Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 61-64.

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वस्तुने पर्यायोथी भिन्न अभेदरूप जुदी सिद्ध करवी होय त्यारे तेना असाधारण गुणमात्रने मुख्य करीने कहेवामां आवे छे. जीवने सिद्ध करवो होय त्यारे तेनो असाधारण उपयोगस्वरूप-ज्ञानस्वरूप-त्रिकाळ टक्तो जे गुण-तेने मुख्य करीने कहेवामां आवे छे. अने त्यारे परस्पर द्रव्योनो निमित्त-नैमित्तिकभाव अथवा निमित्तथी थती सर्व पर्यायो गौण थई जाय छे. अभाव थई जाय छे एम नहि, पण गौण थई जाय छे. अभेद वस्तुनी द्रष्टिमां एक समयनी पर्याय के भेद देखातां नथी. पहेलां सातमी गाथामां खुलासो आवी गयो छे के अभेदमां भेद देखातो नथी. तथा जो भेद देखवा जाय तो अभेदनी द्रष्टि रहेती नथी. तेथी अभेद वस्तुनी द्रष्टिए वस्तुमां भेद के पर्याय छे ज नहि एम कह्युं छे.

संसारपर्यायनी द्रष्टिथी जोतां संसार छे, उदयभाव छे. ‘संसार नथी’ एम जे कह्युं छे ए तो त्रिकाळी शुद्धद्रव्यनी अपेक्षाए कह्युं छे. त्रिकाळ स्वभावने अभेदद्रष्टिथी जोतां अर्थात् वर्तमान पर्यायने अभेद तरफ वाळतां, अभेदमां भेद देखाता नथी. तेथी भेदो त्रिकाळी द्रव्यमां- जीवमां नथी एम कह्युं छे. परंतु पर्यायमां छे तेथी कथंचित् (व्यवहारथी) सत् छे. तत्त्वार्थसूत्रमां पण उदयभावने, जीवतत्त्व कह्युं छे. पर्यायनयथी राग-पुण्य आदिने जीवतत्त्व कहेवाय छे. परंतु त्रिकाळी द्रव्यनी द्रष्टिमां ते पर्यायो गौण थई जाय छे.

संसार बीलकुल छे ज नहि, पर्यायमां अशुद्धता छे ज नहि एम कोई कहे तो ते भ्रान्ति छे. वर्तमानमां अशुद्धता छे तेने कोई ‘माया’ एटले ‘कांई नहि’ एम कहे छे. तेने अहीं कहे छे के त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यमां ए माया कांई नथी, पण वर्तमान पर्यायमां तो छे. ‘ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या’ एम कहे छे; पण ते कई अपेक्षाए छे? पर्यायने गौण करीने, अभेदमां द्रष्टि करतां ते भेद अभेदमां नथी ए अपेक्षाए ‘ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या’ छे. जो पर्याय, पर्यायनी अपेक्षाए पण नथी तो संसार ज नथी अने तेथी संसारना अभावपूर्वक मोक्ष पण नथी. तो कोई पर्याय सिद्ध नहि थाय.

परमात्मप्रकाशना ४३ अने ६८ मा दोहामां आवे छे के-जीवने बंध नथी अने जीवने मोक्ष नथी, तथा जीवने उत्पाद-व्यय नथी. दोहा ४३ नी टीकामां लख्युं छे के-“यद्यपि पर्यायार्थिकनयकर उत्पाद-व्ययकर सहित है, तो भी द्रव्यायार्थिकनयकर उत्पाद-व्ययरहित है, सदा ध्रुव ही है, वही परमात्मा निर्विकल्प समाधिके बलसे तीर्थंकरदेवोंने देहमें भी देख लिया है.” जुओ, व्यवहारनयथी जीव उत्पाद-व्यय सहित छे. वर्तमान पर्यायनी द्रष्टिए जोईए तो उत्पाद-व्यय छे, संसार छे, उदयभाव छे. परंतु द्रव्यार्थिकनयथी जोईए तो, वस्तुमां उत्पाद-व्यय नथी. त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यस्वभावमां उत्पाद-व्यय नथी. परंतु तेथी करीने वर्तमान पर्यायमां पण ते नथी एम नथी.

दोहा ६८ नी टीकामां लख्युं छे के-“यद्यपि यह आत्मा शुद्धात्मानुभूतिके अभाव होने


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पर शुभ-अशुभ उपयोगोंसे परिणमन करके जीवन, मरण, शुभ, अशुभ, कर्मबंधको करता है, और शुद्धात्मानुभूतिके प्रगट होनेपर शुद्धोपयोगसे परिणत होकर मोक्षको करता है, तो भी शुद्ध पारिणामिक परमभावग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिकनयकर न बंधका र्क्ता है, और न मोक्षका र्क्ता है. ऐसा कथन सुनकर शिष्यने प्रश्न किया कि-हे प्रभो, शुद्ध द्रव्यार्थिकस्वरूप शुद्धनिश्चयनयकर मोक्षका भी र्क्ता नहि, तो ऐसा समझना चाहिये कि-शुद्धनयकर मोक्ष ही नहीं है; जब मोक्ष नहि, तब मोक्षके लिये यत्न करना वृथा है.” आत्मामां बंधमोक्ष नथी तो पछी मोक्ष करवानो पुरुषार्थ वृथा छे. एनो उत्तर कहे छे-

“मोक्ष है वह बंधपूर्वक है, और बंध है वह शुद्धनिश्चयनयकर होता ही नहीं; इस कारण बंधके अभावरूप मोक्ष है वह भी शुद्धनिश्चयनयकर नहीं है. जो शुद्धनिश्चयनयसे बंध होता, तो हमेशा बंधा ही रहता, कभी बंधका अभाव न होता.” जुओ, व्यवहारनयथी- अशुद्धनयथी पर्यायमां बंध छे अने बंधना अभावपूर्वक मोक्षनो मार्ग तथा मोक्ष पण छे. परंतु ते बधुं व्यवहारनयथी छे. निश्चयनयथी तो बंध के मोक्ष नथी तथा बंध के मोक्षना कारणो पण नथी. अहा! जैनदर्शन खूब झीणुं छे. पर्यायमां बंध छे अने बंधना नाशनो उपाय पण छे. पण ते बधुं व्यवहार छे. मोक्षमार्गनी पर्याय पण व्यवहार छे. व्यवहाररत्नत्रयनो शुभभाव के जेने व्यवहार मोक्षमार्ग कहेवाय छे एनी आ वात नथी. पण वस्तु जे निर्मळ आनंदस्वरूप भगवान छे तेनी परिणतिमां शुद्धरत्नत्रयरूप मोक्षमार्गनी दशा थवी ते पर्याय होवाथी व्यवहार छे एम वात छे. व्यवहारे बंध छे अने व्यवहारे मोक्ष तथा मोक्षनो मार्ग छे. आ ज वात दोहा ६८ नी टीकामां आगळ द्रष्टांतथी कही छेः-

“कोई एक पुरुष सांकलसे बंध रहा है, और कोई एक पुरुष बंधरहित है; उनमेंसे जो पहले बंधा था, उसको तो ‘मुक्त’ ऐसा कहना ठीक मालूम पडता है, और दूसरा जो बंधा ही नहीं, उसको जो ‘आप छूट गये’ ऐसा कहा जाय तो वह क्रोध करे-कि मैं कब बंधा था सो यह मुझे ‘छूटा’ कहता है; बंधा होवे वह छूटे, इसलिये बंधेको तो मोक्ष कहना ठीक है, और बंधा ही न हो उसे छूटे कैसे कह सक्ते है? उसी प्रकार यह जीव शुद्धनिश्चयनयकर बंधा हुआ नहीं है. इस कारण मुक्त कहना ठीक नहि है. बंध भी व्यवहारनयकर और मुक्ति भी व्यवहारनयकर है; शुद्धनिश्चयनयकर न बंध है, न मोक्ष है और अशुद्धनयकर बंध है, इसलिये बंधके नाशका यत्न भी अवश्य करना चाहिये.” माटे पर्यायमां बंध, बंधना नाशनो उपाय मोक्षमार्ग अने मोक्ष ए सघळुं व्यवहारनयथी छे परंतु त्रिकाळी द्रव्यस्वभावमां ए नथी. आ प्रमाणे अपेक्षाथी यथार्थ समजवुं जोईए.

आ कथनथी एम न समजवुं के व्यवहार छे माटे ते व्यवहार, निश्चयनुं कारण छे.


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अर्थात् बंधमार्गनी पर्याय मोक्षना मार्गने प्रगट करे छे एम न मानवुं. व्यवहार, निश्चयनुं कारण छे एम अहीं सिद्ध नथी करवुं. अहीं तो व्यवहार छे एटले के पर्याय छे, बंधनी पर्याय छे तेम ज मोक्षमार्ग अने मोक्षनी पर्याय छे एम सिद्ध करवुं छे. अहीं व्यवहार एटले रागनी नहीं पण पर्यायनी (समुच्चय) वात छे.

