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त्यारे एम ज कहेवामां आवे छे के जेना गुण दर्शन-ज्ञान-चारित्र ते जीव. जो कोई बहु साधिक होय (बुद्धिवाळो होय) तोपण आम ज कहेवुं पडे. आटलुं कहेवानुं नाम व्यवहार छे.’ पण ए व्यवहारथी जणाव्युं छे. कहेनारे के सांभळनारे व्यवहार अनुसरवा लायक नथी. भेद पाडीने समजाववानो व्यवहार छे, पण ते व्यवहारनुं अनुसरण न करवुं, वस्तु त्रिकाळ छे एनुं अनुसरण करवुं. समयसार गाथा ८नी टीकामां आनी स्पष्टता करेली छे.
जेमां भव अने भवना भावनो अभाव छे एवो भगवान आत्मा शुद्ध चेतनासिंधु छे. बनारसीदासे कह्युं छे ने केः-
मोहकर्म मम नांहि नांहि भ्रमकूप है.
शुद्ध चेतनासिंधु हमारौ रूप है.’
आ रागादि भाव चाहे शुभराग होय तोपण ते भ्रमनो कूवो छे, भवनो कूवो छे. जेनो बेहद अपरिमित ज्ञानस्वभाव छे एवो भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यनो दरियो छे. एवा चैतन्यसमुद्रमां अवगाहन कर, एनी सन्मुख थई एमां मग्न थई जा. तेथी आखा विश्वना भावोथी भिन्न एवा आनंदमां तारुं प्रवर्तन थशे. आनुं नाम धर्म छे.
कोई एम कहे के आनुं कांई साधन खरुं के नहि? श्री पंचास्तिकायमां व्यवहार निश्चयनुं साधन छे एम आवे छे ने? भाई! ए तो निमित्त केवुं होय छे तेनी वात करी छे. ए व्यवहार कांई साधन नथी, निश्चय ज साधन छे. यथार्थ साधन तो एक ज छे; पण साथे राग केवी जातनो होय छे ते देखाडवा व्यवहार उपर साधननो उपचारथी आरोप कर्यो छे.
अहीं कह्युं छे ने के आत्मा आत्मानो आत्मामां ज अभ्यास करो. तारा निर्मळ परिणमनमां एक आत्मानो साक्षात् अनुभव करो. आ अनुभव ए रत्नत्रयरूप धर्म छे, मोक्षमार्ग छे. आमां व्यवहारनो निषेध आवी गयो. कह्युं ने के जे व्यवहारनो राग छे ते चित्शक्तिथी रिक्त एटले खाली छे तेथी तेने छोड, अने चैतन्यस्वभावना सामर्थ्यनो दरियो भगवान आत्मा छे एमां प्रवेश कर, पर्यायने एक शुद्ध चैतन्यसिंधुमां निमग्न कर. मार्ग तो आ एक ज छे. ‘एक होय त्रण काळमां परमारथनो पंथ.’
आ सम्यक् एकान्त छे. निश्चयथी पण थाय अने व्यवहारथी पण थाय एम मानवुं ए तो मिथ्या अनेकान्त छे.
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आ आत्मा परमार्थे समस्त अन्यभावोथी रहित चैतन्यशक्तिमात्र छे. १४८ कर्मनी प्रकृति जे भावोथी बंधाय ते बधा भावो अचेतन छे. चेतनना भावथी, चैतन्यना निर्मळ परिणमनथी बंधन न पडे. बंधन तो चैतन्यथी खाली अचेतनभावथी पडे. अचेतन-भावथी अचेतन प्रकृतिनुं बंधन थाय.
वळी कोई एम कहे छे के जे भावथी पुण्य बंधाय ते पुण्यभावने तमे अधर्म न कहो? अरे भाई! पुण्यभाव आत्माना आनंदना प्रवर्तनथी विरुद्ध भाव छे. आत्माना आनंदनुं प्रवर्तन धर्म छे तो पुण्यभाव अधर्म छे एम सहेजे तेमां आवी जाय छे.
वस्तु नित्य, ध्रुव, आनंदनो नाथ भगवान आत्मा चिन्मात्र छे. तेना अनुभवनो अभ्यास करो एम उपदेश छे. अबुध जीवने समजाववा माटे व्यवहार द्वारा समजाव्युं छे. पण ए व्यवहारने ज जे पकडी राखे ए उपदेश सांभळवाने लायक नथी. एवो जीव भगवाननी देशनाने लायक नथी एम श्री पुरुषार्थसिद्धयुपायमां कह्युं छे.
हवे चित्शक्तिथी अन्य जे भावो छे ते बधा पुद्गलद्रव्यसंबंधी छे एवी आगळनी गाथानी सूचनिकारूपे श्लोक कहे छेः-
‘चित्शक्ति–व्याप्त–सर्वस्व–सारः अयम् जीवः इयान्’ चित्शक्तिथी व्याप्त जेनो सर्वस्वसार छे एवो आ जीव एटलो ज मात्र छे. शुं कहे छे? आ ज्ञाननुं दळ, आनंदनुं दळ, शान्तिनुं दळ एम अनंत गुणना दळथी मंडित चित्शक्ति ज जेनुं सर्वस्व छे ते जीव छे. एटलो ज मात्र आत्मा छे. आ चैतन्यशक्तिथी प्रसरवापणुं जेनुं सर्वस्व छे एटलो ज आत्मा छे.
‘अतः अतिरिक्ताः अमी भावाः सर्वे अपि पौद्गलिकाः’ आ चित्शक्तिथी शून्य जे आ भावो छे ते बधाय पुद्गलजन्य छे, पुद्गलना ज छे. दया, दान, व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादि विकल्प पुद्गलना ज छे. चाहे व्यवहारत्नत्रयना भाव हो के तीर्थंकर नामकर्म जे वडे बंधाय ए भाव हो ए बधा भाव चित्शक्तिथी खाली छे तेथी पुद्गलना ज छे, पुद्गल संबंधी छे.
प्रश्नः– रागादि भावोने पुद्गल केम कह्या?
उत्तरः– आत्मानी चैतन्यजातिना ए परिणाम नथी. रागादिने उत्पन्न करे एवो आत्मामां कोई गुण-स्वभाव नथी. तेथी ए भावो आत्माना नथी. वळी पर्यायमां उत्पन्न थता ए भावो पुद्गलना आश्रये उत्पन्न थाय छे. तेथी ए बधा पुद्गलना ज छे एम कह्युं छे. जो आत्माना होय तो ते आत्माथी भिन्न पडे नहीं.
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चित्शक्तिथी शून्य आ बधा भावो पुद्गलना ज छे. पर्याय आत्मा तरफ ढळवाने बदले पुद्गल तरफ ढळी तेथी उत्पन्न थयेला ए भावो पुद्गलसंबंधी छे. कयांक एम आवे के रागादि पोताना अशुद्ध उपादानथी थाय छे, परने लईने थता नथी; तेथी पर्यायमां उत्पन्न थवानी ते क्षण छे तेथी ए उत्पन्न थया छे. त्यां अशुद्ध उपादाननी स्वतंत्रता बताववानो हेतु छे. ज्यारे अहीं एने पुद्गलजन्य कह्या छे तेमां शुद्ध उपादानमां ए नथी तथा शुद्ध उपादानना कार्यभूत ए नथी एम बताववानो हेतु छे.
भाई! आ तारा परम हितनी वात छे. त्यारे एमांथी कोई एम पूछे के-उपदेशमात्रथी लाभ न थाय एम आप कहो छो अने हितनो उपदेश तो आप आपो छो?
समाधानः– भाई, वाणीना काळे वाणी नीकळे छे अने सांभळनारने पण तेनी योग्यताना काळे एवुं निमित्त होय छे. पण सांभळे छे तेथी तथा संभळावनार निमित्त छे तेथी ज्ञान थाय छे एम नथी. त्यां तो ज्ञाननी पर्याय उत्पन्न थवानी ए जन्मक्षण ज छे. श्री प्रवचनसारनी १०२ मी गाथामां जन्मक्षणनी वात आवे छे. स्वसन्मुख थईने निर्मळ पर्याय थाय ते काळे तेवी निर्मळता थवानो स्वकाळ ज छे, अने निमित्तादि पण एम ज छे. छतां राग के निमित्त छे माटे निर्मळता थाय छे एम नथी. निर्मळ पर्याय थवानी योग्यताना काळे यथार्थ उपदेशनुं निमित्त होय अने उपदेश सांभळवानो विकल्प पण होय पण तेथी ए निमित्त के विकल्प ज्ञान करी दे छे एम नथी.
