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पुद्गलना कार्यने-पुण्य-पापना भावोने पुद्गल ज कहेवाय छे, जीव नहीं. लोको तो व्रत पाळवां, दया पाळवी, जूठुं न बोलवुं, ब्रह्मचर्य पाळवुं इत्यादिने ज पोतानुं सर्वस्व मानी बेठा छे. तेमने अहीं कहे छे के प्रभु! सांभळ. आ बधी पंचमहाव्रतनी वृत्तिओ छे ते राग छे, आस्रव छे अने ए पुद्गलनुं कार्य छे. चिदानंदघन छे स्वरूप जेनुं एवा आत्मानुं ए कार्य नथी. भाई! तारे सुखना पंथे-धर्मना पंथे जवुं होय तो चैतन्यमात्र पूर्णानंदघनस्वरूप वस्तु अंदर छे तेमां जा, तेनो स्वीकार करीने तेमां ज एकाग्र थई जा, अने भेद, राग अने निमित्तनुं लक्ष छोडी दे.
भाई! दया, दान, व्रत, तप, इत्यादि रागमां धर्म मानीने तुं संतुष्ट थयो छे पण ए तारो मिथ्या अभिप्राय छे. भगवान! तुं भूलमां भरमाई गयो छे. ए विकल्प-रागनी वृत्तिनुं जे उत्थान छे ते चैतन्यना घरनी चीज नथी. प्रभु! तारा चैतन्यघरमां रागनी वृत्ति ऊठे एवी कोई शक्ति नथी. आत्मा अनंत शक्तिओनुं संग्रहस्थान-गोदाम छे. एमां एवी कोई शक्ति- गुण नथी जे विकारने-रागने उत्पन्न करे. अहाहा! चिदानंदघनस्वरूप वस्तुमां तो गुणोनी एकरूप निर्मळ धारा वहे, पण रागनी धारा वहे एवो आत्मा नथी. आवुं कदी सांभळ्युंय न होय अने एम ने एम जिंदगी आंधळे-बहेरी (भान विना) चाली जाय. भाई! एथी भवभ्रमण न मटे. अहाहा! अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत आनंद, अनंत वीतरागता, अनंत स्वच्छता एवी अनंत पूर्ण शक्तिओनुं आत्मा संग्रहस्थान छे. ए रागनुं स्थान नथी. तो एमांथी पुण्य-पापनुं उत्थान केम थाय? पुण्य-पाप उपजे एवुं चैतन्यनुं-आत्मानुं स्वरूप ज नथी ने.
तथापि कोई अज्ञानी एम कहे के अमने तो भक्तिथी ज कल्याण थशे. देव अने गुरुनी अर्पणताथी भक्ति करीए एटले तेओ अमने तारी देशे. परंतु भाई! कोण गुरु? तारो गुरु तो तुं ज छो. तने तारी समजणथी आत्मज्ञान थाय छे माटे तुं पोते ज तारो गुरु छो. अहाहा! आत्मा पोते ज पोतानो गुरु अने पोते ज पोतानो देव छे. ते पोते ज तीर्थ अने पोते ज तीर्थधाम छे. बाकी बधी तो बहारनी व्यवहारनी वातो छे. आ बाह्य देव-गुरु-तीर्थ तो मात्र पुण्यनां कारण (निमित्त) छे. अहाहा! भगवान त्रणलोकना नाथ जिनेन्द्रदेव, इंद्रो अने गणधरो तथा करोडो देवो अने राजेन्द्रोनी सभामां जे वात करता हता ते आ वात छे. भाई! सांभळ तो खरो के आ शुं चीज छे! एने सांभळ्या विना साची समजण कयांथी आवशे? तारुं लक्ष त्यां केम जशे? श्रीमदे कह्युं छे के-
आ शास्त्र तो आत्मानुं-पोतानुं लक्ष कराववा माटे कह्यां छे. गुरु अने देव पण तेनुं- एक आत्मानुं ज लक्ष करावे छे.
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भाई! अंदर तुं अनंतगुणनो भंडार पूर्णानंदनो नाथ प्रभु छो ने! पण केम बेसे? कारण के अनादिकाळथी एक समयनी पर्याय उपर ज एनी द्रष्टि पडी छे. एक समयनी दशाने ज एणे पोतानुं स्वरूप मान्युं छे. पण पर्याय छे ए तारुं तत्त्व नथी. पर्याय आत्मा नथी. व्यवहारनय भले एने आत्मा कहे, पण निश्चयथी भगवान पूर्ण-चैतन्यघन, एकला आनंदनुं दळ, अनाकुळ शांतिनो रसकंद जे त्रिकाळ ध्रुवपणे छे ते आत्मा छे. अनादि-अनंत ध्रुव चैतन्यपणे टक्ता तत्त्वने भगवान आत्मा कहे छे. एनी द्रष्टि करवी ए सम्यग्दर्शन छे. भाई! एनी द्रष्टि करवा माटे तारे निमित्त परथी, राग उपरथी अने भेदना भाव उपरथी द्रष्टि उठावी लेवी पडशे. अंदरमां एकमात्र अखंड अभेद एकरूप चैतन्यमूर्ति चिदाकार भगवान छे एनी द्रष्टि करवी ए सम्यग्दर्शन छे. धर्मनी शरूआत ज अहींथी (सम्यग्दर्शनथी) थाय छे. भाई! चारित्र तो बहु दूरनी वात छे. अहाहा! द्रष्टिमां जे अभेद चिदानंदमय चीज प्रतीतिमां आवी एमां ज रमवुं, ठरवुं, स्थित थई जवुं एनुं नाम चारित्र छे. देहनी क्रिया के व्रतादिना क्रियाकांड ए कांई चारित्र नथी. ए तो सौ पुद्गलनां कार्य छे अने पुद्गल एमनुं कारण छे एम अहीं कहे छे.
त्रणलोकना नाथ तीर्थंकरदेव परमात्मा श्री सीमंधर भगवान हमणां महाविदेहमां बिराजे छे. तेमनुं एक करोड पूर्वनुं आयुष्य छे अने प०० धनुष्यनो देह छे. लाखो जीवोनी सभामां तेओ आ ज वात फरमावे छे. संवत ४९ मां श्री कुंदकुंदाचार्यदेव त्यां गया हता अने आठ दिवस रहीने दिव्यध्वनि सांभळी हती. तेओ तो ज्ञानी, धर्मी अने निर्मळ चारित्रवंत हता. पोतानी पात्रताने लईने विशेष निर्मळता थई हती, त्यांथी भरतक्षेत्रमां पाछा आवीने तेमणे आ शास्त्रो रच्यां छे. बापु! मार्ग तो आ ज छे, भाई! सनातन वीतरागनो पंथ आ ज छे. बाकी बधा तो वाडा बांधीने बेठा छे अने पोतपोतानी मान्यतामां जे आव्यो तेने धर्म माने छे. पण ए कांई धर्म नथी. आकरी वात छे, पण शुं थाय!
अहीं कहे छे के वर्णादिकथी मांडीने गुणस्थान सुधीना बधाय भावो, अरे चोथुं, पांचमुं अने तेरमा गुणस्थान सुधीना बधा भेदो पण, पुद्गलना कारणे छे. अहाहा! भगवान आत्मा अनंतगुणधाम अनादि-अनंत स्वसंवेद्य अविचळ प्रभु छे. ते अतीन्द्रिय आनंद अने ज्ञानना वेदनथी जणाय एवी चीज छे, पण भेदना के रागना आश्रये जणाय एवी चीज नथी. मूळ चीज जे अभेद चैतन्यमय नित्यानंद प्रभु छे तेनी द्रष्टि थया विना कोईने पण त्रणकाळमां सम्यग्दर्शन थतुं नथी. तथा ज्यां सम्यग्दर्शन नथी त्यां सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र होतां नथी. विना सम्यग्दर्शन जेटला पण व्रत, तपादिना शुभरागना क्रियाकांड छे ते बधा थोथेथोथां छे, एकडा विनानां मींडां जेवा छे, वा वर विनानी जान जेवा छे. जेम वर विनानी जान ते जान नथी, तेम त्रिकाळी सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्माना
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आश्रये उत्पन्न थता सम्यग्दर्शन विना व्रत, तप, दान, भक्तिना शुभभाव ए चारित्र नथी. भाई! करोडो रूपिया दानमां आपी मंदिर बंधावे, भगवाननी प्रतिष्ठा करावे अने भगवाननी पूजा-भक्ति करे, पण ए बधो शुभभाव राग छे, चारित्र नथी. अहीं तो एने पुद्गलना कार्यरूप कह्यो छे.
