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सघळोय खरेखर एक आत्मा छे.” आम आत्मा ज्ञानानंदस्वरूप छे तेनुं तद्रूप-ज्ञानरूप, आनंदरूप, वीतरागतारूप परिणमन थाय ते भवना अंतनो उपाय छे.
बहु झीणी वात छे प्रभु! अत्यारे तो धर्मना नामे बहु गोटा उठया छे. दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना शुभभावमां लोको धर्म मानी बेठा छे, पण ए मान्यता तो मिथ्या छे बापु! अहीं कहे छे-सम्यग्दर्शनस्वरूप जे पोतानी चीज अंदर अखंड एकरूप छे ते ध्येयरूप निज वस्तुमां एक तत्त्वशक्ति पडी छे. तेनुं तद्रूप-ज्ञाताद्रष्टारूप, वीतरागतारूप, आनंदरूप परिणमन थाय ते तत्त्वशक्तिनुं स्वरूप छे. हवे आवो उपदेश कदी सांभळ्यो न होय, ने मात्र मूढपणे जिंदगी व्यतीत कर्ये जाय. बहारमां कदाचित् डाह्यो गणाय तोय शुं? ए ते कांई डहापण छे? पोताना हाथमां रहेलुं हथियार पोतानुं ज गळुं कापे तो ए हथियार शुं कामनुं? तेवी रीते जे डहापणथी तारा भव वधी जाय ते डहापण शुं कामनुं? ए तो नरी मूढता ज छे.
आ तत्त्वशक्ति छे ते त्रिकाळ ध्रुव छे. तेना परिणमनमां तेनी प्रतीति थाय छे. परिणमन थया विना तेनी प्रतीति कयांथी थाय? आत्मा अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप त्रिकाळ छे, पण पर्यायमां अतीन्द्रिय आनंदना रसनुं वेदन आव्या विना अतीन्द्रिय आनंदस्वरूपनी प्रतीति कयांथी आवे? कारण तो त्रिकाळ ध्रुव छे, तद्रूप कार्य थाय तेमां कारणनी प्रतीति आवे छे, अने एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. समजाणुं कांई...? तत्त्वद्रष्टि बहु सूक्ष्म छे बापु! पण तेना विना बधुं धूळधाणी छे. आ देहना रजकण तो गमे त्यारे साथ छोडी देशे, ने तत्त्वदृष्टि विना ए चोरासीना चक्करमां ए कयांय अटवाइ जशे. भाई, हमणां ज तत्त्वद्रष्टिनो पुरुषार्थ कर.
पण तत्त्वद्रष्टि बहु कठण छे ने? हा, कठण छे; अनंत काळमां तत्त्वद्रष्टि करी नहि तेथी कठण कही छे, पण ते अशकय नथी. कळश टीकामां आवे छे के आ वस्तु समजवी अति कठण छे, पण शुद्ध स्वरूपनो विचार करतां आनंदनो अनुभव थाय छे. शुद्ध स्वरूपनुं अंतर्मुख अनुभवन-तद्रूप-ज्ञानानंदरूप भवन करतां आवो अनुभव थई शके छे. अरेरे! पुरुषार्थ शुं कहेवाय तेनी लोको ने खबर नथी. आ कर्युं ने ते कर्युं-एम अनेक प्रकारना मिथ्या विकल्पो करे तेने लोको पुरुषार्थ कहे छे. बधा आंधळे-आंधळा होय त्यां शुं थाय? चालनारोय आंधळो ने मार्ग देखाडनारोय आंधळो; पछी बन्ने कूवामां (संसारमां) ज पडे ने!
अहा! ३२ लाख विमाननो स्वामी सौधर्म-इन्द्र इन्द्राणी साथे भगवाननी वाणी सांभळवा आवे छे. अहा! ते वाणीनुं शुं कहेवुं? तथापि इन्द्र ते वाणीमां ने तेने सांभळवाना रागमां तन्मय नथी. मारी पर्यायमां वाणीनी ने रागनी नास्ति छे एम ते माने छे. हवे ओला ३२ लाख विमाननुं स्वामीपणुं तो कयांय जतुं रह्युं. ए तो ए बधाने परज्ञेयपणे जाणे छे. अहो! सम्यग्द्रष्टि पुरुषो आवी तत्त्वद्रष्टि वडे बहारमां कयांय गुंचाता नथी, मुंझाता नथी.
अहा! तद्रूपभवनमय तत्त्वशक्ति छे. आ तत्त्वशक्ति द्रव्य-गुण ने पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. अहा! शक्ति शक्तिपणे त्रिकाळ छे, ते पर्यायमां क्यारे व्यापक थाय? के तत्स्वरूप उपर द्रष्टि थईने परिणमन थाय त्यारे ते पर्यायमां व्यापक थाय छे. अहा! आम शक्ति पर्यायमां व्यापक थतां द्रव्य तत्स्वरूप त्रिकाळ, गुण तत्स्वरूप त्रिकाळ ने वर्तमान पर्याय पण तत्स्वरूप प्रगट थाय छे, ने आनुं नाम धर्म छे. हवे केटलाकने तो द्रव्य-गुण-पर्याय शुं एय खबर न होय अने माने के एम जैन छीए, पण बापु जैन कांई संप्रदायनी चीज नथी, ए तो वस्तुना तद्रूप परिणमनस्वरूप छे. अरे भगवान! तारुं रूप शुं, तारुं स्वरूप शुं ने तारुं तद्रूप भवन शुं-ए बधुं समज्या विना तने धर्म कयांथी थशे?
आगळ स्वधर्मव्यापकत्वशक्तिनुं वर्णन आवी गयुं. तेमां कह्युं के-राग छे ते परधर्म छे, ते रागमां आत्मा व्यापक नथी. अहीं कहे छे-तत्स्वरूप परिणमन थाय ते तारुं रूप छे. ज्ञान ने आनंदनुं परिणमन थाय ते रूप तत्त्वशक्ति छे, ने ते तत्त्वशक्तिमय तुं भगवान आत्मा छो. ओहो! आ तारी चैतन्य ऋद्धि-संपदाने जरा जो तो खरो! तारामां शुं भर्युं छे तेनी आ वात चाले छे. प्रभु! तुं धूळनी संपदामां मूर्छा पामी मूढ थई गयो छो, पण तारी चैतन्यवस्तुमां अनंत चैतन्यसंपदाओ-अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत वीर्य आदि अनंत गुण संपदाओ भरपुर भरी छे. अहाहा...! जेनी द्रष्टि करतां तुं न्याल थई जाय एवो भगवान! तुं कारणपरमात्मा छो.
एक वखते प्रश्न थयेलो के-कारण परमात्मा छे तो तेनुं कार्य आववुं जोईए ने? त्यारे कहेलुं-कारणपरमात्मा तो अंदर त्रिकाळ छे, पण तेनुं परिणमन थाय तेमां तेनी प्रतीति थाय ने?
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अंतर-प्रतीति थया विना कारणपरमात्मा कोने कहेवो? तत्स्वरूपनी-शुद्ध एक ज्ञायकस्वरूपनी द्रष्टि करीने, ज्ञानमां पोताना स्वद्रव्यने ज्ञेय बनावी, तेनी अंतर-प्रतीति करे तेने, हुं आ कारणपरमात्मा छुं एम प्रतीति थाय छे. तेने कारणपरमात्मा प्रसिद्ध थाय छे, ने तेने सम्यग्दर्शन-ज्ञान आदि कार्य प्रगट थाय छे. पण जे अंतर्मुख द्रष्टि करतो नथी तेने कारणपरमात्मा कयां छे? तेने तो ते होवा छतां नहि होवा बराबर ज छे.
अहा! परना प्रेममां ते पोताना प्रभुने भूली गयो छे. आखो दिवस बस रळवुं-कमावुं ने बैरां-छोकरां साचववां -एम परमां ज ते रोकाई गयो छे. आम तेने पोताना स्वरूप-स्वद्रव्य प्रत्ये अरुचि-द्वेषनो भाव वर्ते छे. “द्वेष अरोचक भाव”-जेने स्वरूप रुचतुं नथी, परवस्तु रुचे छे तेने स्वरूप प्रत्ये द्वेष छे. जेने रागनी रुचि छे, जे रागमां तन्मय छे, तेने पोताना ज्ञानस्वभावमय अंतःतत्त्व प्रत्ये द्वेष छे. स्तुतिमां आवे छे ने के-
सेवन कारण पहेली भूमिका रे, अभय, अद्वेष, अखेद.
अज्ञानी भय पामीने चंचळ थाय छे, तेना परिणाम अंदर स्वस्वरूपमां जता नथी; तेने स्वरूपनो भय छे, स्वरूप प्रत्ये तेने द्वेष छे, अंदर प्रवेशतां तेने भय अने खेद थाय छे.
अहा! स्वरूपमां जतां अज्ञानीने भय अने खेद-थाक लागे छे, तेथी तेने स्वरूप प्रत्ये द्वेष वर्ते छे. पण अरे भाई! तारुं स्वरूप तो अभय, अखेद छे. अहा! एकेक शक्तिमां आचार्यदेवे केटकेटलुं रहस्य भर्युं छे! एक शक्तिनो ख्याल आवे तो अनंत शक्तिमय वस्तुनो ख्याल आवी जाय एवी आ वात छे. आचार्य जयसेनदेवे कह्युं छे के-एक भावने यथार्थ जाणे तो अनंत भाव यथार्थ जाणवामां आवी जाय छे.
अहा! सर्वज्ञ परमात्मा जेओ पूर्ण तत्त्वस्वरूप परिणमीने सर्वज्ञत्व, ने सर्वदर्शित्वरूप दशाने प्राप्त थया ते भगवानना श्रीमुखेथी आ वाणी नीकळी के-तारुं स्वरूप मारी जेम पूर्ण तत्त्वशक्तिमय छे. शरीररूपे थवुं, ने रागरूपे थवुं एवुं तारुं स्वरूप नथी. शरीर-हाडमांसनुं पोटलुं तो जड माटी धूळ छे. शरीरनी क्रिया थाय तेय जडनी क्रिया छे, ने दया, दान, व्रत, भक्तिना विकल्प उठे तेय जडना संगे थयेला जडरूप परिणाम छे, ते चैतन्यना तद्रूप भवनरूप नथी. आकरी वात प्रभु! पण आ सत्यार्थ छे.
अहा! लोको अनादिथी पापना फंदमां फसाई रह्या छे. त्यांथी नीकळे तो दया, दान, व्रत, आदि बाह्य क्रियाकांडमां रोकाई जाय छे. पण एय बधो विकल्प-राग छे, ने रागरूपे थवुं ए तद्रूप भवनमय शक्तिनुं कार्य नथी. अरेरे! अज्ञानी जीवो शुभरागनी क्रियानुं शुद्धतानुं कारण मानी धर्मना बहाने रागनुं ज सेवन करे छे! पण अरे भाई! ए क्रियाना प्रेममां तें तारी चीजने मरणतुल्य करी नाखी छे, पोताना त्रिकाळ सत्ने तें हणी नाख्युं छे. सवारे टेपरेकोर्डींगमां कळशटीकानो कळश २८मो चाल्यो हतो. बहु ज सरस वात आवी हती. शेठ तो खुश थई बोली उठेला-“दिव्यध्वनि नीकळी.” अरे भगवान! भग नाम ज्ञान अने आनंदनी लक्ष्मीथी भरपुर तारी चीज भरी छे. तो सर्व भेदविकल्पनुं लक्ष छोडी अंतर्मुख लक्ष कर, जेथी आनंदनो अनुभव प्रगट थशे. आनुं नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे.
अहा! भगवान जिनेन्द्रदेव, सर्वज्ञ परमात्मा एम फरमावे छे के तद्रूप भवनरूप तारी शक्ति छे, तारामां तद्रूप परिणमननुं सामर्थ्य छे. तारा पुरुषार्थमां आवुं सामर्थ्य भर्युं छे, केमके तद्रूप थवारूप तत्त्वशक्तिनुं पुरुषार्थ शक्तिमां रूप छे, पुरुषार्थमां पोते शुद्धत्वरूप परिणमे एवुं तत्त्वशक्तिनुं रूप छे. समजाणुं कांई...?
भाई! आचार्यदेव तने भगवान कहीने बोलावे छे. ७२मी गाथामां आचार्यदेवे आत्माने ‘भगवान आत्मा’ कहीने जगाडयो छे. जेम माता बाळकने झुलामां झुलावे त्यारे मीठां हालरडां गाई तेनी प्रशंसा करे छे, ने तेने सुवाडे छे. बाळकने अव्यक्तपणे प्रशंसा प्रिय होय छे. तेम संतो तने जगाडवा माटे तारा स्वरूपनां मीठां गीत गाय छे. अरे भाई! तारा गुणनां मीठां-मधुरां गीत शुं तने प्रिय नथी? जाग नाथ! जाग; चैतन्यनी चमत्कारिक शक्तिथी भरेलो भगवान! तुं सच्चिदानंदस्वरूप परमात्मा छो. तद्रूप भवनरूप तारा स्वभावने भूलीने दया, दान आदि रागना प्रेममां तें तारा चैतन्यदेवने मरणतोल करी नाख्यो छे. रागना प्रेममां प्रभु! तारी चैतन्यसंपदा हणाई-लूंटाई रही छे.
केटलाक तो वळी एम माने छे के-आ धंधापाणीमां ने विषयमां लक्ष जाय तेने राग कहेवाय, पण व्रत, तप,
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भक्ति, पूजा इत्यादिना विकल्प कांई राग न कहेवाय, ए तो धर्म कहेवाय. अरे भाई! रागना स्वरूपनी तने साची समज नथी. ए सर्व क्रियाकांडमां लक्ष जाय ते भाव पण राग छे, बंधनुं कारण छे, दुःखरूप छे. ते भाव कांई चैतन्यना तद्रूप परिणमनरूप नथी.
प्रश्नः– तो शास्त्रोमां व्रत-तप आदि परिणामने धर्म कह्यो छे? उत्तरः– हा, ए तो धर्मी पुरुषनी धर्म परिणतिनो सहचर जाणीने आरोप दई उपचारथी तेने (व्रतादिना विकल्पने) धर्म कह्यो छे. ते उपचारमात्र समजवो, ते कांई वास्तविक धर्म नथी.
प्रश्नः– तो पछी शुं करवुं? उत्तरः– राग अने ज्ञान वच्चे सहज ज भिन्नता छे तेनुं भान करी भेदज्ञान करवुं; रागनुं लक्ष छोडी, स्वभावनुं ग्रहण करवुं. ल्यो, आनुं नाम धर्म छे. धर्मी पुरुषने राग आवी जाय छे पण तेमां तेने हेयबुद्धि होय छे, तेमां एने कर्ताबुद्धि अने स्वामित्व होतां नथी. शुभरागने उपादेय मानवाथी, आदरणीय मानवाथी भगवान चिदानंदस्वरूपनो अनादर थई जाय छे. राग हेय छे तेने उपादेय मानवाथी चिद्रूप, तद्रूप भवनमय भगवान आत्मानो द्रष्टिमां अभाव थई जाय छे; कळशमां आव्युं छे के-मरणने प्राप्त थाय छे.
