Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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कर्मनो तो दोष छे नहि पण तारो ज दोष छे. तुं पोते तो महंत रहेवा इच्छे छे अने पोतानो दोष कमरदिकमां लगावे छे? पण जिनआज्ञा माने तो आवी अनीति संभवे नहि.’ जुओ विकार कर्मथी थाय छे एम माननारा अनीति करे छे. ए अनीति जैनदर्शनमां संभवित नथी. त्यां मोक्षमार्ग प्रकाशकमां एम कहेवुं छे के विकार थाय छे ते पोताना अपराधथी ज थाय छे, कर्मथी के निमित्तथी नहि. ज्यारे आ गाथामां अहीं एम कहे छे के जीवने विकार नथी केमके स्वानुभूति करतां विकारना परिणाम अने तेनुं निमित्त जे कर्म ते भिन्न रही जाय छे. तेथी आठेय कर्म जीवने नथी. अहीं स्वभावनी द्रष्टि कराववानुं प्रयोजन छे.

१४. जे छ पर्याप्तियोग्य अने त्रण शरीरयोग्य पुद्गलस्कंधरूप नोकर्म छे ते बधुंय जीवने नथी. आहार, शरीर, इन्द्रिय, भाषा, मन अने श्वासोच्छ्वास-एम छ पर्याप्तियोग्य जे पुद्गलस्कंधो छे तथा त्रण शरीरयोग्य जे पुद्गलस्कंधो छे ते नोकर्म छे. ते बधुंय जीवने नथी कारण के पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी पोतानी अनुभूतिथी भिन्न छे. चौद बोल थया.

१प. जे कर्मना रसनी शक्तिओना-अविभाग परिच्छेदोना समूहरूप वर्ग छे ते बधोय जीवने नथी केमके ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी पोतानी अनुभूतिथी भिन्न छे.

१६. जे वर्गोना समूहरूप वर्गणा छे ते बधीय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी पोतानी अनुभूतिथी भिन्न छे.

१७. जे मंदतीव्र रसवाळां कर्मदळोना विशिष्ट न्यासरूप-वर्गणाओना समूहरूप-स्पर्धको छे ते बधाय जीवने नथी. जीवनुं स्वरूप तो सच्चिदानंदशक्तिमय छे. निजस्वरूपमां झुकाव करतां परिणाममां आनंदनो अनुभव आवे छे. परंतु तेमां कर्मना वर्गो के वर्गणाना समूहनो अनुभव आवतो नथी. जड तो जीवथी भिन्न ज छे. आ कर्मना वर्ग अने वर्गणाओ जे छे ते पुद्गल छे. तेथी तेओ शुद्ध चैतन्यथी भिन्न ज छे. परंतु ते तरफना वलणनो जे भाव छे ते पण स्वानुभूतिथी भिन्न छे. ए जड तरफना वलणवाळी दशा स्वद्रव्यना वलणवाळा भावथी जुदी पडी जाय छे माटे वर्ग, वर्गणा अने स्पर्धको बधाय जीवने नथी.

१८. स्वपरना एकपणानो अध्यास एवा जे परिणाम ते अध्यात्मस्थानो अर्थात् अध्यवसाय छे. विशुद्ध चैतन्य-परिणामथी जुदापणुं जेमनुं लक्षण छे एवां ए अध्यात्म-स्थानो जीवने नथी. अध्यात्मस्थान एटले आत्मानां स्थान नहीं. स्वपरनी एक्ताबुद्धिना अध्यवसायने अध्यात्मस्थान कह्यां छे. ते अध्यात्मस्थानो बधांय जीवने नथी. ‘बधांय’ एम कह्युं छे ने? एटले स्वपरनी एक्ताबुद्धिना जेटला भाव छे ते बधांय जीवने नथी.


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‘विशुद्ध चैतन्यपरिणामथी’ एटले के स्वनी एक्ताना परिणामथी. आ पर्यायनी वात छे. स्वनी एक्ताना परिणामथी स्वपरनी एक्ताना परिणाम भिन्न छे.

बंध अधिकारना १७३मा कळशमां आवे छे के-हुं पर जीवनी रक्षा करुं, तेना प्राणनो नाश करुं, तेने सुख-दुःख आपुं एवो जे अध्यवसाय-स्वपरनी एक्ताबुद्धि-छे ते मिथ्यात्व छे. तेनो भगवाने निषेध कराव्यो छे. तेथी हुं-अमृतचंद्राचार्य एम समजु छुं के पर जेनो आश्रय छे एवो सघळोय व्यवहार छोडाव्यो छे. आचार्यदेव कहे छे के सर्व वस्तुओमां जे अध्यवसान थाय छे ते बधांय जिन भगवंतोए पूर्वोक्त रीते त्यागवा योग्य कह्यां छे तेथी अमे एम समजीए छीए के परना आश्रये जेटलो कोई व्यवहार थाय छे ते सघळोय भगवाने छोडाव्यो छे. आ महाव्रत, समिति, गुप्ति आदिना जे विकल्प छे ते व्यवहार छे अने ते परना आश्रय सहित छे. तेथी ते व्यवहार सघळोय छोडाव्यो छे. ‘तो पछी आ सत्पुरुषो एक सम्यक् निश्चयने ज निष्कंपपणे अंगीकार करीने शुद्धज्ञानघनस्वरूप निज महिमामां स्थिरता केम धरता नथी? आचार्य कहे छे के -आ प्रमाणे देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो भाव, पंचमहाव्रतनो भाव के व्यवहार रत्नत्रयनो भाव ए सघळोय त्याज्य छे तो पछी संतो एक निज शुद्ध चैतन्यमां ज लीन केम रहेता नथी? (निज चैतन्यमां ज लीन रहेवुं जोईए).

हुं परने जीवाडी शकुं, तेना प्राणनी रक्षा करी शकुं, परना प्राण हरी शकुं, अनुकूळता- प्रतिकूळता आपी शकुं, भूख्याने अनाज अने तरस्याने पाणी पहोंचाडी दउं तथा गरीबोने पहेरवा कपडां अने रहेवा मकान दई दउं एवी जे बुद्धि छे ते बधीय एकत्वबुद्धिरूप अध्यवसाय छे, मिथ्यात्व छे. बापु! हुं परने कांई आपी शकुं छुं ए वात ज जूठी छे. कोई परनुं कांई करी शक्तो ज नथी. आ प्रमाणे पर साथे एकताबुद्धिना भाव-अध्यवसाय ते बधाय निज चैतन्यद्रव्यमां ढळेला विशुद्ध चैतन्य-परिणामथी भिन्न छे कारण के तेओ पुद्गल द्रव्यना परिणाममय छे.

भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यस्वभावी वस्तु छे. ते एकनो आश्रय लईने स्वाश्रये जे परिणाम थाय छे ते विशुद्ध चैतन्य-परिणाम छे. ते चैतन्यपरिणामथी आ मिथ्या अध्यवसाय सघळाय भिन्न छे, जुदा छे. चैतन्यना विशुद्ध परिणाम थाय त्यां आ स्वपरनी एक्ताबुद्धिना अध्यवसाय भाव रहेता नथी एम अहीं कहेवुं छे. तेथी अध्यात्मस्थानो सघळाय जीवने नथी केमके तेओ पुद्गल परिणाममय होवाथी अनुभूतिथी भिन्न छे. स्वानुभूति थतां स्वपरनी एक्ताबुद्धिना सघळा परिणाम भिन्न पडी जाय छे, एटले अभावरूप थई जाय छे. आवी वात छे.

प्रश्नः– तमे तो (स्वरूपने) समजवुं, समजवुं, समजवुं, बस एटलुं ज कह्या करो छो? (बीजुं कांई करवानुं तो कहेता नथी.)


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उत्तरः– भाई! स्वरूपनी समजण विना ज अनंतकाळथी जीव संसारमां परिभ्रमण करे छे. श्रीमदे पण ए ज कह्युं छे ने केः-

‘सर्व जीव छे सिद्धसम, जे समजे ते थाय,
सद्गुरु आज्ञा जिनदशा, निमित्त कारण मांय.’

अहीं आ बोलमां एक विशेषता छे. बीजा बधा बोलमां समुच्चय लीधुं छे. जेमके ‘प्रीतिरूप राग छे ते बधोय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी अनुभूतिथी भिन्न छे.’ आ बोलमां जे स्वपरनी एक्ताबुद्धिना भाव-अध्यवसाय कह्या ते विशुद्ध चैतन्यपरिणामथी जुदा लक्षणवाळा कह्या छे. अहीं एम कहेवुं छे के निज स्वरूपना आश्रये जे विशुद्ध चैतन्यपरिणाम थाय तेमां आ मिथ्या अध्यवसाय आवता नथी, उपजता नथी, अभावरूप रहे छे. तथा अध्यवसायमां-स्वपरनी एक्ता-बुद्धिना भावमां विशुद्ध चैतन्यपरिणाम रहेता नथी, उपजता नथी. बीजा बोल करतां आमां आ विशेषता लीधी छे के स्वपरनी एक्ताबुद्धिमां चैतन्यना विशुद्ध परिणाम नथी अने चैतन्यना विशुद्ध परिणाम थतां स्वपरनी एक्ताबुद्धि रहेती नथी.

प्रश्नः– अमारे वेपार-धंधो करवो, कुटुंबादिनुं भरण-पोषण करवुं, ईज्जत-आबरू साचववी के पछी बस आ ज समजवुं?

