Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 56-60.

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पुद्गलना परिणाम छे अने तेथी अनुभूतिथी भिन्न छे. आत्मा अखंड, अभेद शुद्धचैतन्यघनवस्तु छे. वर्तमान पर्यायने ध्रुव तरफ ढाळतां अभेद वस्तु जणाय छे पण आ विशुद्धिस्थानना भेदो तेमां देखाता नथी. अहाहा! शुद्ध द्रव्यने ध्येय बनावतां जे निर्मळ ध्याननी वर्तमान पर्याय उदित थई एमां आ व्यवहाररत्नत्रयना शुभभाव देखाता नथी. शुभभाव ध्याननी अनुभूतिथी भिन्न रही जाय छे. माटे ते शुभराग जीवना नथी. तेथी ते लक्ष करवा योग्य नथी. वर्तमान अवस्था अंदर ध्रुव, अभेद चैतन्यसामान्य तरफ वळतां, भले ते अवस्थामां ‘आ ध्रुव, अभेद चैतन्यसामान्य छे’-एवो विकल्प नथी पण एवुं ज्ञान- श्रद्धाननुं निर्मळ परिणमन छे अने ते अनुभूति छे. ए अनुभूतिमां शुभभावना भेदो आवता नथी पण भिन्न रही जाय छे. तेथी शुभभाव जीवने नथी एम अहीं कह्युं छे.

२७. हवे जे चारित्रनी प्राप्ति छे, संयमलब्धिनां स्थान छे ते बधांय जीवने नथी एम कहे छे. चारित्रनी-संयमनी जे निर्मळ पर्यायो छे ते भेदरूप छे. ज्यारे आत्मा अखंड अभेद द्रव्य छे. तेथी अभेद द्रव्यस्वरूप जीवमां आ चारित्रना भेदो नथी एम कह्युं छे. अहीं निमित्त, राग अने भेदनुं पण लक्ष करवा योग्य नथी एम कहेवुं छे. अंदर पूर्ण परमात्मा चैतन्यदेव साक्षात् स्वस्वरूपे बिराजमान छे. तेना तरफ ढळतां, वर्तमान पर्यायने तेमां ढाळी एकाग्र करतां जे स्वानुभूति प्रगट थाय छे ते स्वानुभूतिमां संयमना भेदो आवता नथी, भिन्न रही जाय छे. कोईने लागे के आ तो एकांत छे, एकलुं निश्चय-निश्चय छे. पण बापु! निश्चय एटले ज सत्य अने व्यवहार तो उपचार छे. आ तो सम्यक् एकांत छे. वीतरागदेवे प्ररूपेलो मार्ग आवो ज छे. त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यने ध्येय बनावी प्रगट थती ध्याननी दशामां ‘आ ध्यान अने आ ध्येय’ एवो भेद-विकल्प पण रहेतो नथी. द्रष्टिनो विषय जे शुद्ध आत्मा तेमां संयमलब्धिनां स्थानो नथी तथा शुद्ध आत्माने विषय करनारी द्रष्टि जे अनुभूति तेमां पण ते संयमलब्धिना भेदो जणाता नथी, भिन्न ज रही जाय छे. भाई! वीतरागनो मार्ग बहु झीणो छे. तेमां वादविवाद करे कांई पार पडे एम नथी. भगवान! अंदर भगवाननी पासे जवुं छे त्यां वादविवाद केवा?

अहीं संयमलब्धिनां स्थानोने पुद्गलना परिणाम कह्या छे. तेमां क्षयोपशम चारित्र पण आवी गयुं. पर्याय तरफनुं लक्ष छोडाववा अने त्रिकाळी वस्तु छे त्यां लक्ष-पर्यायने ढाळवा अहीं संयमलब्धिना परिणामने पुद्गलना कह्या छे. अथवा बीजी रीते कहीए तो ते संयमनां- निर्मळ परिणामनां स्थानो उपर लक्ष जतां विकल्प थाय छे. माटे तेने पुद्गलना परिणाम कह्या छे. अंतर्मुख पुरुषार्थ वधवाथी क्रमे क्रमे संयमनी दशा वधे छे. परंतु अहीं कहे छे के ते दशा जीवने नथी. केम? कारण के जे अनुभूतिनी पर्याय द्रव्यमां ढळे छे तेमां ते दशा-स्थानो-भेदो रहेता नथी, एटले के अनुभवमां आवता नथी.


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जेम निमित्त पर चीज छे, ते ‘आ जीव’ नहि होवाथी अजीव छे. तथा जेम रागमां चैतन्यनो अंश नथी तेथी ते अजीव छे, तेम आ भेदने पण अजीव कह्या छे. केम के भेदनुं लक्ष करतां राग ज एटले अजीव ज उत्पन्न थाय छे तेथी भेदने अजीव पुद्गलना परिणाम कह्या छे. आ अजीव अधिकार छे. तेथी जे जीव नथी, जीवमां नथी तेने पुद्गलना परिणाम कह्या छे. भाई! बहार डोकियां मारे छे तो अंदर जा ने! अंदर आनंदनो नाथ अनादि-अनंत, अविचळ, त्रिकाळी ध्रुव चैतन्य भगवान छे तेने जो ने! तेने जोतां संयमलब्धिना भेदो जणाशे नहि. आवी वात छे.

संयमलब्धिनां स्थानो एटले के क्रमे क्रमे निर्मळतानी प्राप्तिनां स्थानो, क्रमे क्रमे रागनी निवृत्ति अने वीतराग संयमना परिणामोनी प्राप्तिनां जे स्थानो, भेदो छे ते बधाय जीवद्रव्यने नथी. केम? तो कहे छे के शुद्ध द्रव्य उपर पर्याय वाळतां अनुभूतिमां ते आवता नथी.

प्रश्नः– आ तो आपे कोई नवो मार्ग काढयो छे?

उत्तरः– प्रभु! आ तो अनादिनो मार्ग छे. अनादिनो आ ज मार्ग छे; नवो नथी. अरे! आ मार्गना भान विना तुं ८४ना अवतार करीने मरी गयो छे. तने परिचय नथी तेथी नवो लागे छे; पण शुं थाय? बापु! निमित्तनी द्रष्टिथी, शुभरागनी द्रष्टिथी अने भेदनी द्रष्टिथी तो विकार ज उत्पन्न थाय छे. अने तेना फळमां चार गतिमां रखडवानुं-रझळवानुं ज थाय छे. अहीं तो कहे छे के शुद्ध जीवद्रव्यना आश्रये जे निर्मळतानां परिणामो, संयमलब्धिनां परिणामो उत्पन्न थाय छे ते पर्यायरूपे तो छे पण ते द्रव्यमां नथी. अहा! आवो मार्ग अनादिनो छे. जेने हित करवुं होय तेने समजवो पडशे. भेद द्रव्यमां नथी, पण कोने एनुं साचुं ज्ञान थाय? जेने द्रव्यद्रष्टि थाय, द्रव्य अनुभूतिमां जणाय तेने एम जणाय के भेद द्रव्यमां नथी. भाई! आ अनुभवनी चीज कांई वादविवादे पार पडे एम नथी.

प्रश्नः– तत्त्वार्थसूत्रमां सम्यग्दर्शन निसर्ग अने अधिगम एम बन्ने रीतथी थाय छे. छतां आप कहो छो के एक (निसर्ग)थी ज थाय छे. ए केवी रीते?

समाधानः– प्रभु! ध्यान दईने सांभळने भाई! सम्यग्दर्शननी पर्याय, वर्तमान पर्यायने अंतरमां वाळतां प्रगट थाय छे. त्यारे निमित्त के रागनुं पण लक्ष रहेतुं नथी. अधिगमथी एटले निमित्त उपर लक्ष राखीने समक्ति थाय छे एवो अर्थ नथी. वर्तमान परिणाम अंतःतत्त्वमां वळे छे त्यारे सम्यग्दर्शनना परिणाम थाय छे. अने त्यारे भेदरूप भाव (जे परिणाममां छे) ते पण सम्यग्दर्शनना परिणामनो विषय रहेतो नथी. अधिगमथी सम्यग्दर्शन थाय छे एम जे कह्युं छे ते निमित्तनुं ज्ञान कराव्युं छे. ते अधिगम


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सम्यग्दर्शन पण स्वभावनी द्रष्टिथी ज थाय छे, परंतु निमित्तनुं ज्ञान कराववा तेने अधिगम सम्यग्दर्शन कहे छे.

प्रश्नः– जो निमित्तथी कांई न थाय तो अधिगमथी सम्यग्दर्शन थाय छे एम शा माटे कह्युं छे?