भगवान! ज्ञान अने आनंदमय तारुं जीवन छे. जीवनशक्तिथी शक्तिनो अधिकार शरु कर्यो छे ने? अहाहा...! जीवनशक्तिमां तत्त्वशक्तिनुं रूप छे, ने तत्त्वशक्तिमां जीवनशक्तिनुं रूप छे. एटले शुं? के भगवान आत्मानुं तत्त्व जे ज्ञानानंदस्वभावमय छे ते-रूपे-तद्रूप परिणमन करवुं, ते रीते जीवनुं जीववुं ए वास्तविक जीवन छे. शरीरथी ने रागथी जीववुं ए जीवन नथी, ए तो मरण बराबर ज छे.
हवे लोकोने आवी वात समजाय नहि, ने पोताना मानेला (मिथ्या) आचरणनो आग्रह छूटे नहि एटले विरोध करे, पण कोनो विरोध? ए तो पोतानो ज विरोध छे बापु! परनो विरोध कोण करी शके छे? कोई ज नहि. अमे तो ‘मंदिर बनावो ने महोत्सव करावो’ इत्यादि कोई दिवस कोईने कहेता नथी. अमे तो सत्शास्त्रना अभ्यासथी सत्य समजवानो ने अंतरमां सम्यक् पुरुषार्थ करी सम्यग्दर्शन प्रगट करवानो उपदेश करीए छीए. अत्यारे तो सत्शास्त्रना अभ्यास वडे सत्य समजवानो काळ छे.
अरेरे! अंदर पूर्णानंदनो नाथ सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु छे ते द्रष्टिमां न आव्यो, तेनुं तद्रूप भवनमय परिणमन न कर्युं तो जीवनमां शुं कर्युं? कांई ज ना कर्युं, जीवतर एळे गयुं. भाई! आ बहारनी धूळ-लाख-क्रोडनी संपत्ति मळी जाय तो एमां शुं छे? ए तो धूळनी धूळ छे. मुंबईमां अमे उतर्या हता ए मकान ७० लाखनी किंमतनुं हतुं. पण एमां शुं आव्युं? आ मनुष्य देह छूटया पछी जीव चोरासीना अवतारमां कयांय रझळतो थई जशे. अमे तो वारंवार कहीए छीए के जेम वंटोळिये चढेलुं तणखलुं कयां जई पडशे ते निश्चित नथी तेम मिथ्यात्वना वंटोळिये चढेलो जीव चोरासीना अवतारमां कयांय कागडे-कुतरे-कंथवे... जई पडशे, -कांई निश्चित नथी. अरे भगवान! जरा अंदर तो नजर कर; एकलुं चैतन्यनुं दळ चैतन्य-चमत्कार प्रभु तुं आत्मा छो, अने तद्रूप भवन-परिणमन ए तारुं कार्य छे.
अहो! दिगंबर संतोनी आ रामबाण वाणी छे. शुं थाय? जीवने आ वाणी मळी नथी, ने कदाचित् मळी तो प्रेमथी जिज्ञासा करी सांभळी नथी. “झीणी वात छे, सूक्ष्म वात छे, आमां आपणुं काम नहि”-आम बहानां काढीने तेणे समजवानुं छोडी दीधुं छे. अहाहा...! पण भगवान आत्मा ज्ञानादि अनंत स्वभावनो दरियो छे. समुद्रना कांठे समुद्रना पाणीनी जेम भरती आवी तेम भगवान आत्मामां द्रष्टि करतां पर्यायमां तद्रूप भवनरूप ज्ञान ने आनंदनी भरती आवे छे, ने आनुं नाम धर्म छे.
अहा! भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यस्वभावमय छे, ते एक चैतन्यरूपे परिणमे ते तेनुं तद्रूप भवन छे. अरे डाह्या! तारुं आवुं परिणमन थाय त्यारे तारुं डहापण कहेवाय. १९६४नी वात छे. पालेजमां अमारी दुकान हती. डाह्याभाई धोळशानी भरूचमां नाटक कंपनी आवेली. मीरांबाईनुं नाटक हतुं. ते नाटक कंपनीना मालीकनुं नाम डाह्याभाई हतुं. ते मरती वखते एम बोलेला-डाह्या! शांतिपूर्वक तारो देह छूटे त्यारे तारुं डहापण कहेवाय. तेम अहीं सर्वज्ञ परमात्मा कहे छे-निज चैतन्यस्वरूप आत्मद्रव्यनो आश्रय करी अंतरमां निर्विकल्प आनंदनी अनुभव दशा प्रगट करे त्यारे तारुं डहापण कहेवाय. बाकी राग मंद करीने लाखोनां दान आपे तोय शुं? एथी पुण्य बंधाय, संसार मळे,
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पण तद्रूप भवनरूप चैतन्यनी निराकुल आनंदनी परिणति न थाय.
भाई! तारा आत्मामां तद्रूप भवनमय तत्त्वशक्ति छे; तेने ओळखी अंतर्मुख थतां ज तेनुं तद्रूप परिणमन थाय छे, अने आ ज धर्म छे, आ ज मोक्षमार्ग छे.
आ प्रमाणे तत्त्वशक्तिनुं अहीं वर्णन पूरुं थयुं.
‘अतद्रूप भवनरूप एवी अतत्त्वशक्ति.’ (तत्स्वरूप न होवारूप अथवा तत्स्वरूपे नहि परिणमवारूप अतत्त्व-शक्ति आत्मामां छे. आ शक्तिथी चेतन जडरूप थतो नथी.)
अहाहा...! रागरूपे न थवुं, पुण्यना भावपणे न थवुं, पर द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावपणे न थवुं एवी अतत्त्व नामनी जीवमां शक्ति छे. पोताना स्वद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावपणे रहेवुं... निर्मळ निर्मळ थवुं-ते तत्त्वशक्तिमां वात करी. अने रागपणे न थवुं तेम ज परना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावपणे न थवुं एवो जे आत्मानो स्वभाव छे ते अतत्त्वशक्ति छे.
ल्यो, हवे लोको तो कहे छे के-व्यवहार करतां करतां निश्चय थशे, त्यारे अहीं आ स्पष्ट कहे छे के- व्यवहाररूपे न थवुं एवी आत्मानी अतत्त्वशक्तिनुं स्वरूप छे. अहाहा...! अनंत अनंत शक्तिनो भंडार प्रभु आत्मा छे. भाई! तारा भंडारमां अक्षय निधान भर्यां छे. अहा! ते निधान एवां भर्यां छे के केवळज्ञान थाय तोय तेमां कांई घटाडो थतो नथी; अने निगोदमां गयो त्यां अक्षरना अनंतमा भागे मतिज्ञान हतुं त्यारेय अंतरनां अक्षय निधान तो एवां ने एवां पूर्ण रह्यां छे. आ लसण ने डुंगळीमां निगोदना जीवो छे. एक नानकडी कणीमां असंख्य शरीर छे, ने एकेक शरीरमां अनंता जीवो रह्या छे. पण ए जीवो स्वरूपथी तो तद्रूप भवनरूप छे.
काले वात करी हती के नारकीने स्वर्गनुं सुख नथी. आ लौकिक सुखनी वात छे; साचुं सुख तो स्वर्गनी धूळमांय कयां छे? कोई नारकी जीवनी आयुष्यनी स्थिति दस हजार वर्षनी होय छे, ने वधारेमां वधारे ३३ सागरनुं आयुष्य होय छे. ते नारकीना जीवने स्वर्गनुं सुख बीलकुल नथी, तेम ज स्वर्गना देवने नारकी जीवोनुं दुःख बीलकुल होतुं नथी. तेवी रीते परमाणुमां पीडा नथी, तथा भगवान आत्मामां विकार के शरीर नथी. एक परमाणु छूटो छे ते शुद्ध होय छे, स्कंधमां भळतां ते विभावरूपे थाय छे. स्कंधमां वैभाविक पर्याय थाय छे. कर्मरूप पर्याय छे ते वैभाविक पर्याय छे; कर्मपणे थाय एवो कोई गुण परमाणुमां नथी. विभावरूप पर्याय पोताथी स्वतंत्र थाय छे. परमाणु स्वतंत्रपणे, कोई गुण विना, पर्यायमां कर्मरूपे-विभावरूपे परिणमे छे. आ शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय, पैसा-धूळ ए बधा स्कंधो छे ते वैभाविक दशारूपे थयेला छे. तेवी रीते भगवान आत्मामां विकार थाय एवो कोइ गुण नथी, बल्के विकारपणे न थाय एवो आत्मानो अतत्त्व स्वभाव-गुण छे. आवी वात! समजाणुं कांई...? विकार थाय ए तो परना लक्षे स्वतंत्र थयेली वैभाविक दशा छे, ते कांई शक्तिना कार्यरूप नथी. आवी झीणी वात भाई!
बेनना वचनामृतमां आवे छे के-जेम अग्निमां उधई नथी, कंचनमां काट नथी, तेम आत्मामां आवरण नथी, उणप नथी, अशुद्धि नथी. अहाहा...! भगवान आत्मा पूर्णविज्ञानघन, परम पवित्र, पूर्णानंदनो नाथ प्रभु छे, तेमां परद्रव्यरूपे न थवारूप एक अतत्त्वशक्ति त्रिकाळ पडी छे. अहा! रागरूपे ने शरीररूपे न थाय एवी आत्मामां अतत्त्व-शक्ति त्रिकाळ छे. हवे आवी वात कोई भाग्यशाळी होय तेना काने पडे. स्तुतिमां आवे छे ने के-
तुम धुनि ह्यै सुनि विभ्रम नशाय.
पुण्यना फळमां आ धूळ-लक्ष्मी मळे ते भाग्यशाळी एम नहि, भगवाननी वाणी काने पडे ते भाग्यशाळी छे; ए धूळवाळा-लक्ष्मीवाळा तो भांगशाळी छे, केमके एमने तो एनो नशो चढे छे ने!
भाई! आ तो त्रणलोकना नाथ सर्वज्ञ परमात्मानी वाणी छे. भगवान महावीर स्वामी तो मोक्ष पधार्या. तेओ
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तो ‘णमो सिध्दाणं’-सिद्धपदमां हाल विराजे छे. श्री सीमंधर भगवान महाविदेहक्षेत्रमां हाल बिराजे छे. तेओ ‘णमो अरिहंताणं’-अरिहंतपदे विराजे छे. तेमनी ॐध्वनि हंमेशां नीकळे छे. भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव संवत ४९नी सालमां विदेहक्षेत्रमां पधार्या हता, त्यां आठ दिवस रह्या हता. तेमणे त्यां साक्षात् भगवाननी वाणी सांभळी छे, ने त्यांथी आवीने पछी आ बधां शास्त्रो रच्यां छे. आम आ भगवाननी वाणी छे.
तेमां कहे छे-रागरूपे, विकाररूपे न थवुं एवी एक आत्मानी अतत्त्वशक्ति छे. दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादिना भाव ए राग छे. देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धा-विनय-भक्तिनो भाव एय राग छे, शास्त्र भणवां एय राग-विकल्प छे. नव तत्त्वनी भेदरूप श्रद्धा ने पंचमहाव्रतना परिणाम ए पण बधो विकल्प-राग छे. अहीं कहे छे- ए व्यवहार रत्नत्रयना रागरूपे न थवुं एवो अतत्त्वशक्तिस्वरूप भगवान आत्मा छे. हवे आम छे त्यां बैरां- छोकरां ने महेल-मकान ने हजीरा ने धन-संपत्ति इत्यादिपणे थवुं ए कयां रह्युं? अरे, ए तो बधां कयांय दूर रही गयां. भाई! ए बधांने पोतानां मानीने तुं अनंतकाळमां हेरान-हेरान थई गयो छे. अपनेको आप भूलके हेरान हो गया. अरे, पोतानुं स्वरूप अंदर केवुं छे एनी वात एणे अंदर प्रीति लावीने कदी सांभळी नथी. श्री पद्मनंदि स्वामी पद्मनंदि पंचविंशतिमां कहे छे ने के-
निश्चितं स भवेद्भव्यो भाविनिर्वाणभाजनम्।।
अहा! जीवे रागथी भिन्न निज भगवान आत्मानी वात प्रीतिपूर्वक कदी सांभळी नथी. आचार्य कहे छे- अंतरमां प्रीति लावीने जे निज शुद्धात्मानी वात सांभळे छे ते अवश्य भावि निर्वाणनुं भाजन थाय छे.
जुओ, पहेलां कह्युं के-आनंदरूपे परिणमे एवी आत्मानी तत्त्वशक्ति छे. अहीं कहे छे-रागरूपे ने जडपणे परिणमे नहि एवी आत्मानी अतत्त्वशक्ति छे. आवी वात! हवे अत्यारे तो बहार बधे प्ररूपणा ज एवी चाले छे के -दया पाळो, व्रत करो, तपस्या करो, भक्ति करो, ने एम करतां करतां आत्म-कल्याण थई जशे. पण आवी प्ररूपणा बराबर नथी, केमके पररूपे के रागरूपे परिणमे एवी आत्मामां कोई शक्ति ज नथी; उलटानुं कहे छे- आत्मामां अतद्भवनरूप अतत्त्वशक्ति छे. शरीरपणे न थवुं ए तो ठीक वात, पण पर्यायमां रागादिरूप परिणमन छे ते-रूपे-तद्रूपे न थाय एवी अतत्त्वशक्ति आत्मामां त्रिकाळ पडी छे.
शुद्ध चैतन्यपणे थवुं एवी आत्मानी तत्त्वशक्ति छे, ने रागरूपे न थवुं एवी एनी अतत्त्वशक्ति छे. एवो ज एनो स्वभाव छे. तेथी राग करो ने तमारुं कल्याण थई जशे एवी वात तद्न विपरीत छे. मिथ्यात्वना जोरमां अज्ञानी भले गमे ते कहे, पण रागादिरूप न थवुं एवो भगवान आत्मानो त्रिकाळी स्वभाव छे. हवे आम छे त्यां आ पैसा कमावा, ने सगांवहालांने राजी राखवां, ने विषयभोग भोगववा इत्यादिरूपे आत्मा थाय ए वात कयां रहे छे? ए तो बधुं कयांय दूर रही गयुं. हवे तत्त्व-समजण करतो नथी, ने आखो दि’ संसारना प्रपंचमां ज रच्यो रहे छे, पण एनुं फळ बहु आकरुं आवशे भाई! मिथ्यात्वनुं फळ परंपरा निगोद छे बापु!
अहीं कहे छे-जे एनामां नथी ते-रूपे थवुं एवो वस्तुनो स्वभाव ज नथी; पररूपे ने रागादिरूपे न थाय एवो आत्मानो स्वभाव छे.
चक्रवर्तीने नव निधान होय छे; ए तो धूळ-जड निधान छे. अने भगवान आत्मामां अनंत चैतन्यशक्तिनां निधान भर्यां छे. पण एनो महिमा लावी एनी रुचि एणे कदी करी नथी. कदीक शास्त्रनुं ज्ञान थयुं तो एमां खुशी थई गयो, संतुष्ट थई गयो; परंतु भाई, शास्त्रज्ञान ए वास्तवमां ज्ञान ज नथी, आत्मज्ञान ज्ञान छे. अहीं कहे छे-अज्ञानपणे न थवुं एवी आत्मानी अतत्त्वशक्ति छे. जेम परमाणुमां कर्म थाय एवो कोई गुण नथी; गुण विना अद्धरथी परमाणुमां कर्मरूपी पर्याय थाय छे, तेम आत्मामां विकार थाय एवी कोई शक्ति नथी; अद्धरथी, गुण विना, पर्यायमां स्वतंत्र पोताथी विकार थाय छे. बाकी विकारपणे न थवुं एवो ज द्रव्यनो त्रिकाळी स्वभाव छे; आवुं अतत्त्वशक्तिनुं स्वरूप छे.