भगवान! एकवार सांभळ. भेदमां अने रागमां तारो महिमा नथी. भगवाननी भक्ति-पूजाना भावमां तारो महिमा नथी. हुं भगवाननो मोटो भक्त, पूजारी अने आरती उतारनारो एम तुं तारो बहारथी महिमा करे, पण भाई! अंदर तारा आनंदना नाथनो महिमा एथी मटी जाय छे ए तो जो. बहु झीणी वात, भाई! अनंतकाळमां ८४ना अवतार करतां करतां हजी सुधी आ वात समज्यो नथी. अनंतवार कागडा अने कूतराना भव कर्या अने मनुष्य थई कदाचित् बहारथी साधु पण थयो, पण अंदर रागनी क्रियाथी ज धर्म मान्यो तेथी द्रष्टि मिथ्या ज रही अने तेना फळमां नरक-निगोदना ज भव प्राप्त थया. भाई! ए राग अने भेदना भावोथी चिदानंद भगवान हाथ नहीं आवे. ए रंगथी मांडी गुणस्थान पर्यंतना र९ बोलथी कहेला सर्व भावो ‘एकस्य हि पुद्गलस्य’ एक पुद्गलनी ज रचना छे एम कह्युं छे.
प्रश्नः– आमां एकांत नथी थतुं? पंचास्तिकायनी ६२मी गाथामां तो राग थाय छे ते पोताथी ज थाय छे एम आवे छे; तथा जयसेनाचार्यनी टीकामां तो एम आवे छे के जीवनुं अशुद्ध उपादान अने कर्म निमित्त एम बे कारणोथी राग थाय छे?
उत्तरः– पंचास्तिकायनी ६२मी गाथामां तो रागनी पर्यायनुं स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध कर्युं छे. राग जीवनी पर्यायमां थाय छे ए पर्यायनुं त्यां अस्तित्व जणाव्युं छे. तथा श्री जयसेनाचार्ये उपादान-निमित्त एम जे बे कारण कह्यां ते प्रमाणज्ञान कराववा कह्यां छे. ज्यारे अहीं तो स्वभावनी द्रष्टिनी अपेक्षाए ए बन्ने वातने बाजुए मूकीने वर्णादि भावोने पुद्गलना कह्या छे. द्रव्यस्वभाव बताववो छे ने!
वळी ज्ञानी र्क्तानयनी अपेक्षाए एम जाणे छे के जे रागनुं परिणमन छे ते मारामां छे, मारा कारणे छे. ए तो ज्ञान एम जाणे छे के मारी पर्यायनुं एटलुं अस्तित्व छे. परंतु ए त्रिकाळी द्रव्यनुं कार्य छे के ए द्रव्यनुं स्वरूप छे एम नथी. अहा! एक बाजु आत्मा रागनो अर्क्ता छे एम कहे अने वळी पाछुं रागनुं परिणमन छे ते पोतानुं छे एम ज्ञानी-समक्तिी जाणे! केवी वात! वळी अहीं कहे छे के रागना जे परिणाम छे ते पुद्गलनी साथे संबंध राखे छे तेथी एकला पुद्गलथी रचाया छे. भाई! ज्यां जे अपेक्षाथी कथन होय त्यां ते अपेक्षाथी समजवुं जोईए. जे अपेक्षा होय तेने न समजे अने एकांत ज पकडीने बेसे तो सत्य हाथ नहि आवे, भाई!
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अहीं तो एम सिद्ध कर्युं छे के पुद्गल जे निमित्त छे तेनुं आ रागादि कार्य छे. आ तो निमित्तथी कार्य थयुं एम आव्युं. आमां उपादानथी कार्य थाय छे ए कयां गयुं? अरे, भाई! कई अपेक्षाए कह्युं छे ए तो समज. ए तो निमित्तना आश्रये राग थाय छे माटे तेनो छे, एम कही एक पुद्गलनी ज रचना जाणो-एम कह्युं छे. ए पुद्गलनुं कार्य छे पण चैतन्यस्वभावनुं कार्य नथी एम अपेक्षा बताववी छे. आत्मा वस्तु छे ए तो शुद्ध चैतन्यघन आनंदघन एकली पवित्रतानो पिंड प्रभु छे. तेथी एमांथी अपवित्र राग कयांथी रचाय? भाई! आ मनुष्यदेह चाल्यो जाय छे हों! ते पाछो कयारे मळशे? जो आ न समज्यो तो रखडवाना रस्ते जवुं पडशे. त्यां पछी कोईनी सिफारस काम नहि लागे.
अहीं कहे छे के ए वर्णादि सर्व भावो एक पुद्गलना ज छे. ‘एकस्य हि पुद्गलस्य’ ‘हि’ एम शब्द छे. एक पुद्गलनी ज रचना जाणो एम कहे छे. आ कई अपेक्षाए कह्युं छे? रागनी रचना तो पर्यायमां पोताना ऊंधा पुरुषार्थथी थाय छे माटे रागनुं परिणमन जीवनुं छे, जीवमां छे अने तेमां कर्म निमित्त छे. कर्म निमित्त छे, पण ए निमित्त छे माटे राग थाय छे एम नथी. आ एक सिद्धांत छे. ज्यारे अहीं बीजा सिद्धांतथी कहे छे के रागनो आत्मा र्क्ता नथी. आत्मामां अर्क्ता नामनो गुण छे तेथी रागने करवानो तेनो स्वभाव नथी. माटे रागनी रचना पुद्गलद्रव्यथी छे पण जीवथी नहि. पुद्गल करण छे अने राग एनुं कार्य छे, केमके ते बन्ने अभिन्न छे. अहीं वस्तुना स्वभावनी-चिदानंद-स्वरूप भगवाननी द्रष्टि कराववी छे. अने वस्तु छे ए तो एकलो चैतन्यघनपिंड अकषायस्वभावनो रसकंद छे. ए कषायना भावने करे ए केम बने? अकषायस्वरूपमां कषायना भावनुं करवापणुं छे ज नहि, माटे आ रागादि छे ए पुद्गलनी रचना छे माटे एनी द्रष्टि छोडी दे. अहाहा! कहे छे के पर्यायबुद्धिनो त्याग कर अने त्रिकाळी वस्तुस्वभावनी द्रष्टि कर. भाई! आ कांई वादविवादे पार पडे एम नथी. खेंचताण छोडीने ‘ज्यां ज्यां जे जे योग्य छे तहां समजवुं तेह’ ए न्याये यथार्थ समज केळववी जोईए.
आ जीव-अजीव अधिकार चाले छे. त्यां जीव एने कहीए के जे अखंड अभेद एकरूप चैतन्यघनस्वरूप होय, एनी द्रष्टि करतां सम्यग्दर्शन-धर्मनुं प्रथम सोपान प्रगट थाय छे. आवा शुद्ध जीवनी द्रष्टि कराववा अहीं रंग-राग अने भेदना भावो एक पुद्गलनी ज रचना जाणो एम कह्युं छे. अहीं तो आत्मा-द्रव्यनो पूर्ण स्वभाव बताववो छे. परंतु ज्यारे पर्यायनी वात होय त्यारे पर्यायमां जीव पोते एकलो राग करे छे अने पुद्गल तो एमां निमित्तमात्र छे एम कहेवामां आवे छे. निमित्तथी राग थाय छे एम नथी. विकारना परिणमनमां परकारकनी अपेक्षा नथी एम पंचास्तिकायमां पर्यायनी अस्ति सिद्ध करी छे. तथा ज्यारे राग थाय छे त्यारे निमित्त होय छे एवुं प्रमाणज्ञान
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कराववा, राग पोताथी (रागथी) थयो छे एवुं निश्चयनुं ज्ञान राखीने, राग निमित्तथी थयो छे एवुं निमित्तनुं ज्ञान भेळववामां आवे छे. निश्चयने उडावीने निमित्तनुं ज्ञान भेळव्युं छे एम नथी. तथा अहीं तो ए बन्नेने (प्रमाण तथा व्यवहारने) उडाडया छे. भगवान आत्मा चैतन्यसूर्य छे, ए चैतन्यसूर्यनो झबकारो चैतन्यमय ज होय. एमां शुं रागनो अंधकार होय? ए रागनो अंधकार तो अचेतन पुद्गलनुं ज कार्य छे. आवो भगवाननो मार्ग छे भाई! खूब धीर अने शूरवीरनुं काम छे. कह्युं छे ने के-
प्रश्नः– जो एक पुद्गलथी ज रागादि थाय छे तो निमित्तथी परमां न थाय ए कयां गयुं?