निमित्तादि, वस्तुनी जन्मक्षण नीपजावनार नथी. जुओ, वस्तुनी जे जन्मक्षण छे ते जन्मथी व्याप्त छे, उत्पाद उत्पादथी व्याप्त छे, व्यय व्ययथी व्याप्त छे अने ध्रुव ध्रुवथी व्याप्त छे. प्रवचनसारमां आ वात लीधी छे. आ प्रवचनसार तो दिव्यध्वनिनो सार छे. भगवान एम कहे छे के-तुं अमारी दिव्यध्वनि सांभळे छे एथी तने ज्ञाननी पर्याय उत्पन्न थाय छे एम नथी, परंतु ज्ञाननी पर्यायनो जन्मक्षण छे तेथी उत्पन्न थाय छे.
श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे पण छेल्ले कह्युं छे के-हे जीवो! हुं समजावनार छुं अने तमे समजनार छो एवा मोहथी न नाचो. वाणी अमे करी छे एम न मानो. अमे तो ज्ञानमां छीए; तो वाणीने अमो केम करीए? ज्ञानमां ज हुं छुं, वाणीमां हुं आव्यो ज नथी तेथी हुं समजावनार छुं एम छे नहि. अने वाणीथी तने समजायुं एम पण नथी. आ तो दुनियाथी तद्न जुदी वात छे, भाई
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ण वि रूवं ण सरीरं ण वि संठाणं ण संहणणं।। ५० ।।
णो पच्चया ण कम्मं णोकम्मं चावि से णत्थि।। ५१ ।।
णो अज्झप्पट्ठाणा णेव य अणुभागठाणाणि।। ५२ ।।
णेव य उदयट्ठाणा ण मग्गणट्ठाणया केई।। ५३ ।।
णेव विसोहिट्ठाणा णो संजमलद्धिठाणा वा।। ५४ ।।
_________________________________________________________________
एवा ए भावोनुं व्याख्यान छ गाथाओमां करे छेः-
नहि रूप के न शरीर, नहि संस्थान, संहनने नहि; प०.
नहि प्रत्ययो, नहि कर्म के नोकर्म पण जीवने नहीं; प१.
अध्यात्मस्थान न जीवने, अनुभागस्थानो पण नहीं; प२.
नहि उद्रयस्थानो जीवने, को मार्गणास्थानो नहीं; प३.
स्थानो विशुद्धि तणां न, संयमलब्धिनां स्थानो नहीं; प४.
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जेण दु एदे सव्वे पोग्गलदव्वस्स परिणामा।। ५५ ।।
नापि रूपं न शरीरं नापि संस्थानं न संहननम्।। ५० ।।
नो प्रत्यया न कर्म नोकर्म चापि तस्य नास्ति।। ५१ ।।
नो अध्यात्मस्थानानि नैव चानुभागस्थानानि।। ५२ ।।
नैव चोदयस्थानानि न मार्गणास्थानानि कानिचित्।। ५३ ।।
नैव विशुद्धिस्थानानि नो संयमलब्धिस्थानानि वा।। ५४ ।।
_________________________________________________________________
परिणाम पुद्गलद्रव्यना आ सर्व होवाथी नक्की. पप.
गाथार्थः– [जीवस्य] जीवने [वर्णः] वर्ण [नास्ति] नथी, [न अपि गन्धः] गंध पण नथी, [रसः अपि न] रस पण नथी [च] अने [स्पर्शः अपि न] स्पर्श पण नथी, [रूपं अपि न] रूप पण नथी, [न शरीरं] शरीर पण नथी, [संस्थानं अपि न] संस्थान पण नथी, [संहननम् न] संहनन पण नथी; [जीवस्य] जीवने [रागः नास्ति] राग पण नथी, [द्वेषः अपि न] द्वेष पण नथी, [मोहः] मोह पण [न एव विद्यते] विद्यमान नथी, [प्रत्ययाः नो] प्रत्ययो (आस्रवो) पण नथी, [कर्म न] कर्म पण नथी [च] अने [नोकर्म अपि] नोकर्म पण [तस्य नास्ति] तेने नथी; [जीवस्य] जीवने [वर्गः नास्ति] वर्ग नथी, [वर्गणा न] वर्गणा नथी, [कानिचित् स्पर्धकानि न एव] कोई स्पर्धको पण नथी, [अध्यात्मस्थानानि नो] अध्यात्मस्थानो पण नथी [च] अने [अनुभागस्थानानि] अनुभागस्थानो पण [न एव] नथी; [जीवस्य] जीवने [कानिचित् योगस्थानानि] कोई योगस्थानो पण [न सन्ति] नथी [वा] अथवा [बन्धस्थानानि न] बंधस्थानो पण नथी, [च] वळी [उदयस्थानानि] उदयस्थानो पण [न एव] नथी, [कानिचित् मार्गणास्थानानि न] कोई मार्गणास्थानो पण नथी; [जीवस्य] जीवने [स्थितिबन्धस्थानानि नो] स्थितिबंधस्थानो पण नथी [वा] अथवा [संक्लेशस्थानानि न] संकलेशस्थानो पण नथी, [विशुद्धिस्थानानि] विशुद्धिस्थानो पण [न एव] नथी [वा]
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येन त्वेते सर्वे पुद्गलद्रव्यस्य परिणामाः ।। ५५ ।।
_________________________________________________________________ अथवा [संयमलब्धिस्थानानि] संयमलब्धिस्थानो पण [नो] नथी; [च] वळी [जीवस्य] जीवने [जीवस्थानानि] जीवस्थानो पण [न एव] नथी [वा] अथवा [गुणस्थानानि] गुणस्थानो पण [न सन्ति] नथी; [येन तु] कारण के [एते सर्वे] आ बधा [पुद्गलद्रव्यस्य] पुद्गलद्रव्यना [परिणामाः] परिणाम छे.
टीकाः– जे काळो, लीलो, पीळो, रातो अथवा धोळो वर्ण छे ते बधोय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. १. जे सुरभि अथवा दुरभि गंध छे ते बधीये जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. २. जे कडवो, कषायलो, तीखो खाटो अथवा मीठो रस छे ते बधोय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. ३. जे चीकणो, लूखो, शीत, उष्ण, भारे, हलको, कोमळ अथवा कठोर स्पर्श छे ते बधोय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. ४. जे स्पर्शादिसामान्यपरिणाममात्र रूप छे ते जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. प. जे औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस अथवा कार्मण शरीर छे ते बधुंय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. ६. जे समचतुरस्त्र, न्यग्रोधपरिमंडळ, स्वातिक, कुब्जक, वामन अथवा हुंडक संस्थान छे ते बंधुय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. ७. जे वज्रर्षभनाराच, वज्रनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका अथवा असंप्राप्तासृपाटिका संहनन छे ते बधुंय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. ८. जे प्रीतिरूप राग छे ते बधोय जीवने नथी कारण ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. ९. जे अप्रीतिरूप द्वेष छे ते बधोय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. १०. जे यथार्थ तत्त्वनी अप्रतिपत्तिरूप (अप्राप्तिरूप) मोह छे ते बधोय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. ११. मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योग जेमनां लक्षण छे एवा जे प्रत्ययो ते बधाय जीवने नथी कारण के ते पुद्गल-द्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. १२. जे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र अने अंतरायरूप कर्म छे ते बधुंय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. १३.
