Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 45.

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रूप निर्विकल्प वीतराग परिणति ते आत्मानो सद्व्यवहार छे. जे विकल्प छे ए तो असद्भूत छे. ए आत्मानो व्यवहार कयां छे? रागादि विकल्प तो मनुष्यनो, चारगतिमां रखडवानो, व्यवहार छे. आत्मा परिपूर्ण आनंदस्वरूप चैतन्यघनस्वभावी भगवान छे. तेना आश्रये जे निर्मळ सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी वीतरागी पर्याय प्रगटे ते आत्मानो व्यवहार छे. आवो मार्ग जेने अंतरमां बेसे तेनी दशा कोई अलौकिक होय छे.

अहीं कहे छे के शुभभावथी आत्माने लाभ थाय, धर्म थाय एम शुभभावने जीव कहेनारा परमार्थवादी नथी, कारण के आगम, युक्ति अने स्वानुभवथी तेमनो पक्ष बाधित छे.

तेमां ‘तेओ जीव नथी’ एवुं आ सर्वज्ञनुं वचन छे ते तो आगम छे. जे आगममां परनी दयाथी धर्म मनावे अने परनी दयाने सिद्धांतनो सार कहे ए जैन आगम ज नथी. अहीं तो पूजा, भक्ति, व्रत, तप, दान दयाना जे विकल्प ते जीव नथी एवुं जे अर्हत्-प्रवचन छे-ते आगम छे एम कह्युं छे. पर जीवनी दया हुं पाळी शकुं एवी मान्यता छे ते मिथ्यादर्शन छे. अने परनी हुं रक्षा करुं एवो जे विकल्प छे ते शुभभाव छे, राग छे. ए मिथ्या मान्यता अने राग छे ते जीव नथी एवुं जे सर्वज्ञनुं वचन छे ते आगम छे.

कोई एम माने के-बीजा जीवनी रक्षा करवा माटे के बीजा जीवने न हणवा माटे भगवाननी दिव्यध्वनि छूटी छे तो ते बराबर नथी. भगवाने तो आत्मानी पूर्ण आनंदनी अने वीतरागी शान्तिनी दशा प्रगट करवा माटे वाणीमां कह्युं छे. भगवाननी दिव्यध्वनिमां तो एम आव्युं छे के पर जीवने तुं हणी शक्तो ज नथी के पर जीवनी तुं रक्षा पण करी शक्तो ज नथी. तथा पर जीवनी रक्षा करवाना जे भाव थाय छे ए राग छे. अने राग छे ते खरेखर तो पोताना आत्मानी हिंसा करनार परिणाम छे. पर जीवनी दया पाळवानो भाव राग छे, तेथी ते स्वरूपनी हिंसा करनारो छे. पुरुषार्थ सिद्धयुपायमां अमृतचंद्राचार्ये रागादिना प्रादुर्भावने हिंसा कही छे, अने रागादिना अप्रादुर्भावने अहिंसा कही छे. आवो धोधमार्ग छे अने ए धोधमार्गने कहेनारुं वीतराग सर्वज्ञदेवनुं वचन छे ते आगम छे. ते आगममां रागने जडस्वभाव अजीव कह्यो छे, ते जीवने लाभ केम करे? जीवने जीवनो स्वभाव लाभ करे, पण रागादि कदीय लाभ न करे.

हवे आ नीचे प्रमाणे स्वानुभवगर्भित युक्ति छेः-

स्वयमेव उत्पन्न थयेला एवा रागद्वेष वडे मलिन अध्यवसान छे ते जीव नथी, कारण के, कालिमा (काळप)थी जुदा सुवर्णनी जेम, एवा अध्यवसानथी जुदो अन्य चित्स्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ प्रत्यक्ष चैतन्यभावने जुदो अनुभवे छे.


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अज्ञानी एम कहे छे के काळपथी जुदो कोई कोलसो नथी तेम अध्यवसानथी जुदो आत्मा नथी. तेने युक्तिथी उत्तर आपे छे के काळपथी भिन्न जेम सुवर्ण छे तेम अध्यवसानथी भिन्न अन्य चित्स्वभावमय आत्मा छे. सोनामां जे काळप देखाय छे एनाथी सोनुं भिन्न छे. जे काळप छे ते सोनुं नथी पण मेल छे. तेम पर्यायमां जे पुण्य-पापना भाव छे ते आत्मा नथी. ए तो मेल छे. आ प्रमाणे काळपथी भिन्न सुवर्णनी जेम अध्यवसानथी भिन्न चित्स्वभावमय जीव छे एम युक्ति कही.

हवे अनुभवनी वात कहे छे के-भेदज्ञान करनाराओने रागथी-अध्यवसानथी जुदो जीव स्वयं उपलभ्यमान छे. अहाहा! अखंड एक ज्ञानानंदस्वभावी आत्माने भेदज्ञानीओ अध्यवसानथी भिन्न प्रत्यक्ष जुदो अनुभवे छे. अध्यवसानथी जुदो एटले एना आश्रय अने अवलंबन विना पोते पोताथी ज प्राप्त थाय छे, अनुभवमां आवे छे. अहो! शुं अद्भुत टीका छे! आने सिद्धांत अने आगम कहेवाय. एकलुं न्यायथी भरेलुं छे! कहे छे के रागनुं लक्ष छोडीने स्वभाव प्रति द्रष्टि करतां भेदज्ञानी समकितीओने रागथी भिन्न चित्स्वभावमय जीव अनुभवमां आवे छे.

जुओ अहीं आगम, युक्ति अने अनुभवथी एम सिद्ध कर्युं के आ अध्यवसानादि भावो जीव नथी परंतु एमनाथी भिन्न शुद्ध चैतन्यमय वस्तु जीव छे. आवी वात बीजे कय ांय छे नहि. वस्तुने सिद्ध करवा केटकेटलो न्याय आप्यो छे! इन्द्रियो अने रागना आश्रय विना भेदज्ञानीओने स्वयं शुद्ध जीववस्तु अनुभवमां आवे छे. पोते पोताथी ज अनुभवमां आवे छे. व्यवहार साधन अने निश्चय साध्य एम ज्यां कहेलुं छे त्यां ए निमित्त बताववा व्यवहारनयथी कथन करेलुं छे. भाई! वस्तु तो रागादिथी भिन्न त्रिकाळ शुद्ध चैतन्यस्वभावमय छे अने ते तेनी सन्मुख थतां अनुभवमां आवे छे.

स्वसन्मुखतानो अभ्यास न होवाथी आ वात कठण लागे छे. अनादिथी पर तरफ वलण जई रह्युं छे एने अंतर्मुख वाळवुं ए ज पुरुषार्थ छे. जे पर्याय रागादि उपर ढळेली छे एने तो कांई अंदर वाळी शकाय नहि. पण ज्यां द्रष्टि द्रव्य उपर जाय छे त्यां ते ज क्षणे पर्याय स्वयं अंतरमां ढळेली होय छे. त्यारे तेने अंतरमां वाळी एम कहेवाय छे.

अहीं टीकामां ‘स्वयमेव उत्पन्न थयेला एवा रागद्वेष’ एम कह्युं छे त्यां एम अभिप्राय छे के तेओ (रागद्वेष) आत्माथी उत्पन्न थया नथी. तथा ‘भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान’ छे एम कहीने एम बताववुं छे के आत्मानो अनुभव करवामां अन्य (राग, इन्द्रियो आदि) कोईनी अपेक्षा नथी. आत्मा पोते पोताथी ज अनुभवमां आवे छे.

भाई! आवा यथार्थ स्वरूपनो प्रथम निर्णय तो कर. अहाहा! वस्तु आवी सहज शुद्ध चित्स्वभावमय छे एवो विकल्प सहितना ज्ञानमां निर्णय तो कर. श्री समयसार


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गाथा १४४मां आ निर्णयनी वात लीधी छे. भगवाने कहेला आगमथी प्रथम निर्णय करे के आत्मा ज्ञानस्वरूप ज छे. त्यार पछी मतिज्ञान अने श्रुतज्ञानने मर्यादामां लावी आत्मसन्मुख करे छे. ज्ञान जे पर तरफ ढळेलुं छे तेने स्व तरफ वाळे छे. त्यारे शुं थाय छे? अत्यंत विकल्परहित थईने तत्काळ निजरसथी ज प्रगट थता, आदि-मध्य-अंत रहित, अनाकुळ, केवळ एक, आखाय विश्वना उपर जाणे के तरतो होय तेम अखंड प्रतिभासमय, अनंत विज्ञानघन, परमात्मारूप समयसारने आत्मा अनुभवे छे.

रागथी भिन्न आत्माने अनुभवे नहि अने राग वडे लाभ (धर्म) माने ते बहारथी कंचन-कामिनीनो त्यागी निर्वस्त्र दिगंबर अवस्थाधारी होय तोपण तेने साधु केम कहीए? रागथी लाभ मानवो ए तो मिथ्यादर्शन छे. आ कोई व्यक्ति-विशेषना अनादरनी वात नथी पण वस्तुनी स्थितिनी वात छे. अमने घणां शास्त्रोनो अभ्यास छे, अमे घणी शास्त्रसभाओ संबोधी छे तेथी अमने आत्मज्ञान छे एम कोई कहे तो ते यथार्थ नथी. ए तो बधी रागनी- विकल्पनी वातो छे. वस्तु आत्मा तो शास्त्रज्ञानना विकल्पथी पार निर्विकल्प छे. आवा निर्विकल्प शुद्ध चैतन्यमय आत्मानी द्रष्टि करी तेनो अनुभव करवो ते आत्मदर्शन अने आत्मज्ञान छे.