उत्तरः– भाई! तुं अपेक्षा समज्यो ज नथी. निमित्तथी परमां न थाय ए तो पर्यायनुं स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध करवानी वात छे. परंतु अहीं तो आखी पर्यायद्रष्टि ज उठावी लेवानी वात छे. अहीं तो त्रिकाळी शुद्ध स्वभावनी द्रष्टि कराववानी वात छे.
अहो धर्मी जीवो! वर्णथी मांडी गुणस्थान पर्यंतना भेदोने एक पुद्गलनी ज रचना जाणो, पण ते चैतन्यचमत्कार भगवान आत्मानी रचना नथी ज नथी. आत्मा रचे तो शुं रचे? ए तो निर्मळ अतीन्द्रिय आनंद अने ज्ञाननी रचना करे एवो ज्ञानानंदस्वरूपी भगवान छे. द्रव्यस्वभावमां जे होय तेनी रचना करे ने? जे न होय तेनी रचना केम करे? द्रव्यस्वभावमां रागादि नथी, माटे रागादिनी रचना आत्मा न करे. तेथी रागादि तो एक पुद्गलनी ज रचना छे एम जाणो.
निमित्तवादीओ एम कहे छे के कार्य निमित्तथी थाय छे. उपादानवादीओ एम कहे छे के कार्य उपादानथी थाय छे, निमित्तनुं त्यां कांई काम नथी. ‘उपादान बल जहाँ तहाँ, नहि निमित्तको दाव.’ निमित्तनो कयारेय दाव आवतो नथी. पण आ कळशमां तो निमित्तनो दाव आव्यो ने! भाई! कई अपेक्षाए कह्युं छे ते यथार्थ समजवुं जोईए. पर्यायमां तो निमित्तनो दाव आवतो ज नथी. रागनी जे पर्याय थाय छे ते तो पोते पोताथी ज थाय छे. निमित्त हो भले, पण निमित्तथी थाय छे एम छे ज नहि. परंतु अहीं तो वस्तुना स्वभावनी द्रष्टि कराववी छे ने? त्रिकाळी स्वभाव तो विकार अने भेदनी रचना करे एवो नथी. तथा भेद अने रागनी उत्पत्ति पुद्गलना संगे (आश्रये) उत्पन्न थाय छे. माटे राग अने भेदनुं कारण पुद्गलद्रव्य ज छे एम जाणो-एम कह्युं छे. अरे! भगवान त्रणलोकना नाथ प्रभु केवळीना विरह पडया! केवळज्ञान, मनःपर्ययज्ञान के अवधिज्ञान रह्युं नहि! अने आ वांधा-विवाद ऊभा थया! जेम लक्ष्मी घटे, पिता गुजरी जाय एटले पुत्रो अंदरोअंदर तकरार करे, एम तत्त्वनी वातमां तकरारो पडी!
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पंचमकाळ छे ने! भाई! समय बदलतां वस्तुनुं स्वरूप कांई बदलतुं नथी. वीतरागनो पंथ तो सदाय एक ज छे. श्रीमद राजचंद्रे कह्युं छे ने के-
राग अने द्वेषना परिणामने पुद्गलना केम कह्या? एक तो तेओ नीकळी जाय छे अने बीजुं तेओ जीवना स्वभावमय नथी माटे तेमने पुद्गलना कह्या छे. परंतु ते कर्मना ज छे अने निमित्तथी ज थाय छे एम एकांते (पर्यायने) सिद्ध करवा जशो तो द्रव्य ज उडी जशे. परंतु पर्याय (स्वतः) सिद्ध छे. पर्यायमां जे रागनी सिद्धि छे ते एनुं उपादान छे अने एमां पर निमित्त छे. परकारकनी अपेक्षा विनानुं एनुं परिणमन अनादिथी सिद्ध छे. ज्यां बे कारणथी कार्य थाय एम कह्युं होय त्यां जोडे निमित्त छे एनुं ज्ञान कराववा कह्युं छे. खरेखर कार्य तो एकथी (उपादानथी) ज थयुं छे. एकथी ज कार्य थयुं छे ए द्रष्टिमां राखीने, निमित्तथी थयुं छे एम व्यवहारथी कहेवामां आवे छे. ज्यारे अहीं तो ए बन्ने वातने उडाडीने वस्तुना स्वभावनी द्रष्टि करावी छे.
एक समयनी पर्यायमां जे राग-भेदादि भावो थाय छे ते पुद्गलनुं ज निर्माण छे केमके ते चैतन्यस्वरूप वस्तुमां नथी. वस्तु तो त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यघन सच्चिदानंद-स्वरूप भगवान छे. ए विकार अने भेदनुं कारण केम थाय? तेथी निमित्तने आधीन थयेला राग अने भेदना भावो पुद्गलनी ज रचना छे एम जाणो एटले अनुभवो एम कह्युं छे. आत्मामां अनंत गुण तो बधा निर्मळ-पवित्र छे. एमां कोई गुण के शक्ति एवां नथी के विकार करे. तेथी ज ४७ शक्तिना वर्णनमां निर्मळ क्रमबद्धपर्यायने ज जीवनी लीधी छे. त्यां अशुद्धता लीधी ज नथी, केमके शक्ति शुद्ध छे तो एनुं परिणमन शुद्ध ज होय छे. अशुद्धता छे एनुं तो बस ज्ञान थई जाय एटलुं ज. आवो वीतरागनो माल छे ते संतो आडतिया थईने जाहेर करे छे, आपे छे.
त्रणलोकना नाथ परमात्मा जिनेश्वरदेव, गणधरो अने इंद्रोनी सभामां एम कहेता हता के वस्तुमां जे राग अने भेदना भावो पर्यायमां थाय छे ते पुद्गलनुं कार्य छे एम जाणो. ए तारुं-आत्मानुं कार्य नथी. अहाहा! प्रभु! कारणपरमात्मा तो जे निर्मळ परिणमन थाय एनुं कारण छे. ‘ततः’ माटे ‘इदं’ आ भावो ‘पुद्गलः एव अस्तु’ पुद्गल ज हो, ‘न आत्मा’ आत्मा न हो. जुओ, पहेलां ‘हि’ कह्युं हतुं अने अहीं पण ‘एव’ पद लगाडयुं छे. व्रत, तप, भक्ति, आदि रागथी कल्याण थशे एम माननारने बहु आकरुं पडे एवी वात छे. पण भक्ति आदि तो विकल्प छे, आत्मा नथी;
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‘यतः’ कारण के ‘सः विज्ञानघनः’ आत्मा तो विज्ञानघन छे, ज्ञाननो पुंज छे. अहाहा! प्रभु! तुं तो चैतन्यना तेजना नूरनुं पूर छो ने! तुं रागनुं कारण केम होई शके? अष्टसहस्रीमां पण आवे छे के शुभाशुभ भाव अने भेद आत्मा न हो, पण पुद्गल ज हो. आ अनेकान्त छे. आत्मा तो विज्ञानघन प्रभु ज्ञाननो पुंज छे. ए विज्ञानघन वस्तुमां राग अने भेद कयांथी आवे?
‘ततः’ तेथी ‘अन्यः’ आ वर्णादिक भावोथी अन्य ज छे. विज्ञानघनस्वरूप भगवान आत्मा वर्णादि भावोथी अन्य एटले अनेरो-जुदो ज छे. आवुं वस्तुस्वरूप छे.
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शेषमन्यद्वयवहारमात्रम्–
देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता।। ६७ ।।
देहस्य जीवसंज्ञाः सूत्रे व्यवहारतः उक्ताः।। ६७ ।।
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हवे, आ ज्ञानघन आत्मा सिवाय जे कांई छे तेने जीव कहेवुं ते सर्व व्यवहारमात्र छे एम कहे छेः-
कही जीवसंज्ञा देहने ते सूत्रमां व्यवहारथी. ६७.
गाथार्थः– [ये] जे [पर्याप्तापर्याप्ताः] पर्याप्त, अपर्याप्त [सूक्ष्माः बादराः च] सूक्ष्म अने बादर आदि [ये च एव] जेटली [देहस्य] देहने [जीवसंज्ञाः] जीवसंज्ञा कही छे ते बधी [सूत्रे] सूत्रमां [व्यवहारतः] व्यवहारथी [उक्ताः] कही छे.