जेम एक परमाणु द्रव्यमां पीडा नथी, पीडानो अभाव छे, तेम त्रिकाळी आत्मद्रव्यमां विकार नथी, विकारनो अभाव छे. विकारने उत्पन्न करे एवी आत्मामां कोई शक्ति नथी. आत्मामां एक वैभाविकशक्ति छे, पण ते शक्ति विकार करे छे, विभावरूप परिणमन करे छे एवो एनो अर्थ नथी. ए तो धर्मास्तिकाय आदि चार द्रव्योमां नथी एवी विशेष शक्तिने वैभाविकशक्ति कहेवामां आवी छे. जीव अने पुद्गल परमाणु-आ बे द्रव्योमां आवी खास शक्ति छे. धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश अने काळ ए चार द्रव्योनुं तो शुद्ध परिणमन सदा पारिणामिकभावरूप छे.
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ते चारनां द्रव्य-गुण पारिणामिकभावे छे, अने तेनी पर्याय पण पारिणामिकभावरूप कहेवामां आवी छे, केमके तेमां उत्पाद-व्ययरूप पर्यायनी धारा शुद्ध एकरूप वर्ते छे.
जीवद्रव्यमां एक ध्रुव कारणशुद्धपर्याय पारिणामिकभावरूप कहेवामां आवी छे. नियमसारमां ध्रुव कारणशुद्धपर्यायनी वात आवी छे. धर्मास्तिकाय आदि चारे द्रव्यनां द्रव्य-गुण अने पर्याय पारिणामिकभावरूप एकरूप छे; तेमां उत्पाद-व्ययरूप पर्यायनी धारा एकरूप वर्ते छे, पण आत्मद्रव्यमां एकरूप उत्पाद-व्यय नथी. तेनी संसार दशामां विकारी पर्यायना उत्पाद-व्यय थाय छे, मोक्षमार्गमां शुद्ध-अशुद्ध पर्यायना उत्पाद-व्यय थाय छे, अने सिद्ध दशामां एकली शुद्ध पर्यायना उत्पाद-व्यय होय छे. आ प्रमाणे जीवमां उत्पाद-व्ययवाळी पर्याय एकरूप नथी. चार द्रव्यमां जेम उत्पाद-व्ययनी एकरूप धारा त्रिकाळ चाले छे, तेम जीवमां उत्पाद-व्ययनी धारा त्रिकाळ एकरूप नथी.
जीवद्रव्यमां ध्रुव कारणशुद्धपर्याय छे ते त्रिकाळ धारावाही एकरूप छे, पण आ कारणशुद्धपर्याय प्रगट उत्पाद- व्ययरूप नथी. सामान्य... सामान्य एवुं जे आत्मद्रव्य त्रिकाळ ध्रुव छे तेना विशेषरूप ध्रुव कारणशुद्धपर्याय छे; तेमां उत्पाद-व्यय नथी. समुद्रनी (एकरूप)सपाटीनी जेम कारण-शुद्धपर्याय त्रिकाळ ध्रुव छे. नियमसारनी गाथा १ थी १९ सुधीनां प्रवचनो छपाईने बहार पडयां छे तेमां आ विषय स्पष्ट कर्यो छे, सामान्य वस्तु जे ध्रुव छे, तेमां एक विशेष ध्रुव कारणशुद्धपर्याय अनादिअनंत वर्ते छे. तेने नियमसारमां १पमी गाथामां पंचमभावनी पूजनीक परिणति कही छे. हवे आवा सूक्ष्म विषयनुं श्रवण, विचार, धारणा, मंथन होय नहि एटले विद्वानोने पण आ वात बेसे नहि, पण शुं थाय? भाई, उंडां तलस्पर्शी विचार ने मंथन करी आनो सम्यक् निर्णय करवो जोईए. आ कारणशुद्धपर्याय छे ते प्रगट पर्यायरूप नथी, समुद्रमां जेम पाणीनी सपाटी होय छे तेम आ भगवान आत्मा अनंत गुणनी ध्रुव पिंडरूप वस्तु छे तेमां सपाटी समान अनादिअनंत ध्रुव कारणशुद्धपर्याय छे. आ तद्न नवी वात छे. सूक्ष्म चिंतन-मनन वडे तेनो यथार्थ निर्णय करवो जोईए.
जेम गुण त्रिकाळ ध्रुव छे, तेम दरेक गुणनी पर्याय त्रिकाळ ध्रुव अनादिअनंत शुद्ध छे; आ उत्पादव्यय विनानी कारण-शुद्धपर्याय छे. अहाहा...! आ कारणशुद्धपर्यायमां पण अतत्त्वशक्ति व्यापक छे. द्रव्य-गुणनो तो आ स्वभाव छे के विकारपणे न थवुं, कारणशुद्धपर्यायनोय एवो स्वभाव छे के विकाररूपे न थवुं. आ अतत्त्वशक्ति छे ते द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. भगवान आत्मा शुद्ध कारणपरमात्मा छे तेना उपर द्रष्टि रहेतां प्रगट पर्यायमां पण रागरूपे न थवुं एवुं शुद्ध परिणमन थई जाय छे. भाई! आ त्रणलोकना नाथ भगवान जिनेन्द्रदेवनी वाणी छे. बहारमां तो अनेक प्रकारनी क्रिया करो, व्रत-तप करो ने धर्म थई जशे एम वात चाले छे, पण ते यथार्थ नथी. न्यालचंदभाईए ‘द्रव्यद्रष्टि प्रकाश’ नामना पुस्तकमां कह्युं छे के-‘करना सो मरना है’, केमके करवामां तो एकला विकल्प छे. आ विकल्पोमां गुंचाईने जीव पोताना चैतन्य जीवननुं मरण करे छे. अहीं कहे छे-चैतन्य छे ते चैतन्यरूपे परिणमन करे छे, ते जडरूपे कदीय न थाय एवी एनी अतत्त्वशक्ति छे. भगवान आत्मा त्रिकाळ एक ज्ञायकपणे रह्यो छे, ते शुभाशुभभावरूपे कदी थयो ज नथी. ते जडरूपे कदी थयो ज नथी. अजीव अधिकारमां शुभाशुभभावने अजीव-जड कह्या छे.
समयसारनी छट्ठी गाथामां आचार्यदेवे आ छट्ठीना लेख लख्या छे के-ज्ञायकभावस्वरूप आत्मा त्रिकाळ ज्ञायकबिंब छे, ते कदीय शुभाशुभभावरूपे थयो ज नथी. चैतन्यनुं तेज ए शुभाशुभभावमां प्रसरतुं ज नथी. भाई, मारग तो आवो छे, ने आ ज हितनो मारग छे. भाई, तारा द्रव्य-गुण ने कारणपर्यायनी सहज शक्ति ज एवी छे के आत्मा रागरूपे, व्यवहार रत्नत्रयपणे थाय नहि. ए तो स्वभावनी द्रष्टि जेणे छोडी दीधी छे एवा पर्यायद्रष्टिवाळा अज्ञानीने पर्यायमां विकार उत्पन्न थाय छे बाकी द्रव्य विकारने उत्पन्न करे एवुं एमां छे ज नहि.
अरेरे! तत्त्वद्रष्टि विना जीव अनादिकाळथी दुःखी-दुःखी थईने चार गतिमां रझळी रह्यो छे. जुओ, ब्रह्मदत्त नामे एक चक्रवर्ती थया. तेमनुं ७०० वर्षनुं आयुष्य हतुं. ते पूरुं थतां सातमी नरके जई पडया. अहाहा...! हीराजडित पलंगमां सुनारा, ने जेनी हजारो देव सेवा करे एवा ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती मरीने पापना फळरूपे सातमी नरकमां ३३ सागरनी आयुनी स्थितिमां गया छे. पोताने भूलीने अज्ञानपणे घोर पाप कर्यां तेथी अहींना एक श्वासना कल्पेला सुखना फळमां त्यां ११, प६, ९७प (अगीयार लाख छप्पन हजार नवसो पंचोतेर) पल्योपमनुं दुःख प्राप्त थयुं छे. एक पल्योपमना असंख्यातमा भागमां असंख्य अबज वर्ष वीती जाय छे. अहीं ७०० वर्षना आयुष्यना भोगवटामां एवा दुष्ट भाव
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कर्या के तेना फळरूपे सातमी नरकमां जवुं पडयुं. मिथ्यात्व सहितना माठा भावनुं फळ आटलुं दुःख, अने आत्मज्ञान प्रगट करे, तत्त्वद्रष्टि प्रगट करे तो तेना फळमां अनंत काळ अनंत आनंद एने प्राप्त थाय छे. माटे भाई, आवुं आत्मज्ञान तुं शीघ्र प्रगट कर, आ तारा माटे अवसर छे.
पर द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भाव ते आत्मामां अतत्रूप छे; आवी आत्मानी अतत्त्वशक्ति छे. पोताना स्वद्रव्य- क्षेत्र-काळ-भावथी अस्तिरूप छे ते तत्त्वशक्ति, ने परद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी नास्तिरूप छे ते अतत्त्वशक्ति छे. आ बन्ने परस्पर विरुद्ध छे. स्वपणे होवुं ने परपणे न होवुं एवी जीवमां एक विरुद्धधर्मत्वशक्ति त्रिकाळ छे. आथी परस्पर विरोधी प्रतीत थता धर्मो एक साथे द्रव्यमां अविरोधपणे रहे छे, ने द्रव्यने सुस्थित प्रस्थापित करे छे. आ तत्त्वशक्ति अने अतत्त्वशक्तिना परिणमनमां वीतरागतानुं वेदन थाय छे; रागना अभावरूप अने वीतरागभावना सद्भावरूप परिणमन त्यां थाय छे. आनुं नाम धर्म छे. आ समज्या विना व्रत-तप बधुंय व्यर्थ छे.
अध्यात्म पंचसंग्रहमां लीधुं छे के-घेटां, बकरां नग्न रहे छे. पशु नग्न रहे, मुंडन करावे, परिषह सहन करे एमां तेमने शुं आव्युं? अंदर पूर्णानंदस्वरूप प्रभु पोते छे एना भान विना खाली बाह्य त्यागथी कांई लाभ नथी.
अहा! स्वस्वरूप-एक ज्ञायकस्वरूपना अवलंबने परिणमे एवी तत्त्वशक्ति, अने विकाररूपे न परिणमे एवी अतत्त्वशक्ति भगवान आत्मामां छे; तेने यथार्थ ओळखी स्व-आलंबन करवुं ते हितरूप छे, लाभ छे.
आ प्रमाणे अहीं अतत्त्वशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
‘अनेक पर्यायोमां व्यापक एवा एकद्रव्यमयपणारूप एकत्वशक्ति.’ अहा! आत्मामां एकत्व नामनो एक त्रिकाळी गुण-स्वभाव छे. अनेक गुणपर्यायमां-भेदमां व्यापक एवुं एकद्रव्यमयतारूप एकपणुं-एवो आत्मानो स्वभाव छे. कळश टीकामां एक-अनेकपणुं आव्युं छे ते बीजी वात छे. त्यां तो हुं एक छुं-अनेक छुं एवा विकल्पो छोडाव्या छे. अहीं तो एक ज्ञायकमात्र वस्तु आत्मा छे. तेनो आश्रय करतां एकत्वशक्तिनुं पर्यायमां परिणमन थाय छे ए एकत्व गुणनी वात छे. ४७ नयमां पण एक-अनेक नय आवे छे. आम त्रण प्रकारे एक-अनेकनुं वर्णन आवे छेः-
१. अहीं एकत्व, अनेकत्वशक्तिनी वात छे. २. कळश टीकामां एक-अनेकना विकल्प छोडवानी वात छे. ३. प्रवचनसारमां नय अधिकारमां एक-अनेक अपेक्षित धर्मनी वात छे. जेम अग्निनो ढग होय तेमां एकलुं अग्निपणुं छे, तेम एक ज्ञायकस्वरूप आत्मामां ज्ञान, लोकालोकप्रमाण एकरूप ज्ञान अद्वैत छे. अद्वैत एटले एक, बे नहि, अनेक नहि. वेदांती जे अद्वैत-एक कहे छे ए तो विपरीत छे. जगतमां कशुं द्वैत नथी, बधुं अद्वैत छे-एक छे-आम वेदांती कहे छे ते तद्न विपरीत-जूठी वात छे.
प्रवचनसार, नयप्रज्ञापन अधिकारमां अद्वैत-द्वैतनय कह्या छे. त्यां कह्युं छेः- “आत्मद्रव्य ज्ञानज्ञेय-अद्वैतनये (ज्ञान अने ज्ञेयना अद्वैतरूप नये), मोटा इंधन समूहरूपे परिणत अग्निनी माफक, एक छे.”-२४
“आत्मद्रव्य ज्ञानज्ञेय द्वैतनये, परना प्रतिबिंबोथी संयुक्त दर्पणनी माफक, अनेक छे. (अर्थात् आत्मा ज्ञान अने ज्ञेयना द्वैतरूप नये अनेक छे, जेम पर-प्रतिबिंबोना संगवाळो अरीसो अनेकरूप छे तेम.)”-२प
अग्नि इंधन साथे एकरूप थई जाय छे तेम आत्मद्रव्य, ज्ञानज्ञेय अद्वैतनयथी एक छे. एटले शुं? ज्ञेयनुं ज्ञान अने ज्ञाननुं ज्ञान एक छे. ज्ञेय तो ज्ञेयमां रही गया, पण ज्ञेयनुं ज्ञान ते आत्मानुं ज्ञान छे-एम अद्वैत पण छे.
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मोटो इंधननो ढगलो बळीने अग्निमय थाय छे. इंधननी अग्नि ते अग्निनी अग्नि छे-एम अद्वैत छे. आम आत्मद्रव्य एक छे. आ एक छे ते अपेक्षित धर्म छे. जेम अग्नि इंधनरूप थई जाय छे तेम ज्ञेयनुं ज्ञान अने पोतानुं ज्ञान एकरूप थाय छे. आ अद्वैत नय छे.
द्वैतनये आत्मद्रव्य अनेक छे, परनां प्रतिबिंबोथी संपृक्त अरिसानी जेम. परना प्रतिबिंबना संगवाळो अरीसो जेम अनेक छे, तेम भगवान आत्मा ज्ञानमां ज्ञेयना संगथी अनेकरूप छे. ज्ञान तो पोताथी थाय छे, ज्ञेयनुं तेमां निमित्त छे बस. अरीसामां प्रतिबिंब पडे छे त्यां अरीसो ने प्रतिबिंब बे थई गयां-द्वैत थयुं, तेम ज्ञेयनुं ज्ञान, ने पोतानुं ज्ञान-एम बेरूप थयुं, द्वैत थयुं.
