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(ऊंधो) पडयो छे. शरीर, वाणी, मन, इन्द्रियो इत्यादि हुं छुं एम विपरीत मानी बेठो छे. तेने आत्मा जे त्रिकाळ चिदानंदरसमय वस्तु छे तेमां पुद्गलनो रसगुण विद्यमान नथी तेथी ते अरस छे एम कही शरीरादिथी भेदज्ञान कराव्युं छे.
हवे बीजा बोलमां कहे छे के-पुद्गलद्रव्यना गुणोथी पण भिन्न होवाथी पोते पण रसगुण नथी माटे अरस छे. पहेला बोलमां पुद्गलद्रव्यथी भिन्नपणानी वात लीधी हती. आ बोलमां पुद्गलद्रव्यना गुणोथी भिन्नपणानी वात लीधी छे. आत्मा चैतन्य-रसस्वरूप वस्तु छे. ते पुद्गलद्रव्यना गुणोथी भिन्न छे. तेथी पोते रसगुण नथी माटे अरस छे.
त्रीजो बोलः– परमार्थे पुद्गलद्रव्यनुं स्वामीपणुं पण तेने नहि होवाथी ते द्रव्येन्द्रियना आलंबन वडे पण रस चाखतो नथी माटे अरस छे. वस्तुपणे जीवने पुद्गल-द्रव्यनुं स्वामीपणुं नथी. आ जड इन्द्रियोनो स्वामी आत्मा नथी. तेथी द्रव्य-इन्द्रियोना आलंबन वडे ते रस चाखतो नथी. आ जीभ छे तेनो स्वामी आत्मा नथी. (ए तो पौद्गलिक छे). तेथी आत्मा जीभने हलावे अने ते वडे रसने चाखे ए वात वास्तविक नथी. आम द्रव्य इन्द्रियोना आलंबन वडे आत्मा रस चाखतो नथी माटे ते अरस छे.
चोथो बोलः– पोताना स्वभावनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो क्षायोपशमिक भावनो पण तेने अभाव होवाथी ते भावेन्द्रियना आलंबन वडे पण रस चाखतो नथी माटे अरस छे. पोताना स्वभावनी द्रष्टिथी एटले त्रिकाळी शुद्ध ज्ञायकभावनी द्रष्टिथी जोईए तो क्षयोपशमभावनो पण जीवने अभाव छे. मति, श्रुत, अवधि अने मनःपर्ययज्ञान ए चारने शास्त्रमां विभावगुण कह्या छे. ए चारेय सम्यग्ज्ञान छे हों. अशुद्धनिश्चयनयथी ए चारनो जीवने संबंध छे तोपण शुद्धनिश्चयनयथी कांई संबंध नथी. अहीं कहे छे के जे भावेन्द्रिय द्वारा जणाय छे, ते भावेन्द्रियनो ज परमार्थे आत्मामां अभाव छे. श्री समयसार गाथा ३१मां आवे छे के भावेन्द्रिय छे ते पोताना विषयोने खंडखंड जाणे छे अर्थात् ते ज्ञानने खंडखंडरूप जणावे छे. ज्यारे आत्मा एक अखंड ज्ञायक-भावरूप छे, माटे भावेन्द्रिय निश्चयथी आत्मानुं स्वरूप नथी. (खंडवस्तु अखंडस्वरूप केम होय?)
त्यां गाथा ३१मां कह्युं छे के द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय, अने तेमना विषयोने जे जीते ते जितेन्द्रिय छे. तेने जीतवुं एटले के ते सर्व पोताथी भिन्न छे अर्थात् ते परज्ञेय छे एम जाणवुं. ज्ञेय-ज्ञायकनी एक्ता ते संकरदोष छे. भावेन्द्रिय, तेनो विषय देव-गुरु-शास्त्र आदि तथा द्रव्येन्द्रिय ए सर्व परज्ञेय छे. आवा परज्ञेयनुं यथार्थ ज्ञान पोताथी थाय छे; पण कोने? जेने ज्ञायकनुं स्वरूपग्राही ज्ञान थाय तेने. अहीं कहे छे के भावेन्द्रिय परज्ञेय होवाथी आत्माना स्वभावभूत नथी अने तेथी आत्मा भावेन्द्रियना आलंबनथी
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पण रस चाखतो नथी माटे अरस छे. केवी अद्भुत भेदज्ञाननी वात! आवी वातने अभ्यास करीने समजे नहि अने अनेक प्रकारना क्रियाकांड करे पण तेथी शुं?
पांचमो बोलः– सकळ विषयोना विशेषोमां साधारण एवा एक ज संवेदन-परिणामरूप तेनो स्वभाव होवाथी ते केवळ एक रसवेदनापरिणामने पामीने रस चाखतो नथी माटे अरस छे. आत्मा अखंड ज्ञायकभावरूप वस्तु छे. ते पांचेय इन्द्रियोना विषयने अखंडपणे जाणनारो छे. एक ज इन्द्रियविषयनुं वेदन अर्थात् जाणवुं एवो आत्मानो स्वभाव नथी. पांचेय इन्द्रियना ज्ञाननुं संवेदन एकसाथे थाय एवो आत्मानो स्वभाव छे. तेथी ते केवळ एक रसवेदनापरिणामने पामीने अर्थात् एक रसना ज ज्ञानने पामीने रस चाखतो नथी माटे अरस छे.
पांच बोल चाली गया. हवे छठ्ठो बोलः– सकळ ज्ञेय-ज्ञायकना तादात्म्यनो निषेध होवाथी रसना ज्ञानरूपे परिणमतां छतां पण पोते रसरूपे परिणमतो नथी माटे अरस छे. जुओ विश्व आखुं ज्ञेय छे अने भगवान आत्मा ज्ञायक छे. सर्व ज्ञेयोने जाणवानुं ज्ञायक आत्मानुं पोतानुं सामर्थ्य छे तेथी ज्ञेय-ज्ञायक संबंधनो व्यवहार होवा छतां ज्ञेय-ज्ञायकना तादात्म्यनो एटले एकरूपपणानो निषेध छे. एटले ज्ञेयने जाणवा छतां ज्ञायक ज्ञेयरूपे थतो नथी. आ जे रस छे ते ज्ञेय छे अने आत्मा तेने जाणनारो ज्ञायक छे. रसरूप ज्ञेयने जाणवा छतां आत्मानुं ज्ञान ज्ञेयपणे एटले रसरूपे थतुं नथी. [तेम ज रसने जाणतां ज्ञान रस- ज्ञानरूप (रसना ज्ञानरूप) थई जतुं नथी.] तेम ज रस (ज्ञेय) ज्ञानमां जणातां रस (ज्ञेय) ज्ञानरूप थतुं नथी, ज्ञान ज्ञानरूपे ज रहे छे, रस रसरूपे ज रहे छे. (ज्ञान ज्ञानरूप ज रहे छे.) रसनुं जे ज्ञान थाय छे ते ज्ञाननुं परिणमन छे अने ते रसने लईने नथी. तथा रस जे ज्ञेय छे ते ज्ञाननी पर्यायमां आवतो नथी. आम रसना ज्ञानरूपे पोते परिणमतां छतां पोते रसरूपे परिणमतो नथी माटे अरस छे. आम छ प्रकारे रसना निषेधथी आत्मा अरस छे. एम तुं जाण एम शिष्यने प्रतिबोध कर्यो छे.
आ ज प्रमाणे आत्मा अरूप, अगंध, अस्पर्श छे एम छ बोलथी समजी लेवुं. रस, रूप, गंध अने स्पर्श ए चारेय पुद्गलना गुणो छे अने ते सर्वथी भिन्न ज्ञायक-वस्तु आत्मा छे. माटे आत्मा अरस, अरूप, अगंध, अस्पर्श छे एम निश्चयथी जाणवुं.
हवे शब्दनी वात करे छे. जीव खरेखर पुद्गलद्रव्यथी अन्य होवाथी तेमां शब्दपर्याय विद्यमान नथी माटे अशब्द छे. जुओ, पहेलां जे रस, रूप, गंध अने स्पर्श कह्या ए तो पुद्गलना गुणो छे. पण आ शब्द छे ए गुण नथी पण पुद्गलना स्कंधनी पर्याय छे. जीव खरेखर पुद्गलद्रव्यथी अन्य एटले भिन्न छे. तेथी शब्दपर्याय जीवमां विद्यमान नथी. आ शब्द जे बोलाय छे ते आत्मामां नथी, आत्माथी नथी. हें! तो
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बोले छे कोण? भाई! बोले ए बीजो, बोले ए आत्मा नहि. आत्मा बोलवानो भाव-राग करे ए बीजी वात छे, पण आत्मा बोले नहि. शब्द छे ए तो भाषावर्गणानुं पर्यायरूप परिणमन छे. एमां जीव निमित्त छे.
आ ध्वनि जे ऊठे छे ए तो जडनी (पौद्गलिक) पर्याय छे. आत्माथी ते ध्वनि ऊठती नथी. ‘भगवाननी दिव्यध्वनि’ एम व्यवहारथी कहेवाय छे. खरेखर भगवाननो आत्मा दिव्यध्वनिनो करनारो (र्क्ता) नथी. दिव्यध्वनि छे ते तेना कारणे भाषावर्गणामां भाषारूप (शब्दरूप) पर्याय थवानी जन्मक्षण छे तेने लईने थाय छे. आ आत्माने धर्म केम थाय एनी वात चाले छे हों. शब्द माराथी (जीवथी) थाय एम मानवुं ए मिथ्यात्व छे अधर्म छे. शब्द जे थाय तेने स्वना ज्ञानपूर्वक हुं जाणुं एवी यथार्थ मान्यता (निर्विकल्प प्रतीति) एनुं नाम धर्म छे.
प्रश्नः– ज्ञान छे ते शब्दनो र्क्ता छे एम धवलमां आवे छे ने?
