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अहा! आत्मा (१) पर्याय अपेक्षाए अनेक छे ने द्रव्य अपेक्षाए एक छे. (२) पर्याय अपेक्षाए नाशवान छे ने द्रव्य अपेक्षाए नाशवान नहीं पण ध्रुव छे. (३) ज्ञान (जाणवानी) अपेक्षाए तेनो विस्तार जोईए तो जाणे के लोकालोकने गळी गयो होय तेटलो छे. अने बीजी तरफथी क्षेत्र अपेक्षाए जोतां ते पोताना असंख्य प्रदेशोमां ज समायेल छे. -आवो ज वस्तुनो स्वभाव छे तेथी ज्ञानीने आश्चर्य थतुं नथी. अने तोपण तेमने पूर्वे कदी नहोतो थयो एवो अद्भुत परम आनंद थाय छे अर्थात् आवा वस्तुस्वभावने ज्यां जोवा ने तेमां ठरवा जाय छे त्यां तेमने अद्भुत आनंद थाय छे. अने तेथी आश्चर्य पण थाय छे. एटले के ते अद्भुत आनंदने लईने ज्ञानीने आश्चर्य पण थाय छे एम कहे छे.
अहा! अज्ञानीने आवो ते वस्तुस्वभाव होय? -एम आश्चर्य थाय छे. ज्यारे ज्ञानीने आ आनंद कयांथी आव्यो? -एम आश्चर्य ने आनंद-बन्ने थाय छे. अहा! पर्यायमां एकलुं दुःख ने एकली आकुळता हती. कयांय (पर्यायमां) गंधमात्र पण आनंद नहोतो. तेमां आ आनंद कयांथी-कई खाणमांथी-आव्यो? ध्रुवनी खाणमांथी ते आनंद आव्यो छे. आ रीते तेने आनंद पण थाय छे ने आश्चर्य पण थाय छे.
फरी आ ज अर्थनुं काव्य कहे छेः–
भवोपहतिरेकतः स्पृशति मुक्तिरप्येकतः।
जगत्त्रितयमेकतः स्फुरति चिच्चकास्त्येकतः
श्लोकार्थः– [एकतःकषाय–कलिः स्खलति] एक तरफथी जोतां कषायोनो कलेश देखाय छे अने [एकतःशान्तिः अस्ति] एक तरफथी जोतां शान्ति (कषायोना अभावरूप शांत भाव) छे; [एकतः भव– उपहतिः] एक तरफथी जोतां भवनी (–संसार संबंधी) पीडा देखाय छे अने [एकतः मुक्तिः अपि स्पृशति] एक तरफथी जोतां (संसारना अभावरूपी) मुक्ति पण स्पर्शे छे; [एकतः त्रितयम् जगत् स्फुरति] एक तरफथी जोतां त्रण लोक स्फुरायमान छे (–प्रकाशे छे, देखाय छे) अने [एकतः चित् चकास्ति] एक तरफथी जोतां केवळ एक चैतन्य ज शोभे छे. [ आत्मनः अद्भुतात् अद्भुतः स्वभाव–महिमा विजयते] (आवो) आत्मानो अद्भुतथी पण अद्भुत स्वभावमहिमा जयवंत वर्ते छे (–कोइथी बाधित थतो नथी).
भावार्थः– अहीं पण २७३ मा काव्यना भावार्थ प्रमाणे जाणवुं. आत्मानो अनेकांतमय स्वभाव सांभळीने अन्यवादीने भारे आश्चर्य थाय छे. तेने आ वातमां विरुद्धता भासे छे. ते आवा अनेकांतमय स्वभावनी वातने पोताना चित्तमां समावी–जीरवी शकतो नथी. जो कदाचित् तेने श्रद्धा थाय तोपण प्रथम अवस्थामां तेने बहु अद्भुतता लागे छे के ‘ अहो आ जिनवचनो महा उपकारी छे, वस्तुना यथार्थ स्वरूपने जणावनारां छे; में अनादि काळ आवा यथार्थ स्वरूपना ज्ञान विना खोयो!’–आम आश्चर्यपूर्वक श्रद्धान करे छे. २७४.
अहा!जुओ, आ आत्मा एक वस्तु छे. तो साधकपणामां एना द्रव्य-पर्यायनुं वास्तविक स्वरूप धर्मीने केवुं भासे
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छे तेनी वात करे छेः
‘एकतः कषाय–कलिः स्खलति’ एक तरफथी जोतां कषायोनो क्लेश देखाय छे अने ‘एकतः शान्तिः अस्ति’ एक तरफथी जोतां शांति (कषायोना अभावरूप शांत भाव) छे;...
जुओ, पर्यायमां रागादि छे ते कषायोनी भडभडती भठ्ठी छे, क्लेश छे. जो रागादि न होय तो परम अनाकुळ सिद्ध दशा होय. पण पर्यायने जोतां कषायोनी आकुळता ने क्लेश देखाय छे; अने एक तरफथी अर्थात् द्रव्यनी द्रष्टिथी जोतां शांति-कषायोना अभावस्वरूप शांतभाव छे. निज अकषाय स्वभावनी द्रष्टिथी जोतां शांतिनो पिंड प्रभु आत्मा छे एम देखाय छे, तेने देखनारी द्रष्टि पण कषायना अभावरूप शांतभावमय छे. आवुं अद्भुत स्वरूप छे. हवे कहे छे-
‘एकतः भव–उपहतिः’ एक तरफथी जोतां भवनी (-संसार संबंधी) पीडा देखाय छे अने ‘एकतः मुक्तिः अपि स्पृशति’ एक तरफथी जोतां (संसारना अभावरूप) मुक्ति पण स्पर्शे छे;...
जोयुं? पर्यायमां नर-नारकादि गति छे, ते संबंधीना रागथी जीव हणाय छे, पीडाय छे. आम पर्यायथी जुओ तो नर-नारकादि गति संबंधी पीडा देखाय छे, अने एक तरफथी अर्थात् द्रव्यना स्वभावथी जुओ तो द्रव्य तो भवना अभावस्वरूप मुक्त छे एम देखाय छे. कोई कळशमां आवे छे के पर्यायनुं लक्ष छोडी दे तो वस्तु मुक्त ज छे. अहीं ‘मुक्तिने स्पर्शे छे’ एम कह्युं छे ने? मतलब वस्तु जे मुक्तस्वभावी छे तेनो आश्रय लेतां आ मुक्त हुं छुं एम पर्यायमां भासे छे, ल्यो, आवो महा अद्भुत आत्मानो स्वभाव छे.
अहा! आ शरीर उपरथी देखो तो जाणे सुंवाळुं चामडुं होय एवुं देखाय छे. एने ज अंदरना भागथी देखो तो जुदा ज प्रकारे चामडुं देखाय छे. एनी नीचे जुदां जुदां अंगनां हाडकां देखाय छे, अने एमां भरेलो मळ-एने देखो तो जाणे गारो भर्यो होय. आ चारेने जुदा पाडी एक तपेलामां भरी देखो तो लागे के-अररर! आवुं शरीर! देखीने चक्कर आवे, ने उलटी थाय. भाई, आवो आ देह-तेनी स्थिति, संतो कहे छे, दोडती मरण सन्मुख थई रही छे. भाई, जोतजोतामां एनी स्थिति पूरी थई जशे, अने तुं कयांय हाल्यो जईश. आ शरीर ने तारे शुं छे? कांई ज संबंध नथी, ए तो बहारनी चीज छे; एने जोवानुं छोडी दे, ने तारा अस्तित्वमां शुं छे ते जो.
अहा! साधकदशामां धर्मीने एक बाजु भव देखाय छे तो बीजी बाजु मुक्ति देखाय छे. एक बाजु गति देखाय छे तो बीजी बाजु गति विनानो स्वभाव देखाय छे. आवी साधकदशा छे. मुक्तनी-सिद्धनी आ वात नथी.
जुओ, जैनदर्शननुं तत्त्व कहो के वस्तुनुं तत्त्व कहो, ते आवुं अनेकान्तमय छे. भाई, जरा शांति ने धीरजथी विचारे तो समजाय एवुं छे.
वळी कहे छे-‘एकतः त्रितयम् जगत् स्फुरति’ एक तरफथी जोतां त्रण लोक स्फुरायमान छे (-प्रकाशे छे, देखाय छे) अने ‘एकतः चित् चकास्ति’ एक तरफथी जोतां केवळ एक चैतन्य ज शोभे छे.
अहाहा...! जोयुं? कहे छे-एक तरफथी अर्थात् पोतानी ज्ञाननी दशामां भिन्न त्रणकाळ-त्रणलोक-आखुं विश्व जणाय छे, अने एक तरफथी जोतां, अंतर्मुख जोतां केवळ एक चैतन्य ज प्रकाशे छे. पर्यायमां त्रिकाळी द्रव्यने जोतां एक चैतन्य ज एना अस्तित्वमां भासे छे; अहाहा...! चित्... चित्... चित्... चित्चमत्कार ज केवळ भासे छे, जगतनुं अनंतपणुं भासे छे एम नहि. अहाहा...! जाणनारना ज्ञानमां, अर्थात् साधकना ज्ञानमां आम बे प्रकारे तत्त्व भासे छे.
अहा! अहीं एम नथी लीधुं के एक बाजु जुओ तो कर्म, शरीर, बायडी-छोकरां ने महेल-हजीरा देखाय छे अने बीजी बाजु आत्मा देखाय छे; केमके ए कोई तो एना अस्तित्वमां ज नथी. अहीं तो स्वभावथी पूर्ण भरपुर एवी पोतानी वस्तुनुं भान थयुं त्यां साधकने-धर्मीने एक बाजु वर्तमान भव पीडाकारी भासे छे, अने बीजी बाजु भव रहित पोतानो भगवान भासे छे. आवुं ज्ञानमां भासतां एने निश्चय थाय छे के हवे भव अने भवनो भाव रहेशे नहि. अहा! में दया पाळी, ने व्रत पाळ्यां, ने दान दीधां एम धर्मी न माने. वर्तमान अल्प राग होय ते धर्मीने पररूप भासे, ने क्लेशरूप भासे. एमां स्वामित्व न भासे. आवो मार्ग छे.
‘आत्मनः अद्भुतात् अद्भुतः स्वभाव–महिमा विजयते’ (आवो) आत्मानो अद्भुतथी पण अद्भुत स्वभाव-महिमा जयवंत वर्ते छे. (-कोईथी बाधित थतो नथी).
अहाहा...! एक समयनी कलुषितता-बाधकभाव पोताथी छे, कोई अन्यथी बाधित थतो नथी, ने एक समयनी
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शुद्धता-साधकभाव तेय पोताथी छे, असहाय छे, कोईथी बाधित थतो नथी. ल्यो, आवो गंभीर ने अद्भुतमां अद्भुत निज स्वभाव-महिमा छे, निज वैभव छे. अहीं प्रमाणज्ञान करावीने पांचे भावने (चार पर्यायरूप ने एक पारिणामिक-भावने) जीव तत्त्व कह्युं छे.
भाई, तुं आत्मतत्त्व छो; तारुं होवापणुं तारामां ताराथी छे. क्षणिकपणे परिणमवुं, रागादिपणे परिणमवुं- तारुं तारामां छे, बीजामां नथी, बीजाथी नथी, ने बीजा तारामां नथी. आवी तारा अस्तित्वनी परम अद्भुत अलौकिक वात छे. समजाणुं कांई...?
‘अहीं पण २७३ मा काव्यना भावार्थ प्रमाणे जाणवुं’. मतलब के ज्ञानी अनेक धर्ममय आत्मवस्तुने स्याद्वादना बळ वडे जाणीने, भ्रमित थतो नथी, मार्गथी च्युत थतो नथी.
‘आत्मानो अनेकान्तमय स्वभाव सांभळीने अन्यवादीने भारे आश्चर्य थाय छे. तेने आ वातमां विरुद्धता भासे छे. ते आवा अनेकान्तमय स्वभावनी वातने पोताना चित्तमां समावी-जीरवी शकतो नथी.’
भाई, वस्तु तो जेम छे तेम छे. यथार्थ माने नहि त्यारे पण ए तो एम ज छे, अने यथार्थ माने तो? तो पर्यायमां-अवस्थामां फेर पडे. वस्तु तो एम ने एम छे, तेने यथार्थ मानतां धर्म प्रगट थाय छे, ने क्रमशः भवनो नाश थाय छे. वेदांत पर्यायने मानतुं नथी. पण पहेलां वस्तु समज्यो नहि, पछी कारण पामीने समज्यो, तो समज्यो ए ज एनी पर्याय सिद्ध थई गई.
परंतु अज्ञानी अन्यवादी आ वातथी भडके छे. तेने आमां विरुद्धता भासे छे तेथी ते वातने पचावी शकतो नथी, पोताना चित्तमां जीरवी शकतो नथी. तेने एम थाय के आवुं परस्पर विरुद्ध ते केम होय? हवे कहे छे-
‘जो कदाचित् तेने श्रद्धा थाय तोपण प्रथम अवस्थामां तेने बहु अद्भुतता लागे छे के-“अहो आ जिनवचनो महा उपकारी छे, वस्तुना यथार्थ स्वरूपने जणावनारां छे; में अनादि काळ आवा यथार्थ स्वरूपना ज्ञान विना खोयो!”- आम आश्चर्यपूर्वक श्रद्धान करे छे.’