भगवान आत्माने एक अपेक्षाथी सर्वगत कहेवाय छे. प्रवचनसारमां श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे आत्माने अपेक्षाथी सर्वगत कह्यो छे. तेमां लोकालोक-सर्वनुं ज्ञान थई जाय छे ए अपेक्षाए आत्मा सर्वगत छे एम कह्युं छे. पूर्णज्ञान- केवळज्ञान सर्वने जाणे छे माटे सर्वगत कह्युं छे. पण सर्वगत एटले परमां व्यापक थई जाय, प्रसरी जाय एवो तेनो अर्थ नथी. बरफ अने अग्नि अरीसानी बहार होय छे. तेनुं अरीसामां प्रतिबिंब देखाय छे. अरीसानी अंदर कांई बरफ के अग्नि नथी. जे देखाय छे ए तो अरीसानी स्वच्छ अवस्था छे. त्यां अरीसो अने स्वच्छतागत प्रतिबिंब - एम द्वैत थयुं. तेम ज्ञेयनुं ज्ञान अने आत्मानुं ज्ञान-एम द्वैत थयुं. आम द्वैत नये आत्मद्रव्य अनेक छे.
कळश टीकामां एक-अनेक आव्युं, नय अधिकारमां एक-अनेक कह्युं, अने अहीं शक्तिना अधिकारमां एक- अनेक शक्ति कही. आम तत्त्व अति विशाळ छे. अहीं कहे छे-अनेक गुण-पर्यायोमां व्यापक एवा एकद्रव्यमयतारूप आत्मा एक छे. अहा! एकत्व ए आत्मानो स्वभावगुण छे. तेनुं स्वरूप शुं? तो कहे छे-अनेक निर्मळ निर्मळ पर्यायोमां व्यापक थवा छतां, आत्मा द्रव्यरूपथी एक ज रहे छे, अनेक थतो नथी. सूक्ष्म वात छे प्रभु! आ द्वैत- अद्वैत कह्या ते गुण नथी, ए अपेक्षित धर्म छे, एनुं परिणमन न होय. आ एकत्वशक्तिनुं परिणमन थतां द्रव्यना- भगवान ज्ञायकना एकपणानुं ज्ञान थई आनंदनी अनुभूति थाय छे. अहो! आ अलौकिक वात छे. आत्मद्रव्यना एकपणानी अनुभूति-वेदन विना जे कांई-कायकलेश करे, व्रत पाळे, शास्त्र भणे-ए बधो य संसार छे. आवी वात! समजाय छे कांई...?
भगवान आत्मा पोतानी एकत्वशक्तिथी सर्व पर्यायोमां व्यापे, प्रसरे-फेलाय-एकरूप त्रिकाळ एकद्रव्यमय वस्तु छे. गजब वात छे भाई! अहाहा...! पोताना सर्व गुण-पर्यायोमां व्यापक, एवो सर्वव्यापक एकद्रव्यमय, एकत्वरूप भगवान आत्मा छे. अरे भाई! तारो आत्मा परमां व्यापक नथी, अने ते क्रोधादि विकारमां व्यापक थतो नथी, तथा निर्मळ गुण-पर्यायोमां व्यापे एवो ते एक ज्ञायकपणे ज रह्यो छे, अने अनेकरूप-भेदरूप थयो नथी, थतो नथी. माटे अनेकनुं-भेदनुं लक्ष छोडी एक ज्ञायकनुं लक्ष कर. एम करतां तने स्वभाव साथे एकमेक एवी सम्यक्त्वादि निर्मळ पर्यायो प्रगट थशे. आवी वात!
अहा! आ एकत्वशक्तिनुं परिणमन थतां पर्यायमां आत्मद्रव्यनुं एकपणुं प्रगट थाय छे. वेदांतमां जे अद्वैत- एकपणुं कह्युं छे ते वात अहीं नथी. आ तो पोताना गुणपर्यायोमां व्यापकपणुं एवा एकमयपणानी वात छे. जुओ, अहीं शुं कह्युं छे? ‘अनेक पर्यायोमां व्यापक...’ -एम कह्युं छे. सर्व द्रव्योमां व्यापक एम वात नथी. आत्मा परद्रव्यमां कदी य व्यापक नथी. पोताना अनेक पर्यायो-भेदो, अनंतगुणनी निर्मळ पर्यायो साथे आत्मा व्यापक थाय छे एम वात छे. आमां मलिन पर्यायनी कोई वात नथी, केमके आत्मद्रव्य रागादि मलिन पर्यायमां व्यापक थतुं नथी. अहाहा...! पोतानी अनेक... अनंत निर्मळ पर्यायोमां व्यापक एवा एक द्रव्यमय एकत्वशक्ति आत्मद्रव्यमां छे.
हा, पण आमां धर्म शुं आव्यो? अरे भाई! मारो आत्मा शरीरादि परद्रव्यमां ने विकारमां व्यापक नथी, ए तो मात्र पोतानी अनंत निर्मळ पर्यायोमां ज व्यापक थाय छे; आवुं जाणनार-निश्चय करनारनी द्रष्टि विकारथी ने परद्रव्यथी खसी त्रिकाळी निज आत्मद्रव्य उपर स्थिर थाय छे, अने तेनुं ज नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे. भाई रे! तारा गुण-पर्यायोथी बहार बीजे कयांय तारो आत्मा नथी, माटे तुं बहार न शोध, अंतरमां शोध, अंतर्मुख थई स्वरूपमां एकमेक ढळी जा, केमके धर्म धर्मी साथे ज एकमेक छे. समजाणुं कांई...! भेदनुं पण लक्ष छोडी निज एकत्वरूप त्रिकाळी आत्मद्रव्यनी द्रष्टि करे तेने पर्यायमां आनंदनो स्वाद आवे छे, ने एनुं ज नाम सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान छे.
शास्त्रज्ञान गमे तेटलुं होय, नवपूर्वनी लब्धि होय तोपण एथी शुं? अभव्यने पण एवुं ज्ञान तो होय छे. एक
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वार अहीं वात थई हती के अभव्यने त्रिकाळी ज्ञानशक्ति छे, पण तेने ज्ञाननी परिणति नथी. ते ११ अंग अने नव पूर्वनी लब्धि सहित होय तो पण तेने ज्ञान-परिणति नथी. ज्ञान-परिणति एटले शुं? के ज्ञानस्वभाव उपर एकमेक थई द्रष्टि करतां, ज्ञाननी पर्याय ज्ञानस्वभावनो स्पर्श करीने प्रगट थाय तेनुं नाम ज्ञानपरिणति छे. तेने ज्ञान-परिणति कहो, सम्यग्ज्ञान कहो, आत्मज्ञान कहो, के धर्मीनुं ज्ञान कहो-बधुं एक ज छे.
प्रश्नः– तो शुं आवुं समज्या विना धर्म न थाय? उत्तरः– ना, न थाय. समजण-विवेक विना बीजी कोई रीते धर्म न थाय. प्रश्नः– पशुने ज्ञान थाय छे; ते कयां भणवा जाय छे? उत्तरः– पशुने पण ज्ञानमां बधो ख्याल आवी जाय छे. हुं ज्ञानानंदस्वरूप छुं, राग थाय छे ते दुःख छे- आम ज्ञान अने राग वच्चेनुं भेदज्ञान पशुने थाय छे. नाम भले न आवडे, पण तत्त्वोनुं ज्ञान-श्रद्धान एने बराबर थाय छे. मोक्षमार्ग प्रकाशकमां आनो खुलासो कीधो छे. त्यां कह्युं छे के-तिर्यंचने नव तत्त्वनां नाम भले न आवडे, पण तेनुं भावभासन तेने यथार्थ थाय छे. अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप हुं भगवान आत्मा छुं एम निश्चय करी, निमित्त, राग ने पर्यायनो आश्रय छोडी, त्रिकाळी निज ज्ञायकभावनो आश्रय करतां अनाकुळ आनंदनो स्वाद आवे छे एनुं नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे. अहा! आवी धर्म-परिणति पशुने पण थती होय छे; तेमां शास्त्र भणवानी अटक नथी.
आनंद घनजी कहे छेः
मतवाला तो गिर पडे, भिन्नता पडे रचाई.
जे शास्त्रज्ञाननुं अभिमान करे, व्रतादिनुं अभिमान करे तेने अनुभवरस प्रगटतो नथी. अमे व्रत करीए छीए, तपस्या करीए छीए, जीवोनी दया पाळीए छीए-एम मोह-मद वडे जे मतवाला छे तेओ अनुभवथी बहार रही जाय छे, बहिरात्मा रही जाय छे. परंतु परना ममत्वथी भिन्न पडी, पोताना एकत्वस्वरूप एक ज्ञायकनो जेओ आश्रय करे छे तेमने आत्मानुभव प्रगट थाय छे, तेओ धराईने अनुभव-रस पीए छे, आनंदरस पीए छे.
पशुने खीला साथे बांधे तो पछी ते फरी शके नहि. तेम आत्माने एकत्वरूप ध्रुवना खूंटे बांधी दीधो होय तो ते परिभ्रमण न करे. अहाहा...! भगवान आत्मा ज्ञायक प्रभु स्वयं अतीन्द्रिय आनंदमय ध्रुव खूंटो छे. ते ध्रुवने ध्येय बनावी तेनुं जे ध्यान करे छे तेने एकला आनंदनो स्वाद आवे छे, तेने स्वानुभवरस प्रगट थाय छे. हवे ते चार गतिमां परिभ्रमण नहि करे.
हुं ध्रुव छुं-एम ध्येय तरफनो विकल्प करवानी आ वात नथी. ध्रुव तरफ पर्याय लक्ष करी परिणमे एम वात छे. पर्याय, परसन्मुखता छोडी, स्वसन्मुखता-ध्रुव एक ज्ञायकनी सन्मुखता करी परिणमे छे एवी वात छे. अहा! ध्रुवने लक्षमां लेनारी पर्याय ध्रुव साथे एकमेक थई छे, हवे ते परिभ्रमण करशे नहि. जे छूटो फरे छे, स्वद्रव्यथी भिन्न जे रागादि विकार साथे ने परद्रव्य साथे एकमेक थई परिणमे छे ते जीव चार गतिमां परिभ्रमे छे; परंतु रागथी भिन्न अंदर पोते आनंदकंद एक ज्ञायक प्रभु छे त्यां द्रष्टि लगावी पर्यायने ध्रुव खूंटा साथे बांधी दीधी ते हवे भवमां भटकशे नहि, विकारमां भटकशे नहि. ते हवे निर्भय अने निःशंक छे, विकारनो ने भवनो नाशक छे; अल्पकाळमां ज ते मुक्ति पामशे. समजाणुं कांई...!
आ शक्तिना वर्णनमां थोडा शब्दोमां घणुं रहस्य भर्युं छे. हमणां डो. चंदुभाईनो पत्र आव्यो छे. तेमां अमारा ब्लडनो-लोहीनो रिपोर्ट केवो छे ते जणाव्युं छे. डोकटरनुं कहेवुं छे के आ ब्लड-केन्सर नथी, लोहीमां जरा विकृति छे, पण एमां चिंतानुं कोई कारण नथी; आ तो साधारण रोग छे, बहार प्रगट थाय एवो कोई रोग नथी. अरे, आ देहनी स्थिति जे रहेवानी होय ते रहे, अमने एमां शुं चिंता छे? जुओ ने, अहीं संतो कहे छे-हुं एक छुं, शुद्ध ज्ञायक छुं-एवा विकल्पनी चिंतामां पण भगवान आत्मा व्यापक नथी तो पछी ते आ देहमां केम व्यापक थाय? अज्ञानी जीवने एम थाय के आत्मा देहमां रह्यो नथी तो कयां रह्यो छे? शुं अध्धर आकाशमां रह्यो छे? तेने कहीए-भाई! धीरो था बापा! देह जेम जड छे तेम आकाश पण जड छे. शुं जडमां आत्मा रहे? आत्मा तो निज चैतन्यनी निर्मळ निर्मळ पर्यायोमां रह्यो छे. हवे आवो निश्चय थाय तेने देहनी शुं चिंता? अमने तो कांई खबरे य पडती नथी के
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शरीरमां रोग छे.
अहा? मारो आत्मा मारी पर्यायोमां ज व्यापक छे, बीजे नहि, ने मारी पर्यायोमां एक शुद्ध आत्मा व्यापक छे. बीजो नहि-एवो निर्णय करे तेनी द्रष्टि ज बदलाई जाय छे. आवो निश्चय थतां तेने पराश्रयपणानी बुद्धि मटी जाय छे, ने स्व-आश्रयनी भावना जाग्रत थाय छे. हवे ते स्वद्रव्यनुं एकनुं ज आलंबन करीने शुद्ध पर्यायोरूपे निरंतर परिणम्या करे छे. पर्याये पर्याये तेने एकत्वस्वरूप निज आत्मद्रव्यनुं ज आलंबन वर्ते छे, ने शुद्ध आत्मद्रव्यना आलंबने प्रगट थती पर्यायो तेने निर्मळ निर्मळ ज थाय छे. अहा! धर्मी पुरुषनी बधी पर्यायो एक शुद्ध आत्मद्रव्यने ज उपादेय करीने परिणमे छे, तेनी पर्यायमां व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प आदि बीजुं कांई उपादेय नथी.
तो मुनिराजने पंचमहाव्रतादि व्यवहार चारित्र होय छे ने? हा, मुनिराजने पंचमहाव्रतादि व्यवहार आचरण होय छे, पण ए तो विकल्प-राग छे; मुनिराजने ते उपादेय नथी, हेय छे. उपादेय तो एक शुद्ध आत्मद्रव्य ज छे. अध्यात्म पंचसंग्रहमां आवे छे के-
ये हु पर जानै नांहि, इनमें उमैया है।
अज्ञानी जीव दया, दान, व्रत आदि शुभभाव पर छे एम जाणतो नथी, ते एमां ज उल्लसित थाय छे. हुं कांईक (धर्म) करुं छुं एम ते माने छे. ज्यारे ज्ञानी पुरुष-
जुओ आ भगवाननी वाणीनो निचोड! शुं? के शुभाशुभनी रीतिने त्यागी, हुं पुण्यपाप ने क्रियाकांडना रागथी भिन्न शुद्ध एक चिदानंदमय भगवान आत्मा छुं एम ज्ञानी अनुभवे छे, अरे, अज्ञानी पोताना स्वरूपने भूलीने भिखारीनी जेम मारे पैसा जोईए, ने बंगला जोईए, ने आबरू जोईए-एम तृष्णावंत थईने शुभाशुभ आचरण कर्या करे छे. पण एथी शुं? ज्ञानदर्पणमां द्रष्टांत आपी कह्युं छे के-जटा वधारवाथी जो सिद्धि थती होय तो वडने मोटी जटा होय छे. “मूंडनतें उरनी, नगन रहते पशु; कष्ट सहन करते तरु”-वळी वाळ तो घेटां पण कपावे छे, नग्न तो पशु पण फरे छे अने वृक्षो टाढ-ताप सहे छे. तथा ‘पढनते शुक’ -पोपट मोढेथी पाठ करे छे अने ‘खगध्यान’ -बगला पण ध्यान करे छे. परंतु तेथी शुं थयुं? तेओ कोई धर्म पामता नथी. एटले के एमां आत्माने शुं आव्युं? कांई ज नहि. भाई! अंदर चैतन्य चिंतामणि एवो भगवान चिदानंदस्वरूप आत्मा छे तेना आश्रये निर्विकल्प आनंदनो अनुभव करवो ए ज पोताना हितरूप धर्म छे.