अहीं कहे छे के पहेलां जे व्यवहारनयने जूठो कह्यो छे तेनो अर्थ ए छे के पर्याय- संसार के मोक्ष-द्रव्यमां नथी. द्रव्यनी अपेक्षाए व्यवहारनयने जूठो कह्यो छे. तेथी करीने ते सर्वथा नथी एम न समजवुं. वर्तमान पर्यायनी अपेक्षाए तो ए व्यवहारनय छे. तेथी ए कथंचित् सत्यार्थ छे. संसार छे, उदयभाव छे, एम जे भावो २९ बोल द्वारा कह्या छे ते सघळाय पर्यायपणे छे. एक समयना संबंधवाळी पर्याय अस्तिपणे छे. परंतु आनंदकंद नित्यानंद प्रभु ध्रुव जे अनादि-अनंत चैतन्यप्रवाह छे तेनी द्रष्टिमां ते भेदो प्रतिभासता नथी तेथी तेओ द्रव्यमां नथी एम कथंचित् निषेध करवामां आव्यो छे. जो ते भेद-भावोने, के जे पर्यायमां छे तेमने, द्रव्यना छे एम कहेवुं होय तो व्यवहारनयथी कही शकाय छे; निश्चयथी तेओ द्रव्यमां नथी. आम निश्चय-व्यवहार यथार्थ समजवा जोईए. बीजी रीते समजे तो भ्रम ज उत्पन्न थाय.

प्रश्नः– व्यवहार सत्य छे के नहीं? जो व्यवहार सत्य छे तो व्यवहार मोक्षमार्ग सत्य छे के नहीं? अने तेथी ते निश्चय मोक्षमार्गनुं कारण छे के नहीं?

उत्तरः– भाई! एम नथी. अहीं तो एम कहे छे के-पर्यायमां एक समय पूरतो बंध वगेरे छे ते सत्य छे. आखी चीज प्रभु ध्रुव चैतन्यनुं दळ जे परमस्वभावभाव छे तेनी एक समयनी दशामां आ बधा भेदो छे माटे ‘छे’ एम कह्युं छे. परंतु ए त्रिकाळी ध्रुवनी द्रष्टिमां आवता नथी तेथी द्रव्यद्रष्टि कराववा ‘तेओ नथी’ एम निषेध कर्यो छे. तेओ त्रिकाळी सत्य नथी. छतां व्यवहारथी कहीए तो तेओ सत्य छे केमके तेओ वर्तमान पर्यायमां अस्ति छे. भाइ! जो व्यवहारनय छे तो तेनो विषय पण छे. तेथी तो कह्युं छे के व्यवहारने पण छोडीश नहि. एटले के व्यवहारनय नथी एम न मानीश. व्यवहारने जो नहि माने तो चोथुं पांचमुं आदि गुणस्थानो रहेशे नहि, तीर्थ-भेदो अने तीर्थफळ रहेशे नहि. पण तेथी करीने एवो अर्थ नथी के व्यवहारथी निश्चय पमाय छे. ए व्यवहारने लईने (व्यवहारना आश्रये) तीर्थ एटले सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र थाय छे एम नथी. अहीं कहे छे के-आ भेद-भावो त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यमां नथी ए निश्चय छे. परंतु तेओ एक समयनी पर्यायमां छे तेथी, द्रव्यमां छे एम कहेवामां आवे तो, व्यवहारनयथी कही शकाय छे. आवो नयविभाग छे.


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त्रिकाळी भगवान आत्मा निर्विकल्प सम्यग्दर्शन अने समाधिथी जणाय एवो छे. सर्वविशुद्धज्ञान अधिकारमां आवे छे के भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यघन छे. तेनुं अल्प निर्मळ परिणमन ते उपाय छे अने तेनुं पूर्ण निर्मळ परिणमन ते उपेय छे, फळ छे. त्यां एम नथी कह्युं के मंदरागनो भाव ते उपाय छे. तथा ज्यां बीजे ठेकाणे तेने (मंदरागने) उपाय कह्यो छे त्यां राग छे एटलुं जणाववा माटे कह्युं छे. अहाहा! वस्तु ज्ञानानंदस्वभावी त्रिकाळी ज्ञायक भगवान छे. तेनी दशामां द्रव्यस्वभावनुं अपूर्ण वीतरागी परिणमन ते उपाय छे अने पूर्ण वीतरागी परिणमन ते उपेय एटले फळ छे. स्वभाव-परिणमननी ज अपूर्णता अने पूर्णतामां उपाय अने उपेय समाय छे. राग-व्यवहार ते उपाय छे एम नथी. आवी वात झीणी पडे, पण मार्ग तो आ ज छे, बापु! आ शुद्ध चिदानंदघन वस्तु जे आत्मा तेनुं अधूरुं शुद्ध परिणमन ते उपाय-कारण-मार्ग छे अने तेनुं परिपूर्ण शुद्ध परिणमन ते उपेय-फळ छे. परंतु व्यवहाररत्नत्रय उपाय-कारण छे एम नथी. अहीं तो व्यवहार (भेद, पर्याय, आदि) छे एम सिद्ध करवुं छे. परंतु मंदराग जे व्यवहारथी, व्यवहार मोक्षमार्ग कहेवाय छे ते निश्चयनुं कारण छे एम सिद्ध नथी करवुं. (अने एम छे पण नहि).

आत्मा जे त्रिकाळी भगवान ध्रुव, ध्रुव, ध्रुव एवुं ध्रुवपद-निजपद छे ते अनादि अनंत शुद्ध ज्ञायकभावपणे छे. तेने अने कर्मने निमित्त-नैमित्तिक संबंध नथी. अर्थात् वस्तु जे शुद्ध द्रव्य छे ते नैमित्तिक अने कर्म निमित्त एम नथी. परंतु वस्तुनी विकारी पर्याय ते नैमित्तिक अने कर्म निमित्त-एवो व्यवहार संबंध पर्यायमां छे. अहीं शुद्धनयनी द्रष्टिथी कथन छे तेथी आ सर्व भावोने सिद्धांतमां जीवना कह्या छे ते व्यवहारनयथी कह्या छे. ते भावो व्यवहारथी अस्ति छे अने ते व्यवहारनयनो विषय छे. कर्म ते निमित्त अने रागादिनुं थवुं ते नैमित्तिक एम निमित्त-नैमित्तिकभावनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो ते व्यवहार कथंचित् सत्यार्थ छे एम कही शकाय छे. राग, विकार, अशुद्धता, मलिनभाव, उदयभाव आदि जीवमां छे एम व्यवहारथी कही शकाय छे. परंतु त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यस्वरूप द्रव्यमां ते नथी ते अपेक्षाए ते जूठा-असत्यार्थ छे. आ प्रमाणे व्यवहार कथंचित् सत्यार्थ अने कथंचित् असत्यार्थ छे. जो व्यवहारने सर्वथा असत्यार्थ ज कहेवामां आवे तो व्यवहारनो लोप थई जाय अने तेथी परमार्थनो पण लोप थई जाय. कारण के पर्यायमां जो रागादि नथी, पुण्य-पापनुं बंधन नथी तो रागनो जेमां अभाव करवानो छे तेवो मोक्षमार्ग अने मोक्ष पण नथी. अहीं तो व्यवहार छे एटलुं ज सिद्ध करवुं छे. पण ते व्यवहार मोक्षमार्ग छे एम सिद्ध नथी करवुं. व्यवहार मोक्षमार्ग तो राग छे अने ते त्रिकाळी द्रव्यनी अपेक्षाए तो छे ज नहीं. पर्यायमां राग छे एटलुं सत्यार्थ छे, परंतु ते व्यवहार छे-एटलो राग छे-माटे निश्चय पमाय छे एम नथी.

प्रश्नः– शास्त्रमां आवे छे के समक्तिीने दुःख छे ज नहि, अशुद्धता छे ज नहि. तो ए केवी रीते छे?


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समाधानः– भाई! सम्यग्दर्शननो विषय त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य छे. अहाहा! त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यने जेणे द्रष्टिमां लीधुं छे एवा सम्यग्द्रष्टिने अशुद्धता के दुःख छे ज नहि. द्रष्टि अने द्रष्टिना विषयमां अशुद्धता थाय एवी कोई शक्ति ज नथी. द्रष्टि पण अशुद्ध थाय एम नथी तथा तेनो विषय जे त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य छे ते पण अशुद्ध थाय एवो तेनामां कोई गुण नथी. तेथी द्रष्टि अने द्रष्टिना विषयनी अपेक्षाए ज्ञानीने अशुद्धता अने दुःख नथी. परंतु ज्ञान वडे जुए त्यारे पर्यायमां ज्ञानीने तथा मुनिने पण किंचित् अशुद्धता छे, दुःख छे. ज्ञानीने राग छे अने तेनुं परिणमन पण छे. ते परिणमननी अपेक्षाए ज्ञानी तेनो र्क्ता पण छे. ४७ नयोमां पण आवे छे के-धर्मी जीवने पण रागनुं परिणमन छे अने तेटलुं दुःख पण छे. तथा ते रागनो र्क्ता अने भोक्ता पण ते ज्ञानी छे. भाई! अहीं तो अंशे अंशने जोवानो छे. कोई एकांते मानी ले के धर्मीने राग-द्वेष-दुःख होय ज नहि तो एम नथी. त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य अने तेनी द्रष्टिनी अपेक्षाए ते वात यथार्थ छे. पण पर्यायमां? अहा! छठ्ठा गुणस्थाने वर्तता मुनि पण (समयसार कळश ३ मां) एम कहे छे के अमने हजु कलुषितता छे. अहा! एक बाजु एम कहे के समक्तिीने अशुद्धता न होय, तेनुं परिणमन अशुद्ध न होय अने बीजी बाजु छठ्ठा गुणस्थानवर्ती आचार्य एम कहे के अमने हजु अशुद्धतानुं परिणमन छे अने तेथी तेटलुं दुःखनुं वेदन पण छे!! भाई! समक्तिीने द्रष्टिनी साथे जे ज्ञान थयुं छे ते त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यने जाणे छे अने वर्तमान पर्यायमां रागनुं परिणमन जेटलुं छे तेने पण जाणे छे. अशुद्धतानुं- रागनुं जे परिणमन छे तेनो हुं र्क्ता छुं, कर्मने लईने ते थाय छे एम नथी; तथा परिणमनमां मने बीलकुल राग ज नथी एम पण नथी-आवुं ज्ञानी यथार्थ जाणे छे.

