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र्नित्योदयः
श्लोकार्थः– [स्याद्वाद–दीपित–लसत्–महसि] स्याद्वाद वडे प्रदीप्त करवामां आवेलुं लसलसतुं (- झगझगाट करतुं) जेनुं तेज छे अने [शुध्द–स्वभाव–महिमनि] जेमां शुद्धस्वभावरूप महिमा छे एवो [प्रकाशे उदिते मयि इति] आ प्रकाश (ज्ञानप्रकाश) ज्यां मारामां उदय पाम्यो छे, त्यां [बन्ध–मोक्ष–पथ–पातिभिः अन्य– भावैः किम्] बंध-मोक्षना मार्गमां पडनारा अन्य भावोथी मारे शुं प्रयोजन छे? [नित्य–उदयः परम् अयं स्वभावः स्फुरतु] नित्य जेनो उदय रहे छे एवो केवळ आ (अनंत चतुष्टयरूप) स्वभाव ज मने स्फुरायमान हो.
भावार्थः– स्याद्वादथी यथार्थ आत्मज्ञान थया पछी एनुं फळ पूर्ण आत्मानुं प्रगट थवुं ते छे. माटे मोक्षनो इच्छक पुरुष ए ज प्रार्थना करे छे के-मारो पूर्णस्वभाव आत्मा मने प्रगट थाओ; बंधमोक्षमार्गमां पडता अन्य भावोनुं मारे शुं काम छे? २६९.
अहाहा...! आ कळशमां एकलुं माखण भर्युं छे. लसलसतो शीरो नथी कहेता? घी अने साकर नाखेलो लचपचतो उनोउनो शीरो थाय छे ने? तेम पुण्य-पापना विकल्पथी रहित ज्ञानानंदस्वभावी प्रभु हुं छुं एम ज्यां अंतर्द्रष्टि थई त्यां अंदरमां चैतन्यना तेजनो झगमगाट करतो प्रकाश प्रगट थयो छे, अनुभवमां आव्यो छे. हवे अमारे बीजी चीजथी शुं काम छे? ल्यो, आचार्य आवी भावना भावे छे. कहे छे-
‘स्याद्वाद–दीपित–लसत्–महसि’ स्याद्वाद वडे प्रदीप्त करवामां आवेलुं लसलसतुं (-झगझगाट करतुं) जेनुं तेज छे अने ‘शुध्द–स्वभाव–महिमनि’ जेमां शुद्धस्वभावरूप महिमा छे एवो ‘प्रकाशे उदिते मयि इति’ आ प्रकाश (ज्ञानप्रकाश) ज्यां मारामां उदय पाम्यो छे, त्यां...
‘स्याद्वाद वडे’ एटले शुं? के विकार अने परथी भिन्न एवो ज्ञान, आनंद आदि अनंत गुणथी भरपुर भरेलो पूर्ण आनंदघन-चिदानंदघन प्रभु हुं आत्मा छुं एवी स्वस्वरूपनी अनेकांत द्रष्टि वडे, कहे छे, चैतन्यनुं लसलसतुं-झगझगाट तेज प्रगट थयुं छे. अहाहा...! चैतन्यना आ प्रगट तेज आगळ मोहांधकार अने राग विलय पामी गयां छे. अहाहा...! चैतन्यस्वभावना आश्रय वडे आत्मानुं झगझगाट करतुं अज्ञानने दूर करतुं एवुं चैतन्यतेज-सम्यग्ज्ञानरूपी तेज प्रगट थयुं छे. ल्यो, आनुं नाम धर्म, बाकी पुण्य-पापनी वासना ए तो अधर्म छे. पुण्य भलुं छे एवी वासना अधर्म छे. समजाणुं कांई...? आ तो स्वभावना आश्रये प्रगट झगझगतुं सम्यग्ज्ञानरूपी तेज एवुं छे के तेनी साथे मिथ्यावासनारूपी अंधकार रही शकतो नथी, विलीन थई जाय छे.
अरे, एने पोतानी चीज केवी अने केवडी छे तेनी खबर नथी. तेने संतो कहे छे-भगवान! एक वार जाग प्रभु! राग अने संयोग-कोई तारी चीजमां नथी. तारी चीजमां तो अनंत ज्ञान ने आनंद भर्यां छे. तुं सच्चिदानंद प्रभु छो ने! अहाहा...! जेम पीपरमां चोसठ पहोरी तीखाश अने लीलो रंग भर्यो छे जे घुंटतां बहार आवे छे, तेम भगवान! तारी चीजमां पूर्ण ज्ञान ने आनंद भर्यां छे जे तेनो आश्रय करतां पर्यायमां प्रगट व्यक्त थाय छे. बाकी बहारमां तुं अबजोपति होय तोय कांई नथी; ए तो बधी चीज धूळ छे बापु! अने एना लक्षे तो अनंतकाळमां दुःख
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ज थयुं छे. परनो-जडनो महिमा करी करीने भगवान! तुं दुःखी ज थयो छो.
भाई! आ पैसा तो जड माटी-धूळ छे. पैसा कयां तारा थईने रह्या छे? ए तो एनापणे रह्या छे. तारापणे थईने रहे तो ए अरूपी थई जाय, अने जो तुं एने तारापणे माने तो तुं अजीव थई जाय. पण एम तो थतुं नथी. माटे पोतानो महिमा मटाडीने, परनो महिमा करे ए तो बधुं अज्ञान अने मूढता छे. आचार्य कहे छे- निज ज्ञानानंदस्वभावना आश्रये अमने चैतन्यनुं लसलसतुं एवुं तेज प्रगट थयुं छे जेथी अज्ञान अने मूढता विलीन थई गयां छे, नाश पामी गयां छे.
अहा! पोतानी चैतन्यवस्तु तो अनादिथी छे, पण तेने भूलीने अनादि काळथी ए चार गतिमां नर्क- निगोदादिमां अवतार करी करीने दुःखी थई रह्यो छे. अहा! नर्क ने तिर्यंचना एणे अनंत अनंत अवतार कर्या छे. कोई पुण्य योगे मांड मनुष्य थयो ने कांईक धन मळ्युं तो अभिमानमां चढी गयो ने जाणे ‘हुं पहोळो अने शेरी सांकडी,’ एने संतो कहे छे-भाई, जरा सांभळ. जेना वडे तुं अभिमानमां चढयो छे ते चीज तारी नथी. पुण्यना फळमां शेठाई वगेरे मळी जाय पण ए तो धूळ छे. ए धूळनां पद बापु! ए चैतन्यनां पद नहि. अमे तो अनेक वार कहीए छीए के वर्षे जे दस हजार मागे ते नानो मागण, लाख मागे ते मोटो मागण, ने क्रोड मागे ते एनाथी मोटो मागण-भिखारो छे. पोतानी अनंत चैतन्यसंपदाने ओळख्या-अनुभव्या विना आ शेठिया क्रोडपतिओ बधा भिखारा छे. आवी वात जरा कडक लागे पण आ सत्य वात छे. पुण्य मागे ते बधा भिखारा ज छे.
अहा! अंतरमां आनंदनो नाथ सच्चिदानंद प्रभु पोते छे. जेम हीरामां पासा (पहेल) पाडतां प्रकाश वडे झगझगाट चमके छे, तेम भगवान आत्मानो अंतरमां स्वीकार करतां चैतन्यनुं लसलसतुं तेज प्रगट थाय छे. जेम हीरामां चमक भरी छे तेम भगवान आत्मामां ज्ञान ने आनंदनुं पुर्ण भरपुर तेज भर्युं छे. तेमां अंतर-एकाग्र थतां सम्यग्ज्ञाननुं तेज प्रगट थाय छे; अर्थात् शुद्ध स्वभाव जेनो महिमा छे एवो शुद्ध, बुद्ध भगवान आत्मा झगझगाट प्रकाशे छे. आ सम्यग्ज्ञाननो प्रकाश थतां परनो महिमा मटीने निज स्वभावनो महिमा प्रगट थाय छे.
आ देहमां वात, पित्त ने कफ ज्यारे वकरे त्यारे सन्निपात थाय छे. सन्निपात थतां माणस गांडो-पागल थई बहारनी चीजो जोई हसवा लागे छे. ए कांई हरखनुं हसवुं नथी, ए तो सन्निपात बापु! पागलनी दशा भाई! तेम मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान ने मिथ्या आचरण वकरे त्यारे जीव पागल-बेसुध थई जाय छे. पोतानी अंदर अनंती ज्ञान अने आनंदनी संपदा भरी छे छतां, आ शरीर मारुं, आ धन मारुं, आ बायडी-छोकरां मारां, आ गाम मारुं, आ देश मारो-एम बधे मारापणुं करी करीने गांडो-पागल मूढ जेवो थई जाय छे. संतो कहे छे-भाई! जेम करवत वडे लाकडाना बे कटका जुदा करे छे तेम भेदज्ञान वडे स्व अने परने जुदा कर. ज्ञानानंद स्वरूप ते हुं, अने जड देहादि हुं नहि-एम बेने जुदा पाड. अहो! आचार्य भगवान पोतानी वात करीने जगतने समजावे छे के- रागथी भिन्न पडीने स्वभावमां एकाग्र थतां मने लसलसतो ज्ञानप्रकाश उदय पाम्यो छे. आवी वात!
हवे कहे छे-ज्ञानप्रकाश ज्यां मारामां उदय पाम्यो छे त्यां ‘बन्ध–मोक्ष–पथ–पातिभिः अन्य–भावैः किम्’ बंध-मोक्षना मार्गमां पडनारा अन्य भावोथी मारे शुं प्रयोजन छे? ‘नित्यउदयः परम् अयम् स्वभावःस्फुरतु’ नित्य जेनो उदय रहे छे एवो केवळ आ (अनंत चतुष्टयरूप) स्वभाव ज मने स्फुरायमान हो.
अहाहा...! ल्यो, आचार्यदेव कहे छे-मारामां ज्ञानप्रकाश ज्यां उदय पाम्यो छे त्यां हवे बंध-मोक्षना मार्गमां पडनारा अन्य भावोथी मारे शुं प्रयोजन छे? अहाहा...! मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र ते बंधमार्ग छे, ने सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्र ते मोक्षमार्ग छे. पण ए बंध-मोक्षना विकल्पथी मारे शुं काम छे? भगवान एक ज्ञायकना आश्रये, जे स्वभाव अंदर हतो ते झगझगाट करतो प्रगट थयो छे, तो हवे बंध-मोक्षना मार्गमां आवता अनेक दुर्विकल्पथी अमारे शुं काम छे? अमे तो अमारा स्वरूपना निजानंदरसमां विराज्या छीए. अमने हवे अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत वीर्य-एवी अनंत चतुष्टयनी दशा प्रगट थाओ; अमारे बीजुं कांई जोईतुं नथी. जुओ आ धर्मीनी भावना!
अहाहा...! आचार्यदेव कहे छे-अनादि काळथी पुण्य-पाप ने देहनी क्रिया मारी एवी भ्रमणा वडे संसारमां भमता हता. पण हवे अमने अमारा भगवान-चिदानंदघन प्रभुनो द्रष्टि अने ज्ञान द्वारा भेटो थयो छे. आ स्थितिमां हवे अमने पूर्ण प्रकाश-केवळज्ञान प्रकाश प्राप्त थाय ए ज भावना छे. हवे अमने पूर्ण आनंदना भोगनी भावना
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छे; बीजा विकल्प ने वृत्तिनुं अमारे काम नथी; पंचमहाव्रतादिना विकल्पथी अमने काम नथी. अहाहा...! अमारी चीजमां पूर्ण ज्ञानानंद स्वभाव भर्यो छे, हवे ते स्वभावनी पूर्ण व्यक्तता थाओ बस ए ज भावना छे. भवनो अभाव थईने अमारी जे निज निधि-अनंत चतुष्य छे ते प्राप्त थाओ; आ सिवाय बीजी कोई (स्वर्गादिनी) अमने वांछा नथी. पुण्य उपजावीने स्वर्गे जाशुं एवी वांछा तो अज्ञानीओने ज होय छे; ज्ञानीने पूर्ण स्वरूपनी प्राप्तिनी ज भावना होय छे.
घणा वखत पहेलांनी लगभग ६६-६७नी सालनी वात छे. ते वखते भावनगरमां ध्रुवनुं नाटक जोवा गयेला. ध्रुवनी माता मरी गई तो ध्रुव वैराग्य पामी साधु थई गयो, अने जंगलमां तप करवा चाल्यो गयो. त्यां तेने तपथी चळाववा उपरथी देवीओ-अप्सराओ आवी अने तरेह तरेहनी चेष्टा वडे तेने चळाववा प्रयत्न करवा लागी. पण चळे तो ध्रुव शानो? ध्रुव चळ्यो नहि. तेणे एटलुं कह्युं-‘हे माताओ! जो मारे बीजो भव हशे तो तमारे कूखे आवीश, बाकी बीजुं हराम छे.’ एम ज्यारे राजकुमारोने ध्रुवनुं भान थई वैराग्य थाय छे त्यारे, जो के घेर अप्सराओ समान स्त्रीओ होय छे छतां, माता पासे रजा लेवा जाय छे अने कहे छे-हे माता! अमे अमारा ध्रुव आनंदस्वरूपने साधवा वनमां जईए छीए; हे शरीरने जन्म देनारी जनेता! एक वार रोवुं होय तो रोई ले, बाकी अमे फरीथी माता करवाना नथी, अमे अमारा आनंदस्वरूपनी प्राप्ति करीशुं, अहीं आचार्यदेव कहे छे-अमारे महाव्रतादिना विकल्पोथी काम नथी, अमने बस पूर्ण दशा-सिद्ध दशा प्राप्त थाओ. साधकपणे अमे जाग्या, तो अमने अमारुं साध्य जे सिद्धपद -पूर्ण परमात्मपद-तेनी प्राप्ति थशे. अमारे ए सिवाय कांई जोईतुं नथी. अहो! धर्मात्मानी अंतरनी भावना दिव्य अलौकिक होय छे; तेओ बहारनी कोई चीज (इन्द्रपद आदि)नी वांछा करता नथी.
नाळियेर छे ने, नाळियेर! तेना चार भाग छेः एक उपरनां छालां, एक काचली, ए काचली तरफनी राती छाल अने चोथुं मीठुं धोळुं टोपरुं. तेम आ आत्माने विषे आ देह ए छालां समान छे, अंदर कर्म छे ते काचली छे, रागद्वेषना भाव ते राती छाल जेवा छे, अने ए राती छालनी पाछळ टोपराना सफेद गोळा जेवो भगवान आत्मा एक ज्ञायक भावपणे विराजे छे. जेम मीठो स्वादिष्ट टोपरापाक करवो होय तो रातड-लाल छाल काढी नाखवी पडे तेम अनाकुळ आनंद जोईए तेणे रागथी भिन्न पडवुं जोईए. भाई, रागथी भिन्न पडी शुद्ध चैतन्य स्वभावनुं आलंबन कर्या विना बधुं निरर्थक छे. अन्यमतमां नरसिंह महेता थया ते पण आवुं कहे छे, जुओने-
ज्यां लगी आतमातत्त्व चीन्यो नहि, त्यां लगी साधना सर्व जूठी.’ भाई, आ समजवानां टाणां आव्यां त्यारे तुं बीजे रोकाई जाय, वेपार-धंधामां ने छोकरा-छोकरीनुं करवामां रोकाई जाय तो अवसर वीती जशे, ने अज्ञान ऊभुं रहेशे. पछी कयां उतारा करीश बापु!
