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एम नथी भाई, आ समजवामां पंडिताईनी जरूर नथी. पंडित कोने कहेवा? परमार्थने जाणे-अनुभवे ते पंडित छे. बाकी तो मोक्षमार्ग प्रकाशकमां आवे छे के-
“हे पांडे! हे पांडे! हे पांडे! तुं कणने छोडी मात्र तुष ज खांडे छे, अर्थात् तुं अर्थ अने शब्दमां ज संतुष्ट छे पण परमार्थ जाणतो नथी माटे मूर्ख ज छे.”
आ समजवामां तो अंतरनी रुचिनी जरूर छे, बहारनी पंडिताईनी नहि. समयसार, गाथा १प६मां पण कह्युं छे के-
पण कर्मक्षयनुं विधान तो परमार्थ–आश्रित संतने.
जुओ, षट्कारकथी पर्यायमां जे विकृतिरूप व्यवहार तेमां विद्वत् जनो-पंडितो वर्तन करे छे, पण निश्चय निज परमार्थ वस्तुमां वर्तन करता नथी. भाई, तारी बहारनी पंडिताई शुं काम आवे? एय संसार ज छे. समजाय छे कांई...?
कोईए अहीं आत्मसिद्धि शास्त्रनी एक गाथा-
आ गाथाना स्पष्टीकरणनी मागणी करी छे.
वात एम छे के आमां श्वेतांबर शैलीनी जरा वात आवी गई छे. खरेखर केवळी भगवान छद्मस्थनो विनय करे एवो व्यवहार त्रणकाळमां संभवित नथी. केवळी भगवानने अपूर्णताय नथी, ने विकल्पेय नथी; पछी ते बीजानो विनय केवी रीते करे? श्वेतांबर शास्त्रोमां एवी वात भरपुर आवे छे, तेनी थोडी झलक आमां रही गई छे. बाकी त्रणलोकना नाथ केवळी परमात्माथी मोटा कोण छे के तेओ बीजानो विनय करे? विनयनो विकल्प केवळीने होतो नथी, केमके तेओ पूर्ण वीतराग थया छे. भाई, कसोटीए चढावीने मार्गनी सत्यतानो निर्णय करवो जोईए, मात्र ओघे-ओघे मानी लेवुं ए कोई चीज नथी.
त्यां बीजी पण गाथा आवी छेः-
साधे ते मुक्ति लहे, एमां भेद न कोय.
आ कथन पण सत्यथी फेरवाळुं छे. गमे ते जाति अने गमे ते वेशथी मुक्ति थाय एम आमां कह्युं लागे छे, पण वास्तवमां एम नथी. बहारनी जाति ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि ए ज होय, अने शरीरनुं नग्नपणुं ए ज बाह्यमां वेश होय, कोई बीजी रीते माने के संप्रदाय चलावे तो ते सत्य छे एम नथी. (आ प्रमाणे विपरीत अर्थनुं निराकरण कर्युं)
अरे! भरतक्षेत्रमां अत्यारे कोई केवळी ने विशेष ज्ञानी रह्या नहि, ने लोको मार्गने बीजी रीते मानी तत्त्वनो विरोध करे छे. पण ते महा अन्याय छे. तेनुं फळ बहु आकरुं छे भाई! तत्त्वनी विराधनाना फळमां ताराथी सहन नहि थाय एवुं अनंतु दुःख आवी पडशे. कोई जीव दुःखी थाय ते प्रशंसालायक नथी. पण शुं थाय? मिथ्या शल्यनुं फळ एवुं ज आकरुं छे. माटे चेती जा प्रभु! ने सत्नो जेम छे तेम स्वीकार कर.
अहा! आचार्यदेवे शक्तिनुं वर्णन करीने निर्मळ मोक्षमार्ग केम प्रगट थाय ते सिद्ध करी दीधुं छे. मलिन परिणति हो, छतां मलिनता रहित परिणमन-निर्मळ ज्ञानभावमय परिणमन-थाय ए ज ज्ञानीनी परिणति छे. दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादिना परिणाम होय, पण ते ज्ञानीनुं मूळ स्वरूप नथी, केमके ए तो राग-विकल्प छे, पुण्यबंधनुं कारण छे. ज्ञानी तेने परज्ञेयपणे जाणे छे बस. आवो मारग छे. अरे! एणे सत्यार्थ मार्गने सांभळ्यो नथी, ने एनो कदी परिचय पण कीधो नथी! बहार ने बहार गोथां खाधा करे छे; पण पोतानी चीज बहारमां छे नहि तो कयांथी मळे?
अरे भाई! तारा हितने माटे तुं अंदर तारामां ज जो, बहारमां कारणोने मा शोध; केमके तारा हितनां कारको बहारमां नथी. पोताना ज निर्मळ छ कारकोने अनुसरीने पोते ज परमात्मदशारूपे परिणमी जाय एवो भगवान! तारो स्वभाव छे. तुं भगवानस्वरूप ज छो प्रभु! तारी प्रभुता माटे बाह्य सामग्री (निमित्तादि) ने शोधवानी व्यग्रता मा कर. बाह्य सामग्री विना ज पोते एकलो पोताना निर्मळ कारकोरूप परिणमीने केवळज्ञानरूपे थई जाय एवो स्वयंभू भगवान
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तुं पोते ज छो. माटे दीन थईने बहारमां फांफां कां मारे? अंतर्द्रष्टिना बळे तारां अंतरनां चैतन्यनिधान खोली दे; तारी दीनता टळीने परमानंदनी प्राप्ति थशे.
अहा! कारको अनुसार जे भाव छे तद्अनुसार सम्यग्दर्शन आदि धर्म प्रगट थाय छे. तेना अनुसार चारित्र होय छे, पंचमहाव्रतना आश्रये चारित्र होय छे एम नथी. लोको कहे छे-आ तो निश्चय, निश्चयनी वात छे. हा, आ निश्चय छे, पण निश्चय एटले ज सत्य.
व्यवहारी लोको माने छे के-सामायिक करो, व्रत करो, सवार सांज प्रतिक्रमण करो एटले बस थई गयो धर्म. अरे भाई, ए बधी शी चीज छे तेनी तने खबर नथी. ए तो बधो विकल्प-राग छे बापु! तेनुं परिणमन षट्कारकथी धर्मीनी पर्यायमां होय छे, पण तेनाथी रहित परिणमवुं एवा स्वभावनो तेमने आश्रय छे. धर्मी तेनो (रागना परिणमननो) स्वामी नथी. शुं कीधुं? आ व्यवहाररत्नत्रयनो जे विकल्प उठे छे तेनाथी रहित धर्मीनुं निर्मळ निर्मळ परिणमन होय छे, अने धर्मी ते रागना स्वामीपणाथी रहित छे. अहाहा...! त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य, शुद्ध गुण अने द्रव्यना आश्रये थयेलुं शुद्ध परिणमन ते पोतानुं स्व, अने धर्मी तेनो स्वामी छे, पण रागनो स्वामी धर्मी नथी; व्यवहाररत्नत्रयनो स्वामी धर्मी नथी. आ परम सत्य छे भाई! भगवान सर्वज्ञदेवना श्रीमुखेथी नीकळेली आ वाणी छे. अहाहा...! जेने द्रव्यनो आश्रय वर्ते छे तेने निर्मळ कारको अनुसार निर्मळ भावमयी क्रियाशक्तिनुं परिणमन थयुं छे, ते राग सहित परिणमन जे थाय तेनो स्वामी नथी. समजाणुं कांई...?
चार घातिकर्मोनो नाश थवाथी केवळज्ञान थाय छे एम तत्त्वार्थ सूत्रमां आवे छे ए तो निमित्तथी कथन छे. बाकी अहीं कहे छे-भाई, निर्मळ कारको अनुसार थवारूप तारामां निर्मळ भावमयी क्रियाशक्ति छे, जेथी तुं पोते ज स्व-आश्रये निर्मळ निर्मळ भावरूप परिणमतो थको केवळज्ञानरूपे परिणमी जाय छे. बाह्य कारकोनी तने शुं गरज छे? कर्मनो अभाव तो रजकणनी दशा छे, तेमां चैतन्यद्रव्यने शुं छे? अहा! कर्मना अभावथी नहि, व्यवहार रत्नत्रयथी नहि, ने केवळज्ञान थवा पहेलां मोक्षमार्गनी दशा छे तेनाथी पण नहि, पण त्रिकाळी शुद्ध कारको अनुसार स्व आश्रये केवळज्ञाननी पर्याय उत्पन्न थाय छे. आवी वात छे.
अनंतगुणभंडार प्रभु आत्मा छे. तेना प्रत्येक गुणमां क्रियाशक्तिनुं रूप छे. तेथी त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यनो आश्रय करतां द्रव्य साथे दरेक गुणनी पर्याय स्वतः स्वयं निर्मळ परिणमी जाय छे. कर्मनो अभाव थवाथी ते पर्याय प्रगट थाय छे एम नहि, ने पूर्वनी मोक्षमार्गनी पर्यायनो अभाव थयो माटे केवळज्ञान प्रगट थयुं एम पण नहि. हवे आवी वात बिचारा लोकोने कयां सांभळवा मळे? एम ने एम तेओ जिंदगी व्यतीत करे छे. शुं थाय? मार्ग तो आवो स्पष्ट छे भाई! तेने समजीने तारुं कल्याण कर.
आ प्रमाणे अहीं क्रियाशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
‘प्राप्त करातो एवो जे सिद्धरूप भाव ते-मयी कर्मशक्ति.’ जुओ, आ सत्यनो पोकार! अंदरथी सत् ऊभुं (प्रगट) थाय छे तेने, कहे छे, असत् विकारना शरणनी कोई जरूर नथी. शुं कीधुं? व्यवहार रत्नत्रयनी निर्मळ परिणतिनी प्राप्तिमां कोई जरूर-गरज नथी. केमके पोतामां आत्मद्रव्यमां ज कारको अनुसार थवारूप निर्मळ भावमयी क्रियाशक्ति होतां द्रव्यना आश्रये स्वयं ज निर्मळ दर्शन- ज्ञान-चारित्ररूप छे. तेनाथी अंदर भाव-चारित्र प्राप्त थाय छे एम कदी य नथी. आम अज्ञानीनी दरेक वातमां मोटो फेर छे.
अहीं कहे छे-‘प्राप्त करातो एवो सिद्धरूप भाव...’ -सिद्धरूप भाव एटले शुं? सिद्धरूप भाव एटले आत्माना कर्मरूप एवो प्राप्त-प्रगट निर्मळ भाव-पर्याय. अहाहा...! आत्मा पोते ते कर्मरूप थाय छे एवी तेनी कर्मशक्ति छे. अहीं सिद्ध पर्यायनी वात नथी, पण सिद्ध एटले निर्मळ पर्यायरूप जे भाव प्रगट थाय तेने अहीं सिद्धरूप भाव कहेल छे. स्वद्रव्यना आश्रये प्राप्त करातो जे भाव ते सिद्धरूप भाव छे. अहाहा...! सम्यग्दर्शननी पर्याय, सम्यग्ज्ञाननी पर्याय,
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सम्यक्चारित्रनी पर्याय, केवळज्ञाननी पर्याय-एम क्रमवर्ती प्रगटेली निश्चित निर्मळ पर्याय ते सिद्धरूप भाव छे.
अनंतगुण-स्वभावनो पिंड प्रभु आत्मा छे. तेनी अंतर्द्रष्टि करी परिणमतां निर्मळ पर्यायरूप कर्म प्राप्त थाय छे. आ आत्मानुं कर्म छे. ‘कर्म’ कहेतां अहीं जड द्रव्यकर्म के रागादि भावकर्मनी वात नथी. ते आत्मानुं कर्म नथी, पण चैतन्यस्वभावमांथी जे सम्यग्दर्शन आदि निर्मळ पर्यायनी प्राप्ति थाय ते आत्मानुं कर्म छे. त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यना आश्रये क्षणे क्षणे जे निर्मळ निर्मळ भाव प्रगट थाय छे ते प्राप्त थतो सिद्धरूप भाव छे. वस्तुमां शक्तिरूपे त्रिकाळ भाव छे ते व्यक्त पर्यायरूपे प्रगटतां तेने सिद्धरूप भाव कह्यो छे. सम्यग्दर्शनादि बधी पर्यायो आ रीते सिद्धरूप भाव छे. आ प्राप्त थतो सिद्धरूप भाव ते आत्मानुं कर्म छे, अने आत्मा पोतानी शक्तिथी ते-रूप थाय छे एवी तेनी कर्मशक्ति छे. आवी वात! समजाणुं कांई...?
अहाहा...! ‘प्राप्त करातो...’ जोयुं? ‘प्राप्त करातो’-एम कह्युं छे, मतलब के जे समये जे पर्याय प्राप्त थवा योग्य होय ते समये ते ज पर्याय उत्पन्न थाय छे. तेने अहीं प्राप्त करातो सिद्धरूप भाव कहेल छे. अहाहा...! पुरुषार्थथी प्राप्त करातो एवो जे सिद्धरूप भाव ते-मयी एक कर्मशक्ति जीवद्रव्यमां छे. अनंत गुण-शक्तिनो आश्रय आत्मद्रव्य छे, ने द्रव्यना आश्रये पुरुषार्थ छे. आम स्वद्रव्यना आश्रये प्राप्त करातो एवो जे सिद्धरूपभाव ते-मयी कर्मशक्ति छे. वर्तमान निर्मळ पर्यायनी प्राप्तिरूप कर्म ते कर्मशक्तिना कार्यरूप छे; ते व्यवहाररत्नत्रयनुं कार्य नथी, ने ते पूर्वपर्यायनुं पण कार्य नथी. अन्य भिन्न कारको तो कयांय दूर रही गया. झीणी वात भाई! कहे छे-कर्म नामनी जीवमां एक शक्ति छे जेथी द्रव्यना आश्रये सहज ज निर्मळ पर्यायनी प्राप्ति थाय छे.
जुओ, ‘कर्म’ शब्द चार अर्थमां आवे छेः १. ज्ञानावरणादि जड द्रव्यकर्मने कर्म कहे छे, २. राग-द्वेष-मोह आदि विकारी भावकर्मने कर्म कहे छे, ३. सम्यग्दर्शनादि निर्मळ परिणतिने कर्म कहे छे, अने ४. अहीं जेनुं वर्णन छे ते जीवनी कर्मशक्तिने कर्म कहे छे. तेमां, - -जड द्रव्यकर्म निज चैतन्यवस्तु आत्माथी भिन्न चीज छे. ते आत्मानी चीज नथी. अज्ञानीओ, कर्म नडे छे -एम कर्म... कर्म पोकारे छे, पण भाई, ए आत्मानी कोई चीज नथी.
-राग-द्वेष, पुण्य-पाप आदि विकारी भाव ते य आत्मानुं वास्तविक कर्म नथी. अज्ञानीओनुं कार्य ते हो, केमके तेमां तेओ तन्मय छे, पण ज्ञानी तेमां तन्मय नथी, ज्ञानीनुं ते कर्म नथी. शुं कीधुं? दया, दान, व्रत, तप आदि व्यवहाररत्नत्रयनो राग ते ज्ञानीनुं कर्म नथी, ज्ञानीना ज्ञानमय भावथी ए भिन्न ज छे. समजाणुं कांई...?
-स्वद्रव्य-शुद्ध आत्मद्रव्यना आश्रये सम्यग्दर्शन निर्मळ निर्मळ पर्यायनी प्राप्ति थाय छे ते आत्मानुं प्राप्त कर्म छे. केमके आत्मा तेमां तन्मय छे, आत्मा स्वयं ते-पणे थईने तेने प्राप्त करे छे. जुओ, आ प्राप्त करातो सिद्धरूप भाव-आ आत्मानुं-धर्मात्मानुं वास्तविक कर्म छे.
