Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). 45 ApadanShakti; 46 AdhikaranShakti; 47 SambandhShakti; Kalash: 264-265.

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एनुं स्वरूप नथी. जीवमां एवो कोई गुण नथी के ते व्यवहारने करे, पोताने दे अने पोतामां राखे.

श्रीमद् राजचंद्रजीए एक जग्याए कह्युं छे के-“सम्यग्द्रष्टि धर्मनुं पात्र छे.” जुओ आ पात्र! उत्तम वस्तुनुं दान झीलवानुं पात्र पण उत्तम होय छे. जेम सिंहणनुं दूध सोनाना पात्रमां ज रहे छे, तेम उत्तम एवां रत्नत्रयने झीलवानुं पात्र उत्तम एवो सम्यग्द्रष्टि जीव ज होय छे. अज्ञानी तेनुं पात्र नथी. अहा! आत्मामां ज एवी उत्तम पात्रशक्ति (संप्रदानशक्ति) छे के पोते परिणमीने पोताना अतीन्द्रिय आनंदने पोतामां झीले छे. गुणनी अवस्थानी योग्यता ते पात्र अने गुणनी ते अवस्था ज दाता छे. आ सर्वज्ञदेवनी वाणीमां आवेली वात छे. जेणे द्रव्य स्वभावनो आश्रय लीधो, तेने सम्यग्दर्शननी पर्याय प्रगट थई, ते पर्याय पोताथी देवामां आवे छे तेथी दाता छे, अने तेने लेवाने योग्य पात्रता पण ए ज पर्यायमां होवाथी ते सुपात्र छे. अने ते समये दान पण ते पर्याय पोते ज छे. आवो अंतरनो मारग अद्भुत छे.

आ प्रमाणे अहीं संप्रदानशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.

४पः अपादानशक्ति

‘उत्पाद-व्ययथी आलिंगित भावनो अपाय (-हानि, नाश) थवाथी हानि नहि पामता एवा ध्रुवपणामयी अपादानशक्ति.’

आ समयसारनो शक्तिनो अधिकार चाले छे. द्रव्य एक, अने तेनी शक्ति एटले गुणो अनेक-अनंत छे. तेमांथी अहीं ४७ शक्तिओनुं आचार्य भगवाने वर्णन कर्युं छे. अत्यारे अहीं अपादानशक्तिनी वात करवी छे.

कहे छे-‘उत्पाद-व्ययथी आलिंगित भावनो अपाय थवाथी हानि नहि पामता एवा ध्रुवपणामयी अपादानशक्ति छे.’ अहा! उत्पाद-व्ययरूप भावो एटले पर्यायो क्षणिक छे, तेनो समये समये नाश थई जाय छे, छतां भगवान आत्मा त्रिकाळी चैतन्यवस्तु ध्रुवपणे रहे छे, नाश पामतो नथी. ध्रुव आत्मस्वभाव तो एवो ने एवो त्रिकाळ टकी रहे छे. आ ध्रुव टकता भावमांथी ज नवुं नवुं कार्य ऊपजे छे. आ रीते ध्रुवपणे टकीने नवुं नवुं कार्य करवानी आत्मानी अपादानशक्ति छे. अहा! पोतानी आवी शक्ति जाणी जे कोई एक ध्रुवस्वभावने अवलंबे छे तेने समये समये निर्मळ निर्मळ कार्य थाय छे.

आ शक्ति बधामां प्रधान छे. पं. श्री दीपचंदजीए आ शक्तिनां बहु वखाण कर्यां छे. ध्रुव अने क्षणिक एम बे प्रकारे उपादान छे. जे त्रिकाळी गुण छे ते ध्रुव उपादान छे, उत्पाद-व्ययथी आलिंगित भाव ते क्षणिक उपादान छे. चिद्दविलासमां अष्टसहस्त्रीनो आधार आपी कह्युं छेः “द्रव्यनो त्यक्त स्वभाव तो परिणाम(रूप) व्यतिरेक स्वभाव छे अने अत्यक्त स्वभाव गुणरूप अन्वय स्वभाव छे. ते गुण तो पूर्वे हता ते ज रहे छे, परिणाम अपूर्व अपूर्व थाय छे. आ द्रव्यनुं उपादान छे ते परिणामने तो तजे छे पण गुणने सर्वथा तजतुं नथी; तेथी परिणाम क्षणिक उपादान छे अने गुण शाश्वत उपादान छे. वस्तु उपादानथी सिद्ध छे.”

वर्तमान जे निर्मळ पर्याय छे ते उत्पाद-व्ययथी आलिंगित भाव छे. ते पर्याय उत्पन्न थईने बीजे समये छूटी जाय छे तेथी तेने क्षणिक उपादान कहे छे. सम्यग्दर्शननी प्रगटती पर्याय ते क्षणिक छे, बीजा समये बीजी पर्याय थाय छे तेथी ते क्षणिक उपादानने त्यक्त स्वभाव कहेल छे. आ निर्मळ पर्यायनी वात छे, मलिननी अहीं वात नथी; केमके मलिनता गुणनुं कार्य नथी. मलिनता पर्यायमां छे ते हेयमां जाय छे. मलिनता क्षणिक उपादान नथी. अहो! दिगंबर संतोनी अंतरमां जवानी अजब अलौकिक शैली छे.

भाई, भगवान निर्मळानंदनो नाथ अंदर ध्रुव विराजे छे त्यां समीपमां जा. समीपमां जवानी पर्याय वर्तमान छे ते बीजे समये छूटी जाय छे माटे तेने त्यक्त स्वभाव कही छे. वर्तमान परिणाम छूटीने नवा परिणाम थाय छे तेने क्षणिक उपादान कहेल छे. ध्रुव उपादान जे छे ते छूटतुं नथी, बदलतुं नथी, त्रिकाळ एकरूप रहे छे. बहार निमित्त-उपादानना विवाद चाले छे ने! निमित्तथी कार्य थाय एनी अहीं ना पाडे छे.


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सांभळ भाई! उत्पाद-व्ययथी आलिंगित कोण? के वर्तमान निर्मळ पर्याय. सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि अनंत गुणनी वर्तमान निर्मळ पर्याय ते भाव छे. ते भाव उत्पाद-व्ययथी आलिंगित-स्पर्शित छे. आ तो महामंत्र छे भाई! सम्यग्द्रष्टि धर्मी जीवना वर्तमान निर्मळ परिणाम, जे उत्पाद-व्यय थाय छे एनाथी आलिंगित छे. ते पर्यायनो बीजी क्षणे अपाय नाम नाश थाय छे. अहा! सम्यग्दर्शन आदि अनंत गुणनी वर्तमान निर्मळ पर्याय छे तेनो नाश थवा छतां ध्रुवनो-ध्रुव स्वभावनो नाश थतो नथी. समकितीने आ ध्रुवना आलंबने ध्रुवमांथी नवी नवी निर्मळ पर्याय थया करे छे. आम निमित्तथी थाय, ने व्यवहारथी थाय-एम वात रहेती-टकती नथी. समजाणुं कांई...?

‘सर्व गुणांश ते सम्यक्त्व’ एम श्रीमद् राजचंद्रजीए कह्युं छे. मतलब के जीवमां जेटला गुण संख्याए छे ते बधा अनंत गुणनी निर्मळ पर्यायनो सम्यग्दर्शनमां एक अंश व्यक्त थाय छे. ते सम्यग्दर्शननी पर्याय उत्पादव्ययवाळी छे; अनंत गुणनी जे व्यक्त पर्यायो छे ते बधी पर्यायो उत्पादव्ययवाळी होय छे. भाई, वीतरागनां पेट खोलीने संतोए वात करी छे. कहे छे-उत्पाद-व्ययथी स्पर्शित जे भाव छे तेनो नाश थाय छे; पण ध्रुव द्रव्य- गुण नाश पामता नथी, केमके उत्पाद-व्ययथी आलिंगित भावनो नाश थवा छतां जे हानि पामतो नथी एवो ध्रुवपणामयी एक आत्मानो अपादान स्वभाव छे, गुण छे. अनंत गुणमां आ अपादानशक्ति-गुणनुं रूप छे. जे कारणथी ज्ञानगुण छे ते ध्रुव छे. शक्ति ध्रुव उपादान छे, पर्याय क्षणिक उपादान छे. अपादानशक्तिना बे भेद छे. जे ज्ञानगुण ध्रुव त्रिकाळ छे ते ध्रुव उपादान छे. तेमां अपादानशक्तिना कारणे ते ध्रुव उपादान कायम रहीने तेनी वर्तमान प्रगट उत्पाद-व्ययथी स्पर्शित पर्याय थाय छे ते क्षणिक उपादान छे. अहो! आ शक्तिनुं वर्णन करीने आचार्य अमृतचंद्रदेवे समयसाररूपी मंदिर उपर सुवर्णकळश चढाव्यो छे. शब्दो तो सादा छे, तेनो वाच्यभाव जेवो छे तेवो समजवो जोईए.

उपादान-निमित्त, निश्चय-व्यवहार अने क्रमबद्धपर्याय-आ पांच विषयोना संबंधमां लोको ऊंडा ऊतरीने समज्या विना विरोध करे छे. पर्यायनी हानि थवा छतां ध्रुवनी हानि थती नथी. वर्तमान पर्याय जे उत्पन्न थई छे ते पोताना उपादानथी थई छे, ते निमित्तथी के व्यवहारथी उत्पन्न थई नथी. ते उत्पन्न थयेली पर्यायनो नाश थवा छतां ध्रुव उपादान कायम रहे छे, ध्रुव उपादाननो कदी पण नाश थतो नथी. तत्त्वनी स्थिति आवी छे भाई! वस्तु अने वस्तुनी परिणतिनी आवी मर्यादा छे.

जेने तत्त्वज्ञाननी खबर नथी तेने धर्म केम थाय? तत्त्वज्ञाननी प्राप्ति माटे वस्तुनी स्थिति जेम छे तेम जाणवी जोईए, एनुं यथार्थ ज्ञान कर्या विना द्रष्टि निर्मळ थती नथी. कहे छे-वर्तमान ज्ञाननी हानि थवा छतां ज्ञान तत्त्व त्रिकाळ ध्रुव रहे छे, तेमां हानि थती नथी. आम ध्रुवनी-शाश्वत उपादान जे ध्रुव छे तेनी द्रष्टि रहेतां ज्ञाननी निर्मळ पर्याय नवी नवी प्रगट थाय छे. आ ज्ञाननी जे निर्मळ पर्याय प्रगट थाय छे ते, ते ते समयना क्षणिक उपादानथी प्रगट थाय छे; ज्ञानावरण कर्मनो अभाव थयो माटे ते प्रगट थाय छे, वा शास्त्र भणवाना विकल्पथी ते प्रगट थाय छे एम नथी. बीजी चीज ते काळे निमित्त हो, पण निमित्तना कारणे ते काळे सम्यग्ज्ञाननी पर्याय थाय छे एम छे ज नहि. एम तो ११ अंग अने नव पूर्वनुं शास्त्रज्ञान थयुं, पण एनाथी शुं थयुं? कांई ज नहि. ध्रुवना अंतर-आलंबनथी सम्यग्ज्ञान प्रगट थाय छे अने ते क्षणिक उपादान छे. निमित्तथी ने व्यवहारथी थाय एवी जे मान्यता छे ते केवळ भ्रम छे.

अहाहा...! अनंत शक्तिनो ध्रुवभंडार प्रभु आत्मा छे. तेनी जेने द्रष्टि थई, तेनो अंतरमां जेने स्वीकार थयो ते सम्यग्द्रष्टि छे. तेने पर्यायमां अनाकुळ आनंदना वेदननी दशा प्रगट थई छे. ते आनंदनी दशा, कहे छे, एक समय रहे छे. ते दशानो अभाव थवा छतां आनंद गुण तो ध्रुव कायम रहे छे. अहा! ते ध्रुवना आलंबने ध्रुवमांथी नवी नवी अनाकुळ आनंदनी दशा द्रष्टिवंत धर्मी समकितीने थया करे छे. आवो मारग भाई! अरेरे! लोको एकला धंधाना पापमां रोकायेला रहे छे. चोवीसे कलाक एकलुं पाप, पाप ने पापनुं काम; धर्म तो दूर, एमने पुण्यनांय ठेकाणां नथी, केमके तत्त्वश्रवण अने तत्त्वचिंतननी एमने फुरसद नथी. धंधानां काम तो कोण करे? एकलुं पापनुं काम (पापना भाव) कर्या करे. पण आ तो जिंदगी जाय छे भाई!

वर्तमान परिणाम त्यक्तरूप भाव छे, ध्रुव अत्यक्त स्वभाव छे. ध्रुव कायम रहे छे, क्षणिक उपादान क्षणे क्षणे पलटे छे. अहीं निर्मळनी वात छे. क्षणिक निर्मळ पर्याय उत्पन्न थाय छे ते पोताना उपादानथी थाय छे. अपादानशक्तिनो बीजो अर्थ उपादानशक्ति छे. पं. श्री दीपचंदजीए पंचसंग्रह नामना पुस्तकमां तेनुं घणुं वर्णन कर्युं छे. ज्ञानदर्पणमां पण (पानुं प६) वर्णन कर्युं छे.


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व्याकरणमां छ विभक्ति आवे छेः कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान अने अधिकरण. तेमां ध्रुवपणामयी अपादानशक्तिना कारणे अंदर चिद्रूपनी पर्यायमां प्राप्ति थाय छे; निर्मळ धर्मनी पर्याय अपादानशक्तिना कारणे प्रगटे छे; ते बाह्य निमित्तना कारणथी, कर्मना अभावना कारणथी, के व्यवहारना कारणथी प्रगट थाय छे एम नथी. बधी शक्तिमां आ अपादानशक्ति परम प्रधान छे, केमके एमां उपादान आवे छे, ध्रुव उपादान अने क्षणिक उपादान बन्ने तेमां समाय छे.

चिद्दविलासमां (पानुं ३४) कह्युं छेः “सामान्यताथी निर्विकल्प छे; विशेषताथी शिष्यने प्रतिबोध करवामां आवे त्यारे जेम जेम शिष्य, गुरुना प्रतिबोधवाथी गुणनुं स्वरूप जाणी जाणीने विशेष-भेदी थतो जाय तेम तेम ते शिष्यने आनंदना तरंग ऊठे, ते समये वस्तुनो निर्विकल्प आस्वाद करे. आ कारणे गुण-गुणीनो विचार योग्य छे. गुणना विशेषने (परिणाम) कह्या छे; आ परिणामथी ज उत्पादव्यय वडे वस्तुनी सिद्धि छे एम कहीए छीए.”

जुओ, वस्तु मतलब वस्तुना द्रव्य-गुण-पर्याय उपादानथी सिद्ध छे, अन्यथा सिद्ध नथी, निमित्त के व्यवहारथी सिद्ध नथी.

भाई, तारा गुणमां अने तारी पर्यायमां (उपादान) शक्तिनी ताकात छे तेनाथी ते निर्मळ कार्य प्रगट थाय छे; परना-निमित्तना कारणथी ते कार्य प्रगट थतुं नथी. परना ने व्यवहारना कारणथी कार्य थाय छे एम मानवुं ए तो मोटुं शल्य छे, मूढपणुं छे, पराधीन द्रष्टि छे. गुणने ध्रुव उपादान कह्युं छे, तेनी पर्यायने क्षणिक उपादान कह्युं छे. अहा! पं. श्री दीपचंदजीए सरस काम कर्युं छे. आचार्यदेवे शक्तिनी व्याख्या लखी छे तेना विशेष स्पष्टीकरण सहितनुं वर्णन श्री दीपचंदजी सिवाय बीजा कोईए खास कर्युं नथी. समयसार नाटकमां थोडुं छे, पण पंचसंग्रह अने चिद्विलासमां जेवुं स्पष्टीकरण छे एवुं बीजे नथी. तेमणे (श्री दीपचंदजीए) एम कह्युं छे के-सर्व शक्तिओमां आ अपादानशक्ति परम प्रधान छे.

