Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 46-49.

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कर्यो छे. तेथी अमे एम जाणीए छीए के तेनो निषेध करीने भगवाने सघळाय पराश्रित भावोनो निषेध कर्यो छे. आ प्रमाणे श्री अमृतचंद्राचार्ये कह्युं छे.

आवी वात काने पडी न होय तेथी केटलाक लोको कहे छे के-तमे कांई (व्रत, तप, आदि) करवानुं तो कहेता नथी? पण भाई, निज शुद्धात्मानुं ज्ञान करवुं, तेनुं श्रद्धान करवुं, अने तेमां रमणता करवी ए शुं करवानुं नथी? ज्यां जेवडी चीज पडी छे तेनुं ज्ञान करवुं, ज्यां जेवडी चीज छे तेनी प्रतीति करवी अने ज्यां चीज छे तेमां ज रमवुं ए ज करवानुं छे. आ सिवाय व्रत, तप, आदि व्यवहारना विकल्पे तो जगतने मारी नाख्युं छे.

प्रश्नः– शुभभाव ए प्रशस्त विकल्प छे ने?

उत्तरः– भाई, ए प्रशस्त विकल्प पण नुकशान करनारो भाव छे, आत्माने घायल करनारो भाव छे एम पुण्य-पाप अधिकारमां कह्युं छे. श्री समयसार कळशटीका कळश १०८मां कह्युं छे के-‘अहीं कोई जाणशे के शुभ-अशुभ क्रियारूप जे आचरणरूप चारित्र छे ते करवायोग्य नथी तेम वर्जवायोग्य पण नथी. उत्तर आम छे के-वर्जवायोग्य छे, कारण के व्यवहारचारित्र होतुं थकुं दुष्ट छे, अनिष्ट छे, घातक छे; तेथी विषय-कषायनी माफक क्रियारूप चारित्र निषिद्ध छे.’ रुचिमां लोकोने आत्मा बेसतो नथी पण राग बेसे छे. परंतु भाई, ए रागना परिणाम तो दुःखमां समावेश पामे छे. ए रागादि भावो आत्माना चैतन्यस्वभावमां प्रतिष्ठा पामता नथी तेथी ते पुद्गलस्वभावो ज छे.

* गाथा ४पः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

कर्मनो उदय आवे त्यारे आ आत्मा दुःखरूप परिणमे छे अने दुःखरूप भाव छे ते अध्यवसान छे. जुओ, कर्मना उदयना निमित्ते परिणमे त्यारे आत्मा रागरूपे, पुण्य-पापना भावरूपे परिणमे छे. ए शुभाशुभ रागना परिणाम छे ते दुःखरूप छे. दुःखरूप भाव छे ते अध्यवसान छे अने ते दुःखरूप भावमां अज्ञानीने चेतनानो भ्रम उपजे छे; खरेखर चेतनाना परिणाम छे नहि.

भगवान आत्मा तो ज्ञानानंदस्वरूप छे. दुःखरूप भावमां आत्मा छे ए तो भ्रम छे, परमार्थे दुःखरूप भाव चेतन नथी. परमार्थे एटले? परा कहेतां उत्कृष्ट, मा एटले लक्ष्मी. उत्कृष्ट लक्ष्मी एटले अतीन्द्रिय आनंद अने ज्ञाननी दशा जे प्रगटे ते परमार्थ छे. लोको, परनो कांई उपकार करे तेने परमार्थ कहे छे पण ए परमार्थ नथी. परनो उपकार करवानो जे शुभभाव छे ए तो दुःखरूप भाव छे. ए भावमां तो चैतन्य छे ज नहि. ‘अलमलमतिजल्पै...’ एक कळश २४४मां आवे छे के आ परमार्थने एकने ज निरंतर अनुभवो एटले उत्कृष्ट ज्ञान अने आनंदस्वरूप वस्तु जे आत्मा छे ते एकने


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ज निरंतर अनुभवो एम कह्युं छे. शुभरागनो जे अनुभव छे ते दुःखरूप छे, ते परमार्थ नथी.

व्यवहार आवे खरो, पण ते परमार्थ नथी. भगवान आत्माने अनुभववो ते परमार्थ छे. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रथी शुद्धात्माने सेववो अने उत्कृष्ट लक्ष्मी-ज्ञान अने आनंद प्रगट करवां ते परमार्थ छे. झीणी वात छे, पण सादी भाषामां कहेवाय छे. कलकत्तेथी अमुक युवान छोकरा आव्या हता. पण अरे! आत्मा कयां बाळक, वृद्ध के युवान छे? भगवान आत्मानो अनुभव करे ते खरेखर युवान छे. आत्मानो अनुभव न करे अने रागने पोतानो माने ते अज्ञानी वृद्ध होय, ३१ सागरनी आयुष्यनी स्थितिवाळो देव होय तोपण ते बाळक छे. रागथी भिन्न पडीने भगवान आत्मानो अनुभव करे त्यां आत्मा पुष्ट थाय छे माटे ते युवान छे. बाळकपणामां आत्मानुं शोषण (हीनता) थतुं हतुं तेथी तेने बाळक कह्यो. अने पूर्ण केवळज्ञान प्रगटावे ते खरेखर वृद्ध छे.

रागादि भावोमां चेतनपणानो भ्रम उपजे छे, पण ते परमार्थे चेतन नथी. स्वभावनी द्रष्टिए दया, दान, व्रत, भक्ति आदिनो राग कर्म जन्य छे. जड कर्मनो संबंध आत्माने असद्भूत व्यवहारनयथी छे, रागनो संबंध अशुद्ध निश्चयनयथी छे अने मतिज्ञान आदिनो पण त्रिकाळी आत्मा साथे अशुद्ध निश्चयनयथी संबंध छे. चार गतिनी योग्यता जे छे तेने पण अशुद्ध-निश्चयनयथी आत्मा साथे संबंध छे, केमके ते आत्मानी पर्यायमां छे. अशुद्धनिश्चय कहो के व्यवहार कहो, बन्ने एक ज वात छे. पर्याय ते व्यवहार अने द्रव्य ते निश्चय छे.

[प्रवचन नं. ९२ * दिनांक ११-६-७६]

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यद्यध्यवसानादयः पुद्गलस्वभावास्तदा कथं जीवत्वेन सूचिता इति चेत्–

ववहारस्स दरीसणमुवएसो वण्णिदो जिणवरेहिं।
जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा।। ४६ ।।
व्यवहारस्य दर्शनमुपदेशो वर्णितो जिनवरैः।
जीवा एते सर्वेऽध्यवसानादयो भावाः।। ४६ ।।

_________________________________________________________________

हवे पूछे छे के जो अध्यवसानादि भावो छे ते पुद्गलस्वभावो छे तो सर्वज्ञना आगममां तेमने जीवपणे केम कहेवामां आव्या छे? तेना उत्तरनुं गाथासूत्र कहे छेः-

व्यवहार ए दर्शावियो जिनवर तणा उपदेशमां,
आ सर्व अध्यवसान आदि भाव ज्यां जीव वर्णव्या. ४६.

गाथार्थः– [एते सर्वे] आ सर्व [अध्यवसानादयः भावाः] अध्यवसानादि भावो छे ते [जीवाः] जीव छे एवो [जिनवरैः] जिनवरोए [उपदेशः वर्णितः] जे उपदेश वर्णव्यो छे तेे [व्यवहारस्य दर्शनम्] व्यवहारनय दर्शाव्यो छे.

टीकाः– आ बधाय अध्यवसानादि भावो जीव छे एवुं जे भगवान सर्वज्ञदेवोए कह्युं छे ते, जोके व्यवहारनय अभूतार्थ छे तोपण, व्यवहारनयने पण दर्शाव्यो छे; कारण के जेम म्लेच्छभाषा म्लेच्छोने वस्तुस्वरूप जणावे छे तेम व्यवहारनय व्यवहारी जीवोने परमार्थनो कहेनार छे तेथी, अपरमार्थभूत होवा छतां पण, धर्मतीर्थनी प्रवृत्ति करवा माटे (व्यवहारनय) दर्शाववो न्यायसंगत ज छे. परंतु जो व्यवहार न दर्शाववामां आवे तो, परमार्थे (-परमार्थनये) शरीरथी जीव भिन्न दर्शाववामां आवतो होवाथी, जेम भस्मने मसळी नाखवामां हिंसानो अभाव छे तेम, त्रसस्थावर जीवोनुं निःशंकपणे मर्दन (घात) करवामां पण हिंसानो अभाव ठरशे अने तेथी बंधनो ज अभाव ठरशे; वळी परमार्थ द्वारा राग-द्वेष-मोहथी जीव भिन्न दर्शाववामां आवतो होवाथी, ‘रागी, द्वेषी, मोही जीव कर्मथी बंधाय छे तेने छोडाववो’-एम मोक्षना उपायना ग्रहणनो अभाव थशे अने तेथी मोक्षनो ज अभाव थशे. (आम जो व्यवहारनय न दर्शाववामां आवे तो बंध-मोक्षनो अभाव ठरे छे.)