उत्तरः– ए तो निमित्तनी उपस्थितिमां श्रवण कर्युं हतुं के-‘अहो! तुं शुद्धात्मा छो’ ए बताववा कह्युं छे. श्री अमृतचंद्राचार्ये कह्युं छे के अमारा गुरुए अमने शुद्धात्मानो उपदेश आप्यो हतो. त्यां उपदेश आप्यो एवुं पहेलां लक्ष हतुं. पण पछी ते लक्ष छोडीने ज्यारे शुद्धात्मानी सन्मुख थाय छे त्यारे अनुभूति थाय छे. त्यारे निमित्तनुं लक्ष रहेतुं नथी. अधिगमथी सम्यग्दर्शन थाय छे एम जे कह्युं छे ते निमित्तथी कथन कर्युं छे. बाकी जेने सम्यग्दर्शन थाय छे तेने स्वभावना आश्रये ज थाय छे. निमित्तना आश्रये नहि.

२८. पर्याप्त तेम ज अपर्याप्त एवां बादर ने सूक्ष्म एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय अने संज्ञी तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय जेमनां लक्षण छे एवां जे जीवस्थानो ते बधांय जीवने नथी. गजब वात छे! बधांय जीवस्थानो जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय छे तेथी अनुभूतिथी भिन्न छे. अभेद शुद्ध वस्तुमां भेद नथी. केमके अभेदना ध्यानमां ते भेद अंदर आवता नथी.

शंकाः– शास्त्र वांचतां ज्ञान थाय छे एम नथी. एटले के निमित्तथी ज्ञान थतुं नथी तो आप शास्त्र शा माटे वांचो छो? शास्त्र तो निमित्त छे, परद्रव्य छे. अने आ ज (समयसार ज) केम वांचो छो? बीजां शास्त्रो केम वांचता नथी? माटे निमित्तमां कांईक विशेषता तो छे ज.

समाधानः– भगवान! निमित्तथी कांई न थाय. भाई! तने निमित्तथी थाय छे एम केम सूझे छे? निमित्तथी लाभ थवानुं तो दूर रहो, अहीं तो कहे छे के ज्यां सुधी निमित्तनुं लक्ष छे त्यांसुधी विकल्प छे अने ते विकल्प पुद्गलना परिणाममय छे, कारण के अंतरमां लक्ष जाय छे त्यारे ते विकल्पना परिणाम अनुभूतिमां आवता नथी. अहाहा! जे सांभळ्‌युं छे ते पोतानी ज्ञाननी पर्याय छे अने ते पर्याय पोताथी (जीवथी) थई छे, निमित्तथी के वाणीथी थई नथी. छतां ते परलक्षी ज्ञाननी पर्याय पण, निर्मळ पर्यायने अंतरमां वाळतां, पर तरीके रही जाय छे. भाई! आ तो जेने अंतरनी वात समजवी होय तेने माटे छे. ते समजवा पण केटलो पुरुषार्थ जोईए!

२९. मिथ्याद्रष्टि अर्थात् विपरीत द्रष्टिना परिणाम ते पहेलुं गुणस्थान, सासादन सम्यग्द्रष्टि ते बीजुं गुणस्थान, सम्यग्मिथ्याद्रष्टि मिश्र ते त्रीजुं गुणस्थान, असंयत


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सम्यग्द्रष्टि ते चोथुं गुणस्थान छे. अहा! परिणामने द्रव्यमां वाळतां ते असंयत सम्यग्द्रष्टिना परिणाम पण लक्षमां रहेता नथी. अविरत सम्यग्द्रष्टिपणुं-सम्यक्त्व पण पर्याय छे. अने पर्याय उपर लक्ष जतां तो राग ज थाय छे. तेथी अहीं कहे छे के असंयतसम्यग्द्रष्टिपणुं पण पुद्गलना परिणाम छे. अहाहा! परिणाम ज्यारे अंतरमां वळे छे त्यारे असंयत सम्यक्त्वना परिणाम पण अनुभूतिमां आवता नथी. एकमात्र अभेद वस्तु अनुभूतिमां आवे छे, जणाय छे.

संयतासंयत ते श्रावकनुं पांचमुं गुणस्थान, प्रमत्तसंयत ते छठ्ठुं गुणस्थान, अप्रमत्तसंयत ते सातमुं गुणस्थान, अपूर्वकरण ते आठमुं गुणस्थान छे. तेमां उपशम अने क्षपक बन्नेय लेवां. अनिवृत्तिकरण-उपशम अने क्षपक ते नवमुं गुणस्थान, सूक्ष्मसांपराय-उपशम अने क्षपक ते दशमुं गुणस्थान, उपशांतकषाय ते अगियारमुं गुणस्थान, क्षीणकषाय ते बारमुं गुणस्थान, सयोग केवळी ते तेरमुं अने अयोग केवळी ते चौदमुं गुणस्थान छे. आ गुणस्थानो छे ते मोह अने योगना भेदथी बने छे. आवा भेदलक्षणवाळा जे गुणस्थानो छे ते बधांय जीवने नथी. जीवद्रव्यमां भेद नथी अने द्रव्यनो अनुभव करतां तेमां पण भेद आवतो नथी. माटे भेद बधोय पुद्गलनो छे. भाई! आ तो अलौकिक अद्भुत मार्ग छे! बापु! भवसिंधुने तरवानो आ उपाय छे. ४८ना अवतार ए मोटो भवसिंधु छे. चैतन्यसिंधु भगवान आत्माने आश्रये जतां ए भवसिंधु तरी जवाय छे. पर्यायना आश्रये तराय एम नथी.

वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, संस्थान आदि जडपणुं तो जीवने नथी, पण शुभराग पण जीवने नथी केमके रागमां चैतन्यनो अभाव छे. अहीं तो विशेष कहे छे के भेदमां पण चैतन्यनो अभाव होवाथी भेद पण जीवने नथी. त्रिकाळी भगवान आत्मामां ते सघळा भेदो नथी. तथा आत्माना आश्रये प्रगट थती अनुभूतिमां पण ते भेदो आवता नथी. आवी वात छे, भाई. एक अक्षर फरतां आखी वात फरी जाय एम छे. बापु! आ तो वीतराग परमेश्वर त्रिलोकनाथनी दिव्यध्वनि छे. अनुभूतिनी जे पर्याय द्रव्य उपर ढळी छे ते अभेद एकरूप आत्माने ज जुए छे, एने अभेदमां भेद भासतो नथी. तेथी भेदने पुद्गलना परिणाम कह्या छे.

आ प्रमाणे उपरोक्त बधाय भावो पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी जीवने नथी. जीव तो परमात्मस्वरूप चैतन्यशक्ति-स्वभावमात्र छे.

हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश ३७ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

वर्ण–आद्याः जे रंग, गंध आदि बाह्य पदार्थो वा अथवा राग–मोह–आदयः वा राग-मोहादिक अभ्यंतर भावाः परिणामो छे ते सर्वे एव बधाय अस्य पुंसः


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पुरुषथी-आत्माथी भिन्नाः भिन्न छे. आ बधाय भावो भगवान आत्माने नथी. तेन एव तेथी अन्तः तत्त्वतः पश्यतः अंतर्द्रष्टि वडे जोनारने, शुद्ध अंतःतत्त्वनी अनुभूति करनारने अमी नो द्रष्टाः स्युः ए बधा देखाता नथी. अहा! आवुं तत्त्व पकडाय-समजाय नहि एटले अज्ञानी बाह्य व्रत-तपने, क्रियाकांडने धर्म मानी ले छे. परंतु भाई! तुं भूलो पडयो छे. जे मार्गे जवानुं हतुं ते मार्गे गयो नहि अने जे मार्गथी खसवानुं हतुं ते खोटा मार्गे तुं चढी गयो छे. अंदर भगवान आनंदनो नाथ पूर्ण स्वरूपे ज्यां छे त्यां जवुं छे, नाथ! तेने प्राप्त करवो छे, प्रभु! तो ते ज्यां छे त्यां जा ने! तने ते अवश्य प्राप्त थशे. शुं ते पर्यायमां, रागमां, निमित्तमां के भेदमां छे के त्यां तुं शोधे छे? (त्यां नथी, भाई!)

ज्ञायकभावने अर्थात् चैतन्यशक्ति-स्वभावभावने अंतर्द्रष्टि वडे जोतां ते बधा भेद भावो देखाता नथी. अहाहा! वर्तमान पर्याय अंतर्मुख थई चिदानंदघनमय शुद्ध अंतः तत्त्वने ज्यां जुए छे त्यां ए बधा भेदो अनुभूतिमां जणाता नथी. आवो मार्ग छे, प्रभु!

प्रश्नः– पण तेनुं (मार्ग प्राप्त करवानुं) कांई साधन छे के नहीं? के एम ने एम प्राप्त थाय छे?