उत्तरः– हा, आवो प्रश्न ‘खानिया चर्चा’मां पण आव्यो छे. भाई! ए तो त्यां निमित्तपणुं बताव्युं छे. ज्ञान कांई शब्दनी पर्यायनो र्क्ता नथी. शब्दनी पर्यायकाळे ज्ञान तेमां निमित्त छे तेथी उपचारथी ज्ञान शब्दनो र्क्ता छे एम कह्युं छे, खरेखर र्क्ता छे नहि. लोकालोक छे ते केवळज्ञानमां निमित्त छे (लोकालोकमां शब्दो पण आवी गया), एनो अर्थ शुं? के लोकालोक लोकालोकथी छे अने केवळज्ञान केवळज्ञानथी छे. लोकालोकने कारणे केवळज्ञाननी पर्याय थाय छे एम नथी. केवळज्ञाननी पर्याय पोते पोताथी थाय छे. लोकालोक छे माटे केवळज्ञाननी पर्याय थाय छे एम छे ज नहि. केवळज्ञाननी पर्यायनुं परिणमन (लोकालोकथी निरपेक्ष) स्वयं स्वतंत्र छे अने लोकालोकनी हयाती (केवळज्ञानथी निरपेक्ष) स्वयं स्वतंत्र छे.
केवळज्ञान लोकालोकने जाणे छे एम कहेवुं ए तो असद्भूत-व्यवहारनयनो विषय छे. खरेखर तो पोतानी पर्यायने ज जाणे छे. श्री समयसार कळशटीकामां कळश २७१मां आवे छे के-‘हुं ज्ञायक अने समस्त छ द्रव्यो मारां ज्ञेय-एम तो नथी. तो केम छे?’ के ज्ञाता पोते, ज्ञान पोते अने ज्ञेय पोते ज छे. अहीं कहे छे के शब्दनुं ज्ञान शब्दने लईने थतुं नथी. शब्दनी पर्यायनुं ज्ञान आत्मामां पोताने कारणे थाय छे. वळी जे शब्दपर्याय छे ते आत्माथी थाय छे एम नथी केमके आत्मा पुद्गलद्रव्यथी भिन्न छे. आम शब्दपर्याय छे ते ज्ञायकस्वभावी आत्मामां विद्यमान नथी माटे आत्मा अशब्द छे. अहो! शुं गजब भेदज्ञाननी वात छे!!
बीजो बोलः– पुद्गलद्रव्यना पर्यायोथी पण भिन्न होवाथी पोते पण शब्दपर्याय नथी माटे अशब्द छे. पहेला बोलमां जीव पुद्गलद्रव्यथी भिन्न कह्यो हतो अने आ
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बोलमां जीवने पुद्गलद्रव्यनी शब्द अवस्थाथी भिन्न कह्यो छे. ए रीते जीव पोते शब्दपर्याय नथी माटे अशब्द छे.
त्रीजो बोलः– परमार्थे पुद्गलद्रव्यनुं स्वामीपणुं पण तेने नहि होवाथी ते द्रव्येन्द्रियना आलंबन वडे पण शब्द सांभळतो नथी माटे अशब्द छे. शुं कहे छे? आ जे कान छे ने तेनो स्वामी भगवान आत्मा नथी. कान तो जड परमाणुमय छे. तेनो स्वामी आत्मा केम होय? अने ते जडना अवलंबने आत्मा शब्दने केम सांभळे? कानना आलंबनथी आत्मा शब्दने जाणे छे एम छे ज नहि. आ भगवाननी वाणी छे ने दिव्यध्वनि? अरे! वाणी तो जड छे. भगवानने वळी वाणी केवी? ‘भगवाननी वाणी’ ए तो निमित्तथी कहेवाय छे. ए भगवाननी वाणीने जीव कानना आलंबन द्वारा जाणे छे एम छे नहि, कारण के कान तो पुद्गलनी पर्याय छे अने ज्ञानस्वरूपी प्रभु पोते, तेनाथी तद्न भिन्न छे. जो कानना आलंबनथी ते सांभळे तो ते जडनो स्वामी ठरे, पण जडनो स्वामी तो आत्मा छे ज नहि, तेथी पोते द्रव्येन्द्रियना आलंबन वडे सांभळतो नथी माटे अशब्द छे.
चोथो बोलः– पोताना स्वभावनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो क्षायोपशमिक भावनो पण तेने अभाव होवाथी ते भावेन्द्रियना आलंबन वडे पण शब्द सांभळतो नथी माटे अशब्द छे. शुद्ध ज्ञायकमात्रवस्तुनी द्रष्टिथी जोईए तो क्षायोपशमिकभाव अखंड आत्मस्वरूपमां नथी. स्वभावनी द्रष्टिथी जोतां आत्माने भावेन्द्रिय छे ज नहि. शुद्ध आत्मवस्तुमां भावेन्द्रियनो अभाव छे तेथी भावेन्द्रियना आलंबन वडे आत्मा सांभळतो नथी माटे ते अशब्द छे. आवुं स्वरूप छे तेने ए रीते यथार्थ नक्की करीने जाणवुं जोईए. ‘जाण’ शब्दथी आत्माने आवो जाण एम आचार्यदेवे कह्युं छे.
पांचमो बोलः– सकळ विषयोना विशेषोमां साधारण एवा एक ज संवेदन-परिणामरूप तेनो स्वभाव होवाथी ते केवळ एक शब्दवेदनापरिणामने पामीने शब्द सांभळतो नथी माटे अशब्द छे. जुओ, ज्ञान एकला शब्दने ज जाणे एवुं तेनुं स्वरूप नथी. परंतु बधा ज विषयोने अखंडपणे ग्रहण करे एवुं तेनुं स्वरूप छे. माटे केवळ शब्दवेदना परिणामने पामीने एटले केवळ शब्दनुं ज ज्ञान पामीने आत्मा शब्द सांभळतो नथी माटे अशब्द छे.
छठ्ठो बोलः– सकळ ज्ञेयज्ञायकना तादात्म्यनो निषेध होवाथी शब्दना ज्ञानरूपे परिणमतां छतां पण पोते शब्दरूपे परिणमतो नथी माटे अशब्द छे. ‘शब्दनुं ज्ञान’ ए तो निमित्तथी कह्युं छे. खरेखर तो ए ज्ञाननुं ज्ञान छे; पण ए ज्ञान शब्द संबंधीनुं छे एटलुं बताववा ‘शब्दनुं ज्ञान’ एम कह्युं छे. शब्द छे ते ज्ञेय छे अने शुद्ध आत्मा ज्ञायक छे. ज्ञेय-ज्ञायकना एकरूपपणानो निषेध छे तेथी शब्दने जाणवा छतां जाणनारो पोते
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शब्दरूपे थतो नथी. माटे आत्मा अशब्द छे. आम छ प्रकारे शब्दना निषेधथी आत्मा अशब्द छे एम जाणवुं.
हवे ‘अनिर्दिष्टसंस्थान’ना चार बोल कहे छेः-
पहेलो बोलः– पुद्गलद्रव्य वडे रचायेलुं जे शरीर तेना आकारथी जीवने संस्थानवाळो कही शकातो नथी माटे जीव अनिर्दिष्टसंस्थान छे. आ शरीरनो जे आकार छे ए तो जडनो आकार छे, ए आत्मानो आकार नथी. आत्मामां पुद्गलथी रचायेला जड देहना आकारनो अभाव छे. आत्मा जडना आकारवाळो नहि होवाथी जीव पोते अनिर्दिष्टसंस्थान छे.
बीजो बोलः– पोताना नियत स्वभावथी अनियत संस्थानवाळा अनंत शरीरोमां रहे छे माटे अनिर्दिष्टसंस्थान छे. भगवान आत्मा जे असंख्यातप्रदेशी छे ए तेनो नियत स्वभाव छे. आ भिन्न भिन्न शरीरना आकारो-एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, त्रणइन्द्रिय, चारइन्द्रिय अने पंचेन्द्रियना शरीरना जे आकारो छे ते अनियत छे. आवा अनियत आकारोवाळा अनंत शरीरोमां ते रहे छे तेथी ते नियत संस्थानवाळो कही शकातो नथी माटे ते अनिर्दिष्टसंस्थान छे.
त्रीजो बोलः– संस्थान नामकर्मनो विपाक पुद्गलोमां ज कहेवामां आवे छे (तेथी तेना निमित्तथी पण आकार नथी) माटे अनिर्दिष्टसंस्थान छे. संस्थान नामकर्मनुं फळ पुद्गल- शरीरमां आवे छे, आत्मामां नहि. तेथी तेना निमित्ते थतो आकार आत्माने नथी. आत्माने पोतानो असंख्यातप्रदेशस्वरूप आकार तो छे पण जडनो आकार आत्माने नथी. प्रदेशत्वगुणना कारणे आत्माने पोतानो आकार छे. आकाशद्रव्यमां पण प्रदेशत्वगुण छे. प्रदेशत्वगुणना कारणे आकाशने, क्षेत्रथी अमर्यादित होवा छतां, पोतानो आकार छे. आम आत्माने पोतानो आकार होवा छतां संस्थान नामकर्मना निमित्ते रचातो जे जड देहनो आकार ते तेने नथी माटे ते अनिर्दिष्टसंस्थान छे.
चोथो बोलः– जुदां जुदां संस्थानरूपे परिणमेली समस्त वस्तुओनां स्वरूप साथे जेनी स्वाभाविक संवेदनशक्ति संबंधित छे एवो होवा छतां पण जेने समस्त लोकना मिलापथी रहित निर्मळ अनुभूति थई रही छे एवो होवाथी पोते अत्यंतपणे संस्थान विनानो छे माटे अनिर्दिष्टसंस्थान छे.
जुओ, भाई, आत्मामां त्याग-उपादानशून्यत्व नामनी एक शक्ति छे. ए शक्तिना कारणे परने ग्रहण करवुं के परनो त्याग करवो-एनाथी आत्मा शून्य छे. परद्रव्यना ग्रहण- त्यागथी तो आत्मा त्रणे काळ शून्य छे ए वात तो छे पण अहीं कहे छे के जगतनी चीजो- शरीर, मकान, बंगला, दाळ, भात, रोटला इत्यादि-जे अनेक आकारे रहेली छे तेनुं ज्ञान आत्मामां थवा छतां ए अनेक आकारपणे ज्ञान थतुं नथी. अहो!
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स्वनुं ज्ञान अने अनेक आकाररूपे परिणमेली अनेक चीजोनुं ज्ञान-एनी निर्मळ अनुभूति आत्मामां थई रही छे. भाई! आ तो सर्वज्ञ परमेश्वरनी दिव्यध्वनिमां जे वात आवी ते दिगंबर संतोए कही छे. आवी वात बीजे कयांय छे नहि. अहीं कहे छे के आत्मा परना आकारपणे नहि थतो होवाथी अत्यंतपणे संस्थान विनानो छे; माटे ते अनिर्दिष्टसंस्थान छे. आम चार हेतुथी संस्थाननो निषेध कह्यो.
