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करतां,...’
जोयुं? अनादिकाळथी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान अने मिथ्याचारित्रथी जीव स्वरूपथी भ्रष्ट थयो छे. कर्मने लईने भ्रष्ट थयो छे एम लोको कहे छे ने? पण एम छे नहि. अहा! ‘अपने को आप भूल के हेरान हो गया’; पोतानी चीजने पोते भूली गयो अने विपरीत मानी लीधुं, तेथी ते स्वरूपथी च्युत थयो छे. अहाहा...! पोते चिदानंदघन प्रभु अंदर छे, आनंदनुं वास्तु-घर पोते छे-तेने भूलीने ते निजघरथी भ्रष्ट थयो छे. भजनमां आवे छे ने के-
परघर भ्रमत बहुत दिन बीते, नाम अनेक धराये;
हम तो कबहूँ न निजघर आये.
हुं महंत छुं, बावाजी छुं, संन्यासी छुं, त्यागी छुं, व्रती छुं, साधु छुं-एम अनेक नाम धारण कीधां, पण एमां शुं आव्युं? ए तो बधां परघर बापु! एमां जे राजी थाय छे ए तो स्वरूपथी च्युत छे.
अहा! अज्ञान ज परतंत्रता ने परतंत्रतानुं कारण छे; कर्मने लईने परतंत्रता थई छे एम नथी. ‘कर्म बिचारे कौन? भूल मेरी अधिकाई.’ पोतानी विपरीत श्रद्धा, विपरीत ज्ञान ने विपरीत आचरण वडे पोते स्वस्वरूपथी च्युत थयो छे. विपरीत श्रद्धान वडे परने आधीन थयो तेथी पराधीन छे, पर-कर्मे आधीन कर्यो छे एम छे नहि. कर्म तो बिचारां जड छे, ते शुं करे? अरे भगवान! तारी भूल तुं बीजा पर नाखी दे छे! आ तो अनीति छे. अरे, पण एने आवी कर्म पर ढोळवानी अनादिथी टेव पडी गई छे. ओहो...! अहीं तो स्वतंत्रताना ढंढेरा पीटया छे. कर्म भिन्न अने तुंय भिन्न प्रभु छो. परंतु-
जेम लोकमां माने छे के अमने इश्वरनो सहारो छे, तेम जैनमां कोई अज्ञानी जीवो एम माने छे के अमने कर्मनो सहारो छे, कर्म मारग आपे तो धर्म थाय. अर्थात् अज्ञानीओने कर्म इश्वर थई पडयो छे. अरे प्रभु! तने सहाय करे एवो कर्ता इश्वर छे ज कयां? तारो इश्वर तुं छो. साधकदशा अने साध्यदशा-बन्ने रूपे परिणमनारो तुं ज तारो इश्वर छो. बीजो इश्वर तारुं करे ए तो केवळ (जूठी) कल्पना छे. बीजो (कर्म वगेरे) तो ताराथी अन्य छे, ते तारो इश्वर केम थाय? अर्थात् ते तारुं शुं करे? कांई ज न करे. कर्म तारुं कांई ज ना करे. समजाय छे कांई...?
अहाहा...! अखंड प्रतापथी युक्त स्वातंत्र्यथी शोभायमान एवो पूर्णानंदनो नाथ प्रभु पोते छे तेनी द्रष्टि नहि करता अनादिथी विकारनी द्रष्टि करीने तुं पोते ज पराधीन थयो छे. कोई बीजो-कर्म आदि-पराधीन करे छे एम संतोए, गणधरोए कह्युं ज नथी. प्रवचनसारमां नय अधिकारमां आवे छे के-‘आत्मद्रव्य इश्वरनये परतंत्रता भोगवनार छे, धावनी दुकाने धवडाववामां आवता मुसाफरना बाळकनी माफक.’ ल्यो, आम जीव पोतानी पर्यायमां पराधीन पोताना कारणे थाय छे. स्वतंत्रता भोगवे तेय पोताथी, ने पराधीनता भोगवे तेय पोताथी. अहाहा...! आ ते शुं टीका छे?
अनादिथी मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र वडे जीव स्वरूपथी भ्रष्ट थयो छे एम कह्युं ने? मतलब के पुण्यभावमां उपादेय बुद्धि, अल्पज्ञदशामां पूर्णदशानी भ्रान्ति-अहाहा...! आवो जे मिथ्याभाव-विपरीत श्रद्धा-एने लईने जीव स्वरूपथी भ्रष्ट थयो छे. आ शरीर मारुं, ने पुण्य-पाप मारां, स्त्री-कुटुंब परिवार मारां-एवी जे परद्रव्य-परभावमां ममत्वबुद्धि छे ते मिथ्यादर्शन छे; शुद्ध चिन्मात्र हुं आत्मा छुं एम नहि मानतां हुं मलिन छुं, रागी छुं, पुण्य- पापवाळो छुं एवी मान्यता मिथ्यादर्शन छे; अने दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादि व्यवहारनो जे शुभ विकल्प तेनाथी मने धर्म थाय छे एवी मान्यता पण मिथ्यादर्शन छे; शरीरादि परद्रव्यनी क्रिया हुं करुं एय मान्यता मिथ्यादर्शन छे. अहा! आम मिथ्यादर्शन वडे जीव अनादिथी, स्वस्वरूपथी भ्रष्ट थयो छे.
वळी पोते ज्ञानस्वरूप छे तेनुं ज्ञान अने तेनो स्वीकार नहि करतां जे पोताना स्वरूपमां नथी एवां देह, मन, वाणी, इन्द्रिय अने पुण्य-पापना भाव-तेनुं ज्ञान करवामां रोकाय ते मिथ्याज्ञान छे. आत्मज्ञान विना, स्वस्वरूपना ज्ञान विना कदाचित् अगियार अंग अने नवपूर्वनुं ज्ञान थई जाय तोय शुं? आत्मज्ञान विना ए कांई चीज नथी.
अहा! आवा अज्ञान-मिथ्याज्ञान वडे जीव स्वस्वरूपथी भ्रष्ट थयो छे.
तथा स्वस्वरूपमां-एक ज्ञायकभावमां लीन थईने न रहेतां शुभाशुभभावमां लीन थईने रहेवुं ते मिथ्याचारित्र
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छे. आत्मा-अनात्माना ज्ञान (भेदज्ञान) विना जे कांई क्रिया करे ते मिथ्याचारित्र छे. समजाय छे कांई...? आ बधुं पोते ऊभुं करे छे हों; कर्मे एने भूल-भूलामणीमां नाख्यो छे एम नथी. अरे, ए स्वरूपथी भ्रष्ट थई पोतानी भूलथी ज संसारमां रखडे छे. पण आ समजवानी फुरसद कोने छे? अत्यारे तो केटलाक पंडितो पण शंका करे छे के-
प्रश्नः– शुभरागथी शुद्धतानो अंश प्रगटे के नहि? उत्तरः– तेने कहीए-भाई, एम नथी. शुद्धतानो अंश तो स्व-आश्रये प्रगट थाय छे, ने शुभराग तो पराश्रय-भाव छे. शुभराग परना लक्षे थाय छे.
अरे, मिथ्यात्वादि भावो वडे चिरकाळथी ए स्वस्वरूपथी भ्रष्ट थईने ८४ लाख योनिमां-प्रत्येकमां एणे अनंत वार अवतार धारण कर्या छे. पोताने भूलीने एणे नर्क-निगोदना ने कागडा-कूतरा आदि तिर्यंचना अनंत अनंत भव कर्या छे. केटलाक कहे छे-आ कर्मनुं जोर छे. पण जूठी मान्यता करीने पोते रखडे एमां कर्म शुं करे? कर्म तो जड माटी-धूळ छे, एनुं कांई जोर नथी के ते भूल करावे. जूठी मान्यता वडे पोते ज स्वरूपथी च्युत थयो ते पोतानी भूल छे. अहा! जैन साधु थईने पण जो व्रतादि बाह्य साधनमां ममत्वबुद्धि करे, वा तेने उपादेय माने तो ते स्वरूपथी भ्रष्ट एवो संसारमां ज रखडशे. आ तो त्रणलोकना नाथनी वाणी बापु! आचार्य कुंदकुंददेव तेमना आडतिया थईने अहीं जाहेर करे छे.
कहे छे-मिथ्यात्वादि वडे स्वरूपथी च्युत थईने संसारमां भमतां, ‘सुनिश्चळपणे ग्रहण करेलां व्यवहारसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रना पाकना प्रकर्षनी परंपरा वडे अनुक्रमे स्वरूपमां आरोहण कराववामां आवता आ आत्माने, अंतर्मग्न जे निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप भेदो ते-पणा वडे पोते साधक रूपे परिणमतुं,...’
जुओ, शुं कहे छे? शुद्ध चिदानंदघन प्रभु आत्मानी द्रष्टि अने तेनां ज्ञान अने रमणता थयां छे ते धर्मी जीवने पोतानी भूमिकाने योग्य व्यवहार दर्शन-ज्ञान-चारित्र नियमथी होय छे. व्यवहार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना पाकना प्रकर्षनी परंपरा एटले शुं? के व्यवहार सम्यक्त्वादिरूप शुभरागनी मंदताना प्रकर्षनी परंपरा (क्रम प्रवाह) धर्मीने अवश्य होय छे. साचा वीतरागी देव-शास्त्र-गुरुनी श्रद्धानो शुभराग, ने नवतत्त्वनी भेदरूप श्रद्धानो विकल्प ते व्यवहार सम्यग्दर्शन छे, सत्शास्त्रोनुं-श्रुतनुं विकल्पात्मक यथार्थ जाणपणुं ते व्यवहार-सम्यग्ज्ञान छे, तथा अहिंसादि पांचमहाव्रतनो विकल्प ते व्यवहार चारित्र छे. अहाहा...! धर्मीने जेम जेम स्वद्रव्यनो आश्रय वधतो जाय छे तेम तेम तेटला प्रमाणमां व्यवहार सम्यक्त्वादिना रागनी मंदतानो प्रकर्ष थाय छे, अर्थात् तेने राग घटतो जाय छे, ने वीतरागी दशा वधती जाय छे.
अहाहा...! एक बाजु निर्विकल्प द्रष्टि, ज्ञान ने रमणता छे, ने एक बाजु व्यवहारचारित्र आदिना विकल्प छे. धर्मीने बन्ने साथे सहचरपणे छे. शास्त्रमां व्यवहारना रागने सहचर कह्यो छे तेथी केटलाक लोको एमां गोटा वाळे छे. आ व्यवहार होय छे ने? माटे एनाथी निश्चय पमाशे एम तेओ गोटा वाळे छे. परंतु भाई, व्यवहार छे एनाथी निश्चय पमाय छे एम छे नहि. घणा वर्ष पहेलां कोईए प्रश्न करेलो.
प्रश्नः– व्यवहारथी निश्चय थाय के नहि? त्यारे कहेलुं- उत्तरः– एनाथी न थाय, व्यवहारथी निश्चय न थाय. प्रश्नः– पण शास्त्रमां एनाथी थाय एम कह्युं छे ने? तो कह्युं- उत्तरः– ना, एम नथी कह्युं; परंतु ते ते भूमिकामां धर्मीने ते (-व्यवहार) होय छे तेनुं त्यां ज्ञान कराव्युं छे. भाई, शास्त्रमां उपचारथी कथन कह्युं होय तेने आ उपचार छे एम यथार्थ रीते समजवुं जोईए. अत्यारे तो जाणे व्यवहार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ए ज धर्म छे एम लोको मानी-मनावी रह्या छे; पण ए तो मिथ्याभाव छे. एनुं फळ बहु आकरुं आवशे भाई!
सुनिश्चळपणे ग्रहण करेलां व्यवहार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनो पाक ए रागनी मंदता छे. ज्यारे निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ए वीतरागी दशा छे अने ए ज सत्यार्थ साधकपणुं छे. छट्ठे गुणस्थाने मुनिराजने आवी निश्चय साधकदशा प्रगटी होय छे, अने तेमने एमनी भूमिकामां सहचर-साथे रहेवावाळो व्यवहार रत्नत्रयरूप शुभभाव अवश्य होय छे. ते शुभभाव छे तो बंधनुं कारण, तथापि उत्कृष्ट भावे अबंध परिणाम नथी त्यां एवा बंध परिणाम होय
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छे. भाई, जे ते दशानी जे स्थिति छे तेने यथार्थ जाणवी जोईए.
प्रश्नः– तो ‘ज्ञानक्रियाभ्याम् मोक्षः’ एम शास्त्रमां कह्युं छे ने?
उत्तरः– हा, कह्युं छे; पण कयुं ज्ञान? अने कयी क्रिया? एकलुं परावलंबी शास्त्रनुं ज्ञान, ने रागनी क्रिया-ते मोक्षनुं कारण छे वा तेना वडे मोक्ष थाय छे एम नथी. ए तो स्व-आश्रये प्रगटेलुं स्वरूपनुं ज्ञान, स्वसंवेदन ज्ञान ते ज्ञान छे, ने स्वरूपमां रमणता-लीनता ते क्रिया छे, अने आवां ज्ञान-क्रिया वडे मोक्ष थाय छे एम त्यां वात छे. समजाणुं कांई...?
पुरुषार्थसिद्धयुपायमां आचार्य अमृतचंद्रदेवे कह्युं छे के-आत्मानुं निर्विकल्प सम्यग्दर्शन, स्वसंवेदन ज्ञान, अने स्वमां लीनता-ते मोक्षनुं कारण छे; ज्यारे नवतत्त्वनी भेदरूप श्रद्धा-तेरूप व्यवहार सम्यग्दर्शन, शास्त्रनुं ज्ञान-तेरूप व्यवहारज्ञान, तथा पंच महाव्रतना विकल्प-तेरूप व्यवहारचारित्र-ए बधो अपराध छे. अरे! जे भावे तीर्थंकर गोत्र बंधाय ते शुभभाव पण अपराध छे. हवे जे भाव अपराध छे ते मोक्षने केम साधे-आराधे? न साधे. आ भाई, आ तो वीतरागनो मार्ग बापु! मारग तो वीतराग-भावरूप ज छे.
कहे छे-व्यवहाररत्नत्रयना पाकना प्रकर्षनी परंपरा वडे अनुक्रमे स्वरूपमां आरोहण करवामां आवतां आ आत्मा, अंतर्मग्न जे निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप भेदो ते-पणा वडे पोते साधकरूपे परिणमे छे. अहाहा...! व्यवहारना विकल्पने छोडीने पोते चिदानंदघन एवा स्वस्वरूपमां आरोहण करे छे, लीन थाय छे तो, जेम डुंगरमांथी झरणुं झरे तेम स्वस्वरूपनां श्रद्धा-ज्ञान-रमणतापूर्वक अंदर अनाकुळ आनंदनुं झरणुं झरे छे, अंदर शांतिनां वहेण वहे छे. ल्यो, आने भगवान मोक्षमार्ग कहे छे.