उत्तरः– साधन छे ने. प्रज्ञाछीणी वा आत्मानुभव ए साधन छे. व्यवहारना विकल्प जे छे ए कोई एनुं साधन छे ज नहि. रागथी भिन्न पडवानुं साधन बहार नथी. अंतर्द्रष्टि ए साधन छे. अहा! सांसारिक धंधामां केटकेटली सावधानी राखे? एमां केटला उल्लसित परिणाम होय छे? अने अहीं ज्यां भगवानमां जवुं छे त्यां उल्लास न मळे, सावधानी न मळे तो मार्ग केम प्राप्त थाय?

अहीं कहे छे के शुद्ध अंतःतत्त्वमां भेदो नथी. शुभराग अने निमित्तनी वात तो कयांय दूर रही गई. ए तो स्थूळ बहिर्तत्त्व छे. अंतःतत्त्व एवुं जे द्रव्य अर्थात् चैतन्यस्वभाव तेने जोनार-अनुभवनार पर्यायने एमां भेद भासता नथी, एकं परं द्रष्टं स्यात् मात्र एक सर्वोपरि तत्त्व ज देखाय छे. एटले के केवळ एक चैतन्यभावस्वरूप अभेद आत्मा ज देखाय छे. भाई! आ तो एकला माखणनी वात छे!

अहो! शुं समयसारनी शैली! शुं तेनी अगाधता! शुं तेनी भाषा! कोईने एम थाय के एकला समयसारनी ज प्रशंसा करे छे. बापु! एम अर्थ न थाय, भाई. अमने ते सर्व भावलिंगी संतोनां शास्त्र पूज्य छे. दर्शनसारमां दिगंबर मुनिराज श्री देवसेनाचार्य कहे छे के- प्रभो! (कुंदकुंदाचार्यदेव) आप महाविदेहक्षेत्रमां जईने जो आ वस्तु न लाव्या होत तो अमे धर्म केम पामत? एटले शुं एमना गुरु पासे कांई न हतुं एम अर्थ थाय? भाई! एम नथी. अहा! साक्षात् अरिहंत परमात्मा बिराजे छे त्यां प्रभु आप गया अने आ वात लाव्या-एम त्यां प्रमोद बताव्यो छे. एथी करीने (आ वचन वडे) पोताना गुरुनो


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अनादर कर्यो छे वा पोताना गुरुनी परंपरामां कांई न हतुं एवो अर्थ न थाय. श्री कुंदकुंदाचार्यनी अधिक्ता-विशेषता भासी छे तेथी बहुमानथी एम कह्युं छे. कवि श्री वृंदावनदासजीए पण कह्युं छे के-कुंदकुंदाचार्य समान थया नथी, छे नहि अने थशे नहि. ‘हुए, न हैं, न होंहिंगे मुनिंद कुंदकुंदसे.’ एटले शुं बीजा मुनिओनो एमां अनादर करे छे एवो अर्थ छे? जे विशेषता द्वारा पोतानो उपकार थयो तेने ते वर्णवे छे.

अहीं कहे छे के-द्रष्टि अंतर्मुख थतां एक उत्कृष्ट वस्तु, अभेद चैतन्यसामान्य ज अनुभवाय छे, देखाय छे, जणाय छे. अलबत, ते अभेदने अवलोके छे तो वर्तमान पर्याय, पण ते पर्याय भेदने अवलोक्ती नथी, एक अभेदने ज अवलोके छे.

* कळश ३७ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

परमार्थनय अभेद ज छे. तेथी ते द्रष्टिथी जोतां भेद देखातो नथी. परमार्थनयनी द्रष्टिमां आत्मा एक चैतन्यमात्र ज देखाय छे. परमार्थद्रष्टि पर्यायना भेदोने स्वीकारती नथी. एटले व्यवहारनय छे ज नहि एम नथी. नय छे ते ज्ञान छे अने जो ज्ञान छे तो तेनो विषय केम न होय? माटे व्यवहारनयनो विषय जे भेद ते छे. परंतु भाई! ते आश्रय करवा लायक नथी. माटे तेनो अहीं निषेध कर्यो छे.

आ शास्त्रनी टीकाना चोथा कळशमां आवे छे के-निश्चयनय अने व्यवहारनयने विषयनी अपेक्षाए विरोध छे. तथा भगवाने तो एक शुद्ध त्रिकाळी जीवने ज उपादेय कह्यो छे. जिन वचसि रमन्ते-एनो अर्थ कळशटीकाकारे आवो कर्यो छे के-‘आसन्नभव्य जीवो दिव्यध्वनि द्वारा कही छे उपादेयरूप शुद्ध जीववस्तु तेमां सावधानपणे रुचि-श्रद्धा-प्रतीति करे छे. विवरण-शुद्ध जीववस्तुनो प्रत्यक्षपणे अनुभव करे छे तेनुं नाम रुचि-श्रद्धा-प्रतीति छे.’ जिनवचनमां रमवुं एम जे कह्युं छे तेनो अर्थ ए थाय छे के जिनवचनमां जे त्रिकाळी शुद्ध जीववस्तुने उपादेय कही छे तेमां रमवुं; परंतु उभयनयमां-विरुद्ध बन्ने नयोमां रमवुं एवो अर्थ नथी. जिनवचनमां निश्चय अने व्यवहार बन्ने नय कह्या छे. परंतु बन्ने नयमां न रमाय. कां तो अज्ञानपणे व्यवहारनयना विषयमां रमाय अथवा ज्ञानपणे अंतरना विषयमां रमाय.

मोक्षमार्गप्रकाशकना सातमा अधिकारमां आवे छे के-‘जिनमतमां निश्चय अने व्यवहार बे नय कह्या छे माटे अमारे ए बन्ने नयोनो अंगीकार करवो, ए प्रमाणे विचारी जेम केवळ निश्चयाभासना अवलंबीओनुं कथन कर्युं हतुं ए प्रमाणे तो ते निश्चयनो अंगीकार करे छे तथा जेम केवळ व्यवहाराभासना अवलंबीओनुं कथन कर्युं हतुं तेम व्यवहारनो अंगीकार करे छे; जोके ए प्रमाणे अंगीकार करवामां बन्ने नयोमां परस्पर विरोध छे, तोपण करे शुं? कारण बन्ने नयोनुं साचुं स्वरूप तेने भास्युं नथी अने जैनमतमां बे नय कह्या छे तेमां कोईने छोडयो पण जतो नथी तेथी


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भ्रमपूर्वक बन्ने नयोनुं साधन साधे छे; ए जीवो पण मिथ्याद्रष्टि जाणवा.’ बहु सरस खुलासो छे.

अहीं कहे छे के निश्चयनयनी द्रष्टिमां चैतन्यमात्र ज आत्मा देखाय छे. अहाहा! अंतर्द्रष्टि करनारने परम एटले उत्कृष्ट लक्ष्मीवाळो भगवान आत्मा, सर्वोपरि एकरूप चैतन्यतत्त्व ज देखाय छे. एक अभेदनी द्रष्टिमां भेद जणाता नथी. भाई! अंदर आखुं चैतन्यरत्न पडयुं छे. तेनो महिमा करी तेनी द्रष्टि अनंतकाळमां करी नहि अने व्यवहारनो महिमा करी करीने जन्म-मरणना ८४ना चक्करमां रखडी रह्यो छे.

अनुभवमां आत्मा अभेद ज जणाय छे. माटे ते वर्णादि अने रागादि भावो पुरुषथी- आत्माथी भिन्न ज छे.

आ वर्णथी मांडीने गुणस्थान पर्यंतना जे भावो छे तेमनुं स्वरूप विस्तारथी जाणवुं होय तो गोम्मटसार आदि ग्रंथोमांथी जाणी लेवुं.

[प्रवचन नं. ९९ थी १०४ * दिनांक १८-६-७६ थी २३-६-७६]

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ननु वर्णादयो यद्यमी न सन्ति जीवस्य तदा तन्त्रान्तरे कथं सन्तीति प्रज्ञाप्यन्ते इति चेत्–

ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया।
गुणठाणंता भावा ण दु केई णिच्छयणयस्स।। ५६ ।।

व्यवहारेण त्वेते जीवस्य भवन्ति वर्णाद्याः।
गुणस्थानान्ता भावा न तु केचिन्निश्चयनयस्य।। ५६ ।।

_________________________________________________________________

हवे शिष्य पूछे छे के जो आ वर्णादिक भावो जीवना नथी तो अन्य सिद्धांतग्रंथोमां ‘ते जीवना छे’ एम केम कह्युं छे? तेनो उत्तर गाथामां कहे छेः-

वर्णादि गुणस्थानांत भावो जीवना व्यवहारथी,
पण कोई ए भावो नथी आत्मा तणा निश्चय थकी. प६.