भगवान आत्माना ध्रुव स्वभावमां द्रष्टि देवाथी, अपादानशक्तिना कारणथी क्षणिक पर्यायमां सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्र अने आनंदनी निर्मळ पर्यायो उत्पन्न थाय छे. बहु शास्त्र भण्यो माटे ज्ञाननी पर्याय प्रगट थाय छे एम नथी, तथा व्यवहार-चारित्र बहारमां छे माटे निश्चय अभेद रत्नत्रयरूप चारित्र प्रगटे छे एम पण नथी. परिणतिमां जे उत्पाद-व्यय थाय छे ते उपादानथी थाय छे. आव्युं ने के-वस्तु उपादानथी सिद्ध छे. निश्चयथी जे निर्मळ परिणति थई ते पोताना कारणथी उत्पन्न थई छे, ते ज तेनुं उपादान छे.

सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी निर्मळ पर्याय पोताना कारणे स्वतंत्र प्रगट थाय छे; तेमां निमित्तनुं के बाह्य व्यवहारनुं कारणपणुं नथी, पोताना द्रव्य-गुण पण कारण नथी. आ वात चिद्विलासमां (पान ९प पर) आपी छे. “पर्यायनुं कारण पर्याय ज छे. गुण विना ज (अर्थात् गुणनी अपेक्षा वगर ज) पर्यायनी सत्ता पर्यायनुं कारण छे, पर्यायनुं सूक्ष्मत्व पर्यायनुं कारण छे, पर्यायनुं वीर्य पर्यायनुं कारण छे, पर्यायनुं प्रदेशत्व पर्यायनुं कारण छे.” अहा! आत्मामां त्रिकाळ ध्रुवपणे चारित्र गुण छे. तेनी वर्तमान जे निर्मळ वीतरागी पर्याय प्रगट थई ते तेनुं वर्तमान क्षणिक उपादान कारण छे. व्यवहार कारण नहि, ने द्रव्य-गुण पण कारण नहि. अहा! आवी वस्तुस्थिति जाणी जे विशेषने भेदी ध्रुवने अवलंबे छे तेने अंदर अनाकुळ आनंदना तरंग उठे छे, अंदरनो खजानो खुली जाय छे, ने पर्यायमां धनना (निर्मळ रत्नत्रयना) ढगला थाय छे. अहो! दिगंबर संतो अने गृहस्थ पंडितोए अद्भुत अलौकिक स्पष्टीकरण कर्युं छे. लोको माने न माने ए बीजी वात छे, पोतानी चीज आवी ज छे. आ तो अनादि परंपरानी उपदेश छे. श्री दीपचंदजी २०० वर्ष पहेलां भावदीपिकामां लखी गया छेः

अहा! आगमनी परंपरा प्रमाणेनी श्रद्धावाळा कोई देखाता नथी. यथार्थ श्रद्धावाळा कोई वक्ताय देखाता नथी. मुखथी आ वात कहीए तो कोई सांभळता नथी. माटे हुं लखी जाउं छुं के मार्ग आवो छे. ल्यो, आवी वात! समजाणुं कांई...?

सम्यग्दर्शन आदि जे पर्याय प्रगट थई तेना प्रदेश भिन्न छे. जरीक सूक्ष्म वात छे. असंख्य प्रदेशोमां पर्यायना प्रदेशो भिन्न छे, ध्रुवना प्रदेशो भिन्न छे. जेटला क्षेत्रमांथी निर्मळ पर्याय उठे छे एटला प्रदेश भिन्न गणवामां आव्या छे. पर्यायनुं कारण पर्यायना प्रदेश छे, पर्यायनी उत्पत्तिमां ध्रुवनुं क्षेत्र कारण नथी. पर्यायनुं क्षेत्र पर्यायनुं कारण छे. उत्पादव्ययथी पर्याय आलिंगित छे, माटे उत्पाद-व्यय पर्यायनुं कारण छे, ध्रुव नहि.


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सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी पर्याय मोक्षनो मार्ग छे. ते पर्यायना उत्पाद-व्यय स्वतंत्र पोताना कारणथी थाय छे. ध्रुव उपादान छे तो तेनाथी ते पर्याय प्रगट थाय छे एम नथी, केमके ध्रुव उपादान तो त्रिकाळ एकरूप रहे छे. पर्यायमां केवळज्ञाननी पूर्ण विकासनी दशा थाय तो ज्ञाननी ध्रुवतामां, ध्रुव ज्ञानस्वभावमां कांई कमी थती नथी, ने निगोदनी पर्यायमां अक्षरना अनंतमा भागे ज्ञाननो विकास छे तो ध्रुव ज्ञानस्वभावमां वधु पुष्टता थाय छे एमेय नथी. ध्रुव तो अकबंध एवुं ने एवुं एकरूप त्रिकाळ छे.

अहा! शक्ति अने शक्तिना विशेषोना स्वरूपने जाणी जेणे द्रव्यद्रष्टि करी, ध्रुवनुं आलंबन लीधुं ते सम्यग्द्रष्टि छे, तेनी पर्याय पाछळ हठीने पडी जाय अने तेने वच्चे मिथ्यात्व आवी जाय एवी कोई वात छे नहि. जेनी द्रष्टि ध्रुव उपर छे, ध्रुवने पोताना ध्याननुं ध्येय बनाव्युं छे तेने क्रमवर्ती निर्मळ पर्यायो थया ज करे छे, तेनी निर्मळ पर्याय छूटीने तेने मिथ्यात्व आवी जाय एवो कोई गुण छे ज नहि. भाई, तारा आत्मामां अपादानशक्ति एवी छे के तेमां (आत्मामां) अनंत अनंत पर्यायो थईने नाश पामे छतां तेना ध्रुवनुं सामर्थ्य तो एवुं ने एवुं अक्षय-अनंत शाश्वत रहे छे, ने तेमांथी पर्यायो निर्मळ निर्मळ थया ज करे छे. ओहो! आ चैतन्यचिंतामणि एवा ध्रुवनो कोई अचिन्त्य स्वभाव छे के समये समये परिपूर्ण ज्ञान, आनंद आदि तेमांथी नीकळ्‌या ज करे, अने छतां अनंतकाळेय ए तो अकबंध एवुं ने एवुं ज रह्या करे.

कोईने थाय के आ अमे शरीरनी अनेक क्रिया करीए, दया, दान आदि पुण्यनी अनेक क्रिया करीए तो एमांथी धर्म आवे के नहि?

तो अहीं कहे छे-तारा धर्मनी ध्रुव खाण तारो आत्मा ज छे. अहा! ते ध्रुवनुं आलंबन ले, तेमां द्रष्टि कर, अने तेनुं ज ध्यान धर, तेमांथी ज तारो धर्म प्रगट थशे. आ सिवाय शरीरनी क्रिया अने पुण्यनी क्रिया तो बधां थोथां छे, ए बहारनी चीजमांथी कयांयथी तारो धर्म आवे एम नथी.

हवे एक बीजी वातः सम्यग्दर्शन आदिनी निर्मळ पर्याय अल्प हो, तेनी हानि (व्यय) थतां ते पर्याय कयां गई? तो कहे छे-जेम जळना तरंग जळमां डूबे छे, ने सामान्य जळपणे थाय छे तेम ते अल्प पर्याय ध्रुवमां जाय छे, ने ध्रुवमां जतां ते पारिणामिकभावरूप थई जाय छे. क्षायिकभाव पण हानि-व्यय पामतां ध्रुवमां भळी जाय छे ने पारिणामिकभावरूप थई जाय छे. अहा! जे निर्मळ पर्याय क्रमवर्ती प्रगट थाय छे ते व्यय पामता ध्रुव सामान्यमां जाय छे ने ते पारिणामिकभावरूप थई जाय छे.

अहा! पर्याय क्रमवर्ती अने गुणो अक्रमवर्ती एकसाथे छे. ते बेना समुदायने आत्मा कह्यो छे. अहीं निर्मळ पर्याय लेवी. राग पर्यायमां छे तो रागवाळो आत्मा छे एम न समजवुं.

तो मोक्षमार्ग प्रकाशकमां शुद्ध-अशुद्ध पर्यायोनो पिंड ते आत्मा एम कह्युं छे? हा, त्यां अपेक्षा बीजी छे. पर्यायमां अशुद्धता छे एने जे मानतो ज नथी एवा निश्चयाभासीने समजाववा माटे ए वात करी छे. अहा! पर्यायमां जे अशुद्धता छे ते अशुद्धतानी पर्यायनो व्यय थयो तो ते कयां गई? ते पर्याय अंदर ध्रुवमां गई, पण अंदर अशुद्धता गई छे एम नहि, अंदर तो योग्यता गई छे, ते पारिणामिकभावरूप थई गई छे, भगवान ध्रुवमां भळी भगवानरूप थई गई छे. परम पारिणामिकभाव त्रिकाळ ध्रुव शुद्ध छे तेमां ते पर्याय गई छे.

तो आपणे करवानुं शुं? आ ज के त्रिकाळी स्वभाव जे ध्रुव छे तेमां झूकी जा. ध्रुवने ध्यानमां लईने ध्रुवने ज ध्याननुं ध्येय बनाव. आ सिवाय बीजुं कांई करवानुं नथी. पर्याय प्रजा छे, ध्रुव तेनो पिता छे; ध्रुवनुं आलंबन धर्म छे. आवी वात छे. समजाणुं कांई...?

अहा?ं रागथी भिन्न पोतानी चीज अंदर छे तेनुं जेने भान नथी, शक्ति ते ध्रुव उपादान अने वर्तती पर्याय ते क्षणिक उपादान-ए बन्नेना स्वाधीन स्वरूपनी जेने खबर नथी ते रागनी एकतामां रह्यो छे; मरण टाणे ते रागनी एकतानी भींसमां भींसाई जशे. शुभभावथी धर्म थाय एम जे माने छे ते मृत्यु समीप आवतां रागनी एकतानी भींसमां भींसाई जशे. आखी जिंदगी जेणे पोतानी चैतन्यवस्तुने भिन्न जाणी-अनुभवी नहि तेनो देह मरण टाणे, जेम घाणीमां तल पिलाय तेम, पिलाईने छूटी जशे, ने कोण जाणे कयांय ते चार गतिमां रझळतो चाल्यो जशे. समजाय छे कांई...?

जुओ, पांच पांडवो भावलिंगी वीतरागी संत हता. शत्रुंजय पहाड पर तेओ ध्यानमां लीन हता. दुर्योधनना भाणेजे


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धगधगता लोढानां घरेणां तेमना हाथपगमां पहेरावीने तेमना उपर भारे उपसर्ग कर्यो. ते वखते युधिष्ठिर, भीम अने अर्जुन ए त्रण तो अंतरध्यान वडे केवळज्ञान पामी मोक्षे पधार्या. सहदेव अने नकुळ ए बन्नेने साधर्मी प्रति जरी शुभ विकल्प आव्यो के अरे! आ संतो पर आवो घोर उपसर्ग! ए शुभविकल्पना फळमां तेमने केवळज्ञान प्रगट न थतां, आयुस्थिति पूरी थईने सर्वार्थसिद्धिना देवमां जवानुं थयुं. त्यां तेमने ३३ सागरोपमनी स्थिति छे. ते स्थिति पूरी करीने मनुष्य तरीके जन्मशे, अने फरी मुनिदीक्षा लई, केवळज्ञान पामीने मोक्षे जशे. जुओ, जरा शुभराग आव्यो तो आटलो समय संसारमां तेमने रहेवुं पडशे.

भगवानना श्रीमुखेथी नीकळेली वाणीनो आ प्रवाह छे. कहे छे-वर्तमान पर्यायनो अपाय अर्थात् नाश थवा छतां हानिने प्राप्त थतो नथी एवो जे ध्रुव भाव छे ते-मय अपादानशक्ति जीवमां छे. पर्यायनी हानि थईने ते अंदर गई, पण ध्रुव उपादान पडयुं छे, माटे बीजे समये बीजी नवी पर्याय उत्पन्न थशे ज. अहा! बीजी नवी निर्मळ पर्याय उत्पन्न थाय एवो आत्मानो अपादान स्वभाव छे, ने भाव स्वभाव छे. एक पर्यायनो अभाव थयो तेथी अभाव (शून्यता) कायम रही जाय एवी वस्तु नथी. भावशक्तिना कारणे बीजी निर्मळ पर्याय बीजे समये विद्यमान होय ज छे. आवी वात! आ बधी निश्चय... निश्चयनी वात छे एम कही लोको तेने काढी नाखे छे, पण भाई! निश्चय एटले परमार्थ, सत्य; अने व्यवहार एटले उपचार. समजाणुं कांई...?

केवळज्ञाननी पर्याय एक समयनी छे, तेनो अपाय नाम नाश थवा छतां ध्रुवत्वभाव नाश पामतो नथी, परमपारिणामिक एवो ध्रुव एक ज्ञायकभाव नाश पामतो नथी; माटे बीजी क्षणे बीजी केवळज्ञाननी पर्याय विद्यमान थशे ज थशे. वर्तमान पर्यायनो व्यय थयो एटले हवे बीजी पर्यायनो उत्पाद नहि थाय एम वस्तु नथी. क्षयोपशम समकितनो अभाव थईने क्षायिक समकित प्रगट थाय छे; अलबत्त ते काळे भगवान केवळी-श्रुतकेवळीनी समीपता होय छे, पण ते पर्याय-क्षायिक समकितनी दशा कांई केवळी-श्रुतकेवळीना कारणे थई छे एम नथी. ध्रुवशक्तिमां ताकात छे तेथी क्षयोपशम दशानो व्यय थईने क्षायिक पर्याय प्रगट थई जाय छे. अंदर ध्रुव स्वभाव पडयो छे, जेना आश्रयथी क्षयोपशम दशा व्यय पामीने बीजी निर्मळ क्षायिक पर्याय प्रगट थाय छे. द्रव्य वर्तमान विद्यमान अवस्था विना होय नहि एवी आत्मानी भावशक्ति छे. बीजी विद्यमान निर्मळ अवस्था उत्पन्न थशे ज थशे एवो आत्मानो आ अपादान गुण छे. हवे आमां व्यवहारथी निश्चय थाय, ने निमित्तथी उपादानमां कार्य थाय-ए वात ज कयां रहे छे?

आ प्रमाणे अहीं अपादानशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.

४६ः अधिकरणशक्ति

‘भाव्यमान (अर्थात् भाववामां आवता) भावना आधारपणामयी अधिकरणशक्ति.’ समयसारमां आ शक्तिनो अधिकार चाले छे. आत्मपदार्थ द्रव्यरूपथी एक छे, अने तेना गुण अनेक-अनंत छे. अहा! आ अनंत गुणनुं अधिकरण कोण? तो कहे छे-अधिकरण गुण वडे आत्मा ज तेनुं अधिकरण छे, अर्थात् तेनुं अधिकरण थाय एवो आत्मानो अधिकरण गुण-स्वभाव छे.

अहा! जीव ज्यारे निज द्रव्यस्वभावनो, भगवान त्रिकाळीनो आश्रय ले छे त्यारे ज्ञाननी पर्याय उत्पन्न थाय छे; ते सम्यग्ज्ञाननी पर्याय प्रगट थाय तेनी साथे अनंत गुणनी पर्याय भेगी ऊछळे छे. अहाहा...! जेम पाताळमां पाणी होय छे ते, पथ्थरनुं पड तूटी जतां अंदरथी एकदम छोळो मारतुं ऊछळी बहार आवे छे, तेम आ चैतन्यना पाताळमां ज्ञान, दर्शन, आनंद आदि अनंत शक्तिओ पडी छे ते, रागनी एकता तोडीने ज्यां द्रव्यस्वभावनो आश्रय जीव ले छे के तत्काल चैतन्यना पाताळमांथी ज्ञानादि अनंत गुण-शक्तिओ निर्मळ परिणतिरूपे ऊछळी प्रगट थाय छे. अहा! ज्ञानादि निर्मळ परिणति थई तेनुं अधिकरण नाम आधार कोण? तो कहे छे-भगवान आत्मा ज तेनुं अधिकरण छे, केमके तेनुं अधिकरण थवानो आत्मामां अधिकरण गुण छे. समजाय छे कांई...? संवर अधिकारमां वळी एम लीधुं छे के-आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, तेमां जाणनक्रिया जे थाय छे ते जाणनक्रियाना आधारे आत्मा छे. ए तो जाणनक्रियामां


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भगवान आत्मा जाणवामां आवे छे तो जाणनक्रियाना आधारे आत्मा छे एम कह्युं छे. अहीं शक्तिना प्रकरणमां जुदा प्रकारे वात छे.