-जेम ज्ञान, दर्शन, आनंद आदि गुण छे तेम आत्मामां कर्म नामनो एक गुण छे. आ कर्मगुण होतां, आत्मा स्वयं पोतानी सम्यग्दर्शन आदि निर्मळ पर्यायने प्राप्त करे छे, पहोंचे छे. अहीं कह्युं ने के-‘प्राप्त करातो एवो जे सिद्धरूप भाव ते-मयी कर्मशक्ति.’ अहा! आत्माना जे आवा स्वभावने जाणी अंतर्मुख प्रतीति करे छे तेने द्रव्यकर्म, भावकर्मनो संबंध छूटी जाय छे. समजाणुं कांई...?
प्रश्नः– समजीने करवुं शुं? उत्तरः– समजीने अंतर्मुख, द्रव्य उपर द्रष्टि देवी. वर्तमान सम्यग्दर्शन आदि निर्मळ कार्यने द्रव्य पोते ज प्राप्त करे-पहोंचे एवो द्रव्यनो-भगवान आत्मानो स्वभाव छे, शक्ति छे एम यथार्थ निर्णय करवो. भाई, व्यवहार रत्नत्रयना रागथी के देव-गुरु-शास्त्रना निमित्तथी सम्यग्दर्शन आदि निर्मळ कार्य थाय एम वस्तुस्वरूप नथी. बहारमां निमित्त हो, पण निमित्तथी कार्य थाय छे एम त्रणकाळमां नथी. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप वीतरागी मोक्षमार्गनी परिणति ते आत्मामां प्राप्त करातो सिद्धरूप भाव छे, अने ते-मय कर्मशक्ति छे, अर्थात् कर्मशक्ति तेमां तन्मय छे, अर्थात् कर्मशक्तिनुं ते कर्म छे. आवी वात!
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अहाहा...! आत्मा सच्चिदानंद प्रभु त्रिकाळ ध्रुवस्वभावी वस्तु छे. आ ध्रुवमां एक कर्म नामनी शक्ति छे जेनाथी एनुं वर्तमान कार्य सुधरे छे. धीरजथी सांभळवुं बापु! आ तो धर्मकथा छे भाई! कहे छे-तारुं जे आत्मद्रव्य छे ते अनंतगुणमय गुणी छे, तेमां कर्म नामनो एक गुण छे, कर्म एटले कार्य थाय एवो तेमां गुण छे. आ कर्म गुणना कारणे वीतरागी निर्मळ कार्य प्राप्त थाय छे. भाई, आ कर्मगुण तारुं कार्य सुधरवानुं कारण छे. माटे बीजे जोईश मा, अंदर ज्यां शक्ति छे तेमां जो, ने तेमां ज ठरी जा.
ओहो...! अंदर जुओ तो अनंत अनंत शक्तिनो अखूट-अक्षय भंडार भर्यो छे. प्रभु! तारामां एक जीवत्व शक्ति छे. ते जीवत्व शक्तिमां आ कर्मशक्तिनुं रूप छे, जेथी ज्ञान, दर्शन, आनंद, सत्ता-एवा जे शुद्धप्राण-तेना निर्मळ कार्यरूप वास्तविक जीवन प्राप्त थाय छे. आ जीवनुं जीवन छे. निर्मळ रत्नत्रयनुं प्राप्त थवुं ते जीवनुं जीवन छे. शरीर वडे जीववुं ए जीवनुं जीवन नथी, बहारमां मन, वचन, काय इत्यादि दश प्राण वडे जीववुं ए जीवनुं जीवन नथी, ने भावेन्द्रियथी जीववुं ए पण जीवनुं वास्तविक जीवन नथी. अहाहा...! दश प्राणोथी भिन्न अने अंदर भावेन्द्रियना कार्यथी भिन्न, ज्ञान, दर्शन, आनंद अने सत्तानुं-शुद्ध चैतन्य प्राणोनुं निर्मळ कर्मपणे परिणमन थाय ते जीवनुं जीवन छे. ल्यो, आवुं जीवन ते साचुं जीवन; बाकी तो चार गतिनी रखडपट्टी छे. समजाणुं कांई...?
भाई, तारा कार्यपणे निर्मळ रत्नत्रयनुं कार्य थाय तेनुं कारण कोण? तो कहे छे-तारामां कर्म नामनो गुण छे ते आ निर्मळ पर्यायनुं कारण छे. मोहनीय आदि कर्म खसी जाय तो निर्मळ रत्नत्रय प्रगट थाय एम नथी. अने पूर्वनी निर्मळ पर्याय पण वर्तमान निर्मळ पर्यायनुं वास्तविक कारण नथी. ए तो तारुं आत्मद्रव्य ज निज शक्तिथी क्षणे क्षणे निर्मळ कार्यरूपे परिणत थाय छे. भाई! निर्मळ रत्नत्रयरूप कर्म कयांय बहारथी आवतुं नथी, आत्मामां ज ते-रूप थवानी शक्ति छे. निज स्वभावनी सन्मुख थतां आत्मा पोते ज तेवा कार्यरूपे परिणत थाय छे. अहा! जुओ आ कर्मशक्ति! पोतानुं कार्य (ज्ञान, दर्शन, आनंद आदि) पोते प्राप्त करे एवो ज आत्मानो स्वभाव छे. पण जडनुं करे के विकार करे एवो आत्मानो स्वभाव नथी, जड कर्म के विकार ते आत्मानुं कर्म नथी.
अहाहा...! निर्मळ ज्ञान-श्रद्धान-आनंदनी शुद्ध पर्यायपणे परिणमवुं-ते भावने प्राप्त करवो-पहोंचवुं ते आ कर्मगुणनुं कार्य छे. हवे आवुं कदी काने य पडयुं न होय ते शुं करे? अरेरे! चार गतिमां बिचारा रझळी मरे. अहीं कहे छे-पोतानी निर्मळ वीतरागी पर्यायने पोते प्राप्त करे एवो पोतानो-आत्मानो गुण छे. आनुं नाम कर्मशक्ति छे. आ कर्मशक्ति ध्रुव उपादान छे, ने तेनी निर्मळ परिणति ते क्षणिक उपादान छे. कर्मशक्ति जे ध्रुव छे ते पारिणामिक भावे छे, ने तेनो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना परिणमननी प्राप्तिरूप जे भाव छे ते उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक भावे छे. जड कर्मनो उपशम थयो माटे अहीं निर्मळ उपशमभावनी पर्याय प्रगटी एम नथी. ए तो जीवनो त्रिकाळी कर्म- गुण-स्वभाव एवो छे जेथी उपशमभावरूपी कार्य सिद्ध थाय छे. अहो! आवुं जैनदर्शननुं स्वरूप सूक्ष्म छे, तेने आचार्य भगवंतोए स्पष्ट खुल्लुं कर्युं छे.
दया पाळो, व्रत करो, भक्ति करो, उपवास करो... इत्यादि-ए कांई धर्म नथी. आ तो बे घडी सामायिक लईने बेसे ने माने के थई गयो धर्म; पण बापु! सामायिक तो अंदरनी चीज छे; तने ते सामायिकना स्वरूपनी खबर नथी. आ तो हजु चोथा गुणस्थाने तो एकलुं व्यवहार समकित होय, ने निश्चय समकित तो सातमा गुणस्थानथी होय. अरे प्रभु! तुं शुं कहे छे आ? व्यवहार समकित तो उपचार छे, ने निश्चय विना कोनो उपचार? तारी वात बराबर नथी. चोथा गुणस्थानथी ज आत्मानी निर्विकल्प श्रद्धारूप निश्चय वीतराग समकित ज्ञानीने प्रगट थाय छे, ने त्यारे देव-गुरु-शास्त्रनी एनी श्रद्धाने उपचारथी व्यवहार समकित कहे छे.
आ तो शांतिथी समजवानी चीज छे. वीतरागना आ मार्गनो वर्तमानमां बहुधा विच्छेद थई गयो छे. संप्रदायमां आ वात चालती नथी. तुं भगवान छो ने भाई! भग नाम ज्ञान अने आनंदनी लक्ष्मी, अने वान नाम ते-रूप. ज्ञान ने आनंदनी लक्ष्मीरूप तुं भगवान छो ने प्रभु! अहाहा...! आ धूळनी लक्ष्मी कांई तारी चीज नथी, पण अंदर चैतन्यलक्ष्मीरूप भंडारमां तारी एक कर्मशक्तिरूप लक्ष्मी छे. अहाहा...! तारामां सम्यग्दर्शन आदि निर्मळ रत्नत्रयरूप धर्मनुं कार्य प्रगट थाय तेना कारणरूप अंदर कर्मशक्तिरूप लक्ष्मी पडी छे. माटे प्रसन्न था, ने व्यवहारनो आश्रय छोडी, ज्यां आ लक्ष्मी पडी छे एवा तारा चैतन्यनिधानने जो, तने अद्भुत आह्लाद थशे, प्रदेश-प्रदेशे अनाकुळ आनंद
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ऊछळशे. आनुं नाम समकित ने आ धर्म छे.
अरे, सांभळ भाई! व्यवहार समकित ते कांई समकित नथी. व्यवहार समकित ए तो विकल्प-राग छे. द्रव्यद्रष्टि थये श्रद्धागुणना कार्यरूप निर्विकल्प निश्चय समकित प्रगट थाय छे, ने तेने सहचरपणे जे देव-गुरु-शास्त्र संबंधी शुभराग होय छे तेने उपचारथी आरोप दईने व्यवहारसमकित कहेवामां आवे छे. वास्तवमां ते राग ज छे, ने ते सिद्धभावरूप आत्मानुं कर्म नथी, तथा एनाथी निर्मळ पर्यायरूप आत्मानुं कर्म थाय छे एम पण नथी. वास्तवमां सम्यग्दर्शननो उत्पाद थवामां श्रद्धागुण कारण छे. श्रद्धागुणमां कर्मशक्तिनुं रूप छे ने! माटे ते भाव प्राप्त कराय छे. भाई, श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र, आनंद-एम दरेक गुणमां पोतानी निर्मळ पर्यायरूप कर्म प्रगट थाय छे ते प्राप्त करातो सिद्धरूप भाव छे, ने ते-मयी कर्मशक्ति छे.
स्वाध्यायनो विकल्प होय छे, पण ते विकल्पथी सम्यग्ज्ञान प्रगट थाय छे एम नथी. ए तो आत्मानो एवो ज्ञानस्वभाव छे के जेथी ते पोताना सम्यग्ज्ञानरूप कर्मने प्राप्त करे.
तेवी रीते पंचमहाव्रतादिनो विकल्प होय छे, पण ते विकल्पथी सम्यक्चारित्ररूप निर्मळ कार्य थाय छे एम नथी. ए तो आत्मानो एवो चारित्र स्वभाव छे के जेथी ते पोताना सम्यक्चारित्ररूप कर्मने प्राप्त करे.
आ प्रमाणे श्रद्धा, आनंद इत्यादि आत्माना बधा ज गुणोमां समजवुं. आत्माना ज्ञान, चारित्र, आनंद आदि बधा गुणमां कर्मशक्तिनुं रूप छे. तेथी आत्मा पोते पोताना निर्मळ स्वभावरूप कर्मने प्राप्त करे ज छे. ज्यां निजस्वरूपना लक्षे अंतर-एकाग्र थाय के स्वभावना आश्रये श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र-आनंद वगेरेनुं निर्मळ निर्मळ कार्य प्रगट थाय ज छे. त्यां ‘हुं आ निर्मळ कार्य प्राप्त करुं’ एवी भेदवासना रहेती नथी, केमके पोतानी कर्मशक्तिथी पोते स्वयमेव निर्मळ कार्यरूप थई जाय छे. आवी सूक्ष्म वात छे.
व्यवहार समकितमां संवेग, निर्वेद, आस्था, अनुकंपा-ए बधा विकल्प छे. ए विकल्पथी रहित कर्मगुणना कारणथी सम्यग्दर्शनरूपी वीतरागी पर्यायनुं कार्य प्रगट थाय छे. पुण्य अने विकल्पथी एनी सिद्धि थती नथी. बहारमां अनुकूळ निमित्तथी कार्य थयुं एम निमित्तनी मुख्यताथी कहेवाय, पण एम छे नहि. कोई कहे के-अहो! भगवान! आपनी कृपाथी कार्यसिद्धि थई, पण एम छे नहि, वस्तुस्वरूप एवुं नथी.
प्रश्नः– महाराज! लोको कहे छे आपनी आ लाकडी फरे तो पैसा मळी जाय छे? उत्तरः– लोको कहे छे ए तो लोकमूढता छे भाई! बाकी आ लाकडीमां कांई माल नथी. हमणां ज एक लाकडी चोराई गई, कोईक लई गयुं (अंदर मूढता छे ने?) आ लाकडी तो अमे हाथमां एटला माटे राखीए छीए के शास्त्रने परसेवावाळो हाथ अडी जाय तो असातना थाय. बाकी लाकडीमां कांई जादु नथी के एनाथी पैसा मळे.
जुओ, बेंग्लोरमां एक शेठे भव्य जिनालय बंधाव्युं. तेनी प्रतिष्ठानो मोटो उत्सव थयो. शेठ पंदरेक दिवस उत्सवना काममां रोकाया, तो दुकानमां माल हतो ए वेचाता विना पडी रह्यो. बन्युं एवुं के पछी एना भाव वधी गया, ने शेठने अढळक पैसा मळ्या. पण ए तो पूर्वना पुण्यना कारणे लक्ष्मी आवे छे भाई! अने एमां य शुं छे? लक्ष्मी-धूळ आवी एमां आत्माने शुं लाभ? भगवान! वीतरागी निर्मळ सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थाय ए तारुं कर्म छे, ने ए लाभ छे. बाकी तो बधी धूळनी धूळ छे, ने तेना लक्षे चार गतिनी रझळपट्टी छे. समजाणुं कांई...?
अहा! धर्मी जीव एम जाणे छे के सम्यग्दर्शनथी मांडीने सिद्धपद पर्यंतनां जे परम पदो छे ते प्राप्त करवानी शक्ति मारा आत्मामां छे, ने ते ज मारां कर्म छे; ए सिवाय बहारमां मोटां राजपद के देवपद वगेरे प्राप्त थाय ते कांई मारां कर्म नथी. कर्तानुं इष्ट ते कर्म. अहा! मने मारा ज्ञान-आनंद स्वभावमांथी प्राप्त थती जे निर्मळ रत्नत्रयरूप अवस्था ते ज मारुं इष्ट कर्म छे, आ सिवाय पुण्य ने पुण्यना फळरूप प्राप्त संयोग ते मारुं कांई ज नथी. जुओ आ धर्मीनी अंतर्द्रष्टि!
धर्मीने पहेलां पर्यायमां शुद्धि अल्प हती, पछी क्रमे विशेष शुद्धि थई. शुद्धिनी वृद्धि थई ते निर्जरा छे. निर्जराना बे प्रकार छेः द्रव्यनिर्जरा, ने भावनिर्जरा. जड कर्मनुं खरी जवुं ते द्रव्यनिर्जरा छे, ने ते काळे अशुद्धतानो व्यय थईने शुद्धिनी वृद्धि थाय ते भावनिर्जरा छे. धर्मीने जे शुद्धिनी वृद्धिनुं कार्य थयुं तेनुं कारण, अहीं कहे छे, द्रव्यनी कर्मशक्ति छे. पूर्वपर्याय निर्मळ हती माटे पछीनी पर्याय विशेष निर्मळ थई एम नथी. पूर्वे मोक्षमार्गनी पर्याय हती माटे वर्तमान
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केवळज्ञान पर्याय प्रगट थई एम कारण-कार्य नथी. वर्तमान केवळज्ञान पर्यायनी प्राप्ति स्वतंत्र द्रव्यना आश्रये थाय छे. आवी सूक्ष्म वात वीतरागना मार्ग सिवाय बीजे कयांय नथी. अहो! आमां तो बधुं क्रमबद्ध ज छे एम समजाई जाय छे.