अहाहा...! जिज्ञासुने प्रथम प्रथम भारे अद्भुतता लागे छे के-अहो! आवुं स्वरूप! आवो मार्ग तो सर्वज्ञ वीतरागना शासनमां ज होय, बीजे कयांय न होय. जिज्ञासुने आ वात भारे गजबनी लागे छे. तेने अपूर्व महिमा जागे छे के-अहो! जिनवचनो महा उपकारी छे, वस्तुस्थितिने यथार्थ बतावे छे. अरेरे! वस्तुने जाण्या विना में अनंत काळ खोयो!-आम ते आश्चर्यपूर्वक श्रद्धान करे छे.
हवे टीकाकार आचार्यदेव अंतमंगळने अर्थे आ चित्चमत्कारने ज सर्वोत्कृष्ट कहे छेः–
स्खलदखिलविकल्पोऽप्येक एव स्वरूपः।
स्वरसविसरपूर्णाच्छिन्नतत्त्वोपलम्भः
प्रसभनियमितार्चिश्चिच्चमत्कार एषः।। २७५ ।।
श्लोकार्थः– [सहज–तेजःपुञ्ज–मज्जत्–त्रिलोकी–स्खलत्–अखिल–विकल्पः अपि एकः एव स्वरूपः] सहज
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(–पोताना स्वभावरूप) तेजःपुंजमां त्रण लोकना पदार्थो मग्न थता होवाथी जेमां अनेक भेदो थता देखाय छे तोपण जेनुं एक ज स्वरूप छे (अर्थात् केवळज्ञानमां सर्व पदार्थो झळक्ता होवाथी जे अनेक ज्ञेयाकाररूप देखाय छे तोपण चैतन्यरूप ज्ञानाकारनी द्रष्टिमां जे एकस्वरूप ज छे), [स्व–रस–विसर–पूर्ण–अच्छिन्न–तत्त्व–उपलम्भः] जेमां निज रसना फेलावथी पूर्ण अछिन्न तत्त्व–उपलब्धि छे (अर्थात् प्रतिपक्षी कर्मनो अभाव थयो होवाथी जेमां स्वरूप–अनुभवननो अभाव थतो नथी) अने [प्रसभ–नियमित–अर्चिः] अत्यंत नियमित जेनी ज्योत छे (अर्थात् अनंत वीर्यथी जे निष्कंप रहे छे) [एषः चित्–चमत्कारः जयति] एवो आ (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) चैतन्यचमत्कार जयवंत वर्ते छे (–कोईथी बाधित न करी शकाय एम सर्वोत्कृष्टपणे वर्ते छे).
(अहीं ‘चैतन्यचमत्कार जयवंत वर्ते छे’ एम कहेवामां जे चैतन्यचमत्कारनुं सर्वोत्कृष्टपणे वर्तवुं बताव्युं, ते ज मंगळ छे.) २७प.
‘सहज–तेजः पुञ्ज–मज्जत्–त्रिलोकी–स्खलत्–अखिल–विकल्पः अपि एकः एव स्वरूपः’ सहज (- पोताना स्वभावरूप) तेजः पुंजमां त्रण लोकना पदार्थो मग्न थता होवाथी जेमां अनेक भेदो थता देखाय छे तोपण जेनुं एक ज स्वरूप छे (अर्थात् केवळज्ञानमां सर्व पदार्थो झळकता होवाथी जे अनेक ज्ञेयाकाररूप देखाय छे तोपण चैतन्यरूप ज्ञानाकारनी द्रष्टिमां जे एकस्वरूप ज छे),...
जुओ, शुं कहे छे? के पोताना ज्ञानना तेजमां त्रण लोकना पदार्थो मग्न थता होवाथी, अर्थात् त्रण लोकना पदार्थो ज्ञानमां जणाता होवाथी, जाणे के त्रण लोकना पदार्थो अहीं ज्ञानमां पेसी गया होय एम ज्ञानमां अनेक भेदो थता देखाय छे तोपण, कहे छे, ज्ञाननुं एक ज स्वरूप छे. अहा! केवळज्ञानमां सर्व पदार्थो झळकता होवाथी अनेक ज्ञेयाकाररूपे ते देखाय छे, अर्थात् लोकालोकने जाणतां ज्ञान ज्ञेयाकार थतुं देखाय छे तोपण खरेखर ज्ञान ज्ञानाकार ज छे, ज्ञेयाकाररूपे थयुं नथी. अनेकने जाणतां पण ज्ञान एकरूप (ज्ञानरूप ज) रहे छे. लोकालोकने जाणनारी ज्ञाननी दशा पोतानी ज छे, तेमां परज्ञेयोनो प्रवेश नथी. अहा! ज्ञान अनेकने जाणवा छतां अनेकरूप थतुं नथी, एकरूप ज रहे छे.
हवे विशेष कहे छे-‘स्व–रस–विसर–पूर्ण–अच्छिन्न–तत्त्व–उपलम्भः’ जेमां निज रसना फेलावथी पूर्ण अछिन्न तत्त्व-उपलब्धि छे (अर्थात् प्रतिपक्षी कर्मनो अभाव थयो होवाथी जेमां स्वरूप-अनुभवननो अभाव थतो नथी) अने...
अहाहा...! शुद्ध आत्मानी पूर्ण अनुभव दशा, पूर्ण उपलब्धि थई ते थई, हवे तेनो अभाव नहि थाय. प्रवचनसार गाथा १७२नी टीकाना नवमा बोलमां आवे छे के-‘उपयोगनुं कोईथी हरण थतुं नथी,’ एटले के एक वार शुद्धात्माना आश्रये जे उपयोग प्रगट थयो तेनो कोईथी नाश थतो नथी. द्रव्यस्वभावनो नाश थाय तो तेना आश्रये प्रगट थयेला उपयोगनो नाश थाय. (पण एम थतुं नथी, थवुं संभवित नथी). वस्तुस्थिति आवी छे.
अहाहा...! भगवान आत्मा एक ज्ञायकस्वभाव प्रभु-तेन द्रष्टि ने रमणतानी पूर्णता थईते फरीने हवे नीचे पडे ने साधकदशा थाय वा विपरीतता थाय एम बनतुं नथी. एक वार साधकमांथी सिद्धपदनी प्राप्ति थाय ते हवे सिद्धपदमांथी साधक थाय के पर्यायमां विपरीतता थाय एम बनतुं नथी. सिद्धपद प्राप्त थयुं तेने छेदाय नहि तेवी तत्त्वोपलब्धि थई. तत्त्वनी उपलब्धि एटले शुं? तत्त्व तो तत्त्वरूप छे ज, परंतु जेवुं तत्त्व छे एवी तेनी पूर्ण दशा थाय एटले तत्त्वनी उपलब्धि थई कहेवाय. समजाणुं कांई...?
अने ‘पसभ–नियमित–अर्चिः’ अत्यंत नियमित जेनी ज्योति छे (अर्थात् अनंत वीर्यथी जे निष्कंप रहे छे) ‘एषः चित्चमत्कारः जयति’ एवो आ (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) चैतन्यचमत्कार जयवंत वर्ते छे. (-कोईथी बाधित न करी शकाय एम सर्वोत्कृष्टपणे वर्ते छे.)
अहाहा...! केवळज्ञान ज्योति जे प्रगट थई ते, कहे छे, अनंत वीर्यथी सदा निष्कंप एकरूप रहे छे. जुओ, अहीं अनंत वीर्य लीधुं. अहाहा...! अनंत वीर्य वडे आ केवळज्ञान ज्योति, बीजे समये, त्रीजे समये एवी ने एवी प्रगट
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थती रहे छे. पहेलां अछिन्न तत्त्व-उपलब्धि कही, अने अहीं नियमित निष्कंप ज्योति कहीने ज्ञाननी धारा पूर्ण थई गयानुं कहे छे.
अहा! आवो आ प्रत्यक्ष अनुभवगोचर चैतन्यचमत्कार जयवंत वर्ते छे; कोईथी बाधित न थाय एवो सर्वोत्कृष्टपणे वर्ते छे. जुओ आ मांगळिकमां मांगळिक! आवी चित्चमत्कार सर्वोत्कृष्ट वस्तुने छोडीने दया पाळवी, व्रत करवां ने भक्ति-पूजा करवां-इत्यादि शुभभाव करवां ए तो बधो राग छे बापु! एमां कांई नथी, ए कांई धर्म नथी. अहीं तो केवळज्ञान आदि अनंत चतुष्टय एवुं जे पूर्ण स्वरूप-के जे सदा निष्कंप ने सर्वोत्कृष्ट जयवंत वर्ते छे ते मांगळिक छे.
अहा! जेमां केवळज्ञान आदि सदा निष्कंप वर्ते एवो चैतन्यचमत्कार प्रभु तुं छो; तेने छोडीने तारे केवो चमत्कार जोईए? बहारनी लब्धिमां तो धूळेय नथी, बार अंगनी लब्धिने पण (कळश टीकामां) विकल्प कह्यो छे. वास्तविक चमत्कार तो परमानंदनी-पूर्णानंदनी पर्यायमां प्राप्ति थवी ते ज छे.
‘(अहीं चैतन्यचमत्कार जयवंत वर्ते छे एम कहेवामां जे चैतन्यचमत्कारनुं सर्वोत्कृष्टपणे वर्तवुं बताव्युं, ते ज मंगळ छे.)’
अहाहा...! ‘सादि अनंत अनंत समाधि सुखमां’ पोताना चैतन्यनुं रहेवुं एवुं जे सिद्धपद ते जयवंत वर्तो एम कहे छे. समजाणुं कांई...?
हवेना काव्यमां टीकाकार आचार्यदेव पूर्वोकत आत्माने आशीर्वाद आपे छे अने साथे साथे पोतानुं नाम पण प्रगट करे छेः–
न्यनवरतनिमग्नं
ज्ज्वलतु विमलपूर्ण निःसपत्नस्वभावम्।। २७६ ।।
श्लोकार्थः– [अविचलित–चिदात्मनि आत्मनि आत्मानम् आत्मना अनवरत–निमग्नं धारयत्] जे अचळ– चेतनास्वरूप आत्मामां आत्माने पोताथी ज अनवरतपणे (–निरंतर) निमग्न राखे छे (अर्थात् प्राप्त करेला स्वभावने कदी छोडती नथी), [ध्वस्त–मोहम्] जेणे मोहनो (अज्ञान–अंधकारनो) नाश कर्यो छे, [निःसपत्नस्वभावम्] जेनो स्वभाव निःसपत्न (अर्थात् प्रतिपक्षी कर्मो विनानो) छे, [विमल–पूर्ण] जे निर्मळ छे अने जे पूर्ण छे एवी [एतत् उदितम् अमृतचन्द्र–ज्योतिः] आ उदय पामेली अमृतचंद्रज्योति (–अमृतमय चंद्रमा समान ज्योति, ज्ञान, आत्मा) [समन्तात् ज्वलतु] सर्व तरफथी जाज्वल्यमान रहो.
भावार्थः– जेनुं मरण नथी तथा जेनाथी अन्यनुं मरण नथी ते अमृत छे; वळी जे अत्यंत स्वादिष्ट (– मीठुं) होय तेने लोको रूढिथी अमृत कहे छे. अहीं ज्ञानने–आत्माने–अमृतचंद्रज्योति (अर्थात् अमृतमय चंद्रमा समान ज्योति) कहेल छे, ते लुप्तोपमा अलंकारथी कह्युं जाणवुं; कारण के ‘अमृतचन्द्रवत् ज्योतिः’नो समास करतां ‘वत्’ नो लोप थई ‘अमृतचन्द्रज्योतिः’ थाय छे.
(‘वत्’ शब्द न मूक्तां अमृतचंद्ररूप ज्योति एवो अर्थ करीए तो भेदरूपक अलंकार थाय छे. ‘अमृतचंद्रज्योति’ एवुं ज आत्मानुं नाम कहीए तो अभेदरूपक अलंकार थाय छे.)
आत्माने अमृतमय चंद्रमा समान कह्यो होवा छतां, अहीं कहेलां विशेषणो वडे आत्माने चंद्रमा साथे व्यतिरेक पण छे; कारण के––‘ध्वस्तमोह’ विशेषण अज्ञान–अंधकारनुं दूर थवुं जणावे छे, ‘विमलपूर्ण’ विशेषण लांछनरहितपणुं तथा पूर्णपणुं बतावे छे, ‘निःसपत्नस्वभाव’ विशेषण राहुबिंबथी तथा वादळां आदिथी
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आच्छादित न थवानुं जणावे छे, ‘समंतात् ज्वलतु’ कह्युं छे ते सर्व क्षेत्र तथा सर्व काळे प्रकाश करवानुं जणावे छे; चंद्रमा आवो नथी.