उत्तरः– भाई! हित करवुं होय तो मार्ग तो आ ज छे, बापु! स्वपरना एकत्व- परिणमनमां तारी चडती देगडी उडी जाय छे ए तो जो हुं परनुं करी शकुं, वेपार करी शकुं, पैसा कमाई शकुं, पैसा राखी शकुं, बीजाने आपी शकुं, वापरी शकुं, कुटुंबनुं पोषण करी शकुं, परनी दया पाळी शकुं तथा आबरू साचवी शकुं, -इत्यादि जे स्वपरनी एक्ताबुद्धिना अध्यवसाय छे ते विशुद्ध चैतन्यना परिणामथी विलक्षण छे, जुदा छे. ए मिथ्या अध्यवसायनी हयातीमां शुद्ध चैतन्यपरिणाम उत्पन्न थता नथी ए तो जो. अहीं टीकामां कह्युं छे ने के- स्वपरना एकपणानो अध्यास होय त्यारे, विशुद्ध चैतन्यपरिणामथी जुदापणुं जेमनुं लक्षण छे एवां जे अध्यात्मस्थानो ते जीवने नथी केमके ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी अनुभूतिथी भिन्न छे.’ अध्यात्मस्थानो एटले आत्मानी निर्मळतानां स्थानो एम अर्थ नथी. अध्यात्मस्थानोनो अर्थ स्वपरनी एकत्वबुद्धिनो अध्यवसाय छे, ए अध्यवसाय विशुद्ध चैतन्यपरिणामथी जुदो छे. अरे, जुदापणुं ज तेनुं लक्षण छे. बहु सूक्ष्म वात! अहो! आवी वात दिगंबरोना शास्त्रो सिवाय बीजे कयांय नथी.

अध्यात्मस्थानो सघळाय जीवने नथी. केम नथी? तो कहे छे के तेओ विशुद्ध चैतन्यपरिणामथी जुदा लक्षणवाळा छे. चिदानंदघन भगवान आत्माना आश्रये जे स्वरूप


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एकत्वना विशुद्ध चैतन्यपरिणाम थाय ते, चैतन्यपरिणामथी जुदापणुं जेनुं लक्षण छे एवा स्वपरनी एकत्वबुद्धिना अध्यवसायोथी भिन्न छे. जुओ, विशुद्ध चैतन्यना परिणमनथी अध्यात्मस्थानोनुं जुदुं लक्षण छे एम कहीने पछी ते एकत्वबुद्धिना परिणाम अनुभूतिथी भिन्न छे एम कह्युं छे. (आशय एम छे के स्वपर एकत्वबुद्धि बनी रहे त्यांसुधी शुद्ध चैतन्यना परिणाम उपजे नहि अने निज शुद्धात्माना आश्रये स्वानुभूति प्रगट थतां एकत्वबुद्धिना परिणाम उपजता नथी.)

१९. जुदी जुदी प्रकृतिओना रसना परिणाम जेमनुं लक्षण छे एवां जे अनुभागस्थानो ते बधांय जीवने नथी. अनुभागस्थानो तो जडरूप छे, पण आत्मामां तेना निमित्ते जे भाव थाय छे ते पण खरेखर जीवने नथी. कर्मना अनुभागना निमित्ते आत्मामां जे परिणाम थाय छे ते अनुभागस्थानो छे, अने ते जीवने नथी. एकला जडना अनुभाग-स्थानोनी आ वात नथी. पर्यायमां कर्मना रसना निमित्ते जे भावो थाय ते अनुभागस्थानो छे. ते भाव छे तो पोतानी पर्यायमां पण तेने अहीं पुद्गलद्रव्यना परिणाममय गण्या छे. स्वभावनी द्रष्टिथी जोतां स्वभाव, विकारना अनुभागपणे परिणमे एवो नथी. आत्मद्रव्यमां कोई गुण के शक्ति एवां नथी जे विकाररूपे परिणमे. तथा निज आत्मद्रव्यनो अनुभव करतां ते (अनुभागस्थानो) अनुभूतिथी भिन्न रही जाय छे. तेथी अनुभागस्थानो बधांय जीवने नथी.

२०. कायवर्गणा, वचनवर्गणा अने मनोवर्गणानुं कंपन जेमनुं लक्षण छे एवां जे योगस्थानो ते बधांय जीवने नथी. आ वातने आपणे त्रण प्रकारे विचारीए.

प्रथम वातः– आत्मामां जे योगनुं कंपन छे तेने जीवना स्वभावनी अपेक्षाए पुद्गलना परिणाम कह्या छे. कंपन छे तो जीवनी पर्यायमां; छतां जीवना त्रिकाळी स्वभावनी द्रष्टिए तेने पुद्गलना परिणाममां गण्या छे.

बीजी वातः– समयसार सर्वविशुद्ध अधिकारनी ३७२ मी गाथामां आवे छे के दरेक द्रव्यना परिणाम पोताथी थाय छे. जेम घडो माटीथी थाय छे, कुंभारथी एटले निमित्तथी नहि; तेम जीवद्रव्यनी कंपन के रागनी पर्याय जे ते समये स्वतंत्र पोताना कारण थाय छे, निमित्तना कारणे नहि. त्यां अशुद्ध उपादानथी उत्पन्न थयेली दशा पोतानी छे एम सिद्ध कर्युं छे. त्यारे अहीं शुद्ध उपादाननी द्रष्टिए ते कंपनना परिणाम पुद्गलना छे एम कह्युं छे.

हवे त्रीजी वातः– स्वयंभूस्तोत्रमां बाह्य अने अभ्यंतर एम बे कारणथी कार्य थाय छे एम आवे छे. हवे कार्य तो अभ्यंतर कारणथी ज थाय छे. परंतु कार्यकाळे जोडे निमित्त कोण छे एनुं त्यां ज्ञान कराववानुं प्रयोजन छे तेथी बीजुं बाह्य कारण पण कह्युं छे. जेम निश्चय स्वभावनुं भान थतां भूतार्थना आश्रये सम्यग्दर्शन थाय ए


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निश्चय कह्यो; तथा पर्यायमां जे अशुद्धता-अपूर्णता छे तेने जाणवी ते व्यवहारनय कह्यो. तेम जीव द्रव्यमां कंपन के रागनी उत्पत्ति स्वतः (पोताथी) थाय छे, परथी नहि; अने ते परिणाम पोताना ज छे. छतां बाह्य कारणथी थाय छे एम कहेवुं ए निमित्तनुं ज्ञान करावनारुं व्यवहारनुं कथन छे. एमां निश्चयथी पर्याय पोताथी थाय छे एम जणावीने निमित्तनुं पण साथे ज्ञान कराव्युं छे, केमके निमित्त जाणेलुं प्रयोजनवान छे. व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान छे एम बारमी गाथामां कह्युं छे ने? ज्ञाननो स्वपरप्रकाशक स्वभाव छे. ते स्वने जाणे अने पर जे निमित्त होय तेने पण जाणे निमित्तथी कार्य थाय छे एम नहि पण कार्यकाळे निमित्तनी उपस्थिति छे. तेथी निमित्त जाणेलुं प्रयोजनवान छे, आदरेलुं नहि. बाह्य निमित्तथी राग उत्पन्न थाय छे के व्यवहाररत्नत्रयथी निश्चयरत्नत्रय उत्पन्न थाय छे एम कहेवुं ए व्यवहारनयनुं कथन छे. निश्चयथी तो निश्चय रत्नत्रय निज स्वद्रव्यना आश्रये ज थाय छे. आवी वात छे, भाई!

अहीं तो एकली स्वभावद्रष्टिनी अपेक्षाथी वात छे. तेथी ते रागना, कंपनना परिणामने पुद्गलना कह्या छे कारण के जे विभाव छे ते नीकळी जाय छे. भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यस्वभावी ज्ञानानंदस्वरूप वस्तु छे. तो तेनुं परिणमन अशुद्ध केम होय? शुद्ध चैतन्यमय वस्तुनुं परिणमन तो शुद्ध चैतन्यमय होय, अशुद्ध न होय. तेथी अहीं अशुद्ध परिणमनने पुद्गलना परिणाममय कह्युं छे. अहीं त्रिकाळी ज्ञायक-स्वभावनी-शुद्ध उपादाननी द्रष्टि कराववानुं प्रयोजन छे.

ज्यारे गाथा ३७२मां जे विकारी अशुद्ध परिणाम थाय छे ते जीवना जीवमां थाय छे एम कह्युं छे ते, ते ते समयनी पर्यायनी जन्मक्षण सिद्ध करी छे. रागादि विकार निमित्तथी नीपजे छे एम नथी पण पोताथी पोतामां स्वतंत्रपणे थाय छे. एम त्यां सिद्ध कर्युं छे.

तथा स्वयंभूस्तोत्रमां भक्तिनो अधिकार होवाथी श्री समंतभद्रस्वामीए निमित्तनी हयाती (बर्हिव्याप्ति) सिद्ध करवा एम कह्युं के अभ्यंतर अने बाह्य कारणनी समग्रता ए कार्य उत्पत्तिनुं कारण छे. जो के कार्यनी उत्पत्तिनुं वास्तविक कारण तो स्व (अभ्यंतर कारण) ज छे. छतां जोडे जे निमित्त छे तेनुं ज्ञान कराववा तेने सहचर देखी उपचारथी आरोप करीने, निमित्तथी कार्य थयुं छे एम व्यवहारनयथी कहेवामां आव्युं छे. तेथी एम न समजवुं के निमित्त आव्युं माटे कार्य थयुं के निमित्त वडे कार्य थयुं छे. पर्यायमां जे विकार थाय छे ते शुं चीज छे? ते छे तो पोतानो (जीवनो) ज अपराध. ते कोई निमित्तनो-कर्मनो कराव्यो थयो छे एम नथी. तथा निमित्त छे माटे थयो छे एम पण नथी. विकारी के निर्विकारी पर्याय, थवा काळे पोतानी स्वतंत्रताथी थाय छे. ते वखते निमित्त तरीके बीजी चीज हयात छे, बस एटलुं ज.