अहाहा...! अनंत शक्तिओनो पिंड प्रभु आत्मा छे. तेनी सन्मुख थई परिणमतां सम्यग्ज्ञाननी पर्याय प्रगट थाय छे, ते जाणनक्रिया छे. ते जाणनक्रियामां भगवान आत्मा जाणवामां आवे छे. अहा! संवर नाम धर्म केम थाय एनी वात संवर अधिकारमां करी छे. तेनी आरंभनी गाथामां आवे छे के-‘उपयोगमां उपयोग छे’-एनो अर्थ एम छे के त्रिकाळी शुद्ध उपयोग स्वरूप प्रभु आत्मा छे ते उपयोगमां एटले वर्तमान जाणनक्रियामां-जे स्वसन्मुख उपयोग थयो छे तेमां-जाणवामां आवे छे. जाणनक्रियाना भावमां आत्मा जाणवामां आवे छे तो जाणनक्रियाना आधारे आत्मा छे अर्थात् उपयोगमां उपयोग छे एम कह्युं छे. ज्यारे अहीं आत्माना आश्रये- आधारमां रहेला अधिकरण गुणने लीधे, अनंत गुणनी जे निर्मळ पर्यायो प्रगट थाय तेनो आधार, कहे छे, आत्मा छे, निमित्त-परवस्तु के राग तेनो आधार नथी. आवी वात! समजाणुं कांई...?

जुओ, पोतानो आत्मा शुद्ध चैतन्यघन अनंतगुणना सत्त्वरूप त्रिकाळी ध्रुवप्रभु छे, तेना गुण-पर्यायना आधारे द्रव्य सिद्ध थाय छे; गुण अने पर्याय निर्मळ-तेना आधारे द्रव्य सिद्ध थाय छे. अक्रमवर्ती गुण ने क्रमवर्ती (निर्मळ) पर्यायोनो पिंड ते आत्मा एम छे ने! वळी द्रव्यना आधारे गुण-पर्याय सिद्ध थाय छे; द्रव्यमां अधिकरण शक्ति पडी छे तो द्रव्यना आधारे गुणपर्याय सिद्ध थाय छे, केमके गुण-पर्यायोनो आधार-अधिकरण द्रव्य छे.

बीजी एक वात याद आवीः प्रवचनसारनी गाथा १२६मां कर्ता, कर्म, करण ए त्रण बोल आवे छे. त्यां सूक्ष्म वात लीधी छे. गुण-पर्यायना आधारे द्रव्य ख्यालमां आवी जाय छे एम प्रवचनसारनी आ गाथामां सिद्ध कर्युं छे. त्यां (प्रवचनसारमां) सामान्य वात छे एटले मलिन पर्याय सहितनी वात करी छे. अधिकरण नामनो गुण तथा तेनुं परिणमन-निर्मळ तेम ज मलिन-एम बन्नेनी त्यां वात करी छे. भाई, शांति अने धीरजथी समजवुं प्रभु! त्यां विकारी पर्यायना आधारे पण गुण-द्रव्य छे एम लीधुं छे, केमके विकारी पर्यायथी द्रव्य-गुण सिद्ध थाय छे. एम के विकारनी अवस्था छे ते कोनी? द्रव्यनी तो छे. ए प्रमाणे विकारी पर्यायना आधारे त्यां द्रव्यनी सिद्धि करी छे, तेम ज द्रव्यना आधारे विकारी पर्याय सिद्ध थाय छे एम त्यां कह्युं छे.

भगवान आत्मामां अनंत गुण, अने अनंत पर्याय छे. वर्तमान एक गुणनी एक एम अनंत गुणनी अनंत पर्यायो सिद्ध थाय छे. ते पर्यायो अने गुणना आधारे द्रव्यनी सिद्धि थाय छे. मलिन पर्यायने पण त्यां लक्षण कह्युं छे. पंचास्तिकायमां पण एम लीधुं छे के उत्पाद-व्यय, मलिन होय तो पण ते द्रव्यनुं लक्षण छे. ज्यारे अहीं जेनुं ज्ञान लक्षण छे ते आत्मा एम वात करी छे. ए स्वभावनुं भान कराववा कह्युं छे. समयसारमां स्वभावनी द्रष्टिनुं प्रयोजन छे तेथी स्वभावनी मुख्यता छे. प्रवचनसारमां सामान्य कथन छे. तेथी त्यां विकृत अवस्था छे ते पण द्रव्यनी छे एटले ए लक्षणथी पण आत्मा छे एम सिद्ध थाय छे एम वात करी छे. विकारी पर्यायने पण लक्षण बनावी आ द्रव्य छे एवुं लक्ष्य त्यां सिद्ध कर्युं छे.

संवर अधिकारमां जाणनक्रियानी जे निर्मळ परिणति छे तेना आधारे आत्मा जाणवामां आवे छे तेथी द्रव्यनो आधार निर्मळ पर्याय छे एम कह्युं छे. प्रवचनसार गाथा १०मां एम लीधुं छे के अशुद्ध परिणामनो आश्रय पण द्रव्य छे, विकारी पर्याय पण द्रव्यनी छे. द्रव्यमां पर्याय थई ते द्रव्यना आश्रये थई छे एम कहेवामां आवे छे. गुणपर्याय आधार अने द्रव्य आधेय छे एम त्यां सामान्यपणे वात छे. अहीं कोना आश्रये-आधारे निर्मळ पर्याय प्रगटे छे एनी वात छे. तो कहे छे-भाव्यमान भावना आधारपणामयी एक अधिकरणशक्ति जीवद्रव्यमां छे. अहाहा...! सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ने आनंदनी जे निर्मळ पर्याय, शुद्ध स्वभावना आश्रये प्रगट थाय ते भाववामां आवतो भाव्यमान भाव छे, ते भावना आधारपणामयी अधिकरणशक्ति छे.

शुं कीधुं? सम्यग्दर्शन आदि पर्याय प्रगट थई ते भाव्यमान-भाववामां आवतो भाव छे. अहाहा...! ते भावनो आधार कोण? तो कहे छे-ते भावना आधारपणामयी अधिकरणशक्ति छे, अर्थात् अधिकरणशक्तिथी आत्मा ज तेनो आधार छे. हवे आमां व्यवहारथी निश्चय थाय-एम लोको मोटो झघडो करे छे, पण व्यवहारनी वातेय कयां छे? भगवान! तें तत्त्वनी वात सांभळी ज नथी. व्यवहारनुं लक्ष छोडी द्रव्यने ज्यारे लक्ष बनाव्युं त्यारे तो सम्यग्दर्शननी निर्मळ पर्याय प्रगट थई छे. अहा! ते निर्मळ पर्यायनुं अधिकरण आत्मा ज छे, केमके आत्मामां ज तेना अधिकरणनो


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गुण-स्वभाव छे. आम अन्य कोई आत्माना निर्मळ भावोनुं अधिकरण नथी.

सम्यक् मति-श्रुतज्ञाननी पर्याय ते भाव्यमान भाव छे. तेनो आधार आत्मस्थित ज्ञानगुण छे, ज्ञानगुणनुं ते भाव्य छे. जुओ, बहारमां इन्द्रियो, के शास्त्रना के अन्य निमित्तना आधारे ज्ञाननी पर्याय उत्पन्न थई नथी, केमके ज्ञान जुदुं ने इन्द्रियो जुदी छे, ज्ञान जुदुं अने शास्त्र आदि निमित्त जुदुं छे; ज्ञाननी पर्याय तेमनुं भाव्य नथी; परस्पर आधार-आधेयपणुं बनतुं ज नथी. ज्ञानगुण ज ज्ञाननी पर्यायनो आधार छे, केमके अधिकरण गुण आत्माना ज्ञानगुणमां पण व्यापक छे; ज्ञानगुणमां अधिकरण नामनुं रूप छे. समजाय छे कांई...?

तेवी रीते सम्यग्दर्शननी पर्याय श्रद्धा गुणना आधारे उत्पन्न थाय छे. भगवान आत्मामां श्रद्धा गुण त्रिकाळ छे. जो के श्रद्धा गुणनुं वर्णन आ ४७ शक्तिमां अलगथी आवतुं नथी, सुखशक्तिना वर्णनमां तेने समावी दीधुं छे. अहा! ते श्रद्धा गुणना आधारे समकितनी निर्मळ पर्याय प्रगट थाय छे, कांई देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धाथी के नव तत्त्वनी भेदरूप श्रद्धाथी शुद्ध सम्यग्दर्शननी पर्याय उत्पन्न थती नथी. अहो! दिगंबर संतोए-मुनिवरोए जगतने केवळज्ञाननी प्राप्तिनो मार्ग बताव्यो छे.

भगवान! तुं ज्ञानानंदरूप चैतन्यलक्ष्मीनो भंडार छो. तेमां जे सम्यग्दर्शननी पर्यायरूपी रत्न उत्पन्न थाय छे ते कोना आधारथी प्रगट थाय छे? शुं तेनो आधार व्यवहार रत्नत्रय छे? ना, व्यवहार रत्नत्रय तेनो आधार नथी. तो शुं देव-गुरु-शास्त्र तेनो आधार छे? तो कहे छे-ना, व्यवहार रत्नत्रय तेनो आधार नथी. ए तो बधी बहारमां भिन्न चीज छे, ते आधार नथी. गजब वात छे, बहारमां अत्यारे मोटी गरबड चाले छे. वास्तवमां अंदर श्रद्धा गुण त्रिकाळ छे तेना आधारे सम्यग्दर्शननी निर्मळ पर्याय थाय छे.

तेवी रीते आत्मामां जे आस्रव रहित संवरनी वीतरागी चारित्रनी पर्याय प्रगट थाय छे तेनो आधार कोण? शुं सराग समकित अने पंचमहाव्रतना व्यवहारना परिणाम ते तेनो आधार छे? तो कहे छे-ना, व्यवहारना- क्रियाकांडना कोई परिणाम निश्चय चारित्र प्रगट थाय तेनो आधार नथी. अहा! अंदर आत्मामां चारित्र गुण त्रिकाळ छे तेना आधारे स्वरूपनी रमणतामय एवी वीतरागी चारित्रनी दशा प्रगट थाय छे. प्रभु! तारी चारित्रदशा परथी अने रागथी निरपेक्ष प्रगट थाय छे. मोक्षनो मार्ग परम निरपेक्ष छे, तेने बहारना कोई आधारनी जरूरत नथी. अहा! पोते ज पोतानी वीतरागी चारित्रनी पर्यायनुं अधिकरण छे, एटले जेने मोक्षमार्ग जोईए छे तेणे द्रव्य-त्रिकाळी आत्मद्रव्यनी द्रष्टि करवी जोईए. भाई, आ द्रव्यद्रष्टि ए ज वीतरागनो मार्ग छे अने ते अलौकिक छे, एनां फळ पण अलौकिक छे. अहाहा...! अनंत ज्ञान-केवळज्ञान ने अनंत सुख प्रगटे अने ते सादि-अनंतकाळ रहे ते एनुं फळ छे. सिद्ध पर्याय प्रगटे ते सादि-अनंतकाळ रहे छे; ओहो! एकला अतीन्द्रिय सुखनो, पूर्ण सुखनो अने अनंत सुखनो त्यां भोगवटो होय छे. अहा! आवी अलौकिक दशा थवाना कारणनो आधार अंदर आधारनी जेनी शक्ति छे एवो भगवान आत्मा छे; आ सिवाय बहारमां कोई आधार नथी, शरीरेय नहि, इन्द्रियेय नहि, देव-गुरु-शास्त्र पण नहि, ने व्यवहारेय नहि. समजाणुं कांई...?

अरे! संसारी जीवोने अनादिकाळथी रागनी रुचि छे, ने तेने उपदेशक पण एवा ज मळी जाय छे. उपदेशक पण दया, दान, व्रत आदिना शुभरागथी धर्म थवानुं बतावे छे. ल्यो, ‘जसलो जोगी अने माली मकवाणी’ -बेयनो मेळ खाई गयो. पण ए तो बन्नेय चारगतिमां रझळशे. हिंसादि अशुभरागना भाव तो महापापना भाव छे, अधर्म छे, पण अहिंसादि शुभरागनो अनुभव पण धर्म नथी, अधर्म छे एम अहीं कहे छे; ते भावना आधारे आत्मानी मोक्षमार्गनी पर्याय थती नथी. तेनाथी धर्म थवानुं माने ए तो मिथ्यात्वरूप महाशल्य छे.

कोई वळी कहे छे-आत्मस्वभावना आधारेय धर्म थाय, ने व्यवहारना ने निमित्तना आधारेय धर्म थाय- एम मानो तो अनेकान्त छे. पण एम नथी भाई! व्यवहार-रागना आधारे वीतरागता-धर्म थाय ए तारी मान्यता अंधाराना आधारे अजवाळुं थाय एना जेवी मिथ्या छे, केमके धर्म तो वीतरागता स्वरूप छे. वळी निमित्त छे ते परवस्तु छे, ने परवस्तु स्वद्रव्यमां शुं करे? कांई ज न करे. अडे नहि ते शुं करे? आ रीते आत्मस्वभावना आधारेय धर्म थाय ने व्यवहारना-रागना आधारे ने निमित्तना आधारेय धर्म थाय एवी तारी मान्यता भ्रम छे; ए अनेकान्त पण नथी, वास्तवमां आत्मस्वभावना आधारे ज धर्म थाय, ने व्यवहार ने निमित्तना आधारे धर्म न थाय ए मान्यता सत्यार्थ अनेकान्त स्वरूप छे. आत्माना अनंत गुणनो आधार-अधिकरण आत्मा ज छे, केमके आत्मानो अधिकरण गुण-स्वभाव छे. दरेक गुणमां अधिकरण गुण व्यापक छे, दरेक गुणमां तेनुं रूप छे. तेथी दरेक गुण पोताना आधारे पोतानी निर्मळ


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पर्याय प्रगट करे छे. सम्यग्ज्ञान अने केवळज्ञाननी पर्याय आत्माना ज्ञानस्वभावना आधारे ज प्रगट थाय छे. केवळज्ञाननी पर्याय थई ते तेना पूर्वना चार ज्ञाननी पर्यायना व्ययना आधारे थई छे एम ज्यां नथी त्यां हवे व्यवहार अने निमित्तना आधारे थाय ए वात ज कयां रहे छे? आ लोजिकथी-न्यायथी तो वात छे. त्रण लोकना नाथनो मार्ग न्यायथी सिद्ध छे. ‘न्याय’ शब्दमां ‘नो’-‘नय्’-दोरी जवुं-एटले के जेवी वस्तु छे तेने तेवी जाणवारूपे ज्ञानने स्वरूपमां दोरी जवुं-लई जवुं ते न्याय छे. ओहोहो...! आ तो धन्यभाग्य होय तेने वीतरागनी वाणी सांभळवा मळे.

बहेननां ‘वचनामृत’ वांचीने एक मुमुक्षु भाई बोली ऊठेला-‘आ तो जैननी गीता छे.’ वात साची छे. जैनना एटले वीतरागतानां गाणां गाय ते गीता छे. आत्माना गुणनां गाणां ते गीता छे. अहाहा...! अनंत गुणरत्नाकर प्रभु आत्मा छे. तेनां आ गाणां छे; पर्यायनां के रागनां आ गाणां नथी. बीजाना आधारे तुं पोतानी पर्याय थवानुं माने पण एवी वस्तुस्थिति नथी. बीजाने आधार माननारो पोताना अनंत गुण-स्वभावनो अनादर करे छे. व्यवहारना रसियाने आ आकरुं लागे, एकांत जेवुं लागे, पण शुं थाय? एनुं चित्त एकान्त-ग्रहथी ग्रसित छे.