आत्मा त्रिकाळ ध्रुवस्वरूप छे. ते स्वरूपनी अस्तिनो स्वीकार निर्मळ पर्यायमां थाय छे. पर्यायमां ध्रुवनी कबूलात करी, अने पर्यायमां निर्मळता थई-ते निर्मळ क्रमवर्ती पर्याय अने अक्रमवर्ती गुणो-ए बेनो एकसाथे समुदाय ते आत्मा छे. अहीं राग ते गुणनुं कार्य-कर्म नथी, तेथी तेनी कोई गणतरी नथी. हवे केटलाक कहे छे-आ सोनगढवाळाए नवुं काढयुं. पण आ समयसार शास्त्र कयां सोनगढनुं छे? ए तो वीतरागनी वाणी आचार्य कुंदकुंददेवे समयसाररूपे वहावी छे.
अहाहा...! एकेक शक्ति पारिणामिकभावे छे, अने तेनुं कार्य छे ते उपशम, क्षयोपशम के क्षायिकभावे छे. उदयभाव ते शक्तिनुं कार्य नथी. द्रव्य शुद्ध, तेना गुण शुद्ध, अने तेनुं कार्य पण शुद्ध पवित्र ज छे. उदयभाव तेनुं कार्य छे ज नहि. ए तो पर्यायनी योग्यताथी उदयभाव छे, पण धर्मी तेने पोतानुं कर्म गणता नथी; धर्मीने ते परज्ञेयपणे छे.
अरे! अज्ञानी जीवो रातदि’ संसारनी मजूरी करीने मरी जाय छे. एमां य कोई पुण्योदये बे-पांच करोडनुं धन मळी जाय तो माने के मोटी बादशाही मळी. अरे भाई! बादशाही शुं छे तेनी तने खबर नथी. निराकुळतारूप साची बादशाही तो तारी अंदर पडी छे. तुं अंदर अनाकुळ ज्ञानानंदस्वरूप बादशाह छो. त्यां न जोतां बहारमां अहींथी सुख मळशे के त्यांथी सुख मळशे एम झावां नाखे छे पण ए तो तारुं भिखारापणुं छे. अरे! अनंतगुणचक्रनो स्वामी मोटो चक्रवर्ती बादशाह थईने तुं भिखारीनी जेम रखडे छे! ने पुण्यनी-विकारनी भीख मागे छे!! अरे भाई, बहारथी कयांयथी तने सुख नहि मळे. मोटो बादशाह तुं अंदर बिराजे छे त्यां अंतर्मुख थईने जो. तेमां बादशाही शक्तिओ पडी छे तेनुं निर्मळ परिणमन थतां तने बादशाही प्राप्त थशे. स्वभावमांथी प्राप्त थाय ते बादशाही, ते आनंद अने ते सुख. बाकी तो बधी आकुळतानी भठ्ठी छे. समजाणुं कांई...?
आखा समयसारनो सार आ छे. शुं? के द्रव्यकर्म, भावकर्म अने नोकर्मरहित शुद्ध चैतन्यधन आत्मा ते भगवान समयसार छे. आ समयसार केम प्रगट थाय? तो कहे छे-अंतर्द्रष्टि करवाथी शुद्ध कर्मनी प्राप्तिरूप कार्यसमयसार प्रगट थाय छे, अरेरे! अनादि काळथी तारुं कार्य तुं बगाडतो आव्यो छो. पर्यायमां शुभाशुभ राग थाय ते कार्य मारुं -एम मानतो थको बहिर्मुखपणे तुं तारुं जीवन बगाडतो आव्यो छो. पण भाई रे! विकार थाय ए कोई तारा द्रव्य-गुणनुं कार्य नथी, जेम पुद्गलमां आठ कर्मनी पर्याय थाय ते तारा द्रव्य-गुणनुं कार्य नथी तेम तारी पर्यायमां पुण्य-पापरूप विकार थाय ते तारा द्रव्य-गुणनुं कार्य नथी. पर्यायमां तेना षट्कारकना परिणमनथी अद्धरथी विकल्परूप मलिनता थाय छे, पण मलिन विभावरूप परिणमवानो तारामां कोई गुण नथी. विभावरूपे न परिणमवुं एवो गुण छे, पण विभावरूपे थवुं एवो आत्मामां कोई गुण नथी. ल्यो, आवुं तत्त्व शुं? तेना गुण शुं? अने तेनुं कर्म शुं? -अरे! अज्ञानी जीवोने कांई खबर नथी.
“सत् साहित्य” प्रचारमां एक मुमुक्षुए लाख रूपिया आप्या छे, एम बीजाए एंसी हजार आप्या छे. अमे तो कह्युं-आमां शुभभाव छे, धर्म नहि; पुण्यबंध थशे. वास्तवमां ए शुभभावरूपे न परिणमवुं एवो तेनो (- आत्मानो) गुण छे, ने ते विकाररूपे न परिणमवुं एवो तेनो गुण छे. हवे पोताना स्वघरनी-स्वभावनी खबर न मळे ने परघरना-परभावना आचरणमां कोई धर्म मानी ले, पण ए केम चाले? ए तो मिथ्या शल्य छे. व्यवहार समकित ते समकित, ने द्रव्य चारित्र ते चारित्र एम जे माने छे तेने धर्मना वास्तविक स्वरूपनी खबर नथी. तेनी द्रष्टि जूठी-विपरीत छे, तेना अंतरमां मिथ्यात्वनुं शल्य पडयुं छे. अरे भाई, ते तने भारे नुकशान करशे, अनंत जन्म-मरण करावशे.
अनंतगुणरत्नाकर प्रभु आत्मा छे. तेमां एक कर्म नामनो गुण छे. आ कर्म नामनो गुण छे. आ कर्म गुणना कारणे द्रव्यद्रष्टिवंतने पोतानुं सम्यग्दर्शनादिरूप निर्मळ कर्म प्राप्त थाय छे. आम धर्मीने पोतानुं कार्य समये समये सुधरे छे. पण ए तो समये समये तेनी उत्पत्तिनो काळ छे, ए एनी जन्मक्षण छे. गुणना कारणे ते पर्याय उत्पन्न थई एम कहेवुं ए तो उपचार छे. हवे आम छे त्यां व्यवहारना रागथी निश्चय (वीतराग परिणति) थाय ए वात कयां रही? भाई, जो तारी द्रष्टि न पलटी तो आम ने आम रखडवानो तारो रस्तो नहि मटे. अरेरे! मरी-मरीने नरक-निगोदमां जवुं पडशे. शुं थाय? वस्तुस्थिति एवी छे. एम शरीरमां अनंत आत्मा, अनंतनो एक श्वास, अनंतनुं आयुष्य भेगुं,
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पण दुःखनी पर्याय जुदी-अहा! आवा दुःखमय स्थानमां तारो अनंत काळ गयो छे प्रभु! अहा! ए पारावार दुःखनुं शुं कहेवुं? भाई, ए दुःखथी मुक्त थवुं होय तो जेमां अनंत शक्ति भरी छे एवा तारा द्रव्यनी संभाळ कर, तारा चैतन्यद्रव्यनी रक्षा कर. हुं शुद्ध एक चिदानंदस्वरूप छुं-एम अंतर्द्रष्टि वडे प्रतीति करवी ने तेमां रमणता करवी ए तेनी रक्षा छे. आ सिवाय बधी हिंसा ज हिंसा छे, आत्मघात छे. समजाय छे कांई...!
भाई, तारी चिद्घन-चैतन्यवस्तु ध्रुव त्रिकाळ छे. तेनी एक कर्मशक्ति ध्रुव त्रिकाळ छे. स्व-आश्रये शक्ति परिणमतां निर्मळ पर्यायरूप कर्म जे नीपजे ते प्राप्त करातो सिद्धरूप भाव छे. अहा! ते भावना कारणरूप कर्मशक्ति छे एम जाणी द्रव्यद्रष्टि करतां पर्यायमां निर्मळतारूप सुधारो थाय छे. आवो मारग छे. आ सिवाय उन्मार्ग छे.
आ प्रमाणे अहीं कर्मशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
‘थवापणारूप अने सिद्धरूप भावना भावकपणामयी कर्तृशक्ति.’ अहाहा...! चैतन्य गुणरत्नाकर प्रभु आत्मा छे. तेमां, अहीं कहे छे, एक कर्तृ-कर्तापणानो गुण छे. थवापणारूप अने सिद्धरूप भावना भावकपणामय आ कर्तृत्व गुण छे. अहाहा...! वर्तमान सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्ररूप निर्मळ भाव प्रगट थाय ते थवापणारूप अने सिद्धरूप भाव छे, तेनो भावक अर्थात् ते भावनो कर्ता, कहे छे, भगवान आत्मा छे. अहाहा...! वर्तमान थवा योग्य ने सिद्धरूप भावनो कर्ता थईने आत्मा ते भावने भावे-करे एवो आत्मानो कर्तृस्वभाव छे. पोतानी कर्तृशक्तिथी आत्मा पोते ज स्वाधीनपणे पोताना सम्यग्दर्शनादि निर्मळ भावने करे छे.
पहेलां कह्युं के-प्राप्त करातो एवो जे सिद्धरूप भाव ते-मयी कर्मशक्ति छे. मतलब के आत्मा पोते ज पोताना सिद्धरूप भाव-थवायोग्य निर्मळ भावने कर्मपणे प्राप्त थाय एवी एनी कर्मशक्ति छे. हवे, प्राप्त करातुं आ निर्मळ भावरूप कर्म, जेने सिद्धरूपभाव कह्यो, तेनो कर्ता कोण?-एम विचारतां कहे छे-कर्तापणुं जेनो स्वभाव छे एवो आत्मा पोते ज पोताना ए भावनो कर्ता छे. अहाहा...! निज आत्मद्रव्यना आश्रये कर्तृशक्ति छे एम जाणी जेणे निज त्रिकाळी द्रव्य द्रष्टिमां लीधुं ते स्वयं कर्ता थईने पोताना सम्यग्दर्शन आदि भावरूपे परिणमे छे.
अहीं सिद्धरूप भाव एटले सिद्ध पर्याय एम अर्थ नथी. पण जे थवायोग्य वर्तमान निश्चित-चोक्कस वीतरागी निर्मळ पर्याय थई तेने अहीं सिद्धरूप भाव कहेल छे. साधकनी सम्यग्दर्शनथी मांडी सिद्धपद पर्यंतनी निर्मळ पर्याय जे क्रमे प्राप्त थवायोग्य थाय छे तेने अहीं सिद्धरूप भाव कह्यो छे. ते सिद्धरूप भावना कर्तापणामय आत्मानी कर्तृशक्ति छे. वर्तमान निर्मळ रत्नत्रय ते थवापणारूप-भवनरूप भाव छे, ने ते भवनरूप भावमां तन्मय थईने, तेनो भावक थईने, आत्मा पोते तेने भावे छे एवी तेनी कर्तृशक्ति छे. ल्यो, हवे आमां व्यवहार रत्नत्रयथी निश्चय थाय एम कयां रह्युं? भाई! व्यवहारना-विकल्पना आलंबन वगर ज निजशक्तिथी कर्ता थईने स्वाधीनपणे आत्मा पोताना निर्मळ निर्मळ भावोरूप परिणमे छे. अहा! एकेक शक्तिना वर्णनमां गजबनी वात करी छे.
बहेनना वचनामृतमां सादी भाषामां बहु सारी वात आवी छेः “जागतो जीव ऊभो छे, ते कयां जाय? जरूर प्राप्त थाय” ल्यो, भाषा सादी, ने भाव सरस, जाणे अमृत. ‘जागतो जीव’ एटले जाग्रत चैतन्य ज्योतिस्वरूप एक ज्ञायकस्वभावी आत्मा; ‘ऊभो छे’-एटले के ते त्रिकाळ ध्रुव अस्तिपणे छे. अहाहा...! एक ज्ञायकभावस्वरूप भगवान आत्मा छे ते त्रिकाळ टकवापणे-होवापणे ध्रुव छे, ने तेमां नजर करतां ते अवश्य प्राप्त थाय छे, अर्थात् तेनां श्रद्धान-ज्ञान-आचरण अवश्य प्रगट थाय छे. अहा! धर्मीने जे आत्मानां ज्ञान-श्रद्धान- आचरणरूप कर्म प्रगट थयुं तेनो कर्ता कोण? तो कहे छे-धर्मी (-आत्मा) पोते ज कर्तापणुं ग्रहण करीने निर्मळ ज्ञान-श्रद्धान-आचरणरूप निज कर्मने प्रगट करे छे; तेने कोई अन्य भिन्न कारकोनी गरज नथी. समजाय छे कांई...?
अहा! आत्मानी आ कर्तृशक्ति एवी छे के पोताना श्रद्धान-ज्ञान आदि निर्मळ कार्यना कर्ता पोते ज थाय छे;
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तेने कोई बीजानी अपेक्षा नथी. अहा! शुं भगवाननो दिव्यध्वनि एना ज्ञाननो कर्ता छे? ना. केवळी-श्रुतकेवळीनी समीपे ज क्षायिक समकित थाय एवो नियम छे. ए तो बराबर छे, पण शुं केवळी-श्रुतकेवळी एना (-आत्माना) क्षायिक समकितना कर्ता छे? ना. भाई, भगवाननी दिव्यध्वनि अने केवळी-श्रुतकेवळी बहारमां निमित्त हो, पण ते एना (धर्मीना) ज्ञान-श्रद्धानना कर्ता नथी. ए तो आत्मा पोते ज पोताना स्वभावथी तेरूपे-ज्ञान-श्रद्धानरूपे परिणम्यो छे, एटले आत्मानुं ज ते कर्म छे, ने आत्मा ज तेनो कर्ता छे, तेने कोई बीजानी अपेक्षा नथी; केमके वस्तुनी शक्तिओ बीजानी अपेक्षा राखती नथी.
अहाहा...! आत्मा प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप प्रभु जाग्रतस्वभावी-एक ज्ञायकस्वभावी भगवान छे. तेमां एक कर्तृशक्ति भरी छे. आ कर्तृशक्तिनुं बीजा अनंत गुणमां रूप छे. शुं कीधुं? ज्ञान, श्रद्धा, आनंद इत्यादि अनंत गुणमां कर्तृशक्तिनुं रूप छे. तेथी एक ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि करतां ते पोतानी वर्तमान ज्ञान-श्रद्धान आदिरूप निर्मळ पर्यायना भावनो भावक नाम कर्ता थाय छे. ज्ञानगुणनी निर्मळ पर्याय प्रगट थाय ते थवायोग्य सिद्धरूपभाव छे. ज्ञानना ते निर्मळ भावनुं ज्ञान कर्ता छे, शास्त्रो के श्रुतना विकल्पो ज्ञानभावना कर्ता नथी. तेवी रीते श्रद्धागुणनी निर्मळ पर्याय-समकित थाय तेनो श्रद्धागुण कर्ता छे, नवतत्त्वना विकल्प तेना कर्ता नथी; अने चारित्र-सम्यक्चारित्र प्रगट थाय तेनो चारित्रगुण कर्ता छे, व्रतादिना विकल्प तेना कर्ता नथी. अहा! आ रीते पोतानी निर्मळ पर्यायोने प्राप्त थई-पहोंचीने, तेमां तन्मय थईने आत्मा ज तेना कर्तापणे परिणमे छे. ते निर्मळ भावोनो भावक आत्मा ज छे, बीजुं कोई नहि, देव-गुरु-शास्त्र नहि, व्यवहारना विकल्प नहि ने कर्म पण नहि. आवी वात! समजाणुं कांई...?
अहा! निज ज्ञायकस्वभावनी अंतरमां जेने प्रतीति वर्ते छे ते साधकने निर्मळ ज्ञान-श्रद्धान अने वीतरागता इत्यादि निर्मळ परिणमनरूप कर्म प्रगट छे; ते सिद्धरूप भाव छे. अहा! ते भावनो कर्ता कोण? -के ते भावमां तन्मय थईने परिणमे ते कर्ता छे. अहा! ते-रूप जे थाय ते कर्ता छे; पण अतन्मय-जुदो रहे ते कर्ता नथी, तेने कर्ता कहेवो ए तो उपचारमात्र आरोपित कथन छे. अहाहा...! कर्तानुं इष्ट एवुं जे सम्यग्दर्शनादि निर्मळ कर्म ते कर्तानुं कार्य छे, ने धर्मी-साधक तेनो कर्ता छे. कर्ता-कर्म-करण इत्यादि बधुं ज आत्मामां समाय छे भाई! आत्मा एकलो ज पोते छए कारकपणे थाय छे. बहारमां जड कर्मनो अभाव थयो माटे निर्मळ पर्याय प्रगट थई छे एम छे ज नहि. समजाणुं कांई...?
