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ज्ञानी जनोऽनुभवति स्वयमुल्लसन्तम्।
अज्ञानिनो निरवधिप्रविजृम्भितोऽयं
मोहस्तु तत्कथमहो बत नानटीति।। ४३ ।।
नानटयतां तथापि–
वर्णादिमान्नटति पुद्गल एव नान्यः।
रागादिपुद्गलविकारविरुद्धशुद्ध–
चैतन्यधातुमयमूर्तिरयं च जीवः।। ४४ ।।
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श्लोकार्थः– [इति लक्षणतः] आम पूर्वोक्त जुदां लक्षणने लीधे [जीवात् अजीवम् विभिन्नं] जीवथी अजीव भिन्न छे [स्वयम् उल्लसन्तम्] तेने (अजीवने) तेनी मेळे ज (-स्वतंत्रपणे, जीवथी भिन्नपणे) विलसतुं-परिणमतुं [ज्ञानी जनः] ज्ञानी पुरुष [अनुभवति] अनुभवे छे, [तत्] तोपण [अज्ञानिनः] अज्ञानीने [निरवधि–प्रविजृम्भितः अयं मोहः तु] अमर्यादपणे फेलायेलो आ मोह (अर्थात् स्वपरना एकपणानी भ्रान्ति) [कथम् नानटीति] केम नाचे छे- [अहो बत] ए अमने महा आश्चर्य अने खेद छे! ४३.
वळी फरी मोहनो प्रतिषेध करे छे अने कहे छे के ‘जो मोह नाचे छे तो नाचो! तोपण आम ज छे’ः-
श्लोकार्थः– [अस्मिन् अनादिनि महति अविवेक–नाटये] आ अनादि काळना मोटा अविवेकना नाटकमां अथवा नाचमां [वर्णादिमान् पुद्गलः एव नटति] वर्णादिमान पुद्गल ज नाचे छे, [न अन्यः] अन्य कोई नहि; (अभेद ज्ञानमां पुद्गल ज अनेक प्रकारनुं देखाय छे, जीव तो अनेक प्रकारनो छे नहि; [च] अने [अयं जीवः] आ जीव तो [रागादि–पुद्गल– विकार–विरुद्ध–शुद्ध–चैतन्यधातुमय–मूर्तिः] रागादिक पुद्गल-विकारोथी विलक्षण, शुद्ध चैतन्यधातुमय मूर्ति छे.
भावार्थः– रागादि चिद्दविकारने (-चैतन्यविकारोने) देखी एवो भ्रम न करवो के ए पण चैतन्य ज छे, कारण के चैतन्यनी सर्व अवस्थाओमां व्यापे तो चैतन्यना कहेवाय. रागादि विकारो तो सर्व अवस्थाओमां व्यापता नथी-मोक्ष- अवस्थामां तेमनो अभाव छे. वळी तेमनो अनुभव पण आकुळतामय दुःखरूप छे. माटे तेओ चेतन नथी, जड छे. चैतन्यनो अनुभव निराकुळ छे, ते ज जीवनो स्वभाव छे एम जाणवुं. ४४.
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जीवाजीवौ स्फुटविघटनं नैव यावत्प्रयातः।
विश्वं व्याप्य प्रसभविकसद्वयक्तचिन्मात्रशक्त्या
ज्ञातृद्रव्यं स्वयमतिरसात्तावदुच्चैश्चकाशे।। ४५ ।।
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हवे, भेदज्ञाननी प्रवृत्ति द्वारा आ ज्ञाताद्रव्य पोते प्रगट थाय छे एम कळशमां महिमा करी अधिकार पूर्ण करे छेः-
श्लोकार्थः– [इत्थं] आ प्रमाणे [ज्ञान–क्रकच–कलना–पाटनं] ज्ञानरूपी करवतनो जे वारंवार अभ्यास तेने [नाटयित्वा] नचावीने [यावत्] ज्यां [जीवाजीवौ] जीव अने अजीव बन्ने [स्फुट–विघटनं त एव प्रयातः] प्रगटपणे जुदा न थया, [तावत्] त्यां तो [ज्ञातृद्रव्यं] ज्ञाताद्रव्य, [प्रसभ–विकसत्–व्यक्त–चिन्मात्रशक्तया] अत्यंत विकासरूप थती पोतानी प्रगट चिन्मात्रशक्ति वडे [विश्वं व्याप्य] विश्वने व्यापीने, [स्वयम्] पोतानी मेळे ज [अतिरसात्] अति वेगथी [उच्चैः] उग्रपणे अर्थात् अत्यंतपणे [चकाशे] प्रकाशी नीकळ्युं.
भावार्थः– आ कळशनो आशय बे रीते छेः-
उपर कहेला ज्ञाननो अभ्यास करतां करतां ज्यां जीव अने अजीव बन्ने स्पष्ट भिन्न समजाया के तुरत ज आत्मानो निर्विकल्प अनुभव थयो-सम्यग्दर्शन थयुं. (सम्यग्द्रष्टि आत्मा श्रुतज्ञान वडे विश्वना समस्त भावोने संक्षेपथी अथवा विस्तारथी जाणे छे अने निश्चयथी विश्वने प्रत्यक्ष जाणवानो तेनो स्वभाव छे; माटे ते विश्वने जाणे छे एम कह्युं.) एक आशय तो ए प्रमाणे छे.
बीजो आशय आ प्रमाणे छेः जीव-अजीवनो अनादि जे संयोग ते केवळ जुदो पडया पहेलां अर्थात् जीवनो मोक्ष थया पहेलां, भेदज्ञान भावतां भावतां अमुक दशा थतां निर्विकल्प धारा जामी-जेमां केवळ आत्मानो अनुभव रह्यो; अने ते श्रेणि अत्यंत वेगथी आगळ वधतां वधतां केवळज्ञान प्रगट थयुं. पछी अघातीकर्मनो नाश थतां जीवद्रव्य अजीवथी केवळ भिन्न थयुं. जीव-अजीवना भिन्न थवानी आ रीत छे. ४प.
टीकाः– आ प्रमाणे जीव अने अजीव जुदा जुदा थईने (रंगभूमिमांथी) बहार नीकळी गया.
भावार्थः– जीव-अजीव अधिकारमां पहेलां रंगभूमिस्थळ कहीने त्यार पछी टीकाकार आचार्ये एम कह्युं हतुं के नृत्यना अखाडामां जीव-अजीव बन्ने एक थईने प्रवेश करे
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छे अने बन्नेए एकपणानो स्वांग रच्यो छे. त्यां, भेदज्ञानी सम्यग्द्रष्टि पुरुषे सम्यग्ज्ञान वडे ते जीव-अजीव बन्नेनी तेमना लक्षणभेदथी परीक्षा करीने बन्नेने जुदा जाण्या तेथी स्वांग पूरो थयो अने बन्ने जुदा जुदा थईने अखाडानी बहार नीकळी गया. आम अलंकार करीने वर्णन कर्युं.
सम्यक् भेदविज्ञान भये बुध भिन्न गहे निजभाव सुदावैं;
श्री गुरुके उपदेश सुनै रु भले दिन पाय अज्ञान गमावैं.
ते जगमांहि महंत कहाय वसैं शिव जाय सुखी नित थावैं.
आम श्री समयसारनी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमनी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामनी टीकामां जीव-अजीवनो प्ररूपक पहेलो अंक समाप्त थयो.
हवे एम कहे छे के जेम वर्णादि भावो जीव नथी तेम ए पण सिद्ध थयुं के रागादि भावो पण जीव नथीः-
अहा! आ चौद गुणस्थानो पण अजीव छे. एमां शुद्ध चैतन्यनुं रूप कयां छे? तेओ आत्मानी जात कयां छे? जो ते आत्मानी जातनां होय तो सिद्धमां पण रहेवां जोईए. अहाहा! एक चिदाकार विज्ञानघनस्वरूप आत्मा छे. तेनी अपेक्षाए चौदेय गुणस्थानोने पुद्गलना परिणाम कह्या छे. केमके मोहकर्मना उदयथी जे आ गुणस्थानो कह्यां छे ते जीव केम बने? तेओने तो निरंतर अचेतन ज भाख्यां छे. तेथी तेओ जीव नथी एम कहे छेः-
आ मिथ्यात्वादि गुणस्थानो पौद्गलिक मोहकर्मनी प्रकृतिना उदयपूर्वक थाय छे एम कहे छे. जुओ, मोहकर्मनो उदय आवे एटले विकार करवो पडे ने? भाई! अहीं एम कहेवुं नथी. अहीं तो जे उदय छे ते कारण छे अने तेना तरफ वळेली पोतानी जे विकारी दशा छे ते कार्य छे अने ते बन्ने एक छे एम कहे छे.
प्रश्नः– कर्मनो उदय आवे ते निमित्त थईने ज आवे छे अने तेथी जीवने डीग्री टु डीग्री विकार करवो ज पडे छे एम छे के नहि?
उत्तरः– प्रभु! एम न होय, भाई! जे कर्मनो उदय छे ए तो जडनी पर्याय छे अने जीवनी पर्यायमां जे विकारी भाव थाय छे ए तो एने अडतोय नथी कारण के एकबीजामां तेमने अन्योन्य अभाव छे. परंतु अहीं तो बीजी वात ए कहेवी छे के
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ए विकारी भाव निमित्तने लक्षे थयेलो छे अने जीवद्रव्यना स्वभावमां नथी तेथी तेने पुद्गलनुं कार्य गणीने जीवमांथी काढी नाखवो छे.