अहा! आत्मा एक श्वासनी क्रिया करी शकतो नथी के तेने फेरवी शकतो नथी त्यां हुं बधी दुनियानां काम करुं छुं एवी मान्यता मिथ्या भ्रम ने मिथ्या अभिमान नथी तो शुं छे? अहा!-
गाडानी नीचे कुतरुं चालतुं होय ते एम जाणे के आ गाडुं माराथी चाले छे, तेम परवस्तुनी क्रिया परथी थाय तेने अज्ञानी हुं करुं छुं एम माने छे. अहा! ओला कुतराना जेवो आने मिथ्या भ्रम छे, कर्तापणानुं मिथ्या अभिमान छे. अहा! आवी भ्रमणाने भांगी अंदर भगवान जाग्यो छे तो कहे छे-अमने आनंदनो स्वाद प्रगट थयो छे, ने पूर्ण आनंदनी दशा थाओ; सिद्धपदनी प्राप्ति थाओ. आवी भावना!
‘स्याद्वादथी यथार्थ आत्मज्ञान थया पछी एनुं फळ पूर्ण आत्मानुं प्रगट थवुं ते छे.’ जुओ, द्रव्यकर्म, भावकर्म अने नोकर्मथी भिन्न ज्ञानानंदस्वभावी प्रभु हुं आत्मा छुं एम निश्चय करी निजस्वरूपमां एकाग्र थाय तेने आत्मज्ञाननुं तेज प्राप्त थाय छे. आत्मज्ञान थया पछी तेने स्वरूपमां रमणतानी ज भावना होय छे. ते स्वरूपमां रमणताना पुरुषार्थ वडे तेना फळरूप पूर्ण आत्मानी प्राप्ति करी ले छे; आ रीते तेने पूर्ण ज्ञान ने आनंदनी प्रगटता थाय छे. आम पूर्ण स्वभावनी प्रगटता ते आत्मज्ञाननुं फळ छे, ने आत्मज्ञानीने ते थईने रहे छे. जुओ आ आत्मज्ञाननुं फळ! आत्मज्ञाननुं फळ मोक्ष छे.
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‘माटे मोक्षनो इच्छक पुरुष ए ज प्रार्थना करे छे के-मारो पूर्णस्वभाव आत्मा मने प्रगट थाओ; बंधमोक्ष- मार्गमां पडता अन्य भावोनुं मारे शुं काम छे?’
जुओ आ धर्मीनी भावना! मोक्षना इच्छुक धर्मी पुरुषो निरंतर परमात्मपदनी-पूर्णस्वभावनी प्राप्तिरूप सिद्धपदनी ज भावना भावे छे; एमने बीजी कोई इच्छा होती नथी. तेमने बंधमोक्षमार्गमां पडता जे अन्य भावो तेनाथी प्रयोजन नथी. व्रतादि विकल्पो ने तेना फळमां प्राप्त थतां इन्द्रादि पदो-एनाथी धर्मीने प्रयोजन नथी. धर्मीनी द्रष्टि पूर्ण द्रव्यस्वभाव पर होय छे, अने पूर्णनी प्राप्तिनी ज तेने भावना होय छे. धर्मीनी अंतरदशा अलौकिक होय छे, लौकिक पदोमां ते राचता नथी. आवी वात छे.
‘जोके नयो वडे आत्मा सधाय छे तोपण जो नयो पर ज द्रष्टि रहे तो नयोमां तो परस्पर विरोध पण छे, माटे हुं नयोने अविरोध करीने अर्थात् नयोनो विरोध मटाडीने आत्माने अनुभवुं छुं’-एवा अर्थनुं काव्य कहे छेः-
सद्यः प्रणश्यति नयेक्षणखण्डयमानः।
मेकान्तशान्तमचलं चिदहं महोऽस्मि।। २७०।।
श्लोकार्थः– [चित्र–आत्मशक्ति–समुदायमयः अयम् आत्मा] अनेक प्रकारनी निज शक्तिओना समुदायमय आ आत्मा [नय–ईक्षण–खण्डयमानः] नयोनी द्रष्टिथी खंडखंडरूप करवामां आवतां [सद्यः] तत्काळ [प्रणश्यति] नाश पामे छे; [तस्मात्] माटे हुं एम अनुभवुं छुं के– [अनिराकृत–खण्डम् अखण्डम्] जेमांथी खंडोने निराकृत करवामां आव्या नथी छतां जे अखंड छे, [एकम्] एक छे, [एकान्त–शान्तम्] एकांत शांत छे (अर्थात् जेमां कर्मना उदयनो लेश पण नथी एवा अत्यंत शांत भावमय छे) अने [अचलम्] अचळ छे (अर्थात् कर्मना उदयथी चळाव्युं चळतुं नथी) एवुं [चिद् महः अहम् अस्मि] चैतन्यमात्र तेज हुं छुं.
भावार्थः– आत्मामां अनेक शक्तिओ छे अने एक एक शक्तिनो ग्राहक एक एक नय छे; माटे जो नयोनी एकांत द्रष्टिथी जोवामां आवे तो आत्माना खंड खंड थईने तेनो नाश थई जाय. आम होवाथी स्याद्वादी, नयोनो विरोध मटाडीने चैतन्यमात्र वस्तुने अनेकशक्तिसमूहरूप, सामान्यविशेषस्वरूप, सर्वशक्तिमय एकज्ञानमात्र अनुभवे छे. एवुं ज वस्तुनुं स्वरूप छे, एमां विरोध नथी. २७०.
‘चित्र–आत्मशक्ति–समुदायमयः अयम् आत्मा’ अनेक प्रकारनी निज शक्तिओना समुदायमय आ आत्मा ‘नय–ईक्षण–खण्डयमानः’ नयोनी द्रष्टिथी खंडखंडरूप करवामां आवतां ‘सद्यः’ तत्काळ ‘प्रणश्यति’ नाश पामे छे;...
अहाहा...! अनंत शक्तिओना समुदायमय भगवान आत्मा छे. भगवान आत्मा जीवत्व, चिति, दृशि, ज्ञान, सुख, वीर्य, प्रभुत्व, विभुत्व, सर्वज्ञत्व, सर्वदर्शित्व आदि अनंत गुणना समुदायमय अखंड एक चैतन्यवस्तु छे. समयसारमां ४७ शक्तिओनुं आचार्य भगवाने वर्णन कर्युं छे, पण आत्मा छे अनंत गुणना समुदायमय वस्तु.
अहाहा...! आ तो अलौकिक अमृतभर्या कलशो छे भाई! जेने संसारनुं दुःख मटाडी अनाकुळ आनंदमां रहेवुं छे एना माटे आ अलौकिक वात छे. वादविवाद करी बीजाने हराववा छे एना माटे आ वात नथी. योगसारमां आवे छे ने के-
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अहाहा...! संसारमां चारे गति दुःखरूप छे. स्वर्गमां देव पण दुःखी छे, अने मनुष्यमां करोडपति, अबजोपति ने मोटा मोटा राजा-चक्रवर्ती पण दुःखी छे. संसार एटले ज दुःख बापु! अहा! आवा दुःखमय संसारथी छुटवुं होय एना माटे आ वात छे. समजाय छे कांई...? अहा! दिगंबर संतोनी कथनीमां अपार उंडाण भर्युं होय छे.
अहाहा...! भगवान! तुं कोण छो? तो कहे छे-अनंत गुणरत्नाकर-चैतन्यरत्नाकर-ज्ञान अने आनंदनो सागर प्रभु तुं छो. हुं आवो छुं एम हा तो पाड, हा पाडे तो हालत थशे. बाकी हा पाडे तोय आवो छो. ने ना पाडे तोय आवो छो.
अहा! आवा आत्माने, कहे छे, नयोनी द्रष्टिथी खंडखंड करवामां आवतां तत्काळ नाश पामे छे. एटले शुं? के तेना एक एक धर्मने एक एक नयथी लक्षमां लेतां आखो आत्मा खंडखंड थई जाय छे. एक अभेद स्वरूपने नय-धर्मथी जोतां वा गुणभेदथी जोतां अभेदनो नाश थई जाय छे, अर्थात् अभेद द्रष्टिमां आवतो नथी. ल्यो, हवे ज्यां आवुं छे त्यां व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादिना शुभरागथी धर्म थाय ए कयां रह्युं?
जुओ, अज्ञानीने पोतानी चैतन्यवस्तु गायब छे. तेनी प्राप्ति केम थाय तेनी आ वात छे. तो कहे छे- आत्मा वस्तुए अभेद एक छे, तेमां अनंत गुण छे, पण अनंत गुणमय वस्तु अभेद एक छे. अहा! आवा आत्माने एक एक नयथी जोतां आत्मवस्तु आखी खंडखंड थई जाय छे, अर्थात् पूर्ण आत्मवस्तु द्रष्टिमांथी खोवाई जाय छे, ज्ञान अने द्रष्टिमां आत्मवस्तुनी प्राप्ति थती नथी. अहाहा...! एक एक नयथी जोतां एक एक नय-धर्म उपसी आवे छे, तत्संबंधी विकल्प उठे छे, पण अखंड अभेद वस्तु लक्षमां आवती नथी. आत्माने भेदथी ज्यां द्रष्टिमां लेवा जाय छे त्यां भेद-विकल्प उठे छे, पण अभेद लक्षमां आवतो नथी, एटले द्रष्टिमां ते क्षणे ते गूम थई जाय छे. अहाहा...! परथी ने रागथी आत्मानी प्राप्ति थवानुं तो दूर रहो, अहीं कहे छे-आत्माने तेना एक एक गुणथी जोवा जतां तेनी प्राप्ति थती नथी. अहाहा...! शुं कळश छे! गजबनी वात भाई!
कहे छे-बीजी वात (निमित्तथी ने व्यवहारथी थाय ए वात) तो तुं जवा दे, जाणवा लायक जे ज्ञेय छे एवो तारो अखंड एक आत्मपदार्थ तेने जाणवामां, तेमां रहेली अनंत शक्तिओने भेद पाडीने जोवा जतां, कहे छे, एकरूप आत्मपदार्थ द्रष्टिमां आवतो नथी, परंतु विकल्प उठे छे, आ रीते आत्मपदार्थ श्रद्धा-ज्ञानमां नाश पामे छे; अर्थात् भगवान ज्ञायकनुं यथार्थ ज्ञान-श्रद्धान उदय पामतुं नथी. शुभरागथी-व्यवहारथी ने निमित्तथी धर्म थाय ए तो एककोर काढी नाख्युं, केमके ए तो आत्माना अस्तित्वमां ज नथी, भिन्न चीज छे. आ तो एनामां जे छे एनी वात छे. भाई, तारा तत्त्वमां अनंत गुण छे, ते होतां एक एकने भेद पाडीने लक्षमां लेतां विकल्प उत्पन्न थाय छे, अभेद एकरूप द्रव्यनी द्रष्टि थती नथी. आवो मारग छे. ज्ञान अने द्रष्टिनो दोर अभेद एक द्रव्य पर होवो जोईए. व्यवहार हो, पण एनी अंतर्द्रष्टिमां कांई ज किंमत नथी.
आवो मारग तो सरळ छे बापु! पण एने जे रीते छे ते रीते निःसंदेह बेसवो जोईए. अरे, लोको तो निमित्त ने व्यवहारमां अटकया छे, पण ए मार्ग नथी, केमके निमित्त ने व्यवहार आत्मानी चीज ज नथी. आवी वस्तुस्थिति छे.
हवे आचार्यदेव पोतानी वात करे छे. कहे छे- ‘तस्मात्’ माटे हुं एम अनुभवुं छुं के- ‘अनिराकृत–खण्डम् अखण्डम्’ जेमांथी खंडोने निराकृत करवामां आव्यानथी छतां जे अखंड छे, ‘एकम्’ एक छे, ‘एकान्त शान्तम्’ एकांत शांत छे (अर्थात् जेमां कर्मना उदयनो लेश पण नथी एवा अत्यंत शांत भावमय छे) अने ‘अचलम्’ अचळ छे (अर्थात् कर्मना उदयथी चळाव्युं चळतुं नथी) एवुं ‘चिद् महः अहम् अस्मि’ चैतन्यमात्र तेज हुं छुं.
जोयुं? आत्मामांथी भेदोने निराकृत अर्थात् रदबातल नथी कर्या, बहिष्कृत नथी कर्या, आत्मामां अनंत गुण छे खरा, तथापि भगवान आत्मा अखंड एक ज्ञायक वस्तु छे, ने ए अखंडनी द्रष्टि करवाथी आत्मानी प्राप्ति थाय छे, भेदनी द्रष्टिथी नहि; भेदनी द्रष्टिथी तो विकल्प उठे छे, निर्विकल्पता थती नथी. अहाहा...! अनंत गुणनुं एकरूप आत्मा -आवुं आत्मस्वरूप सर्वज्ञ सिवाय कोण कहे? बीजाओ तो मतिकल्पनाथी कहे छे, पण ते सत्य नथी, मिथ्या छे.
अहाहा...! आवी आत्मवस्तु एकांत शांत छे, सर्वथा शांत छे. शांत... शांत... शांतस्वरूप ज आत्मा छे एम, कहे छे, अमे अनुभवीए छीए. अहाहा...! द्रष्टिनो विषयभूत आत्मा अखंड अभेद छे, एक छे ने एकांत
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शांत छे; जेमां विकल्पनो कोलाहल ने कर्मना उदयनो लेश पण नथी एवो अत्यंत शांत भावमय प्रभु आत्मा छे.
अहाहा...! अनेकांत स्वरूप भगवान आत्मा एकांत शांत भावमय छे, पूर्ण शांत छे. वळी ते अचळ छे. कर्मना उदयथी कदीय चळे नहि एवो त्रिकाळ अचळ छे. अहाहा...! कहे छे-सदाय अचळ छे एवुं चैतन्यमात्र तेज हुं छुं. ल्यो, आवा आत्माने द्रष्टिमां लेवो तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. समजाणुं कांई...? आवो मारग भाई! आत्मा जिनस्वरूप ज छे. जिन अने जिनवरमां कांई ज फेर नथी.