अहीं कहे छे के-जो पर्यायमां रागादि नथी एम कोई माने तो रागना अभाव करवाना पुरुषार्थनो पण लोप थाय छे. कारण के जो पर्यायमां राग नथी तो तेना नाशनो उपाय पण पर्यायमां सिद्ध थतो नथी.

पंचास्तिकायनी ६२ मी गाथामां कह्युं छे के-विकारनुं परिणमन जीवना अस्तित्वमां छे अने ते पोताने कारणे छे. विकारनुं षट्कारकरूप परिणमन पोताथी छे, तेने परकारकनी अपेक्षा नथी. राग-विकार छे ते अस्ति छे अने ते विकार, विकारने कारणे छे, द्रव्य-गुणना कारणे नहि तेम ज पर निमित्तने कारण पण नहि. ए पंचास्तिकाय शास्त्र छे. तेथी त्यां जीवास्तिकायनुं- द्रव्य-गुण-पर्यायनुं स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध कर्युं छे. जीवनी पर्यायमां जे विकार थाय छे ते परथी निरपेक्ष स्वतःसिद्ध, अहेतुकपणे थाय छे अने ते जीवना अस्तित्वमां थाय छे.

प्रश्नः– विकार स्वपर-हेतुक छे एम शास्त्रोमां आवे छे ने?

उत्तरः– ए तो एकला स्वथी ज (शुद्ध द्रव्यथी) विकार थाय नहि एम बताववा विकारनी उत्पत्तिमां उपादान अने निमित्त एम बे हेतु त्यां सिद्ध कर्या छे. विकारने ज्यारे


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विभाव तरीके अथवा पर निमित्तना आश्रये थयेली दशा छे एम बताववुं होय त्यारे, उपादान ते स्व अने निमित्त ते पर-एम स्वपरथी उत्पन्न थयेली छे एम कहेवाय छे. विकार एकला स्वथी (स्वभावथी) उत्पन्न थाय एम बने नहि. पर उपर लक्ष जतां पर्यायमां विकार थाय छे. माटे विकारने स्वपरहेतुक कह्यो छे.

ज्यारे अहीं एम कह्युं के ए रागादि बधाय कर्मजन्य छे. ए तो ए भावो बधाय त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यमां नथी अने पर्यायमांथी काढी नाखवा योग्य छे माटे द्रव्यद्रष्टि कराववा एम कह्युं छे. परमात्मप्रकाशमां पण राग-द्वेषादिने कर्मजन्य कह्या छे, कारण के तेओ शुद्ध आत्मद्रव्यथी नीपजता नथी. भाई, अशुद्धता द्रव्यमां कयां छे के जेथी ते उत्पन्न थाय? पर्यायमां जे अशुद्धता थई छे ए तो पर्यायनुं लक्ष पर उपर गयुं छे तेथी थई छे. तेथी तो तेने स्वपर-हेतुथी थयेलो भाव कहे छे.

भाई! एक समयनी पर्यायमां राग-अशुद्धता जे थई छे ते सत् छे अने तेथी अहेतुक छे एम पंचास्तिकायमां सिद्ध कर्युं छे.

ए राग-अशुद्धता (स्वभावना लक्षे नहि पण) परना लक्षे थई छे एम बताववा तेने स्वपरहेतुक कही छे.

अने पछी त्रिकाळ वस्तुमां ए राग-अशुद्धता नथी तथा पर्यायमां एक समयना संबंधे छे ते काढी नाखवा जेवी छे ते अपेक्षाए तेने कर्मजन्य उपाधि कही छे.

अहा! एकवार कहे के अशुद्धता स्वयं पोताथी छे, पछी कहे के ते स्वपर हेतुथी छे अने वळी कहे के ते एकली कर्मजन्य छे!!! भाई, जे अपेक्षाए जयां जे कह्युं होय ते अपेक्षाए त्यां ते समजवुं जोईए. श्रीमदे पण कह्युं छे के-

ज्यां ज्यां जे जे योग्य छे, तहां समजवुं तेह;
त्यां त्यां ते ते आचरे, आत्मार्थी जन एह.

भाई! जे अपेक्षा होय ते अपेक्षाथी ज्ञान करवाने बदले बीजी अपेक्षा खोळवा-गोतवा जईश तो सत्य नहीं मळे.

उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तम् सत् एम सिद्ध करवुं होय त्यां रागनो-मिथ्यात्वादिनो उत्पाद द्रव्यनी पर्यायमां छे अने ते पोताथी सत् छे एम कहे छे. सत् छे माटे तेने पर कारकनी अपेक्षा नथी. ए ज वात पंचास्तिकायनी गाथा ६२मां कही छे के-जे संसारनी पर्याय छे ते परकारकनी अपेक्षा विना स्वतः जीवनी पर्याय छे. ते कांई परथी थई छे एम नथी.

हवे ते मिथ्यात्वादिनो संसारभाव छे ते विभाव छे. अने विभाव छे ते स्वरूपना लक्षे न

थाय, परन्तु परना लक्षे ज थाय. तेथी तेने स्वपरहेतुक कहेवामां आवे छे. तथा आ गाथामां अने परमात्मप्रकाशमां ते बधाय भावोने पुद्गलना कह्या छे. कळश ४४मां आवे छे के-‘आ


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अनादिकाळना मोटा अविवेकना नाटकमां अथवा नाचमां वर्णादिमान पुद्गल ज नाचे छे.’ जीवद्रव्यने एकला ध्रुव चैतन्यमात्र स्वभावथी जोईए तो ते एक-एकलुं ज छे. ए जीवद्रव्य एकलुं छे ते केम नाचे? भगवान आत्मानो तो कांई नाच नथी. ए बधी पर्यायोमां एक पुद्गलनो ज नाच छे. त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यनी अपेक्षाए ए सघळा अन्य भावोमां एक पुद्गल ज नाचे छे-एम कह्युं छे. आ प्रमाणे आवो भगवान जिनदेवनो उपदेश स्याद्वादरूप छे, अने ते प्रमाणे समज्ये ज सम्यग्ज्ञान छे. जे अपेक्षाए रागादि द्रव्यमां नथी अने जे अपेक्षाए तेओ पर्यायमां छे-एम जे उपदेश कर्यो छे ते रीते यथार्थ जाणवुं जोईए. जिनदेवना उपदेशमां तो अपेक्षाथी कथन छे. माटे ते रीते समजे तो ज सम्यग्ज्ञान छे.

वळी कहे छे के-सर्वथा एकांत ते मिथ्यात्व छे. राग एकांते पर चीज छे अने आत्मामां (पर्यायमां) नथी एम माने तो ते मिथ्या एकांत छे. तथा राग द्रव्यमां (ध्रुवमां) पण छे एम माने तो ते पण मिथ्यात्व छे.

प्रश्नः– राग जेटलो थाय छे ते नाश पामीने अंदर जाय छे ने? पर्यायनो व्यय तो थाय छे. तो ते व्यय थईने कयां जाय छे? जो अंदर जाय छे, तो विकार अंदर गयो के नहीं?

उत्तरः– भाई, विकार अंदर द्रव्यस्वभावमां नथी. पर्यायनो जे व्यय थयो छे ते पारिणामिकभावमां योग्यतारूप थई गयो छे. वर्तमानमां विकार जे प्रगट छे ते उदयभावरूप छे. परंतु ज्यारे तेनो व्यय थाय छे त्यारे ते पारिणामिकभावे थईने अंदर जाय छे. तेवी ज रीते क्षयोपशमभावनी पर्याय पण व्यय पामे छे अने बीजे समये बीजी पर्याय उत्पन्न थाय छे. परंतु पहेलांनो भाव व्यय पामीने गयो कयां? शुं ते अंदरमां क्षयोपशमभावे छे? ना, ते पारिणामिकभावे अंदर वस्तुमां छे.

अहीं कहे छे के सर्वथा एकांत समजे तो मिथ्यात्व छे. आथी कोई एम कहे के-बंधना मार्गथी (व्यवहाररत्नत्रयथी) पण मोक्ष थाय छे एम कहो; अन्यथा सर्वथा एकान्त थई जशे. तो ए वात यथार्थ नथी. भाई! मोक्षनो मार्ग सर्वथा निर्मळ परिणतिथी ज थाय छे अने एमां सर्वथा रागनी परिणति छे ज नहि एवो आ सम्यक् अनेकान्त छे. निश्चयथी जे शुद्धरत्नत्रयनी निर्मळ पर्याय छे ते ज मोक्षनो मार्ग छे. परंतु साथे रागने निमित्त-सहचर देखीने तेने व्यवहारथी मोक्षमार्ग कह्यो छे. परंतु तेथी ते राग, जे बंधनुं कारण छे ते, मोक्षनुं कारण थई जाय एम नथी. आ प्रमाणे जे अपेक्षाए कथन होय ते यथार्थ समजवुं जोईए.