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भावार्थः– परमार्थनय तो जीवने शरीर तथा रागद्वेषमोहथी भिन्न कहे छे. जो तेनो एकांत करवामां आवे तो शरीर तथा रागद्वेषमोह पुद्गलमय ठरे अने तो पछी पुद्गलने घातवाथी हिंसा थती नथी अने रागद्वेषमोहथी बंध थतो नथी. आम, परमार्थथी जे संसार- मोक्ष बन्नेनो अभाव कह्यो छे ते ज एकांते ठरशे. परंतु आवुं एकांतरूप वस्तुनुं स्वरूप नथी; अवस्तुनुं श्रद्धान, ज्ञान, आचरण अवस्तुरूप ज छे. माटे व्यवहारनयनो उपदेश न्यायप्राप्त छे. आ रीते स्याद्वादथी बन्ने नयोनो विरोध मटाडी श्रद्धान करवुं ते सम्यक्त्व छे.

* समयसार गाथा ४६ः मथाळुं *

हवे पूछे छे के-जो अध्यवसान आदि भावो छे ते पुद्गलस्वभावो छे तो सर्वज्ञना आगममां तेमने जीवपणे केम कहेवामां आव्या छे? आ शुभाशुभ भावो, पुण्य-पापना भावो, सुख-दुःखना वेदननी कल्पना इत्यादि भावोने अहीं पुद्गलस्वभावो कह्या. परंतु सर्वज्ञना आगममां तेमने जीवपणे कह्या छे; जेमके कषाय आत्मा, योग आत्मा, इत्यादि. तो ए केवी रीते छे? बन्ने वात सर्वज्ञना आगमनी छे तो ए केवी रीते छे? एना उत्तररूपे गाथासूत्र कहे छेः-

* समयसार गाथा ४६ः टीका उपरनुं प्रवचन *

आ बधाय अध्यवसानादि भावो जीव छे एवुं जे भगवान सर्वज्ञदेवोए कह्युं छे ते, जोके व्यवहारनय अभूतार्थ छे तोपण, व्यवहारनयने पण दर्शाव्यो छे; कारण के जेम म्लेच्छभाषा म्लेच्छोने वस्तुस्वरूप जणावे छे तेम व्यवहारनय व्यवहारी जीवोने परमार्थनो कहेनार छे तेथी, अपरमार्थभूत होवा छतां पण, धर्मतीर्थनी प्रवृत्ति करवा माटे (व्यवहारनय) दर्शाववो न्यायसंगत ज छे.

शुं कहे छे? पहेलां जे आठ बोलथी कह्या हता ने?-ए बधा अध्यवसानादि भावो जीव छे एम सर्वज्ञदेवोए व्यवहारनय कह्यो छे. (व्यवहारनयथी कह्युं छे). जोके व्यवहारनय अभूतार्थ छे, त्रिकाळी स्वभावनी अपेक्षाए पर्यायभावो अभूतार्थ छे तोपण व्यवहारनयने पण दर्शाव्यो छे केमके व्यवहारनय व्यवहारी जीवोने परमार्थनो कहेनार छे. व्यवहारनय पोते परमार्थभूत नथी, पण परमार्थनो कहेनार छे. जरा अटपटी वात छे. पर्यायमां जे रागद्वेष छे, पुण्य-पापना भावो छे ते स्वभावनी द्रष्टिमां अपरमार्थभूत होवा छतां पर्यायमां धर्मतीर्थनी प्रवृत्ति करवा माटे पर्यायने दर्शाववी, व्यवहारनयने दर्शाववो न्यायसंगत ज छे.

पर्याय पण (अस्तिपणे) छे, चौद गुणस्थानो छे. जो गुणस्थानो नथी एम कोई कहे तो व्यवहारनो निषेध थई जाय. अने चोथुं, पांचमुं, छठ्ठुं इत्यादि जे गुणस्थानो छे तेनो निषेध थई जतां धर्मतीर्थनो (मोक्षमार्गनो) ज निषेध थई जाय. धर्मतीर्थनी


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प्रवृत्ति करवा माटे व्यवहारनय दर्शाववो न्याय संगत ज छे. एटले एम न समजवुं के व्यवहारथी धर्मतीर्थनी प्रवृत्ति थाय छे. व्यवहारथी मोक्षमार्ग प्रगटे छे एम कहेवानो अहीं आशय नथी. मोक्षमार्ग जे छे ए तो स्वद्रव्यना आश्रये ज प्रगट थाय छे. परंतु पर्यायमां गुणस्थान आदि जे भेद छे ते न माने तो तीर्थनो नाश थई जाय, तीर्थनी व्यवस्था ज बनी शके नहि एम अहीं कहेवुं छे. व्यवहार छे खरो; व्यवहार न होय तो चौद गुणस्थान सिद्ध नहि थाय, संसार अने सिद्धनी पर्याय एवा जे भेद छे ते सिद्ध नहि थाय.

व्यवहारनय अपरमार्थभूत छे. एटले चौद गुणस्थानो वास्तविकपणे तो अपरमार्थ छे, जीवनुं मूळ स्वरूप नथी; पण तीर्थनी प्रवृत्ति माटे अर्थात् चोथुं, पांचमुं, छठ्ठुं, इत्यादि गुणस्थाननी दशा जणाववा माटे व्यवहार दर्शाव्यो छे. निश्चयथी पर्याय द्रव्यमां नथी पण पर्याय पर्यायरूपे छे एटलो व्यवहार अहीं सिद्ध करवो छे. पर्यायना आश्रये धर्म थाय छे, व्यवहारना आश्रये तीर्थ प्रगट थाय छे ए वात नथी. लोकोने आमां मोटो गोटो छे के व्यवहारथी धर्मतीर्थनी प्रवृत्ति थाय छे. पण भाई, एम नथी. धर्म-तीर्थनी प्रवृत्ति तो शुद्ध निश्चय चैतन्यमात्र द्रव्यना आश्रये ज थाय छे. अहीं तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप पर्याय, १४ गुणस्थान आदि भावो पर्यायपणे छे एम पर्यायरूप व्यवहारनी सिद्धि करी छे.

श्री समयसारनी १२मी गाथानी टीकामां (जइ जिणमयं पवज्जह...) गाथा उद्धृत करेली छे एमां आवे छे के जो तमे जिनमतने प्रवर्ताववा चाहता हो तो व्यवहार अने निश्चय-ए बंने नयोने न छोडो. तेनो अर्थ शुं? के निश्चयने न मानो तो तत्त्वनो नाश थशे अने व्यवहारने नहि मानो तो पर्याय, जीवना त्रस-स्थावरादि भेदो, संसारी अने सिद्धना भेदो अने गुणस्थानादि भेदो इत्यादि कांई सिद्ध नहि थाय. निश्चयथी जीव अभेद एकरूप त्रिकाळ छे. एमां पर्यायना भेद करवा ए व्यवहार छे. निश्चयद्रष्टिमां व्यवहार अभूतार्थ होवा छतां आवो भेदरूप व्यवहार छे खरो, परंतु ते आश्रय करवा लायक नथी. व्यवहारनुं अस्तित्व छे, बस एटलुं ज.

रागने मोक्षमार्ग कहेवानो व्यवहार छे खरो, पण तेथी राग खरेखर मोक्षमार्ग छे एम नथी. पर्यायना भेदो, गुणस्थान आदि भेदो छे खरा पण ते शुद्ध जीवद्रव्यमां नथी, त्रिकाळी द्रव्यमां नथी. माटे त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यनो आश्रय करे छे त्यां पर्यायनो आश्रय रहेतो नथी. छतां पर्याय छे खरी.

हवे कहे छे-परंतु जो व्यवहार न दर्शाववामां आवे तो, परमार्थे शरीरथी जीव भिन्न दर्शाववामां आवतो होवाथी, जेम भस्मने मसळी नाखवामां हिंसानो अभाव छे


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तेम. त्रस-स्थावर जीवोनुं निःशंकपणे मर्दन (घात) करवामां पण हिंसानो अभाव ठरशे अने तेथी बंधनो ज अभाव ठरशे.