आ प्रमाणे अध्यवसानने एटले रागादि विभागने जीव माननारने आगम, युक्ति अने अनुभवथी जूठो ठराव्यो. आ एक बोल थयो. हवे बीजो बोल कहे छेः-

अनादि जेनो पूर्व अवयव छे अने अनंत जेनो भविष्यनो अवयव छे एवी जे एक संसरणरूप क्रिया ते-रूपे क्रीडा करतुं जे कर्म छे ते पण जीव नथी कारण के कर्मथी जुदो अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे.

केवळी भगवाने कर्मने जीव कह्यो नथी ए आगम थयुं. तथा काळपथी-मेलपथी जेम सोनुं जुदुं छे तेम कर्मथी आत्मा जुदो छे ए युक्ति थई. अने भेदज्ञानीओ कर्मथी जुदो जे चैतन्यस्वभावी जीव छे तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे ए अनुभव थयो. टीकामां एम लीधुं छे के- संसरणरूप क्रिया एटले रागनी क्रियामां कर्म क्रीडा करे छे, रागमां आत्मा क्रीडा करतो नथी.

प्रत्यक्ष चैतन्यभावने जुदो अनुभवे तेने सम्यग्दर्शनादि धर्म कहीए. ए सम्यग्दर्शन विना बहारथी व्रतादि धारण करी एम मानवा लागे के अमे संयमी छीए एने पोतानी खोटी मान्यतानुं भारे नुकशान थाय छे. एनी (नुकशाननी) एने खबर न होय ए तेनुं अज्ञान छे. पण ए अज्ञान कांई बचावनुं साधन होई न शके. जेम झेरना पीवाथी मरी जवाय तेम शुभकर्मना सेवनथी पण आत्मानो घात ज थाय. एनी


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खबर न होय तेथी कांई ते आत्म-घातना नुकशानथी बची न जाय. एने एनुं नुकशान भोगववुं ज पडे.

जुओ, दरेक ठेकाणे एम लख्युं छे के-जीव तो चैतन्यस्वभावी ज छे. आहाहा! चैतन्यस्वभावभाव, अखंड, एकरूप ध्रुवस्वभाव, एवो ने एवो रहेनारो जे त्रिकाळी ज्ञायकभाव छे ते जीव छे. एवो जीव जे रागथी-कर्मथी भिन्न छे तेने सम्यक्द्रष्टिओ प्रत्यक्ष अनुभवे छे. आवो अनुभव ज्ञान अने आनंदना वेदन सहित होय छे. प्रत्यक्ष अनुभवे छे एम कीधुं छे ने? एटले राग अने मनना संबंधथी जाणे अने अनुभवे छे एम नथी. प्रत्यक्ष अनुभवमां परनो आश्रय छे ज नहि. परना आश्रय रहित एवा मतिश्रुतज्ञानथी आत्मा प्रत्यक्ष अनुभवमां-वेदनमां आवे छे. आ बीजो बोल थयो.

त्रीजो बोलः-तीव्र-मंद अनुभवथी भेदरूप थतां, दुरंत रागरसथी भरेलां अध्यवसानोनी संतति पण जीव नथी कारण के ते संततिथी अन्य जुदो चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे. जुओ, भगवाने आम कह्युं छे, युक्तिथी पण एम ज सिद्ध छे अने तीव्र-मंद रागनी परंपरा-संततिथी जुदो अन्य चैतन्यस्वभावमय जीव भेदज्ञानीओ प्रत्यक्ष अनुभवे छे.

अज्ञानीने अनादिथी तीव्र-मंद रागनी संततिनो ज अनुभव छे. तेमां जे मंद राग छे तेथी पोताने कंईक लाभ छे एम ते माने छे. पण भाई! एनाथी जराय लाभ नथी. मंद राग तो अभवीने पण थाय छे. मिथ्यात्वनी मंदता अने अनंतानुबंधी कषायनी मंदता तो अभवी जीवने पण होय छे. पण मंद राग ए कांई वस्तु (आत्मा) नथी. राग मंद हो के तीव्र, जात तो कषायनी ज छे. ए जीव नथी. जीव तो तीव्र-मंद रागनी संततिथी भिन्न नित्य एकरूप चैतन्यस्वभावमय छे. अने भेदज्ञानीओ एटले राग अने आत्मानी भिन्नताने यथार्थपणे जाणनारा धर्मात्मा जीवो आत्माने एवो ज अनुभवे छे. आ त्रीजो बोल थयो.

आठमांथी त्रण बोल चाल्या छे. हवे चोथो बोलः-नवी-पुराणी अवस्थादिकना भेदथी प्रवर्ततुं जे नोकर्म ते पण जीव नथी कारण के शरीरथी अन्य जुदो चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ पोते तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे.

नवी-पुराणी अवस्था, रोग-नीरोगनी अवस्था, बाळ-युवान-वृद्धनी अवस्था, पुष्ट- जीर्णरूप अवस्था इत्यादि अवस्थाना भेदथी नोकर्म एटले शरीर प्रवर्ते छे. अहा! भाषा तो जुओ! बाळ-युवान-वृद्धपणे के पुष्ट-जीर्णपणे के रोग-अरोगपणे आ शरीर जे पुद्गलोनो स्कंध-पिंड छे ते परिणमे छे, जीव नहि. शरीरनी अवस्थानो स्वतंत्र जन्मक्षण छे, जे-ते अवस्थारूपे शरीर स्वयं परिणमे छे. आ अनेक अवस्थाना भेदथी


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प्रवर्ततुं जे शरीर ते जीव नथी. कारण के शरीरथी अन्य जुदो चिदानंदस्वभावी जीव भेदज्ञानीओ वडे प्रत्यक्ष अनुभवाय छे. शरीरने प्रवर्ताववुं ए जीवनो स्वभाव नथी.

प्रश्नः– ईर्या समितिमां जोईने चालवुं एम कह्युं छे ने?

उत्तरः– ईर्या समितिमां जीव शरीरने चालवारूप प्रवर्तावे छे एम नथी. पण ए तो जे-ते भूमिकामां शरीर जेम चाले छे तेनुं कथन कर्युं छे. अहो! शरीरथी जेमने भेदद्रष्टि थई छे एवा समकिती जीवो शरीरथी भिन्न एवा चैतन्यस्वभावमय शुद्ध आत्माने प्रत्यक्ष अनुभवे छे.

भाई! निवृत्ति लईने आनो अभ्यास करवो जोईए. श्रीमदे कह्युं छे के देहनी चिंता करतां अनंतगणी चिंता आत्मानी राखजे केमके आ एक भवमां ज अनंत भव टाळवा छे. आ भव अनंत भवने टाळवा माटे छे. अनंत भवने एक भवमां टाळवा ए कोई अलौकिक असाधारण काम छे, प्रभु! जो ए काम न कर्युं तो माथे अनंत भवो पडया छे. वंटोळियानुं तणखलुं कयां जईने पडे एनो कांई मेळ नथी. तेम मिथ्याद्रष्टि जीव देह छोडीने कयां जशे एनो कांई मेळ नथी. अरे! कयांय नरक, निगोद, तिर्यंचमां चाल्यो जशे! तथा जेनी त्रसनी स्थिति पूरी थवा आवी होय एणे जो आ कार्य (सम्यग्दर्शनादि) न कर्युं तो ते पण निगोदमां चाल्यो जशे. त्रस अवस्थानी उत्कृष्ट स्थिति बे हजार सागरथी कांईक अधिक छे. शुं कह्युं? आ इयळ, कीडी, भमरो, ढोर, नारकी, मनुष्य, देव वगेरेमां रहेवानी उत्कृष्ट स्थिति बे हजार सागर जेटली छे. ए स्थिति पूरी थये नियमथी मिथ्याद्रष्टि जीव निगोदमां-एकेन्द्रियमां जाय छे. कदाचित् पंचेन्द्रियमां रहे तो एक हजार सागर रहे अने समग्रपणे त्रसमां रहेवानो वधुमां वधु बे हजार सागर जेटलो काळ छे. आ काळमां जो सम्यग्दर्शनादि प्रगट करे तो अनंत सुखमय सिद्धपद पामे अने जो न करे तो महादुःखमय निगोद अवस्थाने प्राप्त थाय. त्यां अनंतकाळ दुःख भोगवे.

भगवान आत्मा सच्चिदानंद प्रभु एक चिन्मात्रस्वभावमय छे. ते भेदज्ञानीओ वडे देहथी भिन्नपणे स्वयं उपलभ्यमान छे. ‘स्वयं उपलभ्यमान छे.’ एनो शुं अर्थ छे? के समकितीओने पोतानी ज्ञाननी दशाथी आत्मा प्रत्यक्ष अनुभवमां आवे छे एवो तेनो अर्थ छे, मति-श्रुतज्ञानथी आत्मा प्रत्यक्ष अनुभवमां आवे छे. तेथी देह ते जीव नथी, देहथी भिन्न आत्मा चैतन्यस्वभावमय जुदी वस्तु छे. अनेक अवस्थाओना भेदरूप प्रवर्ततुं जे शरीर एमां आत्मानो अधिकार छे एम नथी. (शरीर अने आत्मा बन्ने भिन्नभिन्न छे).