‘आत्मामां अनेक शक्तिओ छे अने एक एक शक्तिनो ग्राहक एक एक नय छे; माटे जो नयोनी एकांत द्रष्टिथी जोवामां आवे तो आत्माना खंडखंड थईने तेनो नाश थई जाय.’
जोयुं? कहे छे-एक एक नयथी एक एक शक्तिने जोवामां आवे तो आत्माना खंडखंड थईने तेनो नाश थई जाय; अर्थात् अखंड द्रव्य-वस्तु ज्ञानमां आवे नहि.
अहीं कोई कहे के-आत्मा खंडखंड कयांथी थाय? केमके शास्त्रमां आवे छे के-न छिदन्ति, न भिदन्ति.
भाई! अहीं कई अपेक्षाथी वात छे ते समजवी जोईए. वस्तु तो अखंड ज छे, पण एक एक गुणने लक्षमां लेतां आत्मा अनेक खंडखंडरूप भासशे, अखंडरूप नहि भासे एम एनो अर्थ छे. एम तो आत्मा अनादिअनंत त्रिकाळ अविनाशी छे, पण एक एक भेदने लक्ष करी ग्रहण करतां खंडखंड थईने तेनो नाश थई जाय छे. हवे आनो अर्थ शुं? ए ज के पोतानी हयातीमां अखंड-एकपणुं भास्युं नहि, अने खंडखंडपणुं भास्युं तो ते अखंडपणानी नास्ति छे. समजाणुं कांई...? ज्ञानमां अखंडपणुं भास्युं नहि तो अखंडपणुं कयां रह्युं? अखंड तो छे, पण एना ज्ञानमां अखंडनी नास्ति थई.
हवे कहे छे-‘आम होवाथी स्याद्वादी, नयोनो विरोध मटाडीने चैतन्यमात्र वस्तुने अनेकशक्तिसमूहरूप, सामान्य-विशेषस्वरूप, सर्वशक्तिमय एकज्ञानमात्र अनुभवे छे. एवुं ज वस्तुनुं स्वरूप छे, एमां विरोध नथी.’
वस्तुमां नित्य, अनित्य; एक, अनेक इत्यादि धर्मो छे, तथा सामान्य द्रव्यस्वरूपथी एकरूप अने विशेष अपेक्षा भेदरूप एम वस्तु छे, तथापि (आ रीते वस्तुने प्रथम जाणीने) वस्तुने सर्वशक्तिमय अभेद एक ज्ञानमात्र अनुभवे छे तेनुं नाम सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान छे. हुं एक चैतन्यमात्र वस्तु छुं एवी द्रष्टि करीने वस्तुमां एकाग्र थई परिणमवुं एनुं नाम धर्म छे; एनुं नाम आत्मानी स्वीकृति ने ओळखाण छे, ने ए ज स्वानुभव छे. आवुं ज वस्तुस्वरूप छे, स्याद्वादीने एमां विरोध नथी; विरोधनुं निराकरण छे.
हवे, ज्ञानी अखंड आत्मानो आवो अनुभव करे छे एम आचार्यदेव गद्यमां कहे छेः
‘न द्रव्येण खण्डयामि, न क्षेत्रेण खण्डयामि, न कालेन खण्डयामि, न भावेन खण्डयामि; सुविशुध्द एको ज्ञानमात्रो भावोऽस्मि’
‘(ज्ञानी शुद्धनयनुं आलंबन लई एम अनुभवे छे केः) हुं मने अर्थात् मारा शुद्धत्मस्वरूपने नथी द्रव्यथी खंडतो (-खंडित करतो), नथी क्षेत्रथी खंडतो, नथी काळथी खंडतो, नथी भावथी खंडतो; सुविशुद्ध एक ज्ञानमात्र भाव छुं.’
‘शुद्धनयनुं आलंबन लई’-एटले शुं? के शुद्धनयना विषयभूत अभेद एक शुद्ध चैतन्यमात्र निज वस्तुनुं आलंबन लई ज्ञानी एम अनुभवे छे के-द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी हुं मने खंडतो नथी. द्रव्यथी जुदो, क्षेत्रथी जुदो, काळथी जुदो ने भावथी जुदो-एम हुं मने खंडखंडरूप अनुभवतो नथी. द्रव्यमां द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भाव-बधुं ज अभेदपणे समाय छे एवो हुं पोताने अखंड अनुभवुं छुं. द्रव्यथी शुं, क्षेत्रथी शुं, काळथी शुं, भावथी शुं-हुं तो आखी अखंड एक ज वस्तुने अनुभवुं छुं. वस्तुमां एनुं द्रव्य, एनुं क्षेत्र, एनो काळ (-अवस्था) अने एना भाव (गुण) जुदा जुदा छे एम छे ज नहि.
कळश टीकामां केरीनुं द्रष्टांत आप्युं छे ने? जेवी रीते केरीमां कोई अंश रेसा छे, कोई अंश फोतरुं छे, कोई अंश गोटली छे तथा कोई अंश मीठाशरूपे छे-ए चारे अंश जुदेजुदा छे, एम एक जीववस्तुमां कोई अंश जीवद्रव्य छे, कोई अंश जीवक्षेत्र छे, कोई अंश जीवकाळ छे, अने कोई अंश जीवभाव छे-एम चार जुदेजुदा नथी. ए तो एक
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अभेद वस्तुमां चार जुदा भाग पडी गया. एवुं मानतां विपरीतता थशे, अर्थात् वस्तु जेवी अखंड छे तेवी रहेशे नहि.
माटे आ प्रकारे छेः केरी एक स्पर्श, रस, गंध, वर्णयुक्त पुद्गलनो पिंड छे. तेथी स्पर्शमात्रथी विचारतां (ए ज केरी) स्पर्शमात्र छे, रसमात्रथी विचारतां (ए ज केरी) रसमात्र छे, गंधमात्रथी विचारतां (ए ज केरी) गंधमात्र छे अने वर्णथी विचारतां (ए ज केरी) वर्णमात्र छे. एटले के केरी (स्वभावथी) एकरूप छे, अखंड छे; तेने स्पर्शथी जुओ तोय केरी, रसथी जुओ तोय केरी, गंधथी जुओ तोय केरी, ने वर्णथी जुओ तोय केरी ज छे. (स्पर्श-रस-गंध-वर्ण केरीथी जुदी चीज नथी)
एम जीवद्रव्यने (एक अखंड वस्तुने) द्रव्यथी जुओ तोय ए अखंड वस्तु छे, क्षेत्रथी जुओ तोय ए अखंड वस्तु छे, काळथी जुओ तोय ए अखंड वस्तु छे, ने भावथी जुओ तोय ए त्रिकाळी अखंड वस्तु छे. एक अखंड चैतन्यवस्तु द्रव्यथी जुदी, क्षेत्रथी जुदी, काळथी जुदी, ने भावथी जुदी एम छे नहि. द्रव्य जुओ तो क्षेत्र-काळ-भाव छे, क्षेत्र जुओ तो द्रव्य-काळ-भाव छे, काळथी जुओ तो द्रव्य-क्षेत्र-भाव छे, ने भावथी जुओ तो द्रव्य-क्षेत्र-काळ छे. द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भाव चारेय अभेद एक वस्तु छे.
ज्ञानी कहे छे-सुविशुद्ध एक ज्ञानमात्र भाव हुं छुं. एक ज्ञानमात्र भाव ते हुं एम कहेतां एमां अभेदपणे द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भाव आवी गया; चार कांई जुदा छे एम छे नहि.
‘शुद्धनयथी जोवामां आवे तो शुद्ध चैतन्यमात्र भावमां द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी कांई पण भेद देखातो नथी. माटे ज्ञानी अभेदज्ञानस्वरूप अनुभवमां भेद करतो नथी.’
शुद्धनयथी जोवामां आवे तो एटले के अभेद एक द्रव्यने जोवामां आवे तो शुद्ध चैतन्यमात्र भावमां द्रव्य- क्षेत्र-काळ-भावथी कांई पण भेद देखातो नथी; एटले के वस्तु अभेद ज अनुभवमां आवे छे. जुओ आ ज्ञानीनी अनुभूति! धर्मी-ज्ञानी पुरुष अखंड एक वस्तुमां भेद पाडतो-जोतो नथी.
एक वस्तुने द्रव्य कहो तोय ए, क्षेत्र कहो तोय ए, काळ कहो तोय ए, ने भाव कहो तोय ए; ज्ञानी पोतानी ज्ञानमात्र वस्तुने एक-अभेदपणे ग्रहण करे छे, खंडखंड करी जोतो-अनुभवतो नथी. वस्तु-द्रव्य कहो तोय ए द्रव्य-क्षेत्र कहो तोय असंख्यात प्रदेशी ए द्रव्य, काळ कहो तोय ए त्रिकाळी द्रव्य, ने भाव कहो तोय ए ज्ञानमात्र द्रव्य-एम चारेथी जोतां ज्ञानी अभेद एक निर्विकल्प वस्तुमात्र ज देखे छे. अंतर्द्रष्टिमां भेद नथी, एमां तो एकलो अभेदनो ज अनुभव छे. आवी वात! समजाणुं कांई...?
‘ज्ञानमात्र भाव पोते ज ज्ञान छे, पोते ज पोतानुं ज्ञेय छे अने पोते ज पोतानो ज्ञाता छे-एवा अर्थनुं काव्य हवे कहे छेः
ज्ञेयो ज्ञेयज्ञानमात्रः स नैव।
ज्ञेयो ज्ञेयज्ञानकल्लोलवल्गन्
श्लोकार्थः– [यः अयं ज्ञानमात्रः भावः अहम् अस्मि सः ज्ञेय–ज्ञानमात्रः एव न ज्ञेयः] जे आ ज्ञानमात्र भाव हुं छुं ते ज्ञेयोना ज्ञानमात्र ज न जाणवो; [ज्ञेय–ज्ञान–कल्लोल–वल्गन्] (परंतु) ज्ञेयोना आकारे थता ज्ञानना कल्लोलोरूपे परिणमतो ते, [ज्ञान–ज्ञेय–ज्ञातृमत्–वस्तुमात्रः ज्ञेयः] ज्ञान–ज्ञेय–ज्ञातामय वस्तुमात्र जाणवो (अर्थात्
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पोते ज ज्ञान, पोते ज ज्ञेय अने पोते ज ज्ञाता–एम ज्ञान–ज्ञेय–ज्ञातारूप त्रणे भावो सहित वस्तुमात्र जाणवो).
भावार्थः– ज्ञानमात्र भाव जाणनक्रियारूप होवाथी ज्ञानस्वरूप छे. वळी ते पोते ज नीचे प्रमाणे ज्ञेयरूप छे. बाह्य ज्ञेयो ज्ञानथी जुदां छे, ज्ञानमां पेसतां नथी; ज्ञेयोना आकारनी झळक ज्ञानमां आवतां ज्ञान ज्ञेयाकाररूप देखाय छे परंतु ए ज्ञानना ज कल्लोलो (तरंगो) छे. ते ज्ञानकल्लोलो ज ज्ञान वडे जणाय छे. आ रीते पोते ज पोताथी जणावायोग्य होवाथी ज्ञानमात्र भाव ज ज्ञेयरूप छे. वळी पोते ज पोतानो जाणनार होवाथी ज्ञानमात्र भाव ज ज्ञाता छे. आ प्रमाणे ज्ञानमात्र भाव ज्ञान, ज्ञेय अने ज्ञाता–ए त्रणे भावोयुक्त सामान्यविशेषस्वरूप वस्तु छे. ‘आवो ज्ञानमात्र भाव हुं छुं’ एम अनुभव करनार पुरुष अनुभवे छे. २७१.
‘यः अयं ज्ञानमात्रः भावः अहम् अस्मि सः ज्ञेय–ज्ञानमात्रः एव न ज्ञेयः’ जे आ ज्ञानमात्र भाव हुं छुं ते ज्ञेयोना ज्ञानमात्र ज न जाणवो;...’
जुओ, शुं कहे छे? जे आ ज्ञानमात्र भाव हुं छुं ते छ द्रव्योना जाणवामात्र ज न जाणवो. शुं कीधुं? लोकमां जेटलां द्रव्यो छे-अनंता सिद्धो ने अनंता निगोदना जीवो सहित जीवो, अनंतानंत पुद्गलो-देह, मन, वाणी, कर्म इत्यादि, अने धर्म, अधर्म, आकाश, काळ-एम छ द्रव्यो-तेना द्रव्य-गुण-पर्यायो-ते मारां ज्ञेय अने हुं एनो ज्ञायक एम, कहे छे, न जाणवुं हवे एनुं कर्तापणुं तो कयांय गयुं, अहीं तो कहे छे-एना (छ द्रव्योना) जाणवामात्र हुं छुं एम न जाणवुं. गजब वात छे भाई! परद्रव्यो साथे ज्ञेयज्ञायकपणानो संबंध पण निश्चयथी नथी, व्यवहारमात्र एवो संबंध छे. समजाय छे कांई...? जैन तत्त्वज्ञान बहु झीणुं छे भाई! आ व्यवहार रत्नत्रयनो राग होय छे ने धर्मात्माने? अहीं कहे छे-भगवान आत्मा ज्ञायक, ने व्यवहार रत्नत्रयनो राग एनुं ज्ञेय एम वास्तवमां छे नहि. बारमी गाथामां व्यवहार ‘जाणेलो’ प्रयोजनवान कह्यो ए तो व्यवहारथी वात छे. निश्चयथी तो स्वपरने प्रकाशनारी पोतानी ज्ञाननी दशा ज पोतानुं ज्ञेय छे. रागादि परवस्तु-परद्रव्योने एनां ज्ञेय कहेवां ते व्यवहारथी छे, निश्चयथी पर साथे एने ज्ञेयज्ञायक संबंध पण नथी. हवे पर साथे एने मारापणानो -स्वामित्वनो अने कर्तापणानो संबंध होवानी वात तो कयांय उडी गई. समजाणुं कांई...?
अहाहा...! कहे छे-जे आ ज्ञानमात्र भाव हुं छुं ते ज्ञेयोना ज्ञानमात्र न जाणवो. तो केवी रीते छे? तो कहे छे-
‘ज्ञेय–ज्ञान–कल्लोल वल्गन्’ (परंतु) ज्ञेयोना आकारे थता ज्ञानना कल्लोलोरूपे परिणमतो ते, ‘ज्ञान– ज्ञेय–ज्ञातृमत्–वस्तुमात्रः ज्ञेयः’ ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातामय वस्तुमात्र जाणवो. (अर्थात् पोते ज ज्ञान, पोते ज ज्ञेय अने पोते ज ज्ञाता -एम ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातारूप त्रणे भावो सहित वस्तुमात्र जाणवो).
