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विद्यमान होय छे, आ वर्तमान विद्यमान निर्मळ दशामां व्यवहारनो-रागनो अभाव छे. आनुं नाम अनेकान्त छे. अरे, लोको तो व्रत, तप आदि व्यवहार रत्नत्रयना विकल्पथी धर्म थवानुं माने छे, पण ते मान्यता एकान्त छे; तेओ एकान्तवादी मिथ्याद्रष्टि छे, तेमने अनेकान्तना स्वरूपनी खबर नथी.
पोताना द्रव्यमां जे अनंत शक्तिओ छे तेनी वर्तमान विद्यमान अवस्था होय ज छे. ते अवस्था परनुं कारण थाय के परनुं कार्य थाय एम छे नहि. अज्ञानीओ खाली बहारमां धमाधम करे छे. मंदिर बनावो, ने प्रतिष्ठा करावो ने रथयात्रा काढो-इत्यादि बहारमां अज्ञानी खूब धमाधम करे छे. घणा लोको कहे छे के अहीं जंगलमां आ परमागम मंदिर, ने समोसरण मंदिर ने प्रवचन मंडप इत्यादि करोडोना खर्चे रचना थई छे ते तमारा (कानजी स्वामीना) कारणे थई छे.
अरे भाई! ए बधुं कोण करे? शुं जीव करे? ए तो परमाणुओनी रचना एनी स्वतंत्र योग्यताथी थई छे. अमे तो वारंवार कहीए छीए के ए परमाणुओनी दशा तेना स्वकाळे तेनाथी थई छे, अमारा के बीजा कोईना कारणे ते थई छे एम नथी. आ तो वस्तुस्वरूप छे बापु! दुनियालोक तो अज्ञानमां पडया छे, ते गमे ते माने-कहे तेथी शुं? जुओने, आ शास्त्रनी टीकाना छेल्ला कळशमां आचार्य अमृतचंद्रसूरि शुं कहे छे? के आ टीका में बनावी नथी. तेना शब्दो आ प्रमाणे छेः
“पोतानी शक्तिथी जेमणे वस्तुनुं तत्त्व (-यथार्थ स्वरूप) सारी रीते कह्युं छे एवा शब्दोए आ समयनी व्याख्या (-आत्मवस्तुनुं व्याख्यान अथवा समयप्राभृत शास्त्रनी टीका) करी छे; स्वरूपगुप्त (-अमूर्तिक ज्ञानमात्र स्वरूपमां गुप्त) अमृतचंद्रसूरिनुं (तेमां) कांई ज कर्तव्य नथी.”
भाई! आ शास्त्रनी वात काने पडे माटे शिष्यने ज्ञान थाय छे एम नथी. शास्त्रना शब्दोना कारणे ज्ञान थाय छे एम, हे जनो! मोहथी मा नाचो; केमके शब्द तो जडनी दशा छे, ने ज्ञाननी दशा तो ज्ञानथी भावशक्तिना कारणे वर्तमान विद्यमान थाय छे.
अरे! लोकोने परमां कार्य करवानुं अभिमान छूटवुं कठण थई पडयुं छे. पण भाई! ते अभिमान तारा अनंत संसारनुं कारण छे. जुओ, सम्यग्द्रष्टि जीवो भगवाननी वाणी सांभळवा आवे छे. एकावतारी इन्द्र क्षायिक समकिती छे ते भगवाननी वाणी सांभळवा आवे छे. पण तेने ज्ञाननी दशा जे प्रगट थई छे ते ज्ञानगुण परिणमीने थई छे, वाणीथी नहि. जे समये, ज्ञाननी जे पर्याय थवा योग्य होय ते समये ते पोताथी प्रगट थाय ज छे, ते पर्याय परथी के शब्दथी उत्पन्न थती नथी. अहा! जैनदर्शन कोई अलौकिक चीज छे बापु! तेनो लौकिक व्यवहार साथे मेळ थई शके एम नथी.
अहीं भाव-अभावशक्तिनी वात चाले छे. अनंत गुणनी प्रवर्तमान-विद्यमान पर्यायनो बीजे समये अभाव थाय ते-रूप भाव-अभावशक्ति छे. वर्तमान पर्यायनो अभाव केम थाय? कोई परथी-निमित्तथी थाय एम नहि, ने व्यवहारना विकल्पथीय नहि. केटलाक कहे छे के-परिणमनमां काळ निमित्त छे तो काळथी थाय छे. पण एम नथी. परिणमनमां काळनुं निमित्तपणुं कह्युं ए तो काळद्रव्यनी सिद्धि करवा माटे छे. वर्तमान पर्यायनो बीजा समये अभाव थाय छे ए तो आत्मद्रव्यनो पोतानो सहज ज भाव-अभाव स्वभाव छे, एमां परनुं-निमित्तनुं रंचमात्र कारणपणुं नथी.
हवे केटलाके तो द्रव्य शुं? गुण शुं? पर्याय शुं?-कदीय सांभळ्युं न होय. त्रिकाळी शक्तिनो पिंड ते द्रव्य छे, तेमां जे शक्तिओ छे ते गुण छे, ने तेनी जे अवस्था बदले छे ते पर्याय छे, त्यां वर्तमान वर्तती पर्यायनो व्यय थाय छे ते कया कारणथी? तो कहे छे-भाव-अभावशक्तिना कारणथी. वर्तमान पर्यायना व्यय थवारूप आ भाव- अभावशक्ति छे. अहीं निर्मळ पर्यायनी वात छे. साधकने निर्मळ वर्तमान पर्यायनो व्यय थई नवी नवी अपूर्व निर्मळ दशा प्रगटे छे, त्यां वर्तमान पर्यायनो व्यय थाय ज, ते लंबाईने बीजा समये न रहे एवो आत्मानो आ भाव-अभाव स्वभाव छे. सिद्धने वर्तमानमां केवळज्ञान छे, ते व्यय पामी बीजे समये नवी केवळज्ञाननी दशा थाय छे. अहा! आवो अद्भुत चमत्कारी द्रव्यनो स्वभाव छे. हवे आम छे त्यां कर्मना अभावथी निर्मळ दशा थई, ने केवळज्ञान थयुं एम वात कयां रहे छे? ए तो निमित्तनी मुख्यताथी व्यवहारनयथी प्ररूपणा करी छे एम यथार्थ समजवुं जोईए.
मोक्षमार्ग प्रकाशकना सातमा अधिकारमां स्पष्टीकरण कर्युं छे के-“व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्यने वा तेना भावोने वा कारण-कार्यादिने कोईना कोईमां मेळवी निरूपण करे छे माटे एवा ज श्रद्धानथी मिथ्यात्व छे तेथी तेनो त्याग करवो,
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वळी निश्चयनय तेने ज यथावत् निरूपण करे छे, तथा कोईने कोईमां मेळवतो नथी तेथी एवा ज श्रद्धानथी सम्यक्त्व थाय छे माटे तेनुं श्रद्धान करवुं.” भाई, वस्तु जेवी छे तेवो ज्ञानमां सम्यक् निर्धार-निर्णय करवो जोईए. अहीं निर्णय करनार समकितीनी पर्यायनी वात चाले छे.
अहाहा...! धर्मी पुरुषनी वर्तमान निर्मळ रत्नत्रयनी, आनंदनी विद्यमान दशा छे ते व्ययरूप थई बीजे समये अपूर्व अपूर्व दशा प्रगट थाय छे त्यां वर्तमान दशाना व्ययनुं कारण शुं? तो कहे छे-आत्मामां वर्तमान दशाना व्यय थवारूप एक भाव-अभाव स्वभाव-शक्ति छे. समजाय छे कांई...? समजाय एटलुं समजवुं बापु! आ तो केवळीनां कहेण आचार्य लईने आव्यां छे. जेणे अंतरमां स्वीकार कर्यो ए न्याल थई जाय एवी वात एमां छे. शुं? के पर्यायनी स्थिति एक समयनी छे, ते लंबाईने बीजे समये रहे एम कदीय संभवित नथी, केम? केमके एवो ज वर्तमान पर्यायनो अभाव थवारूप आत्मानो भाव-अभाव स्वभाव छे.
प्रश्नः– हा, पण ते पर्याय व्यय थईने जाय छे कयां? उत्तरः– जळना तरंग जळमां समाय छे तेम पर्याय द्रव्यमां समाय छे. पछी ते पर्यायरूप न रही, पण पारिणामिकभावरूप थई जाय छे. पर्याय तो उपशम, क्षयोपशम, क्षायिकभावरूप छे, ते बीजे समये व्यय पामतां- द्रव्यमां विलीन थतां पारिणामिकभावरूप थई जाय छे. दया, दान आदि भाव छे ते उदयभाव छे. बीजा समये ते व्यय पामतां द्रव्यमां विलीन थईने पारिणामिकभावरूप थई जाय छे.
मोक्षमार्ग प्रकाशकमां बे जग्याए आवे छे के शुद्ध-अशुद्ध पर्यायोनो पिंड ते आत्मा छे. ए तो जे भूतकाळनी अशुद्धताने मानतो नथी तेने समजाववा माटे ए वात करी छे; अशुद्धता एटले अंदर द्रव्यमां अशुद्धता छे एम नहि. द्रव्य तो शुद्ध पारिणामिकभावरूप ज छे. आ प्रमाणे उदयभावरूप अशुद्ध पर्याय, ने उपशमादि शुद्ध पर्याय व्यय पामीने अंदर जतां शुद्ध-अशुद्ध पर्यायरूप रहेती नथी, पण पारिणामिकभावरूप थई जाय छे. अहा! तारा सत्नुं स्वरूप जो तो खरो!
वर्तमानमां जीवने संसारदशानो सद्भाव छे; पण ते ‘भाव’नो ‘अभाव’ करी नाखे एवुं सामर्थ्य अंदर एना द्रव्यमां पडयुं छे. धर्मी पुरुष तेने प्रतीतिमां लई द्रव्यना आश्रये अपूर्व अपूर्व निर्मळ दशाओने प्राप्त थई संसारनो अभाव करी क्रमे मोक्षदशाने प्राप्त थाय छे. आवो मारग छे. लोको तो, दिगंबरमां जन्म्या छे तेय, व्रत, तप, भक्ति इत्यादि राग करवामां धर्म माने छे, पण ए मार्ग नथी. भगवाननो कहेलो सत्य पंथ अहीं दिगंबर आचार्योए स्पष्ट कर्यो छे.
अहीं शक्तिनी व्याख्या करतां कहे छेः भवत्पर्यायव्ययरूपा भावाभावशक्तिः भवता पर्यायना व्ययरूप भावाभाव-शक्ति छे. आमां तो अनंत पर्यायोनो खुलासो करी दीधो छे. आत्मामां अनंत शक्तिओ छे. तेनी निर्मळ पर्यायो सम्यग्द्रष्टिने प्रगट वर्तमान विद्यमान होय छे. ते पर्यायोनो व्यय थवो ते भावाभावशक्तिनुं कार्य छे. तेने करवुं पडतुं नथी; हुं एने करुं ए तो विकल्प छे, ने विकल्पथी कांई साध्य थतुं नथी. ए तो चैतन्यचिंतामणि एवो पोते शक्तिवान द्रव्य छे. तेने अंतर्मुख द्रष्टिमां लेतां दरेक शक्तिनी पर्यायमां तेनुं कार्य थाय छे. साधकने संसारदशानो अभाव थईने पूर्ण दशानी प्राप्तिना पुरुषार्थनो आवो अलौकिक मार्ग छे. भाई! आ समजवामां जेने उल्लसित वीर्य होय तेना माटे आ वात छे. बाकी तो बधी रझळपट्टी छे.
अहा! पर्यायमां संसार छे तेनो अभाव करी पूर्ण दशाने पहोंचवुं छे; पण ते केम थाय? संसारनो अभाव थई पूर्णता केम थाय? तो कहे छे-तारा द्रव्यमां पूर्णता भरी छे. तेना आलंबने पर्यायमां पण पूर्णता प्रगटी जशे, ने अपूर्णतानो अभाव थशे. साधकनी द्रष्टिमां द्रव्यनुं ज आलंबन छे. अहा! निज द्रव्यनी सन्मुख थईने तेनी सेवना- उपासना-लीनता रमणता करीने ते पूर्ण दर्शन-ज्ञान-चारित्रने प्राप्त थई सिद्धदशाने पामे छे. आ मार्ग छे, बाकी बधुं (व्रतादिना विकल्प) थोथां छे.
लोकोने थाय के एकला निश्चयनी वात करे छे. भाई, निश्चय ज सत्य छे, व्यवहार तो आरोपित छे, उपचार छे, कथनमात्र छे, लौकिक छे.
आ प्रमाणे अहीं भाव-अभावशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
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‘नहि भवता (नहि वर्तता) पर्यायना उदयरूप अभावभावशक्ति.’ जुओ, पहेलां वर्तमान विद्यमान अवस्थानो बीजे समये अभाव थाय छे एवी भावअभावशक्ति कही. तो बीजे समये पर्याय रही नहि? ल्यो, आ प्रश्नना समाधानरूप कहे छे- ‘नहि भवता पर्यायना उदयरूप अभावभावशक्ति’ छे. बीजे समये जे वर्तमान पर्यायमां अभावरूप छे ते पर्यायनो उदय थाय ते रूप आत्मामां अभावभावशक्ति छे. आ तो भगवान आत्मानी भागवत कथा छे बापु! आ बहु धीरज ने उल्लासथी सांभळवी. पद्मनंदी पंचविशतिकामां एक श्लोक द्वारा श्री पद्मनंदी स्वामी कहे छे-
निश्चित्तं स भवेद्भव्यो, भाविनिर्वाण भाजनम्।।
अहा! जेणे प्रसन्न चित्तथी, उल्लसित वीर्यथी निज अंतःतत्त्वनी वात सांभळी छे, ते कहे छे, अवश्य भविष्यनी मुक्तिनुं भाजन छे, भव्य छे.
आ पद्मनंदी स्वामीए ब्रह्मचर्यनो एक अधिकार लख्यो छे. शरीरथी ब्रह्मचर्य पाळे ते ब्रह्मचर्य नहि, ने ब्रह्मचर्यनो विकल्पे य राग छे. परंतु भगवान आत्मा ब्रह्म नाम नित्यानंदस्वरूप आनंदकंद प्रभु छे तेमां लीन थवुं ते ब्रह्मचर्य छे. पछी छेल्ले कह्युं छे के-हे युवानो! आ ब्रह्मचर्यनो अमारो उपदेश तमने ठीक न लागे तो क्षमा करजो, अमे तो मुनि छीए. (एम के अमारी पासे आ सिवाय बीजी वात न होय). विषयभोगमां लीन एवा तमने अमारी आ वात न रुचे तो माफ करजो. अरे, ब्रह्मचर्य एटले शुं? ब्रह्म नाम शुद्ध चिदानंद प्रभु आत्मा-तेमां चरवुं, रमवुं, ठरवुं एनुं नाम ब्रह्मचर्य छे ने ए चारित्र छे. समजाणुं कांई...?
समयसारमां अनेकान्तनुं वर्णन कर्युं छे. त्यां चौद बोलमां एकांतवादी मिथ्याद्रष्टिने पशु कह्यो छे. रागथी लाभ थवानुं माने ते एकांत छे; तेवुं माननारने पशु कह्यो छे. केम पशु कह्यो छे? ‘पश्पति, बध्यति इति पशुः’ मिथ्यात्वथी बंध पामे छे, नाश पामे छे माटे अज्ञानी एकांतवादीने पशु कह्यो छे. जीव मिथ्यात्वना फळमां क्रमे करीने निगोदमां जाय छे माटे एकान्तवादी अज्ञानी जीवने शास्त्रमां पशु कह्यो छे.