प्रवचनसारनी गाथा १८९मां एम आवे छे के शुद्धनयथी आत्मा विकारनो र्क्ता स्वतः छे. परने लईने के कर्मना उदयने लईने विकार थतो नथी एम त्यां कह्युं छे. पंचास्तिकायनी गाथा ६२मां पण कह्युं छे के आत्मानी विकारी पर्यायनुं परिणमन पोताना षट्कारकथी स्वतः छे अने ते अन्य कारकोथी निरपेक्ष छे. एटले के जीवनी पर्यायमां जे विकारनुं परिणमन थाय छे एने कर्मना उदयनी अपेक्षा नथी एम त्यां सिद्ध कर्युं छे. परंतु अहीं अपेक्षा जुदी छे. अहीं तो कहे छे के पर्यायमां जे विकार थाय छे ते द्रव्यस्वभावमां नथी. विकार द्रव्यनी चीज नथी. एटला माटे पर्यायना विकारने अने कर्मने बन्नेने एक गणीने विकार कर्मप्रकृतिना उदयपूर्वक थाय छे एम कह्युं छे. प्रकृति जड अचेतन छे तेथी विकार पण सदाय अचेतन छे एम कह्युं छे.
कर्मनो उदय आवे तेम डीग्री टु डीग्री विकार करवो पडे ए तो बे द्रव्योनी एक्तानी वात छे तेथी तद्न मिथ्या छे. श्री जयसेनाचार्यनी प्रवचनसार गाथा ४पनी टीकामां तो आवे छे के द्रव्यमोहकर्मनो उदय होवा छतां, जीव जो पोते शुद्धपणे परिणमे तो, उदय खरी जाय छे. कर्मनो उदय आवे छे माटे जीवने विकार करवो पडे छे एम बिलकुल नथी. पोताना वर्तमान पुरुषार्थनी जेटली योग्यता होय तेटलो विकारपणे परिणमे छे. कर्मनो उदय होय छतां उदयपणे न परिणमे ए पोतानी-जीवनी परिणतिनी स्वतंत्रता छे. अहीं बीजी अपेक्षाए वात छे. के पोतानी परिणतिमां जे विकार-अशुद्धता थाय छे ते कर्मने आधीन-वश थईने थाय छे तेथी कर्मने कारणे थाय छे एम कह्युं छे.
गाथा ६प-६६मां पर्याप्त, अपर्याप्त, बादर, सूक्ष्म आदि भेदो नामप्रकृतिथी थया छे एम लीधुं हतुं. अहीं मिथ्यात्वादि चौदेय गुणस्थानो मोहकर्मनी प्रकृतिना उदयथी थया छे एम कहे छे. जयसेनाचार्यनी टीकामां ‘मोहजोग भवा’ एवुं श्री गोम्मटसारनुं वचन उद्धत करी दर्शाव्युं छे के मोह अने योगना निमित्तथी आ बधा गुणस्थानना भेद पडे छे.
कहे छे के आ मिथ्यात्वादि गुणस्थानो-पहेलाथी मांडीने चौदमा गुणस्थान सुधीना- बधाय पौद्गलिक मोहकर्मनी प्रकृतिना उदयपूर्वक थाय छे अने तेथी तेओ सदाय अचेतन छे. संस्कृत टीकामां ‘विपाक’ शब्द लीधो छे, ज्यारे गुजरातीमां ‘उदय’ शब्द छे. जे जड मोहकर्म छे एना उदय नाम विपाककाळे विपाकपूर्वक आ चौद गुणस्थान थाय छे. तेवी रीते विशुद्धिनां स्थान-रागनी मंदतानां स्थान अर्थात् असंख्य प्रकारना प्रशस्त शुभरागना भाव पण मोहकर्मनी प्रकृतिना विपाकपूर्वक थाय छे अने तेथी ते अचेतन
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पुद्गल छे. आ जे दया, दान, व्रत, तप, भक्ति आदि जे शुभभाव-विशुद्धभाव छे ते सर्व पुद्गल-कर्मना विपाकपूर्वक थयेला छे अने तेथी अचेतन पुद्गल छे एम कहे छे.
प्रश्नः– रागने आत्मानी पर्याय कही छे ने? रागनुं परिणमन पर्यायमां छे अने तेमां आत्मा तन्मय छे एम कह्युं छे ने?
उत्तरः– भाई! ए तो पर्याय अपेक्षाए वात छे. पर्यायमां राग छे ए बराबर छे, पण अहीं तो वस्तुनो स्वभाव सिद्ध करवो छे. अहीं तो त्रिकाळी स्वभावनी द्रष्टि कराववी छे, अने वस्तुना स्वभावमां तो रागादिभाव छे ज नहि. आत्मा अनंत शक्तिनो अभेद पिंड छे. एमां कोई शक्ति (गुण) एवी नथी के विकारने करे. तेथी वस्तुना स्वभावनी द्रष्टिथी जोतां ते बधा रागादि भावो पुद्गलकर्मना विपाकनुं ज कार्य जणाय छे. अहाहा! आ व्यवहारमोक्षमार्गनो जे शुभराग छे ते पुद्गलना विपाकपूर्वक थतो होवाथी पुद्गल छे अने सदाय अचेतन छे.
हवे कहे छे के कारणनां जेवां ज कार्यो होय छे. पुद्गल मोहकर्म कारण छे तो कार्य- गुणस्थान आदि पुद्गल ज होय छे.
प्रश्नः– शास्त्रोमां तो एम आवे छे ने के उपादानसद्रश (उपादान जेवां) कार्य होय छे?
उत्तरः– ए तो पर्याय सिद्ध करवी होय एनी वात छे. ए अहीं हमणां नथी लेवुं. अहीं तो कर्मना विपाकना कारणपूर्वक थयां होवाथी शुभपरिणामने अने गुणस्थानोने पुद्गलनां कह्यां छे, अचेतन कह्यां छे.
हवे दाखलो आपे छे के जवपूर्वक जे जव थाय छे ते जव ज होय छे. आ न्याये पुद्गलना पाकथी थयेला शुभराग अने गुणस्थान पुद्गल ज छे, जीव नथी.
प्रश्नः– तत्त्वार्थसूत्रमां तो एम आवे छे के राग, गुणस्थान आदि जे उदयभाव छे ते जीवतत्त्व छे?
उत्तरः– त्यां तो जीवनी पर्याय सिद्ध करवी छे. तेथी पर्याय अपेक्षाए ए बराबर छे. परंतु अहीं तो स्वभाव सिद्ध करवो छे ने? तथा हवे पछी र्क्ता-कर्म अधिकार शरू करवानो छे. तेनो आ उपोद्घात छे. छे तो आ जीव-अजीव अधिकार, पण आ छेल्ली गाथा पछी र्क्ता-कर्म अधिकार लेवो छे, तेथी अहींथी ज उपाडयुं छे के पुद्गल कारण छे एटले एनुं कार्य पुद्गल ज छे. अहीं चौदेय गुणस्थान पुद्गल मोहकर्मना कारणपूर्वक थता होवाथी पुद्गल ज छे एम कह्युं छे, आगळ १०९ थी ११२ गाथामां तेर गुणस्थान पुद्गल छे एम कहेशे. तेओ र्क्ता एवा पुद्गलनुं कार्य-कर्म छे. नवां कर्म जे बंधाय छे तेमां तेर गुणस्थान जेओ पुद्गल छे ते कारण छे. त्यां एम लीधुं
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छे के जूनां कर्म व्यापक थईने ते तेर गुणस्थानने-व्याप्यने करे छे. जूनां कर्म व्यापक छे अने तेर गुणस्थान तेनुं व्याप्य छे. तथा तेर गुणस्थान व्यापक थईने नवां कर्मने-व्याप्यने करे छे. तेर गुणस्थान व्यापक छे अने नवां कर्म जे बंधाय ते एनुं व्याप्य छे.
प्रश्नः– स्वद्रव्य व्यापक अने तेनी पर्याय ते व्याप्य एम व्याप्य-व्यापकपणुं स्वद्रव्यमां ज होय छे ने?
उत्तरः– भाई! त्यां (१०९ थी ११२ गाथामां) तो र्क्ता-कर्मपणुं बताववुं छे. तेथी जे गुणस्थान छे ए ज र्क्ता छे अने नवा कर्मनुं बंधन थयुं ते एनुं कर्म छे; गुणस्थान छे ते व्यापक छे अने जे कर्म बंधाय छे ते एनुं व्याप्य-अवस्था छे एम कह्युं छे. तेर गुणस्थान पुद्गल छे ते कोना र्क्ता छे? नवां कर्म बंधाय छे तेना. तेर गुणस्थान पुद्गल छे ते व्यापक थईने नवां कर्मनी अवस्था-व्याप्य करे छे. अहाहा! तेर गुणस्थानने जडनी साथे व्याप्य- व्यापक संबंध बताव्यो छे! व्याप्य-व्यापकपणुं तो स्वद्रव्यमां ज होय छे, परनी साथे व्याप्य- व्यापक संबंध होय ज नहि. पण त्यां वस्तुना स्वभावनी द्रष्टि कराववा ए प्रमाणे कह्युं छे. स्वभावनी द्रष्टि कराववाना प्रयोजनथी त्यां कह्युं के विकारभाव-शुभभाव ते र्क्ता-व्यापक अने जे नवुं कर्म बंधाय ते एनुं कर्म-व्याप्य छे. अहाहा! आवा केटला भंग पडे छे! जो साची समजण न करे तो ऊंधुं पडे एम छे.