अहाहा...! प्रभु! तारी ऋद्धि तो जो, तारी समृद्धिनी संपदा तो जो. ज्ञान, दर्शन, आनंद, प्रभुता, स्वच्छता- एम अनंत गुण-समृद्धिनी संपदा तारामां भरी छे. एमां एक कर्तृशक्तिरूप गुण छे. अहा! आ कर्तृत्व गुण द्रव्य- अने अनंत गुणमां व्यापक छे. आत्माना सर्व गुणमां कर्तृत्व गुण व्यापक छे; सर्वगुणमां कर्तृत्वगुणनुं रूप छे. तेथी ज्ञानादि सर्व गुण कर्तापणे थईने पोतानी निर्मळ पर्यायने करे छे. अहा! आ कर्तृत्व गुणना कारणे ज्ञानगुणनी निर्मळ पर्यायनी प्राप्ति थाय छे. वर्तमान मति-श्रुतज्ञाननी प्राप्ति कर्तृशक्तिना कारणे छे. ज्ञानमां कर्तृगुणनुं रूप छे ने! पछी क्रमे केवळज्ञाननी प्राप्ति थाय ते पण कर्तृशक्तिना कारणे छे. तेवी रीते दर्शन नामनो जे गुण छे तेनी चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन के केवळदर्शन-जे पर्याय थाय ते सिद्धरूप वर्तमान भाव छे, ने ते भावनी भावक कर्तृशक्ति छे. छे ने अंदर? ‘थवापणारूप अने सिद्धरूप भावना भावकपणामयी कर्तृशक्ति? भाई, आ तो अंदर छे एनी विशेष व्याख्या छे. ओहो...? आमां केटलुं समाडी दीधुं छे! एमके जडकर्मनो क्षयोपशम के क्षय थयो माटे अहीं दर्शननी निर्मळ पर्याय प्रगट थई छे एम नथी. दर्शनावरणीय कर्मना क्षयना कारणे केवळदर्शननी पर्याय थई छे एम नथी. हो, निमित्त हो, पण ते (उपादानमां) कांई करतुं नथी.
जयपुर (खानिया)मां विद्वानो वच्चे तत्त्वचर्चा थयेली त्यारे शंकापक्ष तरफथी आ वात रजु थयेलीः एम के-“चार घातिकर्मोना नाशथी केवळज्ञान प्रगट थयुं छे.” तत्त्वार्थसूत्रमां आ सूत्र छे. पण एनो अर्थ शुं? आ तो निमित्तनुं कथन छे. बाकी चार घातिकर्मनो नाश थईने तो परमाणुओनी अकर्म दशा थई छे, तेमां एनाथी आत्मामां शुं थयुं छे? भाई, आत्मानी केवळज्ञाननी पर्याय ते ते समये थवापणारूप ने सिद्धरूपभाव छे, ने ते भावना भावकमयी कर्तृशक्ति छे.
आत्मामां एक दृशिशक्ति छे. चितिशक्तिमां ज्ञान अने दृशि-एम बन्ने शक्ति आवी गई. अहीं कहे छे- दृशिशक्तिनी पर्यायनी कर्ता दृशिशक्ति छे. दरेक गुणनी वर्तमान पर्याय प्राप्त छे तेमां कर्तृशक्तिनुं रूप छे. ते कर्तापणे उत्पन्न थाय छे. सत्नी स्थिति ज आवी छे भाई!
जीवमां एक जीवनशक्ति छे. जीवनुं निर्मळ चैतन्यजीवन प्रगट थाय तेनो कर्ता आ जीवनशक्ति छे. भाई, देह,
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इन्द्रियो के आयु इत्यादिना कारणे जीवनुं ‘जीवन’ -चैतन्यजीवन छे एम नथी, देहादि तेना कर्ता नथी. ए तो अज्ञानी हुं देहादि वडे जीवुं छुं एम माने छे, पण वास्तवमां तो ए एनुं मरण-भावमरण छे. जेमां जीवनशक्ति व्यापे ते जीवनुं जीवन छे.
आत्मामां एक आनंदशक्ति छे. जेम ज्ञान आत्मानो स्वभाव छे तेम आनंद आत्मानो स्वभाव छे. वर्तमानमां जे अतीन्द्रिय आनंदनी अनुभूतिरूप कार्य प्रगट थाय तेनो कर्ता आनंद गुण छे. तेमां कर्तृशक्तिनुं रूप छे ने! कोईने थाय के आ बधुं केटलुं याद राखवुं? अरे भाई, बीजे वेपार आदि संसारी कामोमां तो खूब बधुं याद राखे छे. अहीं मूढता बतावे छे. तेथी नक्की छे के तारी रुचि आमां नथी. पण भाई, आ तो असाधारण भागवत कथा छे. आ समयसार तो जैनधर्मनुं महा भागवत छे. आ ज साचुं भागवत छे; केमके भगवाननुं कहेलुं छे, ने भगवान थवानुं बतावे छे. अहा! आ तो महायत्न करीने पण समजवा जेवी चीज छे भाई! आने समजवा महा पुरुषार्थ, अनंत-अनंत पुरुषार्थ करवो जोईए.
अहा! ए पुरुषार्थनी पर्याय कयांथी प्रगटशे? वीर्यशक्तिमांथी वर्तमान पुरुषार्थनी पर्यायनो कर्ता वीर्यशक्ति छे. वर्तमान जागृत पुरुषार्थमां वीर्यशक्ति तन्मय छे. अहा! आवो यथार्थ निर्णय करे तेनुं वीर्य पराश्रय छोडी स्वाश्रये प्रवर्ते छे, अने पोताना निर्मळ निर्मळ भावो रचवामां उपयुक्त थाय छे. समजाय एटलुं समजो बापु! बाकी आमां तो अपार ऊंडी वातु छे. अहाहा...! एकेक गुणमां अनंत गुणनुं रूप ने अनंत गुणमां एकेक गुणनुं रूप छे. अलौकिक वात छे प्रभु!
‘सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः’-आवुं तत्त्वार्थसूत्रमां सूत्र छे. सम्यग्दर्शननी पर्याय जे प्राप्त थाय ते प्राप्त थवानो तेनो काळ छे. अहा! ते भावनो कर्ता कोण? श्रद्धा गुणमां कर्तृशक्तिनुं रूप छे तेथी ते तेनो कर्ता थाय छे. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी पर्याय जे उत्पन्न थई ते सिद्धरूप भाव छे, ने ते भावना भावकपणामयी कर्तृशक्ति छे. ‘भावक’ शब्द पडयो छे. भावना भावकपणामय एटले भावना कर्तापणामय ते गुण छे. आवो मार्ग सूक्ष्म छे. अरे, लोकोए स्थूळ रागमां मार्ग मनावी दीधो छे. एम के व्रत करो, तप करो, उपवास करो-एम बधे राग करवानी प्ररूपणा चाले छे. कोई दशलक्षण पर्वमां दस उपवास करे तो माने-मनावे के-ओहोहो..! भारे धर्मात्मा, घणो धर्म कर्यो. पण बापु! उपवास एटले शुं? उप नाम समीप, ने वास एटले रहेवुं; आत्मानी समीप- आश्रयमां रहेवुं ते उपवास छे. ज्ञायकभावनी निर्मळ परिणति प्रगटे तेनुं नाम उपवास छे. बाकी बधो तो अपवास नाम माठो वास-दुर्गतिनो वास छे. हवे वाते वाते फेर छे त्यां बीजा साथे मेळ केवी रीते करवो?
अहाहा...! आत्मामां अनंत गुण छे. प्रत्येक गुण असहाय छे. कोई गुणने कोईनी (कोई अन्यनी) सहाय नथी. वळी कोई गुण बीजा गुणनी सहायथी छे एम नथी, तेम ज एक गुणनी पर्याय बीजा गुणनी सहायथी थाय छे एमेय नथी. एक गुणमां बीजा गुणनुं निमित्तपणुं हो, केमके एक गुण ज्यां व्यापक छे त्यां बीजा अनंत गुण व्यापक छे, पण कोई गुणना कार्यनो कोई बीजो गुण कर्ता नथी. सर्वत्र निमित्तनुं आवुं ज स्वरूप छे. हवे आम छे त्यां (कार्य) व्यवहारथी थाय ने निमित्तथी थाय ए कयां रह्युं? कयांय उडी गयुं.
भाई, तारा आत्मद्रव्यना कर्ता कोई इश्वर नथी. तारा गुणना कर्ता पण कोई इश्वर नथी, तारा प्रत्येक गुणनी पर्याय थाय तेनो कर्ता कोई बीजा गुणनी पर्याय नथी. अहा! द्रव्य-गुण पोते ज पोताना कार्यना कर्तापणाना सामर्थ्ययुक्त इश्वर छे. अहो! आचार्यदेवे कर्तृ आदि शक्तिओनुं कोई अद्भुत वर्णन कर्युं छे. आवी वात बीजे कयांय नथी. समजाणुं कांई...?
प्रभु! तुं जागती ज्योत, ऊभो छो ने? अहाहा...! जागती ज्योतनो थंभ-ध्रुवस्थंभ छो ने! तेना पर नजर करवी ते तारुं कार्य छे. ध्रुवनी नजरे ज सिद्धि छे भाई! जेम कोई मोटो माणस घरे आवे ते वखते तेनो सत्कार, आदरमान करवाने बदले कोई घरना नाना बाळक साथे रमत करवा मंडी जाय तो ते मोटो माणस एनो उपेक्षाभाव जाणीने चाल्यो जाय. तेम अंदर जागती ज्योत भगवान ज्ञायकदेव ऊभो छे, तेना उपर नजर न करे, तेनो सत्कार, आदरमान न करे, अने राग ने पुण्यरूपी बाळक साथे रमतुं मांडे तो भगवान ज्ञायक चाल्यो जाय, अर्थात् तारी चीज तने प्राप्त न थाय. भाई, पुण्य-पापमां रोकाई रहेवुं ए तो बाळक बुद्धि छे.
आ शरीर तो जड माटी-धूळ छे, ने पुण्य-पापना विकारी भाव दुःख ने दुःखरूप छे. तेमां भगवान ज्ञायक नथी. अंदर भिन्न जागती ज्योत-चैतन्य ज्योत प्रकाशे छे ते भगवान ज्ञायक छे. भाई, तेनी द्रष्टि कर, तेमां नजर करी
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त्यां ज रमवानुं जोर आप, तेनुं ज ध्यान कर. तेथी तने निर्मळ रत्नत्रय प्रगटशे, अद्भुत अपूर्व आल्हाद थशे. अहा! ते अपूर्व आनंदनी दशा थाय तेनो कर्ता आनंद गुण छे. आनंद गुण द्रवीने आनंदनी दशारूप थाय छे. आम दरेक गुणमां षट्कारकनुं परिणमन होवाथी ते ते गुणनी पर्यायनो कर्ता ते ते गुण छे. खरेखर तो पर्यायनो कर्ता पर्याय ज छे, पण अहीं ए वात नथी. अहीं तो व्याप्यमां व्यापक थईने परिणमे छे कोण?-एम लेवुं छे. तेथी गुणनी पर्याय थाय तेनो कर्ता गुण छे, ने अभेदथी द्रव्य छे. अहा! आ कर्तृत्व गुण द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे छे, पण कोने? द्रव्यद्रष्टिमां तेनो स्वीकार करे तेने; तेने समये समये निर्मळ निर्मळ पर्यायो थया करे छे.
भाई! सत् शुं? सत्नुं स्वरूप शुं? -हवे एनुं यथार्थ ज्ञान थया विना सत् केवी रीते प्राप्त थाय? भावभासनमां तो पोतानी चीज आववी जोईए ने? अहीं कहे छे-थवापणारूप अने सिद्धरूप भाव तेना भावकपणामयी कर्तृशक्ति छे. सिद्धरूप भाव एटले ते समये थवायोग्य जे निश्चित निर्मळ भाव प्राप्त थाय ते; ते समयनुं प्राप्य. समयसारनी गाथा ७६-७७-७८मां प्राप्य, विकार्य अने निर्वृत्य-एवा त्रण बोल आवे छे. प्राप्य एटले ते समये जे थवायोग्य नियत भाव छे तेने प्राप्त करे छे एनुं नाम प्राप्य. अहा! आमां तो समये समये थवायोग्य क्रमबद्ध पर्याय थाय छे ते, अने तेनुं कर्तापणुं पण सिद्ध कर्युं छे. भाई, सत् बहु सूक्ष्म छे, तेने यथार्थ समजवुं जोईए.
दरेक गुणमां कर्तृत्व गुणनुं रूप छे. ते कारणे प्रत्येक गुण कर्ता थईने पोतानी निर्मळ पर्यायने करे छे, बीजो गुण तेनो कर्ता नथी. आनंद गुणनी पर्याय प्रगटी तेने कर्तृत्व गुणनी पर्याय करती नथी. अहाहा...! एक पर्यायमां एक गुण कर्ता, अने एकेक पर्यायमां ते पर्याय पोते कर्ता. एकेक गुणनी एकेक पर्यायमां षट्कारक, ने एकेक पर्यायमां पर पर्याय नहि-आम अनंती पर्यायमां सप्तभंगी लगाववी. पोतानी पर्यायथी पोतानी पर्याय, ते पर्याय बीजी अनंती पर्यायना कारणे नथी-एम अनंत सप्तभंगी लगाववी. ल्यो, आवी जैन परमेश्वरना घरनी वातनो लोको समज्या विना ज विरोध करे छे. भाई, जरा धीरजथी सांभळे तो तने विरोधनुं कारण रहेशे नहि. आ तो तारा हितनी वात छे बापु!
जुओने! द्रव्य स्वतंत्र, गुण स्वतंत्र, विकारना अभावरूप पर्याय स्वतंत्र छे. पण आ तो निश्चय छे, एकांत छे -एम कहीने एने टाळी दे छे. अरे प्रभु! एकांत छे, पण आ सम्यक् एकान्त छे.. भाई, एकान्तना पण बे प्रकार छेः सम्यक् एकान्त, अने मिथ्या एकान्त. अनेकान्त पण सम्यक् अने मिथ्या एम बे प्रकारनुं छे. पोतानी पर्याय पोताथी छे, ने रागथीय छे-ए मिथ्या अनेकान्त छे. पोतानी पर्याय पोताथी छे, ने परथी-रागथी नथी-आ सम्यक् अनेकान्त छे. अरेरे! आ जिंदगी चाली जाय छे भाई! करवानां कार्य न करे, अने न करवायोग्य पुण्य- पापमां रोकाई जाय ए तो बाळवृत्ति छे भाई!
पण आखी दुनिया तो एम करे छे? आखी दुनिया तो उंधे रस्ते छे, अने तेने देखीने पोते पण उंधे रस्ते जाय एमां शुं विवेक छे? दुनिया तो दुःखी छे, ने दुःखी रहेशे, माटे दुनियानुं लक्ष छोडी, तारा आत्मानुं लक्ष कर; आनंदनो समुद्र तारो आत्मा छे; तेनुं लक्ष करतां पोते ज आनंदरूप थईने तेने आनंद आपे एवा सामर्थ्यवाळो ते छे. समजाणुं कांई...?