आचार्य कुंदकुंदस्वामीए शास्त्रमां (अष्टपाहुडमां) एम कह्युं छे के-वस्त्रनो एक टुकडो राखी जे पोताने मुनिपणुं मानशे-मनावशे ते निगोदमां चाल्यो जशे. एम केम कह्युं? केमके वस्त्रनो टुकडो पण राखी मुनिपणुं त्रणकाळमां होई शके नहि. वस्त्र राखवानो विकल्प शरीर प्रत्येनी ममता-मूर्च्छा विना होय नहि, अने ममता-मूर्च्छा होय त्यां चारित्र केवुं? एने चारित्र मानवुं ए तो मिथ्यात्वभाव छे, ने मिथ्यात्वनुं फळ परंपरा निगोद छे. शुभभाव होय तो स्वर्ग मळी जाय, ने तीव्र अशुभभाव होय तो जीव नरके जाय, पण तत्त्वनी विराधनानुं फळ तो निगोद छे. अहा! तत्त्वनी आराधनानुं फळ अनंतसुखधाम एवुं मोक्ष छे, ने तत्त्वनी विराधनानुं फळ अनंत दुःखमय निगोद छे. आवी वात! समजाय छे कांई...?
अहीं कहे छे-भविष्यनी पर्याय जे वर्तमानमां नथी, बीजा समये जे थवानी छे तेनो बीजा समये उदय थाय एवी आत्मामां अभावभावशक्ति छे. वर्तमानमां जे उदयरूप नथी, अभावरूप छे ते पर्यायनो बीजे समये भाव- उत्पाद थई जाय तेरूप अभावभावशक्ति जीवमां त्रिकाळ छे. आम वर्तमानभावनो बीजे समये अभाव थतां, जेनो वर्तमान अभाव छे तेनो ते समये भाव-उत्पाद थई जाय छे, एवो आत्मानो त्रिकाळी अभावभाव स्वभाव छे.
जेम वर्तमान क्षयोपशम समकित छे, तेमां क्षायिक समकितनो अभाव छे. तो कहे छे-भले वर्तमान क्षायिकनो अभाव होय, पण क्षयोपशम समकितनो अभाव थईने पछी जे अभावरूप छे ते क्षायिकनो भाव-उत्पाद थई जशे.
हा, पण केवळी-श्रुतकेवळीनी समीपतामां क्षायिक समकित थाय ने? केवळी श्रुतकेवळीनी समीपतामां क्षायिक समकित थाय ए तो निमित्तनुं व्यवहारनयथी कथन छे. शास्त्रमां आवां बधां कथनो निमित्तनुं ने व्यवहारनुं ज्ञान कराववा माटे होय छे. बाकी केवळी-श्रुतकेवळीनी समीपताथी ज जीवने क्षायिक थई जाय छे एम वस्तु नथी. खरेखर तो वर्तमान पर्यायमां जे क्षायिक समकितनो अभाव छे, तेनो भाव-उत्पाद थशे ते अभावभावशक्तिना कारणथी थशे. वर्तमान जे
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क्षयोपशम समकित छे तेनो अभाव थाय ते भावनो अभाव छे, ने वर्तमान जे क्षायिक समकित नथी तेनो बीजे समये भाव थाय ते अभावनो भाव छे. आ रीते भाव-अभाव अने अभाव-भाव ए आत्मानी बन्ने शक्तिओ एक समयमां एकसाथे वर्ते छे.
वर्तमान स्वरूपाचरण चारित्र प्रगट छे, तेमां विशेष स्थिरतानी दशानो अभाव छे; पण तेनो पछीना समये भाव थई जशे एवुं आत्मानुं अभाव-भावशक्तिरूप सामर्थ्य छे. अहीं (व्याख्यामां) ‘उदय’ शब्द वापर्यो छे. ‘उदय’ एटले उत्पाद थवो, प्रगट थवुं एम अर्थ छे. श्रीमदे पण ‘उदय’ शब्द वापर्यो छे.
अहाहा...! शक्तिनो अर्थ छे द्रव्यनुं सामर्थ्य. जीवनी अनंत शक्तिओमां एक अभावभावशक्ति छे. तेनाथी वर्तमान नहि भवता भावनो उदय थाय छे. वर्तमान ज्ञानदशामां क्षयोपशम ज्ञान-कमीवाळुं ज्ञान छे तेनो अभाव थईने बीजे समये पूर्ण केवळज्ञान प्रगट थाय छे. अहा! आवो चमत्कारिक आत्मस्वभाव छे. चार कर्मनो नाश थईने केवळज्ञान प्रगट थयुं एम तत्त्वार्थसूत्रमां आवे छे ए निमित्तनुं व्यवहारनयथी कथन छे.
अहा! आत्मानो आ एवो गुण छे के वर्तमान पर्यायमां जेनो अभाव छे तेनो बीजे समये उदय थाय छे. ल्यो, आमां निमित्तना कारणे नैमित्तिक दशा थाय एवी मान्यतानो निषेध छे.
तो शुं निमित्त कांई ज नथी? निमित्त छे, हो; पण तेनाथी कार्य नीपजे छे एम नथी. खानिया चर्चामां आ विषय चर्चायो हतो. शंकाकार पक्षनी दलील हती के चार घातीकर्मनो नाश थवाथी केवळज्ञान आदि अनंत चतुष्टय प्रगट थाय छे. पं. फूलचंदजीए तेनुं समाधान करतां कह्युं छे के-चार घातीकर्मरूप पर्यायनो नाश थईने त्यां तेनी अकर्मरूप दशा थाय छे. कर्मनी पर्यायनो व्यय थईने ‘भाव’ शुं थयो? के अकर्मरूप दशा थई. माटे तेमांथी (कर्मना अभावमांथी) केवळज्ञान आदि जीवनी पर्याय प्रगट थई एम नथी. भाई, विशेष चिंतन-मनन करी यथार्थ निर्णय करवो जोईए. निमित्त छे, होय छे, पण उपादाननुं कार्य करवामां निमित्त कांई ज नथी. आवी गंभीर सूक्ष्म वात छे.
ज्ञाननी पर्यायमां हानि के वृद्धि थाय ते पोतानी तत्कालीन पर्यायनी योग्यताथी थाय छे, तेमां ज्ञानावरणीय कर्मनुं निमित्त भले हो, पण निमित्तथी ज्ञाननी पर्याय थाय छे एम नथी. द्रव्यनी शक्तिमां ज एवुं सामर्थ्य छे के नवी (अपूर्व) पर्याय प्रगट थाय. कर्मना अभावथी थाय एम छे ज नहि. आगम, युक्ति अने अनुभव-त्रणे प्रकारे आम ज सिद्ध थाय छे.
पोतानी पर्याय पर-निमित्त वडे थती नथी, केमके निमित्त छे ते निमित्तनी पोतानी पर्याय करे छे, तो पछी बीजानी पर्याय ते केवी रीते करे? निमित्तनो-परनो तो पोतामां (आत्मद्रव्यमां) अत्यंत अभाव छे. आ युक्ति छे. वळी वर्तमान अल्पज्ञाननी दशामां विशेषज्ञान अभाव छे ते अभाव-भावशक्तिना सामर्थ्यथी पछीना बीजा समये भाव-उत्पादरूप थशे; अभावनो भाव थशे. आवो वस्तु-स्वभाव छे, तेथी निमित्तथी के गुरुगमथी विशेष ज्ञान थाय एम छे नहि. भगवान! आ सत्य वात छे, ने आ हितनी वात छे.
पण आमां करवानुं शुं? अहा! चिदानंद चिद्रूप प्रभु पोते छे तेनो अंतर्मुख थई स्वीकार करवो, ने तद्रूपस्वरूप परिणमवुंः बस आटलुं करवानुं छे. भाई, आ समजीने आटलुं करे तेने निमित्तथी थाय, ने व्यवहारथी थाय-ए बधा गोटा ऊडी जशे. एक वात पण जो यथार्थ समजे तो बधा गोटा ऊडी जाय. आवी वात! समजाणुं कांई...?
अत्यारे तो आ विषयमां मोटी गरबड चाले छे. जुओ, इंदोरवाळा पंडित देवकीनंदन अहीं विद्वत् परिषदमां आव्या हता. तेमणे पंचाध्यायीनुं संपादन कर्युं छे. तेमां एक जग्याए तेमणे जे अर्थ लख्यो हतो ते भूलवाळो हतो. तेमां आम छपायुं हतुं के-छठ्ठा गुणस्थानमां बुद्धिपूर्वकनो राग होय छे, अने सातमा गुणस्थाने अबुद्धिपूर्वकनो राग होय छे. तेमने अमे कहेलुं, -पंडितजी, आमां भूल छे. खरेखर एम छे के -छठ्ठा गुणस्थानमां बुद्धिपूर्वक अने अबुद्धिपूर्वक-एम बन्ने प्रकारना राग होय छे, ज्यारे सातमा गुणस्थानमां एकलो अबुद्धिपूर्वकनो राग होय छे. चोथा गुणस्थाने पण ख्यालमां आवे एवो बुद्धिपूर्वकनो, ने ख्यालमां न आवे एवो अबुद्धिपूर्वकनो पण राग होय छे. अहीं
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मुनिनी वात छे. चारित्रवंत मुनि छे. तेमने त्रण कषायनो अभाव छे. तेमने छठ्ठा गुणस्थानमां बुद्धिपूर्वकनो अने अबुद्धिपूर्वकनो-एम बन्ने प्रकारनो राग होय छे.
अबुद्धिपूर्वकनो राग जीवनो छे एम असद्भूत अनुपचार नयथी कहेवामां आवे छे, ने ख्यालमां आवे छे ते बुद्धिपूर्वकनो राग ते असद्भूत उपचरित नयनो विषय छे. राग पोताना स्वरूपभूत नथी माटे ते असद्भूत छे, ने ख्यालमां आवे छे ते रागने जीवनो कहेवो ते उपचार छे. तेवी रीते ख्यालमां न आवे तेवो सूक्ष्म अबुद्धिपूर्वकनो राग अनुपचरित असद्भूत नयनो विषय छे. बुद्धिपूर्वकनो ने अबुद्धिपूर्वकनो राग-बन्ने छठ्ठा गुणस्थान पर्यंत होय छे, सातमा गुणस्थानथी उपर एकलो अबुद्धिपूर्वकनो राग होय छे.
पंडितजीए पोतानी भूल स्वीकारी सुधारी लीधेलुं. तेओ ते वखते बोल्या, ‘अमारा बधा पंडितोनुं भणतर निमित्ताधीन द्रष्टिवाळुं ज थयुं छे, निमित्तथी कार्य थाय एवुं ज अमे बधा भण्या छीए. आप कहो छो एवी समज अमारी पासे नथी.’
चोथा गुणस्थानमां आत्मज्ञान प्रगट थवा छतां तेने किंचित् कषायभाव होय छे. कषायमां राग-द्वेष बन्ने आवी गया. माया-लोभ ते राग, ने क्रोध-मान ते द्वेष. आमांथी कोईपण अंश ख्यालमां आवे ते बुद्धिपूर्वक छे, ने जे ख्यालमां न आवे ते अबुद्धिपूर्वक राग छे. ए बन्नेनो आत्मामां अभाव छे माटे तेने असद्भूत कहेवामां आवे छे. क्रोध छे ने तेनो अभाव थशे ए वात अहीं नथी. शक्तिना वर्णनमां क्रोधादि छे नहि, शक्ति तो निर्मळ स्वभावरूप छे, ने तेनी व्यक्ति-परिणमन निर्मळ ज छे. निर्मळ क्रमवर्ती पर्याय ने अक्रमवर्ती गुणो-ए बेनो समुदाय तेने अहीं आत्मा कहेवामां आव्यो छे; विकारनी अहीं वात ज नथी.
अरे! अनंतकाळमां एणे कदी यथार्थ निर्णय अने स्वानुभव कर्यो नहि! स्वानुभव कर्या विना तारां जन्म- मरण नहि मटे भाई! भक्ति, पूजा, व्रत ने तप लाख करे तो य आत्मज्ञान विना ए बधा राग छे, विकार छे, दुःख छे, क्लेश छे. पंडित दोलतरामजीए कह्युं छे ने के-
भाई, पांच-दस करोडनी मूडी होय, ने पांच-पचीस लाख खर्ची नाखे तो धर्म थई जाय एवुं धर्मनुं स्वरूप नथी. शुं करीए? वस्तु ज एवी छे. अमे तो एक द्रष्टांत आपीए छीएः एक करोडपति गृहस्थ, तेमनी छेल्ली स्थिति वखते भाव थया के आ बधी पूंजी छोडीने हमणां चाल्या जवानुं छे, तो लाव दानमां कांईक आपुं. हवे लकवाने लईने पूरुं बोलाय नहि. तूटक तूटक बोलवानी चेष्टा करे के-शु.. भ खा... ते... दस... ला... ख. छोकरो समजी गयो के बापुजी दश लाख दानमां आपी देवानुं कहे छे. एटले तरत ते एना बापुजीने कहे-“बापुजी अत्यारे पैसाने याद न कराय, भगवाननुं स्मरण करो.” जुओ, आ संसार! नियमसारमां एक श्लोक आवे छे के-आ बैरां- छोकरां ने सगां-वहालां ए तो पोतानी आजीविका माटे धुतारानी टोळी तने मळी छे. तारुं बधुं ज लूंटी लेशे. तारे दान करवुं हशे तो वच्चे विघ्न नाखशे. परद्रव्य मारुं छे, तेने हुं साचवी राखुं-एम माननारने शास्त्रमां मिथ्याद्रष्टि कह्यो छे. अने दानथी धर्म थाय एम माननार पण मिथ्या पंथे ज छे. भाई! तारी चैतन्य वस्तुनो स्वानुभवमां निर्णय कर्या विना कयांय धर्म थाय एम नथी.
भगवान आत्मा ज्ञानमां-स्वसंवेदनज्ञानमां जाणवामां आवे छे; तेनी जेवो जाण्यो तेवी प्रतीति करवी ते सम्यग्दर्शन छे. जे स्वसंवेदनमां जाण्यो तेनी प्रतीति करवानी छे. समयसारनी गाथा ३८, ने प्रवचनसारनी गाथा ९२मां आचार्यदेव कहे छे के-अमने आत्मज्ञानथी मिथ्यात्वनो नाश थयो छे; हवे फरीने मोह उत्पन्न नहि थाय. समकित थाय, ने पछी पडी जाय एवी अहीं वात ज नथी. जेने आत्मज्ञान प्रगट थयुं छे तेने वर्तमान अभाव छे तेनो भाव थशे. पहेलां भाव-अभाव कह्यो तो तेमां समकित प्रगट थयुं तेनो अभाव थशे एम न लेवुं. अहीं तो एम अर्थ छे के-वर्तमान निर्मळ पर्याय छे ते ‘भाव’ नो अभाव थईने बीजी निर्मळ पर्यायनो उदय-भाव थशे. वर्तमान अल्प निर्मळ पर्याय छे तो तेनो अभाव थईने, अभाव-भावशक्तिना कारणे विशेष निर्मळ अपूर्व अपूर्व पर्याय भावरूप थशे, उदयरूप थशे. पडी जवानी अहीं कोई वात ज नथी. अहा! जेने द्रव्यद्रष्टिमां पूर्ण चैतन्यनुं दळ एवुं द्रव्य आव्युं तेने द्रव्यनो अभाव थाय तो समकितनो अभाव थाय; पण द्रव्य अने द्रव्यनी शक्तिनो कदी य अभाव न थाय. अहा! तेनो-शुद्ध चैतन्य त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यनो जेने स्वानुभव थईने प्रतीति थई, तेने पर्यायनो व्यय-अभाव थशे, पण ते
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विशेष निर्मळ पर्यायना भाव-उत्पादपूर्वक थशे; वर्तमान निर्मळ पर्यायनो व्यय थईने तेने अपूर्व अपूर्व निर्मळ पर्यायनो भाव-उत्पाद थशे. आवी वात!