कहे छे के पुद्गलना विपाकपूर्वक थाय छे तेथी गुणस्थान आदि पुद्गल ज छे. अने ते पुद्गलभाव (गुणस्थान आदि) व्यापक थईने नवां कर्मने बांधे छे जे एनुं व्याप्य छे. अहाहा! स्वभाव तो शुद्ध चैतन्यमय छे, तेथी ते र्क्ता अने विकार एनुं कार्य एम केम बने? (न ज बने). माटे विकारी कार्यने कर्मनुं कार्य गण्युं छे अने तेने नवां कर्मनी पर्यायनुं कारण गण्युं छे. शुं कह्युं? समजाणुं कांई? जूनां कर्म कारण-व्यापक छे अने विकार, गुणस्थान आदि भेद जे थाय छे ते तेनुं कार्य-व्याप्य छे. तथा ते विकार, गुणस्थान आदि भेद कारण छे अने नवा कर्मनी अवस्था थाय छे ते एनुं कार्य-व्याप्य छे. आम व्याप्य-व्यापकपणुं गुणस्थान आदि भेदो अने कर्म वच्चे स्थाप्युं छे कारण के र्क्ता-कर्म संबंध बताववो छे.
अहा! गुणस्थान पुद्गल ज छे, भाषा तो जुओ! प्रवचनसारनी १८९ गाथामां शुद्धनयथी राग जीवनो छे एम कह्युं छे. शुद्धनयथी एटले के स्वद्रव्यनी पर्याय-राग पोताथी पोताना आश्रये (कारणे) थाय छे, कर्मथी नहि. तेथी स्वाश्रित रागनी पर्यायने निश्चयथी जीवनी छे एम कह्युं छे. आत्मा व्यापक थईने ते शुभभावना रागनो र्क्ता थाय छे माटे शुभराग ते आत्मानुं व्याप्य छे एम त्यां (प्रवचनसारमां) कह्युं छे केमके त्यां पर्याय स्वतः सिद्ध करवी छे. ज्यारे अहीं द्रव्यस्वभाव सिद्ध करवो छे. तेथी कह्युं ने के
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गुणस्थानादि कर्मना विपाकपूर्वक थाय छे तेथी पुद्गल ज छे, सदाय अचेतन छे, जीव नथी.
अहाहा! गुणस्थानोनुं पुद्गल साथे र्क्ताकर्मपणुं त्रण प्रकारे सिद्ध कर्युं छे. १. युक्ति, २. आगम, ३. अनुभवथी.
(१) एक तो ए के गुणस्थानो पुद्गलना विपाकपूर्वक थाय छे माटे पुद्गल ज छे, जीव नथी. तेमां युक्ति बतावी के जवपूर्वक जे जव थाय छे ते जव ज छे. तेम पुद्गलपूर्वक थता गुणस्थानो पुद्गल ज छे.
(२) हवे आगमथी सिद्ध करे छे के गुणस्थानोनुं सदाय अचेतनपणुं आगमथी सिद्ध छे. निश्चयना आगमनो-परमागमनो ए सिद्धांत छे के गुणस्थान अचेतन छे, पुद्गल छे, केमके ते मोह अने योगथी थयेलां छे.
प्रश्नः– आगममां तो गुणस्थान आदि भावो जीवना छे एम छे ने?
उत्तरः– भाई! ए पर्यायनी सिद्धि करनार आगम छे. ज्यारे अहीं तो वस्तुना स्वभावनी सिद्धि करनार आगमनी वात छे. आ वात पहेलां आवी गई छे. अध्यवसान आदि भावोने तमे पुद्गलना कहो छो पण सर्वज्ञना आगममां तो तेमने जीवपणे कह्या छे? तेनो उत्तर गाथा ४६मां आप्यो छे के ते भावोने व्यवहारथी जीवना कह्या छे पण निश्चयथी तेओ जीवना नथी. आ व्यवहार अने निश्चय-जेम छे तेम यथार्थ समजवा जोईए. बे प्रकार थया, हवे त्रीजो.
(३) भेदज्ञानीओ वडे चैतन्यस्वभावी आत्माथी गुणस्थानोनुं भिन्नपणुं स्वयं उपलभ्यमान छे. ४४मी गाथामां पण आ वात आवी गई छे. भगवान आत्मा चैतन्यस्वभावथी व्याप्त चिदानंदघन प्रभु छे. एनो भेदज्ञानीओ गुणस्थान आदिथी भिन्नपणे अनुभव करे छे. एटले के चैतन्यना अनुभवमां ए गुणस्थान आदि भेदो आवता नथी, भिन्न रही जाय छे.
अहाहा! चैतन्यस्वभावथी व्याप्त-प्रसरेलो प्रभु आत्मा छे. तेनो अनुभव करनार भेदज्ञानीओ वडे गुणस्थानो आत्माथी भिन्नपणे स्वयं उपलभ्यमान छे. अहाहा! ज्ञाननी जे वर्तमान पर्याय अंतरमां वळे छे ते पर्याय द्वारा, आ गुणस्थानो आत्माथी भिन्न छे एम स्वयं उपलभ्यमान थाय छे. शुं कह्युं? ज्ञानीने जे स्वानुभूतिनी परिणति थाय छे एनाथी गुणस्थानो (भेदो) भिन्न रही जाय छे, एमां गुणस्थानना भेद आवता नथी. आवी वात छे, प्रभु! आ प्रमाणे गुणस्थान आदि पुद्गलपूर्वक थवाथी पुद्गल ज छे, एक वात. आगम पण तेने पुद्गल ज कहे छे, बीजी वात. अने चैतन्यस्वभावी आत्मानो अनुभव करनार भेदज्ञानीओने पण ते गुणस्थानो स्वयं पोताथी भिन्न देखाय
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छे, तेओ अनुभवमां आवता नथी, ए त्रीजी वात. माटे तेओ सदाय अचेतन पुद्गल ज छे एम सिद्ध थाय छे. गंभीर तत्त्व छे, भाई! धीरेथी, शांतिथी एने समजवुं जोईए.
अहा! विशुद्धिस्थान एटले के असंख्य प्रकारना जे प्रशस्त शुभभाव छे ते पुद्गलना विपाकपूर्वक थया होवाथी, जवना कारणथी जेम जव ज थाय छे तेम, पुद्गल ज छे. आगम पण शुभभावने पुद्गल ज कहे छे. अने चैतन्यस्वभावथी व्याप्त भगवान आत्मानो अनुभव करनारने शुभभाव पोताथी भिन्न ज भासे छे अर्थात् अनुभूतिमां ए शुभभाव आवता नथी, भिन्न ज रही जाय छे. माटे शुभभाव पुद्गल ज छे एम सिद्ध थाय छे. थोडामां पण घणुं कह्युं छे. अहो! श्री कुंदकुंदाचार्ये अने श्री अमृतचंद्राचार्ये जैनधर्मनो धोध वहेवडाव्यो छे! कहे छे के शुभभावनो राग ए कांई जैनधर्म नथी, जैनधर्म तो एक वीतरागभाव ज छे. वीतरागी परिणति ए जैनधर्म छे, परंतु वीतरागी परिणतिनी साथे धर्मीने जे शुभभावनो राग छे ए पुद्गल छे केमके ए पुद्गलना विपाकपूर्वक थाय छे. वस्तु आत्मा तो स्वभावथी शुद्ध चैतन्यमय छे. एमां राग नथी तो एनुं कार्य केम होय? (न ज होय). तेथी ते रागनुं कार्य पुद्गलना विपाकपूर्वक थयुं होवाथी पुद्गलनुं ज छे एम कह्युं छे.
प्रश्नः– राग तो आत्मानी व्याप्य अवस्था छे ने? व्यापक आत्मानी राग व्याप्य अवस्था छे ने?
उत्तरः– भाई! अहीं चैतन्यस्वभावी आत्मानी द्रष्टि कराववी छे, तेथी पुद्गलकर्मना विपाकपूर्वक थतो होवाथी रागने पुद्गल ज कह्यो छे, केमके पुद्गल कारण थईने जे थाय ते पुद्गल होय छे. आगम-सिद्धांत पण एने पुद्गल कहे छे. तथा चैतन्यस्वभावी आत्मानो अनुभव करनार ज्ञानीने राग स्वयं भिन्नपणे जणाय छे. ज्ञाननी पर्याय अंतरमां वळतां एटले के चैतन्यस्वभावी आत्मानो अनुभव थतां, एमां रागनो अनुभव आवतो नथी पण ते भिन्नपणे स्वयं उपलभ्यमान छे. एटले शुं कह्युं? के अनुभव थतां, राग के जे पुद्गल छे ते ज्ञानमां स्वतः भिन्नपणे जणाई जाय छे. बहु सूक्ष्म वात, भाई! वस्तुनी स्थिति ज आवी सूक्ष्म छे.
आ रीते तेमनुं-गुणस्थान आदिनुं सदाय अचेतनपणुं सिद्ध थाय छे. एटले के चैतन्यस्वभावथी व्याप्त भगवान आत्मानो अनुभव करतां तेओ भिन्न रही जाय छे, अनुभूतिमां आवता नथी माटे तेओ सदाय अचेतन ज छे एम सिद्ध थाय छे. अनुभव छे ए शुद्ध ज्ञान-दर्शनना परिणाम छे. ए अनुभवमां, आ भगवाननी स्तुति, वंदना, भक्ति अने प्रभावनानो राग इत्यादि बधी हा-हो आवतां नथी पण भिन्न रही जाय छे तेथी ते पुद्गलना ज परिणाम छे. आवी वात छे, भाई!