भावार्थः– [एते] [वर्णाद्याः गुणस्थानान्ताः भावाः] वर्णथी मांडीने गुणस्थान पर्यन्त भावो कहेवामां आव्या ते [व्यवहारेण तु] व्यवहारनयथी तो [जीवस्य भवन्ति] जीवना छे (माटे सूत्रमां कह्या छे), [तु] परंतु [निश्चयनयस्य] निश्चयनयना मतमां [केचित् न] तेमनामांना कोई पण जीवना नथी.

टीकाः– अहीं, व्यवहारनय पर्यायाश्रित होवाथी, सफेद रूनुं बनेलुं वस्त्र जे कसुंबा वडे रंगायेलुं छे एवा वस्त्रना औपाधिक भाव (-लाल रंग)नी जेम, पुद्गलना संयोगवशे अनादि काळथी जेनो बंधपर्याय प्रसिद्ध छे एवा जीवना औपाधिक भाव (-वर्णादिक) ने अवलंबीने प्रवर्ततो थको, (ते व्यवहारनय) बीजाना भावने बीजानो कहे छे; अने निश्चयनय द्रव्यना आश्रये होवाथी, केवळ एक जीवना स्वाभाविक भावने अवलंबीने प्रवर्ततो थको, बीजाना भावने जरा पण बीजानो नथी कहेतो, निषेध करे छे. माटे वर्णथी मांडीने गुणस्थान पर्यंत जे भावो छे ते व्यवहारथी जीवना छे अने निश्चयथी जीवना नथी एवुं (भगवाननुं स्याद्वादवाळुं) कथन योग्य छे.

* श्री समयसार गाथा प६ः मथाळुं *

हवे शिष्य पूछे छे के जो आ वर्णादिक भावो जीवना नथी तो अन्य सिद्धांतग्रंथोमां ‘ते जीवना छे’ एम केम कह्युं छे? तत्त्वार्थसूत्रमां तो राग-द्वेष आदि उदयभावने जीवना कह्या छे. अने आप कहो छो के ते जीवने नथी. तो ए केवी रीते छे? तेनो उत्तर गाथामां कहे छेः-


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* गाथा प६ः टीका उपरनुं प्रवचन *

व्यवहारनय पर्यायाश्रित छे. एटले के पर्यायना आश्रये व्यवहारनय होय छे. जेम सफेद रूनुं बनेलुं वस्त्र सफेद ज छे, परंतु कसुंबा वडे रंगायेलुं ते (लाल) रंगसहित छे. (लाल) रंग छे ते जेम वस्त्रनो औपाधिक भाव छे, तेम अनादिकाळथी पुद्गलना संयोगवशे जीवने बंधपर्याय प्रसिद्ध छे, ते जीवनो औपाधिक भाव छे. जीव तो त्रिकाळ शुद्ध चैतन्यस्वभावी वस्तु छे. परंतु अनादिकाळथी कर्म पुद्गलना संयोगवशे तेने बंध पर्याय छे, रागादि सहित अवस्था छे. ए जीवनो औपाधिक भाव छे. आवा औपाधिकभावने अवलंबीने प्रवर्ततो व्यवहारनय, बीजाना भावने बीजानो कहे छे. जेमके-सफेद वस्त्र कसुंबाना रंगे रंगायुं होय त्यारे रंग ते वस्त्रनो औपाधिकभाव छे, ते भाव बीजानो (कसुंबानो) छे छतां व्यवहारनय ते भावने- वस्त्रनो भाव छे-एम कहे छे. तेम जीव तो शुद्ध चैतन्यमात्र वस्तु छे अने आ वर्णादि भावो छे ते औपाधिक भाव छे अने ते बीजाना-अजीवना छे. छतां व्यवहारनय, ते वर्णादिभावने जीवना भाव कहे छे. आ प्रमाणे औपाधिकभावने अवलंबीने प्रवर्ततो व्यवहारनय बीजाना भावने बीजानो कहे छे.

ज्यारे निश्चयनय द्रव्यना आश्रये छे. जोयुं? पहेलां व्यवहारनयने पर्यायाश्रित कह्यो हतो, अने हवे निश्चयनय द्रव्यना आश्रये-त्रिकाळी वस्तुना आश्रये छे एम कह्युं. अर्थात् निश्चयनय, केवळ एक जीवना स्वाभाविक भावने अवलंबीने प्रवर्ते छे एम कह्युं. त्रिकाळी ज्ञायकभाव ते जीवनो केवळ एक स्वभावभाव छे. आवा जीवना केवळ एक स्वाभाविक भावने अवलंबीने प्रवर्ततो होवाथी निश्चयनय, बीजाना भावने जरापण बीजानो कहेतो नथी. निश्चयनय द्रव्यना आश्रये प्रवर्ततो होवाथी औपाधिकभावनो निषेध करे छे. माटे वर्णथी मांडीने गुणस्थान सुधीना जे भावो छे ते बधाय व्यवहारनयथी तो जीवना छे, परंतु निश्चयथी तेओ जीवने नथी. आवुं भगवाननुं जे स्याद्वादयुक्त कथन छे ते योग्य छे.

प्रश्नः– बे नय छे तो बन्ने आदरवा जोईए ने?

उत्तरः– ना, एम नथी. व्यवहारनय जाणवा लायक छे. ज्यारे निश्चयनय आदरवा लायक छे.

(पहेलां २९ बोल द्वारा कह्या ते) वर्णथी मांडीने गुणस्थान पर्यंत जे भावो छे ते बधाय पर्याय अपेक्षाए व्यवहारथी जीवना छे. छतां वस्तुना स्वभावनी द्रष्टिथी जोतां निश्चयथी ते जीवमां नथी. आनुं नाम स्याद्वाद छे. इति युक्ता प्रज्ञप्तिः एम पाठमां छे ने? एटले के व्यवहारथी (पर्यायमां) छे, परंतु निश्चयथी जीववस्तुमां नथी एवुं वीतरागनुं (स्याद्वादवाळुं) कथन छे ते योग्य छे, बराबर छे, यथार्थ छे.

[प्रवचन नं. १०४ (शेष) १०प * दिनांक २३-६-७६ अने २४-६-७६]

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कुतो जीवस्य वर्णादयो निश्चयेन न सन्तीति चेत्–

एदेहिं य संबंधो जहेव खीरोदयं मुणेदव्वो।
ण य होंति तस्स ताणि दु उवओगगुणाधिगो जम्हा।। ५७ ।।
एतैश्च सम्बन्धो यथैव क्षीरोदकं ज्ञातव्यः।
न च भवन्ति तस्य तानि तूपयोगगुणाधिको यस्मात्।। ५७ ।।

_________________________________________________________________

हवे वळी पूछे छे के वर्णादिक निश्चयथी जीवना केम नथी तेनुं कारण कहो. ते प्रश्ननो उत्तर कहे छेः-

आ भाव सह संबंध जीवनो क्षीरनीरवत् जाणवो;
उपयोगगुणथी अधिक तेथी जीवना नहि भाव को. प७.

गाथार्थः– [एतैः च सम्बन्धः] आ वर्णादिक भावो साथे जीवनो संबंध [क्षीरोदकं यथा एव] जळने अने दूधने एकक्षेत्रावगाहरूप संयोगसंबंध छे तेवो [ज्ञातव्यः] जाणवो [च] अने [तानि] तेओ [तस्य तु न भवन्ति] ते जीवना नथी [यस्मात्] कारण के जीव [उपयोगगुणाधिकः] तेमनाथी उपयोगगुणे अधिक छे (-उपयोगगुण वडे जुदो जणाय छे).

टीकाः– जेम-जळमिश्रित दूधनो, जळ साथे परस्पर अवगाहस्वरूप संबंध होवा छतां, स्वलक्षणभूत जे दूधपणुं-गुण ते वडे व्याप्त होवाने लीधे दूध जळथी अधिकपणे प्रतीत थाय छे; तेथी, जेवो अग्निनो उष्णता साथे ताद्रात्म्यस्वरूप संबंध छे तेवो जळ साथे दूधनो संबंध नहि होवाथी, निश्चयथी जळ दूधनुं नथी; तेवी रीते-वर्णादिक पुद्गलद्रव्यना परिणामो साथे मिश्रित आ आत्मानो, पुद्गलद्रव्य साथे परस्पर अवगाहस्वरूप संबंध होवा छतां, स्वलक्षणभूत उपयोगगुण वडे व्याप्त होवाने लीधे आत्मा सर्व द्रव्योथी अधिकपणे प्रतीत थाय छे; तेथी, जेवो अग्निनो उष्णता साथे तादात्म्यस्वरूप संबंध छे तेवो वर्णादिक साथे आत्मानो संबंध नहि होवाथी, निश्चयथी वर्णादिक पुद्गलपरिणामो आत्माना नथी.