आ काव्यमां टीकाकार आचार्यदेवे ‘अमृतचंद्र’ एवुं पोतानुं नाम पण जणाव्युं छे. समास पलटीने अर्थ करतां ‘अमृतचंद्र’ना अने ‘अमृतचंद्रज्योति’ना अनेक अर्थो थाय छे ते यथासंभव जाणवा. २७६.
अहाहा...! अंतिम मंगळ करतां आत्मा आत्माने आशीर्वाद आपे छे. आत्माने आत्मा सिवाय बीजुं कोण आशीर्वाद आपे? अने बीजुं कोण स्वीकारे? कहे छे-
‘अविचलित–चिदात्मनि आत्मनि आत्मानम् आत्मना अनवरत–निमग्नं धारयत्’ जे अचळ-चेतनास्वरूप आत्मामां आत्माने पोताथी ज अनवरतपणे (-निरंतर) निमग्न राखे छे,
अहाहा...! अचळ नाम कदी चळे नहि एवो चेतनास्वरूप भगवान आत्मा छे. सम्यग्द्रष्टिने पोतानो भगवान अचळ चेतनास्वरूप भासे छे. अहाहा...! आवो पोते, कहे छे, पोताने पोतामां पोताथी ज निमग्न राखे छे. जोयुं? भगवान आत्मा शुद्ध चेतनास्वरूप प्रभु व्यवहाररत्नत्रयना रागनी के निमित्तनी अपेक्षा विना ज पोते पोताथी पोताने पोतामां निमग्न राखे छे. अहाहा...! दया, दान, व्रतादिना परिणाम कर्म चेतना छे, अने सुख-दुःखनुं वेदन कर्मफळ चेतना छे. ए बन्नेथी रहितपणे, अहीं कहे छे, पोते ज पोताने पोताथी पोतामां अंतर्निमग्न राखे छे. आवी वात!
प्रवचनसार गाथा १७२ना अलिंगग्रहणना छट्ठा बोलमां आवे छे के-आत्मा पोताना स्वभावथी जाणे एवो प्रत्यक्ष ज्ञाता छे. अहाहा...! आत्मा स्वभावथी ज निरंतर अंतर्मग्न रहे छे. ल्यो, आवो अनुभव धर्मीने-सम्यग्द्रष्टिने थाय छे. अज्ञानीने तो बिचाराने स्वरूपनी ज खबर नथी; ए तो क्रियाकांडमां मग्न रहे छे पण एथी कांई ज लाभ नथी; क्रियाकांडथी-व्यवहारथी अंतर्मग्नता थाय एम छे नहि. भाई, नियमसार गाथा ३मां कह्युं छे के-भगवान आत्मानी द्रष्टि, तेनुं ज्ञान-स्वसंवेदन ज्ञान, अने तेमां लीनता-रमणता-तेरूप जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ते ज कर्तव्य छे, बीजुं नहि. व्यवहारना विकल्प उठे छे, पण ते कर्तव्य छे एम नहि. अहाहा...! अलौकिक असाधारण एवा सम्यग्दर्शन आदि ज कर्तव्य छे.
जुओ, अहीं अंतिम मंगळमां आचार्य अमृतचंद्रदेव आत्माने आशीर्वाद देतां कहे छे-पोते पोताने पोताथी ज अंतर्मग्न राखे छे. व्यवहार रत्नत्रय तो कहेवामात्र छे, एनाथी आत्मा आत्मामां मग्न थाय छे एम छे ज नहि. भाई, विकल्पथी निर्विकल्प केवी रीते लक्षमां आवे? विकल्प तो परलक्षे थाय छे. हवे परलक्षवाळी दशाथी स्वलक्षवाळी दशा केवी रीते थाय? न थाय.
प्रथम मांगलिकमां ‘नमः समयसाराय’-कळशमां जेम अस्तिथी वात करी छे तेम अहीं अस्तिथी वात करे छे. त्यां ‘नमः समयसाराय’ कहीने समयसार नाम चित्स्वभावी नित्यानंद प्रभुने हुं नमुं छुं-एम कह्युं. ‘स्वानुभूत्या चकासते’ जे पोते पोतानी स्वानुभूतिनी दशाथी प्रकाशित थाय छे एम पर्यायनी वात करी. ‘चित्स्वभावाय’ कहीने गुण कह्यो, ‘भावाय’ कहीने द्रव्य कह्युं तथा ‘सर्वभावान्तरच्छिदे’ कहीने सर्वज्ञता सिद्ध करी. आम पहेला कळशमां बधुं अस्तिथी लीधुं छे. तेम आ कळशमां बधुं अस्तिथी लीधुं छे. अहीं आ कळशमां ‘आत्मा’ ते द्रव्य, ‘अचळ चेतना’ ते गुण, ने ‘आत्मामां मग्न’ ते पर्याय लीधी. आम अस्तिथी कह्युं तेमां नास्तिनुं ज्ञान आवी जाय छे. शास्त्रमां मांगळिक त्रण प्रकारे आवे छे-शरुमां, वचमां ने अंतमां. कळश १२२ मां वचमांनुं मांगळिक आवी गयुं छे. त्यां कह्युं छे-शुद्धनय त्यागवा योग्य नथी, कारण के तेना अत्यागथी कर्मबंध थतो नथी, अने तेना त्यागथी बंध ज थाय छे; अर्थात् शुद्धनयथी मोक्ष छे-आ शास्त्रनो निचोड छे. ल्यो, आवी अपूर्व वात छे. अहो! दिगंबर संतोनी वाणी तो केवळीनी वाणी छे; जेना चित्तमां चोंटी ए तो न्याल थई गया. अहा! आ न्याल थवानो काळ छे भाई! निर्विकल्प अनुभूतिमां आत्मा प्राप्त थयो ते अनवरतपणे पोताने प्राप्तिमय ज राखे छे, कदी छूटतो नथी.
वळी, ‘ध्वस्त–मोहम्’ जेणे मोहनो (अज्ञान-अंधकारनो) नाश कर्यो छे, जुओ, आ व्यवहारनयथी वात छे. पोताना
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शुद्ध चैतन्यस्वभावना आश्रये परिणत थतां मोहनी उत्पत्ति थई नहि तो मोहनो नाश कर्यो एम व्यवहारथी कह्युं छे. पोतानी अनंतज्ञान आदि लक्ष्मी प्रगट थई त्यां परनी सावधानीनो भाव ज नथी, परनी सावधानी रही ज नथी एटले मोहनो नाश कर्यो एम कह्युं छे. अहाहा! चैतन्यना आश्रये चैतन्यनो निर्मळ-शुद्ध उपयोग जे प्रगट थयो ते निर्मळ निर्विकार छे तो कहे छे के-मोहनो नाश कर्यो छे. समजाय छे कांई...?
वळी, ‘निःसपत्न–स्वभावम्’ जेनो स्वभाव निःसपत्न (अर्थात् प्रतिपक्षी कर्मो विनानो) छे, अहाहा... जोयुं? भगवान आत्मानो स्वभाव कर्मोथी भिन्न छे, विरुद्ध छे. ज्ञान, आनंद इत्यादि स्वभाव जयां पूर्ण प्रगट थई गयो त्यां कर्म नडे एम छे नहि.
वळी, ‘विमल–पूर्ण’ जे निर्मळ छे अने जे पूर्ण छे. अहाहा...! जेवो भगवान आत्मा द्रव्य-गुणथी निर्मळ छे, पूर्ण छे तेवो ते स्व-आश्रये पर्यायमां निर्मळ, पूर्ण प्रगट थयो छे; अर्थात् द्रव्यना आश्रयमां पर्याय निर्मळ, ने पूर्ण प्रगट थई गई. आ साध्यरूप सिद्धदशा छे.
अहाहा...! कहे छे-एवी ‘एतत् उदितम् अमृतचन्द्र–ज्योतिः’ आ उदय पामेली अमृतचंद्रज्योति (- अमृतमय चंद्रमा समान ज्योति, ज्ञान, आत्मा) ‘समन्तात् ज्वलतु’ सर्व तरफथी जाज्वल्यमान रहो.
अहाहा...! अमृतस्वरूप आत्मा नित्यानंद प्रभु-तेना आश्रये प्रगट थयेली अमृतमय, चंद्रमा समान ज्योति अथवा अमृत समान ज्ञान, अथवा अमृतचंद्र समान आत्मा सर्व तरफथी-सर्व प्रकारे जाज्वल्यमान रहो एम आत्माने अहीं आशीर्वाद दीधा छे. ल्यो, पोते पोताने आशीर्वाद आपे छे.
अहाहा...! पंचम आराना मुनिवर कहे छे-अमने जे मोक्षमार्ग प्रगट थयो छे ते एवो ने एवो जाज्वल्यमान रहो; एम के आ भावथी आगळ जतां अमने पूर्ण केवळज्ञान अने मोक्ष थशे. अहाहा...! अमने जे निर्मळ पर्याय थई ते एवी ने एवी प्रगट थया करो, कोई प्रकारे हीणप न हो-एम सिद्धपद माटे पोताने आशीर्वाद आपे छे.
‘जेनुं मरण नथी तथा जेनाथी अन्यनुं मरण नथी ते अमृत छे; वळी जे अत्यंत स्वादिष्ट (-मीठुं) होय तेने लोको रूढिथी अमृत कहे छे.’
अहाहा...! भगवान आत्माना द्रव्य-गुण-पर्यायरूपे होवापणानुं शुं मरण थाय छे? ना, भगवान आत्मा द्रव्य-गुण-पर्यायपणे अमर छे, अमृतस्वरूप छे, एनो कदीय नाश थतो नथी. ध्रुव चिदानंदघन प्रभुना आश्रये जे निर्मळ पर्याय प्रगटे छे तेनोय नाश थतो नथी, तेय अक्षय छे. वळी ते आनंदना स्वादवाळी अमृत छे. लोकमां पण स्वादिष्ट होय तेने अमृत कहे छे ने? तेम आ अनाकुळ आनंदना स्वादवाळी अमृत छे. अहाहा...! अमृतस्वरूपी आत्मा अमृतमय स्वादयुक्त अमृत छे.
‘अहीं ज्ञानने-आत्माने-अमृतचंद्रज्योति (अर्थात् अमृतमय चंद्रमा समान ज्योति) कहेल छे, ते लुप्तोपमा अलंकारथी कह्युं जाणवुं; कारण के ‘अमृतचन्द्रवत् ज्योतिः’ नो समास करतां ‘वत्’ नो लोप थई ‘अमृतचन्द्रज्योतिः’ थाय छे.
(‘वत्’ शब्द न मूकतां अमृतचंद्ररूप ज्योति एवो अर्थ करीए तो भेदरूपक अलंकार थाय छे. ‘अमृतचंद्रज्योति’ एवुं ज आत्मानुं नाम कहीए तो अभेदरूपक अलंकार थाय छे.)’
आ अलंकार ए भाषाना पंडितोनो विषय छे. हवे कहे छे-‘आत्माने अमृतमय चंद्रमा समान कह्यो होवा छतां, अहीं कहेलां विशेषणो वडे आत्माने चंद्रमा साथे व्यतिरेक पण छे; कारण के ‘ध्वस्त–मोह’ विशेषण अज्ञानअंधकारनुं दूर थवुं जणावे छे.’
भगवान आत्मा अज्ञान-अंधकारने दूर करवावाळो छे, ज्यारे चंद्रमा समस्त अंधकारनो नाश करतो नथी. शुं घरमां के घरनी अंदरना पटारामां चंद्रमा प्रकाश करे छे? माटे चंद्रमानी उपमा सर्वांशे लागु पडती नथी.
वळी, ‘विमल पूर्ण’ विशेषण लांछनरहितपणुं तथा पूर्णपणुं बतावे छे.
भगवान आत्मा पूर्ण विमल छे, ज्यारे चंद्रमाने तो लांछन छे. तेथी चंद्रमानी उपमा तेने लागु पडती नथी.
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वळी, ‘निःसपत्नस्वभाव’ विशेषण राहुबिंबथी तथा वादळां आदिथी आच्छादित न थवानुं जणावे छे.’
चंद्रनी अंदर राहु आवे छे अने ते एक एक दिवसे एक एक कळाने रोके छे; वळी चंद्र वादळोथी आच्छादित थाय छे. भगवान आत्मामां तेने रोकवावाळो कोई राहु छे नहि, तथा ते कोईथी आच्छादित थतो नथी. माटे चंद्रमानी उपमा तेने लागु पडती नथी.
वळी, ‘समन्तात् ज्वलतु’ कह्युं छे ते सर्व क्षेत्रे तथा सर्व काळे प्रकाश करवानुं जणावे छे; चंद्रमा आवो नथी.
अहा! त्रण काळ त्रण लोकने जाणे एवो आत्मानो प्रकाश छे; ज्यारे चंद्रनो प्रकाश तो थोडो काळ अने थोडा क्षेत्रमां ज होय छे. आ प्रमाणे चंद्र साथे भगवान आत्मानी उपमा लागु पडती नथी.
आ काव्यमां टीकाकार आचार्यदेवे ‘अमृतचंद्र’ एवुं पोतानुं नाम पण जणाव्युं छे. समास पलटीने अर्थ करतां ‘अमृतचंद्र’ना अने ‘अमृतचंद्रज्योति’ना अनेक अर्थो थाय छे ते यथासंभव जाणवा.