जुओ, परमार्थे तो जीव शरीरथी भिन्न ज छे. परंतु व्यवहारथी जीव अने शरीरने निमित्त-नैमित्तिक संबंध छे. निश्चयथी तो जीव ज्ञानमात्र वस्तु छे. एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, आदि जे छकाय छे ते परमार्थे जीव नथी. परंतु एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय आदि जे छकायनी पर्याय छे ते व्यवहारथी जीव छे के नहि? ते व्यवहारथी जीव छे एम अहीं सिद्ध करे छे. छे हेय पण हेय पण छे तो खरो ने? जे ‘छे’ ते हेय होय के जे ‘नथी’ ते हेय होय?

एकेन्द्रिय आदि पर्याय व्यवहारथी जीव छे एम न मानवामां आवे तो, (एवो व्यवहार न मानवामां आवे तो) जेम भस्म एटले राखने मसळी नाखवामां हिंसानो-पापनो अभाव छे तेम त्रस-स्थावर जीवोनो, ते व्यवहारथी जीव छे एम नहि मानवाथी, घात करवाना भावमां पण हिंसानो भाव सिद्ध नहि थाय; एमां हिंसानो अभाव ठरशे अने तेथी बंधनो ज अभाव ठरशे. अहीं त्रस-स्थावर जीवोनो घात आत्मा करी शके छे ए प्रश्न नथी. परंतु जो एकेन्द्रियादि पर्यायने जीव न मानवामां आवे तो तेमनो घात करुं एवो जे भाव थाय ते भावमां हिंसानो भाव सिद्ध नहि थाय, हिंसानो अभाव ठरशे एम वात छे. तथा शरीर अने जीव तद्न एक ज छे एम अहीं मानवुं नथी, पण शरीर अने जीवने (संश्लेष संबंध छे) निमित्त-नैमित्तिक संबंध छे ए व्यवहार अहीं बताववो छे.

द्रव्य पोते निश्चय छे अने जे निश्चय मोक्षमार्गनी पर्याय छे ए व्यवहार छे. जो पर्याय ज नथी एम कहो तो निश्चय मोक्षमार्ग ज सिद्ध नहि थाय. श्री परमार्थ वचनिकामां आवे छे के शुद्ध द्रव्य अक्रियरूप ते निश्चय छे अने साचो मोक्षमार्ग साधवो ते व्यवहार छे. मोक्षमार्ग पण पर्याय छे ने? तेथी ते व्यवहार छे. ए प्रमाणे निश्चय-व्यवहारनुं स्वरूप सम्यग्द्रष्टि जाणे छे पण मूढ जीव जाणे नहि अने माने पण नहि. जो व्यवहार न होय तो पर्याय छे, राग छे, एकेन्द्रियादि जीव छे, जीवने शरीर साथे निमित्त-नैमित्तिक संबंध छे इत्यादि कशुंय सिद्ध नहि थाय.

आगळ (गाथा ४७ मां) समजाववा माटे उदाहरण आप्युं छे के एक योजनमां राजा जई रह्यो छे. त्यां राजा कांई एक योजनमां व्यापेलो नथी, पण तेनी सेना एक योजनमां फेलाएली छे. त्यां सेनाने राजा साथे संबंध छे. तेथी राजा एक योजनमां जई रह्यो छे एम कहेवामां आवे छे. तेम भगवान आत्मा तो निश्चयथी एकरूप छे, पण रागादि तेनी पर्यायमां व्यापे छे. तेथी आत्माने रागादि थाय छे एम कहेवामां आवे छे-ए व्यवहार छे.


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सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र, गुणस्थानना भेदो ए बधुं व्यवहार छे. निश्चयथी तो आत्मा गुणस्थान आदि रहित छे. निश्चयनयथी राग आत्मानो नथी एवुं सर्वज्ञनुं वचन छे. तथा व्यवहारथी राग आत्मानो छे ए पण सर्वज्ञनुं वचन छे. त्यां पर्यायमां जे राग छे, आस्त्रव- बंध छे तेनुं ज्ञान कराव्युं छे. तथा निज चैतन्यस्वभावी शुद्ध द्रव्यना आश्रये ते आस्त्रव- बंधनो नाश थई जे संवर, निर्जरा आदि पर्यायो प्रगट थाय छे एनुं ज्ञान कराव्युं छे. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप जे निश्चय मोक्षमार्ग छे ते सद्भूत-व्यवहार छे तथा रागादि छे ए असद्भूत व्यवहार छे. पण बन्ने छे तो खरा ने?

भाई! संसार, मोक्षमार्ग अने मोक्ष ए बधुंय पर्याय छे. धर्मतीर्थनी प्रवृत्ति पण पर्यायरूप छे. पर्याय छे माटे व्यवहार छे. व्यवहार अपरमार्थभूत कह्यो छे केमके तेना आश्रये निर्मळता प्रगटती नथी. छतां ते दर्शाववो न्यायसंगत ज छे केमके ते अस्तिपणे तो छे ज. त्रिकाळी शुद्ध तत्त्व छे ते भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे अने पर्याय छे ते अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे. पण कई अपेक्षाए? पर्याय आश्रय करवा योग्य नथी माटे तेने असत्यार्थ छे. पण कई अपेक्षाए? पर्याय आश्रय करवा योग्य नथी माटे तेने असत्यार्थ कही छे. पर्याय छे ज नहि एम नथी. बारमी गाथामां एम लीधुं छे के शुद्धतानो अंश, अशुद्धतानो अंश तथा शुद्धता- अशुद्धताना वधता-घटता अंशो ए सघळो व्यवहार जे छे ते जाणेलो प्रयोजनवान छे. जाणेलो प्रयोजनवान कह्यो तेमां ते छे एम सिद्ध थई जाय छे. जो व्यवहार होय ज नहि तो तेने जाणवानुं कयां रह्युं? भाई, वस्तु जेम छे तेम समजवी पडशे. एना विना भवनो अंत नहि आवे.

जे करवाथी भवनो अभाव न थाय ए शुं कामनुं? भवनो अभाव तो एक द्रव्यना (शुद्ध द्रव्यना) आश्रये थाय छे. तथा ए भवनो अभाव थवो मोक्ष थवो के मोक्षमार्ग प्रगटवो ए बधो व्यवहार छे. ११मी गाथामां कह्युं ने के-‘व्यवहारोऽभूदत्थो’ व्यवहार बधोय अभूतार्थ छे पर्यायमात्र अभूतार्थ छे. तेमां एम लीधुं छे के व्यवहारनय बधोय अभूतार्थ होवाथी अभूत अर्थने प्रगट करे छे. ए व्यवहारना चार प्रकार छेः-

(१) अनुपचरित सद्भूतव्यवहार, (२) उपचरित सद्भूतव्यवहार, (३) अनुपचरित असद्भूतव्यवहार, (४) उपचरित असद्भूतव्यवहार.

ए बधो व्यवहार छे खरो, पण ते जाणेलो प्रयोजनवान छे, आदरेलो प्रयोजनवान नथी. ए चार व्यवहारनयनी व्याख्या आ प्रमाणे छेः


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ज्ञान ते आत्मा एम कहेवुं ते अनुपचरित सद्भूत व्यवहार छे. ‘ज्ञान ते आत्मा’ एम कहेतां त्रिकाळी ज्ञायकमां भेद पडयो तेथी व्यवहार, ज्ञान आत्मानुं छे अने ते आत्माने जणावे छे माटे अनुपचरित सद्भूतव्यवहार छे.

ज्ञान रागने जाणे छे एम कहेवुं ते उपचरित सद्भूत व्यवहार छे. ‘ज्ञान रागने जाणे छे’ एमां जाणनारुं ज्ञान पोतानी पर्याय छे माटे सद्भूत, त्रिकाळीमां भेद पाडयो माटे व्यवहार अने राग जे पर छे, पोताना स्वरूपमां नथी तेने जाणे छे ते उपचार छे. आ प्रमाणे ज्ञान रागने जाणे छे एम कहेवुं उपचरित सदभूत व्यवहार छे.

आत्मानी पर्यायमां जे राग छे ते शुद्ध सत्रूप आत्मवस्तुमां नथी तेथी असद्भूत छे. भेद पाडयो ते व्यवहार छे अने ज्ञानमां स्थूळपणे जणाय छे तेथी उपचरित छे. आ रीते स्थूळ रागने आत्मानो कहेवो ते उपचरित असद्भूत व्यवहार छे. तथा जे सूक्ष्म अबुद्धिपूर्वकनो रागांश जे वर्तमान ज्ञानमां जणातो नथी, ख्यालमां आवतो नथी ते अनुपचरित असद्भूतव्यवहार छे. ते (व्यवहार) बधोय अभूतार्थ होवाथी अभूत अर्थने प्रगट करे छे. शुद्धनय भूतार्थ होवाथी भूत अर्थने एटले छता त्रिकाळी पदार्थने प्रगट करे छे. व्यवहार अभूतार्थ छे तेथी व्यवहार छे ज नहि एम नहि, पण व्यवहार आश्रय करवा योग्य नथी तेथी हेय छे.