अहा! आत्मानी क्रिया तो ज्ञाताद्रष्टापणे जाणवुं ते छे, अने तेनो आत्मा कर्ता छे. पण मलिनता-विकारना परिणामनो आत्मा कर्ता नथी. वास्तवमां विकाररूप थवाना उपरमस्वरूप-निवृत्तस्वरूप भगवान आत्मानो अकर्तृत्व स्वभाव छे. (जुओ २१मी अकर्तृत्वशक्ति) विकार आत्मा नहि, ने विकारने करे तेय आत्मा नहि; केमके विकारना करवारूप आत्मानो कोई गुण नथी. समजाय छे कांई...? अहा! शुद्ध चैतन्यपरिणति छोडीने, बीजा कोई परभावोनुं-व्यवहार रत्नत्रयादिनुं पण-भगवान आत्माने कर्तृत्व नथी, अकर्तृत्व ज छे, ज्ञातापणुं ज छे. ज्ञानी व्यवहार रत्नत्रयना रागने मात्र जाणे ज छे बस. अहा! आवुं धर्मनुं स्वरूप छे.
प्रश्नः– अनंत शक्तिमान आत्मा छे. तो ते जनहितनां कार्यो तो करे ने? उत्तरः– अरे भाई, अनंत शक्तिमान आत्मा छे ए तो साचुं, पण तेनी अनंत शक्तिओनुं कार्य आत्मामां ज समाय छे, बहारमां ते विस्तरतुं ज नथी. आत्मा बहारमां कांई करे एवी कोई एनी शक्ति ज नथी. लोकना एक परमाणुने पण करे एवुं आत्मानुं सामर्थ्य नथी. बेमां अत्यंताभाव होवाथी, परमां कांईपण करवानुं आत्मानुं सामर्थ्य ज नथी तो पछी ते जनहितनां कार्यो केवी रीते करे? हुं परनां-जनहितनां कार्य करुं छुं एवी मान्यता तो घेलछा ने मूढपणुं सिवाय कांई ज नथी. समजाणुं कांई...?
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आ तो अमृतचंद्रदेवे एकलां अमृत पीरस्यां छे भाई. अमृतस्वरूप अनंत शक्तिवान निज द्रव्यने जाणी तेनी द्रष्टि-ज्ञान-रमणता करवां ते करवायोग्य कार्य छे, अने ते परम हित छे.
आ प्रमाणे अहीं कर्तृशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
‘भवता (-वर्तता, थता) भावना भवनना (-थवाना) साधकतमपणामयी (-उत्कृष्ट साधकपणामयी, उग्र साधनपणामयी) करणशक्ति’.
आत्मा पोते कर्ता थईने पोताना सम्यग्दर्शन आदि निर्मळ कार्यने करे छे; ए तो ठीक, पण एनुं साधन शुं? एम के कर्ता कया साधनवडे पोतानुं कार्य साधे छे? ल्यो, आना समाधानरूप कहे छे-
‘भवता भावना भवनना साधकतमपणामयी करणशक्ति छे.’ आत्मानी आ शक्ति वडे आत्मा पोते ज पोताना निर्मळ भावनुं साधकतम साधन थाय छे. ‘भवता भावना भवनना...’ , भवतो भाव एटले शुं? के वर्तमान वर्ततो निर्मळ भाव, वर्तमान सम्यग्दर्शन आदि निर्मळ भाव ते भवतो भाव छे, ते कार्य छे; ते कार्य थवानुं उत्कृष्ट साधन आत्मा पोते ज छे. अहाहा...! साधकने वर्तमान सम्यग्दर्शनादि निर्मळ कार्य वर्ते छे तेनुं साधकतम साधन साधकनो आत्मा पोते ज छे. ‘साधकतम’ केम कह्युं?-के नियमरूप अबाधित साधन आ (-आत्मा) एक ज छे. गजब वात भाई! व्यवहार रत्नत्रय ते साधन नथी, ने अन्य पदार्थ पण कोई साधन नथी-एम अहीं कहे छे. समजाणुं कांई...?
अहाहा...! आत्मा ज्ञायक प्रभु गुणी-स्वभाववान छे, ने ज्ञानादि तेना गुण छे. तेना गुणने अहीं शक्ति कहे छे. गुण कहो, शक्ति कहो के स्वभाव कहो-बधी एक ज वस्तु छे. आत्मामां अनंत शक्तिओ छे. अहाहा...! अनंत शक्तिओनो अभेद एक पिंड प्रभु आत्मा छे. अहा! आ अभेद एकरूपनी द्रष्टि करवाथी धर्मनुं प्रथम पगथियुं एवुं सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. जुओ आ धर्मनी शरुआतनुं कार्य! हा, पण तेनुं साधन शुं? व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादि एनुं साधन खरुं के नहि? तो कहे छे-ना, ए कोई साधन नथी, केमके एनाथी धर्म थवानो नियम नथी. करणशक्ति वडे आत्मा पोते ज तेनुं साधकतम साधन थई सम्यग्दर्शनरूप परिणमे छे. आत्मामां ज तेनुं नियमरूप साधन थवानी शक्ति छे. आवी वात!
हवे आवुं कदी सांभळ्युं न होय तेने आ एकदम कठण पडे. एम के दया करवी, व्रत पाळवां, भक्ति-पूजा करवी, जात्रा करवी-एनाथी ज अमे तो धर्म थवानुं मानीए छीए, ने आ ते केवो धर्म काढयो?
अरे भाई, तने धर्मना स्वरूपनी खबर नथी. धर्म तो एने कहीए जेमां राग रहित अंदर पोतानी त्रिकाळी चीज छे तेनी द्रष्टि अने आलंबन होय, जेमां अनाकुळ आनंदना वेदनवाळी स्वानुभवनी वीतरागी दशा होय. अहाहा...! भेदना पक्षथी रहित थईने पोतानी अभेद एकरूप चिन्मात्र वस्तु अंदर छे तेनी द्रष्टि करवाथी धर्मनुं प्रथम चरण एवुं सम्यग्दर्शन उत्पन्न थाय छे. आ सिवाय तारुं बधुं ज थोथां छे बापु! तने गमे न गमे, आ भगवान आत्मानी भागवत-स्वरूप कथा छे; सर्वज्ञ वीतराग जैन परमेश्वरे धर्मसभामां कहेली आ आत्मानी धर्मकथा छे. प्रभु! एक वार मन दईने धीरजथी सांभळ. तारी चीजमां वर्तमान थवायोग्य जे निर्मळ धर्मना परिणाम थाय तेना साधकतमपणामयी तारामां करणशक्ति छे. ओहो...! धर्मने साधनारा धर्मना स्थंभ एवा वीतरागी संतो-मुनिवरो भगवान केवळीना आडतिया थईने आ वात जगतने जाहेर करे छे.
भाई, आमां कांई आडुं-अवळुं करवा जाय तो कांई हाथ आवे एम नथी. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना परिणाम ते भवतो भाव छे. तेना भवनना उत्कृष्ट-एकमात्र निर्बाध-साधनरूप आत्मामां करणशक्ति छे. जुओ आ साधन!
प्रश्नः– हा, ए तो निश्चय अभिन्न साधन कह्युं; पण शास्त्रमां भिन्न साधन-साध्य पण कह्युं छे. उत्तरः– भाई, त्यां ए तो बाह्य निमित्तनुं ज्ञान कराव्युं छे. रागनी मंदतारूप व्यवहार रत्नत्रय ते साधन अने निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्ध रत्नत्रय ते साध्य-एम कह्युं छे ए तो बाह्य व्यवहारनुं ज्ञान कराववा माटे
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कह्युं छे. ए आरोपित उपचारनुं कथन छे. देव-गुरु-शास्त्रने समकितनुं कारण-साधन कह्युं होय तेय उपचारमात्र निमित्तनुं कथन जाणवुं. अंदर निजात्मानुं साधन जेने वर्ते छे एवा धर्मीना व्यवहार रत्नत्रयने ने देव-गुरु-शास्त्रने सहचर वा निमित्त जाणी उपचारथी साधन कहेवामां आवे छे. बाकी करण-साधनगुण वडे पोतानो आत्मा ज पोताना समकित आदि निर्मळ भावोनुं वास्तविक साधन छे. निर्मळ परिणत निज शुद्धात्मा ज परमार्थ साधन छे, बाह्य निमित्तो ने भेदरूप व्यवहार कोई सत्यार्थ साधन नथी, ज्यां साधन कह्यां होय त्यां उपचारमात्रथी कह्यां छे एम समजवुं, अने मूळ अंतरंग साधनना अभावमां तेने उपचार पण लागु पडतो नथी एम यथार्थ जाणवुं. अहा! आवो वीतरागनो मारग, भाख्यो श्री भगवान!
आ समयसार शास्त्रमां गाथा ३प६ थी ३६प नी टीकामां आचार्यदेवे प्रश्न मूकयो छे के-‘अहीं स्व- स्वामीरूप अंशोना व्यवहारथी शुं साध्य छे?’ तेना उत्तररूपे कह्युं के-‘कांई साध्य नथी.’ हवे अंदरना गुण-गुणीरूप भेदना सूक्ष्म व्यवहारथी कांई साध्य नथी तो पछी व्रत, तप आदि व्यवहार रत्नत्रयनो स्थूळ राग साधन कयांथी थाय? भाई, स्वभावनुं आलंबन ज साधकतम साधन छे, आ सिवाय व्यवहारथी के निमित्तथी कांई ज साध्य नथी.
अहाहा...! अनंत वार एनो जैन कुळमां जन्म थयो. साक्षात् त्रणलोकना नाथ अरिहंतदेवना समोसरणमां पण अनंत वार गयो, ने भगवाननी दिव्य वाणी पण सांभळी. वळी वनवास जई, दिगंबर नग्न मुनि-द्रव्यलिंगी थईने दुर्द्धर व्रत, तप आदर्यां; पंचमहाव्रत पाळ्यां-अहाहा...! ‘वह साधन बार अनंत कियो’-अनंत वार एणे आवां साधन ग्रह्यां, पण बधुं ज फोगट गयुं. कारण? कारण के आ बाह्य साधन नियमरूप साधन नथी. साधनशक्तिमय निज चैतन्यस्वरूप आत्मा ज समकित आदि साध्यनुं साधन छे. माटे ते एकनी ज द्रष्टि कर, ते एकनुं ज आलंबन कर. तारुं साध्य अने साधन तारामां ज-एक शुद्धात्मामां ज समाय छे. समजाणुं कांई...!
जिंदगी एळे जाय छे भाई! अरे! एने साची वात कदी सांभळवा मळी नथी. अहीं कहे छे-भवना अभावना कारणरूप जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी निर्मळ पर्यायो तेनुं कारण शुद्ध आत्मद्रव्यना आश्रयभूत साधनशक्ति छे. धर्मीने वच्चे व्यवहार रत्नत्रय आवे छे अवश्य, पण ते साधन नथी. वास्तवमां ए तो हेय तत्त्व छे. आकरी वात प्रभु! पण आ सत्य वात छे. उपादेय तत्त्व निज शुद्धात्मा छे. अहाहा...! साधन गुणनो धरनारो गुणी, पंचम पारिणामिकभाव-एक ज्ञायकभाव जेनो स्वभाव भाव छे, अहाहा...! एवो नित्यानंदनो नाथ प्रभु निज शुद्धात्मा छे; तेनो आश्रय करवाथी, तेनी साधनशक्ति परिणमतां, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निर्मळ भावोनुं भवन थाय छे. प्रभु! तारा धर्मनुं जे वीतरागी कार्य तेनुं साधन व्यवहारनो राग नथी, केमके तेने ते पहोंचतो नथी; वीतरागी कार्यने राग पहोंचतो नथी, स्पर्शतो नथी, अनंतगुणमहिमावान शुद्ध आत्मद्रव्य ज तारा सिद्धरूप भावोनुं साधन छे; केमके ते भावोमां आत्मा तन्मय छे. अहाहा...! सर्वज्ञ परमेश्वरे आत्माने केवो देख्यो? कहे छे-
निज सत्ताए शुद्ध, सहुने पेखता हो लाल.
अहाहा...! सर्व जगतने देखनार प्रभु! आप ज्ञायक छो. आत्मानुं निज सत्ताथी ज होवापणुं शुद्ध, पवित्र छे एम आपे ज्ञानमां जोयुं छे. परवस्तु शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय, कर्म, नोकर्मने भगवान! आपे अजीवपणे देख्यां छे; हिंसा, जूठ, चोरी, विषयवासना इत्यादिने आपे पापरूपे देख्यां छे; ने दया, दान, व्रत, तप, शील इत्यादि भावने आपे पुण्य तरीके देख्यां छे. निज होवापणुं तो प्रभु, आप शुद्ध देखो छो. ल्यो, व्रत, तप आदि पुण्यभावोने आत्माना होवापणे भगवान देखता नथी, पछी ते साधन छे ए वात कयां रही?
अरे, आखी जिंदगी पैसा आदि धूळमां सुख मानीने वीतावे छे. परमात्मा कहे छे-जे कोई पर चीजने मागे-वांछे छे ते मोटो भिखारी छे. पोतानी चीज पूर्णानंदनो नाथ प्रभु अनंतशक्ति संपन्न अंदर विराजे छे तेनी समीप जई सुख मेळवतो नथी, ने बहारनी चीजमां-देहमां, धनमां, स्त्री आदिमां-सुख माटे झावां नाखे छे तो महा दरिद्री-भिखारी छे.
पण ए अबजोपति छे ने? अबजोपति होय तोय ए धूळनो धणी धूळपति छे, ने तीव्र तृष्णाथी माग माग करनारो मोटो मागण- भिखारी छे; वळी ते मूर्ख पण छे, केमके भाई, ए धूळमां जरीये सुख नथी, बलके एनी तृष्णामां आकुळतानो भंडार छे, दुःखनो
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दरियो छे. छतां अज्ञानथी तेमां सुख मानी रह्यो छे. अरे, तारुं सुख तो अंदर सुखनो समुद्र भगवान आत्मा छे तेमां छे. आत्मामां सुख अने साधन-एवी शक्तिओ पडी छे. अहा! सुखनुं साधन थईने पोताने सुखनी प्राप्ति कराववी ते करणशक्तिनुं कार्य छे. भाई, अंतर्मुख द्रष्टि करी अंदर जो तो खरो, तुं न्याल थई जाय एवां सुखनां निधान देखाशे.
अहाहा...! चैतन्यगुणरत्नाकर प्रभु आत्मा छे. तेमां एक करण नाम साधन गुण छे. ज्ञानादि बीजा अनंत गुणमां आ साधन गुणनुं रूप छे. शुं कीधुं? आत्मामां ज्ञान वगेरे गुण छे तेमां साधन गुणनुं रूप छे. ज्ञानगुणमां साधन गुण छे एम नहि, पण तेमां साधन गुणनुं रूप छे. बीजी रीते कहीए तो ज्ञानगुण पोते ज साधनरूप थईने पोताना सम्यग्ज्ञान परिणामने साधे एवुं एनुं स्वरूप छे. आवी वात! अरे, पोताना घरमां शुं भर्युं छे एनी जीवे कदी संभाळ करी नथी. जेने अंतरमां जिज्ञासा जागी छे तेने साधन बतावतां आचार्यदेव गाथा २९४ नी टीकामां कहे छे-
“आत्मा अने बंधने द्विधा करवारूप कार्यमां कर्ता जे आत्मा तेना करण संबंधी मीमांसा करवामां आवतां, निश्चये पोताथी भिन्न करणनो अभाव होवाथी भगवती प्रज्ञा ज (-ज्ञानस्वरूप बुद्धि ज) छेदनात्मक करण छे. ते प्रज्ञा वडे तेमने छेदवामां आवतां तेओ नानापणाने अवश्य पामे छे; माटे प्रज्ञा वडे ज आत्मा अने बंधनुं द्विधा करवुं छे. (अर्थात् प्रज्ञारूपी करण वडे ज आत्मा ने बंध जुदा कराय छे.)”