हवे श्रीमान अमृतचंद्र आचार्यदेव बे काव्यो कहीने आ समयसारशास्त्रनी आत्मख्याति नामनी टीका पूर्ण करे छे.
‘अज्ञानदशामां आत्मा स्वरूपने भूलीने रागद्वेषमां वर्ततो हतो, परद्रव्यनी क्रियानो कर्ता थतो हतो,– क्रियाना फळनो भोक्ता थतो हतो,–इत्यादि भावो करतो हतो; परंतु हवे ज्ञानदशामां ते भावो कांइ ज नथी ज एम अनुभवाय छे.’–आवा अर्थनुं काव्य प्रथम कहे छेः–
रागद्वेषपरिग्रहे सति यतो जातं क्रियाकारकैः।
भुञ्जाना च यतोऽनुभूतिरखिलं खिन्ना क्रियायाः फलं
श्लोकार्थः– [यस्मात्] जेनाथी (अर्थात् जे परसंयोगरूप बंधपर्यायजनित अज्ञानथी) [पुरा] प्रथम [स्व–परयोः द्वैतम् अभूत्] पोतानुं अने परनुं द्वैत थयुं (अर्थात् पोताना अने परना भेळसेळपणारूप भाव थयो), [यतः अत्र अन्तरं भूतं] द्वैतपणुं थतां जेनाथी स्वरूपमां अंतर पडयुं (अर्थात् बंधपर्याय ज पोतारूप जणायो, [यतः राग–द्वेष–परिग्रहे सति] स्वरूपमां अंतर पडतां जेनाथी रागद्वेषनुं ग्रहण थयुं, [क्रिया–कारकैः जातं] रागद्वेषनुं ग्रहण थतां जेनाथी क्रियाना कारको उत्पन्न थया (अर्थात् क्रियानो अने कर्ता–कर्म आदि कारकोनो भेद पडयो), [यतः च अनुभूतिः क्रियायाः अखिलं फलं भुञ्जाना खिन्ना] कारको उत्पन्न थतां जेनाथी अनुभूति क्रियाना समस्त फळने भोगवती थकी खिन्न थई (–खेद पामी), [तत् विज्ञान–घन–ओघ–मग्नम्] ते अज्ञान हवे विज्ञानघनना ओघमां मग्न थयुं (अर्थात् ज्ञानरूपे परिणम्युं) [अधुना किल किञ्चित् न किञ्चित्] तेथी हवे ते बधुं खरेखर कांई ज नथी.
भावार्थः– परसंयोगथी ज्ञान ज अज्ञानरूपे परिणम्युं हतुं, अज्ञान कांई जुदी वस्तु नहोती; माटे हवे ज्यां ते ज्ञानरूपे परिणम्युं त्यां ते (अज्ञान) कांई ज न रह्युं, अज्ञानना निमित्ते राग, द्वेष, क्रियानुं कर्तापणुं, क्रियाना फळनुं (–सुखदुःखनुं) भोक्तापणुं इत्यादि भावो थता हता ते पण विलय पाम्या; एक ज्ञान ज रही गयुं. माटे हवे आत्मा स्व–परना त्रणकाळवर्ती भावोने ज्ञाता–द्रष्टा थईने जाण्या–देख्या ज करो. २७७.
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‘अज्ञानदशामां आत्मा स्वरूपने भूलीने रागद्वेषमां वर्ततो हतो, परद्रव्यनी क्रियानो कर्ता थतो हतो, क्रियाना फळनो भोक्ता थतो हतो, -इत्यादि भावो करतो हतो;...’
शुं कह्युं? पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपने जाणे नहि, अने पुण्य-पापने जाण्या करे ए अज्ञानदशा छे. अहा! आवी अज्ञानदशामां, निज ज्ञाता-द्रष्टा स्वरूपने भूलीने रागद्वेषरूप प्रवर्तवुं ते मिथ्यात्व छे. अहाहा...! शुद्ध चिदानंदघन प्रभु पोते छे एने भूलीने रागद्वेषरूप प्रवर्तवुं ते मिथ्यादशा छे. अनंत काळथी जीव आवी मिथ्यादशा वडे दुःखी छे. ‘अपने को आप भूलके हेरान हो गया’. अहा! पोताने भूलीने जीव चतुर्गति-परिभ्रमण करे छे.
अहा! पोताने भूलीने ते परद्रव्यनी क्रियानो कर्ता थतो हतो. शरीर, मन, वाणी तथा शुभाशुभ राग ए पुद्गलना परिणाम छे, ए कांई पोतानी चीज नथी, छतां एनो हुं कर्ता छुं-एम प्रवर्ततो हतो. रागादि भावोनो ते अज्ञानदशामां कर्ता ने भोक्ता थतो हतो. अहा! एणे अनंत वार मुनिव्रत धारण करीने, रागनी क्रियाओ करी करीने, रागथी भिन्न निज चैतन्यनी द्रष्टिना अभावमां एणे रागनुं फळ जे दुःख तेनुं ज वेदन कर्युं छे. समजाय छे कांई...?
‘परंतु हवे ज्ञानदशामां ते भावो कांई ज नथी एम अनुभवाय छे.’ आवा अर्थनुं काव्य प्रथम कहे छेः-
‘यस्मात्’ जेनाथी (अर्थात् जे परसंयोगरूप बंधपर्यायजनित अज्ञानथी) ‘पुरा’ प्रथम ‘स्व–परयोः द्वैतम् अभूत्’ पोतानुं अने परनुं द्वैत थयुं (अर्थात् पोताना अने परना भेळसेळपणारूप भाव थयो)...
कळश बहु मार्मिक-मर्मभर्यो छे. कर्मना निमित्ते जे रागद्वेषमय पर्याय उत्पन्न थई ते बंधजनित पर्याय छे. भावबंध ए बंधजनित पर्याय छे. ए पोतानी चीज नथी छतां एने पोतानी मानवी ते अज्ञान छे, मिथ्याभाव छे. आ बंधजनित पर्याय कर्मना कारणे उत्पन्न थाय छे एम नहि, ए पोताना कारणे उत्पन्न थाय छे; एने कर्मजनित कहेवी ए व्यवहारनय छे. शास्त्रमां एवां व्यवहारनयनां कथन आवे छे, गोमटसारादिमां घणां आवे छे. एने निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटेनुं व्यवहारनयनुं कथन समजवुं जोईए.
अहाहा...! शुद्ध चिदानंदघन प्रभु पोते छे. तेने घात करी जे विकारी पर्याय पोतामां उत्पन्न थाय ते पोताथी पोताना कारणे उत्पन्न थाय छे. अहा! आ विकारी दशाने निज चैतन्यमां भेळववी-एनाथी एकता करवी ते द्वैत छे. अहाहा...! पोताना अबंधस्वभावमां बंधभावने भेळववो ते द्वैत छे. शुं कीधुं? आ महाव्रतादिनो के भक्तिनो विकल्प थाय ते राग छे, विभाव छे, संयोगीभाव छे; तेने शुद्ध चैतन्यस्वभाव साथे एकपणे मानवो ते द्वैत छे, विसंवाद छे. गाथा ३मां आवे छे के-भगवान आत्माने पर-राग साथे संबंध कहेवो ए विसंवाद उभो करनारी कथा छे. द्रव्यस्वभावमां एकत्व पामवुं ते बधे सुंदर छे, पण आत्माने रागथी एकपणानो संबंध मानवो ते क्लेश उत्पन्न करनारुं छे.
अहाहा...! जेना अस्तित्व-होवापणामां एकलो ज्ञानानंदनो स्वभाव भर्यो छे ते निज सत्तानी द्रष्टि विना राग उपर लक्ष जतां अज्ञान उत्पन्न थाय छे. अहा! पोतानी चीज जे एक ज्ञायकभावमय छे एमां रागने भेळववो, रागने पोतानो जाणवो त्यां, कहे छे, द्वैत ऊभुं थाय छे. अहा! हुं तो एक चिन्मात्र वस्तु छुं, ने राग भिन्न छे एम नहि जाणतां, हुं अने राग एक छीए एम जाणतां द्वैत खडुं थाय छे. अरे, अनादिथी एने स्व-परनुं द्वैत ज ऊभुं थयुं छे. छे ने अंदर! ‘स्व–परयोः द्वैतम् अभूत’ अहा! आचार्यनी घणी-गूढ शैली छे. गागरमां सागर भर्यो छे. अहा! केवळीना केडायती दिगंबर संतोनी शी वात! ज्ञानमां राग नथी, ने रागमां ज्ञान नथी. अहा! आ परमार्थ सत्य छे. छतां अनादि निगोदथी मांडीने एने स्वपरनी एकताना अज्ञानथी द्वैत ऊभुं थयुं छे. शुद्ध चैतन्य तो अद्वैत एकलुं छे, एमां रागने-परने भेळवतां द्वैत थयुं छे. भाई! आचार्य तने जाग्रत थवानां गाणां गाय छे के- जाग नाथ! जाग. आ राग साथे भळतां तो द्वैत ऊभुं थयुं छे. अरेरे! एकमां द्वैत थयुं ए तो महादुःख छे. विसंवाद छे.
अहाहा...! ‘यतः अत्र अन्तरं भूत’ द्वैतपणुं थतां जेनाथी स्वरूपमां अंतर पडयुं,... आत्मद्रव्य ज्ञान ने आनंदथी भरेलो साक्षात् भगवान छे, एने पामर राग साथे जोडी देतां स्वरूपनुं अंतर पडी गयुं छे, स्वरूपनी प्राप्तिमां विघ्न
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थयुं छे. एने ज्ञानमां ‘राग ते हुं’ एम भास्युं ने! आ कारणे एने रागनी-विकल्पनी पक्कड थई गई छे. स्वरूपनी पक्कडने बदले एने रागनी-बंधनी पक्कड थई गई छे. चिदानंदघन चैतन्यमय पोतानी चीज छे ते एने दूर रही गई. रागनी-दुःखनी पक्कडमां ज्ञानानंद प्रभु दूर रही गयो.
अरे भाई! भगवान केवळी तो एम कहे छे के-अमारी सामे जो मा; केमके अमारी सामे जोवाथी तने राग उत्पन्न थशे, दुःख थशे. माटे तुं तारी सामे जो, स्वसन्मुख था अने अंतरमां जो. तेथी तने आनंद प्रगटशे. ल्यो, आ रीत छे. आ सिवाय एणे अनादिथी स्व साथे परने भेळवीने द्वैत ज ऊभुं कर्युं छे; रागने ज ग्रह्यो छे.
हवे कहे छे-‘यतः राग–द्वेष–परिग्रहे सति’ स्वरूपमां अंतर पडतां जेनाथी रागद्वेषनुं ग्रहण थयुं, ‘क्रिया– कारकैः जातं’ रागद्वेषनुं ग्रहण थतां जेनाथी क्रियाना कारको उत्पन्न थया (अर्थात् क्रियानो अने कर्ता-कर्म आदि कारकोनो भेद पडयो),...
अहाहा...! शुं कहे छे? के स्वस्वरूप आनंदकंद प्रभु दूर थई जतां रागद्वेषनुं ग्रहण थयुं, अने रागनुं ग्रहण थतां एने क्रिया नाम रागनी क्रियाना षट्कारको उत्पन्न थया. रागादिनो हुं कर्ता, रागादि मारुं कर्म, रागादिनुं हुं करण, रागादि ज में मने दीधां इत्यादि अज्ञानरूप रागादि क्रियाना षट्कारको पोतामां उत्पन्न थया. अहा! भूल केम थई, अने एनुं परिणाम शुं? ए बतावे छे.
अज्ञानीने भूलनी खबर नथी. ए तो समजे छे के-दर्शनमोहनीयना उदयथी मिथ्यात्व थयुं छे. अरे भगवान! आ तुं शुं लाव्यो? दर्शनमोहनीयनो उदय तो जड छे, अने जे विकारना परिणाम तारी दशामां थाय छे ए तो चिदाभास छे. बन्ने वच्चे अभाव छे त्यां ते कर्म शुं करे? कर्मनो उदय विकृतभावने करे एम त्रणकाळमां छे नहि. विकृतभाव तारामां ताराथी थाय छे, द्रव्यकर्म विकार करे छे एम छे ज नहि. तें द्रव्यकर्म साथे संबंध मान्यो छे, पण वास्तवमां एम छे नहि. परमार्थे भगवान आत्मा अबद्धस्पृष्ट ज छे. भाई! जैनना नामे ज्यां त्यां कर्म रखडावे छे एम तुं कहे छे, पण कर्म तो जड छे बापु! ए तने शुं रखडावे?
वस्तु एम छे के-अनादिथी जीवने द्रव्यनी द्रष्टि छूटी गई छे. अनादिथी तेने इन्द्रिय-आधीन ज्ञान वर्ते छे; एटले रागने जाणतां हुं राग छुं-एम रागनी एने पकड थई गई छे. राग पोतानी चीजमां नहि होवा छतां अज्ञानने कारणे रागनी पकड थई गई छे. अने तेथी तेने रागनी क्रियाना षट्कारको उत्पन्न थया छे. पर्यायनी फेरणी ते क्रिया छे. आवे छे ने के-
किरिया परजयकी फिरनि, वस्तु एक त्रय नाम.