हवे ‘अव्यक्त’ना छ बोल कहे छेः-
छ द्रव्यस्वरूप लोक जे ज्ञेय छे अने व्यक्त छे तेनाथी जीव अन्य छे माटे अव्यक्त छे. जगतमां छ द्रव्य छे ते ज्ञेय छे. अनंत आत्माओ, अनंतानंत परमाणुओ, असंख्य कालाणुओ, एक धर्मास्तिकाय, एक अधर्मास्तिकाय अने एक आकाश-एम छ द्रव्यो अनादिअनंत भगवाने जोयां छे. आ छ द्रव्योमां देव-गुरु-शास्त्र, शेत्रुंज्य, सम्मेदशिखर इत्यादि सर्व आवी गयुं. आ छ द्रव्योथी तो आत्मा अन्य एटले भिन्न छे ज, पण ए छ द्रव्योने जाणनारी एक समयनी पर्यायथी पण त्रिकाळी आत्मा भिन्न छे. अहाहा! छ द्रव्योने जाणनारी पर्याय एम जाणे छे के छ द्रव्यथी मारी चीज भिन्न छे. छ द्रव्यो व्यक्त अने ज्ञेय छे. तेनाथी भिन्न भगवान आत्मा ज्ञायक अने अव्यक्त छे.
भाई! पंचेन्द्रिय संज्ञीपणुं मळवुं अने तेमां पण आर्यकुळ मळवुं ए अति दुर्लभ छे. त्यां पण सद्गुरुनो योग थवो, सत्यनुं श्रवण मळवुं तथा तेनां ग्रहण अने धारणा थवां ए एथीय विशेष दुर्लभ छे. तोपण अहीं सुधी जीव अनंतवार आव्यो छे. परंतु तेणे सम्यक् श्रद्धान अनंतकाळमां एक समय पण कर्युं नथी. अहीं कहे छे के भगवान आत्मा छ द्रव्योनो जाणनार होवा छतां एनाथी ते अत्यंत भिन्न छे. भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे गाथामां जे ‘अव्यक्त’ शब्द कह्यो तेनो भाव श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे भगवती टीकामां आ प्रमाणे स्पष्ट कर्यो छे.
भाई! आत्मानुं होवापणुं छ द्रव्यने लईने नथी. ज्ञाननी पर्यायमां छ द्रव्यनुं ज्ञान थयुं ते पोताथी थयुं छे, छ द्रव्यने लईने थयुं नथी. तथा छ द्रव्यनुं ज्ञान छे माटे छ द्रव्यनुं होवापणुं छे एम पण नथी. छ द्रव्य जे ज्ञेय अने बाह्य छे ते व्यक्त छे. तेने जाणनारी पर्याय पण व्यक्त छे. ए व्यक्त पर्यायमां एनाथी भिन्न आत्मा अव्यक्त छे तेने तुं जाण एम कहे छे.
श्री धर्मदास क्षुल्लके स्वात्मानुभव मननमां आत्माने, छ द्रव्यथी अने एने जाणनारी पर्यायथी भिन्न होवाथी सप्तम् द्रव्य कह्युं छे. आत्मा छे तो छ द्रव्यनी अंदर, पण द्रष्टिना विषयभूत त्रिकाळी अव्यक्त द्रव्यने एककोर ‘राम’ कहीने एनाथी जे कोई भिन्न छे एने एककोर ‘गाम’ एम कह्युं छे. एककोर छ द्रव्य अने तेने जाणनारी ज्ञाननी
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पर्याय ए बधुं व्यक्त छे, तो बीजी कोर अव्यक्त भगवान त्रिकाळी ध्रुव ज्ञायकमूर्ति एनाथी भिन्न छे-एम तुं जाण.
द्रष्टिनो विषय त्रिकाळी शुद्ध आत्मा द्रव्य तरीके तो प्रगट छे. पण पर्याय जे व्यक्त- प्रगट छे ते पर्यायमां द्रव्य आवतुं नथी ते अपेक्षाए तेने अहीं अव्यक्त कह्युं छे. अनंत अनंत गुणनो पिंड सच्चिदानंद प्रभु अस्तिपणे मोजुद छे, प्रगट छे, व्यक्त छे. पण प्रगट पर्यायनी अपेक्षाए तेने अव्यक्त कह्यो छे. भाई! आवा आत्माने जाणे नहि, अर्थात् आत्मा पोते कोण छे, कयां छे, केवडो छे ए जाणे नहि अने धर्म थई जाय? धूळमांय न थाय. (एटले के आवा आत्माने जाण्या विना कदी धर्म न थाय.) भले ने सामायिक, पोसा, पडिकमण, व्रत, उपवास इत्यादि क्रियाकांड करे. एमां धर्म कयां छे? ए तो राग छे. तेथी पुण्य थाय अने एमां धर्म माने तो मिथ्यात्व थाय.
भगवान! तुं अखंड एक शुद्ध चैतन्यमूर्ति प्रभु छो ने! छ द्रव्यमां तो तुं नथी पण छ द्रव्यनुं ज्ञान करनारी एक समयनी व्यक्त पर्याय जेटलो पण तुं नथी. एक समयनी पर्याय जेटलो आत्माने माननार मूढ मिथ्याद्रष्टि छे. श्री समयसारना परिशिष्टमां नित्य-अनित्य, एक-अनेक, इत्यादि चौद कळशो आवे छे एमां आ वात लीधी छे. वळी एक समयनी पर्यायने जे मानता नथी ते पण छ द्रव्यने ज नहि माननारा मिथ्याद्रष्टि छे, केमके छ द्रव्यनुं ज्ञान पर्यायमां थाय छे. तेथी पर्यायने नहि माननारा छ द्रव्यने मानता नथी अने तेथी तेओ मिथ्याद्रष्टि ज छे. अहीं कहे छे के आ छ द्रव्यस्वरूप जे लोक छे ते ज्ञेय छे अने व्यक्त छे अने तेथी भिन्न भगवान आत्मा ज्ञायक अव्यक्त छे. पाठमां जीव शब्द छे. पण जीव कहो के आत्मा, बन्ने एक ज वात छे. वेदांतवाळा जीव अने आत्मा जुदा छे एम कहे छे; पण ए बराबर नथी.
एक समयनी ज्ञानपर्यायनुं अस्तित्व माने त्यारे छ द्रव्यनुं अस्तित्व मान्युं कहेवाय. अने छ द्रव्यनुं ज्ञान जे व्यक्त पर्यायमां थाय छे एनी द्रष्टि छोडी त्रिकाळी अव्यक्तनी द्रष्टि करे त्यारे एणे स्वद्रव्यने मान्युं कहेवाय. धर्म केम थाय एनी आ वात छे. भाई! तारी पर्यायमां छ द्रव्य जणाय छतां छ द्रव्यने लईने ए पर्याय छे एम नथी. आवी एक समयनी जे ज्ञाननी पर्याय, जेमां त्रिकाळी आत्मा व्यापतो नथी ए पर्यायमां तुं छ द्रव्य रहित शुद्ध अव्यक्त आत्माने जाण. एने जाणतां तने सम्यग्दर्शन-ज्ञान अने धर्म थशे. आवी वात सांभळवानी पण जेने फुरसद मळे नहि ते समजे कयारे अने तेनो प्रयोग करे कयारे?
श्री नियमसार शास्त्रमां निर्मळ पर्यायने पण परद्रव्य कही छे. स्ववस्तु अखंड, अभेद, एक छे. तेनुं ज्ञान जेने थाय तेने साचुं ज्ञान थाय छे. ए सम्यग्ज्ञान थाय पर्यायमां पण ए ज्ञाननुं ज्ञेय त्रिकाळी शुद्ध ज्ञायक भगवान छे, पर्याय नहि. पर्यायने लक्ष
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करी थतुं ज्ञान यथार्थ ज्ञान नथी. आवी शुद्ध तत्त्वनी वात समजे नहि अने अनेक प्रकारना क्रियाकांड करे पण ए तो बधुं रणमां पोक मूकवा जेवुं छे. रणमां पोक मूकवी एटले? एटले एम के रणमां एनी पोक कोई सांभळे नहि अने एनी पोक कदी बंध थाय नहि. भाई! मात्र क्रियाकांडथी भवनां दुःख न मटे.
छ द्रव्यस्वरूप जे लोक छे ते बाह्य छे, व्यक्त छे, अने भगवान आत्मा अभ्यंतर, अव्यक्त छे. तेथी शुद्ध ज्ञायकवस्तु छ द्रव्यस्वरूप लोकथी भिन्न छे. आ अनंता सिद्धो, वीस विद्यमान तीर्थंकरो, लाखो केवळीओ, परमेष्ठी भगवंतो अने दिव्यध्वनि इत्यादि सर्वथी (आखा लोकथी) त्रिकाळी शुद्ध ज्ञायकवस्तु भिन्न छे. अव्यक्त एवो आत्मा छ द्रव्यथी तो भिन्न छे ज, पण ते संबंधीनो भेदज्ञानना विचारनो जे सूक्ष्म विकल्प ते पण छ द्रव्यमां आवी जाय छे तेथी एनाथी पण ज्ञायक भिन्न छे.
पूर्णानंदनो नाथ आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप भगवान छे. तेने अव्यक्त विशेषणथी अहीं समजाव्यो छे. सम्यग्ज्ञाननी पर्याय एम जाणे छे के छ द्रव्यना स्वरूपथी मारुं स्वरूप भिन्न छे. एककोर भगवान आत्मा ज्ञानगोळो अने एककोर आखुं लोकालोक-बन्ने भिन्न भिन्न. आ लोकालोकने एक समयनी पर्याय जाणे ते पर्यायनुं पोतानुं सामर्थ्य छे. ते पर्याय एम विचारे छे के हुं ज्ञायक छ द्रव्यथी भिन्न छुं. जाणे सातमुं द्रव्य! क्षुल्लक धर्मदासजीए शुद्ध द्रव्यवस्तुने सप्तम् द्रव्य कह्युं छे. छ द्रव्यथी हुं भिन्न छुं एम विचारनारी पर्याय स्वद्रव्य तरफ ढळे छे. विकल्पमां एम विचारे छे त्यांसुधी सूक्ष्म भेदनो अंश छे पण ज्यां पर्याय स्वद्रव्यमां ढळे छे एटले ए भेद पण छूटी जाय छे. भाई! आ तो गूढ भावो सादी भाषामां कहेवाय छे.