आस्रव अधिकारमां मूळ तो शुद्धनयने नय कह्यो छे. व्यवहार नयने नय गण्यो ज नथी. त्यां कह्युं छे-जेओ शुद्ध नयथी च्युत थईने फरीथी रागादिना संबंधने पामे छे तेओ कर्म बांधे छे. पण अहीं तो छोडवानी वात ज नथी. अहीं तो अप्रतिहत भावनी वात छे. अत्यारे भले क्षयोपशम समकित होय, पण पछी ते क्षायिक थवानुं छे. अत्यारे भले क्षयोपशम ज्ञान होय, पण पछी वधीने ते केवळज्ञान थवानुं छे; साधक दशा मटीने सिद्धदशा थवानी छे; जे भाव वर्तमानमां नथी, अभावरूप छे, ते अभावनो भाव थई जशे. अहो! थोडा शब्दे आ तो गजबनी वात करी छे. शुं थाय? लोको स्वाध्याय करता नथी, आगमनो शुं अभिप्राय छे ते पोतानी द्रष्टिमां लेता नथी!
परमात्म प्रकाशमां आवे छे के-दिव्य ध्वनिथी कांई ज्ञान थतुं नथी, ने मुनिनां कहेलां साचां शास्त्रोथी पण कांई ज्ञान थतुं नथी. पर्यायमां जे अल्प ज्ञान छे ते अभाव थईने, वर्तमान जे अभाव छे ते विशेष ज्ञाननो भाव थाय छे एवुं आत्मानी अभाव-भावशक्तिनुं सामर्थ्य छे.
सर्व गुणांश ते समकित. चोथा गुणस्थाने द्रव्यमां जे अनंत गुण छे तेनो समकितनी साथे ज अंश व्यक्त थाय छे. ते आ अभाव-भावशक्तिनो महिमा छे. जेम एक गुणमां तेम बधामां लेवुं के वर्तमान पर्यायमां जे अल्पता छे ते छूटीने विशेषता थशे; साधकभाव छूटीने पूरण सिद्धदशा प्रगटशे. खूब गंभीर वात छे. अहो! यथार्थ तत्त्वधारा-अमृतधारा जेमनाथी प्रवर्ते छे ते संतोनी बलिहारी छे. दिगंबर संतो सिवाय आवी धारा कयांय नथी.
आ प्रमाणे अहीं अभाव-भावशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
‘भवता (वर्तता) पर्यायना भवनरूप (वर्तवारूप, परिणमवारूप) भावभावशक्ति.’ अहाहा...! सम्यग्दर्शन अने धर्म करवो होय तो केम थाय? भाई! व्यवहारना जे विकल्प छे तेनी रुचि छोडी, एक ज्ञायकभाव, शुद्ध चिदानंद, अखंड आनंदकंद प्रभु पोते छे तेनी द्रष्टि करी, रुचि करवी, तेनो अनुभव करवो ते जीवनी प्रथम कार्यसिद्धिरूप सम्यग्दर्शन छे; आनुं नाम धर्म छे. जो के शुभभाव हजु छूटी जतो नथी, शुद्धोपयोग पूर्ण प्रगट थये ते छूटशे, पण शुभनी रुचि अवश्य छूटी जाय छे. भाई! शुभरागनी रुचि तने छे ते महान दोष छे, महान विपरीतता छे. आकरी वात प्रभु! पण आ सत्य वात छे.
व्यवहार छे ते मिथ्यात्व छे एम वात नथी; धर्मीने पण बहारमां ते होय छे, पण व्यवहारने धर्म मानवो ते मिथ्यात्व छे. प्रथम शुभभाव एकदम छूटी जाय ने शुद्ध थई जाय एम नहि, पण शुभभावनी रुचि छूटी शुद्धोपयोग प्रगटे छे. स्वभावनो आश्रय लेतां स्वानुभवमां प्रथम शुद्धोपयोग प्रगटे छे, आनुं नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे. ज्यारे आंतर-स्थिरता थई शुद्धोपयोग पुष्ट थाय त्यारे क्रमशःशुभभाव छूटे छे, ने आ चारित्र छे, धर्म छे. भाई, शुभभावनी रुचि तो पहेलेथी ज छूटवी जोईए.
अशुभभाव तो हेय छे ज, अने शुद्धोपयोग छूटीने शुभभाव थाय ए य कोई चीज नथी. शुभ छूटी अशुभ थाय ते तो अहीं वात ज नथी. अहीं तो शुभभावनी रुचि छोडी शुद्ध चिदानंद स्वरूप प्रभु आत्मा छे तेनी द्रष्टि करवी, तेनी रमणता करवी, तेमां ठरवारूप स्थिरता करवी एवी निर्मळ परिणति ते धर्म छे. माटे प्रथम शुभनी रुचि छोडवानी वात छे, शुभनो आश्रय छोडवानी वात छे. त्रिकाळी शुद्ध निज चैतन्यवस्तु एक आश्रय करवा लायक छे, ते तरफ झूकवाथी शुभरागनो आश्रय छूटी जाय छे.
अहा! ज्ञानी-धर्मी पुरुषने, ज्यां सुधी पूर्ण वीतरागनी दशा थई नथी त्यां सुधी, अंदर शुद्धनी द्रष्टि ने अनुभव होवा छतां, शुभभाव आवे छे, पण तेमां तेने हेयबुद्धि छे, तेनुं तेने स्वामित्व नथी. जुओ, श्रेणिक राजा क्षायिक समकिती
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हता, छतां शुभभावनी प्रकर्षता वडे तीर्थंकर गोत्र बांध्युं छे. भाई! शुभभाव पापबंधनुं कारण छे एम नथी, तथा ते अबंध भाव छे एम पण नथी, ए बंधभाव ज छे, ने एनाथी पुण्यबंध थाय छे. माटे शुभनी द्रष्टि छोडी, अंदर तारुं चैतन्यनिधान पूर्ण ज्ञान ने आनंदना अमृतथी भर्युं छे तेने देख, तुं न्याल थई जईश, तारी पर्यायमां अतीन्द्रिय आनंदनुं अमृत झरशे. ल्यो, आचार्यदेवे पोताना चैतन्यनिधानने घोळी घोळीने तेनो सार आ समयसारमां भर्यो छे. अहा! जेने अंतर्द्रष्टि थई छे, ने अंदर आनंदरसना अमृतनो स्वाद आव्यो छे तेने आ छ शक्तिओनुं वर्णन लागु पडे छे; अज्ञानीने तो शक्तिनुं भान ज कयां छे?
जुओ, पहेलां भावशक्ति कही तेमां वर्तमान विद्यमान अवस्था होवानी वात करी छे. विद्यमान- अवस्थावाळापणारूप भावशक्ति छे, जेथी धर्मीने वर्तमान शुद्धपर्यायनी विद्यमानता होय छे. तेमां अशुद्धता होती नथी. किंचित् अशुद्धता होय तेनो ते स्वामी नथी, मात्र जाणनार छे. जाणवानी पर्याय पोतामां छे, पण अशुद्धता पोतामां छे ए वात हवे द्रव्यद्रष्टिवंतने नथी.
बीजी अभावशक्ति लीधी छे. शून्यअवस्थावाळापणारूप अभावशक्ति छे. राग अने पुण्यना अभावस्वभावरूप अभावशक्ति छे. निर्मळ पर्याय अस्तिपणे विद्यमान छे ते भावशक्ति, अने रागना अभावरूप परिणमन ते अभावशक्तिनुं कार्य छे. अहा! वीतरागदेवे प्ररूपेलो मार्ग बहु सूक्ष्म छे. पण एकवार मूळ वस्तु हाथ लागी जाय पछी मार्ग खूली जाय छे. अहा! त्रिकाळी स्वभावनी साथे एकताबुद्धि थई के अंदरथी कमाड खूली गयां, खजानो खूली गयो. रागनी रुचि छूटीने स्वभावनी रुचि थई के सम्यग्दर्शनरूप चावी हाथ लागी गई, अने भरपूर चैतन्यनो खजानो खूली गयो; आनंदनुं परिणमन थयुं.
त्रीजी भावअभावशक्तिमां वर्तमान निर्मळ पर्यायनो नियमथी अभाव थई जशे एम बताव्युं छे; केमके पर्यायनी स्थिति एक समयमात्र छे, बीजे समये भावनो नियमथी व्यय-अभाव थई जाय छे.
चोथी अभावभावशक्ति कही छे. वर्तमान जे निर्मळ पर्याय नथी, ते पछी प्रगट थशे ज एवी आ अभावभावशक्ति छे. पछीनी निर्मळ पर्यायनो वर्तमानमां अभाव छे तेनो वर्तमान निर्मळ पर्यायनो व्यय थई भाव थशे ए आ अभावभावशक्तिनुं कार्य छे.
हवे आ भावभावशक्तिनुं वर्णन छे. कहे छे-भवता पर्यायना भवनरूप भावभावशक्ति छे. वर्तमान ज्ञाननी पर्याय भवनरूप छे, ते एवी ने एवी भवनरूप थया करशे-एवा स्वरूपे भावभावशक्ति छे. अहा! वर्तमान वर्तमान वर्ततो भाव त्रिकाळी भाव साथे एक थईने निरंतर वर्ते एवी आ भावभावशक्ति छे. त्रिकाळी द्रव्य ज्ञानस्वभाव छे. तेनी वर्तमान वर्तमान वर्तती दशा त्रिकाळी ज्ञानस्वभाव साथे एक थईने सदाय वर्ते. अहा! एवो आ आत्मानो भावभाव स्वभाव छे. आ तो गजबनी वातु प्रभु!
अहा! भगवान आत्मामां एक भावभावशक्ति छे. तेनुं स्वरूप शुं? तो कहे छे-आत्माना द्रव्य, गुण अने पर्यायमां ज्ञान छे ते भावरूप छे; द्रव्यमां भाव छे, गुणमां भाव छे, ने तद्रूप भवनरूप पर्यायमां पण समयेसमये भाव छे. आनुं नाम भावभावशक्ति छे. ज्ञाननी पर्याय वर्तमान छे, एवी ने एवी (सम्यग्ज्ञानरूप) पर्याय बीजे बीजे समये पण रहेशे. ज्ञाननी एनी ए पर्याय न रहे, पण ज्ञाननी जाति एवी ने एवी रहेशे. वर्तमानमां मति- श्रुतज्ञाननी निर्मळ पर्याय छे ते आ भावभावशक्तिना कारणथी एवी ने एवी भाव... भाव... भावरूपे-निर्मळ ज्ञानरूपे-रहेशे. द्रव्यगुणमां तो निर्मळता छे, पर्यायमां पण ज्ञाननी दशा एवा ने एवा निर्मळभावपणे रहेशे. सूक्ष्म विषय भाई! विचार-मंथन करीने ख्यालमां लेवानी चीज छे. जेम ज्ञाननी तेम समकितनी, चारित्रनी वर्तमान निर्मळ पर्याय निर्मळ समकित अने चारित्ररूप रहेशे-आवी भावभावशक्ति छे. अहा! आवुं पोतानुं तत्त्व छे तेनुं भावभासन थया विना धर्म थई जाय एम कदी बनतुं नथी.
समकिती तिर्यंचने नाम भले बोलतां न आवडे, तो पण तेने अंतरमां स्वतत्त्वनुं भावभासन थयुं होय छे. लोकमां साधकदशा पामेला जीवो तिर्यंचगतिमां पण असंख्याता छे. तेओ अंदर एम नथी जाणता के हुं तिर्यंच छुं, तेओ वास्तवमां एम अनुभवे छे के-शुद्ध चैतन्य ज हुं छुं, चैतन्यथी अन्य बीजा कोई भावो हुं नथी, ल्यो, आवुं अंदर भावभासन थयुं होय छे.
शास्त्रमां एक शिवभूति मुनिनी कथा आवे छे. तेमनी यादशक्ति ओछी हती. तेमने गुरुए आटलुं ज कह्युं के
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-“मा रुष, मा तुष” कोई प्रति राग न करवो, ने द्वेष न करवो; मतलब के वीतराग भावे रहेवुं. परंतु मुनिराज आ शब्दो भूली गया. त्यां एक बाई अडदनी दाळनां फोतरां जुदां करती हती, बीजी बाईए तेने पूछयुं, -बेन, शुं करो छो? तो पेली बाईए जवाब आप्यो, -माषथी तुष भिन्न करुं छुं. आ सांभळतां मुनिराजने गुरुए कहेली वात याद आवी गई. रागादि छे ते तुष छे, ने मारी ज्ञानशक्ति छे ते मारी मूळ चीज छे. आम नक्की करी निज चिदानंद प्रभुमां अंतर्मग्न स्थिर थया, त्यां केवळज्ञान प्रगट थयुं. आवी भावभासननी बलिहारी छे, एमां कांई बहु शास्त्रो याद रहे एवी जरूर नथी. शास्त्र याद रहे. ए ठीक छे, पण तत्त्वनुं भावभासन मुख्य चीज छे. समजाणुं कांई...?
भाई! चिदानंद चैतन्यमय वस्तु पोतानी चीज छे, पोतानुं घर छे; तेमां जवुं ते थई शके एवुं काम छे. परमाणुने पोताना करवा होय तो ते अशकय छे, अनंतकाळे य न थायः थया नहि, ने थशे नहि. परमाणुने ने रागने पोताना करवानो तारो उद्यम त्रणेकाळ निष्फळ छे बापु! आ शरीरादि ने रागादि भावोने तुं पोताना करवा रातदी एक करे छे, पण त्रणकाळमां ए थवुं संभवित नथी. तेमां तने एकलुं नुकसान छे भाई! स्वभावने पोतानो करीने, ए थई शके एम छे, ने एमां हित छे. आवी वात!
श्रीमद् राजचंद्रजीए कह्युं छे के-सत् सरळ छे, सत् सर्वत्र छे. हा, पण ज्ञानमां तेनी कबूलात आवे त्यारे ने? ज्ञाननी पर्याय अंतर्मुख थई त्रिकाळी सत् भगवान ज्ञायकनी सन्मुख थाय त्यारे एनी कबूलात-प्रतीति थाय छे. आनुं नाम सत् सरळ छे. बाकी रागनी रुचिमां रमे तेने सत् कयां छे?
अहीं एम कहे छे के-ज्ञाननी पर्याय वर्तमान भावरूप छे ते भावरूप ज्ञान... ज्ञान... ज्ञान... ज्ञानरूप-रहेशे; ते अज्ञानरूप नहि थाय, ने ते अन्यरूप पण नहि थाय. ज्ञाननी पर्याय अज्ञानरूप थई जाय, वा अन्य श्रद्धानादिरूप थई जाय एम त्रण काळमां बनतुं नथी. आवी आत्मानी भावभावशक्ति छे. अहो! आ तो थोडा शब्दे आचार्य भगवाने बहु ऊंडा भाव भरी दीधा छे. शुद्ध चैतन्यनी द्रष्टि थई एटले जे ज्ञाननी जात छे ते ज्ञानभावरूप रहेशे, समकित सदा निर्मळ श्रद्धारूप रहेशे ने चारित्रनी पर्याय स्थिरतारूप ज रहेशे. निर्मळ पर्याय एवी ने एवी निर्मळ रहेशे. तेने कोण करशे? तो कहे छे-कोई ज नहि, तेने करवी पडती नथी; ए तो द्रव्यनो एवो ज भावभाव स्वभाव छे. गजब वात छे भाई!