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जे छ पर्याप्तियोग्य अने त्रण शरीरयोग्य वस्तु(-पुद्गलस्कंध)रूप नोकर्म छे ते बधुंय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. १४ जे कर्मना रसनी शक्तिओना (अर्थात् अविभाग परिच्छेदोना) समूहरूप वर्ग छे ते बधोय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. १प. जे वर्गोना समूहरूप वर्गणा छे ते बधीये जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. १६. जे मंदतीव्र रसवाळां कर्मदळोना विशिष्ट न्यास(-जमाव) रूप (अर्थात् वर्गणाओना समूहरूप) स्पर्धको छे ते बधाय जीवने नथी कारण के ते पुद्गल द्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. १७. स्वपरना एकपणानो अध्यास होय त्यारे (वर्ततां), विशुद्ध चैतन्यपरिणामथी जुदापणुं जेमनुं लक्षण छे एवां जे अध्यात्मस्थानो ते बधांय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. १८. जुदी जुदी प्रकृतिओना रसना परिणाम जेमनुं लक्षण छे एवां जे अनुभागस्थानो ते बधांय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. १९. कायवर्गणा, वचनवर्गणा अने मनोवर्गणानुं कंपन जेमनुं लक्षण छे एवां जे योगस्थानो ते बधांय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. २०. जुदी जुदी प्रकृतिओना परिणाम जेमनुं लक्षण छे एवां जे बंधस्थानो ते बधांय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. २१. पोतानुं फळ उत्पन्न करवामां समर्थ कर्म अवस्था जेमनुं लक्षण छे एवां जे उदयस्थानो ते बधांय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. २२. गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञा अने आहार जेमनां लक्षण छे एवां जे मार्गणास्थानो ते बधांय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. २३. जुदी जुदी प्रकृतिओनुं अमुक मुदत सुधी साथे रहेवुं ते जेमनुं लक्षण छे एवां जे स्थितिबंधस्थानो ते बधांय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. २४. कषायना विपाकनुं अतिशयपणुं जेमनुं लक्षण छे एवां जे संकलेशस्थानो ते बधांय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. २प. कषायना विपाकनुं मंदपणुं जेमनुं लक्षण छे एवां जे विशुद्धिस्थानो ते बधांय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. २६. चारित्रमोहना विपाकनी क्रमशः निवृत्ति जेमनुं लक्षण छे एवां जे संयमलब्धिस्थानो ते बधांय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय
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भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः
तेनैवान्तस्तत्त्वतः पश्यतोऽमी
नो द्रष्टाः स्युर्द्रष्टमेकं परं स्यात्।। ३७ ।।
_________________________________________________________________ होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. २७. पर्याप्त तेम ज अपर्याप्त एवां बादर ने सूक्ष्म एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय अने संज्ञी तथा असंज्ञी पंचेंद्रिय जेमनां लक्षण छे एवां जे जीवस्थानो ते बधांय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. २८. मिथ्याद्रष्टि, सासादन सम्यग्द्रष्टि, सम्यग् मिथ्याद्रष्टि, असंयतसम्यग्द्रष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण-उपशमक तथा क्षपक, अनिवृत्तिबादरसांपराय-उपशमक तथा क्षपक, सूक्ष्मसांपराय-उपशमक तथा क्षपक उपशांतकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवळी अने अयोगकेवळी जेमनां लक्षण छे एवां जे गुणस्थानो ते बधांय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. २९. (आ प्रमाणे आ बधाय पुद्गलद्रव्यना परिणाममय भावो छे; ते बधा, जीवना नथी. जीव तो परमार्थे चैतन्यशक्तिमात्र छे.)
हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [वर्ण–आद्याः] जे वर्णादिक [वा] अथवा [राग–मोह–आदयः वा] रागमोहादिक [भावाः] भावो कह्या [सर्वे एव] ते बधाय [अस्य पुंसः] आ पुरुषथी (आत्माथी) [भिन्नाः] भिन्न छे [तेन एव] तेथी [अन्तःतत्त्वतः पश्यतः] अंतर्दष्टि वडे जोनारने [अमी नो द्रष्टाः स्युः] ए बधा देखाता नथी, [एकं परं द्रष्टं स्यात्] मात्र एक सर्वोपरी तत्त्व ज देखाय छे-केवळ एक चैतन्यभावस्वरूप अभेदरूप आत्मा ज देखाय छे.
भावार्थः– परमार्थनय अभेद ज छे तेथी ते द्रष्टिथी जोतां भेद नथी देखातो; ते नयनी द्रष्टिमां पुरुष चैतन्यमात्र ज देखाय छे. माटे ते बधाय वर्णादिक तथा रागादिक भावो पुरुषथी भिन्न ज छे.
आ वर्णथी मांडीने गुणस्थान पर्यंत जे भावो छे तेमनुं स्वरूप विशेषताथी जाणवुं होय तो गोम्मटसार आदि ग्रंथोमांथी जाणी लेवुं. ३७.
भगवान आत्मा आनंदनो नाथ नित्यानंद प्रभु ध्रुव छे. तेने आ बधा भावो जे चैतन्यशक्तिथी शून्य छे ते नथी. ते बधाय भावो पुद्गलना परिणाम छे तेम छ गाथाओमां कहे छेः-
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जे काळो, लीलो, पीळो, रातो अथवा धोळो वर्ण छे ते बधोय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी अनुभूतिथी भिन्न छे. काळो, लीलो, पीळो, इत्यादि वर्ण छे ते रंग गुणनी पर्यायो छे अने तेथी ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय छे. भाषा जुओ. ‘पुद्गलना परिणाम’ एम न कहेतां ‘पुद्गलद्रव्यना परिणाममय’ एम कह्युं छे. रंगगुणनी ए सघळी पर्यायो पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. अहीं जीवद्रव्यथी भिन्न न कहेतां, अनुभूति के जे पर्याय छे तेनाथी भिन्न कह्युं छे. आशय एम छे के चैतन्यस्वभावी निज आत्मानो अनुभव थतां, अनुभूतिमां आ रंगनी पांचेय पर्यायोथी हुं भिन्न छुं एवुं ज्ञान थाय छे. पर्याय स्वद्रव्य तरफ वळतां जे अनुभूति थाय ते अनुभूतिथी आ रंगनी पांचे पर्यायो भिन्न रही जाय छे. ७३मी गाथामां ‘सर्व कारकोना समूहनी प्रक्रियाथी पार ऊतरेली जे निर्मळ अनुभूति’-एम अनुभूतिनुं व्याख्यान छे ते त्रिकाळी शुद्ध अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा संबंधी छे. ते बीजी वात छे. अहीं तो एम लेवुं छे के परथी खसीने स्वद्रव्यमां ढळतां जे स्वानुभूति थाय छे ते स्वानुभूतिथी रंगनी पांचेय पर्यायो भिन्न छे.
२. जे सुरभि अथवा दुरभि गंध छे ते बधीय जीवने नथी. ‘समयसार नाटक’मां आवे छे के मुनिनो श्वास सुगंधमय होय छे. जेमने घणी निर्मळता प्रगटी छे अने जेओ अतीन्द्रिय आनंदनी मोजमां पडया छे तेओ कोगळा न करे तोपण दांत पीळा थता नथी. निर्मळतानी दशामां मुनिने श्वासमां पण सुगंध आवे छे. अहाहा! भगवान निर्मळानंद प्रभु ज्यां जागीने अंतरनो पटारो (निधि) खोले छे अने अंदर जुए छे त्यां पर्यायमां अतीन्द्रिय आनंद आवे छे अने श्वासमां सुगंध आवे छे. छतां ते सुगंधथी आत्मा (मुनि) भिन्न छे. कारण के पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी सुरभि अथवा दुरभि जे गंधनी पर्याय छे ते अनुभूतिथी भिन्न छे. एटले के ज्यारे स्वरूपनो अनुभव थाय छे त्यारे ते गंधथी भिन्न पडे छे. भिन्न छे एम कयारे कहेवाय? के ज्यारे गंधथी खसीने आत्मानी अनुभूतिमां आवे त्यारे भिन्न छे एम यथार्थपणे कहेवाय.
३. जे कडवो, कषायलो, तीखो, खाटो अथवा मीठो रस छे ते बधोय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी अनुभूतिथी भिन्न छे आत्मानी अनुभूतिथी पांचेय रस-पर्याय भिन्न छे.
४. तेवी रीते जे चीकणो, लूखो, शीत, उष्ण, भारे, हलको, कोमळ अथवा कठोर स्पर्श छे ते बधोय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी अनुभूतिथी भिन्न छे.
प. हवे पांचमा बोलमां उपरना चारेय बोलने भेगा करीने कहे छे के-जे
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स्पर्शादि सामान्यपरिणाममात्र रूप छे ते जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी अनुभूतिथी भिन्न छे.