एक समयनी पर्याय छे ते व्यवहार छे. पंचाध्यायीमां द्रव्यने निश्चय अने पर्यायने व्यवहार कह्यां छे. केवळज्ञाननी पर्याय ए पण सद्भूत व्यवहार छे. परमात्मप्रकाशमां आवे छे के मति, श्रुत, अवधि अने मनःपर्ययज्ञान पण विभावगुण छे. श्री नियमसारमां पण कह्युं छे के जे चार ज्ञान छे ते विभावस्वभाव छे अने केवळज्ञान शुद्धस्वभावभाव छे. केवळज्ञान प्रगटे छे ते कायम रहे छे माटे तेने स्वभावभाव कह्यो अने चार ज्ञान कायम रहेतां नथी माटे तेमने विभावगुण कह्या. परंतु ते केवळज्ञान पण भेदरूप (अंशरूप) होवाथी तेने अहीं व्यवहार कह्यो छे. समयसारनी शैली एवी छे के ते परमार्थने जणावे छे अने अपरमार्थनुं पण साथे ज्ञान करावे छे. श्री समयसारनी १४मी गाथाना भावार्थमां कह्युं छे के मुख्य-गौण कथन सांभळी सर्वथा एकांत-पक्ष न करवो. सर्व नयोना कथंचित् रीते सत्यार्थपणानुं श्रद्धान करवाथी ज सम्यग्द्रष्टि थई शकाय छे. अर्थात् व्यवहारनयनुं पण यथार्थ ज्ञान करवुं जोईए. पर्याय छे ज नहि एम कोई कहे तो एनुं ज्ञान खोटुं छे. पर्याय छे एम ज्ञान राखीने द्रव्यनो आश्रय करे ए ज यथार्थ छे.

पर्याय छे, पर्यायमां राग छे एने जाणे नहि, माने नहि तो एकांतपक्ष थई जशे. एकलो निश्चय लेशो तो काम नहि चाले. निश्चयने व्यवहारनी अपेक्षा छे. फूलचंदजी सिद्धांतशास्त्रीए कह्युं छे ने के व्यवहारनी उपेक्षा करवी ए ज एनी अपेक्षा छे. पर्यायमां जे राग छे तेनी उपेक्षा करीने द्रव्यनी अपेक्षा करवी. व्यवहारनी उपेक्षा करी त्यां ज


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एनी अस्ति सिद्ध थई गई, अर्थात् एनी एटली अपेक्षा आवी गई. भाई, आ तत्त्व समजवा माटे मध्यस्थ थवुं जोईए. मध्यस्थ थाय एने समजाय एवुं छे.

निश्चय जे शुद्ध द्रव्यवस्तु तेनो निर्णय करनार कोण छे? तेनो निर्णय करनारी पर्याय व्यवहार छे. नित्यनो निर्णय करनार पण अनित्य पर्याय ज छे. भाई, बधुं स्याद्वादनी अपेक्षाथी ज समजाय एम छे, एकांतथी कांई पकडाय नहि. परंतु स्याद्वादनो अर्थ एम नथी के निश्चयथी पण मोक्षमार्ग थाय अने व्यवहारथी पण मोक्षमार्ग थाय. व्यवहार छे, बस एटलुं अहीं कहेवुं छे.

आ शास्त्रनी आठमी गाथामां आवे छे के म्लेच्छोने ‘स्वस्ति’ एटले तारुं ‘अविनाशी कल्याण थाओ’ एवो अर्थ म्लेच्छभाषा द्वारा ज समजावी शकाय छे. तेवी रीते व्यवहारीओने वस्तुस्वरूप व्यवहारनय द्वारा समजाववामां आवे छे. परंतु जेम ब्राह्मणे म्लेच्छ थवुं योग्य नथी तेम समजनारे के समजावनारे व्यवहारने अनुसरवो योग्य नथी. त्यां एम कह्युं छे के व्यवहारनय म्लेच्छभाषाना स्थाने होवाना लीधे परमार्थनो प्रतिपादक होवाथी स्थापन करवा योग्य छे पण तेथी ते अनुसरवा योग्य नथी. आ तो परम सत्यनी सिद्धि थाय छे, भाई!

श्री पुरुषार्थ सिद्धयुपायमां आवे छे के-ज्यारे एक नयनी विवक्षा होय त्यारे बीजा नयने ढीलो करवो, गौण करवो; वलोणामां रवई खेंचनार गोवालणनी जेम-जेम नेतरांनो एक छेडो खेंचवामां आवे त्यारे बीजो छेडो ढीलो मूकवामां आवे छे तेम. पण ए तो बन्ने नयोना विषयोनुं ज्ञान करवुं होय एनी वात छे. व्यवहारनुं ज्ञान करवुं होय त्यारे निश्चयने गौण करे अने निश्चयनुं ज्ञान करवुं होय त्यारे व्यवहारने गौण राखे. परंतु आश्रय करवा अने श्रद्धा करवा माटे तो एक ज-एक निश्चय ज मुख्य छे. एक त्रिकाळ भूतार्थना आश्रये ज सम्यग्दर्शन थाय. त्यां तो एक निश्चयना जोरमां (आश्रयमां) व्यवहारने ढीलो करीने (एनुं लक्ष छोडी दईने) पर्यायने निश्चयमां जोडी देवानी छे. (सहज जोडाय जाय छे.) एक भूतार्थना आश्रये ज सम्यग्दर्शन थाय ए एक ज सिद्धांत छे; व्यवहारना आश्रये पण समक्ति थाय एम स्याद्वाद नथी. श्रद्धान करवामां के आश्रय करवामां व्यवहारने ताणवो (मुख्य करवो) अने निश्चयने ढीलो (गौण) करवो ए वात छे ज नहि, एवो स्याद्वाद छे ज नहि.

स्याद्वादनो अर्थ एवो नथी के निश्चयथी पण धर्म थाय अने व्यवहारथी पण धर्म थाय. जेम म्लेच्छभाषा म्लेच्छोने वस्तुस्वरूप जणावे छे तेम व्यवहारनय व्यवहारीओने परमार्थनो कहेनार छे. परंतु व्यवहारनय परमार्थनो प्रगट करनार छे एम नथी. भेद छे ते अभेदने बतावे छे पण अभेदनो अनुभव करावतो नथी. माटे भेद आदरणीय नथी, व्यवहार आदरणीय नथी.


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कह्युं छे ने के व्यवहारनय दर्शाववो न्यायसंगत ज छे, केमके ते विकारी-अविकारी पर्यायोना भेदने बतावे छे. पण तेथी व्यवहारनय आदरवो न्यायसंगत छे एम नथी. भाई, आ तो दिगंबर संतोनी वाणी छे. आवी वाणी बीजे कयांय छे ज नहि. दिगंबर ए कोई पक्ष के वाडो नथी. वस्तुनुं जेवुं स्वरूप छे एवुं यथार्थ स्वरूप दिगंबर संतोए प्रसिद्ध कर्युं छे. रागना वस्त्र विनानी जे चीज (ज्ञायकमात्र वस्तु) ते दिगंबर आत्मा छे. अने वस्त्र विनानी शरीरनी दशा ए बाह्य दिगंबरपणुं छे. अहो! दिगंबरत्व कोई अद्भुत अलौकिक चीज छे. पक्ष बंधाई गयो तेथी आकरुं लागे पण शुं थाय? वस्तुस्थिति ज आवी छे.

हवे आगळ कहे छे-वळी परमार्थ द्वारा राग-द्वेष-मोहथी जीव भिन्न दर्शाववामां आवतो होवाथी (व्यवहारनय न दर्शाववामां आवे तो) ‘रागी, द्वेषी, मोही जीव कर्मथी बंधाय छे तेने छोडाववो’-एम मोक्षना उपायना ग्रहणनो अभाव थशे अने तेथी मोक्षनो ज अभाव थशे.

मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय अने योग ए पांच बंधनां कारण छे. बंधनां कारण वस्तुना स्वभावमां नथी. पण ए बंधनां कारण पर्यायमां तो छे ज. जो व्यवहारनय न दर्शाववामां आवे तो बंधनां कारणो सिद्ध थशे नहि अने तेथी रागी, द्वेषी, मोही जीव कर्मथी बंधाय छे एम पण कही नहि शकाय. अने एम थतां मोक्षना उपायना ग्रहणनो अभाव थशे. अने तेथी मोक्षनो पण अभाव थशे.