आत्मानी आ एकत्वशक्ति छे ते त्रिकाळी ध्रुव उपादान छे, ने तेना परिणमनरूप पर्याय प्रगट थाय छे ते क्षणिक उपादान छे. शक्ति तो त्रिकाळ छे, पण तेनुं परिणमन थया विना शक्ति छे एनी प्रतीति थती नथी. शक्ति साथे भळीने -एकमेक थईने शुद्धतारूपे परिणम्या विना शक्तिनो ने शक्तिवान आत्मानो वास्तविक स्वीकार थतो नथी. सत्तानो स्वीकार कयारे थाय? के स्वाभिमुख-स्वसन्मुख थईने सत्द्रव्यना आश्रये परिणमे त्यारे; ज्यां सत्तानो स्वीकार थाय के (स्वीकारनारी) पर्याय तेमां एकमेक भळी जाय छे, ने ते पर्याय निर्मळ निर्मळ अपूर्व-अपूर्वभावे प्रगट थाय छे. आ धर्म छे, आ मोक्षनो पंथ छे. आ सिवाय बधुं थोथेथोथां छे. समजाणुं कांई...?
आ प्रमाणे अहीं एकत्वशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
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‘एक द्रव्यथी व्याप्य (व्यपावा योग्य) जे अनेक पर्यायो ते-मयपणारूप अनेकत्वशक्ति.’ भगवान आत्मा जे त्रिकाळ एकत्वस्वरूप द्रव्य छे तेनाथी व्याप्य अनेक पर्यायो छे, ते-मयपणारूप आत्मानी अनेकत्व शक्ति छे. द्रव्यपणे आत्मा एक होवा छतां अनेक पर्यायोपणे पण पोते ज थाय छे एवी तेनी अनेकत्वशक्ति छे. आम एकत्वनी जेम अनेकत्व पण आत्मानो गुण-स्वभाव छे. वेदांतवाळा बधुं मळीने एक माने छे, अनेक मानता नथी, पण तेमनी एवी मान्यता खोटी-विपरीत छे. तेओ कहे छे-“आत्मा अनुभवो”-एमां तो बे चीज थई गई, आत्मा अने तेनो अनुभव-एम बे चीज थई गई; आम तेओ अनेकपणानो निषेध करे छे, पण ए तो द्रष्टि मिथ्या छे. भक्तामर स्तोत्रमां (२४मा श्लोकमां) आवे छेः
छे ब्रह्म ईश्वर अनंत अनंगकेतु;
योगीश्वर विदितयोग अनेक एक,
के’, छे तने विमळ ज्ञानस्वरूप संत.
हे नाथ! आप आद्य छो, कदी नाश न थाय एवा आप अव्यय छो, विकल्प वडे चिंतवतां पार न पमाय एवा आप अचिन्त्य छो, असंख्य छो, विभु छो, ब्रह्म छो; लौकिकमां ब्रह्म कहे छे ते नहि हों, आ तो केवळज्ञाननी ज्योति झळहळती प्रगट थई छे एवा आप ब्रह्म छो-एम वात छे. आप योगीश्वर छो, विदितयोग छो, अनंत छो, अनंगकेतु छो, एक छो, अनेक छो. जुओ, अहीं पण आव्युं ने? के आप एक छो, अनेक पण छो. भाई! एकपणुं अने अनेकपणुं -एम बन्ने गुणो-शक्तिओ आत्मामां त्रिकाळ एकसाथे ज छे. वळी आप विमळ ज्ञानस्वरूप छो. - एवुं कोण कहे छे? के संतो-मुनिवरो-गणधरो. अहाहा...! एकला ज्ञानना पुंज प्रभु आप छो. आ बधा परमात्माना गुण ते आत्माना ज छे भाई! आ तो प्राप्तनी प्राप्तिरूप अहीं स्तुतिमां वर्णव्या छे. तत्त्वज्ञान तरंगिणीमां दरेक श्लोकमां आवे छे“चिद्रूपोडहं” हुं एकला ज्ञानस्वरूप छुं. ल्यो, आवी वात! आ तो समजीने अंदर ठरवानो- रमवानो, सुखी थवानो मारग छे. भावदीपिकामां लख्युं छे के-
आत्मिक ज्ञानका लखैया सुख करै हैं.
आत्मिक ज्ञानना जाणवावाळा सुख पामे छे, बाकी तो बधा भव-क्लेशमां छे. जुओ, अहीं अनेकत्वशक्तिनी वात चाले छे. एक द्रव्यथी व्याप्य अनेक पर्यायोरूप पोते आत्मद्रव्य थाय छे एवी आत्मानी अनेकत्वशक्ति अहीं सिद्ध करी छे. जीवमां एकत्वशक्तिनी जेम अनेकत्वशक्ति पण त्रिकाळ वर्ते छे. एकपणे रहेवुं, अने अनेकपणे थवुं-ए बन्ने स्वभाव भगवान आत्मामां साथे ज रहेला छे. जो एकलुं एकत्व होय तो द्रव्य शेमां प्रसरे? एक पर्याय पलटीने बीजी निर्मळ पर्यायरूपे केम थाय? अने जो एकलुं अनेकत्व होय तो अनेक पर्यायो कोना आश्रये थाय? आम आत्मामां एकीसाथे एकत्व अने अनेकत्व बन्ने शक्तिओ त्रिकाळ होवापणे सिद्ध थाय छे.
अहा! आत्मानी सम्यग्दर्शन आदि निर्मळ पर्यायोमां कोण व्यापे छे? परद्रव्य नहि, कोई निमित्त नहि, विकार-रागादि पण नहि; अहाहा...! शुद्ध चैतन्यमूर्ति एवो आत्मा ज पोते परिणमीने सम्यग्दर्शनादि पर्यायोमां व्यापे-ते रूप थाय एवी एनी अनेकत्वशक्ति छे. माटे हे भाई! सम्यग्दर्शन आदि निर्मळ पर्यायनी सिद्धि माटे तुं सिद्ध समान निज आत्मद्रव्यमां जो; शुद्ध एक स्वरूपनुं आलंबन कर. एक आत्मा ज बधी निर्मळ पर्यायोमां प्रसरी जाय छे एवी तारी अनेकत्वशक्ति जाणी, निमित्तने भेदनुं लक्ष मटाडी शक्तिवान ध्रुव एक आत्मद्रव्यनो आश्रय कर, स्वसन्मुखता कर; तेम करतां ज पर्यायो क्रमे निर्मळ निर्मळ प्रगट थाय छे; आनुं ज नाम धर्म छे; ने आ ज मारग छे. समजाय छे कांई...?
प्रवचनसार, नय प्रज्ञापन अधिकारमां क्रियानय अने ज्ञाननयथी मोक्ष थाय एम वात आवे छे. ते आ प्रमाणेः
“आत्मद्रव्य क्रियानये अनुष्ठाननी प्रधानताथी सिद्धि सधाय एवुं छे, थांभला वडे माथुं भेदातां द्रष्टि उत्पन्न
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थईने जेने निधान मळे छे एवा अंधनी माफक.”-४२.
“आत्मद्रव्य ज्ञाननये विवेकनी प्रधानताथी सिद्धि सधाय एवुं छे, चणानी मुठ्ठी दईने चिंतामणि खरीदनार एवो जे घरना खूणामां रहेलो वेपारी तेनी माफक.”-४३.
जुओ, क्रियानये अनुष्ठाननी प्रधानताथी मोक्ष थाय एम कह्युं छे त्यां कयुं अनुष्ठान? रागना अभावरूप अनुष्ठाननी आमां वात छे. अधिकारमां त्यां प्रथम ज वात करी छे के-
“प्रथम तो, आत्मा खरेखर चैतन्य सामान्य वडे व्याप्त अनंत धर्मोनुं अधिष्ठाता (स्वामी) एक द्रव्य छे, कारण के अनंत धर्मोमां व्यापनारा जे अनंत नयो तेमां व्यापनारुं जे एक श्रुतज्ञानस्वरूप प्रमाण ते प्रमाणपूर्वक स्वानुभव वडे (ते आत्मद्रव्य) प्रमेय थाय छे (-जणाय छे).”
जुओ, श्रुतज्ञानप्रमाणमां एक साथे अनंत धर्मो देखाय छे माटे क्रियानयना विषयरूप धर्म ने ज्ञाननयना विषयरूप धर्म भिन्न भिन्न काळे छे एम नथी. आ तो अपेक्षित धर्म छे. रागना अभावरूप अनुष्ठानथी क्रियानये मोक्षनी सिद्धि छे एम त्यां कह्युं छे; पण ते ज काळे ज्ञाननये विवेकनी प्रधानताथी मोक्ष थाय एवो धर्म साथे ज छे. श्रुतज्ञान प्रमाण एकसाथे बधा ज धर्मोने देखे छे. पहेलां ज्ञाननय अने पछी क्रियानय एवुं कांई छे नहि. क्रियानयथी मोक्ष कह्यो त्यां रागना अभावरूप धर्मनी अपेक्षा लेवी. ‘ज्ञानक्रियाभ्याम् मोक्षः’ एम कह्युं छे त्यां पण वीतरागी क्रियाथी मोक्ष थवानी वात छे.
नयोना विषयभूत धर्मो द्रव्यमां एकीसाथे रहेला छे. श्रुतज्ञानने प्रमाण कह्युं छे, ते श्रुतज्ञान प्रमाण एक समयमां द्रव्यमां एक साथे रहेला सर्वधर्मोने जाणे छे. माटे कोईने क्रियानयथी मोक्ष थाय ने कोईने ज्ञाननयथी मोक्ष थाय एम छे नहि; वस्तु ज एवी नथी. तेथी ज अहीं ‘श्रुतज्ञानस्वरूप प्रमाण ते प्रमाणपूर्वक स्वानुभव वडे (ते आत्मद्रव्य) प्रमेय थाय छे’-एम शब्द लीधा छे.
भाई! एक समयनी योग्यताने ज्ञान जाणे छे. जे समये मुक्ति थवानी होय ते ज समये ते थाय छे. काळनये मुक्ति अने अकाळनये मुक्ति-एम पण नयना वर्णनमां आवे छे. त्यां मुक्ति तो तेना स्वकाळे थाय छे (आगळ-पाछळ नहि), पण काळनयमां काळनी अपेक्षाए वात छे, ने अकाळनयमां काळ सिवायनां बीजां निमित्तोनी (समवाय कारणोनी) अपेक्षाथी वात छे. तेथी कोईने काळनये मुक्ति थाय, ने कोईने अकाळनये मुक्ति थाय एम वस्तु नथी. अरे, अत्यारे तो शास्त्रना अर्थ करवामां घणी गरबड चाले छे. भाई! लोको तारी मानेली (मिथ्या) लौकिक वात मानी लेशे, पण तने खूब नुकसान थशे.
निश्चयनयना विषयरूप एक धर्म अने व्यवहारनयना विषयरूप बीजो धर्म-ए वात पण त्यां छे. आ बधा अपेक्षित धर्मो एकसाथे गणवामां आव्या छे. त्यां कोईने निश्चयनये मुक्ति ने कोईने व्यवहारनयथी मुक्ति-एम वात छे नहि. शास्त्रमां कई अपेक्षाथी कह्युं छे ते समजे नहि, ने मति-कल्पनाथी अर्थ करे तो महा विपरीतता थाय, माटे अपेक्षा समजीने अर्थ करवा जोईए.
एकत्वशक्तिना वर्णनमां एकद्रव्यमयता कही हती, अहीं अनेकत्वशक्तिना कथनमां एक द्रव्यथी व्याप्य जे अनेक पर्यायो तेपणामय अनेकत्वशक्ति कही छे. एक आत्मद्रव्य पोते ज अनेक पर्यायोरूप थाय छे एवी एनी अनेकत्व शक्ति छे. एकत्व अने अनेकत्व-बन्ने स्वभावरूप आत्मा पोते ज छे, तेथी आत्मसन्मुखताथी ज तेनी यथार्थ प्रतीति थाय छे; रागथी ने पर-निमित्तथी नहि, केमके रागनो ने परनो शक्तिओमां अभाव ज छे. आवी वात छे.
आ प्रमाणे अहीं अनेकत्वशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
‘विद्यमान-अवस्थावाळापणारूप भावशक्ति. (अमुक अवस्था जेमां विद्यमान होय एवापणारूप भावशक्ति.)’
जुओ, आत्मामां एक भावशक्ति एवी छे के तेनी कोई एक निर्मळ पर्याय वर्तमान-विद्यमान होय ज छे. पर्याय करवी पडे एम नहि, कोई निमित्तथी थाय एमे य नहि; भावशक्तिनुं स्वरूप ज एवुं छे के वर्तमान निर्मळ पर्याय
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विद्यमान होय छे. अहाहा...! जे समयमां भावशक्तिनुं परिणमन थाय छे ते समये निर्मळ पर्याय विद्यमान होय छे. अहा! विद्यमान-पर्यायवाळापणे भावशक्ति छे. निर्मळ पर्यायने हुं करुं तो ते होय एवी वात नथी.
अहाहा...! अनंतगुणनुं चैतन्यनिधान प्रभु आत्मा छे. तेमां जेम ज्ञानशक्ति छे, आनंदशक्ति छे, श्रद्धाशक्ति छे, तेम एक भावशक्ति छे. भावशक्तिनुं स्वरूप शुं? तेनुं कार्य शुं? तो कहे छे-भाव नाम भवन-निर्मळ परिणमनना भवनरूप पर्याय वर्तमान विद्यमान होय छे. अनंत गुणोनी निर्मळतारूप पर्याय वर्तमान विद्यमान होय ज छे एवुं आ शक्तिनुं स्वरूप छे. अहीं शक्तिनुं जेने परिणमन थयुं छे एवा सम्यग्द्रष्टिनी वात छे, मिथ्याद्रष्टिनी वात नथी, मिथ्याद्रष्टिने तो शक्तिनी प्रतीति ज नथी. भावशक्ति अने शक्तिवान आत्मा-तेनो जेने अनुभव वर्ते छे तेने, कहे छे, निर्मळ पर्याय वर्तमान विद्यमान होय ज छे. अहाहा...! जेने भगवान आत्मानी अंतर-प्रतीति थई, ज्ञानमां निज ज्ञायक जणायो, ने निर्मळ ज्ञान साथे अनाकुळ आनंद प्रगट थयो तेने भावशक्तिनुं परिणमन थयुं छे जेथी तेने वर्तमान निर्मळ अवस्था विद्यमान ज छे. आवी सूक्ष्म वात! समजाय छे कांई...?
हवे भावशक्तिनुं आवुं स्वरूप छे त्यां पर निमित्तथी थाय, ने व्यवहार-रागथी थाय एम कयां रह्युं? अरे, पूर्वनी पर्याय निर्मळ हती माटे वर्तमान पर्याय निर्मळ थई एमे य नथी. वर्तमान विद्यमान पर्यायने पूर्वनी पर्यायनी अपेक्षा नथी. धीरजथी समजवुं बापु! आ शक्तिना अधिकारमां द्रष्टिनी प्रधानता छे. आत्मानो भावशक्तिमय स्वभाव ज एवो छे के तेमां वर्तमान निर्मळ पर्याय विद्यमान होय ज छे.
‘स्वामी कार्तिकेय अनुप्रेक्षा’मां कार्तिकेय स्वामीए कह्युं छे के-प्रत्येक द्रव्यनी पर्यायमां काळलब्धि होय छे. एटले शुं? के जे समये जे पर्याय थाय ते तेनी काळलब्धि छे. प्रवचनसारनी गाथा १०२मां पर्यायनी उत्पत्तिनी जन्मक्षण होवानी वात आवी छे. मतलब के वर्तमानमां जीवनी मोक्षदशा छे ते तेनी काळलब्धि छे, पूर्वनी मोक्षमार्गनी पर्याय तेनुं वास्तविक कारण नथी. (कारण कहेवुं ते व्यवहार छे.)