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जीव पोते (अशुद्ध उपादान) विकारनुं कारण छे ए ज निश्चय कारण छे. परंतु अहीं तो शुद्ध जीव विकारनुं कारण छे ज नहि एम सिद्ध करवुं छे. अहीं तो शुद्ध चैतन्यनी द्रष्टि कराववी छे ने? अहाहा? शुद्ध, बुद्व, चैतन्यघन, निर्मळानंद प्रभु एवा भगवान आत्मामां पुण्य-पापने उत्पन्न करे एवुं छे ज शुं? तेथी द्रव्यस्वभावनी द्रष्टिनी अपेक्षाए विकारना परिणामने पुद्गलना कहीने जीवमांथी काढी नाख्या छे. परंतु कोई एम ज पकडीने बेसी जाय के विकारी पर्याय कर्मनी छे, अने कर्मने लईने छे तो तेने एम कह्युं के विकार जीवमां, जीवथी जीवने लईने थाय छे भाई! जो तुं पर्याय छे एने मानतो नथी तो तुं मूढ छे. तथा तुं पर्यायमां ज मात्र लीन छे अने स्वभाव-द्रष्टि करतो नथी तोपण तुं मूढ छे, मूर्ख छे. तेथी प्रथम पर्यायनी स्वतंत्रतानो निर्णय करावीने पछी, त्रिकाळ स्वभावनी द्रष्टि-श्रद्धान कराववा विकारना परिणाम पुद्गलना छे एम अहीं कह्युं छे.

प्रश्नः– एक कार्यमां बे कारण होय छे ने?

समाधानः– बे कारण होय छे ते बराबर छे. ते पैकी एक यथार्थ वास्तविक कारण छे अने बीजुं उपचार आरोपित छे. वास्तविक कारण तो एक ज छे. निश्चयथी स्वशक्तिरूप निज उपादानथी कार्य थाय छे. ते वातने लक्षमां राखीने, निमित्तने कारणनो आरोप करीने, बे कारणथी कार्य थाय छे एम प्रमाणज्ञान दर्शाव्युं छे. निश्चय कारणनी वात राखीने प्रमाणज्ञान बीजा निमित्त कारणने भेळवे छे, निश्चय कारणने उडाडीने नहि. जो निश्चय कारणनो लोप करे तो प्रमाणज्ञान ज न थाय, बे कारण ज सिद्ध न थाय.

अहीं आ गाथामां जीवस्वभावनुं वर्णन चाले छे. आत्माना स्वभावमां योगनुं कंपन थवानो कोई गुण नथी. तेथी योगना कंपनने पुद्गलना परिणाममय कह्युं छे. त्यां गाथा ३७२मां कह्युं छे ते अनुसार कंपनना जे परिणाम छे ते स्वद्रव्यनी जीवनी पोतानी पर्याय छे अने ते पोताथी थाय छे. पर निमित्तथी के वर्गणाथी ते उत्पन्न थाय छे एम नथी. ज्यां पर्याय क्रमबद्ध स्वतंत्रपणे परिणमे त्यां पर शुं करे? पोताना परिणामनो उत्पादक पर छे ज नहि. सर्वविशुद्धज्ञान अधिकारमां त्यां परिणामनी-पर्यायनी स्वतंत्रता सिद्ध करी छे. त्यारे अहीं आ गाथाओमां त्रिकाळी स्वभावनुं परिणमन विकारी होई शके नहि तेथी योगना कंपननी पर्यायने पुद्गलपरिणाममय दर्शावीने स्वभावनी द्रष्टि करावी छे. तथा ज्यां बे कारण कह्यां छे त्यां जे निश्चय उपादानकारण छे तेने राखीने व्यवहार कारण भेळव्युं छे; निश्चय कारणने खोटुं पाडीने व्यवहार कारण भेळव्युं नथी. निश्चयथी योग-कंपन जीवनुं ज छे अने जीवथी ज थाय छे ए वात राखीने निमित्तने भेळव्युं छे. निश्चयने उडाडीने जो निमित्तने भेळवे तो बे कारणनुं यथार्थ ज्ञान-प्रमाण-ज्ञान थाय ज नहि. भाई! जेम व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान छे तेम आ निमित्त पण


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छे एम जाणेलुं प्रयोजनवान छे. निमित्तथी कार्य थाय छे एम नथी, पण कार्यमां अन्य पदार्थ निमित्त छे एम जाणेलुं प्रयोजनवान छे.

ज्यां बे कारण कह्यां छे त्यां खरुं कारण तो उपादान एक ज छे. जेमके जे निश्चयमोक्षमार्ग छे ए ज मोक्षनुं कारण छे. मार्ग तो एक ज छे. परंतु साथे देव-गुरु-शास्त्र आदिना रागने सहचर देखी, मोक्षमार्गनुं निमित्त जाणी, एने व्यवहार मोक्षमार्ग कह्यो छे. निमित्त छे खरुं, पण ते उपादानमां कांई पण करे छे एम नथी. अहो! वस्तुनुं सत्य स्वरूप आवुं ज छे.

निश्चयथी दरेक द्रव्यनी पर्याय, तेनो ‘जन्मक्षण’-जे उत्पत्तिनो काळ छे. ते ज काळे थाय छे ए निश्चय छे, यथार्थ छे. हवे आ निश्चयने यथार्थपणे राखीने बीजी चीजनुं-निमित्तनुं ज्ञान कराववा बे कारण उपचारथी कह्यां छे. बीजी रीते कहीए तो प्रमाण छे ते पोते व्यवहारनो विषय छे कारण के बे भेगां थयां ने? कार्यनुं निश्चय कारण स्व अने तेनुं निमित्त पर एम प्रमाणमां बे भेगां थयां माटे ते व्यवहारनो विषय थई गयो. एक चीजना ज्ञानमां, बीजी चीजनुं साथे ज्ञान कर्युं एटले के बन्नेनुं साथे ज्ञान कर्युं ते प्रमाणज्ञान थयुं माटे प्रमाणज्ञान सद्भूतव्यवहारनो विषय थयो. आ प्रमाणे पंचाध्यायीमां पण कह्युं छे.

‘आत्मा रागने जाणे छे’ एम कहेवुं ते सद्भूत व्यवहार-उपचार छे. जाणवुं पोतानामां छे माटे सद्भूत अने खरेखर तो पोताने जाणे छे छतां रागने जाणे छे एम कहेवुं ते उपचार छे. ‘ज्ञान ते आत्मा’ एम भेद पाडवो ते सद्भूत व्यवहार अनुपचार छे. अहा! जुओ आचार्योए केवी स्पष्टता करी छे! प्रमाणज्ञान स्वद्रव्य अने रागने एटले परने एम बन्नेने एकीसाथे जाणे छे. ज्ञान परने जाणे ए सद्भूत व्यवहार-उपचार छे. माटे प्रमाणज्ञान पोते ज सद्भूत व्यवहारनयनो विषय थई गयो. वस्तुस्थिति ज आवी छे, बापु. आ कांई घरनी वात नथी पण वस्तुना घरनी वात छे.

अहीं कहे छे के कायवर्गणा, वचनवर्गणा अने मनोवर्गणाना कंपनना निमित्तथी आत्मामां जे कंपन थाय छे ते पुद्गलना परिणाम छे. आ जे कंपननी वात छे ते जड वर्गणाना कंपननी वात नथी. मन-वचन-कायना परमाणुओ तो जड छे ज. परंतु अहीं तो तेमना निमित्ते आत्मामां थता कंपनना परिणामने जड कह्या छे. योगनुं जे कंपन छे ते जीवनी पर्याय छे अने ते पोताथी ते काळे थयेली स्वयंनी ज जन्मक्षण छे. ते जड वर्गणाथी थई छे एम नथी. परंतु जीवना स्वभावमां कंपन थाय एवो स्वभाव नथी. तेथी स्वभावनी अपेक्षाए निमित्त होतां जीवमां थता कंपनने पुद्गलना परिणाम कह्या छे.

आ रीते त्रण प्रकारे कथन कर्युं.


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१. विकारी भाव जे जीवमां थाय छे ते निश्चयथी जीवनी पोतानी पर्याय छे.

२. विकारी भावमां कर्म निमित्त छे एवुं (उपादान-निमित्तनुं साथे) ज्ञान करवुं ते प्रमाणज्ञान छे. विकारी भाव निश्चयथी जीवनी पर्याय छे एम निश्चय राखीने साथे निमित्तनुं ज्ञान करवुं ते प्रमाणज्ञान छे. ते सद्भूत उपचार-व्यवहार छे.

३. हवे भगवान आत्मा जे अनंत-अनंत गुणनुं परिपूर्ण शुद्ध चैतन्यदळ, चैतन्यरसनुं आखुं त्रिकाळी सत्त्व छे ते कदीय विकारपणे परिणमे नहि. माटे निमित्तथी थयेला विकारने निमित्तमां नाखीने पुद्गलना परिणाम कह्या छे. भाई! आ कांई खाली पंडिताईनो विषय नथी. भगवान वीतरागदेवनो मार्ग जेवो छे तेवो अंदर अंतरमां बेसवो जोईए.

श्री वासुपूज्य भगवाननी स्तुति करतां ‘स्वयंभूस्तोत्र’मां श्री समंतभद्रस्वामीए कह्युं छे के-कार्योमां बाह्य अने अभ्यंतर, निमित्त अने उपादान एम बन्ने कारणोनी समग्रता होवी ते आपना मतमां द्रव्यगत स्वभाव छे. श्री अकलंकदेवे पण कह्युं छे के बे कारणथी कार्य थाय छे. ए तो बे (उपादान-निमित्त) सिद्ध करवा छे, अने प्रमाणज्ञान कराववुं छे तेथी एम कह्युं छे. खरेखर तो कार्य थाय छे पोताथी पोताना कारणे, अने त्यारे निमित्त होय छे. परंतु निमित्तनी अपेक्षा छे एम नथी. श्री पंचास्तिकायनी ६२ मी गाथामां आवे छे के पर्यायमां जे विकार थाय छे ते पोताना षट्कारकथी थाय छे. द्रव्य-गुणथी तो नहि पण परकारकथी- निमित्तथी पण विकार उत्पन्न थतो नथी. अहीं अस्तिकाय सिद्ध करवुं छे. द्रव्य-गुण-पर्यायनुं अस्तित्व छे एम सिद्ध करवुं छे. तेथी विकार छे ते पर्यायना षट्कारकनुं परिणमन छे एम कह्युं छे. अहाहा! विकारनां र्क्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान अने अधिकरण स्वयं विकार छे. एक समयनी पर्यायमां षट्कारकनुं परिणमन द्रव्य-गुणनी के पर निमित्तनी अपेक्षा विना ज थाय छे. आ प्रमाणे त्यां निश्चयथी विकारना परिणाममां पर कारकनी अपेक्षा नथी एम कह्युं छे.