समयसारनी ८३मी गाथामां समुद्रनुं द्रष्टांत आप्युं छे. दरियामां तरंग ऊठे छे ते पवनना कारणे नहि; पर्यायनो एवो स्वभाव छे के तरंग पोताना कारणे पोताथी ऊठे छे, ने ते तरंग समाईने दरियामां चाल्या जाय छे. तेवी रीते धजा फरफरे छे ते पवनना कारणे नहि, पण तेनामां क्रियावती शक्ति पडी छे तेना कारणे धजानुं फरफरवापणे परिणमन थाय छे. आवो पर्यायनो स्वभाव छे. त्यारे कोई भाईए प्रश्न करेलोः

प्रश्नः– एम के पाणी उष्ण थाय छे ते अग्निथी थाय छे एम प्रत्यक्ष देखाय छे ने तमे केम ना पाडो छो? उत्तरः– पाणीनी ठंडी अवस्था बदलीने उष्ण अवस्था थाय ए तो पाणीनी पर्यायनो स्वभाव छे. अग्नि निमित्त हो, पण अग्नि तो परवस्तु छे, अग्निना रजकणो पाणीने अडता सुद्धां नथी.

आचार्य श्री कुंदकुंददेवे समयसारनी गाथा ३७२मां कह्युं छे के-घडो माटीमांथी उत्पन्न थाय छे एम अमे देखीए छीए, कुंभारथी घडो थाय छे एम अमे देखता नथी. घडानी पर्यायनी कर्ता माटी छे, ने माटी ज घडानुं करण अने अधिकरण छे. माटीनी घडारूप पर्याय कुंभारथी, दंडथी के चक्रथी थई छे एम छे ज नहि, अहा! द्रव्यनी स्वतंत्रता तो जुओ!

आत्मामां एक प्रभुताशक्ति छे. ए त्रिकाळ प्रभुतामांथी वर्तमान प्रभुता आवे छे. प्रथम पर्यायमां पामरता हती ते व्यय थईने प्रभुता प्रगटी. ते प्रभुता कांई पूर्व पर्यायना व्ययना आधारे प्रगटी छे एम नथी. त्रिकाळ प्रभुताना आधारे प्रभुता प्रगटी छे. आ प्रभुताशक्ति प्रत्येक गुणमां व्यापक छे. प्रत्येक गुणमां प्रभुतानुं रूप छे. ते कारणथी सम्यक्त्वादि निर्मळ पर्यायो गुणनी प्रभुताना आधारे प्रगट थाय छे. शक्तिवानना आश्रये शक्ति छे, तो तेनी पर्याय पण शक्तिवानना आश्रय-आधार विना केम होय? मांड प्रभु! आवो अवसर मळ्‌यो छे, तो स्वभावथी भरेला भगवानना शरणे जा, तेनो आश्रय ले; तुं न्याल थई जईश, तने शांति ने अनाकुळ आनंदनी प्राप्ति थशे. आ सिवाय लाख-क्रोड उपाय बधा मिथ्या छे.

समयसारनी बीजी गाथामां आवे छे के- ‘जीवो चरित्तदंसणणाणट्ठिदो...’ ल्यो, आमांथी आचार्यदेवे जीवत्वशक्ति काढी छे. रागमां स्थित हतो, ते निज ज्ञान, दर्शन, चारित्रमां स्थित थयो ते जीव छे. ते स्थित थवानी शक्ति अधिकरण गुण वडे आत्मानी ज छे. अहा! तेने आत्मानो ज आधार छे. आत्मानी अधिकरणशक्ति अबंधस्वरूप छे, ते सहज पारिणामिकभावे छे. तेना आश्रयथी भाव्यमान भाव ते उपशम, क्षयोपशम अने क्षायिकभावरूप छे, अने ते आत्माना आधारे ज प्रगट थाय छे. स्वभावने आधार बनाव्या विना, एकला व्यवहार रत्नत्रयना जे परिणाम छे ते बंधननुं कारण छे, ने तेना आधारे अबंधना कारणरूप परिणाम उत्पन्न थाय एम कदी बनतुं नथी.

अहा! धर्मी पुरुष जाणे छे के-अमने अमारा चिदानंद भगवाननो ज आधार छे. महेलमां हो के जंगलमां, पोतानो आत्मा ज पोतानो आधार छे एम धर्मात्मा जाणे छे. जुओ, सीताजी धर्मात्मा हतां. ज्यारे लव अने कुश जेवा चरम-शरीरी पुत्रो तेमनी कूंखे आव्या तो तेमने सम्मेदशिखर आदि तीर्थोनी वंदनानो भाव थई आव्यो. बराबर ते ज वखते लोकोए आवीने रामचंद्रजीने लोकापवादनी वात कही. तेथी रामचंद्रजीए सेनापतिने बोलावी सीताजीने तीर्थोनी वंदना करावी, पछी सिंहनाद नामना भयानक वनमां तेमने छोडी देवानी आज्ञा करी.

सीताजीए बहु आनंदथी ने भक्तिथी तीर्थवंदना करी, ने पछी ज्यां सिंहनाद वन आव्युं त्यां रथ ऊभो राखीने


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सेनापति रडवा लाग्यो. सीताजी कहे-अरे, आ शुं थयुं? सेनापतिजी, तीर्थवंदनाना आनंदना प्रसंगे आप आम केम रडो छो? सेनापति रडतां रडतां कहे-माताजी, जेम मुनिवरो राग परिणतिने छोडे तेम श्रीरामे लोकापवादना भयथी तमने आ जंगलमां एकलां छोडी देवानी आज्ञा करी छे. सेनापतिना आ शब्दो सांभळीने सीताजी बेचेन-बेबाकळां थई मूर्च्छित थयां. पछी होशमां आव्यां तो रामचंद्रजीने संदेशो कहेवडाव्यो के-“हे सेनापति! मारा रामने कहेजे के लोकापवादना भयथी मने तो छोडी, पण जिनधर्मने न छोडशो. अज्ञानी लोको जिनधर्मनी निंदा करे तो ते निंदाना भयथी सम्यग्दर्शनने कदी न छोडशो...” जुओ आ धर्मात्मानी अंतर-परिणति! धर्मना आधारभूत स्वभाव अंतरमां भाव्यो छे तो संदेशामां कहे छे-स्वभावना आधारे प्रगट सम्यग्दर्शनने लोकनिंदाना भयथी मा छोडशो. अहाहा...! धर्मनो आधार एवा निज चिन्मात्र चिदानंद प्रभुने द्रष्टिमां राख्यो छे तो भयानक वनमां पण सीताजी भयभीत नथी. रामनो भले वियोग हो, पण अंदर आतमराम छे ते हाजराहजूर छे. सीताजीना ज्ञान-श्रद्धानमां निज आतमरामनो आधार निरंतर वर्त्या ज करे छे. अहा! आतमरामनुं शरण मळ्‌युं ते अशरण नथी. ते तो वनमां पण पोताना आत्माना आधारे निःशंक अने निर्भय जीवन जीवे छे, दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय जीवन जीवे छे. समजाणुं कांई...?

अहाहा...! आत्मामां एक जीवत्वशक्ति त्रिकाळ छे. तेनुं कार्य शुं? ज्ञान, दर्शन, आनंद, सत्ता-एवा भावप्राणरूप जीवननुं कार्य एमां थाय छे. आत्माना आधारे प्रगट भावप्राण ते आत्मानुं जीवन छे. शरीरथी जीववुं ए जीवन नथी. ‘जीवो ने जीववा दो’ एम सूत्र बोले छे ने! पण ए जिनसूत्र-जिनवाणी नथी. जे दर्शन-ज्ञान- चारित्रमां स्थित थई रह्यो छे ते धर्मात्मानुं जीवन छे, ते स्वसमय छे. रागथी जीववुं, देहथी जीववुं, अशुद्ध प्राणथी जीववुं ते आत्मजीवन नथी, वास्तवमां ए तो आत्म-घात छे. आ दस द्रव्यप्राण छे ए तो जड छे. तेना आधारे जीव जीवतो नथी. शुं कहीए? वाते वाते फेर छे!

आणंदा कहे परमाणंदा, माणसे माणसे फेर;
एक लाखे तो ना मळे, एक त्रांबियाना तेर.

परमात्मा कहे छे-तारे ने मारे वाते वाते फेर छे, तारी द्रष्टि ऊंधी छे माटे कोई वाते मेळ खातो नथी.

अहा! भाव्यमान भावनो आधार थाय तेवी आत्मानी निज शक्ति छे. जेम निरालंबी आकाशने अन्य कोई आधार नथी, तेम निरालंबी चैतन्य प्रभुने बीजो कोई आधार नथी. चैतन्यना भावोने निज चैतन्य प्रभुनो एकनो ज आधार छे, एवी ज आत्मानी अधिकरणशक्ति छे. गजब वात छे भाई! पोताना शुद्ध चैतन्यनो आधार चूकीने जेओ बहारमां पोतानो आधार शोधे छे ते बहिद्रष्टि जीवो बहारमां भले मोटा शेठ होय तोय तेओ रांका- भिखारा ज छे, केमके बीजा पासेथी तेओ पोताना ज्ञान ने आनंदनी भीख मागे छे. अने समकितीने बहारमां कदाच दरिद्रता होय तोय शुं? ‘मारा सुखनो आधार हुं ज छुं, मारे कोई बीजानी जरूर नथी’-एवी स्वभावद्रष्टि वडे ते निरंतर अनाकुळ अतीन्द्रिय सुखनो भोगवनारो थाय छे.

जुओ, केवळज्ञान भाव्यमान भाव छे, तेना आधारपणामय आत्मानी अधिकरणशक्ति छे. अहाहा...! सर्वज्ञत्व अने सर्वदर्शित्व प्रगटयुं तेनो आधार कोण? शुं वज्रवृषभनाराच संहनन होय ते तेनो आधार छे? ना, ते आधार नथी. देहनुं अधिकरण आत्मा, ने आत्मानुं अधिकरण देह-एम नथी. केवळज्ञाननुं अधिकरण वज्र शरीर नथी. जो ते शरीर केवळज्ञाननो आधार होय तो शरीर विना केवळज्ञान रही केम शके? पण भगवान सिद्धने सदाय केवळज्ञान आदि वर्ते छे, ने शरीर वर्ततुं नथी. माटे शरीर केवळज्ञाननो आधार नथी, आत्मा ज एक केवळज्ञाननो आधार छे. वज्रवृषभनाराच संहनन होतां केवळज्ञान प्रगट थाय छे एम कह्युं होय ते व्यवहारनयनुं कथन उपचारमात्र जाणवुं. (भिन्न आधारनी बुद्धि छोडी स्वद्रव्यना आश्रयमां रहेवुं.)

अहा! एकेक पर्यायमां षट्कारक छे. अधिकरणशक्ति प्रगट थई ते षट्कारकथी प्रगट थई छे. कारको अनुसार थवापणारूप जे भाव ते-मयी क्रियाशक्तिनी वात आवी गई छे. अहो! आ तो अलौकिक मंत्रो छे. आ वात संप्रदायमां कयांय छे नहि. दिगंबरमां छे, पण एनो अर्थ करवामां गोटा उठाव्या छे. पण अहो! वीतरागी मुनिवरोए रामबाण मार्यां छे. अधिकरण जेनो गुण छे एवा आत्माने उपादेय करतां गुणनुं परिणमन थाय छे, भेगुं अनंता गुणनुं परिणमन थाय छे. आ धर्म ने आ मोक्षमार्ग छे, अने एनुं फळ मोक्ष छे. माटे हे भाई! रागने हेय जाणी तुं निज स्वभावने उपादेय कर, तेथी वीतरागता ने सुख प्रगट थशे, केमके आत्मस्वभाव ज तेनुं अधिकरण छे.

आ प्रमाणे अहीं अधिकरणशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.


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‘स्वभावमात्र स्व-स्वामित्वमयी संबंधशक्ति. (पोतानो भाव पोतानुं स्व अने पोते तेनो स्वामी-एवा संबंधमयी संबंधशक्ति).

जुओ, आ शक्तिनो अधिकार छे. शक्ति एटले गुण. भगवान आत्मामां अनंत गुण छे. आ अनंत गुण- प्रत्येक भिन्न होवा छतां एकेक गुणनुं बीजा अनंतमां रूप छे. तेमां एक शक्ति एवी छे के पोते आत्मा स्वसंवेदन- प्रत्यक्ष थाय. पोतानुं ज्ञान अने पोतानो आनंद स्वसंवेदनमां प्रत्यक्ष थाय एवो तेनो प्रकाश स्वभाव छे. तेमां अधिकरण गुणनुं रूप छे ते कारणथी ते शक्ति परना आधार विना पोताना ज आधारे पोतानुं स्वसंवेदन प्रत्यक्ष करे छे. ते पोतानी स्वयंसिद्ध दशा छे. व्यवहार रत्नत्रयना कारणे स्वसंवेदन थाय छे एम नथी.

‘सर्व गुणांश ते सम्यक्त्व’ ए श्रीमद्नुं वचन छे. रहस्यपूर्ण चिठ्ठीमां पण आ वात आवी छे. चोथे गुणस्थाने ज्ञानादि गुणोनो एकदेश व्यक्त थाय छे. श्रद्धा गुणनी सम्यग्दर्शनरूप पर्याय व्यक्त थाय छे तेनी साथे ज्ञान गुणनी मति-श्रुतरूप सम्यग्ज्ञाननी पर्याय प्रगट थाय छे, चारित्र गुणनी स्वरूपाचरणनी पर्याय प्रगट थाय छे. पांचमे, छठ्ठे गुणस्थाने विशेष चारित्र होय छे ते अहीं नथी, पण चारित्रनो अंश चोथाथी शरु थाय छे. आवी वस्तुस्थिति छे. पहेलां एनी यथार्थ समजण करवी जोईए, विना समजण प्रयोग केवी रीते थाय? अंतर्मुख थवानो प्रयोग करता पहेलां यथार्थ समजण होय छे, पछी एकाग्रतारूप ध्यान द्वारा स्वानुभव प्रगट थाय छे. अहा! यथार्थ समजण करी अनंतगुणनो भंडार एवा आत्मानो ज्यां आश्रय ले छे त्यां चोथा गुणस्थाने सम्यग्दर्शन सहित सर्व गुणनो अंश प्रगट थाय छे.

अहाहा...! अभेद एक ज्ञायकभाव स्वरूप प्रभु आत्मा छे. ते सम्यग्दर्शननो विषय अने ध्येय छे. ते ध्येयनी द्रष्टि-अंतर्मुख द्रष्टि करतां सम्यग्दर्शनरूप पर्यायनी व्यक्तता थाय छे. आ मूळ चीज छे, एने बदले ‘संयम लो, संयम लो’-एम केटलाक पत्रोमां लखाण आवे छे. पण अरे भाई, संयम कोने कहेवाय? सम्यग्दर्शन शुं चीज छे एनी खबर विना संयम आव्यो कयांथी? मार्ग जुदो छे बापा! अनंत शक्तिनो पिंड शक्तिवान द्रव्य अभेद एक छे तेनी द्रष्टि करवाथी समकित सहित अनंत शक्तिनो व्यक्त अंश पर्यायमां प्रगट थाय छे. अहा! जेम पाणीनो घडो भर्यो होय ने छलकाय तेम ज्ञानमात्रभावनी अंदर अनंत शक्तिओनुं ऊछळवुं थाय छे एनुं नाम समकित छे. भाई, आवा समकित विना व्रतादि कांई ज नथी. ए तो थोथां छे थोथां भगवान!

आ समयसारमां शक्तिनुं वर्णन द्रष्टिनी प्रधानताथी छे. प्रवचनसारमां जे ४७ नयनुं वर्णन छे ते ज्ञाननी प्रधानताथी छे. शक्ति ४७, नय ४७, भैया भगवतीदास रचित निमित्त-उपादानना दोहा ४७, अने चार घातिकर्मनी प्रकृति पण ४७ छे. आ ४७ शक्तिनुं स्वरूप यथार्थताथी समजे तेने ४७ प्रकृतिनो नाश थाय छे. कर्मप्रकृतिनो नाश कहेवो ए तो व्यवहार छे, वास्तवमां तेने अनंतज्ञानादि प्रगट थाय छे.