हा, तो पछी तेनुं कारण शुं? ए ज अहीं कहे छे; वर्तमान अवस्था विद्यमानपणे होय ज एवी आत्मानी भावशक्ति तेनुं कारण छे. वर्तमान वर्तमान वर्तती प्रतिसमयनी अवस्था तेना स्वकाळे विद्यमान थाय एवी आत्मानी भावशक्ति छे ते कारणे छे.
हवे आम छे त्यां रागनी क्रियाथी-व्यवहार-रत्नत्रयना रागथी आत्मानुं ज्ञान प्रगट थाय, व्यवहारथी निश्चय थाय ए वात कयां रही? राग तो बापु! बंधनुं ज कारण छे. तेनाथी अबंधस्वरूप एवो मोक्षमार्ग अने मोक्ष कदी य प्रगट थतो नथी. मोक्षमार्गथी मोक्ष प्रगटे छे एम नथी, त्यां रागनी शुं कथा? अहाहा...! अबंधस्वरूप नित्यानंद प्रभु आत्मा छे तेना आश्रये क्रमे मोक्षमार्ग अने मोक्ष प्रगटे छे. ए तो पहेलां आवी गयुं के ज्ञानमात्र वस्तुनुं परिणमन थतां भेगी अनंत शक्तिओ निर्मळपणे ऊछळे छे. आवी स्वानुभवनी दशा होय छे. ए स्वानुभवनी दशा कांई विकल्पथी के निमित्तथी उत्पन्न थाय छे एम नथी. स्वकाळे विद्यमान ए दशा, अहीं कहे छे, भावशक्तिनुं कार्य छे, ने पोताना द्रव्यस्वभावनी सन्मुख थतां ते प्रगट थाय छे.
जो के आ आत्मा शरीरप्रमाण छे, तथापि ते शरीरथी तद्न भिन्न छे. शरीर तेनुं कांई संबंधी नथी. आवो भगवान आत्मा असंख्यप्रदेशी वस्तु अनंत गुणोथी विराजमान मोटो (सर्वोत्कृष्ट) चैतन्य बादशाह छे, असंख्य प्रदेश तेनो देश छे, तेमां व्यापक अनंत गुण तेनां गाम छे, ने एकेक गाममां अनंती निर्मळ पर्यायरूप प्रजा छे. आ पर्यायरूप प्रजा केवी रीते प्रगट थई? तो कहे छे-अनंत गुणमां भावशक्तिनुं रूप छे, तेथी प्रत्येकने वर्तमान विद्यमान अवस्थावाळापणुं छे. आवी झीणी वात छे. (मतलब के उपयोगने झीणो करतां समजाय तेम छे).
जुओ, आकाशमां ध्रुवनो तारो होय छे. तेने लक्षमां राखीने समुद्रमां वहाण चाले छे. ध्रुव तारो तो ज्यां छे त्यां छे, तेनुं स्थान फरतुं नथी, पण मोटां वहाणो होय छे ते आ ध्रुवना ताराने लक्षमां राखी निश्चित स्थान प्रति गति करे छे. तेम भगवान आत्मा ध्रुव, चिदानंद प्रभु, आनंदरस, ज्ञानरस, शांतरस, वीतराग रस, जीवनरस-एवा अनंत गुणना निजरसथी भरपूर भरेलो ध्रुव-ध्रुव-ध्रुव छे. आवा ध्रुवना लक्षे वर्तमान पर्यायने अंदर ऊंडे (सन्मुख) लई जतां पर्यायनी ध्रुवमां एकता थाय छे. राग अने पर निमित्त साथे एकता हती ते पलटीने ध्रुवना लक्षे ध्रुवमां एकता थाय छे; आनुं नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे. एकता एटले शुं? ध्रुव ने पर्याय कांई परस्पर भळीने एक थई जाय छे
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एम नहि, पण पर्याय ध्रुवनी सन्मुख थई तो तेने एकता थई एम कहेवामां आवे छे. हवे आवुं सत्य अंदर बेसे नहि, अंतर-अनुभव करे नहि ने खाली व्रतादि वडे कल्याण थई जवानुं माने, पण ए तो भ्रान्ति छे, मिथ्यादशा छे.
भगवान आत्मा चैतन्य गुणरत्नोथी भरेलो रत्नाकर प्रभु छे. तेमां एक भावशक्ति नामनो गुण छे. आ भावशक्ति वर्तमान विद्यमान अवस्थाने प्रगट करे छे, प्रगट करे छे शुं? शक्ति परिणमतां वर्तमान विद्यमान अवस्था होय ज छे. भावशक्तिनुं भवन-परिणमन होतां आत्माने वर्तमान विद्यमान-अवस्थायुक्तपणुं होय ज छे; अवस्था करवी पडे एम नहि. अहीं निर्मळ अवस्था लेवी, मलिन अवस्था शक्तिना कार्यरूप नथी.
प्रश्नः– आत्मा अने तेनी अवस्था पोताथी विद्यमान छे ए तो मान्युं, पण अमारी अवस्थामां मिथ्यात्व वर्ते छे ने?
उत्तरः– अरे भाई! आत्मानी अवस्था पोताथी ज छे एम तें कोनी सामे जोईने मान्युं? जो आत्मानी सामे जोईने मान्युं होय तो पर्यायमां-अवस्थामां मिथ्यात्व रहे ज नहि. पोतानी अवस्था पोताथी ज विद्यमान छे एवो द्रव्यस्वभाव जेणे स्वीकार्यो तेने निर्मळ अवस्थानुं ज विद्यमानपणुं होय छे. ओघे-ओघे, ज ‘आत्माना भाव पोताथी छे’ एम जो तुं माने छे तो द्रव्यस्वभावनी सम्यक् प्रतीति विना तने मिथ्यात्वादि विकार ज विद्यमान छे; तेमां अमे शुं करीए? आवी मिथ्यादशा तने अनादिथी छे, ते स्वभावनी-स्वद्रव्यनी सन्मुख थई परिणमतां टळी जाय छे, ने निर्मळ पर्यायोनो क्रम शरू थाय छे.
अरे! जीवे सम्यग्दर्शन कदी प्रगट कर्युं नहि! अनंतकाळमां बहारनी माथाकूट करीने मरी गयो. एक तो संसारनां-पापनां काम आडे एने फुरसद मळी नहि, ने कदाचित् फुरसद मळी तो व्रत, तप, भक्ति आदि रागनी मंदतानी क्रियामां रोकाई गयो, शुं करीने? धर्म मानीने. पण भाई! रागनी क्रिया मंद हो तो पण ते बंधनुं ज कारण छे, संसाररूप छे अने संसारनुं कारण छे; भेगुं मिथ्याभावनुं महापाप तो ऊभुं ज छे, जे अनंत संसारनुं कारण छे. ज्यारे जीवनशक्तिनी विद्यमान पर्याय छे ते अबंध छे. मोक्षमार्ग-के मोक्षरूप छे; तेमां विकारनो-विकल्पनो अभाव छे. शुं कीधुं? जेमां भावशक्तिनुं रूप छे एवी भावशक्तिनुं रूप छे एवी जीवन शक्ति परिणमतां जीवननी वर्तमान निर्मळ अवस्था नियमथी विद्यमान होय छे, तेमां विकारनो अभाव छे. वस्तुमां विकार नहि, ने तेना परिणमनमां य विकारनो अभाव छे. आ अनेकान्त अने स्याद्वाद छे. स्वभावना अस्तिरूप परिणमनमां विकारनी नास्ति छे; आ अनेकान्त छे.
प्रश्नः– एक भाई प्रश्न करता के अमे आ व्रत, तप, भक्ति आदि करीए छीए, ने घरबार-कुटुंबने छोडी निवृत्ति लीधी छे ते शुं धर्म नहि? जो ए धर्म न होय तो अमारे शुं करवुं?
उत्तरः– एनी तो अहीं वात छे. शुं? के रागथी भिन्न हुं एक ज्ञायकस्वरूप छुं-एम स्वसन्मुख थई भेदज्ञान प्रगट करवुं ते धर्म छे. दया करुं, ने व्रत करुं, ने तप करुं-एम करवानुं माने छे ए तारुं नियमथी मरण छे. सोगानीजीए कह्युं छे के ‘करना सो मरना है.’ हुं राग करुं ए अभिप्रायमां तारुं भावमरण थाय छे. अनंत चैतन्यशक्तिओनो पिंड ते हुं नहि, पण रागना कर्तास्वरूप हुं छुं एम माननार पोतानी चैतन्यशक्तिनो घात करे छे, पोताना स्वभावनी हिंसा करे छे. अहा! आवो आत्म-घात महापाप छे.
अरेरे! एणे पोतानी दरकार करी नहि. पचास-सो वर्षनां आयुष्य तो जोतजोतामां वीती जाय भाई! ने त्रसमां रहेवानी स्थिति उत्कृष्ट बे हजार सागरोपम छे. त्यां सुधीमां जो धर्म प्रगट न कर्यो तो समजवुं के स्थिति पूरी थये जीव नियमथी निगोदमां चाल्यो जशे, पछी अवसर नहि रहे. आ बैरां-छोकरां, धन-संपत्ति इत्यादि काम नहि आवे, ने तेना लक्षे एकलुं पाप ज थशे. कदाचित् पुण्यना भाव कर्या होय तो य तेना फळरूपे भव मळशे. पुण्यना भाव पण संसार छे ने तेनुं फळ पण संसार छे.
अहीं कहे छे-प्रभु! तारी शक्तिमां संसार नथी. ए शक्ति वर्तमान विद्यमान अवस्था सहित छे, ते अवस्थामां पण संसार नथी. संसारनो जे विकल्प छे तेनो भावशक्ति अने विद्यमान अवस्थामां अभाव छे. हवे आवी चोख्खी वात छे, छतां लोको राड नाखे छे के-व्यवहार करीए छीए ते साधन छे. अरे भाई! निमित्तनुं ज्ञान कराववा तेने उपचारथी साधन कह्युं छे, ते कांई खरेखर साधन नथी. लोकोने एम लागे छे के-अहीं निश्चय... निश्चय... ने निश्चयनी ज वात करे छे, पण भाई! निश्चय एटले सत्य अने व्यवहार एटले उपचार. आम निश्चय- व्यवहार यथार्थ
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समजवा जोईए.
व्यवहारना-शुभभावना फळमां एकाद स्वर्गनो भव आवे, पण तेथी शुं? पूजामां तो आव्युं छे ने के-
एकाद भव स्वर्गनो मळी जाय, पण पछी त्यांथी नीकळीने पाछो पशुगति के नरकगतिमां चाल्यो जाय. वर्तमानमां बहु शुभभाव कर्या होय तो जीव स्वर्गमां जाय, तिर्यंच मरीने आठमा स्वर्ग सुधी जाय छे. त्यांनु आयुष्य पूरुं करीने पाछा तिर्यंचमां पण जवा संभवित छे.
प्रश्नः– सम्मेदशिखरनी जात्रा करे तो तेना भवनो नाश थाय ए तो खरुं ने? उत्तरः– ना, एम नथी. सम्मेदशिखरनी गमे तेटली जात्रा करे तो य ए शुभभाव छे, अने शुभभावथी बंध थाय छे, मुक्ति नहि, भवनाश नहि. ए तो समकिती जीवने जात्रा आदिना भाव होय छे तो तेना एवा शुभभावने आरोपथी उपचार करीने भवनाशक कह्यो होय छे, पण वास्तवमां जात्रानो शुभभाव बंधरूप ज छे.
प्रश्नः– तो लोकोमां कहेवाय छे ने के शत्रुंजय अने सम्मेदशिखरनी जात्रा करो तो कल्याण थाय छे? उत्तरः– धूळे य कल्याण न थाय सांभळने. जात्राना परिणाम शुभराग छे ने एनाथी पुण्यबंध थाय, धर्म नहि, कल्याण नहि. तेनो उपचारथी महिमा करवामां आव्यो होय तो तेने उपचारमात्र ज समजवो जोईए. वास्तवमां तारा कल्याणनुं कारण तो भावशक्ति छे. भावशक्तिनी वर्तमान विद्यमान निर्मळ अवस्था ते तारा कल्याणनुं कारण छे. आ भावशक्ति द्रव्य-गुणमां-अनंतमां व्यापक छे, जेथी अनंत गुण सहित द्रव्यनी वर्तमान अवस्था निर्मळ विद्यमान होय ज छे, ने ते मुक्तिनुं कारण छे. आवी वात छे.
त्रिकाळी भावशक्ति छे ते पारिणामिक भावे छे. तेनुं परिणमन थाय छे ते उपशम, क्षयोपशम अने क्षायिक एवा त्रण भावरूप होय छे. उदयभाव ते शक्तिनुं कार्य नथी. अहा! निर्मळ पर्यायनी वर्तमान हयाती होय एवी भावशक्ति जीवमां त्रिकाळ छे. ‘अमुक अवस्था’ एटले अहीं निश्चित निर्मळ पर्यायनी वात छे. द्रव्यस्वभावनी द्रष्टिपूर्वक जेने भावशक्तिनी प्रतीति थई छे तेने भावशक्तिना कार्यरूप नियमथी निश्चित निर्मळ अवस्था विद्यमान होय छे. ‘अमुक अवस्था’ एटले क्रमबद्ध जे निर्मळ अवस्था थवानी होय ते अवस्था वर्तमान-वर्तमान विद्यमान होय छे एम वात छे; अमुक अवस्था एटले गमे ते अवस्था एम वात नथी, पण अमुक निर्मळ निश्चित अवस्थानी वात छे.
अहा! आ भावशक्तिना वर्णनमां घणुं रहस्य भर्युं छे. भावशक्ति परिणमतां-
• नियमथी वर्तमान निर्मळ अवस्था विद्यमान होय छे; तेथी
• द्रव्यनी पर्यायनुं (निर्मळ पर्यायनुं) व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प कारण नथी.
• द्रव्यनी निर्मळ पर्यायनुं देव-गुरु आदि पर निमित्त कारण नथी.
• द्रव्यनी पर्याय करवी पडे छे एम नथी.
• द्रव्यनी पर्याय स्वकाळे प्रगट थाय ज छे.
• द्रव्यमां प्रगट थती पर्याय नियत क्रमथी क्रमबद्ध प्रगट थाय छे. इत्यादि अनेक रहस्यो आ भावशक्तिना वर्णनमां भर्यां छे.
अरे, लोको तो पांच-पचीस लाख खर्ची मंदिर बनावे ने जिनबिंब पधरावे एटले कल्याण थई जशे एम माने छे, पण एवुं वस्तुस्वरूप नथी. मंदिर बनाववाना शुभभावथी पुण्य बंधाय, पण धर्म न थाय. अमे तो संप्रदायमां हता त्यारे य आ वात बहु जोर दईने कहेता. अरे भाई! शुद्ध आत्मद्रव्यना लक्षे निर्मळ अवस्थायुक्त शुद्ध रत्नत्रयनां परिणाम थाय ते मोक्षनुं कारण छे. अहा! भावशक्तिनुं भवन... निर्मळ विद्यमान पर्याययुक्त थवुं ते तेनुं कार्य छे. आ निर्मळ अवस्थानुं व्यवहाररत्नत्रय कारण नथी. व्यवहाररत्नत्रय धर्मीने हो, पण ए तेनी धर्मपरिणतिनुं-निश्चय रत्नत्रयनुं कारण नथी. व्यवहाररत्नत्रय निर्मळ अवस्थानुं कारणे य नथी, कार्य पण नथी.
