आत्मामां एकी साथे रहेला अनंत छे. स्वमां अने परमां होय एवा साधारण धर्मो अनंत छे.
वळी कोई धर्मो एकला स्वमां-आत्मामां ज होय छे. ते आत्माना विशेष धर्मो होवाथी असमान- असाधारण धर्मो छे. ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि आत्माना असाधारण धर्मो छे, केमके ते एक आत्मामां ज छे, आत्मा सिवाय अन्य द्रव्योमां नथी. आवा असाधारण धर्मो पण अनंत छे. तेमां ज्ञान आत्मानो स्व-परने चेतवारूप- जाणवारूप धर्म होवाथी ते आत्मानुं असाधारण लक्षण छे. भगवान आत्मा ज्ञानलक्षण वडे लक्षित थाय छे. जो के सत् द्रव्यनुं लक्षण छे, तो पण ते आत्मानुं लक्षण नथी, केमके सत् साधारण धर्म होवाथी ते वडे स्व-परनी भिन्नता पामी शकाती नथी, अर्थात् सत्थी आत्मानुं अन्यद्रव्यथी जुदुं स्वरूप लक्षमां आवतुं नथी. समजाय छे कांई...?
वळी आत्मामां कोई धर्मो एवा छे जे, कोई परद्रव्य साथे समान होय ने कोई परद्रव्य साथे असमान होय. तेवा धर्मो साधारणासाधारण छे. अमूर्तत्वादि आत्माना साधारणासाधारण धर्म छे; केमके अमूर्तत्व धर्म, अधर्म, आकाशादिमां छे, पण ते पुद्गल द्रव्यमां नथी. आकाशादिनी अपेक्षा जीवनो अमूर्तत्व धर्म साधारण छे, ने पुद्गल द्रव्यनी अपेक्षा जीवनो ते धर्म असाधारण छे. तेथी अमूर्तत्व गुण जीवनो साधारणासाधारण धर्म छे. अमूर्तत्व वडे पण
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आत्मा जुदो लक्षित थतो नथी, केमके तेने धर्म, अधर्म, आकाशादि द्रव्यो साथे साधारणपणुं छे; अमूर्तत्व वडे पुद्गल द्रव्यथी असाधारणपणुं जणाय छे, पण आकाशादि द्रव्यो साथे तेनुं साधारणपणुं होवाथी ते अमूर्तत्व वडे आकाशादि द्रव्योथी जुदा आत्मानुं लक्ष थई शकतुं नथी.
आ प्रमाणे अस्तित्वादि साधारण धर्मो; ज्ञान, दर्शन, आनंद इत्यादि असाधारण धर्मो ने अमूर्तत्वादि साधारणासाधारण धर्मो-एम त्रण प्रकारना धर्मो भगवान आत्मामां एकी साथे होवानो तेनो साधारण- असाधारण-साधारणासाधारणधर्मत्व स्वभावछे. आत्मा सत्-चित्-अमूर्तिक छे-एम कहेतां उपरना त्रणे प्रकारना धर्मो तेमां आवी जाय छे.
प्रवचनसारनी ९पमी गाथामां कह्युं छे के-आत्मामां जे चैतन्य गुण छे ते एक अपेक्षा सामान्य गुण छे, केमके पोतामां जेम चैतन्यगुण छे तेम बीजा अनंता आत्मामां पण चैतन्य गुण छे. आ प्रमाणे ज्ञान, आनंद आदि गुणो जेम स्वद्रव्यमां छे तेम अनंता बीजा आत्मामां पण छे ते अपेक्षा ते साधारण धर्मो छे. परंतु त्यां आ जीवनुं जे ज्ञान छे ते ज ज्ञान बीजा जीवोमां छे एम नथी. प्रत्येक जीवना ज्ञान, दर्शन, चैतन्य आदि धर्मो ते ते जीवना ज विशेष धर्मरूप छे. आ प्रमाणे असाधारणपणुं पण छे; अने तेथी पोताना ज्ञान वडे पोते बीजा जीवोथी जुदो अनुभवमां आवे छे.
भाई! ज्ञान, आनंद वगेरे विशेष गुणो प्रत्येक आत्मामां छे; स्वमां छे ने बीजा जीवोमां पण छे. परंतु स्वना ज्ञान, आनंद वगेरे स्वमां, ने पर जीवोना ज्ञान, आनंद वगेरे पण जीवोमां पोतपोतामां छे. स्वनुं ज्ञान बीजा जीवमां नथी, बीजा जीवनुं ज्ञान स्वमां नथी. आ प्रमाणे स्वनी पर जीवोथी अधिकता होवाथी स्वसन्मुख थतां ज पोताना ज्ञान वडे बीजा बधा जीवोथी जुदो पोतानो आत्मा पोताना संवेदनमां आवे छे. आवुं स्वसंवेदनज्ञान ते ज्ञान छे अने ते धर्म छे. भाई! तारुं ज्ञानलक्षण एक एवुं असाधारण छे के ते सर्व परद्रव्यो ने परभावोथी भिन्नपणे ने पोताना अनंत धर्मो-गुणोथी एकपणे आत्मानो अनुभव करावे छे; माटे प्रसन्न था ने ज्ञानलक्षणे स्वद्रव्यने लक्षित कर.
होवापणे-अस्तिपणे आत्मा अने अन्य पदार्थो सरखा छे; परंतु आत्मामां ज्ञान छे, ने सर्व अन्य जड द्रव्योमां नथी. आ रीते आत्मानी विशेषता छे. जेम पुद्गलमां रूपीपणुं अर्थात् स्पर्श-रस-गंध-वर्ण छे, ने ते बीजा कोई द्रव्योमां नथी तेथी रूपीपणुं पुद्गलनो असाधारण धर्म छे, तेम ज्ञान, दर्शन आदि जीवमां ज छे, अन्य द्रव्योमां नथी, माटे ज्ञानादि जीवना असाधारण धर्म छे.
आ प्रमाणे परद्रव्योथी भगवान आत्मा जुदो छे ने अंदरना रागादि विकारथी पण ते जुदो छे; केमके रागादि विकारमां ज्ञान नथी. जेम आत्मा छे, परमाणु पण छे, बन्ने होवापणे छे, छतां बन्ने जुदा ज छे; केमके बन्नेनो स्वभाव जुदो छे. तेम आत्मामां त्रिकाळी ज्ञानस्वभाव छे, ने क्षणिक विकार पण छे; बन्ने होवापणे छे, छतां बन्ने जुदा ज छे, केमके ज्ञानस्वभावमां ते विकार नथी, ने विकारमां ज्ञानस्वभाव नथी. आ रीते बन्नेनी भिन्नता होवाथी, अंतर्मुख द्रष्टि वडे विकारथी भिन्न निज ज्ञानानंदस्वरूपनो अनुभव थाय छे. अहा! आ प्रमाणे परद्रव्योथी ने शुभाशुभ विकारी भावोथी भेदज्ञान करीने अंतर्द्रष्टि वडे शुद्ध ज्ञानादि अनंत शक्तिओथी एकाकार-एकरूप एवा स्वद्रव्यनो अनुभव करवो ते मोक्षमार्ग छे.
अरे! पोताना स्वस्वरूपने जाण्या विना लोको तो क्रियाकांडमा ने शुभयोगना व्यवहारमां ज धर्म मानी संतुष्ट थईने बेठा छे. पण भाई! जेने तुं व्यवहार कहे छे ते खरेखर आत्मव्यवहार नथी. प्रवचनसार गाथा ९४मां (टीकामां) कह्युं छे के-आत्मा शुद्ध ज्ञान ने आनंदरूपे परिणमे ते आत्मानो शुद्ध व्यवहार छे. आत्मा रागभावे- विकारपणे परिणमे ते आत्मानो व्यवहार नथी, ते मनुष्य-व्यवहार छे. अहा! आ प्रवचनसार तो भगवाननी दिव्यध्वनिनोसार छे. भाई! द्रव्य-गुण तो त्रिकाळ शुद्ध छे, ने पर्याय शुद्ध चैतन्यपणे परिणमे ते आत्मव्यवहार छे. आ सिवायनो तो सघळो व्यवहार-राग थोथां छे, ए अपूर्व नथी, ए तो जीवे अनंतवार कर्यो छे. समजाय छे कांई...?
भाई, ‘आत्मा छे’-एम मात्र अस्तित्व गुणथी आत्माने शोधवा जईश तो आत्मा हाथ नहि आवे, केमके अस्तित्व ए तो सर्व द्रव्योनो स्वभाव छे.
वळी आत्मा ‘अमूर्त’ छे-एम अमूर्तपणाथी आत्माने शोधवा जईश तोय ते हाथ नहि आवे, केमके अमूर्तपणुं ए आकाशादि द्रव्योनो पण स्वभाव छे.
वळी दया, दान, व्रत आदि अनेक प्रकारना शुभ व्यवहारथी आत्माने शोधवा जईश तोय तेनी प्राप्ति नहि थाय,
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केमके ते शुभराग आत्माना स्वरूपभूत नथी; राग ने ज्ञानस्वभाव तद्न भिन्न चीज छे.