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* श्री समयसार गाथा–प७ मथाळुं *

हवे वळी पूछे छे के वर्णादिक निश्चयथी जीवना केम नथी? ए रंग, गंध अने गुणस्थान आदि निश्चयथी केम जीवना नथी तेनुं कारण कहो. ते प्रश्ननो उत्तर कहे छेः-

* गाथा प७ः टीका उपरनुं प्रवचन *

जेम-जळमिश्रित दूधनो, जळ साथे परस्पर अवगाहस्वरूप संबंध छे. एटले के पाणीमां दूध अने दूधमां पाणी एम परस्पर भेगा रहेवानो अवगाहरूप संबंध छे. छतां स्वलक्षणभूत जे दूधपणुं-गुण ते वडे व्याप्त होवाने लीधे दूध, जळथी अधिकपणे प्रतीत थाय छे. दूधनुं स्वलक्षण दूधपणुं जे गुण छे ते वडे व्याप्त होवाने लीधे दूध, जळथी भिन्न प्रतीतमां आवे छे एम कहे छे. अधिक एटले जुदुं, भिन्न. तेथी जेवो अग्निनो उष्णता साथे तादात्म्यस्वरूप संबंध छे तेवो जळ साथे दूधनो संबंध नथी. जळने तथा दूधने परस्पर अवगाहसंबंध छे, पण अग्नि-उष्णतानी जेम तादात्म्यस्वरूप संबंध नथी. माटे निश्चयथी जळ, दूधनुं नथी.

तेवी रीते-आत्मा अने रंग-गंध आदि पुद्गल, राग-द्वेषादि विकार तथा गुणस्थान आदि भेद-ने परस्पर एकबीजाने अवगाहस्वरूप संबंध होवा छतां, स्वलक्षणभूत उपयोगगुण वडे व्याप्त होवाने लीधे आत्मा सर्वथी अधिक एटले जुदो प्रतीति थाय छे. भगवान आत्मा जाणन-देखनरूप उपयोगगुण वडे बीजाथी अधिक एटले जुदो छे. जेम दूधपणा वडे दूध, जळथी भिन्न छे तेम उपयोगगुण वडे आत्मा सर्व अन्यभावोथी भिन्न छे. जेम अग्नि अने उष्णतानो तादात्म्यस्वरूप संबंध छे तेम भगवान आत्माने वर्णथी मांडी गुणस्थानांत भावो साथे तादात्म्यस्वरूप संबंध नथी. बन्ने वच्चे अवगाह संबंध छे, पण तादात्म्य संबंध नथी. माटे निश्चयथी वर्णथी मांडी गुणस्थान पर्यंतना भावो, आत्माना नथी. जाणवुं, जाणवुं, जाणवुं एवो जे जीवनो स्वभाव छे ते वडे जीव राग, द्वेष तथा गुणस्थान आदि भेदना भावोथी भिन्न छे. अहाहा! उपयोगरूप जे त्रिकाळी स्वभाव छे तेनुं पर्यायमां लक्ष थतां, उपयोग वडे ते परथी जुदो पडे छे.

निश्चयथी त्रिकाळ उपयोग अर्थात् ज्ञानगुण ते जीवनुं स्वभावभूत लक्षण छे. गाथा ३१मां आवी गयुं छे के-ज्ञानस्वभाव वडे आत्मा अधिक छे. परंतु त्रिकाळ ज्ञानस्वभाव वडे ते परथी जुदो छे एनो निर्णय कोण करे छे? स्वभाव तरफ ढळेली पर्याय एम निर्णय करे छे के आ आत्मा ज्ञानगुण वडे परथी अधिक-जुदो छे. त्रिकाळी जीवनुं लक्षण त्रिकाळ उपयोग छे, पण उपयोगलक्षण जीव छे एम जाणे छे कोण? त्रिकाळ उपयोग कांई न जाणे. (ए तो अक्रिय छे). परंतु एमां ढळेली पर्याय जाणे छे के उपयोगलक्षण जीव छे. अहाहा! आ तो द्रव्य-गुण अने पर्यायनी व्याख्या स्पष्ट करे छे.


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शास्त्रमां आवे छे के-जीवनुं उपयोगलक्षण नित्य छे. पण नित्य उपयोग-लक्षणनो निर्णय करनार पर्याय छे. उपयोग अर्थात् जाणवाना स्वभाव वडे भगवान आत्मा रागादि भावोथी भिन्न छे, जुदो छे. परंतु रागादिथी आत्माने जुदो करनार गुण नथी, पण अनुभूतिनी पर्याय छे. ४९ मी गाथामां अव्यक्तना बोलमां आव्युं हतुं के-‘चित्सामान्यमां चैतन्यनी सर्व व्यक्तिओ निमग्न (अंतर्भूत) छे माटे अव्यक्त छे.’ भगवान आत्मामां पर्यायो अंतर्लीन छे. परंतु पर्यायो जेमां अंतर्लीन छे एवा अव्यक्तनो निर्णय तो व्यक्त पर्याय ज करे छे.

अहीं कहे छे के दूध अने जळ एक जग्याए परस्पर व्यापीने अवगाह संबंध होवा छतां, दूधना गुणथी-लक्षणथी जोईए तो जळथी दूध जूदुं छे एम जणाय छे. तेम आत्मा अने पुण्य, पाप, दया, दान, व्रत, आदिना विकल्पो अवगाह संबंधनी अपेक्षाए एक जग्याए व्यापेला होवा छतां, स्वभावनी शक्तिथी जोईए तो, आत्मा ज्ञानगुण वडे रागादिथी जुदो छे, अधिक छे, एम जणाय छे. रागथी भिन्न पडीने परिणति ज्यारे ज्ञायक उपर लक्ष मांडे छे त्यारे ते उद्धत (स्वतंत्र) परिणति वडे आत्मा रागथी भिन्न खरेखर अनुभवाय छे. आ रागथी-परथी भिन्न-अधिक छुं एवो अनुभव गुणमां कयां छे? एवो अनुभव तो पर्यायमां छे.

जेम द्रष्टांतमां ‘स्वलक्षणभूत दूधपणुं-गुण’ एम लीधुं हतुं तेम सिद्धांतमां ‘स्वलक्षणभूत उपयोग-गुण एम लीधुं छे. आ आत्मा अने पुण्य-पाप, गुणस्थान आदि भावो एक अवगाहनाए व्यापेला होवा छतां, स्वलक्षणभूत उपयोग-गुणथी जोतां, अर्थात् परिणति अंतरमां ढळे छे त्यारे, ते भावो ज्ञानथी-आत्माथी भिन्न जणाय छे. तेथी आ सर्व अन्य भावो पर्यायमां छे छतां द्रव्यमां नथी एम कहे छे. आवी वातो छे! आम आत्मा सर्व द्रव्योथी अने सर्व भावोथी अधिकपणे प्रतीत थाय छे.

जेम दूधना मीठाश गुण वडे, दूध तथा जळ एक जग्याए व्यापेलां होवा छतां, दूध जळथी भिन्न जणाय छे. तेम भगवान आत्मा ज्ञान-उपयोग गुण वडे, स्वभावभाव वडे परथी भिन्न देखाय छे. पण ते जाणे छे तो पर्याय. अर्थात् आत्मा परथी जुदो छे एवो निर्णय पर्याय करे छे. आ ज्ञानगुण वडे भगवान आत्मा परथी जुदो छे एवो जेने अनुभूतिनी पर्यायमां निर्णय थयो छे तेने आत्मा जुदो छे एम खरेखर जाणवामां आवे छे, कारण के त्रिकाळ जे उपयोग गुण छे एमां जाणवुं कयां थाय छे? द्रव्य-गुण तो ध्रुव, कूटस्थ छे, अक्रिय छे. एमां कोई क्रिया, परिणमन, बदलवुं नथी. क्रिया तो


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परिणति-पर्यायमां छे. रागनी क्रिया तो द्रव्य-गुणमां नथी. पण निर्मळतानी क्रिया पण द्रव्य- गुणमां नथी. क्रिया पर्यायमां छे, तेथी जे पर्याय अंदर द्रव्यस्वभाव तरफ वळे छे ते पर्याय एम नक्की करे छे के उपयोगगुण वडे आत्मा सर्व परद्रव्योथी भिन्न छे, अधिक छे. आवी माखण-माखणनी वात छे.