६. जे औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस अथवा कार्मण शरीर छे ते बधुंय जीवने नथी. जुओ, कार्मण शरीर पण जीवने नथी, जीवमां नथी कारण के ते जडना परिणाम होवाथी भिन्न स्वतंत्र छे. आत्माने अने तेने निमित्त-नैमित्तिक संबंध पण अहीं कहेवामां आव्यो नथी. अहीं एवी शैली लीधी छे के पुद्गलना परिणामने आत्मद्रव्यथी भिन्न न कहेतां अनुभूतिथी भिन्न कह्या छे. जेणे परथी भिन्न पडीने अनुभूति वडे आत्माने जाण्यो छे तेने ते सर्व पर छे. संस्कृत टीकामां ‘पोतानी अनुभूति’ तेवो पाठ नथी. पण पंडित श्री जयचंदजीए ‘पोतानी अनुभूति’ एम लीधेल छे तेथी अहीं ‘पोतानी’ शब्द कौंसमां लखेल छे. अहा! आत्मा अखंड निर्मळानंदस्वरूप वस्तु छे अने तेनी निर्मळ दशा ते अनुभूति छे. परथी भिन्न पडीने आत्मसन्मुख थई आत्माने जाणतां अनुभूतिनी निर्मळ दशा प्रगट थाय छे. ते अनुभूतिथी कार्मणशरीर आदि भिन्न छे एम अहीं कहे छे.
पंचाध्यायीमां (नयाभासना प्रकरणमां) एवो प्रश्न उठाव्यो छे के शरीर अने आत्माने र्क्ताकर्म संबंध तो नथी, परंतु निमित-नैमित्तिक संबंध तो छे ने? एना उत्तररूपे त्यां (पद्य प७१मां) कह्युं छे के द्रव्य स्वयं स्वतः परिणमनशील छे तो निमित्तपणानुं शुं काम छे? जुओ भाई, शरीर पोताना कारणे परिणमे छे अने आत्मा पण पोताना कारणे परिणमे छे. पोतानी मेळे परिणमवानो ते दरेकनो स्वभाव छे. द्रव्य स्वतः परिणमनशील छे एम त्यां लीधुं छे. त्यारे कोई कहे के-
प्रश्नः– कोई वखते उपादानथी थाय अने कोई वखते निमित्तथी थाय एम स्याद्वाद करो ने?
उत्तरः– भाई, कार्य हंमेशा निज उपादानथी ज थाय अने कदीय निमित्तथी न थाय ए स्याद्वाद छे. निमित्त तो पर वस्तु छे. तेनुं परिणमन तेने लईने अने स्वनुं परिणमन स्वने लईने छे. तेमां निमित्तनुं शुं काम छे? त्यारे ते कहे छे के शरीर चाले छे तेमां आत्मानुं निमित्त तो छे ने? भाई, निमित्त तो छे, पण निमित्त छे एनो अर्थ शुं? शुं निमित्त छे माटे शरीर चाले छे, परिणमे छे? तथा आत्मानी अनुभूतिनुं परिणमन, शुं शरीर छे तेथी थाय छे? आ जे आत्मानुभूति थई छे ते शुं कार्मणशरीरना उद्रयना अभावने कारणे थई छे-एम छे? ना, एम छे ज नहि. (दरेकनुं परिणमन स्वतंत्र छे) बनारसीदासे पण कह्युं छेः-
ज्यां पोतानुं बळ (उपादान शक्ति) छे त्यां निमित्त शुं करे? स्व अने परनुं
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एकपणुं त्रणकाळमां थतुं नथी. माटे निमित्त छे तेथी पोतानामां परिणमन थाय छे एम छे ज नहि. शरीरनुं परिणमन, जीवनुं निमित्त छे तेथी थयुं छे के जीवनी अनुभूतिनुं परिणमन, निमित्त छे माटे थयुं छे एम नथी. शरीरनी परिणति शरीरमां अने आत्मानी परिणति आत्मामां छे. आत्माना निमित्ते शरीरमां परिणति थई छे एम नथी. तथा कर्मना उद्रयनो अभाव छे माटे अनुभूतिनुं परिणमन थयुं छे एम पण नथी. वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे. कोई वखते निमित्तथी अने कोई वखते उपादानथी कार्य थाय ए स्याद्वाद नथी पण फुदडीवाद छे, मिथ्यावाद छे. त्रणे काळ अने त्रणे लोकमां चैतन्यनी के जडनी क्रमबद्ध परिणति पोतपोताना उपादानथी थाय छे. एमां परनी रंचमात्र अपेक्षा नथी. उपादाननुं परिणमन निमित्तथी हंमेशां निरपेक्ष ज थाय छे.
अहीं तो विशेष कार्मण शरीरनी वात लेवी छे. कार्मण शरीर निमित्त छे माटे जीवमां (रागादि) परिणमन थाय छे के जीवमां स्वानुभूति प्रगट थई माटे कार्मण शरीर अकर्म अवस्था रूप थाय छे एम नथी. एवो ए बे वच्चे कोइ संबंध नथी. अहीं कहे छे के कार्मण शरीर आदि जीवने नथी कारण के ते पुद्गलना परिणाममय होवाथी अनुभूतिथी भिन्न छे. कहेवुं छे तो आत्माथी भिन्न पण अहीं अनुभूतिथी भिन्न कह्युं केमके ए सर्व शरीरथी भिन्न पडी निज चैतन्यस्वभावी आत्मानुं लक्ष करतां जे स्वानुभूति प्रगट थई ते स्वानुभूतिमां हुं देहथी भिन्न छुं एवो निज चैतन्यस्वरूप वस्तुनो अनुभव थाय छे. बहु झीणी वात, भाई.
जुओ, परमाणु अने आत्मानो स्वतंत्र निर्बाध परिणमनस्वभाव होवाथी तेओ क्रमप्रवाहरूपे निरंतर परिणम्या करे छे. तेमां बीजो होय तो परिणमे एम छे ज नहि. काळद्रव्य न होय तो परिणमन न थाय एम ज्यां कह्युं छे त्यां तो (यथार्थ निमित्तनुं ज्ञान करावी) काळद्रव्यने सिद्ध करवानुं प्रयोजन छे. खरेखर तो सर्व द्रव्योनो स्वतंत्र परिणमनस्वभाव छे. त्यां कोई कहे के काळद्रव्य परिणमनमां निमित्त तो छे ने? (निमित्त छे एनी कोण ना पाडे छे?) पण तेथी सर्व द्रव्योमां थतुं परिणमन शुं काळद्रव्यने लीधे छे? (ना, एम नथी). दरेक पदार्थनुं परिणमन पोताना कारणे ज छे. दरेक पदार्थ ते ते समये क्रमसर-क्रमबद्ध प्रवाहरूपे परिणमे छे.
प्रवचनसार गाथा ९३मां द्रव्य संबंधी विस्तारसमुदाय अने आयतसमुदायनी वात आवे छे. द्रव्यमां जे अनंतगुणो एक साथे छे ते विस्तारसमुदाय छे अने क्रमप्रवाहरूपे दोडती जे पर्यायो छे ते आयतसमुदाय छे. त्यां पर्यायो जे छे ते धारावही दोडता क्रमबद्ध-प्रवाहरूपे छे. वळी एमां ज (प्रवचनसारमां) गाथा १०२मां दरेक पदार्थनी जन्मक्षणनी वात छे. एटले के पदार्थमां जे ते पर्यायनो जन्म-उत्पत्ति थवानो पोतानो काळ छे तेथी ते थाय छे. निमित्त छे माटे ते पर्याय उत्पन्न थाय छे एम नथी. निमित्त
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निमित्तमां छे अने उपादान (वस्तु) उपादानमां छे. कोईपण समये जो निमित्तने लईने उपादानमां परिणमन थाय तो क्रमप्रवाहरूपे उपादान-वस्तु परिणमे छे ए कयां रह्युं? प्रत्येक वस्तुमां पर्यायनो क्रमबद्ध प्रवाह थाय छे अने ते दोडतो थाय छे. एटले वच्चे एक समयनो पण आंतरो पडतो नथी. ते पर्यायोना प्रवाहमां वस्तुमां स्वकाळे जे पर्याय उत्पन्न थाय त्यारे निमित्त हो भले, पण तेमां निमित्त शुं (कार्य) करे? निमित्त तो निमित्तना स्वकाळमां छे; बस, एटलुं ज.