‘ज्ञान ते आत्मा’-एम ज्ञानलक्षणने अनुसरीने शोधतां, परथी ने विकारथी जुदो ने पोताना अनंत स्वभावोथी एकमेक एवो भगवान आत्मा प्राप्त थाय छे. आ ज सम्यग्दर्शन अने आत्मोपलब्धिनी रीत छे.
समान, असमान, ने समानासमान-एम त्रिविध धर्मोनो धारक भगवान आत्मा छे; आवा निज स्वरूपने ओळखी, परथी ने विकारथी भेदज्ञान करी, अंतर्द्रष्टि वडे शुद्ध आत्मानो अनुभव करवो ते धर्म छे, अने ते ज कर्तव्य छे. ल्यो,
आ प्रमाणे अहीं साधारण-असाधारण-साधारणासाधारणधर्मत्वशक्ति पूरी थई.
‘विलक्षण (परस्पर भिन्न लक्षणोवाळा) अनंत स्वभावोथी भावित एवो एक भाव जेनुं लक्षण छे एवी अनंतधर्मत्वशक्ति.’
अहीं ‘अनंतधर्मत्व’ शब्दमां ‘धर्म’ शब्दे गुण-स्वभावनी वात छे; नित्य, अनित्य आदि जे अपेक्षित धर्मो छे एनी वात नथी. अहाहा...! ‘धारयति इति धर्मः’-आत्मद्रव्य जे अनंत गुण-स्वभावने धारण करे छे ते धर्म छे. अहीं धर्म शब्दे त्रिकाळी गुण-स्वभाव-शक्तिनी वात छे. अहाहा...! आत्मामां शक्तिओ केटली?-के अनंत; अहो! अनंत शक्ति-स्वभावोथी अभिनंदित (अभिमंडित) आत्मा त्रिकाळ एकरूप छे; आवो ज तेनो अनंतधर्मत्व स्वभाव छे. अहा! आवा निज आत्मद्रव्यने द्रष्टिमां लई परिणमतां तेनुं निर्मळ परिणमन थाय छे, अने त्यारे भेगो आनंदनो अनुभव थाय छे तथा आत्मज्ञान प्रगट थाय छे.
अहा! अनंतधर्मत्वमय भगवान आत्मा छे. केवा छे तेना अनंत धर्मो? तो कहे छे-विलक्षण छे, अर्थात् परस्पर भिन्न लक्षणवाळा छे. छे ने अंदर के-‘विलक्षण अनंत स्वभावोथी भावित...’ अहाहा...! आत्माना अनंत स्वभावो छे ते परस्पर भिन्न लक्षणवाळा छे. एक गुणथी बीजो गुण विलक्षण छे. ज्ञाननुं लक्षण जाणवुं, दर्शननुं लक्षण देखवुं, वीर्यनुं लक्षण स्वरूपनी रचना करवी, आनंदनुं लक्षण परम आल्हादनो अनुभव थवो, अस्तित्वनुं लक्षण त्रिकाळ सत्पणे रहेवुं-एम प्रत्येक अनंत शक्तिओ विलक्षण स्वभाववाळी छे; कोई गुणनुं लक्षण कोई बीजा गुणमां जतुं नथी, भळी जतुं नथी; जो भळी जाय तो अनंत स्वभाव-गुण सिद्ध न थाय. अहा! आवा अनंत स्वभावोथी भावित एवो एक भाव जेनुं लक्षण छे एवी अनंतधर्मत्व शक्ति जीवमां छे. अनंत धर्मो विलक्षण होवा छतां एकभावपणे रहेवानो आवो भगवान आत्मानो अनंतधर्मत्व स्वभाव छे.
प्रश्नः– हा, पण आवा अनंत धर्मो जणाता तो नथी? उत्तरः– छद्मस्थने भिन्न भिन्नपणे अनंत धर्मो प्रत्यक्ष न जणाय ए तो खरुं, पण अंतर्मुख द्रष्टि वडे अनंत धर्मोथी अभेद एक चिन्मात्र वस्तु आत्मानो अनुभव अवश्य थाय छे; अने ते अनुभवमां बधाय धर्मो समाई जाय छे. शुं कीधुं? जेम औषधिनी एक गोळीमां अनेक प्रकारना ओसडनो भेगो स्वाद होय छे, तेम आत्मवस्तुना अनुभवमां अनंत शक्तिओनो रस भेगो होय छे. अहाहा...! स्वानुभवरसमां अनंत गुणोनो रस समाय छे. तेथी तो कह्युं छे के-
अनुभव मारग मोखको, अनुभव मोखसरूप.
अहाहा...! आ अनुभव तो सर्व साररूप छे. भाई! अहीं आ शक्तिओनुं वर्णन भेदमां अटकवा माटे कर्युं नथी, पण अनंत गुणोनो अभेद एक जे रस-अनुभवरस छे तेनी प्राप्ति माटे कर्युं छे. समजाणुं कांई...?
शक्तिओना भेदना लक्षे स्वानुभवरस प्रगटतो नथी, अभेदएक ज्ञायकना ज लक्षे स्वानुभवरस प्रगटे छे, ने त्यारे ज शक्तिओनी यथार्थ प्रतीति थाय छे. अहा! अनंत गुणना भिन्न भिन्न लक्षण होवा छतां ‘आत्मा’-एम कहेतां तेमां बधा गुण एक साथे समाई जाय छे. अहा! आवा अभेद एकरूप चिन्मात्रस्वरूप आत्मामां अंतर्मुख थई परिणमतां स्वानुभवनी दशा प्रगट थाय छे, ने तेमां आत्मा अने तेना अनंत धर्मोनी साची प्रतीति थाय छे. आवी वात छे. आ
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तो धर्मकथा छे बापु! सावधान थईने समजवुं.
युक्ति, आगम अने अनुभवथी भगवान आत्मा ने तेना अनंत धर्मोनो यथार्थ निर्णय थाय छे. परंतु जेओ स्वसन्मुख थई आत्मवस्तुनो निर्णय करता नथी तेमने अनंत धर्मोनो निश्चय थतो नथी. तेमने अनंतशक्तिमय आत्मा त्रिकाळ विद्यमान होवा छतां नहि होवा बराबर ज छे, केमके तेमने शक्तिओ उल्लसती नथी, ज्ञान उल्लसतुं नथी, आनंद उल्लसतो नथी. समजाय छे कांई...? अहो! ‘हुं तो अनंत धर्ममय एकभावस्वरूप ज्ञायकमात्र आत्मा छुं, -आम निर्णय करी ज्यां अंतर्मुख थयो त्यां अंतःपुरुषार्थनी जागृतिपूर्वक शक्तिओ पर्यायमां उल्लसे छे, अने तेनो भेगो एकरस स्वानुभवमां-वेदनमां आवे छे. आनुं नाम सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान छे, अने आ मारग छे.
शक्ति-गुण तो त्रिकाळ छे, ने तेनी पर्याय क्रमवर्ती प्रगट थाय छे. आ क्रमवर्ती पर्यायो ने अक्रमवर्ती गुणो-ए बधुं मळीने अहीं आत्मा कह्यो छे. तेमां विकारनी वात नथी, केमके शक्ति छे ते निर्मळ छे, ने शक्तिवान द्रव्य जे छे तेय निर्मळ शुद्ध छे, तथा त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यनुं भान थतां जे पर्यायो प्रगट थई ते पण निर्मळ छे, तेमां विकार समातो नथी. विकारनो तो निर्मळ पर्यायमां अभाव छे. आनुं नाम स्याद्वाद, अने आ अनेकान्त छे. हवे लोकोने द्रव्य-गुण-पर्याय शुं? ए कांई खबर न मळे अने परनां-शरीर, महेल-मकाननां ने कुटुंबनां ने समाजनां- काम हुं करुं एम अभिमान कर्या करे छे. पण ए तो संसार परिभ्रमणनो मारग छे बापु! परनां काम करे एवी तारी वस्तु ज नथी भगवान! ने राग करे एय तारो स्वभाव नथी.
प्रश्नः– तो शुं कुंभार घडो करतो नथी? उत्तरः– ना, कुंभार घडो करतो नथी; घडो थाय छे ते माटीथी थाय छे, कुंभारथी थतो नथी. कुंभारमां घडो करवानी कर्तृत्वशक्ति छे एम केटलाक कहे छे, पण ते बराबर नथी, सत्य नथी. समयसार, गाथा ३७२ मां आचार्यदेव पोकारीने कहे छे-कुंभारथी घडो थाय छे एम अमे देखता नथी; माटीथी घडो थाय छे एम अमे देखीए छीए. भाई! आ तो वस्तु ज आवी छे; अने जैनदर्शन तो वस्तुदर्शन छे, ए कांई वाडानी-संप्रदायनी चीज नथी.
हा, पण कुंभार निमित्त तो छे ने? भाई! निमित्त छे एनो अर्थ शुं? निमित्त छे एटले ज कर्ता नथी एम एनो अर्थ छे. निमित्तथी कार्य थाय एवी मान्यता ते जैनदर्शन नथी. निमित्त तो परद्रव्य छे, अने उपादान तेनाथी भिन्नस्वरूप छे. तेथी निमित्त उपादाननुं कांई ज करतुं नथी, केमके परद्रव्यनी पर्याय बीजा परद्रव्य वडे थती नथी. कार्यकाळे निमित्त छे, बस एटलुं.
