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टीकाः– वळी, संसार-अवस्थामां जीवने वर्णादिभावो साथे तादात्म्यसंबंध छे एवो जेनो अभिप्राय छे, तेना मतमां संसार-अवस्था वखते ते जीव अवश्य रूपीपणाने पामे छे; अने रूपीपणुं तो कोई द्रव्यनुं, बाकीनां द्रव्योथी असाधारण एवुं लक्षण छे. माटे रूपीपणा (लक्षण) थी लक्षित (लक्ष्यरूप थतुं, ओळखातुं) जे कांई होय ते जीव छे. रूपीपणाथी लक्षित तो पुद्गलद्रव्य ज छे. ए रीते पुद्गलद्रव्य ज पोते जीव छे, पण ते सिवाय बीजो कोई जीव नथी. आम थतां, मोक्ष-अवस्थामां पण पुद्गलद्रव्य ज पोते जीव (ठरे) छे, पण ते सिवाय बीजो कोई जीव (ठरतो) नथी; कारण के सदाय पोताना स्वलक्षणथी लक्षित एवुं द्रव्य बधीये अवस्थाओमां हानि अथवा घसारो नहि पामतुं होवाथी अनादि-अनंत होय छे. आम थवाथी, तेना मतमां पण (अर्थात् संसार-अवस्थामां ज जीवनुं वर्णादि साथे तादात्म्य माननारना मतमां पण); पुद्गलोथी भिन्न एवुं कोई जीवद्रव्य नहि रहेवाथी, जीवनो जरूर अभाव थाय छे.
भावार्थः– जो एम मानवामां आवे के संसार-अवस्थामां जीवनो वर्णादिक साथे तादात्म्यसंबंघ छे तो जीव मूर्तिक थयो; अने मूर्तिकपणुं तो पुद्गलद्रव्यनुं लक्षण छे; माटे पुद्गलद्रव्य ते ज जीवद्रव्य ठर्युं, ते सिवाय कोई चैतन्यरूप जीवद्रव्य न रह्युं. वळी मोक्ष थतां पण ते पुद्गलोनो ज मोक्ष थयो; तेथी मोक्षमां पण पुद्गलो ज जीव ठर्यों, अन्य कोई चैतन्यरूप जीव न रह्यो. आ रीते संसार तेम ज मोक्षमां पुद्गलथी भिन्न एवुं कोई चैतन्यरूप जीवद्रव्य नहि रहेवाथी जीवनो ज अभाव थयो. माटे मात्र संसार-अवस्थामां ज वर्णादिभावो जीवना छे एम मानवाथी पण जीवनो अभाव ज थाय छे.
हवे, ‘मात्र संसार-अवस्थामां ज जीवने वर्णादिक साथे तादात्म्य छे’ एवा अभिप्रायमां पण दोष आवे छे एम कहे छेः-
जेनो अभिप्राय एटले श्रद्धान एम छे के-भले मोक्ष अवस्थामां रागादिनो जीवनी साथे तादात्म्य संबंध नथी पण संसार-अवस्थामां तो जीवने रागादि भावो साथे संबंध छे तेने कहे छे के-भाई! संसार-अवस्थामां जो जीवने वर्णादि भावो साथे संबंध होय तो संसार- अवस्थाना काळमां तारा मत प्रमाणे जीव अवश्य रूपीपणाने प्राप्त थाय. जुओ, अहीं रागादि भावने अजीव, अचेतन अने रूपी पण कह्याछे. भगवान चैतन्यस्वरूप प्रभु जीव तो अरूपी छे. अने आ रागादि भावो छे ए तो अचेतन रूपी छे. तेथी जो रागादि भावो संसार- अवस्थामां जीव साथे तादात्म्यपणे होय तो जीव अवश्य रूपीपणाने प्राप्त थाय.
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संसार दशामां पण आ रागादि भावो आत्माना नथी एम अहीं कहे छे. संसार अवस्थामां जीवने रंग-राग अने भेदना भावो साथे तादात्म्य संबंध नथी. छतां जो तारो एवो अभिप्राय होय के ज्ञानानंदस्वभावी जीवने संसारदशामां रंग-राग अने भेदना भावोथी तादात्म्य छे तो आत्मा जरूर रूपीपणाने प्राप्त थाय. परंतु रूपीपणुं-रूपीत्व ए तो जडनुं- पुद्गलनुं लक्षण छे. ‘कोई द्रव्यनुं’ एटले के पुद्गलनुं अने ‘बाकीना द्रव्योथी असाधारण’ एटले के जीवादि द्रव्योथी भिन्न. रूपीपणुं ए तो जीवादिथी भिन्न एवा पुद्गलनुं लक्षण छे. माटे जीवने जो संसार-अवस्थामां रंग-राग-भेदथी तादात्म्य होय तो, रूपीपणाना लक्षणथी लक्षित जे कांई छे ते बधुंय जीवपणे थई जशे. अर्थात् पुद्गल, जीवमय थई जशे; भिन्न कोई जीव रहेशे नहि.
अहा! लोको बस दया, दान, व्रत, भक्ति, आदि व्यवहारक्रिया करो एटले पोतानुं कल्याण थई जशे एम माने छे. परंतु अहीं कहे छे के-प्रभु! आ रंग, राग अने भेदना सर्व भावोने पुद्गलनी साथे संबंध छे. आत्मा जो रंगरूप थई जाय, रागरूप थई जाय के भेदरूप थई जाय तो ते रूपी थई जाय. अहाहा! अज्ञान अवस्थामां पण रंग-राग-भेद मारा छे, अने हुं तेनो र्क्ता छुं एम जे माने छे ते पुद्गलने जीवपणे माने छे. भाई! वस्तुना स्वरूपनी द्रष्टिथी जोतां रंग-राग-भेद त्रिकाळी वस्तुमां नथी, पर्यायनी अपेक्षाए तेमने जीवना कह्या छे तोपण त्रिकाळी ध्रुव स्वभावनी द्रष्टिथी जोतां तेमने जीव साथे तादात्म्य नथी तेथी तेओ जीवना नथी पण रूपी पुद्गलना छे. आ स्याद्वाद छे. आकरो मार्ग, बापु! पण मार्ग आ ज छे, भाई.
चैतन्यप्रकाशनुं पूर प्रभु आत्मा ते सदाय अरूपी छे. अने रंग-राग-भेद छे ते रूपी छे. हवे कहे छे के रूपीपणुं तो पुद्गलनुं लक्षण छे. तेथी संसार अवस्थामां पण जो कोई जीवने रंग-राग-भेद छे एम माने तो जीव रूपी-पुद्गल थई जाय. तेथी पुद्गल ज जीवपणाने पामे, भिन्न जीव रहे नहि. आ तत्त्वद्रष्टि छे. कहे छे के-प्रभु! तुं शुद्ध जीवतत्त्व - चैतन्यतत्त्व छो. माटे रंग-राग-भेदरूप अजीवतत्त्वना संबंधनी मान्यता छोड. कारण के ते संबंध तारो छे ज नहि. हवे आ वात वादविवादे केम पार पडे?
पर्यायमां रागादि छे माटे पर्याय अपेक्षाए ते सत्य छे. पण चैतन्यस्वभावनी द्रष्टिमां ए रंग-राग-भेद त्रणेय त्रिकाळी ज्ञायकभावरूप आत्मामां छे ज नहि. रंग-राग-भेदना भावो तो रूपी पुद्गल साथे संबंधवाळा छे अने तेनो जो आत्मा साथे संबंध थई जाय तो आत्मा रूपी थई जाय. तेथी जीवनो ज अभाव थई जाय. अहीं आत्माने रंग कहेतां वर्णथी, राग एटले शुभाशुभ भावोथी अने भेद एटले गुणस्थान, लब्धिस्थान आदि भेदोथी जुदो-भिन्न पाडयो छे. अहाहा! रंग-राग अने भेदथी निराळो भगवान चैतन्य महाप्रभु छे. अरे! आवुं सांभळवाय मळे नहि ते एनी रुचि अने प्रयत्न कयारे
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करे? अत्यारे तो ‘जन-सेवा ते प्रभुसेवा,’ देशसेवा करो तेथी भगवान मळी जशे एवी प्ररूपणा चाले छे. परंतु भाई, कोना देशनी सेवा करवी? तारो देश तो रंग-राग-भेदथी भिन्न छे. तारो देश तो असंख्यप्रदेशी अभेद चिद्रूपमात्र स्वरूप छे. आवा तारा देशनी सेवा-उपासना कर तो भगवान मळी जशे.
अहाहा! रंग-राग-भेदना भावो रूपी छे एम अहीं कह्युं छे. रंग-गंध-रस-स्पर्श तो रूपी छे पण शुभाशुभभावो अने जीवस्थान-गुणस्थान-मार्गणास्थान आदि भेदो पण रूपी छे एम कह्युं छे. आत्मा निर्मळानंद प्रभु त्रिकाळ अरूपी छे तेनी अपेक्षाए आ सर्वभावो रूपी छे एम कह्युं छे. मानवुं कठण पडे पण एम ज छे, प्रभु! कर्मनी निवृत्तिथी थतां जे संयमलब्धिस्थानो छे ते पण रूपी छे एम कहे छे. ज्ञानमां जे क्षयोपशमनो अंश छे ते स्वयं निरावरण छे अने ते शुद्ध छे तथा ए ज अंश वधीने केवळज्ञान थशे एम जे कह्युं छे ए तो पर्यायनयनी अपेक्षाथी कह्युं छे. ए तो क्षयोपशमज्ञाननो अंश शुद्ध छे एम पर्यायनुं ज्ञान कराव्युं छे. ज्यारे अहीं तो स्वभावनी द्रष्टिनी वात छे. त्रिकाळी ज्ञायकभावना नूरना पूरना तेजमां ए रंग-राग-भेद छे ज नहि तेथी ते रूपी छे एम कह्युं छे. जो ए रागादि, द्रव्यना- जीवना स्वभावमां तद्रूपपणे होय तो कदी नीकळे ज नहि. अहो! वीतरागनो मार्ग अलौकिक छे!