‘ज्ञेयोना आकारे थता ज्ञानना कल्लोलरूपे परिणमतो’-आ व्यवहारथी कह्युं हों. खरेखर तो ज्ञेयोनुं-छ द्रव्यनुं जेवुं स्वरूप छे तेने जाणवाना विशेषरूपे परिणमवुं ते ज्ञाननी पोतानी दशा छे, ने ते ज्ञानना पोताना सामर्थ्यथी छे. ‘ज्ञेयोना आकारे थतुं ज्ञान’ ए तो कहेवामात्र छे, बाकी ज्ञान ज्ञानाकार ज छे, ज्ञेयाकार छे ज नहि. समजाणुं कांई...? अहाहा...! अहीं कहे छे-ए ज्ञाननी पर्याय ने मारा द्रव्य-गुण (द्रव्य-गुण-पर्याय) त्रणे थईने हुं ज्ञेय छुं. ज्ञान हुं, ज्ञाता हुं, ने ज्ञेय आ लोकालोक-एवुं कोणे कह्युं? परमार्थे एम छे नहि. एम कहेवुं ए व्यवहार छे. अहाहा...! धर्मीना अंतरनी खुमारी तो जुओ! कहे छे-जगतमां हुं एक ज छुं, जगतमां बीजी चीजो हो तो हो, परमार्थे तेनी साथे मारे जाणवापणानोय संबंध छे नहि. आवी वात! समजाणुं कांई...?
अहाहा...! अहीं शुं कहे छे? के पर ज्ञेय (परपदार्थो-देव-गुरु-शास्त्र, पंच परमेष्ठी, ने व्यवहार रत्नत्रय आदि ज्ञेय), हुं ज्ञान, ने हुं ज्ञाता-एवो संबंध होवानुं तो दूर रहो, हुं ज्ञेय, हुं ज्ञान, ने हुं ज्ञाता-एवा त्रण भेदरूप पण हुं नथी. ए त्रणेय हुं एक छुं. जुओ आ स्वानुभवनी दशा! ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय एवा भेदोथी भेदातो नथी एवो अभेद चिन्मात्र हुं आत्मा छुं. हुं ज्ञेय छुं, हुं ज्ञान छुं, हुं ज्ञाता छुं एवा त्रण भेद उपजे ए तो राग-विकल्प छे, पण वस्तु ने वस्तुनी द्रष्टिमां एवा भेद छे नहि, बधुं अभेद एक छे.
भाई! तारामां तारुं होवापणुं केवडुं छे तेनी तने खबर नथी. त्रण लोकना द्रव्यो-द्रव्य-गुण-पर्यायो त्रिकाळवर्ती
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जे अनंतानंत छे ते बधाने जाणनारी तारी ज्ञाननी दशा ते खरेखर तारुं ज्ञेय छे. ते दशा एकली नहि, पण तारा द्रव्य-गुण-पर्याय ते बधुं ज्ञेय छे. अहाहा...! ते समस्तनुं (-पोतानुं) ज्ञान ते ज्ञान, ते समस्त (-पोते) ज्ञेय अने पोते ज्ञाता-ए त्रणेय वस्तु एकनी एक छे, त्रण भेद नथी. आवी झीणी वात! ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय त्रणे भावो सहित वस्तुमात्र पोते एक छे.
अहाहा...! बहु सरस भावार्थ छे; वस्तुना मर्मनुं माखण छे. कहे छे-पोताना द्रव्य उपर द्रष्टि आपतां पोते ज ज्ञाता, पोते ज ज्ञान अने पोते ज ज्ञेय छे एम अनुभवाय छे, छ द्रव्य ज्ञेय, हुं ज्ञान अने हुं ज्ञाता एम अनुभवातुं नथी; केमके परमार्थे पर साथे ज्ञेय-ज्ञायक संबंध छे ज नहि. आवी वात!
कहे छे-‘ज्ञानमात्र भाव जाणनक्रियारूप होवाथी ज्ञानस्वरूप छे.’ जुओ, शुं कीधुं? के ज्ञेयो जगतना छे तेने जाणवारूप जाणनक्रिया ते ज्ञान-स्वरूप छे, ज्ञेयस्वरूप नथी. ज्ञाननी पर्यायमां छ द्रव्य जणाय छे ते खरेखर छ द्रव्य जणाता नथी, पण छ द्रव्य संबंधी पोतानुं जे ज्ञान ते जणाय छे अने ते खरेखर आत्मानुं ज्ञेय छे. परज्ञेय जणाय छे एम कहेवुं ए तो व्यवहार छे. ज्ञेय संबंधी पोतानी ज्ञाननी पर्याय जाणवारूप थई ते एनुं ज्ञेय छे, ओलुं (परज्ञेय) नहि, केमके पोतामां पोतानी ज्ञानपर्यायनुं अस्तित्व छे (परनुं नहि). अहाहा...! छ द्रव्यने जाणवानी ज्ञाननी पर्याय पोतानी छे, तेने छ द्रव्यनुं ज्ञान कहेवुं ते व्यवहार छे; ज्ञेय-ज्ञान ज्ञेयनुं नथी, पण ज्ञाननुं ज्ञान छे, जाणनक्रियारूपभाव ज्ञानस्वरूप छे. पं. जयचंदजी ए ज स्पष्ट करे छे-
‘वळी ते पोते ज नीचे प्रमाणे ज्ञेयरूप छे. बाह्य ज्ञेयो ज्ञानथी जुदां छे, ज्ञानमां पेसतां नथी; ज्ञेयोना आकारनी झलक ज्ञानमां आवतां ज्ञान ज्ञेयाकाररूप देखाय छे परंतु ए ज्ञानना ज कल्लोलो (तरंगो) छे. ते ज्ञानकल्लोलो ज ज्ञान वडे जणाय छे.’
अहाहा...! जुओ, बाह्य ज्ञेयो-रागादिकथी मांडी छए द्रव्यो पोताना आत्माथी (-पोताना द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेथी) जुदां छे. जो ते जुदां न होय तो एक होय, पण एम कदी बनतुं नथी, छे नहि.
रागनुं ज्ञान थाय तेमां कांई राग ज्ञाननी पर्यायमां आवतो नथी. केवळीने लोकालोकनुं ज्ञान थयुं तो लोकालोक कांई ज्ञानमां पेसी गयां नथी. घटनो जाणनार घट-रूपे थतो नथी. वळी घटनो जाणनार वास्तवमां घटने जाणे छे एम नथी. स्वपरने जाणवाना ज्ञानरूपे स्वयं आत्मा ज थाय छे. घटने जाणवाना ज्ञानरूपे आत्मा थाय छे; तेथी घटनुं ज्ञान नहि, पण आत्मानुं ज ज्ञान छे. पोतानामां तो पोताना ज्ञानपरिणामनुं अस्तित्व छे, ज्ञेयनुं नहि. आत्मानो ‘ज्ञ’ स्वभाव छे, ने ‘ज्ञ’ स्वभावी आत्मामां जाणनक्रिया थाय ते पोताथी थती पोतानी क्रिया छे, एमां परज्ञेयनुं कांई ज नथी. आम ज्ञेय संबंधी पोताना ज्ञाननुं जे परिणमन थयुं ते ज्ञेय पोते, ज्ञान पोते ज, ने पोते ज ज्ञाता छे. समजाणुं कांई...?
ज्ञेयोना आकारनी झलक ज्ञानमां आवतां ज्ञान ज्ञेयाकार देखाय छे, परंतु ए ज्ञानना ज कल्लोलो छे. जुओ, ज्ञान ज्ञेयाकार छे एम नहि, ए तो ज्ञेयने जाणवा प्रति तेवा ज्ञानाकारे ज्ञान पोते ज थयुं छे. ज्ञेयनुं तेमां कांई ज नथी. ज्ञेय ज्ञानमां पेठुं छे एम छे ज नहि; अर्थात् ज्ञान ज्ञेयरूपे थाय छे एम छे ज नहि. ज्ञान ज्ञानाकार ज छे, ए ज्ञानना ज कल्लोलो छे.
अहाहा...! केवुं भेदज्ञान कराव्युं छे! वीतराग मार्ग बहु सूक्ष्म छे भाई! जरा धीरो थईने सांभळ. कहे छे- आत्मा परने करे के परथी आत्मामां कांई थाय ए वात तो जवा दे, ए वात तो छे नहि, पण पर ज्ञाननी पर्यायमां जणाय, ज्ञान परने जाणे के परज्ञेय ज्ञाननी पर्यायमां आवे-पेसे एम पण छे नहि. वस्तु-द्रव्य एक ज्ञायकभावपणे छे ते पोते ज्ञाननी पर्यायपणे, जाणनक्रियारूपे थाय छे ते पोतानी स्वपरप्रकाशकनी क्रिया छे. एमां पर जणाय छे एम कहेवुं ते व्यवहार छे बस. पर जणातुं नथी, पोतानी जाणनक्रिया जाणवारूपे छे ते जणाय छे.
भगवान! तुं आवडो ने आवो ज छे; बीजी रीते मान तो तारा स्वभावनो घात थशे. सर्वज्ञ परमेश्वर कहे छे-लोकालोक जणाय एवडी तारी पर्याय नथी, तारी ज्ञानपर्यायने तुं जाण एवुं तारुं स्वरूप छे. लोकालोकने जाणवुं एम कहेवुं ए असद्भूत व्यवहार छे, जूठो व्यवहार छे.
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तो साचो व्यवहार शुं छे? ते आ; पोते जाणग-जाणवाना भाववाळुं तत्त्व होवाथी लोकालोकनां जेटलां ज्ञेयो छे तेने अने पोताने जाणवानी क्रियारूपे पोतामां (पोताना अस्तित्वमां) पोताना कारणे परिणमे छे. खरेखर तो आ ज्ञाननो पर्याय ते ज्ञेय छे. ज्ञाननी पर्यायनुं पर (पदार्थ) ज्ञेय छे एम कहेवुं ते व्यवहार छे. आवी वात छे.
ज्ञेयोना आकार एटले ज्ञेयोना विशेषो-एनी ज्ञानमां झलक आवे छे अर्थात् ते संबंधीनुं पोतानुं ज्ञान पोतामां पोताथी परिणमे छे. ते ज्ञान ज्ञेयाकार देखाय छे एम कह्युं पण ते ज्ञेयाकार थयुं नथी, ए तो ज्ञानाकार- ज्ञानना ज तरंगो छे. अहाहा...! जाणग... जाणग... जाणग पोतानो स्वभाव छे, एमां परवस्तुनो-परज्ञेयनो प्रवेश नथी, छतां एनुं जाणवुं अहीं (-पोतामां) थाय छे ते खरेखर एनुं (परज्ञेयनुं) जाणवुं नथी; जाणवानी पोतानी दशा छे एनुं जाणवुं छे. आ न्यायथी तो वात छे; एने समजवी तो पडे ने! कोई थोडुं समजावी दे?
जुओ, दर्पणना द्रष्टांते आ वात समजीएः जेम दर्पणनी सामे कोलसा, अग्नि वगेरे मूकेलां होय ते दर्पणमां देखाय छे. पण ए दर्पणथी जुदी चीज छे ने? दर्पणमां तो ते पदार्थोनी झलक देखाय छे, पण शुं कोलसा ने अग्नि वगेरे दर्पणमां छे? दर्पणमां तो दर्पणनी स्वच्छतानुं अस्तित्व छे. जो अग्नि वगेरे तेमां पेठां होय तो दर्पण अग्निमय थई जाय, तेने हाथ अडकाडये हाथ बळी जाय. पण एम छे नहि. दर्पण दर्पणनी स्वच्छताना परिणामे पोते ज पोताथी परिणम्युं छे; कोलसा के अग्निनुं तेमां कांई ज नथी. समजाणुं कांई...?
आ शुं कीधुं? ल्यो, फरीथी. एक बाजु दर्पण छे, अने तेनी सामे एक बाजु अग्नि ने बरफ छे. अग्नि अग्निमां लबक-झबक थाय छे, ने बरफ बरफमां पीगळतो जाय छे. ते समये दर्पणमां पण बस एवुं ज देखाय छे. तो शुं दर्पणमां अग्नि ने बरफ छे? ना; अग्नि अने बरफनुं होवुं तो बहार पोतपोतामां छे, दर्पणमां तेमनुं होवापणुं नथी, दर्पणमां तेओ पेठा नथी. दर्पणमां तो दर्पणनी ते-रूप स्वच्छ दशा थई छे ते छे. अग्नि अने बरफ संबंधी दर्पणनी स्वच्छतानी दशा ते दर्पणनुं पोतानुं परिणमन छे, अग्नि ने बरफनुं तेमां कांई ज नथी; अग्नि अने बरफे एमां कांई ज कर्युं नथी, ए तो जुदा पदार्थो छे.
तेम भगवान आत्मा स्वच्छ चैतन्य दर्पण छे. तेना ज्ञानमां ज्ञेयोना आकारनी झलक आवतां ज्ञान ज्ञेयाकार देखाय छे. सामे जेवा ज्ञेयो छे ते ज प्रकारनी विशेषतारूपे पोतानी ज्ञाननी दशा थतां जाणे के ज्ञान ज्ञेयाकारे थई गयुं होय तेम देखाय छे, परंतु ज्ञान ज्ञेयाकार थयुं ज नथी, ज्ञानाकार छे; अर्थात् ते ज्ञेयना कल्लोलो नथी, पण ज्ञानना ज कल्लोलो छे, ज्ञाननी ज दशा छे; ज्ञेयोनुं एमां कांई ज नथी. समजाणुं कांई...?
अहा! आवो पोताना अस्तित्वनो महिमा जाण्या विना भाई! तुं दया, दान, व्रत, तप करीकरीने सूकाई जाय तोय लेश पण धर्म थाय नहि. पोताना स्वरूपना महातम (-माहात्म्य) विना धर्मनी क्रिया कोई दि’ थई शकती नथी.
नानी उंमरनी वात छे. पालेजमां पिताजीनी दुकान हती. ते बंध करी रात्रे महाराज उपाश्रयमां आव्या होय त्यां एमनी पासे जता. त्यां महाराज गाता-
हवे आमां तत्त्वनी कांई खबर नहि, पण सांभळीने ते वखते राजी राजी थई जता. लोकमां पण बधे आवुं ज चाली रह्युं छे ने! पोते कोण ने केवडो छे एनी खबर न मळे, पण मांडे व्रत, तप, भक्ति, पूजा आदि करवा; एम के एनाथी धर्म थशे, पण धूळमांय धर्म नहि थाय. पोते कोण छे एनी खबर विना शेमां धर्म थशे? बापु! हुं ज्ञानस्वभाव छुं एम भूलीने रागना कर्तापणामां मंडयो रहे ए तो पागलपणुं छे. दुनिया आखी आवी पागल छे. समजाणुं कांई...?