भगवान ज्ञायकस्वरूप आत्मामां ढळीने जे पर्याय प्रगट थई ते निश्चय मोक्षमार्ग छे. ए निश्चय मोक्षमार्गनी पर्यायथी पण त्रिकाळी वस्तु भिन्न छे. ज्ञाननी पर्यायमां छ द्रव्यने जाणवानी ताकात छे तेथी ए तेने जाणे, पण ए पर्याय एम जाणे छे के ए छ द्रव्योथी भिन्न ‘आ’ हुं छुं. ‘आ’ हुं एटले जे द्रव्य त्रिकाळी ते हुं छुं. पर्याय एम जाणे छे के हुं एक, अखंड, ध्रुव चैतन्यस्वभावी अव्यक्त चीज छुं. आ व्यक्त पर्याय अव्यक्तने आवो जाणे छे. अव्यक्त, अव्यक्तने केम जाणे? बापु! जैनदर्शन तो विश्वदर्शन छे. विश्वदर्शन एटले? एटले छ द्रव्यस्वरूप जे विश्व छे तेने यथार्थ जणावनारुं अने ते जणावीने परथी जीवनी भिन्नता देखाडनारुं ए साचुं दर्शन छे.
शास्त्रोनुं जे ज्ञान छे ते पण छ द्रव्योमां समाय छे, केमके ते ज्ञानना लक्षे स्वद्रव्यनुं लक्ष थतुं नथी. तेनुं लक्ष छोडीने द्रष्टिनो विषय जे त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य तेनुं लक्ष करे त्यारे ज्ञान सम्यक् थाय छे. भाई! धर्म करवो छे पण धर्म केम थाय तेनी खबर विना तुं धर्म केवी रीते करीश? शास्त्रने जाणे, तेनी व्यवहार श्रद्धा करे पण शुद्ध ज्ञायकस्वभावी भगवान
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आत्माना आश्रये प्रगट थता वीतरागी आनंदामृतनो स्वाद न ले तो आत्मज्ञान केम थाय? वस्तु एकली अतीन्द्रिय आनंदमय छे. ए आनंदनो नमूनो पर्यायमां न आवे त्यां सुधी आखी चीज आवी छे एवी प्रतीति केम थाय? परमात्मप्रकाशमां आवे छे के शिष्य प्रभाकर भट्ट आचार्य श्री योगीन्द्रदेव प्रति बहु भक्तिथी विनम्र थई पूछे छे के-हे स्वामी! एवो शुद्धात्मा कोण छे जे जाणवो जोईए अने जेने जाण्या विना अनंतकाळमां आ आत्माने वीतरागी सुखामृतनो स्वाद न आव्यो, केवळ दुःख ज थयुं? भाई! निज शुद्धात्माने स्वसंवेदनप्रत्यक्ष कर्या विना मात्र शास्त्रज्ञान धर्म करवामां कांई कार्यकारी नथी.
अने आ व्यवहारवाळा तो बिचारा कयांय (दूर) पडया छे. व्रत, तप, आदिनो राग जे व्यवहार छे ए पण छ द्रव्यमां आवी जाय छे. एनाथी तो भिन्न पडवानुं छे. जेनाथी भिन्न पडवुं छे ए मदद केम करे? ‘हुं आवो छुं’ एम जे व्यवहारनो विकल्प ऊठे ते विकल्पनो पण विषय आत्मा नथी. श्री जयसेन आचार्यदेवे आ बोलनी टीकामां एम लीधुं छे के विकल्पना विषयरहित वस्तु सूक्ष्म अव्यक्त छे. ज्ञायक आत्मा ए तो निर्विकल्प ध्याननो विषय छे. निर्विकल्पता ए ध्यान छे तेनो विषय अखंड आत्मवस्तु छे. ध्याननुं ध्येय ध्यान नथी पण ध्याननुं ध्येय अखंड शुद्ध आत्मवस्तु छे. एक अखंड शुद्ध चिन्मात्र सिवाय बधुंय परमां-छ द्रव्यमां समाई जाय छे. आवी वात छे.
बीजो बोलः– कषायोनो समूह जे भावकभाव व्यक्त छे तेनाथी जीव अन्य छे माटे अव्यक्त छे. भावकभाव एटले शुं? कर्म जे विकार थवामां निमित्त छे तेने भावक कहे छे अने विकारने भावकनो भाव कहे छे. विकार ए भगवान आत्मानो भाव नथी. अज्ञानद्रष्टिमां जीव भावक अने विकार एनो भाव बने छे अने स्वभावद्रष्टि थतां कर्म जे निमित्त ते भावक छे अने विकार ए तेनो भाव छे. आवो भावकभाव ते व्यक्त छे, बाह्य छे, ज्ञेय छे अने तेनाथी भगवान आत्मा अन्य छे माटे अव्यक्त छे.
कषायोनो समूह लीधो छे ने? एटले विकल्पो शुभ हो के अशुभ, ए सर्व विकल्पोनो समूह जे भावकभाव ते व्यक्त छे अने तेनाथी भिन्न भगवान आत्मा अव्यक्त छे. र्क्ता-कर्म अधिकारमां लीधुं छे ने के-हुं अबद्ध छुं, शुद्ध छुं, निर्मळ छुं, एक छुं, नित्य छुं, इत्यादि बधा विकल्पो छे. अहीं कहे छे आवा विकल्पो के बीजा कोई विकल्पो ए सर्व विकल्पोथी भगवान आत्मा भिन्न छे, अन्य छे. कषायभावो जे व्यक्त छे तेनाथी ज्ञायकवस्तु अन्य छे ए अपेक्षाए तेने अव्यक्त कहे छे. वस्तुद्रष्टिथी तो ध्रुव ज्ञायकवस्तु सदा प्रगट ज छे.
जे व्यवहारना विकल्पो छे तेनाथी भगवान आत्मा भिन्न छे. जे भिन्न छे एवा विकल्पोथी ए केम प्राप्त थाय? जो विकल्पोथी प्राप्त थाय तो आत्मा विकल्पथी अभिन्न ठरे, अने ते विकल्पो जीवनो स्वभाव थई जाय. परंतु भगवान आत्मा तो पोतानी
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स्वभावपरिणतिथी ज प्राप्त थाय तेवो छे, राग परिणतिथी नहि. राग तो परद्रव्यनी परिणति छे. ते द्रव्यांतर छे एम आ शास्त्रना पुण्य-पाप अधिकारमां कह्युं छे. राग ए अनेरा द्रव्यनो भाव छे, स्वद्रव्यनो भाव नथी.
हुं शुद्ध छुं, एक छुं, अखंड छुं, अभेद छुं एवा जे विकल्पो छे ते कषायमां समाय छे, आकुळतामां एनो समावेश थाय छे. ए आकुळतामय भावकभाव बाह्य छे, व्यक्त छे, परज्ञेय छे अने अखंड शुद्ध जीववस्तु अंतरंग, अव्यक्त, ज्ञायकपणे छे तेनाथी भिन्न छे. भाई! आत्मानुं जेणे हित करवुं छे तेने वस्तुनुं प्रयोजनभूत ज्ञान तो होवुं जोईए; व्याकरण आदिनुं ज्ञान भले न होय. श्री मोक्षमार्ग प्रकाशकमां सातमा अधिकारमां श्री टोडरमलजी साहेबे लीधुं छे के-‘पोतानी बुद्धि घणी होय तो तेनो (व्याकरणादिनो) थोडोघणो अभ्यास करी पछी आत्महितसाधक शास्त्रोनो अभ्यास करवो अने जो थोडी बुद्धि होय तो आत्महितसाधक सुगम शास्त्रोनो ज अभ्यास करवो? मूळमां आत्मवस्तु शुं छे तेने यथार्थ समजी तेना तरफ ढळवुं, वळवुं ए मुख्य प्रयोजन छे. आवी अध्यात्मनी वात मूळ द्रव्यानुयोगमां छे ते बराबर जाणवी जोईए.
भाई! आ तो सम्यग्दर्शननो विषय शुं छे अने ते केम प्राप्त थाय एनी वात चाले छे. व्यक्त एवा कषायोना समूहथी जे अन्य छे एवो अव्यक्त ज्ञायकमूर्ति भगवान सम्यग्दर्शननो विषय छे. श्री समयसार गाथा १४२ मां लीधुं छे के-व्यवहारना विकल्पोनो तो अमे प्रथमथी ज निषेध करता आव्या छीए पण हवे ‘हुं शुद्ध छुं, ज्ञायक छुं,’ इत्यादि जे निश्चयनो विकल्प छे तेनो पण निषेध करवामां आवे छे. ए विकल्पने पण ज्यां सुधी अतिक्रमतो नथी त्यां सुधी अज्ञानरूप र्क्ता-कर्मपणुं टळतुं नथी. हुं र्क्ता अने विकल्प मारुं कार्य-एम माने छे त्यां सुधी अज्ञानदशा छे. खरेखर तो राग पोते ज र्क्ता अने राग पोते ज कर्म छे; आत्मा तेनो र्क्ता नथी. पण पोतानुं आवुं शुद्ध स्वरूप जीवे कदी सांभळ्युं नथी.
जे लोको व्यवहारथी परंपराए निश्चय प्राप्त थाय अर्थात् व्यवहार करतां करतां निश्चय प्राप्त थाय एम माने छे तेनो अहीं निषेध करे छे.
पुण्य-पाप अधिकारनी छेल्ली गाथानी श्री जयसेन आचार्यदेवनी टीकामां एक प्रश्न मूकयो छे. शिष्य पूछे छे के-प्रभु! आ पापनो अधिकार चाले छे. तेमां आप व्यवहार रत्नत्रयनी वात केम करो छो? व्यवहाररत्नत्रय तो पुण्य छे. तेनो उत्तर आप्यो छे के-एक तो व्यवहाररत्नत्रयमां आवतां जीव पराधीन थाय छे अने बीजुं स्वरूपमांथी पतित थाय त्यारे ज व्यवहाररत्नत्रयमां आवे छे. तेथी निश्चयनयनी अपेक्षाए ते पाप ज छे. अहीं एम कहे छे के कषायनो नानामां नानो कण पण-हुं आत्मा छुं अर्थात् हुं छ
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द्रव्योथी भिन्न शुद्ध छुं एवो जे सूक्ष्म विकल्प ते भावकभाव छे, व्यक्त छे अने तेनाथी जीव अन्य छे, अव्यक्त छे. बे बोल थया.