समयसार गाथा ३४मां तो त्यां सुधी आवे छे के विकारना त्यागनुं र्क्तापणुं आत्माने नाममात्र छे. परंतु पर्यायमां विकार छे अने तेनो नाश थाय छे एवो व्यवहार छे तो खरो ने? परमार्थे विकारना नाशनुं र्क्तापणुं आत्माने नथी. एटले त्रिकाळी ज्ञायकस्वभावनो ज्यां आश्रय कर्यो के विकार छूटी जाय छे. अर्थात् त्यारे विकार उत्पन्न थतो नथी तेथी पूर्व पर्यायनी अपेक्षाए विकारनो नाश कर्यो एम कहेवामां आवे छे. एटले पर्यायमां विकार छे अने तेनो नाश थाय छे एवो व्यवहार छे.

श्री परमात्मप्रकाशमां (गाथा ८८मां) आवे छे के भावलिंग जे शुद्धात्मस्वरूपनो साधक निर्विकल्प मोक्षमार्ग छे ते पण जीवनुं स्वरूप नथी. भावलिंग पर्याय छे ने? तेथी कह्युं छे के उपचारनयथी जीवनुं स्वरूप कहेवा छतां परम सूक्ष्म शुद्धनिश्चयनयथी भावलिंग पण जीवने नथी. निश्चयथी तो बंध अने मोक्षनी पर्याय आत्मामां छे ज नहि. वस्तु तो त्रिकाळ एकरूप मुक्तस्वरूप ज छे. मोक्षनी उत्पत्ति अने संसारनो नाश ए बन्ने पर्यायमां छे अने तेथी व्यवहार छे.

जो व्यवहार न दर्शाववामां आवे तो बंध-मोक्षनो ज अभाव ठरे. नवी (मोक्षनी) पर्याय प्रगट करवी अने बंधनो नाश करवो ए बधुं पर्यायमां छे. माटे व्यवहार


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दर्शाववो न्यायसंगत छे. पण एनो अर्थ एम नथी के मंदरागरूप व्यवहार ते मोक्षनुं के मोक्षमार्गनुं कारण छे.

* गाथा ४६ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

परमार्थनय तो जीवने शरीर तथा राग-द्वेष-मोहथी भिन्न कहे छे. जो तेनो एकांत करवामां आवे तो शरीर तथा राग-द्वेष-मोह पुद्गलमय ठरे अने तो पछी पुद्गलने घातवाथी हिंसा थती नथी अने राग-द्वेष-मोहथी बंध थतो नथी एम ठरशे. आम परमार्थे जे संसार- मोक्ष बन्नेनो अभाव कह्यो छे ते ज एकांते ठरशे. पण आवुं एकांतरूप वस्तुनुं स्वरूप नथी. परमार्थथी जे संसार-मोक्षनो अभाव कह्यो ते एकांते नथी. बंध-मोक्ष पर्यायमां तो छे ज. बंध, मोक्ष अने मोक्षनो उपाय ए बधी पर्यायोनो व्यवहार अवश्य छे.

एकांतरूप वस्तुनुं स्वरूप नथी. अवस्तुनुं श्रद्धान, ज्ञान, आचरण अवस्तुरूप ज छे. माटे व्यवहारनयनो उपदेश न्यायप्राप्त छे. अर्थात् व्यवहारनयनो विषय पण छे. आ रीते स्याद्वादथी बन्ने नयोनो विरोध मटाडी श्रद्धान करवुं ते सम्यक्त्व छे. ए नयोनो विरोध केवी रीते मटाडवो? स्याद्वादथी. पर्यायथी जुओ तो राग-द्वेष-मोह आदि साथे संबंध छे. वस्तुना स्वभावनी द्रष्टिथी जुओ तो संबंध नथी. पर्याय छे, पर्यायमां राग-द्वेष छे एनुं ज्ञान करवुं पण जिनवचनमां जे एकने ज उपादेय कह्यो छे ए शुद्ध त्रिकाळी आनंदनो नाथ भगवान आत्मानो आश्रय करवो. एम बन्ने नयोनो विरोध मटाडी श्रद्धान करतां सम्यक्त्व थाय छे.

जिनवचनमां त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप जीववस्तु उपादेय कही छे. छतां पर्याय, राग-द्वेष, बंध-मोक्ष इत्यादि बधो पर्यायनयनो, व्यवहारनयनो विषय छे खरो, पण ते आश्रय करवा लायक नथी. तथापि ‘ए नथी’ एम पण समजवा लायक नथी.

[प्रवचन नं. ९३-९४ * दिनांक १२-६-७६ थी १६-६-७६]

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अथ केन द्रष्टान्तेन प्रवृत्तो व्यवहार इति चेत्–

राया हु णिग्गदो त्ति य एसो बलसमुदयस्स आदेसो।
ववहारेण दु उच्चदि तत्थेक्को णिग्गदो राया।। ४७ ।।
एमेव य ववहारो अज्झवसाणादिअण्णभावाणं।
जीवो त्ति कदो सुत्ते तत्थेक्को णिच्छिदो जीवो।। ४८ ।।
राजा खलु निर्गत इत्येष बलसमुदयस्यादेशः।
व्यवहारेण तूच्यते तत्रैको निर्गतो राजा।। ४७ ।।

एवमेव च व्यवहारोऽध्यवसानाद्यन्यभावानाम्।
जीव इति कृतः सूत्रे तत्रैको निश्चितो जीवः।। ४८ ।।

_________________________________________________________________

हवे शिष्य पूछे छे के आ व्यवहारनय कयां द्रष्टांतथी प्रवर्त्यो छे? तेनो उत्तर कहे छेः-

‘निर्गमन आ नृपनुं थयुं”–निर्देश सैन्यसमूहने,
व्यवहारथी कहेवाय ए, पण भूप एमां एक छे; ४७.
त्यम सर्व अध्यवसान आदि अन्यभावो जीव छे,
–सूत्रे कर्यो व्यवहार, पण त्यां जीव निश्चय एक छे. ४८.

गाथार्थः– जेम कोई राजा सेना सहित नीकळ्‌यो त्यां [राजा खलु निर्गतः] ‘आ राजा नीकळ्‌यो’ [इति एषः] एम आ जे [बलसमुदयस्य] सेनाना समुदायने [आदेशः] कहेवामां आवे छे ते [व्यवहारेण तु उच्यते] व्यवहारथी कहेवामां आवे छे, [तक्र] ते सेनामां (वास्तविकपणे) [एकः निर्गतः राजा] राजा तो एक ज नीकळ्‌यो छे; [एवम् एव च] तेवी ज रीते [अध्यवसानाद्यन्यभावानाम्] अध्यवसान आदि अन्यभावोने [जीवः इति] ‘(आ) जीव छे’ एम [सूत्रे] परमागममां कह्युं छे ते [व्यवहारः कृतः] व्यवहार कर्यो छे, [तक्र निश्चितः] निश्चयथी विचारवामां आवे तो तेमनामां [जीवः एकः] जीव तो एक ज छे.

टीकाः– जेम आ राजा पांच योजनना फेलावथी नीकळी रह्यो छे एम कहेवुं ते,


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एक राजानुं पांच योजनमां फेलावुं अशकय होवाथी, व्यवहारी लोकोनो सेनासमुदायमां राजा कहेवारूप व्यवहार छे; परमार्थथी तो राजा एक ज छे, (सेना राजा नथी); तेवी रीते आ जीव समग्र रागग्राममां (-रागनां स्थानोमां) व्यापीने प्रवर्ती रह्यो छे एम कहेवुं ते, एक जीवनुं समग्र रागग्राममां व्यापवुं अशकय होवाथी, व्यवहारी लोकोनो अध्यवसानादिक अन्यभावोमां जीव कहेवारूप व्यवहार छे; परमार्थथी तो जीव एक ज छे, (अध्यवसानादिक भावो जीव नथी).

* श्री समयसार गाथा ४७–४८ः मथाळुं *

हवे शिष्य पूछे छे के आ व्यवहारनय कया द्रष्टांतथी प्रवर्त्यो छे? तेनो उत्तर कहे छे.

* गाथा ४७–४८ः टीका उपरनुं प्रवचन *

पांच योजनना फेलावथी लश्कर नीकळी रह्युं होय त्यां राजा पांच योजनना फेलावथी नीकळी रह्यो छे एम व्यवहारथी, उपचारथी कहेवाय छे. खरेखर राजानुं पांच योजनमां फेलावुं अशकय छे. छतां व्यवहारी लोकोनो सेनासमुदायमां राजा कहेवारूप व्यवहार छे. परमार्थथी तो राजा एक ज छे, सेना राजा नथी. छतां सेनाने राजा कहेवानो लोकव्यवहार छे.

तेवी रीते आ जीव समग्र रागग्राममां व्यापीने प्रवर्ती रह्यो छे एम कहेवुं ते एक जीवनुं समग्र रागग्राममां व्यापवुं अशकय होवाथी, व्यवहारी लोकोनो अध्यवसानादिक अन्यभावोमां जीव कहेवारूप व्यवहार छे; परमार्थथी तो जीव एक ज छे.