प्रश्नः– तो बहारमां धर्मनो प्रचार करवो के नहि?
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उत्तरः– बापु! धर्म कयां बहारमां रह्यो छे? धर्मनी पर्याय तो चैतन्यस्वभावथी व्याप्त चिदानंद भगवाननी तरफ ढळतां प्रगट थाय छे, अने त्यारे शुभराग तो भिन्न रही जाय छे. भाई! जेने धर्मनी पर्याय-अनुभूति प्रगट थाय छे ते धर्मीने तो ए रागनी पर्याय पोताथी भिन्न भासे छे. अनुभवमां राग आवतो नथी एम कहे छे. अहाहा! शुभराग होय छे खरो, पण ए तो स्वथी भिन्न छे एम धर्मी जीव ज्ञान करे छे. गजब वात छे! युक्ति, आगम अने अनुभव एम त्रण प्रकारे रागादि पुद्गल ज छे एम सिद्ध कर्युं छे.
अहीं रागने पर तरीके सिद्ध करवो छे. चैतन्यस्वभावमां राग नथी एम सिद्ध करवुं छे. आत्मा व्यापक अने राग तेनुं व्याप्य एम जे आवे छे त्यां अपेक्षा जुदी छे. त्यां तो रागनी पर्याय द्रव्यनी छे, राग द्रव्यनी पर्यायना अस्तित्वपणे छे, परने कारणे रागनी उत्पत्ति थई छे एम नथी-एम सिद्ध करवुं छे. ज्यारे अहीं चैतन्यस्वभावथी व्याप्त चिदानंदस्वरूप भगवान आत्माना अनुभवमां राग भिन्न रही जाय छे माटे ते चैतन्यथी भिन्न अचेतन छे एम सिद्ध करे छेः-
प्रश्नः– तो बन्नेमांथी साचुं कयुं?
उत्तरः– (अपेक्षाथी) बन्ने वात साची छे. पर्यायनुं ज्ञान पण लक्षमां होवुं जोईए. एने पण ज्ञानी यथार्थ जाणे छे. १४ मी गाथाना भावार्थमां कह्युं छे के-‘सर्व नयोना कथंचित् रीते सत्यार्थपणानुं श्रद्धान करवाथी ज सम्यग्द्रष्टि थई शकाय छे.’ एनो अर्थ ए थयो के पर्यायमां राग छे ते खरी वात छे. पर्याय अपेक्षाए विकार क्षणिक सत् छे. परंतु चैतन्यस्वभावथी व्याप्त त्रिकाळी शुद्ध भगवान आत्मामां एक समयनो ते विकार व्याप्त नथी. पुद्गलना संगे थयेल एक समयनुं कार्य, व्यापक एवा चैतन्यस्वभावमां व्याप्युं नथी.
प्रश्नः– आ बन्नेमांथी नक्की शुं करवुं?
उत्तरः– भाई! राग पर्यायमां छे अने ते पोताथी छे एम जाणमां लईने, द्रव्य- स्वभावमां-चैतन्यस्वभावथी व्याप्त प्रभु आत्मामां राग नथी अर्थात् द्रव्यस्वभाव निर्विकार शुद्ध चैतन्यमय छे एम श्रद्धान करवुं.
र्क्ता-कर्म अधिकारनी शरूआत करवी छे तेथी आ वात अहीं लीधी छे. पहेली गाथामां आव्युं ने के-‘परिभाषण शरू करीए छीए,’ परिभाषा सूत्र एटले ज्यां ज्यां जे जे जोईए ते ते गाथा यथास्थाने त्यां आवे. समयसारनी आवी ज शैली छे. अमृतचंद्राचार्य पण जे भविष्यमां-आगळ आववानुं होय छे तेनी वात पहेलां कहे छे. जेमकेः बंध अधिकारमां आवे छे के पर जीवने जीवाडुं के मारुं-ए अध्यवसान मिथ्यात्व छे, जूठुं छे. भगवाने एनो त्याग कराव्यो छे तेथी हुं मानुं छुं के पर जेनो
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आश्रय छे एवो व्यवहार ज सघळोय छोडाव्यो छे. (कलश १७३). गाथा २७२ मां जे वात आववानी छे ते वात आगळना कळशमां (कळश १७३ मां) कही दीधी छे. आवी शैली समयसारमां लीधी छे.
अहाहा! परथी नथी थयुं ते कार्य परनुं छे, स्वनुं नथी! केवी वात! भाई! ‘परथी नथी थयुं’ ए तो रागनुं कार्य स्वथी पर्यायमां थयुं छे एम सिद्ध करवा कह्युं छे. ए पर्याय अपेक्षाए पर्यायनी वात करी छे. पण वस्तुना स्वभावने ज्यां जोईए तो ‘ते कार्य परनुं छे’ एम भासे छे. केमके त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यमय वस्तुनो अनुभव करतां एटले के निर्मळ सम्यक्दर्शन-ज्ञानना परिणामथी द्रव्यनो अनुभव करतां, ए परिणाममां रागनुं वेदन आवतुं नथी. माटे राग छे ते परनुं कार्य छे, स्वनुं नथी. भाई! आ समयसार छे ते एम ने एम वांची जवाथी समजाय एम नथी. तेनां एक एक पद अने पंक्तिमां भाव घणा गंभीर-ऊंडा छे.
अहा! शुं वस्तुस्थिति बतावी छे! भगवान आत्मा चैतन्यस्वभावथी व्याप्त शुद्ध चिदानंदमय वस्तु छे. ते अनंत शक्ति-गुण-स्वभावथी मंडित अभेद एकाकार वस्तु छे. शुं एमां कोई शक्ति-गुण-स्वभाव छे जे विकार उत्पन्न करे? (ना). छतां पर्यायमां जे विकार थाय छे ते विकारनुं स्वतः परिणमन छे. अहाहा! स्वतः षट्कारकथी विकार परिणमे छे. तेने द्रव्य-गुण अर्थात् स्वभाववाननी अपेक्षा नथी तथा निमित्तना कारकोनी पण अपेक्षा नथी. हवे कहे छे के चैतन्यस्वभावथी व्याप्त शुद्ध आत्माने अनुभवतां, एनी निर्मळ अनुभूतिमां विकार- राग आवतो नथी, भिन्न रही जाय छे. जो ए राग चैतन्यस्वरूपमय होय तो चैतन्यनी अनुभूतिमां आववो जोईए. परंतु एम तो बनतुं नथी. माटे राग अचेतन ज छे.
अहाहा! आत्मा शुद्ध चैतन्यमय वस्तु छे. ज्यां ज्ञानना परिणाम अंदर शुद्ध चैतन्यमय वस्तुमां निमग्न थया त्यां राग स्वयं स्वथी भिन्नपणे जणाय छे. माटे राग ए जीवना परिणाम नथी. अहाहा! चैतन्यस्वभावी वस्तु आत्मामां ढळेला जे श्रद्धा-ज्ञानना निर्मळ परिणाम छे ते जीवना छे. पण ए निर्मळ परिणाम साथे राग आवतो नथी. अहाहा! ज्ञानना परिणामथी राग भिन्न ज रहे छे. ए रागनुं ज्ञान ज्ञानना परिणाममय छे, रागमय नथी. राग पोताथी भिन्न छे एवुं ज्ञान थाय छे पण ते राग अभिन्न छे एवुं ज्ञान ज्ञानना परिणाममां थतुं नथी. गजब वात! अहो! आ वीतरागनी वाणी वहेवडावनारा दिगम्बर संतो जाणे वीतरागतानां पुतळां! मुनि एटले वीतरागतानुं बिंब! धन्य ए मुनिदशा! आवा मुनिनां दर्शन थवा माटे पण भाग्य जोईए! एमनी वाणीनी शी वात!
कहे छे के भगवान! तुं चैतन्यस्वभावथी व्याप्त आत्मा छो ने! शुं तुं रागथी
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व्याप्त आत्मा छो? (ना). भाई! ज्यां आत्मा व्यापक अने राग एनुं व्याप्य एम कह्युं छे त्यां तो आत्माने परथी भिन्न सिद्ध करवो छे. कलश-टीकामां पण आवे छे के रागनुं व्याप्य- व्यापकपणुं आत्मानी साथे छे, परनी साथे नहि. भाई! त्यां तो परथी भिन्न पोतानी पर्याय सिद्ध करी छे. पण अहीं तो शुद्ध चैतन्यमय आत्मानी अंदर ढळतां जे निर्मळ ज्ञान-दर्शनना- जाणवा-देखवाना परिणाम थाय छे तेमां राग आवतो नथी पण पोताथी भिन्नपणे जणाय छे एम कहे छे. माटे राग अचेतन पुद्गलनो छे एम कहे छे.
आवी वात लुखी लागे एटले अज्ञानी भगवाननी स्तुति, भक्ति, सेवा करवामां अने दान करवामां संतोष मानी ले छे. अरे प्रभु! एथी तने शुं लाभ थयो? व्यवहारथी निश्चय थाय के व्यवहार साधक छे अने निश्चय साध्य-एम जे खरेखर माने छे तेनुं तो हजी शास्त्रज्ञान पण साचुं नथी. आगमनी वास्तविक शैली शुं छे एनी पण एने खबर नथी. व्यवहारने साधक कह्यो छे ए तो आरोपित कथन छे. साधकनुं कथन बे प्रकारे छे, साधक बे प्रकारे नथी. जेम मोक्षमार्गनुं कथन बे प्रकारे छे, कांई मोक्षमार्ग बे प्रकारे नथी. जो मोक्षमार्ग बे प्रकारे होय तो व्यवहार मोक्षमार्गथी व्यवहार मोक्ष अने निश्चय मोक्षमार्गथी निश्चय मोक्ष थाय-शुं एम छे? (ना). भाई, व्यवहार मोक्षमार्ग तो बंधनुं कारण छे. पण तेने आरोपथी मोक्षमार्ग कह्यो छे. आमां तो घणुं बधुं भर्युं छे.