[प्रवचन नं. १०प (शेष) १०६ * दिनांक २४-६-७६ थी २प-६-७६]


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कुतो जीवस्य वर्णादिभिः सह तादात्म्यलक्षणः सम्बन्धो नास्तीति चेत्

तत्थ भवे जीवाणं संसारत्थाण होंति वण्णादी।
संसारपमुक्काणं णत्थि हु वण्णादओ केई।। ६१ ।।
तत्र भवे जीवानां संसारस्थानां भवन्ति वर्णादयः।
संसारप्रमुक्तानां न सन्ति खलु वर्णादयः केचित्।। ६१ ।।

_________________________________________________________________

हवे पूछे छे के वर्णादिक साथे जीवनो तादात्म्यलक्षण संबंध केम नथी? तेनो उत्तर कहे छेः-

संसारी जीवने वर्ण आदि भाव छे संसारमां,
संसारथी परिमुक्तने नहि भाव को वर्णादिना. ६१.

गाथार्थः– [वर्णादयः] वर्णादिक छे ते [संसारस्थानां] संसारमां स्थित [जीवानां] जीवोने [तत्र भवे] ते संसारमां [भवन्ति] होय छे अने [संसारप्रमुक्तानां] संसारथी मुक्त थयेला जीवोने [खलु] निश्चयथी [वर्णादयः केचित्] वर्णादिक कोई पण (भावो) [न सन्ति] नथी; (माटे तादात्म्यसंबंध नथी).

टीकाः– जे निश्चयथी बधीये अवस्थाओमां यद्-आत्मकपणाथी अर्थात् जे- स्वरूपपणाथी व्याप्त होय अने तद्-आत्मकपणानी अर्थात् ते-स्वरूपपणानी व्याप्तिथी रहित न होय, तेनो तेमनी साथे तादात्म्यलक्षण संबंध होय छे. (जे वस्तु सर्व अवस्थाओमां जे भावोस्वरूप होय अने कोई अवस्थामां ते भावोस्वरूपपणुं छोडे नहि, ते वस्तुनो ते भावोनी साथे तादात्म्यसंबंध होय छे.) माटे बधीये अवस्थाओमां जे वर्णादिस्वरूपपणाथी व्याप्त होय छे अने वर्णादिस्वरूपपणानी व्याप्तिथी रहित होतुं नथी एवा पुद्गलनो वर्णादिभावोनी साथे तादात्म्यलक्षण संबंध छे; अने जोके संसार-अवस्थामां कथंचित् वर्णादिस्वरूपपणाथी व्याप्त होय छे अने वर्णादिस्वरूपपणानी व्याप्तिथी रहित होतो नथी तोपण मोक्ष-अवस्थामां जे सर्वथा वर्णादिस्वरूपपणानी व्याप्तिथी रहित होय छे अने वर्णादिस्वरूपपणाथी व्याप्त होतो नथी एवा जीवनो वर्णादिभावोनी साथे तादात्म्यलक्षण संबंध कोई पण प्रकारे नथी.


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भावार्थः– द्रव्यनी सर्व अवस्थाओने विषे द्रव्यमां जे भावो व्यापे ते भावो साथे द्रव्यनो तादात्म्यसंबंध कहेवाय छे. पुद्गलनी सर्व अवस्थाओने विषे पुद्गलमां वर्णादिभावो व्यापे छे तेथी वर्णादिभावो साथे पुद्गलनो तादात्म्यसंबंध छे. संसार-अवस्थाने विषे जीवमां वर्णादिभावो कोई प्रकारे कही शकाय छे पण मोक्ष-अवस्थाने विषे जीवमां वर्णादिभावो सर्वथा नथी तेथी वर्णादिभावो साथे जीवनो तादात्म्यसंबंधी नथी ए न्याय छे.

* श्री समयसार गाथा–६१ मथाळुं *

हवे पूछे छे के-वर्णादिने आत्मा साथे त्रिकाळ संबंध केम नथी? आपे आत्मानी साथे तेमनो एक समयनी पर्याय पूरतो क्षणिक-अनित्य संबंध कह्यो. परंतु ते रंग, राग, गुणस्थान आदि साथे जीवने तादात्म्यसंबंध केम नथी? तेनो उत्तर आपे छेः-

* गाथा ६१ः टीका उपरनुं प्रवचन *

जे निश्चयथी बधीय अवस्थाओमां जे-स्वरूपपणाथी व्याप्त होय अने ते स्वरूपपणानी व्याप्तिथी रहित न होय, तेनो तेमनी साथे तादात्म्यलक्षण संबंध होय छे. जेमके ज्ञान साथे आत्माने जे संबंध छे ते तादात्म्यलक्षण संबंध छे, केमके आत्मानी सर्व अवस्थाओमां ते ज्ञानस्वरूपपणाथी व्याप्त छे अने ज्ञानस्वरूपपणानी व्याप्तिथी कयारेय रहित नथी. परंतु राग-उदयभाव साथे आत्माने तादात्म्यलक्षण संबंध नथी, केमके आत्मानी सर्व अवस्थाओमां उदयभाव व्याप्त होय अने कयारेय एनी व्याप्तिथी रहित न होय एम बनतुं नथी. संसार अवस्थामां राग-उदयभाव होय छे परंतु मोक्ष अवस्थामां ते सर्वथा नथी.

खरेखर, जे बधी दशाओमां जे स्वरूपथी व्याप्त एटले प्रसरेल होय अने ते स्वरूपथी कयारेय रहित न होय तेनो, तेमनी साथे तादात्म्यसंबंध होय छे. अर्थात् जे वस्तु सर्व अवस्थाओमां जे भावोस्वरूप होय अने कोई अवस्थामां ते भावोस्वरूपपणुं छोडे नहि ते वस्तुनो, ते भावो साथे तादात्म्यसंबंध छे. माटे जेनी बधीय अवस्थाओमां वर्णादि व्याप्त होय छे ते पुद्गलनी साथे वर्णादिने तादात्म्यसंबंध छे. काळो, रातो आदि जे वर्ण छे तेनुं पुद्गलनी साथे तादात्म्य छे, केमके ते विना पुद्गलनी कोई अवस्था होती नथी. तेवी रीते जे गुणस्थान आदि भेद पडया छे तेने पण पुद्गलनी साथे तादात्म्यसंबंध छे केमके पुद्गलना निमित्त विना ते भेदो होता नथी. अहो! आ समयसार तो केवुं अद्भुत शास्त्र छे! एमां आखाय ब्रह्मांडना भावो भर्या छे!

पुद्गलनी बधीय अवस्थाओमां ते वर्णादि व्याप्त होय छे अने तेनी व्याप्तिथी रहित पुद्गल होतुं नथी. माटे वर्णादिभावोनो पुद्गल साथे तादात्म्यसंबंध छे पण


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आत्मानी साथे नथी. तेओ संसार अवस्थामां कथंचित् व्याप्त-प्रसरेला छे तोपण मोक्ष अवस्थामां सर्वथा होता नथी. माटे तेओने जीवनी साथे तादात्म्यलक्षण संबंध नथी. संसार अवस्थामां राग-भेदथी व्याप्ति होय छे अने त्यारे वर्णादिरूपपणानी व्याप्तिथी रहित जीव होतो नथी, तोपण मोक्ष अवस्थामां सर्वथा व्याप्ति होती नथी. माटे जीवने ते वर्णादिभावो साथे तादात्म्यसंबंध नथी. अहाहा! वर्णादिमां एक पुद्गल ज नाचे छे. भगवान आत्मा तो ज्ञायकस्वरूपे शुद्ध चिद्रूप एकरूप छे. ते एमां केम नाचे? न ज नाचे एम कहे छे.

जोके संसार अवस्थामां कथंचित् वर्णादिनी व्याप्ति होय छे तोपण मोक्ष अवस्थामां तेओनी व्याप्ति होती नथी, व्याप्तिथी सर्वथा रहित होय छे. माटे वर्णादिभावो साथे जीवने कोईपण प्रकारे तादात्म्यलक्षण संबंध नथी. आत्माने ज्ञान, आनंद साथे तादात्म्यलक्षण संबंध छे कारण के कोईपण अवस्थामां ज्ञानानंदरूपपणुं आत्मामां न होय एम बनतुं नथी. परंतु आ वर्णादि भावो संसार अवस्थामां कथंचित् होय छे तोपण मोक्ष अवस्थामां तेओनो सर्वथा अभाव छे. माटे वर्णथी मांडीने गुणस्थान पर्यंतना सर्व भावो साथे जीवने तादात्म्यलक्षण संबंध नथी.