खरेखर सेनामां राजा व्याप्यो नथी; पण सेनामां राजा निमित्त छे. तेथी राजा पांच योजनमां व्यापीने रह्यो छे एम कहेवामां आवे छे. तेवी रीते शुद्ध आत्मवस्तु छे ते विकारना अनेक प्रकारमां कांई व्यापी नथी; पण विकारना अनेक प्रकार जे अशुद्ध उपादानभूत छे तेमां आत्मा निमित्त छे. अशुद्ध उपादान पर्यायनुं पोतानुं स्वतंत्र छे, पण द्रव्यने तेमां निमित्त कहेवामां आवे छे. श्री योगसारमां आ वात लीधी छे. विकारनुं मूळ उपादान आत्मा नथी. अशुद्ध उपादान, व्यवहार स्वतंत्र छे. आत्मवस्तु छे ते विकारमां उपादान नथी, निमित्त छे. तेथी व्यवहारथी आत्मा रागमां व्याप्यो छे एम कहेवामां आवे छे. भाई, आवुं वीतरागनुं तत्त्व समजवुं झीणुं छे.

परमार्थथी तो राजा एक ज छे, सेना राजा नथी केमके सेनामां राजानुं व्यापवुं अशकय छे. तेम निश्चयथी आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदनो पिंड प्रभु शुद्ध चैतन्यघनवस्तु एक ज छे. आ मिथ्यात्वना असंख्य प्रकार, शुभभावना असंख्य प्रकार तथा अुशभभावना असंख्य प्रकार-एम जे समग्र रागग्राम छे ते आत्मा नथी केमके ते


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रागग्राममां आत्मानुं व्यापवुं अशकय छे. आनंदनो नाथ त्रिकाळी शुद्ध भगवान नित्य ध्रुव प्रभु असंख्य प्रकारनी अशुद्धतामां, विकारमां केम आवे? अशुद्धताने करे, विकारने करे एवो कोई आत्मामां गुण, स्वभाव के शक्ति नथी. पर्यायमां जे अशुद्धता थाय छे ते स्वतंत्र अशुद्ध उपादानथी थाय छे. अशुद्ध उपादान कहो के व्यवहार कहो. शुद्ध उपादानभूत वस्तु कांई अशुद्ध उपादाननुं कारण नथी, पण निमित्त छे. तेथी जेम सेनामां राजा रह्यो छे एम कहेवानो व्यवहारी लोकोनो व्यवहार छे तेम विकारमां जीव रह्यो छे एम कहेवानो व्यवहारीजननो व्यवहार छे. वस्तु खरेखर रागमां आवी ज नथी.

अज्ञानीओने समजाववा व्यवहारथी उपदेश करवामां आवे छे. पण व्यवहारने ज चोंटी पडे, वळगी पडे ए उपदेशने पात्र नथी. अरे भाई! आत्मा कोई अलौकिक वस्तु छे!! ए तो भगवत्स्वरूप परमात्मारूप समयसार छे. त्रिकाळ ध्रुव परमानंदस्वरूप चिद्घन वस्तु छे ते भूतार्थ छे, सत्य छे. अने ते ज आत्मा अने समयसार छे. श्री समयसार गाथा ११मां आवे छे के त्रिकाळी शुद्ध वस्तु छे ते भूतार्थ छे अने असंख्य प्रकारना विकारो, पर्यायभेदो छे ते त्रिकाळीनी अपेक्षाए असत्यार्थ छे. पर्यायनी अपेक्षाए पर्याय छे, पण द्रव्यनी अपेक्षाए ते असत्यार्थ छे. रागादिना असंख्य प्रकारमां आत्मा उपादानभूत नथी, निमित्त तरीके छे. नित्य एकरूप सत्यार्थ प्रभु आत्मा चिन्मात्रमूर्ति पवित्रतानो पिंड छे. तेने असंख्य प्रकारना रागमां व्यापेलो कहेवो ते व्यवहारनय छे.

वस्तु तो शुद्ध उपादानस्वरूप छे. तेमां अशुद्धतानी गंध नथी. माटे अशुद्धतानी दशामां फेलाईने रहे ते अशकय छे. छतां पर्यायमां जे रागादि असंख्य प्रकारे अशुद्धता छे तेमां अशुद्ध उपादान कारण छे. ते स्वतंत्र छे. द्रव्यनुं तो मात्र तेमां निमित्तपणुं छे एटले मात्र हाजरी, उपस्थिति छे. तेथी व्यवहारथी एटले अभूतार्थनयथी एम कहेवामां आवे छे के रागादिना असंख्य प्रकारोमां आत्मा व्याप्यो छे.

भाई! आ वात झीणी छे. पण प्रयत्न करे तो समजाय तेवी छे. त्रणलोकना नाथ सर्वज्ञ परमेश्वरनां आ वचनो छे ते संतोए प्रसिद्ध कर्यां छे. तेनुं वाच्य बहु ऊंडुं अने रहस्यमय छे. गंभीर कथन छे! शुं कहे छे? के पूर्णानंदनो नाथ नित्यानंद ध्रुव प्रभु विकारना, रागना विस्तारमां व्यापे ते अशकय छे. आ दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा इत्यादि शुभभावो, हिंसा, जूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, काम, क्रोधादि अशुभभावो तथा असंख्यात मिथ्यात्वना भावो-एम असंख्य प्रकारना जे विकारी भावो तेमां सत्यार्थ शुद्ध जीववस्तु व्यापती नथी केमके ते अनादि अनंत ध्रुव एकस्वरूप छे. सर्वज्ञ सिवाय आ वात बीजे कयांय मळे एम नथी. अहो! द्रव्यस्वभाव शुं अद्भुत परलौकिक चीज छे!!


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परमार्थे जीव एक ज छे. अध्यवसानादि भावो जीव नथी. अशुद्धताने करे एवी जीवमां कोई शक्ति के गुण नथी. पर्यायमां जे अशुद्धताना विकारी भावो थाय छे ते जीवमां छे एम व्यवहारथी कहेवाय छे, खरेखर ए मूळ वस्तुमां नथी. व्यवहार रत्नत्रयनो राग, देव-गुरु- शास्त्रनी मान्यतानो विकल्प, नवतत्त्वना भेदरूप श्रद्धाननो राग, शास्त्र भणवानी रुचिनो विकल्प, पांच महाव्रत पाळवानो विकल्प, छ कायना जीवोनी रक्षानो विकल्प-ए बधामां आत्मा व्यापतो नथी छतां ए बधामां आत्मा छे एम कहेवुं ए व्यवहारनय छे.

आत्मा तो तेने कहीए जे एक शुद्ध चिद्घन छे. जेम राजा एक छे तेम आत्मा एक ज छे. पांच योजनमां फेलाएलो राजा छे एम कहेवुं ए तो सेनामां राजा कहेवानो व्यवहार छे. तेम रागग्राममां आत्मा व्याप्यो छे एम कहेवुं ए तो पर्यायमां आत्मा कहेवानो व्यवहार छे. खरेखर पर्यायमां आत्मा व्यापतो नथी. आम कही शुं कहेवा मागे छे? के अनादिनी जे पर्याय प्रपंच उपर द्रष्टि छे, अशुद्ध उपादाननी द्रष्टि छे तेनुं लक्ष छोडी भगवान आत्मा जे एकरूप छे तेना उपर द्रष्टि कर. तेथी पर्यायमां निर्मळता थशे. अहाहा? शुं दिगंबर संतोनी वाणी!

जे पुण्य-पापरूप विकार छे ते भूतावळ छे. भगवान आत्मा भूतार्थ छे. भूतावळमां भगवान चैतन्यमूर्ति आवे एम कदीय बनतुं नथी. छतां ए पुण्य-पापना भावोनी भूतावळमां आत्मा छे एम कहेवुं ए व्यवहारनय छे.

[प्रवचन नं. ९४ * दिनांक १३-६-७६]

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यद्येवं तर्हि किंलक्षणोऽसावेकष्टङ्कोत्कीर्णः परमार्थजीव इति पृष्टः प्राह–

अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं।
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं।। ४९ ।।
अरसमरूपमगन्धमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम्।
जानीहि अलिङ्गग्रहणं जीवमनिर्दिष्टसंस्थानम्।। ४९ ।।

_________________________________________________________________

हवे शिष्य पूछे छे के ए अध्यवसानादि भावो छे ते जीव नथी तो ते एक, टंकोत्कीर्ण, परमार्थस्वरूप जीव केवो छे? तेनुं लक्षण शुं छे? ए प्रश्ननो उत्तर कहे छेः-

जीव चेतनागुण, शब्द–रस–रूप–गंध–व्यक्तिविहीन छे,
निर्दिष्ट नहि संस्थान जीवनुं, ग्रहण लिंग थकी नहीं. ४९.