हवे कहे छे के जेम गुणस्थान माटे कह्युं तेम राग, द्वेष, आदि बीजा बधा बोल माटे पण लेवुं. जेमके राग-राग छे ते पुद्गलना विपाकपूर्वक थवाथी पुद्गल छे, केमके कारणना जेवुं कार्य होय छे. आगम पण रागने पुद्गल ज कहे छे अने भेद ज्ञानीओ वडे राग पोताथी भिन्नपणे उपलभ्यमान छे. माटे राग पुद्गल ज छे एम सिद्ध थयुं. आ प्रमाणे दरेक बोलमां उतारवुं.
द्वेष-द्वेषना परिणाम पुद्गलना विपाकथी थयेला होवाथी पुद्गल छे. आगम पण तेने पुद्गल कहे छे अने भेदज्ञानीओ वडे अनुभवमां पण ते भिन्नपणे उपलभ्यमान छे. माटे द्वेष पुद्गल ज छे. अहीं आगम एटले निश्चयनुं-अध्यात्मनुं आगम लेवुं. आनो खुलासो अगाउ गाथा ४६ ना संदर्भथी आवी गयो छे. अध्यवसान आदि भावोने व्यवहारथी जीवना कह्या छे, पण परमार्थनी द्रष्टिमां तेओ जीवना छे ज नहि. भाई! ‘ज्यां ज्यां जे जे योग्य छे तहां समजवुं तेह.’ पोतानी द्रष्टिने सिद्धांत कहे छे तेम वाळवी जोईए पण द्रष्टि प्रमाणे सिद्धांतने वाळवो जोईए नहि.
तेवी रीते मोह अने प्रत्यय-प्रत्यय एटले आस्रव. तेमां मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय अने योग-ए पांचेय लेवा. ए पांचेय आस्रव पुद्गलपूर्वक थया होवाथी पुद्गल छे. आगम पण एने पुद्गल ज कहे छे. तथा आत्माना अनुभवमां आस्रव
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स्वथी भिन्नपणे ज जणाय छे. अर्थात् शुद्ध चैतन्यस्वभावी आत्मानो अनुभव करतां अनुभवमां आस्रवो आवता नथी, पण भिन्न ज रहे छे. माटे तेओ पुद्गल ज छे.
तेवी रीते कर्म जे जड (द्रव्यकर्म) छे ते, नोकर्म-शरीर, मन, वाणी, आदि, वर्ग, वर्गणा अने स्पर्धक-आ बधा तो सीधा जड पुद्गल ज छे.
हवे कहे छे के अध्यवसानस्थान पुद्गलपूर्वक थया होवाथी पुद्गल छे. आगम पण एने पुद्गल कहे छे. अने ते अध्यवसानस्थान चैतन्यस्वभावथी व्याप्त भगवान आत्मानो अनुभव करतां भिन्न रही जाय छे, अनुभवमां आवता नथी. माटे तेओ पुद्गल ज छे.
तेवी रीते अनुभागस्थान-पर्यायमां जेटला अनुभागरसना भाव आवे ते, योगस्थान एटले कंपननां स्थान, बंधस्थान-विकारी पर्यायना बंधना प्रकार, उदयस्थान तथा मार्गणास्थान-चौद मार्गणाना भेद-सर्व पुद्गलपूर्वक होवाथी पुद्गल छे. आगम तेओने पुद्गल कहे छे अने चैतन्यस्वभावथी व्याप्त आत्मानो अनुभव करतां तेओ भिन्न रही जाय छे, माटे तेओ पुद्गल ज छे.
तेवी रीते स्थितिबंधस्थान-कर्मनी स्थितिना जे प्रकार छे तेटली जीवमां जे योग्यता छे ते पुद्गल छे. तथा संकलेशस्थान एटले अशुभभावना प्रकार-हिंसा, जूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि-जे अशुभभाव छे ते पुद्गलपूर्वक होवाथी पुद्गल छे, आगम पण तेओने पुद्गल कहे छे अने चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मानो अनुभव करतां ते अशुभभावो अनुभूतिथी भिन्न रही जाय छे. माटे तेओ पुद्गल ज छे.
विशुद्धिस्थान-जे असंख्यात प्रकारे प्रशस्त शुभभाव छे ते पुद्गलपूर्वक होवाथी पुद्गल छे, आगम पण तेओने पुद्गल कहे छे अने शुद्ध आत्माना अनुभवमां पण तेओ आवता नथी, भिन्न रही जाय छे, माटे तेओ पुद्गल ज छे. लोकोने आ भारे कठण पडे छे. पण भाई! गमे ते शुभभाव हो, चाहे तो तीर्थंकर गोत्र बंधाय एवो सोलहकारण भावनानो शुभभाव हो, परंतु सर्व शुभभाव पुद्गलनी कर्मप्रकृतिना विपाक-पूर्वक ज होवाथी पुद्गल छे. तेओ कांई चैतन्यना विपाक-भाव नथी. भगवान चैतन्यदेवनुं कार्य तो आनंद अने वीतरागी शान्तिना अंकुर फूटे एवुं चैतन्यमय ज होय. एमां विशुद्धिस्थान आवतां नथी. माटे तेओ पुद्गल ज छे.
हवे संयमलब्धिस्थान-अभेद चैतन्यघन-विज्ञानघनस्वभावी आत्मामां निर्मळ चारित्रना जे भेद पडे छे ते संयमलब्धिस्थान छे. तेओ पण पुद्गलकर्मपूर्वक थता होईने सदाय अचेतन पुद्गल छे. आगम पण तेओने पुद्गल कहे छे अने आत्मानुभूतिमां पण ए भेदो समाता नथी, तेथी तेओ पुद्गल ज छे, जीव नथी-एम आपोआप सिद्ध थाय छे.
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अहीं मूळ तो त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यस्वभावथी व्याप्त ध्रुव भगवान आत्मा सिद्ध करवो छे. शुं कीधुं? के जे चैतन्यस्वभावथी व्याप्त छे ते जीव छे. तेथी चैतन्यथी भिन्न एवा राग अने भेद आदि सर्व भावो चैतन्यमय नथी माटे अचेतन छे एम कह्युं छे. तथा आ सर्व भावो पुद्गलना विपाकपूर्वक थता होवाथी पुद्गल ज छे, जीव नथी एम सिद्ध कर्युं छे. जेम पहेलां गुणस्थान जीव नथी एम सिद्ध कर्युं हतुं तेम आ रागादि बधाय भावो पण जीव नथी एम आपोआप सिद्ध थई गयुं.
शुद्धद्रव्यार्थिकनयनी द्रष्टिमां एटले के जेमां शुद्ध त्रिकाळी द्रव्यनुं प्रयोजन छे एवा नयनी द्रष्टिमां चैतन्य अभेद छे. शुद्धद्रव्यार्थिकनय एटले शुद्ध + द्रव्य + आर्थिक + नय. अहाहा! आत्मा त्रिकाळ ध्रुव द्रव्य छे. एवा त्रिकाळी शुद्ध भगवान आत्मानुं ज जेमां प्रयोजन छे ए नयथी जोतां चैतन्य अभेद छे, एमां दया, दान आदि राग के संयमलब्धिस्थान आदिना भेद नथी. भाई! परमात्मा त्रिलोकीनाथ जिनेश्वरदेवे कहेलो मार्ग संतो जगतने जाहेर करे छे. कहे छे के-प्रभु! तुं शुद्ध द्रव्यनी द्रष्टिथी अभेद छो; अने त्यां ज द्रष्टि देवा लायक छे, माटे त्यां द्रष्टि दे.
अहाहा! शुद्धद्रव्यार्थिकनयथी चैतन्य अभेद छे अने एना परिणाम पण स्वाभाविक शुद्ध ज्ञान-दर्शन छे. जुओ, वस्तु अभेद छे अने तेना परिणाम निर्मळ ज्ञान-दर्शन छे. अहाहा! ज्ञाता-द्रष्टाना आनंदना जे परिणाम थाय ते शुद्ध चैतन्यना परिणाम छे. परंतु दया, दान, व्रत, तप, भक्ति आदिना जे परिणाम थाय ते जीवना परिणाम नथी; अहा! चैतन्यस्वभावनुं ए परिणमन नथी. आवी वात लोकोने सांभळवा नवराश मळे नहि अने आखो दिवस रळवा-कमाववाना धंधामां अने बायडी-छोकरां साचववामां-एकला पापना काममां गाळे! कदाचित् सांभळवा जाय तो भक्ति करो, उपवास करो आदि करो-एम सांभळवा मळे. पण भाई! ए तो बधो राग छे, अने रागने तो अहीं पुद्गलना परिणाम कह्या छे. अरे, ते पुद्गल ज छे. अरेरे! लोको तो एमां ज धर्म माने छे!