श्री समयसार गाथा ९६ नी टीकामां आवे छे के आ शरीर छे ते मृतक कलेवर एटले मडदुं छे. तेमां अमृतनो सागर एवो भगवान आत्मा मूर्छाई गयो छे. शुद्ध


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चैतन्यस्वभावमय अमृतनो सागर हुं छुं एम अनुभववाने बदले आ मृतक शरीर हुं छुं, आ शरीर मारुं छे एम तुं कयां मूर्छाई गयो, प्रभु! अरे! अमृतनो सागर मृतक शरीरमां मूर्छायो ए मोटुं कलंक छे.

पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काळ अने अन्य जीव एम छ द्रव्यो छे ते मननो विषय छे. त्रणलोकना नाथ सर्वज्ञ परमात्मा पण मननो विषय छे. तेथी बीजी रीते कहीए तो सर्वज्ञ परमात्मा पण इन्द्रिय छे. अंदर खंडखंड ज्ञान जे थई रह्युं छे ते पण भावेन्द्रिय छे. भावेन्द्रिय खंडखंड ज्ञानने जणावे छे, ज्यारे आत्मा चैतन्यस्वरूप अखंड छे. तेथी खंडखंड ज्ञानने जणावती भावेन्द्रिय अखंड आत्माथी भिन्न पर वस्तु छे, ज्ञेय छे. एक रीते तो ते भावेन्द्रियने पुद्गलना परिणाम कह्या छे केमके क्षयोपशमभाव ए आत्मानो स्वभाव नथी. श्री समयसार गाथा ४९ नी टीकामां कह्युं छे के क्षयोपशमभाव ए जीवनो स्वभाव नथी. स्वभावद्रष्टिथी जोतां क्षयोपशमभावनो तेमां अभाव छे. अहो! वस्तुनुं स्वरूप अति सूक्ष्म अने गंभीर छे. लोकोने बहारनी (क्रियाकांडनी) प्रवृत्ति आडे अंतर (अंदरमां) वस्तु शुं छे ते शोधवानी दरकार नथी.

श्री समयसार गाथा प० थी पप मां आवशे के शब्दो, वाणी, शरीर, इन्द्रिय, मन ए बधां जे नोकर्म छे एनाथी अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा भिन्न छे. शरीरथी जुदो छुं एम धारणामां लीधुं होय, पण एवो भिन्न चैतन्यस्वभावमय आत्मानो प्रत्यक्ष अनुभव करवो जोईए. भेदज्ञानीओ देहथी भिन्न शुद्ध चिदानंदमय आत्माने प्रत्यक्ष अनुभवे छे.

पांचमो बोलः समस्त जगतने पुण्य-पापरूपे व्यापतो कर्मनो विपाक छे ते पण जीव नथी कारण के शुभाशुभ भावथी अन्य जुदो चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ पोते तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे.

जगतना सघळा संसारीओने पुण्य-पापरूपे कर्मनो विपाक व्यापेलो छे. तेओ पुण्य- पापने जीव कहे छे. अहीं कहे छे के पुण्य-पाप छे ए कर्मनो विपाक छे, ए आत्मा नथी. श्री समयसार कळशटीका कळश १८९ मां लीधुं छे के पठन-पाठन, सांभळवुं, चिन्तन करवुं, स्तुति, वंदना ए सघळो जे क्रिया-कलाप छे ते विकल्प छे, राग छे. हजु जेने पठन-पाठननी नवराश नथी एनी तो वात ज शुं करवी? एने तो आत्मा शुभाशुभ भावथी रहित शुद्ध चैतन्यधातु छे ए बेसी शक्तुं ज नथी. भाई! हिंसा, जूठ, चोरी, कुशील आदि पापना भाव तो झेर छे ज, पण आ पठन-पाठन, श्रवण, चिंतवन, स्तुति, वंदना आदि शुभभाव छे ते पण झेरनो घडो छे. ते कांई अमृतस्वरूप आत्मा नथी.

जेने आत्माना आनंदनो अनुभव होय तेना शुभभावने आरोपथी अमृत कहेवाय


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छे. त्रिकाळ ध्रुव अखंड एक चैतन्यस्वरूपना अवलंबने जे निश्चयधर्म प्रगटयो छे ते ज खरेखर अमृत छे. पण ते धर्मनो शुभभाव पर आरोप करीने शुभभावने पण अमृत कह्यो छे; छे तो खरेखर ए झेर. अरे! जगतने सत्य सांभळवा मळे नहि ए बिचारा कयां जशे? लाखो रूपियानां दान आपे त्यां दान देवानो जे भाव छे ते पुण्य छे. एनाथी कांई जन्म-मरण न मटे. अने एने धर्म माने तो मिथ्यादर्शन छे. पैसा तो अजीव छे. जीव कांइ ए अजीवनो स्वामी नथी. पैसा मारा छे एम माननारे पोताने अजीव मान्यो छे. भाई! पैसा पेदा करवा, एने साचववा अने वापरवा ए कांई आत्मानी क्रिया नथी. तथा दान आपवानो जे शुभभाव छे ते राग छे, संसार छे. शुभभाव के जे संसारमां प्रवेश करावे तेने भलो केम कहीए?

पुण्य-पापना भाव ए तो कर्मनो विपाक छे, ए कांई भगवान आत्मानो विपाक नथी. पुण्य-पापनो जे र्क्ता थाय ए जीव नहि. जीव तो निर्मळ ज्ञानानंदस्वरूप छे. ए ज्ञाननो र्क्ता थाय. जीव विकारनो र्क्ता थाय एम माननारे पोताने आखोय विकारी मान्यो छे. पण भाई! वस्तु आत्मा तो विकारथी रहित चिन्मात्र छे. वस्तुतत्त्व बहु सूक्ष्म छे. बापु! जन्म-मरणना दुःखोथी मुक्त थवानो उपाय अति आकरो अने झीणो छे.

आ लसण अने डुंगळीमां जे निगोदना जीवो छे एमने पण शुभाशुभभावो तो होय छे. क्षणमां शुभ अने क्षणमां अशुभ भाव आवे छे. एमने पण शुभाशुभ कर्मधारा निरंतर चाल्या करे छे. भाई! ए तो बधो कर्मनो विपाक छे. ए जडनुं फळ छे, ए कांई चैतन्यनुं फळ नथी. चैतन्यस्वरूप आत्मा तो पुण्य-पापरूप कर्मना विपाकथी भिन्न छे एम सर्वज्ञदेवे कह्युं छे. युक्तिथी पण एम ज सिद्ध थाय छे अने भेदज्ञानीओ वडे पण शुभाशुभ भावोथी भिन्न जुदो चैतन्यस्वभावमय आत्मा प्रत्यक्ष अनुभवाय छे.

छठ्ठो बोलः शाता-अशातारूपे व्याप्त जे समस्त तीव्रमंदपणारूप गुणो ते वडे भेदरूप थतो जे कर्मनो अनुभव ते पण जीव नथी. शातानुं वेदन एटले कल्पनामां जे अनुकूळपणे सुखरूप लागे अने अशातानुं वेदन एटले कल्पनामां जे प्रतिकूळपणे दुःखरूप लागे एवा भेदरूप जे कर्मनो अनुभव ते जीव नथी. शरीर तो रोगनी मूर्ति छे. एक तसुमां (तसु जेटला शरीरना भागमां) ९६ रोग शरीरमां छे. एवा आखाय शरीरमां रोग भरेला छे. ए रोग ज्यारे प्रगट थाय त्यारे जे अशातानुं वेदन थाय ए पुद्गलनुं फळ छे. तथा शरीर निरोगी रहे अने बहार सामग्री-धन, संपत्ति, कुंटुंब-परिवार आदि ठीक अनुकूळ होय त्यारे जे शातानुं- सुखनी कल्पनानुं वेदन थाय ए पण पुद्गलनुं फळ छे. ए कल्पनामय सुख-दुःखना वेदनमां कर्मनो अनुभव छे, आत्मानो नहि. शरीर हृष्ट-पुष्ट निरोगी होय अने करोडोनी साह्यबी होय त्यारे जे सुखनो अनुभव थाय ते


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कर्मनो अनुभव छे, आत्मानो नहि. ए सुख-दुःखमां चैतन्यस्वरूप आत्मा नथी. ए शाता- अशातानो अनुभव ए आत्मा नथी. आत्मा तो सुख-दुःखथी भिन्न चैतन्यस्वभावमय वस्तु छे.

एक धर्मी सिवाय, आखुं जगत पागल छे, घेलुं छे-कारण के ते दुःखने सुख माने छे, जे सुख नथी तेने सुख माने छे. रंकथी मांडीने मोटो राजा अने एकेन्द्रियथी मांडीने पंचेन्द्रिय सुधीना सौ जीवो सुखदुःखनी कल्पनामां राची रह्या छे. ए सघळी पागलोनी नात छे. परंतु सुख-दुःखनी कल्पनाथी भिन्न पडी अनंत सुखनुं धाम जे शुद्ध चैतन्यस्वभावमय वस्तु छे एमां द्रष्टि करे तो स्वयं अर्थात् प्रत्यक्ष आनंदनो अनुभव थाय छे. अहाहा! सुख-दुःखथी जुदो अन्य चैतन्यस्वरूप जीव छे एम प्रत्यक्ष अनुभवमां आवे छे. केवळीने ज प्रत्यक्ष थाय एम नहि. चोथा गुणस्थाने पण स्वसंवेदनथी आत्मा प्रत्यक्ष अनुभवाय छे. सम्यग्दर्शन थतां भेदज्ञानीओने मति-श्रुतज्ञानथी आत्मा प्रत्यक्ष वेदनमां आवे छे.