त्रीजो बोलः– चित्सामान्यमां चैतन्यनी सर्व व्यक्तिओ निमग्न छे माटे आत्मा अव्यक्त छे. जे पर्याय भविष्ये व्यक्त थवानी छे अने जे व्यक्त थई गई ते बधी पर्यायो चैतन्यसामान्यमां अंतर्लीन छे. वर्तमान पर्याय चैतन्यमां निमग्न नथी. जो वर्तमान पर्याय पण तेमां निमग्न होय तो जाणवानुं कार्य कोण करे? वर्तमान पर्याय सिवायनी भूत- भविष्यनी सघळी पर्यायो चैतन्यमां अंतर्लीन छे. माटे तुं आत्माने अव्यक्त जाण. गाथामां ‘जाण’ एम कीधुं छे ने? एटले जाणनारी वर्तमान पर्याय तो चित्सामान्यनी बहार रही. ए व्यक्त पर्यायमां आ ज्ञायकवस्तु जे अव्यक्त छे एने जाण-एम अहीं कहेवुं छे.
पाणीनुं तरंग जेम पाणीमां समाई जाय छे तेम व्यय थयेली पर्याय द्रव्यरूप थई जाय छे. निर्मळ पर्याय प्रगट होय त्यारे ते क्षयोपशम, क्षायिक के उपशमभावरूप होय छे पण अंदर द्रव्यमां समाई जाय त्यारे पारिणामिकभावरूप थई जाय छे. (उद्रय, उपशम, क्षयोपशम के क्षायिकरूप रहेती नथी.)
भूतकाळनी अने भविष्यकाळनी बधी पर्यायो द्रव्यसामान्यमां पारिणामिकभावे छे. व्यक्त ज्ञाननी पर्यायमां जे अव्यक्त सामान्यनुं ज्ञान थयुं ते निश्चयनुं ज्ञान छे. निश्चयना ज्ञान साथे वर्तमान पर्यायनुं ज्ञान करवुं ते प्रमाणज्ञान छे. (निश्चयना ज्ञानपूर्वक) पर्याय पोते एकलुं पर्यायनुं ज्ञान करे ते व्यवहारनुं ज्ञान छे. प्रमाणज्ञान अने नयज्ञान बन्ने पर्याय छे.
अरे! जगतना जीवोने पोते मरीने कयां जशे एनी पडी नथी. पण भाई, आत्मा तो अविनाशी तत्त्व छे. ए कयांक तो रहेशे ज. चार गति अने चोरासीना चक्करमां आत्माने कोई शरण नथी, भाई. पोते मरीने कयां जशे एवी जेने संसारनी भीति लागी छे ते भव्य जीव आत्मानुं ज, -शुद्ध चैतन्यनुं ज शरण शोधे छे. निश्चयनयनो विषयभूत जे ध्रुव एक अखंड चैतन्यसामान्यवस्तु छे ते एक ज जीवने शरणरूप छे. पर्यायने एक द्रव्य ज शरणभूत छे. तेथी कहे छे के व्यक्त पर्यायमां तुं एक शुद्ध अव्यक्तने जाण.
द्रव्यने प्रसिद्ध करनारी प्रगट पर्याय ते द्रव्यमां घूसी जती नथी. जो द्रव्यमां घूसी जाय तो आ द्रव्य छे एम कोण जाणे? अव्यक्तने जाणनार पर्याय तो अव्यक्तथी भिन्न रहीने तेने जाणे छे. द्रव्यनी प्रतीति करनारी पर्याय द्रव्यमां घूसी जाय तो प्रतीति करनार कोई रहेतुं नथी. तेथी प्रगट वर्तमान पर्याय द्रव्यथी भिन्न रहीने प्रतीति करे छे. आवी वात छे.
भाई! आ तो भगवानना दरबारनी (समोसरणमां सांभळेली) वातो छे. त्रिलोकीनाथ
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सर्वज्ञ परमेश्वरनी दिव्यध्वनिमां जे आव्युं ते अनुसार आ शास्त्रो रचायां छे, ते शास्त्रोमांनुं आ ‘समयसार’ एक शास्त्र छे. आचार्यदेवे भव्यजीवोने आ ‘समयसार’ रूप भेटणुं आप्युं छे. भगवानने भेटवुं होय तो आ ‘समयसार’ने समज. अहो! दिगंबर संतोए तो जगतने हथेळीमां आत्मा बताव्यो छे. जेनी योग्यता हशे ते प्राप्त करशे.
चोथो बोलः– क्षणिक व्यक्तिमात्र नथी माटे अव्यक्त छे. एक समयनी पर्याय जे व्यक्त प्रगट छे ते क्षणिक छे; ज्यारे आत्मा शुद्ध चैतन्यसामान्य त्रिकाळ छे. तेथी क्षणिक व्यक्तिमात्र एटले प्रगट पर्याय जेटलो आत्मा नथी माटे अव्यक्त छे. आत्मा एनाथी अन्य अव्यक्त छे. तात्पर्य एम छे के पर्याय एक समयमात्र सत् होवाथी ते द्रष्टि करवा योग्य अने आश्रय करवा योग्य नथी. माटे अनंतकाळमां जेनुं लक्ष कर्युं नथी एवा एक शुद्ध त्रिकाळी अव्यक्त आत्मस्वभावनुं लक्ष कर. (अनादिना) अलक्ष्यने लक्षमां ले.
भाई! इन्द्रियो मोळी न पडे अने रोग घेरो न घाले ते पहेलां चिन्मात्र शुद्ध आत्मानी द्रष्टि करी लेवा जेवी छे. आ तो जेनो पुरुषार्थ नबळो छे तेने आवी शिखामण आपी छे. अन्यथा सातमा नरकनी असह्य पीडा भोगवतो नारकी पण उग्र पुरुषार्थ करीने आत्मज्ञान प्राप्त करी शके छे. वृद्धावस्था आदि गमे तेवा प्रसंगमां पण आत्मा पोतानो पुरुषार्थ उपाडी शके छे, कारण के परद्रव्य अने परद्रव्यनी पर्यायने भगवान आत्मा अडतो पण नथी. शरीरनी गमे तेवी वेदना होय ते वेदनाने आत्मा स्पर्शतो नथी. तेथी तो कहे छे के क्षणिक व्यक्तिने (पर्यायने) तुं अव्यक्त (आत्मा) तरफ लई जा; तने आत्मा मळशे, आत्मानो भेटो थशे अने आनंद आवशे, सुख थशे.
पांचमो बोलः– व्यक्तपणुं तथा अव्यक्तपणुं भेळां मिश्रितरूपे तेने प्रतिभासवा छतां पण ते व्यक्तपणाने स्पर्शतो नथी माटे अव्यक्त छे. एक समयनी पर्यायमां पर्याय अने द्रव्य बन्ने साथे प्रतिभासे छे छतां भगवान द्रव्यस्वभाव पर्यायने अडतो, स्पर्शतो नथी. श्री प्रवचनसार गाथा १७२ना अलिंगग्रहणना २०मां बोलमां एम लीधुं छे के पर्याय द्रव्यने स्पर्शती नथी. (त्यां विवक्षा जुदी छे). ए वात अहीं नथी बताववी. अहीं तो द्रव्य पर्यायने स्पर्शतुं नथी एम बताववुं छे.
व्यक्त एटले प्रगट ज्ञाननी पर्याय अने अव्यक्त एटले त्रिकाळी ध्रुव ज्ञायक ए बन्नेनुं भेगुं मिश्रपणे एकसाथे पर्यायमां ज्ञान थाय छे पण ज्ञायक द्रव्य ज्ञाननी पर्यायने स्पर्शतुं नथी एटले द्रव्य पर्यायमां व्यापतुं नथी एम कहे छे. अहाहा! आ व्यक्त पर्यायमां अव्यक्तनां ज्ञान-श्रद्धान आव्यां छतां ते अव्यक्त, अव्यक्तनां जेमां ज्ञान-श्रद्धान आव्यां ते पर्यायने स्पर्शतो नथी. अव्यक्त व्यक्तमां आवतो नथी, व्यापतो नथी. एटले के पर्याय पर्यायरूपे रहे छे अने द्रव्य द्रव्यरूपे रहे छे, आवो झीणो मार्ग! (उपयोगने सूक्ष्म करीने समजवो जोईए).
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आ द्रव्य छे, आ ज्ञानगुण छे अने आ जाणनारी पर्याय छे-एम द्रव्य, गुण, पर्याय त्रणेनुं पर्यायमां ज्ञान थाय छे. आम द्रव्य-पर्यायनुं मिश्रितपणे ज्ञान होवा छतां अव्यक्त एवो भगवान आत्मा स्व-परप्रकाशक एवी ज्ञाननी व्यक्त पर्यायने स्पर्शतो नथी; अर्थात् ते पर्याय द्रव्यमां आवती नथी. अहा! पोता सहित छ द्रव्यनुं एक समयनी पर्यायमां ज्ञान थाय छतां ते ज्ञान करनारी पर्यायमां ज्ञायक भगवान व्यापतो नथी, भिन्न ज रहे छे.