समयसार, गाथा १२मां कह्युं छे के-स्व-आश्रये स्वस्वरूपनुं ज्ञान, आत्मज्ञान थयुं छे, पण दशामां पूर्ण शुद्धता, पूर्ण ज्ञान-केवळज्ञान प्रगटयुं नथी ने नीचली दशा छे एवा जीवने अशुद्धतानो विकल्प होय छे, तेने ते जाणे ज छे. अहा! जे विकल्प होय छे तेने जाणवो ते व्यवहार नय छे, अने एनुं नाम व्यवहारनो उपदेश छे. पण अरे! शुं थाय? व्यवहारना-रागना पक्ष आडे एणे अनंतकाळमां आ वात लक्षमां लीधी ज नथी.
अहा! अंतरमां पोताना भगवानना भेटा थया छे, स्वरूपनां श्रद्धा-ज्ञान ने रमणता प्रगट थयां छे, प्रचुर अतीन्द्रिय आनंदना झूले झूले छे एवा, सिंहनी जेम एकाकी जंगलमां रहेता प्रचंड पुरुषार्थने धरनारा महा मुनिराजने, कहे छे, पूर्णदशा प्रगट थई नथी तो वच्चे सहचरपणे व्यवहार दर्शन-ज्ञान ने महाव्रतना विकल्प होय छे, एनुं ते ज्ञान करे छे, अने एने छोडी स्वरूपमां आरोहण करता थका निश्चय स्थिरताने प्राप्त थाय छे. अहाहा...! आनंदनो-निर्मळानंदनो नाथ प्रभु अंदर छे एमां ज्यारे आरोहण थयुं त्यारे एणे आत्मानी जात्रा करी. आ जात्रा ते जात्रा छे, बाकी शेत्रुंजो ने सम्मेदशिखरजी जाय ए तो बधो शुभभाव छे, ए साची जात्रा नहि, एने उपचार मात्र जात्रा कहेवाय छे. समजाणुं कांई...?
अहा! साधकने बहारमां व्यवहार होय छे, ए व्यवहारथी खसीने ज्यारे स्वरूपमां आरोहण करे छे त्यारे ते निश्चयने प्राप्त थाय छे. ते जेम जेम व्यवहारनो अभाव करतो जाय छे तेम तेम निश्चयमां (-स्वरूपमां) ठरतो जाय छे; परंतु एम नथी के व्यवहारथी निश्चय प्राप्त थाय छे. अहो! निज परमात्मस्वरूपमां लीन एवा ते मुनिवरोने धन्य छे. स्वरूपमां आरोहण करता थका तेओ साक्षात् मोक्षना साधको छे.
भाई, रागरूपे-शुभरागरूपे थवुं ए कांई साधकपणुं नथी, ने व्यवहारना विकल्पथी साधकपणुं प्रगटे छे एमेय नथी. भाई, रागथी खसी अंतरमां गया विना तारा परिभ्रमणना आरा नहि आवे. आ बधा शेठिया दान खूब करे ने! अहीं कहे छे-ए तारां लाखो-करोडोनां दान काम नहि आवे. मात्र व्यवहारनी क्रियाओथी कांई हाथ नहि आवे. विकारने विभावथी विमुख थई निजानंदस्वरूपनां ज्ञान-श्रद्धान ने लीनता करवी बस आ एक ज मोक्षमार्ग छे, ने आ ज साधकदशा छे.
अहाहा...! भगवान! तुं वस्तु छो के नहि? वस्तु छो तो तारामां अनंत शक्तिओ छे के नहि? अहाहा...! अनंत शक्तिओना पिंडरूप एवी तारी चैतन्यवस्तुनुं अवलंबन करतां, तेना आश्रयमां दृढ-स्थिर थतां जे निर्मळ दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणमन थाय ते मोक्षमार्ग छे; आ साधकदशा अने आ उपाय छे. पण अरेरे! पोतानी
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चैतन्यवस्तुना भान विना, आत्मदर्शन ने आत्मज्ञान विना एकली क्रियाओ करी-करीने एणे आत्माने मरणतुल्य करी नाख्यो छे.
देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो राग, पंचमहाव्रतना पालननो राग तथा स्वाध्यायनो विकल्प इत्यादि बधो शुभराग छे; एने ओळंगी जईने, जेम दरियाना तळिये जतां मोती हाथ आवे तेम, अंतरमां डूबकी लगावतां चैतन्यप्रभु आत्मा हाथ आवे छे; आने निश्चय सम्यग्दर्शन कहे छे, तथा अंतर्मुख थतां जे स्वसंवेदन ज्ञान थाय ते सम्यग्ज्ञान छे, तथा अंतर-लीनता थाय ते सम्यक्चारित्र छे. अहाहा...! आ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप भेदो ते- पणा वडे आत्मा स्वयं साधकपणे थाय छे, अर्थात् मोक्षना उपायपणे स्वयं आत्मा थाय छे. ल्यो, आवी वात! पण अरेरे! रागनी आडशमां एने आवडो महान ‘अनंत सुखथी भरियो, अनंत गुणनो दरियो’ द्रष्टिमां आवतो नथी. अनेक व्रत, तप करवा छतां तेने साधकपणुं प्रगटतुं नथी. समजाय छे कांई...?
हवे कहे छे-‘तथा परम प्रकर्षनी हदने पामेला रत्नत्रयनी अतिशयताथी प्रवर्तेलो जे सकळ कर्मनो क्षय तेनाथी प्रज्वलित (देदीप्यमान) थयेलो जे अस्खलित विमळ स्वभावभाव ते-पणा वडे पोते सिद्ध रूपे परिणमतुं एवुं एक ज ज्ञानमात्र उपाय-उपेयभाव साधे छे.’
जुओ, अहीं एम कहे छे के-अंदर स्वरूपमां मग्न-लीन थतां जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगटया ते रत्नत्रय छे. तेनी परम प्रकर्षरूप उत्कृष्ट दशा थतां अर्थात् भगवान आत्मानो पूर्ण आश्रय थतां तेना फळरूपे मोक्षदशा प्रगट थाय छे. अहा! रत्नत्रयनी अतिशयताथी प्रवर्तेलो जे सकळ कर्मनो क्षय तेनाथी प्रज्वलित थयेलो जे अस्खलित विमळ स्वभावभाव ते पूर्ण मोक्षदशा छे.
प्रश्नः– उपवास करवाथी कर्मनो क्षय थई जाय छे ए बराबर छे? उत्तरः– ना, ए बराबर नथी. दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी परम प्रकर्षरूप अतिशयता विना कर्मनो क्षय थतो नथी. उपवासथी कर्मनो क्षय थाय छे एम कहेवुं ए उपचारमात्र कथन छे. अरे, स्वरूपना आश्रये प्रगटवा योग्य एवां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र विना एणे उपवासादि बाह्य करणी अनंत वार करी; पण एथी शुं? एनो संसार मटयो नहि, भवना निवेडा आव्या नहि. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी विशेषताथी आस्रवोनो निरोध थाय छे, ने कर्मनो क्षय थाय छे. रत्नत्रयनी परम प्रकर्षरूप अतिशयताथी सकळ कर्मनो क्षय थाय छे, अने त्यारे अंदर प्रगट थयेलो अस्खलित उज्ज्वळ विमळ स्वभावभाव-केवळदर्शन-केवळज्ञान-अनंतसुख इत्यादिरूप स्वभावभाव-ते रूपे परिणमवुं ते मोक्षदशा छे. अहाहा...! आवी मोक्षदशा अस्खलित छे; जेने थई ते थई, फरी ते संसारमां आवे नहि.
तो जगतमां पाप वधी पडे त्यारे भक्तोनी रक्षा करवा भगवान अवतार ले छे ए शुं वात छे? ए तो लौकिक मान्यता छे, ए वातमां कांई तथ्य नथी. अस्खलित एटले फरे नहि, पडी जाय नहि एवा पूर्ण विमळ स्वभावभावे उपज्यो ते सिद्धरूपे परिणम्यो, हवे ते संसारमां अवतरे नहि, केमके संसारमां अवतरे एवुं कोई कारण ज रह्युं नथी.
अहाहा...! ज्ञानस्वभाव त्रिकाळ एकरूप होवा छतां, पर्यायमां साधकपणे अने सिद्धपणे-एम बे-पणे पोते थाय छे. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र एम साधकरूपे अने तेनी उत्कृष्ट दशा थतां सिद्धरूपे-एम बे रूपे पोते ज प्रगट थाय छे. ए बन्ने भगवान आत्मानी अवस्थाओ छे ने ते-रूपे ते पोते ज परिणमे छे, अने कोई बाह्य व्यवहारनी गरज-अपेक्षा नथी. यद्यपि बाह्य व्यवहार होय छे, पण धर्मात्माने ए कांई नथी, एने ओळंगीने ते क्रमे सिद्धरूपे पोते परिणमी जाय छे.
प्रश्नः– जो व्यवहार-शुभभाव जराय मददगार नथी तो एने शास्त्रमां साधक केम कह्यो छे? उत्तरः– धर्मी पुरुषने तेनी वर्तमान प्रगट निर्मळ दशाने ते (-व्यवहार) विक्षेप करतो नथी तेथी सहचर देखीने उपचारथी साधक कह्यो छे. भाई, तारे जो मोक्ष ज जोईए छे तो स्व-आश्रये सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपे परिणमवुं पडशे; आ एक ज मोक्षमार्ग छे, अने ते-रूपे उत्कृष्ट परिणमतां केवळज्ञान प्राप्त थाय छे. बापु! आ तो प्राप्तनी प्राप्तिनो स्व-आश्रयनो मार्ग छे. जेम लींडी पीपरमां चोसठ पहोरी तीखाश छे तो तेने घूंटता बहार अवस्थामां प्रगट थाय छे, तेम भगवान आत्मा स्वभावथी मोक्षस्वरूप छे तेमां एकाग्र-पूर्ण एकाग्र थतां बहार अवस्थामां मोक्षदशा प्रगटे छे.
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आम दर्शन, ज्ञान, चारित्र, सुख, वीर्य इत्यादि अनंत रत्नो अंदर स्वभावरूपे आत्मामां पडयां छे ते अंतर- एकाग्रताना पुरुषार्थथी बहार पर्यायरूपे प्रगट थाय छे. आवो मारग छे.
साधकने किंचित् राग रही जाय ने आयुष्य पूरुं थई जाय तो ते स्वर्गमां जाय छे. त्यांथी मनुष्यपणे अवतरीने अंतरना साधनथी-निज स्वभावना साधनथी ते सिद्ध थाय छे. अहा! धर्मीनी द्रष्टिमां तो निरंतर पोतानो भगवान आत्मा ज तरवरतो होय छे, ते सिवाय व्यवहारनो भाव होय छे तेने ते हेय ज जाणे छे. अहाहा...! जे भावे तीर्थंकर गोत्र बंधाय ते भाव पण तेने हेय ज थई गयो होय छे. अहा! अलौकिक चैतन्यनिधान अंदर भाळ्यां एने पुण्यथी शुं काम छे? हवे एने पुण्यनुं लक्ष ज नथी. शुं थाय? अरेरे! एणे निजघरनी अनंत अलौकिक रिद्धिनी कोई दि’ वात सांभळी नथी.
प्रश्नः– तो लोको (धर्मी पुरुषो पण) जात्राए केम जता हशे? उत्तरः– जे क्षेत्रथी परमात्मा सिद्ध थया होय तेनी समश्रेणीए उपर सिद्धालयमां सिद्ध परमात्मा बिराजे छे तेनुं स्मरण थाय ते माटे जात्रा छे. पण ए शुभभाव छे; व्यवहारे जात्रा कहेवाय, निश्चय जात्रा तो एवा रागने छोडी अंदर स्वरूपमां ठरे त्यारे थाय छे. आवी वात छे. शुं थाय? वादविवादे जगतने मारी नाख्युं छे. (आम ने आम) सत्ने समजवाना दिवसो चाल्या जाय छे भाई! तुं माने के हुं मोटो थाउं छुं, पण वास्तवमां तुं मृत्युनी समीप जाय छे बापु! हमणां आ नहि समजे तो कयारे समजीश? (एम के पछी समजवानो दाव नहि होय).
अहा! जेणे स्व-आश्रये मोक्षमार्ग प्रगट कर्यो तेने ए निश्चत छे के अल्पकाळमां केवळज्ञान थईने सिद्धदशा थशे. आम आत्मा बहुरूपीओ छे, उपाय अने उपेय-एम बन्नेरूपे पोते ज परिणमे छे, साधक अने सिद्धपणे पोते ज थाय छे.
‘आ आत्मा अनादि काळथी मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रने लीधे संसारमां भमे छे.’ जुओ, जीव कर्मने लईने संसारमां रखडे छे एम नहि, पण अनादि काळथी एने जे स्वस्वरूपनां विपरीत श्रद्धान-ज्ञान ने आचरण छे तेने लीधे ते संसारमां रखडे छे. जीव कर्मना निमित्ते संसारमां रखडे छे एवुं कथन शास्त्रमां आवे खरुं, पण ए तो व्यवहारनयनी कथनी छे, वास्तवमां एम छे नहि.
शुद्ध चिदानंदघन प्रभु आत्मा पोते छे, तेनाथी विपरीत रागनी ने कर्मनी श्रद्धा ते मिथ्या श्रद्धा छे, पोते ज्ञानानंद-स्वरूप छे तेनुं ज्ञान न करतां रागनुं ने कर्मनुं ज्ञान करवुं ते मिथ्याज्ञान छे. आ मिथ्याश्रद्धान ने मिथ्याज्ञान ते संसार-परिभ्रमणनुं मूळ छे.
कळशटीकामां ‘नमः समयसाराय’ इत्यादि पहेला कळशमां आवे छे के-“शुद्ध जीवने सारपणुं घटे छे. सार अर्थात् हितकारी, असार अर्थात् अहितकारी. त्यां हितकारी सुख जाणवुं, अहितकारी दुःख जाणवुं, कारण के अजीव पदार्थने-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काळने-अने संसारी जीवने सुख नथी, ज्ञान पण नथी, अने तेमनुं स्वरूप जाणतां जाणनहार जीवने पण सुख नथी, ज्ञान पण नथी, तेथी तेमने सारपणुं घटतुं नथी.” जुओ, शुं कीधुं आ? के १४८ प्रकृति अजीव छे, ने संसारी जीव रागी छे-तेने जाणतां जाणनहारने ज्ञानेय नथी ने सुखेय नथी. एक ज्ञायकना ज्ञान विना परवस्तुने जाणवाथी कोई ज्ञान अने सुख थतुं नथी. एवुं जाणपणुं मिथ्याज्ञान छे, संसारनुं कारण छे.
निगोदना जीवो पण मिथ्या श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप प्रचुर भावकलंकने लईने ज त्यां ने त्यां निगोदमां सबडे छे. अहा! नित्य निगोदमां रहेलो जीव के जे कोई दिवस त्रस नहि थाय तेय पोताना सच्चिदानंद स्वरूपथी विपरीत एवा रागमां रमणता करवाने लीधे ज संसारमां रवडे छे. आ मूळ वात छे. हवे पोते परिभ्रमण केम करे छे एनी खबर न मळे अने मानी ले के कर्म रखडावे छे तो ते पोतानी भूल कयारे जाणे अने कयारे टाळे? भाई, आ भूल मटाडवानो अवसर चाल्यो जाय छे हों.