अहा! आचार्य अमृतचंद्रस्वामीए ४७ शक्तिनुं आमां अजब वर्णन कर्युं छे. जीवत्वशक्तिथी शरू कर्युं छे. शक्तिनी आवी वात श्वेतांबर आदि बीजे कयांय नथी. आ तो केवळज्ञाननी केडीए चालनारा संतोए अमृत पीरस्यां छे. भगवाननी दिव्यध्वनिनो आ सार छे. अत्यारे छेल्ली संबंधशक्तिनुं वर्णन चाले छे. कहे छे- ‘स्वभावमात्र स्व-स्वामित्वमयी संबंधशक्ति छे’. ज्ञान, दर्शन, आनंद आदि अनंत गुण अने तेनुं भवन नाम परिणमन ते स्वभावमात्र स्ववस्तु छे; केमके आ स्वभाव छे एम तेनी परिणतिमां भान थया विना आ स्वभाव छे ए वात कयांथी आवी? आम द्रव्य-गुण अने तेनी निर्मळ परिणति ते स्वभावमात्र स्व छे, अने तेना स्वामित्वमयी संबंधशक्ति छे.

अहाहा...! अनंतगुणरूपी स्वभावनुं स्वामित्व कयारे थाय? के ज्यारे पर्यायमां परिणमन थाय त्यारे आ स्व-स्वभावमय पोतानी पूर्ण वस्तु छे एम भान थयुं तो स्व-स्वामित्वमयी संबंधशक्तिनी पर्याय नो अंश प्रगट थाय छे. त्यारे द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां संबंधशक्तिनुं व्यापकपणुं थाय छे. अहीं ‘स्वभावमात्र स्व’ एम कह्युं छे एमां एकला त्रिकाळीनी वात नथी. त्रिकाळीनुं पर्यायमां भान थयुं तो त्रिकाळी द्रव्य, अनंत गुण अने तेनी निर्मळ निर्विकारी पर्याय-त्रणे स्वभावमात्र छे अने ए त्रणेमां स्व-स्वामित्वमयी संबंधशक्तिनुं व्यापकपणुं थाय छे.

भगवान आत्मा चैतन्य लक्षणे लक्षित छे. ज्ञाननी वर्तमान पर्याय स्वज्ञेयने जाणती प्रगट थई तेमां आ


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परमात्मस्वरूप पूर्ण विज्ञानघन वस्तु हुं छुं एम जाणवामां आव्युं, साथे एनी प्रतीति थई. जो प्रतीति न थाय तो आ सिद्ध समान कारणपरमात्मा हुं भगवान स्वरूप छुं ए कयां रह्युं? एक वार एक प्रश्न थयेलोः

प्रश्नः– महाराज! आप त्रिकाळी ध्रुव वस्तुने कारणपरमात्मा कहो छो; जो तेवो कारणपरमात्मा होय तो तेनुं कार्य आववुं जोईए ने? कारणपरमात्मा तो मोजुद छे, पण तेनुं सम्यग्दर्शनरूपी कार्य तो छे नहि, माटे तेने कारणपरमात्मा केम कहेवाय? त्यारे अमे जवाब दीधेलो के-

उत्तरः– भाई, जेने कारणपरमात्मा प्रतीतिमां आव्यो तेने ते कारणपरमात्मा छे. जेने प्रतीतिमां आव्यो नथी तेने कारणपरमात्मा कयां छे? समजाय छे? कारणपरमात्मा त्रिकाळी अनंतगुणस्वरूप भगवान तो अनादिथी छे, पण तेनो पर्यायमां भास थया विना कारणपरमात्मा छे ए वात कयां रही? मिथ्या श्रद्धावाळाने कारणपरमात्मानी श्रद्धा नथी; तेने तो बहारमां राग अने पर्यायनी श्रद्धा छे. सम्यग्द्रष्टिने ज कारणपरमात्मानी श्रद्धा छे. आज शास्त्रनी १७-१८ गाथानी टीकामां एम कह्युं छे के-अज्ञानीनी ज्ञान-पर्यायमां पण पर्यायनो स्वभाव स्वपरप्रकाशक होवाथी, स्वज्ञेय जाणवामां आवे छे, पण तेनी द्रष्टि त्यां स्वद्रव्य पर नथी; माटे तेना ज्ञानमां जणातो होवा छतां तेनी पर्यायमां कारणपरमात्मा आव्यो नहि. द्रव्य ज्ञानमां जणावा छतां द्रव्य उपर द्रष्टि नहि होवाथी पर्यायमां द्रव्य आव्युं नहि.

भाई, राग अने पर्यायने जे पोतानुं स्व माने छे ते बहिरात्मा छे, केमके पर्याय ते बहिर्तत्व छे, ने वस्तु छे ते अंतःतत्त्व छे. एक समयनी पर्याय उपर जेनी द्रष्टि छे ते बहिद्रष्टि बहिरात्मा छे, ने भगवान ज्ञायकनो जेणे अंतरमां स्वीकार कर्यो ते अंतरात्मा थयो. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-आनंदरूप जे स्वना भवनरूप भाव छे ते ज मारुं स्व छे ने हुं तेनो स्वामी छुं, आ सिवाय बीजुं कांई मारुं स्व नथी, ने बीजा कोईनो हुं स्वामी नथी-एम तेने हवे निर्णय थयो छे. जुओ आ संबंधशक्ति! परथी संबंध होवानुं निषेधीने आ संबंधशक्ति स्वमां एकता स्थापित करे छे.

पण अरे! अज्ञानीनी द्रष्टि बहार पर अने पर्याय पर होय छे. नियमसारना शुद्धभाव अधिकारमां आवे छे के-जीवादि सात तत्त्व बहिर्तत्व छे. त्यां जीवादि एटले जीवनी पर्याय समजवी. जीवादि बहिर्तत्व हेय छे अने पोतानो आत्मा जे एक ज्ञायकभावमात्र छे ते उपादेय छे. निर्मळ पर्यायने पण त्यां बहिर्तत्व कहेवामां आवेल छे. संवर, निर्जरा आदि पर्याय छे तेने त्यां बहिर्तत्व कही छे, हेय कही छे. त्यां प्रयोजनवश नवे तत्त्वनी बधी पर्यायने हेय कही छे, ने एक अंतःतत्त्व स्वद्रव्यने ज आश्रय करवायोग्य उपादेय कह्युं छे. हवे आ सांभळवाय न मळे तेने के दि’ तेनुं ज्ञान थाय, ने कयारे ते अंतरमां उतरे? आ समज्या विना तारुं बधुं थोथां छे भाई. आ दया, दान, व्रत इत्यादिना विकल्प बधुं थोथां छे भगवान!

त्यां कहे छे-दया, दान इत्यादि जे विकल्प छे ते तो हेय छे, पण द्रव्यद्रष्टि करतां जे संवर निर्जरानी निर्मळ पर्याय प्रगट थई तेय हेय छे. संवर एटले चारित्र. भगवान आनंदस्वरूपमां रमणता करतां जे चारित्रनी पर्याय प्रगट थई ते चारित्र दशा हेय छे, केमके पर्यायना लक्षे राग उत्पन्न थाय छे. पर्यायनुं लक्ष छोडावी एक ज्ञायकनुं ज लक्ष कराववानुं प्रयोजन छे तेथी त्यां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी दशाने हेय कही छे, परद्रव्य कही छे. श्रीमद् राजचंद्रजीने तत्त्वद्रष्टि हती. तेमणे एक वार कहेलुं-‘अरे, आ नाद कोण सांभळशे? कोण हा पाडशे? परमात्मानो आ नाद छे.

लोकोए बहारनुं बधुं मान्युं छे. व्रत करे, ने तपस्या करे पण ए संसारना नाशनो उपाय नथी. अंदर स्वभावमात्र कारणपरमात्मा छे, पण जे तेनी प्रतीति ने ज्ञान करे तेने ने? त्रिकाळी ज्ञायक स्वभाव ते पोतानुं स्व छे, पण जे तेनो आश्रय करीने जाणे तेने ते स्व छे. स्वनुं भान थाय, सम्यग्दर्शन-ज्ञान थाय त्यारे ते स्व-भाव छे एम कहेवाय.

अरे! आ लोकमां पोतानुं शुं छे ने कोनी साथे पोताने परमार्थ संबंध छे तेना भान विना, परने ज पोतानुं मानीने जीव संसारमां अनंत काळथी रखडी मरे छे. ते परने पोतानुं करवा निरंतर उद्यमशील रहे छे, पण परद्रव्य कदीय पोतानुं थई शकतुं नथी, तेथी मोहमुग्ध एवो ते दुःखी ज दुःखी थाय छे.

अहा! जो परने पररूपे जाणे ने स्वने स्व-रूपे जाणे तो अवश्य ते पोताना स्वरूपनी-स्वभावमात्र वस्तुनी-एकाग्रताथी सुखी ज थाय.

त्रिकाळी एक ज्ञायकस्वभाव प्रभु आत्मा ते स्व, अने तेना भावनुं भवन-जेमां आ स्व छे एम भान थयुं ते स्व-भाव छे. आ रीते चैतन्यद्रव्य, तेना गुण अने तेनी शुद्ध परिणति प्रगट थई ते पोतानुं स्व, अने तेनी साथे धर्मी


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पुरुषने स्वामित्वनो संबंध छे. बाकी पुण्य के व्यवहार रत्नत्रयनो विकल्प ते स्व अने धर्मी तेना स्वामी-एम त्रणकाळमां छे नहि. प्रभु! तारा स्वभावमां जे स्थिर होय ते तारुं स्व छे, ने तेनुं परिणमन थाय ते तारुं स्व-कार्य छे. आम द्रव्य-गुण ने पर्याय ए त्रणे तारुं स्व अने तेनी साथे तारे स्वामीपणानो संबंध छे. आ सिवाय पर के राग साथे तारे स्व-स्वामीपणानो संबंध नथी. समजाणुं कांई...?

अहाहा...! पोतानो एक ज्ञायकभाव अनंत शक्तिथी भरपुर भर्यो छे. एनो ज्यां अनुभव थयो तो तेना परिणमनमां पण स्व-भाव-स्वना भवनरूप स्व-भाव आव्यो, अने संबंध शक्ति द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापी; द्रव्य-गुणमां तो हती, ने भान थयुं त्यां पर्यायमां शक्तिनो अंश प्रगट थयो. तो धर्मी पोताना द्रव्य-गुण ने तेना आश्रये प्रगट शुद्ध परिणति-ए सिवाय पोताने स्व-स्वामी संबंध होवानुं कयांय स्वीकारतो नथी. अहा! दिगंबर संतो सिवाय वस्तुनुं आवुं स्वरूप कोण बतावे? दिगंबर संतोए अकारण करुणा करीने सार तत्त्व जगत समक्ष मूकयुं छे. तेओ भगवान केवळीनो वारसो मूकी गया छे. पण अरे! वारसो (वारसदार) रह्या नहि! कोईने थाय के अमारुं बधुं खोटुं? हा, खोटुं छे; राग ने पर साथेनो तारो सर्व संबंध खोटो छे.

अरे प्रभु! वस्तुनुं स्वरूप आवुं छे. पोतानां द्रव्य-गुण तो त्रिकाळ शुद्ध छे, ने शक्तिना धरनार द्रव्यनो ज्यां पर्यायमां अनुभव थयो त्यां स्व-स्वामित्वमय संबंधशक्तिनुं परिणमन पण थयुं. तो द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणे स्व-भाव छे, ने ते स्व-भावनो स्वामी पोते आत्मा छे एम निश्चय थयो. जुओ आ निश्चय! अहा! धर्मीने आ निश्चय थयो छे के हुं मारा ज्ञान-आनंद वगेरे अनंत गुणोनो स्वामी छुं, ने ते ज मारा स्व-भावो छे. मारुं स्वरूप एवुं नथी के हुं परनो ने विकारनो स्वामी थाउं. परनो स्वामी परद्रव्य ने विकारनो स्वामी विकार होय; मारो शुद्धभाव विकारनो स्वामी केम होय? मारा एक ज्ञायकभाव साथे जेणे एकत्व कर्युं छे एवो जे शुद्ध रत्नत्रयनो भाव ते ज मारुं स्व छे, ने तेनो ज हुं स्वामी छुं. रागादि तो माराथी छूटा पडी जाय छे, माटे ते मारुं स्व नथी, हुं तेनो स्वामी नथी. हुं तो स्व-भावमात्रनो ज स्वामी छुं.

प्रश्नः– तो आ स्त्रीनो स्वामी, लक्ष्मीनो स्वामी, प्रजानो स्वामी वगेरे लोकमां कहे छे ते शुं जूठुं छे? उत्तरः– हा, स्त्रीनो स्वामी, लक्ष्मीनो स्वामी, प्रजानो स्वामी इत्यादि लोकमां जे कहेवाय छे ते परमार्थ नथी. खरेखर आत्मा स्त्री, लक्ष्मी के प्रजा वगेरेनो स्वामी नथी, केमके ए पृथक् वस्तुओ तेनुं स्व नथी. आ शरीरनो आत्मा स्वामी नथी, ने रागादिनोय स्वामी नथी; आत्मा तो ज्ञान-दर्शन-आनंदरूप स्व-भावोनो ज स्वामी छे, ने ते ज आत्माना ‘स्व’ छे. ‘स्व’ तो तेने कहीए जे सदाय साथे रहे, कदीय पोताथी जुदुं न पडे. शरीर जुदुं पडे छे, राग जुदो पडी जाय छे, पण ज्ञान-दर्शन-आनंद जुदा पडता नथी, माटे तेनी साथे ज आत्माने स्व-स्वामीपणुं छे, रागादि साथे नहि. समजाणुं कांई...?

जुओ, राम, लक्ष्मण, सीता वनमां गयां हतां. सीताने उपाडी जवाथी रावण साथे तेमने लंका पासे युद्ध थयुं. रावणे लक्ष्मणने शक्ति मारीने मूर्च्छित बनावी दीधा. शक्ति एटले बहारनी विद्या. त्यारे लक्ष्मणनी हालत जोईने राम कल्पांत करवा लाग्याः

आव्या’ता त्यारे त्रण जणा ने जाशुं एकाएक,
ए माताजी खबरुं पूछशे, त्यारे शो शो उत्तर दईश;
लक्ष्मण जागने होजी, तुं बोल दे एकवारजी...

जुओ, समकिती रामने आवो विकल्प आव्यो छे, पण ते सीता, लक्ष्मणना के तत्संबंधी विकल्पनाय ते काळे स्वामी नथी. समजाय छे कांई...? समकितीनी परिणति ज आवी विचित्र अटपटी होय छे. भजनमां आवे छे ने के-

“रमति अनेक सुरनि संग पै, तिस परिनति तैं नित हटाहटी;
चिन्मूरत दृग्धारीकी मोहि रीति लगति है अटापटी.”

लक्ष्मण मूर्च्छित थई पडया छे, त्यारे कोईए कह्युं के एक विशल्या नामनी कुंवारी कन्या छे. ते भरतना राज्यमां रहे छे. तेने तत्काल अहीं बोलावो. तेना स्नाननुं जळ छांटवाथी लक्ष्मणनी मूर्च्छा उतरी जशे. ने बन्युं पण एम. ते प्रमाणे करतां लक्ष्मणजीना शरीरमांथी शक्ति चाली गई, ने लक्ष्मणजी जागृत थया. अहीं कहे छे-शल्य रहित विशल्या एवी


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आत्मानी शुद्ध परिणति ज्यां जागृत थई त्यां ‘हुं आनंदकंद एक ज्ञायक प्रभु छुं, ते मारुं स्व ने हुं तेनो स्वामी छुं’-एम तेने स्व-स्वामी संबंध प्रगट थाय छे. बेनना वचनामृतमां आवे छे ने के-‘जागतो जीव उभो छे, ते कयां जाय? जरूर प्राप्त थाय.’ जागतो जीव एटले ध्रुव एक ज्ञायकभाव-तेनी द्रष्टि कर्ये ते जरूर प्राप्त थाय. आत्मामां शक्ति जागी (-परिणमी) त्यां आखोय आत्मा जागी गयो. पहेलां रागनी एकतामां मूर्च्छित हतो ते हवे एक ज्ञायकभावनी एक्तामां जागृत थयो. तेना द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां स्व-स्वामीपणानो संबंध स्थापित थयो. हवे तेने रागादि साथे स्व-स्वामित्व संबंध नथी.