पंचसंग्रहमां कह्युं छे के- अग्निना तापथी जो लाभ थतो होय तो पतंगियां अग्निमां पडे छे तेने लाभ थवो जोईए.
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जळमां स्नान करवाथी जो लाभ थतो होय तो जळचर प्राणीओ जळमां डूबकी मारे छे तेमने लाभ थवो जोईए. नग्न रहेवाथी जो मुक्ति थती होय तो पशुओ नग्न ज रहे छे, तेमने मुक्ति थवी जोईए. केशलुंचनथी जो धर्म थतो होय तो घेटाना वाळ बारे महिने कापे छे तेने धर्म थवो जोईए. परंतु आ बधी तो जडनी क्रिया बापा! एनाथी धर्म न थाय, ने रागथी य धर्म न थाय. एक द्रव्य बीजा द्रव्यमां कांई करे ए तो वस्तुस्थिति ज नथी.
आ शक्तिना वर्णनमां पर्यायना परिणमन सहितनी वात छे. परिणमनमां एकेक शक्ति अने शक्तिवान द्रव्यनी प्रतीति थाय छे. शुद्ध परिणमन विना त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यनी प्रतीति-सिद्धि थती नथी. पर्यायरूप परिणमन विना कोनी प्रतीति? शेमां प्रतीति? वर्तमान सहित त्रिकाळी द्रव्य अने शक्तिनी प्रतीति पर्यायमां थाय छे. जीवने ज्यां सुधी द्रव्य उपर द्रष्टि न होय त्यां सुधी तेने शक्तिनुं परिणमन नथी, तेथी तेनी प्रतीतिमां त्रिकाळी द्रव्यनी हयाती नथी, तेने तो रागनी ज हयाती छे. मलिन रागनी रुचिमां तेने आत्मा भासतो नथी, तेने राग ज-मलिन अवस्था ज विद्यमान छे. वास्तवमां जेने पुण्यनी-रागनी मीठाश छे तेने निज ज्ञानस्वभावनी अरुचि-द्वेष छे. ‘द्वेष अरोचक भाव’-परनी रुचि ने स्वरूपनी अरुचि ते निज आत्मद्रव्य प्रत्येनो द्वेष छे. धर्मीने रागनी रुचि-प्रेम होतां नथी. राग हो, यथासंभव राग होय छे, पण धर्मी पुरुषने तेनी रुचि होती नथी; ते तो रागनो ज्ञाता-द्रष्टा ज छे. समजाणुं कांई...?
दरेक शक्ति वीतराग स्वरूप छे. शक्ति अने शक्तिवानने ओळखी ज्यां द्रव्य-द्रष्टि करे त्यां वीतरागी पर्याय पण विद्यमान थाय छे; राग एमां विद्यमानपणे छे ज नहि. धर्मी तो रागने मारा जाणे छे बस; ते जाणे छे एम कहीए ए य व्यवहार छे, केमके राग छे तो रागने जाणनारी ज्ञाननी दशा थई छे एम नथी. पोताने जाणे ने रागने-परनेय जाणे एवो सहज ज एनो स्वपर प्रकाशक स्वभाव छे, ते ज्ञाननी दशा पोताथी प्रगट थई छे, रागने लीधे नहि, तेमां रागनो तो अभाव ज छे. ल्यो, आवुं वर्तमान निर्मळ अवस्थाना होवारूपे भावशक्ति छे तेनुं वर्णन पूरुं थयुं.
आ प्रमाणे अहीं भावशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
‘शून्य (-अविद्यमान) अवस्थावाळापणारूप अभावशक्ति’ (अमुक अवस्था जेमां अविद्यमान होय एवापणारूप अभावशक्ति)’
आ समयसारनो शक्तिनो अधिकार छे. शक्ति एटले गुण; आत्मा गुणी शक्तिवान छे. भगवान आत्मा त्रिकाळी सत् अविनाशी वस्तु छे, गुणा तेनुं सत्त्व छे, सामर्थ्य छे. अहाहा...! गुण कहो, शक्ति कहो, स्वभाव कहो- बधुं एक ज छे.
अहीं अभावशक्तिनुं वर्णन छे. शुं कहे छे? के ‘शून्य अवस्थावाळापणारूप अभावशक्ति छे.’ अहाहा...! आत्मा चैतन्य द्रव्य छे, तेनी आ शक्ति त्रिकाळ ध्रुव छे. तेनुं स्वरूप शुं? तो कहे छे-तेनी विद्यमान अवस्था पर नाम आठकर्मना अभावरूप अवस्था छे, अने ते वर्तमान विद्यमान अवस्थामां पूर्वोत्तर अवस्थाओनो पण अभाव छे.
अहा! भावशक्तिनी जेम आत्मामां अभावशक्ति त्रिकाळ छे. जेने अंतर्द्रष्टि-आत्मद्रष्टि थई तेने भावशक्तिनुं परिणमन थयुं, अभावशक्तिनुं पण परिणमन थयुं; तेथी तेने जे वर्तमान निर्मळ अवस्थानी विद्यमानता थइ तेमां, अहीं कहे छे, आठ कर्मनी अवस्थानुं अविद्यमानपणुं-शून्यपणुं छे. अहा! आत्माना अनंतगुणनी निर्मळ अवस्थानुं वर्तमान विद्यमानपणुं छे ते, कहे छे, आठ कर्मनी अवस्थाथी शून्य छे.
अज्ञानीओ पोक मूके छे के-अरे! कर्मनुं जोर घणुं! कर्म महा बळवान! तेने कहे छे-भाई, तारी पर्यायमां कर्मनो तो अभाव छे, ते तने शुं करे? आठ कर्मथी आत्मा शून्य छे, ने तेना निमित्ते थता विकारथी-भावकर्मथी पण तेनी विद्यमान निर्मळ अवस्था शून्य छे; भावकर्मनी अवस्था अविद्यमान छे. शुं कीधुं? आ दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि जे विकल्प छे तेनाथी आत्मानी विद्यमान अवस्था शून्य छे. अरे, लोकोने पोतानी शक्ति अने शक्तिवाननी तथा तेना परिणमननी खबर नथी, ने कर्मनुं जोर छे एम खाली राडो पाडे छे.
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भाई! तारी वर्तमान विद्यमान दशामां कर्मनो-द्रव्यकर्म-भावकर्मनो तो अभाव छे, तदुपरांत अहीं एम कहेवुं छे के-तारी विद्यमान दशामां पूर्व पर्यायनो पण अभाव वर्ते छे. माटे, अरेरे! पूर्वे बहु अपराध-पाप कर्या छे, हवे तेनाथी मुक्त केम थवाय?-एवी कायरता छोडी, तारी वर्तमान पर्यायने स्वभावमां वाळ तो पूर्वना सर्वदोषनुं निवारण थई तने निर्मळ धर्मपरिणति प्रगट थशे. अज्ञानीने पण पोतानी वर्तमान उंधाईनी ज मलिनता छे, कांई पूर्वनी मलिनता वर्तमानमां विद्यमान नथी; पूर्वनी मलिनतानो तो वर्तमानमां अभाव ज छे. अहो! आमां प्रतिसमय वर्तमान वर्तती पर्यायनो ‘भाव’ अने तेमां बीजी पर्यायोनो ‘अभाव’-एम बतावीने तो पर्याय- पर्यायनी स्वतंत्रता सिद्ध करी छे, ने वर्तमान पर्यायने वर्तमान त्रिकाळी द्रव्यनुं ज आलंबन बताव्युं छे. आ तो गजब वात छे भाई!
अहो! द्रव्यमां ज्यारे जुओ (द्रष्टि करो) त्यारे तेनी निर्मळ अवस्था पोताथी ज विद्यमानपणे वर्ते छे, अने ते अवस्थामां बीजी आगळ-पाछळनी बधी अवस्थाओ अविद्यमान ज छे. वर्तमान विद्यमान पर्यायनुं वर्तवापणुं ते ‘भाव’ ने त्यारे बीजी पर्यायनुं नहि वर्तवापणुं, अविद्यमानपणुं ते ‘अभाव’. अहा! आवी बन्ने शक्तिओ आत्मामां एकसाथे त्रिकाळ वर्ते छे.
तारुं ज्ञान अज्ञानना अभाववाळुं छे,
तारी श्रद्धा विपरीतताना अभाववाळी छे,
तारुं चारित्र कषायना अभाववाळुं छे,
तारो आनंद आकुळताना अभाववाळो छे.
-एम तारी बधी ज शक्तिओ विभावना अभाववाळी छे. अहा! आवा निज स्वभावनो स्वीकार करतां ज पर्यायमां पण स्वभावना तद्रूप परिणमन थई जाय छे, -आ ज धर्मनी रीत छे. शुद्ध चैतन्य स्वभावने प्रतीतिमां लईने तेना आश्रये परिणमन कर्या विना धर्मनो बीजो कोई उपाय नथी.
तो केटलाक लोको कहे छे के-दया, दानना शुभभावने नहि मानो तो नरकमां जशो. अरे भाई! सांभळ तो खरो प्रभु! तुं एक वस्तु छो के नहि? जो छो तो तेमां वसेली त्रिकाळी शक्तिओ छे के नहि? वस्तु तो तेने कहीए के जेमां शक्तिनो वसवाट होय, जेम गाम तेने कहीए जेमां प्रजानो वसवाट होय. आ दया, दान, व्रत आदि भाव तो विकारी विभावदशा छे, ते भावकर्म छे; तेनी शक्तिनी विद्यमान निर्मळ दशामां अविद्यमानता ज छे एवी आत्मानी अभावशक्ति छे. अहाहा...! भावकर्मथी भगवान आत्मा शून्य छे, ने तेना निर्मळ परिणमनमां पण भावकर्मनो अभाव ज छे. शुभभावने आ रीते मानवा ते मानवुं यथार्थ छे. बाकी केटलाक आवी वात समजे नहि एटले विरोध करे, पण आ विरोध करवा जेवी चीज नथी बापु! आमां तो तारा हितनी वात छे. एनो विरोध तो पोतानो ज विरोध छे. अमने तो करुणा ज छे. श्रीमदे कह्युं छे ने के-
माने मारग मोक्षनो, करुणा उपजे जोई.
शुभभावनी रुचिवाळाने क्रियाजड कह्या छे, ने बहार ज्ञाननी वातो करे, पण अंदर चैतन्यनुं भिन्न परिणमन थवुं जोईए तेनो जेने स्वाभिमुख उद्यम नथी तेने शुष्कज्ञानी कह्या छे. बन्ने अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि छे.
तो ज्ञानीने शुभराग तो होय छे? हा, ज्ञानीने शुभरागआवे छे, पण तेने रागनी रुचि, रागनो प्रेम होतो नथी. अहा! आत्मामां विकारी परिणामना अभावरूप स्वभाव छे ते ज्ञानीने परिणम्यो छे, जेथी तेनी निर्मळ विद्यमान दशामां विकारनी अविद्यमानता ज वर्ते छे. किंचित् राग पर्यायमां छे तेने अहीं आत्मा कहेता-गणता नथी. आत्मानी शक्तिना अधिकारमां विकारने शक्तिना कार्यरूप गणवामां आवतो नथी. आ अभावशक्ति द्रव्य-गुण अने पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. तेथी शक्तिमां जेनो अभाव छे, शक्तिनी पर्यायमां पण तेनो अभाव-अविद्यमानता ज छे.
ज्ञानावरण आदि आठ कर्मनी अवस्थाथी भगवान आत्मा शून्य छे. अज्ञानी कहे छे-मने कर्म नडे छे. अरे भगवान! कर्म तो बिचारां जड छे. ते तने शुं नडे? पूजानी जयमालामां आवे छे ने के-
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कर्मनी अवस्थाथी तो भगवान आत्मा शून्य छे. जे तारामां नथी ते तने शुं करे? अरे, कर्म तो शुं, कर्मना निमित्ते उत्पन्न थता विकारथी पण आत्मा शून्य छे, ने पोताना आनंदस्वभावथी अशून्य छे. अहा! आ भाव-अभावशक्ति वर्णवीने आचार्यदेवे गजबनी वात करी छे.
आठ कर्मनी १४८ प्रकृतिनो आत्मामां अभाव छे. नामकर्मनी तीर्थंकर प्रकृतिथी आत्मा शून्य छे, ने तीर्थंकर प्रकृतिना कारणरूप सोलहकारण भावनाथी पण आत्मा शून्य छे. अहा! आ अभावशक्तिमां तो गजबनी वात छे.
तो, ‘दरशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थंकरपद पाय, परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो.’ एम सोलहकारणनी पूजा करवामां आवे छे ने?
ए तो बधो बाह्य व्यवहार बापु! बाकी ए भावनाथी अंदर भगवान आत्मा भिन्न छे. जे भावथी कर्मप्रकृति बंधाय ते भावनी आत्मानी वर्तमान भावरूप निर्मळ दशामां अविद्यमानता ज छे एवी आत्मानी आ अभावशक्ति छे. आवी वात लोकोने मळी नथी एटले परंपरा तूटी गई, सत्गुरु पण रह्या नहि. पं. जयचंदजीए लख्युं छे के-आ ग्रंथना गुरु-संप्रदायनो (-गुरुपरंपरागत उपदेशनो) व्युच्छेद थई गयो छे, माटे जेटलो बनी शके तेटलो (-यथाशक्ति) अभ्यास थई शके छे. तोपण जेओ स्याद्वादमय जिनमतनी आज्ञा माने छे, तेमने विपरीत श्रद्धान थतुं नथी. कयांक अर्थनुं अन्यथा समजवुं पण थई जाय तो विशेष बुद्धिमाननुं निमित्त मळ्ये यथार्थ थई जाय छे. जिनमतनी श्रद्धावाळाओ हठग्राही होता नथी.
अहाहा...! भगवान आत्मा पूर्ण पवित्रतानो पिंड छे. तेनी वर्तमान विद्यमान अवस्था पण पवित्र छे; ते अपवित्रताथी शून्य छे. द्रव्यकर्म, नो कर्म ने भावकर्मथी ते शून्य छे. पांच शरीरथी ते शून्य छे. जो के ज्ञानीने ज तीर्थंकर प्रकृति होय छे, अज्ञानीने होती नथी; आहारक बंधननी प्रकृति पण समकितीने (मुनिवरने) होय छे, अज्ञानीने होती नथी. तथापि तेनी विद्यमान निर्मळ अवस्थामां ते द्रव्यकर्म, नोकर्म ने भावकर्मनो अभाव छे. आ रीते कर्मथी हुं हेरान छुं-एवी मान्यता बराबर नथी. वास्तवमां ‘अपने को आप भूलके हेरान हो गया’-अमे वात छे.