प्रवचनसारमां एम आवे छे के ज्ञानीने-अरे गणधरने पण-रागनुं परिणमन छे अने तेना र्क्ता तेओ छे. ज्यारे अहीं रागने रूपी पुद्गलमय कहे छे! भाई! ज्ञाननो स्वभाव स्वपर-बधुंय जाणवानो होवाथी, ज्ञाननी प्रधानताथी त्यां (प्रवचनसारमां-नय अधिकारमां) पर्यायनुं ज्ञान कराव्युं छे. पण अहीं तो जीवना स्वभावनी वात छे. रंग-राग अने भेद जीवना चैतन्यस्वभावथी भिन्न, विपरीत छे. तेथी तेओ रूपी पुद्गलमय छे. अभेदनी द्रष्टिमां भेद छे ज नहि. अगियारमी गाथाना भावार्थमां कह्युं छे के-प्राणीओने भेदरूप व्यवहारनो पक्ष तो अनादिकाळथी ज छे अने तेओ भेदनी-व्यवहारनी परस्पर प्ररूपणा पण करे छे. तथा भेदनुं-व्यवहारनुं कथन, तेने हस्तावलंब जाणी, शास्त्रोमां-जैनदर्शनमां घणुं कर्युं छे. परंतु एनुं फळ संसार ज छे. गजब वात! आ वात झीरववी महा कठण छे.
अंदर पूर्णानंदनो नाथ अभेद एकरूप चैतन्यमहाप्रभु बिराजे छे. ए अभेद स्वरूपनी द्रष्टि थया विना सम्यग्दर्शन थतुं नथी. सम्यग्दर्शन, अखंड एकरूप निर्मळ चैतन्यस्वरूप भगवान आत्माना स्वीकारथी थाय छे. अभेदनीद्रष्टि भेदने रागने के निमित्तने स्वीकारती नथी, केमके अभेद वस्तुमां भेदादि छे ज नहि. माटे जे अभेदमां नथी तेनो निषेध करवो यथार्थ छे. तेथी अभेदनी द्रष्टिमां आ रंग-राग अने भेदना भावोने तेओ रूपी अने पुद्गलना लक्षणथी लक्षित छे एम कह्युं छे. ए तो श्लोकमां पण आवे छे के भेदज्ञान
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थया पहेलां अज्ञानभावे जीव रागनो र्क्ता छे तोपण ज्यारे भेदज्ञान प्रगट थाय छे त्यारे ते रागादि आत्मानी चीजमां नथी. आवी वात आकरी पडे पण तेथी ते कांई बीजी रीते पलटावी नखाय? अंदर झळहळज्योतिरूप चैतन्यभगवान छे तेने जाणवानो अभ्यास करवो जोईए.
बापु! अंदर जे आ चैतन्यना प्रकाशना नूरनुं पूर छे ए ज आत्मा छे, हों. आ जाणनार-जाणनार जे ज्ञायकमात्र वस्तु छे ए आत्मा छे. भाई! ए शरीरादिवाळो नथी, हों. आ शरीरादि छे ए तो धूळ-माटी-पुद्गल छे. अरे, आ शुभाशुभ राग अने गुणस्थान आदि भेद पण रूपी पुद्गलमय छे एम कहे छे. अहाहा! त्रणलोकना नाथ सर्वज्ञदेवे कहेली आ वात अहीं संतो प्रसिद्ध करे छे. कहे छे के-आत्मा प्रसिद्ध कयारे थाय? के ज्यारे ए रूपी, अचेतन एवा रंग-राग-भेदना भावोथी भिन्न पडीने अभेदनी द्रष्टि करे त्यारे आत्मा प्रसिद्ध थाय. नहींतर तो रंग-राग-भेदनी एटले रूपी पुद्गलनी प्रसिद्धि छे, केमके तेओ रूपी छे. टीकामां कहे छे के-रूपीत्वथी लक्षित तो पुद्गलद्रव्य छे माटे रंग-राग-भेदना भावो पुद्गलद्रव्य ज छे.
प्रश्नः– शुं आ एकांत नथी?
उत्तरः– हा, एकांत छे, पण सम्यक् एकांत छे. आवुं सम्यक् एकांत होय त्यारे पर्यायमां राग अने अल्पज्ञता छे एनुं पण यथार्थ ज्ञान होय छे. अने एनुं नाम अनेकान्त छे. भाई! वीतरागनो मार्ग झीणो लागे तोपण वस्तु तो एम ज छे.
शुद्ध चैतन्यप्रकाशस्वरूप वस्तुमां राग अने भेदने कयां अवकाश छे? रूपी वर्णनी तो शुं वात करवी, राग अने भेदना भावो पण परमां-पुद्गलमां जाय छे. आ रंग-राग-भेदना भावो पुद्गलना छे, मारा चैतन्यस्वभावमां नथी एम ज्यां निज ज्ञायकभावनी द्रष्टि थई त्यां भवनो अंत आवी गयो, जन्म-मरणना चोरासीना फेरा मटी गया. वर्णादिने ज्यां सुधी पोताना मानतो हतो त्यां सुधी मिथ्यात्व हतुं अने त्यां सुधी अनंत अनंत भवमां रखडवानी एनामां शक्ति हती. पण ज्यां अचेतन पुद्गलमय एवा रंग-राग अने भेदना भावोथी भिन्न शुद्ध चैतन्यस्वरूप अभेद एक आत्मानी द्रष्टि थाय त्यां संसारनो अभाव थई जाय छे. आवी अमूल्य चीज सम्यग्दर्शन छे. अहाहा! अंदर वस्तुना स्वरूपमां रंग-राग-भेदनो त्याग अने शुद्ध चैतन्यनुं ग्रहण छे एनी जेने खबर नथी अने बहारथी त्याग करीने, क्रियाकांड करीने कोई पोताने त्यागी माने पण ए बधुं सरवाळे शून्य छे, एनी कांई किंमत नथी.
प्रश्नः– ए पुरुषार्थ तो करे छे?
उत्तरः– भाई, अंतर अभेदस्वरूपमां रहेवुं ए ज पुरुषार्थ छे. अभेद वस्तु जे द्रष्टिमां आवी छे तेमां ज विशेष लीन थवुं ए चारित्र छे. पण सम्यग्दर्शन अने एनो
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विषय शुं छे एनी खबर विना चारित्र आवे कयांथी? प्रभु! अंदर ज्ञानप्रकाशनुं पूर झळहळ चैतन्यज्योतिस्वरूप ध्रुव अभेद आत्मा छे तेनी द्रष्टि करवाथी रंग-राग-भेद जुदा थई जाय छे, एनी पर्यायमां ते आवता नथी. सम्यग्दर्शननी पर्यायमां अभेद आत्मा आवे छे, जणाय छे पण रंग-राग-भेद आवता नथी. प्रभु! आ पुरुषार्थ अने आ त्याग छे.
बहारनां त्याग-ग्रहण तो आत्माना स्वरूपमां छे ज नहीं. तथा विकारनो त्याग पण स्वरूपमां नथी, केमके स्वरूपमां कयां विकार छे? द्रष्टि ज्यां स्वरूपमां स्थिर थाय छे त्यां विकार उत्पन्न ज थतो नथी तेथी विकारनो-रागनो त्याग कर्यो एम नाममात्र कहेवाय छे. आ वात गाथा ३४मां आवी गई छे. ज्ञायकस्वभावमां विकार छे ज नहीं तो विकारने त्यागवानुं कयां रह्युं? वर्तमान पर्यायमां विकार छे. पण ज्यां ज्ञायकभाव उपर द्रष्टिनी स्थिरता थई त्यां निर्मळ परिणमन थयुं अने राग उत्पन्न ज थयो नहीं तेथी रागनो त्याग कर्यो एम कथनमात्र कहेवामां आवे छे. अहो! समयसारनुं एक एक पद अने एक एक पंक्ति अलौकिक छे!!
अहीं कहे छे के-जेम रंग-राग अने भेदना भावोने पुद्गल साथे तादात्म्य छे एम जीवनी साथे पण तादात्म्य छे एम जो मानो तो पुद्गलद्रव्य ज जीव थई जाय, चैतन्यलक्षण जीव भिन्न रहे ज नहि. भाई! आ समयसारनां पेट बहु ऊंडां छे. तेमां पण आ असाधारण गाथा छे. भगवान आत्मा एकलो चैतन्यरसनो पिंड प्रभु अभेद एकरूप वस्तु छे. तेमां रूपी अचेतन एवा रंग-राग अने भेदने तादात्म्यपणे स्थापवामां आवे तो ते रूपी पुद्गल ज आत्मा थई जाय अने चैतन्यमय भिन्न जीव रहे ज नहि. भाई! धीरजथी समजवानी वस्तु छे.