अज्ञानीने तो बहारनी हो-हामांथी धर्म प्राप्त करवो छे. थोडुं दान आपे के एकाद मंदिर बनावी भगवाननी प्रतिष्ठा करे एटले जाणे के धर्म थई गयो. तेने अहीं कहे छे के-भाई! बहारनुं तो थवा काळे त्यां (बहार) थाय छे, एनाथी तारो भाव जुदो छे अने वर्तमानमां तने थयेला विकल्प-रागथी तुं भगवान जुदो छो. अहाहा! पोतानुं लक्षण जे जाणक उपयोग छे एवा गुण वडे आत्मा व्याप्त होवाने लीधे ते सर्वद्रव्योथी अधिकपणे प्रतीत थाय छे. आत्माने वर्णादि साथे अवगाह संबंध छे, पण अग्नि-उष्णतानी जेम तादात्म्यम संबंध नथी. अहाहा! आ जे व्यवहाररत्नत्रयनो राग छे तेनी साथे आत्माने अवगाह संबंध छे पण तादात्म्य संबंध नथी. तेथी स्वलक्षणभूत ज्ञान-गुणथी जोवामां आवे तो आत्मा वर्णादिथी अने व्यवहाररत्नत्रयना रागथी अधिक एटले भिन्न जणाय छे. पर्याय ज्यां स्वभाव तरफ ढळी त्यां स्वभावनुं, गुणस्थान आदि भेदथी भिन्नपणुं भासे छे. आ प्रमाणे रागादि साथे आत्माने तादात्म्यपणुं नहि होवाथी निश्चयथी रागादि सर्व पुद्गलना परिणाम छे, परंतु आत्माना परिणाम नथी. भाई! आ कोई धारी राखे एनी वात नथी, पण अनुभव करे एनी वात छे.

अहीं बे प्रकारना संबंधनी वात करी छे. (१) अवगाह संबंध. (२) तादात्म्य संबंध. भगवान आत्माने रागादि साथे अवगाह संबंध छे, पण आत्माने जेवो ज्ञानगुण साथे तादात्म्य संबंध छे तेवो रागादि साथे संबंध नथी. बीजी रीते कहीए तो आत्माने रागादि साथे एकरूपता नथी अर्थात् बन्ने वच्चे सांध-संधि छे. तेथी ज्ञाननी पर्यायने स्वभावमां वाळतां बन्ने जुदा पडी जाय छे. आ दया, दान, व्रत, आदि जे विकल्पो छे एनी साथे आत्माने एक्ता नथी, संधि छे. माटे ज्ञाननी पर्याय ज्यां स्वरूपनुं लक्ष करी अंदर ढळी त्यां ते विकल्पो भिन्न पडी जाय छे. पर्यायमां आवो अनुभव थवो ते सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान छे.

आ प्रमाणे वर्णादिथी मांडीने गुणस्थान पर्यंतना सर्व भावो पुद्गलना परिणामो छे पण आत्माना नथी. व्यवहारथी पर्यायनये तेओ जीवना छे छतां निश्चयथी द्रव्यनये तेओ जीवना नथी एवो स्याद्वाद छे. आनुं नाम स्याद्वाद छे. व्यवहारनये जीवना छे अने निश्चयथी पण जीवना छे-ए स्याद्वाद नथी. तथा व्यवहार जूठो छे कारण के ते वस्तुमां नथी. कळशटीकामां अनेक स्थान पर व्यवहारने जूठो कह्यो छे. सत्य वस्तु तो त्रिकाळी शुद्ध चित्स्वरूप आत्मा छे. एनी अपेक्षाए आ सर्व व्यवहारना भावो जूठा


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छे केमके ते मूळ वस्तुभूत नथी. वस्तुना अंतरमां-स्वरूपमां विकारी भावो छे ज नहि. माटे तेओ जूठा छे. परंतु ए भेदो वास्तविकपणे जूठा कयारे थाय? के ज्यारे ज्ञाननी पर्याय स्वरूप तरफ वळी अंतर्निमग्न थाय त्यारे.

पर्याय तरीके तो ए भेदो छे, पण आत्माना चैतन्यस्वरूपमां तेओ नथी. तेथी वर्णादि भावो व्यवहारथी छे, पण निश्चयथी आत्माना नथी एवो यथार्थ स्याद्वाद छे. ते प्रमाणे निमित्त छे, पण निमित्तथी (उपादानमां) कार्य थतुं नथी ए स्याद्वाद छे. बनारसीदासे कह्युं छे ने के- ‘नहि निमित्तको दाव.’-निमित्तनो कदी दाव आवतो ज नथी. कार्तिकेय स्वामीए एक गाथामां कह्युं छे के-पूर्व-परिणामयुक्त द्रव्य ते कारण छे अने उत्तरपरिणामयुक्त द्रव्य ते कार्य छे तो पछी निमित्त (पर द्रव्य) कारण छे ए कयां रह्युं? व्यवहारथी कहेवुं होय तो पूर्व परिणाम कारण अने उत्तर परिणाम कार्य कहेवाय. तथा निश्चयथी जोईए तो, ए ज परिणाम कारण अने ए ज परिणाम कार्य छे.

[प्रवचन नं १०प (चालु) * दिनांक २४-६-७६]


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कथं तर्हि व्यवहारोऽविरोधक इति चेत्–

पंथे मुस्संतं पस्सिदूण लोगा भणंति ववहारी।
मुस्सदि एसो पंथो ण य पंथो मुस्सदे कोई।। ५८ ।।

तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदुं वण्णं।
जीवस्स एस वण्णो जिणेहिं ववहारदो उत्तो।। ५९ ।।

गंधरसफासरूवा देहो संठाणमाइया जे य।
सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसंति।। ६० ।।
पथि मुष्यमाणं द्रष्टवा लोका भणन्ति व्यवहारिणः।
मुष्यते एष पन्था न च पन्था मुष्यते कश्चित्।। ५८ ।।

तथा जीवे कर्मणां नोकर्मणां च द्रष्टवा वर्णम्।
जीवस्यैष वर्णो जिनैर्व्यवहारत उक्तः।। ५९ ।।

गन्धरसस्पर्शरूपाणि देहः संस्थानादयो ये च।
सर्वे व्यवहारस्य च निश्चयद्रष्टारो व्यपदिशन्ति।। ६० ।।

_________________________________________________________________

हवे वळी पूछे छे के आ रीते तो व्यवहारनय अने निश्चयनयने विरोध आवे छे; अविरोध कई रीते कहेवामां आवे छे? तेनो उत्तर द्रष्टांत द्वारा त्रण गाथाओमां कहे छेः-

देखी लूंटातुं पंथमां को, ‘पंथ आ लूंटाय छे’–
बोले जनो व्यवहारी, पण नहि पंथ को लूंटाय छे; प८.
एम वर्ण देखी जीवमां कर्मो अने नोकर्मनो,
भाखे जिनो व्यवहारथी ‘आ वर्ण छे आ जीवनो’. प९.
एम गंध, रस, रूप, स्पर्श ने संस्थान, देहादिक जे,
निश्चय तणा द्रष्टा बधुं व्यवहारथी ते वर्णवे. ६०.

गाथार्थः– [पथि मुष्यमाणं] जेम मार्गमां चालनारने लूंटातो [द्रष्ट्वा]


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देखीने [एषः पन्था] आ मार्ग [मृष्यते] लूंटाय छे’ एम [व्यवहारिणः] व्यवहारी [लोकाः] लोको [भणन्ति] कहे छे; त्यां परमार्थथी विचारवामां आवे तो [कश्चित् पन्था] कोई मार्ग तो [न च मुष्यते] नथी लूंटातो, मार्गमां चालनार माणस ज लूंटाय छे; [तथा] तेवी रीते [जीवे] जीवमां [कर्मणां नोकर्मणां च] कर्मोनो अने नोकर्मोनो [वर्णम्] वर्ण [द्रष्ट्वा] देखीने [जीवस्य] जीवनो [एषः वर्णः] आ वर्ण छे’ एम [जिनैः] जिनदेवोए [व्यवहारतः] व्यवहारथी [उक्तः] कह्युं छे. [गन्धरसस्पर्शरूपाणि] ए प्रमाणे गंध, रस, स्पर्श, रूप, [देहः संस्थानादयः] देह, संस्थान आदि [ये च सर्वे] जे सर्व छे, [व्यवहारस्य] ते सर्व व्यवहारथी [निश्चयद्रष्टारः] निश्चयना देखनारा [व्यपदिशन्ति] कहे छे.