तो व्यवहार रत्नत्रयना परिणाम तो एने छे? हा, छे; पण व्यवहार रत्नत्रयना परिणाम साथे स्व-स्वामित्व संबंध नथी. तेनी साथे ज्ञेय-ज्ञायक संबंध व्यवहार-मात्रथी छे. ते रागना परिणामने परज्ञेयपणे मात्र जाणे छे. बस. समजाणुं कांई...?

नियमसारमां निर्मळ पर्यायने परद्रव्य, अने हेय कही छे. त्यां अपेक्षा जुदी छे. त्यां उपादेय तत्त्व जे सम्यग्दर्शननो विषय छे एवो एक ज्ञायकभाव सिद्ध करवो छे, ने पर्यायनुं लक्ष मटाडवुं छे; तो निर्मळ पर्यायने परद्रव्य अने हेय कही. अहीं संबंधशक्तिमां जीवनो वास्तविक संबंध कोनाथी छे ए सिद्ध करवुं छे, तो द्रव्य-गुण ने तेनी निर्मळ पर्याय ज पोतानुं स्व छे, ने पोते तेनो ज स्वामी छे, परनो ने रागनो नहि-एम सिद्ध कर्युं छे. हवे सत्य वात सांभळे नहि ने राग-द्वेषनी-एकली पापनी-मजुरीमां आवी जिंदगी वेडफी नाखे! अरे भाई, एमां तने भारे नुकशान छे. बहारनी क्रिया तो तुं करतो (करी शकतो) नथी, ने पुण्य-पापना विकल्पोनी मजुरी कर्या करे छे पण एथी तो तने अनंत संसार फळशे; कोण जाणे कयांय नर्क-निगोदमां चाल्यो जईश.

प्रश्नः– हा, पण आत्माने कर्म साथे तो निमित्त-नैमित्तिक संबंध छे ने? उत्तरः– ना; पोताना स्वभाव साथे ज स्व-स्वामित्व संबंध जेने प्रगट थयो, एक ज्ञायकभावना एकत्वपणे जे परिणम्यो एवा धर्मी पुरुषने कर्म साथेना निमित्त-नैमित्तिक संबंधनो विच्छेद थतो जाय छे. जेने स्वभावनी द्रष्टि थई नथी एवो मिथ्याद्रष्टि जीव ज कर्म साथेना निमित्त-नैमित्तिक संबंधे परिणमे छे. जेने निज स्वभाव-एक ज्ञायकभाव साथे एकपणुं थयुं. ज्ञायक साथे ज एकाकार थई जे परिणम्यो तेने हवे कर्मनुं निमित्तपणुं छुटतुं जाय छे. साधकने तो पोताना स्वभावमां जेम जेम एक्तानुं परिणमन दृढ थतुं जाय छे तेम तेम कर्मनो संबंध तूटतो जाय छे, ने क्रमशः पूर्ण भावने प्राप्त थई कर्मना संबंध रहित थई जाय छे, सिद्धपदने प्राप्त थाय छे.

अहा! समकितीने कर्मनुं ने रागनुं स्वामित्व नथी. ए तो स्व-स्वभावना स्वामी छे. पोताना द्रव्य-गुण ने द्रव्यना आश्रये प्रगटेली निर्मळ रत्नत्रयनी दशा-तेना ज ते स्वामी छे, ने ते ज एनुं स्व छे. कर्मना ने कर्मजनित रागनो स्वामी थाय ते तो मिथ्याद्रष्टि छे. ल्यो, हवे लोको कहे छे के-व्यवहारनी क्रिया करो, एम करतां करतां धर्म थशे, व्यवहार रत्नत्रयथी निश्चय रत्नत्रय थशे, सराग संयम पाळतां वीतरागी संयम थशे; पण भाई, आवी जे प्ररूपणा छे ए तो स्वरूपनो घात करनारी छे. आत्माने ज्यां रागनुं स्वामित्व ज नथी त्यां रागथी आत्मानो धर्म केम प्रगट थशे? भगवाननी वाणीमां तो आ आव्युं छे के वीतराग परिणतिथी ज धर्मदशा उत्पन्न थाय छे, अने ते वितराग परिणति स्वद्रव्यना आश्रये ज उत्पन्न थाय छे. कर्मना आश्रये के व्यवहार-रत्नत्रयना आश्रये वीतराग परिणति उपजे ए त्रणकाळमां सत्य नथी. अहा! धर्मी जीव पर साथे जराय संबंध मानता नथी.

समयसार गाथा २०७-२०८ नी टीकामां आव्युं छे के- “जे जेनो स्व भाव छे ते तेनुं स्व छे. अने ते तेनो (स्वभावनो) स्वामी छे-एम सूक्ष्म तीक्ष्ण तत्त्वद्रष्टिना आलंबनथी ज्ञानी (पोताना) आत्माने ज आत्मानो परिग्रह नियमथी जाणे छे, तेथी ‘आ मारुं स्व नथी, हुं आनो स्वामी नथी’ एम जाणतो थको परद्रव्यने परिग्रहतो नथी.”

वळी ज्ञानी कहे छे के-“जो अजीव परद्रव्यने हुं परिग्रहुं तो अवश्यमेव ते अजीव मारुं स्व थाय, हुं पण अवश्यमेव ते अजीवनो स्वामी थाउं; अने अजीवनो जे स्वामी ते खरेखर अजीव ज होय. ए रीते अवशे (लाचारीथी) पण मने अजीवपणुं आवी पडे. मारुं तो एक ज्ञायक भाव ज जे स्व छे, तेनो ज हुं स्वामी छुं; माटे मने अजीवपणुं न हो, हुं तो ज्ञाता ज रहीश, परद्रव्यने नहि परिग्रहुं.”


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जुओ धर्मात्मानी आ सूक्ष्म तत्त्वद्रष्टि! जेम भेंसनो पति पाडो होय तेम, कहे छे, जडनो पति जड ज होय. पण हुं तो एक ज्ञायक भाव छुं, ने ज्ञायक ज रहीश अर्थात् ज्ञायकना स्वामीपणे ज रहीश. ल्यो, आवी वात! धर्मी जीव मात्र पोताना स्व-स्वभावमां ज स्व-स्वामित्व जाणे छे, शरीर, कर्म, के रागादि साथे स्व-स्वामित्व स्वीकारता नथी. धर्मीने वर्तमान दशामां किंचित् राग छे, पण तेना अभिप्रायमां ‘राग ते हुं’ एवी रागनी पकड नथी; ‘एक ज्ञायक भाव ज हुं-एवी स्वभावनी ज पकड छे.

सम्यग्द्रष्टिनो स्व-स्वामित्व संबंध पोताना स्वरूपमां ज समाय छे. तेथी निर्मळ त्रिकाळी द्रव्य-गुण अने तेनी निर्मळ, पवित्र परिणति-ए त्रणे जे पोतानो भाव छे ते तेनुं स्व छे, ने तेनो ज ते स्वामी छे. ज्ञानी धर्मात्मा पुरुषने ‘राग मारुं स्व ने रागनो हुं स्वामी’ एवो संबंध छे ज नहि. तेने व्यवहार रत्नत्रयनो विकल्प आवे छे, पण ते ज्ञेय-ज्ञायकरूप व्यवहारना संबंधमां जाय छे. राग ते परज्ञेय छे, पोताना द्रव्य-गुण-पर्याय ते स्वज्ञेय छे; शुद्ध आत्मद्रव्य स्वज्ञेय छे, ते उपादेय छे, ने राग परज्ञेय छे, तेनो धर्मी जीव ज्ञाता मात्र छे. राग परज्ञेय-बस एटलो व्यवहार संबंध छे, तेनी साथे हवे धर्मीने बीजो कोई संबंध नथी. अहाहा...! अंदर मीठो महेरामण अमृतनो नाथ प्रभु आत्मा झुले छे, तेमांथी अमृत झरे छे तेनो स्वाद कर; राग छे ए तो झेरनो स्वाद छे, ज्ञानी तेना स्वादना स्वामी थता नथी.

जुओ, रत्नत्रयना निर्मळ परिणाम ते मारुं स्व ने हुं तेनो स्वामी, एक ज्ञायक भाव ते मारुं स्व, ने हुं तेनो स्वामी-एम स्व-स्वामीरूप भेद-विकल्पनी आ वात नथी. वास्तवमां धर्मीने द्रव्य-पर्यायनी एकतारूप परिणमन थयुं छे एनी आ वात छे. पोते पोताना स्वभाव साथे ज संबंध राखीने तेनाथी ज एक्तारूपे परिणमे, तेमां ज लीनता करी परिणमे एवो आत्मानो स्वभाव छे, ने ते ज एनी शोभा छे, सुंदरता छे. परना संबंधथी आत्माने ओळखवो ए तो कलंक छे; लौकिकमां पण एने कलंक कहे छे, माटे हे भाई! परना संबंधथी विरित्त थईने तारा एक ज्ञायक भावमां ज एकत्व कर. एक ज्ञायक भावमां एकत्व पामतां अंदर निर्मळ रत्नत्रय पाकशे. ते तारो स्व-भाव छे, ने तुं तेनो स्वामी छो. आ सिवाय बीजा कोई साथे तारे स्व-स्वामीपणानो संबंध छे नहि. ल्यो, आवी वात!

आ प्रमाणे छेल्ली आ संबंधशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.

* * *
कळश – २६४

‘इत्यादिक अनेक शक्तिओथी युक्त आत्मा छे तोपण ते ज्ञानमात्रपणाने छोडतो नथी’ -एवा अर्थनुं कळशरूप काव्य हवे कहे छेः-

(वसन्ततिलका)
इत्याद्यनेकनिजशक्तिसुनिर्भरोऽपि
यो ज्ञानमात्रमयतां न जहाति भावः ।
एवं
क्रमाक्रमविवर्तिविवर्तचित्रं
तद्रव्यपर्ययमयं चिदिहास्ति वस्तु।। २६४।।

श्लोकार्थः– [इत्यादि–अनेक–निज–शक्ति–सुनिर्भरः अपि] इत्यादि (-पूर्वे कहेली ४७ शक्तिओ वगेरे वगेरे) अनेक निज शक्तिओथी सारी रीते भरेलो होवां छतां [यः भावः ज्ञानमात्रमयतां न जहाति] जे भाव ज्ञानमात्रमयपणाने छोडतो नथी, [तद्] एवुं ते, [एवं क्रम–अक्रम–विवर्ति–विवर्त–चित्रम्] पूर्वोक्त प्रकारे क्रमरूपे अने अक्रमरूपे वर्तता विवर्तथी (-रूपांतरथी, परिणमनथी) अनेक प्रकारनुं, [द्रव्य–पर्ययमयं] द्रव्यपर्यायमय [चिद्] चैतन्य (अर्थात् एवो ते चैतन्यभाव-आत्मा) [इह] आ लोकमां [वस्तु अस्ति] वस्तु छे.

भावार्थः– कोई एम समजशे के आत्माने ज्ञानमात्र कह्यो तेथी ते एकस्वरूप ज हशे. परंतु एम नथी. वस्तुनुं स्वरूप द्रव्यपर्यायमय छे. चैतन्य पण वस्तु छे, द्रव्यपर्यायमय छे. ते चैतन्य अर्थात् आत्मा अनंत


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शक्तिओथी भरेलो छे अने क्रमरूप तथा अक्रमरूप अनेक प्रकारना परिणामना विकारोना समूहरूप अनेकाकार थाय छे तोपण ज्ञानने-के जे असाधारण भाव छे तेने-छोडतो नथी, तेनी सर्व अवस्थाओ-परिणामो-पर्यायो ज्ञानमय ज छे. २६४.

* कळश २६४ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

इत्यादि–अनेक–निज–शक्ति–सुनिर्भरः अपि इत्यादि (पूर्व कहेली ४७ शक्तिओ वगेरे वगेरे) अनेक निज शक्तिओथी सारी रीते भरेलो होवा छतां... ,

जुओ शुं कहे छे? भगवान आत्मा निज शक्तिओथी ‘सुनिर्भरः’ सारी रीते भरपुर भरेलो छे. शुं वासणमां दूधनी जेम आत्मा निजशक्तिओथी भरपुर भरेलो छे?

ना, दूधमां जेम धोळप भरेली छे, वा साकरमां जेम गळपण भरेलुं छे तेम भगवान आत्मा निज शक्तिओथी भरपुर भरेलो छे. अहाहा...! चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मा अनंतशक्तिमय ज छे. दूधने वासण ए तो बे पृथक् चीज छे, एवुं आमां नथी. आत्मा अने शक्तिओ अभेद एकरूप छे; आत्मा शक्तिमय ज छे. समजाय छे कांई...?

अहाहा...! कहे छे-आम अनंत शक्तिओ-गुणोथी सारी पेठे भरपुर भरेलो होवा छतां ‘यः भावः ज्ञानमात्रमयतां न जहाति’ जे भाव ज्ञानमात्रमयपणाने छोडतो नथी, ‘तद्’ एवुं ते, ‘एवं क्रम–अक्रम–विवर्ति– विवर्त–चित्रम्’ पूर्वोक्त प्रकारे क्रमरूपे अने अक्रमरूपे वर्तता विवर्तथी (-रूपांतरथी, परिणमनथी) अनेक प्रकारनुं, ‘द्रव्यपर्ययमयम्’ द्रव्यपर्यायमय ‘चिद् चैतन्य (अर्थात् एवो ते चैतन्यभाव-आत्मा) ‘इद’ आ लोकमां ‘वस्तु अस्ति’ वस्तु छे.

अहाहा...! जोयुं? अनंत गुणोथी भरेलो होवा छतां जे भाव ज्ञानमात्रपणाने छोडतो नथी अर्थात् जेना अक्रमे वर्तता गुणो ने क्रमे वर्तती पर्यायोमां ज्ञान व्यापक छे एवो चैतन्यभाव वस्तु आत्मा छे. जुओ, अहीं अक्रमे वर्तता गुणो अने क्रमे वर्तती पर्यायो ते आत्मा कहीने प्रमाणज्ञान कीधुं छे. अहा! प्रत्येक गुण-पर्यायमां ज्ञान व्यापक छे तेथी ज एने ज्ञानमात्र आत्मा कह्यो छे. अहीं अक्रमे वर्तता गुणो ने क्रमे वर्तती पर्यायो-एरूप ज्ञानमात्र वस्तु आत्मद्रव्य लीधुं छे केमके अनंत गुणमां-प्रत्येकमां प्रतिसमय रूपांतर-परिणमन थवुं ते एनो स्वभाव छे. आम अक्रमे वर्तता गुणो ने क्रमे वर्तती-रूपांतर थती पर्यायो-एम द्रव्यपर्यायमय चैतन्यभाव ते आत्मा छे; अने ते लोकमां वस्तु छे. बे-द्रव्य-पर्याय बे थईने एक वस्तु छे, बे भिन्न-भिन्न चीज नथी, बे थईने बे वस्तु नथी.

अहाहा...! भगवान! तुं कोण छो? तो कहे छे-अनंत शक्तिओथी भरपुर भरेल ज्ञानमात्र वस्तु आत्मा छो. अहाहा...! तारो आत्मा कांई विकार के कर्मोथी भरेलो नथी, एनाथी तो भिन्न शुद्ध चैतन्यवस्तु तुं आत्मा छो. अहाहा...! विकारथी ने परथी जुदो एवो आ चैतन्य भगवान, कहे छे, ज्ञानमात्रमयपणाने कदी छोडतो नथी. अहा! धुमाडाथी भिन्न एवी अग्नि जेम उष्णताने कदी छोडती नथी, तेम परथी ने विकारथी भिन्न शुद्ध चैतन्यवस्तु पोताना ज्ञानमयपणाने कदी छोडती नथी. माटे हे भाई, ज्ञानभाव वडे तारी आत्मवस्तुने लक्षमां लईने तेनो अनुभव कर. जुओ, आ धर्मनी रीत!