अरे भगवान! तारी चीजनो अंदर पत्तो लागीने स्वानुभव थयो, शुद्ध सम्यक्दर्शन थयुं, पछी ते श्रद्धानी पर्याय बदलाईने अन्यरूप-ज्ञानादिरूप न थई जाय, वा मिथ्यारूप पण न थई जाय. आ तो आवो भगवान आत्मानो स्वभाव छे. समजाय छे कांई...? कई पद्धतिथी कहेवाय छे ते ख्यालमां आवे छे के नहि एम वात छे. अहाहा...! भगवान आत्मा अनंत गुणनो समुद्र छे. ते अनंत गुणमां पोताना भाव पडया छे, ते अन्यरूप न थाय. अहाहा...! गुणनो जे भाव, ते भावनुं भवन थयुं, ते ते भावरूप रहेशे, अन्यरूप नहि थाय. एक गुणमां अनंत गुणनो भाव छे. अनंत गुणमां एक गुणनो भाव छे-ए वात जुदी छे. ए तो एक गुणनुं बीजा अनंत गुणमां रूप छे एनी वात छे, पण एक गुणनुं पोताना जे भावनुं भवन थाय ते बदलाईने अन्य भावरूप न थाय. श्रद्धाना भावपणे परिणमन थयुं ते पलटीने ज्ञानना भावरूप न थाय, वा अश्रद्धाना भावरूप न थाय. श्रद्धा श्रद्धा ज रहेशे, पलटीने तेनुं भवन श्रद्धा ज रहेशे. अस्तित्वनो वर्तमान भाव-पर्याय अस्तित्वरूपछे ते पलटीने निर्मळ अस्तित्वरूप ज रहेशे, कांई नास्तित्वरूप के अन्यरूप न थाय. एम बधा ज गुणोमां लेवुं. ल्यो, आ भावभावशक्ति छे.
अहीं छए शक्तिना वर्णनमां पर्यायनुं स्वरूप शुं एनी वात करी छे. अहा! आमां वस्तुना द्रव्य-गुण- पर्यायनुं स्वरूप स्पष्ट कर्युं छे. वेदांतीओ आत्माने आनंदस्वरूप, अखंड, अभेद, एकरूप, सर्वव्यापक माने छे, पण पर्यायने तेओ मानता नथी. अरे भाई! हुं अखंड, अभेद, एक, व्यापक छुं एवो निर्णय तें शामां कर्यो? एवो निर्णय तो पर्यायमां थाय छे, ने तुं पर्याय मानतो नथी; तेथी तने कोई निर्णय नथी, अर्थात् तारो निर्णय जूठो छे. तुं आत्माने सर्वव्यापक माने छे ए य जूठुं छे. केमके आत्मानुं एवुं सर्वव्यापी स्वरूप नथी. एक भाई कहेता हता के समयसारने वेदान्तना ढाळामां ढाळ्युं छे. अरे प्रभु! वेदान्तवाळा पर्यायने कयां माने छे? समयसारने तो आत्मानुं जेवुं स्वरूप छे तेवा ढाळामां ढाळ्युं छे, तेने वेदान्त साथे कोई ज मेळ नथी.
वेदान्तवाळा कहे छे के आत्मा शुद्ध छे, एक छे, सर्वव्यापक छे. हा, पण एवो निर्णय कोणे कर्यो? ते निर्णय पर्याय करे छे.
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बीजी वातः आत्मा सर्वथा शुद्ध ज छे, अंदर कयांयभूल नथी तो उपदेश शा माटे आप्यो? माटे भूल छे, ने भूल छे ते पर्याय छे, भूलनो नाश थाय ते य पर्याय छे. द्रव्यनो तो नाश थतो नथी. माटे पर्याय सिद्ध थाय छे. द्रव्य-गुणनो स्वीकार पण पर्यायमां ज थाय छे. द्रव्य-गुण तो त्रिकाळी छे, ने भूल छे ते पर्यायमां छे. भूलनो नाश थयो ते य पर्याय छे. व्यय थईने उत्पाद थाय ते य पर्यायरूप छे. अहीं छ बोलमां पर्यायना उत्पाद-व्यय ए द्रव्यना स्वभावरूप छे एम तेनुं सुंदर ताद्रश वर्णन कर्युं छे.
रागनी उत्पत्ति ज न थाय, वीतरागता थाय ते अहिंसा छे, ते धर्म छे, ते चारित्र छे. परनी दयाना राग ए कांई चारित्र नथी, वास्तवमां ए हिंसा छे. आकरी वात प्रभु! पण आ सत्य वात छे. अरे भाई! साधकने- धर्मीने वर्तमान जे चारित्रभाव प्रगट छे ए तो सिद्ध दशामां य (पूर्ण भावे) कायम रहेशे. चारित्र तो वीतरागतास्वरूप छे भाई! अहाहा...! चोथा गुणस्थाने जे चारित्रदशा थई ते चारित्र... चारित्र.. चारित्रभावे वृद्धिगत थई कायम रहेशे. हवे ते अचारित्र वा रागपणे नहि थाय. अहाहा...! वर्तमान वीतरागता प्रगटी ते भाव (पूर्ण) वीतरागतारूप सिद्धमां पण रहेशे. आ तो बधी अंदरनी वातुं बापु! झीणी पडे तो य जाणवी ज पडशे. इन्द्रियोनुं दमन, बार प्रकारनां व्रत ते संयम ए जुदी वात छे. ए तो व्यवहारथी संयम कह्यो, तेनो तो क्रमे अभाव थई वीतरागता वृद्धिगत थई पूर्ण वीतरागता थशे एम कहे छे. अहा! भगवान आत्मानी पर्यायमां पोताना भावनुं भवन न होय तो पर्याय केम होय? एवी पर्यायनुं स्वरूप ज शुं? चोथागुणस्थाने पण ज्ञाननी, श्रद्धाननी, चारित्रनी, प्रभुतानी पर्याय विद्यमान छे, ने ते ते भावे ते कायम रहेशे. अहो! दिगंबर संतो सिवाय आवी वात कयांय नथी. बीजाने दुःख लागे पण शुं करीए? सत्य आ ज छे.
नग्नपणुं ते दिगंबर संतपणुं-मुनिपणुं-एम नहि; केम? केमके एमां अतिव्याप्तिनो दोष आवे छे. अहाहा...! सम्यग्दर्शन-ज्ञान अने अंदर वीतरागी चारित्रनी दशा थाय ते साधकदशा छे. पहेलां स्वरूपस्थिरताना भाव हता ते वृद्धिगत थई छठ्ठा गुणस्थाने विशेष चारित्रदशा थई ते मुनिदशा छे. त्यां जे जात प्रगटी ते सिद्धमां य कायम रहेशे. जेम चांदीनी पर्याय चांदीरूप रहे, लोखंडरूप न थाय तेम चारित्रभाव प्रगट थयो ते चारित्र... चारित्ररूप ज रहेशे, अचारित्ररूप नहि थाय. चांदीना परमाणु तो कदाच पलटीने लोखंडपणे थई जाय, पण आमां न थाय; चारित्र पलटीने अचारित्र न थाय. आवी वात! चोथा गुणस्थाने अल्प स्वसंवेदन छे, ते पलटीने उग्र स्वसंवेदन थशे, पूर्ण स्वसंवेदन थशे, पण स्वसंवेदन मटीने अन्यरूप थई जाय एम नहि बने, केम? केम के वस्तु ज एवी भावभाव- स्वभावी छे के भावना भवनरूप भाव, भाव रहे. वस्तु ज एवी छे. अहाहा...! द्रव्यमां जेटला गुण छे एटली एक समयमां पर्याय छे. जे पर्यायनो जे भाव छे ते भाव भविष्यमां पण कायम ज रहेशे, अन्यरूप थाय, वा बीजामां भळी जाय एम त्रणकाळमां बनतुं नथी. समजाणुं कांई...?
अहा! पर्याय द्रव्यना आश्रये परिणमी तो पर्याय द्रव्यमां तन्मय थई. तन्मय थई एटले शुं? पर्याय, द्रव्यरूप थई जाय, के द्रव्य पर्यायरूप थई जाय एम नहि, पण परसन्मुखता हती ते स्वसन्मुखता थई, परमां एकत्व मान्युं हतुं ते स्वमां एकत्व मानी प्रगट थई-आने तन्मय थई एम कहेवाय छे. पर्याय तो पर्यायरूप रहीने द्रव्यनुं ज्ञान-श्रद्धान करे छे. अहीं कहे छे-ए ज्ञान-श्रद्धानरूप जे भाव प्रगटया ते हवे कायम रहेशे, पलटीने अज्ञान-अश्रद्धानरूप नहि थाय-आवुं द्रव्यनुं भावभावरूप सामर्थ्य छे. जे गुणनो जे भाव छे तेना भवनरूप पर्याय प्रगट थई तो ते भाव हवे एवो ने एवो कायम रहेशे. आ भावभाव छे.
हवे आमां ओला व्यवहारवाळाओने वांधा पडे छे-एम के व्यवहारथी थाय, व्यवहार साधन छे. अरे बापु! तने आत्मामां शुं सामर्थ्य भर्युं छे तेनी खबर नथी. आ वीतरागतास्वरूप वीतरागनो मार्ग छे तेने रागनो मारग ठरावी दे ए केम चाले? रागथी-व्यवहारथी लाभ थशे ए वात वीतरागमार्गमां छे नहि. पहेलां श्रद्धामां आ पाको निर्णय थवो जोईए के मारग वीतरागतामय ज छे, अने एनाथी ज कल्याण छे. वीतरागभाव वधतां वधतां पूर्ण वीतराग थाय छे, वीतरागभाव प्रगट थयो ते कायम रहे छे. तेम अल्पज्ञान-मतिश्रुतज्ञान थयुं ते ज्ञान... ज्ञान... ज्ञानभावे कायम रहीने पूर्णज्ञान-केवळज्ञान थशे-आवुं भगवान आत्मानुं सामर्थ्य छे, बीजाना कारणे कांई ज नथी. आनुं नाम भावभावशक्ति छे. अहा! त्रिकाळ भाव छे तेवो वर्तमान वर्तमान वर्त्या करशे. एम त्रिकाळ ने वर्तमाननी सदाय एक जाति रहेशे-एवुं भावभावशक्तिनुं स्वरूप छे.
अहीं आ प्रमाणे भावभावशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
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‘नहि भवता (नहि वर्तता) पर्यायना अभवनरूप (नहि वर्तवारूप) अभावाभावशक्ति.’ समयसारनो आ शक्ति-अधिकार छे. आत्मामां संख्याए अनंत शक्तिओ छे. तेनुं कथन क्रमथी थाय छे, पण ते बधी भगवान आत्मामां एकसाथे त्रिकाळ व्यापेली छे. अहाहा...! चैतन्यस्वरूपी आत्मामां अनंत शक्तिओ छे ते तेनो स्वभाव छे. ‘शुद्ध एक चैतन्यमात्र ज्ञायकस्वरूपी हुं छुं’ -एम जेने अंतरमां द्रष्टि थाय तेने ते द्रष्टिमां अनंत शक्तिओनी प्रतीति समाई जाय छे. समजाय छे कांई...? अहीं छ बोलमां-
• प्रथम कह्युं के-आत्मामां वर्तमान निर्मळ विद्यमान अवस्था होय छे ते -रूप भावशक्ति छे.
• पछी कह्युं के-आत्मामां वर्तमान विद्यमान अवस्था छे तेमां पूर्वोत्तर अवस्थाओ अविद्यमान छे, तथा
• वळी त्रीजी भाव अभावशक्ति छे तेना कारणे वर्तमान जे निर्मळ अवस्था विद्यमान छे तेनो व्यय थईने
• चोथी अभावभावशक्तिने लीधे वर्तमान विद्यमान अवस्था छे तेमां पछीनी विशेष निर्मळ अवस्थानो
• पांचमा बोलमां भावभावशक्ति कही. भावभावशक्तिना कारणे प्रत्येक गुणनी वर्तमान पर्याय जे निर्मळ
हवे अहीं अभाव-अभावशक्तिनी वात छे. अहा! धर्मीने वर्तमान विकारना अभावरूप जे परिणमन थयुं छे ते विकारना अभावरूप ज रहेशे एम कहे छे. कह्युं ने के-‘नहि भवता पर्यायना अभवनरूप अभावाभाव शक्ति छे.’ व्यवहाररत्नत्रय राग-विकार छे, तेना अभावस्वभावरूप धर्मीनुं वर्तमान परिणमन छे ते तेना अभावस्वभावरूप ज रहेशे एम कहेवुं छे.
पहेलां अभावशक्तिमां एटली ज वात हती के धर्मीने वर्तमान व्यवहारना-रागना अभावरूप परिणमन छे; अहीं अभाव-अभावशक्तिमां एम कहे छे के वर्तमान व्यवहारना-रागना अभावरूप परिणमन छे ते हवे पछी पण अभावरूप रहेशे. वर्तमान छे एवुं भविष्यमां रहेशे.
धर्मीने वर्तमान पर्यायमां उदयभावना अभावरूप परिणमन छे. उदयभावनो तेनी वर्तमान पर्यायमां अभाव छे. अभावशक्तिना कारणे उदयभाव तेनी पर्यायमां छे ज नहि. द्रव्य-गुणमां उदयभाव नथी, ने धर्मीनी पर्यायमां पण तेनो अभाव छे. अहीं कहे छे-ते उदयभावना अभावरूप जे तेनुं परिणमन छे ते हवे पछी पण उदयभावना अभावरूप रहेशे. आ अभाव-अभावशक्ति छे. अहा! मुनिराज-भावलिंगी संतने चारित्रना परिणमनमां वर्तमान निर्मळ रत्नत्रयनी परिणति प्रगटी छे; तेमां अचारित्रना परिणमननो अभाव छे. हवे भविष्यमां पण ते अचारित्रना परिणमननो अभाव रहेशे. धीरजथी समजवुं बापु! आ तो अंदरना त्रिलोकीनाथने जगाडवानी वातो छे. पर्यायबुद्धिने लईने पर्यायमां राग छे, पण ज्यां द्रव्यद्रष्टि प्रगट थई तो वर्तमान तेने रागना अभावरूप परिणमन थयुं; हवे ते रागना अभावरूप परिणमन कायम रहेशे-एवी आ आत्मानी अभाव-अभाव शक्ति छे. अहाहा...! धर्मीने सिद्धदशा पर्यंत ने सिद्धमां य रागना अभावरूप परिणमन कायम रहेशे.
सिद्धने केम विकार थतो नथी? तो कहे छे के-आत्मामां एवी अभाव-अभाव शक्ति छे जेना सामर्थ्यथी तेने विकारना अभावरूप परिणमन सदाय रहे छे. सिद्धमां शक्ति संपूर्णतः खीली गई छे, तेथी तेमने विकार ने विकारनुं परिणमन थतुं नथी. कर्म नथी माटे सिद्धने विकार थतो नथी एम कहेवुं ए तो निमित्तनुं कथन छे. खरेखर तो विकाररूप थवानो आत्मानो स्वभाव ज नथी, अने आ स्वभाव सिद्धने पूर्ण प्रसिद्ध थई गयो छे, तेथी तेमने विकार थतो नथी. अहाहा...!