हवे कहे छे-‘ते सुनिश्चळपणे ग्रहण करेलां व्यवहारसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रनी वृद्धिनी परंपरा वडे अनुक्रमे
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स्वरूपनो अनुभव ज्यारथी करे त्यारथी ज्ञान साधक रूपे परिणमे छे, कारण के ज्ञानमां निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप भेदो अंतर्भूत छे. निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रनी शरुआतथी मांडीने, स्वरूप- अनुभवनी वृद्धि करतां करतां ज्यांसुधी निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रनी पूर्णता न थाय, त्यांसुधी ज्ञाननुं साधक रूपे परिणमन छे.’
जुओ, अहीं छठ्ठा गुणस्थाननी भूमिकानी वात छे. ते पहेलां एणे निज चैतन्यमूर्ति आत्माने वेदनमां तो लीधो छे, अर्थात् सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र छे. एथी तो कह्युं के-‘सुनिश्चळपणे ग्रहण करेला’-मतलब के निश्चयनी साथे भूमिकाने योग्य व्यवहारसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र जे होय ते एने आव्यां छे. एनो बीजो अर्थ एम पण छे के अंदर जे निश्चय प्रगटयुं ते हवे जाय नहि, अर्थात् हवे ते हेठे उतरे नहि पण व्यवहार छोडीने अंदरमां जाय. आवो व्यवहार बीजे (बीजा कोई गुणस्थानके) नथी. निश्चय तो अंदर छे, ने व्यवहारने ओळंगीने सातमा अप्रमत्त गुणस्थानमां जशे-आमां एम कहेवुं छे. समजाणुं कांई...? साधु छे ने? स्वरूपथी च्युत हतो ते स्वरूपमां आव्यो- चढयो. पहेलां पांचमा गुणस्थानेथी ध्यानमां पहेलुं सातमुं गुणस्थान आवे छे, पण ए वात अहीं नथी; अहीं तो छठ्ठे गुणस्थाने शुभ विकल्प आवे छे तेने ओळंगी जईने स्वरूपमां जवानी-चढवानी वात छे. अहो! दिगंबर संतोए सूरजनी जेम मार्ग स्पष्ट प्रकाश्यो छे. द्रष्टि विना लोकोने हाथ न आवे तेथी शुं मार्ग बीजो थई जाय? न थाय.
ल्यो, हवे कोई कहे छे-तमे व्यवहारनो लोप करो छो. पण जे ते गुणस्थाने जे व्यवहार (व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प) होय छे तेनो कोण लोप करे? ते ते गुणस्थाने तो ते छे ज; अहीं तो तेने ओळंगीने आगळ जवानी-चढवानी वात छे. धर्मीने यथासंभव व्यवहारनो विकल्प होय छे, पण तेमां तेने उपादेयबुद्धि अने स्वामित्व होतां नथी; अने एना बळे ज ते उंचे-उंचे आरोहण करे छे. समजाणुं कांई...?
‘ते सुनिश्चळपणे ग्रहण करेलां व्यवहारसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रनी वृद्धिनी परंपरा वडे’... ल्यो, हवे व्यवहार- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र-व्यवहाररत्नत्रय ए तो शुभ विकल्प-राग छे; तेनी वृद्धिनी परंपरा वडे एटले शुं? एटले रागनी वृद्धिनी परंपरा वडे-एम अर्थ नथी, केमके व्यवहारनो-रागनो तो क्रमशः (आगळ आगळ) अभाव थतो जाय छे, अने अंदर शुद्धि वधती जाय छे. आ तो शुद्धि वधती जाय छे तेनो आरोप व्यवहार उपर करी ‘व्यवहारनी वृद्धि वडे’-एम कह्युं छे. ‘व्यवहाररत्नत्रयनी वृद्धिनी परंपरा वडे’ एम कह्युं ए तो व्यवहारनयनुं कथन छे. व्यवहार नयनां कथन आवां ज होय छे तेने जेम छे तेम समजवां जोईए. वास्तवमां राग तूटतो जाय छे, ने अंदर शुद्धि वधती जाय छे ते वडे अनुक्रमे स्वरूपनो अनुभव ज्यारथी करे त्यारथी ज्ञान नाम आत्मा साधक रूपे परिणमे छे. आवी वात!
‘अनुक्रमे स्वरूपनो अनुभव ज्यारथी करे त्यारथी ज्ञान साधकरूपे परिणमे छे’-आम कह्युं एमां आत्मा पोते साधकरूपे थाय छे, व्यवहार साधक रूपे थाय छे एम नहि. अहाहा...! भगवान पूर्णानंदनो नाथ अंदर छे एनां द्रष्टि-ज्ञान ने रमणतां थयां छे एनो उपयोग ज्यारे निर्विकल्प थयो, शुद्धोपयोगरूप परिणत थयो, अर्थात् उपयोग निर्विकल्प ज्ञाननी भूमिकामां आव्यो त्यारथी ते आत्मा साधकपणे परिणम्यो. एमां सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवा भेदो अंतर्भूत छे. भेदो छे खरा, पण मोक्षमार्गनी परिणतिमां त्रणे अभेद एकरूप छे. हवे मोक्षमार्गनी परिणतिमां त्रण भेदोनुं पण लक्ष नथी त्यां व्यवहारनी-रागनी शुं कथा? रागनो तो एमां अभाव ज छे. समजाणुं कांई...?
जुओ, साधकदशा चोथेथी बारमा गुणस्थान सुधीनी छे. स्वरूपनो अनुभव ज्यारथी करे त्यारथी आत्मा शुद्ध दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी एक्तारूपे पोते परिणमे छे. ते साधकपणे परिणमे एमां एने बहारमां व्यवहारनां साधन छे तेथी परिणमे छे एम नथी. व्यवहार होय छे तेने जणाव्यो छे, परंतु एने लईने साधकपणे परिणमे छे एम नथी, एकलो ज्ञानस्वभावी आत्मा ज उपाय-उपेयभावे परिणमे छे. अहा! पर साधन विना ज, व्यवहारना साधन विना ज, चैतन्य जेनुं सर्वस्व छे एवी आत्मवस्तु पोते ज पोताथी साधकपणे अने साध्यपणे परिणमे छे. त्यारे कोई कहे छे-
शुं आ एकांत नथी? हा, एकांत छे, पण सम्यक् एकांत छे; केमके स्व तरफ ढळेली निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रनी दशा-ते ज एकांते निश्चय साधक छे; वच्चे व्यवहाररत्नत्रयना विकल्प आवे खरा, पण ते निश्चय साधक नथी, खरेखर तो ए बाधक छे; तेमने साधक व्यवहारनयथी कहेवामां आवे छे, पण ए तो उपचारमात्र छे.
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निश्चय अने व्यवहार (रत्नत्रय) छे एक बीजाथी विरोधी, पण सम्यग्दर्शन अने मिथ्यादर्शनने साथे रहेवामां जेम विरोध छे तेम, ज्ञान ज्यांसुधी पूर्णताने न पामे त्यांसुधी, ज्ञान अने रागने साथे रहेवामां विरोध नथी. शास्त्रमां तेमनी परस्पर मैत्री पण कही छे. पण मैत्रीनो अर्थ ए स्थानमां (भूमिकामां) बे साथे होय छे एटलुं ज बस. व्यवहार छे माटे निश्चय प्रगटे छे, वा व्यवहारथी निश्चय प्रगटे छे एम एनो अर्थ नथी. मैत्री एटले मदद करे छे एम एनो अर्थ नथी; केमके निश्चय स्व-आश्रये प्रगट थाय छे, ने व्यवहार पर-आश्रये प्रगटे छे, निश्चय (मोक्षमार्ग) अबंध मोक्षनुं कारण छे, ने व्यवहार (मोक्षमार्ग) बंधनुं कारण छे. बन्ने छे तो तद्न विरुद्ध, पण ए जातनो व्यवहारनो विकल्प ए स्थानमां श्रद्धा-ज्ञान ते स्थिरताने बाधा करतो नथी, पण तेने ओळंगीने ज विशेष-विशेष स्थिरतानां स्थानो प्राप्त थाय छे, भाई, वस्तुस्थिति जेम छे तेम राख. तेने फेरववाना विकल्पथी शुं साध्य छे? अंतरना आश्रयमां उपयोग रहे बस ए एक ज मार्ग छे. वचमां व्यवहार आवे, पण ए सत्यार्थ मार्ग नथी. अरे! तीर्थंकर अने केवळीना विरह पडया अने लोको विवादमां पडी गया!
भावपाहुडमां आवे छे के-भाई, अंदर चिदानंद चैतन्य परमेश्वर प्रभु तुं छो, तेना आश्रय विना तारा बधा क्रियाकांड फोगट गया, केमके रागनी ए बधी क्रिया आत्माने धर्मनुं साधन नथी. अहा! आवा क्रियाकांड तें अनंत वार कर्या, पण ते तने साधन न थया. भाई, एक स्वना आश्रये ज धर्म-वीतरागता प्रगटे छे. आ एक ज मार्ग छे. आवी वस्तुस्थिति छे. साधकपणानी शरुआत स्व-आश्रये स्वानुभवथी थाय छे, ने तेनी वृद्धि अने पूर्णता पण स्व-आश्रये स्वानुभवथी थाय छे. समयसार नाटकमां आवे छे ने के-
अनुभव मारग मोखकौ, अनुभव मोख सरूप.
अहाहा...! स्वानुभवनी सिद्धि थतां, गुलाब जेम लाख पांखडीए खीली उठे तेम, चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा अनंत पर्याय-पांखडीए खीली उठे छे. अहा! मुनिदशानी तो शी वात! एने तो प्रचुर स्वसंवेदननी दशा छे. अहाहा...! प्रचुर एटले पुष्कळ, स्व एटले पोताथी, सम् नाम प्रत्यक्ष आनंदनुं वेदन-एवी अलौकिक मुनिदशा छे. एनो जे उपासक थाय तेय समकिती थई जाय छे; केमके जेणे गुरुने ओळख्या तेणे सात तत्त्व जाण्यां छे. ने तेणे पोताना आत्मानेय जाण्यो-ओळख्यो छे. अहाहा...! साधु-गुरु कोने कहीए? स्वरूपनी अति उग्र रमणता ते साधुदशा छे. प्रवचनसारमां साधुने मोक्ष तत्त्व कह्युं छे. मोक्षनी तळेटीमां विराजे छे ने! अहाहा...! ज्यांसुधी शुद्ध रत्नत्रयनी पूर्णता न थाय त्यांसुधी ज्ञाननुं साधकपणे परिणमन छे, ते अपूर्व एवुं अलौकिक परिणमन छे. समजाय छे कांई...?
हवे कहे छे-‘ज्यारे निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रनी पूर्णताथी समस्त कर्मनो नाश थाय अर्थात् साक्षात् मोक्ष थाय त्यारे ज्ञान सिद्ध रूपे परिणमे छे, कारण के तेनो अस्खलित निर्मळ स्वभावभाव प्रगट देदीप्यमान थयो छे.’
जुओ, निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रनी पूर्णताथी समस्त कर्मनो नाश थाय एम कह्युं ए व्यवहारनयनुं कथन छे. कर्म तो परद्रव्यनी दशा छे, एनो क्षय तो एना कारणे थाय छे. कर्मनो क्षय थवानो. ए ज काळ छे, बाकी केवळज्ञान आत्मामां प्रगट थयुं एनाथी कर्मनो क्षय थयो छे एम नथी, अने कर्मना क्षयना कारणे अहीं केवळज्ञान थयुं छे एमेय नथी. आ तो व्यवहारनयनी कथनपद्धति आवी छे बापु! बाकी शुं परद्रव्यनी पर्याय आत्मा करे? ना करे, कदीय ना करे. आत्मा सिद्धरूपे परिणमे ते आत्मानी दशा छे, ने कर्मनो क्षय ते तेनी-परमाणुनी दशा छे. बन्ने भिन्न भिन्न परिणमन पोतपोताथी छे. आवी वात!
स्व-आश्रये स्वानुभव थतां, तथा तेमां वृद्धि थतां ज्यां पूर्णदशाने पर्याय प्राप्त थई, पूर्ण केवळज्ञान प्रगट थयुं ते हवे अस्खलित-पाछुं फरे नहि एवो एनो निर्मळ स्वभावभाव छे. अहाहा...! जेवो पूर्ण केवळज्ञानस्वभाव द्रव्यरूपे छे तेवी पूर्ण केवळज्ञान ज्योति झळहळती पर्यायरूपे प्रगट थई गई ते हवे पडे नहि तेवो स्वभावभाव छे. आने अरिहंत अने सिद्धनी परमात्मदशा कहे छे. हवे अहीं तो व्यवहाररत्नत्रयनुं नाम-निशानेय ना रह्युं. समजाणुं कांई...?
भाई! आ तारा घरनी ने तारा हितनी वात छे. अरे, अनंत काळमां प्रभु! तें शुं शुं ना कर्युं? बधुं ज कर्युं, एक स्व-आश्रय ना कर्यो. जीव ज्यारे स्व-आश्रये स्वाभिमुख थई परिणमशे त्यारे एने धर्म थशे. अहाहा...! त्रणलोकनो नाथ चैतन्यमहाप्रभु अंदर विराजे छे तेना आश्रयमां-शरणमां ज्यां गयो त्यां ए मोटानी ओथे गयो; हवे एने शुं चिंता छे? केवळज्ञान थशे ज थशे. बीज उगे ते पूनम थाय, तेम साधकपणुं प्रगटयुं ते सिद्ध थशे ज थशे. साधकनी
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सिद्धदशा थये ज छूटको. धवलमां आवे छे के-स्वना आश्रये प्रगटेल सम्यक् मति-श्रुतज्ञान केवळज्ञानने बोलावे छे; एनो अर्थ शुं? ए ज के तेने अल्पकाळमां हवे केवळज्ञान थशे; केवळज्ञान हवे हाथवेंतमां छे; जेम चंद्र सोळे कलाए खीले तेम अल्पकाळमां भगवान आत्मा सोळे कलाए खीली केवळज्ञानपणे झळहळ देदीप्यमान प्रगटशे. आवी अद्भुत वात!