आत्मपदार्थ चैतन्यमहाप्रभु सर्वोत्कृष्ट छे. त्रणलोकमां सारभूत सर्वोत्कृष्ट वस्तु ज तुं छे. आवा आत्मपदार्थमां अचेतन, रूपी पुद्गलमय एवा रंग-राग-भेदने एकत्वपणे स्थापवामां आवे तो आत्मा ज रूपी अचेतन थई जाय. अर्थात् ए पुद्गल ज जीवपणे स्थापित थाय, अने तो पछी मोक्ष अवस्थामां पण जीव पुद्गलपणे ज रहे. पुद्गलनी साथे जे अभिन्न छे एवां रंग-रागादिने ज जो जीव मानवमां आवे तो मोक्ष थतां पण ए पुद्गल ज त्यां रहे, पण एनाथी भिन्न जीव कोई रहे नहीं. जेनाथी जेनुं तादात्म्य छे तेनाथी ते कदीय भिन्न पडे नहीं. तेथी संसार-अवस्थामां जीवने जो रागादि साथे तादात्म्य कोई माने तो, जेम संसार-अवस्थामां रागादि साथे तादात्म्य होवाथी जीव पुद्गलमय थयो तेम मोक्ष अवस्थामां पण जीव पुद्गलमय ज रहेशे. संसार-अवस्थामां पण रूपीत्व के जे पुद्गलनुं लक्षण छे ते जो जीवमां तादात्म्यपणे आवी जाय तो मोक्ष थतां पण ए लक्षण रहे ज. तेथी मोक्षमां पुद्गल ज रहेशे पण भिन्न जीव नहीं रहे.
भाई! रंग-राग अने भेदथी तो पुद्गलने ज तन्मयपणुं छे. तेथी जो संसार-
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अवस्थामां आत्माने एनाथी तन्मय माने तो आत्मा रूपी पुद्गल ज थई जाय. तो पछी संसार-अवस्था पलटीने मोक्ष थाय त्यारे कोनो मोक्ष थाय? पुद्गलनो ज मोक्ष थाय, अर्थात् मोक्षमां पुद्गल ज रहेशे, जीव नहि. एक अवस्थामां जो रंग-राग-भेद जीवथी तन्मय होय तो बीजी अवस्थामां पण ते जीवथी तन्मय एटले एकमेक ज रहेशे. तेथी संसार-अवस्थामां पुद्गलथी तन्मय जीव, मोक्ष अवस्थामां पण पुद्गलथी ज तन्मय रहेशे. अर्थात् पुद्गलनो ज मोक्ष थशे. अहो! दिगंबर संतोए गजब काम कर्यां छे. ए केवळीना केडायतीओए तो केवळज्ञानना ‘कक्का’ घूटांव्या छे. ‘क’ एटले केवळज्ञानी आत्मा. कहे छे के आ आत्मा जो रंग-रागथी अभेद थई जाय तो आत्मा ज रहेतो नथी, अर्थात् पुद्गलथी जुदो कोई जीव ज सिद्ध थतो नथी.
अहा! आवी वात बीजे कयांय छे ज नहि. सर्वज्ञ परमात्माए जे दिव्यध्वनिमां कह्युं हतुं ते संतोए कह्युं छे. लोको तो बस बहारथी त्याग करो, पंचमहाव्रत पाळो अने भगवाननी भक्ति आदि करो एटले धर्म थई गयो एम माने छे. तेओ शुभभाव वडे ज निर्जरा थाय एम माने छे. परंतु भाई, शुभभावने तो अहीं रूपी अचेतन पुद्गलना परिणाममय कह्यो छे. तो पछी एनाथी निर्जरा केम थाय? आचार्य कहे छे के-आ टीका करवानो जे शुभ विकल्प आव्यो छे ते मारो नथी, केमके ते पुद्गलनी साथे तादात्म्य संबंध राखे छे, मारी साथे नहि. अहाहा! टीकाना शब्दोनी जे क्रिया छे ते तो मारी नथी पण एनो जे विकल्प आव्यो छे ते पण पुद्गलनी साथे संबंध राखे छे तेथी मारो नथी एम कहे छे. हुं तो मात्र तेनाथी भिन्न रहीने तेने जाणवावाळो छुं. अहाहा! मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय आदि पर्यायमां जे भेद पडे छे तेनो हुं मात्र जाणवावाळो छुं. ए भेदो मारी चीज नथी. निमित्तने, रागने अने भेदने हुं जाणवावाळो छुं पण जेने हुं जाणुं छुं ए निमित्तरूप, रागरूप के भेदरूप हुं नथी. अहो! भेदज्ञाननी शुं अद्भुत अलौकिक कळा आचार्योए बतावी छे! ए भेदविज्ञानना बळे रंग- राग-भेदथी भिन्न पडीने पोताना शुद्ध ज्ञायकस्वभावने द्रष्टिमां लई तेमां ज एकाग्र थतां संवर-निर्जरा थाय छे अने ए ज शुद्ध रत्नत्रयरूप धर्म छे. बाकी रंग-राग-भेद सहित आत्मानी द्रष्टि करवी ए मिथ्यादर्शन छे.
अहीं कहे छे के-रंग-राग-भेदना भावो संसारदशामां आत्माना छे एम जो तुं माने तो एनाथी भिन्न अन्य कोई जीव रहेशे नहि, अने तो मोक्ष अवस्थामां पण पुद्गल द्रव्य ज जीव ठरशे, कारण के सदाय पोताना लक्षणथी लक्षित एवुं द्रव्य बधीय अवस्थाओमां हानि अथवा घसारो नहि पामतुं होवाथी अनादि-अनंत होय छे. भगवान आत्मा ज्ञायकमात्र शुद्ध चैतन्यरसकंद छे. तेनी साथे रंग-राग-भेदना भावोने तादात्म्य छे एम जो तुं माने तो आत्मद्रव्य रंग-राग-भेदना लक्षणथी लक्षित थाय. अने ते लक्षण कोईपण वखते हानि के घसारो पामे नहि. तेथी करीने आत्मा एनाथी भिन्न
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कयारेय रहे नहि. एटले के आत्मा आत्मापणे रहे नहि अर्थात् जीवनो जरूर अभाव थाय. अहो! टीकामां अमृतचंद्रस्वामीए एकलां अमृत रेडयां छे. कहे छे के रंग-राग-भेदने जो तुं आत्मानुं लक्षण माने तो, लक्षण कयारेय हानि के घसारो नहि पामतुं होवाथी, ते (रंग-राग- भेद) त्रणेय काळ आत्मामां रहे अने तो पछी आत्मा आत्मापणेशुद्ध चैतन्यपणे रहे नहि, तेनो अभाव ज थाय.
आ जीव-अजीव अधिकार छे. जीव कोने कहेवाय एनी अहीं वात छे. जीव तो अनंत अनंत गुणनो अभेद शुद्ध चैतन्यमात्र पिंड छे. रंग-राग अने भेदना सघळाय भावो एमां नथी. रंगमां वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय, कर्म वगेरे आवी जाय. रागमां शुभाशुभभाव अने अध्यवसान आवी जाय, तथा भेदमां जीवस्थान, मार्गणास्थान, गुणस्थान, लब्धिस्थान इत्यादि भेदो आवी जाय. हवे जीव एने कहीए के जे आ बधाय रंग-राग-भेदना भावोथी निराळो-भिन्न त्रिकाळी ध्रुव चैतन्यपणे छे. तथापि जो एम मानवामां आवे के संसार-अवस्थामां जीवने रंग-राग-भेदनी साथे तादत्म्य संबंध छे तो जीव मूर्तिक थई जाय केमके रंग-राग-भेदना भावो बधाय मूर्तिक छे. तथा मूर्तिकपणुं तो पुद्गलनुं ज लक्षण छे. तेथी जीव अने पुद्गल एक थई जाय. बहु सूक्ष्म वात, भाई! आ दया, दान, व्रत, व्यवहाररत्नत्रय आदिनो राग अने गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि भेदो मूर्तिक-रूपी छे. एनाथी जीव जो अभिन्न होय तो जीव मूर्तिक पुद्गलमय थई जाय, भेदादिथी भिन्न कोई चैतन्यरूप जीव रहे नहि. अने तो पुद्गलद्रव्य ए ज जीव एम ठरे.
जुओ, आ शास्त्रज्ञान छे ए परज्ञेय छे, स्वज्ञेय नथी. एने अहीं मूर्तिक कहीने पुद्गलमय कह्युं छे. ज्यारे भगवान आत्मा तो अखंड, अभेद, एक शुद्ध चिद्रूप वस्तु छे. एमां गुणभेद के पर्यायभेद पण नथी तो पछी रंग-रागनी तो वात ज शी करवी? आवा शुद्ध चिन्मात्र अमूर्तिक जीवने रंग-राग-भेदथी अभिन्न मानतां ते मूर्तिक पुद्गलमय थई जाय छे केमके रंग-राग-भेदनुं स्वरूप मूर्तपणुं छे, अने मूर्तपणुं पुद्गलनुं ज लक्षण छे. भारे सूक्ष्म वात! एक बाजु प्रवचनसारमां एम कहे के राग-द्वेष आदि जे पर्याय छे ते पोतानी छे, निश्चयथी जीवनी छे, जीवमां छे अने अहीं तेने मूर्तिक पुद्गलमय कहे! त्यां प्रवचनसारमां पर्यायने सिद्ध करी छे. ज्ञेय एवा आत्मानी पर्यायमां राग-द्वेषादि छे एम त्यां पर्याय सिद्ध करी छे. ज्यारे अहीं त्रिकाळी शुद्ध स्वभाव सिद्ध करवो छे. द्रष्टिनो विषय जे अभेद एकरूप चैतन्यमय द्रव्य छे एने अहीं सिद्ध करवो छे. भाई! ज्यां जे अपेक्षा छे ते यथार्थ समजवी जोईए.