अहा! पोतामां अनंतधर्मत्वशक्ति त्रिकाळ विद्यमान छे; तेनुं परिणमन पोताथी थाय छे. पोतामां निर्मळ पर्यायने करे एवो कर्ता नामनो गुण छे. शुं कीधुं? ज्ञान, आनंद, प्रभुता इत्यादि अनंत गुणनी पर्यायनो कर्ता थाय एवो कर्ता नामनो पोतामां गुण छे, ने ते अनंत गुणमां व्यापक छे. आ रीते शक्ति पोते ज पोताथी परिणमे छे. हवे आम छे त्यां परद्रव्य परद्रव्यनुं करे ए वात कयां रहे छे?
प्रवचनसार, गाथा १०२ मां आवे छे के-प्रत्येक पर्यायनी जन्मक्षण अर्थात् उत्पत्तिनो काळ छे, अने त्यारे ते (पर्याय) उत्पन्न थाय छे. हवे आमां निमित्त करे छे ए कयां रह्युं? चिद्विलासमां निश्चय-व्यवहारना अधिकारमां वात लीधी छे के-जे समये जे पर्याय थवानी होय ते समये ते ज थाय ते निश्चय छे.
प्रश्नः– बधुं होनहार छे तो आपणे शुं करवानुं रह्युं? उत्तरः– कांई ज नहि; पण होनहारनो निर्णय कयारे थाय? त्रिकाळी एक ज्ञायकभाव सन्मुखनो अंतःपुरुषार्थ करे त्यारे होनहारनो साचो निर्णय थाय छे. थवावाळी पर्याय तो ते ज समये (थवाकाळे ज) थाय छे, पण ते होनहारनो निर्णय द्रव्यसन्मुखनी द्रष्टिना पुरुषार्थथी थाय छे. ल्यो, आ करवानुं छे; शुं? के द्रव्यसन्मुखनी द्रष्टिनो पुरुषार्थ. आवी वात!
अमारे संप्रदायमां सं. १९७२मां आ प्रश्ने खूब चर्चा थयेली. प्रश्न एम थयेलो के-भगवाने केवळज्ञानमां दीठुं हशे एम थशे, आपणो पुरुषार्थ शुं काम करी शके?
अमे बे वर्ष आवी वात सांभळी, पण अमने आ वात खटकती हती; तो अमे त्यारे कहेलुं-भगवाने केवळज्ञानमां दीठुं छे एम थशे ए वात तो एम ज बराबर छे, पण केवळज्ञाननुं स्वरूप शुं छे एनुं श्रद्धान छे के नहि? अहाहा...!
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केवळज्ञान एटले शुं? एक समयनी ज्ञाननी पर्याय जे भूत, भविष्य अने वर्तमान-एम त्रणकाळ, त्रणलोकने एक समयमां प्रत्यक्ष जाणे एनुं नाम केवळज्ञान छे. अहा! आवा अद्भुत सामर्थ्यरूप केवळज्ञाननी सत्ता जगतमां छे एनो निर्णय कयारे थाय? के पोतानो ज्ञानस्वभाव-केवळज्ञानस्वभाव अंदर त्रिकाळ छे तेनो अंतःपुरुषार्थ वडे निर्णय करे त्यारे थाय छे. अरे भाई! भगवानने केवळज्ञाननी दशा प्रगट थई ते कयांथी थई? ए तो प्राप्तनी प्राप्ति छे बापु! अंदर केवळज्ञान स्वभाव छे तेने कारणपणे ग्रहवाथी पर्यायमां स्वभावनी प्रगटतारूप केवळज्ञान प्रगट थयुं छे. अहा! आम जगतमां केवळज्ञान पर्यायनो निर्णय करवा जाय तेने अंदर पोतानो केवळज्ञानस्वभाव छे एम अंतरमां निर्णय थाय छे. आवो निर्णय थाय तेमां क्रमबद्धनो सम्यक् निर्णय थाय छे, अने आ ज पुरुषार्थ छे, केमके अंतर्मुख द्रष्टिना पुरुषार्थ विना सर्वज्ञ स्वभावनो निर्णय थतो नथी. पोताना सर्वज्ञस्वभावनी अंतर-प्रतीति थाय त्यारे ज सर्वज्ञ-पर्यायनी सम्यक् प्रतीति थाय छे.
हवे लोको तो बिचारा निमित्तमां अटकया छे. द्रव्यनी पर्याय निमित्तथी थाय एम तेओ माने छे. वळी तेओ कहे छे-उपादानमां योग्यता अनेक प्रकारनी छे, पण जेवुं निमित्त मळे तेवुं कार्य थाय छे. निमित्त कार्यनो नियामक छे एम तेओ माने छे; पण तेमनी आ मान्यता यथार्थ-सत्य नथी. अरे भाई! ज्यां सुधी निमित्त उपर द्रष्टि होय, राग उपर द्रष्टि होय, ने पर्याय उपर द्रष्टि होय त्यां सुधी स्वभावसन्मुखनो पुरुषार्थ जागतो नथी, ने पोताना सर्वज्ञस्वभावनो निर्णय थतो नथी. पछी तेने केवळज्ञाननो ने क्रमबद्ध पर्यायनो सम्यक् निर्णय कयांथी थाय? न थाय, आ रीते निमित्ताधीन द्रष्टिवाळा बहिद्रष्टि बहिरात्मा ज छे, तेओ साचा देव-गुरुने प्राप्त थईने पण संसार परिभ्रमण ज साधे छे. समजाणुं कांई...?
अहाहा...! केवळज्ञाननी पर्यायनुं सामर्थ्य केटलुं? अनंत अनंत केवळीना पेटने जाणी ले तेटलुं. ओहो! आवुं केवळज्ञान अंदर ज्ञानस्वभाव त्रिकाळ पडयो छे तेना आश्रये प्रगट थाय छे. अहाहा...! ज्ञानस्वभाव परिणमीने केवळज्ञान थयुं छे. आवा ज्ञानादि अनंत स्वभावो-गुणोनो पिंड प्रभु आत्मा छे. एक वार कह्युं हतुं के एक गुणमांथी पर्याय उठती नथी; पण आखुं द्रव्य छे तेनो स्वीकार थतां आखा द्रव्यमांथी परिणति उठे छे. तत्त्वार्थसूत्रमां भगवान उमास्वामीए पण ‘गुणपर्ययवत् द्रव्यम्’-एम सूत्र कह्युं छे. अंदरमां गुणनी परिणति भिन्न थाय छे ने द्रव्यनी परिणति भिन्न थाय छे एम नथी. पोतानी अनेक विशेषताओरूप द्रव्य ज परिणमी जाय छे. ल्यो, आम बतावीने त्रिकाळी अभेद द्रव्यनी द्रष्टि करवानुं शास्त्रमां कह्युं छे.
अहीं कहे छे-विलक्षण अनंत स्वभावोथी भावित एवो एक भाव जेनुं लक्षण छे एवी अनंतधर्मत्वशक्ति छे. अहा! विलक्षण अनंत धर्मोने धरनारुं आत्मद्रव्य छे ते एक भावरूप छे. ज्ञाननुं लक्षण जुदुं, श्रद्धानुं जुदुं, आनंदनुं जुदुं-एम अनंत गुणनुं लक्षण जुदुं छे, तथापि ज्ञाननी वस्तु जुदी, श्रद्धानी वस्तु जुदी, आनंदनी वस्तु जुदी-एम कांई जुदी जुदी अनंत वस्तुओ नथी, वस्तु तो अनंत स्वभावोना एक भावरूप एक ज छे. एक साथे अनंत स्वभावोरूपे वस्तु तो एक ज प्रतिभासे छे, प्रतीतिमां आवे छे. अहा! आवी आश्चर्यकारी अद्भुत चीज आत्मा छे. विलक्षणता छतां एकरूपता, ने एकरूपता छतां विलक्षणता. विलक्षणता होवाथी क्षायिक सम्यग्दर्शन थवा छतां ते ज वखते बधा गुण क्षायिकभावे उघडी जता नथी, ने वस्तुपणे एकरूपता होवाथी, वस्तुना आश्रये परिणमन थतां, बधा गुणोनो एक अंश निर्मळ खीली जाय छे, उछळे छे. सम्यग्दर्शन थतां ज केवळज्ञान भले न होय, पण सम्यग्ज्ञान तो अवश्य होय ज छे, अने ए प्रमाणे बधा गुणनो एक अंश तो उघडी ज जाय छे. अहा! आवा अनंतधर्मस्वरूप निज आत्माने ओळखीने तेनो अनुभव करवो, तेनी अंतरसन्मुख थई परिणमवुं ते मोक्षमार्ग छे, मुक्तिनुं कारण छे.