* गाथा ६१ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

द्रव्य जे वस्तु छे तेनी बधी अवस्थाओमां जे व्यापे तेने, ते द्रव्य साथे एकरूप संबंध कहेवाय छे. तेथी पुद्गलनी सर्व अवस्थाओमां जे वर्णादिभावो व्यापे छे तेने, पुद्गलनी साथे एकरूपतानो संबंध छे. गुणस्थान, जीवस्थान, मार्गणास्थान आदि भेदो पुद्गलना (कर्मना) निमित्ते पडे छे. अहाहा! आत्मा वस्तु त्रिकाळी ध्रुव अभेद एकरूप चैतन्यमात्र छे. तेने कारणे भेद केम पडे? माटे पुद्गलना निमित्तथी जे आ वर्णथी गुणस्थान पर्यंत भेद पडे छे ते, आत्मानी सर्व अवस्थाओमां व्यापता नथी पण पुद्गलनी सर्व अवस्थाओमां व्यापे छे. ते कारणे ते बधा पुद्गलनी साथे तादात्म्यलक्षण संबंध राखे छे. अखंड, अभेद एक चिन्मात्रस्वरूप वस्तुनी द्रष्टिए रंग-राग-जीवस्थान-मार्गणास्थान आदि भेदो पुद्गलनी साथे संबंध राखे छे. ज्यां ज्यां पुद्गल त्यां त्यां आ बधा भावो होय छे. माटे तेओने पुद्गलनी साथे तादात्म्य संबंध छे.

संसार अवस्थामां जीवमां रंग-राग आदि भावो कोई अपेक्षाए कही शकाय छे. परंतु मोक्ष अवस्थामां तेओ जीवमां सर्वथा नथी. तेथी वर्णादि साथे जीवने एकरूपतानो संबंध नथी. र्क्ता-कर्म अधिकारमां पण ए ज कह्युं छे के जे दया, दान, व्रत, भक्ति, आदिनो भाव थाय छे ते संयोगलक्षण छे. तेओ संयोगीभाव छे, स्वभावभाव नथी. माटे ए दया, दान, आदि भावो साथे आत्माने तादात्म्यसंबंध नथी. जेम बीजी संयोगी चीज छे तेम ते पण संयोगी चीज छे. माटे वर्णादि भावो साथे भगवान आत्माने एकरूपपणानो तादात्म्यलक्षण संबंध नथी ए न्याय छे.


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अहाहा! आत्मा जे शुद्ध चिद्रूप वस्तु छे तेना तरफ ढळवाना भावमां तो आत्मा अभेदपणे द्रष्टिमां लेवा योग्य छे. ज्यारे आ बधा भेद-भावो, के जे पुद्गलना संबंधे थाय छे तेनी द्रष्टि छोडी देवा योग्य छे. माटे तो तेओ आत्माना नथी एम कह्युं छे. आ वर्णथी शरू करीने मार्गणास्थान-गुणस्थान आदि जे भेदो कह्या छे ते बधाय पुद्गलनी साथे संबंधवाळा छे. ज्यां ज्यां तेओ छे त्यां त्यां तेओने पुद्गलनी साथे संबंध छे. परंतु ज्यां ज्यां भगवान आत्मा छे त्यां त्यां तेओनी साथे संबंध छे नहीं, कारण के संसार अवस्थामां एक समय पूरतो पर्यायमां संबंध छे तोपण मोक्ष अवस्थामां सर्वथा संबंध नथी. तेथी धर्मीए एक अभेदस्वभावनी ज द्रष्टि करवी एम अभिप्राय छे. आ जीव-अजीव अधिकार छे. तेथी रंग, राग, पुण्य, पाप, गुणस्थान आदि सर्व भावोने अहीं अजीवमां नाख्या छे. आशय ए छे के अभेद एक चिन्मात्र अखंड वस्तुनो आश्रय करवो अर्थात् सम्यग्दर्शन अने निर्विकल्प शांतिनी पर्याय द्वारा ते एकने ज ग्रहण करवो, अनुभववो.

[प्रवचन नं. १०६ (शेष)-१०७ * दिनांक २प-६-७६ थी २६-६-७६]

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जीवस्य वर्णादितादात्म्यदुरभिनिवेशे दोषश्चायम्–

जीवो चेव हि एदे सव्वे भाव त्ति मण्णसे जदि हि।
जीवस्साजीवस्स य णत्थि विसेसो दु दे कोई।। ६२ ।।
जीवश्चैव ह्येते सर्वे भावा इति मन्यसे यदि हि।
जीवस्याजीवस्य च नास्ति विशेषस्तु ते कश्चित्।। ६२ ।।

_________________________________________________________________

हवे, जीवनुं वर्णादिक साथे तादात्म्य छे एवो मिथ्या अभिप्राय कोई करे तो तेमां आ दोष आवे छे एम गाथामां बतावे छेः-

आ भाव सर्वे जीव छे जो एम तुं माने कदी,
तो जीव तेम अजीवमां कंई भेद तुज रहेतो नथी! ६२.

गाथार्थः– वर्णादिकनी साथे जीवनुं तादात्म्य माननारने कहे छे केः हे मिथ्या अभिप्रायवाळा! [यदि हि च] जो तुं [इति मन्यसे] एम माने के [एते सर्वे भावाः] वर्णादिक सर्व भावो [जीवः एव हि] जीव ज छे, [तु] तो [ते] तारा मतमां [जीवस्य च अजीवस्य] जीव अने अजीवनो [कश्चित्] कांई [विशेषः] भेद [नास्ति] रहेतो नथी.

टीकाः– जेम वर्णादिक भावो, अनुक्रमे आविर्भाव (प्रगट थवुं, ऊपजवुं) अने तिरोभाव (ढंकावुं, नाश थवुं) पामती एवी ते ते व्यक्तिओ वडे (अर्थात् पर्यायो वडे) पुद्गलद्रव्यनी साथे साथे रहेता थका, पुद्गलनुं वर्णादि साथे तादात्म्य जाहेर करे छे-विस्तारे छे, तेवी रीते वर्णादिक भावो, अनुक्रमे आविर्भाव अने तिरोभाव पामती एवी ते ते व्यक्तिओ वडे जीवनी साथे साथे रहेता थका, जीवनुं वर्णादि साथे तादात्म्य जाहेर करे छे, विस्तारे छे- एम जेनो अभिप्राय छे तेना मतमां, अन्य बाकीनां द्रव्योथी असाधारण एवुं वर्णादिस्वरूपपणुं-के जे पुद्गलद्रव्यनुं लक्षण छे-तेनो जीव वडे अंगीकार करवामां आवतो होवाथी, जीव-पुद्गलना अविशेषनो प्रसंग आवे छे, अने एम थतां, पुद्गलोथी भिन्न एवुं कोई जीवद्रव्य नहि रहेवाथी, जीवनो जरूर अभाव थाय छे.

भावार्थः– जेम वर्णादिक भावो पुद्गलद्रव्य साथे तादात्म्यस्वरूपे छे तेम जीव साथे पण तादात्म्यस्वरूपे होय तो जीव-पुद्गलमां कांई पण भेद न रहे अने तेथी जीवनो ज अभाव थाय ए मोटो दोष आवे.


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* श्री समयसार गाथा ६२ः मथाळुं *

हवे, जीवनुं वर्णादि साथे एटले रंग-राग-गुणस्थानादि साथे तादात्म्य-एकरूपपणुं छे एवो मिथ्या अभिप्राय कोई प्रगट करे तो तेमां दोष आवे छे एम गाथा द्वारा कहे छेः-

* गाथा ६२ः टीका उपरनुं प्रवचन *

रागादि, जे पुद्गलना परिणाम छे ते, जो तुं तारा-जीवना छे एम मानीश तो जीव अने अजीवमां कांई भेद रहेतो नथी एम कहे छे. आ गाथा अने टीका सूक्ष्म छे. अरे, आखुंय समयसार ज सूक्ष्म छे अने एथीय सूक्ष्ममां सूक्ष्म भगवान आत्मा छे. चैतन्य भगवान अनंत गुणथी तादात्म्यस्वरूप महाप्रभु छे. तेना उपर द्रष्टि करवाथी धर्मनी-सम्यग्दर्शननी शरूआत थाय छे. अने ते सिवाय लाख, क्रोड के अनंत दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा आदि करे तोपण एथी सम्यग्दर्शन थतुं नथी. कारण के ए तो बधो राग छे अने ते रागने पुद्गलनी साथे तादात्म्य छे. ज्यां ज्यां पुद्गल त्यां त्यां रंग-राग-भेदादि होय छे, पण ज्यां ज्यां भगवान आत्मा त्यां त्यां रंग-राग-भेदादि होता नथी-एम अहीं कहे छे. अहो! शुं अलौकिक वात छे! तेने ध्यान दईने शांतिथी सांभळवी.