हवे सरवाळो करे छे के-‘आ रीते साधक रूपे अने सिद्ध रूपे-बन्ने रूपे परिणमतुं एक ज ज्ञान आत्मवस्तुने उपाय-उपेयपणुं साधे छे.’ ल्यो, उपाय-उपेयपणुं, साधक-साध्यपणुं-बन्ने आत्मानी अवस्थाओ होवाथी आत्मवस्तुमां ज समाय छे. व्यवहार होय छे, ‘सुनिश्चळपणे ग्रहण करेलां’ एक कह्युं, पण एनो अर्थ व्यवहारने जाणेलो-जाणवामां आवेलो एम थाय छे. ग्रहणनो अर्थ जाणवुं थाय छे. व्यवहारने आदरवो एवो अर्थ अहीं छे ज नहि. ग्रहण एटले जाणवुं-एवो अर्थ मोक्षमार्गप्रकाशकमां कर्यो छे. समयसार गाथा १२नी टीकामां पण व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान कह्यो छे. भाई, आ तो तत्त्वने यथार्थ समजी अंतरमां उतरी जवानो मार्ग छे. आवो अवसर मळ्यो ने न समज्यो तो कयारे समजीश? आ मनुष्यपणुं एमने एम विंखाणुं (छूटी गयुं) तो पछी अवसर नहि आवे. हवे टीकामां विशेष कहे छे;-
‘आ रीते बन्नेमां (-उपायमां तेम ज उपेयमां-) ज्ञानमात्रनुं अनन्यपणुं छे अर्थात् अन्यपणुं नथी.’ जुओ, श्रीमद् आचार्य अमृतचंद्रदेव कहे छे-भाई, सांभळ. अंदर एक ज्ञानानंदस्वरूपी चैतन्यमूर्ति प्रभु तुं आत्मा छो. तेमां अंतर-एकाग्र थतां, ज्ञान, श्रद्धा, आनंद, शांति, स्थिरता, प्रभुता इत्यादि एक साथे पर्यायमां प्रगट थाय छे. अहा! आवी स्वरूपमां रमणतारूप निर्विकल्प परिणति ते उपाय नाम साधकपणुं छे. व्यवहार वचमां हो, पण ते साधकपणुं नथी. आ जे (बार प्रकारे) व्यवहार तप छे ते साधकपणुं नथी; केम? केमके तेमां आत्मा अनन्य नथी. समजाणुं कांई...?
अहाहा...! कहे छे-निर्मळानंदनो नाथ प्रभु आत्मा छे, एनुं साधकपणुं (उपाय) ते आनंदनी पर्याय छे, ने एनुं साध्यपणुं (उपेय) तेय पूर्ण आनंदनी पर्याय छे. अहाहा...! ए बन्ने रूप एकला ज्ञानमात्र-चैतन्यचमत्कार प्रभु आत्मानुं ज भवन-थवापणुं छे; उपाय अने उपेयमां-बन्नेमां एक आत्मवस्तु ज अनन्य छे, परद्रव्य के रागादि व्यवहारनो विकल्प तेमां अनन्य नथी. एटले शुं? के दया, दान, व्रत, तप इत्यादि जे बाह्य व्यवहार छे ते निश्चय रत्नत्रयनुं कारण नथी. अहाहा...? उपाय एटले मोक्षमार्ग, ने उपेय एटले एना फळरूपे प्रगट सिद्धदशा-ए बन्नेमां, कहे छे, आत्मा ज अनन्य छे.
वचली भूमिकामां देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धा, ने पंचमहाव्रतादि रागनी मंदतानो भाव होय छे एटलुं बताववा व्यवहारनी वात करी छे, पण ए निश्चयपणे साधकपणुं के मोक्षमार्ग छे एम छे ज नहि; केमके एमां आत्मा-ध्रुव चैतन्यनुं दळ अनन्य नथी. शुद्ध चैतन्य वस्तुमां थोडी लीनता-तेरूप जे मोक्षमार्ग, ने पूर्ण लीनता-तेरूप जे मोक्ष-ए बन्नेमां ज्ञानमात्र शुद्ध चैतन्यवस्तु ज अनन्य अर्थात् एकमेक छे. साथे राग छे ए तो बंधभाव छे, साधकपणाने विघ्नरूप छे, झेर छे. निर्मळ रत्नत्रय ते अमृत छे, ने राग तो झेर छे; एनाथी (-रागथी) अमृतमय एवो मोक्षमार्ग केम थाय? न थाय. आवी अपूर्व वात छे. व्यवहारना पक्षवाळाने आ आकरी लागे छे, पण शुं थाय? आ तो वस्तु ज आवी छे.
बहारमां तो व्रत करो, ने तपस्या करो, ने पूजा-भक्ति करो एटले थई गयो धर्म एवुं सांभळवा मळे छे, पण एवी प्ररूपणा सत्य नथी, केमके ए बधा विकल्पमां चैतन्य वस्तु अनन्य-तन्मय थती नथी. निश्चयनी स्थिरता होय छे त्यां साथे आवो व्यवहार होय छे तेने उपचारथी धर्म कहेवामां आवे छे, पण वास्तवमां ते धर्म नथी. धर्म नथी तेने उपचार करीने धर्म कहेवो ते व्यवहारनय छे, पण एमां धर्म मानवो ए तो मिथ्यात्व छे, महान भूल छे. व्यवहार सुधरे तो निश्चय सुधरशे एम केटलाक माने छे, पण ए बराबर नथी, अहीं एनी ना पाडे छे. शुं कोलसो काळो छे ते धोवाथी सफेद थाय? न थाय. ए तो कोलसाने बाळी दे तो उज्ज्वळ सफेद थाय; तेम व्यवहारने (स्वना आश्रये) बाळी मूके तो उज्ज्वळ पवित्र मोक्षमार्ग ने मोक्षनी दशा थाय.
भाव पाहुड, गाथा ८३मां आवे छे के-जिनशासनमां जिनेन्द्रदेवे आ प्रकारे कह्युं छे के-पूजा आदिकमां तथा व्रतसहित होवुं एमां ‘पुण्य’ छे, तथा मोह-क्षोभथी रहित जे आत्माना परिणाम ते ‘धर्म’ छे. त्यां एना भावार्थमां
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खुलासो कर्यो छे के-लौकिक जन तथा अन्यमती कोई कहे छे के-पुजादिक शुभ क्रियाओमां तथा व्रतक्रिया सहित छे ते जैन धर्म छे, परंतु एम नथी. जिनमतमां जिन भगवाने एम कह्युं छे के-पूजादिकमां तथा व्रतसहित होवुं ते तो ‘पुण्य’ छे. एमां पूजा तथा आदि शब्दथी भक्ति, वंदना, वैयावृत्य आदि समजवुं. एनुं फळ स्वर्गादिक भोगोनी प्राप्ति छे, ते जैनधर्म नथी. जुओ आ जैनशासननुं रहस्य!
आवी चोख्खी वात छे तो पण व्यवहारवादीओनुं शल्य मटतुं नथी ए तीव्र मोहनो ज महिमा छे. समयसार गाथा १पमां कह्युं छे के-जे आ अबद्धस्पृष्टादि पांच भावोस्वरूप निज आत्माने अंतरमां देखे छे ते सकल जैनशासनने देखे छे. जैन शासन ए तो वीतराग परिणति छे भाई! व्यवहार-राग ए जैनशासन नथी. व्यवहार हो भले, होय छे एटले एनुं कथन पण छे, पण ए जैनशासन नथी. मार्ग तो आवो छे भाई! चैतन्य रत्नाकर प्रभु पोते छे तेमां उंडा उतरी तेने ज ध्याननुं ध्येय बनावतां ते पोते ज श्रद्धा-ज्ञान-आनंदपणे परिणमे छे तेने ज अहीं उपाय कहेवामां आवे छे, अने तेटलुं जैनशासन छे. समजाणुं कांई...?
भाई, आवुं मांड मनुष्यपणुं मळ्युं ए तो वीजळीनो झबकारो छे. आ वीजळीना जबकारे सम्यग्ज्ञानरूपी दोरो परोवी ले तो परोवी ले, दोरो ना परोव्यो तो, दोरा विनानी सोय जेम कयांय खोवाई जाय तेम सम्यग्ज्ञानरूपी दोरा विना, आ देह छूटतां, भगवान! तुं कयांय संसारमां खोवाई जईश, पत्तोय नहि लागे. सम्यग्ज्ञानरूपी दोरो परोव्यो हशे तो पोते खोवाशे नहि, अल्पकाळमां मोक्षधाम पहोंची जशे.
अहा! पोते स्वनो आश्रय करे एनाथी ज धर्म अने एनाथी ज मुक्ति थाय छे. आ स्वनो आश्रय ते निश्चय छे, ने तेमां व्यवहारनयनी उपेक्षा छे. स्वना आश्रयमां व्यवहारनी उपेक्षा ते ज तेनी अपेक्षा-सापेक्षता छे. व्यवहारनो आश्रय ते सापेक्षता-एम नहि, पण निश्चयनो आश्रय लेवो तेमां व्यवहारनी उपेक्षा ते तेनी सापेक्षता छे. स्वना आश्रयमां व्यवहारनयनी (एना विषयनी) उपेक्षा ज होय छे. प्रमाणज्ञानमां बन्नेनुं (द्रव्य-पर्यायनुं) ज्ञान वर्ते छे, पण आश्रय तो एक स्वद्रव्यनो ज होय छे अने तेमां व्यवहारनी उपेक्षा ज होय छे, अने ते ज तेनी सापेक्षता छे. समजाणुं कांई...?
मोक्षमार्ग प्रकाशकमां (सातमा अधिकारमां) आवे छे के-‘जे जीवो जैन छे, तथा जिन आज्ञाने माने छे, तेमने पण मिथ्यात्व रहे छे, तेनुं अहीं वर्णन करीए छीए. कारण के ए मिथ्यात्व शत्रुनो अंश पण बूरो छे, तेथी ए सूक्ष्म मिथ्यात्व पण त्यागवा योग्य छे.’ तेमां ज वळी आगळ कह्युं छे के-‘जिनागममां निश्चय-व्यवहाररूप वर्णन छे, तेमां यथार्थनुं नाम निश्चय तथा उपचारनुं नाम व्यवहार छे. तेना स्वरूपने नहि जाणतां अन्यथा प्रवर्त छे, ते अहीं कहीए छीए.’ भाई, जरा धीरा थईने आ समजवुं जोईए. (नयविवक्षा यथार्थ जाणवी जोईए.) में आम मान्युं छे माटे आम ज साबित थाय एम न होय; जेवी वस्तु छे तेवी ज लक्षमां ने अभिप्रायमां आववी जोईए. आवो भव के दि’ मळे बापु! हमणां ज आना संस्कार नाखी ले.
अहीं कहे छे-मोक्षमार्गमां (उपायमां), ने मोक्षमां (उपेयमां) ज्ञानमात्रनुं एटले के आत्मानुं ज अनन्यपणुं छे. व्यवहार-राग तो एनाथी भिन्न ज रही जाय छे. हवे आम छे त्यां एनी (-रागनी) शी अपेक्षा? अहा! पोते शुद्ध चिदानंदघन प्रभु छे, ने एना आश्रये राग रहित वीतरागी निर्मळ रत्नत्रयनी आनंदमय दशा प्रगट थाय छे ते उपाय छे, अने ते उपायनी परिणति अति उग्र थई परम प्रकर्षताने पामी उपेयपणे थाय छे त्यारे आत्मा पोते ज सिद्धपणाने पामे छे. आम जीवनी ज आ बे-निर्मळ ने पूर्ण निर्मळ अवस्थाओ छे.
हा, पण एनुं कोई साधन तो हशे ने? साधन? साधन गुण वडे आत्मा पोते ज साधन थईने साधकपणे अने सिद्धपणे परिणमे छे. साधन वस्तुनी ज शक्ति छे त्यां एने बीजा साधननी शुं अपेक्षा छे? भाई, आवो अलौकिक मारग छे. आ समज्या विना भले अहीं लाखो-करोडोना बंगलामां पडयो होय, पण मरीने कयांय ढोरमां-कागडे-कूतरे-कंथवे चाल्या जशे. आवी स्थिति छे.
आ रीते उपाय तेमज उपेयमां आत्मानुं अनन्यपणुं छे, राग तेमां अनन्य नथी, माटे कहे छे-‘माटे सदाय अस्खलित एक वस्तुनुं (-ज्ञानमात्र आत्मवस्तुनुं-) निष्कंप ग्रहण करवाथी, मुमुक्षुओने के जेमने अनादि संसारथी भूमिकानी प्राप्ति न थई होय तेमने पण, तत्क्षण ज भूमिकानी प्राप्ति थाय छे.’
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अहाहा...! शुं कहे छे? के सदाय अस्खलित-अचलित एवो-चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मा छे. तेने निष्कंप ग्रहण करवाथी अर्थात् निर्विकल्प ज्ञाननी परिणतिमां पकडवाथी-जाणवाथी मुमुक्षुओने-के जेमने अनादि संसारथी भूमिकानी एटले के सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थई न होय तेमने-तत्काल ज सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थाय छे. जुओ आ उपायनी प्राप्तिनी रीत! शुद्ध आत्माना ग्रहण द्वारा ज सम्यग्दर्शन आदि प्राप्त थाय छे.
हवे अत्यारे तो बस पुण्य करो... पुण्य करो-एम बधे हाल्युं छे, पण पुण्यथी तो स्वर्गादि मळे, ने बहु बहु तो वीतरागदेव अने तेमनी वाणीनो समागम मळे, पण एमां आत्मामां शुं आव्युं? आत्मानो अनुभव तो अंदर अखंड अचलित एक ज्ञायकस्वभावी पोतानी चीज छे तेने स्वाभिमुख ज्ञानमां पकडवाथी थाय छे. अहाहा...! निमित्तनुं ने व्यवहारनुं लक्ष छोडी एक ज्ञायकना लक्षे परिणमे तेने धर्मनुं पहेलुं पगथियुं एवुं सम्यग्दर्शन थाय छे. भाई, पहेलुं लक्षमां तो ले के धर्मनो दोर आ छे, आ सिवाय बहारनी क्रियाना लक्षे सम्यग्दर्शन थाय एवुं वस्तुस्वरूप नथी. समजाय छे कांई...?
पुरुषार्थसिद्धि-उपायमां आवे छे के-मोक्षनो उपाय जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ते बंधनुं कारण नथी. बंधनुं कारण तो योग अने कषाय छे. जेने तीर्थंकर प्रकृति बंधाय छे ते पण ए मोक्षमार्गथी बंधाय छे एम नथी, योग अने कषायथी ज बंधाय छे. निर्विकल्प दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तेरूप मोक्षमार्ग ते योग अने कषायरूप नथी, छतां कहेवाय के समकितीने सम्यग्दर्शन देवना आयुना बंधनुं कारण छे. आ व्यवहारनयनुं-उपचारनुं कथन छे. नयना स्वरूपने सम्यक् प्रकारे जाणे छे तेने एमां कांई विरोध जेवुं देखातुं नथी.
जातिस्मरणथी सम्यग्दर्शन पामे, देव-गुरुथी पामे, जिनबिंबना दर्शनथी पामे, इत्यादि शास्त्रमां आवे ए तो कोना उपर लक्ष हतुं ने छोडयुं ते बतावनारां कथन छे. बाकी त्रिकाळी ध्रुवने ध्येय बनावीने ध्यान करवुं-बस ए ज जन्म-मरणना अंतनो उपाय छे. सातमी नरकनो नारकी स्वनो आश्रय लईने समकित पामे छे. आ सिवाय शुं स्वर्गमां के शुं नरकमां-ज्यां जाय त्यां बधे पोतानी शांतिने शेकनारा अंगारा ज छे. जिनबिंबना दर्शनथी निधत्त अने निकाचित कर्मनो क्षय करी समकित पाम्यो एम शास्त्रमां आवे, पण ए तो निमित्तनी मुख्यताथी कथन छे. जिनबिंबना दर्शन काळे तेनुं लक्ष छोडी पोते जे जिनस्वरूप छे तेनुं लक्ष करे तो समकित थाय छे. स्वद्रव्यना आश्रये ज समकित थाय छे आ एक ज रीत छे. भाई, तुं बीजी रीते-दया, दान, व्रत, तपथी थाय एम मान पण ए तो तारी हठ छे. अरेरे! शुं थाय? भवभ्रमणनो एने थाक लाग्यो नथी तेथी संसारथी छूटवुं गोठतुं नथी. घणा दिवसोना केदीनी जेम तेने भवभ्रमण कोठे पडी गयुं छे, एक भवमांथी बीजा भवमां जवा तैयार छे, पण तत्त्वनी वात समजवा ते तैयार नथी; तत्त्व एने गोठतुं नथी.