टीकाः– बादर, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, अपर्याप्त-ए देहनी संज्ञाओने (नामोने) सूत्रमां जीवसंज्ञापणे कही छे, ते परनी प्रसिद्धने लीधे, ‘घीना घडा’नी जेम व्यवहार छे-के जे व्यवहार अप्रयोजनार्थ छे (अर्थात् तेमां प्रयोजनभूत वस्तु नथी). ते वातने स्पष्ट कहे छेः-
जेम कोई पुरुषने जन्मथी मांडीने मात्र ‘घीनो घडो’ ज प्रसिद्ध (जाणीतो) होय, ते सिवायना बीजा घडाने ते जाणतो न होय, तेने समजाववा “जे आ ‘घीनो घडो’ छे ते माटीमय छे, घीमय नथी” एम (समजावनार वडे) घडामां ‘घीना घडा’ नो व्यवहार करवामां आवे छे, कारण के पेला पुरुषने ‘घीनो घडो’ ज प्रसिद्ध (जाणीतो) छे; तेवी रीते आ अज्ञानी लोकने अनादि संसारथी मांडीने ‘अशुद्ध जीव’ ज प्रसिद्ध छे, शुद्ध जीवने ते जाणतो नथी, तेने समजाववा (-शुद्ध जीवनुं ज्ञान कराववा) “जे आ ‘वर्णादिमान (वर्णादिवाळो) जीव’ छे ते ज्ञानमय छे, वर्णादिमय नथी” एम (सूत्र विषे) जीवमां वर्णादिमानपणानो व्यवहार करवामां आव्यो छे, कारण के ते अज्ञानी लोकने ‘वर्णादिमान जीव’ ज प्रसिद्ध छे.
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जीवो वर्णादिमज्जीवजल्पनेऽपि न तन्मयः।। ४० ।।
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हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [चेत्] जो [घृतकुम्भाभिधाने अपि] ‘घीनो घडो’ एम कहेतां पण [कुम्भः घृतमयः न] घडो छे ते घीमय नथी (-माटीमय ज छे), [वर्णादिमत्–जीव–जल्पने अपि] तो तेवी रीते ‘वर्णादिवाळो जीव’ एम कहेतां पण [जीवः न तन्मयः] जीव छे ते वर्णादिमय नथी (-ज्ञानघन ज छे).
भावार्थः– घीथी भरेला घडाने व्यवहारथी ‘घीनो घडो’ कहेवामां आवे छे छतां निश्चयथी घडो घी-स्वरूप नथी; घी घी-स्वरूप छे, घडो माटी-स्वरूप छे; तेवी रीते वर्ण, पर्याप्ति, इन्द्रियो इत्यादि साथे एकक्षेत्रावगाहरूप संबंधवाळा जीवने सूत्रमां व्यवहारथी ‘पंचेन्द्रिय जीव, पर्याप्त जीव, बादर जीव, देव जीव, मनुष्य जीव’ इत्यादि कहेवामां आव्यो छे छतां निश्चयथी जीव ते-स्वरूप नथी; वर्ण, पर्याप्ति, ईन्द्रियो इत्यादि पुद्गलस्वरूप छे, जीव ज्ञानस्वरूप छे. ४०.
आत्मा तो विज्ञानघन-ज्ञाननो घन पिंड छे. ए ज्ञानघन सिवाय बीजुं जे कांई छे ते वर्ण, गंध, शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय, दया, दान, आदि भावो-ते बधायने जीव कहेवा ए सर्व व्यवहारमात्र छे-एम हवे कहे छे.
जीवने बादर, सूक्ष्म, एकेन्द्रियादि कह्यो छे ए व्यवहारथी एटले जूठी द्रष्टिए कह्यो छे एम अहीं कहे छे, कारण के बादर, सूक्ष्म आदि तो देहनी संज्ञा-देहनुं नाम छे. तेथी सूत्रमां ज्यां एकेन्द्रियादिने जीवनी संज्ञापणे कह्या छे त्यां व्यवहारथी-असद्भूत व्यवहारनयथी कह्या छे.
अनादिथी अज्ञानीने परनी प्रसिद्धि छे. पुण्य-राग आत्मा छे एवुं अनादिथी अज्ञानीने प्रसिद्ध छे. तेथी एम समजाव्युं के राग ते आत्मा. पण खरेखर राग ते आत्मा नथी. अहा! पुण्यनो भाव जे रागमय छे ते आत्मा नथी. आत्मा तो ज्ञानमय छे. घीना घडानी जेम व्यवहारथी समजाव्युं छे, परंतु ए व्यवहार अप्रयोजनार्थ छे. व्यवहार प्रयोजनने सिद्ध करतो नथी माटे ते अप्रयोजनार्थ छे. शुं कह्युं? के ‘राग ते आत्मा’ एम कहेवुं ते अप्रयोजनभूत छे कारण के एथी कांई प्रयोजन सिद्ध थतुं नथी.
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तेवी रीते गुणस्थान, जीवस्थान, मार्गणास्थान आदिमां आत्मा तन्मय नथी. तेथी तेमने जीवना कहेवा ते अप्रयोजनार्थ छे, जूठुं छे, कारण के एथी कांई प्रयोजन सिद्ध थतुं नथी. कळशटीकामां कळश ३९मां लीधुं छे के-“कोई आशंका करे छे के कहेवामां तो एम ज कहेवाय छे के ‘एकेन्द्रिय जीव, बे इन्द्रिय जीव’ इत्यादि; ‘देव जीव, मनुष्य जीव’ इत्यादि; ‘रागी जीव, द्वेषी जीव’ इत्यादि, उत्तर आम छे के कहेवामां तो व्यवहारथी एम ज कहेवाय छे, निश्चयथी एवुं कहेवुं जूठुं छे.” वळी कळशटीकामां कळश ४०मां पण ए ज द्रढ कर्युं छे के-“आगममां गुणस्थानोनुं स्वरूप कह्युं छे त्यां ‘देव जीव, मनुष्य जीव, रागी जीव, द्वेषी जीव’ इत्यादि घणा प्रकारे कह्युं छे, पण ते सघळुंय कहेवुं व्यवहारमात्रथी छे; द्रव्यस्वरूप जोतां एवुं कहेवुं जूठुं छे.”
राग-द्वेषादि भावो छे तो पोतामां तेओ पर्यायमां अस्ति छे तेथी सत्य छे. परंतु तेओ जीवद्रव्यमां कयां छे? तेओ अजीवपणे भले हो, पण तेओ आत्मा नथी. आ दया, दान, व्रत, तप, भक्ति आदिना जे विकल्प ऊठे छे ते आत्मा छे एम व्यवहारथी-जूठी द्रष्टिथी कह्युं छे. एनाथी भगवान! तुं भरमाई गयो? व्यवहार द्वारा निश्चय ओळखाव्यो छे अर्थात् रागद्वारा आत्मा ओळखाव्यो छे; त्यां तुं रागने ज चोंटी पडयो के राग ते आत्मा! भाई! आत्मा तो त्रिकाळी ध्रुव ज्ञायकमूर्ति भगवान विज्ञानघन प्रभु छे. ए भूतार्थ एटले सत्यार्थ छे. ए द्रष्टिनो विषय छे अने एमां द्रष्टि करतां सम्यग्दर्शन थाय छे. आ सिवाय दया, दान, आदि अनेक विकल्पवाळो जीवने कहेवो ए व्यवहार छे अने व्यवहार छे ए असत्यार्थ छे कारण के तेमां (विकल्पमां) जीव तन्मय नथी.
प्रश्नः– प्रवचनसार (गाथा १८९)मां तो एम आवे छे के निश्चयथी शुभाशुभ भावोनो-पुण्य-पापना भावोनो आत्मा र्क्ता अने भोक्ता छे? तथा प्रवचनसार गाथा ८मां एम कह्युं छे के शुभ, अशुभ के शुद्धपणे परिणमतो जीव एमां तन्मय छे?
उत्तरः– भाई! ए तो पर्यायमां शुभाशुभ भावोथी एकरूप छे एटलुं बताववुं छे. तेथी त्रिकाळी द्रव्य एमां तन्मय छे एम नथी. त्यां तो पर्याय ते समयमां ते-रूपे परिणमी छे एम वर्तमान पर्याय पूरती वस्तुनी स्थिति सिद्ध करवी छे. परंतु अहीं तो एकला त्रिकाळीने-द्रव्यने सिद्ध करवुं छे. त्रिकाळी द्रव्य जे आत्मा ए तो शुद्ध विज्ञानघन भगवान छे. ए कदीय शुभाशुभभावोपणे थयो ज नथी. तथापि शुभाशुभपणे थयो छे एम कहेवुं ए व्यवहार छे, जूठी द्रष्टि छे. समयसारनी छठ्ठी गाथामां आवे छे के भगवान आत्मा शुभाशुभभावना स्वभावे परिणम्यो ज नथी. एटले शुं? के ज्ञायकस्वभावी आत्मा जो शुभाशुभना स्वभावे परिणमे तो जड अचेतन थई जाय. भाई! आ भक्ति अने महाव्रतादिना जे शुभभाव छे ते जड अचेतन छे, केमके एमां चैतन्यनुं किरण नथी. त्यां प्रवचनसारमां पर्यायनी अपेक्षाए तन्मय छे एम कह्युं तथा अहीं द्रव्यनी अपेक्षाए तन्मय नथी एम सिद्ध कर्युं छे.