अहाहा! अनंत केवळज्ञाननी पर्यायो एक ज्ञानगुणमां (शक्तिरूपे) पडी छे, श्रद्धानी अनंत पर्यायो एक श्रद्धागुणमां पडी छे, निर्मळ चारित्रनी अनंत पर्यायो एक चारित्रगुणमां पडी छे, तथा अतीन्द्रिय आनंदनी अनंत पर्यायो एक आनंदगुणमां पडी छे. आम प्रत्येक गुणनी अनंत पर्यायो ते ते गुणमां शक्तिरूपे पडी छे. एवा जे गुण अने गुणोने धरनार त्रिकाळी द्रव्य तेने अही अव्यक्त कह्युं छे. अने ए द्रव्यने जाणनारी जे वर्तमान प्रगट पर्याय तेने व्यक्त कही छे. वस्तु ध्रुव द्रव्य पोते पोताथी व्यक्त प्रगट ज छे पण अहीं पर्याय जे व्यक्त छे तेनाथी ते अन्य छे ए अपेक्षाए तेने अव्यक्त कह्युं छे. एवा अव्यक्त त्रिकाळी द्रव्यनुं अने व्यक्त पर्यायनुं एकसाथे ज्ञान जे पर्यायमां थाय ते पर्यायने द्रव्य स्पर्शतुं नथी. अव्यक्त व्यक्तने स्पर्शतो नथी. अहा! वस्तु सूक्ष्म अने गंभीर छे. अहीं द्रव्य अने पर्यायने जुदा सिद्ध करे छे. ज्ञायक एवो आत्मा पर द्रव्यथी तो भिन्न छे ज, परंतु पोताने जाणनारी-देखनारी पर्यायथी पण भिन्न छे एम सिद्ध करे छे.
अहो! सम्यग्दर्शननो विषय कोई अद्भुत अचिंत्य छे. भाई! अगियार अंगनां जाणपणां अनंतवार कर्यां. एक आचारांगना अढार हजार पद छे. एक एक पदमां प१ करोड झाझेरा श्लोक छे. एम आचारांग करतां सूयडांगमां बमणा. एम उत्तरोत्तर दरेक अंगमां बमणा छे. आवा अगियार अंगनुं ज्ञान तेणे कंठस्थ कर्युं तथा नव पूर्वनी लब्धि पण अनंतवार प्रगटी. पण अरेरे! शुद्धात्मानी द्रष्टिना थई अने तेथी मिथ्यात्व ना टळ्युं.
भाई! त्रिलोकनाथ सर्वज्ञ परमात्मानी दिव्यध्वनिमां जे आव्युं ते अनुसार कुंदकुंदादि आचार्य भगवंतोए आ शास्त्र अने आगम रच्यां छे. श्री बनारसीदासे कह्युं छे ने के-
अहाहा! ते वाणी केवीछे? नियमसार गाथा १०८ मां दिव्यध्वनिना स्वरूपनुं कथन करतां कह्युं छे के-‘भगवान अर्हंतना मुखारविंदथी नीकळेलो, सकळ जनताने
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श्रवणनुं सौभाग्य मळे एवो, सुंदर-आनंदस्यंदी’ भगवाननो उपदेश होय छे; ते अनक्षरात्मक होय छे अने भव्य जीवोने अमृत जेवो लागे छे. श्रीमद राजचंद्रे पण कह्युं छेः-
आ दिव्यध्वनि अनुसार भगवान कुंदकुंदाचार्य अहीं एम कहे छे के-एक समयनी पर्यायमां छ द्रव्यनुं ज्ञान थाय छे. ए छ द्रव्यमां अनंत सिद्धो पण आवी गया. ते एक एक सिद्धने केवळज्ञान वर्ते छे. एवा अनंत सिद्धो अने स्वद्रव्य पर्यायमां जणाय छे. एटले के पर्यायमां पर्यायनो प्रतिभास थाय छे अने पर्यायमां द्रव्यनो प्रतिभास थाय छे. जेम दर्पणमां बिंबनुं प्रतिबिंब देखाय छे तेम एक समयनी पर्यायमां आखा द्रव्यनो प्रतिभास थाय छे. एवुं द्रव्य-पर्यायनुं एकसाथे मिश्रपणे एक समयमां ज्ञान होवा छतां पर्यायने द्रव्य स्पर्शतुं नथी. गजब वात छे! जेने अंतरमां बेसे तेनुं भव-भ्रमण मटया वगर रहे नहि एवी वात छे.
छठ्ठो बोलः– पोते पोताथी ज बाह्य-अभ्यंतर स्पष्ट अनुभवाई रह्यो होवा छतां पण व्यक्तपणा प्रति उदासीनपणे प्रद्योतमान छे माटे अव्यक्त छे. शुं कहे छे? पोते पोताथी ज बाह्य एटले पर्याय अने अभ्यंतर एटले द्रव्य-एम द्रव्य अने पर्याय बन्नेने प्रत्यक्षपणे अनुभवे छे. (वेदननी अपेक्षाए प्रत्यक्ष कह्युं छे.) अहीं अनुभवे छे एनो अर्थ जाणे छे अथवा जाणवापणे अनुभवे छे एम थाय छे. आम द्रव्य-पर्यायपणे पोते पोताथी ज प्रत्यक्ष जणाई रह्यो होवा छतां व्यक्तपणा प्रति उदासीनपणे प्रद्योतमान छे. अर्थात् पर्यायना वेदन प्रत्ये उदासीन छे. त्यां पर्यायना वेदनमां न अटक्तां ज्यां ध्रुव वस्तु छे त्यां गुलांट खाई जाय छे. ए वेदननी पर्याय द्रव्य भणी नजर करे छे, द्रव्य तरफ ज वळे छे पण पर्यायमां अटक्ती नथी. बहु सूक्ष्म बोल छे!
पोते पोताथी ज स्पष्ट अनुभवाई रह्यो छे. एटले के राग के निमित्तने लईने अनुभवातो नथी. वळी स्पष्ट अनुभवाई रह्यो छे एटले के ज्ञानमां प्रत्यक्ष अनुभवाई रह्यो छे. ज्ञाननी पर्यायमां ज्ञाननुं अने द्रव्यनुं प्रत्यक्षपणुं छे; बन्ने एकसाथे जणाई रह्या छे. अरे! लोकोने आवुं आकरुं लागे एटले कहे के एकली निश्चयनी वात करे छे अने व्यवहारनो लोप करे छे. पण भाई! व्यवहार छे ए जाणवा माटे छे, आदरवा माटे नथी. तथा व्यवहारथी निश्चय प्रगटे एवुं पण व्यवहारनुं स्वरूप नथी.
पोते पोताथी ज प्रत्यक्ष अनुभवाई रह्यो छे छतां व्यक्त पर्याय प्रत्ये उदासीनपणे प्रद्योतमान छे. अर्थात् व्यक्त पर्यायमां टक्तो नथी. आनंदनुं वेदन पर्यायमां छे पण ते पर्यायमां अटक्तो नथी. बस, उदास, उदास, उदास. पर्यायथी लक्ष छोडीने द्रव्य भणी लक्ष करे छे, द्रव्यमां ज ढळे छे. द्रव्य भणी लक्ष करनार पर्याय प्रगट आनंदना वेदनमां पण
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लक्ष करती नथी. बीजी रीते कहीए तो एक समयनुं जे आनंदनुं वेदन तेमां पोते ऊभो रहेतो नथी.
हवे उपसंहार करतां कहे छे के-आ प्रमाणे भगवान आत्मामां रस, गंध, रूप, स्पर्श, शब्द, संस्थान अने व्यक्तपणानो अभाव होवा छतां पण स्वसंवेदनना बळथी पोते सदा प्रत्यक्ष होवाथी अनुमानगोचरमात्रपणाना अभावने लीधे जीवने अलिंगग्रहण कहेवामां आवे छे.
अहाहा! शुं कहे छे? भगवान आत्मामां जेम रस, रूप, गंध, स्पर्श, शब्द अने संस्थाननो अभाव छे तेम व्यक्त पर्यायनो पण अभाव छे. आवो होवा छतां वर्तमान पर्यायमां स्व नाम पोताना प्रत्यक्ष वेदनना बळथी-स्वसंवेदनना बळथी आत्मा सदा प्रत्यक्ष छे. पोते तो सदा प्रगट अने प्रत्यक्ष ज छे. प्रवचनसार गाथा १७२मां अलिंग-ग्रहणना छठ्ठा बोलमां लीधुं छे के भगवान आत्मा स्वभावथी जणाय एवो प्रत्यक्ष ज्ञाता छे. आत्मानो स्वभाव ज प्रत्यक्ष थवानो छे. परोक्ष रहेवानो एनो स्वभाव ज नथी. इन्द्रिय, मन के अनुमानज्ञानथी जणाय एवो आत्मानो स्वभाव ज नथी. (आ वात अलिंगग्रहणना पहेला पांच बोलमां लीधी छे).
ज्यां ज्यां ज्ञान त्यां त्यां आत्मा, ज्यां ज्यां ज्ञान नहीं त्यां त्यां आत्मा नहि-एवुं जे अनुमानज्ञान छे ए भेदरूप छे अने भेदरूप छे माटे व्यवहार छे. राग के व्यवहारज्ञाननी जेमां अपेक्षा नथी एवा स्वसंवेदनना बळथी भगवान आत्मा सदा प्रत्यक्ष थतो होवाथी अनुमानगोचरमात्रपणानो आत्मामां अभाव छे. तेथी अनुमानज्ञानरूप व्यवहारनो पण आत्मामां अभाव छे. प्रत्यक्षपूर्वकनुं अनुमान होय तो ते पण व्यवहार छे. एवा अनुमानथी पण आत्मा जणातो नथी एम कहे छे.
समयसार कळशटीकाना कळश ८मां ‘उन्नीयमानम्’ एटले के चेतनालक्षणथी लक्षित थाय छे एटले के अनुमानगोचर पण छे एम लीधुं छे. पण अहीं तो एटलो विकल्प (भेद) पण काढी नाख्यो छे. (अनुभव पूर्वे एवो कोई भेद होय ते जुदी वात छे). सीधो स्वसंवेदनना बळथी प्रत्यक्ष थाय छे एवो ज आत्मानो स्वभाव छे. अहीं प्रत्यक्ष ज्ञान लेवुं छे. ए ज कळश आठमां बीजो पक्ष रजु करतां कह्युं छे के-‘उद्योत–मानम्’-प्रत्यक्ष ज्ञानगोचर छे. आ वात अहीं लेवी छे. वस्तु विचारतां ‘आ ज्ञान ते आत्मा’ एवो अनुमाननो विकल्प ऊठे ते पण जूठो छे. शुद्ध वस्तुमात्र छे, आवो अनुभव सम्यक्त्व छे.