गाथार्थः– हे भव्य! तुं [जीवम्] जीवने [अरसम्] रसरहित, [अरूपम्] रूपरहित, [अगन्धम्] गंधरहित, [अव्यक्तं] अव्यक्त अर्थात् इंद्रियोने गोचर नथी एवो, [चेतनागुणम्] चेतना जेनो गुण छे एवो, [अशब्दम्] शब्दरहित, [अलिङ्गग्रहणं] कोई चिह्नथी जेनुं ग्रहण नथी एवो अने [अनिर्दिष्टसंस्थानम्] जेनो कोई आकार कहेवातो नथी एवो [जानीहि] जाण.

टीकाः– जे जीव छे ते खरेखर पुद्गलद्रव्यथी अन्य होवाथी तेमां रसगुण विधमान नथी माटे अरस छे. १. पुद्गलद्रव्यना गुणोथी पण भिन्न होवाथी पोते पण रसगुण नथी माटे अरस छे. २. परमार्थे पुद्गलद्रव्यनुं स्वामीपणुं पण तेने नहि होवाथी ते द्रव्येन्द्रियना आलंबन वडे पण रस चाखतो नथी माटे अरस छे. ३. पोताना स्वभावनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो क्षायोपशमिक भावनो पण तेने अभाव होवाथी ते भावेन्द्रियना आलंबन वडे पण रस चाखतो नथी माटे अरस छे. ४. सकल विषयोना विशेषोमां साधारण एवा एक ज संवेदनपरिणामरूप तेनो स्वभाव होवाथी ते केवळ एक रसवेदनापरिणामने पामीने रस चाखतो नथी माटे अरस छे. प. (तेने समस्त ज्ञेयोनुं ज्ञान थाय छे परंतु) सकल ज्ञेयज्ञायकना ताद्रात्म्यनो (-एकरूप थवानो) निषेध होवाथी रसना ज्ञानरूपे परिणमतां छतां पण पोते रसरूपे परिणमतो नथी माटे अरस छे. ६. आम छ प्रकारे रसना निषेधथी ते अरस छे.


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ए रीते, जीव खरेखर पुद्गलद्रव्यथी अन्य होवाथी तेमां रूपगुण विद्यमान नथी माटे अरूप छे. १. पुद्गलद्रव्यना गुणोथी पण भिन्न होवाथी पोते पण रूपगुण नथी माटे अरूप छे. २. परमार्थे पुद्गलद्रव्यनुं स्वामीपणुं पण तेने नहि होवाथी ते द्रव्येन्द्रियना आलंबन वडे पण रूप देखतो नथी माटे अरूप छे. ३. पोताना स्वभावनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो क्षायोपशमिक भावनो पण तेने अभाव होवाथी ते भावेन्द्रियना आलंबन वडे पण रूप देखतो नथी माटे अरूप छे. ४. सकल विषयोना विशेषोमां साधारण एवा एक ज संवेदनपरिणामरूप तेनो स्वभाव होवाथी ते केवळ एक रूपवेदना परिणामने पामीने रूप देखतो नथी माटे अरूप छे. प. (तेने समस्त ज्ञेयोनुं ज्ञान थाय छे परंतु) सकल ज्ञेयज्ञायकना तादात्म्यनो निषेध होवाथी रूपना ज्ञानरूपे परिणमतां छतां पण पोते रूपरूपे परिणमतो नथी माटे अरूप छे. ६. आम छ प्रकारे रूपना निषेधथी ते अरूप छे.

ए रीते, जीव खरेखर पुद्गलद्रव्यथी अन्य होवाथी तेमां गंधगुण विद्यमान नथी माटे अगंध छे. १. पुद्गलद्रव्यना गुणोथी पण भिन्न होवाथी पोते पण गंधगुण नथी माटे अगंध छे. २. परमार्थे पुद्गलद्रव्यनुं स्वामीपणुं पण तेने नहि होवाथी ते द्रव्येन्द्रियना आलंबन वडे पण गंध सूंघतो नथी माटे अगंध छे. ३. पोताना स्वभावनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो क्षायोपशमिक भावनो पण तेने अभाव होवाथी ते भावेन्द्रियना आलंबन वडे पण गंध सूंघतो नथी माटे अगंध छे. ४. सकल विषयोना विशेषोमां साधारण एवा एक ज संवेदनपरिणामरूप तेनो स्वभाव होवाथी ते केवळ एक गंध-वेदनापरिणामने पामीने गंध सूंघतो नथी माटे अगंध छे. प. (तेने समस्त ज्ञेयोनुं ज्ञान थाय छे. परंतु) सकल ज्ञेयज्ञायकना तादात्म्यनो निषेध होवाथी गंधना ज्ञानरूपे परिणमतां छतां पण पोते गंधरूपे परिणमतो नथी माटे अगंध छे. ६. आम छ प्रकारे गंधना निषेधथी ते अगंध छे.

ए रीते, जीव खरेखर पुद्गलद्रव्यथी अन्य होवाथी तेमां स्पर्शगुण विद्यमान नथी माटे अस्पर्श छे. १. पुद्गलद्रव्यनां गुणोथी पण भिन्न होवाथी पोते पण स्पर्शगुण नथी माटे अस्पर्श छे. २. परमार्थे पुद्गलद्रव्यनुं स्वामीपणुं पण तेने नहि होवाथी ते द्रव्येन्द्रियना आलंबन वडे पण स्पर्शने स्पर्शतो नथी माटे अस्पर्श छे. ३. पोताना स्वभावनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो क्षायोपशमिक भावनो पण तेने अभाव होवाथी ते भावेन्द्रियना आलंबन वडे पण स्पर्शने स्पर्शतो नथी माटे अस्पर्श छे. ४. सकल विषयोना विशेषोमां साधारण एवा एक ज संवेदनपरिणामरूप तेनो स्वभाव होवाथी ते केवळ एक स्पर्शवेदनापरिणामने पामीने स्पर्शने स्पर्शतो नथी माटे अस्पर्श छे. प. (तेने समस्त ज्ञेयोनुं ज्ञान थाय छे परंतु) सकल ज्ञेयज्ञायकना तादात्म्यनो निषेध होवाथी


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स्पर्शना ज्ञानरूपे परिणमतां छतां पण पोते स्पर्शरूपे परिणमतो नथी माटे अस्पर्श छे. ६. आम छ प्रकारे स्पर्शना निषेधथी ते अस्पर्श छे.

ए रीते, जीव खरेखर पुद्गलद्रव्यथी अन्य होवाथी तेमां शब्दपर्याय विद्यमान नथी माटे अशब्द छे. १. पुद्गलद्रव्यना पर्यायोथी पण भिन्न होवाथी पोते पण शब्दपर्याय नथी माटे अशब्द छे. २. परमार्थे पुद्गलद्रव्यनुं स्वामीपणुं पण तेने नहि होवाथी ते द्रव्येन्द्रियना आलंबन वडे पण शब्द सांभळतो नथी माटे अशब्द छे. ३. पोताना स्वभावनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो क्षायोपशमिक भावनो पण तेने अभाव होवाथी ते भावेन्द्रियना आलंबन वडे पण शब्द सांभळतो नथी माटे अशब्द छे. ४. सकल विषयोना विशेषोमां साधारण एवा एक ज संवेदनपरिणामरूप तेनो स्वभाव होवाथी ते केवळ एक शब्दवेदनापरिणामने पामीने शब्द सांभळतो नथी माटे अशब्द छे. प. (तेने समस्त ज्ञेयोनुं ज्ञान थाय छे परंतु) सकल ज्ञेयज्ञायकना तादात्म्यनो निषेध होवाथी शब्दना ज्ञानरूपे परिणमतां छतां पण पोते शब्दरूपे परिणमतो नथी माटे अशब्द छे. ६. आम छ प्रकारे शब्दना निषेधथी ते अशब्द छे.