अहाहा...! अहीं कहे छे-‘आ ज्ञानकल्लोलो ज ज्ञान वडे जणाय छे.’ पोताना होवापणामां दया, दान आदिना भाव, के शरीर, मन, वाणी इत्यादि परज्ञेयोनो प्रवेश नथी, ए तो जुदा पर छे; माटे जाणवानी क्रिया ज ज्ञान वडे, आत्मा वडे जणाय छे. दयाना परिणाम थाय तेने जाणनारी क्रिया आत्मानी छे ने ते एनुं ज्ञेय छे, पण दयाना परिणाम परमार्थे आत्माना नथी, ने परमार्थे ते आत्मानुं ज्ञेय नथी.
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हवे कोईने थाय के आ ते वळी केवो धर्म? भूख्याने भोजन आपवुं, तरस्याने पाणी आपवुं, नागाने कपडां देवां, ने मांदानी मावजत करवी-एवी कोई वात तो समजाय. अरे भाई! ए तो बधी रागनी क्रिया बापु! ते काळे जडनी क्रिया तो जडमां थवायोग्य थई, ते क्रिया तारी नहि, ने रागनी क्रिया पण तारी नथी. अरे, ते काळे रागनुं ज्ञान थयुं ते ज्ञान रागनुं नथी, राग तेमां पेठो नथी, जाणवानी क्रिया तारा अस्तित्वमां थई छे ते तारी छे, अने ते खरेखर तारुं ज्ञेय छे, रागादि परमार्थे तारां ज्ञेय नथी. समजाय छे कांई...?
अज्ञानी जीवोने आटलुं बधुं (दया, दान आदिने) ओळंगीने अहीं (ज्ञानभावमां) आववुं मोटो मेरु पर्वत उपाडवा जेवुं लागे छे. पण आमां तारुं हित छे भाई!
हवे कहे छे-‘आ रीते पोते ज पोताथी जणावायोग्य होवाथी ज्ञानमात्र भाव ज ज्ञेयरूप छे. वळी पोते ज पोतानो जाणनार होवाथी ज्ञानमात्र भाव ज ज्ञाता छे. आ प्रमाणे ज्ञानमात्र भाव ज्ञान, ज्ञेय अने ज्ञाता-ए त्रणे भावोयुक्त सामान्यविशेषस्वरूप वस्तु छे.’
जुओ, आ बधानो सरवाळो कर्यो. जणाववायोग्य पर पदार्थो परमां रह्या छे, अने जाणनारो जाणनारमां रहेल छे. जाणनार पोते ज्ञानरूप थयो थको पोताने जाणे छे. आम आत्मा पोते ज जणावायोग्य छे; ज्ञानमात्र भाव ज पोतानुं ज्ञेय छे. पर पदार्थने ज्ञेय कहेवो ए व्यवहार छे बस.
वळी पोते ज पोतानो जाणनार होवाथी ज्ञानमात्र भाव ज ज्ञाता छे. अहाहा...! परनी साथे परमार्थे आत्माने कोई संबंध नथी. जे जणाय ते पण पोतानी दशा, जाणनारो पण पोते अने ज्ञान पण पोते ज, अहाहा...! ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय त्रणेय एकरूप. अंतरमां द्रष्टि मूकतां आवा त्रण भेद आत्माना छे एम रहेतुं नथी. पर वस्तु ज्ञेय ने पोते ज्ञाता ए तो कयांय रही गयुं. पोते ज ज्ञेय, पोते ज ज्ञान, ने पोते ज ज्ञाता-एवा त्रण भेद पण अंतर्द्रष्टिमां समाता नथी, बधुं अभेद एकरूप अनुभवाय छे. ल्यो, आनुं नाम धर्म छे; जेमां सामान्यविशेषनुं अभेदपणुं प्राप्त-सिद्ध थयुं ते धर्म छे.
अहाहा...! ‘आवो ज्ञानमात्र भाव हुं छुं’ एम अनुभव करनार पुरुष अनुभवे छे. ज्ञाता पण हुं, ज्ञान पण हुं, ने ज्ञेय पण हुं-एम त्रणेय एक हुं-आवो जे ज्ञानमात्र भाव ते हुं छुं एम अनुभव करनार पुरुष पोताने अनुभवे छे. आवो अनुभव थवो ते धर्म छे. ‘अनुभव’-अनु नाम अनुसरीने, भव नाम भवन थवुं; आत्माने- ज्ञानमात्र वस्तुने-अनुसरीने थवुं ते अनुभव छे ने ते धर्म छे. आ सिवाय रागने अनुसरीने थवारूप जे अनेक क्रियाओ छे ए बधो संसार छे, ए बधुं रणमां पोक मूकवा जेवुं छे.
अहाहा...! अनुभव करनार पुरुष एम अनुभवे छे के जाणनारे य हुं, ज्ञानेय हुं, ने जणावायोग्य ज्ञेय पण हुं ज छुं. आ त्रणेना अभेदनी द्रष्टि थतां एने स्वानुभव प्रगट थयो छे, ने तेमां एने अतीन्द्रिय आनंदना स्वादनुं वेदन प्रगट थयुं होय छे. आने समकित अने धर्म कहे छे. समजाणुं कांई...?
जुओ, अहीं सामान्य-विशेष बेय भेगुं लीधुं छे, केमके प्रमाणज्ञान कराववुं छे. प्रमाणज्ञानमां वस्तु त्रिकाळी सत्, एनी शक्तिओ त्रिकाळी सत् अने एनी वर्तमान पर्याय ए त्रणे थईने वस्तु आत्मा कह्यो छे. एमां शरीर, मन, वाणी, कर्म, ने विकार इत्यादि न आवे.
आत्मा मेचक, अमेचक इत्यादि अनेक प्रकारे देखाय छे तोपण यथार्थ ज्ञानी निर्मळ ज्ञानने भूलतो नथी– एवा अर्थनुं काव्य हवे कहे छेः–
क्वचित्पुनरमेचकं सहजमेव तत्त्वं मम।
तथापि न विमोहयत्यमलमेधसां तन्मनः
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श्लोकार्थः– (ज्ञानी कहे छेः) [मम तत्त्वं सहजम् एव] मारा तत्त्वनो एवो स्वभाव ज छे के [क्वचित् मेचकं लसति] कोई वार तो ते (आत्मतत्त्व) मेचक (–अनेकाकार, अशुद्ध) देखाय छे, [क्वचित् मेचक–अमेचकं] कोई वार मेचक–अमेचक (बन्नेरूप) देखाय छे [पुनः क्वचित् अमेचकं] अने वळी कोई वार अमेचक (–एकाकार, शुद्ध) देखाय छे; [तथापि] तोपण [परस्पर–सुसंहत–प्रकट–शक्ति–चक्रं स्फुरत् तत्] परस्पर सुसंहत (– सुमिलित, सुग्रथित, सारी रीते गूंथायेली) प्रगट शक्तिओना समूहरूपे स्फुरायमान ते आत्मतत्त्व [अलम–मेधसां मनः] निर्मळ बुद्धिवाळाओना मनने [न विमोहयति] विमोहित करतुं नथी (–भ्रमित करतुं नथी, मूंझवतुं नथी).
भावार्थः– आत्मतत्त्व अनेक शक्तिओवाळुं होवाथी कोई अवस्थामां कर्मना उदयना निमित्तथी अनेकाकार अनुभवाय छे, कोई अवस्थामां शुद्ध एकाकार अनुभवाय छे अने कोई अवस्थामां शुद्धाशुद्ध अनुभवाय छे; तोपण यथार्थ ज्ञानी स्याद्वादना बळथी भ्रमित थतो नथी, जेवुं छे तेवुं ज माने छे, ज्ञानमात्रथी च्युत थतो नथी. २७२.
(ज्ञानी कहे छेः) ‘मम तत्त्वम् सहजम् एव’ मारा तत्त्वनो एवो स्वभाव ज छे के ‘क्वचित् मेचकं लसति’ कोई वार तो ते (आत्मतत्त्व) मेचक (-अनेकाकार, अशुद्ध) देखाय छे, ‘क्वचित् मेचक–अमेचकं’ कोई वार मेचक- अमेचक (बन्नेरूप) देखाय छे ‘पुनः क्वचित् अमेचकं’ अने वळी कोई वार अमेचक (-एकाकार, शुद्ध) देखाय छे...
अहाहा...! शुद्ध चिदानंदघन एक चिन्मात्र वस्तु हुं आत्मा छुं एवी जेने अंतर्द्रष्टि थई छे ते सम्यग्ज्ञानी छे. अहा! ते सम्यग्ज्ञानी पोताना तत्त्वने केवुं जाणे छे तेनी आ सरस वात छे. कहे छे-कोई वार मेचक अर्थात् पर्यायमां अशुद्धता-मलिनता-दुःख छे एम ज्ञानी जाणे छे. मलिनता-दुःख परना-निमित्तना कारणे छे एम नहि, पण पोतानुं ज (पोताथी) एवुं परिणमन छे एम ज्ञानी जाणे छे. प्रवचनसार, ४७ नयना अधिकारमां कर्ता अने भोक्ता नयनी वात लीधी छे. त्यां कह्युं छे के-ज्ञानीनी पर्यायमां पोतानी कमजोरीथी रागनुं परिणमन छे, राग करवा लायक छे एम नहि, छतां तेने रागनुं परिणमन छे ते अपेक्षाए रागनो कर्ता-भोक्ता हुं छुं एम ज्ञानी यथार्थ जाणे छे. द्रष्टि रागने स्वीकारती नथी, केमके द्रष्टिनो विषय एक अभेद चिन्मात्र आत्मा छे, पण साथे सम्यग्ज्ञान जे वर्ते छे ते एम जाणे छे के मारी दशामां मेचकपणुं-रागादिभावरूप मलिनता छे. ज्ञान स्वपरप्रकाशक छे ने? तो स्वनी साथे पर्यायमां जे राग छे तेने ते जाणे छे. गणधरादि क्षायिक समकिती होय ते पण आवुं जाणे छे. समजाय छे कांई...?
जुओ, आचार्य अमृतचंद्र देवे आ समयसार शास्त्रनी ‘आत्मख्याति’ नामनी संस्कृतमां टीका लखी. महान टीका छे. अन्यमां तो शुं जैनमां पण आवी टीका बीजे नथी. तेओ छठ्ठे-सातमे गुणस्थाने प्रचुर आनंदना झुले झुलता संत-मुनिवर हता. तेओ त्रीजा कळशमां पोतानी स्थिति बतावतां कहे छेः
द्रव्यद्रष्टिथी (हुं) शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति छुं, तोपण मारी परिणति रागादि परिणामोनी व्याप्ति छे तेनाथी निरंतर कल्माषित (मेली) छे. कहे छे-मारी द्रष्टि निरंतर चिन्मात्र द्रव्य-वस्तु उपर होवा छतां पर्यायमां मलिनता छे एम मारुं ज्ञान जाणे छे. ज्यां सुधी रागनी-कर्मनी पूर्ण निवृत्ति न थाय त्यां सुधी ज्ञानीने ज्ञानधारा अने कर्मधारा-बन्ने एक साथे चाले छे. जेटलो राग छे एटली कर्मधारा छे, ने ते छे एम ज्ञानी यथार्थ जाणे छे.
तो समकितीने आस्रव-मलिनता नथी, ते निरास्रव छे-एम शास्त्रमां आवे छे ने? हा, आवे छे. ते द्रष्टि अपेक्षाए वात छे. वळी तेने अनंतानुबंधी कषाय नथी एम सूचववा माटेनी वात छे. समयसार गाथा ७प, कर्ताकर्म अधिकारमां लीधुं छे के-शुद्ध चैतन्यमूर्ति आत्मानी द्रष्टि थई छे तेने आत्मा व्यापक थई शुद्ध पर्यायनो विस्तार करे छे, अर्थात् शुद्ध पर्याय तेनुं व्याप्य छे, अशुद्ध पर्याय तेनुं व्याप्य कर्म नथी. आ द्रष्टि अपेक्षाए वात छे. बाकी ज्ञानीने द्रष्टि साथे जे ज्ञान वर्ते छे ते यथास्थित जाणे छे के पर्यायमां किंचित् कलुषितता- मलिनता छे.
एक बाजु एम कहे के चोथा गुणस्थानथी शुद्धत्व परिणमन छे, अने बीजी बाजुथी एम कहे के छठ्ठे गुणस्थाने पण मलिनता छे-आ केवुं?
भाई, ज्यां जे अपेक्षा होय ते बराबर जाणवी जोईए. एकांत ताणवुं न जोईए. यथाख्यात चारित्र न होय
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त्यां सुधी राग होय छे. द्रष्टि तेने स्वीकारती नथी, पण ज्ञान तेने यथास्थित जेम छे तेम जाणे छे. अहा! आ वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग युक्ति वडे जेम छे तेम जाणवो जोईए.
हवे कहे छे-‘कोई वार मेचक-अमेचक (बन्नेरूप) देखाय छे.’ अहाहा...! सम्यग्ज्ञानीने चारित्रगुणनी एक ज समयनी पर्यायना बे भाग-अंशे निर्मळता ने अंशे मलिनता बन्ने-देखाय छे. मोक्षमार्गनी निर्मळ रत्नत्रयनी पर्याय प्रगट थई ते, तथा साथे सहचर एवो जे राग बाकी छे ते-बन्ने देखाय छे. एक समयमां बे धारा छे ने? ज्ञानीने जेम शुद्धतानुं ज्ञान छे तेम ते समये जे अशुद्धता-मलिनता छे ए पण जाणवामां आवे छे. बहारमां विकल्प छे त्यारे (उपयोग स्वथी खसी पर तरफ गयो छे त्यारे) निर्मळ पर्याय-निर्मळतारूप दशा पण जाणवामां आवे छे, ने मलिनता पण जाणवामां आवे छे; एक समयमां बन्ने जाणवामां आवे छे.
हवे कहे छे-‘वळी कोई वार अमेचक (-एकाकार, शुद्ध) देखाय छे.’ निर्विकल्प अनुभवमां, शुद्धोपयोगनी दशामां एकलो आनंद अने शुद्धता ज छे. ते काळे राग देखातो नथी. निर्विकल्प उपयोगना काळे अबुद्धिपूर्वकनो राग छे, पण ए ख्यालमां आवतो नथी. निर्विकल्प उपयोगमां शुद्धतानुं ज वेदन छे, ते काळे अबुद्धिपूर्वकना रागने उपयोग जाणी शकतो नथी.
आम त्रण प्रकार देखाय छे. हवे कहे छे-
‘तथापि’ तोपण ‘परस्पर–सुसंहत–प्रकट–शक्ति–चक्रं स्फुरत् तत्’ परस्पर सुसंहत (-सुमिलित, सुग्रथित, सारी रीते गूंथायेली) प्रगट शक्तिओना समूहरूपे स्फुरायमान ते आत्मतत्त्व ‘अमल–मेधसां मनः’ निर्मळ बुद्धिवाळाओना मनने ‘न विमोहयति’ विमोहित करतुं नथी (-भ्रमित करतुं नथी, मुंझवतुं नथी).