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मूर्तिकपणुं तो पुद्गलनुं ज लक्षण छे. माटे ए लक्षण जो जीवमां आवी जाय तो जीव चैतन्यमय द्रव्य रहे नहि, पण मूर्त पुद्गलमय ज थई जाय. अने तो मोक्ष थतां पण ते पुद्गलनो ज मोक्ष थाय. रंग-राग-भेदना भाव जो आत्माना होय तो, तेओ मूर्तिक होवाथी, मोक्षमां पण तेओ रहेशे अने तेथी एनाथी भिन्न अन्य कोई चैतन्यमय जीव नहि रहे. आ प्रकारे संसार अने मोक्षमां पुद्गलथी भिन्न अन्य कोई चैतन्यस्वरूप जीवद्रव्य रहेशे नहि. अर्थात् तेथी जीवनो ज अभाव थई जशे. अहाहा! केवी वात करी छे!
अत्यारे केटलाक लोको एम कहे छे के व्यवहारनयनो विषय जे शुभराग छे तेनुं आचरण करवाथी आत्माने लाभ थाय. परंतु भाई, एम नथी, बहु फेर छे. तेओ कहे छे के- गौतमस्वामीए पण व्यवहारथी कह्युं छे ने? (अर्थात् भेद पाडीने समजाव्युं छे ने?) भाई, ए तो भेदथी समजाव्युं छे. तेथी करीने ए व्यवहारना आश्रयथी लाभ थाय अने धर्म थाय एम कयां कह्युं छे? व्यवहारथी तो मात्र समजाव्युं छे. बीजी कई रीते समजावे? केमके भेद पाडीने समजाव्या विना शिष्यने समजमां आवतुं नथी तेथी भेद बताव्यो छे. पण भेद त्रिकाळी आत्मानी चीज छे अने तेनो आश्रय करवा योग्य छे एम नथी. आत्माना अभेद स्वभावमां भेद छे ज नहि. तेथी तो अहीं भेदने पुद्गलमां नाखी दीधो छे. आ रंग-राग-भेदना भावो मूर्तिक पुद्गलमय छे. गजब वात! संसार-अवस्थामां पण आ भेदादि भावो जो जीवना मानवामां आवे तो संसार के मोक्षमां पुद्गलथी भिन्न एवुं कोई शुद्ध चैतन्यमय जीवद्रव्य न रहे. अने तेथी जीवनो ज अभाव थाय. (शुभरागना आचरणथी आत्माने लाभ-धर्म थाय एम जेओ माने छे तेओ पोतानो-जीवनो ज अभाव करे छे).
भगवान आत्मा पूर्णानंदस्वरूप त्रिकाळ महाप्रभु छे. एना चैतन्यस्वभावने पकडवा जतां उपयोग बहु सूक्ष्म थाय छे. शुभ उपयोगथी तो नहि, पण जे मति-श्रुतज्ञाननो उपयोग बहिर्मुख छे, परने जाणवामां प्रवर्ते छे एनाथी पण आत्मा जाणवामां आवतो नथी. अहीं तो जे उपयोग पोताने पकडे ते सूक्ष्म छे. रंग-राग-भेदथी भिन्न जे पोतानी शुद्ध चैतन्यमय चीज छे तेने जे पकडे ते सूक्ष्म उपयोग छे. आवा सूक्ष्म उपयोगथी ज्यारे ते अंदरमां जाय छे त्यारे तेने सम्यग्दर्शन थाय छे. भाई! सम्यग्दर्शननो विषय त्रिकाळी एकरूप शुद्ध चिद्रूप आत्मा छे. उपयोगने एमां ज एकाग्र करतां सम्यग्दर्शन थाय छे. आवी वात छे.
देहनी क्रिया, इन्द्रियोनी क्रिया अने वाणीनी क्रिया जड छे. ए जड क्रिया आत्मा करे छे एम मानतां आत्मा जड थई जाय छे. वळी आ दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा, इत्यादिनो जे राग छे ते पण जड-अजीव छे, मूर्त छे. तेथी ए राग जो आत्मानो
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थई जाय तो आत्मा जड पुद्गल बनी जाय. तेवी ज रीते दर्शननी पर्यायमां, ज्ञाननी पर्यायमां अने चारित्रनी पर्यायमां जे भेद पडे छे ते भेद जीवद्रव्यनुं स्वरूप नथी. जो ते जीवनुं स्वरूप होय तो त्रिकाळी जीवमां ते कायम रहे. परंतु सिद्धमां ए भेदो नथी. तथापि संसार-अवस्थामां ए भेदादि जीवना छे एम जो कहो तो संसार-अवस्थामां जीव पुद्गलमय थई जाय, केमके भेदादि छे ए तो मूर्तिक पुद्गलमय ज छे. तो पछी मोक्ष थतां, मोक्ष अवस्थामां पण पुद्गल ज रहेशे. भाषा तो सादी छे, पण एनो मर्म घणो ऊंडो छे, भाई! आ समजवा माटे खूब धीरा थवुं पडशे.
आत्मानुं यथार्थ ज्ञान-श्रद्धान करतां सम्यग्दर्शन थाय छे. परंतु ते आत्मा केवो छे? तो कहे छे के रंग-राग अने भेदथी रहित जे अभेद शुद्ध चैतन्यतत्त्व छे ते आत्मा छे. तथा जे रंग-राग अने भेद सहित छे ए तो मूर्तिक पुद्गल छे. आ शास्त्रनुं जे ज्ञान छे ते मूर्तिक पुद्गलरूप छे. जो ते स्वनुं ज्ञान होय तो साथे अतीन्द्रिय आनंद आववो जोईए. परंतु शास्त्रज्ञान साथे आनंदनो स्वाद तो आवतो नथी. माटे शास्त्रज्ञान पुद्गलमय छे. तेवी रीते देव-गुरु-शास्त्रनी भेदरूप श्रद्धा, नवतत्त्वनी भेदरूप श्रद्धा अने पंचमहाव्रतना पालननो भाव इत्यादि सर्व पुद्गलरूप छे. अने आ भाव जो आत्माना थई जाय तो आत्मा जड-पुद्गलमय थई जाय एम कहे छे.
निश्चयस्तुतिनुं स्वरूप कहेतां ३१मी गाथामां आवे छे के-जड इन्द्रियो, भावेन्द्रियो अने तेना विषयो-भगवान, भगवाननी वाणी, इत्यादि-ए बधुंय इन्द्रिय छे. वाणीना निमित्ते जे ज्ञान पोतानी पर्यायमां थाय ते पण इन्द्रिय छे. ए परलक्षी ज्ञानने अहीं पुद्गलमय कह्युं छे. तेथी जेम दया, दान, आदि भावने ते जीवना छे एम मानतां जीवनो अभाव थाय छे तेम आ शास्त्रनुं ज्ञान आत्मानुं ज्ञान छे एम मानवाथी पण जीवनो अभाव थाय छे अर्थात् जीव पुद्गलमय ज थई जाय छे.
तेवी ज रीते मार्गणामां पण लेवुं. ज्ञानमार्गणा, दर्शनमार्गणा, संयममार्गणा एवी मार्गणानी पर्यायने शोधवाथी पर्यायमां तेओ छे, तोपण जीवना चैतन्यस्वभावमां ए भेदो नथी तेथी ते पुद्गलना परिणाममय छे. ज्ञानना भेदो अने सम्यग्दर्शनना क्षायिक सम्यग्दर्शन, उपशम सम्यग्दर्शन आदि जे भेदो छे ते भेदोनुं लक्ष करतां तो राग ज उत्पन्न थाय छे. तथा आ भेदो वस्तुना चैतन्यस्वरूपमां तो छे नहि. तेथी तेमने पुद्गलना परिणाममय ज कह्या छे. तेथी आ रंग-राग-भेदना भावो जीवना स्वरूपमय छे एम मानतां पुद्गल ज जीवस्वरूप ठरशे अने तेथी, भिन्न चैतन्यमय जीव नहि रहेवाथी, जीवनो ज अभाव थशे. तेथी रंग-राग- भेद आदि जीव नथी एम नक्की करवुं. सादी भाषामां पण गूढ रहस्यमय वात संतोए करी छे ते धीरजथी समजवी जोईए.
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एवमेतत् स्थितं यद्वर्णादयो भावा न जीव इति–
एक्कं च दोण्णि तिण्णि य चत्तारि य पंच इंदिया जीवा। बादरपज्जत्तिदरा पयडीओ णामकम्मस्स।। ६५ ।।
एदाहि य णिव्वत्ता जीवट्ठाणा उ करणभूदाहिं। पयडीहिं पोग्गलमइहिं ताहिं कहं भण्णदे जीवो।। ६६ ।।
बादरपर्याप्तेतराः प्रकृतयो नामकर्मणः।। ६५ ।।
एताभिश्च निर्वृत्तानि जीवस्थानानि करणभूताभिः।
प्रकृतिभिः पुद्गलमयीभिस्ताभिः कथं भण्यते जीवः।। ६६ ।।
_________________________________________________________________
आ रीते ए सिद्ध थयुं के वर्णादिक भावो जीव नथी, एम हवे कहे छेः-
पर्याप्त आदि नामकर्म तणी प्रकृति छे खरे. ६प.
रचना थती जीवस्थाननी जे, जीव केम कहाय ते? ६६.