अहाहा...! अंतर्मुख थईने ज्ञानभाव वडे जेणे निज चैतन्य वस्तुनो अनुभव कर्यो ते ज्ञानी-धर्मी छे, ते ज्ञानभावमयपणे. ज सदाय वर्ते छे, ते ज्ञानभावने कदी छोडतो नथी. अहा! आवो साधक धर्मी पुरुष एम जाणे छे के-मारो आत्मा सहज ज क्रमपर्यायरूप ने अक्रमगुणरूप स्वभाववाळो छे. अनंत गुण एक साथे अक्रमपणे वस्तुमां तिरछा-तिर्यक्प्रचयरूप रहेला छे, ने पर्यायो नियत क्रमपणे क्रमवर्ती-उर्ध्वप्रचयरूप थाय छे. अहाहा...! मारा अक्रमवर्ती गुणोमां ने क्रमवर्ती पर्यायोमां हुं सदाय ज्ञानमात्रभावपणे ज वर्तुं छुं. आवा निर्णयमां ज्ञानीने ज्ञातास्वभावना आलंबननो पुरुषार्थ वर्ते छे; किंचित् राग छे तेने ते ज्ञानभावथी बहार परज्ञेयपणे ज जाणे छे बस. ल्यो, आम ज्ञानमात्रभावपणे ज परिणमतो परिणमतो साधक साध्य एवा सिद्धपद प्रति हाल्यो जाय छे. आवी वात! समजाणुं कांई...?

* कळश २६४ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘कोई एम समजशे के आत्माने ज्ञानमात्र कह्यो तेथी ते एकस्वरूप ज हशे परंतु एम नथी. वस्तुनुं स्वरूप द्रव्यपर्यायमय छे. चैतन्य पण वस्तु छे, द्रव्यपर्यायमय छे.’


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जुओ, आत्माने ज्ञानमात्र कह्यो तेथी ते एकस्वरूप ज छे एम नहि, पण द्रव्यपर्यायमय छे एम वस्तुने जेम छे तेम अनेकान्तमय जाणवी.

प्रश्नः– तो समयसारनी छठ्ठी गाथामां हुं-आत्मा अप्रमत्तेय नहि ने प्रमत्तेय नहि-एम कह्युं छे ने? उत्तरः– हा, त्यां बीजी वात छे. त्यां द्रष्टिनो विषय एक ज्ञायक भाव बताववानुं प्रयोजन छे. अहीं द्रष्टि अने द्रष्टिनो विषय-बन्ने मळी एक चैतन्यवस्तु आत्मा एम प्रमाणज्ञान कराव्युं छे. तेथी कहे छे के-चैतन्य पण वस्तु छे, अने ते द्रव्यपर्यायमय छे. आमां अहीं निर्मळ पर्यायनी वात छे हों, अशुद्धता ए तो शक्तिनुं परिणमन नथी. हवे कहे छे-

‘ते चैतन्य अर्थात् आत्मा अनंत शक्तिओथी भरेलो छे. अने क्रमरूप तथा अक्रमरूप अनेक प्रकारना परिणामना विकारोना समूहरूप अनेकाकार थाय छे तो पण ज्ञानने-के जे असाधारण भाव छे तेने-छोडतो नथी, तेनो सर्व अवस्थाओ-परिणामो-पर्यायो ज्ञानमय ज छे.

जोयुं? कहे छे-आत्मा अनंत शक्तिओथी भरपुर भरेलो छे. केटली? तो कहे छे-जेने गणतां अनंतकाळेय पार न आवे एटली अनंत शक्तिओथी भरपुर भरेलो भगवान आत्मा छे. अहा! अनंत शक्तिमय ज भगवान आत्मा छे. ज्ञानने अंतरमां वाळतां अनंत शक्तिमय भगवान आत्मा अनुभवमां आवे छे, ने साथे शक्तिओ निर्मळपणे ऊछळे छे-परिणमे छे. आम निर्मळ निर्मळ परिणमतां केवळज्ञान थाय त्यारे अनंत शक्तिओने तथा असंख्य प्रदेशोने भिन्न भिन्न करीने प्रत्यक्ष जाणे. माटे हे भाई, तारी अनंत चैतन्य संपदाने. साक्षात् देखवी होय तो तारा ज्ञानने रागथी छूटुं करीने अंदर स्वभावमां वाळ, स्वभावमां अंतर्लीन थईने जाणतां अनंत चैतन्य संपदा साक्षात् जणाई जाय छे.

जुओ, वेदांतवाळा अद्वैत ब्रह्म-एक ज आत्मा-ब्रह्म छे एम कहे छे, तेओ गुण-पर्यायोने स्वीकारता नथी. आत्मानो अनुभव ए वळी शुं? -एम द्रव्य-पर्यायरूप अनेकान्तमय वस्तुने मानता नथी. परंतु तेमनी एवी मान्यता मिथ्या छे, केमके वस्तुमां-आत्मामां अक्रमवर्ती गुणो ने क्रमवर्ती पर्यायो सदाय वर्ते छे. वास्तवमां अक्रमे वर्तता गुणो ने क्रमे वर्तती पर्यायो-ए बेना समुदायरूप ज चैतन्यवस्तु आत्मा छे. अहा! आवा आत्माना अनंत गुणमां ज्ञान एक असाधारण भाव छे जे स्वने अने परने सर्वने भेद पाडीने जाणे छे. आ ज्ञानभाव वडे आत्मानी बधी अवस्थाओ-पर्यायो ज्ञानमय ज छे. आवी वात! समजाणुं कांई...?

* * *

‘आ अनेकस्वरूप-अनेकांतमय-वस्तुने जेओ जाणे छे, श्रद्धे छे अने अनुभवे छे, तेओ ज्ञानस्वरूप थाय छे’-एवा आशयनुं, स्याद्वादनुं फळ बतावतुं काव्य हवे कहे छेः-

(वसन्ततिलका)
नैकान्तसङ्गतदशा स्वयमेव वस्तु–
तत्त्वव्यवस्थितिमिति प्रविलोकयन्तः।
स्याद्वादशुध्दिमधिकामधिगम्य सन्तो
ज्ञानीभवन्ति जिननीतिमलङ्गयन्तः।।
२६५।।

श्लोकार्थः– [इति वस्तु–तत्त्व–व्यवस्थितिम् नैकान्त–सङ्गत–दशा स्वयमेव प्रविलोकयन्तः] आवी (अनेकांतात्मक) वस्तुतत्त्वनी व्यवस्थितिने अनेकांत-संगत (-अनेकांत साथे सुसंगत, अनेकांत साथे मेळवाळी) द्रष्टि वडे स्वयमेव देखता थका, [स्याद्वाद–शुध्दिम् अधिकाम् अधिगम्य] स्याद्वादनी अत्यंत शुद्धिने जाणीने, [जिन–नीतिम् अलङ्गयन्तः] जिननीतिने (जिनेश्वरदेवना मार्गने) नहि उल्लंघता थका, [सन्तः ज्ञानीभवन्ति] सत्पुरुषो ज्ञानस्वरूप थाय छे.


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भावार्थः– जे सत्पुरुषो अनेकांत साथे सुसंगत द्रष्टि वडे अनेकांतमय वस्तुस्थितिने देखे छे, तेओ ए रीते स्याद्वादनी शुद्धिने पामीने-जाणीने, जिनदेवना मार्गने-स्याद्वादन्यायने-नहि उल्लंघता थका, ज्ञानस्वरूप थाय छे. २६प.

* कळश २६पः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘इति वस्तु–तत्त्व–व्यवस्थितिम् नैकान्त–सङ्गत–दशा स्वयमेव प्रविलोकयन्तः’ आवी (अनेकान्तात्मक) वस्तुतत्त्वनी व्यवस्थितिने अनेकान्त-संगत (-अनेकान्त साथे सुसंगत, अनेकान्त साथे मेळवाळी) द्रष्टि वडे स्वयमेव देखता थका...’

जुओ, शुं कहे छे? के अनेकान्तात्मक-अनेक धर्मस्वरूप वस्तु भगवान आत्मा छे. अहा! आवी वस्तुतत्त्वनी व्यवस्थाने-द्रव्यपर्यायमय वस्तु व्यवस्थाने अनेकान्त साथे सुसंगत-मेळवाळी द्रष्टि वडे जेओ देखे छे, वास्तवमां तेओ यथार्थ द्रष्टिवाळा छे. द्रव्यनी द्रष्टि (द्रव्यद्रष्टि) आवा द्रव्यपर्यायस्वरूप वस्तुना यथार्थ ज्ञानपूर्वक होय छे. ‘स्वयमेव देखता थका’-एम कह्युं ने? मतलब के धर्मी सत्पुरुषो पोते ज पोताना ज्ञाननी निर्मळ दशामां जेवी अनेकान्तमय वस्तु छे तेवी अनेकान्तथी सुसंगत द्रष्टि वडे देखे छे. समजाणुं कांई...?

हवे कहे छे-अने ए रीते ‘स्याद्वाद–शुध्दिम् अधिकाम् अधिगम्य’ स्याद्वादनी अत्यंत शुद्धिने जाणीने, ‘जिन–नीतिम् अलङ्गयन्तः’ जिननीतिने (जिनेश्वरदेवना मार्गने) नहि उल्लंघता थका, ‘सन्तः ज्ञानीभवन्ति’ सत्पुरुषो ज्ञानस्वरूप थाय छे.

‘स्याद्वादनी अत्यंत शुद्धिने जाणीने’ एटले शुं? के जे प्रकारे वस्तु नित्य छे ते प्रकारे तेने नित्य जाणीने, तथा जे प्रकारे वस्तु अनित्य छे ते प्रकारे तेने अनित्य जाणीने, तेवी ज रीते वस्तु जे प्रकारे एक छे ते प्रकारे एक जाणीने तथा जे प्रकारे अनेक छे ते प्रकारे अनेक जाणीने;-आ प्रमाणे वस्तु नित्य-अनित्य, एक-अनेक, सत्-असत्, तत्-अतत् इत्यादि प्रकारे जेम छे तेम अपेक्षाथी यथार्थ जाणवी ते स्याद्वादनी अत्यंत शुद्धि छे-तेने जाणीने; अहाहा...! द्रव्यपर्यायस्वरूप वस्तु आत्मा छे तेने यथार्थ जाणीने, जिननीतिने अर्थात् भगवान जिनेश्वरदेवना मार्गने नहि उल्लंघता थका... , जुओ, सत्पुरुषो-संतो-भगवानना मार्गने ओळंगता नथी. अहाहा...! आम भगवानना मार्गने नहि ओळंगता थका, सत्पुरुषो ज्ञानस्वरूप थाय छे अर्थात् पूर्ण ज्ञानस्वरूपने-केवळज्ञानने पामे छे.

जुओ आ जिननीति! अहाहा...! जेवुं वस्तुस्वरूप छे तेवुं जाणवुं, जेवी वस्तु छे तेवी तेनी श्रद्धा करवी, अने स्वसन्मुख थईने वस्तु-आत्मद्रव्यमां ज रमणता करवी ते जिननीति नाम जिनमार्ग छे. संतो आवा मार्गने नहि ओळंगता थका, मार्गने ज अनुसरता थका, केवळज्ञानदशाने पामे छे. ल्यो, आ सिवाय बीजानुं कांई भलुं-बुरुं करवुं एवी आत्मानी शक्ति नथी.

प्रश्नः– तो सिद्ध भगवान शुं काम करे? उत्तरः– पोते ज्ञानस्वरूप थईने एकला आनंदने अनुभवे-भोगवे. भगवान अनंत सुख प्रगट थयुं तेने भोगवे बस.

प्रश्नः– आवा मोटा भगवान थईने कोईनुं कांई करे नहि? उत्तरः– ना कोईनुं कांई करे एवो आत्मस्वभाव ज नथी. हराम जो कोईनुं कांई करे, केमके कोईनुं कांई करवानो आत्मानो स्वभाव ज नथी. अहा! आवुं वस्तुस्वरूप छे तेनाथी विपरीत मानवुं ते जिननीति-जिनमार्ग नथी, पण अनीति छे; अहा! जिननीतिने जे ओळंगे छे ते मिथ्याद्रष्टि थाय छे ने घोर संसारमां परिभ्रमे छे. सत्पुरुषो जिननीतिने ओळंगता नथी; कोईनुं कांई करवा रोकाता नथी. समजाणुं कांई...?

* कळश २६पः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जे सत्पुरुषो अनेकान्त साथे सुसंगत द्रष्टि वडे अनेकान्तमय वस्तुस्थितिने देखे छे, तेओ ए रीते स्याद्वादनी शुद्धिने पामीने-जाणीने, जिनदेवना मार्गने-स्याद्वादन्यायने-नहि उल्लंघता थका, ज्ञानस्वरूप थाय छे.’

अहाहा...! अनेकान्तमय वस्तुस्वरूप छे, ने स्याद्वाद तेनुं द्योतक छे. शुं कीधुं? स्याद्वाद, अनेकान्तमय वस्तुने यथार्थ प्रकाशे छे. अहीं कहे छे जे सत्पुरुषो अनेकान्त साथे सुसंगत-मेळवाळी द्रष्टि वडे आत्मवस्तुने देखे छे, तेओ ए रीते स्याद्वादनी शुद्धिने पामे छे, अर्थात् स्याद्वाद द्वारा वस्तुने यथार्थ प्रकाशे छे-देखे छे; अने ए रीते जिनदेवना मार्गने-


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स्याद्वादन्यायने नहि ओळंगता थका ज्ञानस्वरूप थाय छे. गंभीर वात छे प्रभु! भगवान जिनदेवनो मार्ग-शुद्ध रत्नत्रयनो मार्ग स्याद्वाद न्यायथी सिद्ध छे अने तेथी ते स्याद्वादन्यायरूप छे. अहा! आवा जिनदेवना मार्गने- मोक्षमार्गने नहि ओळंगता थका सत्पुरुषो ज्ञानस्वरूप थाय छे अर्थात् परम अमृतमय एवा मोक्षपदने पामे छे. जुओ आ अनेकान्त-द्रष्टिनुं फळ! जिनमार्ग ने परम मोक्षपदनी प्राप्ति ए अनेकान्त-द्रष्टिनुं फळ छे.

बंध अधिकारमां आवे छे के ज्ञानस्वरूपी आत्मा रागने-व्यवहारने-बंधभावने करे ते एना स्वरूपमां नथी, निश्चयने रचे (स्वस्वभावभावे परिणमे) अने व्यवहारने-रागने न रचे-एवो ज भगवान आत्मानो स्वभाव छे, अने ते स्याद्वादन्यायथी सिद्ध छे. समजाय छे कांई...?

परिशिष्टनी शरुआतमां बे वात करी हतीः (१) स्याद्वाद (अर्थात् वस्तुनुं अनेकान्त स्वरूप) कहीशुं, ने (२) उपाय-उपेय कहीशुं. स्याद्वादमां शक्तिओनुं वर्णन कर्युं. हवे उपाय-उपेय-मार्ग ने मार्गनुं फळ ए विशे थोडुं कहेशे.

* टीका *

(आ रीते स्याद्वाद विषे कहीने, हवे आचार्यदेव उपाय-उपेयभाव विषे थोडुं कहे छे.) ‘हवे आनो (-ज्ञानमात्र आत्मवस्तुनो) उपाय-उपेयभाव विचारवामां आवे छे (अर्थात् आत्मवस्तु ज्ञानमात्र होवा छतां तेने उपायपणुं अने उपेयपणुं बन्ने कई रीते घटे छे ते विचारवामां आवे छे)ः

आम वस्तुने ज्ञानमात्रपणुं होवा छतां पण तेने उपाय-उपेयभाव (उपाय-उपेयपणुं) छे ज; कारण के ते एक होवा छतां पोते साधक रूपे अने सिद्ध रूपे एम बन्ने रूपे परिणमे छे. तेमां जे साधक रूप छे ते उपाय छे अने जे सिद्ध रूप छे ते उपेय छे. माटे, अनादि काळथी मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्र वडे (मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान अने मिथ्याचारित्र वडे) स्वरूपथी च्युत होवाने लीधे संसारमां भ्रमण करतां सुनिश्चळपणे ग्रहण करेलां व्यवहारसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रना पाकना प्रकर्षनी परंपरा वडे अनुक्रमे स्वरूपमां आरोहण कराववामां आवता आ आत्माने, अंतर्मग्न जे निश्चय-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप भेदो ते-पणा वडे पोते साधक रूपे परिणमतुं, तथा परम प्रकर्षनी हदने पामेला रत्नत्रयनी अतिशयताथी प्रवर्तेलो जे सकळ कर्मनो क्षय तेनाथी प्रज्वलित (देदीप्यमान) थयेलो जे अस्खलित विमळ स्वभावभाव ते-पणा वडे पोते सिद्ध रूपे परिणमतुं एवुं एक ज ज्ञानमात्र उपाय- उपेयभाव साधे छे.