दरेक द्रव्यनी काळलब्धि होय छे. छये द्रव्य काळलब्धि सहित छे. एटले के द्रव्यनी जे समये जे पर्याय थाय छे ते तेनी काळलब्धि छे. ते समये निमित्त हो भले, पण निमित्तना कारणे पर्याय थई छे एम नथी. पर्याय स्वकाळे पोताथी ज थाय छे, निमित्तथी नहि-एम कहेवुं ते अनेकान्त छे, स्याद्वाद छे. बे कारणथी कार्य थाय छे एम कह्युं होय त्यां तो निमित्तनुं ज्ञान कराववानुं प्रयोजन छे. निश्चयथी तो ते ते समयनुं कार्य पोताथी ज थयुं छे. आ निश्चय राखीने निमित्तनुं ज्ञान कराववा व्यवहारथी कहेवाय छे के बे कारणथी कार्य थयुं छे, अने त्यारे प्रमाणज्ञान थाय छे. प्रमाणज्ञानमां, कार्य पोताथी ज थाय छे ए निश्चयनी वात राखीने, निमित्तनुं ज्ञान कराववा निमित्तथी थाय छे एम कह्युं छे. प्रमाणज्ञानमां, निश्चयनो निषेध करीने निमित्तथी कार्य थाय छे एम कह्युं नथी. प्रमाणज्ञानमां, जे परिणमन थाय छे ते निश्चयथी स्व-आश्रये पोताथी ज थाय छे ए वात राखीने प्रमाणनुं ज्ञान कराववा निमित्तने भेळव्युं छे. जो निश्चयने छोडी दे तो प्रमाणज्ञान ज साचुं न थाय. निश्चयनी वातने जेम छे तेम (यथार्थ) राखीने प्रमाणज्ञान कराव्युं छे. उपादाननुं यथार्थ ज्ञान करावीने निमित्तनुं ज्ञान कराव्युं छे.
नयचक्रमां आवे छे के-प्रमाण पूज्य नथी पण निश्चयनय पूज्य छे.
प्रश्नः– प्रमाण केम पूज्य नथी?
उत्तरः– कारण के एमां पर्यायनो (व्यवहारनो) निषेध थतो नथी. ज्यारे निश्चयनयमां पर्यायनो निषेध थाय छे.
प्रश्नः– निश्चयनयमां तो एक द्रव्य ज मात्र छे, ज्यारे प्रमाणज्ञानमां तो द्रव्य-पर्याय बन्नेय आवे छे. माटे ते प्रमाणज्ञान पूज्य केम नहि?
उत्तरः– कारण के निश्चयनयमां पर्यायनो निषेध छे अने स्वनो आश्रय छे. पर्यायना निषेधपूर्वक स्वनो आश्रय करे छे तेथी निश्चयनय पूज्य छे. आवी खुल्ली चोख्खी वात छे. कोई बीजा प्रकारे माने तो मानो, पण तेथी वस्तुस्वरूप कांई बदलाई जतुं नथी.
प्रश्नः– जो उपादानथी ज (कार्य) थतुं होय तो आपे बोलवानी (प्रवचन करवानी) कांई जरूर नथी. पण आप बोलो तो छो? आप निमित्तनो आश्रय ज्यारे लो छो त्यारे तो बीजाने समजावी शको छो. माटे निमित्त सिद्ध थई गयुं.
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उत्तरः– भगवान! निमित्त तो छे. (छे एनो कोण निषेध करे?). पण निमित्त करे शुं? भाई! शरीरना एकेएक रजकणनो ते ते काळे परिणमवानो स्वभाव छे तेथी ते पोताना कारणे स्वकाळे परिणमे छे. तेमां निमित्तनो दाव ज कयां छे? रमतमां दाव आवे त्यारे पासा नाखे छे. पण अहीं तो निमित्तनो दाव ज आवतो नथी. कह्युं छे ने के-
जेम सूर्यनो रथ एक पैडाथी चाले छे तेम दरेक पदार्थ एकला पोताना परिणमन- स्वभावथी ज परिणमे छे, तेमां बीजानी अपेक्षा नथी. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धरत्नत्रयना परिणमनमां पण परनी अपेक्षा नथी. श्री नियमसारनी बीजी गाथानी टीकामां आवे छे के ‘निज परमात्मतत्त्वनां सम्यक्-श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप शुद्धरत्नत्रयात्मक मार्ग परम निरपेक्ष होवाथी मोक्षनो उपाय छे.’ आम निश्चय मोक्षमार्गने व्यवहारनी के निमित्तनी अपेक्षा छे ज नहि. आ परम वीतरागना शास्त्रनुं कथन छे.
प्रश्नः– तो व्यवहारनय शी रीते प्रयोजनवान छे?
उत्तरः– तेने जाणवो ते प्रयोजनवान छे. बारमी गाथानी टीकामां आवे छे के व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान छे. ते कई रीते? के निश्चयस्वभावनो आश्रय थतां स्वानुभूति प्रगट थाय छे, सम्यग्दर्शन थाय छे छतां पर्यायमां अपूर्णता तथा रागनो अशुद्धतानो भाग ते ते काळे होय छे. तेने ते ते काळे जाणवो-‘तदात्वे प्रयोजनवान्’ प्रयोजवान छे. ज्यां सुधी पूर्ण शुद्धता थाय नहीं त्यां सुधी पर्यायमां जे अशुद्धतानो भाग छे तेने ते समये जाणवो-एम व्यवहारनय जाणेलो प्रयोजनवान छे. व्यवहारनय छे, व्यवहारनयनो विषय पण छे; परंतु व्यवहारनय जाणेलो प्रयोजनवान छे, आदरेलो नहि.
त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य छे ते निश्चयनयनो विषय छे. ज्यारे पर्यायमां जे साधकपणुं छे, अपूर्णता छे अर्थात् शुद्धता तेम ज अशुद्धताना अंशो छे ए बधो व्यवहारनयनो विषय छे. तेने ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे. व्यवहारनय आश्रय करवा लायक नथी माटे व्यवहारनय छे ज नहि एम नथी. जो व्यवहारनय होय ज नहि तो चोथुं, पांचमुं, छठ्ठुं, आदि गुणस्थानो बनशे ज नहि. अने तो पछी तीर्थनो ज नाश थशे, अर्थात् पर्यायना जे भेद छे ते रहेशे ज नहि. माटे जेम निश्चयनयनो विषय छे, तेम व्यवहारनयनो पण विषय तो छे पण ते आश्रय करवा लायक नथी एम यथार्थ समजवुं.
अहीं कार्मण शरीरनी वात चाले छे. जे कर्मनो उद्रय छे ते जडनी पर्याय छे, पुद्गलना परिणाममय छे. माटे ते भगवान आत्माथी भिन्न छे एम कहे छे. पाठमां तो शरीरने आत्माथी भिन्न न कहेतां अनुभूतिथी भिन्न कह्युं छे, केमके राग, कर्म अने शरीरनी परिणतिथी लक्ष छोडीने जेणे एक चैतन्यस्वभावी आत्माना लक्षे अनुभूति प्रगट करी छे तेने तेओ भिन्न छे एम जणाय छे. शरीरादिने कहेवा छे तो आत्माथी भिन्न, पण
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ज्यारे शरीरादिथी भिन्न परिणति करे त्यारे भिन्न छे एम ख्याल आवे ने? तेथी ते शरीरादि अनुभूतिथी भिन्न छे एम अहीं कह्युं छे.
औदारिक शरीर पुद्गलमय परिणाम छे. तेनुं क्षणे क्षणे जे परिणमन थाय छे ते जड पुद्गलमय छे. ते जीवमय नथी के जीवना परिणाममय नथी. अंदर आत्मा छे माटे ते चाले छे, परिणमे छे एम नथी. तेवी रीते रागनुं निमित्त छे माटे कार्मण शरीरनुं परिणमन थाय छे एम नथी. राग छे माटे ते वखते कर्मने चारित्रमोहपणे परिणमवुं पडे छे एम नथी. ते वखते परमाणुमां ते रीते परिणमवानो स्वकाळ छे तेथी ते रीते ते परिणमे छे. एमां रागनी कांई अपेक्षा नथी. तेम आहारक ऋद्धिधारी मुनिने प्रश्न पूछवानो विकल्प आव्यो माटे आहारक शरीर बन्युं एम नथी. ते समये आहारक शरीरनो परिणमवानो काळ हतो माटे ते आहारक शरीर बन्युं छे. जीवे तेने बनाव्युं एम कहेवुं ए बधी (व्यवहारनी) वातो छे.