अहाहा...! शुं कहे छे? के निर्मळ पर्याय ने मलिन पर्याय-सुसंहत अर्थात् सारी रीते गूंथायेली छे. ठेठ चौदमे गुणस्थाने पण असिद्धत्व भाव कह्यो छे ने! ते असिद्धत्व भाव संसार छे. तत्त्वार्थसूत्रमां उदयभावना एकवीस बोलमां असिद्धत्वभाव कहेलो छे. चौदमे गुणस्थाने निमित्तरूपे चार कर्मो विद्यमान छे तेटली मलिनता- असिद्धत्वरूप मलिनता पोताना कारणे होय छे. नीचे समकितीनी पर्यायमां पण जेटली स्वभावनी द्रष्टि अने स्थिरता थई एटली निर्मळता, तथा जेटलो राग छे एटली मलिनता-ए बेनुं संगठन छे, ए बे सुग्रथित छे, सारी रीते गूंथायेलां छे. साधक जीवने साधकभाव साथे बाधकता छे ज, न होय तो सर्वज्ञपणुं होय. आ बन्ने भाव- निर्मळता ने मलिनता-प्रगट छे. अहाहा...! भाषा शुं छे जुओ! ‘प्रगट शक्तिओना समूहरूपे स्फुरायमान’-एटले के निर्मळ पर्यायनी शक्ति-योग्यता, अने मलिनतानी योग्यता-बन्ने एक साथे प्रगटरूपे मळेली छे. अहीं शक्तिरूपे भगवान पूर्ण छे एनी वात नथी. अहीं पर्यायनी योग्यतानी वात छे. निज पूर्णानंद स्वभावनुं अवलंबन लेतां स्वद्रव्यना आश्रये जे निर्मळ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट थयुं ते, अने तेनी साथे धर्मीने जे पंचमहाव्रतादिनो विकल्प वर्ते छे ते-ए बन्ने एक समयमां सुग्रथित समूहरूपे स्फुरायमान छे. एक समयनी दशामां आ बन्ने भावो प्रगटरूप छे. अहा! गजब वात करी छे! शुं कळश छे! पर्याय-पर्यायनी संभाळ लीधी छे.
अहा! जेनी बुद्धि निर्मळ थई गई छे एवा सम्यग्द्रष्टि जीवने आत्मतत्त्वनी आवी विचित्रता-निर्मळता ने मलिनता बन्ने साथे देखावा छतां तेना मनने विमोहित करती नथी, मुंझवती नथी; अर्थात् धर्मी जीव मिथ्याभावने प्राप्त थतो नथी. अहाहा...! धर्मीने एक साथे सुखनुं वेदन, अने अशुद्धतानुं-दुःखनुं वेदन होय तोपण ते मुंझातो नथी, मार्गथी चलित थतो नथी. एक पर्यायमां जेटलो मोक्षमार्ग प्रगट थयो एटलो आनंदनो भाग, अने जेटलो राग छे एटलो दुःखनो भाग-ए बेय वस्तुस्थिति छे एम धर्मी बराबर जाणे छे. हुं (स्वभावे) निर्मळ छुं, छतां आ राग केम? आ शुं? -एम धर्मीने भ्रमणा थती नथी. आवी वात छे.
जुओ, हिंसा, जूठ, चोरी, कुशील इत्यादि पापभाव छे, ने दया, दान, व्रत, तप, भक्ति-पूजाना विकल्प ते पुण्यभाव छे; आ बन्ने भाव बंधनुं कारण छे. ए बन्नेथी भिन्न पडी, निज नित्य निरंजन चिन्मात्र वस्तुनी द्रष्टि करतां पर्यायमां
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आनंदना अनुभव सहित समकित प्रगट थाय छे. आ धर्म छे. अहाहा...! आम जेने अंतरमां धर्म प्रगटयो छे एवा समकिती ज्ञानीने पोतानुं आत्मतत्त्व केवुं देखाय छे एनी आ वात छे. तो कहे छे-
‘आत्मतत्त्व अनेक शक्तिओवाळुं होवाथी कोई अवस्थामां कर्मना उदयना निमित्तथी अनेकाकार अनुभवाय छे, कोई अवस्थामां शुद्ध एकाकार अनुभवाय छे अने कोई अवस्थामां शुद्धाशुद्ध अनुभवाय छे...’
जुओ, आत्मा शुद्ध चिदानंदघन प्रभु-एनी निर्मळ प्रतीति अने अनुभव थवा छतां धर्मीने पर्यायमां विकारनुं वेदन-आस्वाद होय छे. धर्मीने शुद्धोपयोगमां आनंद अने शांतिनुं वेदन होय छे. छतां पुरुषार्थनी कमजोरीथी जेटलुं लक्ष पर उपर जाय छे तेटलो ज्ञानीने दुःखनो आस्वाद-वेदन होय छे; जोके कर्मनो उदय तो निमित्तमात्र छे, परंतु पोतानी पर्यायमां जे नैमित्तिक विकार प्रगट थाय छे एनुं वेदन धर्मीने छे, अने तेनुं ज्ञान एने यथास्थित जाणे पण छे. शरीर, वाणी इत्यादि जडनुं वेदन तो (ज्ञानी के अज्ञानी) कोईने होतुं नथी. परंतु ज्ञानीने, जेटली अंतर-स्वभावमां एकाग्रता छे एटलो आनंद छे तोपण, जेटलो राग विद्यमान छे तेटलुं तेने दुःखनुं आस्वादन-वेदन अवश्य छे.
वळी, कहे छे, कोई अवस्थामां शुद्ध एकाकार अनुभवाय छे. अहाहा...! धर्मी जीवने पोताना अंतरमां उपयोग लागे छे, शुद्धोपयोगनी दशा होय छे त्यारे एकाकार शुद्धनो-पवित्रतानो ज अनुभव होय छे.
अने वळी कोई अवस्थामां शुद्धाशुद्ध अनुभवाय छे. एटले शुं? के पोतानी चिन्मात्र वस्तुना आश्रये जेटली निर्मळ आनंदनी परिणति प्रगट छे तेने धर्मी जाणे छे अने साथे जेटलो राग-मलिनभाव छे तेने पण ज्ञानी जाणे छे. धर्मीने शुद्धतानी साथे किंचित् रागनुं वेदन होय छे तेमां विरोध नथी. बे छे तो विरुद्धभाव पण साथे रही शके छे. धर्मीने जेटली वीतरागता थई तेटलुं शुद्धतानुं-आनंदनुं वेदन छे, ने साथे जेटलो राग छे तेटलुं दुःखनुं पण वेदन छे. आम एक साथे आनंद अने दुःखना वेदनमां विरोध नथी, छे तो बन्ने परस्पर विरुद्ध, पण बन्ने साथे रहे छे एवी ज साधकदशा होय छे. बन्नेने ज्ञानी एक साथे जाणे छे.
जुओ, तीर्थंकरने जन्मथी ज क्षायिक समकित होय छे. आठ वर्षनी उंमरे स्वभावना विशेष आलंबनपूर्वक पांचमा गुणस्थानने प्राप्त थई अणुव्रत धारण करे छे. तेमां कोई तीर्थंकर चक्रवर्ती पण होय तो तेने छन्नु हजार राणीओ अने ते संबंधी भोग पण होय छे. भोगमां सुखबुद्धि नथी तथापि भोगनी आसक्तिना परिणाम होय छे. आ आसक्तिना वेदनने ते दुःखरूप जाणे छे. अने जेटली शुद्धता प्रगट वर्ते छे तेटलुं शांतिनुं वेदन आवे छे तेने सुखरूप जाणे छे-बन्नेने ते एक साथे जाणे छे. छठ्ठे गुणस्थाने भावलिंगी मुनिवरने शुभभाव होय छे तेने ते दुःखरूप जाणे छे, अने आत्माना आश्रये जेटली निर्मळता प्रगटी छे तेटलुं तेने आनंदनुं वेदन होय छे. साधक धर्मी आ बन्नेने एक साथे जाणे छे. आवी साधकदशा होय छे. जुओ, -
-मिथ्याद्रष्टिने एकांत अशुद्धतानुं-दुःखनुं वेदन होय छे. -भगवान केवळीने एकांत शुद्धतानुं-आनंदनुं वेदन होय छे. अने -साधकने अंशे आनंद अने अंशे दुःख-एम बन्नेनुं एक साथे वेदन होय छे. अहाहा...! प्रभु! तारी विचित्रता तो देख! अनेक प्रकारनी योग्यता पैकी एक विकारपणे परिणमवानी योग्यता पण छे. समकितीने जे राग उत्पन्न थाय छे ते पर्यायनी योग्यता-शक्तिथी थाय छे, अने तेनो ज्ञानी कर्ता अने भोक्ता पण छे. (परिणमननी अपेक्षा कर्ता-भोक्ता कह्यो छे, धर्मी रागनो स्वामी छे एम नहि). प्रवचनसार, ४७ नयना अधिकारमां कह्युं छे के-ज्ञानीने पण जेटलो राग थाय छे एनो आधार-अधिष्ठाता आत्मा छे. परंतु ज्यां प्रयोजन द्रव्यद्रष्टि कराववानुं होय त्यां रागनो आधार आत्मा नथी एम कहेवामां आवे छे. आवो भगवान केवळीनो कहेलो मारग अपूर्व अने सूक्ष्म छे. भाई! तेने एक वार तारा ज्ञान-श्रद्धानमां तो ले; तुं न्याल थई जईश.
हवे कहे छे-आवुं विचित्र आत्मतत्त्व छे ‘तोपण यथार्थ ज्ञानी स्याद्वादना बळथी भ्रमित थतो नथी, जेवुं छे तेवुं ज माने छे, ज्ञानमात्रथी च्युत थतो नथी.’ अहा! पर्यायमां रौद्रध्यानना परिणाम होय तोपण स्याद्वादना बळथी धर्मी भ्रमित थतो नथी; मार्गथी चलित थतो नथी. पंचम गुणस्थान सुधी रौद्रध्यान होय छे. तो रौद्रध्यान थतां अरे! आ शुं? चिन्मात्र एवा मने रौद्रध्यान! -एम चलित थतो नथी. (बलके वैराग्य पामे छे).
जुओ, जेना पेटमां ते ज भवे मोक्षगामी एवा लव अने कुशना जीवो हता एवां सीताजी माटे रामचंद्रजीए
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सारथीने हुकम कर्यो के-सीताजीने ज्यां सिंह ने वाघ होय एवा जंगलमां लई जाओ, अने त्यां छोडी दो. अररर! आवा परिणाम! सारथी पण स्तब्ध थई गयो, पण शुं करे? एक बाजु नोकरी ने बीजी बाजु रामचंद्रनो हुकम. सारथीए सीताजीने जंगलमां छोडयां तो प्रथम एकदम आघात थयो, एम के आ शुं? आंखमांथी आंसुनी धारा वहेवा लागी. थोडी वारमां शांत थया पछी सीताजीए सारथीने कह्युं के-“रामचंद्रजीने कहेजो के हुं धर्मात्मा छुं एम जाणवा छतां लोकापवादथी तमे मने तजी तो भले, पण लोकापवादथी धर्म मा छोडशो; समकित ने आत्मशांतिनी दशाने मा छोडशो.” जुओ, ए वखते पण आ अवाज! पर्यायमां राग छे, आर्त परिणाम छे एनुं भान छे, अने स्वभावथी हुं राग रहित छुं एनुं पण भान छे. आम धर्मी समकिती पुरुष भ्रमित थतो नथी, परंतु जेम छे तेम माने छे.
जुओ, रामचंद्रजी पण पुरुषोत्तम समकिती हता. एमने पण (पर्यायमां) शुद्धता अने रौद्रता-बे भाव एक साथे होवा छतां पोताना स्वभावथी च्युत थया नहि. आ रीते स्याद्वादना बळथी धर्मी स्वभावथी च्युत थता नथी. आवी वात! समजाणुं कांई...?
आत्मानो अनेकांतस्वरूप (–अनेक धर्मस्वरूप) वैभव अद्भुत (आश्चर्यकारक) छे–एवा अर्थनुं काव्य हवे कहे छेः–
मितः क्षणविभङ्गुरं ध्रुवमितः सदैवोदयात्।
इतः परमविस्तृतं धृतमितः प्रदेशैर्निजै–
रहो
श्लोकार्थः– [अहो आत्मनः तद् इदम् सहजम् अद्भुतं वैभवम्] अहो! आत्मानो ते आ सहज अद्भुत वैभव छे के–[इतः अनेकतां गतम्] एक तरफथी जोतां ते अनेकताने पामेलो छे अने [इतः सदा अपि एकताम् दधत्] एक तरफथी जोतां सदाय एकताने धारण करे छे, [ इतः क्षणः विभङ्गुरम्] एक तरफथी जोतां क्षणभंगुर छे अने [इतः सदा एव उदयात् ध्रुवम्] एक तरफथी जोतां सदाय तेनो उदय होवाथी ध्रुव छे, [इतः परम– विस्तृतम्] एक तरफथी जोतां परम विस्तृत छे अने [इतः निजैः प्रदेशैः धृतम्] एक तरफथी जोतां पोताना प्रदेशोथी ज धारण करी रखायेलो छे.
भावार्थः– पर्यायद्रष्टिथी जोतां आत्मा अनेकरूप देखाय छे अने द्रव्यद्रष्टिथी जोतां एकरूप देेखाय छे; क्रमभावी पर्यायद्रष्टिथी जोतां क्षणभंगुर देखाय छे अने सहभावी गुणद्रष्टिथी जोतां ध्रुव देखाय छे; ज्ञाननी अपेक्षावाळी सर्वगत द्रष्टिथी जोतां परम विस्तारने पामेलो देखाय छे अने प्रदेशोनी अपेक्षावाळी द्रष्टिथी जोतां पोताना प्रदेशोमां ज व्यापेलो देखाय छे. आवो द्रव्यपर्यायात्मक अनंतधर्मवाळो वस्तुनो स्वभाव छे. ते (स्वभाव) अज्ञानीओना ज्ञानमां आश्चर्य उपजावे छे के आ तो असंभवित जेवी वात छे! ज्ञानीओने जोके वस्तुस्वभावमां आश्चर्य नथी तोपण तेमने पूर्वे कदी नहोतो थयो एवो अद्भुत परम आनंद थाय छे, अने तेथी आश्चर्य पण थाय छे. २७३.