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प्रवचनसारनी १८९मी गाथामां जे एम कह्युं छे के निश्चयथी आत्मा रागनो र्क्ता अने भोक्ता छे त्यां तो स्वतः राग करे छे अने स्वतः भोगवे छे एम अभिप्राय छे. परनी परिणतिने जीवनी कहेवी ते व्यवहारनय अने पोतानी परिणतिने पोतानी-जीवनी कहेवी ते निश्चयनय एम त्यां अर्थ छे.
प्रश्नः– तो पछी जीव रागने करे छे अने नथी करतो ए बन्नेमांथी साचुं शुं?
उत्तरः– भाई! अपेक्षाथी बन्ने वात साची छे. प्रवचनसारना ज्ञेय अधिकारमां वस्तुनी पर्याय सिद्ध करी छे त्यारे अहीं द्रव्य सिद्ध कर्युं छे. द्रव्यद्रष्टिथी जोतां वस्तु जे ज्ञायकमात्र भाव छे एमां राग छे ज नहि. तेथी तो छट्ठी गाथामां कह्युं के ज्ञायकभाव शुभाशुभभावोना स्वभावे परिणमतो नथी. पंडित श्री जयचंदजीए कौंसमां ‘ज्ञायकभावथी जडभावरूप थतो नथी’ एम एनो खुलासो कर्यो छे. अहाहा! ज्ञायक, ज्ञायकपणे फीटीने कदीय अचेतन थतो ज नथी. भाई! शुभाशुभभाव छे ते अचेतन छे. जो ज्ञायकभाव तेमना स्वभावे परिणमे तो ते अचेतन थई जाय. भाई! आवो वीतराग सर्वज्ञनो मार्ग घणो गंभीर-ऊंडो छे, घणो फळदायक छे.
व्यवहारना रसियाने तो आ वात एवी लागे के जाणे एना सर्व व्यवहारनो लोप थई गयो. भाई! ए ज वात अहीं कहे छे के आत्मामां व्यवहार-रागादि छे ज नहि. जे आत्माने अंतरमां स्वीकारवो छे ए तो एकलो विज्ञानघन सच्चिदानंदमय ज्ञाननो पुंज असंख्यप्रदेशी प्रभु छे, एमां शुभाशुभ भावो कयां छे? (नथी ज). तो ए शुभाशुभपणे केम थाय? (न ज थाय). भाई! एने शुभाशुभभावोवाळो कहेवो ए तो असद्भूत व्यवहारनयनुं कथन छे. ११मी गाथामां आव्युं छे ने के जे राग जणाय छे ते असद्भूत उपचार व्यवहारनयनो विषय छे अने जे राग (अबुद्धिपूर्वकनो) नथी जणातो ए असद्भूत अनुपचार व्यवहारनयनो विषय छे. छे तो बन्ने असद्भूत व्यवहार, अने व्यवहार बधोय अभूतार्थ छे केमके ते अभूत अर्थने प्रगट करे छे. ए ज वातने विस्तारथी स्पष्ट करे छेः-
जेमके कोई पुरुषने जन्मथी मांडीने मात्र ‘घीनो घडो’ ज प्रसिद्ध छे अर्थात् घीथी जुदो घडो एणे कदीय जोयो नथी तेथी ‘घीनो घडो’ ज जेने जाणीतो छे एवा पुरुषने समजाववा “जे आ ‘घीनो घडो’ छे ते माटीमय छे, घीमय नथी.” एम कहेवामां आवे छे. अहाहा! भाषा तो जुओ! ‘आ घीनो घडो छे ते माटीमय छे’ ए तो समजमां आवे छे. हवे ए द्रष्टांत अहीं आत्मा उपर घटाववुं छे. शब्द तो एम कह्यो के ‘घीनो घडो,’ ज्यारे बताववुं एम छे के घडो माटीमय छे. कारण के घी विनानो खाली घडो एणे जोयो नथी तेथी समजाववा एम कह्युं के ‘आ घीनो घडो छे ते माटीमय छे, घीमय नथी.’ आम घडामां ‘घीनो घडो’ एम व्यवहार करवामां आवे छे.
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तेवी रीते आ अज्ञानी लोकने अनादि संसारथी मांडीने रागवाळो जीव, पुण्यवाळो जीव, भेदवाळो जीव-एम ‘अशुद्ध जीव’ ज प्रसिद्ध छे. द्रष्टांतमां ‘घीनो घडो’ प्रसिद्ध छे एम लीधुं हतुं अने सिद्धांतमां अज्ञानीने ‘अशुद्ध जीव’ ज प्रसिद्ध छे एम कहे छे. द्रष्टांतमां-पुरुष घी विनाना खाली घडाने जाणतो नथी एम लीधुं त्यारे सिद्धांतमां-अज्ञानी शुद्ध जीवने जाणतो नथी एम कहे छे. अहा! राग विनाना भगवान आत्माने अज्ञानी जाणतो नथी. तेथी हवे ते अज्ञानीने समजाववा-शुद्ध जीवनुं ज्ञान कराववा-“जे आ ‘वर्णादिमान जीव’ छे ते ज्ञानमय छे, वर्णादिमय नथी” एम कहे छे. जे ‘आ रागवाळो जीव छे ते ज्ञानमय छे’ एम कहीने निषेध कर्यो के जीव रागमय नथी. ‘आ रागादिमय जीव छे ते ज्ञानमय छे’ एम शा माटे कह्युं? कारण के अज्ञानीने राग विनानो जीव प्रसिद्ध नथी. तेथी तेने रागथी समजाव्युं के-‘आ रागवाळो जीव छे ते ज्ञानमय छे, रागमय नथी.’ अज्ञानीने अनादिथी रागादि अशुद्धता ज प्रसिद्ध छे. तेथी जेम ‘घीनो घडो माटीमय छे, घीमय नथी,’ तेम ‘आ रागादिवाळो जीव छे ते ज्ञानमय छे, रागादिमय नथी’ एम अज्ञानीने समजाव्युं छे. आमां ‘रागवाळो’ एम कहीने व्यवहार दर्शाव्यो अने ‘ज्ञानमय’ कहीने निश्चय कह्यो. एटले के जीव निश्चयथी ज्ञानमय ज छे अने व्यवहारथी तेने रागवाळो कहेवामां आवे छे. शब्द तो एम छे के ‘रागवाळो जीव,’ पण बताववुं एम छे के जीव ज्ञानमय ज छे. हवे ज्यां जीव ज्ञानमय ज छे त्यां रागथी एने लाभ थाय एम कयांथी सिद्ध थाय? (न ज थाय).
प्रश्नः– शुभभावने निश्चयनो साधक कह्यो छे ने?
उत्तरः– भाई! शुभभावने साधक कह्यो छे ए तो आरोपित कथन छे. जो राग निश्चयथी साधक होय तो आ गाथाना कथन साथे विरोध आवे. रागवाळो आत्मा छे ज नहि एम अहीं कह्युं छे. जो रागवाळो आत्मा छे ज नहि तो पछी राग आत्माने स्वानुभवमां मदद करे ए वात कयांथी आवे?
प्रश्नः– पंचास्तिकायमां व्यवहारनो शुभराग निश्चयनो साधक छे एम कह्युं छे. तमे एने मानो छो के नहि?
उत्तरः– भाई! अहीं तो एम कहे छे के राग छे ते निश्चयथी जीव छे ज नहि, अने जे जीव नथी ते जीवने लाभ केम करे? (न ज करे). आत्मा शुद्ध चैतन्यमय चिदानंद भगवान प्रभु छे. स्वभावना लक्षे उत्पन्न थती निर्मळ परिणतिथी ए साध्य छे. स्वभावथी प्राप्त जे निर्मळ परिणति ते साधक छे. भाई! रागने तो सहकारी जाणी निर्मळ परिणतिना साधकपणानो एमां आरोप आप्यो छे. अहा! शास्त्रोना अर्थ समजवा भारे कठण छे!
एक बाजु कहे के आत्मानी साथे राग तन्मय छे अने वळी अहीं कहे छे के आत्मा एनाथी तन्मय नथी! आ केवुं! भाई! पर्यायनी अपेक्षाए शुभराग साथे आत्मा
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तन्मय छे एम प्रवचनसारमां (गाथा ८मां) कह्युं छे. ज्यारे अहीं त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यनी अपेक्षाए शुभराग आत्मा साथे तन्मय नथी एम कह्युं छे. पंचास्तिकायमां व्यवहारने साधक कह्यो छे ए आरोपित कथन छे. ज्यारे अहीं-राग छे ते निश्चयथी जीव नथी तो ते साधन केम थाय?-एम कहे छे. अहा! लोकोने आकरी लागे तेवी वात छे, पण जे छे ते एम ज छे.