अरे! लोकोए बहारमां व्रत, तप, भक्ति इत्यादि वडे धर्म थई जशे एम मान्युं छे. परंतु ए तो बधो शुभभाव-राग छे भाई! वस्तुमां तो ए चीज छे ज नहि; एनाथी पोतानुं कल्याण थवानुं मानवुं ए तो महान भ्रम अने पाखंड छे. अरे भाई! तारा अनंत धर्मो छे एमां शुभराग नथी. शुभराग तो पर्यायमां नवो उत्पन्न थाय छे. परना लक्षथी पर्यायमां रागादिभाव नवा उत्पन्न थाय छे.
द्रव्य-गुणमां विकार करे एवी कोई शक्ति नथी, तो विकार कयांथी आव्यो? पर्यायनी योग्यताथी, पोताना षट्कारकना परिणमनथी विकार उत्पन्न थाय छे; पोतानुं द्रव्य तेनुं कारण नथी, ने परद्रव्य पण तेनुं वास्तविक कारण नथी, पंचास्तिकायमां अस्तिकाय सिद्ध कर्यां छे त्यां अस्तिकायनी पर्यायमां षट्कारकनुं
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परिणमन बताव्युं छे, जीवनी पर्यायमां विकार पोताथी स्वतंत्र उत्पन्न थाय छे एम त्यां ‘अस्ति’ सिद्ध कर्युं छे. समजाणुं कांई...?
अत्यारे तो प्ररूपणा ज आवी उलटी थई गई छे के-व्रत पाळो, ने दया करो ने दान करो इत्यादि; पण ए तो बधो राग-विकल्प छे भाई! तारी चीज चैतन्यरत्नाकर तो अंदर कोई जुदी ज अलौकिक छे. अहाहा...! अनंत चैतन्य गुणरत्नोनो अंदर भंडार भर्यो छे. रागनी कर्ताबुद्धिमां ए भंडारनुं ताळुं बंध थई गयुं छे. ते खूले केम? तो कहे छे -राग उपरनी बुद्धि छोडी दे, अनंत स्वभावोना भेदनुं लक्ष छोडी दे, ने एकरूप-एक ज्ञायकभावरूप अंदर पोते छे तेमां द्रष्टि लगावी दे; खजाना खूली जशे, ने अद्भुत आह्लादकारी आनंद प्रगटशे.
समयसार, पांचमी गाथामां कह्युं छे ने के-
जदि दाएज्ज पमाणं चुक्केज्ज छलं ण घेत्तव्वं।।
अहाहा...! आचार्य कहे छे-भगवान सर्वज्ञदेवनी दिव्यध्वनिमां पोताना स्वभावथी एकत्व अने रागादि विकारथी विभक्त एवुं भगवान आत्मानुं स्वरूप आव्युं छे, अने एवुं ज अमे प्रत्यक्ष अनुभव करी जाण्युं छे. माटे हे शिष्य! तुं अनुभवमां स्वसंवेदन वडे प्रमाण कर. ल्यो, आम स्वसंवेदनमां भगवान आत्मा रागथी भिन्न एकत्वविभक्तस्वरूप अनुभवाय छे.
आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, ते ज्ञानथी प्राप्त थाय छे. वळी ते आनंदस्वरूप छे, तेथी आनंदनी पर्यायथी ते प्राप्त थाय छे. प्रभुत्वशक्तिथी आत्मा भर्यो पडयो छे तो प्रभुत्वनी पर्यायथी तेनी प्रभुतानुं भान थाय छे; आत्मा अकर्तृत्वशक्तिथी भर्यो छे, तेथी पर्यायमां रागना अकर्तापणे ने ज्ञानना कर्तापणे ते अनुभवाय छे. अभोक्तृत्व नामनो आत्मानो गुण छे, तो रागनुं अभोक्तृत्व अने आनंदना भोगवटाथी आखुंय द्रव्य अभोक्तास्वरूप अनुभवाय छे. आवी वात! अरे! लोकोए मार्गने वींखी नाख्यो छे. आवुं सत्य बहार आव्युं तो आ एकान्त छे, एकान्त छे एम राडो पाडी विरोध करवा मांडी पडया छे. पण भाई! जो तुं सर्वज्ञने माने, केवळज्ञानने माने तो निमित्तथी उपादाननुं कार्य थाय, व्यवहारथी निश्चय थाय ने द्रव्यनी पर्यायो सक्रम-अनियत पण थाय ए बधी विपरीत मान्यताओ सहेजे उडी जाय छे, अर्थात् एवी मान्यताओने कोई अवकाश ज नथी.
अहा! आत्मा अनंतधर्मस्वरूप एक छे; तेमां राग नथी, विभाव नथी. अहाहा...! पोते ज पोताने तारनारो अचिन्त्य देव छे; बीजो कोई तारनार नथी. अरे भाई! पोतानो स्वभाव शुं? ने देव-गुरु-धर्मनुं स्वरूप शुं?-ते यथार्थ समज्या विना, तेनी ओळखाण कर्या विना तुं कोना जोरे तरीश? उंधी मान्यता ने कुदेव-कुगुरु- कुधर्मनुं सेवन तो तने संसार समुद्रमां डुबाडनार ज छे. हे भाई! तुं पोते ज कल्याणस्वरूप छो, पोते ज पोतानी निर्मळ पर्यायोनी सृष्टिनो स्रष्टा छो, ने पोते ज पोतानो रक्षक छो. भगवान तो कहे छे-अमारा जेवा बधाय धर्मो तारा स्वरूपमां भर्या छे, तेनो अंतरमां स्वीकार कर ने भगवान थई जा. ल्यो, आवो मारग छे. अंदरमां स्वस्वरूपनो स्वीकार ते मारग छे, ने अस्वीकार ते अमार्ग छे.
अहीं शक्तिना वर्णनमां शक्तिने धरनारुं द्रव्य ते पवित्र छे, शक्ति पवित्र छे, ने तेनी परिणति पण पवित्र छे. निर्मळ पर्यायने ज अहीं शक्तिनी पर्याय गणवामां आवी छे, ने शुभाशुभ रागनो-विकारनो तेमां अभाव छे. आनुं नाम अनेकान्त छे. लोको समज्या विना विरोध करे छे. पण निश्चयथी अर्थात् शुद्धभावथी पण पर्याय शुद्ध थाय ने शुभरागरूप व्यवहारथी पण शुद्ध पर्याय प्रगट थाय एवुं वस्तुस्वरूप नथी, ए अनेकान्त नथी, पण मिथ्या अनेकान्त छे. मोक्षमार्ग प्रकाशकना सातमा अधिकारमां निश्चयाभास अने व्यवहाराभासनुं वर्णन कर्युं छे तेमां आ वात बहु स्पष्ट आवी छे. अनेकान्त पण बे प्रकारे छेः सम्यक् अनेकान्त अने मिथ्या अनेकान्त. तेवी रीते सम्यक् एकान्त अने मिथ्या एकान्त एम एकान्त पण बे प्रकारे छे.
भाई! एकेक शक्तिना परिणमनमां व्यवहारनो-रागनो अभाव छे, आ अनेकान्त छे. आ ख्यालमां राखवा जेवी वात छे. गामे गाम अने घेरघेर आ वात पहोंचाडवा जेवी छे. स्वरूपना परिणमननी अस्तिमां रागादि विकारनी नास्ति छे.
अहीं कहे छे-स्वाभिमुख परिणमन थतां जीवना अनंतधर्मत्व स्वभावनुं भेगुं ज निर्मळ परिणमन थाय छे,
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अने त्यारे अनंत धर्मोनुं भेगुं ज परिणमन थाय छे. बधा ज गुणो एक साथे परिणमे छे, पर्यायमां एकसाथे परिणत थाय छे, ने तेमां रागनो-विकारनो अभाव छे. आ अनेकान्त छे. व्यवहारनो अभाव ने निश्चयनो सद्भाव-एनुं नाम सम्यक् अनेकान्त छे.
आ प्रमाणे अहीं अनंतधर्मत्वशक्ति पूरी थई.
‘तद्रूपमयपणुं अने अतद्रूपमयपणुं जेनुं लक्षण छे एवी विरुद्धधर्मत्वशक्ति.’ जुओ, समयसारमां तत्-अतत् इत्यादि चौद बोल वर्णव्या छे त्यां एम लीधुं छे के-ज्ञायकस्वभावी आत्मा निज ज्ञायकस्वरूपथी तत् छे, ने परज्ञेयो तेमां नथी तेथी ज्ञेयस्वरूपथी अतत् छे. अहा! पोतामां जे ज्ञान आदि भाव छे ते वडे तत्पणुं छे, पण पोतामां जे भाव नथी ते वडे अतत्पणुं छे. आत्मा ज्ञानस्वरूपथी तत् छे, केमके आत्मा ज्ञानथी तद्रूपमय छे, पण आत्मा रागादिथी-ज्ञेयोथी अतत् छे केमके आत्माने रागादिथी-परज्ञेयथी अतद्रूपमयता छे. आवी वात! समजाणुं कांई...? अहा! आ रीते तत्पणुं अने अतत्पणुं एवा बन्ने विरुद्ध धर्मो एकी साथे जेमां रहेला छे एवा आत्मानो विरुद्धधर्मत्व स्वभाव छे.