बाकी जुओ ने, आ शुं कहे छे? अहाहा...! अस्खलित-जेना चैतन्यनो प्रवाह ध्रुव... ध्रुव... ध्रुव एकरूप अचल छे एवा भगवान आत्माने निष्कंप-निर्विकल्प ज्ञाननी दशामां पकडवाथी तेने तत्क्षण ज अपूर्व एवी भूमिकानी अर्थात् सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थाय छे. ल्यो, हवे आ सिवाय बीजी कोई विधि-रीत नथी. गुरुनी कृपाथी समकित थयुं एम कहेवुं ए तो निमित्तनी प्रधानताथी कथन छे. निश्चयथी आत्मानो गुरु आत्मा-पोते ज छे. ज्यारे पोते अंतर्मुख थई समकित प्रगट करे त्यारे गुरु बहारमां निमित्तरूपे होय तो उपचारथी गुरुनी कृपा थई एम कहेवाय छे. समजाणुं कांई...? भाई, उपचारनां-व्यवहारनां कथन जेम छे तेम यथार्थ समजवां जोईए.
हवे कहे छे-‘पछी तेमां ज नित्य मस्ती करता ते मुमुक्षुओ-के जेओ पोताथी ज, क्रमरूप अने अक्रमरूप प्रवर्तता अनेक अंतनी (अनेक धर्मनी) मुर्तिओ छे तेओ-साधकभावथी उत्पन्न थती परम प्रकर्षनी कोटिरूप सिद्धिभावनुं भाजन थाय छे.’
‘पछी तेमां ज नित्य मस्ती करता’... जुओ सम्यग्दर्शन पाम्या पछी स्वरूपमां नित्य मस्ती-केलि करता एम कह्युं छे, व्रत पाळता ने तपस्या करता केवळज्ञान प्रगट करे छे एम कह्युं नथी. ज्ञानानंदस्वरूपी निज भगवान आत्मा अनुभवमां आव्या पछी एमां ज मस्ती-रमणता करता, एमां ज आनंदनी केलि करता मुमुक्षुओ सिद्धिभावनुं भाजन थाय छे.
अहाहा...! सम्यग्दर्शनरूपी धर्मनी धजा जेणे हस्तगत करी छे तेने हवे जगतमां लुंटनाराओ कोई नथी. अहाहा...! ते मुमुक्षुओ निजानंद-ज्ञानानंदस्वरूपमां मस्ती करता-मोज करता-लहेर मारता, पोताथी ज
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क्रमरूप-अक्रमरूप प्रवर्तता... , अहाहा...! भाषा तो जुओ, साधक चोथे, पांचमे, छट्ठे वगेरेमां पोताना ज ज्ञानानंदस्वरूपमां लीन प्रवर्ते छे, व्यवहारमां के निमित्तमां लीन थई प्रवर्तता नथी. वळी निष्कंपपणे आत्माने ग्रहण करतां निर्मळ रत्नत्रयनी -अनाकुळ आनंदनी धारा (प्रवाह) जे क्रमे क्रमे प्रगट थई रही छे ते पोताथी ज थई छे, ने अक्रमे गुणो रहेला छे तेय पोताथी ज रहेला छे-आ रीते मुमुक्षुओ पोताथी ज क्रमरूप-अक्रमरूप प्रवर्तता ते अनेक धर्मनी मूर्तिओ छे. अहाहा...! अक्रमे प्रवर्तता अनंत गुण अने क्रमे प्रवर्तती तेनी निर्मळ निर्मळ पर्यायो-ते रूप पोताथी ज थता ते मुमुक्षुओ, कहे छे, अनेक धर्मनी मूर्तिओ छे. गजब वात छे भाई! अहाहा...! तेओ साधकभावथी-निर्मळ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप भावथी उत्पन्न थती परम प्रकर्षनी कोटिरूप, एटले के उंचामां उंची-उत्कृष्ट दशारूप सिद्धिभावनुं भाजन थाय छे; एटले के तेओ सादि-अनंत एवा सिद्धपदने पात्र थाय छे; हवे तेमने फरीने संसार हशे नहि. आवी वात!
अहाहा...! जेने अंतरमां निष्कंप निराकुळ आनंदनी लहेर प्रगट थई ते जीव स्वरूपनी मोज करतो करतो स्वरूपमां ज लीनपणे स्थिति करीने अनंतकाळे नहि प्राप्त थयेल एवा सिद्धपदने प्राप्त करी ले छे. जेमां अनंत सुख, अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत वीर्य इत्यादि प्रगट छे एवा सिद्धपदने ते प्राप्त करी ले छे. जुओ आ स्व- आश्रयनी कमाल! स्व-आश्रये ज साधकपणुं ने स्व-आश्रये ज सिद्धपद प्राप्त थाय छे. आ सम्यक् एकांत छे. एनो निषेध ना कर भाई! भगवान आत्मा शुद्ध चिदानंदघन प्रभु-एनी अंतर-एकाग्रता ते मार्ग छे, एमां द्रव्यांतरनो स्पर्श नथी, व्यवहार एय अनेरुं (बीजुं, पर) द्रव्य छे, एनो एमां स्पर्श नथी. आवी वात!
आम उपाय-उपेयनी वात करी. हवे कहे छे-‘परंतु जेमां अनेक अंत अर्थात् धर्म गर्भित छे एवा एक ज्ञानमात्र भावरूप आ भूमिने जेओ प्राप्त करता नथी, तेओ सदा अज्ञानी वर्तता थका, ज्ञानमात्र भावनुं स्वरूपथी अभवन अने पररूपथी भवन देखता (-श्रद्धता) थका, जाणता थका अने आचरता थका, मिथ्याद्रष्टि, मिथ्याज्ञानी अने मिथ्याचारित्री वर्तता थका, उपाय-उपेयभावथी अत्यंत भ्रष्ट वर्तता थका संसारमां परिभ्रमण ज करे छे.’
अहाहा...! ज्ञान, दर्शन, आनंद इत्यादि अनंत धर्म जेना पेटमां पडया छे एवा त्रिकाळी ध्रुव निज ज्ञानानंदस्वरूपने जेओ प्राप्त करता नथी तेओ अज्ञानमां वर्तनारा छे. अहाहा...! रागना परिणाममां एकत्व करीने वर्तता ते मूढ जीवो सदा अज्ञानरूप वर्ते छे. अहा! जेनी द्रष्टिमां पोतानो ध्रुव चिदानंद भगवान आव्यो नथी, जेने अंतरमां अनाकुळ आनंदनो स्वाद आव्यो नथी एवा जीवो अज्ञानरूप प्रवर्ते छे. बहारमां भले हजारो राणीओ छोडीने नग्न दिगंबर थाय, पंच महाव्रतनुं पालन करे, तप करे, जंगलमां वसे, पण वास्तवमां रागमां वसनारा तेओ अज्ञानी ज छे. अहा! आवा जीवो क्लेश करो तो करो, पण निजानंद-सच्चिदानंद-स्वरूपना भान विना तेमनी मुक्ति थती नथी, तेओ संसारने ओळंगता नथी. एमनां सघळां व्रत ने तप बाळव्रत ने बाळतप ज छे, फोगट ज छे.
तेओ ज्ञानमात्र भावनुं स्वरूपथी अभवन अने पररूपथी भवन देखनारा-श्रद्धनारा छे. एटले शुं? के पोतानो ज्ञानानंद स्वभाव छे तेनुं पोताथी -स्व-आश्रयथी भवन-परिणमन थाय एम नहि, पण परथी-रागनी क्रियाथी एनुं भवन-प्रगटवुं थाय छे एम तेओ माने छे, एम तेओ जाणे छे, ने आचरण पण एम ज करे छे. अहा! आम वर्तता तेओ प्रथम भूमिका जे सम्यग्दर्शन तेने प्राप्त करता नथी; अहा! रागमां जेओ वर्ते छे तेमने स्वभावनुं भवन थतुं नथी; तेमने अज्ञाननुं ज भवन थाय छे. अहा! पोते रागरूपे परिणमे अने माने के मने धर्म थाय छे, वा व्यवहार करतां करतां निश्चय थशे, कांई एम ने एम अद्धरथी धर्म न थई जाय-अहा! आवी मान्यतावाळा मूढ जीवो रागनुं ज ज्ञान-श्रद्धान-आचरण करता थका मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रपणे ज परिणमी रह्या छे; तेमने साधकभावना अंकुर प्रगटता नथी.
बापु! आ तो वीतरागनो मार्ग छे, आ कोई पक्ष के वाडो नथी. अहाहा...! स्वरूपथी ज भगवान! तुं जिनस्वरूप छो. आवी पोतानी चीज निर्विकल्प द्रष्टि ने ज्ञानमां प्राप्त थाय छे. पण तेने बदले तुं रागनी क्रियाथी प्राप्ति थवानुं मानी रागमां ज रच्यो रहे छे तो तने स्वभावनुं अभवन-अप्राप्ति ज छे, ने अज्ञाननुं भवन-प्राप्ति थाय छे. अमे मुनि छीए, जंगलमां रहीए छीए, अमारे कयां वेपार-धंधानां पाप छे? अमे तो बधुं छोडयुं छे. तेने कहीए-शुं छोडयुं छे? धूळेय छोडयुं नथी सांभळने. मिथ्यात्वनुं महापाप तो ऊभुं छे, पछी शुं छोडयुं?
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अहा! स्वरूपनी द्रष्टि विना, अज्ञानी जीव एकला रागना रंगे रंगायो छे. दया, दान, व्रत, तप इत्यादि रागनी क्रियाओमां ते रच्यो रहे छे. ते रागने ज देखे छे, रागने ज सर्जे छे, ने रागने ज आचरे छे. तेने मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रनुं ज आचरण छे. धर्मनी क्रियानुं तो तेने भानेय नथी. शुद्ध चैतन्यना आश्रये जे निर्विकल्प दशाओ थाय तेनी तो एने गंधेय नथी. तेने स्वभावनुं भवन ज नथी ने! ए तो एकांते रागनी क्रियाओमां धामा नाखीने त्यां ज रमी रह्यो छे. अहा! अनेक क्रियाकांड करवा छतां तेने संसार-परिभ्रमण ज ऊभुं रहे छे; ते संसारमां ज-८४ना अवतारोमां ज -रखडे छे.
अहा! कर्मनुं जोर छे माटे अज्ञानीने स्वरूपनुं अभवन छे एम नथी. एनी उंधी श्रद्धाने लईने एने स्वरूपनुं अभवन छे. पोतानी उंधी श्रद्धानुं जोर छे तेथी अज्ञानी रखडे छे. कर्म मार्ग आपे तो धर्म थाय एम कर्मनां उंधां लाकडां एनामां गरी गयां छे. एम कर्म-कर्मनुं जोर मानीने एणे निज आत्मस्वभावनो त्याग करी दीधो छे. अरे भाई, कर्म छे, पण ए तो जड-धूळ बापु! ए तने शुं करे? तारी द्रष्टि बदल तो सृष्टि बदलाई जशे.
एक वार एक लौकिकमां प्रसिद्ध संत पुरुष राजकोटमां अमारा व्याख्यानमां आवेला. त्यारे कहेलुं के-पर जीवोनी दया पाळवानो भाव ते रागभाव छे, शुभराग छे, बंधनुं कारण छे, ते धर्म नथी. वळी जे जीव माने छे के हुं परनी दया पाळी शकुं छुं ते मूढ छे. रागमां धर्म माने एय मूढ छे, ने परनी दया पाळवानुं माने तेय मूढ छे. तेमने आ वात जची नहि. पण शुं थाय? मिथ्याभाव तो अंतरना पुरुषार्थथी ज मटे ने! स्वरूपने भूली जवुं ते भूल छे, ने पोतानी भूलने लईने ज जीव संसारमां भमे छे. ‘अपने को आप भूल के हेरान हो गया.’ रागनी क्रियामां जे धर्म मानी बेठा छे ते मिथ्याद्रष्टि अज्ञानी जीवो छे, ने ते चार गतिमां परिभ्रमे छे. आवी वात!
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
भूमिं
मूढास्त्वमूमनुपलभ्य
श्लोकार्थः– [ये] जे पुरुषो, [कथम् अपि अपनीत–मोहाः] कोई पण प्रकारे जेमनो मोह दूर थयो छे एवा थया थका, [ज्ञानमात्र–निज–भावमयीम् अकम्पां भूमिं] ज्ञानमात्र निजभावमय अकंप भूमिकानो (अर्थात् ज्ञानमात्र जे पोतानो भाव ते-मय निश्चळ भूमिकानो) [श्रयन्ति] आश्रय करे छे, [ते साधकत्वम् अधिगम्य सिध्दाः भवन्ति] तेओ साधकपणाने पामीने सिद्ध थाय छे; [तु] परंतु [मूढाः] जेओ मूढ (-मोही, अज्ञानी, मिथ्याद्रष्टि) छे, तेओ [अमूम् अनुपलभ्य] आ भूमिकाने नहि पामीने [परिभ्रमन्ति] संसारमां परिभ्रमण करे छे.
भावार्थः– जे भव्य पुरुषो, गुरुना उपदेशथी अथवा स्वयमेव काळलब्धिने पामी मिथ्यात्वथी रहित थईने, ज्ञानमात्र एवा पोताना स्वरूपने पामे छे, तेनो आश्रय करे छे, तेओ साधक थया थका सिद्ध थाय छे; परंतु जेओ ज्ञानमात्र एवा पोताने पामता नथी, तेओ संसारमां रखडे छे. २६६.
‘ये’ जे पुरुषो, ‘कथम् अपि अपनीत–मोहाः’ कोई पण प्रकारे जेमनो मोह दूर थयो छे एवा थया थका, ‘ज्ञानमात्र–निज–भावमयीम् अकम्पां भूमिम्’ ज्ञानमात्र निजभावमय अकंप भूमिकानो (अर्थात् ज्ञानमात्र जे पोतानो भाव
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ते-मय निश्चळ भूमिकानो) ‘श्रयन्ति’ आश्रय करे छे, ‘ते साधकत्वम् अधिगम्य सिध्दाः भवन्ति’ तेओ साधकपणाने पामीने सिद्ध थाय छे;...