ज्यारे अहीं स्वभावनी द्रष्टि कराववी छे तेथी एम कह्युं के विकारना परिणाम पुद्गलना छे.

तथा ज्यां बे कारण कह्यां त्यां निश्चयथी तो पर्याय पोताथी ज पोताना षट्कारकथी ज थाय छे परंतु साथे निमित्त छे तेने भेळवीने प्रमाणज्ञान कराव्युं छे. भाई! खरेखर तो कारण एक ज छे. जेमके-मोक्षमार्ग एक ज छे. मार्ग कहो के कारण कहो ते एक ज अर्थ छे. मोक्षनुं कारण जेम एक ज छे तेम पर्यायनुं कारण निश्चयथी एक ज छे. प्रभु! सत्य तो आवुं छे, हों. जो कांई आडुं-अवळुं करवा जईश तो सत् सत् नहि रहे. वस्तुनो भाव ज यथार्थ आम छे अने एम ज बेसवो जोईए.


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योगस्थान एटले कंपन. जीवनो जे अयोगगुण छे तेनी ते विकारी पर्याय छे. ते कर्म- ग्रहणमां निमित्त छे. कर्म परमाणुनुं आववुं तो तेना पोताना उपादानना कारणे छे. परमाणुनो ते काळे ते रीते परिणमवानो काळ छे तेथी ते रीते कर्मरूपे परिणमे छे. तेमां योगनुं निमित्त कहेवुं ते व्यवहार छे. अहीं योगना परिणाम आत्माना नथी पण पुद्गलना छे एम जे कह्युं छे ते स्वभावनी द्रष्टि कराववा कह्युं छे. योगना-कंपनना विकारी परिणाम स्वभावथी उत्पन्न थता नथी. तेथी स्वभावनी द्रष्टि कराववा पर्यायमां जे परलक्षी विकार थाय छे तेने परमां नाखी दई ते पुद्गलना परिणाममय छे एम कह्युं छे. भाई! वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे त्यां बीजुं शुं थाय?

प्रश्नः– कार्य तो बे कारणथी थाय छे अने तमे एक कारणथी मानो छो. माटे ते एकांत थई जाय छे.

उत्तरः– भाई, समयसारनी गाथा ३७२मां आवे छे के-‘माटी कुंभभावे उपजती थकी शुं कुंभारना स्वभावथी उपजे छे के माटीना स्वभावथी उपजे छे? जो कुंभारना स्वभावथी उपजती होय तो, जेमां घडो करवाना अहंकारथी भरेलो पुरुष रहेलो छे अने जेनो हाथ व्यापार करे छे एवुं जे पुरुषनुं शरीर तेना आकारे घडो थवो जोईए. परंतु एम तो थतुं नथी, कारण के अन्यद्रव्यना स्वभावे कोई द्रव्यना परिणामनो उत्पाद जोवामां आवतो नथी. जो आम छे तो पछी माटी कुंभारना स्वभावथी उपजती नथी, परंतु माटीना स्वभावथी ज उपजे छे. कारण के पोताना स्वभावे द्रव्यना परिणामनो उत्पाद जोवामां आवे छे.’ तेथी घडो माटीथी थयो छे; कुंभारथी थयो छे एम अमे जोता नथी. निमित्तथी कार्य थयुं छे एम अमे जोतां नथी.

कुंभार, ‘घडो करुं छुं’ एम अहंकारथी भरेलो होय तोपण तेनो स्वभाव कांई घडामां जतो-आवतो (प्रसरतो) नथी; अन्यथा कुंभारना स्वभावे घडो थवो जोईए. परंतु घडो तो माटीना स्वभावे ज थाय छे, कुंभारना स्वभावे थतो नथी. माटे घडानो र्क्ता माटी ज छे, कुंभार नहि. परंतु ज्यां बे कारण कह्यां छे त्यां, जे वास्तविक कारण नथी पण उपचारमात्र कारण छे तेने सहकारी देखीने, ते काळे ते होय छे एम जाणीने, बीजुं कारण छे एम कह्युं छे. आ प्रमाणे बे कारणथी कार्य थाय छे एम व्यवहार कर्यो छे. आवी वस्तुस्थिति छे. वीतरागनो मार्ग बहु सूक्ष्म अने गहन छे, भाई. अहीं वीस बोल पूरा थया.

२१. जुदी जुदी प्रकृतिओना परिणाम जेमनुं लक्षण छे एवां जे बंधस्थानो ते बधांय जीवने नथी. जेटला प्रकारना बंधना परिणाम उत्पन्न थाय छे ते बधाय पुद्गल-द्रव्यना परिणाममय छे. माटे ते अनुभूतिथी भिन्न छे.


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२२. पोतानुं फळ उत्पन्न करवामां समर्थ कर्म-अवस्था जेमनुं लक्षण छे एवां जे उदयस्थानो ते बधांय जीवने नथी. आ पर्यायमां थता विकारी भावनी वात छे, कर्मनी नहि. जेने जीव अर्थात् द्रव्यस्वभाव कहीए तेने आ उदयस्थानो नथी. जीवनी पर्यायमां उदयना जे असंख्य प्रकारो बने छे ते सघळाय जीवने नथी. चार गति, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि जेटला उदयना प्रकारो छे ते बधाय परमस्वभावभावरूप भगवान आत्माने नथी. माटे ते सर्वने पुद्गलना परिणाममय कह्या छे. एम तो उदयना स्थानोनो भाव जीवनी पोतानी पर्याय छे अने ते कर्मना निमित्तनी अपेक्षा विना पोतानामां थया छे. परंतु भगवान परमस्वभावभावनी द्रष्टि जेने थई छे एवा धर्मी जीवने, पर्यायनी अपेक्षाए उदयनां स्थानो पर्यायमां होवा छतां, द्रव्यबुद्धिए तेओ (पोतामां) नथी; अने ते उदयस्थानो नीकळी जाय छे माटे तेओने पुद्गलद्रव्यना परिणाममय कह्या छे.

उदयना-विकारना जेटला प्रकार छे ते बधाय निश्चयथी तो जीवथी थया छे, कर्मथी नहि; कारण के कर्म तो परद्रव्य छे, ते जीवने अडतुंय नथी तो पछी तेनाथी उदयभाव-विकार केम थाय? (न ज थाय). तत्त्वार्थसूत्रमां पण उदयभावो जीवना सत्त्वरूप कह्या छे केमके ते जीवनी पर्यायमां ते काळे पोताथी उत्पन्न थाय छे. परंतु अहीं तेमने पुद्गलना परिणाममय कह्या छे केमके त्रिकाळी स्वभावमां विकार थवानो कोई गुण नथी. तेथी त्रिकाळी स्वभावनी द्रष्टिमां, निमित्तने आधीन थयेला भाव निमित्तना छे एम कह्युं छे. तेथी करीने निमित्तथी उदयभाव थाय छे एम न समजवुं. निमित्त तो उपचारमात्र कारण छे, यथार्थ कारण तो पोतानुं छे. अरे! अत्यारे भगवानना विरह पडया! केवळज्ञान रह्युं नहि! तेम ज कोई चमत्कारिक ज्ञान पण रह्युं नहि! (खेद छे के बधा वादविवादमां अटवाई गया छे).

उदयनां स्थानो जीवना परिणाम छे, परंतु आ गाथामां तेओ शुद्ध जीवने नथी एम कह्युं छे ते स्वभावनी अपेक्षाए कह्युं छे. आत्मा त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यस्वभावमय छे. ते स्वभावनी द्रष्टि थतां विकारना परिणाम थता नथी. तेथी विकारना परिणामने पुद्गलना परिणाम कह्या छे. आम वस्तुनुं स्वरूप जेम छे तेम यथार्थ समजवुं जोईए.

२३. हवे मार्गणास्थानोनी वात छे. तेमां प्रथम गतिनी वात छे. गतिना परिणाम तो जीवना छे. आ शरीर छे ते गति नथी. अंदर गतिनो जे विशेषभाव-उदयभाव छे ते गति छे. मनुष्य, देव, तिर्यंच अने नरकगतिना परिणाम जीवना छे. परंतु ते विकारी परिणाम होवाथी, त्रिकाळ स्वभावनी द्रष्टि थतां छूटी जाय छे. माटे ते परिणाम पुद्गलना छे एम कह्युं छे. अहीं बधाय-चौदे मार्गणास्थानोने पुद्गलना परिणाम कह्या छे. भाई! वस्तु जे आत्मा छे ए तो शुद्ध परमात्मस्वरूप चिद्घन छे. अनादि-अनंत छे, एक समयमां परिपूर्णस्वरूप प्रभु छे, (वस्तु तो) वर्तमानमां पूर्ण आखी छे, अहाहा....!


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एकलो स्वभावनो पिंड छे. आवा स्वभावनी द्रष्टिमां गतिना विकारी परिणाम पुद्गलना छे कारण के ते परिणाम नीकळी जाय छे अने ते पर्यायमां जे उत्पन्न थाय छे ते द्रव्यगुणथी उत्पन्न थता नथी. अहो! वीतरागदेवनो मार्ग अद्भुत अने अलौकिक छे. सर्वज्ञ भगवान विदेहक्षेत्रमां हाल बिराजमान छे. अने चार ज्ञानना धणी, बार अंगनी रचना करनार गणधरदेवो पण तेमनी सभामां हाजराहजुर छे. तेमनो आ मार्ग छे. बापु! आ कांई आली- दुवालीए कहेलुं नथी.