शंकाः– अमे तो गुरुने पकडया छे. बस, हवे ते अमने तारी देशे. अमारे हवे कांई करवानुं नथी. आ स्वमत छे के परमत छे एनी परीक्षा पण अमारे करवी नथी.
समाधानः– भाई! कोण गुरु? प्रथम तो पोते ज पोतानो गुरु छे. शुद्ध चैतन्यमय निज आत्माने पकडे, एनो आश्रय करे तो तराय एम छे, बापु! पर गुरु तारी देशे ए तो बधी व्यवहारनी वातो छे. चारित्रपाहुडनी १४मी गाथामां आवे छे के वेदांतादि अन्यमतमां माननाराओ प्रति उत्साह थवो, भावना थवी, एमनी सेवा-प्रशंसा करवी अने एमनामां श्रद्धा थवी ए बधां मिथ्यात्वनां लक्षण छे. आकरी वात, प्रभु! पण आ तो वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वर जेमना चरणोने इन्द्रो अने गणधरो चूमे छे एमनो आ मार्ग छे. सांभळवा मळवो पण मुश्केल. परंतु जेमने आत्मा जोवो-अनुभववो होय ए बधायने आ मार्गमां आववुं पडशे. आवी वात छे.
अहाहा! शैली तो जुओ! कहे छे के अज्ञानीओने अनादिथी अशुद्ध जीव ज प्रसिद्ध छे. तेथी ‘अशुद्ध-रागवाळो जीव छे ते ज्ञानमय छे, रागमय नथी’ एम तेने समजाव्युं छे. अहाहा! ‘ज्ञानमय छे, रागमय नथी’ एम कहीने अशुद्धता उडावी दीधी छे. अरे! हजी जेने श्रद्धाननां पण ठेकाणां नथी एने वळी आचरण केवां? कदाच ते व्यवहार करे-पाळे तोपण ते सर्व आचरण संसार खाते ज छे, केमके राग छे ते संसारमां ज प्रवेश करावनार छे. अहीं स्पष्ट कहे छे के-व्यवहारवाळो-रागवाळो जीव छे ते निश्चयमय-ज्ञानमय ज छे, व्यवहारमय- रागमय नथी. अहाहा! परम अद्भुत वात छे.
वस्तु अनादि-अनंत शुद्ध विज्ञानघन ध्रुवप्रवाहरूप छे. जेम पंथ चाल्यो जाय छे तेम भगवान आत्मा ध्रुव-ध्रुव-ध्रुव एम प्रवाहरूपे शुद्ध चैतन्यमय छे. तेमां एक समय पूरतो रागनो संबंध छे. हवे आ रागना संबंध विनानो जीव जेणे जोयो नथी एवा अज्ञानी जीवने समजावती वखते आ व्यवहार कह्यो के-‘रागना संबंधवाळो जीव.’ पण निश्चयथी एक समयनो राग ए वस्तुना स्वभावमां नथी. रागनो-संसारनो संबंध ज एक समय पूरतो छे. तेथी एटलो संबंध देखीने, जेणे संबंधरहित शुद्ध जीव जोयो नथी तेने बताव्युं के-‘आ रागना संबंधवाळो जीव ज्ञानमय छे, रागमय नथी.’ अहा! वातने केवी सिद्ध करी छे! आ ‘दयाना भाववाळो जीव’ एम व्यवहारथी कह्युं; पण जीव दयाना भावमय नथी पण ज्ञानमय ज छे. अहा! शुं शैली! व्यवहार समजाववा
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माटे आवे छे पण ते निश्चयनी अपेक्षाए जूठो छे एम कहे छे. बीजो कोई उपाय नथी तेथी व्यवहारथी समजाववामां आवे छे. आवो उपदेश छे!
आ प्रमाणे सूत्र विशे जीवमां वर्णादिमानपणानो व्यवहार करवामां आव्यो छे, कारण के अज्ञानी जीवने रंग-राग-वाळो ज जीव प्रसिद्ध छे. पर्यायबुद्धिवाळा जीवोने रागवाळो जीव ज प्रसिद्ध छे. एक समयनी पर्यायनी पाछळ अंदर आखुं परिपूर्ण वस्तुनुं चैतन्यदळ पडेलुं छे, परंतु पर्यायनी रमतमां जीवने राग ज जणाय छे अने तेथी ते पर्यायबुद्धि छे. तेने समजावतां कहे छे के ‘पर्यायमां रागवाळो जीव छे ते ज्ञानमय छे, रागमय नथी.’ पर्यायनी पाछळ तो आखो चैतन्यघन पडयो छे ने! शक्ति अने स्वभावनो पिंड प्रभु विज्ञानघन छे. एमां वर्तमान पर्यायनो प्रवेश नथी. अरे! निर्मळ पर्यायना पण प्रवेशनो अवकाश नथी एवो ए घन प्रभु छे. अहा! निर्मळ पर्याय पण विज्ञानघन आत्मानी उपर तरे छे.
अहीं अज्ञानीने एम कहे छे के प्रभु! एक वार सांभळ. तने शुद्ध आत्मा जाणीतो नथी, माटे जाणीती चीजथी-रागथी तने कह्युं के ‘आ रागवाळो जीव.’ आटलुं कहीने ‘ते रागमय’ छे एम नथी कह्युं, पण ‘ते ज्ञानमय’ छे एम कह्युं छे. ‘आ रागवाळो जीव’ एम तने जे ख्यालमां छे ते जीव ज्ञानमय छे. अहाहा! शुं उपदेश छे!
प्रश्नः– आमां करवानुं शुं आव्युं?
उत्तरः– भाई! सत्य समजण करी साचुं श्रद्धान करवुं. अहाहा! वस्तु शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप आत्मा छे ते तरफ ढळवुं, वळवुं अने एमां ज रमवुं ए करवानुं छे.
आठमी गाथामां कह्युं छे के गमे तेवो होशियार जीव होय तोपण आत्माने समजाववो होय तो व्यवहार द्वारा समजावाय छे. त्यां ‘दर्शन-ज्ञान-चारित्रने जे हंमेशा प्राप्त होय ते आत्मा’ एम व्यवहार कह्यो छे. ज्यारे अहीं ‘रागवाळो जीव’ एम कहीने ‘ते ज्ञानमय छे, रागमय नथी’ एम कह्युं छे. पोताना ज्ञान-दर्शन-चारित्रने अर्थात् निर्मळ पर्यायने प्राप्त करे ते आत्मा एम समजाववा माटे व्यवहार कह्यो, परंतु ए व्यवहार कहेनारने (तथा सांभळनारने) अनुसरवा लायक नथी. भाई! आ तो जेने आत्मानुभव करवो होय एनी वात छे.
हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
‘चेत्’ जो ‘घृतकुंभाभिधाने अपि’ ‘घीनो घडो’ एम कहेतां पण ‘कुंभः घृतमयः न’ घडो छे ते घीमय नथी, माटीमय ज छे. घी तो संयोगी चीज छे. ए कांई माटीना स्वभावमय चीज नथी. घीनी साथे तो माटीनो घडो संयोग संबंधे छे. तेम
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भगवान आत्मा शुद्ध विज्ञानघनस्वरूप छे अने एने पर्यायमां राग साथे एक समय पूरतो संयोग संबंध छे. परंतु आ संबंध त्रिकाळी द्रव्यमां नथी. ‘घीनो घडो’ कहेतां जेम घडो घीमय नथी, माटीमय ज छे तेम ‘वर्णादिमत् जीव–जल्पने अपि’ ‘वर्णादिवाळो जीव-रंग-रागवाळो जीव एम कहेवा छतां पण ‘जीवः न तन्मयः’ जीव छे ते वर्णादिमय नथी-रंग-रागमय नथी, पण ज्ञानघन ज छे. जेम घडो अने घी बे एक नथी, तद्न भिन्न छे, तेम राग अने भगवान आत्मा तद्न भिन्न छे. रंग-गंध आदि जे र९ बोल लीधा छे ते बधायमां जीव तन्मय नथी.
प्रवचनसारमां कह्युं छे के शुभभाव साथे जीव तन्मय छे अने अहीं कहे छे के ‘जीवः न तन्मयः’ जीव तन्मय नथी तो ए केवी रीते छे?