गुणस्थान आदि भेदो पर्यायमां उत्पन्न थया छे ते तेमनी उत्पत्तिनी ‘जन्मक्षण’ छे तेथी उत्पन्न थया छे, निमित्त वडे उत्पन्न थया छे एम नथी. ए भेदो जीवनी पर्यायमां पोताथी थया छे, परंतु आत्मामां-त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यमां तेओ व्यापता नथी. ए रंग, राग, दया, दान, आदि भावोने पुद्गलनी साथे व्याप्ति छे. ज्यां पुद्गल व्यक्त थाय छे त्यां तेओ होय छे अने तेमां व्यापे छे. ज्यां एम कह्युं के पुण्य-पापना भाव पोतानी पर्यायमां थाय छे अने एनो र्क्ता-भोक्ता जीव छे त्यां तो एनुं ज्ञान कराववा ज्ञानप्रधान कथन कर्युं छे. ज्यारे अहीं द्रष्टिप्रधान वात छे. अहीं द्रष्टिनी प्रधानतामां, चाहे दया-दानना भाव हो के पंचमहाव्रतना पालनना भाव हो, ते बधाय पुद्गलनी साथे व्यापे छे एम कहे छे. दिगम्बर संतो सिवाय आवी वात कोईए कयांय करी नथी. अहो! दिगम्बर संतो केवळीना केडायतो छे. भगवान केवळीए जे दिव्यध्वनिमां कह्युं छे ते वात तेओ जगत समक्ष जाहेर करे छे. भगवान! एक वार जरा धीरजथी सांभळ. कहे छे के जे पुण्य-पापना भावनी प्रगटता-उत्पाद अने नाश- व्यय थाय छे ते बंधुय पुद्गलनी साथे व्यापे छे. ते उत्पाद-व्यय तारी-जीवनी साथे व्यापता नथी. अहा! शुं सूक्ष्म तत्त्व!

दया, दान, व्रत, स्वाध्याय, आदिनो राग; अरे, आ जे श्रवणनो राग आवे छे ते राग पण पुद्गलनी साथे उत्पन्न थाय छे अने पुद्गलमां व्यय पामे छे. ए


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उत्पाद-व्यय आत्माना नथी. द्रव्यस्वभावनुं अहीं वर्णन छे ने! जीवद्रव्यमां तो भेद छे ज नहीं. तेथी भेदने तथा रागादिने अजीव कह्या छे. देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो राग, नवतत्त्वनी श्रद्धानो राग, शास्त्रज्ञाननो विकल्प के छ कायना जीवोनी रक्षानो राग ए बधाय, अहीं कहे छे के पुद्गलनी साथे उत्पन्न थाय छे अने पुद्गलमां नाश पामे छे; पोतानी-जीवनी साथे नहीं. अहाहा! केटलुं स्पष्ट कर्युं छे! आवी वात बीजे कयां छे? उत्पाद-व्यय, द्रव्यस्वभावमां- चिन्मात्रवस्तुमां तो छे नहीं. ते कारणे आ वर्णादि भावोनो आविर्भाव एटले के उत्पत्ति अने तिरोभाव एटले के नाश-व्यय जे थाय छे तेनुं पुद्गलनी साथे व्याप्तपणुं छे. अने तेथी पुद्गलनो वर्णादिकनी साथे तादात्म्य संबंध प्रसिद्ध थाय छे. अहाहा! ते वर्णादिक भावो पुद्गलनो विस्तार छे, पण भगवान चिदानंद प्रभुनो-आत्मानो ते विस्तार नथी. भगवान आत्मा तो चिदानंदमय अखंड एकरूप जिनस्वरूपी परमात्मा छे. आ वर्णादि अने रागादि भावो ते एनो विस्तार नथी. रागादिनी प्रसिद्धि ते भगवान जिनस्वरूप आत्मानी प्रसिद्धि नथी. अहाहा! शुं संतोए जाहेर कर्युं छे! सर्वज्ञदेवे जे कह्युं छे ते आ पंचम आराना श्रोताने संतो कहे छे.

कोई एम कहे के आ वात तो चोथा आरानी छे अने ते चोथा आराना जीवने समजवा माटे छे. तेने कहे छे के-भाई! आ तो पंचम आराना संतो पंचम आराना श्रोताने समजावी रह्या छे. प्रभु! तुं सांभळ तो खरो. पंचम आरामां पण तुं आत्मा छे के नहि? प्रभु! तुं अनंत गुणोथी भरेलो अभेद शुद्ध चैतन्यमात्र आत्मा छो ने! अत्यारे पण एवो ज छो ने! एटले तो कहे छे के जेने अभेद शुद्ध चिदानंद भगवाननी द्रष्टि करवी होय तेणे आ रागादि भावोने अजीवना परिणाम मानवा जोईशे. कोई एम कहे छे अत्यारे तो शुभजोग ज होय अने ते शुभजोग ज धर्मनुं कारण छे. तेने कहे छे-अरे प्रभु! शुं कहे छे तुं? अत्यारे शुभजोग ज होय एनो अर्थ ए थयो के अत्यारे धर्म ज न होय. भाई! तारी वात बराबर नथी केमके शुभजोग तो पुद्गलमां व्यापनारा भावो छे. ते पोताना छे अने लाभकारक छे एम मानवुं ए तो महामिथ्यात्व अने अज्ञान छे.

त्रणलोकना नाथ भगवान सीमंधरदेव अत्यारे परमात्मपणे महाविदेहमां बिराजे छे. भगवान कुंदकुंदाचार्य तेमनी पासे गया हता अने त्यां आठ दिवस रह्या हता. त्यांथी आवीने आ शास्त्रो बनाव्यां छे. तेमना पछी एक हजार वर्षे श्री अमृतचंद्राचार्य थया हता. तेमणे आ टीका बनावी छे. तेओ अहीं कहे छे के शुभाशुभ रागनां उत्पत्ति अने व्यय पुद्गल साथे संबंध राखे छे, भगवान आत्मा साथे नहि. जो तेनो संबंध आत्मा साथे होय तो रागादिनां उत्पाद-व्यय त्रणेकाळ आत्मामां थवां जोईए. पण एम तो बनतुं नथी. माटे ते रागादि आत्मानी चीज नथी. आ शरीर, मकान, पैसा, लक्ष्मी


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आदि तो कयांय दूर रही गयां. ए तो प्रत्यक्ष पुद्गल-परवस्तु छे. अहीं तो कहे छे के-जे वडे तीर्थंकर गोत्र बंधाय ए सोलहकारण भावनानो भाव पण राग छे अने ते पुद्गलनी साथे संबंध राखे छे, अजीवरूप छे, अने तेना फळमां पण अजीव मळे छे.

अरेरे! आवुं सांभळवाय मळे नहि तेने एनी प्रतीति तो कयांथी थाय? एनां तो मनुष्यपणां चाल्यां जाय छे. ए कयां जशे? आ संस्कार अंदर न पडया तो ८४ना अवतारमां एना कयां उतारा थशे? भाई! भगवान आत्मा तो अनादि-अनंत नित्य रहेवानो छे. आ राग मारो अने रागथी मने लाभ थशे एवी मिथ्याश्रद्धानो त्याग न कर्यो तो ए कयां जशे? कयांक जशे तो खरो ज. अने मिथ्यात्वनुं फळ तो नरक, निगोदादि ज कहेलुं छे. भाई! आवो अवसर प्राप्त थवो महा कठण छे.

अहीं कहे छे के राग चाहे तो दया, दान, भक्तिनो हो के पंचमहाव्रतनो हो, एनुं ऊपजवुं अने व्यय थवुं पुद्गलनी साथे संबंध राखे छे. प्रभु! तारुं चैतन्यघर तपासवा माटे आ वात करे छे. तारुं घर तुं जो, एमां तने रागादिनां उत्पत्ति-व्यय नहीं जणाय. तने तारो नाथ चैतन्यदेव अतीन्द्रिय आनंदनां उत्पत्ति-व्यय साथे जणाशे. अहा! कुंदकुंदाचार्य आदि दिगंबर संतो अपार करुणा करी मार्ग बतावे छे. तेओ ऊंचेथी पोकारीने कहे छे के-प्रभु! तारी प्रसिद्धि तो अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदनी पर्यायथी थाय छे. तारी प्रसिद्धि रागथी केम होय? केमके रागनी प्रसिद्धि छे ए तो पुद्गलनी प्रसिद्धि छे. गजब वात! आ समयसार ए तो जगतचक्षु-अजोडचक्षु छे. अने आ टीकानुं नाम आत्मख्याति छे ने! अभेद एक शुद्ध द्रव्यस्वभाव उपर द्रष्टि करतां जे अतीन्द्रिय आनंद-शांतिनी पर्याय प्रगट थाय ते तारी प्रसिद्धि एटले आत्मख्याति छे. अहो! पंचम आराना संतोए जगतनी दरकार छोडीने, सत्य आ ज छे-एम सत्यना डंका वगाडया छे.

एक कविए कह्युं छे के-

प्रभुता प्रभु! तारी तो खरी, मुजरो, मुज रोग ले हरी.

प्रभु! तारी प्रभुता तो त्यारे कहीए के ज्यारे निर्मळ पर्यायनां उत्पत्ति-व्यय थाय. रागनी उत्पत्ति अने रागनो व्यय ए तारी प्रभुता नथी. राग छे ए तो रोग छे. तेने हरी ले ए तारी खरी प्रभुता छे. अहाहा! शुभाशुभ राग ए तो पुद्गलनो विस्तार छे, पुद्गलनी प्रसिद्धि छे. एमां आत्मानी प्रसिद्धि नथी. अहो! अमृतचंद्राचार्यदेवे टीकामां एकलां अमृत रेडयां छे. शुं टीकानी गंभीरता अने शुं तेनो मर्म!