अहा! भ्रांतिवश एने रागना षट्कारको पेदा थया छे.
पंचास्तिकाय गाथा ६२मां लीधुं छे के-जे राग वा विकार थाय छे तेनो कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, अधिकरण-ते विकार-राग छे. एक समयनी रागनी क्रियाना षट्कारक ते ते पर्यायमां छे. कर्म आदि परद्रव्यमां नहि, ने द्रव्य-गुणमां पण नहि. द्रव्य-गुण तो त्रिकाळ शुद्ध ज छे; ते अशुद्धने केम करे?
अहा! जेणे रागनुं ग्रहण कर्युं छे तेने आनंदकंद प्रभु आत्मानुं ग्रहण थयुं नहि, अने रागनुं ग्रहण थतां तेने क्रियाना षट्कारको उत्पन्न थया. अर्थात् कर्ता, कर्म, करण इत्यादि कारकोना भेद पडी गया. ते पोतानी चीजथी विखुटो पडी गयो. तेने कारको उत्पन्न थतां रागनो अनुभव थयो अने रागनी अनुभूति ना फळपणे तेणे अनादिथी दुःख ज भोगव्युं. अहा! अनादिथी निगोदथी मांडी जैननो दिगंबर साधु थई नवमी ग्रैवेयक गयो त्यां पण तेणे रागनो ज अनुभव कर्यो. गाथा १०२मां आवी गयुं के जे समये जे भावनो कर्ता थाय छे ते समये तेनो ज ते भोक्ता थाय छे. संयोग मळे ए तो पछीनी वात छे. आ तो जे समये राग करे ते ज समये तेनो ते भोक्ता थाय छे.
हवे कहे छे- ‘यतः च अनुभूतिः क्रियायाः अखिलं फलं भुज्जाना खिन्ना’ कारको उत्पन्न थतां जेनाथी अनुभूति क्रियाना समस्त फळने भोगवती थकी खिन्न थई (-खेद पामी),.....
अहाहा...! जोयुं? हुं राग छुं एम रागमां एकताबुद्धि थवाथी रागनुं फळ भोगवतो खेदखिन्न थई गयो. भले शुभराग होय, तोय ते खेदखिन्न ज थई गयो; तेणे खेदने ज भोगव्यो एम कहे छे.
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मिथ्याद्रष्टि जे नवमी ग्रैवेयक जाय छे एने शुकल लेश्याना परिणाम होय छे, पण ए कांई चीज नथी. कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, ने शुकल ए बधी ज लेश्याओ रागभाव छे, क्लेशभाव छे; शुकल लेश्या पण कषायना रंगथी ज रंगायेली छे. लोको प्रशस्त रागने भलो माने छे ने? पण ए तो एने अशुभनी अपेक्षा प्रशस्त कह्यो छे, बाकी ए पण अप्रशस्त ज छे, एनी (प्रशस्त रागनी) रुचिमां तो एने आखो आत्मा दूर थई गयो छे. समजाय छे कांई...!
‘क्रियाना समस्त फळने’ एम शब्दो छे ने? मतलब के जेटला रागद्वेष उत्पन्न थाय छे एटलुं ते काळे त्यां दुःख भोगवे छे. अहा! आत्मानो अनुभव छे नहि, स्वभाव सन्मुखता छे नहि, स्वभावथी विमुखता छे, ने रागनी-विभावनी सन्मुखता छे तो तेने ते काळे रागनुं-दुःखनुं वेदन छे एम कहे छे. आ बधा धनपति-धूळपति छे ने? ए बधा राग-द्वेषनुं-झेरनुं वेदन करे छे. एमां मझा माने छे ए तो मूढपणुं ने पागलपणुं छे. जेम उनाळानो सखत गरमीनो दिवस होय, अने बाळकने एनी माताए दूध बहु पीवडावी दीधुं होय तो पछी ते बाळकने पातळा दस्त थाय छे, ए दस्तने बाळक हाथ अडाडे एटले ते ठंडो लागे तेथी बाळक तेने चाटवा लागे छे, बस एनी जेम अज्ञानी रागद्वेष उत्पन्न करीने तेमां मझा माने छे. आवी वात! समजाणुं कांई...? आ तो एनुं पागलपणुं ज छे. अहा! रागनुं एकत्व करवाथी रागनी क्रिया उत्पन्न थाय छे, अने एनुं फळ ए ज समये दुःखने भोगवे छे, दुःखने भोगवतां खेदखिन्न थाय छे. आटली अज्ञाननी क्रियानी वात करी, हवे गुलांट खाय छे; ज्ञाननी वात करे छे.
‘तत् विज्ञान–घन–ओघ–मग्नम्’ ते अज्ञान हवे विज्ञानघनना ओघमां मग्न थयुं (अर्थात् ज्ञानरूपे परिणम्युं) ‘अधुना किल किञ्चत न किञ्चित तेथी हवे ते बधुं खरेखर कांई ज नथी.
जुओ शुं कीधुं? द्रष्टिए ज्यां पलटो खाधो त्यां अंदरमां हुं राग छुं एवी जे बुद्धि हती ते मटी बुद्धि विज्ञानघन थई गई. हुं विज्ञानघन आत्मा ज छुं एवी द्रष्टि थतां सम्यग्दर्शन थयुं, अज्ञान हवे विज्ञानघनना ओघमां समाई गयुं, द्रव्यमां अंदर पारिणामिकभावे भळी गयुं. राग उदयभाव छे, एनो व्यय थतां ते अंदर राग स्वरूपे द्रव्यमां गयो एम नहि, पण ते योग्यतारूपे पारिणामिकभाव थईने द्रव्यमां भळी गयो एम वात छे.
अज्ञाननी क्षयोपशम दशा हो के सम्यग्ज्ञाननी क्षयोपशम पर्याय हो, ए नाश थईने कयां गई? तो कहे छे- जेम जळना तरंग जळमां डूबे छे तेम अज्ञाननी के ज्ञाननी पर्याय व्यय पामी अंदरमां गुडप थई जाय छे. रागनी पर्याय हो के अज्ञाननी पर्याय हो, ते पर्याय सत् छे, अने तेनो व्यय थतां अंदर द्रव्यमां योग्यतारूपे गुडप थई जाय छे; जे एम न होय तो सत्नो अभाव थई जाय, ने अभाव थई जाय तो अंदरमां योग्यता न रहे. अहीं कहे छे - ते अज्ञान हवे विज्ञानघनना ओघमां मग्न थयुं, अर्थात् अज्ञाननो व्यय थईने सम्यग्ज्ञान थयुं. पहेलां द्रष्टि विपरीत हती ते पलटीने द्रव्यनी द्रष्टि थई त्यां हुं विज्ञानघन परम प्रभु छुं एवुं द्रष्टि-ज्ञाननुं परिणमन थई गयुं. परिणमन हों, विकल्प नहि. हुं शुद्ध छुं, बुद्ध छुं इत्यादि विकल्प रहे त्यां सुधी तो सम्यग्दर्शन नथी. आ वात कर्ताकर्म अधिकारमां आवी गई छे. आ तो द्रव्यनी एकपणानी द्रष्टि थई त्यां रागनी पर्यायना कारको छूटी निर्मळ पर्यायना कारको ऊभा थया. द्रष्टि पलटी, दिशा पलटी, ने आत्मा आनंदमां लीन थयो.
सवारमां प्रश्न हतो ने के सम्यग्दर्शन केम थाय? ल्यो, समाधान एम छे के-रागनी रुचि पलटीने निज विज्ञानघन स्वरूपनां महिमा अने रुचि करी द्रष्टि अंदरमां लई जतां सम्यग्दर्शन थाय छे. पहेलामां पहेलुं आ कर्तव्य छे; आ विना बधुं एकडा विनानां मींडां छे.
ते अज्ञान विज्ञानघनस्वभावमां मग्न थयुं, एटले अज्ञान न रह्युं, अंदरमां योग्यतारूप थइ द्रव्यमां गयुं. अंदरमां अज्ञान रहे अने ने ज्ञान थाय एम बने नहि.
अहा! रागनी एकता ए तो आत्मघात छे; एमां तो आत्मानुं मृत्यु थाय छे. विज्ञानघन प्रभु आत्माने रागवाळो मानवो, अर्थात् हुं राग छुं एम मानवुं ए तो भावमरण छे, केमके एमां पोताना चैतन्यस्वरूपनो इन्कार थयो ने! चैतन्यनो इन्कार ए एनी हिंसा छे, ने ए भावमरण छे. अहा! रागथी मने लाभ छे एवी द्रष्टिमां प्रभु! तारुं क्षणे क्षणे भावमरण थई रह्युं छे. श्रीमद्मां आव्युं छे ने के-‘क्षण क्षण भयंकर भावमरणे कां अहो राची रहो!’ भाई, परमां ने रागमां सुख मानतां तारा सुखनो नाश थाय छे ए तो जो. आ अवसर पूरो थई जशे भाई! देह फू थई जशे, ने तुं कयांय चाल्यो जईश, ने क्षणक्षणनुं भावमरण चाल्या ज करशे. (जो आत्मद्रष्टि हमणां ज ना करी तो).
अहाहा...! अनादिथी जीव रागमां पोतापणुं मानतो हतो ते हवे गुलांट मारी ज्यां द्रव्यस्वभावनी द्रष्टि करी
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त्यां अज्ञानसमूहनो नाश थईने ते विज्ञानघनस्वभावमां मली गयुं. मिथ्याज्ञाननो व्यय थईने सम्यग्ज्ञाननुं परिणमन थई गयुं. रागनी क्रिया ने तेनुं फळ हवे रह्युं नहि. सम्यग्द्रष्टि चक्रवर्ती होय, बहार अनेक वैभवमां ऊभो होय तोय अंदर ज्ञानमां ए बधुं (पोतानुं) कांई ज नथी. ज्यां लगी पुरुषार्थ ओछो छे त्यांसुधी अविरति-भाव छे, पण ते अविरति-भाव ज्ञानभावने अडतो ज नथी. ज्ञानीनो तो ज्ञाताद्रष्टा भाव ज छे, ने अनंतकाळ ज्ञाताद्रष्टा- भाव ज रहेशे; केवळज्ञान थतां ज्ञाताद्रष्टा ज रहेशे. समजाणुं कांई...?
‘परसंयोगथी ज्ञान ज अज्ञानरूपे परिणम्युं हतुं. अज्ञान कांई जुदी वस्तु नहोती; माटे हवे ज्यां ते ज्ञानरूपे परिणम्युं त्यां ते (अज्ञान) कांई ज न रह्युं,...’
जुओ, पुण्य-पापना विकल्प ए संयोगी चीज छे. विभाव छे ने! ए पोताना स्वभावनी चीज नथी. आ विभावना संगना भावथी, कहे छे, अनादिकाळथी ज्ञान ज अज्ञानरूपे परिणम्युं हतुं; अज्ञान कोई जुदी वस्तु नहोती. अहाहा...! जेम सुतरनी दोरीमां गांठ पडे छे ए कांइ सुतरथी भिन्न चीज नथी, तेम अज्ञान कांई जुदी चीज नथी, एय ज्ञानस्वरूपी प्रभु आत्मानुं ज अज्ञानमय परिणमन छे. अहा! ज्ञानस्वरूप आत्मा साथे रागना एकत्वथी बंधायेली ते अज्ञानमय परिणमनरूप आत्मानी गांठ छे, आम ते आत्माथी जुदी चीज नथी.
भगवान आत्माए रागनो संग कर्यो तेथी तेना ज्ञाननी आवी अज्ञानमय दशा थई छे. आवे छे ने के-
अग्निए लोह-लोढानो संग कर्यो तो एना पर घणना घा पडे छे; तेम असंग चैतन्यज्योत प्रभु आत्माए रागनो संग कर्यो तो एना ज्ञाननुं अज्ञानमय परिणमन थयुं छे. अज्ञानरूप अवस्था (पर्याय अपेक्षा) आत्माथी कोई भिन्न चीज नथी. अज्ञान कहो के संसार कहो, ए आत्मानी पर्यायथी भिन्न चीज नथी. आ शरीर, स्त्री, कुटुंब-परिवार के कर्म ए जीवनो संसार नथी, संसरण (रागना संगमां रहेवुं) ते संसार छे, अने जीवे ते संसार पोताना अज्ञानरूप अपराधथी ऊभो कर्यो छे. केटलाक कहे छे तेम स्त्री-कुटुंब आदि छोडी दीधां तो संसार छूटी गयो एम नहि, अज्ञानभाव-रागना संगनो भाव-छोडवाथी संसार छूटे छे, अर्थात् ज्ञानभावथी ज संसार छूटे छे. समजाणुं कांई...? अहो! दिगंबर संतोए तो न्याल करी दीधा छे. जेने जेने आ वात अंतरमां बेठी ते न्याल थई गया छे.