भगवान आत्मा चैतन्यस्वभावी जागृतज्योतस्वरूप अभेद एकरूप शुद्ध वस्तु छे. तेना परिणाम होय तो ते जाणवा-देखवाना अने अतीन्द्रिय आनंदना निर्मळ परिणाम छे, संयमलब्धिस्थान आदि तो भेदरूप छे, अने आत्मा अभेद छे. ए अभेदना आश्रये जे निर्मळ ज्ञान-दर्शनना परिणाम थाय ते जीवना परिणाम छे. आत्मानी पर्यायमां जे दया, दान अने काम-क्रोध आदि राग-द्वेषना विकल्पो थाय छे ते चैतन्यना विकारो छे, चैतन्यना स्वभावभाव नथी. अहाहा! विकारना परिणाम चैतन्यना स्वरूपमय नथी एम कहे छे. विकार उत्पन्न करे एवी चैतन्यमां कोई शक्ति-गुण नथी. जे विकृत पर्याय आत्मामां
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थाय छे ते पर निमित्तथी थाय छे. निमित्तथी थाय छे एटले के थाय छे तो पोताथी पोतामां, पण निमित्तना लक्षे थाय छे एम अर्थ छे.
शुं कह्युं? शुभाशुभभाव-दया, दान, व्रत, भक्ति वगेरेना शुभभाव अने हिंसा, जूठ, चोरी, विषयवासना आदि अशुभभाव-ते सर्व पर्यायमां थता चैतन्यना स्वभाव के स्वभावना परिणाम नथी. तेओ कर्मना निमित्तथी उत्पन्न थयेला छे अने चैतन्य जेवा देखाय छे. चैतन्यमय तो नथी, पण जाणे चैतन्य केम न होय एवा देखाय छे. तोपण ते चिद्विकारो चैतन्यनी सर्व अवस्थाओमां व्यापक नहि होवाथी चैतन्यशून्य छे, जड छे. शुं कह्युं? भगवान आत्मा अनादि-अनंत त्रिकाळ छे, तेनी अनादि-अनंत सर्व अवस्थाओमां ए विकारो रहेता नथी. अनादि-अनंत जे स्वभाव छे एनी पर्यायमां अनादि-अनंत विकार रहेतो नथी. आ पुण्य-पाप, शुभाशुभभाव अने गुणस्थान आदि भेदना भाव चैतन्यनी प्रत्येक अवस्थामां व्यापक नथी, माटे ए विकारो चैतन्यथी शून्य छे एटले के जड छे. तेथी तेओ कर्मपूर्वक थता होवाथी तेओने पुद्गलमां नाख्या छे. भाई! सौ प्रथम सम्यग्दर्शन अने तेनो विषय शुं छे ते समजवानी जरूर छे, बाकी बधुं तो थोथेथोथां छे.
सम्यग्दर्शन ए धर्मनुं प्रथम सोपान छे. अने एनो विषय त्रिकाळी शुद्ध अभेद चैतन्यस्वभावी वस्तु छे. शुद्धद्रव्यार्थिकनयनो विषय कहो के सम्यग्दर्शननो, बन्नेनो विषय त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यमय भगवान आत्मा छे. अने सम्यग्दर्शन-ज्ञान आदि छे ते एना परिणाम होवाथी जीव छे. ज्यारे रागादि अने गुणस्थान आदि भेदना भावो स्वभावपूर्वक नहि होवाथी तथा निमित्त पुद्गलकर्मना विपाकपूर्वक होवाथी सदाय अचेतनपणे पुद्गल ज छे. आवी वात छे. जे कोई दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना भावथी धर्म थवो माने छे ते मूढ मिथ्याद्रष्टि छे. तेने जैनधर्मनी खबर नथी. तेने खबर नथी एटले कांई बंधभावथी अबंध थई जाय? असत्य, सत्य थई जाय? न थाय, भाई! ए संसारमां रखडवानी मान्यता छे. जुओने! पंडित जयचंदजीए केवो खुलासो कर्यो छे! भाई! जड पुद्गलमय भावोथी जीवने- चैतन्यने केम लाभ थाय? (कदीय न थाय.)
दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना भाव पुण्यभाव छे, अने वेपार-धंधाना, स्त्री-पुत्र- परिवार साचववाना तथा हिंसादिना भाव छे ते एकला पापभाव छे. आ पुण्य-पापना भाव छे तो जीवनी अवस्थामां थयेला विकारी परिणाम, पण तेओ चैतन्यस्वभावथी शून्य छे माटे जड-अचेतन छे अने पुद्गलकर्मपूर्वक थता होवाथी पुद्गल ज छे एम कह्युं छे. आ युक्ति थई. हवे कहे छे आगममां पण तेमने अचेतन कह्या छे. शुद्ध द्रव्यार्थिकनयनी द्रष्टिथी आगममां पण तेमने अचेतन कह्या छे. तेम ज भेदज्ञानीओ पण तेमने चैतन्यथी भिन्नपणे अनुभवे छे. आम त्रण वात थई.
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पहेलां न्यायथी सिद्ध कर्युं के-भगवान आत्मा तो शुद्ध चैतन्यस्वभावी निर्मळानंद प्रभु छे. ते अभेद छे. तेनी पर्यायमां जे विकार थाय छे ते चैतन्यस्वभावपूर्वक नथी कारण के चैतन्यमां कयां विकार छे के ते-पूर्वक विकार थाय? परंतु पुण्य-पाप आदि भावोना विकार पुद्गलकर्मपूर्वक ज थाय छे. माटे तेओ चैतन्यथी रहित जड पुद्गल ज छे. आ युक्ति कही. भगवानना आगममां पण तेमने निश्चयथी पुद्गल ज कह्या छे. तथा शुद्ध अभेद चैतन्यमय आत्मानो अनुभव करनार भेदज्ञानीओने पण तेओ अनुभूतिथी भिन्न जणाय छे. आम युक्ति, आगम अने अनुभव एम त्रण प्रकारे तेओ पुद्गल ज छे एम सिद्ध थाय छे. लोकोने एकांत, लागे, पण भाई! आ तो न्यायथी, भगवानना आगमथी अने भेदज्ञानीओना अनुभवथी सिद्ध थयेली वात छे. भाई! रागथी अने भेदथी भिन्न भगवान अभेदनो अनुभव करतां, एमां राग के भेद आवता नथी. तेथी तेओ अचेतन-पुद्गल छे, जीव नथी.
लोको तो पर जीवनी दया पाळवी-तेमने न मारवा तेने अहिंसा कहे छे अने ते परम धर्म छे, सर्व सिद्धांतनो सार छे एम माने छे. तेने कहे छे के भाई! तने वस्तुनी खबर नथी. तें सत् सांभळ्युं ज नथी, भगवान! एकवार सांभळ तो खरो प्रभु! के तारो स्वभाव शुं छे? तुं तो चैतन्यस्वभावी ध्रुव अभेद वस्तु छो ने, नाथ! एमां विकार कयां छे ते थाय? तुं परनी दया तो पाळी शक्तो नथी, परंतु दयानो जे शुभराग तने थाय छे ते चैतन्यमय नथी पण पुद्गलकर्मपूर्वक थतो होवाथी पुद्गल ज छे एम अहीं कहे छे. अहाहा! शुं न्याय छे! न्यायथी तो समजवुं पडशे ने? भाई! आ जिंदगी चाली जाय छे, हों. आवो मनुष्यभव मळ्यो एमां देवाधिदेव जिनेश्वरदेव आत्मा कोने कहे छे ए समजणमां न आव्युं तो मनुष्यभव निष्फळ जशे. पशुने मनुष्यपणुं मळ्युं नथी अने आ जीवने मनुष्यपणुं मळ्युं छे. पण जो आत्मानी समजण न करी तो मनुष्यपणुं निष्फळ जशे.
अहाहा! ज्ञानानंदनो दरियो भगवान आत्मा ध्रुव चैतन्यमय वस्तु छे. ते अभेद एकरूप निर्मळ छे. एमां विकार कयां छे ते विकार थाय? एमां तो ज्ञान, आनंदना निर्मळ परिणाम थाय. ए चैतन्यना परिणाम छे.
प्रश्नः– पर्यायमां विकार थाय छे ने? ए शुं छे?
उत्तरः– भाई! पर्यायमां विकार थाय छे ए चैतन्यना परिणाम नथी केमके ते चैतन्यमय नथी, स्वभावपूर्वक नथी. ए विकार पुद्गलकर्मपूर्वक थता होवाथी अचेतन-पुद्गल छे. जो ते जीवना भाव होय तो ते नीकळे नहि अने सदाय चैतन्यनी सर्व अवस्थाओमां रहे, पण तेओ तो नीकळी जाय छे. सिद्धमां तेओ सर्वथा नथी. वळी
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भेदज्ञानीओनी निर्मळ अनुभूतिमां पण तेओ आवता नथी, भिन्न रही जाय छे. जो राग अने भेद जीवना होय तो स्व-अनुभवमां तेओ आववा जोईए. पण एम पण बनतुं नथी. तेथी तेओ अचेतन ज छे. परमागम पण एम ज कहे छे. तेथी रागादि भावो जीवना नथी, पुद्गलना ज छे एम सिद्ध थाय छे.