भाई! ए तो पर्यायमां तन्मय छे एनी वात प्रवचनसारमां छे. राग पर्यायमां थाय छे, ते बीजे थाय छे के अद्धरथी छे एम नथी. राग जे थाय छे ते पर्यायमां नथी एम नथी. त्यां तो एनुं परिणमन सिद्ध करवुं छे तेथी एम कह्युं छे के शुभथी परिणमतां शुभ, अशुभे परिणमतां अशुभ अने शुद्धे परिणमतां शुद्ध आत्मा छे. त्यारे अहीं कहे छे के-पर्यायमां राग हो तो हो, परंतु द्रव्यना स्वभावमां राग तन्मय नथी. अहाहा! जीव छे ते रंग-रागमय नथी पण शुद्धज्ञानघन ज छे.
घडो जेम माटीमय ज छे, ‘माटीवाळो’ एम पण नहि. ‘माटीमय’ ज छे, तेम भगवान आत्मा ज्ञानमय-ज्ञानघन ज छे. आत्मा ज्ञाताद्रष्टाना स्वभावथी तन्मय छे, एकमेक छे, पण रागथी तन्मय नथी. तेवी रीते जीव, जीवस्थान, मार्गणास्थान, संयम-लब्धिस्थान आदि भेदोथी तन्मय नथी. अहाहा! गजब वात छे! छेल्ले ६८मी गाथामां कहेशे के गुणस्थानथी पण तन्मय नथी. अहाहा! रंग-रागथी आत्मा तन्मय नथी ए तो ठीक, पण संयमलब्धिनां स्थान जे विकासरूप निर्मळ चारित्रना भेदरूप छे एनाथी पण आत्मा तन्मय नथी. अभेद वस्तुमां भेदनो अंश तन्मय थतो ज नथी. कषायनी मंदतानां विशुद्धिस्थानो असंख्य प्रकारनां छे. भगवान आत्मा ते प्रशस्त शुभ रागनां स्थानोथी तन्मय नथी. अज्ञानीए शुभ राग विनानो आत्मा कदी जाण्यो नथी. तेने कहे छे के-‘शुभरागवाळो जीव छे ते ज्ञानमय छे.’ एम कहीने जीवने यथार्थ ओळखाव्यो छे. जेम घडो माटीमय ज छे तेम जीव शुद्धज्ञानघन ज छे. आवी वात छे.
घीथी भरेला घडाने व्यवहारथी ‘घीनो घडो’ कहेवामां आवे छे. छतां निश्चयथी घडो घी-स्वरूप नथी. व्यवहारथी कहेवाय छे ए तो कथनमात्र छे. व्यवहारथी कह्यो माटे घडो कांई घीमय थतो नथी, पण घडो तो माटीमय ज रहे छे. अहा! घी घी-रूप छे
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अने घडो माटीमय ज छे. तेवी रीते वर्ण, पर्याप्ति, इन्द्रियो इत्यादि साथे एकक्षेत्रावगाहरूप संबंधवाळा जीवने सूत्रमां व्यवहारथी ‘पंचेन्द्रिय जीव, पर्याप्त जीव, बादर जीव, देव जीव, मनुष्य जीव ‘इत्यादिरूपे कहेवामां आव्यो छे, छतां निश्चयथी जीव ते-स्वरूप नथी. देवस्वरूपे, मनुष्यस्वरूपे खरेखर जीव नथी. जीवनुं ए वास्तविक स्वरूप नथी.
देवगति के जे उदयभाव छे ते जीव छे एम व्यवहारथी कह्युं छे कारण के अज्ञानीने तेनी प्रसिद्धि छे. परंतु ‘आ देव जे जीव छे ते ज्ञानमय छे, देवमय नथी’ एम अहीं कहे छे. आ देव-मनुष्य आदि गतिनी अर्थात् उदयभावनी वात छे, शरीरनी नहि. देव-मनुष्य आदिना शरीर साथे तो जीवने कांई संबंध नथी, ए तो प्रत्यक्ष जड छे. एनी वात नथी. अंदर जे गतिनी योग्यता देव-मनुष्यादिनी छे तेने व्यवहारथी आ देव जीव, मनुष्य जीव, एकेन्द्रिय जीव, द्विइन्द्रिय जीव, पर्याप्त जीव, अपर्याप्त जीव इत्यादि जीवपणे कहेवामां आवे छे. छतां निश्चयथी जीव ते-स्वरूप नथी. अरे, संयमलब्धिस्थानना भेदरूप पण ज्ञायक नथी. जो ते लब्धिस्थानना भेदथी तन्मय होय तो कयारेय एनाथी भिन्न पडे नहि. परंतु अनुभूतिमां तो ए भेद आवता नथी, भिन्न रहे छे. माटे जीव राग के भेदना स्वरूपे छे ज नहि, ए तो एकमात्र शुद्ध विज्ञानघन ज छे.
प्रश्नः– आ तो बहु ऊंची वात छे.
उत्तरः– बापु! तारी मोटप आगळ आ कांई ऊंची वात नथी. भाई! तारी मोटपनी शी वात कहेवी? सर्वज्ञदेवनी वाणीमां पण तारुं पूरुं स्वरूप आवी शकयुं नथी. आवो तुं भगवान आत्मा अनंत ज्ञानमय, दर्शनमय, आनंदमय, वीतरागतामय, स्वच्छतामय, प्रभुतामय छे. एने वर्णादिना भेदवाळो कहेवो ए व्यवहार छे, जूठी द्रष्टि छे. अहा! एक समय माटे भेदादिपणे पर्याय जणाय छे तोपण त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य भेदादिपणे थयुं ज नथी. आत्मा त्रिकाळी ज्ञानमय भूतार्थ वस्तु छे. ए रागथी कदीय तन्मय थयो ज नथी, रागथी सदा भिन्न ज छे, माटे ‘रागवाळो जीव’ एम कहीने तेने ‘ज्ञानमय’ जणाव्यो छे. आ जे दया, दान, व्रत, भक्ति आदि विकल्प-राग छे एमां चैतन्यपणुं नथी अने ए पुद्गलना संगे थयेला भावो छे तेथी एने पुद्गलनी जातना गणीने पुद्गलमय ज कह्या छे.
एक बाजु प्रवचनसारना ज्ञेय अधिकारमां राग निश्चयथी जीवनो छे एम कह्युं छे अने अहीं एने पुद्गलमय कह्यो छे. तो ए केवी रीते छे?
निश्चयथी राग-मिथ्यात्व जीवना छे, केमके पर्यायमां स्व-आश्रित पोताना ऊंधा पुरुषार्थथी राग-मिथ्यात्व थयां छे. तेथी स्वाश्रित परिणामने निश्चय गणीने तेने जीवना कह्या छे. त्यां पर्यायनी स्वतंत्रता-स्वायत्तता सिद्ध करवा एम कह्युं छे. ज्यारे अहीं द्रव्यस्वभाव सिद्ध करवो छे. कारण के द्रव्यना स्वभावमां रागादि छे नहि तेथी स्वभावनी द्रष्टिए
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रागादिने पुद्गलना परिणाम कह्या छे. जुओ, ‘पुद्गलस्वरूप’ छे, एम स्पष्ट लख्युं छे. भगवान आत्मा विज्ञानघननो पिंड प्रभु छे. एमां रागादि नथी अने रागादि करे एवी शक्ति नथी. तेथी ए रागादि सर्व भावो अजीव पुद्गलना ज छे एम कह्युं छे. भाई आ कांई वादविवादे पार पडे एम नथी. जिनवाणीमां तो विविध अपेक्षाथी कथन होय छे ते यथार्थ समजवां जोईए.
अहीं तो एम कह्युं छे के-पुद्गल जड कर्म छे ते करण-साधन छे अने दया, दान, आदि पुण्यभाव ए एनुं कार्य छे. तेथी कोई एम कहे के जुओ, निमित्तने लईने रागादि थया के नहि? तो एम नथी. भगवान! तुं अपेक्षा समज्यो नथी. भाई! रागादि थया छे तो पोतानी पर्यायना ऊंधा पुरुषार्थथी, पण ते स्वभावमां नथी तथा निमित्तना लक्षे थया छे तेथी तेमने निमित्तमां नाख्या छे. निमित्त एक व्यवहार छे अने रागादि अशुद्धता पण व्यवहार छे. तेथी बन्नेने एक गणीने निमित्त करण अने अशुद्धता ए एनुं कार्य एम कह्युं छे. आवी वात यथार्थ समजे नहि तो सत्य केम मळे? भाई! जीव तो एने कहीए जे त्रिकाळ ध्रुव चैतन्यघनस्वरूप ज्ञानस्वरूप ज छे.