समयसार, परिशिष्टमां ज्ञायक अने ज्ञेय वच्चे तत्-अतत् धर्मोनुं वर्णन कर्युं छे. ज्ञायक ज्ञायकस्वरूपे पोताथी छे, अने ज्ञेयस्वरूपथी-परज्ञेयथी नथी एम त्यां तत्-अतत्भाव कहेल छे. पंचाध्यायीमां एम कह्युं छे के-वस्तु वस्तुपणे पोताथी तत् छे, ने परवस्तुपणे ते अतत् छे अर्थात् नथी. त्यां द्रव्य-गुण-पर्यायमां पण तत्-अतत्पणुं उतार्युं छे. अहो! आ तो अनेकान्तनुं एकलुं अमृत छे.
प्रत्येक वस्तु पोताथी छे ते तत्, अने परवस्तुपणे नथी ते अतत्; आवा तत्-अतत् धर्मो वस्तुमां एकी साथे रहेला छे एवी वस्तुनी विरुद्धधर्मत्वशक्ति छे. अन्यमतमां तो आ वात छे ज नहि. अन्यमतमां तो एक ज आत्मा सर्वव्यापी छे एम माने छे, तेओ अनेकपणुं मानता नथी. परंतु जगतमां अनंत द्रव्यो छे. तेमां प्रत्येक द्रव्य पोताथी-पोताना स्वरूपथी छे, अने ते अनंत परद्रव्यपणे नथी आवो ज द्रव्य-स्वभाव छे, वस्तुस्वभाव छे. अहीं आत्मद्रव्यनी वात छे, तो कह्युं के-ज्ञान ज्ञानपणे छे, ने ज्ञेयपणे नथी. आ रीते तत्-अतत्पणुं ए आत्मनिष्ठ आत्माना धर्मो छे. अहा! ज्ञानस्वभावी भगवान आत्मा ज्ञेयनुं-रागादिनुं ज्ञान करे छे, पण ज्ञेय-रागादि तेमां छे नहि, तेनो अतत् स्वभाव रागादिने-परज्ञेयने अंदर प्रवेशवा देतो नथी. जुओ, आ आत्माने जीवित राखनारुं भेदज्ञान! आ तो अलौकिक चीज छे बापु!
पंचाध्यायीमां आवे छे के-तत्-अतत् अने नित्य-अनित्यमां शुं फेर छे? तेने, ते छे अर्थात् ते-रूपथी-स्वरूपथी ते छे ते तत्पणुं छे, ने तेने, ते नथी, अर्थात् पररूपथी ते नथी ते अतत्पणुं छे. आ तत्-अतत् धर्मो वस्तुनिष्ठ त्रिकाळी स्वभाव छे. नित्य-अनित्य धर्मो तो अपेक्षित धर्मो छे. वस्तु द्रव्यरूपथी त्रिकाळ छे ते नित्य, ने पर्यायरूपथी क्षणिक छे ते अनित्य. आम नित्य-अनित्य ए अपेक्षित धर्मो छे. आम बन्नेमां फेर-फरक छे.
अहीं कहे छे-आत्मामां एक साथे बे विरुद्ध शक्तिओ रहे छे एवी एनी विरुद्धधर्मत्वशक्ति छे. ज्ञान पोताथी छे, ज्ञेयथी नथी-आम जे छे ते नथी एम विरोध थयो; पण आवा विरुद्ध धर्मो एकी साथे अविरोधपणे वस्तुमां रहे छे एवी आत्मानी विरुद्धधर्मत्वशक्ति छे. आ गुण छे, तेनी परिणमनरूप पर्याय छे. ज्यारे नित्य- अनित्य तो अपेक्षित धर्मो छे. द्रव्य कायम रहेवानी अपेक्षा नित्य कहेवाय, नित्य कोई गुण नथी, तेम तेनी कोई पर्याय होती नथी. तथा पर्याय पलटे छे ए अपेक्षा वस्तु अनित्य कहेवाय. अनित्य कोई गुण नथी, अने तेनी पर्याय थाय छे एम पण वस्तु नथी. नित्य-अनित्य अपेक्षित धर्मो छे.
आत्मानी विरुद्धधर्मत्वशक्ति छे ते तेनो स्वभाव-गुण छे. शक्ति कहो, गुण कहो के स्वभाव कहो-एक ज वात छे. आ शक्तिनुं तत्-अतत्पणे परिणमन पण छे. पोताना ज्ञानपणे ज्ञान रहे छे, अज्ञानपणे थतुं नथी; वीतरागता
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वीतरागतापणे रहे छे, रागपणे थती नथी, आनंदनी दशा आनंदपणे रहे छे, दुःखपणे थती नथी-आम तत्- अतत्पणे वस्तु पोते परिणमे छे एवो आत्मानो विरुद्धधर्मत्व स्वभाव छे. आवो भगवाननो मारग छे.
अनेकान्तना चौद बोलमां तत्-अतत्नी साथे स्वद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी अस्ति, ने परद्रव्य-क्षेत्र-काळ- भावथी नास्ति-एम बीजा आठ बोलनुं त्यां वर्णन कर्युं छे. पहेलां तत्-अतत्नी वात करी त्यां ज्ञान-ज्ञेय वच्चे तत्-अतत्पणुं कह्युं, अने पछी अस्ति-नास्तिना आठ बोलनुं वर्णन कर्युं छे. कुल चौद बोल उतार्या छे ते आ प्रमाणेः तत्-अतत्; स्वद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी अस्ति अने परद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी नास्ति; एक-अनेक; नित्य- अनित्य-आम चौद बोलथी अनेकान्तनुं स्वरूप समजाव्युं छे. अहा! आ अनेकान्त तो जीवना जीवननुं परम अमृत छे.
जीवने पोतानी पर्यायमां अनेक प्रकारे विपरीत शल्य होय छे; रागथी पण धर्म थाय, ने आत्मा परनुं पण कार्य करे इत्यादि अनेक प्रकारे जीवमां अनादिथी उंधां शल्य पडेलां छे. अनेकान्त तेनो निषेध करीने, असत्य अभिप्राय छोडावी, वस्तुनुं साचुं-सम्यक् ज्ञान करावे छे, ने सर्व विरोध मटाडी दे छे. अहा! विरोध मटाडवानो तेनो स्वभाव छे; केमके वस्तुमां परस्पर विरुद्ध शक्तिओ एक साथे भले हो, पण तेओ वस्तुनो विरोध नथी करती, बल्के वस्तुने नीपजावे छे, सिद्ध करे छे, प्रसिद्ध करे छे. तत्-अतत्पणुं वस्तुने वस्तुमां स्थापित करे छे. अहो! अनेकान्त एवो अभेद किल्लो छे के आत्माने ते सदा परथी भिन्न ज राखे छे, परना एक अंशने पण आत्मामां भळवा देतो नथी. अहा! अंतर्द्रष्टि वडे आवा निज स्वरूपने ओळखवुं ते अपूर्व सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान छे.
प्रवचनसार गाथा २००मां एम कह्युं छे केः- “हवे, एक ज्ञायकभावनो सर्वज्ञेयोने जाणवानो स्वभाव होवाथी, क्रमे प्रवर्तता, अनंत, भूत-वर्तमान-भावी विचित्र पर्याय समूहवाळां, अगाध स्वभाव अने गंभीर एवां समस्त द्रव्यमात्रने-जाणे के ते द्रव्यो ज्ञायकमां कोतराई गयां होय चीतराइ गयां होय, दटाइ गयां होय, खोडाइ गयां होय, डूबी गयां होय, समाइ गयां होय, प्रतिबिंबित थयां होय एम-एक क्षणमां ज जे (शुद्ध आत्मा) प्रत्यक्ष करे छे, ... ते शुद्ध आत्माने, आ हुं मोहने उखेडी नाखीने, अति निष्कंप रहेतो थको यथास्थित ज (जेवो छे तेवो ज) प्राप्त करुं छुं”
आ तो आमां निमित्तथी कथन कर्युं छे. ज्ञेय संबंधी अहीं आत्मामां ज्ञान थयुं छे, बाकी ज्ञेय कांई ज्ञानमां आवतुं नथी, ज्ञान ज्ञेयपणे थई जतुं नथी. भाई! चारे पडखेथी सत्य समजवुं जोईए, नहींतर एकान्त थई जशे. समजाणुं कांई...?
केटलाक कहे छे-निमित्तथी उपादाननुं कार्य थाय एम मानो, नहींतर एकान्त थई जशे. अरे भाई! वस्तुस्थिति एम नथी. निमित्त तो परवस्तु छे. ते पोतानुं काम करे ने परनुं पण काम करे एम विरुद्धधर्मत्व नथी; ते पोतानुं काम करे अने परनुं काम न करे-एम विरुद्धधर्मत्व वडे वस्तु यथास्थित सिद्ध थाय छे; अने ते अनेकान्त छे. वस्तु परपणे थती ज नथी त्यां परनुं काम केवी रीते करे? माटे निमित्तथी उपादाननुं कार्य थाय एवी मान्यता मिथ्या शल्य छे.