गाथार्थः– [एकं वा] एकेंद्रिय, [द्वे] द्वींद्रिय, [त्रीणि च] त्रींद्रिय, [चत्वारि च] चतुरिंद्रिय, [पञ्चेन्द्रियाणि] पंचेंद्रिय, [बादरपर्याप्तेतराः] बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त अने अपर्याप्त [जीवाः] जीवो-ए [नामकर्मणः] नामकर्मनी [प्रकृतयः] प्रकृतिओ छे; [एताभिः च] आ [प्रकृतिभिः] प्रकृतिओ [पुद्गलमयीभिः ताभिः] के जेओ पद्गलमय तरीके प्रसिद्ध छे तेमना वडे [करणभूताभिः] करणस्वरूप थईने [निर्वृत्तानि] रचायेलां [जीवस्थानानि] जे जीवस्थानो (जीवसमास) छे तेओ [जीवः] जीव [कथं] केम [भण्यते] कहेवाय?
टीकाः– निश्चयनये कर्म अने करणनुं अभिन्नपणुं होवाथी, जे जेना वडे कराय छे (-थाय छे) ते ते ज छे- एम समजीने (निश्चय करीने), जेम सुवर्णनुं पानुं
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तदेव तत्स्यान्न कथञ्चनान्यत्।
रुक्मेण निर्वृत्तमिहासिकोशं
पश्यन्ति रुक्मं न कथञ्चनासिम्।। ३८ ।।
निर्माणमेकस्य हि पुद्गलस्य।
ततोऽस्त्विदं पुद्गल एव नात्मा
यतः स विज्ञानघनस्ततोऽन्यः।। ३९ ।।
_________________________________________________________________ सुवर्ण वडे करातुं (-थतुं) होवाथी सुवर्ण ज छे, बीजुं कांई नथी, तेम जीवस्थानो बादर, सूक्ष्म, एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रिय, पर्याप्त अने अपर्याप्त नामनी पुद्गलमयी नामकर्मनी प्रकृतिओ वडे कराता (-थतां) होवाथी पुद्गल ज छे, जीव नथी. अने नामकर्मनी प्रकृतिओनुं पुद्गलमयपणुं तो आगमथी प्रसिद्ध छे तथा अनुमानथी पण जाणी शकाय छे कारण के प्रत्यक्ष देखवामां आवता शरीर आदि जे मूर्तिक भावो छे ते कर्मप्रकृतिओनां कार्य होवाथी कर्मप्रकृतिओ पुद्गलमय छे एम अनुमान थई शके छे.
एवी रीते गंध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान अने संहनन-तेओ पण पुद्गलमय नामकर्मनी प्रकृतिओ वडे रचायां (-बन्यां) होवाथी पुद्गलथी अभिन्न छे; तेथी, मात्र जीवस्थानोने पुद्गलमय कहेतां, आ बधां पण पुद्गलमय कह्यां समजवां.
माटे वर्णादिक जीव नथी एम निश्चयनयनो सिद्धांत छे. अहीं आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [येन] जे वस्तुथी [अत्र यद् किञ्चित् निर्वर्त्यते] जे भाव बने, [तत्] ते भाव [तद् एव स्यात्] ते वस्तु ज छे [कथञ्चन] कोई रीते [अन्यत् न] अन्य वस्तु नथी; [इह] जेम जगतमां [रुक्मेण निर्वृत्तम् असिकोशं] सोनाथी बनेला म्यानने [रुक्मं पश्यन्ति] लोको सोनुं ज देखे छे, [कथञ्चन] कोई रीते [न असिम्] (तेने) तरवार देखता नथी.
भावार्थः– वर्णादिक पुद्गलथी बने छे तेथी पुद्गल ज छे, जीव नथी. ३८.
वळी बीजो कळश कहे छेः-
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श्लोकार्थः– अहो ज्ञानी जनो! [इदं वर्णादिसामग्ġयम्] आ वर्णादिक गुणस्थानपर्यंत भावो छे ते बधाय [एकस्य पुद्गलस्य हि निर्माणम्] एक पुद्गलनी रचना [विदन्तु] जाणो; [ततः] माटे [इदं] आ भावो [पुद्गलः एव अस्तु] पुद्गल ज हो, [न आत्मा] आत्मा न हो; [यतः] कारण के [सः विज्ञानघनः] आत्मा तो विज्ञानघन छे, ज्ञाननो पुंज छे, [ततः] तेथी [अन्यः] आ वर्णादिक भावोथी अन्य ज छे. ३९.
आ रीते ए सिद्ध थयुं के वर्णादिक भावो जीव नथी-एम हवे कहे छेः-
झीणी वात छे, प्रभु! धर्म समजवो ए सूक्ष्म वात छे, भाई! अनंतकाळमां ए (अज्ञानी) अनेकवार त्यागी थयो, हजारो राणीओ छोडी नग्न दिगंबर साधु थईने जंगलमां रह्यो, परंतु चैतन्यस्वरूप पोतानो आत्मा रागनी क्रियाथी रहित छे एवुं एणे कदीय भान कर्युं नथी. रागनी क्रिया करतां करतां आत्मा हाथ आवशे एम माननारे जडनी क्रिया करतां करतां चैतन्य प्राप्त थशे एम मान्युं छे. आवुं माननारने अहीं कहे छे के-निश्चयनये कर्म अने करणनुं अभिन्नपणुं छे. शुं कह्युं? के सत्यार्थद्रष्टिए कर्म एटले कार्य अने करण एटले एनुं कारण- साधन ए बे एकमेक छे, अभिन्न छे. माटे जे जेना वडे कराय छे ते, ते ज छे. कर्म अने करण बे जुदां (द्रव्यो) न होय. एटले के साधन अने कार्य अर्थात् कारण अने कार्य बे भिन्न नथी, एकमेक ज छे. जे जेना वडे कराय छे ते, ते ज छे. हवे द्रष्टांत आपे छेः-
सुवर्णनुं पानुं सुवर्ण वडे कराय छे माटे ते सुवर्ण ज छे, बीजुं कांई नथी. शुं कहे छे? के सोनाथी जे पानुं थाय छे ते सोनुं ज छे. ते पानुं कांई सोनीथी थयुं छे एम नथी. अहाहा! द्रष्टांत पण समजवुं कठण पडे एम छे. सोनुं वस्तु छे. एने घडतां एमांथी पानुं थाय छे. ए कार्यनुं करण-कारण सोनुं छे, सोनी नहि, कारण के करण अने कार्य अभिन्न होय छे. करण एक होय अने कार्य एनाथी भिन्न होय एम बनी शके नहि.
प्रश्नः– निमित्तथी कार्य थाय छे ने? निमित्त साधन होय छे ने?
उत्तरः– अहीं तो निमित्तनी वात ज नथी लीधी. निमित्तनो अर्थ तो ए (निमित्त) ‘छे’ बस एटलो ज छे. बाकी ए कांई साधन छे एम नथी. आकरी वात, बापु! लीधुं छे ने के-‘बीजु कांई नथी.’ एनो अर्थ ज ए छे के सोनाना पानारूपे थयुं छे ए सोनुं ज छे, तेने सोनीए कर्युं छे एम छे ज नहि. सोनुं ए करण छे अने जे पानुं थयुं ए एनुं कर्म एटले कार्य छे, कारण के कार्य अने करण बन्ने एक ज वस्तुमां होय छे.
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प्रश्नः– तो शुं सोनी पानाने करतो नथी?
उत्तरः– (ना). भाई, जो ते सोनीनुं कार्य होय तो सोनी साथे अभेद होय. परंतु ते सोनी साथे अभेद नथी. माटे पानुं सोनीनुं कार्य नथी. सोनाथी ते अभिन्न छे, माटे पानुं सोनानुं ज कार्य छे. वीतराग परमेश्वरनो मार्ग बहु सूक्ष्म छे, भाई! अत्यारे तो ए सांभळवा पण मळतो नथी. एने बदले आ करो ने ते करो, सामायिक करो ने प्रतिक्रमण करो-एम करो, करो, करो एवी राग करवानी वात ज बधे चाले छे.
अहीं तो एम कहे छे के-जात्रा करवानो, पूजा करवानो, दान करवानो, मंदिर बंधाववानो वगेरे करवानो जे भाव छे ते बधोय राग छे अने ते रागनुं करण पुद्गल छे. राग कार्य छे अने एनुं करण पुद्गल जड कर्म छे. अहा! चैतन्यमय जीव करण अने विकार- राग एनुं कार्य एम होई शके ज नहि. भाई! तने खबर नथी. बिचारो आखो दिवस वेपार- धंधामां गूंचाई रहे अने एम ने एम मरी जाय. एने कहे छे के-प्रभु! तने खबर नथी के-तुं कोण छो अने तारुं कार्य शुं छे? अहाहा! निर्मळानंदनो नाथ अभेद एक चैतन्यस्वरूप तुं भगवान आत्मा छो, अने जाणवा-देखवाना परिणाम थाय ते तारुं कार्य छे, पण बीजुं कोई तारुं कार्य नथी.
जुओ, आ आंगळी वळे छे ते कार्य-पर्याय छे. अने तेनुं करण परमाणु छे, आत्मा नहि. तेवी रीते पुण्य-पापना भाव छे ते कार्य छे अने तेनुं करण नाम साधन पुद्गल जड कर्म छे. अरे, भाई! तुं दुःखी छो पण तने एनी खबर नथी. जेने आत्मा शुं छे एनुं भान नथी अने परमां पोतापणुं मानीने हरखाई रह्यो छे ते भले करोडपति होय के अबजोपति, ए बिचारो भिखारी छे, दुःखी छे. ए दुःखना वेदनथी छूटवुं होय तो आत्माने रागथी भिन्न पाडवो जोईए एम अहीं कहे छे.