वैक्रियक शरीर अनेक रूप धारण करे छे. ते वैक्रियक शरीरना परमाणुओनी पर्याय पुद्गलमय छे. जीवनी इच्छा छे माटे ते अनेक रूप धारण करे छे एम नथी. जे ते क्षणे जे रूपे परिणमवानो तेनो स्वकाळ छे ते रूपे ते स्वयं परिणमे छे. आ प्रमाणे औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस अने कार्मण शरीर-बधाय जीवने नथी, कारण के ते पुद्गल-द्रव्यना परिणाममय होवाथी पोतानी अनुभूतिथी भिन्न छे. निज शुद्ध परमात्मानी अनुभूतिमां तेओ भिन्न भासे छे तेथी ते जीवने नथी. परथी भिन्न पडीने ज्यारे आत्मानुभूति करे छे त्यारे ते अनुभूतिथी शरीरना परिणाम तद्न भिन्न रही जाय छे.
जुओ, औदारिक, वैक्रियक, आदि शरीर (शरीरपणे) छे खरां, पण ते बधांय जीवने नथी. जीव तो शरीर विनानो चैतन्यरूपे त्रिकाळ छे. विश्वमां वस्तुओ अनंत छे. जे अनंत छे ते अनंतपणे कयारे रहे? के ज्यारे एकबीजाना कार्यने करे नहि त्यारे. एकबीजामां भळे नहि तो अनंत अनंतपणे रहे. जो एकथी बीजानुं कार्य थाय तो पृथक्पणे अनंत वस्तु रहे नहीं. जो दरेक वस्तुनी परिणति पोताथी थाय अने बीजाथी न थाय एम रहे तो ज अनंत वस्तुओनी अनंतपणे हयाती सिद्ध थाय. तेथी जीव अने औदारिक आदि शरीर जेम छे तेम पृथक् पृथक् समजवां जोईए.
७. समचतुरस्त्र्रसंस्थान जे शरीरनो आकार छे ते पण पुद्गलमय परिणाम छे. ते तेना पोताना कारणे थाय छे. नामकर्मनो उद्रय निमित्त छे माटे थाय छे एम नथी. अहा! गजब वात छे! अंदर पुण्यनो उद्रय छे माटे पैसा आवे छे एम नथी, कारण के उदयना परिणाम भिन्न छे अने जे पैसा आवे छे एनी परिणति भिन्न छे. माटे कर्मने लईने पैसा आवे छे ए वात यथार्थ नथी. साताना उद्रयने लईने अनुकूळ संजोगो मळे छे एम कहेवुं ए पण कथनमात्र छे, वस्तुस्वरूप एम नथी. तेवी रीते असाताना उद्रयने
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लईने शरीरमां रोग थाय छे ते पण निमित्तनुं कथन छे. बाकी तो शरीरना परमाणुओने रोगरूपे परिणमवानो काळ होवाथी रोगरूपे परिणमे छे. समचतुरस्त्र संस्थाननी जेम न्यग्रोधपरिमंडळ, स्वाति, कुब्जक, वामन अथवा हुंडक संस्थान-ते बधाय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी अनुभूतिथी भिन्न छे. आ शरीरनो जे आकार छे ते बधो जडनो आकार छे, पुद्गलना परिणाममय छे. आत्माने लईने तेमां कांई थाय छे एम तो नथी, पण पूर्वे जे शुभाशुभभाव करेला त्यारे जे कर्म बंधायां हतां ते कर्मने लईने एमां कांई थाय छे एम पण नथी.
८. हवे संहनननी-हाडकांनी मजबूताईनी वात करे छे. वज्रर्षभनाराच संहनन विना केवळज्ञान न थाय एम आवे छे ने? भाई, निश्चयथी तो केवळज्ञाननी पर्याय पोताना कारणे थाय छे, द्रव्यना तथा गुणना कारणे थाय छे एम पण नथी. ते पर्यायनुं परिणमन, पोताना षट्कारकथी ते रूपे परिणमवानो काळ छे तेथी थाय छे, वज्रर्षभनाराच संहनन निमित्त छे माटे केवळज्ञान थाय छे एम नथी. स्त्रीने त्रण संहनन होय छे, अने तेथी तेने केवळज्ञान थाय नहीं एम शास्त्रमां आवे छे. ए तो स्त्री पर्यायमां केवळज्ञान थवानी योग्यता नथी तेथी थतुं नथी त्यारे निमित्त केवुं होय छे तेनुं त्यां ज्ञान कराव्युं छे. स्त्रीनुं शरीर छे माटे साधुपणुं आवतुं नथी एम नथी. परंतु स्त्रीनो देह होय तेने आत्मानी परिणतिनुं छठ्ठुं गुणस्थान आवे एवी योग्यता ज होती नथी एम निमित्तनुं त्यां यथार्थ ज्ञान कराव्युं छे.
जेने पूर्णज्ञान थवानुं छे तेना शरीरनी दशा नग्न ज होय छे. वस्त्र होय अने मुनिपणुं आवे तथा वस्त्र सहितने केवळज्ञान थाय ए वस्तुनुं स्वरूप ज नथी. छतां परद्रव्य छे माटे केवळज्ञान नथी एम नथी. भारे विचित्र! एक बाजु एम कहे के वस्त्र सहितने मुनिपणुं आवे नहीं अने वळी पाछुं एम कहे के परद्रव्य नुकशान करे नहि! भाई, मुनिपणानी दशा छे ते संवर-निर्जरानी दशा छे. हवे जे संवर-निर्जरानी दशा छे ते काळमां विकल्पनी एटली ज मर्यादा छे के तेमां वस्त्रादिग्रहणनो (हीन) विकल्प होई शके नहीं. तेथी जेने वस्त्र-ग्रहणनो विकल्प छे तेने ते भूमिकामां मुनिपणुं संभवित नथी. तेथी जे कोई वस्त्र सहित मुनिपणुं माने छे तेने आस्रवसहित सातेय तत्त्वनी भूल छे. तेथी तो श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे कह्युं छे के वस्त्रनो धागो पण राखीने जो कोई मुनिपणुं माने के मनावे तो ते निगोदमां जाय छे. (अष्टपाहुड) अहीं कहे छे के संहननमात्र जीवने नथी. जे वज्रर्षभनाराच, वज्रनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका, अथवा असंप्राप्तासृपाटिका संहनन छे ते बधुंय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी अनुभूतिथी भिन्न छे.
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९. हवे रागनी वात करे छे. जे प्रीतिरूप राग छे ते बधोय जीवने नथी. आ दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादि शुभराग छे-ते बधोय जीवने नथी, कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय छे अने तेथी अनुभूतिथी भिन्न छे. आकरी वात, भाई! अहीं कहे छे के जे महाव्रतना परिणाम छे ते पुद्गलना परिणाम छे. स्वभावमां तो एवो कोई गुण नथी जे रागरूपे परिणमे. छतां पर्यायमां जे राग थाय छे ते निमित्तने आधीन थतां थाय छे. माटे जे राग थाय छे तेने पुद्गलना परिणाममय कह्यो छे. जुओ, व्यवहाररत्नत्रयना भावने पण पुद्गलना परिणाम कह्या छे. माटे जे व्यवहाररत्नत्रयथी निर्जरा थवी माने छे ते अचेतन पुद्गलथी चैतन्यभाव थवो माने छे. पण ए भूल छे.
भगवान आत्मा चैतन्यस्वरूप ज्ञानपुंजी प्रभु आनंदनो कंद छे प्रीतिरूप राग सघळोय तेने नथी केम के ते पुद्गलना परिणाममय छे. त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यना अंतरमां ढळेली पर्याय जे अनुभूति ते अनुभूतिथी राग भिन्न रही जाय छे. अहाहा....! त्रिकाळी शुद्ध उपादानमां निमग्न थयेली अनुभूतिथी राग सघळोय भिन्न रही जाय छे. भाई! जेने प्रीतिरूप रागनो प्रेम छे, मंद रागनो प्रेम छे तेने खरेखर पुद्गलनो प्रेम छे, तेने आनंदनो नाथ भगवान आत्मानो प्रेम नथी. जेने शुभरागनो प्रेम छे ते आत्माना पडखे चडयो ज नथी. तेने आत्मा प्रत्ये अनादर छे. अहीं कहे छे के स्वद्रव्यना आश्रये जे निर्मळ अनुभूति प्रगट थाय छे ते अनुभूतिथी शुभाशुभ सघळोय राग पर तरीके भिन्न रही जाय छे तेथी राग बधोय जीवने नथी.