वळी कोई कहे छे-व्रत, तप, भक्तिना शुभरागथी धर्म थाय एम मानो, नहींतर एकान्त थई जशे. अरे भाई! भगवान आत्मा निज ज्ञानस्वभावथी तद्रूप छे, ने विकारथी-शुभाशुभरागथी अतद्रूप छे. वळी स्वभावनुं भान थतां जे निर्मळ परिणति थई तेय स्वभावथी तद्रूप छे ने रागादिथी अतद्रूप छे. हवे राग, निर्मळ- वीतराग परिणतिथी तद्रूप ज नथी त्यां रागथी धर्म थाय ए वात कयां रहे छे? आ प्रमाणे रागथी धर्म थाय एवी मान्यता रागनी एकताबुद्धिरूप मिथ्या शल्य सिवाय कांई नथी; ए मिथ्या एकान्त छे.
अमे तो सं. १९८पमां संप्रदायमां हता त्यारे बोटादमां एक मोटी सभामां कहेलुं के-जे भावथी तीर्थंकर नाम कर्मनी प्रकृति बंधाय ते भाव धर्म नथी; केमके जे भावथी धर्म थाय ते भावथी कर्मबंध त्रणकाळमां थाय नहि. सभा तो वात बराबर सांभळी रही हती, पण अमारी पासे अमारा गुरुभाई बेठा हता तेमने आ वात न रुची एटले तेओ ऊभा थईने चाल्या गया हता. ए सभामां अमे बीजी वात पण कही हती के-पंचमहाव्रतना परिणाम आस्रव छे, धर्म नथी. मार्ग तो आवो छे; धर्मना परिणाम तो अबंध स्वभावी होय, जेनाथी बंध थाय ते भाव धर्म केम होय? न होय. तेनाथी धर्म मानवो ए तो महा अधर्म छे, अनर्थ छे, विपरीतता छे.
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भगवान आत्मा त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य छे ते अबंधस्वभावी छे, ने तेना परिणाम-मोक्षमार्गरूप परिणाम पण अबंधस्वभावी ज छे. अबंध परिणाम बंधननुं कारण थाय एम कदीय बने नहि. तेथी जे वडे बंधन थाय ते शुभराग धर्म नथी. वास्तवमां जे बंधमार्ग छे ते अधर्म छे. आवी वात अमे संप्रदायनी सभामां मूकेली. त्यारे लोको विश्वास राखी बराबर सांभळता. ते वखते अमे दिगंबर शास्त्रो वांचता हता, पण अमारा प्रत्ये कोई शंका न करतुं. आदिपुराण, तत्त्वार्थ राजवार्तिक, समयसार, प्रवचनसार-आ बधां दिगंबर शास्त्रो अमे वांचेलां. अमे तो एम स्पष्ट कहेता के-आमां (संप्रदायमां) आवी गया छीए माटे आमां ज रहीशुं एम नथी; वात फेरफारवाळी लागशे तो अमे क्षणमात्रमां संप्रदाय छोडी दईशुं. (बन्युं पण एम ज).
अहीं कहे छे-पोतानुं ज्ञानस्वरूप पोताथी तत्स्वरूप छे, ने ते परथी-ज्ञेयथी-रागथी अतत्स्वरूपे छे. अहा! आनंदस्वरूप पोते छे तेनी परिणति पण आनंदरूप ज होय छे; ते परिणति परद्रव्यरूप, परज्ञेयरूप के दुःखरूप होती नथी; आनुं नाम अतत् छे. पोताना स्वभावना अस्तित्वपणे, स्वभावने अनुसरीने परिणति होय छे ते तत्, अने ते परना-परभावना अभावरूप छे ते अतत्, अहा! आवो विरुद्धधर्मत्व नामनो जीवनो गुण-स्वभाव छे.
निश्चयथी (निश्चयना आश्रये) पण धर्म थाय ने व्यवहारथी (व्यवहारना आश्रये) पण धर्म थाय एवी मान्यतामां तो विरुद्धधर्मत्वशक्ति न रही, एमां तो विरुद्धधर्मत्वनो अभाव थयो. पण विरुद्धधर्मत्व तो (जीवनो स्वभाव) छे ज. निश्चयथी धर्म थाय, ने व्यवहारथी धर्म न थाय-एम विरुद्धधर्मत्व छे. अहाहा...! ज्ञानानंदस्वरूप भगवान आत्मा छे ते ज्ञान ने आनंदरूप परिणमे छे, ने ज्ञेयरूप ने व्यवहाररूप थतो नथी ते आ विरुद्धधर्मत्वशक्तिनुं कार्य छे. भाई! अनेकपणुं माने तो विरुद्ध (विरुद्धधर्मत्व) सिद्ध थाय, बधुं एक आत्मा माने तेने विरुद्ध सिद्ध न थाय. वेदांती एक सर्वव्यापक चैतन्य आत्मा माने छे तो त्यां एकमां विरुद्धशक्ति कयांथी सिद्ध थाय? न थाय.
अहा! पोते स्वसन्मुख थई परिणमतां भेगुं विरुद्धधर्मत्व स्वभावनुं परिणमन थाय छे, अने तेमां राग अने परना परिणामनो अभाव होय छे केमके शक्तिनी परिणति राग अने परना परिणामथी अतत्स्वरूपे छे. आम व्यवहारथी निश्चय थाय ए वात अहीं उडी जाय छे. शक्तिना वर्णनमां द्रव्य-गुण अने तेनी निर्मळ पर्यायनी वात छे. शक्ति निर्मळ छे, ने तेनुं परिणमन पण निर्मळ होय छे, विकारनुं परिणमन तेमां समातुं नथी. अहा! वस्तुने पोताना स्वभावथी तद्रूपमयता छे, ने परथी अतद्रूपमयता छे. आवो वस्तुस्वभाव छे. तेथी भगवान आत्मा व्यवहार अने परद्रव्यथी अतद्रूपमय छे. राग अने परद्रव्यना स्वभावनो शक्तिना परिणमनमां अभाव छे तो हवे शरीर ने जड कर्म तो कयांय रही गयां; कर्मनो तो अभाव ज छे, केमके कर्मथी अतद्रूपमय आत्मानो स्वभाव छे. अज्ञानी कहे छे के कर्मना उदयथी विकार थाय छे, पण अहीं तेनो निषेध करे छे.
प्रश्नः– तो शुं कर्म कांई ज नथी.? उत्तरः– कर्म छे ने, पण कर्म कर्ममां छे, आत्मामां ते कांई ज नथी. आत्मा पोताना चैतन्यमय द्रव्य-गुण- पर्यायो साथे एकरूप-तद्रूप छे, परंतु कर्मथी अतद्रूप छे; जुदो छे. जो आम न होय तो जड-चेतननो विभाग मटी जतां आत्मा अने जड बन्ने एकमेक थई जाय, अथवा तो वस्तुनो ज अभाव थई जाय. पण एम छे नहि.
कर्मनो उदय अने विकार बन्नेथी आत्मा अतद्रूपमय छे. विकार विकारमां रहे छे; विकारनी परिणति छे ते निर्विकार परिणमनमां आवती नथी. निश्चयथी तो विकारने (आत्मानी) वस्तु ज गणवामां आवी नथी; विकार पर्यायमां छे तेने परमार्थे परवस्तु गणवामां आवे छे. भाई! व्यवहार रत्नत्रयनो जे विकल्प छे ते शुभराग छे, तेने ज्ञानी पोताना स्वरूपमां गणतो नथी, तेनुं ते स्वामित्व ने कर्तापणुं राखतो नथी.
चारित्र गुण छे ते वीतरागतापणे परिणमे छे, रागपणे नहि, रागथी ते अतद्रूपमय छे; आनंद गुण छे ते आनंदरूपे परिणमे छे, दुःखपणे नहि, दुःखथी ते अतद्रूपमय छे. आम तद्रूपमयता अने अतद्रूपमयता ए विरुद्धधर्मत्वशक्तिनुं लक्षण छे. भगवान आत्मामां अनंत गुणो-धर्मो छे. ते बधा निर्मळ-पवित्र छे, ने ते पोतानी निर्मळ परिणतिमां तद्रूप-तन्मय छे, अने रागादि विकारमां ने परद्रव्यमां अतद्रूप-अतन्मय छे. अनंत गुणनुं तन्मय परिणमन थाय छे, अने विकार तथा परनुं अतन्मयरूप परिणमन थाय छे. विकारमां आत्मा ने आत्मानी परिणति तन्मय नथी. वास्तवमां विकार ने व्यवहारनुं परिणमन आत्माना अस्तित्वमां छे एम गणवामां आवतुं नथी. आ तो वर्षोथी चालती आ वातनुं विशेष स्पष्टीकरण करवामां आवे छे. आ तो घूंटीघूंटीने दृढ करवुं जोईए भाई!