शरुआतथी मांडीने मार्ग ज आ छे भाई! समयसार गाथा ११मां आव्युं ने के- ‘भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो’ जे भूतार्थनो आश्रय करे छे ते सम्यग्द्रष्टि थाय छे. ए ज आ वात छे. कहे छे-जे पुरुषो, कोई पण प्रकारे अर्थात् महान पुरुषार्थ करीने मोहनो नाश करे छे, मिथ्याभावनो नाश करे छे-एवा थईने... , जुओ, आमां अस्तिमां पुरुषार्थ ने नास्तिमां मोहनो नाश एम बे वात करी छे. अहाहा...! अंतःपुरुषार्थ वडे मोहनो नाश थयो छे एवा थईने जे पुरुषो, ज्ञानमात्र निजभावमय अकंप-निश्चल एक ज्ञायकभावनो आश्रय करे छे तेओ साधकपणाने पामीने तेनी उत्कृष्ट दशारूप सिद्ध थाय छे. भाई, दया पाळवी, व्रत करवां, भक्ति करवी के आहारदान देवुं ए कोई मार्ग नाम मोक्षमार्ग नथी, साधकपणुं नथी, तथा ते मार्गनुं-साधकपणानुं आलंबन पण नथी. ल्यो, आवी वात! बहु आकरी पण सत्य वात छे. अहा! अशुभथी बचवा धर्मीने एवो भाव आवे छे पण ए धर्म नथी.
अहाहा...! भगवान पूर्णानंदनो नाथ रागना विकल्पथी रहित पोताना स्वभावथी जाणे एवो प्रत्यक्ष ज्ञाता छे. प्रवचनसार, गाथा १७२मां अलिंगग्रहणना प्रथम छ बोलमां आ प्रमाणे लीधुं छे के-
१. जेने इन्द्रियो वडे ग्रहण-जाणवुं थाय एवो भगवान आत्मा नथी. २. जे इन्द्रियो वडे ग्राह्य-जणावायोग्य थाय एवो इन्द्रियप्रत्यक्षनो आत्मा विषय नथी. ३. इन्द्रियप्रत्यक्षपूर्वक आत्मा अनुमाननो विषय नथी. ४. बीजाओ द्वारा मात्र अनुमानथी जणाय एवो आत्मा नथी. प. आत्मा एकला अनुमान वडे जाणे एवो अनुमाता नथी. ६. आत्मा पोताना स्वभावथी जाणे एवो प्रत्यक्ष ज्ञाता छे. अहाहा...! आम पोतानी जातथी भात पाडे एवो आत्मा छे; रागना विकल्पथी ते जणाय एवो नथी. आवी झीणी वात कदी सांभळी नथी. कोईक वार सांभळवामां आवी जाय तो निश्चय छे, निश्चय छे-एम कहीने काढी नाखे छे.
अहा! भगवान आत्मा परोक्ष रहे एवो एनो स्वभाव ज नथी. तेथी भगवान आत्मानुं अस्तिपणे जे अतीन्द्रिय पूर्ण स्वरूप छे एनो जे आश्रय करे छे ते साधकपणाने पामीने सिद्ध थाय छे.
तो व्यवहार साधन अने निश्चय साध्य एम शास्त्रमां आवे छे ने? हा, आवे छे; पण ए तो उपचारथी कथन छे बापु! बाकी व्यवहार कांई परमार्थरूप साधन छे नहि. आत्मामां साधन नामनो गुण छे ते वडे आत्मा ज पोते साधनरूप थईने पोतानी निर्मळ वीतरागी पर्यायने प्रगट करे छे. पोते ज पोतानुं साधन छे. विशेष स्पष्ट कहीए तो जे निर्मळ पर्याय प्रगट थई ते ज तेनुं साधन छे. अहाहा...! धर्म केम पमाय? तो कहे छे-त्रिकाळी एक ज्ञायकस्वरूप, कर्म-नोकर्मथी भिन्न एवुं स्वद्रव्य छे तेना आश्रये साधकपणाने पामीने सिद्ध थवाय छे. आ ज धर्म पामवानी रीत छे; राग के निमित्तना आश्रये धर्म प्रगटे एवी वस्तु नथी.
अरे! आत्माना भान विना जीवो एकांते दुःखी छे. भले बहारथी तरफडियां न मारता होय, पण अंदरथी दुःखी ज दुःखी छे. शरीरमां धोरीरग तूटे तो फट दईने खलास थई जाय, ने नानी रग तूटे तो तरफडी-तरफडीने खलास थई जाय. अरेरे! आवां वेदन एणे अनंत वार कर्यां छे; केमके एने देह ने रागथी एकत्व बुद्धि छे. राग तो स्वयं दुःखरूप छे, दावानळ छे. एणे रागथी एकत्व करीने चिरकाळथी पोतानी शांतिने जलावी दीधी छे.
अहा! आ झवेरीओ बधा करोडोनी किंमतना हीराने परखे, पण परखनारो अंदर चैतन्यहीरलो छे तेने ना परखे, अहाहा...! अंदर जुए तो ए चैतन्यहीरलो एकला ज्ञान ने आनंदनो दरियो छे. जेम दरियामांथी पाणीनी छोळो उछळे तेम आ चैतन्यहीरलानी द्रष्टि करतां अंदरथी ज्ञान ने आनंदनी छोळो उछळे छे. अहाहा...! करोडो अबजोनी किंमतना होय तोय ए जड हीरानी शी किंमत? ए तो धूळनी धूळ छे बापा! हीराय धूळ ने तेनी किंमतेय धूळ. ज्यारे आ चैतन्यहीरलो-एकला ज्ञायकस्वभावथी झळहळतो-तेनी शी किंमत? अहाहा...! अंतर्द्रष्टि वडे नीरखतां ने अंतर-एकाग्र थतां तेमांथी आनंदनी छोळे सहित सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगटे एवी ए अणमोल चीज छे. अहाहा...!
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एनो आश्रय करतां एमांथी साधकदशा ने सिद्धदशा प्रगटे एवी अणमोल अनुपम चीज चैतन्यवस्तु आत्मा छे. अहाहा...! अहीं कहे छे-जेणे आ चैतन्यहीरलानो आश्रय लीधो ते साधकपणाने पामीने सिद्धपद पामशे. अहाहा...! अनंत-सुखधाम एवुं सिद्धपद कोने कहीए? ओहो! आचार्य अमृतचंद्रदेवे सुखनां वेणलां वहेवडाव्यां छे. कहे छे- स्वरूपना आश्रये जेने साधकदशा थई तेने अल्पकाळमां परम सुखधाम एवी सिद्धदशा प्रगट थशे. आवी वात!
हवे कहे छे- ‘तु’ परंतु ‘मूढाः’ जेओ मूढ (-मोही, अज्ञानी, मिथ्याद्रष्टि) छे, तेओ ‘अमूम् अनुपलभ्य’ आ भूमिकाने नहि पामीने ‘परिभ्रमन्ति’ संसारमां परिभ्रमण करे छे.
अहाहा...! जेओ मूढ छे, अर्थात् जेओ पोतानी चिदानंदघनस्वरूप चैतन्यवस्तुने ओळखता नथी, अने पवित्रतानो पिंड एवो पोते, अने अपवित्र एवो राग-शुभ के अशुभ-अहीं शुभनी प्रधानताथी वात छे-ए बन्नेने एकमेक जाणे छे, माने छे तेओ मूढ छे, मोही, अज्ञानी छे. रागथी मने लाभ थशे, ने व्यवहार करतां करतां निश्चय धर्म प्रगटशे -एम माने छे तेओ मूढ छे, मिथ्याद्रष्टि छे. अहा! आवा मिथ्याद्रष्टि जीवो, कहे छे, आ भूमिकाने अर्थात् सम्यक्दर्शन आदि भावने-साधकपणाने प्राप्त करता नथी. जेओ शुभना विकल्पमां रोकायेला छे तेओ साधकपणानी भूमिकाने प्राप्त करी शकता नथी.
प्रश्नः– तेओ व्रत, तप, भक्ति, पूजा, दया, दान इत्यादि भगवाने कहेलां साधन तो करे छे? उत्तरः– ए तो बधां उपचारथी साधन कह्यां छे, तेने तेओ परमार्थ साधन मानी बेठा छे ए ज भूल छे. व्रतादि कांई वास्तविक साधन नथी. तेथी रागमां ज रोकायेला तेओ बहारमां चाहे नग्न दिगंबर साधु थया होय, जंगलमां रहेता होय, पंचमहाव्रतादि पाळता होय तोय मूढ रह्या थका साधकपणाने पामता नथी. अहा! अगियार अंग अने नव पूर्वनी लब्धि प्रगटी होय तोय शुं? तोय तेओ अज्ञानी छे केमके रागनी एकतानी आडमां तेमने आत्मज्ञान थयुं नथी. अहा! जे रागना-पुण्यना प्रेममां फस्यो छे ते व्यभिचारी छे, मूढ छे, आवा मूढ जीवो राग विनानी साधकनी भूमिकाने पामता नथी. तेओ संसारमां ज परिभ्रमण कर्या करे छे. ओहो! मोटो संसार समुद्र पडयो छे. कदीक उंचे स्वर्गमां अवतरे, ने कदीक हेठे नर्कमां जाय; अररर..! पारावार दुःखने भोगवे छे. समजाणुं कांई...?
‘जे भव्य पुरुषो, गुरुना उपदेशथी अथवा स्वयमेव काळलब्धिने पामी मिथ्यात्वथी रहित थईने, ज्ञानमात्र एवा पोताना स्वरूपने पामे छे, तेनो आश्रय करे छे, तेओ साधक थया थका सिद्ध थाय छे; परंतु जेओ ज्ञानमात्र एवा पोताने पामता नथी, तेओ संसारमां रखडे छे.’
अहाहा...! कोईने गुरुए कह्युं-मारी सामुं मा जो, अंदर चिदानंदघन प्रभु तुं छो त्यां तारामां जो; त्यां जा, ने त्यां ज रमी जा, त्यां ज ठरी जा, अहा! तेणे एम कर्युं तो समकित सहित तेने साधकपणुं थयुं. तथा कोई स्वयं अंदर जाग्रत थई अंतःपुरुषार्थ करी साधक थयो. अहा! आम समकित युक्त साधकपणाने पामीने जीवो सिद्धदशाने पामे छे. आ ज मार्ग छे भाई! जेओ पोताना स्वभावनो आश्रय करे छे तेओ साधक थया थका सिद्ध थाय छे. परंतु जेओ शुभाशुभ क्रियामां ज लीन थई रोकाया छे तेओ आत्मवस्तुने पामता नथी, संसारमां रखडया करे छे. आवी वात!
आ भूमिकानो आश्रय करनार जीव केवो होय ते हवे कहे छेः
यो भावयत्यहरहः स्वमिहोपयुक्तः।
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पात्रीकृतः श्रयति भूमिमिमां स एकः।। २६७।।
श्लोकार्थः– [यः] जे पुरुष [स्याद्वाद–कौशल–सुनिश्चल–संयमाभ्यां] स्याद्वादमां प्रवीणता तथा (रागादिक अशुद्ध परिणतिना त्यागरूप) सुनिश्चळ संयम-ए बन्ने वडे [इह उपयुक्तः] पोतामां उपयुक्त रहेतो थको (अर्थात् पोताना ज्ञानस्वरूप आत्मामां उपयोगने जोडतो थको) [अहः अहः स्वम् भावयति] प्रतिदिन पोताने भावे छे (- निरंतर पोताना आत्मानी भावना करे छे), [सः एकः] ते ज एक (पुरुष), [ज्ञान–क्रिया–नय–परस्पर–तीव्र– मैत्री–पात्रीकृतः] ज्ञाननय अने क्रियानयनी परस्पर तीव्र मैत्रीना पात्ररूप थयेलो, [इमाम् भूमिम् श्रयति] आ (ज्ञानमात्र निजभावमय) भूमिकानो आश्रय करे छे.
भावार्थः– जे ज्ञाननयने ज ग्रहीने क्रियानयने छोडे छे, ते प्रमादी अने स्वच्छंदी पुरुषने आ भूमिकानी प्राप्ति थई नथी. जे क्रियानयने ज ग्रहीने ज्ञाननयने जाणतो नथी, ते (व्रत-समिति-गुप्तिरूप) शुभ कर्मथी संतुष्ट पुरुषने पण आ निष्कर्म भूमिकानी प्राप्ति थई नथी. जे पुरुष अनेकांतमय आत्माने जाणे छे (-अनुभवे छे) तथा सुनिश्चळ संयममां वर्ते छे (-रागादिक अशुद्ध परिणतिनो त्याग करे छे), ए रीते जेणे ज्ञाननय अने क्रियानयनी परस्पर तीव्र मैत्री साधी छे, ते ज पुरुष आ ज्ञानमात्र निजभावमयी भूमिकानो आश्रय करनार छे.
ज्ञाननय अने क्रियानयना ग्रहण-त्यागनुं स्वरूप अने फळ ‘पंचास्तिकाय-संग्रह’ शास्त्रना अंतमां कह्युं छे, त्यांथी जाणवुं. २६७.
‘यः’ जे पुरुष ‘स्याद्वाद–कौशल–सुनिश्चल–संयमाभ्याम्’ स्याद्वादमां प्रवीणता तथा (रागादिक अशुद्ध परिणतिना त्यागरूप) सुनिश्चळ संयम-ए बन्ने वडे ‘इह उपयुक्तः’ पोतामां उपयुक्त रहेतो थको (अर्थात् पोताना ज्ञानस्वरूप आत्मामां उपयोगने जोडतो थको) ‘अहः अहः स्वं भावयति’ प्रतिदिन पोताने भावे छे (-निरंतर पोताना आत्मानी भावना करे छे).
अहाहा...! अहीं स्याद्वादनी प्रवीणता अने सुनिश्चळ संयम-एम बे वात लीधी छे. त्यां स्याद्वादनी प्रवीणता एटले शुं? के द्रव्यस्वरूपमां, भगवान त्रिकाळी एक ज्ञायकमां निमित्त, राग के पर्याय नथी, ने निमित्त, राग के पर्यायमां भगवान ज्ञायक नथी, अहाहा...! आवुं स्वना आश्रये जे ज्ञान-श्रद्धानरूप परिणमन थाय ते स्याद्वादनी प्रवीणता छे. ‘शुद्ध’मां रागादि नहि, ने रागादिमां ‘शुद्ध’ नहि-एवुं ज्ञाननुं परिणमन ते स्याद्वादनी प्रवीणता छे. तथा जेमां अशुद्ध परिणतिनो त्याग वर्ते छे एवी स्वस्वरूपनी रमणता, स्थिरता, निश्चलता ते संयम छे. अहीं कहे छे-स्याद्वादनी प्रवीणता अने सुनिश्चळ संयम-ए बे वडे जे पुरुष पोतामां उपयुक्त रहेतो थको, उपयोगने पोतामां ज स्थिर करतो थको प्रतिदिन पोताने भावे छे ते आ भूमिकाने अर्थात् साधकपणाने पामे छे. ल्यो, आवी वात! समजाणुं कांई...?