(हवे ‘अनिर्दिष्टसंस्थान’ विशेषण समजावे छेः-) पुद्गलद्रव्य वडे रचायेलुं जे शरीर तेना संस्थान (आकार)थी जीवने संस्थानवाळो कही शकातो नथी माटे जीव अनिर्दिष्टसंस्थान छे. १. पोताना नियत स्वभावथी अनियत संस्थानवाळा अनंत शरीरोमां रहे छे माटे अनिर्दिष्टसंस्थान छे. २. संस्थान नामकर्मनो विपाक (फळ) पुद्गलोमां ज कहेवामां आवे छे (तेथी तेना निमित्तथी पण आकार नथी) माटे अनिर्दिष्टसंस्थान छे. ३. जुदां जुदां संस्थानरूपे परिणमेली समस्त वस्तुओनां स्वरूप साथे जेनी स्वाभाविक संवेदनशक्ति संबंधित (अर्थात् तद्राकार) छे एवो होवा छतां पण जेने समस्त लोकना मिलापथी (-संबंधथी) रहित निर्मळ (ज्ञानमात्र) अनुभूति थई रही छे एवो होवाथी पोते अत्यंतपणे संस्थान विनानो छे माटे अनिर्दिष्टसंस्थान छे. ४. आम चार हेतुथी संस्थाननो निषेध कह्यो.

(हवे ‘अव्यक्त’ विशेषणने सिद्ध करे छेः-) छ द्रव्यस्वरूप लोक जे ज्ञेय छे अने व्यक्त छे तेनाथी जीव अन्य छे माटे अव्यक्त छे. १. कषायोनो समूह जे भावकभाव व्यक्त छे तेनाथी जीव अन्य छे माटे अव्यक्त छे. २. चित्सामान्यमां चैतन्यनी सर्व व्यक्तिओ निमग्न (अंतर्भूत) छे माटे अव्यक्त छे. ३. क्षणिक व्यक्तिमात्र नथी माटे अव्यक्त छे. ४. व्यक्तपणुं तथा अव्यक्तपणुं भेळां मिश्रितरूपे तेने प्रतिभासवा छतां पण ते व्यक्तपणाने स्पर्शतो नथी माटे अव्यक्त छे. प. पोते पोताथी ज बाह्य-अभ्यंतर स्पष्ट अनुभवाई रह्यो होवा छतां पण व्यक्तपणा प्रति उदासीनपणे प्रद्योतमान (प्रकाशमान) छे माटे अव्यक्त छे. ६. आम छ हेतुथी अव्यक्तपणुं सिद्ध कर्युं.


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(मालिनी)
सकलमपि विहायाह्नाय चिच्छक्तिरिक्तं
स्फुटतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्तिमात्रम्।
इममुपरि चरन्तं चारु विश्वस्य साक्षात्
कलयतु परमात्मात्मानमात्मन्यनन्तम्।। ३५ ।।

_________________________________________________________________

आ प्रमाणे रस, रूप, गंध, स्पर्श, शब्द, संस्थान अने व्यक्तपणानो अभाव होवा छतां पण स्वसंवेदनना बळथी पोते सदा प्रत्यक्ष होवाथी अनुमानगोचरमात्रपणाना अभावने लीधे (जीवने) अलिंगग्रहण कहेवामां आवे छे.

पोताना अनुभवमां आवता चेतनागुण वडे सदाय अंतरंगमां प्रकाशमान छे तेथी (जीव) चेतनागुणवाळो छे. केवो छे चेतनागुण? जे समस्त विप्रतिपत्तिओनो (जीवने अन्य प्रकारे मानवारूप झघडाओनो) नाश करनार छे, जेणे पोतानुं सर्वस्व भेदज्ञानी जीवोने सोंपी दीधुं छे. जे समस्त लोकालोकने ग्रासीभूत करी जाणे के अत्यंत तृप्ति वडे ठरी गयो होय तेम (अर्थात् अत्यंत स्वरूप-सौख्य वडे तृप्त तृप्त होवाने लीधे स्वरूपमांथी बहार नीकळवानो अनुद्यमी होय तेम) सर्व काळे किंचित्मात्र पण चलायमान थतो नथी अने ए रीते सदाय जरा पण नहि चळतुं अन्यद्रव्यथी असाधारणपणुं होवाथी जे (असाधारण) स्वभावभूत छे.

-आवो चैतन्यरूप परमार्थस्वरूप जीव छे. जेनो प्रकाश निर्मळ छे एवो आ भगवान आ लोकमां एक, टंकोत्कीर्ण, भिन्न ज्योतिरूप विराजमान छे.

हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कही एवा आत्माना अनुभवनी प्रेरणा करे छेः-

श्लोकार्थः– [चित्–शक्ति–रिक्तं] चित्शक्तिथी रहित [सकलम् अपि] अन्य सकळ भावोने [अह्नाय] मूळथी [विहाय] छोडीने [च] अने [स्फुटतरम्] प्रगटपणे [स्वं चित्– शक्तिमात्रम्] पोताना चित्शक्तिमात्र भावनुं [अवगाह्य] अवगाहन करीने, [आत्मा] भव्य आत्मा [विश्वस्य उपरि] समस्त पदार्थ समूहरूप लोकना उपर [चारु चरन्तं] सुंदर रीते प्रवर्तता एवा [इमम्] [परम्] एक केवळ [अनन्तम्] अविनाशी [आत्मानम्] आत्मानो [आत्मनि] आत्मामां ज [साक्षात् कलयतु] अभ्यास करो, साक्षात् अनुभव करो.

भावार्थः– आ आत्मा परमार्थे समस्त अन्यभावोथी रहित चैतन्यशक्तिमात्र छे; तेना अनुभवनो अभ्यास करो एम उपदेश छे. ३प.

हवे चित्शक्तिथी अन्य जे भावो छे ते बधा पुद्गलद्रव्यसंबंधी छे एवी आगळनी गाथानी सूचनिकारूपे श्लोक कहे छेः-


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(अनुष्टुभ्)
चिच्छक्तिव्याप्तसर्वस्वसारो जीव इयानयम्।
अतोऽतिरिक्ताः सर्वेऽपि भावाः पौद्गलिका अमी।। ३६ ।।

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श्लोकार्थः– [चित्–शक्ति–व्याप्त–सर्वस्व–सारः] चैतन्यशक्तिथी व्याप्त जेनो सर्वस्व-सार छे एवो [अयम् जीवः] आ जीव [इयान्] एटलो ज मात्र छे; [अतः अतिरिक्ताः] आ चित्शक्तिथी शून्य [अमी भावाः] जे आ भावो छे [सर्वे अपि] ते बधाय [पौद्गलिकाः] पुद्गलजन्य छे-पुद्गलना ज छे. ३६.

* समयसार गाथा ४९ः मथाळुं *

प्रभु! आप ज्यारे एम कहो छो के पुण्य-पापना भाव ए आत्मा नथी तो आत्मा छे केवो? पाछली गाथामां एम कह्युं के अनेक प्रकारना रागमां जीव व्यापतो नथी, जीव तो एकस्वरूप ज छे. तो ते जीवनुं स्वरूप शुं छे? पुण्य-पापना भाव, सुख-दुःखनी कल्पनाना भाव, कर्म ने आत्मा बन्ने एक होवानो भाव इत्यादि अध्यवसानादि भावो जीव नथी. तो एक, टंकोत्कीर्ण, परमार्थस्वरूप जीव केवो छे? आवो शिष्यनो प्रश्न छे तेना उत्तररूपे गाथा कहे छे.

आ गाथा श्री समयसार, श्री प्रवचनसार, श्री नियमसार, श्री पंचास्तिकाय, श्री अष्टपाहुड तथा श्री धवल एम अनेक शास्त्रोमां छे. गाथामां ‘जाण’ शब्द पडयो छे. ए शब्द द्वारा श्री कुंदकुंदाचार्यदेव शिष्यने एम कहे छे के हे भाई! तुं आत्माने आवो जाण.

* गाथा ४९ टीका उपरनुं प्रवचन *

जे जीव छे ते खरेखर पुद्गलद्रव्यथी अन्य होवाथी तेमां रसगुण विद्यमान नथी माटे अरस छे. खरेखर अर्थात् यथार्थपणे आत्मा पुद्गलद्रव्यथी अन्य एटले जुदो छे. परमार्थे आत्माने पुद्गल द्रव्य साथे कांई संबंध नथी. शरीर अने कर्म साथे आत्माने जे निमित्त- नैमित्तिक संबंध छे ते व्यवहार छे. ते ज्ञान करवा माटे छे पण आश्रय करवा माटे नथी. आश्रय करवा माटे तो एक त्रिकाळी (ध्रुव) आत्मा ज छे.

अहीं कहे छे के जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्यथी अन्य होवाथी तेमां रसगुण विद्यमान नथी. अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मामां अतीन्द्रिय (आनंदनो, चैतन्यनो) रस छे पण पुद्गलनो जड रस आत्मामां नथी माटे आत्मा अरस छे.

विश्वमां छ द्रव्यो छे. तेमां जीवद्रव्य पांच द्रव्योथी भिन्न छे. पण अहीं जीवद्रव्य पुद्गलथी भिन्न बताववुं छे केमके मुख्यपणे जीव पुद्गलमां ज एकत्व करीने