टीकाः– जेम व्यवहारी लोको, मार्गे नीकळेला कोई सार्थने (संघने) लूंटातो देखीने, सार्थनी मार्गमां स्थिति होवाथी तेनो उपचार करीने, ‘आ मार्ग लूंटाय छे’ एम कहे छे, तोपण निश्चयथी जोवामां आवे तो, जे आकाशना अमुक भागस्वरूप छे एवो मार्ग तो कोई लूंटातो नथी; तेवी रीते भगवान अर्हंतदेवो, जीवमां बंधपर्यायथी स्थिति पामेलो (रहेलो) कर्म अने नोकर्मनो वर्ण देखीने, (कर्म-नोकर्मना) वर्णनी (बंधपर्यायथी) जीवमां स्थिति होवाथी तेनो उपचार करीने, ‘जीवनो आ वर्ण छे’ एम व्यवहारथी जणावे छे, तोपण निश्चयथी, सदाय जेनो अमूर्त स्वभाव छे अने जे उपयोगगुण वडे अन्यद्रव्योथी अधिक छे एवा जीवनो कोई पण वर्ण नथी. ए प्रमाणे गंध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान, संहनन, राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबंधस्थान, संकलेशस्थान, विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान, जीवस्थान अने गुणस्थान-ए बधाय (भावो) व्यवहारथी अर्हंतदेवो जीवना कहे छे, तोपण निश्चयथी, सदाय जेनो अमूर्त स्वभाव छे अने जे उपयोगगुणवडे अन्यथी अधिक छे एवा जीवना ते सर्व नथी, कारण के ए वर्णादि भावोने अने जीवने तादात्म्यलक्षण संबंधनो अभाव छे.

भावार्थः– आ वर्णथी मांडीने गुणस्थान पर्यंत भावो सिद्धांतमां जीवना कह्या छे ते व्यवहारनयथी कह्या छे; निश्चयनयथी तेओ जीवना नथी कारण के जीव तो परमार्थे उपयोगस्वरूप छे.

अहीं एम जाणवुं के-पहेलां व्यवहारनयने असत्यार्थ कह्यो हतो त्यां एम न समजवुं के ते सर्वथा असत्यार्थ छे, कथंचित् असत्यार्थ जाणवो; कारण के ज्यारे एक द्रव्यने जुदुं, पर्यायोथी अभेदरूप, तेना असाधारण गुणमात्रने प्रधान करीने कहेवामां आवे त्यारे परस्पर द्रव्योनो निमित्तनैमित्तिकभाव तथा निमित्तथी थता पर्यायो-ते सर्व गौण थई जाय छे, एक


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अभेदद्रव्यनी द्रष्टिमां तेओ प्रतिभासता नथी. माटे ते सर्व ते द्रव्यमां नथी एम कथंचित् निषेध करवामां आवे छे. जो ते भावोने ते द्रव्यमां कहेवामां आवे तो ते व्यवहारनयथी कही शकाय छे. आवो नयविभाग छे.

अहीं शुद्धनयनी द्रष्टिथी कथन छे तेथी एम सिद्ध कर्युं छे के आ सर्व भावोने सिद्धान्तमां जीवना कह्या छे ते व्यवहारथी कह्या छे. जो निमित्तनैमित्तिकभावनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो ते व्यवहार कथंचित् सत्यार्थ पण कही शकाय छे. जो सर्वथा असत्यार्थ ज कहेवामां आवे तो सर्व व्यवहारनो लोप थाय अने सर्व व्यवहारनो लोप थतां परमार्थनो पण लोप थाय. माटे जिनदेवनो उपदेश स्याद्वादरूप समज्ये ज सम्यग्ज्ञान छे, सर्वथा एकांत ते मिथ्यात्व छे.

* श्री समयसार गाथा प८–प९–६० मथाळुं *

एक नय कहे छे के वर्णादि भावो जीवना छे अने बीजो नय कहे छे के ते जीवना नथी. आ रीते तो व्यवहारनय अने निश्चयनयने विरोध आवे छे; अविरोध केवी रीते कहेवामां आवे छे? अमारे तेनो निर्णय शी रीते करवो? तेनो उत्तर द्रष्टांत द्वारा त्रण गाथाओमां कहे छेः-

* गाथा प८–प९–६०ः टीका उपरनुं प्रवचन *

जेम-व्यवहारी लोको मार्गे नीकळेला संघने लूंटातो देखीने ‘आ मार्ग लूंटाय छे’ एम कहे छे. संघनी मार्गमां तेटली वार उपस्थिति होय छे तेथी तेनो उपचार करीने ‘आ मार्ग लूंटाय छे’ एम लौकिकमां कहे छे. ‘संघ लूंटाय छे’ एम कहेवाने बदले ‘मार्ग लूंटाय छे’ एम केम कह्युं? ए तो संघनी मार्गमां थोडो काळ स्थिति छे ते देखीने, तेनो उपचार करीने ‘आ मार्ग लूंटाय छे’ एम कह्युं छे. तोपण जो निश्चयथी जोवामां आवे तो, जे आकाशना अमुक भागस्वरूप छे एवो मार्ग तो कोई लूंटातो नथी. मार्ग शुं लूंटाय? लूंटाय छे तो माणसो. तेवी रीते भगवान अर्हंतदेवो, जीवमां बंधपर्यायथी स्थिति पामेला कर्म अने नोकर्मनो वर्ण देखीने, व्यवहारथी जणावे छे के-‘जीवनो आ वर्ण छे.’ रागनो तथा कर्मनो जीव साथे संबंध देखी अर्थात् जीवमां ते प्रकारे स्थिति होवाथी, उपचार करीने कहे छे के ‘जीवनो आ वर्ण छे.’

अहा! केवो सरस दाखलो आप्यो छे! मार्ग तो लूंटातो नथी, पण मार्गमां तेटलो काळ रहेलो संघ लूंटाय छे; अने तेनो उपचार करीने ‘मार्ग लूंटाय छे’ एम कहेवाय छे. तेम भगवान आत्मा तो त्रिकाळी आनंदनो नाथ नित्यानंदस्वरूप चैतन्य प्रभु ध्रुव छे. अने ते चैतन्य ध्रुव प्रवाह सदाकाळ एवो ने एवो ज छे. परंतु तेनी पर्यायमां, राग अने कर्मनो संबंध छे. ते समय पूरतो पर्यायनो संबंध देखीने, तेनो उपचार करीने, कर्म अने राग जीवना छे एम व्यवहारथी कहेवामां आवे छे.


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आ कर्म, नोकर्म अने रागादि बंधपर्यायथी जीवमां स्थिति पामेल छे. एटले के ए कर्म अने रागादिनो संबंध पर्यायमां एक समय पूरतो छे. वर्तमान पर्यायमां एक समय माटे कर्म अने रागनो संबंध छे. ते संबंध एक सयमनो ज छे. बीजे समये बीजो संबंध थाय छे, अने त्रीजे समये त्रीजो; पण ते एक समय पूरतो ज संबंध थाय छे. तेथी आटलो संबंध देखीने, जेम मार्ग लूंटातो नथी छतां मार्ग लूंटाय छे एम आरोपथी कहेवाय छे तेम, भगवान आत्माने कर्म अने रागादि नथी छतां व्यवहारथी ते आत्माने छे एम कहेवाय छे. निश्चयथी तो आत्मा सदाय अमूर्तस्वभावी अने उपयोगगुण वडे अन्यद्रव्योथी अधिक छे, जुदो छे. तेथी अमूर्तस्वभावी अने उपयोगगुण वडे अन्यद्रव्योथी अधिक एवा जीवने कोई पण वर्ण आदि नथी. निश्चयथी अंदर परमार्थ वस्तुने-चैतन्य ध्रुव प्रवाहने जोतां तेमां वर्ण आदि कांई नथी.

मार्ग तो मार्गमां छे, आकाशमां छे. ते मार्ग (आकाश) कांई लूंटाय छे? (ना). पण संघ जे थोडो काळ मार्गमां ऊभो छे ते काळे लूंटाय छे तेथी ‘मार्ग लूंटाय छे’ एम आरोपथी कह्युं छे. तेवी रीते भगवान आत्मा नित्यानंद प्रभु ज्ञायक ध्रुव एवो ने एवो छे. एनो-ध्रुव चैतन्यनो प्रवाह तो अनादि-अनंत एम ने एम ज छे. परंतु तेनी एक समयनी पर्यायमां राग तथा कर्मनो संबंध देखी, ते राग अने कर्म तेना छे एम व्यवहारथी कहेवामां आवे छे. परंतु मूळ चीजमां-आत्मामां तेओ निश्चयथी नथी. आत्माने अन्य कोई पण वस्तु साथे पर्यायमां एक समय पूरतो ज संबंध छे. शरीर, कर्म, राग, गुणस्थानना भेद इत्यादि साथे पण एक समय पूरतो ज संबंध छे. अहा! वस्तु तो वस्तुपणे त्रिकाळ छे. तेनी एक समयनी पर्यायमां वर्णादि साथे एक समय पूरतो संबंध देखी ते वर्णादि जीवना छे एम व्यवहारथी कहेवाय छे, छतां परमार्थे तेओ वस्तुभूत नहि होवाथी जीवना नथी.