(भावार्थः– आ आत्मा अनादि काळथी मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रने लीधे संसारमां भमे छे. ते सुनिश्चळपणे ग्रहण करेलां व्यवहारसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रनी वृद्धिनी परंपरा वडे अनुक्रमे स्वरूपनो अनुभव ज्यारथी करे त्यारथी ज्ञान साधक रूपे परिणमे छे, कारण के ज्ञानमां निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप भेदो अंतर्भूत छे. निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रनी शरूआतथी मांडीने, स्वरूप-अनुभवनी वृद्धि करतां करतां ज्यां सुधी निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रनी पूर्णताथी समस्त कर्मनो नाश थाय अर्थात् साक्षात् मोक्ष थाय त्यारे ज्ञान सिद्ध रूपे परिणमे छे, कारण के तेनो अस्खलित निर्मळ स्वभावभाव प्रगट देदीप्यमान थयो छे. आ रीते साधक रूपे अने सिद्ध रूपे-बन्ने रूपे परिणमतुं एक ज ज्ञान आत्मवस्तुने उपाय-उपेयपणुं साधे छे.)

आ रीते बन्नेमां (-उपायमां तेम ज उपेयमां-) ज्ञानमात्रनुं अनन्यपणुं छे अर्थात् अन्यपणुं नथी; माटे सदाय अस्खलित एक वस्तुनुं (-ज्ञानमात्र आत्मवस्तुनुं-) निष्कंप ग्रहण करवाथी, मुमुक्षुओने के जेमने अनादि संसारथी भूमिकानी प्राप्ति न थई होय तेमने पण, तत्क्षण ज भूमिकानी प्राप्ति थाय छे; पछी तेमां ज नित्य मस्ती करता ते मुमुक्षुओ-के जेओ पोताथी ज, क्रमरूप अने अक्रमरूप प्रवर्तता अनेक अंतनी (अनेक धर्मनी) मूर्तिओ छे तेओ-साधकभावथी उत्पन्न थती परम प्रकर्षनी कोटिरूप सिद्धिभावनुं भाजन थाय छे. परंतु जेमां अनेक अंत अर्थात् धर्म गर्भित छे एवा एक ज्ञानमात्र भावरूप आ भूमिने जेओ प्राप्त करता नथी, तेओ सदा अज्ञानी वर्तता थका, ज्ञानमात्र भावनुं स्वरूपथी अभवन अने पररूपथी भवन देखता (-श्रद्धता) थका, जाणता थका अने आचरता थका, मिथ्याद्रष्टि, मिथ्याज्ञानी अने मिथ्याचारित्री वर्तता थका, उपाय-उपेयभावथी अत्यंत भ्रष्ट वर्तता थका संसारमां परिभ्रमण ज करे छे.


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* टीका उपरनुं प्रवचन *

‘आत्मवस्तुने ज्ञानमात्रपणुं होवा छतां पण तेने उपाय-उपेयभाव (उपाय-उपेयपणुं) छे ज; कारण के ते एक होवा छतां पोते साधक रूपे अने सिद्ध रूपे एम बन्ने रूपे परिणमे छे. तेमां जे साधक रूप छे ते उपाय छे अने जे सिद्ध रूप छे ते उपेय छे.

जुओ, शुं कहे छे? के भगवान आत्मा त्रिकाळ एक ज्ञायकस्वरूप, ज्ञाननो पिंड प्रज्ञा ब्रह्मस्वरूप प्रभु छे. अहाहा...! ज्ञानमात्र वस्तु आत्मा त्रिकाळ छे, छतां तेनी पर्यायमां उपाय-उपेयभाव छे ज. अहाहा...! वस्तुपणे आत्मा नित्य ज्ञानमात्र होवा छतां एनी पर्यायमां साधकपणुं-मोक्षमार्ग अने सिद्धपणुं अर्थात् मोक्ष-एवा बे भाव छे ज; केमके द्रव्यरूपथी एक होवा छतां पर्यायरूपथी पोते साधकरूपे अने सिद्धरूपे एम बन्ने रूपे क्रमथी परिणमे छे. एमां जे साधकरूप परिणमन छे ते उपाय छे अने सिद्धरूप परिणमन ते उपेय छे; अर्थात् प्राप्त करवा योग्य मोक्ष ते उपेय छे, अने जेना वडे प्राप्त कराय ते मोक्षमार्ग उपाय छे. समजाणुं कांई...?

जुओ, साधकपणुं अने सिद्धपणुं ए बे आत्माना परिणाम छे, पर्याय छे. ज्ञानस्वभावनी द्रष्टि अने रमणता थये जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्ध रत्नत्रयनी वीतरागी दशा प्रगट थाय छे ते साधक दशा छे, ते साधकदशारूपे पोते ज परिणमे छे. अने केवळज्ञान थईने सिद्धरूप जे दशा थाय छे ते रूपे पण पोते ज परिणमे छे. एमां बहारनां साधनोनी एने गरज-अपेक्षा नथी. बहारमां व्यवहार सारो सुधारे तो साधक दशा प्रगट थाय एम नथी. जोके मोक्षमार्गीने बहारमां व्यवहार सारो-यथार्थ ज होय छे, पण एनाथी अंतरनी साधकदशा प्रगट थाय छे एम नथी. भाई, दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि बधुं छे ए तो रागनी वृत्तिनुं उत्थान छे, ए रागनी वृत्तिना सहारे अंदर आत्मानी निर्मळ वीतरागी साधकदशा थाय एम त्रणकाळमां छे नहि.

अरेरे! शुं थाय? अनादिकाळथी पोतानी चैतन्यवस्तुनी महत्ता ज एने भासी नथी, अने तेथी निज स्वभावने भूली दया, दान, व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादि करतां करतां मने साधकपणुं-सम्यग्दर्शनादि थशे एवी (मिथ्या) मान्यता वडे ते अज्ञानी जीव टेवाई गयो छे, ने घेराई गयो छे. अहा! अंदर सच्चिदानंदस्वरूप-सत् नाम शाश्वत, चिद् नाम, ज्ञान, अने आनंदस्वरूप-पोते त्रिकाळ होवा छतां तेने भूलीने हुं मनुष्य छुं, हुं पुण्यवाळो छुं, हुं रागी छुं ने अल्पज्ञ छुं एवी जे पर्यायबुद्धि छे ते भ्रम-मिथ्यात्वदशा छे. अहाहा...! अंदर आनंदनो समुद्र पोते होवा छतां मारो आनंद विषयोमांथी आवे छे एम मान्युं छे ते मिथ्यात्व छे, मिथ्यात्व एटले दीर्धकाळ पर्यंत चार गतिमां रझळावनारुं संसारनुं बीज छे.

अहा! आ मिथ्यात्वनो-भ्रांतिनो नाश करवानो उपाय शुद्ध चैतन्यनां द्रष्टि-ज्ञान अने रमणता छे; एनाथी अज्ञाननो नाश थईने साधकदशा प्रगट थाय छे, अने ते साधकदशारूप उपायथी उपेय एवी मोक्षदशानी प्राप्ति थाय छे. पोतामां अपूर्ण शुद्धदशानुं थवुं ते साधकभाव छे, ने पूर्ण शुद्धदशा ते साध्य-मोक्ष छे. त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य छे ए तो आश्रयनो-आलंबननो विषय छे, ए मोक्षमार्ग के मोक्ष नथी, पण एना आश्रये मोक्षमार्ग अने मोक्षनी पर्यायो प्रगट थाय छे.

मोक्षमार्गथी मोक्षदशानी प्राप्ति थाय एम बोलाय खरुं, परंतु एम कहेवुं ए व्यवहार छे. खरेखर मोक्षनुं कारण तो कर्म-नोकर्मथी भिन्न एवो मोक्षस्वरूप निज आत्मा छे, केमके तेनो पूर्ण आश्रय थये मोक्ष प्रगट थाय छे. विशेष विचारतां मोक्षनी दशा जे प्रगट थाय ते ज मोक्षनुं कारण छे, अने ते ज मोक्षरूप कार्य छे.

अहाहा...! निर्मळानंदनो नाथ चैतन्यमूर्ति प्रभु हुं आत्मा छुं. मारी चीजमां देह-मन-वाणी नहि, कर्म- नोकर्म नहि, ने एक समयमां उत्पन्न थतो विकार पण नहि-एवो हुं अनंत शक्तिओथी भरपुर भरेलो भगवान आत्मा छुं. अहीं कहे छे-आवो आत्मा पोते साधकरूपे अने सिद्धरूपे पोताथी परिणमित थाय छे. साधकदशा-उपाय हो भले, पण एक समयनी पूर्ण आनंदनी दशा-मोक्षदशा-परम वीतरागी दशा-तेरूपे आत्मा स्वयं परिणमे छे, पूर्वमां उपाय छे माटे एनाथी उपेय-मोक्षदशा थई छे एम नहि. आवी सूक्ष्म वात भाई! हवे आमां व्यवहार (राग) कारण छे ए तो कयांय उडी गयुं. समजाय छे कांई...?


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जेम नाळियेरनो गोळो, उपरनां छालां, अंदरनी काचली अने गोळा उपरनी रातडथी भिन्न छे, तेम भगवान आत्मा छालां समान शरीर, कर्मना रजकणरूप काचली, अने पुण्य-पापना भावरूप रातडथी भिन्न छे, अने पोतानी अनंत शक्तिओथी अभिन्न छे. अहाहा...! आवी पोतानी चीज छे तेनी सन्मुख थई अंतर-एकाग्र थवाथी साधकदशारूप निर्मळ रत्नत्रयनी दशा प्रगट थाय छे ते उपाय छे. अहाहा...! आनंदकंद प्रभु पोते छे एना सन्मुखनी द्रष्टि-ज्ञान अने रमणता ते साधकदशानुं परिणमन छे, अने ते उपाय छे, अने आत्मानी पूर्ण निर्मळ दशानी प्राप्ति थवी ते मोक्षदशा-उपेय छे. आ मोक्षमार्गनी दशा अने मोक्षदशा-बन्ने रूपे आत्मा ज पोते परिणमे छे, राग के निमित्तने लईने ते दशा थाय छे एम छे नहि.

अरे, लोकोने आनो अभ्यास नहि ने आखो दि’ बायडी-छोकरांनुं करवामां ने पैसा रळवामां गुंचाई रहे, पण भाई, कोनी बायडी, ने कोनां छोकरां? तत्संबंधी रागेय तारी चीज नथी पछी बायडी-छोकरां तारां कयांथी आव्यां? ए बधी तो अत्यंत भिन्न चीज बापु! एमां तुं सलवाई पडयो छो ते तारुं महान अहित छे. अहीं कहे छे-प्रभु! सांभळ. तारुं हित करनारोय तुं, हितनो उपाये तुं अने हितरूप पूर्ण दशाय तुं छो. अहाहा...! अंदर ज्ञान ने आनंदनी लक्ष्मीरूप भगवान प्रभु तुं छो, पछी तारे बीजी चीजथी शुं प्रयोजन छे? माटे त्यांथी खसी एक वार अंतर्मुख था, तने ज्ञान ने आनंदनी अपूर्व दशा प्रगट थशे. आ उपाय छे, अने ते प्रथम चोथे गुणस्थाने प्रगट थाय छे. आ सिवाय बधुं थोथां छे.

अहाहा...! भगवान आत्मामां एक अभाव गुण छे. रागना-विभावना अभाव स्वभावे निर्मळ परिणमे एवो भगवान! तारो आ अभाव स्वभाव छे. त्रिकाळी शुद्ध ज्ञायक द्रव्यनो आश्रय करे तेने शक्तिनुं परिणमन प्रगट थाय छे. आ उपाय छे. आमां परनी अपेक्षा-गरज राखवी पडे एवो आत्मा पांगळो नथी. माटे हे भाई! परनी अपेक्षा छोडी स्वसन्मुख था, स्व-आश्रय कर. स्व-आश्रये ज साधकदशा, ने स्व-आश्रये ज सिद्धदशा प्रगट थाय छे.

जेम ताव देतां सोनानी १२, १३, १४ वला शुद्धता थाय ते अपूर्ण शुद्ध दशा छे, अने परम प्रकर्षरूप १६वला थाय ते तेनी पूर्ण शुद्ध दशा छे, तेम स्व-आश्रये परिणत आत्मा अल्प-अपूर्ण शुद्ध परिणमे ते साधक दशा छे, पूर्ण शुद्ध परिणमे ते साध्य दशा छे. साध्यदशा छे ते परम मोक्षदशा, सिद्धदशा छे; ने साधकदशा ते मोक्षमार्ग छे. तेने संवर-निर्जरा कहो, साधकभाव कहो, के उपाय कहो-बधुं एक ज छे. साधक-साध्यदशा बन्ने स्व-आश्रयमां ज समाय छे. स्व-आश्रय सिवाय बाकी बधुं थोथां ज छे. समजाणुं कांई...?

अरेरे! संसारमां भमतां-भमतां अनंतकाळमां ए अनंत वार नग्न दिगंबर साधु थयो, नग्न रह्यो, जंगलमां वास कर्यो, मौन रह्यो ने व्रत-समिति पाळ्‌यां, पण स्व-आश्रय कर्यो नहि तो एमां एणे शुं कर्युं? स्व-आश्रये आत्मज्ञान कर्या विना बधुं ज थोथां छे बापु! एटले तो कह्युं छे के-

बुद्धि वगरनो बावो थयो ने भवसागरमां बूडी मर्यो.

अहा! रागना विकल्पथी छूटी पोतानो विज्ञानघनस्वभावी आत्मा छे तेमां लीनता करवी ते साधुदशा छे, ने ते ज उपाय छे. आ सिवाय तो बधुं लोकरंजन छे, मार्ग नथी.

श्रीमद्ना एक पत्रमां आवे छे के-जगतने रूडुं देखाडवा अने जगतथी राजी थवानो एणे प्रयत्न कर्यो छे, परंतु पोतानुं रूडुं केम थाय ए प्रयत्न एणे कदीय कर्यो नथी. लोको सारो कहे ने प्रशंसा करे तो हुं मोटो, ने तो हुं समाजमां कंईक अधिक. पण बापु! एमां शुं छे? ए तो बधुं धूळ छे. अहा! बीजाथी मारामां अधिकता-विशेषता छे ए मान्यता ज मूढपणुं छे. लोको अभिनंदननुं पूंछडुं आपे तोय एमां शुं छे? एमां मग्न थवुं-फूलाई जवुं ए तो साचे ज पूंछडुं नाम ढोरनी दशा छे.

अहीं तो पोते ज प्रभु छे. ते पोते पोताना स्वभावनी द्रष्टि करी पोताने अभिनंदन करे ते अभिनंदन छे. दुनिया जाणे न जाणे, पोते पोताना अतीन्द्रिय आनंदस्वरूपने अनुभवे ते अभिनंदन. कोई न जाणे तेथी शुं? आज सुधी अनंता सिद्ध थया; अत्यारे तेमनां नाम सुद्धां कोई न जाणे तेथी शुं? निजानंदरसलीन तेओ तो सदाय पोताथी अभिनंदित छे. समजाणुं कांई...?

हवे कहे छे-‘माटे, अनादि काळथी मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्र वडे स्वरूपथी च्युत होवाने लीधे संसारमां भ्रमण