बापु! पैसा कयां तारा छे? ए तो जडना-अजीवना छे. अने पुत्र-स्त्री आदि परिवार पण कयां तारां छे? एनो आत्मा पण ताराथी जुदो छे अने शरीर पण जुदुं छे. तारे अने एने शुं संबंध छे? अहीं तो परमात्मा एम कहे छे के कारण अने कार्य बन्ने एक होय छे. करणनो अर्थ कारण पण थाय छे. जेमके सोनुं कारण छे अने जे पानुं थाय छे ए तेनुं कार्य छे. पानुं छे ते सोनानुं कार्य छे, सोनीनुं नहि. परमाणुमां करण नामनो गुण छे. ए करण नामना गुणने कारणे पानारूप कार्य थाय छे, सोनीथी नहि के हथोडाथी नहि.
तेवी रीते जीवस्थानो-एकेन्द्रियपणुं, बेइन्द्रियपणुं, त्रणइन्द्रियपणुं, चारइन्द्रियपणुं, पंचेन्द्रियपणुं, संज्ञी के असंज्ञीपणुं, बादर तथा सूक्ष्म, पर्याप्त-अपर्याप्त-सर्व पुद्गलमयी नामकर्मनी प्रकृतिओ वडे कराय छे. आठ कर्ममां एक नामकर्म छे. तेमां एक प्रकृति छे जे प्रकृतिना कारणे पर्याप्त-अपर्याप्त, सूक्ष्म-बादरनी दशा उत्पन्न थाय छे. आ जे नामकर्म
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छे एनी ९३ प्रकृति छे. एमां एक एवी प्रकृति छे के जे पर्याप्तादिने उपजावे छे. ए जीवने उपजावे छे एम नथी. पंचास्तिकायमां आवे छे के छ काय ते जीव नथी, परंतु एमां जे ज्ञानमात्र स्वरूप छे ते जीव छे. अहीं कहे छे के छ कायना शरीरनी उत्पत्ति ए कार्य छे अने ए, करण एवा पुद्गलथी थयुं छे. पर्याप्त-अपर्याप्त आदि जीवस्थानना भेदनी उत्पत्तिरूप कार्य करण एवा पुद्गलथी थयुं छे. बेसवुं भारे कठण पण भाई! भगवान आत्मा तो ज्ञानघन चैतन्यबिंब प्रभु छे. एमांथी आ पर्याप्त-अपर्याप्त आदि भेद कयांथी रचाय?
प्रश्नः– आ शरीर सारुं होय तो धर्म थाय ने? कह्युं छे ने के ‘शरीरमाद्यम् खलु धर्मसाधनम्। ’
उत्तरः– धूळेय थतुं नथी, सांभळने भाई! आ शरीर तो जड-माटी-धूळ अजीव छे. एनाथी वळी तारामां शुं काम थाय? जड अचेतनथी वळी चेतनमां शुं कार्य थाय? अहीं एम कहेवुं छे के जीवना जे पर्याप्त, अपर्याप्त, सूक्ष्म, बादर, इत्यादि जे भेद पडे छे ते नामकर्मनी प्रकृतिने लईने छे अने ते कर्मनुं कार्य छे, आत्मानुं नहि. बहु सूक्ष्म वात, भाई.
भगवान! तुं कोण छो अने तारामां शुं कार्य थाय छे एनी तने खबर नथी. बहारनी मोटप आडे तने भगवान आत्मानी मोटप भासती नथी. अनुकूळ संयोगो मळतां, बहारनी मोटपनी तने अधिक्ता आवी गई छे. परंतु भाई, एथी तुं दुःखी थईने मरी रह्यो छे. बधाय भेदथी अने रागथी अधिक नाम जुदो भगवान आत्मा चैतन्यस्वरूप महाप्रभु छे. तेनुं माहात्म्य तने केम आवतुं नथी? भाई! परनो महिमा मटाडीने अनंत महिमावंत निज स्वरूपनो महिमा कर. दया, दान, व्रत, तप, इत्यादि शुभभाव करे त्यां तो तने एम थई जाय के में घणुं कर्युं, मने धर्म थई गयो. परंतु जराय धर्म थयो नथी. बापु! जरा सांभळ. आ पैसा, मकान, आदि जड तो कयांय गया, पण ए पैसाने रळवानो अने राखवानो जे पापभाव थाय छे ए पापभाव पण तुं नथी. अरे, तेने दानमां खर्चवानो जे शुभभाव-रागनी मंदतानो भाव थाय छे ते भाव पण तुं नथी. ए राग तारो नहि अने तुं ए रागनो नहि. ए राग पुद्गलनुं कार्य छे, अने पुद्गल एनुं कारण छे.
अहाहा! जैन परमेश्वर एम कहे छे के करण अने कर्म अर्थात् कारण अने कार्य बन्ने एक जातना अभिन्न होय छे. जेम सोनुं कारण छे अने पानुं थवुं ए एनुं कार्य छे, सोनीनुं ए कार्य नथी; तेम राग छे ए पुद्गलनुं कार्य छे, जीवनुं नहि. रागनुं कारण पुद्गल छे, चैतन्यमय जीव नहि. जगतथी तद्न जुदी वात छे! भगवान! आ जे सोनाना अक्षरो छे एनुं कारण सोनुं छे अने जे अक्षरो थया छे ए सोनानुं कार्य छे,
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सोनीनुं के कारीगरनुं ए कार्य नथी. सर्वज्ञ प्रभुनो मार्ग बहु झीणो छे, भाई! अहीं तो सर्वज्ञदेव एम कहे छे के प्रभु! तुं सर्वज्ञस्वभावी आत्मा छो ने! ए सर्वज्ञस्वभावी आत्मा शुं कार्य करे? मात्र ज्ञाननुं कार्य करे. सर्वज्ञस्वभाव कारण थईने वर्तमान जाणवा-देखवाना भाव करे ए जीवनुं-चैतन्यनुं कार्य छे. दया, दान, भक्ति, आदि राग छे ए तो अजीव छे, एमां चैतन्यनो अंश नथी. माटे ए पुद्गलनुं कार्य छे, चैतन्यमय जीवनुं नहि. परमात्माए जीव- अजीवनुं आवुं स्वरूप कह्युं छे.
भाई! तुं परनुं कांई करी शक्तो नथी. मात्र राग करे छे अने ए रागनुं कार्य पोतानुं-चैतन्यनुं छे एम माने छे. परंतु जे रागनुं कार्य चैतन्यनुं छे एम माने छे ते मूढ, मिथ्याद्रष्टि छे. चार गतिमां रखडनारो छे.
प्रश्नः– कोईनुं कांईक सारुं-भलुं करवुं एम तो कहो?
उत्तरः– भाई! सारुं-भलुं कोने कहेवाय? भगवान तो, सर्वज्ञस्वभावी आत्मामां निर्मळ श्रद्धा-ज्ञान-शांति (चारित्र)ना वीतराग परिणाम थाय एने सारुं कहे छे. वीतरागस्वरूप, अकषायस्वरूप जिनस्वरूप भगवान आत्मा छे. तेनी पर्यायमां अकषायी परिणाम थाय ए आत्मानुं कार्य छे, आत्मानुं भलुं ए कार्य अने एनुं कारण पोते ज छे, अन्य नहि. अज्ञानी भक्ति आदिनो भाव जेने अहीं जड पुद्गलमय कह्यो छे तेने पोतानुं कार्य माने छे. परंतु ए मान्यता मिथ्यादर्शन छे अने एथी ते पोतानुं बुरुं ज करे छे.
आचार्यदेवे शुं सरस दाखलो आपीने वात करी छे! सोनुं कारण अने तेनुं पानुं थयुं ते तेनुं कार्य. कारण के सोनुं (वस्तु) स्वतंत्र छे. माटे सोनुं ज पलटीने-बदलीने पानुं थयुं छे. कांई सोनी बदलीने पानुं थाय? (ना). तेवी ज रीते जे चोखा रंधाय छे ते चोखा कारण छे अने रंधावुं कार्य ते चोखानुं छे. चोखो जे चढे छे ते चढवाना कार्यनो र्क्ता चोखो ज छे. ते कार्य पाणी, स्त्री, के अग्नि आदि बीजी चीजनुं नथी केमके करण अने कार्य बन्ने अभिन्न होय छे. चोखा चढवानुं कार्य पाणी के स्त्री करे छे एम त्रणकाळमां नथी. भाई! वीतरागनी वाणी लोकोने आश्चर्य पमाडे एवी छे.
छ कायनी हुं दया पाळी शकुं छुं एम माननार, हुं र्क्ता अने जडनुं कार्य ए मारुं कर्म छे एम मानतो होवाथी अज्ञानी छे. पण ते कार्यना काळे, हुं भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप छुं एवी जेने द्रष्टि थई छे तेवा ज्ञानीने जाणवानी दशा थाय छे. अने ते जाणवानी दशा ए ज्ञानीनुं कार्य (कर्म) छे. परंतु दयानो भाव के जडनी क्रिया ज्ञानीनुं कार्य नथी. भाई! वस्तुनी स्थिति ज आवी छे. एमां कांई पंडिताई काम करे एम नथी.
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प्रश्नः– पैसानुं दान तो आपी शकाय ने?