हवे इन्द्रिय-भावेन्द्रिय अने द्रव्येन्द्रिय-ते बधीय पुद्गलना परिणाम छे एम कहे छे. भगवान आत्मा अतीन्द्रिय महाप्रभु छे. तेनी अपेक्षाए भावेन्द्रियने पण पुद्गलना परिणाम कह्या छे. आ द्रव्येन्द्रिय छे ए तो जड पुद्गलरूप ज छे. पण जे भावेन्द्रिय छे ते पर्याय अपेक्षाए जीवना ज परिणाम छे. परंतु द्रव्यद्रष्टिथी जोतां भावेन्द्रियनुं स्वरूप त्रिकाळी अतीन्द्रियस्वभावमां नथी अने ते नीकळी जाय छे. माटे भावेन्द्रिय पुद्गलना परिणाम छे. बीजी रीते कहीए तो भावेन्द्रियना परिणाम पोताथी ज छे जेमां कर्मना क्षयोपशमनुं निमित्तपणुं छे. आम भावेन्द्रियना परिणाम बे कारणथी थया छे एम कह्युं त्यां प्रमाणज्ञाननो विषय बताववा कह्युं छे, निमित्तनुं ज्ञान कराववा एम कह्युं छे. गजब वात छे! शास्त्रनी शैली कोई एवी छे के चारे बाजुथी मेळ खाय छे. अहो! अद्भुत धारा वहे छे!

बारमी गाथामां ‘व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान छे’ एम जे कह्युं छे तेमां निमित्तनी (पर पदार्थनी) वात नथी. तेमां तो भेदवाळी पर्यायनी वात छे. शुद्धता अने अशुद्धताना अंशो जे पर्यायमां छे तेने जाणवा ते व्यवहारनय छे. त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य ते निश्चय अने पर्यायनुं ज्ञान करवुं ते व्यवहारनय. द्रव्य अने पर्याय बन्नेनुं ज्ञान थईने त्यां प्रमाणज्ञान थाय छे. पर निमित्तनी त्यां वात नथी. पण ज्यारे स्व अने पर एम बन्नेनी भेगी वात करवी होय त्यारे परने निमित्त कहेवामां आवे छे अने ते व्यवहार छे. गाथा ११ अने १२मां अंदरना व्यवहारनी-निमित्तनी वात छे.

(आ शास्त्रनी) ३१मी गाथामां आव्युं हतुं के भावेन्द्रिय खंड-खंड ज्ञानने जणावे छे, पूर्ण आत्माने नहि. तेथी ते परज्ञेय छे. भावेन्द्रियनो विषय जे खंड-खंड ज्ञान छे ते ज्ञायकनुं परज्ञेय छे. इन्द्रियने जीतवी एटले शुं? के (१) भावेन्द्रिय जे खंड-खंड ज्ञान छे ते (२) इन्द्रियो जड छे ते (३) अने तेना विषयो जे देव-गुरु-शास्त्र आदि छे ते-बधाय परज्ञेय- परद्रव्य-इन्द्रिय छे. ते त्रणेयने जीतवा एटले के तेनाथी अधिकभिन्न एक ज्ञायकभावने जाणवो ते इन्द्रियोनुं जीतवुं छे.

हवे कायनी वात करे छे. आ बाह्य शरीरने एमां न लेवुं. पण अंदर योग्यता


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छे ते लेवी. आ काय छे ते जीवने नथी केमके ते पुद्गलना परिणाममय छे.

हवे योग एटले मन-वचन-कायाना निमित्ते जे अंदर आत्मामां योगनी क्रियाकंपन थाय छे ते जीवने नथी केमके ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय छे. आनी वात पहेलां विस्तारथी आवी गई छे.

तेवी रीते पुरुषादि वेदना जे परिणाम छे ते बधाय जीवने नथी केमके ते पुद्गलना परिणाम छे. जे त्रण प्रकारना वेदना परिणाम थाय छे ते तेनी जन्मक्षण छे तेथी पोताथी थाय छे. तेने परनी अपेक्षा नथी, तेम ज द्रव्य-गुणनी पण अपेक्षा नथी. द्रव्य-गुणनी अपेक्षा तेने केम होय? कारण के द्रव्य-गुण तो शुद्ध छे. अने परनी अपेक्षा पण केम होय? कारण के पर तो भिन्न छे. तो पछी बे कारण केम कह्या छे? ए तो प्रमाणज्ञान कराववा कह्युं छे. वळी जे वासना उत्पन्न थाय छे ते छे तो जीवनी पर्याय. परंतु त्रिकाळी द्रव्य-स्वभावमां ते नथी तथा स्वभावनी द्रष्टि करतां ते परिणाम जीवमांथी नीकळी जाय छे तेथी ते वासनाना परिणामने अहीं पुद्गलना परिणाम कह्या छे.

बीजी रीते कहीए तो वेदनो भाव जे विकारनी वासना थाय छे तेनुं अशुद्ध उपादान- कारण तो पोते ज छे, तथा जड वेदनो उदय तेमां निमित्त छे. अहीं उपादान कारणनी साथे औपचारिक कारण जे निमित्त छे तेने भेळवीने प्रमाणज्ञान कराव्युं छे. परंतु तेथी करीने पर निमित्तथी विकारनी वासना थाय छे एम न समजवुं. पोतानी पर्यायमां विकार पोताथी थाय छे, ते परकारकनी अपेक्षा राखतो नथी. (जुओ पंचास्तिकाय गाथा ६२)

प्रश्नः– जो विकार परथी न थाय अने पोताथी थाय तो ते स्वभाव थई जशे?

उत्तरः– विकारपणे थवानो पर्यायनो स्वभाव छे. स्वस्य भवनं स्वभावः। पोताथी ते पर्याय थाय छे माटे ते स्वभाव छे. विकार पण ते समयनुं सत् छे के नहीं? (हा, छे). तो निश्चयथी सत्ने कोई हेतु होई शके नहि. उत्पाद, व्यय, ध्रुव त्रणेय सत् छे. भले उत्पाद के व्यय विकाररूप हो, पण ते सत् छे, अने सत् अहेतुक होय छे. ते काळनुं ते स्वतंत्र सत् छे तो तेमां असत्नी (तेनाथी अन्यनी) अपेक्षा केम होय? परंतु अहिंया तो ते सत्ने त्रिकाळी सत्नी अपेक्षा पण नथी. विकारी पर्याय पोतानी अपेक्षाए, वर्तमान सत् होवा छतां, तेने अपेक्षाए पुद्गलना परिणाम कह्या छे. विकारी पर्याय वर्तमान सत्नुं सत्त्व छे ते अपेक्षाए जोईए तो विकारी वेदना परिणाम पोताथी थाय छे. ते वेदकर्मना उदयथी आत्मामां थया छे एम बीलकुल नथी. अहो! वीतरागनो पंथ परम अद्भुत छे! श्री बनारसीदासे पण कह्युं छे के-

ज्ञान नैन किरिया चरन, दोऊ शिवमग धार;
उपादान निहचै जहाँ, तहाँ निमित व्यवहार. ३

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उपादान निज गुण जहाँ, तहाँ निमित्त पर होय;
भेदज्ञान परवान विधि, विरला बूझै कोय. ४
उपादान बल जहाँ तहाँ, नहि निमित्तको दाव;
एक चक्रसौं रथ चलै, रवि को यहै स्वभाव. प

हवे कषायनी वात करे छे. क्रोध, मान, माया, लोभना परिणाम शुभ के अशुभ भाव ते बधाय कषाय छे. जे भावे तीर्थंकरगोत्र बंधाय ते भाव पण पुद्गलना परिणाम छे भगवान आत्मा तो अकषायस्वरूप वीतरागमूर्ति प्रभु छे. तेमां ते परिणाम-कषायना परिणाम नथी. जो के कषायना परिणाम जीवनी पर्यायमां छे अने ते निश्चयथी पोताथी थया छे, परकारकथी नहि. पण स्वभावनी द्रष्टिए जोतां, ते कषायना परिणाम स्वभावभूत नथी अने पर्यायमांथी नीकळी जाय छे माटे तेमने पुद्गलना परिणाम कह्या छे. जो कषायनी उत्पत्ति बे कारणथी कहीए तो निमित्त कारणने भेळवीने उपचारथी कही शकाय. परंतु निमित्तकारण ते खरुं कारण नथी. अहीं तो सिद्धांत शुं छे ते वातनो निर्णय करावे छे. सिद्धांत एम छे के-जे द्रव्यने जे पर्याय जे काळे उत्पन्न थवानी छे ते द्रव्यने ते पर्याय ते काळे पोताना कारणे थाय छे, परथी के निमित्तथी थती नथी. आवी स्पष्ट वात छे.

तेवी रीते ज्ञानना भेदो पण आत्मामां-त्रिकाळी शुद्ध एक ज्ञायकभावमां नथी. आ मति, श्रुत, आदि ज्ञानना भेदो ते जीवने नथी केमके ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय छे. अहाहा....! गजब वात छे! चैतन्यस्वभावी शुद्ध जीववस्तु त्रिकाळ एकरूप अभेद छे. तेमां ज्ञानमार्गणानो-ज्ञानना भेदोनो अभाव छे. अभेदस्वभावमां भेदनो अभाव छे एम कहेवुं छे. श्री नियमसारनी शुद्धभाव अधिकारनी ४३मी गाथामां कह्युं छे के शुद्धभावमां मार्गणास्थानो नथी अने अहीं जे कह्युं के जीवने मार्गणास्थानो नथी ते बन्ने एक ज वात छे. शुद्धभावमां विकल्प (भेद) जेनुं लक्षण छे तेवां मार्गणास्थानो नथी. शुद्धभाव एटले के द्रष्टिनो विषय जे त्रिकाळ शुद्ध अभेद जीववस्तु छे तेमां ज्ञानना भेदो नथी. पांच ज्ञान अने अज्ञानना त्रण भेदो ते बधाय ज्ञानना भेदो अभेद चैतन्यस्वरूपमां नथी. भेद छे ते खरेखर व्यवहार छे अने तेथी ते त्रिकाळी स्वभावमां-निश्चय स्वरूपमां नथी एम अहीं कहेवुं छे. पर्यायमां जे ज्ञानना भेदो छे ते अशुद्ध निश्चयथी जीवना छे. परंतु शुद्ध निश्चयथी जोईए तो ते ज्ञाननां भेदस्थानो शुद्ध जीववस्तुमां नथी.