जुओ आ साधन! अहाहा...! स्वानुभवमां अंतःस्पर्श करीने आचार्य भगवान कहे छे-भगवती प्रज्ञा ज- स्वाभिमुख ढळेली ज्ञाननी दशा ज-छेदनात्मक करण छे. प्रज्ञारूपी साधन वडे ज आत्मा अने बंध जुदा कराय छे. ल्यो, आम कर्तानुं साधन पोतामां ज छे, कर्ता पोते ज छे. ‘पोताथी भिन्न करणनो अभाव होवाथी’ -एम कहीने आचार्यदेवे आ महा सिद्धांत स्थापित कर्यो छे. माटे हे भाई! तारा साधननी अंदर चैतन्यना तळमां उंडा उतरीने तारामां ज तपास कर; बीजे शोध मा. जेओ साधनने बहारमां शोधे छे तेओ स्थूळ बुद्धिवाळा बहिद्रष्टि छे, तेमने बीजे कयांय साधन हाथ आवतुं नथी. श्रीमद्मां आव्युं छे ने के-
जे चैतन्यना तळमां उंडा उतरीने शोध करे छे तेमने पोताना आत्मामां ज पोतानुं साधन भासे छे. अरे, पोते ज साधनरूप थईने सम्यग्दर्शनादि निर्मळ भावोने प्राप्त करे छे.
अहा! ज्ञानने सूक्ष्म करीने ज्यां अंतरमां वाळ्युं, स्वाभिमुख कर्युं त्यां भगवान आत्मानो अनुभव थाय छे. आ स्वाभिमुख ज्ञाननी दशाने भगवती प्रज्ञा कहे छे, अने आ ज स्वानुभवनुं ने मोक्षनुं साधन छे. भगवती प्रज्ञा अभेदपणे आत्मा ज छे, तेथी आत्मा ज पोते पोताना निर्मळ भावोनुं-समकितथी मांडीने सिद्धपद पर्यंतना भावोनुं-साधन छे. आ सिवाय भिन्न साधन कह्युं होय ते उपचारमात्र कह्युं छे एम जाणवुं. समजाणुं कांई...?
अरे, पोतानी शक्तिनुं अंतरमां शोधन कर्या विना, पोताना साधननुं भान कर्या विना ए चोरासीना अवतारमां रखडया करे छे. अहीं मोटो अबजोपति शेठ होय ते मूर्ख (तत्त्व मूढ) मरीने जाय हेठ कयांय नरकमां. आ बधुं-बाग-बंगलाने धन-संपत्ति-धूळधाणी बापु! नरकमां एनी पारावार वेदना-दुःखनुं शुं कहेवुं? अरे, अनंत काळ तो एनो अनंती वेदनानुं-दुःखनुं स्थान एवा निगोदमां गयो छे. भाई, तारे दुःखमुक्त थवुं होय तो अंदर तारामां एनुं साधन छे तेनो निश्चय कर. अहाहा...! पर्यायमां जे निर्मळ ज्ञान ने आनंदनुं कार्य एक पछी एक प्रगट थाय छे ते वीतरागी भवता भावनुं कारण, कहे छे, आत्मामां सदाय रहेली साधनशक्ति छे. आत्मामां अंतर्द्रष्टि करी छे ते द्रष्टिवंतने, श्रद्धा गुण वडे आत्मा पोते ज साधन थईने समकितपणे परिणमे छे, ज्ञानगुण वडे आत्मा पोते ज साधन थईने सम्यग्ज्ञानपणे परिणमे छे, ने आनंद गुण वडे आत्मा पोते ज अनाकुळ आनंदपणे परिणमे छे. आम साधन गुणनुं सर्व गुणमां रूप होवाथी सर्व गुणोमां पोतपोतानी पर्यायोनुं साधन थवानुं सामर्थ्य होय छे. बधा गुण-पर्यायो अभेद आत्मामां ज समाता होवाथी आत्मा ज साधन-साध्य छे. (भेद तो समजवा माटे छे). अरे, आ वातनो अत्यारे बहु लोप थई गयो छे. उंचा पद धरावनारा पण व्रत करो, तप करो, भक्ति करो... , ने तमारुं कल्याण थई जशे-एवी प्ररूपणा करे छे; पण भाई, शुभभाव करतां करतां शुद्धतां थशे एवी प्ररूपणा सम्यक् नथी, केमके शुभराग कोई शुद्धतानुं साधन नथी.
आ शेठियाओ मोटा मोटा बंगला बंधावे; कोण बंधावे? ए तो कथन छे. पछी बंगलानुं वास्तु ले त्यारे मोटो उत्सव उजवे छे; पण ए तो परघर बापु! तारुं घर नहि भगवान! तारा स्वघरमां तो चैतन्यनी अनंत शक्तिओ भरी
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छे. अहा! ते निज घरनुं-निज चैतन्यधामनुं तारे वास्तु लेवुं होय तो तारा अभेद स्वद्रव्यनी द्रष्टि करवी पडशे; निमित्तनी नहि, पर्यायनी नहि, रागनी नहि ने गुणभेदनीय नहि. ध्रुव स्वभाव एक ज्ञायकभाव स्वद्रव्य छे, एनी द्रष्टि करवाथी स्वघरनुं-अनंत सुखधामनुं वास्तु थाय छे. आवी वात!
हवे कयांक आवी तत्त्वनी वात सांभळवा मळे नहि, ने पैसा रळवामां ने बैरां-छोकरां साचववामां ने विषय-कषायना भोगमां-एम ने एम जिंदगी बिचारानी चाली जाय! मांड कोईक दि’ कलाक-बे कलाक कदाच सांभळवानो वखत मळे तो कुगुरु बिचाराने लूंटी ले. वाणिया एम तो बीजे न छेतराय, पण अहीं धर्ममां छेतराई जाय छे. दान करो, भक्ति करो, सम्मेदशिखर ने शत्रुंज्यनी जात्रा करो-बस, पछी शुं छे? आ ज धर्म-अहा! आवो उपदेश मळे ने वाणिया छेतराई जाय. लोभिया खरा ने! बधे ज सस्तु शोधे. जेम सस्ता फळ लावे, ने पछी बगडेलां-सडेलां ने खाटां नीकळे एटले फेंकी देवां पडे; एम अहीं शुभभावमां सस्तो मार्ग शोधी लावे पण मोंघो पडी जाय, केमके एमां कयांय धर्म नथी. बिचारा धर्मना नामे छेतराई जाय! त्यारे कोई वळी कहे छे-
पण सम्मेदशिखरनी यात्रानो तो बहु महिमा कर्यो छे. कह्युं छे के-
अरे भाई, शुभभावथी पुण्य बंधाता एक वार कदाच नरक-पशुगति न मळी तो तेमां शुं फायदो थयो? स्वर्गनुं आयुष्य पूरुं करीने अज्ञानवश पशु थशे अने पछी नरके जशे. अरे भाई, तने पुण्यनुं फळ देखाय छे, पण अज्ञाननुं ने मिथ्याभावनुं फळ नथी देखातुं. बापु! मिथ्याभावनुं फळ परंपराए निगोद छे भाई! ज्यां सुधी आत्मज्ञान नथी, स्वभावनुं साधन नथी, स्वरूपनां प्रतीति ने विश्वास नथी तो क्रियाकांडना आलंबने एकाद भव स्वर्गनो मळी जाय, पण पछी तिर्यंच थईने नरक के निगोदमां जीव चाल्यो जशे; तेने भवनो अभाव नहि थाय. भवना अभावनुं साधन तो स्वभावना आलंबनथी ज प्रगट थाय छे.
अहा! साधकने वर्तमान निर्मळ वीतरागी भावना भवननुं कारण आत्मानी करणशक्ति छे. प्रश्नः– हा, पण ते उत्कृष्ट साधन कह्युं छे; पण जघन्य साधन बीजुं कांई छे के नहि? दया, दान, व्रत आदि शुभभाव थाय ते जघन्य साधन छे के नहीं?
उत्तरः– ना, शुभभाव साधन नथी. ए तो धर्मीने बहारमां निमित्तरूप ने सहचर केवो शुभभाव होय छे तेनुं ज्ञान कराववा एना ते शुभभावने आरोप दईने उपचारथी साधन कह्युं छे, पण ते नियमरूप साधन नथी, ते साधन ज नथी. उत्कृष्ट साधन एटले एकमात्र नियमरूप साधन-एवो अर्थ थाय छे. समजाणुं कांई...? भवना छेदरूप साधकनुं खरुं साधन एकमात्र आत्मस्थित निर्मळ परिणत साधनशक्ति छे. आवी वात छे.
आमां थोडा शब्दे घणी बधी वात करी छे. अनंतगुणधाम प्रभु आत्मामां एक चारित्र गुण छे. ते चारित्र स्वभावमां करण-साधन शक्तिनुं रूप छे; जेथी वीतरागी पर्यायनुं कारण ते चारित्र गुण थाय छे, अर्थात् चारित्र गुण वडे आत्मा पोते ज साधन थईने चारित्रनी वीतरागी दशारूप परिणमे छे. ओहो...! चारित्रनी अकषाय वीतरागी परिणति संत-मुनिवरोने होय छे ने? तेनुं साधकतम साधन अंदर चारित्र परिणत आत्मा छे. आ मुनिवरोने तेमनी दशामां प्रचुर आनंदनुं वेदन होय छे. सम्यग्दर्शनमां आनंदनुं वेदन छे, पण प्रचुर आनंदनुं वेदन नथी. वीतरागी निर्ग्रंथ दिगंबर संत-मुनिवरने प्रचुर आनंदनुं वेदन होय छे. जुओ, वस्त्र सहित होय ते कोई साधु नथी; तेम ज खाली व्रत, तपनां साधन करे ते साधु नथी, कारण के ए तो बधो राग छे ने ए बंधननुं कारण छे.
भाई, त्रणलोकना नाथ केवळी परमात्मा ए कहेली वात अहीं संतो आडतिया तरीके जाहेर करे छे. जन्म- मरण मटाडवाना बीजरूप सम्यग्दर्शन छे. अहो! सम्यग्दर्शननो महिमा अपार छे. धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे. तेथी सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं ते धर्म नाम चारित्रनो उपाय छे. चारित्रदशा जेने प्रगट थाय तेने बहारमां देहनी नग्न दशा थई जाय छे. बहारमां देहथी नग्न अने अंदर रागथी नग्न-एवी वीतरागी संत मुनिवरनी चारित्र दशा होय छे. तेने वच्चे पंच महाव्रतनो विकल्प आवे छे, पण ते कांई चारित्र नथी, चारित्रनुं साधनेय नथी. अहाहा...! अंदर स्वस्वरूपमां प्रचुर आनंदपूर्ण रमणता होय ते चारित्र छे. ते चारित्रनुं साधन शुं? पंच महाव्रत ने पंच समितिनो विकल्प ते साधन छे? ना, ते साधन नथी. चारित्रगुणमां करणशक्तिनुं रूप छे, जेथी आत्मामां निजस्वभाव साधन वडे वीतरागी चारित्र पर्यायनुं भवन थाय छे. आवो मारग छे भाई! वस्त्र सहित कोई मारग नथी, ने व्रतादिना रागने साधन माने
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तेय मारग नथी; ए तो उन्मार्ग छे.
आत्माना आनंदना भोगनुं कारण बहारनी चीज नथी. स्त्रीना शरीरनो के गुलाब जांबुनो भोक्ता आत्मा नथी; परंतु ते पदार्थोना भोग काळे आने जे राग थाय छे ते रागनो ते भोक्ता छे, पण ते आकुळतानो भोग छे. हवे जेने अनाकुळ आनंदनो भोगवटो छे तेना आनंदनुं कारण नाम साधन कोण? अहा! अनाकुळ आनंदनो भोग करवो होय तो तेना साधननी शोध अवश्य करवी जोईशे. अहीं कहे छे-तारा आनंदनुं साधन अनंत शक्तिवान एवो तुं ज छो. अहाहा...! तारा आत्मामां एक साधनशक्ति त्रिकाळ पडी छे, तेथी शक्तिवानने शोधवाथी, तेमां अंतर्मुख द्रष्टि करवाथी, तारो आत्मा ज तने अनाकुळ आनंदनुं साधन थईने अनाकुळ आनंदनो भोग आपे छे. माटे सहजानंदी निजानंदी प्रभु आत्माने ज साधन जाणीने तेमां अंतर्मुख था. समजाय छे कांई...? अहा! अनाकुळ आनंदनुं वेदन तेनुं नाम धर्म छे.
अहाहा...! आत्मामां अपरिमित अनंत शक्तिओ छे. तेनी एकेक शक्ति अनंत गुणमां व्यापक छे. ए रीते प्रत्येक गुणमां आ साधनशक्ति व्यापक छे. तेथी अनंतगुणनिधान निज आत्मद्रव्य-ध्रुव त्रिकाळीनो आश्रय करतां शक्तिओ वडे आत्मा स्वयं साधनरूप थईने पोतानी निर्मळ पर्यायोने उत्पन्न करे छे. ल्यो, आ छे समकितथी मांडीने पंच परमपद पर्यंतनां स्थानोनी सिद्धिना साधननुं रहस्य. हवे जैनमां जन्मीने पण लोको ‘णमो अरिहंताणं’ इत्यादि पंच परमेष्ठीना जाप जपे, पण एनी सिद्धिनुं साधन शुं? एनो विचार सुद्धां ना करे. अरे भाई, नमस्कार मंत्रना जाप तो एणे अनंत वार कर्या छे. पण एथी शुं लाभ? ए तो शुभराग छे, एमां पंच परमपदरूप धर्म कय ांथी आवे? पंच परमपदरूप धर्मदशाना कारणरूप-साधनरूप तो अंदर साधनस्वभावमय आत्मा छे. माटे जापना विकल्पना आश्रयथी खसी, भगवान आत्माना आश्रयमां जा, एम करतां तारो आत्मा ज निज स्वभाव-साधन वडे पंच परमपदरूप थई तने साध्यनी सिद्धि करावशे-देशे. आ सिवाय बीजी कोई रीते साध्यनी सिद्धि नथी. आचार्यदेव स्वयं कळशमां कहे छे-
न खलु न खलु यस्मादन्यथा साध्यसिद्धिः।।
अहा! आत्मानो आ स्वभाव ज एवो छे के तेने साधन बनावीने अनंता जीवोए सिद्धपद साध्युं छे, अने स्वभावना साधन वडे ज अनंता जीव सिद्धपदने साधशे. निज स्वभाव सिवाय बहारमां-निमित्तमां ने रागमां साधन शोधनाराने तो संसारनी ज सिद्धि थशे, अर्थात् ते संसारमां ज रखडशे.
भाई, साधकने पोतानो आत्मस्वभाव ज प्रतिसमय निर्मळतानुं साधन थाय छे. आत्मामां साधनशक्ति तो त्रिकाळ छे. पण पोते स्वसन्मुख थई निज स्वभावसाधनने ग्रहे तो ने? स्वसन्मुख थईने स्वभाव-साधनने ग्रहे तो समकित सहित साधकदशा अवश्य प्रगट थाय छे. अहा! त्रिकाळी द्रव्यने साधनपणे ग्रहतां ज ज्ञानादि अनंत गुणो पोतपोतानी निर्मळ पर्यायो रूप परिणमी जाय छे. प्रवचनसार गाथा २१नी टीकामां कह्युं छे के-केवळीभगवान “स्वयमेव समस्त आवरणना क्षयनी क्षणे ज, अनादि अनंत, अहेतुक अने असाधारण ज्ञानस्वभावने ज कारणपणे ग्रहवाथी तुरत ज प्रगटता केवळज्ञानोपयोगरूप थईने परिणमे छे..” जुओ, आमां केटली स्पष्ट वात छे! केवळज्ञाननुं साधन बीजुं कोई छे ज नहि, पोतानो ज्ञानस्वभाव ज केवळज्ञाननुं साधन छे. आवी रीते श्रद्धा, आनंद आदि बधी ज शक्तिओना परिणमनमां समजी लेवुं.