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बाकी बहार तो घणी गडबड चाले छे. लोको आवी सत्य वातनो पण विरोध करवा लाग्या छे. तेथी दृढता माटे अहीं विशेष स्पष्ट करवामां आवे छे. आत्मामां ज्ञान, आनंद आदि अनंत निर्मळ शक्तिओ छे. ते शक्तिओनुं तेरूप परिणमन थाय ते तद्रूपमयता छे, ने रागादिरूप ने परस्वभावरूप ते न थाय ते अतद्रूपमयता छे. आ रीते रागमय परिणमन ते आत्मानी चीज छे ज नहि, ते तो अनात्मा छे, परद्रव्यना स्वभावमय छे, आवी खूब गंभीर सूक्ष्म वात छे.
बिलाडी तेना बच्चाने सात सात दिवस सुधी सात घरे फेरवे छे. तेनी आंख त्यारे बंध होय छे. ज्यारे तेनी आंख खूले छे त्यारे ते जगतने देखे छे. तेनी आंखो खूली नहोती त्यारेय जगत तो हतुं ज, अने आंखो खूली त्यारेय जगत छे. एम आ नवीन पंथ नथी, अनादिनो पंथ छे. तने खबर नहोती त्यारे पण आ वात हती, ने हवे तने खबर पडी त्यारे पण आ वात छे. ए तो अनादिनी छे. जे समजे तेना माटे ते नवीन कहेवाय, पण छे तो अनादिथी ज. वीतरागनो मार्ग तो प्रवाहरूपे अनादिथी चाल्यो आवे छे; जे समजे तेने नवो प्रगट थाय छे. भाई! तुं प्रयत्न करीने आ तत्त्व समज. स्वस्वरूपथी छुं, ने परथी नथी-एवुं तत्त्व समज; तारुं अविनाशी कल्याण थशे. इति.
आ प्रमाणे अहीं विरुद्धधर्मत्वशक्ति पूरी थई.
‘तद्रूप भवनरूप एवी तत्त्वशक्ति. (तत्स्वरूप होवारूप अथवा तत्स्वरूप परिणमनरूप एवी तत्त्वशक्ति आत्मामां छे. आ शक्तिथी चेतन चेतनपणे रहे छे-परिणमे छे.)’
आ समयसार शास्त्र छे; तेमां शक्तिना अधिकार पर व्याख्यानो चाले छे. आत्मामां अनंत शक्तिओ छे. ते अनंतनुं वर्णन थई शके नहि; तेथी अहीं आचार्यदेवे ४७ शक्तिओनुं वर्णन कर्युं छे. प्रवचनसारमां नय अधिकारमां ४७ नयनुं वर्णन कर्युं छे. भैया भगवतीदासजी एक विद्वान कवि थई गया. तेमणे निमित्त-उपादानना दोहा बनाव्या छे तेमां पण ४७ संख्या छे. अने चार घाति कर्मनी प्रकृति पण ४७ छे. तेनो नाश करवानो आमां उपाय बताव्यो छे. द्रव्यसंग्रहनी ४७मी गाथामां आम वर्णन कर्युं छेः-
तह्मा पयत्तचित्ता जूयं भक्ताणं समब्भसह।।
शुं कह्युं गाथामां? के पोताना आत्माना अनुभवरूप जे निश्चय मोक्षमार्ग छे ते ध्यानमां प्राप्त थाय छे. उपर उपरथी कोई धारणा करी ले एवी आ चीज नथी बापु! अहाहा...! ध्रुव द्रव्यने ध्येय बनावी ध्रुवना आश्रये निर्विकल्प ध्याननी दशामां आनंदनो अनुभव प्रगट करवो ते मोक्षमार्ग छे, तेनुं नाम धर्म छे. आ ध्याननी दशा ते निश्चल एकाग्रतानी स्वरूप-रमणतानी दशा छे.
रात्रे प्रश्न थयेलो के-ज्ञाता, ज्ञान अने ज्ञेय शुं छे? उत्तरः– ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय त्रणे आत्मा छे. ज्ञाता पण आत्मा, ज्ञान पण आत्मा, ने ज्ञेय पण आत्मा ज छे. आवी ध्यान-दशा छे.
कळश टीकामां लीधुं छे के-ज्ञेय एक शक्ति छे, ने ज्ञान पण एक शक्ति छे. भगवान आत्मा ज्ञातृ द्रव्य छे; तेनी ज्ञेय एक शक्ति छे, ने ज्ञान पण एक शक्ति छे. ज्ञातृ द्रव्यनी एकाग्रताना परिणमनमां बन्नेनुं परिणमन भेगुं ज छे. आम ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय अने ध्यान-ध्याता-ध्येय-बधुं आत्मा ज छे. सूक्ष्म वात छे भाई!
भगवान आत्मा अनंतगुणनिधान पूर्णानंदनो नाथ प्रभु छे. शक्ति अने शक्तिवान-एवो जेमां भेद नथी एवी अभेद द्रष्टि करी अभेद एक ज्ञायकस्वरूपमां एकाग्र थई तेमां ज लीन थवुं ते ध्यान छे, अने ते धर्म छे. तेमां हुं
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आवो छुं-एवा विकल्पनो पण अभाव छे. अहा! आवी स्वस्वरूपनी निश्चल ध्यान-दशामां स्वाश्रित निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निश्चय मोक्षमार्ग प्रगट थाय छेः अने ए ध्यानमां ज व्यवहार मोक्षमार्ग पण साथे- सहचर होय छे. ध्यानमां जेटलो स्व-आश्रय थयो तेटलुं दर्शन-ज्ञान-चारित्रनुं परिणमन निर्मळ छे, बाकी जे राग सहचर रह्यो तेने उपचारथी व्यवहार मोक्षमार्ग कहेवामां आवे छे. आ रीते ध्यानमां बन्ने मोक्षमार्ग प्राप्त थाय छे.
अहीं शक्तिना वर्णनमां थोडा शब्दोमां आखो भंडार भर्यो छे. कहे छे-‘तद्रूप भवनरूप एवी तत्त्वशक्ति.’ अहाहा...! सच्चिदानंद सहजात्मस्वरूप भगवान आत्मा छे ते पोताना स्वद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावमां तद्रूप छे. आवो आत्मानो तत्त्व स्वभाव छे. त्यां-
• त्रिकाळी एक ज्ञायकभावरूप निर्विकल्प वस्तु ते स्वद्रव्य,
• असंख्यप्रदेशी वस्तुना आधारमात्र पोतानो प्रदेश ते स्वक्षेत्र,
• त्रिकाळ वस्तुमात्रनी मूळ अवस्था-स्थिति ते स्वकाळ, अने
• वस्तुनी मूळ सहज शक्ति ते स्व-भाव. अहा! आवी पोतानी अभेद अखंड निर्विकल्प चीजनुं वलण करीने तद्रूप थईने परिणमवुं ते धर्म छे. आवो मार्ग सूक्ष्म छे बापु! आ अलौकिक वात छे.
अरे, लोकोए तो दया, दान, व्रत, भक्तिमां ने लाखोनुं खर्च शुभकार्योमां करे एमां धर्म मान्यो छे. पण ए धर्म नहि बापु! ए तो बधा विकल्प छे, ने धर्म तो निर्विकल्प छे. अने पैसा वगेरे तो जड वस्तु छे. ए जड मारी चीज छे एम मानीने दानमां आपे ए तो मिथ्यात्वनुं सेवन छे. अहा! जेवो एक ज्ञायकभाव छे तेवुं तेनुं तद्रूप परिणमन थवुं ते धर्म छे. ज्ञायकना तद्रूप भवनरूप तत्त्वशक्ति छे तेमां रागनो-विकल्पनो अभाव छे. मार्ग तो आवो छे बापु!
अहाहा...! भगवान आत्मा एक ज्ञायकस्वरूप, शुद्धतास्वरूप, आनंदस्वरूप परम पवित्र प्रभुत्वशक्तिस्वरूप प्रभु छे. तेमां तद्रूप थवुं, ते रूपे भवन थवुं ते तत्त्वशक्तिनुं स्वरूप छे. भवन एटले परिणमन सहितनी शक्तिनी आ वात छे. तद्रूप भवन एटले परिणमन थवुं ते शक्तिनुं कार्य छे. अहाहा...! शुद्ध ज्ञानरूपे, शुद्ध आनंदरूपे, शुद्ध समकितरूपे, पवित्र वीतरागतारूपे, शुद्ध प्रभुत्वरूपे, पोताना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी भगवान आत्मा जेवो छे तेरूपे तेनुं परिणमन थवुं ते तत्त्वशक्तिनुं कार्य छे; तेमां रागनो अभाव छे. आत्मा एकलुं चैतन्यनुं दळ छे, तेना तद्रूप परिणमनमां राग समातो नथी. आम रागपणे-व्यवहार रत्नत्रयरूपे थवुं ते पोतानो स्वकाळ नथी, ते आत्मा नथी. अरे! लोकोने निवृत्ति मळे नहि, पोताना स्वरूपनी कांई दरकार नहि ने आखो दिवस संसारना-पापना कार्योमां, विषयकषायमां वीती जाय छे. अरे भगवान! तारे कयां जवुं छे? अहीं कहे छे-जेमां तद्रूप परिणमन थाय त्यां जवुं छे, जेमां परद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावनो अभाव छे एवा स्वद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावमां तद्रूप थवुं छे. ल्यो, आ धर्म करवानी रीत छे.