अहा! अनादिथी पोताना अज्ञानभावथी जीव चोरासीना अवतारमां रखडे छे, कर्मने कारणे रखडे छे एम नथी. भूल पोते करे, ने नाखे कर्म माथे ते कांई भूल मटाडवानी रीत नथी. वास्तवमां आत्मा पोतानी पर्यायमां स्वतंत्रपणे विकार करे छे, एमां कर्मनी अपेक्षा नथी. जो कर्मना कारणे विकार थाय तो आत्मानुं स्वाधीनपणुं रहे नहि; कर्म टळे तो विकार टळे, पण संसारीने कर्म कयारे न होय? वास्तवमां द्रव्यद्रष्टि विना, अज्ञानथी आत्मा स्वयमेव विकारना षट्कारकरूपे परिणमे छे, एमां कर्मनी कोई अपेक्षा नथी. भाई, पहेलां साचो निर्णय तो कर के भूल पोताथी थई छे, कर्मथी नहि. साची समजण करे तो भूल टाळवानो अवकाश छे. बाकी कर्म विकार करावे तो कर्म छोडे त्यारे छूटकारो थाय, पोताने आधीन तो कांई रह्युं नहि, पण एवी वस्तु नथी.
अहीं कहे छे-ते (अज्ञान) ज्ञानरूपे परिणम्युं त्यां ते कांई न रह्युं. अहाहा...! हुं जाणगस्वभावी विज्ञानघन प्रभु आत्मा छुं एम निज सत्तानो निर्णय थयो त्यां अज्ञान रह्युं नहि. भले पर्यायमां अल्पज्ञता छे, पण सर्वज्ञस्वभावी निज आत्मानुं भान थयुं तो अज्ञान कांई न रह्युं. अज्ञान जेवी चीज ज न रही, ज्ञान-ज्ञान- सम्यग्ज्ञान थयुं. समजाणुं कांई...? मिथ्याज्ञान अने सम्यग्ज्ञान-बन्ने साथे रही शकतां नथी, तेथी अंतर्द्रष्टि थतां सम्यग्ज्ञान थयुं तो अज्ञान कांई न रह्युं. आवी वात छे.
अहाहा...! भगवान आत्मा पोतानी चीजनी ज्यां अंदरमां संभाळ लेवा गयो त्यां एने अज्ञान टळी गयुं, ने सम्यग्ज्ञान प्रगट थई गयुं. ज्ञाननेत्र जे बंध हतां ते खुली गयां, कबाट जे बंध हतां ते खुली गयां.
अहा! जिज्ञासु के जेने आ वात धारणामां छे, पण अंतर्द्रष्टि थई नथी तेने हजु कबाट बंध छे. ज्यां अंतर्द्रष्टि थई के तरत ज अज्ञाननो नाश थई कबाट खुली जाय छे, अने त्यारे हुं शांतरसनो-चैतन्यरसनो- आनंदरसनो पिंड छुं एवो अनुभव थाय छे.
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अहा! स्त्रीनो, पुरुषनो, नपुंसकनो कोई आकार आत्मामां नथी. द्रव्य-भाववेदथी रहित विज्ञानघनस्वरूप प्रभु आत्मा छे. प्रवचनसार गाथा १७२मां अलिंगग्रहणना बोलमां आ वात लीधी छे के आत्मामां द्रव्यवेदनी आकृति नथी, तेम भाववेद-विषयवासना पण आत्मामां नथी. अहाहा...! आवी आत्मद्रष्टि जे करे छे ते स्त्री हो, बाळक हो, के पुरुष हो, ते अंतरमां अनुभव करीने सम्यग्दर्शन प्राप्त करी ले छे. स्वसन्मुखनी द्रष्टि वडे ज सम्यग्दर्शन-ज्ञान थाय छे, ए सिवाय एनो बीजो कोई उपाय नथी. अहीं कहे छे स्व-आश्रये ज्यां सम्यग्ज्ञान थयुं त्यां अज्ञान कांई रह्युं नहि; अज्ञाननो नाश थई गयो.
हवे कहे छे-‘अज्ञानना निमित्ते राग, द्वेष, क्रियानुं कर्तापणुं, क्रियाना फळनुं (-सुखदुःखनुं) भोक्तापणुं इत्यादि भावो थता हता ते पण विलय पाम्या; एक ज्ञान ज रही गयुं.’
अहाहा...! शुद्ध चैतन्यमूर्ति प्रभु पोते छे, तेनो अंतर्मुख द्रष्टिमां स्वीकार कर्यो त्यां सम्यग्ज्ञान प्रगट थयुं तो अज्ञानभावमां जे रागद्वेष थता हता ते विलय पाम्या, ने रागनी क्रियाना षट्कारकोथी ते निवृत्त थयो, ने क्रियानुं फळ जे दुःख तेनाथी पण निवृति थई. बाकी शुं रह्युं? तो कहे छे-एक ज्ञान ज रही गयुं. अहाहा...! पोताना ज्ञानानंदस्वभावनी द्रष्टि थई तो सम्यग्दर्शन-ज्ञाननी निर्मळ परिणति प्रगट थई; राग-द्वेष ने तेनुं फळ विलिन थई गया, ने अनाकुळ आनंदनी वीतरागी परिणति प्रगट थई. आत्मामां कर्ता, कर्म आदि स्वभावोनुं निर्मळ परिणमन शरु थयुं. आने धर्म अने वीतरागमार्गनी शरुआत कहेवामां आवे छे.
अहा! पोताना स्वरूपनी द्रष्टि थतां अज्ञान अने अज्ञानथी उत्पन्न थती रागनी क्रिया अने तेनुं फळ दुःख नाश पामी जाय छे. द्रष्टिमां रागेय नथी ने दुःखेय नथी. पण साधकने पर्यायमां किंचित् अशुद्धता छे, राग छे. ज्ञानी तेने यथास्थित जाणे छे. तेने जे ज्ञान वर्ते छे ते जाणे छे के जे अंशे राग छे तेनुं कर्ता-भोक्तापणुं पण छे. करवा- भोगववायोग्य एम नहि, पण अंशे रागनुं परिणमन छे तो परिणमन अपेक्षा तेनुं कर्ता-भोक्तापणुं छे. आवो वीतरागनो अनेकांतस्वरूप मार्ग छे.
एक बाजु ज्ञानीने रागादि विलीन थई गया कहो, ने वळी कर्ता-भोक्तापणुं कहो-आ तो विरुद्ध छे? विवक्षा समजतां विरुद्ध तो कांई ज नथी. ज्ञानीने रागनुं स्वामित्व नथी तो विलीन थई गयो कह्युं, ने किंचित् परिणमन छे तो कर्ता-भोक्तापणुं कह्युं. स्याद्वादीने आमां कांई विरुद्ध भासतुं नथी. समजाणुं कांई...? स्वभावनी द्रष्टिथी जोतां ज्ञानीने राग विद्यमान नथी, ने ज्ञाननी नजरे जुओ तो, पर्यायने जुओ तो किंचित् राग छे, ने तेनुं वेदन पण छे. आवी ज वस्तु छे, तेमां विरुद्ध कांई ज नथी. स्तवनमां आवे छे ने के-
निज सत्ताए शुद्ध, सौने पेखता हो लाल.
हे नाथ! हे सर्वज्ञदेव! अमारी निज सत्ता-निज स्वभाव शुद्ध छे एम आप देखो छो. पर्यायमां जे पुण्य-पापना विकल्प उठे छे-ते आस्रव तत्त्व छे, आत्मा नथी. निज सत्ताए शुद्ध चिदानंदकंद प्रभु छे तेने आप आत्मा जाणो छो. अहा! आवा शुद्ध चैतन्यस्वरूपनी द्रष्टि थवी ते सम्यग्दर्शन अने धर्म छे, अने ए ज अपूर्व पुरुषार्थ छे. आ सिवाय व्रत, तप, दया, दान, भक्ति, पूजा इत्यादि क्रियाकांड तो अनंत काळमां अनंत वार कीधा, पण ए कांई नथी. एनाथी धर्म मानवो ए तो अज्ञानभाव छे. ज्यारे भगवान आत्मानी द्रष्टि ने आश्रय थाय छे त्यारे अज्ञान टळी, ज्ञान थाय छे, ने एक ज्ञान ज रही जाय छे; रागनी क्रिया ने क्रियाफळनो नाश थई जाय छे. समकिती रागनो हवे कर्ता-भोक्ता थतो नथी, एक ज्ञाता-द्रष्टा रही जाय छे. शरीर होय तेनेय ते जाणे, रागनेय जाणे, ने भव होय तेनेय बस (आ पर छे एम) जाणे ज छे.
‘माटे हवे आत्मा स्वपरना त्रणकाळवर्ती भावोने ज्ञाता-द्रष्टा थईने जाण्या-देख्या ज करो.’ जुओ आ भावना! एक के पूर्ण ज्ञान-दर्शनरूप थई जाण्या-देख्या ज करो. ल्यो, आवी वात!
प्रश्नः– पर्याय विलीन थई ते कयां गई? उत्तरः– द्रव्यमां अंदर चाली गई. पर्यायरूप न रही, योग्यतारूपे अंदर द्रव्यमां भळी गई, विज्ञानघनसमूहमां मग्न थई गई. जेम सरकणी गांठ होय छे ते खेंचवाथी कपडामां समाई जाय छे, तेम रागनी एकताबुद्धि हती ते
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गांठ हती, ग्रंथिभेद थतां योग्यतारूपे द्रव्यमां अंदरमां समाई गई. त्रिकाळी पर्यायोनो पिंड ए द्रव्य छे ने? अनादि- अनंत पर्यायोनो पिंड ते गुण छे, ने अनंत गुणनो पिंड ते द्रव्य छे. आवी जैनदर्शननी वात अलौकिक छे. एनुं ज्ञान थतां भवनो अंत आवी जाय छे. समकितीने एकाद भव होय ते एना ज्ञाननुं ज्ञेय छे, बस.
‘पूर्वोक्त रीते ज्ञानदशामां परनी क्रिया पोतानी नहि भासती होवाथी, आ समयसारनी व्याख्या करवानी क्रिया पण मारी नथी, शब्दोनी छे’–एवा अर्थनुं, समयसारनी व्याख्या करवाना अभिमानरूप कषायना त्यागने सूचवनारुं काव्य हवे कहे छेः–
र्व्याख्या कृतेयं समयस्य शब्दैः ।
स्वरूपगुप्तस्य न किञ्चिदस्ति
कर्तव्यमेवामृतचन्द्रसूरेः ।। २७८ ।।
श्लोकार्थः– [स्व–शक्ति–संसूचित–वस्तु–तत्त्वैः शब्दैः] पोतानी शक्तिथी जेमणे वस्तुनुं तत्त्व (–यथार्थ स्वरूप) सारी रीते कह्युं छे एवा शब्दोए [इयं समयस्य व्याख्या] आ समयनी व्याख्या (–आत्मवस्तुनुं व्याख्यान अथवा समयप्राभृतशास्त्रनी टीका) [कृता] करी छे; [स्वरूप–गुप्तस्य अमृतचन्द्रसूरेः] स्वरूपगुप्त (– अमूर्तिक ज्ञानमात्र स्वरूपमां गुप्त) अमृतचंद्रसूरिनुं [किञ्चित् एव कर्तव्यम् न अस्ति] (तेमां) कांई ज कर्तव्य नथी.
भावार्थः– शब्दो छे ते तो पुद्गल छे. तेओ पुरुषना निमित्तथी वर्ण–पद–वाक्यरूपे परिणमे छे; तेथी तेमनामां वस्तुना स्वरूपने कहेवानी शक्ति स्वयमेव छे, कारण के शब्दनो अने अर्थनो वाच्यवाचक संबंध छे. आ रीते द्रव्यश्रुतनी रचना शब्दोए करी छे ए वात ज यथार्थ छे. आत्मा तो अमूर्तिक छे, ज्ञानस्वरूप छे. तेथी ते मूर्तिक पुद्गलनी रचना केम करी शके? माटे ज आचार्यदेवे कह्युं छे के ‘आ समयप्राभृतनी टीका शब्दोए करी छे, हुं तो स्वरूपमां लीन छुं, मारुं कर्तव्य तेमां (–टीका करवामां) कांई ज नथी.’ आ कथन आचार्यदेवनी निर्मानता पण बतावे छे. हवे जो निमित्तनैमित्तिक व्यवहारथी कहीए तो एम पण कहेवाय छे ज के अमुक कार्य अमुक पुरुषे कर्युं. आ न्याये आ आत्मख्याति नामनी टीका पण अमृतचंद्राचार्यकृत छे ज. तेथी तेने वांचनारा तथा सांभळनाराओए तेमनो उपकार मानवो पण युक्त छे; कारण के तेने वांचवा तथा सांभळवाथी पारमार्थिक आत्मानुं स्वरूप जणाय छे, तेनुं श्रद्धान तथा आचरण थाय छे, मिथ्या ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरण दूर थाय छे अने परंपराए मोक्षनी प्राप्ति थाय छे. मुमुक्षुओए आनो निरंतर अभ्यास करवायोग्य छे. २७८.