भाई, आ तो तारा घरमां पुंजी छे तेनी वात चाले छे. अहाहा...! तारी पुंजीमां अनंत गुण-स्वभाव छे. तेमां एक करण-साधन स्वभाव छे जे वडे प्रत्येक गुणनुं समये समये निर्मळ निर्मळ कार्य थाय तेनुं आत्मा साधन थाय छे. त्यारे कोई कहे छे-
हा, पण आ तो निश्चयनी वात छे. भाई, तुं एने निश्चय... निश्चयनी वात छे एम कही अवगणना करे, पण निश्चय एटले सत्य वात छे, ने व्यवहार तो उपचार छे. श्री मोक्षमार्ग प्रकाशकना सातमा अधिकारमां निश्चय-व्यवहारनुं स्वरूप समजाव्युं छे. त्यां कह्युं छे-“जिनमार्गमां कोई ठेकाणे तो निश्चयनयनी मुख्यता सहित व्याख्यान छे तेने तो ‘सत्यार्थ एम ज छे’ एम जाणवुं तथा कोई ठेकाणे व्यवहारनयनी मुख्यता सहित व्याख्यान छे तेने ‘एम नथी पण निमित्तादिनी अपेक्षाए आ उपचार कर्यो छे’ एम जाणवुं. अने ए प्रमाणे जाणवानुं नाम ज बन्ने नयोनुं ग्रहण छे पण बन्ने नयोना व्याख्यानने समान
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सत्यार्थ जाणी, ‘आ प्रमाणे पण छे तथा आ प्रमाणे पण छे’ एवा भ्रमरूप प्रवर्तवाथी तो बन्ने नयो ग्रहण करवा कह्या नथी.” अहाहा...! पंडितप्रवर टोडरमलजीए. केटली बधी स्पष्टता करी छे! पण अरे, जीवे भगवाननो मार्ग रुचि लावीने सांभळ्यो नथी; बस एम ने एम व्रतादिने साधन मानी हांके ज राखे छे. पण बापु!
जुओ, आमां शुं कहे छे? ‘सुख लेश न पायो’-एनो अर्थ ए थयो के ए परिणाम दुःख छे. पंच महाव्रत पाळ्यां एनाथी लेश सुख ना थयुं, दुःख थयुं. अहा! अज्ञानीने बहारनुं चारित्र (द्रव्य चारित्र) दुःखनुं साधन थाय छे. भाई, तेने आ आकरुं पडे छे, पणआसत्य छे. अहाहा...! चारित्र कोने कहीए? जेमां अंदर प्रचुर आनंदनी ल्हेर उठे. तेनुं नाम चारित्र छे अने आत्म स्वभाव ज तेनुं साचुं साधन छे. व्रतादिने साधन कह्यां छे ए तो उपचारथी छे, मतलब के एम नथी. धर्मी तो एने हेय जाणे छे, ने अज्ञानी तेने उपादेय जाणे छे. बन्नेमां आवडो मोटो फेर छे. आवी गजब वात छे भाई!
पात्र समजनार होय तेने आ कहेवाय छे. पोतानी पात्रता न होय तेने साक्षात् केवळीनी वाणी पण शुं करे? पात्रता पोताथी प्रगट थाय छे, परथी नहि. अहाहा...! आ पात्रता शुं चीज छे? के जेनाथी सम्यग्दर्शन पामे तेने पात्रता कहीए. अहो! सम्यग्दर्शननी साथे सिद्धपद जोडायेलुं छे. मतलब के जेने स्वभावना आश्रये सम्यग्दर्शनरूपी बीज उगी तेने ते ज स्वभावना साधन वडे सिद्धपदरूपी पूनम थशे ज थशे. अहो! आवो निज स्वभाव-साधननो अलौकिक महिमा छे. समजाय छे कांई...?
अरेरे! संसारी प्राणीओ अत्यंत दुःखी छे. मोटो राजा होय, ने मरीने नरकमां चाल्यो जाय. अहा! तीव्र हिंसादि पापना भाव करी जीव नरकमां जाय छे. २प वर्षना युवान राजकुमारने जमशेदपुरनी लोढा गाळवानी भठ्ठीमां जीवतो नाखे ने जे दुःख थाय तेनाथी अनंतगणी उष्णतानुं दुःख पहेली नरकमां छे. भाई, आवा आवा भव तें अनंत वार कर्या छे. तारुं दुःख देखनारने पण रूदन आव्यां छे. अरेरे! तारा मृत्यु पाछळ तारी माताना रूदनना आंसुना एक एक बुंदना संग्रहथी दरियाना दरिया-अनंत दरिया भराय एटलां मरण तें कर्या छे. बहु गंभीर वात छे भाई! अहा! जेने संसारना परिभ्रमणनो थाक लाग्यो एवो कोई जीव पात्र थईने स्वद्रव्य सन्मुख थई स्वभावना ग्रहण वडे समकित प्रगट करी ले छे. अहा! ते धर्मी जीव विशेष वैराग्य पामीने स्वरूपनी रमणता करवा एकलो ज जंगलमां चाल्यो जाय; कोई साथे नहि, कोई आहार देनार नहि, कोई शरीरनी रक्षा करनार नहि, कोई वैद्य साथे नहि; अहाहा...! अंदर एकत्वना आलंबनमां रही अंतरना आनंदनी लहेर करवा एकांत जंगलमां चाल्यो जाय. मुनि थता पहेलां माता पासे रजा मागे-माता, रजा आप; माता रडे तो कहे-एक वार रूदन करी ले, हवे हुं कोल आपुं छुं के फरी बीजी माता नहि करुं. स्वभावना उग्र आलंबनमां रही चारित्रनी उग्र साधना करीश. आजे ज चारित्रना आनंदनी दशाने हुं अंगीकार करवा मागुं छुं. रजा आप. ल्यो, अत्यारे तो आवी वातेय सांभळवा मळे नहि. पण जन्म-मरणना रोग मटाडवानी आ ज दवा छे. आत्मानो आश्रय लेवो ए ज औषध छे.
गुरु आज्ञा सम पथ्य नहि, औषध विचार ध्यान.
निमित्त साधन, ने राग साधन-एवी भ्रांति समान कोई रोग नथी. मिथ्यात्व महा रोग छे. सत्ने जाणनारा गुरुनी आ आज्ञा छे के स्वद्रव्यना आश्रयमां जतां धर्म थशे; तारो स्वभाव ज तारा धर्मनुं साधन छे. विचार अने ध्यान ते औषधि छे. स्वरूपनी एकाग्रतारूप ध्यान ते औषध छे. आ सिवाय बहारनां औषध बधां धूळ धाणी छे, उपाय नथी.
आ प्रमाणे अहीं करणशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
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‘पोताथी देवामां आवतो जे भाव तेना उपेयपणामयी (-तेने मेळववाना योग्यपणामय, तेने लेवाना पात्रपणामय) संप्रदानशक्ति.’
अहा! आचार्य भगवाने भिन्न भिन्न प्रकारे शक्तिओनुं अद्भुत वर्णन कर्युं छे. अहाहा...! अनंत शक्तिनो भंडार प्रभु आत्मा छे. आ एक ज्ञायकस्वभावी चिन्मात्र वस्तु आत्मा अनंत शक्तिओनो भंडार छे. हवे पोते शुं चीज छे एनी खबरेय न मळे, अने एने धर्म थई जाय एम कदी बने नहि. अहीं कहे छे-तेमां (-आत्मामां) एक संप्रदान-शक्ति छे. केवी छे आ शक्ति? तो कहे छे-‘पोताथी देवामां आवतो जे भाव तेना उपेयपणामयी आ संप्रदानशक्ति छे.’ शुं कीधुं? निज चैतन्य वस्तुना आश्रये स्वभाव साधन वडे जे सम्यग्दर्शन आदि निर्मळ भाव थयो ते ‘पोताथी देवामां आवतो’ भाव छे, अने तेना उपेयपणामयी संप्रदानशक्ति छे, अर्थात् ते भाव पोते ज पात्र थईने पोताने माटे ले छे, राखे छे. आवी वात! समजाणुं कांई...? कोई बीजाए-निमित्ते के शुभरागे-ते भाव दीधो छे एम नहि, ने ते भाव कयांय बीजे गयो छे एम पण नहि. पोतामां उत्पन्न थयेलो भाव पोते पोताने दीधो, ने पोते ज पोता माटे ते लीधो-आवी आत्मानी संप्रदानशक्ति छे.
लक्ष्मी देनार ते दाता, अने लेनार ते सुपात्र-अन्य दातार अने अन्य पात्र-एम वात छे ज नहि; केमके एवी वस्तु नाम आत्मा नथी. भाई, बीजी चीज देवी अने लेवी ते आत्मानी शक्ति नथी. अहीं तो कहे छे- आत्मानो एवो संप्रदान स्वभाव छे के जे वडे निज स्वरूपनी द्रष्टि थतां ज्ञाननी वर्तमान जे निर्मळ पर्याय प्रगट थई ते निर्मळ पर्यायनो आत्मा पोते दाता छे, ने पोतानी पर्यायने लेनारो पोते ज पात्र छे-बन्ने एक समयमां छे. सम्यग्ज्ञाननो दाता आत्मा पोते छे, वीतराग भगवान के तेमनी वाणी के तेमनां भक्ति-विनयरूप प्रवर्तन ते सम्यग्ज्ञानना दाता नथी. अहा! आत्मा बीजाने कांई दे एवी आत्मानी कोई शक्ति ज नथी. अहाहा...! आ अलौकिक वात छे, एने लौकिक साथे कोई मेळ नथी.
अहाहा...! धर्मीने सम्यग्ज्ञाननी पर्याय स्व-आश्रये प्रगट थई तेनो दाता कोण? तेने लेनारो पात्र कोण? तो कहे छे-सम्यग्ज्ञानमय भगवान आत्मा छे. तेमां एक संप्रदानशक्ति छे. ते द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. तेथी स्व-आश्रये जे ज्ञाननी निर्मळ पर्याय प्रगट थई ते पोते दाता छे, अने ते ज समये लेवानी पात्रता पण ते ज पर्यायमां पोतानी छे.
जुओ, त्रणलोकना नाथ श्री तीर्थंकरदेव छद्मस्थ मुनिदशामां होय ने घरे आहार माटे आवे तो धर्मीनुं हृदय अंदर आनंदथी उछळी जाय, अहो, साक्षात् मोक्षनुं कल्पतरु मारे आंगणे फळ्युं!-एम तेना रोमरोम आनंदथी उल्लसी जाय छे. ते अपार भक्तिथी मुनिराजने आहारदान दे छे. पण बन्नेना अंतरमां शुं छे? एम के आहारना रजकणनो देनार-लेनार अमारो भगवान ज्ञायक नथी; अने भगवान ज्ञायकमां कोई शक्ति नथी के आहारदानना शुभभावने दे अने ले. अहाहा...! अंदर ज्ञाननी, अनाकुळ आनंदनी जे निर्मळ परिणति प्रगट थई छे ते ज दाननी दातार छे, ने ते ज दाननी लेनारी पात्र छे. देनार दाता पण ते पर्याय अने लेनार पात्र पण ते ज पर्याय. जुओ आ धर्मीनी अंतर्द्रष्टि!
सूक्ष्म वात छे प्रभु! धर्मीने वर्तमान प्रगट थयेली सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञाननी पर्याय, अनाकुळ आनंदनी ने शांतिनी पर्याय, सम्यक् वीर्यनी पर्याय-ते निर्मळ पर्याय पोताथी देवामां आवतो भाव छे, ने तेने लेवाना पात्रपणामय पण ते निर्मळ पर्याय छे. अभेदथी कहेतां आत्मा पोते पोताने पोतानी निर्मळ पर्यायनुं दान आपे छे, अने पोते ज तेने लेवाना पात्रपणामय छे. आवो पोतानो संप्रदान स्वभाव छे. एक ज समयमां दाता अने पात्र बन्ने पोते ज छे. अहा! धर्मी अंतर्द्रष्टि वडे प्रतिक्षण पोताना स्वभावमांथी प्राप्त निर्मळ पर्यायनुं दान दे छे, ने पोते ज तेना पात्रमय थईने ते ले छे. जुओ आ दान! आनुं नाम धर्म छे. बाकी आहारनो देनारो-लेनारो पोताने माने ए तो मूढ छे, मिथ्याद्रष्टि छे.
अहा! सम्यग्दर्शननो विषय अनंतगुणनिधान प्रभु आत्मा छे. ज्यां ते विषय द्रष्टिमां आव्यो, अहाहा...! पूर्णानंदनो नाथ पोते छे एनी ज्यां द्रष्टि थई त्यां तेना सम्यक् श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. आ सम्यग्दर्शननी पर्याय ते पोताथी देवामां आवतो भाव छे. शुं कीधुं? पोते ज पोताने सम्यग्दर्शननो दाता छे, ने पोते ज पात्रपणे तेनो लेनारो छे.
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हवे आमां केटलाक कहे छे के गुरु समकितना दातार छे, अने केवळी-श्रुतकेवळीनी समीपमां क्षायिक समकित थाय छे.
अरे भाई, ए तो बधां निमित्तनां कथन छे बापु! पोते अंतरंगमां निज स्वभावना साधन वडे समकित प्रगट करे त्यारे बहारमां निमित्त केवां होय छे तेनुं ज्ञान कराववा माटे आवां कथन होय छे ते उपचारमात्र जाणवां. बाकी कोई, कोई बीजाने समकित आपे अने ले एवुं समकितनुं स्वरूप नथी, अने वस्तुस्वरूप पण एवुं नथी. समजाणुं कांई...?
प्रभु! तारी चीजमां शुं खामी छे के तारे बीजा पासेथी लेवुं छे? भगवान! तुं पूर्ण छो ने! पूर्ण विज्ञानघन छो ने! पूर्ण आनंदघन छो ने! अहाहा...!
प्रभु मेरे! तूं सब वाते पूरा...
परकी आश कहा करे प्रीतम!
ए किण वाते अधूरा–प्रभु मेरे...
ओहो...! धर्मी कहे छे-मारो आत्मा स्वयमेव अचिंत्य शक्तिवाळो देव छे. तेने ध्यावतां ज केवळज्ञान आदि आपे एवो ते चैतन्यचिंतामणि छे. आम जेना सर्व अर्थ सिद्ध छे एवो पोते ज होवाथी मने बीजानी शुं आशा छे? मने बीजी चीजथी शुं काम छे? (जुओ कळश १४४) अहीं कहे छे-केवळज्ञाननी पर्याय जे प्रगटी तेनो पोते ज दातार छे, ने पोते ज तेनो पात्रपणे लेनारो छे. समजाय छे कांई...? अंदर शाश्वत चैतन्यदेव विराजे छे, तेने सेवतां सहेजे समकितथी मांडीने सिद्धपदनां ए दान आपे छे. माटे पराश्रय छोडी, भाई, तारी चैतन्यवस्तुनुं सेवन कर.
अरे, अनंत काळथी रखडवा आडे एने सत्य समजवानी फुरसद नथी! अनंत काळमां शुभ-अशुभ भाव तो एणे अनंतवार कर्या छे. पण ए तो विभाव नाम विपरीत भाव छे. ते विभावनी पर्याय पर्यायद्रष्टि जीवने पर्यायना षट्कारकथी स्वतंत्र उत्पन्न थाय छे. अहाहा...! परना कारक विना, ने द्रव्य-गुणनी अपेक्षा विना पर्यायना पोताना षट्कारकथी विभावनी दशा स्वतंत्र अद्धरथी ज उभी थाय छे. अहा! आ विभावनी दशाने देवी के लेवी ए अज्ञानीनी चेष्टा हो, पण एवो कोई गुण आत्मामां नथी. गजब वात छे भाई! कहे छे के-शुभभाव थवो, देवो अने तेने पोतामां राखवो एवो कोई गुण आत्मामां छे ज नहि.
भाई, तारा खजाने खोट नथी नाथ! तारा खजाने तो अनंत अनंत शक्तिओनी ऋद्धि पडी छे ने! तुं बहारमां कयां शोधवा जाय छे? बहार तुं भटके छे ए तोसंसार छे. चाहे अशुभभाव होय के शुभभाव होय-ए बन्नेय संसार छे, दुःखनो दावानल छे. तारी शांतिने बाळवा सिवाय तने ए कांई आपे एम नथी.