प्रश्नः– बंधनुं कारण-निमित्त-रागादि एक होवा छतां प्रकृति भिन्न भिन्न बंधाय छे अने तेनी स्थिति पण भिन्न भिन्न पडे छे तेनुं कारण शुं?

उत्तरः– पोताना उपादानना कारणे एम थाय छे. जेमके दशमा गुणस्थाने जे राग छे तेनाथी छ कर्म बंधाय छे. तेमांथी ज्ञानावरणीय अने दर्शनावरणीयनी अंतःमूहुर्त, वेदनीय (साता)नी १२ मूहुर्त, नाम अने गोत्रनी आठ मूहुर्त तथा अंतराय कर्मनी


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अंतःमूहुर्त स्थिति पडे छे. राग एक ज छे छतां आवो फेर केम छे? तो कहे छे के उपादान स्वतंत्र छे माटे एम थाय छे. निमित्तपणे राग एक ज होवा छतां पोतानी योग्यताने कारणे- प्रकृतिविशेषनी योग्यताने कारणे तेवी पर्याय थाय छे. विपरीतभाव एक होवा छतां ज्ञानावरणीयनी स्थिति ३० क्रोडाक्रोडी सागर, मोहनीय कर्मनी स्थिति ७० क्रोडाक्रोडी सागर अने नामकर्मनी स्थिति २० क्रोडाक्रोडी सागर बंधाय छे. आवो फेर केम छे? तो कहे छे के उपादाननी-ते समयना परमाणुना पर्यायनी योग्यता ज एवी छे. कांई निमित्त कारणथी आम थतुं नथी. निमित्त तो बधाने एक छे. छतां प्रकृतिओना कार्यमां जे भेदो पडे छे. ते स्वतंत्र पोतपोताना उपादानना कारणे छे. परमाणुनी स्थिति ओछी-अधिक थवानी ते काळे पोतानी योग्यता छे तेथी एम थाय छे.

धवलना छठ्ठा भागमां १६४मा पाने पण कह्युं छे के-‘प्रकृति-विशेष होनेसे इन सूत्रोक्त प्रकृतियोंका यह स्थितिबंध होता है. सभी कार्य एकांतसे बाह्य अर्थकी अपेक्षा करके ही नहीं उत्पन्न होते हैं. अन्यथा शालिधानके बीजसे जौके अंकुरकी भी उत्पत्तिका प्रसंग प्राप्त होगा. किन्तु उस प्रकारके द्रव्य तीनों ही कालमें किसी भी क्षेत्रमें नहीं है जिनके बलसे शालिधान्यके बीजसे जौके अंकुरको उत्पन्न करनेकी शक्ति हो सके. यदि ऐसा होने लगेगा तो अनवस्था-दोष प्राप्त होगा. इसलिये कहीं पर भी अंतरंग कारणसे ही कार्यकी उत्पत्ति होती है ऐसा निश्चय करना चाहिये.’

जुओ, अति स्पष्ट कह्युं छे के बधांय कार्यो बहारनी एकांत अपेक्षा करीने उत्पन्न थतां नथी. जो कार्य बाह्य कारणथी ज उत्पन्न थाय तो चोखाना धानथी जवनी उत्पत्ति थशे. परने लईने जो कार्य थाय तो जडमांथी चेतन अने चेतनमांथी जड उत्पन्न थशे. तेथी कार्य संबंधी कोई नियम नहि रहे; कोई निमित्तनो मेळ नहि रहे. माटे कोईपण कार्य अंतरंग कारणथी ज उत्पन्न थाय छे एम नक्की करवुं. निमित्त कारण एक होवा छतां उपादाननी योग्यताथी ज प्रकृतिओनी स्थिति भिन्न भिन्न बंधाय छे. भिन्न भिन्न स्थिति बंधाय छे ते प्रकृतिओना परमाणुना उपादाननी स्वतंत्रता छे.

स्वामी समंतभद्राचार्ये बे कारण सिद्ध करवा माटे बे कारणथी कार्य थाय छे एम कह्युं छे. ‘स्वयंभूस्तोत्र’ तो भक्तिनो अधिकार छे ने? तेथी उपादानना कार्यकाळे निमित्त होय छे एनी वात करी छे. भले ते निमित्त हो, परंतु उपादाननो कार्यकाळ न होय अने निमित्तथी कार्य थाय एम नथी. ते ते समयनो उपादाननो कार्यकाळ छे त्यारे निमित्त बीजी चीज हाजर होय छे. परंतु तेथी करीने निमित्तथी उपादानमां कार्य थयुं छे एम नथी. निमित्त अने उपादान बन्ने साथे ज छे. तो पछी निमित्तथी कार्य थयुं ए कयां रह्युं? माटे एम निर्णय करवो के अभ्यंतर कारणथी ज कार्यनी उत्पत्ति थाय छे.

अरे! भगवान थईने तुं शुं करे छे? प्रभु! तुं परमानंदनो नाथ भगवान छो


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ने! आत्मा तो सदा भगवानस्वरूपे ज, परमात्मस्वरूपे ज छे. भाई! सिद्धना स्वरूपमां अने तारा स्वरूपमां शुं फेर छे? जे जिननुं स्वरूप छे ते ज आत्मानुं स्वरूप छे. वर्तमानमां ज परमात्मस्वभाव तारो छे. माटे तेमां द्रष्टि दे तो तारुं कल्याण थशे, तने आत्मानी प्राप्ति थशे. परमात्मस्वभाव उपर द्रष्टि दे तो तने परमात्मानी द्रष्टि प्राप्त थशे.

द्रष्टिनी पर्याय छे तो क्षणिक, परंतु ते पर्यायमां त्रिकाळी भगवाननो स्वीकार थतां पर्यायमां परमात्मा जणाय छे. ११मी गाथामां लीधुं छे के भूतार्थनो आश्रय करतां समकित थाय छे. वस्तु त्रिकाळी शुद्ध भगवान छे ते तरफ द्रष्टि ढळतां, ते सम्यक् थाय छे अने ते निर्मळ श्रद्धा-ज्ञान अने शांतिनी पर्यायथी आत्मा प्राप्त थाय छे. निर्विकार समाधिथी आत्मा प्राप्त थाय छे. परंतु व्यवहारना विकल्पथी आत्मा प्राप्त थतो नथी. व्यवहार हो भले, पण ते कांई निश्चयमां मदद करे छे एम नथी. तेम निमित्त हो भले, पण ते परमाणु के जीवनी ते ते काळे उत्पन्न थती पर्यायने कांई सहाय करे छे एम नथी.

प्रश्नः– निमित्त सहकारी छे एम आवे छे ने?

उत्तरः– निमित्त सहकारी छे एटले के साथे (समकाळे) छे एटलुं ज. ते साथे छे एटले सहकारी कह्युं, कांई सहाय-मदद करे छे माटे सहकारी छे एम नथी. जो निमित्त कार्यमां सहाय (मदद) करतुं होय तो धर्मास्तिकाय तो अनादिथी पडयुं छे. तेथी गति निरंतर थवी ज जोईए. पण एम नथी. जीव स्वयं गति करे त्यारे धर्मास्तिकाय निमित्त छे, नहींतर नहि. गतिना काळे जेम धर्मास्तिकाय निमित्त छे तेम (गति पूर्वक) स्थिरताना काळे अधर्मास्तिकाय निमित्त छे. आनो अर्थ शुं थयो? गति करे छे त्यारे पण अधर्मास्तिकाय तो मोजुद छे ज. तो पछी ते निमित्त केम न थयुं? भाई! एनो अर्थ एटलो ज छे के परिणमनस्वभावी जीव अने पुद्गलोने ज्यारे ते स्वयं स्वतंत्र गतिरूप परिणमन करे त्यारे धर्मास्तिकाय निमित्त थाय छे अने ज्यारे गति करतां स्वयं रोकाई जाय छे त्यारे अधर्मास्तिकाय निमित्त थाय छे. वस्तुनुं स्वरूप आवुं छे, भाई.

अहीं कहे छे के ज्ञानना भेद पाडवा ते पुद्गलना परिणाम छे. भगवान आत्मा अभेद एकरूप चैतन्यवस्तु छे. तेमां ज्ञानना भेदोनुं लक्ष करतां राग ज उत्पन्न थाय छे अने राग छे ते पुद्गलद्रव्यना परिणाम छे. नियमसार शुद्धभाव अधिकारमां (गाथा ४२मां) आ ज्ञानना भेदो जे मार्गणास्थानो छे तेने ‘विकल्पलक्षणानि’ कह्या छे. भेदनुं स्वरूप ज विकल्पलक्षण छे. गति, इन्द्रिय, आदि भेदस्वरूप जे चौद मार्गणास्थानो छे ते बधांय जीवने नथी. जीव कहो के शुद्धभाव कहो, बन्ने एक ज छे. नियमसारमां त्रिकाळ शुद्ध भावने जीव कह्यो छे अने अहीं जीवने त्रिकाळ शुद्धभाव कह्यो छे. आ मार्गणास्थानो ‘विकल्पलक्षणानि’ एटले के भेदस्वरूप जेनुं लक्षण छे एवा छे. तेथी ते जीवनुं


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स्वरूप नथी. रागादि तो जीवनुं स्वरूप नथी पण भेदस्वरूप पण निश्चयथी जीव नथी. नियमसार गाथा प०मां आवे छे के पर्याय छे ते परद्रव्य छे अने तेथी निश्चये ते जीवनुं स्वरूप नथी. भाई! अभेद द्रष्टि थया विना सम्यग्दर्शन थतुं नथी. अने तेमां (अभेदनी द्रष्टि थवामां) निमित्त के व्यवहार कांई मददगार नथी. अहाहा! गजब वात छे! जेनुं लक्षण विकल्प-भेद छे एवा मति, श्रुत, आदि ज्ञानना भेदो शुद्ध जीवने नथी. आवो वीतरागनो मार्ग बहु झीणो छे. सावधानीथी (उपयोगने सूक्ष्म करीने) समजवानो प्रयत्न करवो जोईए.