‘पूर्वोक्त रीते ज्ञानदशामां परनी क्रिया पोतानी नहि भासती होवाथी, आ समयसारनी व्याख्या करवानी क्रिया पण मारी नथी, शब्दोनी छे’-एवा अर्थनुं, समयसारनी व्याख्या करवाना अभिमानरूप कषायना त्यागने सूचवनारुं काव्य हवे कहे छे;-
पूर्वोक्त प्रकारे एटले हुं आत्मा एक ज्ञानानंदस्वरूप छुं एवी द्रष्टि थई होवाथी ज्ञानदशामां शरीरनी, वाणीनी के रागनी क्रिया पोतानी भासती नथी. अहाहा...! पर्याय रागथी विमुख थई स्वभावनी सन्मुख थई, पोतानुं अस्तित्व पूर्णस्वरूप अनुभवमां आव्युं तो ए दशा थतां, कहे छे, ज्ञानीने शरीरनी ने वाणीनी क्रिया, ने व्यवहारनो जे विकल्प उठे छे ते क्रिया मारी छे, हु एनो कर्ता छुं एम भासतुं नथी. जुओ आ धर्म ने धर्मीनी अंतरदशा!
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अहाहा...! ज्ञानानंदस्वभावथी भरपुर पूर्णविज्ञानघन प्रभु आत्मा छे. तेने अनुसरीने अनुभव थयो ते अनुभव केवो छे? अहाहा...!
अहाहा...! सम्यग्द्रष्टि-ज्ञानी हुं पूर्ण परमात्मस्वरूप छुं एम पोताने अनुभवे छे, रागवाळो, ने कर्मवाळो छुं एम अनुभवतो नथी. अरे, हुं एक छुं, शुद्ध छुं-एवो विकल्पेय त्यां नथी. अहा! आवी निर्विकल्प अनुभूति थई छे ते ज्ञानी कहे छे-अहा! शब्दोनी रचना शब्दोथी थई छे, ए क्रिया मारी छे, ने हुं एनो कर्ता छुं एम मने भासतुं नथी. में भाषण दीधुं, ने उपदेश आप्यो, ने आ मारो उपदेश-एम माने ए तो मिथ्याभाव छे, मिथ्या अभिमान छे. भाई, उपदेशनी भाषा कोण करे? शुं आत्मा करे? कदीय ना करे. भगवाननी दिव्यध्वनि नीकळे छे तेना कर्ता भगवान नथी. वाणी पोताथी प्रमाणिक छे, परथी प्रमाणिक कहेवी ए तो व्यवहार छे.
अहीं आचार्य भगवान पोतानी वात कहे छे के-समयसारनी व्याख्या करवानी क्रिया मारी नथी. ल्यो, आवी सरस अलौकिक टीका रची, ने हवे आचार्यदेव कहे छे-आ व्याख्या-टीका में करी छे, माराथी थई छे-एम नथी. हुं तो आत्मा छुं, स्वरूपगुप्त छुं, भाषानी क्रिया मारी छे एम छे ज नहि; शब्दोनी गूंथणी में करी छे एम छे ज नहि. गजबनी वात!
अहीं एक बीजी वातः सुनय एने कहीए जेने बीजा नयनी अपेक्षा होय, अर्थात् सुनय सापेक्ष छे. सापेक्षतानो अर्थ शुं? के पर्याय, भेद ने रागनुं लक्ष छोडवुं, तेनी उपेक्षा करवी. ल्यो, ए एनी सापेक्षता छे. जेमके-स्वभाव सन्मुख थतां निश्चयनय प्रगट थयो, तो निश्चयनयने बीजा नयनी अपेक्षा होवी जोईए के नहि? ल्यो, आवो प्रश्न थाय तो समाधान एम छे के-परनी-रागनी-भेदनी उपेक्षा ते अपेक्षा छे. आ सुनयनी व्याख्या कही.
कुनयमां बीजा अनेरा धर्मनी अपेक्षा नथी. प्रमाणमां निश्चयनयना विषय उपरांत व्यवहारनयने पर्यायने भेळववामां आवे छे; द्रव्य-पर्यायस्वरूपनुं ज्ञान कराववामां आवे छे. हवे निश्चयनयने व्यवहारनयनी अपेक्षा शुं? तो व्यवहारनो विषय जे भेद तेनुं लक्ष छोडवुं, पर्यायनुं लक्ष छोडवुं ते एनी सापेक्षता छे. आवो मारग अलौकिक छे भाई!
प्रश्नः– स्व-आश्रये निश्चयनय तो प्रगटयो, पण साथे बीजो नय न होय तो मिथ्यानय थई जाय. उत्तरः– पण बीजो नय होय एनो अर्थ शुं? ए ज के तेना विषयभूत पर्यायनी ने भेदनी उपेक्षा करवी. ल्यो, आ एनी सापेक्षता छे. एनुं लक्ष छोडी त्रिकाळी एक ज्ञायकमां एकाग्र थवुं तेनुं नाम सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान छे.
अहाहा...! समकितीने ज्ञाननी दशामां परनी क्रिया पोतानी भासती नथी. मतलब के पर्यायमां राग छे, लखती वेळा वाणीना जल्पनो विकल्प छे, अने शब्दो लखाय छे, पण जेनी द्रष्टिमां एक ज्ञायक वस्यो छे तेने ए बधी परनी क्रियाओ पोतानी छे, पोते करी छे एम भासतुं नथी. एने तो ए बधी क्रियाओ प्रति उदासीनता ने उपेक्षा ज छे.
वळी एक बीजी वातः नियमसारनी बीजी गाथामां आवे छे के-शुद्ध रत्नत्रयात्मक मार्ग परम निरपेक्ष होवाथी मोक्षनो उपाय छे. जुओ, निश्चय मोक्षमार्ग परम निरपेक्ष छे, तेमां व्यवहारनुं लक्ष नथी, व्यवहारनी तेने अपेक्षा नथी. आ रीते निश्चयने व्यवहारनी अपेक्षा नथी. भाई, आवो अंतरनो मार्ग अनंत काळमां एणे समजणमां लीधो नथी. बहारमां क्रियाकांड करीने मरी गयो पण अंतरनी चीज एणे लक्षमां लीधी नहि. अरे, जे उपेक्षायोग्य छे तेनी अपेक्षा कीधा करी, ने जेनुं अंतरलक्ष करवानुं छे तेनी एणे उपेक्षा ज कीधे राखी छे!
शुद्ध रत्नत्रयनो मार्ग परम निरपेक्ष छे. जुओ आ संतोनी वाणी! आ तो भगवाननी वाणी भाई! मळवी महा मुश्केल कहे छे-भगवान! तारा स्व-आश्रयमां परनी-रागनी ने भेदनी कोई अपेक्षा नथी. ज्यां व्यवहारनी अपेक्षा कही छे त्यां एनी उपेक्षा ए ज एनी अपेक्षा समजवी. गाथामां आवे छे ने के-
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अहा! आवो वीतरागनो मारग! एटले तो गाथामां (गाथा ११मां) व्यवहारनयने अभूतार्थ नाम असत्यार्थ कह्यो छे. एने अभूतार्थ जाणवो एनुं नाम एनी सापेक्षता. समजाणुं कांई...?
‘स्व–शक्ति–संसूचित–वस्तु–तत्त्वैः शब्दैः’ पोतानी शक्तिथी जेमणे वस्तुनुं तत्त्व (-यथार्थ स्वरूप) सारी रीते कह्युं छे एवा शब्दोए ‘इयम् समयस्य व्याख्या’ आ समयनी व्याख्या (-आत्मवस्तुनुं व्याख्यान अथवा समयप्राभृत शास्त्रनी टीका) ‘कृता’ करी छे; ‘स्वरुप गुप्तस्य अमृतचन्द्रसूरेः’ स्वरूपगुप्त (-अमूर्तिक ज्ञानमात्र स्वरूपमां गुप्त) अमृतचंद्रसूरिनुं ‘किच्चित् एव कर्तव्यं न अस्ति’ (तेमां) कांई ज कर्तव्य नथी.
जुओ, आचार्यदेव कहे छे-वस्तुतत्त्वने यथार्थ कहेनारा आ समयसार शास्त्रनी व्याख्या शब्दोथी रचायेली छे, माराथी नहि. अहा! शब्दोनी गुंथणीनी क्रिया शब्दोए ज करी छे, में करी छे एम नथी. पोतानी शक्तिथी शब्दोए ज वस्तुतत्त्व सारी रीते कह्युं छे. अहाहा...! शब्दोमां स्व-परने कहेवानी पोतानी ज शक्ति छे. जेम स्व-परने जाणवानी आत्मानी सहज ज शक्ति छे, तेम स्व-परने कहेवानी शब्दोनी सहज ज शक्ति छे. कोइ एम कहे के शब्दोनी रचना में करी छे तो एनी ए मूढता छे, पागलनी दशा छे. अरे भगवान! शब्दने तो आत्मा अडयोय नथी, ने शब्द आत्मानेय अडयो नथी. जगतनां अनंत तत्त्वो भिन्न भिन्न ज छे. आम छे त्यां शब्दोनी गूंथणी आत्मा करे ए वात ज कयां रहे छे?
प्रश्नः– ते प्रकारनुं ज्ञान काम करे त्यारे शब्दो नीकळे ने? उत्तरः– शब्दो शब्दोथी नीकळे छे, शब्दो तो जडनो भाव छे, तेमां ज्ञाननुं शुं काम छे? ज्ञान ज्ञाननुं काम करे, ज्ञाननुं शब्दोमां कांई ज काम नथी. आत्मा शब्दोनी क्रिया त्रणकाळमां करतो नथी.
भगवानने केवळज्ञान थतां दिव्य वाणी नीकळी ते त्रणकाळ त्रणलोकने यथार्थ जणावे, ए जणाववानी (कहेवानी) परमाणुमां स्वयंनी शक्ति छे, भगवान निमित्त हो, पण एमां भगवाननुं कांई ज कार्य नथी. शब्दोमां स्वपरना वस्तुस्वरूपने कहेवानी पोतानी ज शक्ति छे, ज्ञानने लईने छे एम नथी. ज्ञानने लईने वाणी खरी एम छे नहि. वाणी तो जड छे, तेमां आत्मानुं ज्ञान पेसतुं नथी. (पेसी शकतुं नथी). अहो! केटली स्पष्ट वात! आ समयसारनी व्याख्या शब्दोए करी छे, में अमृतचंद्रे नहि. अहा! ज्यां वाणीना विकल्पनो कर्ता आत्मा नथी, तो वाणीनो कर्ता केम होय?
त्यारे कोई कहे छे-आचार्यदेवे समयप्राभृतनी व्याख्या तो खरेखर करी छे, पण आमां एमणे पोतानी निरभिमानता बतावी छे, तेथी कहे छे-में कांई कर्युं नथी.
अरे भाई! शब्दो तो जड पुद्गलनी पर्याय छे, पुद्गलथी जुदो आत्मा वाणीने केम रचे? आचार्यदेव कहे छे -हुं तो स्वरूपगुप्त छुं. शब्दो ने शरीरथी भिन्न चैतन्यना आनंदमां मशगुल-लीन छुं, ज्ञानस्वभावमां रह्यो छुं, वाणीनी पर्याय एना परमाणुथी थई छे, मारे एनाथी शुं छे? हुं तो एने अडयोय नथी. समजाय छे कांई...?
ए तो एम कहेवाय के-कुंदकुंदाचार्यदेवे आ शास्त्र रच्युं, ने अमृतचंद्रदेवे टीका रची, परंतु ए तो निमित्त कोण हतुं एनुं एमां ज्ञान कराव्युं छे, बाकी एनी रचना शब्दोए ज करी छे, आचार्यदेवे नहि. आ शब्दोनी गूंथणी में करी नथी एम कह्युं एमां आचार्यदेवे वस्तुस्थिति बतावी छे. कोई द्रव्य कोई अन्य द्रव्यनुं काम करे नहि ए वस्तुनो पोकार छे बापु! अने एम ज जाण्युं छे ते आचार्यनी निरभिमानता छे. खरेखर करे अने में कर्युं नथी एम कहे एमां शुं निर्मानता छे? ए तो छल छे. पण आचार्यदेवे तो स्पष्ट वस्तुस्थिति अने पोतानी आत्मस्थिति आ कळशमां खुल्ली करी छे. अहाहा...! आचार्यदेव कहे छे-
हुं जीव छुं, शब्दो अजीव छेः हुं चैतन्य छुं, शब्दो जड छे; हुं अमूर्तिक-अरूपी छुं, शब्दो मूर्तिक-रूपी छे. हुं तो ज्ञानमात्र स्वभावमां गुप्त छुं, ज्यां छुं त्यां छुं, शब्दोमां गयो ज नथी; पछी वाणीनी रचना केम करुं? आ वाणीनी रचनामां मारुं कांई ज कर्तव्य नथी. जुओ आ वस्तुस्थिति कही. आचार्यदेवे आवी ज वस्तुस्थिति जाणी
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ते तेमनी निर्मानता छे. बाकी लोकमां तो एक-बे पुस्तक लखे त्यां तो ‘आ अमे लख्युं छे’ -एम फूलीने फाळको थई जाय; अने वळी बीजाने कहे के अमारी किंमत करवी जोईए. हवे शुं किंमत करे? जडनो कर्ता थयो ए ज किंमत थई गई; ए किंमतमां चार गतिमां रखडशे. समजाणुं कांई...?