अहाहा...! सिद्धनी जेम वस्तु चैतन्य चिदानंद प्रभु परथी ने रागथी उदास उदास छे. वस्तु परथी अभावस्वभावे छे. पर शब्दे शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय, कर्म, नोकर्म, भावकर्म इत्यादि-परना अभावस्वभावे भगवान आत्मा छे.
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धर्मीने ए सर्व परना अभावरूप परिणमन विद्यमान छे ते सदाय अभावरूप रहेशे एवी आत्मानी अभावअभाव शक्ति छे. अहो! आवो चैतन्यनो भरपूर खजानो अंदर पडयो छे, पण एनो एने विश्वास नथी.
शुभराग करे छे एनो विश्वास छे; राग पोताना स्वभावमां छे नहि, छतां रागथी मारुं कल्याण थशे एवो अज्ञानीने विश्वास छे; अहा! पण ए तो आत्मवंचना-धोखाधडी छे भाई! एमां द्रष्टिनी महाविपरीतता छे ते भारे नुकसान करशे.
अहा! ज्यां स्वभावना आश्रये द्रष्टि फरी त्यां सम्यग्दर्शन थयुं, धर्मीने तेमां मिथ्या श्रद्धानरूप परिणमननो अभाव छे; अने हवे एवुं ज मिथ्याश्रद्धानना अभावरूप परिणमन रहेशे. धर्मी जीवने द्रव्यद्रष्टि थईने जे रागना अभावरूप प्रवर्तन थयुं ते हवे कायम रहेशे. हवे व्यवहार-रत्नत्रयथी निश्चयरत्नत्रय थाय ए वातने कयां अवकाश छे? परमात्मा केवळी प्रभु तेनी अहीं चोख्खी ना पाडे छे; केम के समकिती द्रष्टिवंतने रागनुं अप्रवर्तन छे. अरे, एणे पोतानुं घर कदी जोयुं नथी. भजनमां आवे छे ने के-
पर घर फिरत बहुत दिन बीते नाम अनेक धराये...
अररर! एणे अनेक नाम धारण कीधां! अहीं कहे छे-ए वस्तुनुं स्वरूप नथी. हुं रागी छुं, क्रोधी छुं, मानी छुं, व्यवहारनो करनारो छुं-आम अज्ञानी माने पण ए वस्तुनुं स्वरूप नथी. निजघरमां आवे तो तेमां रागनो अभाव ज्ञानीने देखाय छे. विकारना अभावरूप थवुं एवो आत्मानो स्वभाव छे, ने ते द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. द्रव्यद्रष्टि थतां अभाव-अभाव एवो जे स्वभाव ते पर्यायमां व्यापक थाय छे, तेथी तेने विकारना अभावरूप परिणमन कायम रहे छे.
तो शुं ज्ञानीने व्रतादिनो विकल्प-राग छे ज नहि? छे ने; ज्ञानीने दया, दान, व्रतादिनो विकल्प होय छे, छतां तेनी पर्यायमां तेना अभावरूप परिणमन छे. ज्ञानी राग छे तेनो मात्र जाणनार छे. राग छे तेने जाणवानी जे ज्ञाननी दशा तेमां ज्ञानी वर्ते छे, रागमां वर्ततो नथी. आवुं रागना अभावस्वभावे धर्मीनुं परिणमन होय छे. अहो! आचार्यदेवे एकलुं अमृत पीरस्युं छे.
समयसारनी गाथा ९६मां आचार्यदेव कहे छे के-अमृतनो सागर प्रभु आत्मा मृतक कलेवरमां मूर्च्छाई गयो छे. आ शरीर छे ते मडदुं छे भाई! ए जड परमाणुनी दशा छे. तेमां चैतन्यगुणनो अभाव छे माटे ते मृतक कलेवर छे. अरे, मूढ जीव ए मडदा साथे पोतानी सगाई माने छे. मूढ अज्ञानी जीवे अनादिथी जड देह अने राग साथे सगाई करी छे, रागमां ते एकाकार थयो छे. पण भाई, तुं ए नथी. ने ए तारी चीज नथी. जे भावथी तीर्थंकर नामकर्मनी प्रकृति बंधाय ते तारी चीज नथी, तेना अभावस्वभावरूप भगवान! तुं छो, अने तेवी द्रष्टि थये तेना अभावस्वभावे परिणमन थाय छे, ने ते कायम एवुं रहेशे.
परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो.
अज्ञानी आ सांभळी राजी राजी थई जाय छे. तेने मोंमां पाणी वळे छे के-अहो! सोलह कारण भावना! पण भाई, अहीं कहे छे-ते भावनाना अभावस्वभावरूप धर्मीनुं परिणमन छे.
अहा! वीर्यशक्तिमां पण आ अभाव-अभावशक्तिनुं रूप छे. तेथी वीर्य रागना अभावरूप जे निर्मळतानी रचना करे छे ते रागना अभावरूप रचना ज कर्या करशे, तेमां मलिनतानो हंमेश अभाव ज रहेशे; अहा! आत्माना वीर्यथी-बळथी मलिन पर्यायनी रचना थशे ज नहि. अहा! जे पुरुषार्थथी निर्मळ रचना थई ते निर्मळ रचना तेवी ने तेवी रह्या ज करशे. आवी वात!
एक द्रव्यनो बीजा द्रव्यमां त्रिकाळ अभाव छे. बे द्रव्य वच्चे अत्यंत अभाव छे. आ रीते जीवमां पोताथी भिन्न एवा द्रव्य-गुण-पर्यायनो त्रणेकाळ अभाव छे. हवे आम छे त्यां जीव बीजानुं शुं करे? ने बीजो जीवनुं शुं करे? कांई ज न करे. तेवी रीते रागनो पण स्वभावमां अत्यंत अभाव छे. आकरी वात बापु! आ अध्यात्मनो अभाव कह्यो. प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव, ने अत्यंताभाव-आ चार अभावमां अध्यात्मनो अभाव आवतो नथी.
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पर्यायमां निर्मळ षट्कारकथी परिणमन थाय छे तेमां मलिन परिणामना षट्कारकोनो अभाव छे. पर्यायबुद्धि जीवने पर्यायमां जे विकृत परिणाम थाय छे ते कांई द्रव्य-गुणमांथी आवता नथी, विकाररूपे परिणमे एवी द्रव्यमां कोई शक्ति नथी. पर्यायबुद्धिमां विकारनो कर्ता विकारी पर्याय छे. राग कर्ता, राग कर्म, राग करण, राग संप्रदान, राग अपादान ने राग तेनुं अधिकरण-एम विकारना षट्कारक विकारी पर्यायमां छे; ज्यां द्रव्यद्रष्टि थई त्यां विकारना षट्कारकरूप परिणमननो तेमां अभाव छे. ज्यां सुधी मिथ्या द्रष्टिनी द्रष्टि पर्याय उपर छे त्यां सुधी पर्यायमां विकार छे.
पर्यायमां जे विकृत अवस्था छे ते कोई शक्तिनुं कार्य नथी. पर्यायमां तेने उठावगीरे (अज्ञानी मूढ जीवे) अद्धरथी उठावी छे; वस्तुमां ते नथी. विकार छे ए तो ज्ञान कराव्युं छे, बाकी तारी चीज एवी छे के विकाररूपे न थाय-परिणमे-धर्मीने विकारना अभावरूप निर्मळ परिणमन थयुं ते एवुं ने एवुं विकारना अभावरूप निर्मळ ज रहेशे-एवो भगवान आत्मानो स्वभाव छे.
भाई! तारी शक्तिमां एक अभाव-अभाव गुण छे; जेथी श्रद्धान-ज्ञाननी वर्तमान दशामां विपरीततानो अभाव छे, तो भविष्यमां पण विपरीततानो अभाव कायम रहेशे. ज्ञाननी पर्याय जे निर्मळभावरूप छे ते एवा ने एवा निर्मळभावरूप सदाय रहेशे, तेमां विकारनो अभाव छे तो कायम विकारनो अभाव रहेशे. जेने द्रव्यद्रष्टि अंदर खीली गई तेने पछी पडवानी-खसवानी वात ज नथी. जो द्रव्यनो नाश थाय तो द्रव्यद्रष्टिनो पडे; पण द्रव्य, वस्तु जे एक ज्ञायकस्वभाव छे ते तो अनंतशक्तिनो पिंड प्रभु त्रिकाळ विद्यमान छे. आवा द्रव्यनी प्रतीति थई, ने ज्ञाननी पर्यायमां तेनुं ज्ञान थयुं पछी ए ज्ञान पडी-छूटी जाय एवी द्रव्यमां तो कोई शक्ति नथी अर्थात् द्रव्य- गुणमां एवुं कोई कारण नथी.
जुओ, अनादिथी जीवने २१ गुणमां विपरीत परिणमन थाय छे एम तारवणी काढेली. परंतु स्वभावद्रष्टिवंतने-धर्मी पुरुषने विपरीत परिणमननो तेनी पर्यायमां अभाव छे, ने निर्मळ परिणतिनो सद्भाव छे. आ अस्तिनास्ति थई. आ अनेकान्त छे. भावभावशक्तिना कारणे तेने निर्मळ परिणतिनो भाव-भाव रहेशे, ने अभाव-अभावशक्तिना कारणे तेनी पर्यायमां विपरीततानो-मलिनतानो अभाव रहेशे. भाई, तारी चैतन्यसंपदा तो जो! अंदर जुए तो न्याल थई जाय एवी ए चीज छे बापा! ए बहारमां कयांय मळे एम नथी. पवित्रतानो पिंड प्रभु अंदर छे ते अंतरद्रष्टि करतां प्राप्त थाय छे, बीजी कोई रीते प्राप्त थतो नथी. आवी वात छे.
त्यारे कोई वळी कहे छे-कर्मथी विकार थाय छे; पण एम छे नहि. जो एम होय तो संसारीने कर्म तो छे, पछी ते निर्विकार केम थशे? विकाररूपे परिणाम थाय ते पोताना (पर्यायना) षट्कारकथी थाय छे छतां पोतानो स्वभाव तो तेनाथी रहित छे. आ वात ३९मी शक्तिमां आवशे.
भाई! आ तो वीतरागी कथा बापु! धर्मी पुरुषने उपदेशनो विकल्प आवे छे, तो पण ते विकल्पना अभावस्वभावरूप धर्मीनुं परिणमन छे. अरे प्रभु! एक वार अंदर तारा द्रव्य उपर द्रष्टि दे. द्रव्यनो स्वीकार थतां रागरूपे परिणमवुं ए छे नहि; केम के अभाव-अभावशक्ति द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. अहा! हजार वर्ष पहेलांना आ दिगंबर संतनी वाणी तो जुओ! अहाहा...! केवळज्ञाननां कबाट खोली नांख्यां छे. अरे प्रभु! रागमां तुं रमे ए तारी रमतुं नहि; रागथी विरमे, रागरूपे न परिणमे ए तारी रमतुं छे. हवे आवी वात कयां मळे प्रभु! रळवा माटे देश-विदेश रखडे, पण आ कयां मळे? अंतरनी चीज तो अंतरमां छे ने अंतरमां जाय तो ते मळे छे. अहा! आ अलौकिक वर्णन छे; जगतनां भाग्य होय तेटलुं बहार आवे छे.
पण आ विशेष कहोने! कोण कहे? ए तो भाषानुं सामर्थ्य छे. भाषामां स्व-परने कहेवानी ताकात छे, ने आत्मामां स्वपरने जाणवानी ताकात छे. बन्ने पोतपोताना उपादानथी स्वतंत्र परिणमे छे, कोई कोईने करे एवुं वस्तुस्वरूप ज नथी. समजाय छे कांई...?
अहीं कहे छे-निश्चयथी संसार जे उदयभाव छे तेनो धर्मीनी पर्यायमां अभाव छे. आवां द्रव्य-गुण- पर्यायनी प्रतीति थाय तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. आ ज्ञानप्रधान शैलीथी कथन छे. ज्ञेय अने. ज्ञायकनी यथार्थ प्रतीति तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे;-आ ज्ञानप्रधान व्याख्या थई. एक भूतार्थनी श्रद्धा ते सम्यग्दर्शन छे-आ दर्शनप्रधान व्याख्या छे.
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द्रव्यद्रष्टिवंत धर्मी पुरुष विकारने परज्ञेय तरीके जाणे छे. ज्ञान करनारी ते ज्ञाननी पर्याय वर्तमान विद्यमान छे तेमां विकारनो अभाव छे. आम दरेक गुणमां समजवुं. भगवान! तुं ज्ञानानंद स्वभावी छो. तारामां रागने आकुळताना अभावरूप स्वभाव छे. त्रिकाळ परना अभावस्वभावरूप प्रभु तुं छो. हवे आम छे त्यां परद्रव्यनी पर्यायने जीव करे ए वात ज कयां रहे छे? ने परद्रव्य जीवनी पर्यायने करे ए वात पण कयां रहे छे? अंतराय कर्मना अभावथी वीर्यशक्तिनुं परिणमन थयुं एम वात कयां रहे छे? एम छे ज नहि.
अहाहा...! भगवान आत्मा विकल्परहित (शुद्ध) दिगंबर छे. मिथ्यात्वना अभावरूप परिणमन करे त्यारे जीव द्रष्टिमां दिगंबर थयो कहेवाय. समकिती अने भावलिंगी मुनि दिगंबर छे. अहाहा...! अंदरमां त्रण कषायनो अभाव अने बहारमां वस्त्रनो अभाव तेनुं नाम दिगंबर मुनिदशा छे. जो के परद्रव्यनो स्वभावमां अभाव छे, ने परद्रव्य नुकसान करतुं नथी; पण तेनी ममता छे ते नुकसाननुं कारण छे. वस्त्र प्रत्येनो राग-ममता छे ते नुकसाननुं कारण छे. देहनी रक्षानो राग छे, ममता छे ते नुकशाननुं कारण छे. तेथी ज कपडां राखवानो राग होय त्यां सुधी मुनिदशा होती नथी. मार्ग आ छे भाई. आमां शुं करवुं-शुं न करवुं-ते तो पोताने निर्णय करवानी वात छे. अमारी पासे तो तत्त्वद्रष्टिनी आ वात छे. जेने जेम ठीक पडे तेम करे, पण वस्त्र सहित मुनिपणुं माने-मनावे तेनी नवतत्त्वनी भूल छे, अर्थात् तेनी मिथ्यात्वदशा छे. आवी वात छे.
शुद्ध चैतन्यना आश्रये मुनिदशामां त्रण कषायनो अभाव थाय छे. तेम थतां तेने अस्थिरतानो राग तेनी भूमिकाने योग्य ज होय छे. मुनिदशामां वस्त्र राखवानो राग होई शके नहि; तेथी वस्त्र सहितने आस्रव तत्त्वनी भूल छे. तेने शुद्ध जीवद्रव्यनो आश्रय नथी ते जीव तत्त्वनी भूल छे, ने ए प्रमाणे साते तत्त्वनी भूल छे. श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे (सूत्रपाहुडमां) बहु स्पष्ट कह्युं छे के-वस्त्रनो टुकडो राखी मुनिपणुं माने-मनावे तो निगोदमां जशे. आम केम कह्युं? कारण के एम माननारनी मिथ्यात्व दशा छे, ने मिथ्यात्वनुं फळ क्रमे निगोद ज छे. अहा! छठ्ठा गुणस्थानमां संत-मुनिवरने व्यवहारना अभावरूप निर्मळ परिणमन छे ने ते एवुं ने एवुं निर्मळपणे कायम रहेशे.