समयसारमां छेल्ले परिशिष्टमां ४७ शक्तिओनुं वर्णन छे. त्यां आत्मामां एक ‘प्रकाश’ नामनी शक्ति कही छे. आ शक्तिना कारणे पोते (आत्मा) पोताथी सीधो
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जणाय एवो ज एनो स्वभाव छे. ‘स्वयं प्रकाशमान विशद (स्पष्ट) एवा स्वसंवेदनमयी (स्वानुभवमयी) प्रकाश शक्ति.’ अहीं जे स्वसंवेदनप्रत्यक्ष लीधुं छे ए प्रकाशशक्तिनी अपेक्षाए लीधुं छे. आत्माने जाणवामां राग के निमित्तनी अपेक्षा तो नथी पण अनुमानज्ञाननी पण अपेक्षा नथी. आत्मा सीधो पर्यायमां स्वसंवेदनना बळथी प्रत्यक्ष थवाना ज स्वभाववाळो छे.
आनंदना वेदननी अपेक्षाए अहीं प्रत्यक्ष कह्यो छे. अतीन्द्रिय आनंदने आत्मा सीधो वेदे छे. आनंदनुं वेदन प्रत्यक्ष छे एनुं जोर आपीने प्रत्यक्ष कह्युं छे. आत्माना आनंदना स्वादमां श्रुतज्ञानीने अने केवळज्ञानीने कोई फेर नथी; आत्माना गुणो अने आकार जोवामां केवळीने जेम प्रत्यक्ष जणाय तेम श्रुतज्ञानीने न जणाय पण स्वानुभूतिमां आनंदनुं वेदन तो श्रुतज्ञानीने पण प्रत्यक्ष ज छे. श्रुतज्ञानीने जे आनंदनुं वेदन छे ते प्रत्यक्ष छे. ए कोई बीजो थोडो वेदे छे? तेथी श्रुतज्ञाननी अपेक्षाए आत्मा परोक्ष भले होय, पण वेदननी अपेक्षाए प्रत्यक्ष ज छे. स्वसंवेदनना बळथी पोते सदा प्रत्यक्ष छे.
आंधळो साकर खाय अने देखतो मनुष्य खाय. त्यां बन्नेने मीठाशना वेदनमां कांई फरक नथी. आंधळो साकरने प्रत्यक्ष देखतो नथी, पण साकरनी मीठाशना स्वादमां कांई फेर नथी. तेम आत्माना आनंदना स्वादमां श्रुतज्ञानी अने केवळज्ञानीने कांई फरक नथी. केवळज्ञानीने असंख्यातप्रदेशी अनंतगुणनो पिंड आत्मा अने तेना आकारादि साक्षात् प्रत्यक्ष देखाय छे तेम श्रुतज्ञानीने प्रत्यक्ष जणातुं नथी पण वेदननी अपेक्षाए अहीं प्रत्यक्षनुं जोर आप्युं छे. वळी तेमां प्रत्यक्ष थवानो प्रकाश नामनो गुण छे. पोते पोताथी सीधो जणाय एवो आत्मामां प्रकाश नामनो गुण छे. पोते सीधो आनंदने वेदे छे. तेथी वेदननी अपेक्षाए प्रत्यक्ष ज छे एम कह्युं छे.
समयसार कळशटीका, कळश १९मां आवे छे के-‘श्रुतज्ञानथी आत्मस्वरूप विचारतां घणा विकल्पो ऊपजे छे; एक पक्षथी विचारतां आत्मा अनेकरूप छे, बीजा पक्षथी विचारतां आत्मा अभेदरूप छे-आम विचारतां थकां तो अनुभव नथी, तो अनुभव कयां छे? उत्तर आम छे के प्रत्यक्षपणे वस्तुने आस्वादतां थकां अनुभव छे.’
कळश ९३मां पण लीधुं छे के-‘जेटला नय छे तेटला श्रुतज्ञानरूप छे; श्रुतज्ञान परोक्ष छे, केमके सविकल्प छे, अनुभव प्रत्यक्ष छे; केमके निर्विकल्प छे तेथी (सविकल्प) श्रुतज्ञान विना जे निर्विकल्प ज्ञान छे ते प्रत्यक्ष अनुभवे छे. तेथी प्रत्यक्षपणे अनुभवातो थको जे कोई शुद्धस्वरूप आत्मा ते ज ज्ञानपुंज वस्तु छे एम कहेवाय छे.’ आम भगवान आत्मा ज्ञाननी पर्यायमां सीधो प्रत्यक्ष जणाय छे. एमां राग के निमित्तनी तो अपेक्षा नथी पण अनुमानज्ञानथी पण ते जणाय नहि एवो ते स्वानुभव प्रत्यक्ष छे. आवा अर्थमां अहीं प्रत्यक्ष कह्यो छे.
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आमां (कळश ९३मां) श्रुतज्ञान परोक्ष कीधुं. खरेखर तो श्रुतज्ञाननो अनुभव प्रत्यक्ष छे. गाथा १४४ नी टीकामां लीधुं छे के-इन्द्रियो अने मनद्वारा प्रवर्तती बुद्धिओने मर्यादामां लावीने मतिज्ञानतत्त्वने आत्मसन्मुख करीने, तथा अनेक विकल्पो मटाडीने श्रुतज्ञानतत्त्वने पण आत्मसन्मुख करीने, अत्यंत विकल्परहित थईने निज परमात्मस्वरूप समयसारने अनुभवे छे ते वखते ज आत्मा सम्यक्पणे देखाय छे. आमां श्रुतज्ञान वडे अनुभव थवो कह्यो छे. ज्यां जे अपेक्षा होय ते यथार्थ समजवी जोईए. श्रुतज्ञानना विकल्पोमां आत्मा परोक्ष छे पण अनुभवमां, वेदनमां प्रत्यक्ष छे. केवळज्ञान अपेक्षा चारेय ज्ञानने परोक्ष पण कह्यां छे.
वळी रहस्यपूर्ण चिठ्ठीमां ‘आगम-अनुमानादिक परोक्षज्ञान वडे आत्मानो अनुभव होय छे’ एम लीधुं छे. त्यां निर्विकल्प अनुभव पूर्वे जैनागममां जेवुं आत्मानुं स्वरूप कह्युं छे तेवुं जाणी अनुमान वडे वस्तुनो निश्चय करे छे-अर्थात् एवो निर्णय होय छे एम बताववुं छे; परंतु तेनाथी अनुभव थाय छे एम कहेवुं नथी. भाई आत्मानुं स्वरूप अति सूक्ष्म छे. ज्यां जे विवक्षा होय ते बराबर जाणवी जोईए. अहीं तो एम कहे छे के वस्तु तो स्वसंवेदनना बळथी सदा प्रत्यक्ष छे अने एमां अनुमानगोचर-मात्रपणानो अभाव होवाथी जीवने अलिंगग्रहण कहेवामां आवे छे.
हवे आगळ कहे छे के-पोताना अनुभवमां आवता चेतनागुण वडे सदाय अंतरंगमां प्रकाशमान छे तेथी जीव चेतनागुणवाळो छे. अत्यार सुधी आत्मामां आ नथी, आ नथी एम कह्युं हतुं. पण हवे तेमां ‘छे’ शुं एनी वात करे छे. एकलुं देखवुं-जाणवुं जेनो स्वभाव छे एवा चेतनागुणवाळो भगवान आत्मा छे. आत्मा चेतना वडे अनुभवाय छे एटले राग वडे अनुभवातो नथी ए वात छे, परंतु एवा भेद वडे अनुभवाय छे एम कहेवुं नथी. अंतर्मुख थयेली पर्याय एम जाणे छे के आ चैतन्यमय भगवान आत्मा हुं, बस. भगवान आत्मा स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, व्यक्तपणुं आदिरूपे नथी पण चैतन्यमय, चेतनागुणवाळो छे.
हवे कहे छे-केवो छे चेतनागुण? जे समस्त विप्रतिप्रत्तिओनो (जीवने अन्य प्रकारे मानवारूप झघडाओनो) नाश करनार छे. जीव रागवाळो छे, पुण्यवाळो छे, व्यवहारवाळो छे, कर्मवाळो छे, शरीरवाळो छे इत्यादि अनेक प्रकारे अन्य मानवारूप झघडाओनो नाश करनार छे. कषायनी मंदता होय तो जणाय, छेल्लो शुभभाव तो होय छे ने? पहेलां विकल्प तो आवे ने? इत्यादि अनेक प्रकारनी विपरीत मान्यताओनो निषेध करनार छे. वळी जेणे पोतानुं सर्वस्व भेदज्ञानी जीवोने सोंपी दीधुं छे एवो छे. एटले के परथी भिन्न पडी स्वनो अनुभव जेणे कर्यो तेने पूरेपूरो ख्याल आवी गयो छे के मारो आत्मा सीधो मारा ज्ञानथी जणाय एवो छे, पण देव-गुरु-शास्त्रथी के दिव्यध्वनिथी जणाय एम नथी.
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सम्यक्त्वीने ज ए खबर छे के पोतानी रागरहित वस्तु पोताना ज्ञानभावथी जणाय छे, रागथी नहि.
आत्मा ज्ञान’ लक्षण द्वारा जणाय छे. ज्ञान लक्षण कहो के उपयोग कहो, ते द्वारा आत्मा जणाय छे. उपयोगना बे प्रकार छे. (१) उपयोग एटले जाणवुं-देखवुं एवो त्रिकाळी गुण अने (२) उपयोग एटले आ जाणवुं-देखवुं त्रिकाळ छे एम निर्णय करनारी पर्याय. जाणनार पर्याय व्यक्त छे अने प्रसिद्ध छे. जाणवुं, जाणवुं, जाणवुं ए लक्षण प्रसिद्ध छे. तेनाथी प्रसाध्यमान आत्माने साधी शकाय छे, जाणी शकाय छे.
वर्तमान ज्ञाननी दशाने अंतरमां वाळतां आत्मा जणाय ए टूंकी अने टच वात छे. ‘परथी खस, स्वमां वस, टूंकुं टच, एटलुं बस.’ एने विस्तारथी समजावे छे के परथी खसवुं एटले शुं? स्वमां वसवुं एटले शुं? अने स्ववस्तु शुं? ज्ञानस्वभावी वस्तु आत्मानुं ज्ञान अने अनुभव केम थाय ए मात्र भेदज्ञानीओ ज यथार्थ जाणे छे.