‘शब्दो छे ते तो पुद्गल छे. तेओ पुरुषना निमित्तथी वर्ण-पद-वाकयरूपे परिणमे छे; तेथी तेमनामां वस्तुना स्वरूपने कहेवानी शक्ति स्वयमेव छे, कारण के शब्दनो अने अर्थनो वाच्यवाचक संबंध छे.’
जोयुं? ‘पुरुषना निमित्तथी’ -एम कह्युं; पण एनो अर्थ शुं? ए ज के शब्दोनी पद-वाकयरूप रचना शब्दोथी थाय छे, निमित्तथी नहि. एमां ज निमित्त निमित्त रह्युं. निमित्तथी थाय-कराय तो निमित्त कयां रह्युं? ‘निमित्तथी’ एम कहेवाय ए तो निमित्तपरक भाषा छे, बाकी निमित्त उपादानमां कांई ज करतुं नथी.
जुओ, शब्द वाचक छे, ने वस्तु वाच्य छे. आम होतां शब्दोमां वस्तुना स्वरूपने कहेवानी शक्ति स्वयमेव छे. वाचक शब्द वाच्यना कारणे छे, के वाच्य वाचकने लईने छे एम नथी, ने कहेनारो होंशियार छे तो वाचक शब्दो छे एम पण नथी. केवळी भगवानने दिव्यध्वनि नीकळे छे माटे एमां केवळज्ञाननी कांई असर छे एम नथी. भाई, जैन तत्त्वज्ञान बहु सूक्ष्म ने गहन छे. हवे कहे छे-
‘आ रीते द्रव्यश्रुतनी रचना शब्दोए करी छे ए वात ज यथार्थ छे. आत्मा तो अमूर्तिक छे, ज्ञानस्वरूप छे, तेथी ते मूर्तिक पुद्गलनी रचना केम करी शके? माटे ज आचार्यदेवे कह्युं छे के “आ समयप्राभृतनी टीका शब्दोए करी छे, हुं तो स्वरूपमां लीन छुं, मारुं कर्तव्य तेमां (-टीका करवामां) कांई ज नथी.” आ कथन आचार्यदेवनी निर्मानता पण बतावे छे.’
जुओ आ वस्तुस्थिति! अमूर्तिक ज्ञानस्वरूपी प्रभु आत्मा, कहे छे, रूपी जड पुद्गलोने केम करी रचे? न रचे. माटे समयप्राभृतनी टीका शब्दोए रची छे, अमृतचंद्रे नहि-आ सिद्धांत छे, आ वस्तुस्थिति छे. हुं तो स्वरूपगुप्त छुं एम कहीने आचार्यदेवे पोतानी अंतरदशा खुल्ली करी छे. आ कथनथी आचार्यदेवे पोतानी निर्मानता पण प्रगट करी छे. हवे व्यवहार कहे छे-
‘हवे जो निमित्तनैमित्तिक व्यवहारथी कहीए तो एम पण कहेवाय छे ज के अमुक कार्य अमुक पुरुषे कर्युं.’ जुओ, आ तो निमित्त कोण हतुं ए बताववा निमित्तनी मुख्यताथी आम कहेवाय छे. आवो कहेवानो व्यवहार छे, पण कार्य निमित्तथी थयुं छे एम छे नहि. आत्मा-पुरुष जडनुं काम करे एम छे नहि. हवे कहे छे-
‘आ न्याये आ आत्मख्याति नामनी टीका पण अमृतचंद्राचार्यकृत छे ज.’ जुओ आ निमित्तनुं कथन! व्यवहारथी आम कहेवाय, पण खरेखर अमृतचंद्राचार्य टीकाना रचयिता नथी, निमित्त छे बस. शब्दनी रचनाथी शास्त्र बन्युं छे, अमृतचंद्र तो निमित्तमात्र छे. जड परमाणुओ अक्षर-पद-वाकयपणे थया छे, आत्मा एने करी शकतो नथी. व्यवहारे अमृतचंद्रकृत कह्युं एनो एवो अर्थ नथी के जडनी अवस्था जड परमाणुओएय करी ने अमृतचंद्रे पण करी. वास्तवमां जडनी अवस्था जड ज करे, आत्मा नहि-आवी ज वस्तुव्यवस्था छे. छतां आत्माए- पुरुषे कर्युं एवुं कथन करवानो व्यवहार छे. हवे कहे छे-
‘तेथी तेने वांचनारा तथा सांभळनाराओए तेमनो उपकार मानवो पण युक्त छे; कारण के तेने वांचवा तथा सांभळवाथी पारमार्थिक आत्मानुं स्वरूप जणाय छे, तेनुं श्रद्धान तथा आचरण थाय छे, मिथ्या ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरण दूर थाय छे अने परंपराए मोक्षनी प्राप्ति थाय छे. मुमुक्षुओए आनो निरंतर अभ्यास करवायोग्य छे.’
जुओ, बहारमां मुमुक्षुओमां आवो व्यवहार होवायोग्य छे. शास्त्रनुं पठन-मनन, अने देव-गुरु-शास्त्र प्रति विनय-भक्तिरूप प्रवर्तन मुमुक्षुओमां अवश्य होवायोग्य छे एम अहीं व्यवहार दर्शाव्यो छे. स्व-आश्रय ते निश्चय छे. स्वरूपनी लगनी लागे तेने बहारमां आवो व्यवहार होय छे.
‘आम श्री समयसारनी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमनी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामनी टीका समाप्त थई.
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देशकी वचनिकामें लिखि जयचंद्र पढै संक्षेप अर्थ अल्पबुद्धिकूं पावनूं,
द्रव्य–भाव–नोकर्म तजि, आतमतत्त्व लखंत.’ –२.
अहाहा...! भरतक्षेत्रमां निज सार वस्तु शुद्धात्मा-पुण्य-पापरहित शुद्ध चैतन्यभाव-ते देखाडवा माटे आचार्य कुंदकुंददेवे गाथाबद्ध प्राकृतमां आ समयसार शास्त्र रच्युं छे. आचार्य अमृतचंद्रदेवे एनी आत्मख्याति नामनी संस्कृत टीका रची छे. अहाहा...! जेवो चैतन्यदेव प्रभु आत्मा छे तेवो वाणी द्वारा प्रसिद्ध कर्यो छे; तथा तेवी ज भावना भावी छे. तेनो जयचंद्र पंडिते चालती भाषामां बहु टुंको अर्थ लख्यो छे, जेथी अल्पबुद्धि जीवो पण पामी शके छे. ते तमे साचा मनथी भणो अने सांभळो. एक ज्ञाता-द्रष्टा एवो शुद्ध आत्मा-तेने ग्रहो. ते ज्ञानस्वरूपी एक चैतन्यबिंब छे. अहाहा...! जेमां देह, मन, वाणी, विकल्प नथी एवा शुद्ध चिदानंद स्वरूपनो अनुभव करो-एम कहे छे. -१.
अविकारी भगवान समयसारनुं अर्थात् सच्चिदानंद प्रभु आत्मानुं वर्णन सांभळनार द्रव्यकर्म, भावकर्म- पुण्यपापना भाव, अने नोकर्म-शरीरादिथी रहित थई शुद्ध चैतन्यस्वरूप निज आत्मतत्त्वने जाणे छे-अनुभवे छे. - २.
‘आ प्रमाणे आ समयप्राभृत (अथवा समयसार) नामना शास्त्रनी आत्मख्याति नामनी संस्कृत टीकानी देशभाषामय वचनिका लखी छे. तेमां संस्कृत टीकानो अर्थ लख्यो छे अने अति संक्षिप्त भावार्थ लख्यो छे; विस्तार कर्यो नथी. संस्कृत टीकामां न्यायथी सिद्ध थयेला प्रयोगो छे. तेमनो विस्तार करवामां आवे तो अनुमानप्रमाणनां पांच अंगोपूर्वक-(१) प्रतिज्ञा’ -एटले शुं कहेवा मागीए छीए एनी प्रतिज्ञा करवी (२) ‘हेतु’ -हेतु बताववो (३) ‘उदाहरण’ -दाखलो आपवो (४) ‘उपनय’ -संज्ञारूपने मेळववुं अथवा निर्णय करवो (प) ‘अने निगमनपूर्वक’ -सरवाळो करवो-एमा पांच बोल छे. आ पांच अंगोनुं ‘स्पष्टताथी’ -विशेष विस्तारथी ‘व्याख्यान लखतां ग्रंथ बहु वधी जाय; तेथी आयु, बुद्धि, बळ अने स्थिरतानी अल्पताने लीधे’ तेथी ओछुं आयुष्य, ओछी बुद्धि, बळ थोडुं अने अल्प स्थिरताने लीधे ‘जेटलुं बनी शकयुं तेटलुं, संक्षेपथी प्रयोजनमात्र लख्युं छे. ते वांचीने भव्य जीवो पदार्थने समजजो. कोई अर्थमां हीनाधिकता होय तो बुद्धिमानो मूळ ग्रंथमांथी जेम होय तेम यथार्थ समजी लेजो. आ ग्रंथना गुरुसंप्रदायनो (गुरुपरंपरागत उपदेशनो) व्युच्छेद थई गयो छे,’ अर्थात् अध्यात्म स्वरूप-अलौकिक चीज-एनी परंपरा तूटी गई छे. ‘माटे जेटलो बनी शके तेटलो अभ्यास थई शके छे. तोपण जेओ स्याद्वादमय जिनमतनी आज्ञा माने छे, तेमने विपरीत श्रद्धान थतुं नथी. कयांक अर्थनुं अन्यथा समजवुं पण थई जाय तो विशेष बुद्धिमाननुं निमित्त मळ्ये यथार्थ थई जाय छे. जिनमतनी श्रद्धावाळाओ हठग्राही होता नथी.’
हवे अंतमंगळने अर्थे पंच परमेष्ठीने नमस्कार करी शास्त्र समाप्त करीए छीए;-
मंगल सिद्ध महंत कर्म आठों परजारे;
आचारज उवज्झाय मुनी मंगलमय सारे,
दीक्षा शिक्षा देय भव्यजीवनिकूं तारे;
अठवीस मूलगुण धार जे सर्वसाधु अणगार हैं,
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अहाहा...! चार घातिकर्मनो नाश करी जेओए परमात्मपद प्राप्त कर्युं छे ते भगवान अनंतचतुष्टयधारी अरिहंत छे. अहाहा...! आत्मानी हीणी दशामां निमित्त जे कर्म तेने जेणे दूर कर्यां छे, अर्थात् जे शरीर रहित थईने एकला पूर्ण आनंदमूर्ति-ज्ञानमूर्ति आत्मापणे थया छे, ने जेणे सर्व पराश्रयनो नाश कर्यो छे ते भगवान सिद्ध छे. वीतरागी संत, आत्माना आनंदना साधक एवा आचार्य, उपाध्याय अने मुनि-आ त्रणेय मंगलमय छे. आचार्य दीक्षा-शिक्षा दई भव्य जीवोने तारे छे. अठ्ठावीस मुलगुणने धरनार एवा सर्व साधु अणगार छे. मंगळना हेतुना करनार होवाथी हुं ए पंचगुरुना चरणकमळमां नमस्कार करुं छुं. पापनो नाश अने पवित्रतानी प्राप्तिमां जे निमित्त छे एवा पंच परमेष्ठीने अहीं मंगळ कह्या छे.
हवे पं. जयचंद्रजी पोतानी वात कहे छेः-
जयपुर नगरमां जैनोनी मोटी वस्ती छे, मंदिरो छे. मोटा मोटा गुणीजनो ग्रंथना सारनो अभ्यास करे छे. एमां जयचंद्र नामे हुं एक थयो. मने कांईक थोडो अभ्यास छे. मारी बुद्धि प्रमाणे धर्मानुरागथी में आ समयसार ग्रंथनो देशी-चालती भाषामां अर्थ कर्यो छे. तेने जाणो, सांभळो, ने निर्णय करो. सांभळ्युं कयारे कहेवाय? के कह्या प्रमाणे समजी अंतरमां स्वसंवेदन करे; अंदर आनंदनी अनुभूति प्रगट करे त्यारे सांभळ्युं कहेवाय. माटे स्वपरनो भेद जाणी हेयने त्यागीने शुद्ध आत्माने ग्रहण करो. ल्यो, आटलो ज सार छे. आ विना बधुं थोथां छे एम कहे छे.
चौसठि कातिक वदि दशै, पूरण ग्रंथ सुठौर. –३.
संवत अढारसो चोसठ, कारतक वदी दसमने दिने आ ग्रंथनी वचनिका पूर्ण थई. आम श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत समयप्राभृत नामना प्राकृतगाथाबद्ध परमागमनी श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामनी संस्कृत टीका अनुसार पंडित जयचंद्रजीकृत संक्षेपभावार्थमात्र देशभाषामय वचनिका उपरनां परमोपकारी आत्मज्ञ संत श्री कानजीस्वामीनां सारगर्भित मनोज्ञ प्रवचनो समाप्त थयां.