आत्मा अभेद एकरूप त्रिकाळी द्रव्य छे. तेमां भेद केवो? तेमां राग केवो? अने तेमां एक समयनी पर्याय केवी? गंभीर वात छे, भाई! काळ थोडो छे अने करवानुं घणुं छे. त्यां वळी जीवने बहारनो मोह बहु छे. बहारनो त्याग जोईने ते खूब राजी-राजी थई जाय छे. पण ते बहारनो त्याग आत्मामां छे कयां? अहीं तो कहे छे के ज्ञानना भेद आत्मामां नथी तो ए सघळा बाह्य क्रियाकांड वस्तुमां कयांथी होय? भारे आकरी वात, भाई! प्रथम मिथ्यात्वना त्याग विना बीजो त्याग होई शके ज नहि. ए मिथ्यात्वना त्याग माटे शुं छोडवुं? तो कहे छे के निमित्तने, रागने अने भेदने द्रष्टिमांथी छोडवां, अने अभेद एकरूप निर्मळानंदस्वरूप भगवान आत्मानी द्रष्टि करवी. सर्वज्ञ परमेश्वरे आ ज मार्ग कह्यो छे.

हवे संयम एटले चारित्रनी वात करे छे. संयमना पण भेदो जीवने नथी केमके ते पुद्गल परिणाम छे. आत्मा शुद्ध ज्ञायकभाव त्रिकाळ एकरूप छे. तेमां संयमना भेद केवा? भेदना लक्षे तो राग ज थाय छे. माटे अभेदमां चारित्रना भेदो पाडवा ए पुद्गलना परिणाम छे. चारित्र पर्याय छे अने चारित्र त्रिकाळी गुण पण छे. ए त्रिकाळी चारित्र गुणना भेद पर्यायमां भासवा ते विकल्पनुं कारण छे. तेथी भेदने पुद्गलना परिणाम कह्या छे. संयमस्थानो ‘विकल्पलक्षणानि’ एटले भेदस्वरूप छे. माटे त्रिकाळी शुद्ध जीवद्रव्यमां आ संयमनां भेदस्थानो नथी. मार्ग बहु अलौकिक छे, भाई. परंतु लोकोए तेने बहारना मापथी कल्पी लीधो छे के आ त्याग कर्यो अने आ राग घटाडयो. पण ध्रुव चैतन्यवस्तु द्रष्टिमां आव्या विना राग केम घटे? अहाहा! रागनो तथा भेदनो जेमां अभाव छे तेवा द्रष्टिना विषयने द्रष्टिमां लीधा विना राग घटे केवी रीते (अर्थात् खरेखर राग त्यांसुधी घटतो नथी.)

मोक्षमार्ग प्रकाशकमां शिष्ये प्रश्न कर्यो छे के-प्रभु! शुभभाववाळाने अशुभ राग तो घटे छे. माटे एटलुं चारित्र तो कहो? त्यां कह्युं छे के सम्यग्दर्शन जेने होय, जेने अभेदनी द्रष्टि थई होय तेने ज शुभभावमां अशुभ राग घटे छे. पण जेने वस्तुनी द्रष्टि थई नथी, जे चैतन्यनिधान छे ते नजरमां आव्युं नथी, ते जीवने शुभभाव वखते अशुभभाव


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घटयो ज नथी. शुभाशुभभावरहित शुद्ध चैतन्यवस्तुने जाण्या विना शुभभाव वखते अशुभ घटे एम त्रणकाळमां बनतुं नथी केमके तेने मिथ्यात्व तो आखुं पडयुं छे. भाई त्रिकाळी पूर्ण आनंदना नाथने जेणे अनुभवमां लीधो छे तेने शुभभाव वखते अशुभ घटे छे अने ते क्रमे क्रमे राग घटीने नाश थई जाय छे. अहाहा! जेमां राग नथी, भव नथी, भवना भाव नथी, अपूर्णता नथी एवा पूर्णस्वभावमय शुद्ध चैतन्य भगवानना निधानने जेणे जोयुं छे तेने शुभभाव वखते अशुभ घटे छे अने ते शुद्ध चैतन्यवस्तुना आश्रये शुभभावने पण घटाडीने क्रमे करी स्वाश्रयनी पूर्णता करी मुक्ति पामशे.

द्रष्टिमां पूर्ण शुद्ध परमात्मस्वरूप आवे नहि तेने राग केम घटे? मिथ्यात्वनी हयातीमां अशुभ केम घटे? भाई! मिथ्यात्व मंद थाय ए कांई अपूर्व वस्तु नथी. अभवीने पण मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधीनो रस मंद थाय छे. मंद के तीव्र ए कोई चीज नथी, पण अभाव ते चीज छे. श्री समयसारनी टीकामां श्री जयसेनाचार्ये कह्युं छे के अभवी ज्यारे शुभभाव घणो उग्र करे छे त्यारे तेने मिथ्यात्व तेम ज अनंतानुंबंधीना अनुभागनो रस मंद थाय छे. परंतु मंद पडे तेथी शुं? अभाव थवो जोईए.

अहीं कहे छे के संयमनां स्थानो ‘विकल्पलक्षणानि’ एटले भेदस्वरूप होवाथी भगवान आत्माने नथी. आ अजीव तत्त्वनो अधिकार चाले छे. माटे तेओ अजीवना होवाथी जीवने नथी एम प्रतिषेधथी वात करी छे. पहेलां जीव आवो छे आवो छे एम अस्तिथी वात करी हती. हवे अहीं जीवमां आ नथी, आ नथी एम निषेधथी वात करी छे.

हवे चक्षु, अचक्षु, अवधि अने केवळदर्शन एवा दर्शननां जे भेदस्थानो छे ते वस्तुमां- त्रिकाळी शुद्ध जीवद्रव्यमां नथी एम कहे छे. शुद्ध वस्तु तो परम पवित्र छे. परंतु पर्यायमां जे अशुद्धता थाय छे ते पोताना ऊंधा पुरुषार्थथी थाय छे, कर्मने लईने नहि. पोते रागमां रोकायो छे ते कर्मने कारणे नहि पण पोतानी ज भूलना कारणे रोकायो छे. श्री पंचास्तिकायमां आवे छे के विषयनी प्रतिबद्धता छे तेथी जीव रोकायो छे, कर्मने लईने नहीं. भाई! पूर्णानंदनो नाथ भगवान अंदर बिराजे छे. तेनो आश्रय लीधो नथी अने परनो आश्रय लीधो छे ते तारो पोतानो ज अपराध छे. शुं ते अपराध पर पदार्थे कराव्यो छे? (ना).

प्रश्नः– कोई कहे छे के प०% उपादान अने प०% निमित्तना राखो ने?

उत्तरः– भाई! सो ए सो टका आत्मानो अपराध छे. अंशमात्र पण परनो अपराध नथी. आत्मानी भूल १००% पोताथी छे अने निमित्तना १००% निमित्तमां छे. अरे! हजी वस्तु सत्य केम छे एनी खबर न होय तेने धर्म कयांथी थाय? भाई! आ संसारमांथी नीकळी जवा जेवुं छे. आ संसारनो भाव अने भेदनो भाव ए शुद्ध


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जीववस्तुमां नथी. जोके ए भेद छे पोताने कारणे, कर्मने लईने नहीं. कर्मने लईने ज्ञान रोकायुं छे एम नथी. ज्ञान पोते ज ऊंधी परिणतिए हीणपणे परिणमे छे अने तेथी अल्पज्ञ छे. तेमां उपादान तो पोतानुं छे अने ज्ञानावरणीय कर्म तो निमित्तमात्र छे.

कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म अने शुकल एम जे लेश्याना भेदो छे ते वस्तुमां-शुद्ध जीवद्रव्यमां नथी.

वळी भव्य, अभव्य एवा भेद पण जीवने नथी. भव्य-अभव्यपणुं तो पर्यायमां छे. चैतन्यस्वभावी वस्तुमां भव्य-अभव्यपणाना भेद नथी. तेथी ज भव्य हो के अभव्य, वस्तुपणे शुद्ध होवाथी प्रत्येक जीव समान छे.

हवे कहे छे क्षायिक उपशम अने क्षयोपशम एवा जे समक्तिना भेदो छे ते जीवने नथी. सम्यग्दर्शननो विषय जे अखंड ध्रुव आत्मद्रव्य छे तेमां सम्यग्दर्शनना भेदो नथी. बहु झीणुं, भाई. प्रभु! तने परमात्मा बनाववो छे ने? तुं द्रव्यस्वभावथी तो परमात्मा छो ज, परंतु पर्यायमां परमात्मा बनाववो छे, हों! भाई! तुं एवा अभेद परमात्मस्वरूपे छो के तेमां गुणभेद के पर्यायभेद नथी अने एवी अभेद द्रष्टि थतां तुं अल्पकाळमां पर्यायमां पण परमात्मपद पामीश. अहीं भेदनुं लक्ष छोडाववा उपशम, क्षयोपशम अने क्षायिक एवा समक्तिना भेदो परमात्मस्वभावमां नथी एम कह्युं छे. एक समयमां पूर्ण ज्ञानरसकंद शुद्धचैतन्यघनवस्तुनो चैतन्य-चैतन्य-चैतन्य....एवो त्रिकाळी प्रवाह ध्रुव एवो ने एवो छे. तेमां भेद केवा? माटे भेदनुं लक्ष छोडी दे, निमित्तनुं लक्ष छोडी दे अने जे त्रिकाळी ध्रुव चैतन्य छे त्यां द्रष्टि दे अने स्थिर था.