भाई! परिभ्रमण करीने ८४ लाख योनिमां अनंतवार अवतार कर्या. अहीं कोई आकरो रोग शरीरमां आवे अने थोडो काळ एमां जाय तो राड नाखे छे. ए रोगनी पीडा, नरकनी प्रतिकूळताथी तो अनंतमां भागे छे. परमाधामी (एक जातना देवो) नरकमां शरीरना झीणा झीणा कटका करी नाखे छे अने जेम विखरायेलो पारो भेगो थई जाय तेम ते कटका पाछा भेगा थई जाय छे. आवी नरकनी पीडामां तुं अनंतवार गयो छे, भाई! तारी स्ववस्तुना भान विना अर्थात् सम्यग्दर्शन विना आवां अनंत दुःखो तें भोगव्यां छे. माटे हवे तो जेवी वस्तुनी स्थिति छे तेवो एकवार अनुभव कर. अहा! जन्म-मरणना दुःखनो अंत लाववानो एक आ ज उपाय छे.
वस्तुनुं स्वरूप जेवुं छे तेवुं संतो जाहेर करे छे. कोईने गमे के न गमे तेनी साथे शुं संबंध? कोई निश्चयाभासी कहे के एकान्ती कहे. आ तो वस्तुना घरनी, निज घरनी वात छे. नियमसारमां आवे छे के कोई आवा सुंदर मार्गनी निंदा करे तेथी हे भाई! तुं आवा उत्तम लोकोत्तर मार्ग प्रत्ये अभक्ति न करीश, भक्ति ज करजे.
वळी, केवो छे चेतनागुण? जे समस्त लोकालोकने ग्रासीभूत करी ले छे. अहा! केवळज्ञाननी पर्यायनुं एटलुं सामर्थ्य छे के ते लोकालोकनी पर्यायने कोळियो करी जाय छे. अरे! एथी अनंतगणुं होय तोपण जाणे एवुं एनुं अचिंत्य सामर्थ्य छे. श्रुतज्ञाननी पर्यायमां पण आटली ताकात छे; फक्त प्रत्यक्ष, परोक्षनो भेद छे. एक समयनी व्यक्त पर्यायमां पर्यायनुं अने द्रव्यनुं बन्नेनुं ज्ञान थाय छे. एक समयनी पर्यायना ज्ञानमां छ द्रव्यनुं ज्ञान आवी जाय छे. आ वात छेल्ले १४ कळशो लीधा छे तेमां आवे छे.
एवा लोकालोकने ग्रासीभूत करीने अत्यंत तृप्ति वडे ठरी गयो छे. अहाहा! अनंत
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आनंदनो नाथ अंदरथी जाग्यो ते आनंदनो अनुभव करे छे. जेमां प्रतिसमय आनंद प्रगटे छे ते आनंदनो भोगवनार आत्मा अत्यंत तृप्त थई गयो छे.
द्रष्टिमां स्वभावनी अपेक्षाए रागनो भोगवनार ज्ञानी नथी. परंतु ज्ञाननी अपेक्षाए जुओ तो धर्मी साधक आनंदनो भोक्ता छे अने रागनो पण भोक्ता छे. राग भोगववा योग्य छे एम एने बुद्धि नथी, पण वेदनमां छे ए अपेक्षाए भोक्ता कह्यो छे.
भाई! आ अवसरमां पण तुं आ तत्त्वने नहि समजे तो कयारे समजीश?
जेम ब्राह्मण लचपच लाडु खाईने (तृप्त थयो होय तेम) मलपतो चाले तेम धर्मी आनंदमां मलपतो चाले छे. धर्मी अत्यंत स्वरूपसौख्य वडे तृप्त तृप्त होवाने लीधे एवो ठरी गयो छे के स्वरूपमांथी बहार नीकळवानो अनुद्यमी होय तेम सर्वकाळे किंचित्मात्र पण चलायमान थतो नथी. पूर्ण दशा थवाथी सर्वकाळे किंचित्मात्र पण चलित थतो नथी. आवी दशाने पूर्ण दशा अर्थात् अनुभवनुं फळ कहे छे. ए रीते सदाय जरापण नहि चळतुं अन्यद्रव्यथी असाधारणपणुं होवाथी चेतनागुण स्वभावभूत छे.
धर्मी जीव अंदरमां एवो तृप्त-तृप्त ठरी गयो छे के हवे पछीनो काळ आत्म-तत्त्वना आनंदना भोगवटामां ज वहेशे. अहो! समयसारमां तो चौद ब्रह्मांडना भावो भर्या छे. एवा काळे अने एवी शैलीए ए लखाई गयुं छे के एमां कांई अधूराश रही नथी.
-आवो चैतन्यरूप परमार्थस्वरूप जीव छे. परमार्थ एटले परा कहेतां उत्तम अने मा एटले लक्ष्मी अर्थ एटले पदार्थ-उत्तम लक्ष्मीवाळो पदार्थ. चैतन्यनी उत्तम लक्ष्मीवाळो जीव पदार्थ छे-ए परमार्थ छे. जेनो प्रकाश निर्मळ छे एवो आ भगवान आ लोकमां एक टंकोत्कीर्ण भिन्न ज्योतिरूप बिराजमान छे. जाणे घडतर करीने अंदरथी काढयुं होय एवो एकरूप शाश्वत तथा भिन्न चैतन्यज्योतिरूप भगवान बिराजमान छे तेने आत्मा कहेवामां आवे छे.
हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कही एवा आत्माना अनुभवनी प्रेरणा करे छेः-
‘चित्शक्तिरिक्तम् सकलम् अपि अह्नाय विहाय’-शुं कहे छे? चित्शक्तिथी रहित अन्य सकळ भावोने मूळथी छोडीनेः-जुओ, आत्मा ज्ञानसामर्थ्यरूप छे. अने आ शुभाशुभ भावो चित्शक्तिथी रिक्त कहेतां खाली छे, भिन्न छे. चाहे तो तीर्थंकर नामकर्म बांधनारो भाव हो. पंचमहाव्रतनो विकल्प हो के गुणगुणीना भेदनो विकल्प हो-ए बधा चैतन्यशक्तिथी खाली अनेरा भावो छे. ए सर्व भावोने मूळमांथी तुं छोड एम कहे छे.
‘च स्फुटतरम् स्वं चित्शक्तिमात्रम् अवगाह्य’-अने प्रगटपणे पोताना चित्शक्तिमात्र भावनुं अवगाहन करीनेः-पोते प्रगट ज्ञानस्वभावमात्र वस्तु छे. एमां डूबकी मार,
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एमां प्रवेश कर, अवगाहन कर. जेम समुद्रमां अवगाहन करे छे एम आ चैतन्यमात्र समुद्रमां अवगाहन कर. वर्तमान पर्याय द्वारा त्रिकाळी ज्ञानस्वभावी शुद्ध चैतन्यसिंधुमां प्रवेश कर. पुण्य-पापना भावनुं अवगाहन तो अनादिनुं छे, पण ए तो मिथ्याभाव छे, चैतन्यथी खाली छे.
अहा! केवी टूंकी अने सारभूत वात! जे भावथी बंधन थाय ते सर्व विकल्पो अचेतन छे. तेथी चैतन्यशक्तिनो जेमां अभाव छे एवा अनेक प्रकारना अचेतन शुभाशुभ भावोनुं लक्ष छोडी दे अने सदा एकरूप शुद्ध चित्शक्तिमात्र भावने ग्रहण कर.
केवा छे आत्मा? ‘विश्वस्य उपरि चारु चरन्तम् इमम् परम् आत्मानम्’-समस्त पदार्थसमूहरूप लोकना उपर सुंदर रीते प्रवर्ततो एवो आ एक, केवळ, अविनाशी आत्मा छे तेनेः-आत्मा लोकना उपर सुंदर रीते प्रवर्ततो पदार्थ छे. विकल्पथी मांडीने आखा जगतथी ए जुदो सर्वोत्कृष्ट पदार्थ छे. सुंदर रीते प्रवर्ततो एटले के अतीन्द्रिय आनंदस्वरूपे प्रवर्ततो पदार्थ छे. पुण्य-पापमां प्रवर्तन ए तो दुःखरूप प्रवर्तन छे. आत्मा तो अतीन्द्रिय आनंदस्वरूपे प्रवर्ततो सर्वोत्कृष्ट पदार्थ छे.
भगवान आत्मा चारित्रनी अपेक्षाए वीतरागस्वभावी छे, ज्ञाननी अपेक्षाए ज्ञान- स्वभावी छे अने आनंदनी अपेक्षाए आनंदस्वरूप छे. एवा ज्ञान, आनंद अने वीतरागता इत्यादि अनेक गुण-स्वभावोथी भरेलो अखंड एकरूप चैतन्य भगवान छे. अहीं कहे छे के पुण्य-पाप आदि सघळा अचेतन भावोनुं लक्ष छोडी प्रगट चिन्मात्र एक आत्मामां अवगाहन कर. अनुभव थवानी आ ज पद्धति अने रीत छे. आकरी लागे के न लागे, मार्ग तो आ छे, भाई! बीजो कोई मार्ग नथी.
‘आत्मा (आत्मानम्) आत्मनि साक्षात् कलयतु’ भव्यात्मा एवा एक केवळ अविनाशी आत्मानो आत्मामां ज अभ्यास करो, साक्षात् अनुभव करो. अहाहा! एकलुं माखण छे. अनादिथी आ चैतन्यप्रकाशनो पुंज शाश्वतस्वरूप भगवान आत्मा पुण्य-पापना व्यवहार भावोमां मुंझाई गयो छे, झकडाई गयो छे. तेने अहीं कहे छे के ए सर्व व्यवहार भावोनुं लक्ष छोडी चित्शक्तिस्वरूप भगवान आत्मानो आत्मामां ज साक्षात् अनुभव कर.
अहीं चित्शक्तिस्वरूप आत्मा एम भेदथी कथन कर्युं त्यां वस्तुमां कोई भेद न समजवो. पण शुं थाय? बीजा तो कोई उपाय नथी. बहु बुद्धिवाळो होय तोपण समजाववाना काळे भेद पाडीने ज समजाववुं पडे. ‘दर्शन-ज्ञान-चारित्रने प्राप्त होय ते आत्मा’, अथवा बहु टूकुं कहे तो ‘ज्ञान ते आत्मा’-एम भेद पाडीने ज कथन करे. भेद पाडया विना समजावे शी रीते? श्री समयसार कळशटीका, कळश पमां आ वात लीधी छे, ‘जीववस्तु निर्विकल्प छे. ते तो ज्ञानगोचर छे. ते ज जीववस्तुने कहेवा मागे