जेवी रीते ‘जीवने वर्ण नथी’ एम कह्युं तेवी रीते गंध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान, संहनन, राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्व, प्रत्यय एटले आस्रव, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबंधस्थान, संकलेशस्थान, विशुद्धिस्थान अने संयमलब्धिनां स्थान पण जीवने नथी. तथा पर्याप्त, अपर्याप्त, संज्ञी, असंज्ञी आदि जे जीवस्थान छे ते जीवने नथी, पहेलां २९ बोल द्वारा जे भावो कह्या ते सघळाय एक समय पूरता जीवनी पर्यायमां छे, पण त्रिकाळी ध्रुव भगवान आत्मामां तेओ नथी. भगवान आत्मा तो चैतन्यना ध्रुव प्रवाहे ध्रुव-ध्रुव-ध्रुव एम ने एम ज अनादिअनंत रहेलो छे. तेने आ बधा भावो साथे पर्यायमां एक समय पूरतो ज जे संबंध छे ते देखीने तेओ जीवना छे एम अर्हंतदेवो व्यवहारथी कहे छे. तोपण निश्चयथी त्रिकाळी द्रव्यस्वभावनी अपेक्षाए तेओ जीवना छे ज नहि.


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निश्चयथी, सदाय जेनो अमूर्तस्वभाव छे अने जे उपयोग गुण वडे अन्यथी अधिक छे एवा आत्माने ते सर्व भावो नथी. जोयुं? उपरोक्त बधाय भावो मूर्त कह्या अने भगवान आत्मा अरूपी-अमूर्त वस्तु छे एम कह्युं. अहाहा! आत्मा जाणवाना स्वभाववाळुं अरूपी चैतन्यतत्त्व छे अने ते सर्व भेदनी पर्यायथी भिन्न छे एम कहे छे. गुणस्थान, जीवस्थान, मार्गणास्थान आदिनी, एक समयनी पर्यायमां स्थिति देखीने, तेओ जीवना छे एम व्यवहारथी कह्युं, छतां सदाय जेनो अमूर्त स्वभाव छे एवा चैतन्यभगवानमां तेओ नथी. आ भावो तो पहेलां पुद्गलना परिणाममय कह्या छे. तेथी तेओ मूर्त छे. अने भगवान आत्मा अरूपी- अमूर्त छे. तेथी त्रिकाळ अमूर्तस्वभावी आत्मा ते मूर्तभावोथी भिन्न छे, जुदो छे. अहाहा! शुं समयसार छे! कहे छे के-भेद, निमित्त, संसार, भूलनो संबंध तो एक समय पूरतो ज छे. भेदमां, भूलमां, संसारमां ते एक समय पूरतो ज अटकेलो छे. बस, आटलो ज एक समयनो संबंध जोईने ते जीवना छे एम व्यवहारथी कहेल छे. निश्चयथी, उपयोगगुण वडे जे सर्व अन्यथी अधिक छे ते आत्मामां भेद आदि छे ज नहि.

अनंतकाळथी-अनादिथी आत्मानी साथे राग, मिथ्यात्व छे. तेथी अज्ञानीने एम लागे छे के संसार तो जाणे अनंतकाळथी छे. तेने अहीं कहे छे के-भाई! संसार अनादिथी छे ते प्रवाहनी अपेक्षाए छे. बाकी खरेखर तो जीवने संसारनी साथे एक समय पूरतो ज संबंध छे. ८४ना अनंत अवतार कर्या तोपण संबंध एक समयनो ज छे. आ संयमलब्धिना भेदरूप भाव पण एक समय पूरता ज छे. तेओ वस्तुमां कयां छे? अहा! केवी शैली लीधी छे! आत्मानो सदाय अमूर्त स्वभाव छे अने ते उपयोगगुण वडे अन्य भावोथी भिन्न छे. माटे वर्तमान पर्यायने अंतरमां वाळतां, उपयोग गुण वडे ते जुदो पडी जाय छे, अर्थात् भेद साथे संबंध रहेतो नथी.

अनंतकाळथी प्रवाहरूप संसार भले हो, तोपण तेनी साथे जीवने अनंतकाळनो संबंध नथी, पण एक समयनो ज संबंध छे. त्रिकाळी भगवान आनंदनो नाथ चैतन्य महाप्रभु छे. तेने गमे तेटलो लांबो संसार हो, अरे ७० क्रोडाक्रोडी सागरोपम कर्मनी स्थिति हो, पण संबंधनी स्थिति तो एक समय पूरती छे. ज्ञानावरणीय कर्मनी स्थिति ३० क्रोडाक्रोडी सागरनी छे एम जे कह्युं छे ए तो आखो सरवाळो करीने कह्युं छे. बाकी संबंध तो एक समय पूरतो ज छे. राग हो, मिथ्यात्व हो, गुणस्थानना भेद हो के जीवस्थानना भेद हो, ए सर्व साथे एक समयनो ज संबंध छे. वर्तमान एक समयनो संबंध छे तेथी ते अपेक्षाए ते भेदो जीवना छे एम व्यवहारथी कह्युं; तथापि स्वभावनी द्रष्टिथी जोतां, ते भेदो निश्चयथी जीवने नथी. एक समयनी पर्यायना संबंधमां अटकेली द्रष्टि गुलांट खाईने, ज्ञानगुणे हुं अधिक छुं एम ज्यारे स्वभाव पर स्थिर थाय छे त्यारे, ते एक समयनो संबंध रहेतो नथी.


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आत्मानो सदाय अमूर्तस्वभाव छे अने ते उपयोगगुण वडे अन्यथी जुदो छे. माटे एक समयनी पर्यायमां अटकेला भावोथी ते जुदो छे. अर्थात् ते सर्व भावो जीवना नथी. अहा! निमित्त काढी नाख्युं, राग काढी नाख्यो अने भेदरूप पर्याय पण काढी नाखी. (अर्थात् ते जीवमां नथी). निमित्तनो संबंध एक समयनो, रागनो संबंध एक समयनो अने भेदरूप पर्यायनो संबंध पण एक समयनो आखो उकरडो-आ २९ बोल द्वारा कहेला भावोनो आखो उकरडो एक समयना संबंधे छे. आ संबंध पण पर्यायद्रष्टिथी जोतां छे; परंतु वस्तुद्रष्टिथी जोवामां आवे तो ते संबंध पण नथी केमके संयोग संबंध होवा छतां आत्माने ते सर्व भावो साथे तादात्म्य संबंध नथी. वर्णादि भावो अने जीवने तादात्म्य संबंधनो अभाव छे. काळो रंग आदि निमित्तभाव, विकार आदि रागभाव अने लब्धिस्थान आदि भेद-भाव-ते सर्व एक समयना भावो छे. तेमने अने आत्माने एक समयनी पर्यायमां संबंध होवाथी ते जीवना छे एम व्यवहारथी कह्युं छे तोपण ते भेदो, वस्तुद्रष्टिथी जोईए तो, द्रव्यनी साथे एकरूप थया ज नथी तेथी निश्चयथी ते जीवना नथी. आ प्रमाणे बे वात करी छे. व्यवहारथी आ भावो जीवना कह्या छे, पण निश्चयथी ते जीवना नथी. आवुं वस्तुनुं स्वरूप छे ते यथार्थ समजवुं जोईए.

* गाथा प८–प९–६०ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

आ वर्णथी मांडीने गुणस्थान पर्यंत भावो सिद्धांतमां जीवना कह्या छे ते व्यवहारनयथी कह्या छे. जुओ, भगवान आत्मा तो ज्ञानानंदस्वभावी शुद्ध चैतन्यघन वस्तु छे. तेनी वर्तमान पर्यायमां एक समय पूरतो आ वर्ण, राग, गुणस्थान आदि भेदनो संबंध छे. तेथी व्यवहारनयथी तेओ जीवना छे एम कह्युं छे केमके वर्तमान पर्यायमां तेमनुं अस्तित्व छे. परंतु निश्चयनयथी तेओ जीवना नथी कारण के जीव तो परमार्थे उपयोग स्वरूप छे. अहाहा! त्रिकाळी शुद्ध ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिथी जोतां ते गुणस्थान आदि भेदो साथे जीवने तद्रूपपणुं नथी, तादात्म्य नथी. तेथी ते सर्व भावो व्यवहारथी जीवना कह्या छे छतां निश्चयथी जीवना नथी. आवी वात छे.

अहीं एम जाणवुं के-पहेलां व्यवहारनयने असत्यार्थ कह्यो हतो त्यां एम न समजवुं के सर्वथा असत्यार्थ छे. शुं कहे छे? के आ राग, कर्मनो संबंध, गुणस्थान आदिना भेद जे छे ते पर्यायमां पण नथी एम न समजवुं. पर्यायपणे तो ते सर्व सत्यार्थ छे. त्रिकाळी द्रव्यनी अपेक्षाए एक समयनी दशाने असत्यार्थ कही छे, पण वर्तमान पर्यायनी अपेक्षाथी तो ते व्यवहार सत्य छे. माटे तेने (व्यवहारनयने) कथंचित् असत्यार्थ जाणवो.