अहाहा...! अनंत गुणसमृद्धिथी भरेलो चैतन्यचिंतामणि प्रभु आत्मा छे. तेनो एक संप्रदान गुण छे. ते द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. ते आनंद गुणमां व्यापक छे. जेथी धर्मीने आनंदनी जे निराकुळ दशा प्रगट थई तेनुं पोते ज पोताने दान करे छे, ने पोते ज पात्र थई तेने ले छे. जुओ आ धर्मीनुं दान! धर्मीने तो निरंतर अतीन्द्रिय आनंदनो आहार छे ने? अहा! ते अतीन्द्रिय आनंदरूप आहारनुं दान पोते पोताने आपे छे, ने पोते पोताना माटे सुपात्रपणे ले छे. अहा! आ धर्म छे जेमां दातार-दान-दाननुं पात्र-बधुं एक अभेद आत्मामां समाय छे. पोते प्रगट आनंदनो दातार, पोतानी प्रगट आनंद दशा ते दान, ने तेने लेनारो-पोताने माटे राखनारो-पोते ज पात्र. एक समयमां दातार पण पोते, दान पण पोते ने पात्र पण पोते. अहो! आत्मा अद्भुत अलौकिक चीज छे.
चक्रवर्तीने घरे वाघरण होय तेने मागवानी टेव छूटे नहि. गोखलामां रोटलो मूकीने मागे के-‘बटकु रोटलो आपजो बा.’ अने ते रोटलो ले त्यारे तेने मन वळे. तेम जीव अंदरमां चैतन्य चक्रवर्ती प्रभु विराजे छे. अज्ञानी तेने भूलीने शुभाशुभ भाव करीने सुख लेवा मागे छे. मने पुण्य होय तो ठीक, बहारना वैभव होय तो ठीक-एम बहारमां भीख मागे छे ते रांका-भिखारी छे. तेने बीजा पासे सुख मागवानी टेव पडी गई छे. पोते अंदर चैतन्यबादशाह छे, पण तेने रागनो-पुण्यनो गुलाम बनावी दीधो छे. तेने पोतानो महिमा भासतो नथी. अहाहा...! अंदर त्रणलोकनो नाथ चैतन्यचक्रवर्ती विराजे छे तेनो महिमा तेने शुभभावना महिमा आडे भासतो नथी. पण भाई रे, तने बहारमां कोई सुख आपे एम नथी. तुं अंदर जो तो खरो, अहाहा...! अंदर एकलो सुखनो दरियो भर्यो छे.
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अहा! जेणे पोताना स्वभावनी द्रष्टि करी तेने तेनी पर्यायमां सुख प्रगट थाय छे. आत्मामां सुख नामनो गुण छे ने! अहाहा...! अंदर एकलो सुखनो समुद्र छे. तेमां द्रष्टि करतां सुख पर्याय प्रगट थई ते पोता द्वारा पोताने देवामां आवे छे, अने पोते ते सुखनी पर्यायने लेवानी पात्रतामय छे तेथी लेनार पण पोते छे. बहारमां कोईनी सहाय नहि, अपेक्षा नहि. भाई, विषयोमांथी सुख आवे छे एम तुं माने छे ए केवळ भ्रम छे. जो विषयो सुख आपे अने तने ते पहोंचे एम होय तो तने पराधीनता आवे, ने पराधीनने सुख केवुं? पराधीनने स्वप्ने पण सुख न होय. स्वाधीनपणे आत्मा पोते ज पोताना सुखनो दातार छे, ने पोते ज पात्र थईने लेनार छे. आवी ज वस्तु-व्यवस्था छे.
समयसारनी ७२मी गाथामां आत्माने भगवान कहीने बोलाव्यो छे. आनंदनी दशामां लीन मुनिराज कहे छे-सांभळ भगवान! तारी पर्यायमां पामरता छे, वस्तुमां पामरता नथी. वस्तुमां अनंती प्रभुता भरी छे. अहाहा...! एकेक शक्ति पूर्ण प्रभुताथी भरी छे. ज्ञाननी पर्याय पोताथी उत्पन्न थाय छे. पोताना द्वारा ते पर्याय देवामां आवे छे, अने पोताना द्वारा ते पर्याय लेवामां आवे छे. बन्नेनो समय एक छे. देनार दाता, अने लेनार पात्र-बन्ने एक ज पर्यायमां छे. गुरु तेना दाता नथी, शास्त्र तेनुं दाता नथी. देव तेना दातार नथी. देव-गुरु-शास्त्र तो बाह्य निमित्तमात्र छे. तेमणे ज आ कह्युं छे के-तारामां अक्षय भंडार भर्यो छे, तेमां नजर कर तो न्याल थई जईश. तारी निर्मळ रत्नत्रय आदि पर्यायोनुं तुं ज दाता छो. बीजुं कोई नहि ने ते निर्मळ भाव लेवानी पात्रतामय पण तुं ज छो.
अहो...! शक्तिनो अद्भुत खजानो प्रभु आत्मा छे. अज्ञानी जीवे दया, दाननो विकल्प ते मने लाभदायी छे एम रागनी एकताबुद्धि वडे खजानाने ताळुं दीधुं छे, पण रागथी भेद करी अंतर एकाग्रता करतां ताळुं खूली जाय छे ने तत्काल खजानामां गुणरत्नो भर्यां छे ते प्रगट थाय छे. अहाहा...! ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, स्वच्छता, प्रभुता इत्यादि सर्व गुणनी निर्मळ दशा प्रगट थाय छे. अहा! ते निर्मळ भाव जे प्रगट थयो ते पोताथी देवामां आवतो भाव छे, तेनो दातार पोते छे, ते निमित्त द्वारा के राग द्वारा देवामां आवे छे एम कदीय नथी. आ अनेकान्त छे. अंदर ऊंडो विचार करे तो खबर पडे के-पूर्वनी निर्मळ पर्याय छे ते पण वर्तमान पर्यायनी दाता छे एम नथी त्यां बाह्य निमित्तादि मारा दातार-ए वात ज कयां रहे छे? सत्य तो आवुं छे भाई! आवी वात बीजे कयांय नथी, श्वेतांबरमांय नथी. आ सांभळी बीजाने दुःख थाय पण शुं करीए? बीजाने दुःख लगाडवानी आ वात नथी, आ तो सत्यनुं ज उद्घाटन छे. भाई, विपरीत द्रष्टिनुं तने दुःख छे. विपरीत द्रष्टि छोडी दे, तने महान लाभ थशे.
प्रश्नः– गुरुथी ज्ञान थतुं नथी, गुरु ज्ञानना दाता नथी एम आप वारंवार कहो छो, तो पछी धर्मी पुरुषो गुरु प्रति विनय-भक्तिरूप केम प्रवर्ते छे?
उत्तरः– गुरुथी ज्ञान थतुं नथी, गुरु ज्ञानना दाता नथी-ए तो सत्य ज छे. एवी ज वस्तुस्थिति छे. अहा! श्री गुरु आवो वस्तुस्वभाव देशनाकाळे बहु प्रसन्नताथी शिष्यने बतावे छे तो पात्र शिष्य तेने झीलीने उत्कट अंतःपुरुषार्थ प्रगट करी अंतःनिमग्न-स्वरूप निमग्न थई साधकभावना अंकुरा एवा समकितने ने आनंदने प्रगट करी ले छे. हवे तेने विकल्पकाळे श्रीगुरु प्रति बहुमान अने विनय-भक्ति अंदर हृदयमां ऊछळ्या विना रहेतां नथी. साधकदशा ज आवी होय छे. अंदर लोकोत्तर आनंदनी दशा थई तेने बहारमां देव-गुरु-शास्त्र प्रति विनय- भक्तियुक्त प्रवर्तन होय ज छे; तेनो व्यवहार पण लोकोत्तर होय छे.
कोई आवी साधकदशाने जाणे नहि, ने ‘गुरुथी ज्ञान थतुं नथी, गुरु ज्ञानना दाता नथी’-एम विचारी श्रीगुरु प्रति उपेक्षा सेवे छे ते निश्चयाभासी स्वच्छंदी छे, आनंदने झीलवानी तेनी पात्रता हजु जागी नथी. अहो! आवो निश्चय-व्यवहारना संधिपूर्वकनो कोई अद्भुत लोकोत्तर मार्ग छे. जेने गुणनी-धर्मनी प्रीति छे तेने गुणवान धर्मी प्रति आदर, प्रमोद ने प्रीतिनो भाव थया विना रहेतो नथी. अंतर्बाह्य विवेकनो आवो मारग छे भाई! समजाणुं कांई...?
चार प्रकारनुं दान निर्दोषभावथी देवुं ए शुभभाव छे. दान लेनार पात्र निर्ग्रंथ दिगंबर मुनिवर आदि छे. सम्यग्द्रष्टिने भक्तिभावे आहारादिनुं दान देवानो भाव आवे ते शुभ छे. तथापि दान देवानो शुभभाव थाय तेवो आत्मामां कोई गुण नथी. ते तो अवस्थानुं विपरीत कार्य छे. तेने शुं लेवुं-देवुं? गुणनुं कार्य तो आ छे के निर्मळ अवस्था प्रगटी ते पोते दीधी, ने पात्रपणे पोते लीधी. हवे आमां व्यवहारथी थाय ए वात कयां रही? व्रत करो, तपस्या करो, भक्ति-पूजा करो-एम अत्यारे प्ररूपणा चाले छे. तेने कहीए छीए के एनाथी धर्म कदी य नहि थाय. एवो शुभभाव आवे खरो, साधकने यथासंभव आवे ज आवे, पण ते भाव गुणनी विपरीत अवस्था छे. शुभभाव लेवा-देवानी चेष्टा
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सुपात्रपणुं नथी. शुभभाव पोतामां राखवानी चेष्टा ते सुपात्रपणुं नथी. धर्मीने शुभभाव आवे पण एने तेनाथी कांई लेवा-देवा नथी. एने तो जे गुणना कार्यरूप रत्नत्रयनी निर्मळ अवस्था थाय तेनाथी ज लेवा-देवा छे.
भाई, आ स्त्री-पुरुष-नपुंसकना देह ते तारी चीज नथी. देहना आकार ए तो जड परमाणुनी चीज छे. इन्द्रियना आकार ते जड, माटीना आकार छे. ते आकार ताराथी थया नथी. अरे, शुभभावेय ताराथी थयो नथी. पर्यायबुद्धिथी विकार पर्यायमां ऊभो थाय छे. ते कांई तारा गुणनुं कार्य नथी. गुणनुं कार्य तो अभेद एक गुणी चैतन्यद्रव्यनी द्रष्टि करतां प्रगट थाय छे, ने विकारनो तेमां अभाव ज छे. अहा! ते गुणना कार्यरूप चैतन्यनी शुद्ध परिणति ते पोताथी देवामां आवतो भाव छे, ने ते समये तेने झीलनारी पात्रता ते पण पोताना भावरूप छे. कोईने थाय आ एकांत छे, पण आ सम्यक् एकांत छे. एकांत कही विरोध करीश मा, केमके ए तारो ज विरोध अने विराधना छे.
भाई, आ जैनदर्शन तो अंतरनी चीज छे. जैनदर्शन एटले शुं? जैनदर्शन एटले वीतरागदर्शन. राग लाभदायक छे ते मान्यता वीतरागदर्शन नथी, ए जैनधर्म नथी. जैनधर्म एटले वीतरागी पर्याय, ने ते पर्याय पोताथी देवामां आवतो भाव छे. आम दाता पर्याय पोते छे, ने ते पर्यायने लेवा योग्य पात्र पण पोते ज छे. जेने द्रव्यद्रष्टि थई तेनी आ वात छे. पर्यायद्रष्टि जीवने तो संप्रदानशक्ति अने शक्तिवाननी प्रतीति ज नथी. भाई! आ कांई वादविवादथी पार पडे एवुं नथी. आ तो अंतरमां डूबकी लगावी त्यां ज रमवानी चीज छे.
अहा! रागनी घणी मंदता होय, शुकल लेश्याना भाव होय, पण एनाथी धर्म न थाय. शुकल लेश्याना भाव करीने ते अनंत वार नवमी ग्रैवेयकनो देव थयो, पण एथी शुं? शुकल लेश्या अने शुकल ध्यान बन्ने जुदी जुदी चीज छे. शुकल लेश्या तो एने अनंत वार थई छे, ने ते अभविने पण थती होय छे, ज्यारे शुकल ध्यान तो आठमा गुणस्थाने श्रेणी चढनारा भावलिंगी संत महा मुनिवरने होय छे. शास्त्रमां एवो उल्लेख छे के जीवे मनुष्यना भव अनंत कर्या छे, ने तेनाथी असंख्य गुणा अनंतभव नरकना कर्या छे. मनुष्यना एक भव सामे असंख्य भव एणे नरकना कर्या छे. तथा नरकना भव करतां असंख्य गुणा अनंतभव एणे देवना कर्या छे. आ रीते ते शुभभावना फळमां अनंत वार देवमां गयो छे. कांई पापना फळमां देवना भव न मळे. आम अनंत वार जीवे शुभभाव अने शुकल लेश्याना भाव कर्या छे, ए शुकल लेश्याना भाव तो थया ने चाल्या गया. एनाथी जड परमाणु बंधाणां, पण एमां तने शुं आव्युं? तारी दशामां शुं मलिनता छूटीने निर्मळता आवी? भवना छेदनारा भाव शुं तने प्राप्त थया? न थया. एटले तो दोलतरामजीए कह्युं के-
पै निज आतमज्ञान बिना सुख लेश न पायो.
अरे भाई, ए भवने छेदनारी शुद्ध परिणति तो स्वद्रव्यना आश्रयमां जवाथी थाय छे अने तेने अहीं पोताथी देवामां आवतो, ने तेना पात्रपणे पोताथी लेवामां आवतो भाव कह्यो छे. अहा! स्वद्रव्यनी द्रष्टि करे तेने आत्मा ज निर्मळ रत्नत्रयना भावोनो मोटो दातार थई परिणमे छे, ने आत्मा ज तेने झीलनारो महान पात्ररूपे थाय छे. माटे हे भाई! रागनी द्रष्टि छोडी, तारा द्रव्य सन्मुख द्रष्टि कर, तने ज्ञान, आनंद आदि अद्भुत निधाननां दान मळशे.
अहा! आ संप्रदानशक्तिमां स्वद्रव्य एवो निज शुद्धात्मा ज सुपात्रपणे नक्की कर्यो. शानो? के सम्यग्दर्शनथी मांडीने सिद्धपदनो. अहाहा...! ए सम्यग्दर्शनादिनो दातार पण आत्मा अने ते क्षणे तेना पात्र थईने लेनार पण आत्मा. अहा! दातारनुं आवुं सुपात्रदान! अहो! आत्मानां अतीन्द्रिय आनंदनां अलौकिक दान! आनाथी ऊंचुं जगतमां कोई दान नथी. धर्मीने चार दान कह्यां ए तो व्यवहारथी समजवा योग्य छे. समजाणुं कांई...?
भाई, तने व्यवहारनो-शुभभावनो पक्ष छे पण ए तो अज्ञानभाव छे. एनां दान न होय प्रभु! ए दान नहि, एनो आत्मा दातार नहि, ने एनुं सुपात्र पण आत्मा नहि. ए तो पर्यायमां अद्धरथी उत्पन्न थतो भाव छे, आत्मा तेनो मालिक ज नथी त्यां दान-दातार-पात्रनी स्थिति ज कयां रहे छे?
समयसारनी ११मी गाथाना भावार्थमां कह्युं छेः “प्राणीओने भेदरूप व्यवहारनो पक्ष तो अनादि काळथी ज छे. अने एनो उपदेश पण बहुधा सर्व प्राणीओ परस्पर करे छे. वळी जिनवाणीमां व्यवहारनो उपदेश शुद्धनयनो हस्तावलंब जाणी बहु कर्यो छे; पण एनुं फळ संसार ज छे” ल्यो, आ व्यवहारना पक्षनुं फळ! अहीं तो संसारने छेदवानी-मटाडवानी वात छे. व्यवहारभाव देवो-लेवो ते