प्रश्नः– रागने पुद्गल परिणाममय केम कह्यो? शास्त्रमां तो एम आवे छे के जीवने दसमा गुणस्थान सुधी राग होय छे?
उत्तरः– भाई! राग छे ते वस्तुद्रष्टिथी जोतां स्वभावभूत नथी. रागमां चैतन्यना नूरनो अंश नथी. आत्मा चिन्मात्रस्वरूप भगवान अनंतशक्तिथी मंडित महिमावंत पदार्थ छे, पण तेमां एकेय शक्ति एवी नथी जे राग उत्पन्न करे, विकाररूपे परिणमे. छतां पर्यायमां जे राग थाय छे ते पर्यायनो धर्म छे. निमित्तने आधीन थई परिणमतां पर्यायमां राग थाय छे. (स्वभावने आधीन थतां राग थतो नथी). तथा ते स्वानुभूतिथी भिन्न पडी जाय छे. माटे असंख्यात प्रकारे थतो सघळोय शुभाशुभ राग, जीवस्वभावरूप नहि होवाथी तथा अनुभूतिथी भिन्न पडी जतो होवाथी निश्चयथी पुद्गल परिणाममय कह्यो छे. जोके अशुद्ध निश्चयथी रागने जीवनी पर्याय कही छे, परंतु अशुद्ध निश्चय छे ए ज व्यवहारनय छे. पर्यायनुं यथार्थ ज्ञान कराववा सिद्धांतमां अशुद्धनिश्चयनयथी एटले के असद्भूत व्यवहारनयथी दसमा गुणस्थान सुधी जीवने राग होय छे एम कह्युं छे. वास्तवमां राग पररूप अचेतन जड पुद्गल- परिणाममय छे. राग जो जीवनो होय तो कदीय जीवथी भिन्न पडे नहि तथा जीवनी जे (राग रहित) निर्मळ अनुभूति
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थाय छे ते थाय ज नहि. भाई! आ तो वीतराग सर्वज्ञनो मार्ग कोई अलौकिक छे! (तेने खूब रुचिथी समजवो जोईए).
१०. जे अप्रीतिरूप द्वेष छे ते बधोय जीवने नथी. असंख्य प्रकारना जे अणगमारूप द्वेषना भाव छे ते बधाय जीवने नथी कारण के ज्यारे अनुभूति थाय छे त्यारे ते द्वेषभाव भिन्न रही जाय छे. द्वेषभावमां चैतन्यना ज्ञाननो अंश नथी. तेथी ते जीवथी अन्य अजीव पुद्गल-परिणाममय छे. आ अजीव अधिकार चाले छे ने? जीव तो चैतन्यमय चित्स्वरूप छे. तेनी चैतन्यशक्तिनो अंश द्वेषमां नथी. माटे द्वेष सघळोय अचेतन अजीव छे केमके अनुभूतिथी ते भिन्न छे.
११. जे यथार्थ तत्त्वनी अप्रतिपत्तिरूप मोह छे ते बधोय जीवने नथी. वास्तविक चिद्घनस्वरूप चिदानंदमय आत्मानी विपरीत मान्यतारूप मोह छे. एवो मोहभाव बधोय आत्माने नथी कारण के ते पुद्गलपरिणाममय होवाथी पोतानी अनुभूतिथी भिन्न छे. अहाहा! जेणे निज चैतन्यमय स्वद्रव्यनो आश्रय लीधो छे ते मिथ्यात्वना परिणामथी भिन्न पडी जाय छे. तेनामां मिथ्यात्वना परिणाम रहेता नथी एम अहीं कहे छे. चैतन्यना सत्त्वरूप जे आत्मा छे तेनाथी अनेक विपरीत मान्यतारूप मोह छे. ए सघळोय मोह जीवने नथी केमके चैतन्यना सत्त्वमां तेनो प्रवेश नथी अने शुद्ध चैतन्यनो एकनो अनुभव करतां ए बधीय मिथ्या मान्यतारूप मिथ्यात्वनो नाश थइ जाय छे. जगतमां तत्त्वना स्वरूपथी विपरीत अनेक मिथ्या मान्यताओ होय छे. ते बधीय जड पुद्गलना परिणाममय होवाथी स्वानुभूतिथी भिन्न छे. एटले के स्वानुभूति थता ए बधीय मिथ्या मान्यताओनो अभाव थई जाय छे माटे ते जीवने नथी.
१२. हवे आस्त्रवनी वात करे छे. मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योग जेमनां लक्षण छे एवा जे प्रत्ययो एटले के आस्रवो-ते बधाय जीवने नथी. अहीं कषायमां प्रमाद गर्भित थई जाय छे. अहीं मलिन पर्यायने-भावास्रवने पुद्गलना परिणाममय कह्या छे, कारण के पोते ज्यां चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मानो आश्रय करे छे त्यां आस्रवना परिणाम अनुभूतिथी भिन्न रही जाय छे. मिथ्यात्व तो त्यारे न ज होय पण अन्य आस्रवो पण भिन्न रही जाय छे. आ जड मिथ्यात्वादिनी वात नथी. आ तो जे मलिन परिणामरूप आस्रवो-मिथ्यात्वभाव, अविरतिभाव, छठ्ठा गुणस्थाननो प्रमाद कषायभाव, अने योग छे ते जीवना परिणाम नथी केमके ते अनुभूतिथी भिन्न छे. जो ते चैतन्यस्वरूप जीवना परिणाम होय तो सदाय चैतन्यनी साथे रहे. पण एम नथी केमके चैतन्यना अनुभवथी तेओ भिन्न रही जाय छे.
आत्मा शुद्ध चैतन्यमूर्ति भगवान छे. तेना परिणाम, ज्ञान अने आनंदमय ज होय छे. चित्शक्ति जेनुं सर्वस्व छे एवी चैतन्यमय वस्तुना परिणाम चैतन्यनी जातना ज
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होय. शुद्ध चैतन्यस्वभावना आश्रये उत्पन्न थयेल परिणाम शुद्ध चैतन्यमय ज होय. परंतु आ आस्रवो बधाय पुद्गल परिणाममय होवाथी स्वानुभूतिथी भिन्न छे. तेथी ते जीवने नथी. अहो! आचार्यदेवे स्वभावनी द्रष्टि करी स्वानुभूतिनी निर्मळ परिणति प्रगट करवानी शुं प्रेरणा करी छे!
तो मोक्षमार्गप्रकाशकमां सातमा अधिकारमां श्रीमान् पंडितप्रवर टोडरमलजीए एम कह्युं छे के-‘भावकर्म ए आत्मानो भाव छे अने ते निश्चयथी आत्मानो ज छे, परंतु कर्मना निमित्तथी थाय छे तेथी व्यवहारथी तेने कर्मनो कहीए छीए’ वळी पंचास्तिकायमां पण भावकर्म आत्मानो भाव छे एम कह्युं छे. ते भावकर्म थाय छे ते पोतानो छे अने पोताथी थाय छे एम तेमां कह्युं छे. कर्मनो कहेवो ए तो निमित्तथी-व्यवहारथी कहेवाय छे. निश्चयथी तो विकारना परिणाम जीवमां थाय छे अने तेने जीव करे छे. उपर कह्युं ते बन्ने शास्त्रोमां शैली जुदी छे. एमां राग पोतानी पर्यायमां थाय छे ते तेम ज्ञान कराववानुं प्रयोजन छे. (स्वभावने ओळखे नहि अने) कोई एम मानी ले के आस्रवना परिणाम जडथी छे अने जडना छे तेने पर्यायनुं यथार्थ ज्ञान कराववा एम कह्युं के भावकर्म जीवना परिणाम छे. (अन्यथा ते आस्रवोथी निवृत्त थवा शा माटे उपाय करे?)