अहा! जेने सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान प्रगट थयुं तेने स्व-आश्रये सुनिश्चळ संयम प्रगट थाय छे. ज्ञान-श्रद्धान थवामां स्वभाव सन्मुखतानो जे पुरुषार्थ छे तेनाथी सुनिश्चल संयम थवामां चारित्रनो अनेक गुणो पुरुषार्थ होय छे. अहाहा...! चारित्र एटले शुं? जे चैतन्यस्वरूप ज्ञानमां प्रतिभास्युं ने श्रद्धामां आव्युं तेमां विशेषपणे चरवुं, रमवुं, ठरवुं, जमवुं तेनुं नाम चारित्र छे. अहाहा...! जेमां प्रचुर आनंदनां भोजन थाय एवी स्वानुभवनी सुनिश्चल दशा तेने चारित्र कहे छे. अशुद्धतानो त्याग थई शुद्ध रत्नत्रय परिणतिनुं प्रगट थवुं एनुं नाम संयम अर्थात् चारित्र छे.
छ कायनी दया पाळवी तेने संयम कहे छे ने? हा, छ कायनी दया पाळवी तेने संयम कहेल छे, पण ए तो भेदरूप संयम छे. वास्तवमां ए शुभराग छे,
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अने धर्मी पुरुषनी धर्म परिणतिनो सहचर जाणी तेने उपचारथी संयम कहेल छे. समजाणुं कांई...?
अहाहा...! महान वैभवशील एवा रावणने एक स्फटिकनो महेल हतो. एना स्फटिक एवा झळहळता प्रकाशित हता के कोई दुश्मन त्यां जाय तो पग कयां धरवो ते खबर न पडे एटले तरत पकडाई जाय. तेम आ आत्मा चैतन्यनो महेल एवा चैतन्यना प्रकाशथी भरपुर झळहळतो उज्ज्वळ छे के त्यां मोह आदि दुश्मनो तरत ज पकडाइ जाय छे. अहाहा...! चैतन्यहीरलो चैतन्य प्रकाशनो पुंज एवो छे के एमां चरण धरतां, चरतां-विचरतां मोहांधकारनो नाश थई जाय छे, ने प्रबळ पवित्र उज्ज्वळ चारित्रनो प्रकाश प्रगट थाय छे. ल्यो, आनुं नाम संयम छे. शुद्ध चिदानंदघन प्रभु आत्मा अनुभवमां आव्यो, पछी एवा ज अनुभवमां स्थिर थईने रहेवुं ते संयम छे.
त्यारे कोई वळी कहे छे-आचार्य कुंदकुंददेव पण अहिंसादि महाव्रत पाळता हता, अमे केम न पाळीए? अरे भाई! तने आचार्यदेवना अंतरना स्वरूपनी खबर नथी. मुख्यपणे तेओ शुद्धोपयोगमां ज स्थित- लीन हता; निरंतर शुद्धोपयोगनी ज तेमने भावना हती, व्रतादिनी नहि. तेमनो ज आ संदेश छे के- पंचमहाव्रतादिनो विकल्प राग छे, ज्यारे अंतरमां स्वरूप-स्थिरता करवी ते संयम नाम चारित्र छे. पंचमहाव्रतादिनो विकल्प होय छे खरो, पण ते कांई संयम नथी, खरेखर तो (निश्चयथी) ते हेय एवो असंयम, अचारित्र ज छे. हवे आवी वात आकरी लागे पण आ सत्य वात छे.
अहा! धर्मात्मा, संयमी-मुनि निरंतर पोताना शुद्ध स्वरूपने भावे छे. आत्मावलोकनमां आवे छे के-मुनिओ वारंवार वीतरागतानो उपदेश आपे छे, शुद्ध स्वरूपमां रमणता कर-एवो ज उपदेश तेओ आपे छे. राग करवानी तो वात ज नथी भाई! (व्रतादिनो) राग होय छे ए जुदी वात छे, ने रागने करवो-ए जुदी वात छे. अरे, जे भावे तीर्थंकर नामकर्म बंधाय ते भावनी पण मुनिवरोने भावना होती नथी. शुं आस्रवने धर्मी भावे? कदीय न भावे.
अहाहा...! कहे छे-निरंतर जे पुरुष उपयोगने स्वस्वरूपमां उपयुक्त करी निज शुद्धात्माने भावे छे. ‘सः एकः’ ते ज एक (पुरुष), ‘ज्ञान–क्रिया–नय–परस्पर–तीव्र–मैत्री–पात्रीकृतः’ ज्ञाननय अने क्रियानयनी परस्पर तीव्र मैत्रीना पात्ररूप थयेलो, ‘इमाम् भूमिम् श्रयति’ आ (ज्ञानमात्र निजभावमय) भूमिकानो आश्रय करे छे.
अहाहा...! ल्यो, ज्ञान अने क्रिया नाम चारित्र-बन्नेनी मैत्रीना पात्ररूप थयेलो ते एक ज ज्ञानमात्र भूमिकाने आदरे छे; ते एक ज साधकपणाने पामे छे, बीजा रागमां रोकायेला छे तेओ साधकपणाने प्राप्त थता नथी.
अहाहा...! शुं कळशो छे! कोईने मोढामां अमी न आवतुं होय, ने तेने सो-बसो आंबलीना कातराना ढग वच्चे बेसाडीए तो मोंमां पाणी वळी जाय, ने अमी आवे, तेम आचार्य अमृतचंद्रदेवे अहीं अमृतमय कळशोनो ढग खडो कर्यो छे. अहा! जे एनी मध्यमां जाय अर्थात् तेनुं अवगाहन करे तेने अंदर अमृतरूपी अमी उछळी जाय छे. अहाहा...! अंदर अमीनो सागर उछाळे एवा आ कळशो छे. अहाहा...! कहे छे-जे पुरुष स्याद्वादमां प्रवीणता अने सुनिश्चळ संयम वडे, शुद्धात्मामां उपयुक्त थयो थको पोताने ज भावे छे ते पुरुष सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप थयो थको साधकपणाने पामे छे; ने सिद्ध थई जाय छे.
‘जे ज्ञाननयने ज ग्रहीने क्रियानयने छोडे छे, ते प्रमादी अने स्वच्छंदी पुरुषने आ भुमिकानी प्राप्ति थई नथी.’
जुओ, शुं कीधुं? के एकलुं शास्त्रनुं जाणपणुं करे, पण अंतर्द्रष्टि प्रगट करी अशुद्धताने टाळे नहि ते प्रमादी अने स्वच्छंदी छे. एवा शुष्कज्ञानीने अंतरमां साधकपणुं प्रगटतुं नथी. शास्त्रनुं जाणपणुं खूब करे तेथी क्षयोपशमनो विकास तो थाय, पण एमां शुं? अंदर परम पुनीत शुद्धभावमय आत्माने जाणे नहि, ने एकांते ज्ञाननयने ग्रहे ते पुरुष अशुद्धता टाळीने अंदर जतो नथी. एवा प्रमादी स्वच्छंदी पुरुषने भूमिकानी-साधकपणानी दशानी प्राप्ति थती नथी.
वळी, ‘जे क्रियानयने ज ग्रहीने ज्ञाननयने जाणतो नथी, ते (व्रत-समिति-गुप्तिरूपे) शुभकर्मथी संतुष्ट पुरुषने पण आ निष्कर्म भूमिकानी प्राप्ति थई नथी.’
जुओ, दया, दान, व्रत, तप, समिति, गुप्ति इत्यादिना शुभभावमां जेओ संतोषाई जाय छे, अर्थात् आ शुभभावथी धर्म थाय छे एम जेओ माने छे तेओ ज्ञाननयने जाणता नथी. तेमने शुद्ध चिदानंदघन प्रभु आत्मानुं भान नथी. भाई,
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व्रतादिनी जे बाह्य क्रिया छे ए तो राग छे, ने रागमां संतुष्ट छे तेने रागरहित निष्कर्म वीतरागी भावनी भूमिका प्राप्त थती नथी. अहा! आवा क्रियाजड क्रियाकांडीओने आत्माना धर्मनी क्रिया थती नथी. वास्तवमां तेओ अज्ञानी ज रहे छे.
हवे कहे छे-‘जे पुरुष अनेकांतमय आत्माने जाणे छे (-अनुभवे छे) तथा सुनिश्चळ संयममां वर्ते छे (- रागादिक अशुद्ध परिणतिनो त्याग करे छे), ए रीते जेणे ज्ञाननय अने क्रियानयनी परस्पर तीव्र मैत्री साधी छे, ते ज पुरुष आ ज्ञानमात्र निजभावमयी भूमिकानो आश्रय करनार छे.’
शुं कीधुं आ? के जे पुरुष अनेकांतमय आत्माने जाणे छे अर्थात् द्रव्यपर्याय स्वरूप आत्मवस्तु छे तेमां त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य छे ते पर्याय नथी, ने एक समयनी पर्याय छे ते त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य नथी-अहाहा...! आवुं जे त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य तेने जे पुरुष अनुभवे छे ते सम्यग्ज्ञानी छे. अहा! आम सम्यग्ज्ञान अने सुनिश्चळ संयम-एम बेमां जे वर्ते छे ते पुरुष ज्ञानमात्र निजभावमयी भूमिकानो आश्रय करनार छे. सम्यग्दर्शन थतां ज अभिप्रायथी तो रागथी भिन्न पडयो हतो, छतां राग हतो. तो तेने जाणीने स्वरूपना उग्र आश्रय वडे शुद्ध परिणति-वीतरागी परिणतिने प्रगट करे तेने संयम कहे छे. एकली इन्द्रियोने दमवी ने अहिंसादि व्रत पाळवां ते संयम एम नहि. ए तो संयम छे ज नहि. स्वरूपमां जे लीनता-स्थिरता छे ते संयम छे. आम सम्यग्ज्ञान अने सम्यग्चारित्र वडे जेणे ज्ञाननय अने क्रियानयनी मैत्री साधी छे ते ज पुरुष आ ज्ञानमात्र निजभावमयी भूमिकानो आश्रय करनारो छे.
अहाहा...! पुण्य-पापथी रहित चिन्मात्रज्योतिस्वरूप भगवान आत्मा छे. तेनी अंतर्मुख थईने स्वसंवेदन- पोतानुं पोताथी वेदन करवुं ते ज्ञाननय छे; तथा तेमां ज स्थिर थई, अशुद्धताना-रागना त्यागरूप शुद्ध परिणतिरूपे परिणमवुं ते संयम नाम क्रियानय छे. सम्यग्ज्ञान-आत्मज्ञान ने रागना अभावरूप संयम-बेने मैत्री-गाढ मैत्री छे. आ ज्ञाननय ने क्रियानयनी मैत्री छे. हवे आवो मारग वीतरागनो छे, पण लोकोने ते समजवो कठण थई पडयो छे.
पण शुं थाय? जेम माबाप मरी जाय ने छोकराओ अंदर-अंदर लडे-एम के बापे आम कह्युं हतुं ने तेम कह्युं हतुं; तेम अरेरे! अत्यारे केवळी-श्रुतकेवळीना विरह पडया छे. केवळी रह्या नहि, ने आम धर्म थाय ने तेम धर्म थाय-एम लोको अंदर अंदर विवादे चढी गया छे. परंतु भाई! वस्तु जे भगवान आत्मा छे तेनो ज्ञानानंद स्वभाव छे. अहाहा...! आवी निजवस्तुना आश्रये परिणमतां पर्यायमां ज्ञान ने आनंद प्रगट थाय छे, अने ते धर्म छे. वस्तुनो स्वभाव ते धर्म. स्वनुं-ज्ञान ने आनंदनुं भवन-थवुं ते स्वभाव नाम धर्म छे. आ जैनदर्शन छे. जैनदर्शननी आवी वात बीजे कयांय नथी.
भाई, अनेकांतनो एवो अर्थ नथी के-निज स्वभावना आश्रये पण धर्म थाय ने रागना-व्यवहारना आश्रयेय धर्म थाय. वास्तवमां स्वभावना आश्रये ज धर्म थाय ने रागना-विभावना आश्रये धर्म न थाय तेनुं नाम अनेकांत छे. अरे, जगतने जैनधर्मनुं वास्तविक स्वरूप जाणवा मळ्युं नथी. जगत तो व्रत करो, ने तपस्या करो, ने भक्ति करो ने बहारमां इन्द्रियोने दमो, ब्रह्मचर्य पाळो एटले थई गयो धर्म-एम माने छे, पण एवुं धर्मनुं स्वरूप नथी. अहाहा...! पोते अंदर ज्ञानस्वरूपी परम पवित्रतामय प्रभु छे तेमां अंतर-एकाग्र थई त्यां ज ठरवुं एनुं नाम धर्म छे. साथे शुभभाव हो, पण ते धर्म नथी. शुभभावने व्यवहारे मैत्री कही छे, पण निश्चयथी ए मैत्री नथी. अहीं तो स्व-आश्रये प्रगट सम्यग्ज्ञान, अने स्व-आश्रये प्रगट संयमभाव-निर्मळ रत्नत्रय-तेने परस्पर मैत्री कही छे. बाकी जेने अंतरमां स्वस्वरूपनुं भान वर्ततुं नथी तेनां व्रत, तप आदि तो सर्व फोगट ज छे अर्थात् संसार खाते ज छे; जेम लग्नमां फेरा फरे छे ने! तेम चोरासीना अवतारना ते फेरा फरशे. योगसारमां आवे छे ने के-
व्रत–तप–संयम–शील सहु, फोगट जाणो साव.
आवी वात छे!
हमणां हमणां केटलाके काढयुं छे के-‘जीवो अने जीववा दो’-ए भगवाननुं सूत्र छे. पण भाई! एवुं भगवाने कह्युं ज नथी. भगवाने तो एम कह्युं छे के-आत्मामां एक जीवन शक्ति त्रिकाळ छे. अहाहा...! ज्ञान, दर्शन, आनंद, सत्ता-एवा शुद्ध चैतन्य प्राणो वडे जीव त्रिकाळ जीवे ज छे, तेने जीववा देवानी वात ज कयां छे? अहाहा...! शुद्ध चैतन्य प्राणोना धरनार निज चैतन्यद्रव्यनो जे आश्रय करे छे तेने निर्मळ ज्ञान ने आनंदमय जीवन प्रगट थाय छे अने ते जीवनुं वास्तविक जीवन छे. अहा! पंच परमेष्ठी भगवंतोनुं जीवन वास्तविक जीवन छे. बाकी मन, वचन,
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काय, इन्द्रिय इत्यादि दस प्राण वडे जेणे जीवन मान्युं छे तेय अनंत काळ जीवे छे खरो, पण ते संसारमां रखडे छे, केमके ते दस प्राण अने तेनी योग्यतारूप जीवना अशुद्ध प्राण ते यथार्थमां एनी चीज नथी. तेना (जड प्राणो ने अशुद्ध प्राणोना) आलंबनमां रहेलो जीव अनंत संसारमां परिभ्रमे छे. हवे आवी वात छे; समजाणुं कांई...?