अहा! अज्ञानीने एम लागे छे के आ शुं कहेवाय? आ ते वळी केवो धर्म! आ बधुं- व्रत करवां, तप करवां, उपवास करवा, भगवाननी भक्ति-स्तुति-सेवा-पूजा करवी, जात्रा करवी, मंदिर बांधवां, रथयात्राओ काढवी, वगेरे कयां गयुं? शुं ए बधुं धर्म नथी? धीरजथी सांभळ, भाई! जेने तुं धर्म माने छे ए बधी क्रिया छे अने तुं तो चैतन्यस्वरूप छो, भगवान! राग छे ए तो अचेतन छे अने पुद्गलकर्मना विपाकपूर्वक थाय छे माटे एने तो भगवान निश्चयथी पुद्गलनुं कार्य कहे छे. गजब वात छे! विकार अने भेदथी रहित अभेद एकरूप चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा छे. रागनी आडमां जो एनी द्रष्टि न करी तो कयां जईश प्रभु? भव बदलीने कयांक जईश तो खरो ज ने? स्वरूपनी समजण विना रखडी मरीश, नरक-निगोदना चक्रावामां रखडी मरीश, भाई! बापु! अहीं विचारवानी अने समजवानी तक छे.
गाथा ४९ नी टीकामां आव्युं छे के-‘जेणे पोतानुं सर्वस्व भेदज्ञानी जीवोने सोंपी दीधुं छे’-एनो अर्थ शुं छे? के ज्ञानानंदस्वरूप भगवान आत्मानो जेओ अनुभव करे छे ते भेदज्ञानी जीवोने अनुभवमां अतीन्द्रिय ज्ञान, आनंद अने शांतिनो स्वाद आवे छे पण राग अने भेद अनुभवमां आवता नथी. मतलब के चैतन्यस्वरूप भगवान आत्माथी राग अने भेद भिन्न छे. राग अने भेदना भावो चैतन्यमय नथी अने तेथी अचेतन ज छे. लोकोने आकरुं पडे पण ए एम ज छे.
प्रश्नः– जो तेओ चेतन नथी तो तेओ कोण छे?
उत्तरः– जीवनी पर्यायमां तेओ छे तेथी व्यवहारथी तेओ जीवना छे एम कहेवामां आवे छे; परंतु निश्चयथी तेओ जीवना नथी. तेओ पुद्गलकर्मपूर्वक थाय छे तेथी निश्चयथी तेओ पुद्गल ज छे. द्रव्य-गुणमां तो विकार छे ज नहि, पर्यायमां जे विकार छे ते अनादि-अनंत पर्यायमां कायम रहेतो नथी. तेथी विकार जीवनो नथी, पुद्गल ज छे, केमके कारण जेवुं कार्य होय छे. पुद्गलकर्म कारण छे अने रागादि तेनुं कार्य छे. तेथी रागादि पुद्गल ज छे.
परंतु आ उपरथी कोई एम मानी ले के-जुओ, कर्मने लईने राग थाय छे ने? तो एम नथी. तुं यथार्थ वात समज्यो नथी, भाई! कर्मने लईने विकार थाय छे एम नथी, कर्म छे माटे राग थाय छे एम छे ज नहि. जीवद्रव्यनी पर्यायमां विकार-अपराध जे थाय छे ते पोताथी ज थाय छे. ते अपराध पोतानो ज छे परंतु ते स्वभावनुं कार्य
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नथी एम अहीं कहे छे. भगवान आत्मा तो त्रिकाळ निरपराधस्वरूप निराकुळ आनंदमय निर्मळानंद प्रभु चैतन्यस्वभावी वस्तु छे. एनुं कार्य अपराध-विकार केम होय? निरपराध स्वभावमांथी अपराध-विकार केम जन्मे? तो विकार थाय तो छे? पर्यायमां ए विकार थाय छे तो पोताथी, पोतानी जन्मक्षण छे तेथी थाय छे, परंतु पुद्गलकर्मना-निमित्तना लक्षे थाय छे माटे तेओ पुद्गलना छे एम कह्युं छे. वीतरागनो मार्ग बहु झीणो, भाई! तेने धीरजथी, न्यायथी समजवो जोईए.
द्रष्टिनो विषय त्रिकाळ अभेद आत्मा छे. अभेदनी द्रष्टिमां अभेद चैतन्यस्वभाव ज जणाय छे. पर्यायमां रागादि जे छे ते अभेदनी द्रष्टिमां आवता नथी माटे तेओ अचेतन ज छे. तथा ते रागादि पुद्गलकर्मपूर्वक ज थाय छे माटे तेओ पुद्गल ज छे, जीव नथी. जवमांथी जव ज थाय, पण शुं बाजरो थाय? जव कारण अने बाजरो कार्य एम शुं बने? जवने कारणे शुं बाजरो उगे? (न ज उगे). जेम जव कारण छे तो तेनुं कार्य पण जव ज छे, तेम पुद्गलकर्मपूर्वक थयेलुं विकारनुं कार्य पण पुद्गल ज छे. माटे रागादि पुद्गल ज छे, जीव नथी एम सिद्ध थयुं-आ प्रमाणे स्वभावथी विभावनुं भेदज्ञान कराव्युं.
अंतःतत्त्व चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा परमात्मस्वरूप छे. अत्यारे ज परमात्मस्वरूपे बिराजमान छे, हों. ए परमात्मस्वरूपनुं कार्य शुं राग (शुभभाव) होय? ना. राग छे तो जीवनी पर्यायमां अने ते पोतानो ज अपराध छे, पण ते कांई चैतन्यस्वभावथी नीपजेलुं कार्य छे? ना. ते कारणे, द्रव्य-गुणना आश्रय विना पर्यायमां स्वयं अद्धरथी उत्पन्न थयेला रागने पुद्गलनुं कार्य कह्युं छे. पुद्गलकर्म राग करावे छे माटे पुद्गलनुं कार्य कह्युं छे एम नथी, पण कर्म-निमित्तना लक्षे राग थाय छे माटे पुद्गलनुं कार्य कह्युं छे. ए रागादि भाव स्वभावनी उपर-उपर ज रहे छे अने पुद्गलकर्मना निमित्तना संबंधे उत्पन्न थाय छे माटे तेओ निश्चयथी पुद्गलना ज छे एम निश्चित थाय छे. अरेरे! आवी वात सांभळवाय फुरसद ले नहि तो अनुभव तो कयारे करे?
आ प्रकारे एम सिद्ध कर्युं के पुद्गलकर्मना उदयना निमित्तथी थता चैतन्यना विकारो पण जीव नथी, पुद्गल छे. जुओ, विकार निमित्तथी थाय छे एम लख्युं छे के नहि? भाई! तुं अपेक्षा समज्यो नथी. निमित्त जे पुद्गलकर्म छे तेना लक्षे-आश्रये विकार थाय छे एम कह्युं छे. विकार थाय छे तो पोतानी पर्यायमां पोताने कारणे, परंतु स्वभावनुं ए कार्य नथी अने निमित्तना आश्रये ते थाय छे माटे निमित्तनुं कार्य छे एम कह्युं छे. भाई! कर्म, शरीर, मन, वाणी इत्यादि जड पदार्थो तो जड छे ज. अहीं तो विकारभाव जे छे ते स्वभावना आश्रये तो थतो नथी तेथी ए स्वभावनुं कार्य नथी; परंतु ए विकारभाव पुद्गलकर्मना आश्रये-लक्षे ज थाय छे, माटे ए विकार
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जड-पुद्गलनुं ज कार्य छे एम अपेक्षाथी कह्युं छे. आ प्रमाणे पुद्गलना निमित्तथी थतो विकार पण जड-पुद्गल ज छे, जीव नथी एम नक्की थाय छे. भाई! शास्त्र जे कहे छे ते प्रमाणे पोतानी द्रष्टि करवी जोईए, पण पोतानी द्रष्टिथी शास्त्रनो विचार करवो जोईए नहि; अन्यथा सत्य हाथ नहीं आवे.
पर कारकोथी निरपेक्ष विकार पोतानी पर्यायमां पोताना षट्कारकोथी उत्पन्न थाय छे. जुओ, पंचास्तिकायनी ६२मी गाथा. आत्माना द्रव्य-गुणमां तो विकार नथी, छतां पर्यायमां जे विकार थाय छे पोताना षट्कारकथी उत्पन्न थाय छे. द्रव्य-गुण विकारनुं कारण नथी केमके द्रव्य-गुणमां विकार नथी. पर निमित्त पण विकारनुं कारण नथी केमके परने ए विकारनी पर्याय अडतीय नथी, अर्थात् विकारनी पर्यायनो परमां अभाव छे, अने पर निमित्तनो विकारमां अभाव छे. अहा! ए पंचास्तिकायमां जीवास्तिकाय सिद्ध करवो छे. तेथी जीवनी पर्यायमां विकार पोताथी छे एम कह्युं छे. पण अहीं ए विकार चैतन्यस्वभावनुं कार्य नथी तथा पुद्गल-कर्मना निमित्तना संबंधे जेम ज्यां जे अपेक्षा छे ते यथार्थ समजवी जोईए.
शुभ आचरणथी जीवने धर्म थाय ए वात अज्ञानीने एवी अतिशयपणे द्रढ थई छे के त्यांथी खसवुं एने कठण पडे छे. एने मन प्रश्न थाय छे के शुभभावने तमे धर्म नथी कहेता तो शुं खावुं-पीवुं अने मोज-मझा करवी ए धर्म छे? अरे, प्रभु! तुं शुं कहे छे? ए वात ज अहीं कयां छे? खावा-पीवामां जे शरीरादिनी क्रिया छे ए तो जडनी छे. एने तो तुं करी शक्तो नथी, तथा खावा-पीवानो जे राग छे ए तो अशुभ ज छे. एनाथी तो धर्म केम होय? परंतु जे व्रत-तप-उपवासादिनो भाव छे ते पण शुभराग ज छे. ए शुभाशुभ बन्ने प्रकारना राग स्वयं थयेला चैतन्यना विकार छे, चैतन्यस्वरूप नथी. स्वभावनी द्रष्टिथी जोतां तेओ चैतन्यथी भिन्न जणाय छे.