अहा! आ अभाव-अभावशक्ति त्रिकाळ छे ते ध्रुव उपादान छे, ने तेनुं वर्तमान वर्तमान परिणमन छे ते क्षणिक उपादान छे. तेमां शक्ति छे ते त्रिकाळ पारिणामिक भावे छे, ने रागरहित तेनां जे निर्मळ परिणाम छे ते उपशम, क्षयोपशम के क्षायिक भावे छे. उदयभाव तेमां आवतो नथी, केमके उदयभावना अभावस्वभावे ज शक्तिनुं परिणमन होय छे.
केटलाक कहे छे के-शत्रुंजयनी जात्रा करीए तो कल्याण थई जाय; आ बधुं समजीने शुं काम छे? अरे भाई! एम नथी बापु! जात्रा करवाना भाव तो राग छे, ने रागना अभावस्वभावे जीवनुं परिणमन थाय ते कल्याणरूप छे; रागने रागनुं परिणमन कल्याणरूप नथी, वास्तवमां अकल्याण छे. आवी आकरी वात! पण आ सत्य वात छे.
उपशमनो तो थोडो काळ छे, बाकी क्षायोपशमिक अने क्षायिकभाव होय छे. क्षयोपशम ने क्षायिक ते परिणति छे. ते अंतरमां जाय त्यारे पारिणामिक भावरूपे थई जाय छे, कारण के वर्तमान जे एक समयनी अवस्था छे तेनो बीजे ज समये व्यय थई अंदर जाय छे. “जल का तरंग जल में डूबता है”-एम पोतानी पर्याय व्यय थई अंदर जाय छे, ने अंदर गई ते पारिणामिकभावे थई जाय छे.
जे जन्मक्षण ते ज (पूर्व) पर्यायनो नाश क्षण छे. अभाव-अभावशक्तिनी जे निर्मळ पर्याय प्रगट थई ते तेनी जन्मक्षण छे. ते पर्याय पोताना स्वकाळे प्रगट थई छे; ते एनी काळलब्धि छे. ते परिणमन क्रमबद्ध-पोताना स्व-अवसरे थयुं छे.
हा, पण तेमां आपणे शुं करवुं? क्रमवर्ती पर्याय ने शक्तिना भेदनुं लक्ष छोडी, शुद्ध एक चैतन्यमात्र निज त्रिकाळी द्रव्यनुं लक्ष करवुं. एम करतां
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शक्तिनुं निर्मळ परिणमन सहज ज प्रगट थाय छे, अने ते तेनो स्वकाळ छे. भाई! क्रमवर्ती पर्याय-अने शक्तिनो भेद ए समकितनो विषय नथी. द्रष्टिनो विषय तो अभेद शुद्ध चैतन्यवस्तु छे. अभेदनी द्रष्टि थतां पर्यायमां शक्तिनुं निर्मळ परिणमन थाय छे, अने ते निर्मळ परिणति विकाररहित होय छे.
अहा! शक्तिनी जे निर्मळ परिणति प्रगट थई ते अकार्यकारणमय छे. एटले शुं? के ते परिणति रागनुं कार्य नथी, अने रागनुं कारण पण नथी. क्रमवर्ती ज्ञाननी पर्याय थाय ते रागनुं कार्य नथी; रागथी ज्ञान थयुं छे एम नथी. क्रमवर्ती ज्ञाननी पर्याय रागने जाणे ए य व्यवहार छे, खरेखर तो पोते पोताने जाणे छे. राग संबंधी ज्ञाननी पर्याय पोताने जाणे छे तो रागने जाणे छे एम व्यवहारथी कहेवाय छे.
अरे भाई! हुं रागनो जाणनार छुं एवा भेदथी शुं साध्य छे? कांई ज नहि. अरे, हुं जाणनारो जाणनार छुं एवा भेद-विकल्पथी य शुं साध्य छे? कांई ज नहि. माटे शक्तिनो पिंड शुद्ध एक अभेद चैतन्यद्रव्य त्रिकाळ छे तेनी द्रष्टि कर, तेम करतां सर्व कार्य सिद्ध थई जाय छे. भेद-द्रष्टि ए मिथ्याद्रष्टि छे, ने अभेदनी द्रष्टि करवी ए ज धर्म छे. ल्यो,
आ प्रमाणे अहीं अभाव-अभावशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
‘(कर्ता, कर्म आदि) कारको अनुसार जे क्रिया तेनाथी रहित भवनमात्रमयी (-होवामात्रमयी, थवामात्रमयी) भावशक्ति.’
जुओ, पहेलां ३३मी भावशक्ति कही त्यां तो वर्तमान निर्मळ अवस्थानी विद्यमानता होवारूप शक्तिनी वात हती, अहीं वात जुदी छे. अहीं कहे छे-‘कारको अनुसार जे क्रिया तेनाथी रहित भवनमात्रमयी भावशक्ति.’ अहाहा...! द्रव्यवस्तु जे एक ज्ञायकभाव तेना तरफ जेनी द्रष्टि छे ते धर्मी-सम्यग्द्रष्टि जीवने विकारी कारको अनुसार जे क्रिया तेनाथी रहित परिणमन होय छे. अहाहा...! कारकभेदनी क्रिया वगर ज भववुं अर्थात् ज्ञानभावमय परिणमवुं एवी आत्मानी आ भावशक्ति छे. अहाहा...! धर्मीने ‘आ कर्ता ने आ कर्म’ एवा कारकभेदनी क्रियाथी रहित निर्मळ ज्ञानभावमय भावनुं भवन थया करे छे-आ भावशक्तिनुं कार्य छे.
धर्मी जीवने पर्यायना षट्कारकथी शुभाशुभभाव थता होय छे. आ रीते तेने एक समयनी पर्यायमां रागादि विकल्पनुं परिणमन होय छे. रागनी पर्याय कर्ता, जे पर्याय रागनी थई ते कर्म, ते पर्याय पोते करण नाम साधन, ते विकार पर्याय पोतामां राखी ते संप्रदान, पर्याय पोतामांथी थई ते अपादान, अने पर्यायना आधारे पर्याय थई ते अधिकरण-आम एक समयनी विकृत अवस्थामां षट्कारकरूप परिणमन छे. अहीं कहे छे-षट्कारक अनुसार जे क्रिया-शुभाशुभ विकल्प छे, व्रतादि विकल्प छे, तेनाथी रहितपणे धर्मी, द्रव्यद्रष्टिवंत ज्ञानीनुं परिणमन होय छे.
धर्मी जीवने पर्यायमां षट्कारक अनुसार विकृत अवस्था छे एमां एम सिद्ध कर्युं के पर्यायमां विकृति छे ते एना (पर्यायना) षट्कारकथी छे, जडकर्मथी नथी, तेमज पोताना द्रव्य-गुणथीय नथी. जे शक्ति छे तेनाथी विकृति नथी, केमके षट्कारकरूपे विकृत अवस्था स्वयंसिद्ध छे, अने तेनाथी रहित भवन-परिणमन थाय ते भावशक्तिनुं कार्य छे.
प्रभु, तारी चीज-शुद्ध चैतन्यवस्तु अंदर पूर्ण अखंड छे ने! अहाहा...! ते अखंड ध्रुव उपर द्रष्टि देतां, पर्यायमां, षट्कारकथी जे विकृत अवस्था छे तेनाथी रहितपणे परिणमन थाय छे. अहा! आवो तारी चैतन्यवस्तुनो स्वभाव छे. दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादिनो जे ज्ञानीने विकल्प होय छे ते पर्यायना कर्ता-कर्म आदि षट्कारकथी थाय छे. अहीं कहे छे-ज्ञानीने एनाथी रहितपणे ज्ञानभावमय परिणमन होय छे-आ भावशक्तिनुं कार्य छे. पोताने जे विकृत दशा छे तेनाथी रहित पोतानी चैतन्यदशा छे एम ज्ञानी जाणे छे.
आमां एम सिद्ध थयुं के पर्यायद्रष्टि-मिथ्याद्रष्टिने पर्यायना षट्कारकथी विकृत दशा होय छे, अने द्रव्यद्रष्टिवंत
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धर्मी पुरुषने पण पर्यायमां षट्कारकथी विकृत दशा होय छे. अहा! परंतु जेने पर्यायद्रष्टि मटी शुद्ध द्रव्यनी द्रष्टि थई छे, एक ज्ञायकभावनी जेने द्रष्टि थई छे तेने विकृत अवस्थाथी रहितपणे परिणमन करवापणे भावशक्ति प्रगट थई छे. आ भाव गुणना कारणे विकारभावथी अभावरूप परिणमन थाय छे. जे विकारनी दशा रहे छे ते परज्ञेयमां जाय छे. आवी आ झीणी वात छे.
प्रभु! तारी प्रभुतामां भाव नामनी एक प्रभुता पडी छे. अहाहा...! प्रभुतामां पामरतारूप षट्कारक- परिणमनथी रहितपणे परिणमवानो एनो स्वभाव छे. जेने पर्यायद्रष्टि छे तेने तो षट्कारकना परिणमनथी पामर विकृत दशा छे, पण शुद्ध द्रव्यनी जेने द्रष्टि थई छे एवा सम्यग्द्रष्टिने, तेनी पर्यायमां जो के किंचित् विकृत दशा छे तोपण, ते समये जे निर्विकल्प अवस्था द्रव्य प्रति झूकी छे ते आ प्रभुतामय भावशक्तिनुं कार्य छे. अहा! धर्म केम थाय एनी आ वात चाले छे.
अहा! चैतन्यरत्नाकर प्रभु आत्मा छे. तेना सन्मुखनी जेने द्रष्टि थई छे तेने पर्यायमां विकृति किंचित् होवा छतां तेनाथी रहितपणे परिणमवुं एवो तेनो स्वभाव छे. आ तो एम वात छे के-पर्यायमां व्यवहार रत्नत्रयनो भाव हो, देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो विकल्प हो, नवतत्त्वनी भेदरूप श्रद्धा हो, पंचमहाव्रतादिना पालननो विकल्प हो; ते बधी विकृत अवस्था छे, ने ते पर्यायना षट्कारकना परिणमनरूप छे, तथापि आत्मामां तेनाथी रहितपणे परिणमवानो भावगुण छे, जेथी धर्मी पुरुषने विकारना रहितपणे निर्मळ ज्ञानभावमय परिणमन होय छे. अहा! दया, दान, व्रत आदिना विकल्प ते कारको अनुसारनी विकृत क्रिया छे, ने तेनाथी रहितपणे भवनरूप-परिणमनरूप भावशक्ति जीवमां छे. अहो! संतोए थोडा शब्दे रामबाण मार्यां छे.
केटलाक एम माने छे के शत्रुंज्य आदि तीर्थनी यात्रा करीए एटले बस धर्म थई जाय, पण एम छे नहि. केमके तीर्थ-यात्राना परिणाम तो राग-विकल्प छे, ने रागनी क्रियाने अनुसार न थवानो भगवान आत्मानो स्वभाव छे. वास्तवमां आत्मा पोते ज शत्रुंज्य तीर्थ छे. आ विपरीत जे राग छे ते आत्मानो घातक शत्रु छे, ने तेनाथी रहितपणे थवानो जेनो स्वभाव छे ते आत्मा पोते शत्रुंज्य तीर्थ छे. अहा! आवा तीर्थस्वरूप निज आत्मानी यात्रा करवी ते धर्म छे. बाकी व्यवहारनी क्रिया बहारमां हो, पण तेनाथी रहित ज्ञानीनुं परिणमन होय छे; ने व्यवहारनी क्रिया तो बहार परज्ञेयपणे रही जाय छे. रागथी-विकारथी रहित भवन-परिणमन ते आत्मानो गुण-स्वभाव छे.
जैन दर्शनमां तो बधे कर्म ज कर्म छे एम केटलाक माने छे. तेओ कहे छे-शुद्धतामां तो अन्य कारकोथी रहितपणुं भले हो, परंतु अशुद्धतामां तो जड कर्म वगेरे कारको छे; एम के कर्मथी विकृति-विकार थाय छे.
पण एम नथी भाई! अशुद्धता वखते पण जीव अने पुद्गल बन्ने एकबीजाथी निरपेक्षपणे स्वयमेव छ कारकरूप थईने परिणमे छे. विकार थाय छे ते पर्यायमां छ कारकना परिणमनथी थाय छे. आ बाबत विद्वानोथी अनेक वार चर्चा थयेली छे. अमे तो पंचास्तिकाय गाथा ६२ना आधार साथे वारंवार कहेलुं छे के-पर्यायमां विकृत अवस्था पोताना छ कारकना परिणमनथी स्वतंत्र थाय छे, तेमां पर कारकोनी अपेक्षा नथी. त्यां पंचास्तिकाय गाथा ६२मां अति स्पष्ट कह्युं छे के-“कर्म खलु.... , स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानं न कारकान्तरमपेक्षते।” कर्म खरेखर... , स्वयमेव षट्कारकरूपे वर्ततुं थकुं अन्य कारकनी अपेक्षा राखतुं नथी. वळी त्यां कह्युं छे-“एवं जीवोऽपि.... , स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानो न कारकान्तरमपेक्षते।” ए प्रमाणे जीव पण... , स्वयमेव षट्कारकरूपे वर्ततो थको अन्य कारकनी अपेक्षा राखतो नथी. आ प्रमाणे अन्य कारकोनी अपेक्षा विना ज जीव पोताना औदयिक आदि भावरूपे परिणमे छे ए निश्चय छे. लोको आ ‘निश्चय छे, निश्चय छे’-एम कहीने आने उडाडे छे, पण निश्चय एटले ज सत्य, ने व्यवहार ए तो उपचार छे. समजाय छे कांई...?
अहा! जेने भेदनो आश्रय छूटीने, परमार्थस्वरूप शुद्ध एक ज्ञायकनो आश्रय थयो एवा सम्यग्द्रष्टि जीवने पर्यायमां विकृत अवस्था होय छे, पण तेनी तेना उपर द्रष्टि नथी, तेनी द्रष्टि त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यस्वभाव पर होय छे, अने ते कारणथी धर्मी जीवने विकृत अवस्थाथी रहितपणे परिणमन थाय छे. आ भावशक्तिनुं कार्य छे. धर्मीने पर्यायमां किंचित् विकार होय छे ते ज्ञानना ज्ञेयमां जाय छे, पर ज्ञेयपणे बहार रही जाय छे. अहो! जैनधर्म आवो अलौकिक पंथ छे.
व्यवहारनय जाणेलो प्रयोजनवान छे एम बारमी गाथामां आव्युं ने! ए वात अहीं आमां पण आवी जाय छे. अगियारमी गाथामां कह्युं के-भूतार्थना आश्रये सम्यग्दर्शन थाय छे. अहाहा...! त्रिकाळी एक ज्ञायकभाव
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भूतार्थ-सत्यार्थ प्रभु छे तेना आश्रये सम्यग्दर्शन थाय छे ते निश्चय; पण तेने व्यवहार छे के नहि? छे ने! समयसारनी बारमी गाथामां कह्युं के-व्यवहार छे. राग होय छे तेने जाणवो-एवो व्यवहारनय छे. रागने जाणवो ते व्यवहारनय, पण राग मारो छे, वा भलो छे एम जाणवुं-मानवुं एवुं एनुं (व्यवहारनयनुं) स्वरूप नथी. अहो! आ समयसारे तो भगवान केवळीना विरह भूलावी दीधा छे. थोडा शब्दे केटलुं भर्युं छे! “कारको अनुसार क्रिया” एम कह्युं छे, पण “जड कर्म अनुसार क्रिया”-एम नथी कह्युं. भाई, तारी पर्यायमां षट्कारक अनुसार विकृत अवस्थारूप क्रिया थाय छे, परंतु विकृत अवस्था रहित भवन एवो तारो भाव गुण छे. समजाणुं कांई...?