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परमात्मपुराणमां दर्शन अने ज्ञान-ए बेने अद्भुतरसमां लीधा छे. त्यां कह्युं छे के आत्मानी एक समयनी दर्शन अने ज्ञान ए बे पर्यायमांथी एक दर्शननी-दर्शनोपयोगनी-पर्याय लोकालोकने अर्थात् आखा पूर्ण सत्ने ‘ते बधुं अभेद छे’ एम देखे छे. तेमां ‘आ जीव छे ने आ अजीव छे’ एवो भेद पण नथी. अरे, ‘आ छे’ एवो भेद पण तेमां नथी. ज्यारे बीजो एक समयनो ज्ञानपर्याय बधाने भिन्न-भिन्न करीने भेदथी जाणे छे. द्रव्यभेद, गुणभेद, पर्यायभेद अने एक-एक पर्यायमां पण अनंत भेद वगेरे बधाने भिन्न-भिन्न करीने ज्ञान जाणे छे. आ रीते, जे समये दर्शननो पर्याय बधाने भिन्न कर्या विना देखे छे ते ज समये ज्ञाननो पर्याय बधाने भिन्न-भिन्न करीने जाणे छे. अने आ आत्मानो अद्भुत रस छे. ज्यारे अहींया आत्मामां केवो अद्भुत वैभव छे ते कहेवुं छे. तो, कहे छे के,
‘अहो आत्मनः तद् इदम् सहजम् अद्भूतं वैभवम् अहो! आत्मानो ते आ सहज अद्भुत वैभव छे के- इतः अनेकतां गतम् एक तरफथी जोतां ते अनेकताने पामेलो छे.’ पर्यायथी जोतां आत्मा अनेकपणे देखाय छे अने ते एवो छे पण खरो. ल्यो, आ पण आत्मानो एक स्वाभाविक अद्भुत वैभव छे एम कहे छे.
‘इतः सदा अपि एकताम् दधत् एक तरफथी जोतां सदाय एकताने धारण करे छे.’ वस्तुद्रष्टिथी-द्रव्यद्रष्टिथी जोतां आत्मा एकरूप छे. अने आ पण आत्मानो एक सहज अद्भुत वैभव छे.
प्रश्नः– जगत तो आ बहारना पैसादिने वैभव कहे छे ने? समाधानः– भाई! ए तो धूडनो वैभव छे. ते कयां आत्मामां हतो? ते एकेएक (दरेक) परमाणु तो तेनामां-जडमां छे. तेथी ते पैसादि आत्मानो वैभव छे एम कयांथी आव्युं?
अहीं तो आत्मानो वैभव एने कहे छे के एक बाजुथी-पर्यायद्रष्टिथी-अनेकने जोवानी द्रष्टिथी-जोईए तो पर्यायमां अनेकता देखाय छे अर्थात् अनंत पर्यायो देखाय छे. केमके अनंत गुणोनी अनंत पर्यायो छे. अने एक बाजुथी-द्रव्यद्रष्टिथी-वस्तुद्रष्टिथी-जोतां आत्मा एकरूप देखाय छे. जुओ, आ अनेकता पर्यायमां छे अने एकता द्रव्यमां छे एम कह्युं छे. तथा आत्मा सदाय एकताम् दधत्–एकताने धारण करे छे, धारी राखे छे एम पण कह्युं छे.
‘इतः क्षण–विभङगुरम् एक तरफथी जोतां क्षणभंगुर छे.’ एटले? के क्रमे-क्रमे थती दशानी द्रष्टिथी जोईए तो आत्मा क्षणभंगुर देखाय छे.
राजकोटमां एक वेदांती बावो हतो. तेणे एक वार एवुं सांभळ्युं के जैनना एक साधु (पू. श्री कानजीस्वामी) अध्यात्मनी बहु ऊंची वात करे छे. तेने तेथी थयुं के लाव सांभळवा जाउं. ते सांभळवा आव्यो. प्रवचनमां त्यारे एवुं आव्युं के पर्यायनो नाश थाय छे माटे आत्मा पर्यायथी अनित्य छे. ते बावाने थयुं के शुं आत्मा अनित्य होय? आवो (अनित्य) आत्मा न होय, ए तो नित्य होय. अविनाशी आत्मा होय ते बराबर आत्मा छे. तेथी, ‘मारे आवुं सांभळवुं नथी’ -एम कहीने ते चाल्यो गयो. पण भाई! पर्यायथी आत्मा नाशवान छे अने वस्तुथी अविनाशी छे. अने आ तो वस्तुनुं स्वरूप छे.
परंतु आ तो जैननुं छे? भाई! जैननुं एटले के वस्तुनुं आवुं स्वरूप छे. परंतु, जो वस्तुमां अनित्यपणुं न ज होय तो, कार्य तो अनित्यपणामां थाय छे? आ द्रव्य ध्रुव छे, शुद्ध छे एवुं (निर्णयरूपी) कार्य तो पर्यायमां थाय छे? प्रथम पर्यायमां साचुं मान्युं नहोतुं अने हवे तेने फेरवीने (टाळीने) साचुं मान्युं तो ते पर्यायमां मनायुं छे. अर्थात् अनित्य नित्यनो निर्णय करे छे. पण कांई नित्य नित्यनो के अनित्यनो निर्णय करतुं नथी. कारण के ए नित्य तो नित्य ज छे. (तेमां फेरफार थतो नथी.)
अहीं कहे छे के एक तरफथी जोतां पोते पोताथी क्षणभंगुर छे, क्षणे-क्षणे नाश थवावाळी चीज छे एम देखाय छे. जुओ, परने लईने आत्मा क्षणभंगुर छे एम नथी कह्युं. तेम ज परवस्तुनी-के जे क्षणभंगुर छे तेनी- पण
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अहींया वात नथी. एटले के पैसा ने शरीरादि क्षणभंगुर छे ए वात अत्यारे नथी. परंतु वस्तुनी (आत्मानी) अवस्था एक समय रहे छे ने बीजे समये तेनो नाश थाय छे तेथी क्रमवर्ती दशाथी जोतां आत्मा ज क्षणभंगुर देखाय छे एम कहेवुं छे.
अहा! पहेलां एम वात करी हती के एक तरफथी-पर्यायद्रष्टिथी जोतां आत्मामां अनेकता देखाय छे अने एक तरफथी-द्रव्यद्रष्टिथी जोतां तेमां एकता देखाय छे. -बस, एटली वात हती. ज्यारे हवे कहे छे के एक तरफथी जोतां क्षणे क्षणे नाशवानपणुं देखाय छे. पर्याय उत्पन्न थईने नाश पामे छे. तेथी ते द्रष्टिथी जोईए तो पर्यायमां- आत्मामां क्षणभंगुरता छे, आत्मानी पर्याय क्षणभंगुर छे. मतलब के पर्याय क्रमसर थाय छे ते अपेक्षाए आत्माने क्षणभंगुर कहेवामां आवे छे. अने आने पोतानो स्वाभाविक वैभव कह्यो छे.
अहा! एक-एक श्लोकमां केटलुं भरी दीधुं छे! पण जो शांतिथी पोताना आत्मा माटे थोडो स्वाध्याय करे तो खबर पडे के अहो! आवी चीज बीजे छे नहीं अने वस्तु आवी ज होय. अरे! आवा निज आत्मा तरफना विचार, मनन, मंथन करे तो तेनो शुभभाव पण बीजी जातनो होय छे. परंतु ते तो बहारमां अटकयो छे.
जुओ, पैसा आदिने लईने आत्मा अनेक छे एम नहीं. परंतु पर्यायमां अनेकपणुं छे तेथी ते अनेक छे. तथा पैसा ने शरीरादि नाशवान छे माटे आत्मा क्षणभंगुर छे एम पण नहीं. परंतु तेनी पर्याय ज नाशवान होवाथी ते क्षणभंगुर छे एम कहे छे. ल्यो, आवी चीज छे.
‘इतः सदा एव उदयात् ध्रुवम् एक तरफथी जोतां सदाय तेनो उदय होवाथी ध्रुव छे.’ जुओ, सदाय ने ध्रुव-ए बे शब्दो एक साथे कह्या छे. तो कहे छे के एक तरफथी जोतां सदाय नाम त्रणे काळ आत्मानो उदय होवाथी ध्रुव छे. एटले के ए तो छे तेवो छे-त्रणे काळ ध्रुव छे... ध्रुव छे... ध्रुव छे. अने तेथी क्षणे क्षणे नाश थवुं ए तेमां नथी. पर्याय क्षणभंगुर छे ने? तेथी तेनी सामे कहे छे के आत्मा त्रिकाळ एकरूप रहेनार छे. ल्यो, आ आत्मानो वैभव बतावाय छे.
अहाहा! एक तरफथी जोतां आत्मा सदाय एक ज प्रकारे-ध्रुवपणे रहे छे. पर्याय बदलती रहे छे पण ध्रुव बदलतुं नथी. अने आवो तेनो स्वभाव छे. अहीं तो प्रमाणज्ञाननो विषय बतावे छे ने! आत्मानुं-पोतानुं अस्तित्व केटलामां छे तेनुं ज्ञान करावे छे ने! तेथी भले पर्याय क्षणभंगुर हो-क्षणे क्षणे नाश पामती हो-तोपण ते छे तो आत्मानो वैभव एम कहे छे. अर्थात् पोतानामां पोताने लईने पर्याय छे पण परने लईने ते छे नहीं. अहा! मूळ चीजने पहोंचवा माटे तो अनेक प्रकारना पुरुषार्थनी उग्र गति जोईए.
अहीं कहे छे के भगवान आत्मा, एक तरफथी जोतां, त्रिकाळ ध्रुव-एकरूप छे. मतलब के ते छे... छे... ने छे. अने एक बाजुथी जोतां ते छे... छे... ने छे एम नहीं पण ते छे ने नाश पामे छे, छे ने नाश पामे छे. एटले के आत्मा द्रव्ये सदा ध्रुव, एकरूप ने सदृश छे. अने पर्याये क्षणभंगुर, विसदृश छे. पर्याय क्षणे क्षणे उत्पन्न थईने जाय, उत्पन्न थईने जाय छे; तेनां सृष्टि ने नाश, सृष्टि ने नाश थाय छे; तेनां जन्म ने मरण, जन्म ने मरण थाय छे. जन्म नाम उपजवुं, सृष्टि थवी, उत्पत्ति थवी. अने मरण नाम नाश थवुं. एक समयनी पर्यायनी उत्पत्ति थवी ते तेनो जन्म छे अने बीजे समये ते क्षणभंगुर पर्यायनो नाश थवो ते तेनुं मरण छे. ल्यो, आ रीते पर्यायमां जन्म-मरण छे. अर्थात् तेना उत्पत्ति ने व्यय; सृष्टि ने नाश; जन्म ने मरण तो पर्यायमां छे. अहा! आत्मतत्त्वना सहज वैभवनुं स्वरूप आवुं छे. अने तेने द्रष्टिपूर्वक ज्ञानमां बराबर लेवुं जोईए.
-आ रीते पर्यायमां (१) अनेकता ने (२) क्षणभंगुरता तथा द्रव्यमां (१) एकता ने (२) ध्रुवता छे एम वर्णव्युं. हवे (त्रीजा बोलमां) क्षेत्रथी वर्णवे छे.
‘इतः परम–विस्तृतम् एक तरफथी जोतां परम विस्तृत छे.’ एक तरफथी जोतां आत्मा एक समयमां लोकालोकने जाणे छे तेथी जाणे के तेटलो व्यापक होय एम देखाय छे. वस्तु आत्मा एक समयमां एक साथे जाणे त्रण काळ ने त्रण लोकमां व्यापी जाय छे एटले के तेनुं ज्ञान सर्वगत थई जाय छे-सर्वने जाणी ले छे तेथी जाणे के ते तेटलो विशाळ छे एम देखाय छे. आत्मा अत्यारे पण आवो छे हो. जो के अहीं तो अत्यारे साधकजीवनी वात छे. तो, साधकजीवनो पण एक समयनो ज्ञानपर्याय लोकालोकने-जेटला अनंत सिद्धो आदि छ द्रव्यो छे ते बधाने- जाणे छे. माटे, एक बाजुथी जुए-जाणे तो एम जणाय के जाणवानी अपेक्षाए आत्मानो क्षेत्रथी तेटलो विस्तार छे. कारण
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के ते बधाने जाणे छे ने!
‘इतः निजैः प्रदेशैः धृतम् एक तरफथी जोतां पोताना प्रदेशोथी ज धारण करी रखायेलो छे.’ पर्यायमां लोकालोकनुं ज्ञान धारी राख्युं छे ते अपेक्षाए तेने विस्तृत कह्यो हतो. अने हवे कहे छे के द्रव्यनी अपेक्षाए जुओ तो आत्माए मात्र पोताना क्षेत्रने धारी राख्युं छे (-पोताना क्षेत्रमां रहेलो छे) परंतु पर वस्तुने धारी नथी, पर वस्तुने पोताना प्रदेशोमां धारण करी नथी. अहा! पर्यायमां परनुं विशाळ ज्ञान छे ते अपेक्षाए आत्माने सर्वगत कहेवामां आवे छे एटले के जाणवानी अपेक्षाए ते सर्वगत छे पण परमां क्षेत्र अपेक्षाए व्यापवा तरीके के पेसी जवा तरीके ते सर्वगत छे एम नथी. कारण के आत्मा लोकालोकने जाणे छे तेथी जाणे के तेटला क्षेत्रमां व्यापेलो छे एम देखावा छतां ते पोताना प्रदेशोमां ज व्यापेलो छे.
तो अहीं कह्युं के एक बाजुथी जुओ तो आत्मा पोताना प्रदेशोमां-स्वक्षेत्रमां ज छे. पण परक्षेत्रमां छे नहीं. जो के एक तरफथी जोतां तेणे पर प्रदेशोने जाणे के पोतानी पर्यायमां धार्या होय एम देखाय छे तोपण वस्तुथी जोतां ते आत्मा स्वक्षेत्रमां-पोताना असंख्य प्रदेशोमां ज छे. पर प्रदेशोने पोतानी पर्यायमां धार्या छे तेनो अर्थ ए छे के स्वयं जाणनारुं ए पर्यायनुं ज्ञान लोकालोकना क्षेत्रमां जाणवानी अपेक्षाए व्यापक थई जाय छे.
जुओ, आ रीते पर्यायना बे बोल कह्या के (१) पर्यायमां अनेकता छे ने (२) पर्याय क्षणभंगुर छे. तथा क्षेत्रना आ रीते बे बोल कह्या के (१) ते सर्वने जाणे छे ए अपेक्षाए सर्वगत छे ने (२) छतां अनादिथी ते पोताना प्रदेशोमां ज छे. अने आवो तेनो सहज अद्भुत वैभव छे. अहा! आवी वात बीजे छे नहीं, होय ज नहीं. ल्यो, आवा अद्भुत कळशो छे! आ पहेलानो २७१मो श्लोक बहु ऊंचो हतो. तेमां कह्युं हतुं के जाणनारो पण पोते, जे जणाय ते ज्ञेय पण पोते अने जे जाणे ते ज्ञान पण पोते. बापु! आवुं छे.