उत्तरः– कोण आपे के कोण दे? भाई! तने शुं खबर नथी के कारण अने कार्य जुदा न होय? कार्यनुं कारण अने कारणनुं कार्य सदाय एकमेक अभिन्न ज होय छे. आ जे पैसा जवानी क्रिया थाय छे तेनुं कारण जड रजकणो छे अने जे जवानी क्रिया छे ते जड रजकणोनुं कार्य छे, ए आत्मानुं कार्य नथी.
प्रश्नः– परंतु एमां आत्मा निमित्त तो छे ने?
उत्तरः– निमित्त निमित्तमां छे. निमित्तथी ए कार्य थयुं छे एम नथी. जुओने, शुं कह्युं छे? के निश्चयनये एटले के सत्यद्रष्टिए एटले के सत्यने सत्य तरीके जाणवुं होय तो, कर्म एटले कार्य अने करण अर्थात् कारण बन्ने एक होय छे. अहा! निमित्तकारणनी तो अहीं वात ज करी नथी. एनी तो अहीं उपेक्षा ज करी छे.
जुओ, आ लाकडी छे ते पुद्गल छे अने एनुं ऊंचुं थवुं ए तेनुं कार्य छे. ए पुद्गलनुं कार्य छे परंतु आंगळी जे निमित्त छे एनुं ए कार्य नथी. आंगळी तो जुदी-भिन्न चीज छे. भाई! गळे उतरवुं कठण पडे एवी वात छे केमके सत्य कयारेय सांभळ्युं नथी ने जे सांभळ्युं छे ते बधोय कुधर्म सांभळ्यो छे अने अज्ञानी एमां ज धर्म मानीने संतोष ले छे. अहीं तो भगवान कहे छे के समोसरणमां त्रणलोकना नाथनां दर्शन थाय एवो जे शुभभाव छे ते मारुं र्क्तव्य छे एम माननार मूढ मिथ्याद्रष्टि छे. महाविदेह क्षेत्रमां सीमंधरादि वीस तीर्थंकर- भगवान बिराजे छे. तेमनी पूजानो भाव आवे ते राग छे. ए राग आत्मानुं कर्म नथी. आवी वात छे. भाई! तुं कयारे समजीश? आ समज्या विना अनादिथी नरक अने निगोदना भव करी करीने तुं रखडी मर्यो छे. ए निगोदमां एक श्वासमां अढार भव कर्या छे. भाई! तने तारा भान विना आवा भव थया छे. अहीं तो कहे छे के निश्चयथी भव अने भवना भाव थवा ए तारुं-चैतन्यमय जीवनुं कार्य नथी. हवे पछी कलशमां कहेशे के एमां तो पुद्गल ज नाचे छे.
निश्चय नाम सत्यद्रष्टिए अर्थात् वस्तुनुं जेवुं स्वरूप छे एवा स्वरूपनी द्रष्टिए जोईए तो कारण अने कार्य बन्ने एकमेक छे.
प्रश्नः– एमां निमित्तकारण तो आव्युं नहि?
उत्तरः– भाई! निमित्तनुं कार्य अने निमित्तनुं करण एनामां (निमित्तमां) छे.
प्रश्नः– पण निमित्त तो मेळववुं पडे ने?
उत्तरः– बापु! निमित्तने कोण मेळवे? भाई! तुं तो चैतन्यसूर्य छो ने! तो ए चैतन्यसूर्य शुं करे? जे थाय तेने पोतानामां एटले निज चैतन्यस्वभावमां रहीने जाणे. आवुं जे कोई माने तेनो संसार टकी शके ज नहि.
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प्रश्नः– तो पछी अमारे धंधो-वेपार करवो के नहि?
उत्तरः– ए करे छे ज कयां? अज्ञानथी एम माने छे के हुं धंधो-वेपार करी शकुं छुं. धंधो-वेपार के ते संबंधी जे पापभाव थाय ते तारुं-आत्मानुं कार्य ज नथी. पछी करवुं के न करवुं ए सवाल ज कयां रह्यो? अहो! वीतराग परमेश्वरनो मार्ग कोई अलौकिक छे!
जेम सुवर्णनुं पानुं सुवर्ण वडे ज करातुं होवाथी सुवर्ण ज छे, बीजुं कांई नहीं. बीजुं कांई नहि एटले के ते सोनी वगेरेनुं नथी एम अनेकान्त छे. तेम आ बधा जीवस्थानना भेदो नामकर्मनी प्रकृति वडे कराता होवाथी पुद्गल ज छे, जीव नथी. भगवान आत्मा तो ज्ञायकस्वरूपी चैतन्यमूर्ति प्रभु छे. तेना परिणाम तो तेना आश्रये सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना निर्मळ परिणाम थाय ते छे. अहा! मोक्षनो मार्ग ते कार्य अने भगवान आत्मा कारण छे. तेम व्यवहाररत्नत्रयनो राग कार्य अने पुद्गल तेनुं कारण छे, पण जीव नहीं. बापु! आ तो वीतराग परमेश्वरनो मार्ग छे. आवी वात बीजे कयांय नथी.
आ पर्याप्त, अपर्याप्त आदि जीवना जे भेदो पडे छे ते बधायनुं कारण नामकर्मनी प्रकृति छे. ए भेदो नामकर्मनुं कार्य छे पण भगवान आत्मानुं-चैतन्यनुं ए कर्म नथी. जीव माताना उदरमां आव्या पछी आहार, शरीर, आदि छ पर्याप्ति बांधे छे. अहीं कहे छे के ए पर्याप्ति आदिनुं कार्य आत्मानुं नथी पण ए नामकर्मनी प्रकृतिनुं कार्य छे. सम्यग्द्रष्टि जीव माताना उदरमां आवे छे त्यारे ते एम जाणे छे के आ पर्याप्ति बांधवानुं काम मारुं नथी. मारुं कार्य तो मात्र जाणवानुं छे. अहा! हुं त्यां पर्याप्तिमां नथी अने जे विकल्प थयो छे एमां पण हुं नथी. ए विकल्प पण मारुं कार्य नथी, पण पुद्गलनुं कार्य छे.
अने आ वात तो आगमप्रसिद्ध छे एम कहे छे. अर्थात् सिद्धांतमां वीतरागदेवे आम ज कह्युं छे. त्रिलोकनाथ परमेश्वरे दिव्यध्वनिमां जे कह्युं छे एना परथी आगम-परमागमनी रचना थई छे. ते सर्वज्ञदेवना कहेला आगममां एम कह्युं छे के नामकर्मने कारणे पर्याप्त- अपर्याप्त आदि भेद छे. आत्माने लईने ए भेद नथी. तथा अनुमानथी पण आम जाणी शकाय छे. जडनां कार्य जडने कारणे छे एम अनुमानथी पण जाणी शकाय छे, कारण के प्रत्यक्ष देखवामां आवता शरीरादि जे भावो छे ते मूर्तिक छे अने ते मूर्त पुद्गलमय एवी कर्मप्रकृतिओनुं कार्य छे. जे मूर्त छे एनुं कारण मूर्त होय एम कहे छे. आवो उपदेश कठण पडे, पण भाई! आ मनुष्यपणुं चाल्युं जाय छे, हों! अने जो आ भेदज्ञाननुं काम मनुष्यना अवतारमां न कर्युं तो ढोरना अवतारमां अने मनुष्यना अवतारमां फेर शुं रह्यो? आवुं दुर्लभ मनुष्यपणुं पामीने भवना अभावनी वात जाण्या विना भवना भावो कर्या ज करीश तो अवतार एळे जशे, भाई!
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अहीं आत्मानी व्याख्या चाले छे के आत्मा कोने कहेवो? जे शुद्ध ज्ञानघन अभेद चैतन्यमय वस्तु छे ते आत्मा छे. एवा आत्मा उपर द्रष्टि आपतां एनुं वास्तविक स्वरूप अनुभवमां आवे छे, अने जन्म-मरण मटे छे. अहीं कहे छे के पर्याप्त, अपर्याप्त, एकेन्द्रिय, द्वि-इन्द्रिय आदि जे भेदो पडे छे ते बधां पुद्गलनां-जड नामकर्मनी प्रकृतिनां कार्य छे. ते कार्यने जे पोतानुं माने छे ते अजीवने जीव माने छे, ए रखडवाना-परिभ्रमणना पंथे छे. जेम पर्याप्त-अपर्याप्त आदि चौद जीवस्थान लीधां तेम गंध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान अने संहनन पण पुद्गलमय नामकर्मनी प्रकृतिओनुं कार्य छे. पुद्गलथी अभिन्न छे तेथी जेम जीवस्थानोने पुद्गलना कह्या छे तेम उपरना बधा भावो पुद्गलमय छे एम समजवुं. माटे वर्णादिक जीव नथी एवो निश्चयनयनो सिद्धांत छे. अर्थात् पर्याप्त, अपर्याप्त आदि जे जीवनी विकारी अशुद्ध दशा छे ते बधुं पुद्गलनुं कार्य छे पण आत्मानुं नहि. आत्मा तो अनादि-अनंत अखंड एकरूप शुद्ध चैतन्यमय ध्रुव वस्तु छे. तेमां अंतर्द्रष्टि करी एकाग्र थतां आत्मज्ञान थाय छे अने जन्म-मरण मटे छे. आत्मा जन्म-मरण अने जन्म-मरणना भाव रहित त्रिकाळी शुद्ध ज्ञानघन वस्तु छे. एमां द्रष्टि करतां परिपूर्ण आत्मा जणाय छे अने त्यारे धर्मनी शरुआत थाय छे.