अहा! थोडुं लख्युं घणुं करीने जाणजो-एवी आ वात छे. अरे, एणे पोताना स्वरूपने समजवानी कदी दरकार करी नथी. अहीं फरी फरीने कहे छे-भाई, विकृत अवस्थारूप जे क्रिया छे ते क्रियाथी रहितपणे थवुं एवुं तारुं स्वरूप छे, विकृत अवस्था सहित रहेवुं एवो कोई तारो गुण नथी. अहो! निरालंबी शुद्ध चैतन्यनी आ अपूर्व वात छे? कहे छे-रागादि कारकोने अनुसर्या वगर ज सम्यक्त्वादि शुद्धभावरूपे परिणमवानो भगवान आत्मानो स्वभाव छे. भाव नाम शुद्धभावरूपे भववुं-थवुं; अहा! शुद्धभावरूपे स्वयं भववानी-थवानी आत्मानी शक्ति छे, तेमां भिन्न बीजा कोई कारकोनी अपेक्षा नथी, भिन्न बीजा कोई कारकोनुं आलंबन नथी. भाई! एक वार आत्मानी आवी अचिन्त्य शक्तिने ओळखे तो बहारमां कयांय मोह न रहे, ने अंतर्मुख थई अल्पकाळमां मुक्ति थई जाय एवी आ अलौकिक वात छे.
समजाय एटलुं समजवुं बापु! पर्यायमां विकार छे ते पर्यायना षट्कारक अनुसार अद्धरथी खडो थयो छे; परना अनुसार विकार नथी, ने स्वद्रव्य-गुण पण विकारनुं कारण नथी. भगवान! तारी चैतन्यवस्तु अंदर एकला वीतरागताना स्वभावथी भरेली छे. ज्यां अंतर्मुख द्रष्टि थई के तरत ज विकारथी रहितपणे भववारूप स्वभावनुं भवन-परिणमन थाय छे. अंतर्मुख द्रष्टिनी आ कमाल छे के द्रव्यद्रष्टिवंत पुरुषने विकारना छ कारकरूप परिणमन छूटीने, मोक्ष प्रत्येना छ कारकोनुं परिणमन शरू थाय छे. माटे हे भाई! तुं अंतर्मुख द्रष्टि कर, तने परमपदनी- मोक्षपदनी प्राप्ति थशे.
हवे जैन नाम धरावीने लोको विवादमां पडया छे के-अमे दिगंबर, ने अमे श्वेतांबर; अरे भाई, अंदर तारी चैतन्य चीज केवी छे ते तो जाण. अहाहा...! वस्तु अंदर एक समयमां पूर्ण विज्ञानघनस्वरूप छे. आनंदनो रसकंद छे. तेने त्रिकाळी कहीए एय व्यवहार छे. अहाहा...! वर्तमानमां पूर्ण त्रिकाळी पोतानी चीज अंदर पडी छे ते त्रिकाळ अनंत शक्तिओथी भरपुर भरी पडी छे. तेमां, कहे छे, विकार रहित भवन-परिणमन थाय एवी एक भावशक्ति छे. अहाहा...! निज स्वरूपमां रमे ते राम नाम आत्मा विकृत अवस्थाथी रहितपणे निर्मळ-निर्मळ परिणमे एवी तेमां एक भावशक्ति छे. तेमां परनो प्रवेश तो दूर रहो, पर्यायमां जे विकृत अवस्था छे तेय पोताना द्रव्य-गुण ने निर्मळ पर्यायमां प्रवेशती नथी. अहो! आ अलौकिक वात छे. अरे! आ जिंदगी एम ने एम चाली जाय छे बापु!
अहाहा...! भगवान! तुं कोण छो? शुं तुं शरीर छो? ना, शरीर तो चामडे मढेलुं हाड-मांसनुं जड अचेतन पोटकुं छे, ने तुं तो चैतन्यघन प्रभु आत्मा छो. तो शुं तुं रागरूप छो? ना, राग पण तुं नथी, केमके राग पण जड अचेतन छे, मलिन-अपवित्र छे, घातक अने दुःखदायक छे; ज्यारे तुं तो पूर्ण सच्चिदानंदमय एकली पवित्रतानो पिंड छो. अहाहा...! पवित्र शक्तिओनो पिंड प्रभु तुं आत्मा छो.
तो पर्यायमां विकृति छे ने? पर्यायमां विकृति छे ते तेना षट्कारकथी ऊभी थई छे, विकृति थाय एवो कोई गुण तारामां नथी, तथा पर्यायमां विकृति थाय तेनो कर्ता कोई पर नथी. अहा! पर्याय पोताना षट्कारकथी विकृत थाय छे, परथी नहि-एम जाणी जे परथी परान्मुख थई परिणमे छे ते विकृतिथी रहितपणे निर्मळ परिणमे छे, ने विकृतिथी रहितपणे निर्मळ परिणमवुं एवो ज भगवान! तारो स्वभाव छे, एवो ज तारो भाव गुण छे. समजाय छे कांई...!
हवे जे व्यवहारथी-रागथी निश्चय थवानुं माने, व्यवहारने साचो मोक्षमार्ग माने एनी मान्यतामां बहु फेर छे. अरेरे! स्वरूपमां डूबकी मारवी जोईए एने बदले ते रागमां डूबकी मारे छे. शुं थाय? ते संसार समुद्रमां अरेरे! कयांय डूबी जशे. भाई रे! तारुं द्रव्य परम पवित्र छे, तारा गुण अत्यंत पवित्र छे, तो पछी तारा परिणमनमां पवित्रता
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आववी जोईए के अपवित्रता? अपवित्रतारूपे थवुं ए तारुं स्वरूप नथी. अपवित्रता पर्यायमां भले हो, पण तेनाथी रहितपणे पवित्रतानुं परिणमन थाय ए भगवान! तारुं स्वरूप छे.
अहा! परथी ने रागथी-विकारथी निरपेक्ष ज्ञान-आनंदरूपे भववानो-परिणमवानो पोतानो स्वभाव छे तेने अज्ञानी जाणतो नथी तेथी ते बहारमां कारणोने शोधे छे ने व्यर्थ आकुळ-व्याकुळ थई दुःखी थाय छे. अरे भाई! पर-निमित्त वस्तु कारण छे ए वात तो दूर रहो, विकारना कर्ता-कर्म आदि छ कारको जे पर्यायमां होय छे ते कारको अनुसार भववानो-परिणमवानो पण आत्मानो स्वभाव नथी. परथी विकार थाय के परथी गुण थाय एम जे माने छे ते तो परावलंबी बहिद्रष्टि मिथ्याद्रष्टि छे. अने रागादि विकारने जे पोतानुं स्वरूप माने छे, विकारथी पोताने गुण थवानुं, भलुं थवानुं माने छे तेय रागी मिथ्याद्रष्टि छे, केमके रागथी भिन्न हुं एक शुद्ध चैतन्यघन आत्मा छुं एम ते जाणतो-अनुभवतो नथी. वास्तवमां ज्ञाता पोते ज शुद्ध एक ज्ञायकस्वभावना आश्रये भेदरूप कारकोनी क्रियाथी रहितपणे शुद्धभावरूपे परिणमे एवो एनो स्वभाव छे. आ भावशक्ति छे.
अरे! जगत अनादि काळथी अनेक प्रकारना विकल्पोनी जाळमां पोतापणुं मानीने चार गतिमां रखडे छे. शुं थाय? पोताना द्रव्य-गुण परम पवित्र छे तेमां पोतापणुं स्वीकारतो नथी, ने आ शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय, बैरां- छोकरां इत्यादि जे पर छे तेने पोताना सुखनां कारण मानी तेमां पोतापणुं करी परिणमे छे. पण भाई, ए बधां परद्रव्य तो तेनाथी तेना कारणे परिणमी रह्यां छे, तारा कारणे नहि; तेनी पर्याय तो तेनाथी ज थाय छे. ते बधां पोताना कारणे आव्यां छे, पोताना कारणे रह्यां छे, ने पोताना कारणे चाल्यां जशे. एमां तने शुं छे? ए कोई तने शरण नथी. जो शरण होय तो विरुद्ध केम परिणमे? अने चाल्यां केम जाय? वास्तवमां तेओ तारां कांई ज (संबंधी) नथी. तेमने पोताना सुखनां कारण मानी ठगातो एवो तुं व्यर्थ ज दुःखी-व्यग्र थाय छे.
प्रवचनसार गाथा १६मां ‘स्वयंभू’नी व्याख्या करतां आचार्यदेव कहे छे-“(ए रीते) स्वयमेव छ कारकरूप थतो होवाथी, अथवा उत्पत्ति-अपेक्षाए द्रव्य-भावभेदे भिन्न घातिकर्मोने दूर करीने स्वयमेव आविर्भूत थयो होवाथी, ‘स्वयंभू’ कहेवाय छे.
आथी एम कह्युं के-निश्चयथी परनी साथे आत्माने कारकपणानो संबंध नथी, के जेथी शुद्धात्मस्वभावनी प्राप्तिने माटे सामग्री (-बाह्य साधनो) शोधवानी व्यग्रताथी जीवो (नकामा) परतंत्र थाय छे.”
अहीं कहे छे-‘कारको अनुसार जे क्रिया तेनाथी रहित भवनमात्रमयी भावशक्ति.’ अहाहा...! जुओ तो खरा, थोडा शब्दे केटलुं भर्युं छे! अहा! एक हजार वर्ष पर आचार्य अमृतचंद्रदेव आ भारतभूमि पर विचरता हता. अहा! ए वीतरागी संत-मुनिवर जाणे सिद्धपदने साथे लईने विचरता न होय! एमनी परिणति अंतर्मुख थईने क्षणेक्षणे निज सिद्धपदने भेटती हती. अहा! आवा आ संत-मुनिवरे आ परमागमनी टीकामां परमामृत रेडयां छे. तेमने समयसारनी आ टीका रचवानो विकल्प उठयो. त्यां शब्दोनी रचना तो जड परमाणुओथी थई छे. परंतु टीका रचवानो जे विकल्प आव्यो छे तेनाथी रहित मारुं परिणमन छे एम अहीं तेओ कहे छे. राग सहित जे दशा ते हुं नथी. ल्यो, आवी सूक्ष्म वात!
हवे केटलाक कहे छे-कर्मथी विकार थाय छे, चर्चा करो. अरे प्रभु! तारी पर्यायमां पराश्रये षट्कारक अनुसार विकार उत्पन्न थाय छे, तेमां कर्म कारण छे एम बीलकुल नथी. अशुद्धता काळेय पोताना ज अशुद्ध षट्कारको वडे आत्मा अशुद्धरूपे थाय छे, कर्मने लीधे थतो नथी, पंचास्तिकाय गाथा ६२नी टीका लखतां जयसेनाचार्यदेव कहे छे-“यथैवाशुद्धषट्कारकीरूपेण परिणममानः सन्नशुद्धमात्मानं करोति तथैव शुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपेणा भेदषट्कारकीस्वभावेन परिणममानः शुद्धमात्मानं करोतीति” – जेम अशुद्ध छ कारकरूपे परिणमतो थको अशुद्ध आत्माने करे छे, तेम शुद्ध आत्मतत्त्वना सम्यक्-श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप अभेद छ कारकरूपे स्वभावथी परिणमतो थको शुद्ध आत्माने करे छे. -आ रीते अशुद्धतामां तेम ज शुद्धतामां अन्य कारकोथी निरपेक्षपणुं छे. अहीं द्रव्यद्रष्टिमां ज्ञानमात्रभावना भवनमां भेदरूप अशुद्ध कारकोनो अभाव ज छे. आम कारको अनुसार जे क्रिया तेनाथी रहितपणे भववानो-परिणमवानो भगवान आत्मानो स्वभाव छे. भाई, तारामां एवो कोई गुण नथी के विकार सहित परिणमन थाय. पर्यायमां पोताना षट्कारकथी स्वतंत्र विकृत अवस्था थई छे, पण तारा स्वभावमां-भावगुणमां एवुं सामर्थ्य छे के तारामां विकारथी रहित निर्मळ शुद्धभावरूप
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भवन-परिणमन थाय. ल्यो, आ बधुं आ अडधी लीटीनी टीकामां भर्युं छे.
अंदरनी जे वात छे ते आ कहेवाय छे. अहा! भावशक्तिनुं क्रमवर्ती परिणमन ते पर्याय, त्रिकाळ अक्रमे वर्तती शक्ति ते गुण, ने ते गुण-पर्यायने धरनारुं द्रव्य ते द्रव्य-एम त्रणे मळीने आत्मा छे. अहा! अनंतगुणस्वभावथी भरेलो भगवान आत्मा छे. ते वीतरागताना भावे परिणमे एवुं तेना भाव गुणनुं कार्य छे. अहा! रागरूपे न परिणमवुं, राग रहित परिणमवुं एवुं तारुं स्वरूप छे भाई! अरे प्रभु! आमां तुं तकरार-विवाद शुं काम करे छे? आमां तो तारा हितनी परमार्थरूप वात छे. विकार सहित परिणमवुं, ने विकारमां सुखबुद्धि थवी ए तो अज्ञानी मिथ्याद्रष्टिने होय छे. ज्ञानी तो पर्यायमां किंचित् जे आसक्तिना परिणाम छे, व्यवहारना परिणाम छे-तेनाथी रहित पोतानुं परिणमन साधे छे. ल्यो, आ साधना-आराधना छे, ने आनुं नाम धर्म छे.
हवे आमां केटलाक कहे छे-तमो क्रियाकांड उथापो छो. पण एम नथी प्रभु! क्रिया तो कारको अनुसार पर्यायमां थाय छे; पण तेने अनुसरीने नहि, पण तेनाथी रहित भवनमात्रमयी आत्मानी भावशक्ति छे. गंभीर वात छे भाई! आत्मा सच्चिदानंद प्रभु अंदर परमात्मस्वरूप छे. आ काळे अहीं बहारमां परमात्मानी हाजरी नथी, पण अंदर तारो प्रभु तो तारी पासे छे के नहि? अहाहा...! तारी प्रभुता एकेक शक्तिमां पडी छे, जेथी तारी भावशक्ति प्रभु छे; तेनुं परिणमन थतां आत्मा स्वयमेव राग रहित निर्मळभाव वडे शोभाने प्राप्त थाय छे. आ भगवाननी वाणी छे. हवे आमां व्यवहारथी-क्रियाकांडथी गुण प्रगटे, ने निश्चय थाय एम वात कयां रहे छे? बहारमां व्यवहार हो, निमित्त हो, पण एनाथी स्वभावनुं परिणमन थाय छे एम त्रणकाळमां सत्य नथी. व्यवहारनुं-क्रियाकांडनुं होवुं जुदी वात छे, ने एनाथी गुणनुं प्रगटवुं थाय, धर्म थाय-एम मानवुं ए जुदी वात छे. व्यवहारथी-क्रियाकांडथी धर्म थई जशे एवी तारी प्रतीति महा शल्य छे भाई! ए तने अनंत जन्म-मरण करावशे. तने आकरी लागे पण आ सत्य वात छे, तारा हितनी वात छे.