प्रथम सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान होवां जोईए. आत्मा वस्तु स्वसंवेदनप्रत्यक्ष थई न होय अने व्रत, नियम अने संयममां लागी जाय तो ए सघळी क्रिया एकडा विनानां मींडां जेवी छे. एवा जीवो क्रियाना अभिमानमां चढी जाय छे. वळी कहे के-अशुभ करतां तो शुभ सारुं छे. पण भाई! ए तो व्यवहारथी एम कहेवाय, निश्चयथी तो शुभभाव पण झेर छे. जे संसारमां दाखल करे तेने सारो केम कहेवाय?

हवे सातमो बोल कहे छेः-शीखंडनी जेम उभयात्मकपणे मळेलां जे आत्मा अने कर्म ते बन्ने मळेलां पण जीव नथी. जेम दहीं अने साकर बे मळीने शीखंड छे तेम आत्मा अने कर्म ए बे थईने जीव छे एम नथी. भगवान आत्मा तो चैतन्यस्वरूप प्रभु छे अने राग अने कर्म वगेरे तो जड अचेतनस्वरूप छे. तेथी जीव अने कर्म बन्ने भिन्नभिन्न छे. परंतु जेम हाथी चूरमु अने घास बन्नेने भेगां करीने खाय छे तेम अज्ञानी कर्म अने आत्माने एक करीने अनुभवे छे.

कोई पुरुष स्त्री साथे विषय भोग करे छे त्यां खरेखर ए स्त्रीना शरीरने भोगवतो- अनुभवतो नथी. शरीर तो जड, अजीव छे; मांस, हाड अने चामडांनी थेली छे. ज्यारे भगवान आत्मा तो अंदर स्पर्शादि रहित शुद्ध चिद्रूप वस्तु छे. भोगकाळे एने आ ठीक छे एवो जे राग थाय ते रागने ए अनुभवे छे. त्यां आत्मा अने राग भेगा छे एम नथी. पण अज्ञानवश एम माने छे के आने (रागने) हुं भोगवुं छुं. जेम कूतरुं हाडकुं चावे त्यारे हाडकानी कणी दाढमां वागे त्यारे त्यांथी लोही नीकळे छे. ए लोहीनो स्वाद आवतां ते हाडकानो स्वाद आवे छे तेम ते माने छे. तेम शरीर तो हाड, मांस, चामडुं अने विष्टाथी भरेलुं छे. एनो स्पर्श थतां ए ठीक छे एवो एने राग थाय छे. ए


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रागने ते अनुभवे छे पण शरीरने हुं भोगवुं छुं एम मिथ्या माने छे. तेवी ज रीते सर्पदंश थयो होय तो ते दंशने भोगवे छे एम नथी, पण ते वखते तेना लक्षे जे अणगमानो द्वेषभाव थाय छे ते द्वेषने अनुभवे छे. अहीं तो एम कहे छे के ए रागद्वेषरूप विकारीभाव अने आत्मा ए बे मळीने जीव छे एम नथी. बे भोगवे एम नहि. आत्मा विकारथी जुदो छे ए अनुभवसिद्ध छे केमके समस्तपणे कर्मथी जुदो अन्य चैतन्यस्वरूप आत्मा भेदज्ञानीओ वडे प्रत्यक्ष अनुभवमां आवे छे. भेदज्ञानीओने आनंदना वेदनवाळो आत्मा प्रत्यक्ष छे.

आठमो बोलः-अर्थक्रियामां समर्थ एवो जे कर्मनो संयोग ते पण जीव नथी. आठे कर्म भेगां थईने आत्मा थयो एम नथी. जेम खाटलाथी खाटलामां सूनारो जुदो छे तेम आठे कर्मरूपी खाटलाथी भगवान आत्मा जुदो छे. कोई दिवस विचार करे नहि, मनन करे नहि तेने आ वात केम बेसे? कळशटीकामां कळश १११मां स्वच्छंदी निश्चयाभासीनुं कथन करतां कह्युं छे के-ते जीवो शुद्ध चैतन्यनो विचार मात्र पण करता नथी.

आठ कर्मनो पाक छे एनाथी भगवान आत्मा जुदो छे. भगवान आत्मा तो ज्ञानानंदस्वरूप, चैतन्यस्वरूप छे. आठ कर्मथी आत्मा बन्यो छे ए मोटी भ्रमणा छे, केमके आठ कर्मना संयोगथी जुदो अन्य चैतन्यस्वभावमय जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे. अर्थात् भेदज्ञानीओ शुद्ध चैतन्यवस्तुनो प्रत्यक्षपणे आस्वाद करे छे.

आ प्रमाणे अन्य कोई बीजा प्रकारे कहे त्यां पण आ ज युक्ति जाणवी.

* गाथा ४४ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

जीव चैतन्यस्वभावमय छे. जाणवुं-देखवुं ए तेनो स्वभाव छे. स्वभाववान पोते आत्मा अने चैतन्य पोतानो स्वभाव छे. जेटला अध्यवसानादि भावो छे तेनाथी जीव जुदो छे. रागथी आत्माने भिन्न पाडनार धर्मात्माने एवो जीव अनुभवगम्य छे. भेदज्ञानी समकिती जीव शुद्ध चैतन्यस्वभावी आत्मवस्तुने प्रत्यक्षपणे स्वसंवेदन वडे आस्वादे छे.

तेथी जेम अज्ञानी माने छे तेम नथी. कर्म, राग, शुभाशुभ भाव, पुण्य-पापना भाव के सुख-दुःखनी कल्पना इत्यादि आत्मा नथी. अहीं पुद्गलथी भिन्न आत्मानी उपलब्धि प्रत्ये विरोध करनारा पुरुषने मीठाशथी अने समभावथी ज आ प्रमाणे उपदेश करवो एम हवे काव्यमां कहे छे-

* कळश ३४ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

हे भव्य! ‘अपरेण अकार्य–कोलाहलेन किम्’ तने बीजो नकामो कोलाहल करवाथी शो लाभ छे? ‘हे भव्य!’ एटले के हे धर्म पामवाने लायक जीव! तने वस्तुना


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स्वभावथी विरुद्ध कोलाहल करवाथी शुं लाभ छे? वस्तुनो जे चैतन्यस्वभाव तेनाथी विरुद्ध जे पुण्य-पापना अचेतन भाव तेनाथी तने शुं लाभ छे? व्यवहार साधन अने निश्चय साध्य एवो कोलाहल नकामो छे. ए तो निमित्तनुं ज्ञान कराववा एम कह्युं छे. (खरेखर व्यवहार निश्चयनुं साधन नथी).

‘विरम’ ए कोलाहलथी तुं विरक्त था. आ अध्यवसान आदि भावो जीव छे एवा मिथ्या विकल्पोना कोलाहलथी विरक्त थाय. व्यवहारथी निश्चय थाय, रागथी वीतरागता थाय एवा वस्तुस्वरूपथी विपरीत कोलाहलथी विराम पाम. रागथी धर्म थशे एम माननारे रागने पोतानो स्वभाव मान्यो छे. एणे रागने ज आत्मा मान्यो छे.

प्रश्नः– निर्विकल्प अनुभव थवा पहेलां छेल्ले शुभराग तो होय छे ने?

उत्तरः– भाई! ए शुभरागने छोडीने निर्विकल्प थयो छे. कांइ शुभरागथी निर्विकल्प थयो नथी. शुभभाव छे ए तो विभावस्वभाव जडस्वभाव छे, ए कांई चैतन्यस्वभाव नथी.

आत्मा एकरूप चैतन्यघनस्वभाव, ध्रुवस्वभाव, सामान्यस्वभाव, अभेदस्वभाव अखंड चैतन्यमात्र वस्तु छे. हवे कहे छे-‘निभृतः सन् स्वयम् अपि एकम् षण्मासम् पश्य’ पोते निश्चळ लीन थईने प्रत्यक्ष करीने एक चैतन्यमात्र वस्तुने देख; एवो छ महिना अभ्यास कर. चैतन्यवस्तुमां प्रमेयत्व नामनो गुण छे, तेथी तने ए ज्ञानमां प्रत्यक्ष अनुभवमां आवशे. तेथी तुं स्वरूपमां एकाग्र थईने स्वसंवेदन वडे शुद्ध चिद्रूपमात्र वस्तुनो अनुभव कर.

जुओ, अहीं अमुक क्रियाओ करे तो आत्मा देखाय एम नथी कह्युं. श्रीमद् राजचन्द्रे पण कह्युं छे केः-

‘सर्व जीव छे सिद्धसम, जे समजे ते थाय.’

भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यसामान्यस्वरूप छे. तेने अनुभव. ‘स्वयं’ शब्द छे ने? एटले के तेना अनुभवमां परनी कोई अपेक्षा नथी. भगवान आत्मा सीधो स्वसंवेदनमां प्रत्यक्ष जणाय छे. विकल्पोनो कोलाहल अनुभवमां मददगार नथी पण अटकावनार छे, विघ्नकारी छे. नियमसारमां (गाथा र नी टीकामां) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धरत्नत्रयात्मक मार्ग परम निरपेक्ष कह्यो छे. वस्तुनो जे स्वभाव छे तेने वळी परनी अपेक्षा केवी?

अहीं कहे छे-‘षण्मासम्’ छ महिना चैतन्यना अनुभवनो अभ्यास कर. भाई, तुं वेपार-धंधामां वर्षोना वर्षो काढे छे. रळवा-कमावामां अने बायडी-छोकरांनी संभाळ राखवामां रात-दिवस चोवीसे य कलाक तुं पापनी मजूरीमां काढे छे. पण एनुं फळ तो मनुष्यभव हारीने ढोरनी गति प्राप्त थवानुं छे. माटे हे भाई! तुं सर्व संसारना


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विकल्पोनो त्याग करी एक छ महिना शुद्धात्माना अनुभवनो अभ्यास कर. आम तो अंतर्मुहूर्तमां चैतन्यनी प्राप्ति थई शके छे. पण तने जो बहु आकरुं लागतुं होय तो छ महिना तेनो अभ्यास कर. आम छ महिना अभ्यास करवानी वात करी छे. चिदानंद प्रभु चैतन्यस्वभावी ज्ञायकस्वभावी ध्रुव एकरूप आत्मा छे तेनी लगनी लगाड, एकमात्र एमां ज धून लगाड. तने ते प्राप्त थशे ज.

श्रीमद् राजचंद्रे कह्युं छे केः-

“जो इच्छो परमार्थ तो करो सत्य पुरुषार्थ,
भवस्थिति आदि नाम लई, छेदो नहीं आत्मार्थ.”

परमानंदनो नाथ परम पदार्थ भगवान आत्मानी उपलब्धिनी भावना होय तो सत्य पुरुषार्थ एटले स्वभावसन्मुखतानो पुरुषार्थ कर. भवस्थिति हशे तेम थशे (काळलब्धि हशे तेम थशे) एवी मिथ्या अटक (पक्कड) छोडी दे. काळलब्धि हशे त्यारे थशे एवो दुराग्रह आत्माना हितने छेदनारो छे. माटे भवस्थिति आदिना बहाना छोडीने तुं पुरुषार्थ कर. भाई! तारे ‘काळलब्धि हशे त्यारे थशे’ ए वातनी धारणा-पकड करवी छे के तेनुं ज्ञान करवुं छे? तेनुं यथार्थ ज्ञान करवुं होय तो तुं ज्ञायकनी सन्मुख थई पुरुषार्थ कर. ज्ञायक ज्ञानमां आवतां तने पांचे समवायनुं वास्तविक ज्ञान थशे.

स्वभाव तरफनो पुरुषार्थ करतां सम्यकत्व थयुं त्यारे ख्याल आव्यो के काळलब्धि पाकी गई. द्रव्यसंग्रहमां (गाथा २१ नी टीकामां) आवे छे के काळलब्धि हेय छे. काळ अस्तिपणे छे, निमित्त छे पण ते हेय छे. (केमके काळनी-निमित्तनी सन्मुख द्रष्टि करतां सम्यकत्वादि थतां नथी) काळ निमित्त छे ते छे, अने पोतानी पर्यायनो जे स्वकाळ छे ते पण छे; पण ते स्वकाळनुं ज्ञान कोने थाय? पोताना स्वभावनी सन्मुख ज्यां पुरुषार्थ कर्यो त्यारे काळ पाकयो एम स्वकाळनुं-काळलब्धिनुं ज्ञान थयुं, भवितव्यतानुं पण ज्ञान थयुं, तथा स्वभावसन्मुख पुरुषार्थ कर्यो ते स्वभावनुं ज्ञान थयुं अने निमित्तनो एटलो अभाव छे एम ज्ञान थयुं. आम पांचेय समवाय कारणो एकसाथे छे एम यथार्थ ज्ञान थयुं.

तेथी अहीं कह्युं छे के छ महिना चैतन्यस्वरूप निज शुद्ध आत्मद्रव्यना अनुभवनो अभ्यास कर, एनी ज अंतरमां लगनी लगाड. अने जोके एम करवाथी ‘हृदय–सरसि पुद्गलात् भिन्नधाम्नः पुंसः ननु किं अनुपलब्धिः भाति किं च उपलब्धिः’ पोताना हृदयसरोवरमां जेनुं तेज-प्रताप-प्रकाश पुद्गलथी भिन्न छे एवा आत्मानी प्राप्ति नथी थती के थाय छे.

समयसार नाटकमां लीधुं छे के ज्ञानरूपी सरोवरमां तुं ज पोते चैतन्यकमळ छे. स्वभावसन्मुख पर्यायनो पुरुषार्थ ते भ्रमर छे. ते तुं ज छे. तुं ज ते चैतन्यकमळमां


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भ्रमर थई एकत्व पाम, चैतन्यना आनंदरसनो भोक्ता था. आ चैतन्यकमळ ज्ञानानंदना रसथी अत्यंत भरेलुं छे. तेमां तुं निमग्न थई एकला ज्ञानानंदरसने पी. अहाहा! तुं निर्मळपर्यायरूप भ्रमर थईने त्रिकाळी एकरूप चैतन्यरसमां निमग्न था. तेथी तने आनंदनो अद्भुत अनिर्वचनीय आस्वाद प्राप्त थशे. शुद्ध आत्मानी प्राप्ति थशे. तु आनो अभ्यास करे अने प्राप्ति न थाय एम कदी बने ज नहि.

भगवान आत्मा पुद्गलथी भिन्न अर्थात् रागादि विकल्पथी भिन्न चैतन्यना तेजथी भरेलो, चैतन्यना नूरनुं पूर छे. तेनी सन्मुख थई अंतर्निमग्न थतां अवश्य आत्मोपलब्धि थाय छे. पुरुषार्थ करे अने प्राप्ति न थाय ए केम बने? (प्राप्ति थाय ज). जे कोई व्यवहारना विकल्पो छे तेनाथी भगवान आत्मानुं चैतन्य-तेज भिन्न छे. ते चैतन्य-तेजना अनुभव माटे विकल्पनो कोई सहारो नथी. तेथी काळलब्धि पाके त्यारे प्राप्ति थशे. भगवाने दीठुं हशे त्यारे प्राप्त थशे-इत्यादि अनेक प्रकारना विकल्पोनी नबळी वातो रहेवा दे. एवी नबळी वातोथी आत्माना पुरुषार्थने छेद मा, तारा प्रयोजनने छेद मा. स्वभावसन्मुखताना पुरुषार्थ वडे जेनुं प्रयोजन छे ते स्वात्मोपलब्धि सिद्ध कर.

वळी कोई समयसारमां उद्धृत ‘जइ जिणमयं पवज्जह...... छंदनो आधार आपीने कहे छे के-जो जिनमार्गने प्रवर्ताववा इच्छता हो तो निश्चय अने व्यवहार एम बन्ने नयोने न छोडो. परंतु भाई, एनो अर्थ शुं? एनो अर्थ तो एम छे के-व्यवहार छे खरो, पण व्यवहार आश्रय करवा योग्य नथी. साधकपणानो भाव, १४ गुणस्थान आदि सघळो व्यवहार छे खरो, परंतु ते आश्रय करवा लायक नथी.

श्री समयसार गाथा ११मां कह्युं छे के भूतार्थनो अर्थात् एक निश्चयनो आश्रय करो. केमके त्रिकाळी भगवान जे छतो विद्यमान पदार्थ अस्तिरूप महाप्रभु छे एना आश्रये ज सम्यग्दर्शन प्राप्त थाय छे. सम्यग्दर्शन थया पछी, बाकी रहेली अशुद्धता अने पर्यायनी अपूर्णता ते ते काळे जाणेली प्रयोजनवान छे एम गाथा १२मां लीधुं छे. व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान छे, आदरेलो प्रयोजनवान नथी. ‘व्यवहारनयो......परिज्ञाय–मानस्तदात्वे प्रयोजनवान्’ एटले के व्यवहारनय ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे. ते ते काळे जे प्रकारनी अशुद्धता छे अने शुद्धतानो जे अंश वध्यो छे ते सघळो व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान छे एवो अर्थ श्री अमृतचन्द्राचार्यदेवे १२मी गाथानी टीकामां कर्यो छे.

सिद्ध, साधक अने संसार ए बधुं व्यवहार छे. त्रिकाळी ध्रुव ते निश्चय अने पर्याय ते व्यवहार छे. व्यवहार छे खरो, पण जाणेलो प्रयोजनवान छे; निश्चय छे ते आदरेलो प्रयोजनवान छे. बापु! वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे. भगवाने एम ज कह्युं छे, शास्त्रमां एम ज छे अने वस्तुनी स्थिति पण एम ज छे.