जेनी पर्यायमां अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख अने अनंतवीर्य खीली नीकळ्‌यां छे ते परमात्मा छे. जेम गुलाब हजार पांखडीए खीली ऊठे छे तेम आ


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परमात्मा अनंत पांखडीए खीलीगया छे. ए प्रभुनी प्रसिद्धि छे. भगवान! तारां वखाण कई रीते करीए? अहा! अनंत आनंद-ज्ञान आदि अनंत गुणनी निर्मळ पर्यायनो उत्पाद-व्यय थवो अथवा गुणना आश्रये उत्पाद-व्यय थवो ए आत्मानी प्रसिद्धि छे. परंतु परना आश्रये जे रागादि थाय छे ते आत्मानी प्रसिद्धि नथी. आवुं आकरुं पडे पण शुं थाय? भाई! मारग तो जे जिनेश्वरदेवे गणधरो अने इन्द्रोनी उपस्थितिमां सभामां कह्यो छे ते आ ज छे. भगवान सीमंधरनाथ महाविदेहक्षेत्रमां बिराजे छे. त्यां जे वात दिव्यध्वनिमां आवी रही छे ए ज वात श्री कुंदकुंदाचार्य अने अमृतचन्द्राचार्य अहीं कहे छे. श्री कुंदकुंदाचार्य तो त्यां गया हता. पण श्री अमृतचंद्राचार्य तो नहोता गया. परंतु अंदरना भगवान पासे गया हता ने! तेथी आत्मानी वात प्रसिद्ध करे छे. कहे छे के-हुं आनंदनो नाथ अनंत अनंत ज्ञान, दर्शन, शांति, स्वच्छता, प्रभुता एवा एक एक गुणनी पूर्णता सहित अनंतगुणनी पूर्णतानो पिंड प्रभु आत्मा छुं. तथा निर्मळ पर्यायनी उत्पत्ति अने निर्मळ पर्यायनो व्यय थवो ते आत्मानी प्रसिद्धि छे, आत्मख्याति छे.

प्रश्नः– एकलो शुभभाव जीवनी साथे संबंध राखे छे एम कहो तो?

उत्तरः– केटलाक व्रत-तप वडे धर्म माने छे तथा केटलाक देव-गुरु-शास्त्रनी भक्तिमां धर्म माने छे. शुभभावमां धर्म माननारा ए बधा एक सरखी रीते मिथ्याद्रष्टि छे. प्रवचनसारनी गाथा ७७ मां कह्युं छे के-शुभाशुभ भावो पैकी शुभभाव-पुण्यभाव ठीक छे अने अशुभभाव-पापभाव अठीक छे एम जे माने छे ते मिथ्यात्वथी ढंकायेलो घोर संसारमां रखडे छे. पुण्य अने पापमां तफावत नथी एम जे मानतो नथी ते-‘हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछण्णो’-मोहाच्छादित वर्ततो थको घोर अपार संसारमां रखडे छे. भाई! दिगम्बर मार्ग बहु सूक्ष्म, बापा! संप्रदाय मळी गयो माटे दिगम्बर धर्म समजाई जाय एम नथी. दिगम्बर धर्म ए कोई संप्रदाय, पंथ के पक्ष नथी. ए तो वस्तुनुं स्वरूप छे.

हवे कहे छे के-आ रागादि भावो जेम पुद्गलनी साथे आविर्भाव-तिरोभाव पामे छे अर्थात् उत्पन्न-व्ययरूप थाय छे तेम जो तेओ आत्मानी साथे उत्पन्न-व्ययरूप थाय तो जे पुद्गलनुं स्वरूप छे ते जीव द्वारा अंगीकार करवामां आवतुं होवाथी जीव अने पुद्गलना एकपणानो प्रसंग आवे. अहाहा! शुं अद्भुत टीका! आवी वीतरागमार्गनी वात एक क्षण पण समजमां बेसी जाय तो भवनो अंत आवी जाय एवी आ वात छे. शुं कहे छे? के-जेम जडकर्म-पुद्गल साथे रागादि अजीव उत्पन्न थाय छे अने व्यय पामे छे माटे पुद्गल साथे रागादिने तादात्म्य संबंध छे तेम, जो कोई एवो अभिप्राय राखे के जीवनी साथे रागादि उत्पन्न-व्ययरूप थाय छे माटे जीवने रागादि साथे संबंध


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छे तो तेणे पुद्गलने ज जीव मान्यो छे. तेनी मान्यता प्रमाणे जीवद्रव्य भिन्न रह्युं नहि पण ते पुद्गलरूप थई गयुं एम कहे छे. सूक्ष्म वात, भाई! जे आत्माए एवो अभिप्राय राख्यो छे के मारी (आत्मानी) साथे रागनी उत्पत्ति अने रागनो व्यय थाय छे तेणे पुद्गलने ज आत्मा मान्यो छे, पुद्गलथी भिन्न पोताना चैतन्यस्वरूपने एणे मान्युं ज नथी.

प्रश्नः– परंतु आवो धर्म पामवानुं साधन शुं? भक्ति आदि करीए ते साधन खरुं के नहि?

उत्तरः– अरे भगवान! देव-गुरु-शास्त्रनी भक्ति तो राग छे. अने रागनी उत्पत्ति अने तेना व्ययनो संबंध तो निश्चयथी पुद्गल साथे छे. तेथी जो भक्ति आदिना रागने ज तुं साधन मानीश तो पुद्गलने ज तुं जीव माने छे एम निश्चित थतां मिथ्यात्व ज थशे.

व्यवहारथी एक समयनी पर्यायमां-संसार अवस्थामां ते हो भले, पण जीवने तेनी साथे तादात्म्य संबंध नथी. ए ज वात हवे पछीनी गाथामां कहेशे के-भाई! जो तुं संसार अवस्थामां पण रागादि मारां छे एम मानीश तो जीव पुद्गलस्वरूप थई जशे अने पुद्गलनी ज मुक्ति थशे. गजब वात छे. अन्यमतनां करोडो पुस्तको वांचे तोपण आ वात नीकळे नहीं. कयांथी नीकळे? आ तो जेओ त्रिलोकनाथ जिनेश्वरदेव पासे गयेला अने अंतरमां बिराजमान निज जिनेश्वरदेव चैतन्य भगवान पासे गयेला तेवा संतोनी वाणी छे. ए संतो कहे छे के ज्यां अमे गया हता त्यां तो रागादि छे ज नहि ने. अहाहा! शुद्ध चिदानंदमय चैतन्यमूर्ति भगवान अमारो जिनदेव छे. त्यां अमे गया हता. त्यां राग-द्वेष-संसार छे ज नहि. रागादिनो संबंध आत्मा साथे छे ज नहि. आवी संतोनी वाणी सांभळवा मळवी पण दुर्लभ छे.

एक बाजु एम कहे के पुण्य-पाप आदि भाव जीवनी पर्यायमां थाय छे अने जीव तेनो र्क्ता-भोक्ता छे. ए तो पर्यायनुं ज्ञान कराववा ज्ञाननी अपेक्षाए कथन छे. ज्यारे अहीं द्रष्टिनी अपेक्षाथी एम कहे छे के राग-द्वेषादिनी उत्पत्ति अने व्यय पुद्गलनी साथे संबंध राखे छे. स्वभावनी द्रष्टिए जोतां ते राग-द्वेषादि परनां छे. जो ते राग-द्वेषादि भावो जेम पुद्गलनी साथे उत्पाद-व्ययपणे व्याप्त थतां देखाय छे तेम आत्मानी साथे पण एकपणे देखाय तो आत्मा पुद्गलमय थई जाय, जीवपणे रहे नहि, अर्थात् राग विनानो अखंड आनंदकंदस्वरूप जे आत्मा तेनो नाश थई जाय. तेथी पुद्गलनी ज प्रसिद्धि थाय. अहाहा! अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदनो सागर भगवान आत्मा अंदर शाश्वत बिराजे छे ने नाथ! तेने जो तुं रागवाळो माने तो तुं पुद्गलमय थई जाय, जीवपणे न रहे. जो तुं शुभभावना रागथी धर्म माने तो त्यां आत्मा न रहे, प्रभु! एकला पुद्गलनी ज प्रसिद्धि थाय. भाई! आ तो खूब धीरज अने न्यायथी प्राप्त थाय एवो मार्ग छे.


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प्रश्नः– आ पंचमकाळमां शुभभाव ज होय छे. तेथी व्रत, तप, भक्ति आदि करवां ए धर्म छे.

उत्तरः– भाई! ए व्रत, तप, भक्ति आदिना शुभभाव तो पुद्गलनी साथे संबंध राखे छे. ए आत्मानी साथे तादात्म्य संबंधे व्यापता ज नथी.

प्रश्नः– आप आम कहो छो तेथी एकला पडी जशो.

उत्तरः– भगवान! कोण एकलो अने कोण बेकलो? अहीं तो जे सत्य छे ते कहेवाय छे. अहा! शुं दिगंबर संतोए काम कर्यां छे! केवळज्ञानीना विरह भूलाव्या छे! भाई, तुं एम माने के शुभरागथी धर्म थाय तो ए तो पुद्गलनी प्रसिद्धि थई, नाथ! तारी प्रसिद्धि एमां न आवी. भाई! रागनो तादात्म्य संबंध तो पुद्गलनी साथे छे, केमके ज्यां ज्यां कर्म त्यां त्यां राग छे. आत्मावलोकनमां पण ए ज कह्युं छे के-ज्यां सुधी निमित्त-कर्म छे त्यां सुधी राग छे; अने कर्म नथी तो राग नथी. राग, पुद्गलना संबंधमां उत्पन्न थाय छे माटे ते आत्मानुं स्वरूप नथी एम अहीं कहेवुं छे.