अहीं आ गाथामां अपेक्षा जुदी छे. भावकर्म प्रथम आत्माना (अवस्थामां) सिद्ध करी पछी ते जीवने नथी एम कह्युं छे. अहाहा! आत्मा चैतन्यस्वरूप ज्ञायकस्वभावी आखुं अभेद चैतन्यदळ छे. एनो अनुभव करतां आस्रवो अनुभवमां (ज्ञानमां) स्वपणे आवता नथी, जुदा ज रही जाय छे. माटे तेओ निश्चये जीवना नथी. अहीं द्रष्टि अपेक्षाए कथन कर्युं छे. भाई! वीतराग परमेश्वरनो मार्ग सूक्ष्म छे. (ज्यां जे शैली होय ते यथार्थ समजवी जोईए)
एक बीजु एम कहे के मिथ्यात्वना बे प्रकार छे, एक जीव मिथ्यात्व अने बीजु अजीव मिथ्यात्व. (समयसार गाथा १६४/६प) भाई! ए कई अपेक्षाए कह्युं छे? ए तो जीवना परिणाम जीवमां अने जडना परिणाम जडमां एटलुं बताववा कह्युं छे. ज्यारे अहीं तो कहे छे के चैतन्यस्वरूप जे त्रिकाळी शुद्ध आत्मा छे तेना ते आस्रव परिणाम नथी, कारण के अनुभूतिनी पर्याय निज चैतन्यस्वभावमां ढळतां ते आस्रवो अनुभूतिथी भिन्न रही जाय छे, अनुभवमां आवता नथी. भाई, आ तो अंतरना अनुभवनी वात छे. ते कांई कोरी पंडिताईथी पार पडे एम नथी.
अहाहा....! चैतन्यस्वरूपी जे जीववस्तु छे तेने मिथ्यात्वादि आस्रवो नथी. केम तेने नथी? केमके चैतन्यस्वरूप भगवाननी अनुभूति करतां ते आस्रवो जुदा रही जाय छे. तेनुं (आस्रवनुं) अस्तित्व भले हो, परंतु ते अस्तित्व पर अजीव तरीके रही जाय छे. आस्रवो जीवने नथी तेथी तेओ पर्यायमां तद्न उत्पन्न ज थता नथी एम नथी. ए
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तो आगळना गुणस्थाने जाय त्यारे (क्रमशः) उत्पन्न न थाय. परंतु नीचेना गुणस्थाने (यथासंभव) उत्पन्न तो थाय छे, परंतु अनुभूतिमां आवता नथी. आत्मानुभव थतां मिथ्यात्वना परिणाम तो उत्पन्न ज थता नथी. परंतु बीजा आस्रवो तो छे. परंतु स्वरूपमां ढळेली जे अनुभूति ते अनुभूतिथी तेओ भिन्न रही जाय छे माटे ते जीवना नथी, पुद्गलना परिणाम छे. अहो वस्तुनुं स्वरूप! अहो समयसार! एमां केटकेटलुं भर्युं छे, हें!
त्यारे कोई वळी एम कहे छे के (सोनगढमां) एकलुं समयसार शास्त्र ज वांचे छे. भाई! एमां दोष शुं छे? समयसार नाटकमां श्री बनारसीदासजीए शुं कीधुं छे? त्यां कह्युं छे केः-
जगतमां जिनवाणीनो प्रचार थयो अने घेर घेर समयसार नाटकनी चर्चा थवा लागी. हवे एनी चर्चा फेलाई एटले शुं अन्य शास्त्रो खोटां छे एम अर्थ छे? अन्य शास्त्रोनो प्रचार ओछो छे एटले ए खोटां छे एम ठरावाय? बापु! एम अर्थ न थाय. वळी त्यां ज आगळ एम लख्युं छे के रूपचंद आदि विवेकी पंडितो पांचेय एक स्थानमां बेसीने परमार्थनी ज चर्चा करता हता, बीजी कांई नहि-‘परमारथ चर्चा करै, इनके कथा न और.’ एथी शुं ए एकान्त थई गयुं? पण जेनी बुद्धि मलिन छे ते एने समजी शके नहि तो शुं थाय? भाई! समयसार ए तो दिव्यध्वनिनो सार छे.
१३. जे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र अने अंतरायरूप कर्म छे ते बधुंय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी अनुभूतिथी भिन्न छे. शुं कह्युं? के जीवने आठ कर्म नथी कारण के ते परद्रव्य छे. ते परद्रव्य केम छे? कारण के कर्मना संगे तेना तरफना वलणनो जे भाव हतो ते स्वद्रव्यनी अनुभूतिथी भिन्न पडी जाय छे माटे.
प्रश्नः– कर्म तो आत्माने रोके छे एम आवे छे ने?
उत्तरः– आत्माने कोण रोके? पोते (विकारमां) रोकाय छे त्यारे ‘कर्म रोके छे’
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एम कहेवामां आवे छे. कर्म तो जड छे. शुं जड आत्माने रोकी शके छे? ‘कर्म बिचारे कौन, भूल मेरी अधिकाई.’ भूल मारी पोतानी ज छे. ‘अधिकाई’ एटले अधिक एम नहीं, पण पोतानी भूलने कारणे विकार थाय छे. अहीं गाथामां कहे छे के अंदर अनुभूति थतां ए विकारना परिणाम भिन्न रही जाय छे, अनुभवमां आवता नथी. आवो जैन परमेश्वरनो मार्ग लोकोए लौकिक जेवो करी नाख्यो छे.
प्रश्नः– ज्ञानावरणीय कर्मनो क्षयोपशम थाय तो ज्ञान उघडे ने?
उत्तरः– (ना). पोतानी योग्यताथी ज्ञान उघडे छे तेवी रीते पोतानी योग्यताथी आत्मामां (पर्यायमां) विकार थाय छे.
प्रश्नः– जीवनो स्वभाव तो केवळज्ञान छे. छतां वर्तमानमां जे संसार अवस्था छे तथा ज्ञानमां ओछप छे ते कर्मना उदयने कारणे छे के कर्मना उदय विना छे?
उत्तरः– वर्तमान संसार अवस्थामां ज्ञाननी जे ओछप छे ते पोताना कारणे छे. कर्मना उदयने कारणे थई छे एम नथी. एनुं उपादानकारण पोते आत्मा छे. पोतानी योग्यताथी ज ज्ञानमां ओछप थई छे, कर्मना कारणे नहि. कर्म तो जड परवस्तु छे. तेथी ज्ञानावरणादि कर्मो खरेखर कांई करतां नथी. पोतानुं अशुद्ध उपादान छे तेथी ज्ञानमां ओछप थई छे. कर्म तो त्यां निमित्त मात्र छे. कर्म मार्ग आपे तो क्षयोपशम थाय एम नथी. पोतानी योग्यताथी पोतामां अने कर्मना कारणे कर्ममां क्षयोपशम थाय छे. कर्मना उदयने कारणे ज्ञान हीणुं छे एम नथी. पण पोते ज्यारे ज्ञाननी हीणी दशारूपे परिणमे त्यारे ज्ञानावरणीय कर्म निमित्तमात्र छे.
परंतु अहीं बीजी वात छे. अहीं तो एम कहे छे के, वस्तु जे शुद्ध चैतन्य-स्वभावी आत्मा छे एमां ढळतां ते कर्मना परिणाम अनुभवमां आवता नथी, अनुभूतिथी भिन्न परपणे रही जाय छे. कर्मना जे परिणाम छे ते जड पुद्गलथी नीपजेला छे. तेथी शुद्ध चैतन्यस्वभावी आत्माथी तेओ भिन्न छे ए वात तो छे ज परंतु अहीं तो एम कहे छे के शुद्ध चैतन्यवस्तुनो अनुभव करतां, ते कर्मो तरफना वलणवाळी जे विकारी दशा ते अनुभूतिथी भिन्न रही जाय छे. माटे ते आठेय कर्म जीवने नथी. आयु, वेदनीय आदि कर्म जीवने नथी.
आगळ ६८मी गाथामां आवे छे के जवपूर्वक जे जव थाय छे ते जव छे. तेम पुद्गलथी पुद्गल थाय. त्यां अपेक्षा एम छे के जीवना स्वभावमां विकार नथी तथा विकार उत्पन्न करे एवी जीवनी कोई शक्ति के स्वभाव नथी. छतां पर्यायमां विकार छे तो एनो र्क्ता कोण छे तो कहे छे के पुद्गल त्यां पर्यायबुद्धि छोडाववा एम कह्युं के चौदेय गुणस्थान जीवने नथी. त्यारे मोक्षमार्ग प्रकाशकमां एम आवे छे के-‘तत्त्वनिर्णय करवामां कांई