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अमृतचंद्राचार्यदेव कहे छे के-आ शास्त्रनी टीका करवानो जे विकल्प छे ते अमारो (स्वरूपभूत) नथी, अमे तो तेना मात्र जाणनार छीए, स्वरूपगुप्त छीए. टीका तो शब्दो वडे (पुद्गलोथी) रचाई छे. ए शब्दो अने विकल्पथी भिन्न आत्मामां अमे तो गुप्त छीए. शब्दो अने विकल्पमां अमारो निवास नथी. जुओ, आ सत्यनो ढंढेरो पीटयो छे! थोडामां घणुं कह्युं छे.

अहीं कहे छे के वस्तुस्वभाव जे पूर्ण छे तेनी सन्मुखता करी तेमां ढळतां, एकाग्र थतां तेनी प्राप्ति न थाय एम केम बने? (स्वभाव सन्मुखताना अभ्यास वडे स्वात्मोपलब्धि अवश्य थाय ज.)

* कळश ३४ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मानो अभ्यास करे तो तेनी प्राप्ति अवश्य थाय. अंतर्मुख वळवानो पुरुषार्थ करे अने प्राप्ति न थाय एम त्रण काळमां बने नहि. अहीं अभ्यासनो अर्थ मात्र वांचवुं अने सांभळवुं एम नथी, पण अभ्यास एटले निज शुद्ध चैतन्यमां एकाग्रता करवाना पुरुषार्थनी वात छे. भाई, तारी श्रद्धामां तो ले के वस्तु आवी ज छे. श्रद्धामां बीजुं लईश तो आत्मा हाथ नहि आवे, पुरुषार्थ अंतरमां नहि वळे. अहो! गजबनो कळश मूकयो छे!

तीक्ष्ण करवत के छीणी पडे अने बे कटका न थाय एम बने ज नहि. तेम जेणे रागनी रुचि छोडी अने स्वभावनी रुचि करी तेने स्वभाव प्राप्त न थाय एम बने ज नहि. जो प्राप्ति न थाय तो एनो अर्थ एटलो ज छे के स्वभाव तरफना पुरुषार्थनी खामी छे. हा, पर वस्तु होय तेनी प्राप्ति न थाय. अर्थात् जे स्वरूपमां नथी तेनी केमेय करीने प्राप्ति न थाय. गमे तेटलो पुरुषार्थ करे तोपण राग पोतानो न थई जाय. परंतु जे स्वस्वरूप छे तेनुं वलण करी तेना अनुभवनो अभ्यास करे तो तेनी प्राप्ति जरूर थाय. आत्मामां वीर्य नामनो गुण छे. तेनुं कार्य स्वरूपनी रचना करवानुं छे. तेथी अंतर्मुख थई आत्मामां पुरुषार्थ करतां स्वरूपनी रचना निर्मळ थाय, थाय अने थाय ज.

आवो उपदेश कठण पडे एटले लोको शुभ करतां करतां शुद्ध थशे एम खोटा पाटे चढी जाय छे. शुभने छोडीने अंदर (वस्तुना तळमां) जवुं ए धर्म प्राप्त करवानी निसरणी छे. प्रवचनसारमां कह्युं छे के-मोटे अवाजे अमे कहीए छीए के स्वरूप पोताथी ज प्राप्त थाय. (रागथी प्राप्त न थाय, ज्ञानथी ज थाय.)

भगवान! तुं छे के नहि? (छे). तो छे एनी प्राप्ति न थाय एम केम बने? पण भाई, ‘हुं छुं’ एम अनंतकाळमां तें कबूल्युं नथी. एक समयनी पर्याय अने


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रागनी स्वीकृतिमां अनंतकाळ गयो, पण अंदर वस्तु चैतन्यघन महाप्रभु जे एक समयनी पर्यायमां आवतो नथी अने जे पर्यायमां जणाया विना रहेतो नथी ए शुद्धात्मानी पूर्वे तें कदीय कबूलात करी नथी.

श्री समयसार गाथा १७-१८मां आवे छे के-आबाळ-गोपाळ सौने सदा अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा जणाई रह्यो छे. अहाहा! एनी ज्ञाननी पर्यायमां सदा त्रिकाळी वस्तु जणाय छे, केमके ज्ञाननी पर्यायनो स्वपरप्रकाशकस्वभाव छे. स्व एवुं जे द्रव्य ते ज तेना ज्ञानमां आवे छे. परंतु अज्ञानीनुं वलण स्वद्रव्य उपर नथी तेथी ज्ञाननी पर्यायमां- प्रगट अवस्थामां जाणनारो पोते जणाय छे एवुं तेने भान थतुं नथी, एवी तेने प्रतीति उपजती नथी. भगवान! तारुं जे पूर्ण अस्तित्व छे ते एक समयनी पर्यायमां सदाय जणाय छे. भाई! आ तो सर्वज्ञनी वाणी छे, आ तो परमागम छे. आवी वाणी बीजे कयांय छे ज नहि. जेनो एक एक न्याय अंदर सोंसरवो उतरी जाय एवी आ वाणी छे.

पर्यायबुद्धिमां, रागबुद्धिमां अज्ञानी अटकयो छे. त्यां अटकयो छे तेथी जाणनारो पोते त्रिकाळी आत्मा एने जणाय छे एम ख्यालमां आवतुं नथी. अरे! आवा तत्त्वनो निर्णय करवानो लोकोने समय ज कयां छे? एक दिवसमां त्रेवीस कलाक तो बस रळवुं, कमावुं अने बायडी-छोकरां साचववां, राजी राखवां अने उंघवुं-एम जाय. कदाच एकाद कलाक मळे तो कुगुरु वडे ते लूंटाई जाय छे. अहा! ए वेशधारीओ ते बिचाराने मिथ्या शास्त्रो द्वारा युक्ति- प्रयुक्ति बतावी लूंटी ले छे.

श्री मोक्षमार्ग प्रकाशकमां १पमां पाना उपर लख्युं छे के-जे शास्त्रोमां वीतरागभावनुं प्रयोजन प्रगट कर्युं होय ते ज शास्त्रो वांचवा-सांभळवा योग्य छे. रागनी मंदताथी संसार घटे एम जेमां कह्युं होय ते शास्त्र नथी, केमके एणे तो अतत्त्वश्रद्धान पोषी मोहभावने प्रगट कर्यो छे. आवुं शास्त्र ते शास्त्र नथी पण शस्त्र छे, कारण के राग-द्वेष-मोह वडे जीव अनादिथी दुःखी थई रह्यो छे. शुभरागनी वासना तो तेने वगर शिखवाडे पण हती अने आ शास्त्र वडे तेनुं ज पोषण कर्युं त्यां भलु थवानी शुं शिक्षा आपी? आवी वात आकरी लागे पण शुं थाय? पोताना वाडानो आग्रह होय तेथी दुःख थाय पण तेथी शुं? (जेणे हित करवुं होय तेणे मध्यस्थ थई विचारवुं जोईए).

श्री पंचास्तिकाय गाथा १७२मां पण कह्युं छे के सर्व शास्त्रोनुं तात्पर्य वीतरागता छे. जुओ, दिगंबरोना बधांय शास्त्रोनी वात मेळ खाती अने अविरुद्ध छे. सर्व शास्त्रोमां वीतरागतानुं ज पोषण कर्युं छे. सवारमां आव्युं हतुं ने के अरिहंतोए मोक्ष अने मोक्षमार्गनी प्ररूपणा करी छे. एवा अरिहंतोने एमनी सर्वज्ञता अने


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वीतरागताने ओळखीने नमस्कार करुं छुं. जुओ, आ निर्ग्रंथ संतोनी अमृत वाणी! आनुं नाम परमागम अने शास्त्र छे.

अहीं कहे छे के-पोताना स्वरूपनो अभ्यास करे तो तेनी प्राप्ति जरूर थाय. अहीं रागनो अभ्यास करवानुं नथी कह्युं. रागादि पर वस्तु गमे ते पुरुषार्थथी पण प्राप्त न थाय. पर वस्तु छे ने? पोतानुं स्वरूप तो मोजूद छे. अहाहा! विज्ञानघन-स्वभावपणे अस्ति धरावती पोतानी चीज प्रत्यक्ष मोजूद छे. पण तेने पोते भूली गयो छे. चेतीने एटले जाणीने जो देखे तो पासे ज छे, केमके ते पोते ज छे. जुओ तो खरा, श्री जयचंद पंडिते केवो सरस भावार्थ भर्यो छे! कहे छे के अंतरमां जाग्रत थईने जुए तो ते पोते ज छे. तेनो अभ्यास करतां ते प्राप्त थाय ज.

अहीं छ महिनानो अभ्यास कह्यो तेथी एम न समजवुं के एटलो ज वखत लागे. स्वरूपनी प्राप्ति तो अंतर्मुहूर्तमात्रमां थाय छे. परंतु शिष्यने बहु कठण लागतुं होय तो तेनो निषेध कर्यो छे. समजवामां छ महिनाथी अधिक समय नहि लागे. तेथी अन्य निष्प्रयोजन कोलाहल छोडी ज्ञानानंदस्वरूप भगवान आत्मामां लागवाथी जलदी स्वरूपनी प्राप्ति थशे एवो उपदेश छे.