जुओ, पहेलो सौधर्म देवलोक छे तेमां ३२ लाख विमान छेः एकेक विमानमां असंख्य देवता होय छे, कोई विमान नाना छे तेमां संख्यात देवो होय छे. आ देवलोकनो स्वामी इन्द्र समकिती ने एकभवतारी छे; तेने हजारो इन्द्राणीओ होय छे, तेमां जे एक मुख्य इन्द्राणी छे तेय समकिती ने एकभवतारी छे, एक भव करीने तेओ मोक्ष पामशे. तेमने बहारमां अढळक समृद्धि-संपदा छे. पण ते समृद्धि-संपदा पोताना स्वरूपथी-स्वद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी बाह्य छे, स्वस्वरूपभूत नथी एम तेओ माने छे, अनुभवे छे. अहा! सम्यग्दर्शन शुं चीज छे, अने तेनो विषय निज अंतःतत्त्व एक ज्ञायकमात्र वस्तु केवी अद्भुत अलौकिक चीज छे एनी लोकोनेखबर नथी.
अरे, लोको तो लाखोनो खर्च करी मंदिर बंधावो ने प्रतिष्ठा करावो इत्यादि बहारमां रोकाई गया छे, पण ए तो मंदकषायना परिणाम छे भाई! ए कांई धर्म नथी. निज शुद्ध चैतन्यनी द्रष्टि करवी ते धर्म छे, ते तद्रूप परिणमन छे. धर्मीने ते वखते जे शुभराग छे तेनाथी पुण्य ज बंधाय छे. ते पुण्यबंध अने तेनुं फळ जे आवे तेनुं लक्ष छोडी स्वरूपमां स्थिर थई जशे त्यारे ते मोक्ष पामशे. समजाणुं कांई...?
अहीं तो आ स्पष्ट वात छे के-कोई करोडो रूपिया दानमां खर्ची मंदिर आदि बनावे तो त्यां जो रागनी मंदता होय तो पुण्य बंधाय, पण धर्म न थाय. दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना परिणाम ते आस्रव भाव छे, तेनाथी पुण्य बंधाय, ने तेना फळमां संयोग मळे, कदाचित् तेना फळमां वीतराग सर्वज्ञदेवनी वाणी सांभळवा मळी जाय, पण भगवान कहे छे-अमारी वाणी सांभळवामां लक्ष जाय एय राग छे, दुःख छे; ७२मी गाथामां अनेक प्रकारना
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शुभभावने अशुचि, जड अने दुःखना कारण कह्या छे, ने ७४मी गाथामां तेने वर्तमानमां दुःखरूप अने भविष्यमां दुःखना कारणरूप कह्या छे.
प्रश्नः– तो पछी अमारे शुं करवुं? उत्तरः– ए तो कहीए छीए के-रागथी भिन्न थई अंतर-स्वभावनो अनुभव करवो, स्वभावमां तद्रूप थई परिणमवुं. आनुं नाम धर्म छे. बाकी रागनी रुचि छे, परवस्तु देह ने धनादिमां तन्मयता छे ए तो अज्ञान छे, मूढ पणुं छे.
अहा! तत्त्वशक्ति छे ए तो ध्रुव त्रिकाळ छे, पण तेनुं परिणमन थया विना आ (-शक्ति) छे एनी प्रतीति कयांथी थाय? अहा! अतीन्द्रिय आनंदरूपे परिणमवुं, ज्ञातापणे परिणमवुं, अकषाय वीतरागभावरूपे परिणमवुं तेने तद्रूप भवनमय तत्त्वशक्ति कहे छे. अहा! आ शक्तिना वर्णनमां तो घणी गंभीरता छे. जेम ‘जगत्’ शब्दमां केटलुं समाई जाय छे? छ द्रव्य, तेनां गुण-पर्याय, अनंत सिद्ध, अनंतानंत निगोदराशि इत्यादि बधुं ‘जगत्’ शब्दमां समाई जाय छे, तेम आ तत्त्वशक्तिमां घणुंबधुं समाय छे. अहा! पोताना स्वस्वरूपे-एक चैतन्यरूपे तद्रूप परिणमन थाय तेनुं नाम तत्त्वशक्ति छे, तेमां रागनो अभाव छे, केमके चैतन्यमां रागनो अंश नथी.
आ शरीर तो जड माटी-धूळ छे भाई! भगवान आत्मामां तेनो सदाय अभाव छे. अरे, पण एने कयां पडी छे के भविष्यमां शुं थशे? अहीं मनुष्यदेहनी स्थिति तो पचीस-पचास, सो वर्षनी छे. खबरेय न पडे ने देह फू थईने उडी जाय. अहींथी देह छूटया पछी कयां जईश भाई? कयां उतारा थशे? कांई विचार ज नथी, पण आत्मा तो अनादि-अनंत वस्तु छे, एटले ते अनंत काळ रहेशे; पण आ देहनी रुचिमां ते कयांय चारगतिमां रझळशे- आथडशे. समजाय छे कांई...?
अरे! लोको तो शरीर, बैरां-छोकरां ने धंधा-वेपारमां सलवाई गया छे. अरेरे! आ धंधानी लोलुपतावाळा जीवो तो मरीने कयांय पशुमां अवतार लेशे; केमके तेमने तद्रुप भवनमय धर्म तो प्राप्त थयो नथी, अने पुण्यनां पण कांई ठेकाणां नथी. साचा वीतरागी देव-गुरु-शास्त्रनुं सेवन करवुं ते पुण्य छे, एय तेमने नथी. धंधानी लोलुपता ने विषय-भोगनी प्रवृत्ति आडे एमने धडीनीय नवराश नथी. परंतु भाई! ए बधुं धूळनी धूळ छे बापु! एमांनु कांई तारा स्वरूपमां आवे एम नथी.
शास्त्रमां आवे छे के मनुष्यनो भव अनंतकाळे मांड एक वार आवे छे. अने तोय अने अनंत वार मनुष्यनो भव मळ्यो छे. अहा! जेटला अनंत भव एणे मनुष्यना कर्या छे एनाथी असंख्यात गुणा अनंत भव एणे नरकना कर्या छे; अने जेटला भव एणे नरकना कर्या छे एनाथी असंख्य गुण अनंत भव एणे स्वर्गना कर्या छे. नारकी तो मरीने स्वर्गे जता नथी, ने मनुष्यो बहु थोडा छे. संज्ञी पंचेन्द्रिय पशु मरीने स्वर्गे जाय छे. अढी द्वीपनी बहार घणां पशु छे तेमांथी मरीने शुभभावना फळमां घणा जीवो स्वर्गमां जाय छे. जीवे स्वर्गना जेटला भव कर्या छे तेनाथी असंख्य गुणा अनंत भव तिर्यंचना कर्या छे. एक श्वास लेवाय एटला समयमां तो जीव निगोदमां अढार भव करी ले छे. अहा! जीवे अनंत काळ निगोदमां वीताव्यो छे. आम चार गतिनी रझळपट्टीमां एणे दुःख ज दुःख-पारावार दुःख उठाव्युं छे.
अहीं एक कांटो वागे तो केवुं दुःख थाय छे? राड पाडी जाय छे. एक कांटो वागतां भारे दुःखी थाय छे. पहेली नरकमां ओछामां ओछी दस हजार वर्षनी आयुष्यनी स्थितिमां आना करतां अनंतु दुःख छे; ने निगोदना दुःखनुं तो शुं कहेवुं? भगवान सिद्धनुं अनंत सुख ने निगोदनुं अनंत अनंत दुःख-तेनुं कथन केम करी करवुं? भाई! तें आवा दुःखमां अनंत काळ वीताव्यो छे. अहीं ए दुःखथी निवृत्तिनो आचार्यदेव उपाय बतावे छे.
कहे छे-एक वार सांभळ तो खरो प्रभु! अहीं अमे भवनो अभाव करवानो उपाय तने कहीए छीए. अहा! तारी वस्तुमां एक तत्त्वशक्ति नामनी शक्ति पडी छे. तेनुं तद्रूप परिणमन थाय ते भवना अंतनो उपाय छे. अहाहा...! भगवान आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु छे; तेमां एकाग्र थई तेना आश्रये परिणमतां ज्ञानस्वरूप, आनंदस्वरूप-एवुं तद्रूप परिणमन थाय ते भवना अंतनो उपाय छे. भाई, शक्तिनुं तद्रूप परिणमन थाय तेने ज अहीं आत्मा कह्यो छे. शक्तिना परिणमनमां विकारनी वात ज नथी. विकार तो बहारनी चीज छे. अहीं तो क्रमवर्ती निर्मळ पर्याय अने अक्रमवर्ती गुणोना समुदायने आत्मा कहेवामां आव्यो छे. ए तो प्रथम ज कहेवाई गयुं के-“ ज्ञानमात्रमां अचलितपणे स्थापेली द्रष्टि वडे, क्रमरूप अने अक्रमरूप प्रवर्ततो, तद्-अविनाभूत अनंतधर्मसमूह जे कांई जेवडो लक्षित थाय छे, ते