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एतदपि स्थितमेव यद्रागादयो भावा न जीवा इति–
ते कह हवंति जीवा जे णिच्चमचेदणा उत्ता।। ६८ ।।
तानि कथं भवन्ति जीवा यानि नित्यमचेतनान्युक्तानि।। ६८ ।।
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हवे कहे छे के (जेम वर्णादि भावो जीव नथी ए सिद्ध थयुं तेम) ए पण सिद्ध थयुं के रागादि भावो पण जीव नथीः-
ते जीव केम बने, निरंतर जे अचेतन भाखियां? ६८.
गाथार्थः– [यानि इमानि] जे आ [गुणस्थानानि] गुणस्थानो छे ते [मोहनकर्मणः उदयात् तु] मोहकर्मना उदयथी थाय छे [वर्णितानि] एम (सर्वज्ञनां आगममां) वर्णववामां आव्युं छे; [तानि] तेओ [जीवाः] जीव [कथं] केम [भवन्ति] होई शके [यानि] के जेओ [नित्यं] सदा [सचेतनानि] अचेतन [उक्तानि] कहेवामां आव्यां छे?
टीकाः– आ मिथ्याद्रष्टि आदि गुणस्थानो पौद्गलिक मोहकर्मनी प्रकृतिना उदयपूर्वक थतां होईने, सदाय अचेतन होवाथी, कारणना जेवां ज कार्यो होय छे एम करीने (समजीने, निश्चय करीने), जवपूर्वक जे जव थाय छे ते जव ज होय छे ए न्याये, पुद्गल ज छे-जीव नथी. अने गुणस्थानोनुं सदाय अचेतनपणुं तो आगमथी सिद्ध थाय छे तेम ज चैतन्यस्वभावथी व्याप्त जे आत्मा तेनाथी भिन्नपणे ते गुणस्थानो भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान होवाथी पण तेमनुं सदाय अचेतन पणुं सिद्ध थाय छे.
एवी रीते राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबंधस्थान, संकलेशस्थान, विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान-तेओ पण पुद्गलकर्मपूर्वक थतां होईने, सदाय अचेतन होवाथी, पुद्गल ज छे-जीव नथी एम आपोआप आव्युं (-फलित थयुं, सिद्ध थयुं).
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तर्हि को जीव इति चेत्–
जीवः स्वयं तु चैतन्यमुच्चैश्चकचकायते।। ४१ ।।
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माटे रागादि भावो जीव नथी एम सिद्ध थयुं.
भावार्थः– शुद्धद्रव्यार्थिक नयनी द्रष्टिमां चैतन्य अभेद छे अने एना परिणाम पण स्वाभाविक शुद्ध ज्ञान-दर्शन छे. परनिमित्तथी थता चैतन्यना विकारो, जोके चैतन्य जेवा देखाय छे तोपण, चैतन्यनी सर्व अवस्थाओमां व्यापक नहि होवाथी चैतन्यशून्य छे-जड छे. वळी आगममां पण तेमने अचेतन कह्या छे. भेदज्ञानीओ पण तेमने चैतन्यथी भिन्नपणे अनुभवे छे तेथी पण तेओ अचेतन छे, चेनत नथी.
प्रश्नः– जो तेओ चेतन नथी तो तेओ कोण छे? पुद्गल छे? के अन्य कांई छे?
उत्तरः– पुद्गलकर्मपूर्वक थतां होवाथी तेओ निश्चयथी पुद्गल ज छे केम के कारण जेवुं ज कार्य थाय छे.
आ रीते एम सिद्ध कर्युं के पुद्गलकर्मना उदयना निमित्तथी थता चैतन्यना विकारो पण जीव नथी, पुद्गल छे.
हवे पूछे छे के वर्णादिक अने रागादिक जीव नथी तो जीव कोण छे? तेना उत्तररूप श्लोक कहे छेः-
श्लोकार्थः– [अनादि] जे अनादि छे अर्थात् कोई काळे उत्पन्न थयुं नथी, [अनन्तम्] जे अनंत छे अर्थात् कोई काळे जेनो विनाश नथी, [अचलं] जे अचळ छे अर्थात् जे कदी चैतन्यपणाथी अन्यरूप-चळाचळ-थतुं नथी, [स्वसंवेद्यम्] जे स्वसंवेद्य छे अर्थात् जे पोते पोताथी ज जणाय छे [तु] अने [स्फुटम्] जे प्रगट छे अर्थात् छूपुं नथी-एवुं जे [इदं चैतन्यम्] आ चैतन्य [उच्चैः] अत्यंतपणे [चकचकायते] चकचकाट प्रकाशी रह्युं छे, [स्वयं जीवः] ते पोते ज जीव छे.
भावार्थः– वर्णादि अने रागादि भावो जीव नथी पण उपर कह्यो तेवो चैतन्यभाव ते ज जीव छे. ४१.
हवे, चेतनपणुं ज जीवनुं योग्य लक्षण छे एम काव्य द्वारा समजावे छेः-
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नामूर्तत्वमुपास्य पश्यति जगज्जीवस्य तत्त्वं ततः।
इत्यालोच्य विवेचकैः समुचितं नाव्याप्यतिव्यापि वा
व्यक्तं व्यञ्जितजीवतत्त्वमचलं चैतन्यमालम्ब्यताम्।। ४२ ।।
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श्लोकार्थः– [यतः अजीवः अस्ति द्वेधा] अजीव बे प्रकारे छे- [वर्णाद्येः सहितः] वर्णादिसहित [तथा विरहितः] अने वर्णादिरहित; [ततः] माटे [अमूर्तत्वम् उपास्य] अमूर्तपणानो आश्रय करीने पण (अर्थात् अमूर्तपणाने जीवनुं लक्षण मानीने पण) [जीवस्य तत्त्वं] जीवना यथार्थ स्वरूपने [जगत् न पश्यति] जगत देखी शक्तुं नथी;- [इति आलोच्य] आम परीक्षा करीने [विवेचकैः] भेदज्ञानी पुरुषोए [न अव्यापि अतिव्यापि वा] अव्याप्ति अने अतिव्याप्ति दूषणोथी रहित [चैतन्यम्] चेतनपणाने जीवनुं लक्षण कह्युं छे [समुचितं] ते योग्य छे. [व्यक्तं] ते चैतन्यलक्षण प्रगट छे, [व्यञ्जित–जीव–तत्त्वम्] तेणे जीवना यथार्थ स्वरूपने प्रगट कर्युं छे अने [अचलं] ते अचळ छे-चळाचळता रहित, सदा मोजूद छे. [आलम्ब्यताम्] जगत तेनुं ज अवलंबन करो! (तेनाथी यथार्थ जीवनुं ग्रहण थाय छे.)
भावार्थः– निश्चयथी वर्णादिभावो-वर्णादिभावोमां रागादिभावो आवी गया-जीवमां कदी व्यापता नथी तेथी तेओ निश्चयथी जीवनां लक्षण छे ज नहि; व्यवहारथी तेमने जीवनां लक्षण मानतां पण अव्याप्ति नामनो दोष आवे छे कारण के सिद्ध जीवोमां ते भावो व्यवहारथी पण व्यापता नथी. माटे वर्णादिभावोनो आश्रय करवाथी जीवनुं यथार्थ स्वरूप ओळखातुं ज नथी.
अमूर्तपणुं जोके सर्व जीवोमां व्यापे छे तोपण तेने जीवनुं लक्षण मानतां अतिव्याप्ति नामनो दोष आवे छे, कारण के पांच अजीव द्रव्योमांना एक पुद्गलद्रव्य सिवाय धर्म, अधर्म, आकाश अने काळ-ए चार द्रव्यो अमूर्त होवाथी, अमूर्तपणुं जीवमां व्यापे छे तेम ज चार अजीव द्रव्योमां पण व्यापे छे; ए रीते अतिव्याप्ति दोष आवे छे. माटे अमूर्तपणानो आश्रय करवाथी पण जीवनुं यथार्थ स्वरूप ग्रहण थतुं नथी.
चैतन्यलक्षण सर्व जीवोमां व्यापतुं होवाथी अव्याप्तिदोषथी रहित छे, अने जीव सिवाय कोई द्रव्यमां नहि व्यापतुं होवाथी अतिव्याप्तिदोषथी रहित छे; वळी ते प्रगटे छे; तेथी तेनो ज आश्रय करवाथी जीवना यथार्थ स्वरूपनुं ग्रहण थई शके छे. ४२.
हवे, ‘जो आवा लक्षण वडे जीव प्रगट छे तोपण अज्ञानी लोकोने तेनुं अज्ञान केम रहे छे?’-एम आचार्य आश्चर्य तथा खेद बतावे छेः-