[प्रवचन नं. ८९ थी ९१ * दिनांक ८-६-७६ थी १०-६-७६]

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कथं चिदन्वयप्रतिभासेऽप्यध्यवसानादयः पुद्गलस्वभावा इति चेत्–

अट्ठविहं पि य कम्मं सव्वं पोग्गलमयं जिणा बेंति।
जस्स फलं तं वुच्चदि दुक्खं ति विपच्चमाणस्स।। ४५ ।।
अष्टविधमपि च कर्म सर्वं पुद्गलमयं जिना बुवन्ति।
यस्य फलं तदुच्यते दुःखमिति विपच्यमानस्य।। ४५ ।।

_________________________________________________________________

हवे शिष्य पूछे छे के आ अध्यवसानादि भावो जीव न कह्या, अन्य चैतन्यस्वभाव जीव कह्यो; तो आ भावो पण चैतन्य साथे संबंध राखनारा प्रतिभासे छे, (चैतन्य सिवाय जडने तो देखाता नथी, ) छतां तेमने पुद्गलना स्वभाव केम कह्या? तेना उत्तरनुं गाथासूत्र कहे छेः-

रे! कर्म अष्ट प्रकारनुं जिन सर्व पुद्गलमय कहे,
परिपाक समये जेहनुं फळ दुःख नाम प्रसिद्ध छे. ४प.

गाथार्थः– [अष्टविधम् अपि च] आठे प्रकारनुं [कर्म] कर्म छे ते [सर्व] सर्व [पुद्गलमयं] पुद्गलमय छे एम [जिनः] जिनभगवान सर्वज्ञदेवो [ब्रुवन्ति] कहे छे- [यस्य विपच्यमानस्य] जे पकव थई उद्रयमां आवता कर्मनुं [फलं] फळ [तत्] प्रसिद्ध [दुःखम्] दुःख छे [इति उच्यते] एम कह्युं छे.

टीकाः– अध्यवसान आदि समस्त भावोने उत्पन्न करनारुं जे आठे प्रकारनुं ज्ञानावरण आदि कर्म छे ते बधुंय पुद्गलमय छे एवुं सर्वज्ञनुं वचन छे. विपाकनी हदे पहोंचेला ते कर्मना फळपणे जे कहेवामां आवे छे ते (एटले के कर्मफळ), अनाकुळतालक्षण जे सुख नामनो आत्मस्वभाव तेनाथी विलक्षण होवाथी, दुःख छे. ते दुःखमां ज आकुळतालक्षण अध्यवसान आदि भावो समावेश पामे छे; तेथी, जोके तेओ चैतन्य साथे संबंध होवानो भ्रम उपजावे छे तोपण, तेओ आत्माना स्वभावो नथी पण पुद्गलस्वभावो छे.

भावार्थः– कर्मनो उद्रय आवे त्यारे आ आत्मा दुःखरूप परिणमे छे अने दुःखरूप भाव छे ते अध्यवसान छे तेथी दुःखरूप भावमां (-अध्यवसानमां) चेतनतानो भ्रम ऊपजे छे. परमार्थे दुःखरूप भाव चेतन नथी, कर्मजन्य छे तेथी जड ज छे.


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* श्री समयसार गाथा ४पः मथाळुं *

हवे शिष्य पूछे छे के आ अध्यवसानादि भावो जीव न कह्या, अन्य चैतन्यस्वरूप जीव कह्यो; तो आ भावो पण चैतन्य साथे संबंध राखनारा प्रतिभासे छे. राग-द्वेष आदि भावो जड साथे संबंध राखता नथी, आत्मा साथे संबंध राखे छे. चैतन्य सिवाय जडमां, शरीरादिमां तो राग देखातो नथी. छतां तेमने पुद्गलना स्वभाव केम कह्या? प्रश्ननुं रूप समजायुं? कहे छे के-आ राग-द्वेष, पुण्य-पापना भाव अने सुख-दुःखनुं भोगववुं ए तो चैतन्यनी पर्यायमां थाय छे, कांई शरीरादि जडमां थता नथी. ए चैतन्यनी ऊंधाईथी थाय छे. तेथी ते चैतन्य साथे संबंध राखनारा प्रतिभासे छे. छतां तेमने पुद्गलना स्वभाव केम कह्या? आवी जेने अंतरथी समजवानी जिज्ञासा छे अने प्रश्न पूछे छे तेने उत्तररूपे गाथा सूत्र कहे छेः-

* श्री समयसार गाथा ४पः टीका उपरनुं प्रवचन *

अध्यवसान आदि समस्त भावोने उत्पन्न करनारुं जे आठे प्रकारनुं ज्ञानावरणादि कर्म छे ते बधुंय पुद्गलमय छे एवुं सर्वज्ञनुं वचन छे. शुं कह्युं? आ अध्यवसानादि भावो एटले पुण्य-पापना भावो, दया, दान, व्रत, तप, भक्ति आदि शुभभावो अने काम, क्रोधादि अशुभभावोने उत्पन्न करनारुं कर्म छे. व्यवहार रत्नत्रयनो जे भाव छे ते शुभराग छे. ए शुभराग पोतानो माने ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे. तो ए शुभरागथी लाभ (धर्म) थाय ए वात ज कयां रही? अहीं कहे छे के जे शुभभाव छे ते निमित्तरूप कर्मना लक्षे थाय छे अने ए कर्म पुद्गलमय छे एम सर्वज्ञनुं वचन छे. गाथामां पाठ छे ने के ‘जिणा बेंति’ भगवान सर्वज्ञदेवनुं आ वचन छे के व्रत-अव्रतना शुभाशुभ भावो, हरख-शोकना भावो वगेरे सघळा भावोने उत्पन्न करनारुं कर्म छे अने ते कर्म पुद्गलमय जड छे. ते भावोने उत्पन्न करे एवो जीवनो द्रव्यस्वभाव नथी. जुओ, केवी सरस वात लीधी छे! भाई! परनी दया तो तुं पाळी शक्तो नथी, पण परनी दया पाळवानी (छ कायना जीवोनी रक्षा करवानी) जे वृत्ति ऊठे एने उत्पन्न करनारुं कर्म छे अने ते पुद्गलमय छे; ते आत्मस्वभावमय नथी, चैतन्यस्वभावमय नथी. अहाहा! बहु सूक्ष्म वात. वीतराग जैनदर्शन बहु सूक्ष्म छे. लोकोने समजमां न आवे तेथी विरोध करे, पण शुं थाय?

हवे कहे छे के विपाकनी हदे पहोंचेला ते कर्मना फळपणे जे कहेवामां आवे छे ते दुःख छे. कर्मनो विपाक थतां, जे पुण्यपापना भावो थाय छे ते कर्मना फळपणे अनुभवाय छे अने ते दुःख छे. अरे! लोकोने निश्चयमार्ग (सत्यमार्ग) छे ते बेसतो नथी अने व्यवहार परंपरा कारण छे एम हठ पकडीने बेसी गया छे. पण भाई, व्यवहारनो जे शुभराग छे तेने उत्पन्न करनार तो कर्म-पुद्गल छे एवुं सर्वज्ञनुं वचन


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छे. एने परंपरा कारण शी रीते कहीए? विपाकने प्राप्त कर्मना फळपणे कहेवामां आवेला ते अध्यवसानादि भावो दुःखरूप छे. ते परंपरा मोक्षनुं (सुखनुं) कारण केम होय?

भगवान आत्मा त्रिकाळ अनाकुळ आनंदस्वभावथी वस्तु छे. अनाकुळ सुख आत्मानो स्वभाव छे. एवो जे सुख नामनो अतीन्द्रिय अनाकुळ आत्मस्वभाव छे तेनाथी पुण्य-पापना भाव विलक्षण छे, विरुद्ध लक्षणवाळा छे. सवारे कह्युं हतुं ने के सक्करकंद जेम साकरनी मीठाशनो पिंड छे तेम भगवान आत्मा ज्ञानथी जोईए तो ज्ञानमय छे अने सुखथी जोईए तो सुखमय छे. आत्मा शुद्ध चैतन्यमात्र वस्तु छे. तेमां अनाकुळ अतीन्द्रिय आनंद वसेलो छे. तेमां कांई पुण्य-पापना विकल्प वसेला नथी. ए पुण्य-पापना विकल्प, चाहे व्यवहार रत्नत्रयना विकल्प हो, चैतन्यथी विलक्षण एटले विरुद्ध लक्षणवाळा, आकुळता-लक्षणवाळा छे.

हवे कहे छे के ए आकुळतालक्षण अध्यवसान आदि भावो, पुण्य-पापना भावो दुःखमां ज समावेश पामे छे. आत्मा तो ज्ञानमय, श्रद्धामय, शान्तिमय, वीतरागतामय, अतीन्द्रिय आनंदमय छे. आत्मानो जे अनाकुळ आनंदमय स्वभाव छे तेनाथी विलक्षण पुण्य-पाप दुःखरूप छे. जे भाव दुःखरूप छे ते सुखनुं साधन केम थाय? ते साधन नथी पण (बाधक होवा छतां) साधन कहेवामां आवे छे. जेम मोक्षमार्ग बे प्रकारे नथी, मोक्षमार्गनुं निरूपण बे प्रकारे छे तेम साधन बे प्रकारे नथी पण एनुं निरूपण बे प्रकारे छे. निश्चय समक्ति थाय त्यारे साथे जे देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो राग होय तेने व्यवहार समक्ति कहे छे. खरेखर राग छे ते तो चारित्रनो दोष छे. देव-गुरु-शास्त्रनी, छ द्रव्यनी के नवतत्त्वनी जे श्रद्धा छे ए तो विकल्प छे, राग छे. परंतु निश्चय सम्यग्दर्शननो सहचर देखीने तेने समक्तिनो आरोप आप्यो छे. शुभभाव निश्चयथी तो झेर छे, पण निश्चय समक्तिनो सहचर जाणी तेने अमृतनो आरोप आप्यो छे. अहीं कहे छे के रागादि भावो सधळा आकुळतालक्षण दुःखमां ज समावेश पामे छे. तेथी खरेखर ते अजीव छे. जीव वस्तु तो ज्ञानानंदस्वभावी छे अने आ पुण्य-पाप आदि भावो एनाथी विलक्षण एटले विपरीत स्वभाववाळा दुःखस्वरूप छे, झेररूप छे. आगळ जतां तेने विषकुंभ कह्यो छे.