अहाहा! भगवान आत्मा तो अनंत अनंत ज्ञान, आनंद अने शान्तिनो भंडार छे. ए भंडारमांथी नीकळे तो शुं राग नीकळे? एमां राग छे कयां के नीकळे? रागनी उत्पत्ति थाय एवो कोई गुण आत्मामां नथी. अनंत गुणरत्नोना भंडार भगवान आत्मामां द्रष्टि स्थापतां पर्यायमां अनंत आनंद-शांति आदिनी पर्याय प्रगट थाय छे अने एना उत्पाद-व्ययनो संबंध निज द्रव्य साथे छे अने ए उत्पाद-व्यय सिद्धमां पण अनंतकाळ रहेशे. आवी वस्तुस्थिति छे.

अहीं कहे छे के-आ रागादि भावो आत्मानी साथे संबंध राखे छे एम जो कोई जाणे- माने तो आत्मा पुद्गलमय थई जाय, केमके रागादिने तो पुद्गल-अजीवनी साथे तादात्म्य संबंध छे. तेथी पुद्गलथी भिन्न जीव तो कोई रहे नहि. तेथी जीवनो ज अवश्य अभाव थई जाय. गजब वात, भाई! ज्यारे त्रिलोकीनाथ दिव्यध्वनि द्वारा आ अर्थो प्रगट करे छे त्यारे ए ज भवे मोक्ष जनारा गणधरो अने एकावतारी इन्द्रो पण विस्मय पामे छे. ए दिव्यध्वनिनी शी वात! ए दिव्यध्वनिनो आ सार छे के जो तुं शुभरागथी धर्म थवो माने छे, शुभरागने पोतानो माने छे तो तुं पुद्गलने ज पोतानो माने छे अर्थात् तुं पोतानो ज (जीवनो ज) अभाव करे छे.

* गाथा ६२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

दया, दान, व्रत, तप, आदिनो विकल्प-राग जे पर्यायमां प्रगट थाय छे ते पुद्गलद्रव्यनी साथे तादात्म्यरूप छे, परंतु आत्मानी साथे तादात्म्यरूप नथी. आकरी वात, भाई. जीव-अजीव अधिकार छे ने! जीव तो अखंड अभेद पूर्ण ज्ञानानंदस्वरूप एकरूप छे. तेनी पर्यायमां आ जे राग, भेद, आदि थाय छे ते पुद्गलनी साथे संबंध राखे छे


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एम कहे छे. अहीं तो त्रिकाळी स्वभाव अने स्वभावनी द्रष्टि बताववी छे ने? तेथी कहे छे के-आ राग अने भेद आदिना भाव जेम पुद्गलनी साथे संबंध राखे छे तेम जीवनी साथे पण संबंध राखे छे एम मानो तो जीव अने पुद्गलमां कोई भेद न रहे. चैतन्यमय भगवान आत्माना शुद्ध स्वभावमां रागादि छे ज नहीं. तेथी रागादिनो संबंध पुद्गल साथे गणीने, पोतानो अभेदस्वभाव भिन्न बताव्यो छे.

वर्णथी मांडीने गुणस्थान सुधीना बधाय भावोने जेम पुद्गलनी साथे तादात्म्य संबंध छे तेम जीवनी साथे पण तादात्म्यपणुं होय तो जीव अने पुद्गलमां कोई भेद रहेतो नथी. आम थवाथी जीवनो ज अभाव थाय. चैतन्यप्रकाशनी मूर्ति झळहळज्योति-स्वरूप भगवान आत्मा अंदर शाश्वत बिराजे छे. ते ज्ञायक चैतन्यज्योतिने रागादि साथे तादात्म्य होय तो आत्मा अचेतन थई जाय एम कहे छे. जेम शरीर, कर्म, आदि पुद्गल अचेतन छे तेम शुभराग पण अचेतन छे. व्यवहार रत्नत्रयनो राग पण अचेतन छे अने पुद्गलनी साथे तादात्म्यरूपे छे, केमके रागमां चैतन्यस्वभावनो अभाव छे. छठ्ठी गाथानी टीकामां पण आवे छे के ज्ञायकस्वभावी चैतन्यज्योत कदीय शुभाशुभभावोना स्वभावे जडपणे थती नथी. गाथा ७२मां पण ए शुभाशुभभावरूप आस्रवोने विपरीत स्वभाववाळा एटले जड कह्या छे. आवी चिन्मात्र वस्तु एकरूप आत्मा छे ते रागरूपे केम थाय? राग छे तो जीवनी पर्यायमां, अने ते चारित्रगुणनी दोषरूप विपरीत पर्याय छे, परंतु स्वभावनी द्रष्टिथी त्रिकाळी झळहळ चैतन्यज्योतिस्वरूप भगवान आत्माने जोतां ते भिन्न अचेतनपणे जणाय छे. माटे राग जेम पुद्गलथी तद्रूप छे तेम जो आत्माथी तद्रूप छे एम मानो तो आत्मा अचेतन थई जाय. भाई, जैनदर्शन बहु सूक्ष्म छे.

अहाहा! चैतन्यप्रकाशनुं पूर प्रभु आत्मा छे. तेमां व्यवहाररत्नत्रयनो राग पण समातो नथी, व्यापतो नथी, केमके राग छे ते पुद्गलनी साथे तादात्म्यपणे छे. तेथी जीवने रागथी संबंध छे एम जो कहो तो जीव पुद्गलमय थई जाय, अचेतन थई जाय. स्वपरप्रकाशक चेतन्यज्योतिस्वरूप आत्मा रागने प्रकाशे छे, जाणे छे, पण ते रागरूप थतो नथी. भाई! आ समजवा माटे परथी घणा उदासीन थवुं जोईए. अहीं कहे छे के अचेतन राग पुद्गलथी एकरूप छे माटे एनाथी तुं उदास थई जा. प्रभु! ए तारी चीज नथी तेथी अंतर्मुख थई तारुं आसन ज्ञायकस्वरूप चैतन्यमूर्ति भगवानमां जमावी दे. जो तुं रागथी तादात्म्य संबंध करवा जईश तो तुं अचेतन थई जईश अने तेथी तारो-जीवनो ज अभाव थई जशे एवो महादोष आवशे. आकरी वात, भगवान! पण वात तो आ ज छे.

[प्रवचन नं. १३प-१३६ (चालु १९मी वारनां) * दिनांक १३-११-७८ थी १प-११-७८]

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संसारावस्थायामेव जीवस्य वर्णादितादात्म्यमित्यभिनिवेशेऽप्ययमेव दोषः–

अह संसारत्थाणं जीवाणं तुज्झ होंति वण्णादी।
तम्हा संसारत्था जीवा रूवित्तमावण्णा।। ६३ ।।
एवं पोग्गलदव्वं जीवो तहलक्खणेण मूढमदी।
णिव्वाणमुवगदो वि य जीवत्तं णोग्गलो पत्तो।। ६४ ।।

अथ संसारस्थानां जीवानां तव भवन्ति वर्णादयः।
तस्मात्संसारस्था जीवा रूपित्वमापन्नाः।। ६३ ।।

एवं पुद्गलद्रव्यं जीवस्तथालक्षणेन मूढमते।
निर्वाणमुपगतोऽपि च जीवत्वं पुद्गलः प्राप्तः।। ६४ ।।

_________________________________________________________________

हवे, ‘मात्र संसार-अवस्थामां ज जीवने वर्णादिक साथे तादात्म्य छे’ एवा अभिप्रायमां पण आ ज दोष आवे छे एम कहे छेः-

वर्णादि छे संसारी जीवना एम जो तुज मत बने,
संसारमां स्थित सौ जीवो पाम्या तद्रा रूपित्वने; ६३.
ए रीत पुद्गल ते ज जीव, हे मूढमति! समलक्षणे,
ने मोक्षप्राप्त थतांय पुद्गलद्रव्य पाम्युं जीवत्वने! ६४.

गाथार्थः– [अथ] अथवा जो [तव] तारो मत एम होय के [संसारस्थानां जीवानां] संसारमां स्थित जीवोने ज [वर्णादयः] वर्णादिक (तादात्म्यस्वरूपे) [भवन्ति] छे, [तस्मात्] तो ते कारणे [संसारस्थाः जीवाः] संसारमां स्थित जीवो [रूपित्वम् आपन्नाः] रूपीपणाने पाम्या; [एवं] एम थतां, [तथालक्षणेन] तेवुं लक्षण तो (अर्थात् रूपीपणुं लक्षण तो) पुद्गलद्रव्यनुं होवाथी, [मूढमते] हे मूढबुद्धि! [पुद्गलद्रव्यं] पुद्गलद्रव्य ते ज [जीवः] जीव ठर्युं [च] अने (मात्र संसारअवस्थामां ज नहि पण) [निर्वाणम् उपगतः अपि] निर्वाण पाम्ये पण [पुद्गलः] पुद्गल ज [जीवत्वं] जीवपणाने [प्राप्तः] पाम्युं!