व्यवहारथी धर्म थाय एम माननारने आ एकांत जेवुं लागे. एने एम थाय के पंच महाव्रत पाळे, अनेक क्रियाओ करे, रसनो त्याग करे ए कांई नहिं? हा, भाई! ए कांई नथी. ए तो संसार छे. जीव चाहे नवमे ग्रैवेयक जाय के सातमी नरके जाय, छे तो औदयिकभाव ज ने? वस्तुना स्वरूपमां ज्यां भेद पण नथी तो वळी उदयभाव कयांथी रह्यो? अरे, क्षायिकभावनां स्थानो पण जीवमां नथी. नियमसारनी ४३मी गाथामां आवे छे के-क्षायिकभाव, उदयभाव, उपशमभाव अने क्षयोपशमभावनां स्थानो जीवमां नथी. आवो आनंदनो नाथ प्रभु पूर्ण स्वरूपे अंदर बिराजमान छे त्यां द्रष्टि दे तो तने परमात्माना भेटा थशे.

संज्ञी-असंज्ञीपणुं पण वस्तुमां नथी. वस्तु संज्ञी के असंज्ञी केवी? वस्तु तो शुद्ध चिद्रूप एकाकार छे.

आहार-अनाहारपणुं वस्तुमां-आत्मामां नथी. आहार लेवानो विकल्प के अनाहारीपणानो विकल्प ते बन्ने पर्याय छे. ए वस्तुमां नथी. आम मार्गणास्थानो सघळांय जे भेदस्वरूप छे ते जीवने नथी. कारण के तेओ पुद्गलद्रव्यना परिणाममय छे जुओ,


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भेदना भावने पण पुद्गलना परिणाम कह्या छे, कारण के अभेदस्वरूप चैतन्यमूर्तिमां भेद केवा? प्रथम एम कह्युं के बधांय मार्गणास्थानो जीवने नथी. कारण शुं? तो कहे छे कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय छे अने तेथी अनुभूतिथी भिन्न छे. अंतरमां अभेदनी अनुभूति थतां, अनुभूतिमां ते भेदो आवता नथी, पण भिन्न रही जाय छे. आवी अद्भुत वात छे!

२४. जुदी जुदी प्रकृतिओनुं अमुक मुदत सुधी साथे रहेवुं ते जेमनुं लक्षण छे एवां जे स्थितिबंधस्थानो ते बधांय जीवने नथी. जीवमां कर्मनी स्थितिबंधना प्रकारो तो नथी पण जे (जीवनी पर्यायनी) योग्यता ते पण नथी. कर्ममां जे प्रकृति, प्रदेश, स्थिति अने अनुभाग बंध छे ते तेना उपादानमां-जडमां छे. परंतु जीवनी पर्यायमां कर्मने अनुसार जे योग्यता छे ते जीवमां छे. एमां कर्म तो निमित्तमात्र छे. ज्यां निमित्त छे त्यां उपादानमां पण एवी ज योग्यता होय छे. कर्मप्रकृतिथी भिन्न, ते प्रकारनुं अशुद्ध-उपादान जीवमां पोतानामां छे. कर्मप्रकृति तो तेमां मात्र निमित्त छे. कर्मप्रकृतिमां जेटली योग्यता छे तेटली ज योग्यता उपादान (जीव)मां छे. जेटलो स्थितिबंध छे अने जेटलो प्रदेशबंध छे तेटला प्रमाणमां उपादाननी (जीवनी) पर्यायमां अशुद्धतानी योग्यता छे. हवे अहीं कहे छे के ए बधांय स्थितिबंध-स्थानो जीवने नथी. विकार एक जातनो छे छतां कर्मनी प्रकृतिमां भिन्न भिन्न स्थिति केम पडे छे? प्रकृति-विशेषने कारणे एम थाय छे. कर्मनी प्रकृतिमां स्थिति पडे छे ते पोताना कारणे छे. निमित्तपणे राग तो एक छे, छतां स्थितिमां फेर पडे छे ते, ते काळमां परमाणुनी उपादाननी स्वतंत्रताने लईने छे. अहा! गजब वात छे.

रप. कषायना विपाकनुं अतिशयपणुं जेमनुं लक्षण छे एवां जे संकलेशस्थानो ते बधांय जीवने नथी. शुं कहे छे? के पर्यायमां जे असंख्य प्रकारना अशुभ भाव थाय छे ते जीवस्वरूप नथी. पहेलां प्रीतिरूप राग अने अप्रीतिरूप द्वेष एटलुं ज आव्युं हतुं. हवे कहे छे के जीवनी पर्यायमां जे कषायना विपाकनुं अतिशयपणुं छे, जे संकलेशस्थानो छे-ते बधाय जीवने नथी. अहीं जड विपाकनी वात नथी पण जीवनी पर्यायमां थता कषायना विपाकनी वात छे. जे कर्मनो विपाक छे ते प्रमाणे आत्मामां पण कषायनो विपाक छे. ए कषायना संकलेश परिणाम छे ते स्वतंत्र छे. कर्म तीव्र छे माटे संकलेशना परिणाम थया छे एम नथी. ते समयना संकलेश परिणाम जे कषायना विपाकरूपे छे ते पोतानी पर्याय छे. परंतु ते शुद्ध आत्मवस्तुमां नथी. अहाहा! जेने जीव कहीए, भगवान आत्मा कहीए ते शुद्ध चैतन्यमां संकलेशनां स्थानो छे ज नहीं.

भाई! वस्तु तो त्रिकाळ शुद्ध ज छे. अशुद्धता छे ते पर्यायमां छे अने ते पोताने


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कारणे छे, कर्मना कारणे नहि. गोमटसारमां आवे छे के भावकलंकसुपउरा निगोदना जीवने भावकलंक (भावकर्म) सुप्रचुर छे. त्यां द्रव्यकर्मनी प्रचुरता नथी लीधी. तेना उपादानमां अशुद्धतानी-भावकलंकनी उग्रता छे अने ते पोताना कारणे छे. हवे अहीं कहे छे के ए संकलेशस्थानोना जे असंख्य प्रकार छे ते बधाय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलना परिणाममय होवाथी अनुभूतिथी भिन्न छे. शुद्ध द्रव्यस्वभावना आश्रये जे निर्मळ अनुभूति थाय छे तेमां आ संकलेशस्थानो आवतां नथी, भिन्न रही जाय छे माटे ते जीवने नथी. आवी वात छे.

२६. कषायना विपाकनुं मंदपणुं जेमनुं लक्षण छे एवां जे विशुद्धिस्थानो ते बधांय जीवने नथी. रागनी मंदताना जे असंख्य प्रकार (शुभभाव) छे ते जीवने नथी एम कहे छे. पर्यायमां जे असंख्य प्रकारना शुभभाव थाय छे ते, ज्ञानानंद स्वरूप छे जेनुं एवा शुद्ध आत्मामां नथी. ते बधाय भावथी भगवान आत्मा भिन्न छे. केम भिन्न छे? केमके शुद्ध आत्मद्रव्यनी अनुभूतिथी तेओ भिन्न रहे छे. आत्माथी भिन्न छे एम कहीने द्रव्य लीधुं अने अनुभूतिथी भिन्न कहीने वर्तमान पर्यायनी वात लीधी.

भाई! वीतरागनो मार्ग बहु सूक्ष्म छे. शुभभाव करीने पण अज्ञान वडे अनादिथी जन्म-मरणना ८४ना फेरामां फरी रह्यो छे. अहीं कहे छे के जे शुकललेश्याना शुभभाव करीने नवमी ग्रैवेयक गयो ते शुभभाव पण वस्तुमां-आत्मामां नथी. छतां शुभभावथी कल्याण थशे एम माने छे ए मोटुं अज्ञान छे. भाई! अन्य जीवोनी रक्षानो शुभभाव हो के जे वडे तीर्थंकरगोत्र बंधाय ते शुभभाव हो-ए सघळाय शुभभाव शुद्ध जीववस्तुमां नथी. केम? केमके शुद्ध जीववस्तुनो अनुभव थतां, अनुभूतिथी ते सघळाय शुभभावो भिन्न रही जाय छे, अनुभवमां आवता नथी.

प्रश्नः– शुभभाव जीवने नथी तो शुं जडने छे? क्षायिक भावनां स्थानो जीवने नथी तो शुं जडने छे? क्षायिकभाव तो सिद्धनेय छे. सातमी गाथामां कह्युं के-ज्ञानीने दर्शन, ज्ञान, चारित्र नथी तो शुं अज्ञानीने होय छे? जडने होय छे?

समाधानः– भगवान! जरा धीरजथी सांभळ, भाई. ते भेदो द्रव्यस्वभावमां नथी एम कहेवुं छे. जे अपेक्षाए वात चालती होय ते अपेक्षाए वातने समजवी जोईए. बापु! ज्ञानीने एटले के ज्ञायकभावमां आ ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवा भेद नथी. ज्ञायक तो अभेद चिन्मात्र वस्तु छे. वळी ज्ञान, दर्शन, आदि भेदनुं लक्ष करवा जतां राग थाय छे. तेथी अभेदनी द्रष्टि कराववा भेद नथी एम कह्युं छे. ज्ञायकनी द्रष्टि थतां दर्शन-ज्ञान-चारित्रना भेदो ज्ञायकमां भासता नथी. आवी वात अभ्यास विना समजवी कठण पडे पण शुं थाय? आ वातने अंतरमां बेसाडवा तेने उग्र पुरुषार्थ करवो जोईए.

पर्यायमां जे कांई शुभभाव-कषायनी मंदतानां विशुद्धिस्थान थाय छे ते बधा