अहाहा...! भगवान आत्मा परम पवित्र चैतन्यरत्नाकर प्रभु पोतानी पवित्रतानो रक्षक-नाथ छे. पोताना योगक्षेमनो करनारो होय तेने नाथ कहीए, केमके ते मेळवेली चीजनी रक्षा करे छे, अने नहीं मेळवेली चीजने मेळवी आपे छे. भगवान आत्मा वर्तमानमां विद्यमान निर्मळ दशा छे तेनी रक्षा करे छे. पोते विकारना अभावस्वभावे छे ने! तो विकारने प्रवेशवा देतो नथी, अने वर्तमानमां केवळज्ञाननो अभाव छे तेने ते अंतःपुरुषार्थनी पूर्ण प्रकर्षता वडे मेळवी आपे छे. अहा! आवो भगवान आत्मा नाथ छे. समजाय छे कांई...? अहो! पंचम आराना मुनिवर श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे तीर्थंकर तुल्य काम कर्युं छे, ने अमृतचंद्रसूरिए तेमना गणधर जेवुं काम कर्युं छे. आ शक्तिओनुं स्पष्टीकरण पं. दीपचंदजीए विशेषताथी कर्युं छे. थोडुं समयसार नाटकमां पण छे.
अहा! आत्मा अनंत शक्तिनुं एकरूप ध्रुव चैतन्यदळ छे. तेनी द्रष्टि सहित अनुभव जेने अंतरमां प्रगट थयो तेनी वर्तमान विद्यमान शुद्ध अवस्थामां विकारनुं अविद्यमानपणुं छे. अहाहा...! ज्ञानी-धर्मी पुरुष, रागनी अवस्थाथी, मारी विद्यमान ज्ञाननी दशा शून्य छे एम अनुभवे छे. राग छे ए तो अज्ञानीने पर्यायद्रष्टिमां विद्यमान छे. कर्मना निमित्ते जे दशा थाय तेने अज्ञानी पोतानी माने छे, अने आ मान्यता ज तेने संसार परिभ्रमणनुं अने दुःखनुं कारण छे.
प्रश्नः– तो गोमटसारमां ज्ञानावरणीयना निमित्तथी ज्ञान रोकाय छे एम आवे छेने? उत्तरः– हा, आवे छे; पण ए तो निमित्तनां कथन बापु! जीवने पोतानी द्रव्यद्रष्टिनी दशानो अभाव छे तो ते पोते ज्ञाननी हीणी दशारूपे परिणमे छे, अने त्यारे ज्ञानावरणीय कर्म तेमां निमित्त होय छे बस. कर्म ज्ञान रोके छे एवो एनो अर्थ नथी. कर्मप्रकृतिए आवरण कर्युं ए तो निमित्तनी प्रधानताथी जीवनी हीणी दशा बताववा माटेनुं व्यवहारनयनुं कथन छे वास्तवमां भावघाती कर्मथी विकृत दशा थाय छे, द्रव्यघातीकर्म तो तेनुं निमित्तमात्र छे. अहीं तो एम सिद्ध कर्युं छे के आत्मा भावघाती कर्म ने द्रव्यघाती कर्मनी अवस्थाथी शून्य-अविद्यमान छे. स्वभावनी द्रष्टि थतां अनंत गुणनी निर्मळ विद्यमान अवस्था होय छे, ने तेमां कर्म, शरीर अने रागनी अवस्था अविद्यमान छे. हवे आवी वात सर्वज्ञ सिवाय कयां होय? कयांय न होय.
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अहा! तारां चैतन्यनिधान तो जो. तेमां रागनो अभाव छे. जेम नरकमां स्वर्गना सुखनी गंध नथी, स्वर्गमां नरकनी पीडा नथी, परमाणुमां पीडा नथी, तेम भगवान चैतन्यप्रभुमां विकार नथी. अहाहा...! चैतन्य- सूर्यना प्रकाशमां रागना अंधकारनो अभाव छे.
अरे, आ शरीर छे ते तो हाड-मांसनुं दुर्गंधमय पोटलुं छे. तेमां शुं राचवुं? तेमांथी बहुबहु तो राख ने धुमाडो नीकळे, तेनी क्रियामांथी कांई सम्यग्दर्शन आदि रत्नो न नीकळे; तेना लक्षे रागद्वेषना अपवित्र, मलिन- गंधाता भावो थाय, कांई ज्ञानमय भाव न थाय. पण अरे भाई! अंदर आ तारुं चैतन्यनिधान अनंत गुणरत्नोथी भर्युं छे, तेमां एकाग्र थईने तुं जो तो खरो! अहाहा...! तेमां जोता ने जोता रहेतां तेमांथी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र, मुनिदशा, केवळज्ञान अने सिद्धपद इत्यादि निर्मळ निर्मळ रत्नोनी हारमाळा गुंथाएली छे ते क्रमे प्रगट थाय छे. अहो! अहीं कहे छे-कर्म, शरीर ने रागनी दशानी अविद्यमानता ज होय एवो भगवान आत्मानो अभावशक्तिरूप स्वभाव छे.
प्रश्नः– तो प्रवचनसारमां कर्तृनय कह्यो छे ते शुं छे? उत्तरः– प्रवचनसारमां त्यां ज्ञानप्रधान शैलिथी वात छे. त्यां कह्युं छे- ‘आत्मद्रव्य कर्तृनये, रंगरेजनी माफक, रागादिपरिणामनुं करनार छे (अर्थात् आत्मा कर्तानये रागादि परिणामोनो कर्ता छे, जेम रंगारो रंगकामनो करनार छे तेम)’.
अहा! धर्मीने सम्यग्दर्शन साथे ज्ञाननी-सम्यग्ज्ञाननी दशा थई छे. ते ज्ञानमां एम जाणे छे के-मारी पर्यायमां विकार छे. अने परिणमन अपेक्षा तेनो हुं कर्ता छुं. परंतु द्रष्टि विकारने पोताना स्वरूपमां स्वीकारती नथी. तेथी द्रष्टिनी प्रधानतामां ‘हुं तो विकारथी शून्य छुं’ -एम ज्ञानी अनुभवे छे. अहीं समयसारमां द्रष्टिनी प्रधानता छे. द्रष्टिनी प्रधानतामां विकार गौण गणी, नथी-अभावरूप छे एम कथन होय छे. ज्यारे ज्ञान तो क्रममां जे किंचित् राग छे तेने पोताना अपराधरूप जाणे छे. (तेने पोतामां भेळवे छे एम नहि)
आचार्य अमृतचंद्रस्वामी त्रीजा कळशमां कहे छे के-
‘अविरतमनुभाव्य–व्याप्ति कल्माषितायाः’-हुं तो द्रव्यद्रष्टिए शुद्ध चैतन्यमात्र छुं, परंतु मारी परिणति मोहकर्मना उदयनुं निमित्त पामीने मेली छे-रागादिरूप थई रही छे. मारी पर्यायमां दुःखनुं वेदन छे. ज्यारे अहीं शक्तिना वर्णनमां आचार्यदेव कहे छे के-दुःखना वेदननी अवस्थानो मारी वर्तमान विद्यमान निर्मळ अवस्थामां अभाव छे. भाई, ज्यां जे अपेक्षाए कथन होय त्यां तेने अपेक्षाथी यथार्थ समजवुं जोईए. भाई! तारी चीज अलौकिक छे, ते लौकिक क्रियाथी प्राप्त थाय तेवी नथी. द्रव्यसंग्रहमां व्यवहारनयने लौकिक कह्यो छे. माटे पुण्यनी- रागनी रुचि छोडी स्वभावनुं ग्रहण कर. ज्ञानीने राग आवे छे, पण ते रागने ग्रहता-पकडता नथी; तेथी ज्ञानी रागनी अवस्थाथी शून्य छे, एवो ज आत्मद्रव्यनो स्वभाव छे. अरे भाई! आ तो प्रसन्नताना अंकुरो फूटे ने तुं न्याल थई जाय एवी आ वात छे; विदेहक्षेत्रमां भगवान सीमंधरस्वामी बिराजे छे त्यांथी आवेली आ वाणी छे. समजाय छे कांई...?
द्रव्य स्वभाव छे ते अशुद्ध अवस्थाथी शून्य छे, सर्व गुणनी पर्यायो पण अशुद्धताथी शून्य छे. अस्तित्व, वस्तुत्व आदि सामान्य गुणो अशुद्ध थता नथी, अमुक गुणनी पर्याय अशुद्ध थाय छे. सामान्य गुणोमां एक प्रदेशत्व गुणनी पर्याय (संसार दशामां) मलिन थाय छे. अगाउ वात करी हती के अमुक गुणनी पर्यायमां अशुद्धता थाय छे, बधा अनंत गुण कांई अशुद्धरूपे थता नथी. अमुक दर्शन, चारित्र, आनंद इत्यादि गुणनी पर्यायमां अशुद्धता थाय छे. पण आ तो ज्ञान करवा माटे छे, मतलब के ज्ञानी एने जाणे छे बस. (तद्रूप थतो नथी). द्रव्य स्वभावनी द्रष्टिमां तो प्रदेशत्व ने ज्ञान आदि गुणनी अशुद्धतानी दशानो अभाव ज छे.
अरे प्रभु! तने तारी मोटपनी खबर नथी. अशुद्धताथी शुद्धता-धर्म थाय एम मानीने तें तारी चीजनो घात कर्यो छे, केमके शुद्ध दशामां अशुद्धतानो अभाव वर्ते छे. तारा द्रव्यनो ज आवो स्वभाव छे. अंदर पूर्ण शुद्ध चैतन्य द्रव्य छे ते द्रवीने शुद्ध थाय छे एम न मानतां अशुद्धतामांथी शुद्ध दशा प्रगट थाय, वा व्यवहार करतां करतां निश्चय थाय एम मानतां तारा स्वभावनो अनादर थाय छे, अने ते ज आत्मघात छे. माटे व्यवहारनो आश्रय छोडी त्रिकाळी द्रव्यस्वभावनो आश्रय कर; केमके द्रव्यस्वभाव त्रिकाळ पवित्र छे, परम पवित्र छे, अने तेना आश्रये ज पवित्रतानी पर्याय प्रगट थाय छे.
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अहा! जडकर्म अने भावकर्मनी दशानो तो वर्तमान विद्यमान दशामां अभाव छे, ने भूत-भविष्यनी पोतानी अवस्थाओनो पण तेमां प्रागभाव ने प्रध्वंसाभाव छे. जो तेम न होय ने भूत-भविष्यनी पर्यायो पण वर्तमानमां विद्यमान होय तो वर्तमान साधक पर्यायमां भूतकाळनी अज्ञानदशा पण वर्त्या करे, तथा वर्तमान साधकपर्यायमां केवळज्ञान दशा पण हमणां ज थई जाय. आम थतां साधकदशा वगेरे एकेय पर्याय सिद्ध न थाय, अने पर्याय सिद्ध न थतां, द्रव्य पण सिद्ध न थाय, अर्थात् अज्ञान ज रहे. माटे वर्तमान साधकदशानुं विद्यमान स्वभाववाळापणुं छे तेमां अन्य (आगळ-पाछळनी ने वर्तमान विकारनी) अवस्थाओनो अभाव ज छे एम जाणी शुद्ध चैतन्यना लक्षमां दक्ष था, केमके चैतन्यना लक्षमां दक्ष थतां आत्मा पोतानी निर्मळ अवस्थापणे विद्यमान वर्ते छे. आवो वीतरागनो मारग छे.
आ प्रमाणे अहीं अभावशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
‘भवता (-वर्तता, थता, परिणमता) पर्यायना व्ययरूप भावाभावशक्ति’. अहा! आत्मामां एक एवी शक्ति छे जे वडे वर्तमानमां जे पर्याय विद्यमान-भावरूप छे तेनो नियमथी बीजे समये अभाव थाय. भाव-अभावनो एवो अर्थ छे के वर्तमान पवित्रतानी जे विद्यमान-भावरूप अवस्था छे तेनो बीजा समये अभाव थाय छे. जरा शांतिथी सांभळवुं बापु! आ तो भगवान केवळीनो मारग कोई अलौकिक छे. अहा! भगवान केवळीए आत्मामां जेवां निधान प्रत्यक्ष जोयां छे तेवां, भगवान! तने अज्ञान मटीने ज्ञानमां भासित थाय एवी तारी चीज छे.
अहा! अनंत गुणनी जे निर्मळ पर्याय वर्तमान विद्यमान छे ते भवता भावनो-परिणामनो बीजे समये व्यय थाय एवी आत्मानी भाव-अभावशक्ति छे. आ पर्याय छे तेनो हुं अभाव करुं एम नथी, ने तेने हुं पकडी राखुं एम पण नथी, कारण के वर्तमान भावनो बीजे समये अभाव थाय ज एवो आत्मानो भाव-अभाव स्वभाव छे.
अरे भाई! तुं मुंझाईश मा... , अरेरे! घणा लांबा काळथी सेवेलुं अज्ञान हवे केम टळशे, ने सम्यग्ज्ञान केम थशे?-आम तुं मुंझाईश मा; केमके अनादिथी जे अज्ञान सेव्युं ते अज्ञान सदाय टकी ज रहे-एम नथी. अनादिथी समये समये विद्यमान एवा अज्ञाननो अभाव थईने, अपूर्व सम्यग्ज्ञाननो भाव थाय एवी शक्तिओ तारामां त्रिकाळ भरी छे. बस तुं स्व सन्मुख था, ने तारी बधी ज मुंझवण मटी जशे.
जुओ, आ अनेकान्तनो अधिकार छे. आचार्यदेव अहीं अनेकान्तने विशेष चर्चे छे. शिष्ये प्रश्न कर्यो हतो- प्रश्नः– आत्मा अनेकान्तमय होवा छतां पण अहीं तेनो ज्ञानमात्रपणे केम व्यपदेश करवामां आवे छे? (आत्मा अनंत धर्मोवाळो होवा छतां तेने ज्ञानमात्रपणे केम कहेवामां आवे छे? ज्ञानमात्र कहेवाथी तो अन्य धर्मोनो निषेध समजाय छे.) तेनो आचार्यदेव उत्तर करे छे-
उत्तरः– लक्षणनी प्रसिद्धि वडे लक्ष्यनी प्रसिद्धि करवा माटे आत्मानो ज्ञानमात्रपणे व्यपदेश करवामां आवे छे. आत्मानुं ज्ञान लक्षण छे, कारण के ज्ञान आत्मानो असाधारण गुण छे. (-अन्य द्रव्योमां ज्ञानगुण नथी). माटे ज्ञाननी प्रसिद्धि वडे तेना लक्ष्यनी-आत्मानी-प्रसिद्धि थाय छे.
ज्ञानमात्र चेतनस्वरूप आत्मा छे, तेनी परिणतिरूप ज्ञाननी पर्याय छे तेनी साथे अनंत गुणोनी पर्याय उत्पन्न थाय छे. ज्ञानमात्र कहेतां तेमां अनंत शक्तिओ आवी जाय छे, तेमां राग-पुण्य-पाप भावोनो निषेध छे, कांई शक्तिओनो निषेध नथी. आत्मानी पर्यायमां वर्तमान ज्ञाननी दशा विद्यमान होय छे; आ भाव छे ने तेमां रागनो-व्यवहारनो अभाव छे. आ अनेकान्त छे. लोको व्यवहारथी निश्चय थाय एम माने छे, तेमनी आ विपरीत मान्यतानो अनेकान्तनी चर्चा द्वारा आचार्यदेवे निषेध कर्यो छे.
आत्मानी अनंत शक्तिओ छे. तेमां भावशक्तिनुं रूप छे. तेथी तेनी प्रत्येक शक्तिनी वर्तमान निर्मळ अवस्था