अहाहा! त्रिकाळी ध्रुव भगवान ज्ञायकस्वरूप आत्मामां द्रष्टि देतां ए बन्ने शुभाशुभ राग अनुभूतिथी भिन्न रही जाय छे. माटे तेओ अचेतन छे. तथा ए शुभाशुभ राग, चैतन्यपूर्वक नहि पण कर्मना उदयपूर्वक थाय छे तेथी ते निश्चयथी कर्म-पुद्गलना ज छे एम सिद्ध थाय छे, कारणके कारण जेवुं कार्य होय छे. भाई! स्वभाव-विभावनुं आ प्रमाणे भेदज्ञान करी त्रिकाळी स्वभावनी द्रष्टि करी विभावने काढी नाखवानी आ ज रीत छे; अने आ प्रमाणे अनुसरण करतां धर्म थाय छे. आवी वात छे.
हवे पूछे छे के-वर्णादिक अने रागादिक जीव नथी तो जीव कोण छे? रंग, गंध, स्पर्श, रस, शरीर, संस्थान, संहनन, वर्ग, वर्गणा अने कर्म-बधा रंगमां जाय छे, अध्यवसान, राग, द्वेष, संकलेश-विशुद्धिनां स्थानो ए बधां रागमां जाय छे अने संयमलब्धिस्थान, मार्गणास्थान, जीवस्थान, गुणस्थान-ए बधां भेदमां जाय छे. रंग-राग
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अने भेदमां ए बधां र९ बोल समाई जाय छे. हवे पूछे छे के आ रंग-राग अने भेदना भावो जीव नथी तो जीव कोण छे? रंग-राग अने भेदना भाव जीव नथी एम जेने लक्षमां आव्युं छे ते पूछे छे के-तो जीव कोण छे? तेना उत्तररूप श्लोक-कळश कहे छेः-
आ भगवान आत्मा कोण छे? रंग-राग अने भेदना भावो तो अजीव-पुद्गल छे. तो आ जीव केवो छे? तो कहे छे के ए चैतन्यस्वभावी वस्तु ‘अनादि’ अनादि छे, अर्थात् कोई काळे उत्पन्न थई नथी; तथा ते ‘अनन्तम्’ अनंत छे, अर्थात् एनो कोई काळे विनाश नथी; तेम ज ते ‘अचलम्’ अचळ छे अर्थात् ते कदीय चैतन्यपणाथी अन्यरूप-चळाचळ थतो नथी. शुं कह्युं? के आ चैतन्यस्वभावी जीवने आदि नथी, अंत नथी अने ते अचळ एटले चळाचळता विनानो कंप रहित ध्रुवपणे पडयो छे. अहाहा! चैतन्यस्वभावी भगवान आत्मा अचळ कहेतां चैतन्यपणाथी छूटी कदीय अन्यरूप थतो नथी. भगवान आत्मानो चैतन्यस्वभाव कदीय रागरूप थतो नथी. अहाहा! ए चैतन्यस्वरूप रंगरूपे तो न थाय, रागरूपे तो न थाय अने भेदरूपे पण कदीय न थाय एवी वस्तु छे. आवी वात छे, भाई!
वळी ते ‘स्वसंवेद्यम्’ स्वसंवेद्य छे. एटले के ते पोते पोताथी ज जणाय एवो छे. एटले शुं? के रंग-राग-भेदथी ते जणाय नहि, पण चैतन्यस्वभावनी निर्मळ परिणतिथी ज जणाय छे. अहाहा! चैतन्यप्रकाशनी मूर्ति भगवान आत्मा चैतन्यस्वभावथी ज पर्यायमां जणाय एवो छे. एटले के त्रिकाळी चैतन्यस्वभावी आत्मा वर्तमान चैतन्यपरिणतिथी ज जणाय छे.
चैतन्यस्वभावी भगवान आत्मा अनादि छे, अनंतकाळ रहेशे अने कदीय अन्यपणे न थाय एवो चळाचळता रहित अचळ छे. पण ते जणाय शी रीते? तो कहे छे के ते स्वसंवेद्य छे. एटले के ए ज्ञान अने आनंदनी निर्मळ पर्याय द्वारा ज जाणी शकाय छे. जो कोई एम कहे के ए व्यवहाररत्नत्रयथी जणाय छे तो ते बराबर नथी. व्यवहाररत्नत्रय तो राग छे, अने राग छे ए तो पुद्गल ज छे. पुद्गल एवा व्यवहाररत्नत्रयथी चैतन्यमय जीव केम जणाय? ए तो चैतन्यनां निर्मळ प्रतीति-ज्ञान-रमणता वडे ज जणाय एम छे. आ सिवाय बीजा लाख-क्रोड क्रियाकांड करे तो एनाथी ए जणाय एम नथी एम कहे छे.
व्यवहाररत्नत्रयनो राग, देव-शास्त्र-गुरुनी श्रद्धानो राग अने पंचमहाव्रतना परिणाम इत्यादि बधुंय तो रागमां-पुद्गलमां जाय छे. ‘मैं ज्ञानानंद स्वभावी हूँ’-आवे छे ने हुकमचंदजीनुं? एमां रंग-राग अने भेदथी भिन्न-एम त्रण बोल लीधा छे. एटले के
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भगवान आत्मा रंग, राग अने भेदथी भिन्न ज्ञानानंदस्वभावी चैतन्यथी स्वयं परिपूर्ण वस्तु छे. ए रंग, राग अने भेदना भावोथी केम जणाय? न जणाय.
प्रश्नः– दीपचंदजीए आत्मावलोकनमां शुभभाव परंपरा साधक छे एम कह्युं छे ने?
उत्तरः– भाई! शुद्ध चैतन्य जणाय छे तो पोतानी निर्मळ परिणतिथी ज केमके ए स्वसंवेद्य छे, परंतु जे शुभभावने टाळीने निर्मळ परिणति थाय छे ए शुभभावने आरोपथी परंपरा साधक कह्यो छे.
अहाहा! एक श्लोकमां केटलुं भर्युं छे! कहे छे के चैतन्यस्वभावमय आत्मा अनादिनो छे, अनंतकाळ रहेनारो छे, चळाचळ विनानो अकंप ध्रुव भगवान छे. ते वर्तमानमां जणाय केवी रीते? तो पोते पोताथी ज जणाय छे एम कहे छे. निर्मळ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी परिणतिथी ज जणाय छे. जाणवामां त्रणेय साथे ज होय छे. कलशटीकामां प्रश्न उठाव्यो छे के- तमे ज्यारे एम कहो छो के आत्मा तो दर्शन-ज्ञानथी जणाय छे, तथा मोक्षमार्ग तो दर्शन- ज्ञान-चारित्रमय छे, तो त्यां मोक्षमार्ग केवी रीते बने छे? मिथ्यात्व जतां सम्यग्दर्शन-ज्ञान थयुं छे, चारित्र तो थयुं नथी, तो तेने मोक्षमार्ग केवी रीते कहेवाय? तेनो खुलासो कर्यो छे के- भाई! दर्शन-ज्ञान थतां एमां चारित्र आवी जाय छे. चैतन्यस्वभावी आत्मानुं श्रद्धान-ज्ञान थतां एना सन्मुखनी प्रतीति, एना सन्मुखनुं ज्ञान अने एना सन्मुखमां स्थिरता ए त्रणेय भेगां छे. अहाहा! भगवान आत्मा स्वसंवेद्य छे एमां ए त्रणेय भेगां छे. एटले के निर्विकल्प सम्यक् प्रतीतिथी, राग विनाना ज्ञानथी अने अस्थिरतारहित स्थिरताना अंशथी-एम एक साथे त्रणेयथी भगवान आत्मा जणाय छे. आवी वात छे.
हवे कहे छे के ते ‘स्फुटम्’ प्रगट छे अर्थात् छूपो नथी. गाथा ४९मां तेने अव्यक्त कह्यो छे. ज्यारे अहीं स्फुट प्रगट एटले व्यक्त कह्यो छे. चैतन्यज्योत चकचकाट मारती प्रगट छे एम अहीं कहे छे. पर्यायनी अपेक्षाए ते गुप्त-अव्यक्त छे, पण स्वभावनी अपेक्षाए तो ए व्यक्त-प्रगट ज छे. पर्यायने ज्यारे व्यक्त कहेवाय छे त्यारे वस्तु-द्रव्यने अव्यक्त कहेवाय छे, केमके पर्यायमां त्रिकाळी द्रव्य आवतुं नथी. पण ज्यारे द्रव्यने ज कहेवुं होय त्यारे चैतन्यस्वभावमय वस्तु-द्रव्य चकचकाटमय वर्तमानमां पोतानी सत्ताथी मोजुद प्रगट ज छे एम आवशे. पण ते कोने प्रगट छे? अहाहा! भगवान आत्मा चैतन्यस्वभावस्वरूप शाश्वत जाज्वल्यमान ज्योत् प्रगट छे, पण कोने? के जेणे एने जाण्यो-अनुभव्यो छे एने. भाई! आ तो त्रणलोकना नाथ वीतराग परमेश्वरनी वाणी छे! संतो एने जगत सामे जाहेर करे छे.
कहे छे के आत्मा तो वस्तु तरीके प्रगट, प्रसिद्ध, मोजुद छे, परंतु पर्यायबुद्धिमां ते अप्रसिद्ध, ढंकायेलो छे. अने तेथी अज्ञानीने ते छे ज नहि. वर्तमान अंश अने