अहाहा...! भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप छे; तेमां एकाग्र थईने स्थित रहेवुं ते ज्ञानचेतना छे, ने रागमां स्थित रहेवुं ते कर्मचेतना छे. बाह्य व्रतादिमां स्थित रहेवुं ते कर्मचेतना छे; ने तेना फळमां स्थित रहेवुं ते कर्मफळ चेतना छे. ज्ञानीने ज्ञानचेतना छे, ने अज्ञानीने कर्मचेतना ने कर्मफळचेतना होय छे. अहीं कहे छे-जेणे ज्ञाननय अने क्रियानयनी अर्थात् सम्यग्ज्ञान अने स्वरूप स्थिरतानी गाढ मैत्री साधी छे ते ज पुरुष ज्ञानमात्र निजभावमयी भूमिकानो आश्रय करनारो छे; ते ज साधक थईने सिद्ध थाय छे. अहाहा...! स्व-आश्रये जे ज्ञान अने वीतरागी शांति प्रगटी छे तेने अहीं ज्ञाननय अने क्रियानयनी मैत्री कही छे.
“ज्ञाननय अने क्रियानयना ग्रहण-त्यागनुं स्वरूप अने फळ ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ शास्त्रना अंतमां कह्युं छे, त्यांथी जाणवुं”
आम जे पुरुष आ भूमिकानो आश्रय करे छे, ते ज अनंत चतुष्टयमय आत्माने पामे छे-एवा अर्थनुं काव्य हवे छेः-
शुध्दप्रकाशभरनिर्भरसुप्रभातः।
आनन्दसुस्थितसदास्खलितैकरूप–
स्तस्यैव चायमुदयत्यचलार्चिरात्मा।। २६८।।
श्लोकार्थः– [तस्य एव] (पूर्वोक्त रीते जे पुरुष आ भूमिकानो आश्रय करे छे) तेने ज, [चित्–पिण्ड– चण्डिम–विलासि–विकास–हासः] चैतन्यपिंडनो निरर्गळ विलसतो जे विकास ते-रूप जेनुं खीलवुं छे (अर्थात् चैतन्यपुंजनो जे अत्यंत विकास थवो ते ज जेनुं खीली नीकळवुं छे), [शुध्द–प्रकाश–भर–निर्भर–सुप्रभातः] शुद्ध प्रकाशनी अतिशयताने लीधे जे सुप्रभात समान छे, [आनन्द–सुस्थित–सदा–अस्खलित–एक–रूपः] आनंदमां सुस्थित एवुं जेनुं सदा अस्खलित एक रूप छे [च] अने [अचल–अर्चिः] अचळ जेनी ज्योत छे एवो [अयम् आत्मा उदयति] आ आत्मा उदय पामे छे.
भावार्थः– अहीं ‘चित्पिण्ड’ इत्यादि विशेषणथी अनंत दर्शननुं प्रगट थवुं बताव्युं छे, ‘शुध्दप्रकाश’ इत्यादि विशेषणथी अनंत ज्ञाननुं प्रगट थवुं बताव्युं छे, ‘आनन्दसुस्थित’ इत्यादि विशेषणथी अनंत सुखनुं प्रगट थवुं बताव्युं छे अने ‘अचलार्चि’ विशेषणथी अनंत वीर्यनुं प्रगट थवुं बताव्युं छे. पूर्वोक्त भूमिनो आश्रय करवाथी ज आवा आत्मानो उदय थाय छे. २६८.
बेसता वर्षने सुप्रभात कहे छे ने? रात्रिना अंधकारनो नाश थई भूमंडळमां सूर्यनां किरणो फेलाय तेने सुप्रभात कहे छे; तेम पुण्य-पापनी एकताबुद्धिरूप अंधकारने भेदीने सम्यग्दर्शन-ज्ञानरूप जे चैतन्यनी ज्योति झळहळ प्रगट थाय तेने सुप्रभात कहे छे. अहा! आवुं सुप्रभात जेने प्रगटयुं ते जीवे दिवाळी करी, दि’ नाम काळने तेणे अंतरमां वाळ्यो. समजाणुं कांई...? ए ज कहे छे-
‘तस्य एव’ (पूर्वोक्त रीते जे पुरुष आ भूमिकानो आश्रय करे छे) तेने ज, ‘चित्–पिण्ड–चण्डिम– विलासि–विकास–हासः’ चैतन्यपिंडनो निरर्गळ विलसतो जे विकास ते-रूप जेनुं खीलवुं छे (अर्थात् चैतन्यपुंजनो
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जे अत्यंत विकास थवो ते ज जेनुं खीली नीकळवुं छे), ... एवो आ आत्मा उदय पामे छे.
अहाहा...! शुं कहे छे? निर्मळानंदनो नाथ सच्चिदानंद प्रभु त्रिकाळ ध्रुव अंदर विराजे छे तेनो जे आश्रय करे छे तेने ज चैतन्यनो निरर्गळ विलसतो जे विकास ते-रूपे खीलवुं थाय छे. अहाहा...! जेम कमळ हजार पांखडीए खीली नीकळे तेम भगवान आत्मा, तेमां एकाग्र थई स्थित थतां अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत वीर्य-एम अनंत गुण-पर्याये खीली नीकळे छे. ‘निरर्गळ विलसतो विकास’ एटले शुं? के प्रतिबंध रहित निरंकुश अमर्यादित पूर्ण ज्ञान-दर्शनादिरूप विकास थाय छे. अहाहा...! जेने कोई रोकनारुं नथी एवो अनंत ज्ञान- दर्शन-सुख-वीर्यरूप विकास खीली जाय छे. साधकने वच्चे व्यवहार आवे छे, पण ते कांई ज नथी, ते पूर्ण दशानुं कारण नथी.
वळी कहे छे- ‘शुद्ध–प्रकाश–भर–निर्भर–सुप्रभातः’ शुद्ध प्रकाशनी अतिशयताने लीधे जे सुप्रभात समान छे... एवो आ आत्मा उदय पामे छे.
शुद्ध प्रकाशनी अतिशयता एटले शुं? के ज्ञाननी सातिशय विशेषता अर्थात् केवळज्ञाननी झळहळ ज्योति तेने प्रगट थवाने लीधे जे सुप्रभात समान छे एवो आ आत्मा उदय पामे छे. जुओ आ सुप्रभात! अहाहा...! पूर्ण ज्ञान ने आनंदथी भरेलो प्रभु छे-एनां अंतर्द्रष्टि-ज्ञान ने रमणता थयां तेने पर्यायमां केवळज्ञाननो दिव्य सातिशय प्रकाश प्रगट थाय छे; आ केवळज्ञान शुद्ध प्रकाशनी अतिशयताने लीधे सुप्रभात समान छे. आवुं सुप्रभात व्यवहारना आश्रये प्रगटतुं नथी, शुद्ध निश्चयना आश्रये ज प्रगटे छे, अने तेने ज दिवाळी थाय छे.
प्रश्नः– पण ज्ञानावरणादि घातिकर्मोनो अभाव करे त्यारे केवळज्ञान थाय छे ने? उत्तरः– भाई, कर्मनो नाश तो कर्मना कारणे कर्ममां (परमाणुमां) थाय छे, तेनो कर्ता-हर्ता आत्मा नथी; जडकर्मनो अभाव करवो ते आत्माना अधिकारनी वात नथी. अहा! आत्मा कर्मथी तो जुदो छे, ने कर्मने आधीन थयेल विकारथी पण जुदो छे. अहा! आवा निज शुद्धात्माना आश्रये तेमां ज पूर्ण स्थित थवाथी केवळज्ञान आदि प्रगट थाय छे. अत्यारे तो शुद्ध चैतन्यमूर्ति आत्माने छोडीने कर्मनो ने रागनो महिमा चाल्यो छे, पण ए तो विपरीतता छे. समजाणुं कांई...?
प्रवचनसार गाथा १६मां कह्युं छे के-आत्मा पोते ज कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, अने अधिकरणरूप थईने पर्यायमां केवळज्ञानादिरूपे स्वयंभू प्रगट थाय छे; माटे जीवो बहारनी सामग्री शोधवा नाहक व्यग्र शा सारु थाय छे? स्वभावनो आश्रय करतां अंदर शक्तिरूपे छे ते स्वयमेव पर्यायमां प्रगट थाय छे, तेमां बाह्य सामग्रीनी कोई गरज होती नथी. वळी त्यां एक द्रव्यघाति अने एक भावघाति-एक घातिकर्मना बे प्रकार कह्या छे. पोते ज रागमां अटवायो छे ते भावघातिकर्म छे, ने ते जीवनो घात करे छे, तेमां द्रव्यकर्म निमित्त हो, पण ते जीवनी दशानो घात करे छे एम नथी; द्रव्यघाति कर्म निमित्तमात्र ज छे.
प्रश्नः– भगवानने दीनदयाळ कहे छे ते शुं छे? उत्तरः– भगवान दीनदयाळ छे-एटले के पर्यायनी पामरता-दीनता हती तेने तोडीने स्व-आश्रये भगवान पोतानी प्रभुता प्रगट करीने पोते ज दीनदयाळ थया छे. कोई बीजानी दया करे छे माटे दीनदयाळ एम नहि; बीजानी दया करवानुं तो आत्मानुं सामर्थ्य ज नथी, पण भगवाने पोतानी दीनता दूर करी पूर्ण प्रभुता प्रगट करी छे तो तेमने दीनदयाळ कहे छे. प्रत्येक आत्मा आ रीते ज दीनदयाळ थाय छे.
अहाहा...! शुद्ध चैतन्यस्वरूपनी शक्तिने व्यक्त करवानो उपाय ते चैतन्यस्वरूपमां अंतर-एकाग्र थवुं ते ज छे. केवळज्ञाननो शुद्ध प्रकाश प्रगट थाय तेय अंतर-एकाग्रतानी पूर्णता थतां थाय छे. अहा! आवुं केवळज्ञान शुद्ध प्रकाशनी अतिशयताने लीधे, कहे छे, सुप्रभात समान छे. कळश टीकाकार श्री राजमलजीए सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानने सुप्रभात कह्युं छे; केमके तेमां दर्शन मोहनो नाश थईने सम्यग्ज्ञाननो जाज्वल्यमान सूर्य उगे छे. आम सम्यग्ज्ञान ने पूर्ण केवळज्ञान सुप्रभात समान छे.
वळी कहे छे- ‘आनन्द–सुस्थित–सदा–अस्खलित–एक–रूपः’ आनंदमां सुस्थित एवुं जेनुं सदा अस्खलित एक रूप छे... एवो आ आत्मा उदय पामे छे.
अहाहा...! पूर्णानंदनो नाथ आनंदघन प्रभु अंदर पोते छे एनो पर्यायमां स्वीकार करी तेमां ज लीन रहे तेने अनंत आनंदनी दशा प्रगट थाय छे. केवी छे आ दशा? तो कहे छे-परम अमृतमय छे. आ इन्द्र अने इन्द्राणीनां
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सुखो तो झेर छे, अने आ तो एकलुं अमृत छे, परम अमृत छे. अहा! आ परम आनंदनो एक अंश पण जेने आव्यो छे एवा समकितीने इन्द्र अने इन्द्राणीना भोगो सडेला मींदडा जेवा तुच्छ भासे छे. आवे छे ने के-
कागविट् सम गिनत है, सम्यग्द्रष्टि लोग.
अहाहा...! अतीन्द्रिय आनंदना स्वभावथी छलोछल भरेलो प्रभु ध्रुव विराजे छे, तेनो जेणे आश्रय लीधो तेने पर्यायमां जे अतीन्द्रिय आनंद प्रगट थाय छे तेनी आगळ इन्द्रना भोगो तुच्छ भासे छे. पूर्ण आनंद, परम-उत्कृष्ट आनंदनुं तो शुं कहेवुं?
अहीं कहे छे-आनंदमां सुस्थित छे एवुं एनुं सदा अस्खलित एक रूप छे. अहाहा...! पूर्ण आनंदनी दशा जे प्रगट थई ते अस्खलित छे, हवे ए कांई फरे एम नथी; सादि अनंतकाळ एवो ने एवो ज आनंद रह्या करे छे. अहाहा...! ‘सादि अनंत अनंत समाधि सुखमां’ संसारनो अंत थईने मोक्षदशा थई तेमां पूर्ण आनंदनुं, एकला आनंदनुं, अनंत आनंदनुं वेदन छे, तेमां हवे कोई फरक थाय नहि एवुं ए अस्खलित छे. समजाय छे कांई...?
सिद्धमां (सिद्धदशामां) शुं छे? तो कहे छे-त्यां स्वरूप-लीनताथी प्राप्त एकला आनंदनुं, अनंत आनंदनुं वेदन छे. आ सिवाय बीजुं कांई ज नथी; बाग-बंगला, बगीचा, हीरा-मोती-पन्ना के कुटुंब-परिवार कांई ज नथी. अहाहा...! पूर्णानंदना नाथने भेटवाथी जे आनंदनी-अनंत आनंदनी दशा प्रगटी छे ते कहे छे, भगवान सिद्धने अविचल-अस्खलित एक रूप छे. आवी वात!
वळी कहे छे- ‘च’ अने ‘अचल–अर्चिः’ अचळ जेनी ज्योत छे एवो ‘अयम् आत्मा उदयति’ आ आत्मा उदय पामे छे.
अहाहा...! अनंतवीर्यस्वरूप प्रभु आत्मा छे; तेमां लीन थई परिणमतां अनंत ज्ञान-दर्शन-सुख इत्यादि सहित निज स्वरूपनी रचना करे एवुं अनंत बल तेने प्रगट थाय छे. जे शक्तिमां छे ते, तेनो आश्रय लेतां अचळ ज्योतिरूप प्रगट थाय छे.
अहाहा...! आवुं दिव्य सुप्रभात! सूर्य उगे अने आथमे एमां तो सुप्रभात कायम रहेतुं नथी, परंतु आ चैतन्यसूर्य तो उग्यो ते उग्यो, हवे ते आथमतो नथी. आवुं दिव्य सुप्रभात सादिअनंत रहे एवो आ आत्मा उदय पामे छे.
अहीं ‘चित्पिंड’ इत्यादि विशेषणथी अनंत दर्शननुं प्रगट थवुं बताव्युं छे, ‘शुध्दप्रकाश’ इत्यादि विशेषणथी अनंत ज्ञाननुं प्रगट थवुं बताव्युं छे, ‘आनन्दसुस्थित’ इत्यादि विशेषणथी अनंत सुखनुं प्रगट थवुं बताव्युं छे. सुखधाम प्रभु आत्मा छे तेथी सुख तो आत्मामां भरपुर भर्युं हतुं, ते अंतर-एकाग्रता वडे पर्यायमां व्यक्तपणे प्रगट थयुं एम कहेवुं छे. अहाहा...! मोक्षस्वरूप ज भगवान आत्मा छे; रागनी एकता टळी एटले एनुं भान थयुं के हुं आवो छुं, ने स्वरूपमां ज्यां एकाग्रता सिद्ध करी त्यां रागनो नाश थयो, ने पर्यायमां मुक्ति थई गई, मोक्ष थई गयो. ‘अचलार्चि’ विशेषणथी अनंत वीर्यनुं प्रगट थवुं बताव्युं छे. जुओ, आम ‘पूर्वोक्त भूमिनो’ -ज्ञानमात्र निजभावमयी भूमिनो ‘आश्रय करवाथी ज आवा आत्मानो उदय थाय छे.’