प्रश्नः– श्रीमद्मां आवे छे ने के-

‘निश्चय राखी लक्षमां, साधन करवां सोय.’

उत्तरः– साधन एटले? आ रागनी मंदता ए साधन? रागनी मंदता साधन छे ज नहि. ए रागादिनां साधन तो आकुळतालक्षण दुःखमां समावेश पामे छे एम अहीं कह्युं छे. श्रीमदे तो निश्चयना लक्षे साधननी वात कही छे. निश्चय साधन करवानी वात कही छे.


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भाई! भगवान त्रिलोकनाथ तीर्थंकरदेव एम कहे छे के मारी सामे जोतां तने राग थशे. ए राग छे ते दुःखमां समावेश पामे छे. भगवान आत्मा सच्चिदानंद प्रभु अनाकुळ आनंदस्वरूप छे. तेनी अपेक्षाए स्त्री आदि विषय तरफ लक्ष जाय, के भगवाननी वाणी उपर लक्ष जाय, ए बन्ने सरखां छे. स्त्री आदिना लक्षे अशुभ भाव थाय अने भगवाननी वाणीना लक्षे शुभभाव थाय. ए बन्नेनेय (समयसार गाथा ३१मां) इन्द्रिय कह्या छे. अने इन्द्रियोने जीतवानुं कह्युं छे. अर्थात् एमांथी खसी जवानुं कह्युं छे. एटले भगवानना आश्रये रहेवुं एम कह्युं नथी. भगवानना आश्रये तो शुभराग थशे अने ते शुभराग दुःखरूप ज छे. अहो! आवी हितनी वात दिगंबर जैनदर्शन सिवाय अन्यत्र कयांय नथी.

भगवान! तारो स्वभाव तो अनाकुळ आनंद छे ने! ते छोडीने तने जे रागनो विकल्प ऊठे, देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो जे विकल्प ऊठे ते आकुळतालक्षण दुःखरूप छे. पद्मनंदी स्वामीए पद्मनंदी पंचविंशतिमां चिदानंद चैतन्यस्वरूपमांथी बहार नीकळी जे बुद्धि शास्त्र भणवामां अटकी छे तेने व्यभिचारिणी बुद्धि कही छे. अहा! गजब वात छे! भाई! वस्तुनुं स्वरूप जेम छे तेम समजवुं पडशे.

श्री कुंदकुंदाचार्यदेव भगवान पासे आठ दिवस रह्या हता. भरतक्षेत्रमांथी ज्यां सीमंधर परमात्मा बिराजे छे त्यां विदेहक्षेत्रमां गया हता. ते भगवाननी आ वाणी छे. आ गाथामां ते पोते कहे छे के आ सर्वज्ञनुं वचन छे के शुभभावो पुद्गलथी उत्पन्न थयेला भावो छे, जीवद्रव्यथी उत्पन्न थयेला नथी. पुद्गलना निमित्ते उत्पन्न थयेला छे माटे ते पुद्गलमय ज छे. भगवान आत्मा अनाकुळ आनंदस्वरूप छे अने पुण्य छे ए तेनाथी विपरीत लक्षणवाळो भाव दुःखरूप छे; अनाकुळ आनंदस्वभावी आत्मामां एनो समावेश थतो नथी. पर्यायमां जे शुभराग छे, पुण्यभाव छे ते दुःख छे, तेथी निश्चयनयथी तेने आत्मस्वभाव साथे संबंध नथी. तथा स्वभावनो जे पर्यायमां अनुभव थाय ते निर्मळ निर्विकारी पर्याय साथे पण ते शुभरागनो संबंध नथी.

चिन्मात्र वस्तुनो जे अनाकुळ आनंद स्वभाव ते जेणे साध्यो छे तथा तेमां ज द्रष्टि, ज्ञान अने रमणता थतां जेने निराकुळ आनंदनो प्रगट स्वाद आव्यो छे तेवा धर्मी जीवना मंदरागना भावने (सहचर देखी) परंपरा कारण कह्युं छे. तेणे स्वभाव तरफनुं जोर करीने शुभना काळे अशुभभाव टाळ्‌यो छे. खरेखर तो स्वभावना जोरना कारणे अशुभ टळ्‌यो छे, पण तेने बदले शुभभावथी अशुभ टळ्‌यो एम आरोप करीने कह्युं छे. मिथ्याद्रष्टिने स्वभाव तरफनुं जोर ज नथी. तेथी तेने अशुभ टळ्‌यो ज नथी. तेथी तेने शुभभाव जे थाय छे ते शुभभाव उपर परंपरा कारणनो आरोप आपी शकातो नथी.


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सौथी मोटुं मिथ्यात्वनुं पाप छे. तेनो तेणे नाश कर्यो नथी. तेथी मिथ्याद्रष्टिना बधांय भावोने अशुभ कह्या छे.

हवे कहे छे ए रागादि भावो चैतन्य साथे संबंध होवानो भ्रम उपजावे छे तोपण, तेओ आत्माना स्वभावो नथी पण पुद्गलस्वभावो छे. जुओ, एककोर राम अने एककोर गाम. ‘निजपद रमे सो राम’. चिदानंद भगवान निजपद छे. तेमां रमतां रमतां जे आनंद आव्यो तेनो राग साथे संबंध छे ज नहि. (राम अने राग भिन्न छे). अज्ञानीने अनाकुळ आनंदमूर्ति आत्मा अने राग एकमेक छे एवो भ्रम उपजे छे, पण रागादि भावो चैतन्यना स्वभावमां छे ज नहि.

साधकने ज्ञानधारा अने रागधारा बन्ने साथे वर्ते छे. परंतु जे रागधारा छे ते पुद्गलना संबंधे उत्पन्न थयेली छे, स्वभावना संबंधे उत्पन्न थयेली नथी. अहीं एम कहेवुं छे के साधकने व्यवहाररत्नत्रयनो जे विकल्प छे ते दुःखमां समावेश पामे छे अने तेथी ते आत्मानो स्वभाव नथी. भाई, अनंत महिमावंत तारी चीज छे तेनी तने मोटप केम आवती नथी? रागथी लाभ थाय एम रागनी मोटप आवे छे पण ए तो भ्रम छे, मिथ्यात्व छे.

चैतन्य चिदानंद प्रभु तारो नाथ छे. नाथ एटले शुं? नाथ एटले निज चैतन्य- स्वभावनो आश्रय करतां जे शान्ति अने आनंदनी निर्मळ दशा प्रगटी तेनी रक्षा करनारो छे, तथा वर्तमानमां परिपूर्ण शान्ति अने परिपूर्ण आनंदनी दशा जे नथी प्रगटी तेने मेळवी आपनारो छे. तेथी आत्माने नाथ कहीए छीए. मळेलानी रक्षा करे अने नहि मळेलाने मेळवी आपे तेने नाथ कहेवाय छे. प्रगट शांति अने वीतरागतानी रक्षा करतां करतां क्रमशः पूर्ण वीतरागता अने केवळज्ञान मेळवी आपे एवो भगवान आत्मा नाथ छे. परंतु रागने राखे अने रागने मेळवी आपे एवुं आत्मानुं स्वरूप नथी.

सत्यने सत्यरूपे राखजे, भाई. श्रीमदे कह्युं छे के वस्तुने वस्तु तरीके राखजे, फेरफार करीश नहि. भगवान आत्मा ज्ञानानंदस्वभावी निराकुळ सुखस्वरूप छे. तेने तेमां राखजे. रागमां आत्मा आवी गयो एम न मानीश.

“सद्गुरु कहै सहजका धंधा, वादविवाद करे से अंधा.”

श्री बनारसीदासजीए आ पद समयसार नाटकमां लख्युं छे. शुद्ध आनंदघन प्रभु चैतन्यस्वरूप आत्मा अंदर बिराजे छे. तेनो आश्रय करतां सम्यग्दर्शन थाय एवो सहज स्वभाव छे. परंतु परना आश्रये त्रिकाळमां (त्रण काळमां) सम्यग्दर्शन न थाय.

समयसार, बंध अधिकारमां आवे छे के-परने जीवाडुं, मारुं, सुखी-दुःखी करुं, परना प्राणोनी रक्षा करुं, तेमने हणुं, परने सुखनां साधन आपुं, दुःखनां साधन आपुं इत्यादि जे अध्यवसाय छे ते अज्ञान छे, मिथ्यात्व छे. एवी मान्यतानो भगवाने निषेध