अहाहा...! ! आचार्य अमृतचंद्रदेवे शक्तिनुं कोई अद्भुत वर्णन कर्युं छे. अहीं भावशक्तिनुं वर्णन चाले छे. ‘भाव’ तो द्रव्यने पण कहे छे, गुणने पण भाव कहे छे, निर्मळ पर्यायने पण भाव कहे छे, ने शुभाशुभ रागनी मलिन दशाने पण भाव कहे छे. अहीं बीजी वात छे. अहीं तो ‘भाव’ नामनी आत्मानी एक शक्ति-एक गुण- स्वभाव छे एनी वात छे. केवो छे ते स्वभाव? तो कहे छे-कारको अनुसार जे क्रिया-विकृति-राग-तेरूपे न थवुं एवो आ आत्मानो स्वभाव छे. हवे ओला रागनी होंशवाळा कायरोनां काळजां कंपी जाय एवी आ वात छे. शुं थाय? आ तो मारग ज आवो छे.
प्रथम पहेलां मस्तक मूकी, वळतां लेवुं नाम जो ने... हरिनो
आमां हरि एटले अज्ञान अने रागने हरवानो जेनो स्वभाव छे ते भगवान आत्मा समजवो. विकारने हरे ते हरि एम वात छे. विकारने हरे एम कहीए एय कथनमात्र छे. स्व-आश्रये आत्मानी जे पवित्र, निर्मळ निर्विकार परिणति थई तेमां ज्ञाननी, श्रद्धानी, आनंदनी परिणतिनुं ज्ञान समाई जाय छे, ने पोताना स्वपर प्रकाशक ज्ञानना कारणे परनुं-रागनुं ज्ञान पण तेमां आवी जाय छे. अहीं कहे छे-ज्ञाननी निर्मळ, निर्विकार परिणति जे प्रगट थई ते पोताना गुणनुं कार्य छे. अहा! वर्तमान रागथी रहित थवुं-परिणमवुं ते आ भाव गुणनुं कार्य छे. आवी वात! ल्यो,
आ प्रमाणे अहीं भावशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
‘कारको अनुसार थवापणारूप (-परिणमवापणारूप) जे भाव ते-मयी क्रियाशक्ति.’ जुओ, पहेलां ३९मा बोलमां कारको अनुसार जे विकृत अवस्थारूप क्रिया तेनाथी रहित परिणमवानी वात हती. अहीं निर्मळ अभेद कारको अनुसार अविकृत निर्मळ क्रियाथी सहित परिणमवानी वात छे. अहाहा...! कर्ता, कर्म, करण
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आदि निर्मळ अभेद कारको अनुसार थवारूप जे भाव-निर्मळ परिणति थवारूप जे भाव-ते-मयी क्रियाशक्ति छे. अंदर त्रिकाळ निर्मळ षट्कारक पडया छे ते अनुसार निर्मळ परिणति थवी एवो भगवान आत्मानो क्रिया गुण छे. समजाय छे कांई...?
हुं चेतनारो चेतक छुं, हुं मने चेतुं छुं, हुं मारी चेतना वडे चेतुं छुं-एम स्वसंवेदनमां अभेदपणे छए कारको समाई जाय छे; तेमां कारकभेदना विकल्प होता नथी; निर्मळ निर्विकार क्रियामां छए कारकरूप आत्मा परिणमी जाय छे, त्यां कारकभेदना विकल्प नथी. अहा! विकल्पनी क्रियानी अपेक्षा विना ज तेना भावनुं भवन थाय एवो आत्मानो भाव गुण छे, ने पोताना निर्मळ अभेद षट्कारको अनुसार निर्मळ क्रियारूपे भवन थाय एवो आत्मानो आ क्रिया गुण छे, भाई, पोताना निर्मळ षट्कारकोने अनुसरीने निर्मळ परिणतिए थवुं एवो आत्मानो स्वभाव छे, ने रागपणे न थवुं एवो पण आत्मानो स्वभाव छे. आ अनेकान्त छे. अहाहा...! पररूपे न थाय, विकाररूपे न थाय, भेदना आलंबने न परिणमे, परंतु अभेद निर्मळ षट्कारको अनुसार निर्मळ निर्विकार परिणतिरूपे परिणमे एवो दिव्य शक्तिमान चैतन्यचिंतामणि प्रभु आत्मा स्वयमेव देव छे. हवे भेदरूप-व्यवहाररूप क्रियाने ते अनुसरतो ज नथी पछी ते व्यवहार निश्चयनुं साधन केम थाय? भाई, व्यवहार निश्चयनुं यथार्थ साधन छे ज नहि, एने साधन कहेवुं ए तो उपचारमात्र छे.
भाई, ज्ञाननी क्रिया ने रागनी क्रिया-एम बे थईने मोक्षनो मार्ग छे एम नथी. संप्रदायमां अमे हता त्यारे प्रश्न थयेलो के-
प्रश्नः– ‘ज्ञानक्रियाभ्याम् मोक्षः’ एम कह्युं छे तेनो शुं अर्थ छे.
उत्तरः– त्यारे कहेलुं के-ज्ञान एटले स्वसंवेदन ज्ञान, आत्मानुं संवेदन ते ज्ञान, अने राग रहित वीतरागी भाव ते क्रिया-आम ज्ञान अने क्रिया मळीने मोक्ष छे. आनुं नाम ‘ज्ञानक्रियाभ्याम् मोक्षः’ छे. परंतु पोतानुं ज्ञान ने रागनी क्रिया-एवो कोई मोक्षमार्ग के मोक्ष नथी. अहा! निर्मळ षट्कारको अनुसार निर्मळ शुद्ध रत्नत्रयनी परिणति थवी ते मोक्षनुं कारण छे. आ निर्मळ परिणतिरूपे परिणमवारूप क्रियाशक्ति छे.
शक्ति एटले गुण. एकेक गुण-एम अनंत गुण द्रव्यना आश्रये रहेला छे. त्यां आ गुण ने आ गुणी- एवा भेदनी द्रष्टि छोडीने त्रिकाळी शुद्ध अभेद एक द्रव्यनी द्रष्टि करवी ते सम्यग्दर्शन छे. अहा! त्रिकाळी एक द्रव्यस्वभावनी द्रष्टि करतां द्रव्य निर्मळपणे परिणमी जाय छे ने तेमां गुणनुं परिणमन भेगुं ज समाय छे, गुणनुं कांई जुदुं परिणमन थाय छे एम नथी. आमां न्याय समजाय छे? ध्यान दईने समजवुं प्रभु!
शक्तिनुं एकरूप ते द्रव्य छे. द्रव्य परिणमतां भेगा गुणो परिणमे छे. आमां रहस्य छे. गुण उपर द्रष्टि देवाथी गुणनुं परिणमन थतुं नथी, पण गुणनो आश्रय जे एक द्रव्य छे ते द्रव्य उपर द्रष्टि देवाथी द्रव्यनुं परिणमन थाय छे, ने तेमां भेगुं गुणनुं परिणमन समाई जाय छे, द्रव्यथी अलग गुणनुं स्वतंत्र परिणमन थतुं नथी, अर्थात् द्रव्य (निर्मळ) न परिणमे अने गुण परिणमी जाय एम बनतुं नथी.
गुणभेदनी द्रष्टि करवाथी गुणनुं परिणमन सिद्ध थतुं नथी. गुणना लक्षे गुण (निर्मळ) परिणमतो नथी, भेदना लक्षे तो राग ज थाय छे. प्रवचनसारमां ‘ज्ञाननो आश्रय’ एम वात आवे छे, पण त्यां ‘ज्ञान’ शब्दे ‘अभेद एकरूप आत्मा’ एम अर्थ छे. भाई, आ तो धीरजथी समजवानी अंतरनी वातु छे.
‘चिद्विलास’मां परिणमनशक्तिनुं वर्णन छे. त्यां कह्युं छे के-आ परिणमनशक्ति द्रव्यमांथी उठे छे, गुणमांथी नहि. एनी साक्षी सूत्रजीमां (तत्त्वार्थसूत्रमां) दीधी छे के- ‘द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः’ एटले के द्रव्यना आश्रये गुण छे, गुणना आश्रये गुण नथी. वळी त्यां ज ‘गुणपर्ययवत् द्रव्यम्’ गुण-पर्यायवाळुं द्रव्य छे एम पण कह्युं छे. पर्यायवाळुं द्रव्य ज कह्युं, पण गुण न कह्यो. मतलब द्रव्यनी परिणमनशक्ति द्रव्यमांथी उठे छे, गुणमांथी नहि. शक्ति-गुण ए तो द्रव्यनी त्रिकाळी विशेषता छे, ने ते विशेषतारूप द्रव्य परिणमी जाय छे, कांई विशेषता-गुण स्वतंत्र परिणमे छे एम नथी.
द्रव्यमां अनंत शक्तिओ छे. तेथी द्रव्य परिणमतां शक्ति परिणमी एम कहेवामां आवे छे. मतलब के अभेद एक त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यनी द्रष्टि करवाथी, द्रव्यनी सन्मुख थई परिणमवाथी आखुं द्रव्य निर्मळ परिणमे छे. गुणनुं स्वतंत्र परिणमन थतुं नथी, पण द्रव्यनी परिणति भेगी गुणनी परिणति उठे छे. आम-आ रीते गुण-गुणीना भेदनी द्रष्टि
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छोडवानुं प्रयोजन सिद्ध थाय छे. भाई! तारा चैतन्यनिधानमां अनंतां गुणनिधान भर्यां छे तेने जाणी अनंतगुणनिधान एवा शुद्ध चैतन्यनिधानमां द्रष्टि कर, तेथी तने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निर्मळ निर्मळ परिणति प्रगट थशे. आवो मारग अने आ धर्म छे, बाकी बधुं थोथेथोथां छे.
द्रव्य-गुणमां निर्मळ षट्कारको छे. तो पर्यायमां विकार कयांथी आव्यो? पंचास्तिकायनी ६२मी गाथामां पर्यायना षट्कारकनी वात करी छे. मतलब के पर्यायमां पर्यायना अशुद्ध षट्कारको अनुसार विकार थाय छे, तेमां परनी अपेक्षा नथी, ने द्रव्य-गुण पण कारण नथी. एक समयनी रागनी पर्यायमां ते पर्याय कर्ता, ते पर्याय कर्म, ते पर्याय करण, ते पर्याय संप्रदान, ते पर्याय अपादान, ने ते पर्याय अधिकरण-एम एक ज पर्यायमां तेना षट्कारकना परिणमनथी विकृत अवस्था उत्पन्न थाय छे. ‘कारको अनुसार जे क्रिया...’ एम कहीने ३९मी शक्तिमां पण आ वात सिद्ध करी छे. परंतु वस्तुनो-चैतन्यवस्तुनो गुण एवो छे के कारको अनुसार विकारनी जे क्रिया छे तेनाथी रहितपणे ते परिणमे. कारको अनुसार पर्यायमां जे मलिन परिणमन थयुं छे ते तो ज्ञाननुं ज्ञेय थई रहे छे. जेम परद्रव्य ज्ञेय छे तेम पर्यायनी विकृत दशा पण ज्ञानीना ज्ञाननुं ज्ञेय छे; अने तेनाथी रहित भवनमात्रमयी जे भावशक्ति तेनुं परिणमन तेने सिद्ध थाय छे.
अहीं ४०मी शक्तिमां ‘कारको अनुसार थवारूप’ कह्युं एमां त्रिकाळी निर्मळ कारको लेवाना छे. ३९मी शक्तिमां पर्यायना (अशुद्ध) षट्कारकोनी वात हती. अहीं द्रव्य-गुणना निर्मळ कारकोनी वात छे. ‘कारको अनुसार’-मतलब के त्रिकाळी निर्मळ कारको अनुसार थवापणारूप जे भाव ते-मयी क्रियाशक्ति छे. भाई, आत्मा स्वयं छ कारकरूप थईने निर्मळ निर्मळ भावपणे परिणमे एवी एनी क्रियाशक्ति छे. अहो! स्वयमेव छ कारकरूप थईने केवळज्ञानादिरूपे परिणमे एवो भगवान आत्मानो स्वभाव छे. अहा! आत्माने पोताना निर्मळ भावरूपे परिणमवा कोई पर कारकोनी गरज-अपेक्षा नथी, तेम ज आत्मा कारक थईने जडनी क्रिया करे के विकारने करे एवो पण एनो स्वभाव नथी. पोताना ज निर्मळ कारकोने अनुसरीने पोताना वीतरागभावरूपे परिणमवानी क्रिया करे एवो आत्मानो स्वभाव छे. आ क्रियाशक्ति छे.
भाई, धर्मनुं स्वरूप आवुं बहु झीणुं छे बापु! हवे आ वाणियाने आवुं समजवानी फुरसद न मळे, आखो दि’ रळवा-कमावामां, विषय भोगमां ने बैरां-छोकरां साचववामां चाल्यो जाय ए कयारे आ समजे? पण भाई, निवृत्ति लईने समजवानो आ मार्ग छे. अहा! दर्शनशुद्धि जेनुं मूळ छे एवो आ कोई अलौकिक मार्ग छे.
पहेलां (३९मी शक्तिमां) जे कारक अनुसार क्रिया कही ते एक समयनी पर्यायना (अशुद्ध) षट्कारकनी वात हती. अहीं जे कारक अनुसार क्रिया कही छे ते त्रिकाळी पवित्र कारकनी वात छे. आ निर्मळ कारकोनो आश्रय अभेद एक द्रव्य छे. एटले ‘कारको अनुसार’ कह्युं एमां एक अभेद द्रव्यनो ज आश्रय छे; एमां पर साथे के राग साथे कांई ज संबंध नथी. हवे आमां लोको राड नाखे छे के-आमां व्यवहारनो लोप थई गयो. अरे प्रभु! तुं सांभळ तो खरो, तारो व्यवहार व्यवहारमां रह्यो छे, पण एनाथी मोक्षमार्ग थशे एवी तारी मान्यतानो आमां जरूर भुक्को थई गयो छे; अने ते यथार्थ ज छे, केमके व्यवहारथी-रागथी रहितपणे निर्मळ निर्मळ परिणमे एवो ज भगवान आत्मानो स्वभाव छे. अभ्यास नहि एटले आवी वात कठण पडे, पण आ सत्य वात छे, भगवाननी वाणीमां आवेली वात छे. समजाणुं कांई...?
अहीं क्रियाशक्तिमां जे कारकोनी वात करी ते द्रव्यमां जे निर्मळ कारको त्रिकाळ शक्तिरूप छे तेनी वात छे. अहा! त्रिकाळी द्रव्यमां जे निर्मळ अभेद षट्कारको पडयां छे ए कारकोना अनुसार थवापणारूप, परिणमवापणारूप क्रियाशक्ति त्रिकाळ जीवद्रव्यमां पडी छे. आ सर्वज्ञ जिनेन्द्रदेवनुं फरमान छे. प्रभु! तारी पर्यायमां द्रव्य-गुणना आश्रय विना, पर्यायना षट्कारकथी जे विकृतभावरूप क्रिया थाय छे तेनाथी रहित थवुं-भववुं एवो तारो भाव गुण छे, ने निर्मळ निर्मळ रत्नत्रयरूपे थवारूप तारो क्रियागुण छे. मलिन परिणाम सहित थवानो कोई गुण तारामां छे ज नहि. तेथी ज्यां द्रव्य उपर द्रष्टि मूके के तरत ज मलिन परिणामथी रहित निर्मळ निर्मळ रत्नत्रयरूप परिणमन थाय छे. आवो मारग छे.
पण आ तो मोटा पंडित होय तेने समजाय!