अहा भाई! आ तारो वैभव छे. अने ते पण केवो छे? के पूर्वापर विरोधी जेवो लागवा छतां पण अविरोधी छे. अहा! (१) पर्यायमां अनेकपणुं देखावा छतां वस्तु तरीके ते (आत्मा) एक छे. (२) क्रमे थती पर्याय क्षणभंगुर-नाशवान देखावा छतां वस्तु तरीके ते एकरूप (ध्रुव) छे. (३) एक समयनो जाणवानो पर्याय जाणे के लोकालोकमां व्यापी गयो होय अर्थात् तेणे पोताना प्रदेशोमां जाणे के
(१) आत्मामां एकता साथे अनेकता होय छे. (एक ज समये एकता ने अनेकता होय छे.) (२) आत्मा वस्तु तरीके कायम रहीने अवस्था तरीके क्रमे-क्रमे बदले छे. (३) आत्मा एक साथे (एक ज समये) स्वक्षेत्रमां रहेलो छे एवो देखावा छतां लोकालोकने (जाणवानी अपेक्षाए)
ल्यो, आवो आत्मा छे अने आवो तेनो वैभव छे.
अन्यमां आवे छे के ‘ज्यां लगी आतमा तत्त्व चीन्यो नहीं...’ पण ए ‘आतमा तत्त्व’ एटले आवो आत्मा हो. बाकी आतमा... आतमा एम भाषा तो घणांय करे छे. अहींथी आत्मानी वात बहु नीकळी एटले हवे बीजा घणां पण आतमा... आतमा... एम भाषा लईने वातो करे छे. पण भाई! ‘आत्मा’ शब्द आव्यो एटले शुं थयुं? सर्वज्ञ परमेश्वरे आ आत्मवस्तुने आवी रीते जे जोई छे ते रीते तेनी द्रष्टिमां आवे त्यारे तेणे आत्मा जाण्यो कहेवाय छे. बाकी आतमा... आतमा... करवाथी शुं थाय? (कांई ज फायदो न थाय.)
आ कळशमां द्रव्य-पर्यायनो भेद बताव्यो छे ने! एटले कहे छे के ‘पर्यायद्रष्टिथी जोतां आत्मा अनेकरूप देखाय छे.’ केमके पर्यायो अनेक छे. पर्यायद्रष्टिथी बीजी रीते जोवानुं पछी कहेशे. अर्थात् बीजा बोलमां क्रमभावी पर्यायद्रष्टिथी जोवानुं कहेशे. ज्यारे आ पहेला बोलमां एकली पर्यायद्रष्टिथी जोवानुं कहे छे. एटले के पर्यायद्रष्टिथी जोतां अनंत गुणोनी अनंत अवस्थाओ देखाय छे. -बस, एटली वात कहे छे. तो, अहीं कह्युं के अवस्थाद्रष्टिथी जोतां आत्मा
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अनेकरूप-अनंतरूप देखाय छे.
‘अने द्रव्यद्रष्टिथी जोतां एकरूप देखाय छे.’ जुओ, द्रव्यद्रष्टिथी जोवानुं कह्युं छे. अने द्रव्यद्रष्टिनो विषय द्रव्य छे. तो, द्रव्यद्रष्टिथी-वस्तुद्रष्टिथी आत्मद्रव्य-वस्तुने जोतां ते त्रिकाळ एकरूप देखाय छे. पण तेमां अनेकता देखाती नथी.
ल्यो, आ रीते अनेकरूप पण आत्मा छे ने एकरूप पण आत्मा छे. अहा! ते समजणनो पींड छे. तेथी तेना ज्ञानमां आ बधा समजवाना प्रकारो समाय जाय छे. अर्थात् आत्मज्ञान थतां, आत्मामां आवा जे भावो छे ते बधा तेना समजणमां आवी जाय छे. अने त्यारे तेणे आत्माने जाण्यो छे एम कहेवामां आवे छे. अहा! अन्यमतमां तो भगवान... भगवान... करो, भगवाननी धून लगावो एम कहे छे. पण भाई! एवी धून लगाववाथी शुं मळे? (कांई नहीं.) केमके ए तो विकल्प छे. छतां, तेवो विकल्प हो. परंतु तेनी साथे-साथे निर्विकल्प, एक शुद्ध आत्मा छे ते तारी द्रष्टिमां छे के नहीं? (जो छे तो तुं ज्ञानी छो. नहींतर अज्ञानी छो.)
जुओ, अहीं अशुद्धता छे तेटली ज वात करवी छे हो. मतलब के अहीं तो शुद्धता ने अशुद्धता-ए बेनुं आत्मामां होवापणुं छे तेटली बस वात करवी छे. पण अशुद्धता छे माटे शुद्धता प्रगटशे एम कांई अहीं वात कहेवी नथी.
प्रश्नः– सोनगढवाळा तो व्यवहार मानता नथी? समाधानः– व्यवहार छे तेनी कोण ना पाडे छे? जो व्यवहार नथी तो पर्याय पण नथी. केमके पर्याय पोते व्यवहार छे. हा, व्यवहारथी निश्चय थाय छे एम वात नथी. (-एम मानता नथी.)
हवे पर्यायद्रष्टिथी बीजी रीते जोवानी वात करे छेः ‘क्रमभावी पर्यायद्रष्टिथी जोतां क्षणभंगुर देखाय छे.’ आ बोलमां पर्यायद्रष्टिथी आत्मा अनेकरूप देखाय छे एम नहीं पण ते क्षणभंगुर देखाय छे एम कहे छे. अर्थात् क्षणे क्षणे नाश थवुं एवो तेनो स्वभाव छे एम कहे छे.
प्रश्नः– पहेला बोलमां तो ‘पर्यायद्रष्टिथी जोतां’ -एम कही दीधुं छे. तो पछी, हवे आ वळी नवुं शुं कह्युं के ‘क्रमभावी पर्यायद्रष्टिथी जोतां’?
समाधानः– भाई! आ पर्यायद्रष्टिथी बीजी रीते जोवानी वात छे. पहेला बोलमां एम कह्युं हतुं के पर्यायद्रष्टिए अवस्थाने जोईए तो ते अनेक छे. अने हवे बीजा बोलमां एम कहे छे के क्रमे थती अवस्थाद्रष्टिए जोईए तो ते क्षणभंगुर छे.
अहा! हवे आम वात छे त्यां क्षणभंगुर एवा वाणी ने शरीरादि तो कयांय रही गया. स्त्री-पुत्रादिनो संयोग संध्याना रंग जेवो छे, घडीकमां काळां अंधारा थई जशे. अर्थात् ते बधुंय नाशवान छे एम वात आवे छे. परंतु ते वात अहींया नथी. अहींया तो पर्याय नाशवान छे एम कहे छे. पर्याय एक समयने माटे अस्तित्वपणे थईने रहे छे. ने बीजे समये ते जाय छे-नाश पामे छे. (पर्यायनुं अस्तित्व एक समयनुं छे.) अहा! सत्ने सिद्ध करवुं होय तो कोईनो आशरो लेवो पडे नहीं. केमके सत् तो सत् ज छे. तेथी तेना स्थापनमां बधुंय सीधुं सत् ज चाल्युं आवे. ज्यारे खोटुं स्थापन करवुं होय तो अनेक गरबड करवी पडे. जुओने! अहीं केटलुं स्पष्ट कह्युं छे. प्रभु! आ तो वस्तु ज आवी छे भाई!
‘सहभावी गुणद्रष्टिथी जोतां ध्रुव देखाय छे.’ जुओ, पहेला बोलमां पर्यायद्रष्टि ने द्रव्यद्रष्टि लीधी हती. अने हवे आ बीजा बोलमां पर्यायद्रष्टि ने गुणद्रष्टि ले छे. माटे, ते बे बोलमां फेर छे.
शुं कह्युं ते समजाणुं कांई? के पहेला बोलमां पर्यायद्रष्टिथी अनेकपणुं ने द्रव्यद्रष्टिथी एकपणुं देखाय छे एम कह्युं हतुं. ज्यारे हवे बीजा बोलमां पर्यायद्रष्टि लीधी छे खरी पण क्रमे क्रमे थती पर्यायद्रष्टि लीधी छे. तेम ज क्रमभावी पर्यायद्रष्टि ने अक्रमभावी (सहभावी) गुणद्रष्टिथी जोवानी वात आ बीजा बोलमां लीधी छे.
तो, कहे छे के क्रमे-क्रमे थती पर्यायद्रष्टिथी जुओ तो ते क्षणभंगुर छे अने सहभावी गुणद्रष्टिथी जुओ तो ते ध्रुव छे. जुओ, पहेला बोलमां पर्यायद्रष्टिनी सामे द्रव्यद्रष्टिनी वात हती. ज्यारे आ बीजा बोलमां पर्यायद्रष्टिनी सामे गुणद्रष्टिनी वात कही छे. केमके क्रमभावीनी सामे अक्रमभावी (सहभावी) कहेवुं छे ने! तो, अक्रमभावी गुण छे. तथा सहभावी कहेवुं छे तो अनेक पण कहेवा छे ने! तो, द्रव्य एक छे ज्यारे गुण अनंत छे. अने ते गुणो सहभावी-
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एक साथे रहे छे. (तेथी, आ बोलमां गुणद्रष्टि लीधी छे.)
अहा! बधी पर्याय एक साथे न होय. एक समये-एक साथे एक समयनी एक ज पर्याय होय छे. अने ते कारणे ते द्रष्टिथी जोतां आत्मा क्षणभंगुर छे. अने गुणो एक साथे ज सदाय होय छे. ते कारणे ते द्रष्टिथी जोतां आत्मा ध्रुव छे. अहा! सूक्ष्म तो छे भाई! केमके आ मारग ज आवो छे. ने परम सत्य ज आवुं छे. तेथी आकरुं लागे के न लागे, तेणे आ रीते जाणवुं जोईशे. संसारना दावानळथी छुटवुं होय तो तेणे आत्मानो आवो स्वभाव छे एम बराबर अंतर अनुभवथी निर्णय लेवो पडशे. (करवो पडशे.)
जुओने, व्हालामां व्हालो एकनो एक दीकरो मरी जाय तो बाप गांडो थई जाय छे. पण ए तो ए समयनो जीवनो पर्याय बदलावानो ज हतो तो बदलाय छे. ते कांई बीजाना कारणे बदलातो नथी. आ शरीरादि तो दूर रह्या परंतु आ तो जीवनी पर्याय बदलाय छे तेनी वात छे. तो कहे छे के आ भवनो पर्याय छूटी बीजा समये बीजा भवनो पर्याय थवानो ज हतो तो थयो छे. अरे! गति तरीके कया आ मनुष्यपणानी पर्याय ने कयां बीजे समये सीधो बीजो भव. अने अज्ञानीना तो ममतामां-बहिर्लक्षी द्रष्टिमां-देह छूटे छे, पर्याय बदलाय छे.
अहीं कहे छे के आ मनुष्यपणानी पर्यायनो नाश थईने बीजे समये बीजी गतिनी पर्याय उत्पन्न थाय एवो तेनी पर्यायनो क्षणभंगुर स्वभाव छे. अने सहभावी गुणद्रष्टिथी जोईए तो ते ध्रुव देखाय छे. सहभावी एटले के बधा गुणो एक साथे होय छे. ज्यारे बधी पर्यायो एक साथे न होय. हा, अनंत गुणनी वर्तमान अनंत पर्यायो एक साथे होय छे. परंतु एक गुणनी एक पर्याय साथे ते ज गुणनी बीजी पर्याय न होय.
‘ज्ञाननी अपेक्षावाळी सर्वगत द्रष्टिथी जोतां परम विस्तारने पामेलो देखाय छे.’ ज्ञाननी अपेक्षाए जुओ तो लोकालोक जाणे के ज्ञाननी पर्यायमां आवी गया होय एम देखाय छे. अर्थात् ते सर्वगत छे, बधुंय जाणे छे. अरे! अलोकनो अंत नथी छतां तेनुं ज्ञानमां भान थई जाय छे एम कहे छे. तो, कह्युं के लोकालोकनो विस्तार ज्ञाननी पर्याय जाणी जाय छे तेथी जाणे के आत्मा तेटलो विस्तृत छे एम देखाय छे. अने आवो ज आत्मानो अद्भुत वैभव छे.
‘प्रदेशोनी अपेक्षावाळी द्रष्टिथी जोतां पोताना प्रदेशोमां ज व्यापेलो देखाय छे’ आत्मा तेम ज तेनी ज्ञानपर्याय पोताना असंख्य प्रदेशोमां ज छे. ते कांई बीजाना प्रदेशोमां के बीजानी पर्यायपणे थईने रह्या नथी.
जुओ, हवे बधानो सरवाळो ले छे के ‘आवो द्रव्यपर्यायात्मक अनंतधर्मवाळो वस्तुनो स्वभाव छे.’ संप्रदायना अमारा गुरुभाई जैनना बेरिस्टर कहेवाता. छतां ते एवुं कहेता के धर्मास्तिकायमां बे ज गुण होय- अरूपी ने गतिहेतुत्व. त्रीजो कोई गुण होय तो लावो, बतावो. माटे तेमां अनंत गुण केवा? पण भाई! बीजां गुणो न कह्या होय तोपण ते द्रव्य छे तो तेमां अनंत गुण होय ज. अने तेथी तो अहींया कहे छे के द्रव्यपर्यायात्मक अनंतधर्मवाळो वस्तुनो स्वभाव छे. द्रव्य एटले वस्तु, पर्याय एटले अवस्था ने आत्मक एटले स्वरूप.
हवे अज्ञानी ने ज्ञानीनी वात करे छेः ‘ते (स्वभाव) अज्ञानीओना ज्ञानमां आश्चर्य उपजावे छे के आ तो असंभवित जेवी वात छे!’ अज्ञानीओना ज्ञानमां आश्चर्य उपजे छे के आ शुं कहे छे?
(१) तेनी ते वस्तु अनेक ने तेनी ते वस्तु एक; (२) तेनी ते वस्तु क्षणभंगुर ने तेनी ते वस्तु ध्रुव; (३) तेनी ते वस्तु सर्वव्यापक ने तेनी ते वस्तु स्वक्षेत्रमां रहे. -आ शुं कहे छे? आ तो असंभवित जेवी वात लागे छे. आवुं संभवे नहीं, अमने कांई आ वात बेसती नथी- एम अज्ञानीओना ज्ञानमां आश्चर्य उपजे छे. पण भाई! तने खबर नथी बापु! के वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे. अने ते ज योग्य छे.
आ रीते अज्ञानीने एकलुं आश्चर्य थाय छे ज्यारे ‘ज्ञानीओने जोके वस्तुस्वभावमां आश्चर्य नथी’ केमके वस्तुनो स्वभाव ज एवो छे. ‘तोपण तेमने पूर्वे कदी नहोतो थयो एवो अद्भुत परम आनंद थाय छे, अने तेथी आश्चर्य पण थाय छे.’ ज्ञानीने आश्चर्य थाय छे के अहो! आ केवी अद्भुत वस्तु छे.