हवे, आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
‘येन’ जे वस्तुथी ‘अत्र यद् किंचित् निर्वर्त्यते’ जे भाव बने, ‘तत्’ ते भाव ‘तद एव स्यात्’ ते वस्तु ज छे, ‘कथञ्चन’ कोई रीते ‘अन्यत् न’ अन्य वस्तु नथी; ‘इह’ जगतमां जेम ‘रुक्मेण निर्वृत्तम् असिकोशं’ सोनाथी बनेला म्यानने ‘रुक्मं पश्यन्ति’ लोको सोनुं ज देखे छे, ‘कथञ्चन’ कोई रीते ‘न असिम्’ तरवार देखता नथी.
अहाहा! जेम सोनाथी बनेलुं म्यान सोनुं ज छे पण तलवार नथी तेम पुद्गलथी बनेला आ राग-द्वेष, पुण्य-पापना भाव पुद्गल ज छे, आत्मा नथी. बोलवामां एम आवे के सोनानी तलवार छे. परंतु तलवार तो लोढानी छे, सोनानी नथी. सोनानुं तो म्यान छे. तेम भगवान आत्माने शरीरवाळो, पुण्यवाळो, दया-दानवाळो कहेवो ए सोनानी म्यानमां रहेली तलवारने ‘सोनानी तलवार’ कहेवा जेवुं छे. जेम सोनानुं तो म्यान छे, तलवार नहि; तेम पुण्य-पापना भाव तो पुद्गलना छे, आत्माना नहि. छतां तेने आत्माना मानवा ते मिथ्यात्व छे, अज्ञान छे. अने ते ज ८४ लाखना अवतारमां भटकवानो रस्तो छे. भाई! दया, दान, व्रत, भक्ति, आदि शुभभावने जे पोताना माने छे ते अजीवने जीव माने छे केमके ए भाव पुद्गलमय छे, आत्मरूप नथी.
रंग-राग तथा गुणस्थान, लब्धिस्थान आदि भेदना भावो छे ते पुद्गलना संगे थयेला छे. माटे ते बधाय पुद्गलना छे, चैतन्यमय जीवना नथी. तेओ जीवना छे एम
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माननार भ्रमणाने पंथे छे अने तेथी संसार-परिभ्रमणना पंथे छे. द्रष्टिनो विषय जे आत्मवस्तु छे ए तो अखंड अभेद एकरूप विज्ञानघनस्वरूप ध्रुव चैतन्यमय वस्तु छे. तेने भेदवाळो के रागवाळो के संयोगवाळो मानवो ए मिथ्यादर्शन छे. सोनाथी बनेला म्यानने लोको जेम सोनुं ज देखे छे तेने पुद्गलना कारणे बनेला पुण्य-पाप, भेद, आदि भावोने ज्ञानी जड पुद्गलमय ज देखे छे. धर्मी एने कहीए जे रंग-राग अने भेदना भावोने पोतानी चीज माने नहि. जेणे भेदथी अने दया, दान आदि शुभरागथी भिन्न एवा निज पूर्णानंदना नाथने द्रष्टिमां लीधो छे तेणे आत्माने सम्यक् प्रकारे जेवो छे तेवो जाण्यो छे अने प्रतीतिमां लीधो छे.
भावार्थ एम छे के शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय, पुण्य, पाप, इत्यादि सर्व वर्णादिथी मांडी गुणस्थान पर्यंतना भावो पुद्गलथी बनेला छे माटे तेओ पुद्गल ज छे, जीव नथी.
वळी बीजो कळश कहे छेः-
भगवान सर्वज्ञदेव कहे छे के-अहो ज्ञानी जनो! ‘इदं वर्णादिसामग्रयम्’ आ वर्णादिक गुणस्थानपर्यंत भावो छे ते बधाय ‘एकस्य पुद्गलस्य हि निर्माणम्’ एक पुद्गलनी ज रचना ‘विदन्तु’ जाणो. आकरी वात छे, भाई! जे कोई दया, दान, व्रत, भक्ति आदि शुभभावने पोताना कल्याणनुं कारण माने छे ते अजीवने जीवनुं कारण माने छे. कारण के ए शुभभाव सधळाय पुद्गलमय छे. अज्ञानीए अजीवने जीवनुं कार्य मान्युं छे तेथी तेणे जीवनुं स्वरूप अजीवमय ज मान्युं छे, केमके कारण अने कार्य अभिन्न होय छे.
आगळनी गाथामां आवी गयुं के मार्गमां चालतो संघ थोडीवार मार्गमां ऊभो होय अने लूंटाय तो, लूंटाय छे तो संघना यात्रीओ छतां ‘मार्ग लूंटाय छे’ एम कहेवाय छे. तेवी रीते भगवान आत्मा अनादि-अनंत ध्रुव चैतन्यमूर्ति एकरूप अभेद छे. तेमां एक समय पूरतो दया, दान, व्रतादिना रागनो तथा गुणस्थान आदि भेदनो आधार देखीने (एक सयमनो ज आधार हों) तेने व्यवहारथी जीवना कह्या छे. परंतु ए बधा जीवस्वरूप- चैतन्यस्वरूप छे एम मानवुं ते मिथ्यात्व छे.
प्रश्नः– रागादिने स्वभाव कह्यो छे ने?
उत्तरः– पर्यायमां ए रागादि भेद छे अने रागादि थवा ए पर्यायस्वभाव छे माटे एने स्वभाव कह्यो छे. पण ते त्रिकाळी द्रव्यनो स्वभाव नथी. अरे! ए विभावस्वभाव परना कारणे ऊभी थयेली दशा छे. ए जीवने महा कलंक छे.
अहीं तो जीव कोने कहीए एनी वात चाले छे. अहाहा! विज्ञानघन-चैतन्यघन- पूर्णघनस्वरूप त्रिकाळी ध्रुव वस्तु छे तेने अमे जीव कहीए छीए. आ जे रागादिना
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भेद छे ए एनी पर्यायमां छे तथापि ते आत्मभूत नथी, आत्मा नथी. जे भावो-रंग-राग अने गुणस्थान आदि भेदना भावो-नीकळी जाय छे ते आत्मा केम होय? पुद्गलना संगे थता ए बधाय भावो पुद्गलना ज छे. झीणी वात, भाई! वीतरागनो मार्ग बहु झीणो छे.
लोको तो भगवाननी भक्ति-पूजा करे, बहारथी व्रतादि पाळे अने जीवोनी दया पाळे एने धर्मी माने छे. पण बापु! धर्म जुदी चीज छे. धर्म तो वीतरागभाव छे. रागादि ए कोई वीतरागनो मार्ग नथी. भाई! परनी दया तो कोई पाळी शक्तुं ज नथी. छतां हुं परनी दया पाळुं छुं एवी मान्यता ए मिथ्यात्व छे. तथा जे दयानो शुभभाव आव्यो ते जीवनो स्वभाव नथी पण ते पुद्गलथी रचायेलो भाव छे एम अहीं कहे छे. ए दयानो जे भाव छे ते राग छे अने राग छे ते निश्चयथी हिंसा छे. शुभभाव ए साची दया नथी, भाई!
प्रश्नः– तो साची दया शुं छे?
उत्तरः– भाई! शुद्ध चैतन्यमय त्रिकाळी ध्रुवस्वरूप भगवान आत्माना लक्षे जे शान्ति अने वीतरागताना निर्मळ परिणाम उत्पन्न थाय अने त्यारे रागनी उत्पत्ति ज न थाय तेने परमात्मा साची दया अने अहिंसा कहे छे. पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय (श्लोक ४४)मां आचार्य अमृतचंद्रस्वामीए एम कह्युं छे के-जे राग उत्पन्न थाय छे ते, चाहे तो देव-गुरु-शास्त्रनी भक्तिनो हो के व्रतादिना पालननो हो, हिंसा छे. तथा अहीं तेने पुद्गलनुं कार्य कह्युं छे. अहाहा! ए रागादि भावो आनंदघनस्वरूप चैतन्यना नाथ भगवान आत्मानुं कार्य नथी, पण ए पुद्गलनी ज रचना छे एम हे जीवो! तमे जाणो.
आनंदघनस्वरूप भगवान आत्मा छे तो एनुं कार्य आनंद आवे ते छे. वीतराग- स्वरूप प्रभु आत्मा छे तो तेनुं कार्य वीतरागता आवे ए छे. परंतु दया, दान, व्रत, भक्तिना विकल्प-राग ऊठे ए आत्मानुं कार्य नथी. ए तो पुद्गलनुं कार्य छे. जेवुं कारण होय एवुं ज कार्य थाय एम अहीं सिद्ध करवुं छे. हवे पछी र्क्ता-कर्म अधिकार लेवो छे तेथी तेना उपोद्घातरूपे अहींथी शरू करे छे के कारण अने कार्य बन्ने अभिन्न होय छे. अहाहा! शुं शैली छे! पुद्गल करण छे अने भेद-रागादि तेनुं (पुद्गलनुं) कार्य छे. तेवी रीते भगवान आत्मा करण छे अने ज्ञाता-द्रष्टाना परिणाम, आनंदना परिणाम ए एनुं कार्य छे. राग ए आत्मानुं कर्म नथी, ए पुद्गलनुं कर्म छे. अहा! आखी जिंदगी धर्म मानीने व्रतादि पाळवामां गाळी होय एने माटे पूर्व-पश्चिमनो फेर लागे एवी आ आश्चर्यकारी वात छे. परंतु प्रभु! भगवान जिनेश्वरदेवे धर्मसभामां जे कहेली वात छे ते ज आ वात छे.
अहाहा! जेम सोनाना म्यानने सोनानुं म्यान कहेवाय छे पण तलवार नहीं, तेम